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गुरुवार, 27 नवंबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--095

सत्य कह कर भी नहीं कहा जा सकता—(प्रवचन—पिचानवां)

अध्याय 56

मान और अपमान के पार

जो जानता है, वह बोलता नहीं है;

जो बोलता है, वह जानता नहीं है।

इसके छिद्रों को भर दो, इसके द्वारों को बंद करो,

इसकी धारों को घिस दो, इसकी ग्रंथियों को निर्ग्रंथ करो,

इसके प्रकाश को धीमा करो, इसके शोरगुल को चुप करो;

-- यही रहस्यमयी एकता है।

तब प्रेम और घृणा उसे नहीं छू सकतीं।

लाभ और हानि उससे दूर रहती हैं।

मान और अपमान उसे प्रभावित नहीं कर सकते।

इसलिए वह सदा संसार से सम्मानित है।


"जो जानता है वह बोलता नहीं; और जो बोलता है वह जानता नहीं।'
यह तो बड़ी पहेली है। क्योंकि लाओत्से बोलता है। उपनिषद भी यही कहते हैं कि जो जानता है वह बोलता नहीं, जो बोलता है वह जानता नहीं। और उपनिषद भी बोलते हैं।
सुकरात भी यही कहता है। मैं भी यही कहता हूं, और रोज बोले चला जाता हूं। इस पहेली को ठीक से समझ लें, अन्यथा भूल होनी आसान है।
इसका क्या अर्थ है? क्या गूंगे जानते हैं, क्योंकि वे बोलते नहीं? और क्या बोलने वाले नहीं जानते, क्योंकि बुद्ध बोलते हैं, कृष्ण बोलते हैं, मोहम्मद बोलते हैं, जीसस बोलते हैं? तब तो गूंगे उनसे आगे पहुंच गए होंगे। और मजा यह है कि ये सब बोलने वाले यही कहते हैं कि वह गूंगे का गुड़ है, गूंगे केरी सरकरा! उसे जो खाता है वह चुप होता है, मुस्कुराता है, बोलता नहीं। फिर ये सारे लोग क्यों बोले चले जाते हैं?
यह बात तो बड़ी अतक्र्य मालूम होती है। अगर ये सही कहते हैं तो ये सही नहीं हो सकते। अगर ये सही हैं तो ये जो कहते हैं वह सही नहीं हो सकता। अगर लाओत्से को हम समझें कि इसने पा लिया है तो इसे चुप हो जाना चाहिए। और अगर हम समझें कि यह बोल रहा है तो जाहिर है कि इसने पाया नहीं है। अगर हम लाओत्से की ही मानें तो लाओत्से गलत हो जाता है। हम करें क्या?
नहीं, बोलने और न बोलने का जो अर्थ लाओत्से, उपनिषद और सुकरात का है वह हम समझ नहीं पाए। हमें उस न बोलने का पता ही नहीं है, जिसकी तरफ वे इशारा कर रहे हैं। हम तो जिस बोलने को और न बोलने को जानते हैं उसी को समझ रहे हैं। तुम बोलते हो दूसरे से। वहां तक तो ठीक है, क्योंकि दूसरे से बोले बिना कोई उपाय नहीं। शब्द दूसरे से जुड़ने का सेतु है, संवाद का मार्ग है। स्वाभाविक है। अगर यह भी लाओत्से को कहना हो कि जानने वाला नहीं बोलता तो भी शब्द में ही कहना पड़ेगा, बोल कर ही कहना पड़ेगा। असंगत होना पड़ेगा, क्योंकि कुछ भी नहीं कहा जा सकता बिना बोले। बोलने के विपरीत भी बोलना हो तो बोलना ही एक उपाय है।
लेकिन तुम जब अकेले हो तब तुम क्यों बोलते हो? दूसरे से जुड़ने का उपाय है शब्द, अपने से जुड़ने का नहीं। जब तुम अकेले बैठे हो तब भी तुम्हारे भीतर बोलना क्यों चलता रहता है?
वही बोलना रुक जाता है जानने वाले का। जो जान लेता है उसके भीतर बोली रुक जाती है--भीतर, याद रखना। वह भीतर नहीं बोलता। वह अपने से नहीं बोलता। अपने से बोलने का क्या अर्थ है? दूसरे से बोलने की तो सार्थकता है, अपने से बोलना तो विक्षिप्तता है। वह तो पागलपन का लक्षण है। लेकिन तुम खाली बैठे हो और अपने से बोले चले जाते हो; भीतर ही बात करते हो। अपने को ही दो हिस्सों में तोड़ लेते हो; एक बोलता है, एक जवाब देता है, एक पूछता है। सारा विचार विक्षिप्तता है।
जो जान लेता है वह नहीं बोलता, इसका अर्थ है कि वह विचार नहीं करता। जब वह अकेला है तो निश्चित ही बिलकुल अकेला है। उसका एकांत परिशुद्ध एकांत है। उस एकांत में कोई भी नहीं है; वही है। शब्द भी नहीं है; वहां परम मौन है। जब दूसरे के साथ है तो जरूरत हो तो बोलता है। जब अपने साथ है तो बोलना तो बिलकुल ही गैर-जरूरी है। अपने साथ तो बोलने की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ती। अपने साथ क्या बोलना है? कौन बोलेगा? कौन सुनेगा? वहां तो द्वैत नहीं है, वहां तो तुम अकेले हो।
लेकिन तुमने वहां भी द्वैत निर्मित कर लिया है। वहां भी तुम बंटे हो, खंड-खंड हो। तुम अपने भीतर बोलते हो, वह बताता है कि तुम खंडित हो, टूटे हुए हो। तुम एक नहीं हो, तुम अनेक हो।
जानने वाला एक हो जाता है। उसके भीतर कोई अनेकता नहीं है। वह किससे बोलेगा? उसके भीतर परम मौन है। उसका एकांत भरपूर है। उसके एकांत में रत्ती भर भी जगह नहीं है किसी और के लिए। और वह अपने भीतर एक है, इसलिए अपने को तोड़ नहीं सकता दो में कि बोले और सुने। खुद ही बोले, खुद ही सुने, खुद ही जवाब दे; ऐसे खंड उसके भीतर नहीं हैं। मौन उसकी सहज स्थिति है, जब वह अकेला है। जब वह दूसरे के साथ है तब जरूरत हो तो बोलता है। तब भी शर्त खयाल रखना, जरूरत हो तब बोलता है। अन्यथा वह दूसरे के साथ भी चुप होता है।
तुम दूसरे के साथ भी गैर-जरूरत बोलते हो। ऐसा लगता है, बोलना ही तुम्हारी जरूरत है। और कोई जरूरत के कारण तुम नहीं बोलते हो, बोलना तुम्हारी बेचैनी है। बोलना तुम्हारी कैथार्सिस, रेचन है। तुम बोलते हो तो व्यस्त मालूम होते हो। तुम बोलने के लिए बोलते हो। तुम कुछ कहने के लिए नहीं बोलते हो। तुम बस बोलते हो, ताकि बोलने से दूसरे से संबंध जुड़ा रहे, और तुम अकेले न छूट जाओ। क्योंकि दूसरे से संबंध जुड़े रहने का एक ही ढंग है: बोलना। अगर दूसरा आदमी मौजूद हो और तुम न बोलो तो तुम दूसरे की मौजूदगी में भी अकेले हो जाओगे। इस अकेलेपन से बचने के लिए तुम बोलते हो।
इसलिए तो तुम अकेले में भी बोलते हो। क्योंकि वहां भी अकेलेपन से बचने का एक ही उपाय है कि तुम बोले चले जाओ। अपने को ही दो हिस्सों में कर लो। एक नाटक चलाओ। खुद ही बोलो, खुद ही सुनो। वहां अभिनेता भी तुम्हीं हो, वहां दिग्दर्शक भी तुम्हीं हो, वहां कथा-लेखक भी तुम्हीं हो, वहां दर्शक भी तुम्हीं हो। वहां पूरी कहानी के पात्र, निर्माता, देखने वाले, सभी तुम्हीं हो। तुम्हारा अंतस्तल एक ड्रामा बन जाता है, एक आंतरिक नाटय बन जाता है। और तब तुम अकेले नहीं मालूम होते। तब तुमने एक झूठ पैदा कर लिया। उस झूठ के कारण तुम अपने से बच जाते हो। तुम्हारा बोलना अपने से बचने का एक उपाय है। तुम्हारे बोलने में कोई सार्थकता नहीं है। तुम्हारा बोलना एक रुग्ण प्रतीक है कि तुम चुप नहीं हो सकते इसलिए बोलते हो। बोलना किसी कारण से नहीं है। इसीलिए तो तुम्हारे बोलने से कुछ सार नहीं निकलता; दूसरा सिर्फ ऊबता है, परेशान होता है।
लेकिन तुम कहोगे कि फिर उसे सुनने की क्या जरूरत है अगर वह ऊबता है?
ऊबना भी बेहतर है, परेशान होना भी बेहतर है; अकेले होना उसको भी मुश्किल है। वह सुनता है। फिर सुनने में भी उसका भीतरी कारण यह है कि कभी तो तुम चुप होओगे और उसको भी बोलने का मौका दोगे। वह एक साझेदारी है, वह एक पारस्परिक सहयोग है एक-दूसरे के रेचन के लिए।
इसलिए तो जो आदमी तुम्हें बोलने का मौका न दे उस पर तुम बहुत नाराज हो जाते हो; तुम कहते हो कि बहुत बोर है, बड़ा उबाने वाला है। उबाने वाला का मतलब क्या है?
उबाने वाले का इतना ही मतलब है कि तुम्हें वह मौका नहीं देता। तुम भी उसे उबा लो उतना जितना वह तुम्हें उबाता है, सौदा पूरा हो गया, निबटारा हो गया। फिर तुम उस पर नाराज नहीं हो। और जो आदमी तुम्हारी चुपचाप सुनता है, और जितना तुम चाहो उसे उबाना तुम्हें उबाने देता है, तुम कहते हो, बड़ा गजब का आदमी है, बड़ा भला आदमी है, सज्जन है, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, उससे वार्तालाप में बड़ा मजा आता है। वार्तालाप का तुम उसे मौका ही नहीं देते, तुम्हीं बोलते हो। लेकिन इसको तुम वार्तालाप कहते हो।
तुम्हारा बोलना एक आंतरिक रोग है। तुम्हारे भीतर इतने विचार चल रहे हैं कि तुम उन्हें अगर बाहर न फेंक सके तो तुम पगला जाओगे। तुम दूसरे का उपयोग कर रहे हो एक कचरे की टोकरी की भांति। तुम उसमें डाल रहे हो। अगर यह दूसरा न होगा तो तुम अपने को ही दो हिस्सों में तोड़ लोगे और एक नाटक शुरू कर दोगे। तुमने पागलों को देखा है? बैठ कर वे बातें करते रहते हैं। तुम धीरे-धीरे करते हो, वे जरा जोर से करते हैं। तुम भीतर-भीतर करते हो, ओंठ के भीतर-भीतर करते हो। हालांकि तुम्हारे भी ओंठ थोड़े से कंपते हैं, और कोई अगर सूक्ष्म निरीक्षण करे तो पहचान सकता है कि तुम भीतर बात कर रहे हो कि नहीं। क्योंकि थोड़ा सा तुम्हारा ओंठ खबर देता है। पागल जोर से बोलने लगता है।
पागल और तुममें सिर्फ मात्रा का भेद है। तुम निन्यानबे डिग्री हो, वह एक सौ एक डिग्री, बस। वह सौ की सीमा पार कर गया। अब उसने फिक्र छोड़ दी दुनिया की। अब वह अपने भीतर के जगत में ही पूरा रहता है। अब उसके मित्र, संगी, साथी, प्रेमी, प्रेयसी, दुश्मन, सब उसके भीतर ही हैं। अब वह उनको खुद ही बनाता है, दिल खोल कर बात करता है, खुद ही मिटाता है। पागल का अर्थ यह है: जिसने बाहर के वस्तुगत संसार को बिलकुल भुला दिया और जिसने एक भीतरी संसार खड़ा कर लिया जो उसका अपना ही निर्मित है। पागल बड़ा स्रष्टा है।
इसलिए अक्सर तो कवि और दार्शनिक पागल हो जाते हैं। क्योंकि वे भी स्रष्टा हैं; शब्दों के, विचारों के, सिद्धांतों के, कल्पनाओं के जाल को बुनने में कुशल हैं। बुनते-बुनते एक घड़ी आ जाती है जब कि उन्हें अपना जाल ही सच मालूम होने लगता है। तब तुम फीके पड़ जाते हो, तुम बड़े दूर मालूम पड़ते हो। तुम झूठे लगने लगते हो, तुम असत्य हो जाते हो। उनके शब्दों का जाल इतना सघन हो जाता है, और उनके ही प्राणों से चूस-चूस कर वे शब्द और कल्पनाएं बड़ी यथार्थ हो जाती हैं। तब वह अपने यथार्थ में जीने लगता है। उसका अपना निजी यथार्थ है, प्राइवेट ट्रुथ, उसका अपना सत्य है। वह किसी सार्वजनिक सत्य में विश्वास नहीं करता। तुम्हें न दिखाई पड़ रहा हो उसका मित्र, वह किससे बात कर रहा है, उसे दिखाई पड़ रहा है। तुमसे प्रयोजन भी नहीं है। तुम्हें नहीं दिखाई पड़ रहा है तो तुम कहीं भूल में हो। उसने अपना निजी सत्य बना लिया है।
इस बात को ठीक से समझ लो। सत्य तो सार्वभौमिक है, कभी निजी नहीं। और जब भी तुम्हें ऐसी भ्रांति हो कि निजी है तभी समझ लेना कि पागलपन के करीब हो। निजी तो सपने होते हैं। सत्य तो सार्वभौम है, युनिवर्सल है। सत्य तो सभी का है। सपने भर निजी होते हैं।
इसलिए तुम्हारे सपने में दूसरे का कोई हाथ नहीं है। तुम्हारा सपना बस बिलकुल तुम्हारा अपना है। तुम दूसरे को अपना सपना दिखा भी नहीं सकते। तुम अपने प्रियतम को भी, अपनी पत्नी को, अपने पति को, अपने निकटतम आत्मीय मित्र को भी अपने सपने में निमंत्रित नहीं कर सकते कि आना आज रात, आज एक बड़ा सुंदर सपना देखने जा रहा हूं। तुम भी देख लेना। मैं बांटना चाहूंगा; ऐसा सुंदर है, अकेले लूटता हूं तो अपराधी लगता हूं। नहीं, तुम किसी को निमंत्रित न कर सकोगे। किसी का उपाय नहीं है। सपना बिलकुल निजी है।
पागल का क्या लक्षण है? उसका सारा संसार निजी है। उसने सारे संसार को सपने जैसा कर लिया। अब वह खुली आंखों से सपना देख रहा है। मजे से बात करता है, जो चाहे बात करता है। चाहे अपने को सम्राट मान ले, क्योंकि उसके सपने के जो चाकर हैं वे फौरन गुलाम बनने को तैयार हैं। उसका ही सपना है, कोई बाधा नहीं है। तो पागल अपने को सम्राट समझ लेता है। भिखमंगा हो तो भी तुम उसे समझा नहीं सकते कि तुम भिखमंगे हो, कैसे तुमने सम्राट समझ लिया! वह कोई न कोई रास्ता निकाल लेगा अपने को समझाने का।
सपना होता है निजी और सत्य होता है सार्वभौम। ये कसौटियां हैं। जितने तुम सत्य के करीब पहुंचोगे उतना ही तुम दूसरे को भागीदार बना सकते हो। इसलिए तो बुद्ध, महावीर, कृष्ण, लाओत्से हजारों लोगों को भागीदार बना लेते हैं; हजारों लोगों को उस चीज के निकट ले आते हैं जो उन्हें दिखाई पड़ रही है। और हजारों लोगों को भी वह चीज दिखाई पड़ जाती है। अगर यह सपना हो तो इसमें कोई भागीदार नहीं हो सकता।
इसलिए तुमने कभी कवियों के अनुयायी न देखे होंगे। कवियों का कोई अनुयायी नहीं हो सकता। कैसे होगा? क्योंकि कवि का जो सत्य है वह सपने जैसा है। कवि ने जो जाना है वह उसकी कल्पना है। वह तुम्हें बुला कर दिखा नहीं सकता कि आओ, तुम भी देख लो। कवि बिलकुल असहाय है उस संबंध में।
कवि और ऋषि का यही फर्क है। ऋषि उस सत्य की बात कर रहा है जो है, जो उसने अपनी सारी कल्पनाओं को हटा कर जाना है। इसलिए सारी चेष्टा यही है साधक की कि कल्पनाएं हट जाएं, और वह प्रकट हो जाए जो है, उसे जान लूं जो है अपने आप में, मेरी कल्पनाओं के कारण नहीं। मेरे प्रत्यय, मेरी धारणाएं, मेरे विचार, सब हट जाएं, ताकि निर्मल सत्य का उदय हो सके, सार्वभौम सत्य का।
तुम बोले चले जा रहे हो--अकेले हो तो, नहीं अकेले हो तो। ज्ञानी ऐसा नहीं बोलता। ज्ञानी अपने अकेले में तो बोलता ही नहीं। अपने अकेले में तो वह शून्य मंदिर की भांति होता है, जहां गहन सन्नाटा है, जहां निबिड़ मौन है, जहां विचार की एक तरंग भी नहीं आती। झील बिलकुल बिलकुल शांत है, जहां एक शब्द नहीं उठता, एक ध्वनि नहीं उठती। अपने अकेले में तो बोलना बिलकुल निष्प्रयोजन है। तो ज्ञानी चुप है अपने एकांत में। और जब वह दूसरे से भी बोलता है तब भी उसका बोलना रेचन नहीं है। बोलना उसकी बीमारी नहीं है। चुप होने में वह कुशल है। बोलना उसकी आवश्यकता नहीं है। वह अगर दो-चार साल न बोले तो कोई परेशानी नहीं होगी। वह वैसा ही होगा जैसा बोलता था तब था। शायद बोलने में थोड़ी परेशानी हो, मौन में उसे कोई परेशानी न होगी। बोलने में परेशानी होती है। क्योंकि उसे उन सत्यों के लिए शब्द खोजने पड़ते हैं, जिनके लिए कोई शब्द नहीं। उसे उन अनुभूतियों को बांधना पड़ता है रूप में, आकार में, जो निराकार की हैं। उसकी कठिनता बड़ी गहन है। और सब कुछ करके भी उसे पता चलता है कि वह जो कहना चाहता था वह तो नहीं कह पाया। शब्दों का कितना ही मालिक हो वह, कितना ही धनी हो शब्दों का, विचार उसके कितने ही साफ, निखरे हुए हों, तो भी जब वह सत्य को कहता है तो पाता है, सब धूमिल हो गया, बात कुछ बनी नहीं। इसीलिए तो बार-बार कहता है।
तुम मुझसे पूछते हो कि मैं रोज तुमसे कहे चला जाता हूं! इसीलिए तो बार-बार कहता हूं। इस कोने से हार जाता हूं, उस कोने से कहता हूं। इस दिशा से नहीं सफल हो पाता, दूसरी दिशा खोज लेता हूं। और जब तक तुम न हार जाओगे तब तक मैं हारने वाला नहीं हूं। जहां से भी तुम राह दोगे वहीं से।
यह बात ही ऐसी है कि इसे कहा नहीं जा सकता, और यह बात ही ऐसी है कि इसे बिना कहे नहीं रहा जा सकता। नहीं कहा जा सकता, यह बात का स्वरूप ऐसा है। क्योंकि मौन में उपलब्ध होती है, परम शून्य में इसकी प्रतीति होती है। इसका साक्षात ही वहां होता है जहां एक भी विचार गवाही नहीं होता। फिर विचार से गवाही दिलवानी है जो वहां मौजूद न था। तो अड़चन तुम समझ सकते हो। फिर मन को लाना है बीच में, जिसके पार घटना घटी। तो मन बेचारा कहता है कि मैं करूं क्या, मुझे कुछ पता नहीं है। जिसको पता है वह बोल नहीं सकता है। और मन मौजूद न था, उसे बोलना है। और मन को फुसला-फुसला कर राजी करना है कि तू बोल दे। हर बार असफलता होनी है। इसलिए ज्ञानियों की--समस्त ज्ञानियों की--धारणाओं में कितना ही भेद हो, उन्होंने कितने ही भिन्न ढंग से अपने विचार कहे हों, बड़े विपरीत उपाय खोजे हों, लेकिन हर ज्ञानी की आखिरी गवाही यही है कि कहा नहीं जा सकता कह-कह कर भी।
बुद्ध चालीस वर्ष बोलते ही रहे, सतत बोलते रहे। और आखिर में वे यही कहते हैं कि अपने दीए खुद हो जाओ। तुम जानोगे तभी जानोगे; दूसरे के बताए न बनेगी बात।
तो एक तो सत्य का स्वभाव ऐसा है कि वह शून्य में उपलब्ध होता है जहां मन की कोई छाया भी नहीं पहुंच सकती। और जिसने जाना ही नहीं वह बेचारा मन करे भी क्या? उसका कोई कसूर भी नहीं है। जाना मैंने, गवाही तुमसे दिलवाता हूं। तुम भीतर न गए थे, भीतर मैं गया था। तुम बाहर द्वार पर खड़े रहे थे, भीतर क्या हुआ तुम्हें कुछ पता नहीं है। मैं द्वार पर वापस लौट कर तुमसे कहता हूं कि कहो कि ऐसा-ऐसा जाना। मन सकुचाता है।
इसलिए ज्ञानी हमेशा सकुचाता है। अज्ञानी बिना सकुचाए बोलते हैं, चिल्ला कर बोलते हैं, मकानों के छप्परों पर चढ़ कर बोलते हैं। ज्ञानी सकुचाता है, झिझकता है, एक-एक कदम सम्हाल कर रखता है। क्योंकि उसे पक्का ही पता है कि सब सम्हाल कर कहने पर भी गलती हो जाती है। शब्द उसे नहीं कह पाते।
इसलिए कहा नहीं जा सकता और बिना कहे नहीं रहा जा सकता। क्योंकि जो जाना है उसके अनुभव में ही उसे बांटने की बात भी छिपी है। आनंद का स्वभाव है कि वह बंटना चाहता है। दुख का स्वभाव है कि वह सिकुड़ना चाहता है। जब तुम दुखी होते हो तो द्वार-दरवाजे बंद करके अपने बिस्तर में पड़े रहते हो, ओढ़ लेते हो रजाई, छिप जाते हो, चाहते हो कोई मिलने न आए। कोई मिलने भी आए तो कहते हैं, फिर कभी आना, अभी मिलना न हो सकेगा। अपने निकटतम, प्रियतम व्यक्ति से भी तुम कुछ कहना नहीं चाहते। दुख सिकोड़ता है।
इसलिए दुख की आखिरी अवस्था में लोग आत्मघात कर लेते हैं। आत्मघात का मतलब है बिलकुल सिकुड़ जाना, सब संबंध तोड़ लेना। अब इतना भी नहीं संबंध जोड़ना है जरा सा कि जीवन का भी संबंध रहे। जीएंगे तो कुछ संबंध रहेगा ही; श्वास चलेगी तो कुछ संबंध रहेगा ही। आत्मघात का इतना ही अर्थ है कि दुख का इतना प्रगाढ़ संघात हुआ है कि अब आदमी कहता है, मैं पूरा सिकुड़ जाता हूं, मैं जीवन से विदा हो जाता हूं। अब मैं महान अंधकार में खो जाना चाहता हूं; अब रोशनी में खड़ा नहीं रहना चाहता। क्योंकि रोशनी में तो बांटूंगा; कुछ न कुछ संबंध होगा।
आनंद ठीक विपरीत है। जब तुम आनंद से भरते हो तब तुम बांटना चाहते हो। तब तुम किसी को निमंत्रण करना चाहते हो। तब तुम उत्सव मनाना चाहते हो। तब तुम चाहते हो, जो तुम्हारे हैं, जिनके साथ तुम जीए हो, बढ़े हो, खेले हो, जो अभी भटक रहे हैं अंधेरे में, उनको भी खबर मिल जाए कि तुम्हें मिल गया है। तुम सारी दुनिया को जगा देना चाहते हो। तुम एक प्रगाढ़ करुणा से भर जाते हो कि जो तुमने पाया है वह सभी को मिल जाए।
आनंद का स्वभाव बंटना है, विस्तार है। इसलिए हमने ब्रह्म को सच्चिदानंद कहा है। उसके आनंद को हमने उसमें एक अपरिहार्य अंग माना है। क्यों? और उसको ब्रह्म भी कहा है। ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है: जो विस्तीर्ण होता जाए, फैलता जाए, फैलता जाए; जिसके फैलाव का कोई अंत न हो, जिसकी कोई सीमा न आती हो।
अभी वैज्ञानिक इस सत्य पर पहुंचे हैं कि अस्तित्व फैल रहा है। एक्सपैंडिंग युनिवर्स। इसके पहले ऐसा खयाल था पश्चिम में कि अस्तित्व की कोई सीमा है। लेकिन अब पता चला है कि अस्तित्व फैल रहा है। लेकिन हिंदू इसे सदियों से कहते रहे हैं। उनके ब्रह्म शब्द में ही यह बात छिपी है। ब्रह्म वहीं से आता है, उसी धातु से, जहां से विस्तार। ब्रह्म का अर्थ है: फैलता जाता है जो, जिसके फैलाव की कोई सीमा नहीं, जो रुकता ही नहीं, फैलता ही जाता है। उसका ही अनिवार्य अंग है आनंद। सत्य, चैतन्य और आनंद--ये तीनों फैलने वाले तत्व हैं। इसलिए हमने इनको ब्रह्म कहा है, और ब्रह्म का स्वभाव कहा है। और जब कोई व्यक्ति अपनी गहन आत्मा में उतरता है और उस द्वार को खोल लेता है जो स्वयं के भीतर ही छिपा था, जब कोई मन के पार जाता है, विचार दूर छूट जाते हैं, बहुत दूर, जैसे अपने न रहे, और कोई अपने केंद्र को छू लेता है, उसी क्षण उस महा विस्तार से एक हो जाता है। फिर वह भी फैलना चाहता है। फिर वह भी बंटना चाहता है।
जीवन का स्वभाव फैलाव का है। एक बीज तुम बोते हो छोटा सा, एक विराट वृक्ष पैदा होता है। कितना फैल गया! इसी को हम ब्रह्म कहते हैं। फिर एक बीज बोया था, एक बड़ा वृक्ष लगा, और वृक्ष पर कितने अरबों-खरबों बीज लगते हैं! अब तुम एक-एक बीज को फिर बो दो, अरबों-खरबों वृक्ष होंगे और हर वृक्ष पर अरबों-खरबों बीज लगेंगे। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक बीज पूरी पृथ्वी को हरा कर सकता है, एक बीज पूरी पृथ्वी को जंगलों से ढंक दे सकता है। एक बीज की इतनी क्षमता! यही अस्तित्व का लक्षण है: फैलते जाना, फैलते जाना, फैलते जाना। कहां रुकेगा यह बीज? कहीं नहीं रुकने वाला है। इसका कोई रुकना नहीं है।
आनंद आखिरी बीज है जीवन का। उससे ऊपर कुछ नहीं है। उसके पार कुछ नहीं है। उसका फैलना कहीं रुकता नहीं। इसलिए जिन्होंने जाना है, वे बोल नहीं सकते और बिना बोले नहीं रह सकते। यह पहेली है। बोलेंगे ही, और बोल-बोल कर बार-बार कहेंगे कि जो जानता है वह बोल नहीं सकता, वह कह नहीं सकता। यह शर्त भी बता देंगे कि तुम कहीं उनके शब्दों को न पकड़ लो। क्योंकि शब्दों को पकड़ा कि तुम चूक गए।
जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मेरे शब्दों में नहीं है। जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं वह मेरे शब्दों से तुम्हें नहीं मिलेगा। तुम मेरे शब्दों को पकड़ कर रुक गए तो तुम वह न जान पाए जो मैं कहना चाहता था। शब्द तो इंगित थे, इशारे थे। उनके पार जाना जरूरी था। तुम मेरे शब्दों को सुनना, लेकिन उन पर रुक मत जाना। क्योंकि शब्द सत्य नहीं हैं। तुम शब्दों को सुनना और शब्द के पार देखना। शब्द को समझना और शब्द के पार उठना। मैं जो कहूं उसे सुनना और मैं जो हूं उसे देखना। अंततः तो दर्शन ही काम आएगा, श्रवण काम नहीं आएगा। श्रवण केवल दर्शन के योग्य बना दे, बस काफी है। तुम सुन-सुन कर इस योग्य हो जाओ कि देखने की कला और कुशलता आ जाए।
इसलिए तो हम ज्ञानी को द्रष्टा कहते हैं, श्रोता नहीं। सुन-सुन कर तो कोई ज्ञानी नहीं होता; देख कर कोई ज्ञानी होता है। इसलिए द्रष्टा कहते हैं। इसीलिए तो हम उसे आंख वाला कहते हैं। इसीलिए तो हम इस सत्य की पूरी खोज को दर्शन कहते हैं। सुन कर तुम इस योग्य हो जाओ कि देखने की कला आ जाए। कान पर पड़ती चोट तुम्हारी आंख को खोल दे। और जैसे साधारणतया शरीर की आंख और कान जुड़े हैं--इसीलिए तो आंख का, कान का और नाक का एक ही विशेषज्ञ होता है, क्योंकि वे शरीर में भी जुड़े हैं, उनके तीनों का केंद्र एक है--और ऐसे ही वे चेतना में भी जुड़े हैं। कान पर चोट कर-कर के सारी कोशिश यह है कि तुम्हारी आंख खुल जाए।
कोई आदमी सो रहा है, तुम क्या करते हो? क्या तुम उसकी आंख खोलते हो? तुम कान पर चोट करते हो कि उठो! जागो! कभी तुम्हें किसी को सोते से जगाने के लिए पलकें खोलनी पड़ती हैं? कान पर करते हो चोट, पलकें खुलती हैं। बस वही ज्ञानी भी कर रहा है। कान पर करता है चोट कि पलकें खुल जाएं। सोए हो तुम, जगाता है। और पलकें खोलना सीधा थोड़ा आक्रामक होगा। सीधे किसी सोए आदमी की पलकें खोल दो, नाराज हो जाएगा, क्रोध से भर जाएगा, लड़ने-मारने को उतारू हो जाएगा कि यह तुमने क्या किया! कान पर चोट करने से आहिस्ता-आहिस्ता आंख पर चोट पड़ती है। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे एक माधुर्य के साथ आंखें खुल जाती हैं। इसलिए ज्ञानी को बोलना पड़ता है। और ज्ञानी भलीभांति जानता है कि बोल कर बोलने का कोई उपाय नहीं है। तो बोलना एक विधि है। सत्य उससे न मिलेगा। सत्य तो आंख से ही दिखेगा; तुम्हारे ही अनुभव से मिलेगा।
इसलिए निरंतर यह शर्त कही गई है कि जो जानता है वह बोलता नहीं, जो बोलता है वह जानता नहीं। पंडित सिर्फ बोलता है। वह तुम्हारे कानों को भरता है। ज्ञानी बोलता भी है तो तुम्हारी आंखों को ही खोलने के लिए। लक्ष्य अलग-अलग हैं। पंडित बोलता है तो तुम्हारे ज्ञान को बढ़ाता है, ज्ञानी बोलता है तो तुम्हारे अस्तित्व को बढ़ाता है, तुम्हारे ज्ञान को नहीं। ज्ञान तो कचरा है। ज्ञान तो जूठन है। ज्ञान तो बासा है। और परमात्मा सदा ताजा है। तुम उसे जूठन की तरह न पाओगे। तुम उसे सदा ताजी अनुभूति की तरह पाओगे।
जब तुम उसे पाओगे तब तुम जानोगे कि ज्ञानियों ने जो भी कहा, इससे इसका कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन जब तुम जानोगे तब! तब तुम पाओगे कि ज्ञानी तुतला रहे थे और जो कहना चाह रहे थे वह कह नहीं पा रहे थे। सभी ज्ञानी तुतला रहे हैं। और एक अर्थ में यह सही भी है। क्योंकि ज्ञानी का अर्थ ही है: जिसका नया जन्म हुआ। जैसे छोटे बच्चे तुतलाते हैं; कुछ कहना चाहते हैं, कुछ निकलता है। और तुम कुछ समझ ही नहीं पाते कि वे क्या कह रहे हैं। वे काफी कहें भी तो भी कुछ पकड़ में नहीं आता।
तुम फिर क्या करते हो? एक मां क्या करती है छोटे बच्चे के साथ? जब वह कुछ-कुछ कहता है तो वह इसकी फिक्र नहीं करती कि वह क्या कह रहा है, वह यह समझने की कोशिश करती है कि उसका इशारा क्या है--भूख लगी है? प्यास लगी है? वह उसका इशारा समझने की कोशिश करती है। वह पानी नहीं कहता, वह कहता है पम्मा। वह पानी कह नहीं सकता अभी। वह प्यास लगी है, यह कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन मां उसकी समझ लेती है कि वह क्या कह रहा है। वह जो कह रहा है उससे नहीं समझती, वह जो उस दशा में प्रकट कर रहा है उससे समझती है। धीरे-धीरे शब्दों की जरूरत नहीं रह जाती। धीरे-धीरे मां उसका इशारा समझने लगती है।
ज्ञानी भी फिर से हो गए बच्चे हैं। वे किसी और ही प्यास और किसी और ही पानी और किसी और ही परमात्मा की बात कर रहे हैं। उन्होंने फिर तुतलाना शुरू कर दिया है। और पहले बचपन का तुतलाना था, वह तो किसी दिन ठीक भी हो जाता है। क्योंकि वह बचपन आता है और चला जाता है। यह बचपन न जाने वाला बचपन है। यह अब सदा रहेगा। इससे ऊपर उठने का कोई उपाय नहीं है। ज्ञानी तुतलाते ही रहेंगे। वे जो भी कहेंगे वह हमेशा इशारा ही होगा; इससे ज्यादा नहीं हो सकता। क्योंकि ज्ञानी ने अब उस निर्दोष बालपन को पा लिया जो सदा रहेगा, जो शाश्वत है। इस तुतलाहट के ऊपर उठने का कोई उपाय नहीं है।
तो तुम ज्ञानी का इशारा समझना। ज्ञानी क्या कहता है, यह कम फिक्र करना; ज्ञानी क्या है, इसकी तुम ज्यादा फिक्र करना। इसीलिए तो श्रद्धा का इतना मूल्य है। क्योंकि अगर तुम श्रद्धा से न सुन पाओगे तो तुम कहोगे, यह सब बकवास है। क्योंकि तुम्हारी कुछ समझ में नहीं आएगा। जो समझ में न आए वह बकवास है। छोटे बच्चे की मां तो समझ लेती है, लेकिन इस छोटे बच्चे को दूसरा आदमी अगर बिठा दो तो वह परेशान हो जाएगा। वह कहेगा, हटाओ इस उपद्रव को! यह क्या बक रहा है, कुछ पता भी नहीं चलता। क्योंकि मां का तो प्रेम है इसलिए वह समझने की कोशिश करती है। इसका कोई प्रेम तो है नहीं। वह यह कहेगा कि जो कहना है ठीक से बोल, नहीं बोल सकता है, चुप बैठ।
तो जब तक गुरु से कोई प्रेम का संबंध न जुड़ जाए, जब तक कोई ऐसा हृदय का नाता न हो जाए कि वह जो भी कह रहा है उसे समझने की एक आतुरता हो, एक तैयारी हो, एक त्वरा, तीव्रता हो, तो ही तुम समझ पाओगे। अन्यथा वह बकवास मालूम पड़ेगी। अनेक समझदारों ने बुद्धों को बकवासी समझ कर छोड़ दिया है। क्योंकि लगता है कि बातचीत ही करते हैं। क्या कहना चाहते हैं, कुछ साफ नहीं है। खुद को भी साफ नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि कहते हैं, ज्ञानी बोलता नहीं है।
इसको मैं तुतलाहट कहता हूं। यह उस शाश्वत बालपन का हिस्सा है, उस निर्दोषता का, जो ज्ञानी को उपलब्ध होती है। उसका पुनर्जन्म हुआ है। श्रद्धा से तुम सुनोगे--श्रद्धा से सुनने का अर्थ है हृदय से सुनना। शब्दों पर बहुत जोर नहीं देना, उनका बहुत मूल्य नहीं है। तर्क और विचार से नहीं, वरन एक लगाव से, एक लगाव से कि शायद कुछ हो। खोज की तैयारी से, आतुरता से। जब तुम ज्ञानी के साथ श्रद्धा से जुड़ोगे तभी तुम थोड़ा-बहुत समझ पाओगे। और तब तुम यह भी समझ लोगे कि इस आदमी की कठिनाई क्या है। यह ऐसी कुछ बात कहना चाहता है जो कही नहीं जा सकती। तब तुम यह भी समझ पाओगे कि इस आदमी की करुणा कैसी है कि उस बात को भी कहने की कोशिश करता है जो कही नहीं जा सकती। लेकिन इसकी करुणा के कारण रुक भी नहीं सकता, बिना कहे रह भी नहीं सकता।
"जो जानता है वह बोलता नहीं; जो बोलता है वह जानता नहीं।'
इसका एक और अर्थ है, वह भी खयाल में ले लेना। इसकी एक और भाव-भंगिमा है। जो जाना जाता है, जो सत्य, जो अनुभव, जो प्रतीति, वह नहीं कही जा सकती; लेकिन कैसे जानी जाती है वह प्रतीति, वह कहा जा सकता है। इसलिए ज्ञानी विधियों की बात करते हैं। मंजिल की बात नहीं करते, मार्ग की बात करते हैं। साध्य की बात नहीं करते, साधन की बात करते हैं। और पंडित हमेशा मंजिल की बात करते हैं। तुम उससे फर्क समझ लोगे। पंडित हमेशा ब्रह्म की चर्चा करेगा; ज्ञानी ध्यान की। पंडित तर्क जुटाएगा और सिद्ध करेगा कि ईश्वर है, क्यों ईश्वर को मानो। ज्ञानी न कोई तर्क जुटाएगा, न ईश्वर की बहुत चर्चा करेगा। प्रासंगिक बात और, अन्यथा सीधा ईश्वर से कुछ लेना-देना नहीं है। ज्ञानी चर्चा करेगा उस विधि की कि कैसे ईश्वर जाना जाता है, किस मार्ग से मिलती है झलक, किस द्वार से होती है प्रतीति, कैसे तुम उठाओ पैर कि पहुंच जाओ वहां। पंडित तर्क देता है, प्रमाण देता है। ज्ञानी विधि देता है; न तर्क देता, न प्रमाण देता। और विधि से अनुभव होगा।
बुद्ध ने कहा है, मैं तो वैद्य की भांति हूं, मैं तुम्हें औषधि देता हूं कि तुम्हारी बीमारी हट जाए। स्वास्थ्य की व्याख्या कैसे करूं? औषधि देता हूं, बीमारी मिटा दूंगा। स्वास्थ्य तुम जान लेना। तुम आज पूछो कि स्वास्थ्य कैसा होगा? मैं तुम्हें कैसे समझाऊं! स्वास्थ्य की कोई भी तो परिभाषा नहीं है।
सब परिभाषाएं बीमारियों की हैं। दुख की परिभाषा हो सकती है, आनंद की कोई परिभाषा नहीं। क्योंकि दुख की सीमा है, आनंद की कोई सीमा नहीं। दुख छोटा है, क्षुद्र है; परिभाषा से बंध जाता है। आनंद विराट है, विस्तीर्ण है; सब परिभाषाएं छोटी पड़ जाती हैं, आनंद बहता चला जाता है, आगे निकल जाता है। परिभाषा का अर्थ है: जिसको बांधा जा सके शब्द के धागे से।
तो बुद्ध कहते हैं, मैं स्वास्थ्य की बात ही न करूंगा, और तुम मुझसे स्वास्थ्य की बात पूछना ही मत। मैं तो एक वैद्य हूं, निदान कर दूंगा बीमारी का, औषधि का इंतजाम कर दूंगा। तुम औषधि लेने की तैयारी दिखाना, बस इतना काफी है। बीमारी जब मिट जाएगी तो जो शेष रहेगा वही स्वास्थ्य है। जब तुम मिट जाओगे तो जो शेष रहेगा वही परमात्मा है। प्रमाण कहां हो सकता है?
और तुम जो मांग रहे हो प्रमाण, तुम्हीं बाधा हो, तुम्हीं उपद्रव हो, जिसके कारण परमात्मा की प्रतीति नहीं हो रही। तुम खोज रहे हो परमात्मा को, और तुम्हीं अवरोध हो। और तुम पूछते हो कि तर्क, सिद्ध करो, प्रमाण दो, तब मैं आगे बढूंगा। तुम्हारे आगे बढ़ने की जरूरत ही नहीं है। सब तर्क, सब प्रमाण तुम्हारे अहंकार को ही परिपोषित करेंगे। और अहंकार को खोए बिना कौन कब उसे जानता है?
ज्ञानी नहीं देता तर्क, नहीं देता प्रमाण, ज्ञानी तो संक्रामक है। ज्ञानी को तो स्वास्थ्य लग गया, जैसे तुम्हें बीमारी लग गई। ज्ञानी संक्रामक है, स्वास्थ्य देता है। लेकिन स्वास्थ्य को देने का और तो कोई उपाय नहीं। बीमारी काटो, बीमारी हटाओ, मिटाओ; स्वास्थ्य बच रहता है।
जो सदा बच रहता है सब हट जाने पर, वही परमात्मा है। जब तुम नहीं हो, विचार नहीं है, मन नहीं है, भाव नहीं है, शून्य निर्मित हो गया, भीतर कोई भी नहीं है, एक गहन सन्नाटा है, तब जो बच रहा, जो सदा शेष है, वही परमात्मा है। जो सदा शेष है वही सत्य है। क्योंकि फिर उसको मिटाया नहीं जा सकता। जो-जो मिटाया जा सकता है, जो-जो काटा जा सकता है, काट दो; जो-जो हटाया जा सकता है, हटा दो। और जब तुम ऐसी घड़ी में आ जाओ कि तुम पाओ, अब हटाने को कुछ बचा ही नहीं, घर बिलकुल खाली है; अब कोई फर्नीचर नहीं है जिसको हटाएं, अब कोई सामान नहीं बचा, कूड़ा-कर्कट नहीं जिसको हटाएं, अब तो सिर्फ खालीपन बचा है; यही खालीपन तत्क्षण एक विस्फोट हो जाता है। तत्क्षण तुम पाते हो, यह खालीपन खालीपन नहीं है। तुम्हारी नजरें फर्नीचर से बंधी थीं, इसलिए यह खाली मालूम होता है। क्योंकि फर्नीचर हट गया। जरा आंखों को सध जाने दो, जरा प्राणों को लयबद्ध हो जाने दो, जरा थोड़ा सा इस नए की प्रतीति को गहन में उतर जाने दो। अचानक तुम पाओगे, खालीपन? मैं पागल हूं, यह तो भरा है! जिससे तुम इसे भरा पाते हो, सब हटा देने पर, वही परमात्मा है। चाहे तुम उसे शून्य कहो, अगर तुम फर्नीचर के हिसाब से सोचते हो; चाहे तुम उसे पूर्ण कहो, अगर तुम जो उस शून्य में भरा हुआ पाते हो।
लेकिन औषधि है धर्म, और गुरु चिकित्सक है। वह कोई व्याख्याकार नहीं है। विधि देता है।
अब बड़ा मुश्किल है। तुम कहते हो, जिस परमात्मा का हमें पक्का भरोसा न हो उसको खोजने की हम विधि का भी क्या करेंगे?
तो जो परम ज्ञानी है वह तुम्हें परमात्मा की खोजने की विधि भी नहीं देता। वह तो तुमसे कहता है, तुम परमात्मा की बात ही मत उठाओ; तुम्हारी तकलीफ क्या है वह बोलो। तुम अशांत हो? अशांति को काटने की विधि है। तुम दुखी हो? दुख को काटने की विधि है। तुम चिंतित हो? चिंता को काटने की विधि है। परमात्मा को तुम बीच में ही मत लाओ। तुम्हारा परमात्मा किसी मतलब का भी नहीं है। उसकी खोज का भी कोई सार नहीं है। तुम्हारी तकलीफ क्या है? उसे काट लो। जिस दिन तुम ऐसे क्षण में पहुंच जाओगे जहां कोई तकलीफ नहीं है, कोई चिंता नहीं है, कोई संताप नहीं है, जहां तुम अचानक पाओगे कि तुम परितुष्ट हो, उसी क्षण परमात्मा से मिलन हो जाएगा। तुम्हारा संतोष सत्य से मिलने का द्वार है। तो तुम कैसे संतुष्ट हो जाओ, इसकी ही बात करो।
मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि हम तो नास्तिक हैं। तो मैं कहता हूं, मजे से रहो। इसमें आश्चर्य कुछ भी नहीं। बिना जाने तुम आस्तिक हो कैसे सकते हो? आश्चर्य तो उन पर है मुझे जो आस्तिक हैं बिना जाने! वे अदभुत लोग हैं। जिनको कोई पता ही नहीं है परमात्मा का, आस्तिक बने बैठे हैं। उनसे बड़े धोखेबाज तुम कहीं भी न पाओगे।
इसलिए जितना मुल्क आस्तिक होता है उतना धोखेबाज होता है। भारत इसका प्रमाण है। यहां तुम जितना धोखा पाओगे, नास्तिक मुल्कों में न पाओगे, रूस में न पाओगे। यहां धोखाधड़ी जन्मजात है; यहां खून में है। क्योंकि बड़े से बड़ा धोखा तुम दे रहे हो आस्तिक होने का। जिसकी तुम्हें कोई भी खबर नहीं है, जहां तुम खड़े हो उस अंधकार में जिसकी कोई किरण तुम्हें कभी दिखाई नहीं पड़ी, और तुम आस्तिक हो। और तुम मरने-मारने को उतारू हो, अगर कोई कहे कि ईश्वर नहीं है। झगड़ा-झांसा करने में तुम कुशल हो। तलवारें उठा लोगे। और तुम्हारी आस्तिकता बिलकुल ही पोच, उसमें कोई प्राण नहीं है। वह बिलकुल निर्जीव है।
आश्चर्य इसमें कुछ भी नहीं है, स्वाभाविक है। जब मेरे पास कोई आकर कहता है, मैं नास्तिक हूं, क्या मैं भी ध्यान कर सकता हूं? तो मैं कहता हूं, इसमें अड़चन कहां है? आस्तिक तक ध्यान कर रहे हैं तो तू तो नास्तिक है। बिलकुल ठीक है। स्वाभाविक है। क्योंकि जिसे हमने जाना नहीं उसे मानने का दावा, इससे बड़ा धोखा और क्या होगा? नास्तिक कम से कम ईमानदार तो है। कम से कम यह तो एहसास करता है कि मुझे पता नहीं तो मैं कैसे मानूं? कम से कम साफ तो है। किसी प्रवंचना में तो नहीं है।
आस्तिकता-नास्तिकता से कुछ लेना-देना नहीं है, धर्म का कोई संबंध नहीं है। धर्म का तो संबंध है तुम्हारे जीवन की चिकित्सा से। तुम आस्तिक हो या नास्तिक, क्या फर्क पड़ता है!
जब तुम डाक्टर के पास जाते हो वह तुमसे पूछता है? तुम्हें सर्दी-जुकाम, पहले पूछता है, आस्तिक कि नास्तिक? क्या लेना-देना आस्तिकता-नास्तिकता से! सर्दी-जुकाम का इलाज करना है; आस्तिक-नास्तिक से क्या लेना-देना है! हिंदू या मुसलमान, ईसाई कि जैन--पूछता है? क्योंकि इससे क्या फर्क पड़ता है! सर्दी-जुकाम को पता ही नहीं हिंदू, जैन, मुसलमान, ईसाई का; सर्दी-जुकाम सभी को होती है, एक ही नियम से होती है; वह कोई धर्म का भेद नहीं मानती। वह तो चिकित्सा देता है। मुसलमान पर भी वही दवा काम करती है; हिंदू पर भी वही दवा काम करती है; ईसाई पर भी वही दवा काम करती है। दवा ही वही है जो सार्वभौम है। अगर कोई दवा का यह हो कि पहले हिंदू होना पड़ेगा तब काम करेगी, तो वह दवा नहीं है, धोखा है। ताबीज होगा; दवा नहीं है। किसी भ्रांति पर खड़ी होगी, किसी सत्य पर नहीं।
ध्यान का क्या लेना-देना कि तुम कौन हो--काले हो कि गोरे? स्त्री हो कि पुरुष? बच्चे हो कि बूढ़े? कोई लेना-देना नहीं है। ध्यान का सीधा संबंध, तुम्हारा रोग क्या है, उस रोग से है। और रोग सबके हैं। मुसलमान अशांत है, हिंदू अशांत है, जैन अशांत है। उनकी अशांति में जरा भी फर्क नहीं है। अशांति का नियम एक है। शांति का भी नियम एक है। लाओत्से अब उसकी चर्चा करता है। पहले वह कह देता है: जो जानता है वह बोलता नहीं, जो बोलता है वह जानता नहीं। क्योंकि सत्य के संबंध में कुछ नहीं बोला जा सकता। लेकिन विधि के संबंध में निश्चित बोला जा सकता है। अब वह विधि की बात करता है।
"इसके छिद्रों को भर दो, इसके द्वारों को बंद करो; इसकी धारों को घिस दो, इसकी ग्रंथियों को निर्ग्रंथ करो; इसके प्रकाश को धीमा, इसके शोरगुल को चुप; यही रहस्यमयी एकता है।'
यही ध्यान की परम स्थिति है। जितनी बातें वह कहता है वे समझ लेने जैसी हैं। एक-एक बात ध्यान के लिए संभावनाओं को बढ़ाएगी। एक-एक औषधि स्वास्थ्य को करीब लाएगी। एक-एक बीमारी गिरे, स्वास्थ्य की क्षमता बढ़े।
"इसके छिद्रों को भर दो।'
इंद्रियां छिद्र हैं, जिनसे तुम्हारी जीवन-ऊर्जा बाहर जाती है। आंख से तुम सिर्फ देखते ही नहीं हो, आंख से तुम्हारे देखने की क्षमता बाहर जाती है। इसीलिए तो तुम बहुत देर देखते रहो तो बड़े थके हुए अनुभव करते हो। क्योंकि दर्शन की तुम्हारी जो क्षमता है वह प्रतिपल आंख से बाहर जा रही है। तुम यह मत समझना कि आंख सिर्फ एक खिड़की है। आंख एक सक्रिय इंद्रिय है। जब तुम देख रहे हो तो हजारों स्नायुओं पर तनाव पड़ रहा है। एक-एक आंख के पीछे लाखों-करोड़ों स्नायु हैं। बड़ा सूक्ष्म जाल है। उससे सूक्ष्म कोई चीज जगत में नहीं है। आंख से सूक्ष्म कोई इंद्रिय जगत में नहीं है। तुम्हारे भीतर आंख के पीछे छिपा हुआ तुम्हारा तंतुओं का जाल, तुम्हारा पूरा मस्तिष्क है। और जब तुम आंख से देख रहे हो तो आंख के भीतर रोशनी जा रही है, बाहर की चीजों के चित्र जा रहे, प्रतिबिंब जा रहे; आंख से भी कुछ बाहर जा रहा है। तुम्हारी देखने की क्षमता, तुम्हारी देखने की ऊर्जा बाहर जा रही है।
इसलिए अगर ज्ञानी हजारों वर्षों से आंख बंद करके ध्यान करते रहे हैं तो पागल नहीं थे। क्योंकि अगर परमात्मा को देखना हो तो देखने की ऊर्जा तो संगृहीत कर लो! देखने की क्षमता तो इकट्ठी हो जाने दो! देखोगे कैसे? और जितने विराट को देखना हो उतनी बड़ी ऊर्जा संगृहीत होनी चाहिए।
बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे, बैठते वक्त तो देखना ही मत, आंख खोलने की कोई जरूरत नहीं है। चलते वक्त चार कदम आगे, बस इतना देख लेना। आंख आधी खुली रहे, पूरी भी मत खोलना, और चार कदम आगे देखते हुए चलना। उतना काफी है। चार कदम देख लोगे, चार कदम चल लोगे, फिर चार कदम आगे दिखाई पड़ने लगेगा। चार कदम देख-देख कर तो आदमी हजारों मील की यात्रा कर लेता है। और ज्यादा देखने की जरूरत नहीं है। क्योंकि जितना तुम देखोगे उतने देखने की क्षमता का व्यय हो रहा है। और तुम परमात्मा को देखने की आकांक्षा से भरे हो। और तुमने सत्य को देखने का संकल्प किया है। और तुम वह जानना चाहते हो इस जीवन का जो परम रहस्य है। तो उसको जानने की क्षमता तो इकट्ठी कर लो। आंख तो चाहिए जो देख सके।
तुम्हारी थकी आंखें उसे न देख पाएंगी। और तुम कहां आंखों को थका रहे हो, कभी तुमने खयाल ही नहीं किया। रास्ते के किनारे दीवारों पर लगे--हमदर्द दवाखाना--उसको पढ़ रहे हो। कितनी बार पढ़ चुके हो? उसी दीवार से बार-बार गुजरते हो; उसी को बार-बार पढ़ते हो। कचरा, कूड़ा-कबाड़; अखबार बैठते हो पढ़ने, कचरा, कूड़ा-कबाड़, उसको तुम रोज पढ़ रहे हो। कुछ भी बोले प्रधानमंत्री, तुम उसको पढ़ रहे हो, बिना इसकी फिक्र किए कि कभी प्रधानमंत्री में कोई बुद्धिमान आदमी हुआ है। कभी एकाध प्रधानमंत्री ने भी कोई ऐसी बात कही जिसमें कोई सार हो। लेकिन उसको ऐसे आत्मसात कर रहे हो जैसे वेद-वचन है। सुबह से लोग एकदम अखबार की तलाश में लग जाते हैं। अगर थोड़ी देर हो जाए तो बड़ी खलबली मच जाती है।
क्या पढ़ रहे हो? और पढ़ना साधारण बात नहीं है, क्योंकि उतनी क्षमता व्यय हो रही है। आंख उतनी थक रही है। क्या देख रहे हो? कुछ भी देख रहे हो। रास्ते पर कुछ भी हो रहा है--मदारी खड़ा डमरू बजा रहा है, बंदर नचा रहा है--वहीं खड़े हो। ये आंखें परमात्मा को कैसे देख पाएंगी जो बंदर का नाच देख रही हैं! यह बुद्धि अभी बड़े नीचे तल पर है। इस बुद्धि को अभी कुतूहल के ऊपर उठने का मौका नहीं मिला। तो मदारी भी जानता है कि सिर्फ डमरू बजा दो, एक बंदर को नचा दो, बंदर इकट्ठे हो जाएंगे। आदमी किसलिए इकट्ठा होगा? बंदर नाच रहा हो, इसमें क्या देखने जैसा है?
सारी दुनिया बंदरों से भरी है। सभी बंदर नाच रहे हैं। सभी जगह मदारी हैं, तरहत्तरह के डमरू बजा रहे हैं। वहां भीड़ लगी है। हजार काम छोड़ कर लोग खड़े हो जाते हैं। कहीं दंगा-फसाद हो रहा है, दो आदमी एक-दूसरे को गाली दे रहे हैं। तुम बड़ी उत्सुकता से खड़े हो। दवा लेने जा रहे थे पत्नी के लिए, वह काम गौण हो गया। बच्चे के लिए दूध खरीदने जा रहे थे, वह अभी थोड़ी देर ठहर सकता है। लेकिन यह घटना देखने जैसी है। और कभी अगर ऐसा हो जाता है कि दो आदमी लड़ने के बिलकुल करीब आ गए और फिर अलग हो गए, तुम बड़े उदास लौटते हो कि कुछ भी न हुआ। बेकार ही खड़े रहे। खून बह जाए, सिर खुल जाएं, थोड़ा रस आता है। तुम्हारे भीतर की हिंसा थोड़ी तृप्त होती है। तुम जो करना चाहते थे, दूसरे ने कर दिया तुम्हारे एवज। थोड़ा सुख मिलता है। तुम थोड़े हलके होकर घर जरा तेज कदम से कोई फिल्मी गीत गुनगुनाते हुए लौटते हो। जिंदगी में रस आ जाता है।
तुम्हारा रस क्या है, क्या तुम देखते हो, क्या तुम सुनते हो, उस सब में तुम्हारी जीवन-ऊर्जा बह रही है। यहां कुछ भी मुफ्त नहीं है। हर चीज के लिए चुकाना पड़ रहा है। कचरा भी खरीदोगे, उसके लिए भी चुकाना पड़ रहा है। क्योंकि जीवन-ऊर्जा जा रही है, समय जा रहा है। प्रतिपल हाथ से जीवन का जल गिरा जा रहा है। थोड़ी ही देर में मुट्ठी खाली हो जाएगी। फिर तुम पछताओगे। लेकिन फिर पछताए होत का जब चिड़िया चुग गई खेत! जब जीवन जा चुका, फिर पछताने से क्या होगा? जब तक जीवन हाथ में है, कुछ बचा लो। अगर तुम आंख से देखने का उतना ही उपयोग लो जितना जरूरी है, तो तुम पाओगे तुम्हारे भीतर तीसरी आंख का जन्म शुरू हो गया।
लोग मुझसे पूछते हैं कि तीसरी आंख कैसे खुले? मैं उनसे कहता हूं, पहले दो आंखें थोड़ी बंद करो। तीसरी आंख को खोलने की और क्या जल्दी है? कुछ और उपद्रव देखना है? दो से तृप्ति नहीं हो रही?
तुम दो को थोड़ा कम करो, तीसरी अपने आप खुलती है। क्योंकि जब तुम्हारे भीतर देखने की क्षमता प्रगाढ़ हो जाती है, उस प्रगाढ़ता की चोट से ही तीसरी आंख खुलती है। और कोई उपाय नहीं है। इन दो को तुम व्यय कर दो; तीसरी कभी न खुलेगी। जीवन में एक व्यवस्था है; भीतर एक बड़ी सूक्ष्म यंत्र की व्यवस्था है। जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाए उसकी ऊर्जा ऊपर की तरफ अपने आप बहनी शुरू हो जाती है। क्योंकि इकट्ठी होती है ऊर्जा, कहां जाएगी? नीचे जाना बंद हो गया। अपने आप ऊर्जा ऊपर चढ़ने लगती है। अपने आप उसके भीतर के नए चक्र खुलने शुरू हो जाते हैं और नए अनुभव के द्वार। तुम चक्रों को खोलना चाहते हो, वह ऊर्जा पास नहीं है। तुम बटन दबाते हो, बिजली नहीं जलती। बिजली चाहिए भी तो, बहनी भी तो चाहिए, होनी भी तो चाहिए भीतर जुड़े तारों में। वह प्रवाह वहां न हो तो क्या होगा? जब दो आंख धीरे-धीरे, धीरे-धीरे शांत होने लगती हैं...।
तुम एक छोटा सा प्रयोग करो। जब भी तुम अकारण बैठे हो, कोई काम नहीं है, मत आंख को खोलो। और तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर एक शक्ति का जन्म हो रहा है। तुम जल्दी ही पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक नई शक्ति और एक नई क्षमता इकट्ठी हो रही है। तुम चीजों को पैना देखने लगोगे, गहरा देखने लगोगे। कल जो चीज ऊपर से उथली-उथली दिखाई पड़ती थी, अब तुम गहरा देख सकोगे। तुम मुझे सुनोगे उसके बाद, तब तुम पाओगे कि तुम उस मेरे सुनने में कुछ और देखने लगे जो तुमने कभी न देखा था। मेरे शब्द वही थे, मैं वही था, लेकिन तुम्हारी देखने की क्षमता गहरी हो गई। जितनी बड़ी ऊर्जा हो उतनी गहरी जाती है।
अभी तुम्हारी देखने की क्षमता सुई की तरह है; अगर तुम इकट्ठा करो तो तलवार की तरह हो जाती है। तब बड़े गहरे तक उसकी चोट होती है। तब तुम देख कर कुछ चीजें देख लोगे जो तुम पहले हजार बार उपाय करते सोच कर तो भी नहीं सोच पाते थे। सोचने का सवाल नहीं है, देखने का सवाल है; दृष्टि पैनी चाहिए। वह पैनी होती है, उसमें निखार आता है, जितना तुम संजोओगे, जितना इकट्ठा करोगे। जब तुम व्यर्थ हो, कुछ नहीं कर रहे हो, आंख की कोई जरूरत नहीं है, मत खोलो। कार में बैठे हो, टे्रन में बैठे हो, बस में सवार हो; तुम्हारी आंख की क्या जरूरत है? वह काम ड्राइवर कर रहा है। तुम नाहक ही अपनी आंख को दुखा रहे हो खिड़की में झांक-झांक कर। सड़क पर चलते हुए चेहरे, जिनका कोई प्रयोजन देखने का नहीं है। तुम आंख बंद कर लो। तुम मत देखो। तुम सिर्फ शांत रहो।
और एक खयाल करो। एक बहुत पुरानी तिब्बतन विधि है जो बड़े काम की है। जब भी तुम खाली बैठे हो, अगर आंख खोलनी भी पड़े, तो बहुत आहिस्ता खोलो। जैसे कोई पर्दा उठाया जा रहा है, बड़े धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, ऐसी तुम्हारी पलक उठे। फिर जब तुम पलक झपकाओ तो वैसी ही वापस धीरे-धीरे जाए, जैसे कोई पर्दा गिराया जा रहा है। और तुम एक बड़ी गहन शांति अनुभव करोगे। क्योंकि तुम्हारी आंख जितनी जल्दी खुलती है, जितनी जल्दी बंद होती है, उतना ही तनाव तुम्हारे भीतर के मस्तिष्क पर पड़ता है।
तुम हमेशा पाओगे, जब भी कोई व्यक्ति शांत होगा तो उसकी आंख की पलकें, तुम पाओगे, बड़ी आहिस्ता से गिरती हैं, आहिस्ता से उठती हैं। अशांत व्यक्ति की आंखें बड़ी तेजी से। बहुत बेचैन आदमी की आंखें अगर तुम नींद में भी देखोगे तो पाओगे कि हिल रही हैं पलकें, तनाव अभी भी बाकी है, कंपन जारी है।
इंद्रियां हैं छिद्र, उन्हें भर दो।
उन्हें भरने का एक ही उपाय है कि उनकी ऊर्जा को व्यर्थ मत बहाओ; वही ऊर्जा उन्हें भर देगी।
"इसके द्वारों को बंद कर दो।'
तुम्हारे मस्तिष्क में उठने वाली वासना हैं द्वार। जैसे ही मन में कोई वासना उठती है वैसे ही सजग हो जाओ, उसको ज्यादा देर साथ मत दो। क्योंकि ज्यादा देर साथ देने का अर्थ है कि उसकी जड़ें फैल जाएंगी। राह से तुम गुजरते हो, देखते हो एक बड़ा भवन। एक वासना मन में उठती है, ऐसा मकान अपना भी हो। इस पर अगर तुम ज्यादा देर सोचते रहे तो यह वासना जड़ें जमा लेगी। और जब वासना की जड़ें जम जाती हैं तो इंद्रियां उसका अनुगमन करती हैं। करना ही पड़ता है। क्योंकि शरीर तुम्हारा अनुगामी है।
तो पहले वासना का द्वार खुलता है, फिर इंद्रियों के छिद्र खुल जाते हैं। अगर तुम्हारे मन में मकान की वासना आ गई तो जहां भी तुम्हें मकान दिखाई पड़ेंगे वहीं तुम गौर से देखोगे। अगर तुम्हारे मन में कोई भी चीज की वासना आ गई, जिस चीज की वासना आ गई, उसी पर तुम्हारी सारी इंद्रियां संलग्न हो जाएंगी। अगर तुमने भोजन को मन में जगह दे दी, रूप को मन में जगह दे दी, तो उसी तरफ तुम्हारी सारी इंद्रियां भागने लगेंगी।
"इसके द्वारों को बंद करो।'
और ध्यान रखना, जब भी वासना की पहली झलक भीतर उठती है उसी वक्त उससे सहयोग तोड़ लेना सुगम है। जितनी देर कर दोगे उतना ही मुश्किल हो जाएगा। और क्यों व्यर्थ समय नष्ट करना; पहले उसको जमाना, फिर उखाड़ना; जमने ही मत दो। उस फसल में कोई सार नहीं है। कभी किसी ने कुछ सार पाया नहीं है। और जब वासना तुम्हें पकड़ लेगी तो फिर उसके न पूरे होने से अतृप्ति होगी, असंतोष होगा, अशांति होगी, तनाव होगा, चिंता होगी। फिर तुम सो न सकोगे। फिर तुम बेचैन रहोगे। ध्यान पर न बैठ सकोगे। जो वासना है वह तुम्हारा पीछा करेगी। वह सब जगह तुम्हें बेचैन रखेगी।
वासना एक ज्वर है, चेतना का ज्वर। चेतना का तापमान ऊपर चला जाता है। तब एक उद्विग्नता भीतर समा जाती है। वह उद्विग्नता हर घड़ी मौजूद रहती है। और कठिनाई यह है कि अगर तुम ऐसा वर्षों उद्विग्न रह कर अपनी वासना को पूरा भी कर लो, तब भी कुछ हल नहीं। पूरा करके तुम पाते हो, नाहक ही इतने परेशान हुए। जब तक मिला नहीं तब तक दौड़ते थे; अब मिल गया तो कुछ सार नहीं मालूम पड़ता। क्या करोगे बड़े महल में होकर भी? जितना सपने में सुंदर मालूम पड़ता है उतना यथार्थ में कुछ भी सुंदर नहीं है। लेकिन पाकर ही तुम पाओगे। लेकिन तब तक जीवन जा चुका।
और मन की यह खूबी है, वासना का यह जाल है कि वह तुम्हें नई आशाएं और नए आश्वासन देता है। वह कहता है, इस मकान में नहीं हो सका रस, नहीं आनंद आ सका, लेकिन और बड़े मकान हैं। अभी हारने की कोई जरूरत नहीं। इतने धन से नहीं मिली तृप्ति, स्वाभाविक है। इतने धन में किसको मिलती है? अभी धन का बड़ा विस्तार है; अभी और बड़ा धन पाया जा सकता है। अभी खजाने कायम हैं। और अभी जिंदगी शेष है। क्यों थकते हो? क्यों हारते हो? मन कहता है, बढ़े जाओ! बढ़े जाओ! मन आखिरी क्षण तक, जब मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक देती है, तब तक कहे जाता है कि अभी भी कुछ हो सकता है। मन से बड़ा आश्वासन देने वाला तुम दूसरा न पाओगे। और तुमसे बड़ा नासमझ तुम न खोज सकोगे जो इसकी माने चला जाता है। यह किसी भी आश्वासन को कभी पूरा नहीं करता। इसने कोई आश्वासन अतीत में पूरे नहीं किए हैं। लेकिन फिर भी तुम माने चले जाते हो। थोड़ा जागो!
"इसके द्वारों को बंद करो; इसकी धारों को घिस दो।'
धार क्या है? इंद्रियां हैं छिद्र; मन में उठी वासनाएं हैं द्वार। धार क्या है? तुम्हारे नकारात्मक मनोवेग, निगेटिव इमोशंस धार हैं। तुम्हारा क्रोध, तुम्हारी घृणा, तुम्हारा वैमनस्य,र् ईष्या, द्वेष, ये तुम्हारी धारें हैं। इनके कारण जो भी तुम्हारे पास आएगा उसको तुम चुभोगे। तुम्हारा क्रोध दूसरों के लिए कांटे की तरह है। तुम्हारी घृणा दूसरों के लिए जहर की तरह है। तुम्हारे पास जो भी आएगा वही पीड़ित होगा। तुम चाहे किसी को प्रेम में ही छाती से आलिंगन क्यों न कर लो, लेकिन तुम्हारे कांटे उसे भी चुभेंगे
"धारों को घिस दो।'
ये चारों तरफ तुम्हारी जो धारें हैं इनको घिसो। क्रोध से न किसी दूसरे को सुख मिलने वाला है, न तुम्हें। घृणा से न किसी और को स्वर्ग मिलेगा, न तुम्हें। और तुम जब तक दूसरे के लिए नरक बनाते रहोगे तब तक तुम अपने लिए ही नरक बना रहे हो, इसे ठीक से जान लेना। कोई इस दुनिया में दूसरों के लिए गङ्ढे नहीं खोद सकता। तुम भला दूसरों के लिए खोदते हो; आखिर में तुम पाओगे, तुम्हीं उनमें गिर गए हो। तुम और तुम्हारे गङ्ढे! दूसरे के अपने गङ्ढे हैं जो उसने खुद खोदे हैं। वह तुम्हारे गङ्ढों में गिरने क्यों आएगा? प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के गङ्ढों में गिरता है। दूसरों के अपने गङ्ढे हैं। तुम्हें मेहनत करने की जरूरत भी नहीं है। वे खुद अपनी तरफ से गिरेंगे। लेकिन तुम खोदते दूसरे के लिए हो; आखिर में पाते हो कि खुद गिर गए। फसल बोते हो दूसरे के लिए, काटनी खुद पड़ती है। जो तुम बोओगे वह तुम्हीं काटोगे। आज नहीं कल, कल नहीं परसों। यह भी हो सकता है, तुम भूल ही जाओ कि हमने बोई थी फसल। जब काटो, समय बहुत बीत चुका हो। लेकिन काटोगे तुम्हीं। यह जीवन का शाश्वत नियम है।
आखिर तुम्हारे कांटे तुम्हें ही चुभेंगे। और तुम अगर गौर से देख सको तो आज भी तुम्हें ही चुभते हैं। तुम्हारा क्रोध जरूरी नहीं है कि जिस पर तुमने क्रोध किया उसे दुख दे। अगर वह नासमझ है तो देगा; वह उसकी नासमझी का दुख है, तुम्हारे क्रोध का नहीं। लेकिन तुमने क्रोध किया, तुम तो दुखी होओगे ही। तुम अगर बुद्ध को जाकर गाली दो तो बुद्ध को तुम दुखी नहीं कर सकते। तुम्हारी गाली वहां निस्तेज है। क्योंकि तुम्हारी गाली थोड़े ही दुख देती है; उस आदमी का अपना अज्ञान दुख देता है। अज्ञान गाली को पकड़ लेता है। अज्ञान गाली से चिपक जाता है। अज्ञान कांटे से उलझ जाता है। अज्ञान ही दुख देता है। बुद्ध को गाली दोगे, तुम दुख न दे पाओगे; लेकिन तुम दुख पाओगे। क्योंकि गाली देना कुछ आसान थोड़े ही है। उसे ढालना पड़ता है; उसे तैयार करना पड़ता है। जहर को तुम अपने ही भीतर की प्रयोगशाला में पहले निर्मित करते हो। उसमें तुम जहरीले हो जाते हो।
"धारों को घिस दो; इसकी ग्रंथियों को निर्ग्रंथ करो।'
ग्रंथियां क्या हैं? गांठ कहां लगी है तुम्हारे भीतर? कई गांठें हैं। और लाओत्से के हिसाब से गांठ का अर्थ होता है कि तुम्हारी एक इंद्रिय दूसरी इंद्रिय के साथ उलझ जाए तो गांठ पैदा होती है। जैसे एक धागा दूसरे धागे से उलझ जाए तो गांठ पैदा होती है। और तुम्हारी सब इंद्रियां एक-दूसरे में उलझ गई हैं।
प्रत्येक इंद्रिय का एक सम्यक कृत्य है। यह बड़ी रहस्यपूर्ण बात है। इसे तुम ठीक से समझ लेना। कामवासना जननेंद्रिय का कृत्य है। मन को उस संबंध में सोचने की कोई जरूरत भी नहीं है। वह कृत्य मन का नहीं है। कामवासना जननेंद्रिय का कृत्य है। वह जननेंद्रिय के पास ही सीमित रहना चाहिए। उसके लिए मन तक ले जाने का अर्थ है, मन और जननेंद्रिय एक-दूसरे में गुंथ गए, उलझ गए।
गुरजिएफ ने इस पर बहुत काम किया इस सदी में। वह अपने साधकों की ग्रंथियां खोलने का पहले काम करता था। वह कहता था, जब तक तुम्हारी ग्रंथियां न सुलझ जाएं, कुछ भी नहीं हो सकता। क्योंकि अगर कामवासना जननेंद्रिय में हो तो कुछ किया जा सकता है। लेकिन कामवासना खोपड़ी में हो तो क्या करें? क्योंकि वह कामवासना की इंद्रिय ही नहीं है। बीमारी ठीक जगह हो तो सुधारी जा सकती है। बीमारी ऐसी जगह हो जहां उसकी जगह ही नहीं है तो सुधारना बहुत मुश्किल है। जो जहां है पहले वहां रख देना जरूरी है। तो गुरजिएफ कहता था, पहले कामवासना को वापस जननेंद्रिय में ले आओ।
भूख पेट में लगनी चाहिए, खोपड़ी में नहीं। खोपड़ी की भूख अलग होती है; पेट की भूख अलग होती है। पेट की भूख तो वास्तविक है, उसे भोजन से भरा जा सकता है। वह कोई कठिन काम नहीं है। लेकिन खोपड़ी में भूख समा जाए, फिर भरने का कोई उपाय नहीं है। नीरो के संबंध में कथा है कि उसने डाक्टर रख छोड़े थे। खाना खाता, उलटी करवाता, ताकि फिर खाना खा सके। यह भूख पेट की नहीं हो सकती। बीस-बीस बार खाना खाता था। अब खाना बीस बार कोई भी नहीं खा सकता। तो एक ही उपाय है कि खाना खा लो, फिर उलटी कर दो; फिर से खाना खा लो। यह खोपड़ी में चली गई बात।
कामवासना अगर जननेंद्रिय में हो तो वास्तविक होती है। खोपड़ी में चली गई, फिर मुश्किल हो जाती है। खोपड़ी के साथ सभी इंद्रियां गुंथ गई हैं।
तो गुरजिएफ कहता था, हर चीज को पहले तो सुधार लो, अपनी जगह ले आओ। फिर बहुत आसान है। क्योंकि जननेंद्रिय से ब्रह्मचर्य को ले आना बिलकुल आसान है, कठिन नहीं। बहुत सीधी, सुगम, साधारण, सरल बात है। कोई अड़चन नहीं है। पेट की भूख हो, जरा भी अड़चन नहीं है। अड़चन तो तब खड़ी होती है जब कि भूख उन जगहों पर पहुंच जाती है जो भूख के लिए बने नहीं हैं। तब सब चीजें भीतर उलझ जाती हैं। तुम बाहर से साफ-सुथरे दिखाई पड़ते हो, कि तुम्हारे हाथ हाथ हैं, आंख आंख है, कान कान है, लेकिन भीतर सब गड़बड़ है, भीतर सब उलझा हुआ है और ग्रंथियां पड़ गई हैं। ये ग्रंथियां सुलझ जानी चाहिए। कैसे यह होगा?
एक-एक ग्रंथि को अपनी जगह लाने की कोशिश करो। भूख पेट की होनी चाहिए। घड़ी के कारण भूख नहीं लगनी चाहिए। जब भूख लगे तभी खाओ। कभी ऐसा हो कि आज भूख नहीं है तो मत खाओ। कोई आवश्यकता नहीं है। तुम उपवास भी करते हो, वह भी मन का होता है। वह भी पेट का नहीं होता; वह भी झूठा है। पेट का उपवास तब है जब पेट कह रहा है कि मुझे नहीं खाना, भूख नहीं है। बात खतम हो गई। मत खाओ। क्योंकि जब भूख ही नहीं है तो भोजन जहर हो जाएगा। और तब उलझन बढ़ती जाएगी।
और जब भूख नहीं होती तब अगर खाना हो तो स्वाद पर ध्यान देना पड़ता है, जो कि मन का है, जो कि पेट का नहीं। पेट को स्वाद से क्या लेना-देना? पेट में कोई स्वाद का उपाय भी नहीं है। पेट को स्वाद का पता भी नहीं चलता है। स्वाद मन का है, पेट का कोई स्वाद ही नहीं है। और जब पेट में भूख न हो तो फिर तुम्हें झूठी भूख पैदा करने के लिए स्वाद का उपाय करना पड़ता है। तब तुम ऐसी चीजें खाना शुरू कर देते हो जिनका कोई भी मूल्य शरीर के लिए नहीं है। आइसक्रीम खा रहे हो; उसका कोई मूल्य शरीर के लिए नहीं है। नुकसानदायक है शरीर के लिए। लेकिन मन का स्वाद है। मिठाइयां खा रहे हो, जिनका शरीर के लिए कोई भी मूल्य नहीं है। घातक है। लेकिन मन के लिए मूल्य है। मन के लिए स्वाद है उनमें।
और ध्यान रखना, जब तुम स्वाद से खाओगे तो तुम ज्यादा खा जाओगे। क्योंकि तुम शरीर की सुनोगे ही नहीं। मन कहेगा, थोड़ा और खा लो। अभी क्या बिगड़ा है, अभी थोड़ा और खा सकते हो। अभी और थोड़ी जगह है। पेट से तो तुम पूछते ही नहीं। यह उलझाव है। यह ग्रंथि है।
तब ऐसा आदमी उपवास करे तो भी मन से ही करेगा। वह कहेगा कि अब ये पर्युषण आ गए जैनियों के, अब उपवास करना है; कि रमजान के दिन आ गए मुसलमानों के, अब उपवास करना है। शरीर के लिए कोई रमजान है? कोई पर्युषण है? शरीर के लिए तो तब उपवास है जब शरीर रुग्ण अनुभव कर रहा है, खाने की इच्छा नहीं है। शरीर कह रहा है कि नहीं कोई भूख है, तब शरीर का उपवास। वह उपवास शुद्ध है, वह कीमती है। उस उपवास से तुम्हें लाभ होगा। उस उपवास से तुम्हारी वास्तविक भूख जगेगी। लेकिन मन का उपवास झूठा है कि पर्युषण के दिन हैं, रमजान है, इसलिए उपवास कर रहे हैं। तुम शरीर को नुकसान पहुंचा रहे हो। तुमने खाकर भी शरीर को नुकसान पहुंचाया; तुम उपवास करके भी नुकसान पहुंचा रहे हो।
तुम नुकसान पहुंचाने में ऐसे कुशल हो गए हो कि तुम कुछ भी करो, तुम नुकसान पहुंचाते हो। भूख लगे तब भोजन, नींद आए तब नींद, प्यास लगे तब पानी। लेकिन कोका-कोला दिखाई पड़ गया, प्यास नहीं लगी है, और एक तरह की प्यास लगती है जो झूठी है। तुम्हें एक क्षण पहले तक कोई पता नहीं था कि प्यास लगी है। कोका-कोला दिखाई पड़ गया। पेट को कोका-कोला से क्या लेना-देना है? लेकिन मन को स्वाद आ गया, मन को अतीत की याद आ गई। पहले भी कोका-कोला पीया है, बड़ा स्वादिष्ट था। अब एक रस जगा, जो झूठा है। अब तुम एक ग्रंथि पैदा कर रहे हो।
मन कहता है, कल संभोग किया था बड़ा सुख आया, आज भी संभोग करो। यह शरीर की भूख नहीं है।
शरीर की भूख एक-एक इंद्रिय की अलग-अलग है। तुम अगर इंद्रिय की भूख को सुनो तो तुम भोजन ठीक से कर पाओगे। और जो भोजन ठीक से कर पाता है उसके जीवन में उपवास की भी जगह हो जाती है। तुम अगर कामेंद्रिय की बात सुनोगे तो कभी-कभी संभोग जीवन में होगा, और बड़ा कीमती होगा। और उसका अनुभव बड़ा मूल्यवान होगा। और वही अनुभव तुम्हें ब्रह्मचर्य की तरफ ले जाएगा। धीरे-धीरे संभोग विदा हो जाएगा। अगर इंद्रियां सुलझी हों तो जीवन से वासना का विदा हो जाना बड़ा आसान है। अगर उलझी हों तो बिलकुल असंभव है। तब इलाज तुम कहीं करते हो, बीमारी कहीं और। आपरेशन कहीं करते हो, ग्रंथि कहीं और। तब तुम्हारे आपरेशन से और सब उलझ जाता है।
लाओत्से कहता है, "इसकी ग्रंथियों को निर्ग्रंथ करो।'
पहले इसकी ग्रंथियों को खोलो। पहला काम है इसे खोल लेना; साफ सब चीजों को अपनी जगह रख देना।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बीमारी थी और वह चौके में कुछ तैयार कर रहा था। भागा हुआ आया और उसने कहा कि मुझे नमक नहीं मिल रहा है। उसने कहा कि तुममें बुद्धि नहीं है। पत्नी ने कहा, सामने ही जिस डिब्बे में जीरा लिखा है उसी में तो नमक रखा है। आंख के सामने रखा है, और तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता!
अब जिस डिब्बे में जीरा लिखा है उसमें नमक रखा है! इसमें मुल्ला नसरुद्दीन का कसूर भी क्या है बेचारे का? वह तो डिब्बा उसको भी दिखाई पड़ रहा है। लेकिन पत्नी के अपने कोड हैं। सभी स्त्रियों के होते हैं। उनके चौके में घुस कर आप ठीक पता नहीं लगा सकते कि मामला क्या है। कहां कौन सी चीज है, वह उनको ही पता है। और जहां-जहां जो-जो लिखा है, उस भूल में मत पड़ना, वह वहां हो नहीं सकता। लिखने से कुछ लेना-देना नहीं है।
और वैसी ही दशा तुम्हारी है। जहां जननेंद्रिय लिखी है प्रकृति ने, वहां जननेंद्रिय नहीं है। जहां प्रकृति ने पेट लिखा है, वहां पेट नहीं है। तुम एक अराजकता हो। तुम्हारे भीतर सब असंगत हो गया है, अस्तव्यस्त हो गया है।
तो लाओत्से कहता है, "ग्रंथियों को निर्ग्रंथ करो। इसके प्रकाश को धीमा करो; इसके शोरगुल को चुप करो'
एक प्रकाश है तुम्हारे भीतर जिसको हम बुद्धि कहें, तर्क कहें, विचार कहें। वह अतिशय है। तुम हर चीज को उसी प्रकाश से देख रहे हो। वह प्रकाश तुम्हारे अंधेपन का कारण हो गया है। लाओत्से कहता है, इस प्रकाश को धीमा करो। इतना ज्यादा विचार करने की जरूरत नहीं है। और पाया भी क्या विचार करके? इस दीए को इतना मत जलाओ। कभी-कभी इसे बुझा भी दो, और गहन अंधकार में हो जाओ। तब तुम्हारे जीवन में एक नए प्रकाश का उदय होगा जो बुद्धि का नहीं है, जो आत्मा का है। तुम्हारे जीवन में एक नया प्रकाश आएगा जो तर्क का नहीं है, जो श्रद्धा का है। एक नया प्रकाश आएगा जो विवाद का नहीं है, संवाद का है। वह धीमा होगा शुरू में। और अगर तुम यह बुद्धि का प्रकाश ही जलाए रखे तो उसका तुम्हें पता ही न चलेगा। तुम इसे हटाओ। तुम इसे पहले धीमा करो, फिर इसे तुम बिलकुल बुझा दो।
"इसके शोरगुल को चुप करो।'
और तुम इसे विचार समझ रहे हो, यह सिर्फ शोरगुल है। तुम इसे विचार समझ रहे हो, यह सिर्फ बाजार है। इससे तुम कहीं भी नहीं जा रहे हो। तुमने व्यर्थ कचरा सब तरफ से इकट्ठा कर लिया है; वह कचरा तुम्हारे भीतर घूम रहा है। कोई विचार कहीं से, कोई विचार कहीं और से; कोई शास्त्र से, कोई अखबार से, कोई रेडियो से, कोई मित्र से, कोई दुश्मन से; सब तुमने इकट्ठा कर लिया है। वह सब तुम्हारे भीतर है। उसका शोरगुल मचा हुआ है। और तुम इस पर भरोसा किए हो। और यही भरोसा तुम्हें भटका रहा है।
निर्विचार ले जाता है; विचार भटकाता है। निर्विचार का एक संगीत है; विचार में केवल एक शोरगुल है।
लेकिन लोग शोरगुल के आदी हो जाते हैं। रेलवे स्टेशन पर जो लोग सोते हैं, अगर रेलगाड़ियां आती-जाती रहें तो उनकी नींद लगी रहती है। अगर उस दिन रेलगाड़ियां न आएं, हड़ताल हो जाए, तो उनको नींद नहीं आती, नींद टूट जाती है। जो लोग ज्यादा यात्रा करते हैं, जब तक रोज बदलाहट न हो तब तक उनको नींद नहीं आती। अपने घर में आकर दो-चार दिन शांति से रहें तो उनकी नींद खो जाती है। शोरगुल की भी आदत हो जाती है।
तुम पहाड़ पर जाओ, तुम्हें बड़ी बेचैनी लगेगी। शोरगुल याद आएगा बाजार का।
मैं एक नगर में जहां रहता था एक मित्र के बंगले में, वह थोड़ा गांव के बाहर था। मित्र मेरे कारण आने को उत्सुक थे, लेकिन पत्नी सख्त विरोध में थी। मैंने पूछा कि कारण क्या है? तो उसने कहा, यहां कोई न बाजार, न शोरगुल; सड़क पर भी जाकर खड़े हो जाओ तो कोई निकलता ही नहीं है, देखने को कुछ भी नहीं।
वह जिंदगी भर बाजार में रही; वहां छज्जे पर खड़े होकर नीचे का सारा उपद्रव देखती रही। आधी रात तक शोरगुल जारी रहता। सुबह पांच-चार बजे फिर उपद्रव शुरू हो जाता। सामने ही सिनेमाघर, वहां निरंतर भीड़ लगी रहती। उस बंगले की शांति उसे बड़ी कठिन पड़ी। और जैसे ही मैंने वह गांव छोड़ा वे वापस अपने शहर के घर में चले गए। मुझे पीछे मिलने आए तो पत्नी बोली कि अब बड़ा सब ठीक है।
शोरगुल की आदत! शोरगुल न हो तो ऐसा लगता है कि मर गए, कुछ जीवन ही नहीं है। लोग बाजार में घूमने जाते हैं, लोग उपद्रव की तलाश करते हैं। स्वाद लग गया उपद्रव का। जब भी शांति होती है तभी उनको बेचैनी लगती है कि कुछ गड़बड़ हो रहा है। यह जो बुद्धि का शोरगुल है इसके भी तुम आदी हो गए हो। इस आदत को छोड़ो
"यही रहस्यमयी एकता है।'
और क्या होगा फिर? अगर छिद्र हो जाएं बंद, द्वार हो जाएं बंद, धारों को घिस डाला जाए, ग्रंथियां खुल जाएं, बुद्धि का प्रकाश शांत हो जाए, भीतर चलता बाजार बंद हो जाए; क्या होगा? लाओत्से कहता है, एक रहस्यमयी एकता का जन्म होता है। तुम एक हो जाओगे। तुम्हारी अनेकता समाप्त हो जाएगी। तुम्हारे खंड-खंड सब जम कर अखंड हो जाएंगे। वही पाने योग्य है। वही एक सत्य है।
जो उसे जान लेता है वह कैसे उसे कहे? जो उसे जान लेता है वह बिना कहे कैसे रहे? वह स्वाद ही ऐसा है; कहा नहीं जा सकता और कहे बिना नहीं रहा जा सकता।
"तब प्रेम और घृणा उसे नहीं छू सकतीं।
जिसने इस रहस्यमयी एकता को उपलब्ध कर लिया वह सभी द्वंद्वों के पार हो गया। अब दो का कोई अर्थ न रहा। जो-जो चीजें दो हैं अब उसे नहीं छू सकतीं। अब प्रेम और घृणा उसे नहीं छू सकतीं। अब वह दोनों के मध्य में स्थिर हो गया जहां करुणा का वास है। करुणा न तो घृणा है, करुणा न तो प्रेम है। या करुणा में कुछ है जो प्रेम जैसा है और करुणा में कुछ है जो घृणा जैसा है।
इसे थोड़ा समझ लो। क्योंकि करुणा बड़ा रहस्यपूर्ण तत्व है जो उस एक के साथ आता है। करुणा में कुछ प्रेम जैसा है। क्योंकि करुणा तुम्हें रूपांतरित करना चाहेगी। करुणा तुम्हें आनंदित देखना चाहेगी। करुणा तुम्हें परम सुख की तरफ ले जाने में सहारा देना चाहेगी। करुणा, तुम धूप में थके-मांदे आए हो, तुम्हारे लिए छाया बनना चाहेगी। करुणा में कुछ प्रेम जैसा है। लेकिन करुणा में कुछ घृणा जैसा भी है, क्योंकि तुम्हारे भीतर जो-जो गलत है करुणा उसे मिटाना चाहेगी, नष्ट करना चाहेगी। तुम जैसे हो, करुणा तुम्हें वैसा ही नहीं बचाना चाहेगी। प्रेम तुम्हें वैसा ही बचाना चाहता है; करुणा तुम्हें बदलना चाहेगी। तुम्हारा क्रोध, तुम्हारी धारों को घिस डालेगी, तोड़ेगी। करुणा तुम्हारी मित्र है, अगर तुम्हारी अंतिम नियति को खयाल में रखा जाए; करुणा तुम्हारी दुश्मन है, अगर तुम्हारी आज की वास्तविकता को समझा जाए। करुणा तुम्हें मिटाएगी और बनाएगी। करुणा तुम्हें मारेगी तुम जैसे हो, और जन्माएगी तुम्हें जैसे तुम होने चाहिए। तो करुणा में घृणा का तत्व भी होगा, विध्वंसक, और करुणा में प्रेम का तत्व भी होगा, सृजनात्मक। करुणा दोनों जैसी है और दोनों जैसी भी नहीं है। क्योंकि अगर तुम करुणावान व्यक्ति की न सुनो तो वह बेचैन न होगा, जैसा कि प्रेम बेचैन होता है। नहीं सुनी, तुम्हारी मर्जी। इससे कुछ करुणावान आदमी को तुम चिंतित न कर पाओगे। करुणा घृणा से भी भिन्न है। क्योंकि जिसको हम घृणा करते हैं, अगर उसको न मिटा पाएं, या न मिटाने के लिए रास्ते पर लगा पाएं, कुछ उपाय न कर पाएं, तो चिंता, बेचैनी पकड़ती है। लेकिन करुणावान व्यक्ति अगर तुम्हारे बुरे को, तुम्हारे व्यर्थ को न मिटा पाए, तो इससे चिंतित नहीं होता। तुम उसकी नींद को नहीं नष्ट कर सकते। करुणावान व्यक्ति घृणा की तरह ठंडा होगा और प्रेम की भांति सौहार्द से परिपूर्ण। एक शीतल प्रेम, जिसमें कोई उत्ताप नहीं है, जिसमें कोई ज्वर नहीं है। करुणा बड़ी रहस्यपूर्ण है, क्योंकि उसमें दोनों विरोध खो जाते हैं।
"तब प्रेम और घृणा नहीं छू सकतीं। लाभ और हानि उससे दूर रहती हैं।'
क्योंकि अब कुछ पाने योग्य ही न रहा; लाभ कहां? सब पा लिया; हानि कैसी?
"मान और अपमान उसे प्रभावित नहीं कर सकते।'
क्योंकि नजर अब अपने पर लग गई है। अब नजर दूसरे पर नहीं है। अब दूसरा क्या कहता है, इससे कोई अर्थ नहीं बनता। अब अपना होना इतना महत्वपूर्ण है, ऐसी गरिमा से भरा है कि तुम अपमान करो तो कोई फर्क नहीं पड़ता, तुम सम्मान करो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अपमान करके तुम मुझसे कुछ छीन नहीं सकते, सम्मान करके तुम मुझे कुछ दे नहीं सकते। तो क्या अर्थ रहा तुम्हारे अपमान और सम्मान का? व्यक्ति पहली दफा उस परम धन का धनी हो जाता है जिसमें न कुछ घटाया जा सकता, न कुछ बढ़ाया जा सकता। यह आत्म-गरिमा है, जिसको लाओत्से कुलीनता कहता है। उसके भीतर से प्रकाश आता है। अब तुम्हारा मान-अपमान कुछ भी जोड़ता नहीं। अब वह परम स्वतंत्र है। अब उसकी निर्भरता नहीं है। अब तुम्हारे विचारों पर, मंतव्यों पर उसका कुछ भी फर्क नहीं पड़ता--ऐसा या वैसा, इधर या उधर, पक्ष या विपक्ष। सारी दुनिया साथ हो तो भी उसकी चाल वही होगी। और सारी दुनिया विरोध में हो जाए तो भी उसकी चाल वही होगी। उसकी चाल में कोई अंतर नहीं पड़ता।
"मान-अपमान उसे प्रभावित नहीं कर सकते। इसलिए वह संसार में सदा ही सम्मानित है।
और इसलिए उसका सम्मान अंतिम है। तुम उसका अपमान नहीं कर सकते; उसका सम्मान आखिरी है। क्योंकि तुम उसका सम्मान भी करके सम्मान नहीं कर सकते। उसका सम्मान अब भीतरी है, उसकी प्रतिष्ठा आंतरिक है।
जो तुम पर निर्भर है उसकी प्रतिष्ठा तुम पर निर्भर है। तुम साथ दो तो वह सम्राट है; तुम साथ न दो, सड़क का भिखारी है। तुम प्रशंसा करो तो वह गौरवान्वित है; तुम अपमान करो, गौरव भ्रष्ट धूल-धूसरित हो गया।
आत्म-प्रतिष्ठावान व्यक्ति की स्थिति में तुम कुछ भी तो नहीं घटा-बढ़ा सकते। तुम प्रशंसा करो तो भी वह साक्षी है; तुम निंदा करो तो भी वह साक्षी है। तुम्हारी प्रशंसा से तुम्हीं को लाभ हो सकता है, तुम्हारी निंदा से तुम्हारी ही हानि हो सकती है। तुम्हारी गालियां तुम पर ही लौट आएंगी। तुम्हारे फूल भी तुम पर ही बरस जाएंगे।
इसलिए क्या तुम करते हो, सोच कर करना। ऐसे आदमी के साथ बड़ा खतरा है। क्योंकि जो भी तुम करोगे वही तुम्हें वापस मिल जाएगा। ऐसा आदमी तो ऐसा है जैसा कभी तुम किसी पहाड़ में गए हो। माथेरान की पहाड़ियों में एक जगह है, इको प्वाइंट। तुम जो भी बोलो वही आवाज लौट कर वापस आ जाती है। तुम कुत्ते की तरह भौंको, सारी घाटी कुत्तों की आवाज लौटा कर तुम पर बरसा देती है। तुम कोई प्रेम का गीत गाओ, घाटी उसे दोहरा देती है। तुम ओंकार का मंत्र पढ़ो, घाटी उसे दोहरा देती है।
आत्म-प्रतिष्ठा को उपलब्ध हुआ व्यक्ति, ताओ को उपलब्ध हुआ व्यक्ति एक शून्य घाटी है। उसमें तुम जो भी ले जाओगे, वापस आ जाएगा। वह एक प्रतिध्वनि है। इसलिए उसे सोच कर देना। जो तुम पाना चाहते हो वही उसे देना। अगर गाली पाना चाहते हो, गाली दे देना; सम्मान पाना चाहते हो, सम्मान दे देना। उसे कुछ भी नहीं दिया जा सकता; तुम अपने को ही उसके बहाने कुछ दोगे; दे रहे हो। सब तुम्हीं पर वापस लौट आता है।
यह रहस्यमयी एकता को सोचो, समझो, कुछ कदम उठाओ। थोड़ी-थोड़ी धारों को घिसो। थोड़ा-थोड़ा बुद्धि का प्रकाश धीमा करो। थोड़े-थोड़े शांति में विराजमान होओ। बचाओ अपनी इंद्रियों की ऊर्जा को, ताकि छिद्र बंद हो जाएं। सजग बनो, ताकि भीतर उठती वासनाएं पहले ही क्षण में काट दी जाएं, उनकी जड़ें न जम पाएं। और तुम जानोगे। तभी मेरे शब्द तुम्हें साफ होंगे। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह शब्दों में कहा नहीं जा सकता है। जो तुम सुन रहे हो वह सिर्फ सुनने से समझा नहीं जा सकता है।
इसलिए तो लाओत्से कहता है, "जो जानता है वह बोलता नहीं; जो बोलता है वह जानता नहीं।'

आज इतना ही।


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