कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

पाँच सौ भिक्षुओं का संकल्‍प—(कथा यात्रा—022)

(पाँच सौ भिक्षुओं का ध्‍यान की गहराइयों में जाने का संकल्‍प-एस धम्मो सनंतनो)

गवान जेतवन में विहरते थे। उस समय पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान का आशीष ले ध्यान की गहराइयों में उतरने का संकल्प किया। समाधि से कम उनका लक्ष्य नहीं था। गंधकुटी के बाहर ही सुबह के उगते सूरज के साथ वे ध्यान करने बैठे। गंधकुटी के चारों ओर जुही के फूल खिले थे
शास्ता ने उन भिक्षुओं को कहा. भिक्षुओ! जुही के खिले इन फूलों को देखते हो? सुबह खिले हैं और सांझ मुर्झा जाएंगे ऐसा ही क्षणभंगुर जीवन है। अभी है अभी नहीं है। इन फूलों को ध्यान में रखना भिक्षुओ! यह स्मृति ही क्षणभंगुर के पार ले जाने वाली नौका है
भिक्षुओं ने फूलों को देखा और संकल्प किया : संध्या तुम्हारे कुम्हलाकर गिरने के पूर्व ही हम ध्यान को उपलब्ध होने हम रागादि से मुक्त होंगे। फूलों! तुम हमारे साक्षी साधु! साधु!
कहकर अपने आशीषों की वर्षा की।

और तभी उन्होंने ये गाथाएं कही थीं.

सुज्‍जागारं पविट्ठस्‍स संतचित्‍तस्‍स भिक्‍खुनो।
अमानुसी रति होति सम्‍माधम्‍मं विपस्‍सतो ।।


'शून्य गृह में प्रविष्ट शांत—चित्त भिक्षु को भली— भांति से धर्म की विपस्सना करते हुए अमानुषी रति प्राप्त होती है।'

यतो यतो सम्मसति खन्‍धानं उदयव्ययं ।
लभती पीतिपामोज्जं अमतं नं विजानतं ।।

 'जैसे—जैसे भिक्षु पांच स्कंधों—रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान—की उत्पत्ति और विनाश पर विचार करता है, वैसे—वैसे वह ज्ञानियों की प्रीति और प्रमोद रूपी अमृत को प्राप्त करता है।'

पटिसन्‍थारवुत्‍तस्‍स आचारकुसलो सिया।
ततो पामोज्‍जबहुलो दुक्‍खस्‍सन्‍तं करिस्‍सति ।।

 'जो सेवा —सत्कार स्वभाव वाला है और आचार — कुशल है, वह आनंद से ओतप्रोत होकर दुख का अंत करेगा।'

विस्‍सिका विय पुप्‍फनि मद्दवानि पमुज्‍चति।
एवं रागज्‍च दोसज्‍च विप्‍पमुज्‍चेथ भिक्‍खवो ।।

'जैसे जुही अपने कुम्हलाए फूलों को छोड़ देती है, वैसे ही हे भिक्षुओ, तुम राग और द्वेष को छोड़ दो।'
इसके पहले कि हम सूत्रों पर विपस्सना करें, उन पर ध्यान करें, इस दृश्य को ठीक से मन में बैठ जाने दो।
तुम दो तरह से जी सकते हो संकल्पहीन या संकल्पवान। संकल्पहीन का अर्थ होता है : तुम्हारे जीवन में पच्चीस धाराएं हैं। धन भी कमा लूं पद भी कमा लूं प्रतिष्ठा भी बना लूं। साधु भी कहलाऊं; ध्यान भी कर लूं; मंदिर भी हो आऊं, दुकान भी चलती रहे। तुम्हारा जीवन पच्चीस धाराओं में विभाजित है। इसलिए कुछ भी पूरा नहीं हो पाता। न दुकान पूरी होती, न मंदिर पूरा होता। न धन मिलता, न ध्यान मिलता। ऊर्जा संगृहीत होनी चाहिए, तो संकल्प का जन्म होता है। एक धारा में गिरे, अखंडित गिरे, तो कुछ भी असंभव नहीं है। जीवन में चीजें असंभव इसलिए मालूम हो रही हैं, क्योंकि तुम टूटे हो खंड—खंड, टुकड़े—टुकड़े में। तुम एक नहीं हो, इसलिए जीवन में बहुत सी चीजें असंभव हैं। तुम एक हो जाओ, तो कुछ भी असंभव नहीं है। संकल्प का यही अर्थ होता है।
पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान का आशीष ले ध्यान की गहराइयों में उतरने का संकल्प किया।
फिर भी, संकल्प तो उन्होंने किया, भगवान के आशीष को भी आए। तुम्हारा संकल्प ऐसे तो काफी है, लेकिन अंततः तुम्हारा ही है। एक अज्ञानी के संकल्प का मूल्य कितना हो सकता है! बांध—बूंधकर, किसी तरह सम्हालकर करने की कोशिश करोगे, लेकिन भूल—चूक हो जाने की संभावना है। किसी ज्ञानी का आशीष भी हो, तो तुम्हारे संकल्प के बचे रहने की, तुम्हारे संकल्प के बने रहने की, तुम्हारे संकल्प के पूरे होने की ज्यादा गुंजाइश है। जीत सुनिश्चित हो जाएगी।
ज्ञानी का आशीष तुम्हारे खंडों को सीमेंट की तरह जोड़ देगा। कोई मेरे पीछे खड़ा है, जो जानता है—यह भरोसा भी तुम्हें दूर तक ले जाने वाला होगा। जैसे छोटे बच्चे को कोई डर नहीं लगता, उसकी मां पास हो, बस। फिर चाहे तुम उसे नर्क ले जाओ, कोई फिकर नहीं है। वह नर्क में भी खेलने लगेगा; उसकी मां पास है। और तुम उसे स्वर्ग ले जाओ, और उसकी मां पास न हो, तो वह स्वर्ग में भी विपन्न और दुखी होने लगेगा। उसकी मां पास नहीं है। रोने लगेगा; चीखने—पुकारने लगेगा।
वह जो मां की मौजूदगी है, वही गुरु की मौजूदगी है। गुरु मौजूद हो, तो यात्रा बड़ी सुगम हो जाती है। लेकिन गुरु की मौजूदगी का मतलब क्या होता है? गुरु की मौजूदगी का मतलब है कि तुमने किसी के चरणों में सिर झुकाया है, और किसी को गुरु स्वीकार किया है।
गुरु मौजूद भी हो, लेकिन तुम्हारे भीतर शिष्य— भाव मौजूद न हो, तो किसी अर्थ का नहीं है। फिर गुरु. गुरु नहीं है। गुरु बनता है तुम्हारे शिष्य— भाव से।
इन पाच सौ भिक्षुओं ने भगवान के चरणों में आकर प्रार्थना की होगी कि हम ध्यान की गहराइयों में जाना चाहते हैं। जी लिए बहुत विचार में और कुछ भी नहीं पाया। सोच लिया खूब, कुछ भी नहीं मिला। कर लिया सब; दुख बना रहता है, मिटता नहीं। अब हम सब दाव पर लगा देना चाहते हैं। अब हम कुछ बचाना नहीं चाहते। अब हमें आशीष दो कि हम भटक न जाएं; कि हम बीच से लौट न आएं; कि हम डगमगा न जाएं; कि हम पथ— भ्रष्ट न हो जाएं; कि हम मार्गच्‍युत न हो जाएं; कि हम किसी और दिशा में न बह जाएं। आशीष दो कि आप हमारे साथ रहोगे। आशीष दो कि आपकी छत्र—छाया होगी। आशीष दो कि आपकी दृष्टि हमारा पीछा करेगी, कि आप हमारे भीतर मौजूद रहेंगे और देखते रहेंगे कि हम ठीक चल रहे न! हम चूक तो नहीं रहे। यह भरोसा हमें आ जाए कि आप खड़े हो हमारे साथ, हम अकेले नहीं हैं; तो हम दूर तक की यात्रा कर लेंगे।
यात्रा तो व्यक्ति को स्वयं ही करनी है। भरोसे की कमी है। गुरु की जरूरत है भरोसे के कारण। जिस दिन तुम्हारी यात्रा पूरी हो जाएगी, उस दिन तुम पाओगे : गुरु मे कुछ भी नहीं किया और बहुत कुछ भी किया।
कुछ भी नहीं किया इस अर्थों में कि जिस दिन तुम यात्रा पूरी कर लोगे, तुम पाओगे कि गुरु पास—पास तैरता रहा; तुम्हें भरोसा बना रहा कि अगर डूबूंगा, तो कोई बचा लेगा। लेकिन तैरते तुम रहे। तुम तैरकर पहुंचे अपने आप। शायद गुरु ने हाथ भी न लगाया हो; लेकिन पास—पास तैरता रहा।
तो एक अर्थ में तो कुछ भी नहीं किया म हाथ भी नहीं लगाया। हाथ लगाने की जरूरत ही नहीं है। तुम पहुंच सकते हो, इतनी शक्ति परमात्मा ने प्रत्येक को दी है कि वापस मूलस्रोत तक पहुंच जाए। इतना पाथेय सभी के भीतर रखा है। इतना कलेवा तुम लेकर ही पैदा हुए हो कि यात्रा पूरी हो जाए, और भोजन चुके नहीं।
लेकिन तुममें भरोसे की कमी है और वह भी स्वाभाविक है। कभी जिस मार्ग पर चले नहीं, उस मार्ग पर चलने में भरोसा हो कैसे! श्रद्धा का अभाव है। आत्मश्रद्धा नहीं है। तुम्हें डर है कि मुझसे न हो सकेगा। और तुम्हारे डर के कारण हैं, सुनिश्चित कारण हैं। छोटी—छोटी चीजें की हैं और नहीं हो सकीं। कभी सिगरेट पीते थे और छोड़ना चाही—नहीं छूटी। वर्षों मेहनत की और नहीं छूटी। कितनी ही बार तय किया और नहीं छूटी। और हर बार तय करके गिरे; और हर बार तय करके पछताए; और फिर पीया, और फिर भूल की; फिर अपराध हुआ। धीरे— धीरे ग्लानि बढ़ती गयी; आत्म—विश्वास खोता गया। एक बात साफ हो गयी कि तुम्हारे किए कुछ होने वाला नहीं है। क्षुद्र सी बात नहीं छूटती!
तो जिस आदमी को सिगरेट पीना न छूट सका हो अपने ही संकल्प से, वह ध्यान में जाए—कैसे भरोसा हो।
जो आदमी कई बार निर्णय किया कि सुबह पांच बजे उठ आऊंगा ब्रह्म—मुहूर्त में, और कभी नहीं उठ सका। अलार्म भी भरा। पांच बजे अलार्म भी बजा, तो गाली देकर घड़ी को भी पटक दिया। करवट लेकर फिर सो रहा। सुबह पछताया। फिर रोया, चीखा। फिर कसम खायी कि अब कल कुछ भी हो जाए, उठूंगा। फिर कल यही हुआ। कितने दिन तक ऐसा करोगे? एक दिन तुम पाओगे : यह अपने से नहीं होना। छोड़ो। सोते तो रहते ही हो, अब यह झंझट भी क्यों लेनी! उठना तो होता नहीं; होगा भी नहीं। हार गए। हार गए, तो तुम्हारे भीतर से आत्म—श्रद्धा तिरोहित हो जाएगी।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं : क्षुद्र बातों में अपने जीवन—प्रयास को मत लगाना। क्योंकि क्षुद्र से अगर हार गए, तो विराट की दिशा में जाने में अड़चन आ जाएगी। इसलिए मैं नहीं कहता कि तुम लड़ो छोटी—छोटी बातों से। छोटी—छोटी बातों से लड़ने से सिर्फ हानि होती है, लाभ कुछ भी नहीं होता है।
छोटी—छोटी क्षुद्र बातों से मत लड़ना। और बड़ी तो एक ही बात है लड़ना हो, तो परमात्मा के लिए लड़ना। लड़ना हो, तो ध्यान के लिए लड़ना। वहां पूरी ऊर्जा लेकर लड़ना। इस विराट की लडाई में तुम अकेले भी नहीं रहोगे। इस विराट की लडाई में, जो भी उसको उपलब्ध हो गए हैं, सबके आशीष तुम्हें उपलब्ध होंगे। आशीष लेकर लड़ना।
क्यों आशीष लेकर लड़ना? ताकि तुम्हारे साथ बुद्ध की ऊर्जा जुड़ जाए; किसी जिन की ऊर्जा जुड़ जाए; किसी संत की ऊर्जा जुड़ जाए। किसी संत का भाग्य अपने साथ जोड़ लेना—यह आशीष का अर्थ है। जब किसी संत का भाग्य अपने भाग्य से जोड़ा जा सकता हो, तो नासमझ है जो न जोडे।
बुद्ध का आशीष लिया। चाहते थे, ध्यान की गहराइयों में उतरना है। समाधि से कम उनका लक्ष्य नहीं था।
इससे कम लक्ष्य रखना भी नहीं। छोटे —छोटे लक्ष्य रखना ही नहीं। दूर आकाश के तारे पर आंख होनी चाहिए। और अगर तुम्हें दो मील जाना हो, तो दस मील जाने का संकल्प होना चाहिए, तो दो मील पहुंचोगे। जितना तुम्हें पाना हो, उससे बडा संकल्प रखना।
अक्सर लोग उलटा कर लेते हैं। जाना तो चाहते हैं सूरज तक, संकल्प बड़ा छोटा सा होता है। दीए तक पहुंचने का भी नहीं होता। फिर सूरज तक कैसे पहुंचोगे?
संकल्प तो आत्यंतिक होना चाहिए। जिन लोगों ने धन को चुना है संकल्प की तरह, उन्होंने बड़े क्षुद्र को चुन लिया। जिन्होंने ध्यान को चुना है, उन्होंने ही ठीक चुना है। चुनौती बड़ी चाहिए, ताकि तुम्हारे भीतर सोयी हुई शक्तियां जाग जाएं। इसलिए क्षुद्र के साथ लड़ाई में हार हो जाती है, क्योंकि क्षुद्र की चुनौती में तुम्हारे भीतर सोयी हुई शक्तियां जागती ही नहीं। शक्तियां जागती तभी हैं, जब उनके सामने खतरा खड़ा हो जाए।
बड़ी चुनौती दो। जितनी बड़ी चुनौती होगी, उतना ही विराट तुम अपने भीतर जागता हुआ पाओगे। चुनौती का सामना करना है। चुनौती से जूझना है।
तुमने कभी खयाल किया अगर किसी कठिनाई के समय में तुम जूझ पड़ते हो, तो तुम्हारे भीतर बड़ी ऊर्जा होती है, जैसी सामान्यतया नहीं होती।
जैसे समझो कि घर में आग लग गयी है। तुम थके —मांदे आए थे, कि सात दिन से यात्रा कर रहे थे और सारा शरीर टूट रहा था। और तुम बिलकुल थके—मांदे थे, और भूखे थे। और चाहते थे कि किसी तरह भोजन करके गिर पड़ो बिस्तर में, और खो जाओ दो दिन के लिए बिस्तर में। दो दिन उठना ही नहीं है।
घर आए। खाने की तो बात दूर, देखा कि घर में लपटें लगी हैं, आग जल रही है। सब भूल गए। सात दिन की थकान, शरीर का टूटा—फूटा होना, भूख, निद्रा—सब गयी! एक क्षण में कोई ज्योति तुम्हारे भीतर भभककर उठी। एक ऊर्जा उठी। तुम जूझ गए।
अब शायद तुम रातभर आग से लड़ते रहो और नींद नहीं आएगी। और पहले तुम सोच रहे थे कि घड़ीभर भी अगर मुझे जागना पड़ा, भोजन के तैयार होने के समय की प्रतीक्षा करनी पड़ी, तो मैं सो जाऊंगा, गिर जाऊंगा।
क्या हुआ? कहां से यह ऊर्जा आयी? एक बड़ी चुनौती सामने खड़ी हो गयी। उस बड़ी चुनौती के कारण यह ऊर्जा आयी।
चुनौतियां चुनना बड़ी कुशलता की बात है। और अगर चुनना ही हो, तो आत्यंतिक, कहो उसे समाधि, निर्वाण, मोक्ष, परमात्मा; जो नाम देना चाहो। मगर जो परमात्मा को पाने की प्रबल अभीप्सा से जग खड़ा होता है, उसके भीतर सोयी हुई अंतस्तल की सारी शक्तियां जग आती हैं। उसकी जड़ें तक कंप जाती हैं। उसके भीतर जो भी छिपा है, सब प्रगट हो जाता है। क्योंकि इस बड़ी चुनौती के सामने अब कुछ भी छिपाकर नहीं रखा जा सकता। अब तो सभी दाव पर लगाना होगा, तो ही यात्रा हो सकती है।
इसलिए कहता हूं कि छोटी—मोटी चीज से लड़ोगे, तो हारोगे। क्योंकि तुम्हारी सोयी हुई शक्तियों को चुनौती नहीं मिलती।
ये तीन अवस्थाएं हैं. मानना, जानना, होना।
मानना बहुत दूर है। वह इसी किनारे खड़ा आदमी है, जो मानता है। उसे पता नहीं है। अंधा आदमी जैसे रोशनी को मानता है कि होना चाहिए, होगी। इतने लोग कहते हैं, तो जरूर होगी। मगर संदेह तो उठते ही रहेंगे, क्योंकि उसने तो जाना नहीं; उसने तो देखा नहीं। पता नहीं, लोग झूठ ही बोलते हों! लोगों का क्या भरोसा? अपने अनुभव के बिना जानना कैसे हो? मानना भी कैसे हो? तो मानना भी थोथा होता है। सब मानना थोथा होता है। सब विश्वास अंधविश्वास होते हैं।
फिर एक आदमी है, जिसकी आंख खुली और जिसने देखा—और देखा कि हां, रोशनी है। वृक्षों पर नाचती हुई किरणें देखीं। आकाश में उगा सूरज देखा। रात में घिरा आकाश चांद—तारों से भरा देखा। देखे फूल। हजार—हजार रंग देखे। आकाश में खिले इंद्रधनुष देखे। देखा सब, और कहा कि नहीं, है। यह जानना हुआ।
इसके आगे एक और स्थिति है, जब आदमी जानता ही नहीं; आंख ही नहीं हो जाता, बल्कि रोशनी ही हो जाता है, जब स्वयं प्रकाशरूप हो जाता है।
इसलिए बुद्ध को हम भगवान कहते हैं, महावीर को भगवान कहते हैं। जाना ही नहीं—हो गए। जो जाना—वही हो गए।
जानने में थोड़ी दूरी होती है। मानने में तो बहुत दूरी होती है। जानने में थोड़ी दूरी होती है। देख रहे हैं, वह रहा प्रकाश, हम खड़े यहां! फिर धीरे— धीरे दूरी मिटती जाती है, मिटती जाती है। और जो जाना जा रहा है, और जो जानने वाला है—एक ही हो जाते हैं। ज्ञाता और गेय का भेद गिर जाता है। वहीं परम ज्ञान है।
ऐसे किसी व्यक्ति का आशीष मिल जाए, तो तुम्हारे भीतर उत्साह और उमंग भर जाती है। श्रद्धा का सूत्रपात होता है। संवेग पैदा होता है। कोई पहुंच गया है, तो हम भी पहुंच सकते हैं। कोई पहुंच गया है, तो दूसरा किनारा है।
इसलिए आशीष मांगने आए थे।
बुद्ध जिस कुटी में रहते थे, उसका नाम था गंधकुटी। बुद्ध की सुगंध के कारण। एक सुवास है आत्मा की। जैसे फूल जब खिलते हैं, तो एक सुवास होती है। कागज के फूलों में नहीं होती। कागज के फूल कभी खिलते ही नहीं। असली फूलों में होती है सुवास!
बुद्ध में गंध होती है, क्योंकि बुद्ध के सब कागज के फूल गिरा दिए गए, जला दिए गए। बुद्ध का अर्थ होता है, जिसने अपने असली चेहरे को पा लिया। अब जो फिर वैसा हो गया, जैसा निर्दोष बच्चा होता है; पहले दिन का बच्चा होता है। सिर्फ है। न कोई परिभाषा, न कोई सीमा। असीम हो गया फिर। इस सरलता में सुगंध है, सुवास है। सरलता के अतिरिक्त और कहीं सुवास नहीं। इस सहजता में सुगंध है।
इसलिए बुद्ध की कुटी का नाम था गंधकुटी। वहा फूल खिला था—मनुष्यता का फूल। याद रखना: तुम भी फूल हो; चाहे अभी कली में दबे हो, या हो सकता है, अभी कली भी पैदा न हुई हो; अभी किसी वृक्ष की शाखा में दबे हो। या हो सकता है, अभी वृक्ष भी पैदा न हुआ हो और किसी बीज में पड़े हो। मगर तुम भी फूल हो। और अपनी सुगंध को खोजना है। और अपनी सुगंध को मुखर करना है, अपनी सुगंध को प्रगट करना है। अभिव्यंजना देनी है। जो गीत तुम्हारे भीतर पड़ा है, उसे गाया जाना है। और जो नाच तुम्हारे भीतर पड़ा है, उसे नाचा जाना है।
नाचोगे, गाओगे, खिलोगे तो ही परितृप्ति है। उस परितृप्ति में ही, उस संतोष में ही एक सुगंध है। जो इन नासापुटों से नहीं पहचानी जाती। उसे पहचानने के लिए भी और नासापुट चाहिए। जैसे भीतर की आंख होती है, ऐसे भीतर के नासापुट भी होते हैं।
फूल में यह संदेश है : यहां सब बीत जाएगा। घर मत बना लेना। घर जो बना लेता है जीवन में, वही गृहस्थ है। और जो घर नहीं बनाता, वही संन्यस्त है।
संन्यास के लिए घर छोड़कर जाने की जरूरत नहीं है। संन्यास के लिए घर बनाने की आदत छोड़ने की जरूरत है। संन्यास के लिए यहां कोई घर घर नहीं है; सभी सराय हैं। जहां ठहरे, वहीं सराय है। इसका यह मतलब नहीं है कि सराय को गंदा करो। कि सराय है, अपने को क्या लेना—देना! इसका यह भी मतलब नहीं कि सराय कैसी भी हो, तो चलेगा। सराय को सुंदर करो। सुंदरता से रहो। लेकिन ध्यान रखो कि जो आज है, वह कल चला जाएगा। यह जीवन का स्वभाव है।
तो बुद्ध ने कहा? भिक्षुओं! जुही के इन खिले फूलों को देखते हो? ये सांझ मुर्झा जाएंगे। ऐसा ही क्षणभंगुर जीवन है। अभी है, अभी नहीं। इन फूलों को ध्यान में रखना भिक्षुओ! यह स्मृति ही क्षणभंगुर के पार ले जाने वाली नौका है।
क्यों? जो क्षणभंगुर को पकड़ना चाहता है, उसके भीतर विचारों का तूफान उठेगा। विचार हैं क्या? क्षणभंगुर को पकड़ने की चेष्टाएं। क्षणभंगुर को घिर करने की चेष्टाएं। विचार हैं क्या? घर बनाने की ईंटें। इसलिए जो क्षणभंगुर को पकड़ना नहीं चाहता, उसके भीतर विचार अपने आप क्षीण हो जाते हैं।
सार ही क्या है? जब सब चला जाना है, तो इतने सोच—विचार से क्या होगा? इतनी योजनाएं बनाने का क्या अर्थ है? अतीत चला गया, भविष्य भी आएगा और चला जाएगा; और वर्तमान बहा जा रहा है। जी लो—बजाय योजनाएं करने के।
जैसे—जैसे विचार कम होते हैं, वैसे—वैसे ध्यान प्रगट होता है। ध्यान है निर्विचार चित्त की दशा। वही नौका है। वही पार ले जाएगी।
विचारों ने बांध रखा है जंजीरों की तरह इस तट से। ध्यान ले जाएगा नौका की तरह उस तट पर।
भिक्षुओं ने फूलों को देखा और संकल्प किया? संध्या तुम्हारे कुम्हलाकर गिरने के पूर्व ही हम ध्यान को उपलब्ध होंगे, हम रागादि से मुक्त होंगे। फूलों! तुम हमारे साक्षी रहो।
भगवान ने कहा. साधु! साधु!
जब भी वे आशीष देते थे, तो यही उनका आशीष था : साधु! साधु! धन्य हो कि साधुता का जन्म हो रहा है। धन्य हो कि सरलता पैदा हो रही है। धन्य हो कि ध्यान की तरफ तुम्हारी दृष्टि जा रही है। धन्य हो कि साधना में रस उमग रहा है। साधु! साधु! ऐसा कहकर अपने आशीषों की वर्षा की। तब ये सूत्र उन्होंने कहे थे :
'शून्य गृह में प्रविष्ट शांत—चित्त भिक्षु को भली— भीति से धर्म की विपस्सना करते हुए अमानुषी रति प्राप्त होती है।'
ओशो
एस धम्‍मो सनंतनो

1 टिप्पणी: