कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

ताओ उनिषाद--प्रवचन--085

जीवन परमात्म-ऊर्जा का खेल है—(प्रवचन—पचासीवां)

प्रश्न-सार

1--आलस्य, अयोग्यता और अक्रियता का आध्यात्मिक महत्व क्या है?

2--आस्तिक, नास्तिक और अज्ञेयवादी में फर्क क्या है?

3--क्या स्वभाव में प्रतिक्रमण लंबी प्रक्रिया है?

4--क्या निष्क्रिय व सक्रिय ध्यान के लाभ समान हैं?

5--लंबे अतीत के बोझ से कैसे छूटा जाए?

पहला प्रश्न:

प्रथम दिन की चर्चा में आपने समझाया कि अयोग्यता ताओ चिंतना का कीमती शब्द है, तथा उसका बहुत आध्यात्मिक मूल्य है। इस संदर्भ में ऐसा लगता है कि तामसी व आलसी लोग तो अयोग्यता के गुण से संपन्न होते ही हैं, लेकिन फिर भी उनका आध्यात्मिक विकास होता दिखाई नहीं पड़ता। इस विषय में आपकी क्या दृष्टि है?

लाओत्से जिसे अयोग्यता कहता है वह गहनतम योग्यता का नाम है। वह आलस्य नहीं है, विश्राम की परम दशा है। वह तमस भी नहीं है, ऊर्जा की अत्यंत प्रज्वलित स्थिति है।
फर्क को ठीक से समझ लें। भ्रांति स्वाभाविक है, क्योंकि जो व्यक्ति भी निष्क्रिय बैठा है, हमें लगेगा, आलसी है। सभी निष्क्रिय बैठे हुए व्यक्ति आलसी नहीं होते। जिसे हम आलसी कहते हैं, खाली तो वह भी नहीं बैठता; मन का काम जारी रहता है। शायद आलसी आदमी शरीर से कुछ न करता हो, मन से तो पूरी तरह करता है। और जहां शरीर की गति वाले लोग दौड़ रहे हैं वहां वह भी अपनी कामना और वासना से दौड़ता है। उसके मन के संबंध में कोई फर्क नहीं है। हमें आलसी दिखाई पड़ता है, क्योंकि हमारे जैसा नहीं दौड़ रहा है। दौड़ तो वह भी रहा है।
अगर आलस्य परम हो जाए, जिसको लाओत्से कह रहा है निष्क्रियता, तो आलस्य ही योग्यता हो जाएगी। लेकिन निष्क्रियता चाहिए पूर्ण। शरीर ही न रुका हो, मन भी रुक गया हो, कोई भी क्रिया न रह जाए। तो आध्यात्मिक विकास दूर नहीं है। आलस्य शब्द को सुनते ही हमारे मन में निंदा उठ आती है। क्योंकि हम सब जीते हैं प्रयोजन से, क्रिया से, कर्म से, फल से। हमने आलसी को बुरी तरह निंदित किया है। हमसे विपरीत है आलसी। इसलिए यह तो हम सोच ही नहीं सकते कि ऐसी भी कोई स्थिति हो सकती है आलस्य की जो अध्यात्म बन जाए। परम आलस्य की स्थिति अध्यात्म बन जाएगी--शरीर ही न रुके, मन भी रुक जाए।
जिसे हम आलस्य कहते हैं, वह क्रिया करने की वासना से मुक्ति नहीं है। क्रिया की वासना तो पूरी मौजूद है, लेकिन उस वासना के साथ शरीर को दौड़ाने की क्षमता नहीं है। हमारा जो आलस्य है, वह नपुंसक को अगर हम ब्रह्मचारी कहें, वैसा आलस्य है। नपुंसक भी ब्रह्मचारी है; इसलिए नहीं कि वासना की कोई कमी है, बल्कि इसलिए कि शरीर साथ नहीं देता। लाओत्से उसे कह रहा है अयोग्य, निष्क्रिय, परम विश्राम में डूबा व्यक्ति, जिसके पास ऊर्जा तो बहुत है, आपसे ज्यादा है, क्योंकि आप तो खर्च कर रहे हैं, वह खर्च भी नहीं कर रहा है, जिसका शरीर आपसे ज्यादा गतिमान हो सकता है, क्योंकि सारी ऊर्जा उसके भीतर छिपी है, लेकिन उस ऊर्जा के रहते हुए भी मन में दौड़ की कोई वासना नहीं है। इसलिए शरीर भी रुक गया है, मन भी रुक गया है। शरीर और मन की इस ठहरी हुई अवस्था का नाम ध्यान है।
ध्यान करने वाले लोग काम करने वाले लोगों को आलसी ही दिखाई पड़ते हैं।
महर्षि रमण अरुणाचल पर बैठे रहे वर्षों। एक पश्चिमी विचारक, लेंजा देलवास्तो, एक इटालियन जो गांधी का भक्त था, वह रमण के आश्रम गया। भारत आया गुरु की तलाश में। तो लेंजा देलवास्तो ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि रमण को देख कर मुझे लगा कि यह तो निपट आलस्य है। गांधी के भक्त को लगेगा ही, क्योंकि गांधी का तो सारा जोर कर्म पर है, सेवा पर है, कुछ करने पर है। लेंजा देलवास्तो ने लिखा है कि होगा यह अध्यात्म, लेकिन हमारे लिए नहीं। और हमें इसमें कुछ सार नहीं मालूम पड़ता कि कोई आदमी खाली बैठा है। और खाली बैठने से क्या होगा? संसार में इतने कष्ट हैं, इतनी पीड़ाएं हैं; इन्हें दूर करो! लोग भूखे हैं, दीन हैं, दुखी हैं; इनकी सेवा करो! कुछ करो! उससे तो परमात्मा मिल सकता है। यह वृक्ष के नीचे खाली बैठा हुआ आदमी क्या पा लेगा? लेंजा देलवास्तो अरुणाचल से सीधा वर्धा गया। और उसने अपनी डायरी में लिखा है कि वर्धा पहुंच कर लगा कि यह कोई सार्थक बात है। कुछ करो! करने से ही कुछ मिल सकता है।
गांधी और रमण ठीक विपरीत हैं। गांधी पूरे वक्त काम में लगे हैं। एक इंच भर भी ऊर्जा बिना काम के छूट जाए तो गांधी के मन में अपराध का भाव अनुभव होता है। स्नान कर रहे हैं बाथरूम में तो भी बाहर से खड़े होकर कोई अखबार पढ़ कर सुना रहा है, ताकि उस समय का उपयोग हो जाए। मालिश हो रही है तो वे चिट्ठियों के जवाब लिखवा रहे हैं, ताकि उस समय का उपयोग हो जाए। सोते भी हैं तो मजबूरी में; उतना समय व्यर्थ जा रहा है। प्रत्येक चीज का मूल्य क्रिया के आधार पर है।
उधर ठीक विपरीत बैठे रमण हैं। रमण ठीक ताओवादी हैं। लाओत्से रमण को देख कर प्रसन्न होता। वे खाली बैठे हैं, वे कुछ करते नहीं। उनका होना ही--विशुद्ध होना ही--बिना किसी क्रिया के होना ही एक महान घटना है। और उनके पास जो व्यक्ति कुछ करने का भाव लेकर जाएगा वह खाली हाथ लौटेगा। क्योंकि वह उनसे जुड़ ही नहीं पाएगा। उनसे तो संबंध उसी का बन सकता है जो उनके पास खाली बैठने को राजी हो, परम आलस्य में डूबने को राजी हो। शरीर ही नहीं, मन को भी शांत कर देने को राजी हो। तो जल्दी ही रमण से उसके संबंध बन जाएंगे। और तब उसे आविर्भाव होगा, तब उसे प्रतीत होगा कि यह जो शांत चेतना बैठी है, यह कितनी बड़ी महा घटना है।
कर्म क्षुद्र है, चाहे कितना ही बड़ा हो; कर्मशून्य हो जाना महान घटना है। पर देखने के लिए कर्मशून्य आंखें चाहिए; पहचानने के लिए कर्मशून्य हृदय चाहिए। रमण या लाओत्से जैसे व्यक्ति हमसे अपरिचित रह जाते हैं; हम उन्हें पहचान नहीं पाते। क्योंकि वे कुछ दूसरी ही कीमिया बता रहे हैं, जीवन के रहस्य की कुंजी कुछ दूसरी ही, कुछ बिलकुल और आयाम से। क्या कारण है निष्क्रियता के लिए इतना जोर देने का?
पहली बात, जब भी आप सक्रिय होते हैं तब आप अपने से बाहर चले जाते हैं। क्रिया बाहर ले जाने वाला द्वार है। क्योंकि क्रिया का मतलब है दूसरे से संबंधित होना। क्रिया का मतलब है किसी वस्तु से, किसी व्यक्ति से संबंधित होना। कुछ करने का मतलब है, आप अकेले न रहे, कुछ और जुड़ गया। अक्रिया का अर्थ है, आप अकेले हैं। न कोई व्यक्ति, न कोई वस्तु, न कोई घटना, आप किसी चीज से जुड़े हुए नहीं हैं। अक्रिया में ही आत्म-भाव का उदय होगा। क्रिया में तो दूसरे पर ध्यान रखना होता है। क्रिया दूसरे से संबंध है। इसलिए क्रिया के माध्यम से कोई कभी आत्म-ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता। इसका यह मतलब नहीं है कि आत्म-ज्ञानी क्रिया नहीं करेगा। आत्म-ज्ञानी से क्रिया हो सकती है, लेकिन क्रिया करने से कोई आत्म-ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता।
दूसरी बात ध्यान रखनी जरूरी है, जब भी हम क्रिया में संलग्न होते हैं, तो हम कितना ही कहें कि हमें फल की कोई आकांक्षा नहीं है, लेकिन फल की आकांक्षा न हो तो हम क्रिया में संलग्न होते ही नहीं। वही अर्जुन की कठिनाई है कृष्ण के साथ। अर्जुन की कठिनाई हर मनुष्य की कठिनाई है। कृष्ण कहते हैं, तू क्रिया कर, और फल की आकांक्षा मत कर। अर्जुन को साफ लगता है कि दो बातें सहज हैं। या तो मैं कुछ भी न करूं तो फल का कोई सवाल नहीं; और यदि मैं कुछ करूंगा तो बिना फल के कैसे करूंगा! फल की आकांक्षा होगी, तभी कुछ करूंगा।
गीता समझी बहुत गई, पढ़ी बहुत गई; लेकिन भारत के जीवन में कहीं भी उतर नहीं सकी। क्योंकि बड़ी ही जटिल बात है: फल की आकांक्षा मत करो और कर्म करो। यह तब हो सकता है जब कोई आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गया हो। तब कर्म होगा और फल की आकांक्षा न होगी। लेकिन तब कर्म एक खेल की भांति होगा, एक अभिनय की भांति होगा। उसमें कोई प्रयोजन ही नहीं है; वह निष्प्रयोजन है।
जैसे ही कोई व्यक्ति कर्म में उतरता है, वासना के कारण उतरता है। और लाओत्से कहता है, जब हम वासना में भटक जाते हैं तो स्वयं से दूर निकल जाते हैं। सारे कर्म को छोड़ दो तो हम अपने में ठहर ही जाएंगे, कोई उपाय न रहा बाहर जाने का, सब द्वार बंद हो गए। और एक बार यह भीतर के ठहरने की घटना घट जाए...।
फिर दो तरह के व्यक्ति हैं जगत में, दो तरह के टाइप हैं, जिनको जुंग ने एक्सट्रोवर्ट और इंट्रोवर्ट कहा है। एक बहिर्मुखी लोग हैं, एक अंतर्मुखी लोग हैं। ये दो मूल प्रकार हैं। तो अगर कोई व्यक्ति आत्म-भाव में ठहर जाए और बहिर्मुखी हो तो उसके जीवन में कर्म जारी रहेगा, लेकिन फल की आकांक्षा नहीं रहेगी। अगर अंतर्मुखी हो तो उसके जीवन में फल की आकांक्षा भी छूट जाएगी और कर्म भी छूट जाएगा।
कृष्ण, महावीर या बुद्ध ज्ञान के बाद भी किसी न किसी भांति कर्म में लीन रहे। कृष्ण तो विराट कर्म में लीन रहे; महावीर-बुद्ध छोटे, थोड़े कर्म में लीन रहे--अल्प। लेकिन लाओत्से या रमण बिलकुल कर्मशून्य होकर रहे। इनके व्यक्तित्व का जो ढांचा है, परिपूर्ण अंतर्मुखी है। तो जब इनका आत्म-ज्ञान, जब इनकी अंतस-चेतना जागेगी तो ये एक शांत झील हो जाएंगे। इनसे किसी को लाभ भी लेना हो तो उसको ही इनके पास आना होगा। कोई इनके पास न आए तो ये निमंत्रण देने भी न जाएंगे।
बुद्ध और महावीर चल कर, यात्रा करके भी पहुंचेंगे। उन्हें जो मिला है, उसे वे बांटना चाहते हैं। उनके व्यक्तित्व में बाहर की तरफ बहने का ढांचा है। बुद्ध और महावीर नदी की तरह हैं, जो बहती है। रमण और लाओत्से झील की भांति हैं, जो ठहर गई है। जल एक ही है। नदी शायद आपके गांव के पास से भी बहे, कि आप स्नान कर लें, कि आप प्यास को बुझा लें। लेकिन झील अपने पर्वत पर ही ठहरी रहेगी। आपको ही यात्रा करके झील तक जाना होगा। झील निमंत्रण भी न देगी।
ये दो तरह के व्यक्ति हैं। और ये दो तरह के व्यक्ति अज्ञान में भी दो तरह के होते हैं, ज्ञान में भी दो तरह के होते हैं। अगर अज्ञानी व्यक्ति अंतर्मुखी हो तो आलसी हो जाता है। इसे ठीक से समझ लें। और अगर ज्ञानी व्यक्ति अंतर्मुखी हो तो निष्क्रिय हो जाता है। अगर बहिर्मुखी व्यक्ति अज्ञानी हो तो उपद्रवी हो जाता है; उसका कर्म उपद्रव हो जाता है। वह कुछ न कुछ करेगा; वह बिना किए नहीं रह सकता। करने से हानि हो तो चिंता नहीं, लेकिन करेगा।
यह सारा मनुष्य-जाति का इतिहास इसी तरह के बहिर्मुखी अज्ञानियों के कारण है। वे कुछ न कुछ कर रहे हैं; वे बिना किए नहीं रुक सकते। करना उनकी बीमारी है। तो राजनीतिज्ञ हैं, समाज-सुधारक हैं, क्रांतिकारी हैं; सब उपद्रवियों की जमात है। ये बहिर्मुखी अज्ञानी हैं। इन्हें कुछ पता नहीं है; ये क्या करने जा रहे हैं, उसका इन्हें कोई बोध नहीं है। क्या परिणाम होगा, उसका इन्हें प्रयोजन नहीं। ये बिना किए नहीं रह सकते; ये कुछ करेंगे। इनके करने का दुष्परिणाम होता है; युद्ध होते हैं, क्रांतियां होती हैं। बड़ा उलट-फेर इनके द्वारा होता है। और आदमी रोज दुख के गर्त में गिरता जाता है।
बहिर्मुखी ज्ञानी हो जाए तो उससे कर्म बहेगा; जैसे कृष्ण से बहता है, बुद्ध से बहता है, महावीर से बहता है। वह कर्म कल्याण के लिए होगा। वह बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय होगा। लेकिन यह भेद कायम रहता है।
यह भेद आत्मा का भेद नहीं है, यह भेद आत्मा के आस-पास जो मन का संस्थान है, उसका भेद है। जन्मों-जन्मों में व्यक्ति अंतर्मुखता या बहिर्मुखता अर्जित करता है। हम उसे लेकर पैदा होते हैं। जब बच्चा पैदा होता है तब भी अंतर्मुखी या बहिर्मुखी होने का भेद होता है उसमें। अगर छोटा बच्चा--मनसविद कहते हैं, खासकर जीन पिआगे, जिसने बच्चों का पूरे जीवन अध्ययन किया है--कि पहले दिन का बच्चा भी व्यक्तित्व से भेद जाहिर करता है। अगर अंतर्मुखी बच्चा है तो वह ज्यादातर आंख बंद किए सोया रहेगा; हिलेगा-डुलेगा भी नहीं। भूख-प्यास जब उसे लगेगी तभी वह आंख खोलेगा, थोड़ा शोरगुल करेगा। बहिर्मुखी बच्चा पहले दिन से ही चारों तरफ देखना शुरू कर देगा; हाथ-पैर फैलाने की कोशिश करेगा, चीजों को पकड़ने की कोशिश करेगा। जीन पिआगे तो कहता है कि मां के गर्भ में भी अंतर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व का फर्क हो जाता है। वह जो बहिर्मुखी बच्चा है, वहां भी लातें मारना शुरू कर देता है। मां के गर्भ में भी उपद्रव शुरू कर देता है; वह वहां भी क्रांतिकारी है। वह जो अंतर्मुखी बच्चा है वह मां के गर्भ में भी चुपचाप पड़ा रहता है; जैसे है या नहीं, कोई फर्क नहीं। ये हमारे व्यक्तित्व के ढांचे हैं।
आलस्य, अंतर्मुखता है अज्ञानी की। निष्क्रियता, अकर्म, अंतर्मुखता है ज्ञानी की। कर्म, उपद्रव से भरा हुआ कर्म, बहिर्मुखता है अज्ञानी की। सेवा, दूसरे के कल्याण के लिए कर्म में प्रवृत्त होना, बहिर्मुखता है ज्ञानी की। पर ध्यान रहे, चाहे कर्म हो, चाहे अकर्म, दोनों की प्राथमिक शर्त स्वयं में ठहर जाना है। उसके बाद ही शुभ होगा। उसके पहले आप खाली बैठें तो, और कर्म करें तो, दोनों हालत में अशुभ होगा।
फिर भी ध्यान रहे, आलसी लोगों के ऊपर अशुभ का ज्यादा जिम्मा नहीं है। आलसी लोगों ने कुछ बुरा नहीं किया है। यह बहुत हैरानी की बात है कि आलसी की हम निंदा करते हैं, बिना यह जाने कि इतिहास में कोई बड़ी कालिख आलसी लोगों के ऊपर नहीं है। हिटलर, नेपोलियन, मुसोलिनी, तैमूर, नादिर, इनके सामने आप पांच तो आलसी आदमी गिना दें जिन्होंने नुकसान किया हो। आलसी आदमियों का नाम इतिहास में ही नहीं मिलेगा, क्योंकि उन्होंने कोई उपद्रव ही नहीं किया। इतिहास सिर्फ उपद्रवियों को गिनता है। आलसी लोगों ने कभी बुरा नहीं किया, क्योंकि बुरा करने के लिए भी करना तो पड़ेगा। वे करते ही नहीं। निश्चित ही, उन्होंने भला भी नहीं किया। क्योंकि करने में उनका रस नहीं है।
अगर सिर्फ जीवन का अंतिम हिसाब खयाल में रखा जाए तो आलसी ही चुनने योग्य हैं। उन्होंने भला नहीं किया; उन्होंने बुरा भी नहीं किया। और जो कर्मठ हैं, उन्होंने कुछ भला नहीं किया, बुरा बहुत किया। आलसी आदमी अगर कुछ बुरा भी करे तो वह भी निष्क्रिय बुराई होती है। जैसे घर में आग लगी हो किसी के, तो वह बैठा देखता रहेगा। आग लगाने वह जाने वाला नहीं है; वह बुझाने भी जाने वाला नहीं है। आप अगर उसको दोष भी दे सकते हैं तो इतना ही कि तुम बैठे देखते रहे, तुमने आग क्यों नहीं बुझाई? अगर कोई लुट रहा हो तो वह बचाएगा नहीं; अगर किसी स्त्री की इज्जत लूटी जा रही है तो भी वह आंख बंद किए बैठा रहेगा। अगर उसके ऊपर कोई बुरा कृत्य भी है तो वह बुरा कृत्य सिर्फ निष्क्रिय होने का है, कि वह दूर खड़ा रहता है, वह उपद्रव में नहीं उलझता। लेकिन विधायक रूप से बुराई आलसी आदमी ने कभी की नहीं है।
फिर भी हमारे मन में उसकी निंदा है, क्योंकि हमारी पूरी शिक्षा महत्वाकांक्षा की है। हर बच्चे के मन में हम भाव डाल रहे हैं--कुछ करो, क्योंकि करने से कहीं पहुंचोगे। पश्चिम में अब विचार शुरू हुआ है और आने वाली सदी में कुछ आश्चर्य न होगा कि अब तक के इतिहास का पूरा मूल्यांकन हमें बदलना पड़े। और इसलिए मैं कहता हूं, लाओत्से का बड़ा भविष्य है; अज्ञानियों के लिए भी लाओत्से का बड़ा भविष्य है। क्योंकि पश्चिम के विचारक निरंतर चिंतन कर रहे हैं, इधर सैकड़ों पुस्तकें इस संबंध में प्रकाशित हुई हैं कि आदमी के काम करने की जो क्षमता है वह तो धीरे-धीरे यंत्रों के हाथ में जा रही है। इस सदी के पूरे होते-होते सारे स्वचालित यंत्र मनुष्य का सारा कर्म कर लेंगे। तो हमने अब तक आदमी को जो कर्म करने की शिक्षा दी है उसे हमें बदलना पड़ेगा। क्योंकि आदमी को हम काम दे न पाएंगे। अब तक हमने सबको समझाया था कि काम करने वाला श्रेष्ठ है; आलसी बुरा है। सिखाया था इसलिए कि संसार में काम की बड़ी जरूरत थी। अब काम यंत्र कर लेगा।
मार्शल मैकलोहान ने कहा है--इस सदी के बड़े विचारकों में एक--कि इस सदी के पूरे होते-होते हमें हर स्कूल में सिखाना पड़ेगा कि आलस्य महाधर्म है। क्योंकि वे ही लोग शांत बैठ सकेंगे जो आलसी हो सकते हैं, अन्यथा वे काम मांगेंगे। और काम हमारे पास नहीं होगा। काम यंत्र करेंगे। और आदमी से बेहतर काम कर रहे हैं; इसलिए आदमी काम्पिटीशन में अब यंत्रों से टिक नहीं सकता।
तो या तो हमें आदमी को फिजूल काम देने पड़ेंगे। जैसी पुरानी कहानियां हैं कि किसी आदमी ने एक प्रेत को जगा लिया, कि एक जिन्न को जगा लिया। और उस जिन्न ने जगते वक्त कहा कि शर्त मेरी एक ही है: सेवा तुम्हारी करूंगा, लेकिन काम मुझे हर पल चाहिए। जिसने जगाया था वह बहुत प्रसन्न हुआ, क्योंकि यह तो बड़ी खुशी की बात है, ऐसा सेवक मिल जाए जिसे हर पल काम चाहिए। पर उसे पता नहीं था कि यह खतरनाक है। घड़ी, दो घड़ी में उसके सारे काम चुक गए। क्योंकि वह प्रेत से कह भी न पाए, कि वह काम करके हाजिर। वह कहे कि काम?
सांझ होते-होते वह आदमी घबड़ा गया, क्योंकि काम सब चुक गए और वह आदमी सिर पर खड़ा है कि काम? क्योंकि अगर काम न हो तो उस प्रेत ने कहा था कि मैं तुम्हारी गर्दन दबा दूंगा। तो वह भागा हुआ एक फकीर के पास गया। उसने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं, और आपसे ही पूछ सकता हूं कि अब क्या करूं! क्योंकि यह प्रेत मेरे प्राण ले लेगा। उस फकीर ने कहा, तुम एक काम करो। एक सीढ़ी लगा दो अपने मकान पर और उससे कहो कि तू इससे ऊपर तक जा और ऊपर से फिर नीचे तक आ, फिर नीचे से ऊपर तक जा। जब भी कोई काम न हो तो सीढ़ी बता दिए, ताकि वह ऊपर-नीचे होता रहे।
करीब-करीब, वैज्ञानिक कह रहे हैं कि आदमी को ऐसी मुसीबत आ जाने वाली है, जब हमें उसे काम देना पड़े सीढ़ी पर चढ़ने जैसा। क्योंकि काम हमारे पास बचेगा नहीं। तब शायद लाओत्से पहली दफा समझ में आने जैसी बात होगी। परम आलस्य भी परम गुण हो जाए।
आज भी लोग छुट्टी की राह देखते हैं कि छुट्टी का दिन आ रहा है। लेकिन छुट्टी के दिन लोग परेशान होते हैं, क्योंकि क्या करें? करने का अभ्यास इतना भारी है। खाली बैठने का कोई अभ्यास नहीं है। तो छुट्टी के दिन भी लोग काफी करते हैं। अमरीका के आंकड़े ये हैं कि छुट्टी के दिन लोग जितना थकते हैं उतना काम के दिन नहीं थकते। भागते हैं समुद्र की तरफ, पहाड़ की तरफ, ड्राइव करते हैं सैकड़ों मील। सोमवार को अमरीका के सभी दफ्तरों में लोग थके हुए होते हैं। होना नहीं चाहिए। छुट्टी के दिन विश्राम होना था। छुट्टी के दिन सर्वाधिक एक्सीडेंट होते हैं, सर्वाधिक लोग मरते हैं। आत्महत्याएं होती हैं, और हत्याएं होती हैं। छुट्टी का दिन खतरनाक है; एक दिन है सप्ताह में। जिस दिन पूरा सप्ताह छुट्टी हो और जिस दिन पूरे वर्ष और पूरे जीवन काम यंत्र कर देते हों, और आप खाली हो जाएं, तब आपको पता चलेगा कि तीन-चार-पांच हजार वर्षों में हमने जो सिखाया है कि कर्म करो, कर्म भगवान है, खाली बैठना हराम है, यह जो हमने सिखाया है, यह हमारी छाती पर बैठ जाएगा, यह हमारी गर्दन दबाएगा
यह पूरी शिक्षा हमें बदलनी पड़ेगी। लोगों को हमने सिखाया, काम करो, क्योंकि जिंदगी के लिए जरूरत थी। भोजन नहीं था, कपड़ा नहीं था। वह हालत बदल जाएगी। आलस्य इतना बुरा नहीं रह जाने वाला आने वाली सदी में, जितना पीछे था।
और जब लाओत्से कह रहा है परम अयोग्यता की बात तो ऊपरी आलस्य की ही बात नहीं कह रहा है, भीतरी आलस्य की भी कह रहा है। कुछ करने का भाव ही न उठता हो, कहीं जाने की आकांक्षा न पैदा होती हो; अगर इसी क्षण मर जाऊं तो भी ऐसा न लगे कि कुछ अधूरा रह गया है; इस स्थिति को वह कह रहा है परम निष्क्रियता। और जो इस परम निष्क्रियता में प्रवेश कर जाता है, वह जीवन के गहनतम रहस्य को उपलब्ध कर लिया। वह उस मंदिर में प्रवेश कर गया जिसे हम परमात्मा कहते हैं।
और पूछा है कि आलसी लोग अयोग्यता के गुण से संपन्न होते हैं, लेकिन फिर भी उनका आध्यात्मिक विकास होता दिखाई नहीं देता।
बुद्ध क्या कर रहे हैं बोधिवृक्ष के नीचे बैठ कर? परम आलस्य में पड़े हैं। कुछ नहीं कर रहे; करना छोड़ दिया है। संन्यासियों ने क्या किया है सदियों-सदियों में? करना छोड़ दिया है। संन्यास का मतलब ही है, सब छोड़ दिया वह जो करने का, उपद्रव का जगत था; खाली बैठ गए हैं। लेकिन पूरब समझता था, और पूरब ने अपने आलसियों को भी बड़ा आदर दिया है।
आपको खयाल न हो, हमारे पास जो शब्द है बुद्धू, वह बुद्ध से ही आया है। घर में कोई खाली बैठा हो तो हम उससे कहते हैं, क्या बुद्धू की तरह बैठे हुए हो? वह वही पुराना स्मरण है उसमें कि हम जानते हैं कि बुद्ध एक दिन बोधिवृक्ष के नीचे खाली बैठे रहे हैं वर्षों तक। अब भी हम कहते हैं, क्या बुद्धू की तरह बैठे हो! उठो, कुछ करो। हमें भूल गया है कि यह शब्द बुद्ध से आया है। लेकिन इस शब्द के पीछे छिपा हुआ भाव बताता है कि हमें बुद्ध को देख कर भी हमारे मन में यही उठा होगा। हमने आदर दिया, क्योंकि महिमा प्रकट हुई। हमने आदर दिया, क्योंकि ज्योति प्रकट हुई। लेकिन हम जानते थे, यह आदमी खाली बैठा है; यह कुछ कर नहीं रहा है। करने की भाषा में बुद्ध ने क्या किया है? महावीर बारह वर्ष अपने वन की साधना में क्या कर रहे हैं? खाली खड़े हैं। खाली बैठे हैं। खाली करने की ही बस कोशिश है कि कुछ न रह जाए, एक शून्यता रह जाए।
लेकिन हम होशियार हैं। हम इन खाली शून्यता में बैठे लोगों पर भी ऐसे शब्द चिपकाते हैं कि उनसे कर्म का भाव होता है। हम कहते हैं, महावीर साधना कर रहे हैं। यह हमारी कुशलता है और हमारी भाषा है कि हम कहते हैं, महावीर साधना कर रहे हैं। बुद्ध खाली बैठे हैं; हम कहते हैं, बुद्ध ध्यान कर रहे हैं। ध्यान कर रहे हैं कहने से लगता है कुछ कर रहे हैं। और बुद्ध जिंदगी भर समझाते रहे हैं कि जब तक तुम करोगे तब तक ध्यान नहीं होगा; ध्यान किया नहीं जा सकता। जब तुम कुछ भी नहीं करते हो तो जो अवस्था शेष रह जाती है उस शेष अवस्था का नाम ध्यान है। लेकिन हमारी भी तकलीफ है। हमारे पास शब्द ही सब कर्म से जुड़े हुए हैं। और जब हम शब्द बदल देते हैं तो पूरा भाव बदल जाता है। जब हम कहते हैं, महावीर जंगल में साधना कर रहे हैं तो हमारे मन में ऐसा खयाल उठता है, कोई बहुत बड़ा काम हो रहा है। महावीर कुछ भी नहीं कर रहे हैं; काम को छोड़ रहे हैं।
शब्द बड़े धोखे के हैं। उन्नीस सौ बावन में संसद में एक सवाल था। हिमालय में नील गाय पाई जाती है। वह बहुत उपद्रव कर रही थी। उसकी संख्या बढ़ गई थी; खेतों को नुकसान पहुंचा रही थी। लेकिन उसको गोली नहीं मारी जा सकती, क्योंकि उसमें गाय जुड़ा है। नील गाय शब्द के कारण उसको गोली नहीं मारी जा सकती, जहर नहीं दिया जा सकता; और वह खेतों को नुकसान कर रही है। तो आप जान कर हैरान होंगे कि संसद ने एक निर्णय लिया कि उसका नाम बदल दिया जाए, उसको ब्लू काऊ की जगह ब्लू हार्स--उसका नाम नील घोड़ा कर दिया। और इसके बाद गोली मार दी, और कोई उपद्रव नहीं हुआ हिंदुस्तान में।
नील घोड़े को कोई मारे, क्या मतलब किसी को? नील गाय को मारते तो जनसंघ...। कुछ, वही का वही पशु है, लेकिन नाम! आप भी पढ़ लेंगे अखबार में कि नील घोड़े बढ़ गए, उनको मार दिया; किसी को मतलब नहीं है। लेकिन नील गाय! तो आपको भी अखर जाता कि यह तो भारत के धर्म पर चोट हो गई। अमरीका और यूरोप में भी उस पर हंसी उड़ाई गई जब नाम उसका बदल दिया। और नाम बदलने से हल हो गया मामला।
जीवन के बहुत अंगों में हम यही कर रहे हैं। आप पूछते हैं, आलसी लोगों को कब अध्यात्म हुआ? मैं आपसे पूछता हूं, आलसियों के सिवाय कब किसको अध्यात्म हुआ? आप भाषा थोड़ी बदल लें तो आपको खयाल में आ जाएगा। साधना की जगह आप शून्यता रख लें और ध्यान की जगह निष्क्रियता रख लें तो आपको खयाल में आ जाएगा कि ये सब परम आलसी हैं। और जब तक आप सीधा-सीधा नहीं समझेंगे और अपने शब्दों में भटकते रहेंगे तब तक कोई समझ पैदा नहीं हो सकती जो उपयोगी हो सके।
लेकिन अगर बौद्धों से भी कहो कि बुद्ध परम आलसी हैं तो वे भी नाराज हो जाते हैं। एक बौद्ध भिक्षु मुझे मिलने आए। तो उनको मैंने कहा कि साधना और तपश्चर्या, इन शब्दों का उपयोग मत करें, क्योंकि इससे वह जो कर्मठ आदमी है वह समझता है कि कुछ उसकी ही कोटि के लोग रहे होंगे। वह संसार में कर्म कर रहा है, ये लोग मोक्ष में कर्म कर रहे हैं; लेकिन कर्म कर रहे हैं। अच्छा हो कि कहें कि बुद्ध परम आलसी हैं, कुछ भी नहीं कर रहे हैं। और जब तक तुम भी कुछ न करने की हालत में न आ जाओगे तब तक सत्य से, जीवन के केंद्र से कोई संबंध स्थापित नहीं होगा। उस बौद्ध भिक्षु ने कहा, परम आलस्य? बुद्ध को आलसी कहना! इससे तो बौद्धों के मन को बड़ी ठेस पहुंचेगी। ठेस पहुंचेगी, क्योंकि हम कर्म का मूल्य मानते हैं, आलस्य का मूल्य नहीं मानते। आलस्य का भी मूल्य है। अगर कर्म का मूल्य जगत में है तो आलस्य का मूल्य उस दूसरे जगत में है। उसके नियम बिलकुल उलटे हैं।

दूसरा प्रश्न:

आपने कहा कि साधारणतया अपने को आस्तिक या नास्तिक कहना बेईमानी है, और ईमान है एगनास्टिक होना, अज्ञेयवादी होना, अप्रतिबद्ध होना। इस पर कुछ और प्रकाश...।

जो भी मैं जानता हूं उसे मुझे स्पष्ट जानना चाहिए कि मैं जानता हूं। और जो मैं नहीं जानता उसे भी स्पष्ट जानना चाहिए कि मैं नहीं जानता हूं। ऐसी स्पष्टता अगर हो तो सत्य का खोजी ठीक मार्ग पर चल रहा है।
लेकिन साधारणतः कोई स्पष्टता नहीं है। जिसका आपको कोई भी पता नहीं है, उसको भी आप सोचते हैं आप जानते हैं। आस्तिक सोचता है कि वह जानता है ईश्वर है; नास्तिक सोचता है कि वह जानता है कि ईश्वर नहीं है। लेकिन दोनों जानते हैं।
किसको पता है? इस आस्तिक को सच में पता है कि ईश्वर है? आस्तिक को देख कर लगता नहीं कि इसको ईश्वर के होने का पता चल गया है। क्योंकि ईश्वर के होने का तो पता ही तब चलता है जब आदमी करीब-करीब ईश्वर हो जाता है; उसके पहले तो पता नहीं चलता। हम वही जान सकते हैं जो हम हो गए हैं। ईश्वर को जानने का एक ही उपाय है कि ईश्वर हो जाएं। ईश्वर बिना हुए कैसे ईश्वर को जान पाएंगे?
तो आस्तिक को पता तो नहीं है, क्योंकि वह कहता है कि मैं ईश्वर को खोज रहा हूं, ईश्वर को पाने की कोशिश कर रहा हूं, साध रहा हूं, तप कर रहा हूं, तीर्थ कर रहा हूं। अभी ईश्वर को उसने पाया नहीं, जाना नहीं; मानता है कि ईश्वर है। और इस मान्यता को सोचता है कि मेरा जानना है। यह बेईमानी है। उसका दावा झूठ है। और झूठ से कोई भी यात्रा सत्य तक नहीं हो सकती। झूठ से जहां शुरू होगा वहां अंत सत्य पर कैसे होगा? झूठ से और बड़े झूठ निकलेंगे।
उसके विपरीत खड़ा हुआ नास्तिक है। वह कहता है, कोई ईश्वर नहीं है। लेकिन उसका भी दावा भिन्न नहीं है; वह भी कहता है, मैं जानता हूं। कैसे तुम जान सकते हो कि कोई ईश्वर नहीं है? क्या अस्तित्व के सारे कोने तुमने छान डाले और उसे नहीं पाया? विज्ञान भी नहीं कह सकता कि हमने अस्तित्व के सारे कोने छान डाले। बहुत कुछ जानने को शेष है। ईश्वर उस शेष में छिपा हो सकता है। जब तक एक इंच भी जानने को शेष है तब तक कोई भी ईमानदार आदमी ईश्वर के होने से इनकार नहीं कर सकता; वह यह नहीं कह सकता कि नहीं है। जब हम पूरा ही जान लें, जब जानने को कुछ भी न बचे, एक-एक रत्ती-रत्ती छान ली जाए, सब रहस्य मिट जाएं, तभी कोई कह सकता है कि ईश्वर नहीं है। उसके पहले कोई उपाय नहीं है। इसलिए नास्तिकता परम झूठ है।
आस्तिकता झूठ है, क्योंकि आस्तिकता भी कह रही है, उस रहस्य को हमने जान लिया। और नास्तिक भी कह रहा है कि उसको हमने जान लिया, वह नहीं है। उनका फर्क हां और नहीं में है, लेकिन उनके दावे में कोई फर्क नहीं है। उनकी मूढ़ता दोनों की बराबर है। और वे दोनों समान बेईमान हैं।
एगनास्टिक का अर्थ है--अज्ञेयवादी का, रहस्यवादी का--कि मुझे पता नहीं; हो भी सकता है ईश्वर, न भी हो। मुझे पता नहीं है। इसलिए मैं किसी भी मत में, किसी भी पक्ष में खड़ा नहीं हो सकता, जब तक कि मैं जान ही न लूं, जब तक कि मेरा अनुभव, मेरा ही अनुभव मुझे साफ न कर दे। किसी के और के भरोसे पर, किसी शास्त्र पर, किसी वेद, कुरान, बाइबिल पर, किसी बुद्ध-महावीर पर, किसी ने जाना है उसके आधार पर--उसके आधार पर आपके जानने का कोई मूल्य नहीं है। अज्ञेयवादी, एगनास्टिक का अर्थ है कि मुझे पता नहीं है, और जब तक मुझे पता नहीं है तब तक मैं रुकूंगा निर्णय लेने से।
इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं खोज बंद कर दूंगा। सच तो यह है कि जब तक आप निर्णय नहीं लेते तभी तक खोज कर सकते हैं। जब निर्णय ले लिया, खोज बंद हो गई। जब आपने कह दिया कि है! दरवाजा बंद हो गया। अब खोजना क्या है? जब आपने कह दिया, नहीं है! खोजने को कुछ बचा नहीं, दरवाजा बंद हो गया। सिर्फ रहस्यवादी का दरवाजा खुला है। वह यह कहता है कि मैं दरवाजा खुला रखूंगा, खोजता रहूंगा, जब तक कि अनुभव न बन जाए, जब तक कि मैं अपने से ही न जान लूं कि क्या है, तब तक मैं कोई घोषणा न करूंगा।
यह अघोषित खोज, यह रहस्य में टटोलते हुए चलना, चूंकि बहुत दुस्साहस का काम है, इसलिए अधिक लोग इतनी ईमानदारी का कृत्य नहीं करते। यह बहुत दुस्साहस का काम है। क्योंकि इसका मतलब है कि मैं अंधेरे में खड़ा हूं। इसका मतलब है, मेरे पैर के नीचे जमीन है या नहीं, मुझे पता नहीं। इसका मतलब है कि जिस तरफ मैं जा रहा हूं वह मंजिल हो सकता है हो भी, और न भी हो। इसका यह मतलब है कि रास्ता हो सकता है सिर्फ वर्तुलाकार हो, कहीं न ले जाता हो, सिर्फ भटकाता हो। इसका मतलब यह है कि यह भी हो सकता है कि सत्य जैसी कोई भी चीज न हो। बड़ा साहस चाहिए। निर्णय से बचने के लिए, मत, पक्ष, पक्षपात से बचने के लिए बड़ा साहस चाहिए। क्योंकि सुरक्षा नहीं रहेगी फिर।
आस्तिक भी सुरक्षित है; नास्तिक भी सुरक्षित है। उन दोनों के पास शास्त्र है, सिद्धांत है। वे दोनों अपने सिद्धांत के सहारे अकड़ कर खड़े हैं। एगनास्टिक डांवाडोल होगा, उसके पैर कंपेंगे; उसके पास कोई सहारा नहीं है, कोई आधार नहीं है, कोई आलंबन नहीं है। असुरक्षा है। गहन अंधकार है। और गहन अंधकार में वह जानता है कि मेरे पास अभी रोशनी नहीं है। और आंख बंद करके झूठी रोशनी मानने की उसकी तैयारी नहीं है।
बड़ी साधना है, रहस्य को रहस्य की तरह स्वीकार करना। और ध्यान रहे, यही निष्ठावान व्यक्ति का लक्षण है कि उतने पर ही हां भरेगा जितना जानता है; उससे आगे न हां कहेगा, न न कहेगा। निर्णय को रोकेगा। मन तो कहेगा, निर्णय ले लो। क्योंकि निर्णय लेते ही झंझट मिट जाती है; खोज खत्म हुई; हम विश्राम कर सकते हैं। आश्वस्त हो गए। इसलिए मन तो कहता है, जल्दी निर्णय लो। जितने कमजोर मन होते हैं उतने जल्दी निर्णय ले लेते हैं। इसलिए दुनिया में इतने आस्तिक हैं। इन आस्तिकों को नास्तिक बनाने में जरा भी दिक्कत नहीं है।
रूस में क्रांति हुई। बीस करोड़ लोग आस्तिक थे; बीस करोड़ लोग क्रांति के बाद नास्तिक हो गए। रूस इस जमीन पर गहरे से गहरे आस्तिक मुल्कों में एक था। रूस में जो ईसाइयत थी, आर्थोडाक्स, अत्यंत पुरानी, परंपरागत, और बड़ी धार्मिक। लेकिन बड़ा धर्म धोखे का सिद्ध हुआ। खुद कम्युनिस्ट भी हैरान हुए। उनको भी इतनी आशा नहीं थी कि इतने जल्दी बीस करोड़ का इतना बड़ा समाज, इतनी पुरानी परंपरा, इतना धर्म, इतने चर्च, और एकदम क्रांति के बाद इशारे से सब बदलाहट हो जाएगी और लोग नास्तिक हो जाएंगे। वे भी चौंके। वे सोचते थे, बड़ा संघर्ष होगा; सैकड़ों वर्ष लगेंगे, तब कहीं लोग आस्तिकता से नास्तिकता में लाए जा सकेंगे।
वे गलती में थे। क्योंकि उन्हें आस्तिकता और नास्तिकता के बीच एक बुनियादी समानता है, उसका उन्हें पता नहीं था। वह है बेईमानी। आस्तिक थे लोग, क्योंकि आस्तिकता में सहारा था। अब नास्तिक हो गए लोग, क्योंकि नास्तिकता में सहारा है। कल आस्तिकों की सरकार थी; अब नास्तिकों की सरकार है। कल बंदूक आस्तिकों के हाथ में थी; अब नास्तिकों के हाथ में है। सुरक्षा जिस तरफ हो, लोग उसी तरफ हो जाते हैं। लोग सुरक्षा खोज रहे हैं, सत्य नहीं खोज रहे। इसलिए तो बीस करोड़ लोग एकदम से आस्तिक से नास्तिक हो गए।
सत्तर-अस्सी करोड़ लोग हैं चीन में आज। बौद्धों की बड़ी पुरानी परंपरा है। लाओत्से की, कनफ्यूशियस की, तीनों की बड़ी पुरानी परंपरा है। दुनिया में पुरानी से पुरानी धार्मिक धारणा चीन में है। जिस लाओत्से की हम बात कर रहे हैं उसके बीज भी वहां हैं। लेकिन क्रांति हुई और सारा मुल्क--सारा मुल्क--लाओत्से को भूल गया, कनफ्यूशियस को भूल गया, बुद्ध को भूल गया। चेयरमैन माओत्से तुंग एकमात्र, एकमात्र सत्य के अधिकारी रह गए। जहां लोग ईश्वर का नाम लेते थे वहां लोग सिर्फ चेयरमैन माओत्से तुंग का नाम लेते हैं।
यह कैसे हो जाता है? इतना बड़ा मुल्क, दुनिया का सबसे बड़ा मुल्क, सबसे बड़ी संख्या वाला मुल्क, अति प्राचीन परंपरा वाला मुल्क, अचानक सारी परंपरा छोड़ देता है। सवाल सिर्फ इतना है: सुरक्षा जहां है। कल चर्च, मंदिर में सुरक्षा थी, आज कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर में सुरक्षा है। बुद्ध की मूर्तियां हटा दी गई हैं, माओत्से तुंग के चित्र लटका दिए गए हैं। छोटे-छोटे बच्चे, जैसा पुराने दिनों में कहते थे, परमात्मा रोटी देता है, ऐसा छोटे बच्चे चीन में कहते हैं, माओत्से तुंग रोटी देता है। ठीक ईश्वर की जगह माओत्से तुंग को बिठा दिया।
इतनी जल्दी आदमी बदल जाता है, क्योंकि आदमी बेईमान है। उसे अपनी आत्मरक्षा से मतलब है। तो जिस चीज में उसे कवच मिलता है, वहीं छिप जाता है। इस दुनिया को आस्तिक-नास्तिक बनाने में कोई अड़चन नहीं है। एगनास्टिक को बदलना बहुत मुश्किल है। आस्तिक को नास्तिक बना सकते हैं, नास्तिक को आस्तिक; अज्ञेयवादी को बदलना बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह कहता है कि जब तक मैं न जान लूं तब तक मैं कोई निर्णय न लूंगा। मैं अनिर्णीत रहूंगा। अनिर्णय का दुख झेलूंगा, पीड़ा झेलूंगा, लेकिन निर्णय न लूंगा, जल्दी निर्णय न लूंगा।
इतनी हिम्मत के लोग ही अंततः सत्य को जानने में समर्थ हो पाते हैं।
इसलिए मैंने कहा, एक ही ईमान है, वह है अपने भीतर साफ-साफ विभाजन कर लेना, क्या मैं जानता हूं और क्या मैं नहीं जानता हूं, और जो मैं नहीं जानता हूं, किसी भी कीमत पर उस संबंध में कोई मंतव्य स्वीकार न करना। तो खोज जारी रहेगी। आदमी के मन में गहरी पिपासा है सत्य की। लेकिन आप झूठे सत्य पकड़ लेते हैं, उधार सत्य पकड़ लेते हैं। उन उधार सत्यों के कारण यह खोज बंद हो जाती है। आपको लगी है प्यास और कोई आपको झूठा पानी दे देता है और आप पीकर सोचने लगते हैं प्यास बुझ गई। प्यास बुझती नहीं, तकलीफ जारी रहती है। लेकिन पानी की खोज बंद हो जाती है, क्योंकि जब भी खोज करने जाते हैं, खयाल आता है, पानी तो पी चुके, पानी तो हमारे पास है।
हर आदमी के पास धर्म है, और किसी आदमी के पास धर्म नहीं है। और हर आदमी के पास परमात्मा है, और किसी आदमी के पास परमात्मा नहीं है। परमात्मा, धर्म, कुछ मिलता नहीं है उससे; आप वैसे के वैसे बने रहते हैं। प्यास जारी रहती है, दुख जारी रहता है; लेकिन खोज बंद हो जाती है। ये सब्स्टीटयूट हैं, ये परिपूरक हैं। और खतरनाक हैं।
वास्तविक खोजी के लिए निर्णय लेने की जल्दी नहीं करनी चाहिए। रुकना चाहिए, अपने को सम्हालना चाहिए, और खोज जारी रखनी चाहिए। जिस दिन खोज उस जगह ले आए जहां प्रकट हो जाए जीवन का रहस्य, उस दिन निर्णय लें। लेकिन उस दिन आप अपने को आस्तिक-नास्तिक नहीं कहेंगे। उस दिन ये शब्द ओछे पड़ जाएंगे। उस दिन हां और न का कोई मतलब न रहेगा। उस दिन आप हंसेंगे सारे विवाद पर। उस दिन आप कहेंगे, हां कहने वाले उतने ही नासमझ हैं जितने न कहने वाले। उस दिन आप कहेंगे कि परमात्मा दोनों को समा लेता है, हां और न को; आस्तिकता-नास्तिकता दोनों ही उसमें लीन हो जाती हैं। उस दिन आप कहेंगे कि ये दोनों बातें भी अधूरी हैं, दोनों को इकट्ठा जोड़ दो तो ही परमात्मा पूरा हो पाएगा। क्योंकि परमात्मा इतना बड़ा है कि अपने सब विरोधाभासों को समा लेता है। उस दिन आप इस तरह की पार्टी-बंदी में नहीं हो सकते हैं। जिन्होंने भी जाना है वे समस्त विरोधों को आत्मसात कर लेते हैं।

तीसरा प्रश्न:

मुझे लगता है कि जीवन-यात्रा में मैं स्वभाव से बहुत दूर निकल आया हूं। तो क्या स्वभाव में वापस लौटने की, प्रतिक्रमण की यात्रा भी इतनी ही लंबी होगी? या उसमें कोई शार्टकट भी संभव है?

शार्टकट तो बिलकुल संभव नहीं है। और दूसरी बात और खयाल से समझ लें, यात्रा इतनी लंबी नहीं होगी। यात्रा होगी ही नहीं। करीब-करीब हालत ऐसी है कि एक आदमी सूरज की तरफ पीठ करके खड़ा है और चलता जा रहा है। हजार मील चल चुका है। और हम उससे आज कहते हैं कि तू सूरज की तरफ हजार मील चल चुका पीठ करके, इसीलिए अंधेरे में भटक रहा है। और प्रकाश को खोजना चाहता है। तो वह आदमी कहेगा कि क्या सूरज की तरफ मुंह करने के लिए मुझे हजार मील फिर चलना पड़ेगा? उससे हम कहेंगे, नहीं, हजार मील नहीं चलना पड़ेगा। वह कहे कि क्या कोई शार्टकट हो सकता है कि दो-चार-पांच मील चलने से हो जाए? हम कहेंगे, दो-चार-पांच मील चलने की भी कोई जरूरत नहीं है; तू सिर्फ रुख बदल ले; तू सिर्फ पीठ सूरज की तरफ किए है, मुंह कर ले। क्योंकि सूरज कोई एक स्थान में बंधा हुआ नहीं है। और जब तू सूरज की तरफ पीठ करके जा रहा था तब भी सूरज तेरे पीछे साथ ही था।
परमात्मा अगर कहीं एक जगह बंधा होता, या स्वभाव कहीं कैद होता, हम उससे दूर निकल सकते थे। हम दूर नहीं निकल सकते हैं, हम सिर्फ पीठ कर सकते हैं। इसलिए कोई लाखों जन्मों तक स्वभाव से पीठ किए रहा हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। आज मुंह फेरने को राजी हो जाए, स्वभाव में प्रविष्ट हो जाएगा।
इसलिए न तो मैं कहता हूं कि उतना ही चलना पड़ेगा जितना आप विपरीत चले हैं और न मैं कहता हूं कि कोई शार्टकट संभव है। शार्टकट की तो कोई जरूरत ही नहीं है। क्योंकि चलना ही नहीं है, सिर्फ रुख बदलना है।
ऐसा समझें कि इस कमरे में अंधेरा भरा हो हजारों साल से और हम कहें कि दीया जलाएं। तो कोई पूछे कि क्या हजारों साल तक दीया जलाते रहेंगे तब अंधेरा मिटेगा? क्योंकि अंधेरा हजारों साल पुराना है और अभी दीया जलेगा तो एकदम से कैसे अंधेरे को मिटाएगा? इतना पुराना अंधेरा! कोई जल्दी का उपाय नहीं है? तो हम उससे कहेंगे, न तो देर लगेगी और न जल्दी का कोई सवाल है। क्योंकि दीया जला नहीं कि अंधेरा मिट जाएगा। अंधेरे की कोई प्राचीनता नहीं होती; अज्ञान की कोई प्राचीनता नहीं होती। वह कितना ही समय रहा हो, उसकी पर्तें नहीं जमतीं। उनको काटना नहीं पड़ेगा। ज्ञान की एक किरण--और अंधेरा कट जाता है, और अज्ञान छूट जाता है।
और ऐसा किसी एक व्यक्ति के साथ थोड़े ही है कि वह स्वभाव से दूर निकल गया है; सभी स्वभाव से दूर निकल गए हैं। पर दूर निकलने का इतना ही मतलब है कि वे पीठ करके चलते रहे हैं। वस्तुतः तो कोई स्वभाव से दूर नहीं निकल सकता। कैसे निकलेंगे? स्वभाव का मतलब ही यह है कि जो आप हैं। कौन निकलेगा दूर? स्वभाव और आप दो होते तो कहीं स्वभाव को छोड़ कर भाग आ सकते थे। स्वभाव यानी आप। तो आप दूर कैसे निकलेंगे? कोई दूर निकलने का उपाय नहीं है। वस्तुतः स्वभाव की परिभाषा समझ लेनी चाहिए। स्वभाव की परिभाषा यह है: जिसे छोड़ा न जा सके। जिसे छोड़ा जा सके वह परभाव है, वह स्वभाव नहीं है। स्वभाव का मतलब है, जिसे अपने से अलग किया ही नहीं जा सकता। लाख उपाय करें तो भी स्वभाव से भिन्न आप हो नहीं सकते। तो पहली तो बात यह है कि स्वभाव से आप दूर नहीं जा सकते, स्वभाव को छोड़ नहीं सकते, स्वभाव से विपरीत नहीं हो सकते।
लेकिन तब सवाल यह उठता है, तो फिर यह लाओत्से निरंतर कहे चला जा रहा है--स्वभाव में डूबो! स्वभाव में उतरो! स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाओ! तो इसकी बात गलत होनी चाहिए, अगर हम स्वभाव खो ही नहीं सकते तो।
इसकी बात भी गलत नहीं है। हम स्वभाव के प्रति बेभान हो सकते हैं, स्वभाव के प्रति इनअटेंटिव हो सकते हैं, स्वभाव के प्रति ध्यान छोड़ सकते हैं। स्वभाव का स्मरण खो सकते हैं, स्वभाव नहीं खो सकते। जैसे आपके खीसे में एक हीरा रखा है। आप भूल सकते हैं, विस्मरण हो सकता है कि खीसे में हीरा है; इससे हीरा नहीं खो जाता। हीरा खीसे में है, चाहे आप याद रखें, चाहे याद न रखें। स्वभाव आपके भीतर है। तो जब आप वस्तुओं में, वासनाओं में, इच्छाओं में भटकते हैं, तो विस्मरण हो जाता है। इसलिए भारत के संतों ने कहा है, परमात्मा को पाना नहीं है, केवल प्रभु-स्मरण! सिर्फ प्रभु-स्मरण करना है; पाना नहीं है। क्योंकि पाना तो उसे होता है जिसे हमने कभी खोया हो। परमात्मा को हम खो नहीं सकते। सिर्फ स्मरण!
पर हम तो हर चीज से व्यर्थता निकाल लेते हैं। तो लोग हैं जो हरि-स्मरण कर रहे हैं, प्रभु-स्मरण कर रहे हैं, राम-राम, राम-राम जप रहे हैं। अपनी चदरिया को उन्होंने राम चदरिया बना ली है, उस पर सब राम-राम लिख लिया है। प्रभु-स्मरण का अर्थ है कि जो मेरे भीतर छिपा है उसका मुझे बोध हो जाए। राम-राम दोहराने से बोध नहीं हो जाएगा। मेरी आंखें जो बाहर भटक रही हैं भीतर मुड़ जाएं; मेरे कान जो बाहर सुन रहे हैं भीतर सुनने लगें; मेरी बुद्धि जो बाहर के संबंध में सोच रही है वह भीतर मुड़ जाए, उसका दीया, उसका प्रकाश भीतर पड़ने लगे।
इसी क्षण आप स्वभाव में प्रतिष्ठित हो सकते हैं, क्योंकि प्रतिष्ठित तो आप हैं ही। कभी कोई आपको वहां से अप्रतिष्ठित न कर सका है, न कर सकेगा। इसीलिए हजारों जन्मों तक भी भटक कर आप भटक नहीं पाते। आपकी क्षमता उसे वापस पाने की प्रतिपल उतनी ही है जितनी कभी थी; उसमें रत्ती भर कमी नहीं हुई। अभी चाहें, इसी क्षण, तो मुड़ सकते हैं। मुड़ने में कोई बाधा अगर है तो वह आपकी आदतों की है; स्वभाव के दूरी की कोई बाधा नहीं है। अगर कोई बाधा है तो यह कि आप एक तरफ इतने दिन से देखते रहे कि गर्दन जकड़ गई। खिड़की पर खड़े हैं अगर एक साल से और पीछे लौट कर नहीं देखा तो गर्दन जकड़ गई। मकान पीछे है, कमरा पीछे है, जहां आप विश्राम कर सकते हैं। लेकिन आप कहेंगे, बड़ी कठिनाई है, मालूम होता है बहुत दूर निकल गए। दूर नहीं निकले हैं, केवल लकवा लग गया है गर्दन में।
इसलिए सारे उपाय इस लकवा को दूर करने के लिए हैं। परमात्मा को पाने का कोई उपाय नहीं है; परमात्मा मिला हुआ है। सिर्फ आपकी गर्दन जकड़ गई है बाहर देखते-देखते; पीछे मुड़ना भूल गई है। बस उसे पीछे मुड़ना सिखाना है। सारे योग, सारी विधियां, आपकी गर्दन की नसों को थोड़ा ढीला करने के लिए हैं; मसाज की तरह हैं। थोड़ी गर्दन ढीली हो जाए, जकड़ी हुई मांस-पेशियां शिथिल हो जाएं और आपकी गर्दन मुड़ जाए, और आप उसे पा लें जिसे आपने कभी भी खोया नहीं है। जो खोया जा सके वह स्वभाव नहीं है। भूला जा सकता है।
इसलिए सारी बात दो शब्दों पर है: स्मरण और विस्मरण। गुरजिएफ ने अपनी सारी साधना को सेल्फ रिमेंबरिंग कहा है, आत्म-स्मरण। बस अपना खयाल आ जाए। आप हैं, खयाल की शक्ति है; लेकिन इन दोनों में जोड़ नहीं है। करीब-करीब ऐसा कि एक वीणा रखी है आपके घर में। वीणा रखी है; संगीत पूरा का पूरा छिपा पड़ा है। तार तैयार हैं कि कोई जरा सी चोट, कि झंकार पैदा हो जाए। आप भी खड़े हैं। अंगुलियां भी आपकी जीवंत हैं। सिर्फ आपकी अंगुलियों और तार के छूने की बात है; जो संगीत छिपा है, वह प्रकट हो जाएगा।
लेकिन आपको यह स्मरण नहीं है कि आपके पास अंगुलियां हैं। आपको यह स्मरण नहीं कि सामने वीणा रखी है। वीणा दिखाई भी पड़ें तो अंगुलियां समझ में नहीं आतीं; अंगुलियां दिखाई पड़ें तो वीणा समझ में नहीं आती। दोनों भी दिखाई पड़ जाएं तो यह खयाल नहीं आता कि अंगुली की चोट करनी जरूरी है। सब कुछ मौजूद है। कुछ नया लाना नहीं है। जो मौजूद है, उसके भीतर ही एक नया संयोजन, बस एक नई व्यवस्था बिठानी है। उस नई व्यवस्था का नाम योग है; उस नई व्यवस्था का नाम साधना है।

चौथा प्रश्न:

आप प्रारंभ में निष्क्रिय ध्यान-विधि का प्रयोग करवाते थे और अब सक्रिय ध्यान-विधि का। क्या सक्रियता का लाभ भी अक्रियता जैसा है?

हीं, सक्रियता का लाभ कभी भी अक्रियता जैसा नहीं है। लेकिन आप जिस हालत में हैं, वहां से अक्रिय होना असंभव है। आपको पहले पूरी तरह सक्रिय करवा देना जरूरी है। कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहला, छलांग केवल अति से लगती है। अगर आपको इस कमरे के बाहर कूदना है तो कमरे के बीच में खड़े होकर आप नहीं कूद सकते; किनारे पर जाना पड़ेगा। या तो इस अति पर जाएं, एक छोर पर, या दूसरे छोर पर जाएं, दूसरी अति पर जाएं। छलांग अति से लगती है, मध्य से नहीं। और आप मध्य में हैं। न तो आपकी सक्रियता पूरी है कि अति पर आ जाए। न आपकी निष्क्रियता पूरी है कि अति पर आ जाए। अगर आपसे कोई कहे कि निष्क्रिय बैठो, तो आप निष्क्रिय नहीं बैठ सकते, सक्रियता जारी रहती है। अगर कोई आपसे कहे कि पूरी तरह सक्रिय हो जाओ, तो भी मन में यह खयाल बना रहता है कि क्यों व्यर्थ भाग-दौड़ कर रहे हैं, शांत हो जाएं, निश्चिंत बैठ जाएं। जब आप सक्रिय होते हैं तब निष्क्रियता आपको लुभाती है, और जब आप निष्क्रिय होते हैं तब सक्रियता बुलाती है। आप आधे-आधे हैं।
सक्रिय ध्यान-पद्धति पहले आपको पूरा सक्रिय बना देती है। उस जगह ले आती है जहां से छलांग लग सकती है; जहां हम सक्रियता से थक जाते हैं, जहां आपका पूरा मन-प्राण कहने लगता है--अब रुको भी! मैं उस सीमा तक आपको ले जाना चाहता हूं जहां आपकी सारी जीवन-ऊर्जा कहने लगे, रुको! अब और नहीं! उस क्षण में छलांग लग सकती है और आप निष्क्रिय हो सकते हैं। उसके पहले आप निष्क्रिय न होंगे। इसके पहले कि आप शांत हों आपको अपने भीतर की सारी विक्षिप्तता को बाहर निकाल देना होगा। सक्रियता का वही प्रयोजन है, आपके भीतर छिपा हुआ सारा पागलपन बाहर आ जाए। छिपा रहे, साथ रहेगा; छिपा रहे तो भीतर से अड़चन पैदा करता रहेगा। निकल जाए तो आप हलके हो जाएं। तूफान गुजर जाए तो आप शांत हो जाएं।
मैं खुद तो निष्क्रियता से उस जगह पहुंचा था। इसलिए शुरू में मैंने लोगों को भी निष्क्रिय होने को कहा, जैसा लाओत्से कह रहा है। लेकिन मैंने पाया, वह बात समझ में नहीं आती; सौ लोगों को कहूं तो कभी एक व्यक्ति को समझ में आ पाती है निष्क्रिय होने की बात। मेरा अपना अनुभव वही था। पर उसमें भूल हो रही थी। मेरे अनुभव को मैं सबका अनुभव बनाने की कोशिश कर रहा था।
तो पहले जब मेरा जोर था कि सीधे निष्क्रियता में उतर जाएं तो वह मेरे कारण था। उसमें भ्रांति थी। भ्रांति यह थी कि मैं सोचता था, जैसे मुझे हुआ है, ठीक वैसे ही दूसरों को भी हो जाएगा। निरंतर लोगों को निष्क्रिय करने की कोशिश करके मुझे अनुभव हुआ कि कठिन है। ये व्यक्ति अभी सक्रिय ही नहीं हुए हैं पूरे, इसलिए निष्क्रिय न हो सकेंगे। तो फिर इन्हें निष्क्रिय कर लेना सीधा, आसान नहीं है। पहले इन्हें सक्रियता में ले जाना जरूरी है। करीब-करीब मेरा पानी निन्यानबे डिग्री पर रहा होगा इसलिए सौ डिग्री पर उबल गया। वह निन्यानबे डिग्री तक अनेक जन्मों में आया होगा सक्रियता की। तो मुझे लगा था कि एक ही डिग्री की बात है; किनारे पर खड़े हैं, छलांग लग जाएगी। वह अपने कारण आपसे मैंने निष्क्रियता की बात करनी शुरू की थी।
वही लाओत्से कर रहा है--उसके कारण। इसलिए लाओत्से की बात बहुत काम में आ नहीं सकी। बात बिलकुल सही है, लेकिन अपने को ध्यान में रख कर कर रहा है।
फिर जितना ज्यादा मैंने लोगों के साथ प्रयोग किया, मैंने देखा कि कोई पचास डिग्री पर है, कोई चालीस डिग्री पर है। वह एक डिग्री में छलांग लग नहीं सकती। और एक डिग्री में--वह कोशिश भी करके एक डिग्री ले आता है तो पचास वाला इक्यावन डिग्री पर पहुंचता है, कुछ फर्क नहीं पड़ता; वह कहता है, कुछ हो नहीं रहा। निन्यानबे वाला कहता है सब हो गया, क्योंकि वह भाप बन जाता है। तो मेरी प्रतीति यह थी कि एक डिग्री से सब हो जाता है, वह अपने कारण थी। फिर मैंने बहुत लोगों में देखा कि उनमें एक डिग्री नहीं, दस डिग्री भी बढ़ जाती है तो भी कुछ नहीं होता। तब खयाल आना शुरू हुआ कि निन्यानबे डिग्री पर जो नहीं है वह छलांग नहीं लगा सकता।
तो आपको अब मैं पागल होना सिखा रहा हूं कि आप निन्यानबे डिग्री तक गर्म हो जाएं। और तब मैं आपसे रुकने को कहता हूं जब मैं पाता हूं कि अब आप उबल रहे हैं, अब इसके आगे जाने का आपको कोई उपाय नहीं है; अब छलांग लग सकती है। अगर आप रुक गए तो इसी क्षण छलांग लग जाएगी।
सक्रियता साधन है निष्क्रियता में ले जाने का। लक्ष्य तो निष्क्रियता ही है। सारी क्रियाएं उस जगह पहुंचाने के लिए हैं जहां आप बिलकुल क्रिया-शून्य हो जाएं। सब करना उस जगह पहुंच जाने के लिए है जहां कुछ करने को न बचे और परम विश्राम हो जाए।

पांचवां प्रश्न:

करोड़ों-अरबों वर्ष की स्मृतियों के संग्रह के भीतर होते हुए भी साधक कैसे मन के बोझ से निर्भार हो, इस पर कुछ कहें। इतने विराट अतीत के कारण चित्त में निराशा उत्पन्न होती है।

निराशा उत्पन्न करने का कोई भी कारण नहीं है। अतीत लंबा है; बोझ भारी है। लेकिन बोझ अतीत के कारण नहीं है; आप उसको पकड़े हैं, इस कारण है। अगर बोझ अतीत के कारण ही होता तो निराशा स्वाभाविक है। फिर मैं आपसे कहता ही नहीं, क्योंकि मामला इतना लंबा है कि होने वाला नहीं था। करोड़ों वर्ष का अतीत है! वह बोझ इतना बड़ा है कि आप कितना ही उतारें, आप उतार न पाएंगे। अगर बोझ को ही उतारना होता तो असंभव थी बात। लेकिन बोझ आपको नहीं पकड़े हुए है, आप बोझ को पकड़े हुए हैं।
मजा तो यह है कि बोझ को पकड़े हैं, इसीलिए वह आपके ऊपर बोझ मालूम हो रहा है। छोड़ दें; छोड़ना एक क्षण में हो सकता है। इकट्ठा किया है अरबों वर्ष में, लेकिन छोड़ना एक क्षण में हो सकता है। एक आदमी धन इकट्ठा करता है पूरे जीवन; दान एक क्षण में हो सकता है। वह यह तो नहीं कहेगा कि पचास साल लगे हैं इकट्ठा करने में तो दान करने में पचास साल तो कम से कम लगेंगे ही।
रामकृष्ण के पास एक आदमी आया था। एक हजार स्वर्ण-मुद्राएं भेंट कीं। रामकृष्ण ने कहा, मैं क्या करूंगा इनका, तू जा और गंगा में फेंक आ। वह आदमी गया तो बड़ी देर हो गई, लौटा नहीं। तो रामकृष्ण ने कहा, देखो, वह क्या कर रहा है? जरूर वह गिन-गिन कर फेंक रहा होगा।
फेंकने में भी गिनने की कोई जरूरत तो नहीं है। मगर वह आदमी यही कर रहा था। न केवल वह गिन रहा था, बजा रहा था पत्थर पर। जब खन्न से बजती थी--और भीड़ इकट्ठी हो गई थी--तब वह एक फेंकता था। और गिनती कर रहा था--एक, दो...। हजार मुद्राएं थीं। जिन संन्यासी को रामकृष्ण ने भेजा उन्होंने जाकर कहा, तू यह क्या कर रहा है? बड़ी देर हो गई। वापस आया तो रामकृष्ण ने कहा, पागल, इकट्ठा करने में जितना समय लगता है, और इकट्ठा करने में गिन-गिन कर ही करना पड़ता है, उतना समय फेंकने में लगाने की जरूरत नहीं। पोटली पूरी ही फेंक आना था। जब फेंक ही रहे हैं तो हिसाब क्या रखना? और यह बजा क्यों रहा था?
मगर उसकी जो आदत इकट्ठा करने की थी उसी आदत को वह फेंकने में भी काम ला रहा था। उसे दूसरी बात का पता ही नहीं था। यही अड़चन है। करोड़ों वर्ष में संग्रह किया है; छोड़ एक क्षण में सकते हैं। पकड़े आप हैं, अतीत आपको नहीं पकड़े हुए है। अतीत मुर्दा है; वह आपको पकड़ेगा भी कैसे? राख है, धूल की तरह आप पर है; आप झाड़ दे सकते हैं।
इसलिए निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। और अगर नहीं उतार पा रहे हैं, तो अतीत का बोझ ज्यादा है, इस भांति मत सोचें। आपकी पकड़ गहरी है; तादात्म्य भारी है; लगाव है। हमारी कठिनाई यह है कि जो हम छोड़ना चाहते हैं उससे हमारा लगाव है। तो इधर हम जब सुनते हैं बात छोड़ने की और सोचते हैं छोड़ने से परम आनंद मिलेगा, छोड़ दें। लेकिन हमारे भीतरी लगाव हैं और उन लगावों से हमको खयाल है कि आनंद, रस, कुछ सुख मिलने वाला है; उसकी वजह से हम पकड़े हुए हैं।
इस संबंध में बहुत साफ हो जाना चाहिए। जिसको भी छोड़ना है उस संबंध में पूरा स्पष्ट हो जाना चाहिए कि उसमें हमारा कोई इनवेस्टमेंट तो नहीं है? उससे हम कुछ पाने की आशा तो नहीं किए हैं? क्योंकि पाने की अगर आशा किए हुए हैं तो छोड़ेंगे कैसे? हमारी अड़चन यही है कि जो-जो हम पकड़े हुए हैं उससे हमें पाने की आशा है। और इधर जब सुनते हैं, संतों ने जो कहा है, उसमें भी हमारा लोभ पैदा होता है। वह भी लोभ है; वह भी समझ नहीं है। उसमें लगता है कि इतना आनंद मिलता है!
कबीर कहते हैं, अमृत बरस रहा है। कबीर कहते हैं, कबीर नाच रहा है और आकाश से अमृत बरस रहा है। सुनते हैं लोभी; उनके मन में भी, उनकी जीभ पर भी लार आ जाती है कि ऐसा अमृत हम पर भी बरसे। तो वे भी सोचने लगते हैं कि कबीर कहते हैं, छोड़ दो सब वासना तो अमृत बरसेगा, तो वे सोचते हैं कि छोड़ दें सब वासना। अमृत बरसे इसलिए, इस लोभ के लिए।
और फिर हर वासना से उनका लोभ जुड़ा है। अगर यह वासना छोड़ते हैं तो पत्नी से जो सुख मिला है वह, धन से जो सुख मिल रहा है वह, पद से जो सुख मिल रहा है वह, उसका क्या होगा? हमारे लिए अध्यात्म और संसार दोनों ही लोभ हैं; और इसलिए हम बड़ी बिबूचन में है। हमारी हालत उस गधे जैसी है। बहुत पुरानी पंचतंत्र की कथा है। एक बुद्धिमान आदमी ने एक गधे के दोनों तरफ बराबर दूरी पर घास के ढेर लगा दिए। वह गधा कभी तो सोचे कि बाएं जाऊं; बाएं की ढेरी उसको प्रीतिकर लगे। तभी उसे खयाल आए कि दायां भी ज्यादा दूर नहीं है, उतनी ही दूरी पर है; दाएं चला जाऊं। लेकिन दाएं जाता है तो बायां छूटता है; बाएं जाता है तो दायां छूटता है। कहते हैं, वह गधा मर गया भूखा, क्योंकि वह बीच में ही खड़ा चिंतन में ही लीन रहा।
गधे वैसे ही चिंतक होते हैं। सोचते हैं, सोचते चले जाते हैं। गधे इसलिए इतने उदास दिखते हैं खड़े हुए; जहां भी उनको देखो, वे काफी सोच रहे हैं। वह जो रोडिंग की बड़ी प्रसिद्ध कलाकृति है, विचारक, उसमें एक विचारक की ऐसी सिर से हाथ लगाए हुए मूर्ति बनाई है रोडिंग ने। पश्चिम में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। रोडिंग की मूर्ति की बड़ी कीमत है। क्योंकि वह विचारक का प्रतीक है। लेकिन अगर गधे के पास खड़े होकर देखें तो रोडिंग भी ऐसा विचारक नहीं बना सकता जैसा गधा खड़ा होकर सोचता रहता है।
वह गधा सोचता रहा, सोचता रहा, सोचता रहा। भूख बढ़ती गई और वह निर्णय न ले पाया कि बाएं जाऊं कि दाएं। क्योंकि एक छोड़ना ही पड़ता। वह एक भी छोड़ने को राजी नहीं था। वह दोनों ही पाना चाहता था। दोनों पाने की कोशिश में दोनों गए। पुरानी कहावत है, इक साधे सब सधे। वह गधे को उस कहावत का कोई पता नहीं था। एक ही ढेर पर जा सकता था।
हर आदमी के मन की हालत ऐसी है। संसार में जो दिखाई पड?ता है, वह भी पाने जैसा है। ये संत और मुसीबत किए रहते हैं। ये जो कहते हैं, वह और भी पाने जैसा है। दो लोभों के बीच मन अटक जाता है। तो कभी वह सोचता है, छोड़ दूं सब। जैसे ही सोचता है छोड़ दूं सब, तो वह देखता है कि ये सारे सुख जो इस पकड़ने से मिले हैं वे खो जाएंगे। तो पकड़े रहना चाहता है। और वह जो संत कह रहे हैं, इशारा कर रहे हैं, वह आकर्षण भी खींचता है, उसको भी पाना चाहता है।
तो फिर वह तरकीबें निकालता है। फिर वह कहता है, कैसे छोडूं? यह जन्मों-जन्मों का बोझ है। यह कोई आसान तो नहीं छोड़ना। कल छोड़ेंगे, परसों छोड़ेंगे, चेष्टा करेंगे, धीरे-धीरे छोड़ेंगे। वह पोस्टपोन करता है। यह लोभ के कारण! बोझ कोई भारी पकड़े हुए है, इस कारण नहीं। लोभ के कारण सोचता है, एक दिन और भोग लो। अगर पत्नी को कल छोड़ ही देना है तो एक दिन प्रेम और सही। अगर इस महल से हट ही जाना है तो कल तक तो रुक ही सकते हैं। फिर जल्दी क्या है?
फिर संत जो भी कहते हैं, उस पर पक्का भरोसा नहीं आता। असंत जो कर रहे हैं, वह भरोसे योग्य मालूम पड़ता है। क्योंकि उनकी बड़ी भीड़ है। फिर असंत जो भी कर रहे हैं, वह प्रत्यक्ष मालूम होता है। संत जो भी कह रहे हैं, वह कबीर को दिख रहा होगा कि अमृत बरस रहा है, हमको कुछ दिखता नहीं। कबीर दिखते हैं, कोई अमृत दिखता नहीं; कहीं कोई वर्षा नहीं दिखती। कबीर से थोड़ी झलक मिलती है कि जरूर कुछ मिला होगा, नहीं तो यह आदमी इस भांति नाचता कैसे? हम भी चाहते हैं कि वह हमें मिले, हम भी नाचें। लेकिन वह हमें साफ दिखाई नहीं पड़ता।
इस जगत में जो कुछ है वह सब दृश्य है। उस जगत में जो कुछ है वह सब अदृश्य है। इसलिए बुद्धिमानों ने कहा है, हाथ की आधी रोटी बेहतर है दूर की पूरी रोटी से। क्योंकि दूर की रोटी पता नहीं जाते-जाते रोटी सिद्ध हो या न हो! सिर्फ दिखाई पड़ती हो, दूर की मृग-मरीचिका हो। हाथ में जो है उसे भोग लो। और अगर कोई तरकीब निकलती हो कि इसे भोगते हुए तुम उसे भी पा सको जो दूर है, तो ऐसी कोशिश करो। वही हम कर रहे हैं। हम, जो है उसे छोड़ना नहीं चाहते और जो नहीं है उसको भी पाना चाहते हैं।
लेकिन ध्यान रहे, हमारे हाथ भरे हैं संसार से; और जब तक हाथ खाली न हों तब तक परमात्मा उतर नहीं सकता। सिंहासन उसके लिए खाली चाहिए।
इसलिए मेरी दृष्टि यह है कि बजाय दोनों घास के ढेरों के बीच भूखे मर जाने के यह बेहतर है कि चाहे बाएं जाओ, चाहे दाएं जाओ, जाओ। संसार ही पाना हो तो पूरी तरह पाओ। फिर मत कहो कि यह बोझ है और इससे छूटना है; यह मत कहो। कहो कि इसमें रस है, इसमें सुख है, हम जाएंगे। ईमानदारी से प्रवेश करो। तुम्हारी ईमानदारी तुम्हें बचाएगी। क्योंकि तुम कितनी ही ईमानदारी से कहो इसमें सुख है, तुम पाओगे कि दुख है। और जो ईमानदारी से कह रहा था संसार में सुख है, जिस दिन पाएगा कि दुख है, वह इतनी हिम्मत उसमें होगी कि वह कहेगा कि इसमें दुख है; मेरी भूल थी।
तुम्हारी मुश्किल यह है कि तुम कहते हो संसार में दुख है, और तुम जानते हो कि सुख है। संतों ने तुम्हें डगमगा दिया। उनकी वाणी ने तुम्हें उलझा दिया। वे चाहते नहीं थे कि तुम्हें उलझाएं; वे तुम्हें सुलझाना चाहते थे। लेकिन तुम कुशल हो। उलझने में तुम्हारी कला इतनी गहन है। उन्होंने तुमसे जो भी कहा है, उससे उलझन बढ़ी है, घटी नहीं है। उससे तुम भी कहने लगे, संसार में दुख है। और तुम जानते हो कि सुख है।
अगर सच में संसार में दुख है तो क्या तुम पूछोगे कैसे छोड़ें? कोई पूछता है दुख को कि कैसे छोड़ें? घर में आग लगी हो, तुम पूछते हो कि कैसे बाहर जाएं? तुम छलांग लगाते हो, बाहर निकल जाते हो। तुम यह नहीं कहते कि यह घर पचास साल में बनाया, कैसे इसमें से छलांग लगा कर बाहर चले जाएं? एक क्षण में कैसे छलांग लग सकती है? लेकिन जब घर में आग लगी हो तब तुम पूछते नहीं, तुम छलांग लगा जाते हो।
संत कहते हैं, घर में आग लगी है। तुम बेईमान हो, तुम उन्हें सिर हिला कर हां भरते हो कि ठीक कह रहे हो, क्योंकि तुम यह भी नहीं कह सकते कि तुम गलत कह रहे हो। और तुम जानते हो, घर में आग नहीं लगी, सब निश्चिंतता है; बाहर झंझट है, आग लग सकती है; अपने घर में रहो। इससे उलझन है। साफ होना जरूरी है। स्पष्ट होना जरूरी है। तुम्हें सुख दिखाई पड़ता हो तो तुम मानो कि सुख है और उस सुख की खोज करो। और संतों को मत सुनो। बंद करो। कह दो उनसे कि नहीं, तुम्हारा रास्ता हमारा रास्ता नहीं है। हमें जहां सुख दिखता है, हम वहां खोजेंगे। तुमने भी हमारी नहीं सुनी थी। तुम भी अपने अनुभव से आए हो इस जगह कि तुम्हें वहां दुख दिखाई पड़ा। हमें भी हमारे अनुभव से आने दो।
ज्यादा देर नहीं लगेगी। संसार में दुख है। क्योंकि संत झूठ नहीं कह रहे हैं। वे जान कर कह रहे हैं। लेकिन तुम अनुभव से गुजरो। तुम्हारे सब सुख जब तुम्हें दुख मालूम पड़ने लगेंगे तब तुम पूछोगे नहीं कैसे छोड़ दें; तुम उतार कर रख दोगे बोझ। तुम कहोगे, सारा स्वार्थ खत्म हुआ, सारा लोभ खत्म हुआ; अब इस बोझ को ढोने की कोई भी जरूरत न रही। उस दिन अरबों-अरबों वर्ष की स्मृति क्षण भर में टूट जाती है। तुम अलग हो जाते हो।
तुम उसे पकड़े हो। पकड़ सवाल है। तुम्हारी पकड़ कैसे ढीली हो, यह सोचो। चेष्टा से ढीली नहीं होगी, अनुभव से ढीली होगी। मेरी बात कठिन लग सकती है। पर मैं कहता हूं कि तुम्हें अगर नरक में भी सुख दिखाई पड़ता हो तो तुम नरक जाओ। क्योंकि तुम्हारे लिए और कोई उपाय नहीं है। नरक से तुम्हें गुजरना ही होगा। तुम्हें नरक की पीड़ा से साफ अनुभव लेना ही होगा कि यह नरक है, ताकि तुम दुबारा उस मोह में न पड़ सको। तुम्हारा स्वर्ग अगर कहीं भी है तो रास्ता नरक से होकर जाएगा। क्योंकि नरक में तुम्हें अभी स्वर्ग दिखाई पड़ रहा है। पहले तुम्हें नरक ही जाना होगा। तुम इस नरक से बच न सकोगे। कोई कितना ही कहे कि वहां दुख है, लेकिन तुम वहां खिंचे जा रहे हो; तुम्हारा मन कह रहा है वहां सुख है।
तुम्हारा मन जहां तुम्हें ले जाए, जाओ। दुविधा में मत पड़ो। मन तुम्हें गलत जगह ले जाएगा, यह पक्का है। लेकिन जल्दी मत करो, कच्चे निर्णय मत लो; जाओ! और अनुभव से ही कहने दो कि तुम्हारा मन गलत है। धीरे-धीरे तुम्हारा अनुभव ही तुम्हारे मन की मृत्यु हो जाएगी। जितना तुम जानोगे, उतना ही मन को सुनना बंद कर दोगे। और जिस दिन तुम जीवन के सब पहलुओं को पहचान लोगे उस दिन तुम मन को छोड़ दोगे। पकड़ने का कोई कारण न रह जाएगा। अपने ही अनुभव से कोई सत्य तक पहुंचता है। तुम उधार सत्यों के साथ जीने की कोशिश कर रहे हो, वही विडंबना है।

आखिरी प्रश्न:

नाटक में काम करने वाले अभिनेता कुछ उद्देश्य के साथ अभिनय करते हैं। हमें अभिनय करवाने में परमात्मा का क्या आशय है?

हली बात, अभिनेता इसीलिए संत नहीं हो पाता, क्योंकि उसके अभिनय में उद्देश्य है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अभिनेता संत हैं; मैंने यह कहा कि संत अभिनेता होते हैं। सभी संत अभिनेता होते हैं; सभी अभिनेता संत नहीं होते। अभिनेता तो अभिनय कर रहा है काम की तरह। वह खेल नहीं है, वह तो पेशा है। वह उससे कुछ पाना चाहता है। और जिस चीज से भी आप कुछ पाना चाहते हैं वह काम हो गया। और जिस चीज से आप कुछ पाना नहीं चाहते, उस चीज में होने का ही रस काफी है, वह खेल हो गया।
ध्यान रहे, काम का अर्थ है, लक्ष्य बाहर है; खेल का अर्थ है, लक्ष्य भीतर है, इंट्रिंजिक, उसके भीतर छिपा है। खेलते हैं खेल के आनंद के लिए; काम करते हैं कुछ और चीज को पाने के लिए। खेल अपने में पूरा हो जाता है। काम सिर्फ एक शृंखला है, एक कड़ी है; आगे ले जाता है। काम साधन है, साध्य कहीं और। खेल साधन भी है, साध्य भी। इसलिए खेल अपने आप में पूर्ण है।
अभिनेता अभिनय कर रहा है काम की तरह। अभिनेता संत नहीं है। लेकिन संत जीवन को ऐसे जी रहा है जैसे प्रत्येक घड़ी अपने में पूरी है। रस उस घड़ी को जीने में है, उसके पार नहीं। जो भी सामने है, वह उसे पूरी तरह खेल रहा है। और प्रसन्न है, आनंदित है कि यह क्षण और मिला, एक क्षण और मिला। होना इतना आनंद है, श्वास लेना इतना आनंद है! संत को हम दुखी नहीं कर सकते, क्योंकि उसे प्रत्येक, छोटी से छोटी चीज, श्वास लेना भी एक आनंद है।
एक झेन फकीर लिंची को कारागृह में डाल दिया गया था। तो जिन्होंने कारागृह में डाला था वे सोचते थे कि लिंची दुखी हो जाएगा। क्योंकि मोक्ष का खोजी, मुक्ति का खोजी, बंदीगृह में तो और भी दुखी हो जाएगा, साधारण लोगों से भी ज्यादा। क्योंकि साधारण लोग तो बंदी हैं ही; घर में हुए कि जेल में, कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। घर में जरा गले की लगाम लंबी होती है, थोड़े दूर तक घूम लेते हैं; जेल में जरा छोटी होगी, थोड़ा पास ही पास चक्कर लगाएंगे। लेकिन लिंची तो मुक्ति का खोजी है, परम मुक्ति का आकांक्षी है, यह तो बहुत दुखी हो जाएगा। लेकिन लिंची को कोई फर्क न पड़ा। जेल में लिंची वैसा ही आनंदित था जैसा अपने झोपड़े में। हथकड़ियों में वैसा ही आनंदित था; वैसा ही ध्यान में बैठा रहता, वैसा ही मुस्कुराता रहता, वैसा ही गीत गाता।
आखिर कारागृह के प्रमुख ने आकर पूछा कि क्या कर रहे हो? क्या तुम्हें अपनी मुक्ति की जरा भी फिक्र नहीं है? लिंची ने कहा कि मैं न्यूनतम से भी आनंदित हूं, वही मेरी मुक्ति है। मैं हूं, इतना ही क्या कम है! जंजीर के भीतर हूं, इतना भी क्या कम है! श्वास चलती है, इतना क्या कम है! होना इतना सुखद है, पर्याप्त है; इससे ज्यादा की कोई मांग नहीं। और तुम मुझे बंदी न बना सकोगे, क्योंकि मेरा होना भीतर है, तुम्हारी जंजीरें बाहर हैं। तुम जिसे बांध लाए हो वह मेरा बाहर का रूप है; उससे मेरा कुछ बहुत लेना-देना नहीं है। तुम जिसे कुछ भी करके न बांध सकोगे वह मैं भीतर हूं। वहां मैं मुक्त हूं, वहां मैं उड़ रहा हूं; वहां मेरे आकाश की कोई सीमा नहीं है।
प्रतिपल जिसका साध्य और साधन एक साथ मौजूद है, वह अभिनय में है। संत अभिनेता हैं। और कोई उद्देश्य नहीं है।
लेकिन हम हिसाबी-किताबी लोग हैं। हम यह भी पूछते हैं कि परमात्मा का क्या आशय है? आपको पैदा करने में परमात्मा का क्या आशय है? आपसे काम लेने में, कि आप दफ्तर में क्लर्की कर रहे हैं, इसमें परमात्मा का क्या आशय है? हमारा मन मान कर चलता है कि जरूर कोई बड़ा आशय हमसे लिया जा रहा होगा। आप एक दफ्तर में दिन भर क्लर्की करते हैं, इसमें परमात्मा का क्या आशय हो सकता है?
मगर हमारे अहंकार को तृप्ति मिलती है कि जरूर कोई रहस्य होगा। कोई छिपा हुआ आशय, कोई महान योजना के हम भी हिस्से मालूम पड़ते हैं।
परमात्मा बिलकुल आशयहीन है। क्योंकि आशय दुकानदारी का हिस्सा है। परमात्मा कोई दुकानदार नहीं है। यह जगत ज्यादा से ज्यादा उसका खेल है--उसकी प्रसन्नता, उसका उत्सव। जैसे छोटे बच्चे नाचते हैं, कूदते हैं, बनाते हैं, मिटाते हैं; रेत का घर बनाएंगे, और बना भी नहीं पाए कि मिटा देंगे। बनाते वक्त भी उतने ही आनंदित होंगे जितना मिटाते वक्त। बनाते वक्त बड़े रस से बनाएंगे, फिर उसी पर कूद कर, छलांग लगा कर उसको गिरा देंगे। उस गिराने में भी उतना ही रस लेंगे। कोई पूछे इन बच्चों से कि तुम्हारा आशय क्या है? ऊर्जा है, ऊर्जा प्रकट हो रही है, आनंदित हो रही है, नाच रही है। ओवरफ्लोइंग एनर्जी! बच्चे के पास इतनी ऊर्जा है कि वह क्या करे? बनाता है, मिटाता है, और रस लेता है। न बनाने में कोई आशय है, न मिटाने में कोई आशय है। ऊर्जा है। वह ऊर्जा नाच रही है। परमात्मा बच्चों की भांति है, दुकानदारों की भांति नहीं।
इसलिए बच्चे परमात्मा के निकटतम हैं। और जब भी कोई पुनः बच्चों की भांति हो जाता है, बोधपूर्वक, तब वह परमात्मा के भीतर प्रवेश कर जाता है। जीसस ने कहा है, जो बच्चों की भांति होंगे वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। आशयरहित, प्रयोजनशून्य। परमात्मा का कोई आशय नहीं है।
सच पूछें तो परमात्मा जैसा कोई व्यक्ति कहीं बैठा हुआ नहीं है। हमारी सारी अड़चन भाषा की है। परमात्मा से तत्काल हमको खयाल आता है कि ऊपर कोई बैठा है अपने खाते-बही खोले हुए; एक-एक आदमी के नाम लिख रहा है कि किसने चोरी की, किसने किसी का जेब काट लिया। यह मूढ़ता अगर कोई परमात्मा कर रहा हो तो कभी का पागल हो गया होता। आप इतने गजब के काम कर रहे हैं कि हिसाब लगाते-लगाते पागल हो गया होता। वहां कोई व्यक्ति नहीं बैठा हुआ है। परमात्मा से अर्थ है, इस अस्तित्व की पूरी ऊर्जा, समग्रीभूत ऊर्जा, टोटल एनर्जी। यह शक्ति है। क्यों का कोई कारण नहीं है। यह बस है। इसके न पीछे कोई कारण है, न आगे कोई आशय है। और यह शक्ति का लक्ष्य तो कुछ भी नहीं है, लेकिन शक्ति के भीतर छिपा हुआ इतना उद्दाम वेग है कि वह शक्ति फूट कर पौधा बनती है, पशु बनती है, पक्षी बनती है, आदमी बनती है, चोर बनती है, साधु बनती है। वह शक्ति नीचे गिरती है, आकाश भी छूती है, खाइयां और शिखर बनती है। उस शक्ति का सारा का सारा उद्दाम वेग प्रकट होता है, अभिव्यक्त होता है। वह बनाती है और मिटाती है। कोई व्यक्ति वहां छिपा हुआ नहीं है। यह सिर्फ ऊर्जा का खेल है।
और जिस दिन आप भी जीवन को सिर्फ ऊर्जा का खेल समझ लेते हैं उस दिन इस विराट ऊर्जा के खेल से आपका तालमेल बैठ गया, आपका संगीत सध गया। इस सध जाने की स्थिति का नाम समाधि है।

आज इतना ही।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें