अध्याय
47
ज्ञान
की खोज
अपने
घर के दरवाजे
के बाहर बिना
पांव दिए ही,
कोई
जान सकता है
कि संसार में
क्या हो रहा
है;
अपनी
खिड़कियों
के बाहर बिना
झांके हुए,
कोई
स्वर्ग के ताओ
को देख सकता
है।
जो
ज्ञान का
जितना ही पीछा
करता है,
वह
उतना ही कम
जानता है।
इसलिए
संत बिना
इधर-उधर भागे
ही जानते हैं,
बिना
देखे ही समझते
हैं,
और
बिना कर्म किए
सब कुछ संपन्न
करते हैं।
पश्चिम
में ज्ञान से
अर्थ है: बाहर
के संबंध में
कुछ जानना, वस्तु
के संबंध में
कुछ जानना।
पूरब में ज्ञान
का अर्थ है:
ज्ञाता को
जानना, जानने
वाले को
जानना। इसलिए
पश्चिम में
ज्ञान
धीरे-धीरे
विज्ञान बन
गया। जानने
वाले को छोड़
कर सब कुछ
जानने की खोज
पश्चिम में
हुई। पूरब में
ज्ञान
धीरे-धीरे
अनुभव बन गया,
धर्म बन
गया। क्योंकि
सारी खोज उसकी
करनी है जो
खोज करने वाला
है।
पूरब
की मान्यता है, जब
तक हम स्वयं
को न जान लें
तब तक कुछ भी
जानने का कोई
सार नहीं। और
हम कितना ही
जान लें स्वयं
को बिना जाने,
उससे हमारा
अज्ञान नहीं
मिटेगा।
जानकारी बढ़ जाएगी,
अज्ञान
नहीं मिटेगा।
हम विद्वान हो
जाएंगे, ज्ञानी
नहीं। जो
स्वयं को जान
लेता है वही
ज्ञानी है। तो
पूरब की खोज
आंतरिक है; पश्चिम की
खोज
बहिर्मुखी
है। जो बाहर
को जानने में
समर्थ होगा वह
शक्तिशाली हो
जाएगा; उसके
पास उपकरण, साधन, सुविधाएं,
संपन्नता
बढ़ जाएगी। जो
भीतर को जानने
में समर्थ
होगा वह शांत
हो जाएगा। इस
बात को ठीक से
समझ लें। जो बाहर
के ज्ञान में
कुशल होगा
उसके पास आनंद
उपलब्ध करने
की सुविधाएं
बढ़ जाएंगी; जरूरी नहीं
है कि आनंद
बढ़े। क्योंकि
सुविधाओं पर
आनंद निर्भर
नहीं होता, आनंद निर्भर
होता है आनंद
लेने वाले की
आंतरिक
क्षमता पर। जो
भीतर के ज्ञान
में प्रवेश
करेगा, हो
सकता है, उसके
बाहर की
सुविधाएं न बढ़
पाएं। शायद ही
बढ़ें। लेकिन
उसके आनंद की
क्षमता बढ़ती
चली जाएगी।
वह जो
भीतर छिपा है
आपके, अगर वह
विकसित होता
है तो पूरब
उसे ज्ञान
कहता है; जानकारी
अगर बढ़ती है
तो पश्चिम उसे
ज्ञान कहता
है। इसलिए
पश्चिम
आइंस्टीन को
ज्ञानी कह
सकता है; हीगल,
कांट को
ज्ञानी कह
सकता है। पूरब
उन्हें ज्ञानी
नहीं कहेगा; पूरब बुद्ध
को ज्ञानी
कहेगा, लाओत्से
को ज्ञानी
कहेगा।
आइंस्टीन
और बुद्ध में
बड़ा फर्क है।
अगर दोनों की
जानकारी में
प्रतियोगिता
हो तो आइंस्टीन
ही जीतेगा। बुद्ध
की जानकारी
क्या है? लेकिन
अगर
आत्म-सत्ता
में, स्वयं
के होने की
गरिमा में कोई
प्रतियोगिता हो
तो आइंस्टीन
शून्य सिद्ध
होगा। बुद्ध
के पास कुछ है
जो भीतरी है; आइंस्टीन के
पास कुछ है जो
बाहरी है।
आइंस्टीन के
पास आंतरिक
आनंद की
क्षमता नहीं
है। इस बुनियादी
भेद को खयाल
में ले लें तो
लाओत्से के
सूत्र समझ में
आएंगे।
अन्यथा
लाओत्से के
सूत्र समझ में
आना मुश्किल
है।
"अपने
घर के दरवाजे
के बाहर बिना
पांव दिए ही, कोई जान
सकता है कि
संसार में
क्या हो रहा
है।'
हमें
असंभव लगेगा।
क्योंकि सुबह
अगर अखबार न मिले
तो हमें पता
कैसे चलेगा कि
संसार में
क्या हो रहा
है?
और अगर
रेडियो पर हम
खबर न सुनें
तो हमें पता कैसे
चलेगा कि
संसार में
क्या हो रहा
है? हमारी
बात भी ठीक
है। क्योंकि
संसार में जो
कुछ हो रहा है
उसकी खबर मिले
तो ही हमें
पता चल सकता
है।
लाओत्से
कहता है, "अपने
घर के दरवाजे
के बाहर पांव
दिए बिना ही, कोई जान
सकता है कि
संसार में
क्या हो रहा
है।'
यह
जानकारी कुछ
और बात है।
लाओत्से यह कह
रहा है कि यह
तो पता नहीं
चलेगा कि
बर्मा में
क्या हुआ, कि
कहां नाव डूबी,
कहां युद्ध
हुआ; लेकिन
जो व्यक्ति
स्वयं को
जानता है वह
जानता है कि
आदमी जमीन पर
कहां क्या कर
रहा
होगा--हिंसा भड़क रही
होगी; आत्महत्याएं हो रही
होंगी; लोग
पागल हो रहे
होंगे। इसके
विस्तार को
जानने की
जरूरत भी नहीं
है। लेकिन
आदमी को जो
पहचानता है, वह जानता है
कि संसार में
क्या हो रहा
होगा। और आदमी
को वही पहचान
सकता है जो
स्वयं को
पहचानता है।
जो अपने मन को
जान लेता है
वह जानता है
कि सब जगह
क्या हो रहा
होगा। उसे
विस्तार पता न
हो, लेकिन
उसे मूल पता
होगा।
आप
ज्योतिषी के
पास जाते हैं, हस्तरेखाविद
के पास जाते
हैं, और
कुछ बातें
हस्तरेखाविद
और ज्योतिषी
आपको बताते
हैं। शायद आप
सोचते हैं कि
कोई बहुत
विज्ञान के
आधार पर आपको
कुछ बताया जा
रहा है तो आप
गलत सोचते
हैं।
ज्योतिषी, हस्तरेखाविद,
आदमी के मन
में क्या हो
रहा है, इसकी
परंपरागत
जानकारी है। डिटेल्स, विस्तार में
आपको क्या हो
रहा है, यह
बताना
मुश्किल है।
लेकिन क्या हो
रहा है, सारभूत
बताया जा सकता
है। क्योंकि
हर आदमी को हो
रहा है।
मेरे
एक मित्र
ज्योतिषी
हैं। वे जिसका
भी हाथ देखेंगे, उसको
वे बताएंगे
कि रुपया तो
आता है, लेकिन
हाथ में टिकता
नहीं। किसके
टिकता है? रुपया
टिक जाए तो
रुपया नहीं है;
उसका कोई
अर्थ ही नहीं
है। रुपये का
मतलब ही यह है
कि वह जाए, चले,
एक्सचेंज, विनिमय हो, बदले हाथ, तो ही उसका
मूल्य है।
रुपया जब हाथ
बदलता है तभी
रुपया है। अगर
हाथ में ही रह
जाए तो वह
मिट्टी है।
उसमें मूल्य
तो तभी आता है
जब वह एक हाथ से
दूसरे हाथ में
जाता है। तो
बीच में जो
जगह है वही
उसका मूल्य
है।
तो
जितना रुपया
चले उतना
मूल्यवान
होता है। जिन
मुल्कों में
रुपया जितनी
यात्रा करता
है,
वे मुल्क
उतने धनी हो
जाते हैं।
अमरीका इतना धनी
नहीं है जितना
दिखाई पड़ता
है। दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
रुपया बहुत
गति करता है।
अगर भारतीय के
हाथ में रुपया
पकड़ा दिया जाए
तो जिसके साथ में
है वह पकड़े
रहेगा, जब
तक कि मजबूरी
में छोड़ना न
पड़े। अमरीकन,
रुपया हाथ
में आएगा बीस
साल बाद, छोड़
देता है आज। इंस्टालमेंट
पर चीजें खरीद
रहा है, जिन्हें
वह बीस साल
में चुकाएगा।
बीस साल बाद
जब उसके पास
पैसा होगा तब
वह चुकाएगा।
रुपया बीस साल
बाद आएगा; उसने
चला दिया है
आज। उधार ले
रहा है। इतना
रुपया गति कर
रहा है, इतने
हाथ बदल रहा
है, इसलिए
अमरीका इतना
धनी है।
अमरीका का
पूरा अर्थशास्त्र
इस पर खड़ा है
कि जितना तुम
खर्च करोगे
उतने ही
संपन्न हो
जाओगे।
रुपये
में मूल्य आता
है जब वह हाथ
बदलता है; तभी
उसके मूल्य का
पता चलता है।
तो ठीक ही है, वह रुपये का
गुणधर्म है।
और फिर आदमी
के मन का भी
गुणधर्म है कि
चाहे आपको
कितना ही मिल
जाए और चाहे
आप कितना ही
रोक लें, लगेगा
सदा आपको ऐसा
ही कि रुपया
टिकता नहीं है।
उसके कारण
हैं। क्योंकि
जितना आप
टिकाना चाहते
हैं, उसकी
कोई सीमा नहीं
है। आप चाहते
हैं, सब धन
इकट्ठा होता
चला जाए। वैसा
नहीं हो सकता।
और कितना ही
इकट्ठा हो जाए
तो भी आपको
लगता है, जितना
हो सकता था
उससे कम हो
रहा है।
इसलिए
धनी से धनी
आदमी को और
कृपण से कृपण
आदमी को भी
कहो कि हाथ
में रुपया आता
है और टिकता नहीं, वह
भी स्वीकार
करता है कि यह
बात सत्य है।
किसी
भी आदमी से, वे
मेरे मित्र
कहते हैं कि
मन अशांत है।
मन का
होना अशांति
है। जिसके पास
मन है, अशांति
होगी ही। मन
अशांत नहीं
होता, मन
ही अशांति है।
इसलिए इसे
बेचूक किसी से
भी कहा जा
सकता है कि मन
अशांत है।
इसके लिए कोई
आदमी देखने की
जरूरत नहीं, न हाथ की
रेखाएं
पहचानने की
जरूरत है। मन
का स्वभाव
अशांति है। और
ऐसा आदमी तो
शायद ही ज्योतिषी
के पास आएगा
जिसके पास मन
न हो। कोई
बुद्ध तो हाथ
दिखाने
ज्योतिषी के
पास आने वाले
नहीं हैं।
बुद्ध के बाबत,
बुद्ध के
संबंध में अगर
यह बात कोई
कहे तो गलत हो
जाएगी। लेकिन
बुद्ध
ज्योतिषी के
पास आते नहीं।
ज्योतिषी
के पास, असल
में, अशांत
आदमी ही आता
है। भविष्य के
संबंध में जानने
को वही उत्सुक
होता है जिसका
वर्तमान दुखी
हो। जो आज
इतनी पीड़ा में
पड़ा है कि
लगता है आत्मघात
कर ले, वह
भविष्य के
संबंध में
थोड़ा जानना
चाहता है कि
कोई आशा है कि
मैं आज बिता
लूं, जी
लूं, समय
बिता दूं, गुजार
दूं। कल की
आशा में कोई
जीने की
सुविधा मिल
जाए, इसलिए
आदमी
ज्योतिषी के
पास जाता है।
दुखी के अतिरिक्त
ज्योतिषी के
पास कोई जाता
नहीं।
तो अगर
ज्योतिषी कहे
कि मन अशांत
है,
चित्त दुखी
है, संताप
से भरा है, चिंताएं
घेरे रहती हैं,
तो इसमें
कुछ जानने की
जरूरत नहीं
है। अगर ज्योतिषी
अपने मन को भी
समझता है तो
उसने करीब-करीब
सभी मनुष्यों
के मन को समझ
लिया। मन की
साधारण सी समझ
के ऊपर ही
सारा व्यवसाय
ज्योतिष का
चलता है। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि ज्योतिष
गलत है, लेकिन
जो ज्योतिष
सही है वह सड़क
पर हाथ देखने वाले
ज्योतिषी के
पास उपलब्ध
नहीं होने
वाला है। वह
तो बड़ा आंतरिक
विज्ञान है; उसका कोई
व्यवसाय नहीं
बनाया जा
सकता। लेकिन जो
व्यवसाय कर
रहा है वह
मनुष्य के मन
की समझ के ऊपर
कर रहा है।
किसी
भी व्यक्ति से
कहो कि
तुम्हारे
जीवन में
प्रेम का अभाव
है;
सभी के लिए
लागू होगा।
विवाह न हुआ
हो तो लागू होगा
कि प्रेम का
अभाव है और
विवाह हुआ हो
तो लागू होगा
कि प्रेम का
अभाव है।
प्रेम कभी
भरता ही नहीं।
और किसी को
कभी ऐसा नहीं
लगता कि प्रेम
मिल गया जितना
मिलना चाहिए
था। वह तृषा
अनंत है; सागर
भी प्रेम का
मिल जाए तो भी
पूरी नहीं होती।
तो ऐसा आदमी
खोजना
मुश्किल है
जिसके संबंध में
कहा जाए और
गलती हो जाए
कि प्रेम का
अभाव है।
हर
आदमी से कहा
जा सकता है कि
तुम लोगों के
साथ भला करते
हो,
और लोग
उत्तर में
बुरा करते
हैं। सभी ऐसा
मानते हैं; वे जो भला
करते हों, न
करते हों, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। हर आदमी
सोचता है, मैं
भला कर रहा
हूं और
प्रतिकार में
मुझे बुरा मिल
रहा है। ये मन
के लक्षण हैं।
इनके लिए व्यक्ति-व्यक्ति
को जानने की
कोई जरूरत
नहीं है। ऐसा
मन की धारणा
है कि मैं
अच्छा करता
हूं, लोग
मेरे साथ बुरा
करते हैं। ऐसा
तो कोई कभी नहीं
सोचता कि मैं
लोगों के साथ
बुरा करता हूं,
लोग मेरे
साथ अच्छा
करते हैं। कभी
कोई आदमी मिला
आपको जो कहे
कि बड़ी अजीब
दुनिया है कि
मैं लोगों के
साथ बुरा करता
हूं और लोग
मेरे साथ अच्छा
करते हैं! ऐसा
आदमी आपको
नहीं मिलेगा;
क्योंकि यह
मन का नियम
नहीं है।
हालांकि सभी आदमी
ऐसे हैं कि
अपनी तरफ से
हर तरह से
बुरा करने की
कोशिश करते
हैं और दूसरे
से हर तरह से
भला छीनने की
कोशिश करते
हैं; लेकिन
मन सदा यही
कहता है कि
मैंने अच्छा
किया और
दूसरों ने
बुरा किया।
सूफी
फकीर कहते हैं
कि नेकी कर और
कुएं में डाल।
अच्छे आदमी का
लक्षण यह है
कि वह अच्छा
करे और कुएं
में डाल दे इस
बात को; फिर
इसकी दुबारा
बात न उठाए, फिर कभी भूल
कर न कहे कि
मैंने अच्छा
किया, तो
ही अच्छा आदमी
है। अच्छा
करने से कोई
अच्छा नहीं
होता, अच्छे
को करके जो
भूल जाए वह अच्छा
आदमी है।
अगर हम
मन की सामान्य
वृत्ति को समझ
लें तो दुनिया
में क्या हो
रहा है, इसको
समझने के लिए
अखबार उठाने
की जरूरत नहीं,
न रेडियो
सुनने की
जरूरत है। और
अखबार रोज वही
दोहरा रहा है।
जो कल हुआ था
वह आज हो रहा
है; जो
परसों हुआ था
वह आज हो रहा
है। वही कल भी
होगा। आप किसी
भी दिन के
अखबार को बिना
तारीख पढ़े
पढ़ लें। कोई
बहुत फर्क
नहीं पड़ने
वाला है। आदमी
जैसा है, उसे
जानते हुए, जो हो रहा है
उसका अनुमान
लगाया जा सकता
है।
लाओत्से
कहता है, अगर
मनुष्य को
थोड़ी सी भी
अंतर्मन की
प्रतीति हो तो
संसार में
क्या हो रहा है,
उसे पता
होगा। एक-एक
क्षुद्र घटना
को जानने की
कोई जरूरत
नहीं है। जीवन
के विस्तीर्ण
नियम साफ हो
जाते हैं।
और हम
क्यों एक-एक
घटना को जानना
चाहते हैं? हम
इसलिए जानना
चाहते हैं कि
हमें
विस्तीर्ण नियम
का कोई पता
नहीं है। और
हम जिंदगी भर
अखबार पढ़ते
रहते हैं तो
भी मनुष्य के
स्वभाव का
हमें कोई खयाल
नहीं हो पाता।
मनुष्य का
स्वभाव समझने
योग्य है; फिर
मनुष्य क्या
करता है, यह
गौण बात है।
कामवासना से
भरा हुआ
मनुष्य क्या
करेगा, क्रोध
से भरा हुआ
मनुष्य क्या
करेगा, लोभ
से भरा हुआ
मनुष्य क्या
करेगा, हिंसा
से भरा हुआ
मनुष्य क्या
करेगा, अगर
ये मूल सूत्र
हमें खयाल में
हैं तो हम सदा-सदा
के लिए घोषणा
कर सकते हैं
कि कल क्या
होगा, परसों
क्या होगा।
पश्चिम
में तीन सौ
वर्ष पहले एक
ज्योतिषी ने तीन
सौ वर्ष की घोषणाएं
की हैं। और
करीब-करीब इन
तीन सौ वर्षों
में उसकी सारी
घोषणाएं
सही सिद्ध
हुईं। तीन
कारण हैं उसकी
घोषणाओं के
सही सिद्ध
होने के। एक
तो उसने
युद्धों की
घोषणा की। हर
दस साल में एक
महायुद्ध
होता ही है। मनसविद
कहते हैं, दस
साल में आदमी
इतनी घृणा
इकट्ठी कर
लेता है कि
युद्ध में
विस्फोट
आवश्यक हो
जाता है। ऐसे ही
जैसे कि अगर
आप पानी को
गर्म करते
जाएं तो सौ
डिग्री पर
जाकर भाप बन जाएगा,
और अगर
केतली बंद है
तो केतली फूट
जाएगी। चूंकि
सारे धर्म और
सारी नैतिक शिक्षाएं
आदमी के मन की
केतली को बंद
रखने का सुझाव
देती हैं, इसलिए
हर दस वर्ष
में युद्ध
अनिवार्य हो
जाता है। तीन
सौ वर्ष की जो घोषणाएं हैं
ज्योतिष की, उसमें हर दस
वर्ष में उसने
युद्ध की
घोषणा की है।
फिर
किस तरह के
आदमी युद्ध
करते हैं? हर
तरह का आदमी
तो युद्ध नहीं
करता, कुछ
खास तरह के
आदमी युद्ध
करते हैं। यह
बड़े मजे की
बात है कि हम
लोगों के नाम
याद रख लेते
हैं, लेकिन
टाइप कभी खयाल
में नहीं
लेते। हिटलर
या स्टैलिन या
माओ या चंगीज
या तैमूरलंग,
नादिर, नेपोलियन,
सिकंदर, ये
नाम तो इतिहास
पढ़ता है; लेकिन
समझदार
व्यक्ति
नामों की
फिक्र नहीं करता,
इनके पीछे
छिपा हुआ
टाइप! अगर हम
नाम अलग कर दें
तो हिटलर और
स्टैलिन
बिलकुल एक ही
ढांचे के आदमी
हैं; नेपोलियन,
सिकंदर एक
ही ढांचे के
आदमी हैं।
लेबल का फर्क
है; भीतर
जो छिपा है वह
बिलकुल एक
जैसा है।
हर दस
वर्ष में जब
भी युद्ध होगा
तो एक नेपोलियन, एक
हिटलर, एक
स्टैलिन
चाहिए। तीन सौ
वर्ष पहले जिस
आदमी ने घोषणाएं
की हैं उसने
उन
व्यक्तित्वों
के लक्षण
गिनाए हैं कि
इस तरह का
आदमी युद्ध की
शुरुआत
करेगा। और वे
हमेशा सही
सिद्ध होते
हैं, क्योंकि
वह आदमी कोई
भी हो--वह
हिटलर करे
युद्ध की
शुरुआत, या
मुसोलिनी
करे, या तोजो
करे, कोई
भी करे--नाम से
कुछ लेना-देना
नहीं है। वे लक्षण
इतने सही हैं
कि जब हिटलर
शुरू करता है
तो उस ज्योतिष
को मानने वाले
लोग कहते हैं
कि देखो, तीन
सौ वर्ष पहले
एक-एक लक्षण
हिटलर का
गिनाया हुआ
है। हिटलर से
कोई संबंध
नहीं है
ज्योतिष का, लेकिन जिस
तरह का आदमी
युद्ध की
शुरुआत करता है
उसके लक्षण
गिनाए हैं; वे लागू
होते हैं।
यह जो
मनुष्य का मन
है,
इसके
प्रकार हैं।
और वे ही
प्रकार सदा
जमीन पर होते
हैं, और
करीब-करीब
पुनरुक्ति
होती है।
इतिहास लंबी
पुनरुक्ति है,
उसमें सब दोहरता है;
वही दोहरता
जाता है
बार-बार।
विस्तार की
बातें बदल
जाती हैं, नाम
बदल जाते हैं,
लेकिन घटनाओं
के मूल स्रोत
नहीं बदलते।
लाओत्से
कह रहा है, "अपने
घर के दरवाजे
के बाहर बिना
पांव दिए ही, कोई जान
सकता है कि
संसार में
क्या हो रहा
है।'
इस
अर्थ में
लाओत्से कह
रहा है। लेकिन
इस तरह के
व्यक्ति को
स्वयं के मन
की पूरी
जानकारी चाहिए।
स्वयं के मन
को कोई ठीक से
जान ले, उसने
सारी
मनुष्यता को
जान लिया।
उसको जानने को
कुछ बचता
नहीं। और अगर
आप दूसरे आदमी
को नहीं पहचान
पाते तो उसका
कुल मतलब इतना
है कि आप अभी
अपने को नहीं
पहचान पाए
हैं। अगर कोई
दूसरा आदमी
आपके लिए
बेबूझ मालूम
होता है, रहस्यपूर्ण
मालूम होता है,
कि आप समझ
नहीं पाते, उसका कुल
मतलब इतना है
कि अभी आपको
आपके भीतर की
मनुष्यता से
परिचय नहीं
हुआ।
एक
सागर की बूंद
को कोई ठीक से
समझ ले, पूरा
सागर समझ में
आ गया। सागर
बहुत बड़ा है; बूंद बहुत
छोटी है।
लेकिन जो सागर
में है वह बूंद
में भी
सूक्ष्म में
मौजूद है। फिर
सागर बूंद का
ही विस्तार है,
या बूंद
सागर का ही
संकोच है।
बूंद को चख कर
जिसने जान
लिया कि वह
नमकीन है, वह
जान गया कि
पूरा सागर
खारेपन से भरा
है। फिर पूरे
सागर को चख-चख
कर जानने की
जरूरत नहीं है।
और जो सागर को
जगह-जगह चखने
जाए और तब भी
पक्का न कर
पाए, समझना
चाहिए कि वह मूढ़ है।
अगर
मैंने अपने
भीतर के मन को
ही समझ लिया
तो मैंने सारी
मनुष्यता का
मन समझ लिया।
इसीलिए संत
दयालु हो जाते
हैं;
क्योंकि वे
अपने मन को
समझ कर जान
जाते हैं कि आदमी
कितना कमजोर
है! आदमी
कितना दीन है!
आदमी कितना
मजबूर है!
इसलिए वे आदमी
को क्षमा कर
सकते हैं।
उनकी क्षमा
उनके स्वयं के
मन की समझ से
पैदा होती है।
और जो संत
किसी को क्षमा
न कर सके, समझना
कि वह अभी संत
नहीं है। उसे
पता ही नहीं है
कि आदमी की
कैसी मजबूरी
है।
आप
जिनको साधु और
संत मानते हैं
वे करीब-करीब आप
ही जैसे लोग
हैं;
उतने ही
गहरे अज्ञान
में खड़े। वे
आपको क्षमा
नहीं कर पाते,
वे आपको
अपराधी घोषित
करते हैं। अगर
आपसे कोई छोटी-मोटी
भूल हो जाती
है तो उनके
हृदय में क्षमा
पैदा नहीं
होती।
निश्चित ही, उन्हें अपने
भी मन की पूरी
समझ नहीं है; और आदमी
कमजोर है और
भूल-चूक से
भरा है, इसका
बोध नहीं है। या
फिर उन्होंने
अपनी ही भूलों
को, अपने
ही मन को इतने
अचेतन में दबा
दिया है कि उनके
संबंध छूट गए
हैं।
जो
व्यक्ति अपने
को ठीक से समझ
लेगा, इस जगत
में फिर कोई
भी मनुष्य
उसके लिए
अपरिचित नहीं
रहा। और जो भी
अपराध कोई भी
मनुष्य इस पृथ्वी
पर कर सकता है,
अपने मन को
समझने वाला
जानता है कि
मैं भी कर
सकता था। और
जो मैं कर
सकता हूं उसके
लिए दूसरे पर
क्रोधित, उसे
दंडित करने, उसे नरक में
डालने की बात
बेहूदी है।
जैसे ही कोई
मन को ठीक से
समझता है वह
जानता है, बुरे
से बुरा मेरे
भीतर छिपा है
और भले से भला भी।
इसलिए संत न
तो बुरे की
निंदा करते
हैं और न भले
की प्रशंसा। क्योंकि
दोनों
संभावनाएं
उनकी ही
संभावनाएं
हैं। उनके
भीतर बुद्ध भी
छिपा है; उनके
भीतर हिटलर भी
छिपा है। राम
भी और रावण भी!
रावण भी अपना
ही हिस्सा है
और राम भी
अपना ही हिस्सा
है। और युद्ध
कहीं बाहर
नहीं, भीतर
है। और ये
दोनों पात्र
किसी कथा के
पात्र नहीं, अपने ही मन
के दो हिस्सों
के नाम हैं।
और दोनों
हिस्से मेरे
हैं। तो न तो
राम पूजा
योग्य रह जाते
हैं और न रावण
निंदा योग्य
रह जाता है।
यह
थोड़ा सुन कर
कठिनाई होगी।
क्योंकि यह तो
हमारी समझ में
आ भी जाता है
कि मत करो निंदा
रावण की, लेकिन
राम की तो
पूजा करो। पर
ध्यान रहे, जो पूजा
करता है वह
निंदा भी
करेगा। जो
सम्मान करता
है वह अपमान
भी करेगा। तो
अगर कोई साधु
महावीर का
सम्मान कर रहा
है, राम का
सम्मान कर रहा
है, कृष्ण
का सम्मान कर
रहा है, तो
रावण के अपमान
से कैसे बचेगा?
इसलिए
परम संत पुरुष
न तो निंदा
करता है और न
प्रशंसा।
उसके वक्तव्य
तथ्य के
वक्तव्य होते
हैं,
मूल्यांकन
के नहीं। अगर
पानी नीचे की
तरफ बहता है
तो वह कहेगा
पानी नीचे की
तरफ बहता है।
लेकिन इसमें
कोई निंदा
नहीं है, सिर्फ
पानी के तथ्य
की सूचना है।
अगर आग जलाती
है तो वह
कहेगा आग
जलाती है।
लेकिन इसमें
कोई निंदा
नहीं है।
क्योंकि आग का
धर्म जलाना
है। तथ्य की
सूचना है।
जैसे-जैसे
कोई व्यक्ति
स्वयं के मन
को ठीक से समझने
में समर्थ हो
जाता है, सारा
जगत समझ में आ
गया कि
मनुष्यता एक
इकट्ठी घटना
है, और
थोड़े-बहुत भेद
के साथ। वे भेद
मात्राओं के
भेद हैं, डिग्रियों के भेद हैं।
कोई अट्ठानबे
डिग्री पर
गर्म है, कोई
सत्तानबे
डिग्री पर
गर्म है, कोई
निन्यानबे
डिग्री पर
गर्म है। इतने
भेद मनुष्यों
में हैं।
लेकिन गर्मी
को जिसने समझ
लिया वह डिग्रियों
को भी समझ
लेता है।
"अपने
घर के दरवाजे
के बाहर बिना
पांव दिए ही, कोई जान
सकता है कि
संसार में
क्या हो रहा
है।'
लेकिन
अपने मन को
जानना कुछ
संसार से छोटी
घटना नहीं है।
अपने मन को
जानना
करीब-करीब
पूरे संसार को
जान लेना है।
वह उतना ही
विस्तीर्ण है, उतना
ही जटिल है।
उतना ही विराट
का जंगल वहां है।
अगर कोई
व्यक्ति अपने
मन के
बारीक-बारीक
रेशों को उघाड़
कर देखने लगे
तो एक विराट
में प्रवेश कर
गया, एक
बहुत बड़ी घटना
में प्रवेश कर
गया।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
मनुष्य के इस
छोटे से मन
में सारे
विकास के
संस्मरण हैं।
जमीन पर, विकासवादियों के हिसाब से,
मनुष्य को
हुए कोई दस
लाख वर्ष हो
गए--कम से कम।
जमीन को बने
कोई चार अरब
वर्ष हुए। दस
लाख वर्षों
में आदमी ने
जो भी जाना है
उस सबके
संस्कार आपके
मन में हैं।
यह तो आदमी की
बात है। लेकिन
विकासवादी कहते
हैं कि आदमी
कोई टूटी हुई
घटना नहीं है,
शृंखला की
कड़ी है। आदमी
के पीछे पशुओं
की शृंखला है,
पशुओं के
पीछे पौधों की
शृंखला है। तो
चार अरब वर्ष
में जो कुछ भी
घटा है इस
पृथ्वी पर उस
सबके सूक्ष्म
संस्कार आपके
मन में हैं।
लेकिन इसे, अगर हम इस
गणित को पूरा
समझ लें, तो
अगर मनुष्य के
पहले पशुओं
में जो घटा हो,
पशुओं के
पहले वृक्षों
में जो घटा हो,
वृक्षों के
पहले पृथ्वी
में जो घटा हो,
अगर उस सबके
चिह्न हमारे
मन में हैं, तो पृथ्वी
जब नहीं बनी
थी तो जिस
नीहारिका से पृथ्वी
का जन्म हुआ
उस नीहारिका
में जो घटा होगा
उसके भी लक्षण
हममें होने
चाहिए। इसका
तो अर्थ यह
हुआ कि
अस्तित्व की
समस्त शृंखला
हमारे भीतर है;
जो कुछ भी
घटा है इस
अस्तित्व में
कभी भी उसे हम
अपने भीतर
छिपाए हैं, वह हमारे मन
का हिस्सा है।
और यह पीछे की
तरफ! आगे की
तरफ भी यह
तर्क उतना ही
सही है कि इस
जगत में जो भी
कभी कुछ घटेगा
उसके भी बीज
हमारे भीतर
हैं। मनुष्य
का मन सारा
अस्तित्व है;
पीछे-आगे सब
आयामों में
फैला हुआ।
शरीर-शास्त्री
कहते हैं कि
जब बच्चा मां
के पेट में
बढ़ता है तो नौ
महीने में वह
उतनी सारी यात्रा
पूरी करता है
जितनी मनुष्य
ने पूरे अतीत के
इतिहास में की
है। जैसे
बच्चे का जो
पहला क्षण है, जब
अणु पहली दफा
जीवंत मां के
पेट में होता
है, तो वह
वहीं से शुरू
करता है जहां
पहली मछली का अंडा
सागर में
जन्मा होगा।
क्योंकि
शरीर-शास्त्री
कहते हैं कि
मछली मनुष्य
का पहला रूप
है। तो जो
बच्चा मां के
पेट में होता
है वह पहले मछली
की तरह जीना
शुरू करता है।
और उनकी बात
में बड़े तथ्य
हैं। मां के
पेट में जो
पानी होता है
वह ठीक सागर
के जैसा पानी होता
है जिसमें
मछली तैरती
है। उसमें
उतना ही नमक
होता है जितना
सागर में नमक
है। उसमें उतने
ही केमिकल्स
होते हैं
जितने सागर
में हैं। ठीक
सागर का पानी
मां के पेट
में होता है
जिसमें बच्चा
तैरना शुरू
करता है; वह
मछली पहली दफा
तैरना शुरू
करती है। और
फिर नौ महीने
में--करीब-करीब
एक अरब वर्ष
में जो विकास
हुआ है--नौ
महीने में
बच्चा
शीघ्रता से
सारी सीढ़ियां
पूरी करता है।
ऐसी घड़ी आती
है जब बच्चा
बंदर की तरह
होता है; उसके
बाद ही बच्चा
मनुष्य के
बच्चे की तरह
होना शुरू
होता है।
करीब-करीब
सारी शृंखलाएं
अल्प समय में
पूरी करता है।
जो इतिहास में,
विकास में
जिन घटनाओं को
हमें पूरा
करने में लाखों
वर्ष लगे, बच्चा
उन्हें
क्षणों में
पूरी करता है,
लेकिन करता
है पूरी। उनसे
गुजरता जरूर
है।
शरीर
में भी, मन
में भी सारा
इतिहास छिपा
है। लाओत्से
की बात
वैज्ञानिक
है। अगर कोई
व्यक्ति अपने
मन और अपने
शरीर की, अपने
अस्तित्व की,
अपने
व्यक्तित्व
की पूरी परिधि
को पहचान ले, तो संसार
में कहां क्या
हो रहा है, और
कहां क्या हुआ
था, और
कहां क्या
होगा--वर्तमान
ही नहीं, अतीत
भी, भविष्य
भी--सभी की
सूक्ष्म झलक
उसे मिलनी
शुरू हो जाती
है। पश्चिम के
वैज्ञानिक
प्रयोगशाला
में प्रयोग
कर-करके
नतीजों पर
पहुंचे हैं, पूरब के
योगी सिर्फ
अपने मन में
ही डूब कर, खोज
करके नतीजों
पर पहुंचे
हैं। नतीजे
करीब-करीब
समान हैं।
फर्क बहुत
ज्यादा नहीं
है।
डार्विन
ने कहा कि
आदमी पशुओं से
पैदा हुआ है।
ईसाइयत को
बहुत विरोध
हुआ। क्योंकि
ईसाइयत के पास
योग का कोई
बहुत पुराना
इतिहास नहीं
है,
और योगियों
की कोई बहुत
बड़ी परंपरा
नहीं है। ईसाइयत
एक क्रियाकांडी
धर्म है। उसके
पास अनुभव के
स्रोत उतने
जीवंत नहीं
हैं जितना कि
भारत में
बौद्धों या
हिंदुओं या
जैनों के पास
हैं। ईसाइयत
ने विरोध किया,
क्योंकि यह
बात बड़ी
बेहूदी लगी कि
कल तक हम मानते
थे कि आदमी का
जन्म
परमात्मा से
हुआ, स्वयं
परमात्मा
पिता है आदमी
का, और
अचानक
डार्विन ने
घोषणा की कि
परमात्मा का तो
हमें कोई पता
नहीं, आदमी
का पिता बंदर
है। परमात्मा से
पिता का बंदर
की तरफ झुक
जाना बहुत
अपमानजनक
मालूम पड़ा।
कहां आदमी
देवताओं से
जरा ही नीचे
था और कहां
बंदरों के साथ
संयुक्त हो
गया!
लेकिन
पूरब के योगी
निरंतर कहते
रहे हैं कि मनुष्य
की चेतना
पशुओं से
विकसित होकर
आगे आ रही है।
हमने निरंतर
कहा है कि
चौरासी कोटि
योनियों में
आदमी भटका है, तब
मनुष्य हो
पाया है। अगर
डार्विन ने यह
बात भारत में
कही होती तो
हमें कोई अड़चन
न होती। क्योंकि
डार्विन तो एक
बहुत छोटी सी
बात कह रहा
था। वह तो
सिर्फ इतना ही
कह रहा था कि
एक योनि, बंदर
की योनि से
मनुष्य आया है;
हम तो कहते
रहे हैं कि
चौरासी करोड़
योनियों से!
उसमें छोटी इल्लियां
हैं, कीड़े,
मकोड़े,
पतिंगे,
सब हैं।
जितने भी जीवन
हैं इस जगत
में, उन
सबसे मनुष्य
गुजरा है, और
तब मनुष्य हुआ
है। विकास की
जैसी धारणा
हमारी है वैसी
अभी पश्चिम के
विज्ञान को
पाने में थोड़ा
समय है, थोड़ा
वक्त है। पर
हमने
प्रयोगशाला
में यह प्रयोग
करके नहीं जाना
था। हमने तो
मनुष्य के मन
को ही समझ कर
जाना था। और
मनुष्य के मन
में ही सब कुछ
छिपा है। सारी
यात्रा के
चिह्न और अनंत
यात्रा की धूल
मनुष्य के मन
पर जमी है।
हमने सिर्फ
मनुष्य की एक बूंद
को खोल कर
पहचानने की
कोशिश की थी
कि आदमी का
पूरा इतिहास
क्या है; ज्ञात,
अज्ञात, कहां-कहां
से आदमी गुजरा
है।
"अपनी खिड़कियों
के बाहर बिना
झांके हुए, कोई स्वर्ग
के ताओ को देख
सकता है।'
और
संसार में
क्या हो रहा
है यह तो ठीक
ही है, इससे भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
कि जीवन का
आत्यंतिक
स्वभाव क्या
है, ताओ
क्या है! और
जीवन का वह
स्रोत कहां है
जहां से सारा
आनंद, सारा
संगीत, सारा
रस पैदा होता
है! जहां से
जीवन निकलता
है, फैलता
है, जहां
से जीवन
अंकुरित होता
है, वह मूल
स्वभाव क्या
है! लाओत्से
कहता है, अपने
घर की खिड़कियों
को खोले बिना,
उनसे बिना
झांके, कोई
स्वर्ग के ताओ
को भी देख
सकता है। इस
पृथ्वी के
स्वभाव को
जानना तो दूर,
स्वर्ग के
स्वभाव को भी,
आत्यंतिक
सत्य के
स्वभाव को भी,
आनंद की
आखिरी पर्त को
भी जानने का
उपाय स्वयं के
भीतर है।
मन को
अगर जान लें
तो संसार को
जान लिया। और
मन के पीछे जो
चैतन्य छिपा है
अगर उसे जान
लें,
तो संसार का
जो आत्यंतिक
स्वभाव है, सत्य, अस्तित्व
की जो आखिरी
घटना है, जिससे
और पीछे नहीं
जाया जा सकता,
उस ताओ को, उस ऋत को, उस
धर्म को जाना
जा सकता है।
लेकिन
हम तो मन से ही
परिचित नहीं
हो पाते। और चेतना
मन के पीछे
छिपी है।
चेतना से मतलब
है उस तत्व का
जो मन को
देखता है।
एक
पश्चिमी
वैज्ञानिक डेलगाडो
एक अनूठा
प्रयोग कर रहा
था। उसके
प्रयोग कीमती
हैं और भविष्य
में बहुत कुछ
उन प्रयोगों
पर निर्भर
होगा मनुष्य
का जीवन। उस
प्रयोग से वह एक
बहुत पुराने
सत्य पर
पहुंचा--जिसका
उसे कोई खयाल
नहीं है। वह
एक प्रयोग कर
रहा था कि जब
भी किसी के
मस्तिष्क के
किसी विशेष
केंद्र को
विद्युत से
छुआ जाता है
तो खास
स्मृतियां
अंकुरित होती
हैं। मस्तिष्क
में कोई सात करोड़
स्नायु हैं और
हर स्नायु
विशेष
स्मृतियों का केंद्र
है। उस स्नायु
को अगर
विद्युत से
छुआ जाए, विद्युत
की करेंट
उसमें डाली
जाए, तो वह
तत्क्षण सजीव
हो उठता है।
और उसमें छिपी
हुई
स्मृतियां
जैसे
टेप-रेकार्ड
से शब्द आने बाहर
शुरू हो जाते
हैं, ऐसे
उस स्नायु में
छिपी हुई
स्मृतियां
मस्तिष्क के
पर्दे पर आनी
शुरू हो जाती
हैं।
समझें
कि आपके किसी
मस्तिष्क के
हिस्से को छुआ, और
उस हिस्से में
बचपन की कोई
स्मृति छिपी
है कि आप पांच
साल के थे, और
बगीचे
में भाग रहे
थे, तितली
को पकड़ने
की कोशिश में
थे, वह
स्मृति
तत्काल सजग हो
जाएगी। और सजग
ही नहीं होगी
स्मृति की तरह,
बल्कि ऐसा
लगेगा कि आप
फिर पांच साल
के हो गए और
दौड़ रहे हैं बगीचे
में। यह जीवित
घटना मालूम
होगी, और
पूरी स्मृति
दोहरेगी।
विद्युत अलग
कर ली जाए, स्मृति
बंद हो जाएगी।
फिर विद्युत
छुलाई जाए, फिर वहीं से
शुरू होगी
जहां पहले
शुरू हुई थी, ठीक उसी
क्रम में।
डेलगाडो ने तीनत्तीन
सौ,
छह-छह सौ
बार एक ही जगह
विद्युत छुला
कर देखी है; ठीक स्मृति
फिर वहीं से
शुरू होती है।
जैसे ही
विद्युत अलग
होती है, स्मृति
वापस अपने
वर्तुल में
बंद हो जाती
है; छुलाते
से फिर अ ब स से
शुरू होती है।
जिन मरीजों पर
वह प्रयोग कर
रहा था, जो
मस्तिष्क के
मरीजों पर जिन
पर वह यह काम
कर रहा था, पहली
दफा जब स्मृति
जगाई गई तब तो
वे भूल ही गए
कि वे अलग हैं;
वे उस
स्मृति के साथ
एक हो गए।
लेकिन जब
दूसरी, तीसरी,
दसवीं, पचासवीं
बार जगाई गई
तो धीरे-धीरे
मरीज स्मृति
से अलग होने
लगा; स्मृति
चलने लगी जैसे
पर्दे पर
फिल्म चलती हो
और मरीज
साक्षी हो
गया। वह दूर
हट गया, वह
देखने लगा। अब
उसे पता है कि
विद्युत
छुलाई जा रही है
और एक स्मृति
जग रही है, एक
रिकार्डेड
स्मृति वापस
जग रही है। और
वह दूर खड़ा हो
गया; अब वह
देखने लगा। अब
उसे पता है कि
इसे मैं देख रहा
हूं और मैं
अलग हूं। छह
सौ या सात सौ
बार जिस मरीज
को यह प्रयोग
करवाया गया, उसे एक बड़े
अनूठे आनंद का
अनुभव हुआ। डेलगाडो
ने लिखा है कि
हमारी समझ के
बाहर था कि यह
आनंद क्यों
पैदा हो रहा
है!
यह
आनंद वही है
जिसको उपनिषद
साक्षी का
आनंद कहते हैं; जिसको
लाओत्से कह
रहा है कि अगर
कोई दरवाजे से
भी न झांके, खिड़की भी न
खोले, तो
भी अपने भीतर
ही ताओ के राज
को जान सकता
है।
वह
साक्षी-भाव
धर्म है; हमारी
नियति का, हमारी
प्रकृति का
आत्यंतिक
केंद्र है।
जिस दिन हम मन
को भी दूर खड़े
होकर देखने
में समर्थ हो
जाते हैं, अपने
ही मन को ऐसा
देखने लगते
हैं जैसे किसी
और का हो, खुद
के ही
मस्तिष्क में
चलते हुए विचार
अपने नहीं
मालूम होते, हमारा
तादात्म्य
टूट जाता है, हम दूर खड़े
हो जाते हैं, हमारी उनसे
आसक्ति
छिन्न-भिन्न
हो जाती है, बीच का सेतु
बिखर जाता है,
हम सिर्फ
द्रष्टा हो
जाते हैं।
जैसे ही कोई
व्यक्ति अपने
मन का द्रष्टा
हो जाता है, स्वर्ग के
ताओ का रहस्य
उसके सामने
खुल जाता है।
इसीलिए
लाओत्से उसको
स्वर्ग का ताओ
कह रहा है, क्योंकि
वह परम सुख
है। स्वर्ग का
अर्थ है परम
सुख; ऐसा
सुख जिसका फिर
कोई अंत नहीं।
ऐसे महासुख
की जो शृंखला
है वह साक्षी
में
प्रतिष्ठित
होते ही प्रकट
हो जाती है।
अगर हम
मन को समझ लें, हमने
संसार को समझ
लिया; अगर
हम चेतना को
समझ लें तो
हमने ब्रह्म
को समझ लिया।
मनुष्य की
बूंद में, मनुष्य
की छोटी सी
बूंद में
दोनों छिपे
हैं--उसकी
परिधि पर
संसार, और
उसके केंद्र
पर ब्रह्म।
एक-एक मनुष्य
पूरे अस्तित्व
की छोटी सी
प्रतिकृति है,
छोटा सा
आणविक
प्रतिबिंब
है। अगर उसकी
परिधि को पहचानें,
तो संसार
समझ में आ गया;
अगर उसके
केंद्र को समझ
लें तो
परमात्मा समझ
में आ गया।
केंद्र
को समझना हो
तो मन के
साक्षी होना
जरूरी है और
मन को समझना
हो तो मन का
विश्लेषण
करना जरूरी
है। ये दोनों
अलग बातें
हैं। मन को
समझना हो तो
विश्लेषण जरूरी
है;
मन की एक-एक
घटना को तोड़
कर पहचानने की
कोशिश जरूरी
है। जिसको
पश्चिम में वे
मनोविश्लेषण
कह रहे हैं, साइकोएनालिसिस कह रहे हैं, वह मन का
मंथन है। मन
में लोभ उठा, तो इस लोभ की
पूरी वृत्ति
का विश्लेषण
करना जरूरी
है। कब उठता
है, क्यों
उठता है, कितने
दूर तक फैलता
है, किस
भांति पकड़ता
है, क्या
परिणति होती
है, कहां
ले जाता है, फिर कैसे
उठता है; इस
लोभ के उठने
वाले वृक्ष को
उसके बीज से
लेकर अंत
फूलों तक
स्पष्ट रूप से
देखना, समझना,
पहचानना, उसके स्वभाव
को पकड़ना
विश्लेषण है।
और जो व्यक्ति
मन का ठीक से
विश्लेषण करने
लगे वह संसार
को समझ गया।
क्योंकि
संसार में इसी
मन का खेल चल
रहा है। सभी
के पास यही मन
है। और सभी
इसी मन से
प्रभावित
होकर चल रहे
हैं, जी
रहे हैं।
इसे
थोड़ा प्रयोग
करना शुरू
करें। अपने मन
का थोड़ा
विश्लेषण
करें। और अपने
मन के कुछ
सूत्र निकालें
और नियम बनाएं।
और फिर देखें
कि दूसरे लोग
भी उन्हीं
नियमों के
अनुसार काम कर
रहे हैं या
नहीं?
आप
चकित हो
जाएंगे, हर
व्यक्ति
उन्हीं
नियमों के
अनुसार काम कर
रहा है। और तब
आप दूसरे के
भी भविष्यद्रष्टा
हो सकते हैं।
जब कोई आपको
गाली देता है
तो आपके भीतर
क्या होता है,
इसका पूरा
विश्लेषण कर
लें; फिर
किसी को गाली
देकर देखें।
और तब आप जान
सकते हैं कि
जो-जो आपके
भीतर हुआ है, ठीक उन्हीं
कदमों में
दूसरे
व्यक्ति के
भीतर होगा। और
अगर आपने अपना
विश्लेषण ठीक
कर लिया है तो
आप दूसरे के
व्यवहार को भी
तत्क्षण समझ जाएंगे।
इसलिए
जीसस ने कहा है
कि दूसरे के
साथ वह मत करो
जो तुम नहीं
चाहते कि वह
तुम्हारे साथ
करे।
यह मन
के विश्लेषण
का सूत्र हुआ।
इसको हम नीति
का आधार कह
सकते हैं। इसे
हम अपने सारे
व्यवहार की
व्यवस्था बना
सकते हैं कि
मैं दूसरे के साथ
वह न करूं जो
मैं चाहता हूं
कि दूसरा मेरे
साथ न करे।
क्योंकि एक ही
मन दोनों के
पास है, और
जिससे मुझे
दुख होता है
उससे दूसरे को
दुख होता है, और जिससे
मुझे सुख होता
है उसी से
दूसरे को भी सुख
होता है।
महावीर
ने अपने पूरे
आचरण, धर्म की
व्यवस्था इसी
सूत्र पर रखी
है। और महावीर
ने कहा है कि
जानो कि जिससे
तुम्हें दुख
होता है उससे
दूसरे को दुख
होता है। और
अगर तुम इतना
जान कर दूसरे
को दुख देने
से बच सकते हो
तो तुम अहिंसक
हो गए। अहिंसा
का इतना ही अर्थ
है कि जो तुम
नहीं चाहते कि
कोई तुम्हारे साथ
करे वह तुम
दूसरे के साथ
मत करना। पूरा
जीवन बदल जाए।
लेकिन
हम सब इसी
भ्रांति में
जीते हैं कि
जब हमें कोई
गाली देता है
तब तो हमें
दुख होता है, और
जब हम किसी को
गाली देते हैं
तो शायद उसे
आनंदित होना
चाहिए, शायद
उसे धन्यवाद
देना चाहिए, उत्सव मनाना
चाहिए कि आपने
बड़ी कृपा की
जो गाली दी।
और जब दूसरा
कोई हमें कुछ
दान देता है, प्रेम देता
है, कुछ
बांटता है, तो हम
प्रसन्न होते
हैं। लेकिन हम
दूसरे को बांटने
को तैयार नहीं
हैं; हम
दूसरे से
छीनने की
कोशिश में लगे
हैं। और जब
हमें कोई सुखी
करता है तो हम
उसके सुख की
कामना करते
हैं।
ध्यान
रहे,
जब हम लोगों
को सुखी
करेंगे तो ही
वे हमारे सुख
की कामना
करेंगे।
लेकिन हमारे
पास डबल बाइंड,
दोहरे
सिद्धांत
हैं--अपने लिए
अलग और दूसरे
के लिए अलग।
अधर्म का यही
अर्थ है: मैं
अपने लिए कुछ
और ढंग से
सोचता हूं और
दूसरे के लिए
कुछ और ढंग से
सोचता हूं।
अगर कोई हमें
गाली देता है या
कोई हम पर
क्रोध करता है,
तो हम सोचते
हैं कि यह
दुष्ट है! और
अगर हम किसी
पर क्रोध करते
हैं तो हम
उसके सुधार के
लिए कर रहे
हैं। दूसरा
हमारे सुधार
के लिए कभी
क्रोध करता
हुआ मालूम
नहीं होता; हम सदा
दूसरे के
सुधार के लिए
क्रोध करते
मालूम होते
हैं। ये जो
दोहरे
सिद्धांत हैं,
सारी
बेईमानी इन
दोहरेपन में
छिपी है, सारा
पाखंड इन
दोहरेपन में
छिपा है।
जो मैं
सोचता हूं
अपने लिए वही
मेरा आधार
होना चाहिए
सबके लिए। और
तब,
तब जीवन एक
दूसरे आयाम
में गति करना
शुरू कर देता
है।
मन का
ठीक विश्लेषण
हो तो मनुष्य
का आचरण तत्क्षण
बदलना शुरू हो
जाता है।
क्योंकि उसे
कीमिया हाथ लग
गई,
उसे सूत्र
मिल गए कि वह
दूसरों के साथ
कैसे व्यवहार
करे। मन को
कोई ठीक से
समझ ले तो
आदमी नैतिक हो
जाता है।
नैतिक
नास्तिक भी हो
सकता है।
नैतिक होने के
लिए आस्तिक
होने की जरूरत
नहीं है।
नैतिक होने के
लिए केवल थोड़ी
सी बुद्धि होने
की जरूरत है।
अनैतिक आदमी
बुद्धिहीन।
वह गणित ही
नहीं समझ रहा
है, जीवन
के खेल का
गणित नहीं समझ
रहा है। इसलिए
भूल-चूक कर
रहा है।
नास्तिक भी
नैतिक हो
जाएगा, अगर
मन को ठीक से
समझ ले।
बर्ट्रेंड
रसेल ने लिखा
है--बर्ट्रेंड
रसेल खुद
नास्तिक
है--बर्ट्रेंड
रसेल ने लिखा
है कि दुनिया
में नैतिकता
लाने के लिए
आस्तिकता की
कोई जरूरत
नहीं है। और
उसने ठीक लिखा
है। सिर्फ
मनुष्य को मन
की पूरी
शिक्षा देने
की जरूरत है।
इसके लिए कोई
ईश्वरीय
सिद्धांत
आवश्यक नहीं
हैं। इसके लिए
तो सिर्फ मन
का विश्लेषण
काफी है। अगर
हम आदमी के मन
को साफ-साफ
परख लें और उसी
परख के अनुसार
जीना शुरू कर
दें तो जीवन नैतिक
होगा। अनीति
अपने आप बंद
हो जाएगी।
मन का
विश्लेषण
नैतिकता में
ले जाता है, और
साक्षी का भाव
धर्म में।
इसलिए धर्म की
शुरुआत मन के
पीछे होती है।
वह जो मन के
पीछे मन को देखने
वाला छिपा है,
उसकी परख, उसकी पहचान,
उसके साथ
हमारा संबंध
जुड़ जाना हमें
धार्मिक बनाता
है। धार्मिक
होने से किसी
के मुसलमान, ईसाई, पारसी,
हिंदू, जैन
होने का कोई
संबंध नहीं
है। धार्मिक
होने से संबंध
है स्वयं के
साक्षी से जुड़
जाना, मैं
देखने वाला बन
जाऊं, द्रष्टा
हो जाऊं।
मुझमें दूर
खड़े होने की
क्षमता आ जाए,
मैं
अनासक्त भाव
से अपने मन को
देख सकूं।
इस
देखने में
विश्लेषण
नहीं करना है, सोच-विचार
नहीं करना है,
सिर्फ दूर
खड़े होकर
देखना है।
सारे विचार को
छोड़ कर, मन
में जो भी
होता हो उसको
देखना है।
जैसे रास्ता
चलता है और हम
किनारे पर खड़े
होकर देखते हैं
जाते हुए
ट्रैफिक को; न तो विचार
करते, न
सोचते कि कौन
अच्छा आदमी जा
रहा है, कौन
बुरा आदमी जा
रहा है; सिर्फ
रास्ता चलता
है और हम
देखते हैं।
शायद रास्ते
को देखने में
तो हमें
अच्छे-बुरे का
खयाल भी आ
जाए। आकाश में
बादल जा रहे
हैं तो हम नीचे
लेट कर आकाश
में चलते हुए
बादलों को
देखते हैं। न
तो हम कहते यह
बादल शुभ है, न कहते अशुभ
है। हम कुछ
विचार नहीं
करते, बस
चुपचाप देखते
हैं।
इस
चुपचाप देखने
की कला को ही
ध्यान कहा गया
है। अगर आप मन
के संबंध में
निर्णय करना
बंद कर दें; बुरा
विचार हो तो
भी न कहें कि
बुरा है, अच्छा
हो तो भी न
कहें अच्छा
है। क्योंकि
जैसे ही हमने
कहा अच्छा, पकड़ने का मन होता
है; जैसे
ही हमने कहा
बुरा, हटाने
का मन होता
है। तो हम मन
के साथ उलझ गए,
हम मन के
साथ सक्रिय हो
गए। द्रष्टा न
रहे, कर्ता
हो गए। मन के
साथ कोई
क्रिया न की
जाए, सिर्फ
बैठ कर मन को
देखा जाए--बिना
किसी निंदा के,
बिना किसी
स्तुति के, बिना किसी
मूल्यांकन
के--सिर्फ मन
को देखा जाए, तो
धीरे-धीरे मन
और आपके बीच
दूरी बढ़ने
लगती है, और
तब मन अलग और
आप अलग हो
जाते हैं।
यह जो
अलग हो जाने
का बोध है, यही
उस सूत्र में
ले जाता है, "अपनी खिड़कियों
के बाहर बिना
झांके, कोई
स्वर्ग के ताओ
को देख सकता
है।'
फिर तो
आंख भी खोलने
की जरूरत
नहीं। ये खिड़कियां
हैं हमारी, आंख
हैं, कान
हैं, हाथ
हैं, ये
हमारी खिड़कियां
हैं। इनको भी
खोलने की
जरूरत नहीं।
इनको भी बंद
करके भीतर ही
देखा जा सकता
है। क्योंकि
वह भीतर मौजूद
है। क्योंकि
हम वही हैं।
हमारा होना और
उसका, दो
भिन्न बातें
नहीं हैं।
उपनिषदों ने
कहा है: तत्वमसि,
दैट आर्ट
दाऊ। वह तुम
ही हो, वह
जिसकी हम खोज
कर रहे
हैं--ताओ की, ब्रह्म की, स्वभाव की, धर्म की, आत्मा
की।
"जो
ज्ञान का
जितना ही पीछा
करता है, वह
उतना ही कम जानता
है।'
सारी
भाषा लाओत्से
की पैराडाक्सेस, विरोधाभासों
की है। वह कुछ
इतनी गहरी बात
कहना चाहता है
कि उसे केवल
विरोधाभास से
ही कहा जा
सकता है।
"जो
ज्ञान का
जितना ही पीछा
करता है, वह
उतना ही कम
जानता है।'
कठिन
लगता है।
क्योंकि हम तो
ज्ञान का पीछा
न करेंगे तो
जानेंगे कैसे? लाओत्से
यह कह रहा है, पंडित
अज्ञानी है।
पंडित ज्ञान
का पीछा करता है।
इस पीछा करने
में दोत्तीन
बातें खयाल ले
लेनी जरूरी
हैं।
पहली
बात तो यह, जो
भी ज्ञान का
पीछा करता है
वह यह माने
हुए बैठा है
कि ज्ञान भीतर
नहीं है, कहीं
और है; उसका
पीछा करना है।
पीछा तो हम
सदा दूसरे का
करते हैं।
अपना तो कोई
पीछा कैसे
करेगा? अपने
ही पीछे तो आप
कैसे दौड़ सकते
हैं? सदा
दूसरे के पीछे
दौड़ सकते हैं।
तो जो भी ज्ञान
का पीछा कर
रहा है वह
ज्ञान को
पराया मान रहा
है, दूसरा
मान रहा है।
और ज्ञान की
क्षमता भीतर
छिपी है; वह
आपके स्वयं के
होने का
गुणधर्म है।
इसलिए जो जितना
पीछा करेगा
उतना ही दूर
निकल जाएगा।
दूसरी
बात,
ज्ञान का जो
पीछा करता है
वह सोचता है
कि ज्ञान कोई
संपदा है जिसे
इकट्ठा किया
जा सकता है; जैसे आप तिजोड़ी
में धन इकट्ठा
कर सकते हैं
ऐसे आप ज्ञान
भी इकट्ठा कर
सकते हैं।
ज्ञान
कोई संपदा
नहीं है। और
ज्ञान को जो
संपदा मान
लेता है वह इनफर्मेशन
और जानकारी
में ही उलझ
जाता है। फिर
वह इकट्ठा कर
लेता है। वह
कितनी ही
जानकारी
इकट्ठी कर ले
सकता है, लेकिन
वह जानकारी
ज्ञान नहीं
बनेगी। ज्ञान
तो वह है जो
मेरे अनुभव से
आता है।
जानकारी किसी
दूसरे के
अनुभव से आती
है। महावीर
कुछ कहते हैं;
वह उनके लिए
ज्ञान होगा
आपके लिए
जानकारी होगी।
अगर मैं आपसे
कुछ कह रहा
हूं, तो हो
सकता है वह
मेरे लिए
ज्ञान हो, आपके
लिए जानकारी
हो जाएगी। जब
तक आपका अनुभव
न बन जाए तब तक
कोई ज्ञान
नहीं होता।
पीछा जानकारी
का किया जा
सकता है, अनुभव
का पीछा करने
का कोई उपाय
नहीं है। अनुभव
के लिए तो
स्वयं में डूब
जाने की जरूरत
है। जानकारी
के लिए किसी
और के पीछे
जाने की जरूरत
है।
इसलिए
लाओत्से तो
कहता है, गुरु
के भी पीछे
जाने की जरूरत
नहीं है।
क्योंकि गुरु
के पीछे भी
जाने का मतलब
यह होगा कि आप
कुछ इकट्ठा कर
रहे हैं। गुरु
की भी जरूरत
इतनी ही है कि
वह आपको आप
में ही भेज
दे। गुरु का
काम आत्मघाती
है। आत्मघाती
इसलिए कि गुरु
अपनी हत्या कर
ले, गुरु
जितने जल्दी
अपने गुरुपन
को मिटा दे और
शिष्य को उसके
भीतर भेज दे।
जितने जल्दी
गुरु शिष्य को
राजी कर ले कि
तू मुझे भूल
जा और अपना
स्मरण कर; कि
मैं नहीं हूं,
तू ही है; कि बाहर आंख
खोल कर मुझे
मत देख, भीतर
आंख खोल और
अपने को देख; गुरु जितने
जल्दी शिष्य
को राजी कर ले
कि शिष्य सब खिड़कियां
बंद करके भीतर
डूब जाए, उतना
ही समर्थ गुरु
है।
जो
गुरु शिष्य को
राजी करे कि
तू सदा मेरे
पीछे चलता रहे, वह
दुश्मन है, वह गुरु तो
है ही नहीं।
क्योंकि वह
किसी बाहर की
दिशा पर ले जा
रहा है।
प्रत्येक को
भेज देना है
उसके भीतर।
बाहर के सारे
मोह तुड़वा
देने हैं, बाहर
के सारे सेतु
गिरा देने हैं,
बाहर के
सारे संबंध
काट देने हैं,
ताकि शिष्य,
कोई उपाय न
रह जाए बाहर
जाने का, अपने
भीतर डूब जाए।
"जो
ज्ञान का
जितना ही पीछा
करता है, वह
उतना ही कम
जानता है।'
इस
सूत्र का एक
और भी अनूठा
अर्थ है जो कि
हमें विज्ञान
में दिखाई
पड़ता है।
आज से
दो हजार साल
पहले पश्चिम
में केवल एक
ही विज्ञान
था। फिर
जैसे-जैसे
ज्ञान का पीछा
हुआ,
विज्ञान
टूटा, ब्रांचेज,
शाखाओं में
बंटा। फिर
एक-एक शाखा भी
टूट गई, छोटी
उपशाखाओं
में बंट गई।
अब एक-एक
उपशाखा भी टूट
गई। आज पश्चिम
में, आक्सफोर्ड में कोई तीन
सौ वैज्ञानिक
शास्त्रों का
अध्ययन
करवाया जाता
है। और इन तीन
सौ विज्ञानों
के बीच कोई
संबंध नहीं
है। एक
विज्ञान
दूसरे विज्ञान
की भाषा नहीं
समझ सकता। फिजिक्स
क्या बोलती है,
केमिस्ट्री
जानने वाले को
कुछ पता नहीं।
बायोलाजी
क्या कह रही
है, साइकोलाजी
जानने वाले को
कुछ पता नहीं।
इन सबके बीच
कोई संबंध
नहीं रहा है।
और हर विज्ञान
एक अंधा मार्ग
हो गया है। और
जितनी ज्यादा
जानकारी बढ़ती
जाती है उतने
ही कम के
संबंध में
ध्यान जुटता जाता
है। जितने कम
के संबंध में
ध्यान जुटता
है उतनी ही
ज्यादा
जानकारी बढ़ती
है। और जितनी
ज्यादा
जानकारी बढ़ती
है उतने कम के
संबंध में
ध्यान बढ़ता
है।
तो
विज्ञान--प्रत्येक
विज्ञान--एक-एक
बिंदु पर अटक
गया है। समग्र
का कोई चित्र
नहीं उभरता। और
सभी विज्ञान
क्या कह रहे
हैं इसका कोई
संतुलित
संगीत पैदा
नहीं होता।
सभी
विज्ञानों की क्या
सिंथीसिस
होगी, असंभव
है। क्योंकि
आज कोई भी एक
मनुष्य सभी विज्ञानों
को जान ले, यह
असंभव है।
इसलिए सिंथीसिस
कैसे हो? कौन
इन सबके बीच
सूत्र को खोजे?
अब तो
एक ही उपाय है
पश्चिम में।
वैज्ञानिक कहते
हैं कि
कंप्यूटर और
विकसित हो
जाएं तो ही उपाय
है कि सभी
विज्ञान क्या
कह रहे हैं, इनका
सार खोजा जा
सके। क्योंकि
कंप्यूटर को सभी
विज्ञान
सिखाए जा सकते
हैं।
कंप्यूटर बता सकेगा
कि सभी
विज्ञान क्या
कह रहे हैं, उनका सार-निचोड़
क्या है।
अन्यथा
करीब-करीब
विज्ञान की
हालत वैसी है
जैसी पश्चिम
में एक कहानी
है। वह कहानी
आपने सुनी
होगी, बैबेल के एक टावर
की कहानी है।
बेबीलोनिया की
बड़ी पुरानी
सभ्यता थी, और
बेबीलोनिया
की सभ्यता
नष्ट हुई एक
घटना से। वह
घटना एक मिथ
है, लेकिन
बड़ी मूल्यवान,
कि बेबीलोनियन
सभ्यता के
लोगों ने यह
सोचा कि हम एक
मीनार बनाएं,
एक टावर बनाएं,
जो स्वर्ग
तक जाए। तो
उन्होंने
बनाना शुरू
किया। उनके
पास जितनी
ताकत थी, उन्होंने
एक टावर बनाने
में लगा दी।
फिर धीरे-धीरे
टावर स्वर्ग
के करीब
पहुंचने लगा।
देवता चिंतित
हो गए, क्योंकि
वे करीब आते
जा रहे थे, रोज
उनका मीनार
ऊंचा उठता जा
रहा था। और
देवताओं को
लगा कि यह तो
हमला हो जाएगा,
और अगर ये बेबीलोनिया
के सारे लोग
स्वर्ग आ गए
तो स्वर्ग की
शांति, स्वर्ग
का सुख, सब
नष्ट हो
जाएगा। इतनी
भीड़ को प्रवेश
देने के लिए
वे राजी नहीं
थे। और सदा से
स्वर्ग में इक्के-दुक्के
लोग प्रवेश
करते रहे थे।
ऐसा सामूहिक
हमला कभी हुआ
भी नहीं था।
और अगर एक दफा
लोगों ने सीढ़ियां
बना लीं तो
फिर तो कोई
उपाय नहीं है,
फिर
अच्छे-बुरे का
भेद करना भी
कठिन है। फिर
कौन आए, कौन
न आए, यह भी
मुश्किल है।
फिर तो जो
बुरे हैं वे
पहले चढ़
जाएंगे। शायद
अच्छा चढ़ भी न
पाए।
इसलिए
बड़ी चिंता
व्याप्त हो
गई। सारे
देवताओं ने
समिति बुलाई
और उन्होंने कुछ
निर्णय लिया।
और जिस दिन
उन्होंने
निर्णय लिया
उसके दूसरे
दिन से टावर
उठना बंद हो
गया। वह
निर्णय बहुत
मजेदार था। वह
निर्णय यह था
कि देवताओं ने
कहा कि जब
सांझ को सारे बेबीलोनिया
के निवासी थक
कर सो जाएं तब
उनकी बेहोशी
में देवता
जमीन पर जाएं
और हर आदमी को
सिर्फ एक खयाल
दे दें--कि यह
टावर मैं बना
रहा हूं, मेरी
वजह से यह
टावर स्वर्ग
तक पहुंच रहा
है।
बस
इतना काफी है
सबको सिखा
देना। दूसरे
दिन उपद्रव
शुरू हो गया।
टावर बनाना तो
एक तरफ रहा, मार-पीट,
झगड़ा-झांसा नीचे
शुरू हो गया।
क्योंकि हर
आदमी दावा
करने लगा कि
मैंने बनाया!
और हकदार मैं
हूं! और अंत
में मेरा नाम
ही इस पर
खोदना होगा!
कहते
हैं कि वह
टावर तो वहां
रुक ही गया, विवाद
इतना बढ़ा कि हत्याएं
हो गईं; बेबीलोनिया की पूरी
सभ्यता नष्ट
हो गई।
क्योंकि
अहंकार जब जग
जाए तो स्वर्ग
तक जाने का
उपाय बंद हो
जाता है। सीढ़ी
भी लग गई हो तो
रखी रह जाएगी।
अहंकार न हो
तो बिना सीढ़ी
के भी कोई
स्वर्ग तक
पहुंच सकता
है।
विज्ञान
की हालत
करीब-करीब आज बेबीलोनिया
के टावर जैसी
है। हर
विज्ञान कह
रहा है कि हम ठीक
हैं,
मैं ठीक हूं,
शेष सब गलत
हैं। जो फिजिक्स
में निष्णात
है वह मानता
है कि बस फिजिक्स
ही एकमात्र
विज्ञान है, और ये
मनोविज्ञान
की जो बातें
करने वाले लोग
हैं, ये
व्यर्थ की
बकवास कर रहे
हैं। आदमी
सिवाय अणु के
जोड़ के और कुछ
भी नहीं। न
वहां कोई मन
है, न कोई
आत्मा है।
उनके हिसाब से
बिलकुल ठीक है,
क्योंकि वे
अणु की ही खोज
कर रहे हैं।
जो आदमी बायोलाजी
की खोज कर रहा
है वह कह रहा
है कि यह व्यर्थ
की बात है।
क्योंकि अणु
तो मृत है, मनुष्य
का जीवकोष्ठ
जीवंत है। वह जीवकोष्ठ
ही सब कुछ है।
और जीवन को
मृत से नहीं
समझाया जा
सकता।
बायोलाजी और फिजिक्स
एक-दूसरे की
भाषा नहीं समझ
पाते। हर
विज्ञान की
अपनी भाषा है,
और अपना
अहंकार है।
तीन सौ
विज्ञान हैं,
तीन सौ
अहंकारों के
दावे हैं।
इधर
तीन सौ
विज्ञान हैं, और
करीब तीन सौ
धर्म भी हैं
जमीन पर। यह
संख्या
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ती
है। तीन सौ
धर्म हैं जमीन
पर, और ये तीन
सौ धर्म भी बेबीलोन
के टावर की
भाषा बोलते
हैं। हर धर्म
बोलता है कि
मैं ठीक हूं
और बाकी सब
गलत हैं।
ज्ञान
का शिखर उठना
तो बंद हो गया, अहंकार
के कारण
अज्ञान का
शिखर उठ रहा
है। और सब
एक-दूसरे को
गलत सिद्ध
करने में लगे
रहते हैं।
इसकी बहुत
चिंता नहीं है
कि ठीक कौन है,
इसकी बहुत
चिंता है कि
दूसरा गलत हो।
और जब मैं
दूसरे को गलत
सिद्ध कर लेता
हूं तब भी
जरूरी नहीं है
कि मैं ठीक
होऊं। मैं भी
गलत हो सकता हूं।
लेकिन दूसरे
को गलत सिद्ध
करके ऐसी
प्रतीति होती
है कि मैं ठीक
हो गया।
"ज्ञान
का जो जितना
ही पीछा करता
है, उतना
ही कम जानता
है।'
क्योंकि
जितना पीछा
किया जाता है
उतनी संकीर्ण
गली होती जाती
है,
उतना
केंद्रित
होता जाता है।
आखिर में एक
छोटा सा बिंदु
हाथ लगता है; विराट खो
जाता है।
ब्रह्म खो
जाता है, अणु
हाथ लगता है।
विराट
को जानना हो
तो ज्ञान का
पीछा नहीं
चाहिए। विराट
को जानना हो
तो आंख बंद कर
लेनी चाहिए, ताकि
कहीं भी कोई
बिंदु न दिखाई
पड़े। कोई दिशा
में जाने की
जरूरत नहीं है,
क्योंकि
दिशा अधूरे पर
ले जाएगी।
सत्य तो सभी दिशाओं
में फैला हुआ
है। यह दसों
दिशाओं में सत्य
फैला हुआ है।
अगर मैं एक
दिशा को चुनता
हूं तो मैं गलत
हो ही जाऊंगा।
क्योंकि नौ
दिशाओं को
मुझे छोड़ना
पड़ेगा। सत्य
के नौ पहलू
छूट जाएंगे और
एक पहलू मेरी
पकड़ में आएगा।
और मुझे लगेगा
कि यही पहलू
पूरा सत्य है।
और जब कोई
अधूरे सत्य को
सत्य का दावा
कर देता है, तभी अज्ञान
सघन हो जाता
है। तो अगर
मुझे सभी दिशाओं
को जानना हो
तो मुझे सभी
दिशाओं को छोड़
कर चुपचाप अपने
में डूब जाना
चाहिए। भीतर
की चेतना एक
ऐसी जगह है
जहां कोई दिशा
नहीं है; वह
ग्यारहवीं
दिशा है। भीतर
की चेतना में
कहीं कोई दिशा
नहीं है; वह
दिशाशून्य
है। और जब कोई
भीतर की चेतना
में
प्रतिष्ठित हो
जाता है तो वह
समग्र को
जानता है।
पीछे जाने
वाला अंश को
जानता है; भीतर
जाने वाला
समग्र को
जानता है।
"जो
ज्ञान का
जितना पीछा
करता है, उतना
ही कम जानता
है। इसलिए संत
बिना इधर-उधर भागे
ही जानते हैं,
बिना देखे
ही समझते हैं,
और बिना
कर्म किए हुए
संपन्न करते
हैं।'
"इसलिए
संत बिना
इधर-उधर भागे
ही जानते हैं।'
हम तो
कुछ भी पाना
चाहें तो
भागना ही उपाय
दिखता है। अगर
हम धर्म का
सत्य भी जानना
चाहें तो भी
भागना ही उपाय
दिखता है। कोई
काशी जा रहा है, कोई
मक्का जा रहा
है, कोई
कैलाश जा रहा
है। कहीं जा
रहे हैं। कुछ
पाना है तो
कहीं जाना
होगा; हमारा
गणित ऐसा है।
अगर न मिले
जाने से तो
उसका मतलब हम
गलत जगह गए, कहीं और
जाना चाहिए।
इस गुरु के
पास गए, नहीं
मिला; दूसरे
गुरु के पास
जाना चाहिए।
दूसरे के पास
न मिले तो
तीसरे के पास
जाना चाहिए।
काशी न मिले
तो मक्का
खोजना चाहिए।
मक्का न मिले
तो जेरुसलम
है। लेकिन
जाना गलत है, यह खयाल में
नहीं आता।
जहां गए वह
जगह गलत है तो
दूसरी जगह
चुननी चाहिए।
लाओत्से
कह रहा है कि
तुम कुछ भी
करो,
अ के पास
जाओ, कि ब
के, कि स के,
कि तुम
संसार में
कहीं भी जाओ, तुम उसे
नहीं पा
सकोगे।
क्योंकि जाना
गलत है। तुम
जहां हो वहीं
उसे पाओगे।
तुम जहां हो
वहीं रुक
जाओगे तो उसे
पाओगे। इसलिए
सभी तीर्थ गलत
हैं। सिर्फ एक
तीर्थ सही है,
वह तुम हो।
सभी मंदिर और
मस्जिद
व्यर्थ हैं। एक
ही शिवालय है,
वह तुम हो।
"संत
बिना इधर-उधर
भागे ही जानते
हैं।'
असल
में,
संत रुक कर
जानते हैं।
भागना अज्ञान
का लक्षण है।
रुकना ज्ञान
का लक्षण है।
इस जगत में जो
भी पाना हो वह
भाग कर पाया
जाता है। और
जो जितनी तेजी
से भागता है
उतने जल्दी
पाता है। लेकिन
उस जगत में--इस
माया के, स्वप्न
के, व्यर्थ
के जगत में
दौड़ कर पाया
जाता है--उस
सत्य के, यथार्थ
के जगत में
रुक कर पाया जाता
है। यहां के
और वहां के
नियम बिलकुल
विपरीत हैं।
यहां रुके कि
खो देंगे।
कोई
आदमी अगर दौड़े
न तो धन कैसे
पाएगा? जितना
दौड़े उतना ही
पा सकता है।
घर बैठा रहे...। इस
सूत्र को समझ
कर, धन
कमाना हो तो
घर मत बैठ
जाना। घर कोई
बैठा रहे आंख
बंद करके तो
धन नहीं आ जाएगा।
धन के लिए तो
दौड़ना जरूरी
है। धन के लिए
तो पागल होकर
दौड़ना जरूरी
है। धन के लिए
तो अपना होश
छोड़ कर दौड़ना
जरूरी है। एक
दिन धन आ
जाएगा, आप
नहीं बचेंगे।
क्योंकि दौड़
में आप खो
जाएंगे, नष्ट
हो जाएंगे। और
जितने जल्दी
आप नष्ट हो जाएंगे,
उतना
ज्यादा धन आप
इकट्ठा कर ले
सकते हैं। धनी
जब धन को पाता
है तब पीछे लौट
कर देखता है
कि जो निकला
था खोजने वह
तो है ही नहीं,
वह कभी का
मर चुका। वह
जितनी जल्दी
मर जाए उतनी
आप कठोरता से
धन इकट्ठा भी
कर सकते हैं।
वह अगर जिंदा
रहे तो बाधा
डालेगा।
कभी-कभी वह
कहेगा, रुको,
कहां दौड़ते
हो, क्यों
व्यर्थ
परेशान होते
हो? उसकी
तो गर्दन घोंट
देनी जरूरी
है। भीतर की
आवाज तो बंद
ही हो जानी
चाहिए। वह कभी
कहे ही नहीं, भीतर कोई
इशारा न करे
कि रुको।
क्योंकि
रुकना खतरनाक
है।
नहीं, धन
पाना हो तो
रुक कर नहीं
मिलेगा।
लेकिन अगर धर्म
पाना हो तो
रुक कर मिलेगा।
उनकी
यात्राएं अलग
हैं; उनके
नियम, उनकी
व्यवस्थाएं
विपरीत हैं।
संसार का जो
नियम है, सत्य
का ठीक विपरीत
नियम है। यहां
दौड़ो तो
मिलता है; वहां
ठहरो तो मिलता
है।
झेन
फकीर रिंझाई
ने कहा है, रुको!
और जो भी तुम
पाना चाहते हो
वह तुम्हारे पास
है। खोजो मत, क्योंकि
तुमने खोजा कि
तुम भटके।
सारे
ज्ञानी एक ही
बात समझा रहे
हैं कि तुम ठहर
जाओ। शरीर भी
ठहर जाए, मन भी
ठहर जाए; कोई
गति न रहे
भीतर। इसलिए
इतना जोर दिया
है: इच्छा
नहीं, वासना
नहीं।
क्योंकि
इच्छा और
वासना का एक
ही मतलब है कि
वे दौड़ाने
के उपाय हैं।
इच्छा का मतलब
है: दौड़ो।
इच्छा का मतलब
है: वह रहा
स्वर्ग, दस
कदम आगे; दस
कदम पार किए
कि स्वर्ग मिल
जाएगा। इच्छा
कभी भी नहीं
कहेगी कि यहीं
है स्वर्ग
जहां तुम खड़े
हो। वह कहेगी,
सदा कहीं और
है जहां तुम
नहीं हो; दौड़ो।
दौड़ की जो
प्रेरणा है, वही वासना
है। रुकने का
जो भाव है, ठहरने
की जो वृत्ति
है, वही
निर्वासना
है।
तो
बुद्ध निरंतर
अपने
भिक्षुओं से
कहते हैं कि
तुम पाने की
बात ही छोड़
दो। क्योंकि
जब तक तुम्हारे
मन में पाने
का कुछ भी रोग
सवार है तब तक
तुम रुकोगे
कैसे? इसलिए
बुद्ध यहां तक
भी कहते हैं
कि न कोई परमात्मा
है जिसे पाना
है। क्योंकि
अगर तुम्हें
जरा भी खयाल
रहा कि
परमात्मा है
तो तुम्हारे
मन में वासना
जगेगी कि
परमात्मा को
कैसे पा लें।
बुद्ध कहते
हैं, न कोई
मोक्ष है जिसे
पाना है। नहीं
तो तुम दौड़ोगे।
न कहीं कोई
ब्रह्म है; तुम्हारे
अतिरिक्त
कहीं कुछ भी
नहीं है। और तुम
यहीं हो।
इसलिए कहीं
जाने का कोई
सवाल नहीं है।
बुद्ध
को समझा नहीं
जा सका; लोग
समझे कि
नास्तिकता की
बात है। न
ब्रह्म, न
मोक्ष, कहीं
जाना नहीं है,
तो फिर धर्म
कैसे होगा? और कुछ पाना
नहीं है तो
लोग तो भ्रष्ट
हो जाएंगे, संसार में
भटक जाएंगे।
बुद्ध को
समझना कठिन है।
क्योंकि
बुद्ध कह रहे
हैं कि कुछ भी
पाने योग्य
नहीं है, न
संसार में और
न मोक्ष में।
ताकि तुम दौड़ो
मत, ताकि
तुम ठहर जाओ।
और तुम ठहरे
कि सब मिल
जाएगा। चाहे
तुम उसे
ब्रह्म कहना,
चाहे तुम
उसे मोक्ष
कहना, निर्वाण
कहना, जो
तुम्हारे मन
में आए, लेकिन
तुम रुक जाओ
तो वह मिल
जाएगा।
बुद्ध
से कोई पूछता
है बाद के
दिनों में कि
आपने कैसे
पाया? तो
बुद्ध ने कहा,
जब तक पाने
की कोशिश की
तब तक नहीं
मिला। जब ऊब गया,
थक गया, कोशिश
भी छोड़ दी
पाने की, उसी
क्षण, उसी
क्षण अनुभव
हुआ कि जिसे
मैं खोज रहा
था वह सदा से
मुझे मिला हुआ
है। लेकिन खोज
के कारण मेरी
आंखें बाहर
भटकती थीं और
मैं भीतर
देखने में
समर्थ न हो पा
रहा था। करीब-करीब
ऐसा ही कि आप
खिड़की से बाहर
झांक रहे हों,
और घर के
भीतर जो खजाना
रखा है उस तरफ
नजर न जाए, उस
तरफ पीठ रही
आए।
"इसलिए
संत बिना
इधर-उधर भागे
ही जानते हैं,
बिना देखे
ही समझते हैं,
और बिना
कर्म किए सब
कुछ संपन्न
करते हैं।'
बिना
देखे ही समझते
हैं! जो भी
देखा जा सकता
है वह पराया
होगा, वह बाहर
होगा। आत्मा
को देखा नहीं
जा सकता। यद्यपि
हमारे पास
शब्द हैं:
आत्म-दर्शन, आत्म-साक्षात्कार,
आत्म-ज्ञान।
ये सभी शब्द
गलत हैं।
क्योंकि इन
शब्दों से
भ्रांति हो
सकती है। मैं
आपको तो देख
सकता हूं, क्योंकि
आप मुझसे अलग
हैं, मैं
स्वयं को कैसे
देखूंगा? कौन
देखेगा और
किसको देखेगा?
वहां एक ही
है, देखने
के लिए दो की
जरूरत है। अगर
मैं स्वयं को
देखूं तो
जिसको मैं
देखूंगा वह
मैं नहीं हूं;
जो देख रहा
है वह मैं
हूं। मैं सदा
ही देखने वाला
रहूंगा। मैं
दृश्य नहीं बन
सकता, मैं
सदा द्रष्टा
ही रहूंगा।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
"बिना देखे
समझते हैं।'
वहां
देखने का कोई
उपाय नहीं है।
आप अपने को कैसे
देख सकते हैं? देखने
के लिए बंटना
जरूरी है: कोई
देखे, कोई
दिखाई पड़े; कोई दृश्य
हो, कोई
द्रष्टा हो; कोई आब्जेक्ट,
कोई सब्जेक्ट।
और आप? आप
सदा ही देखने
वाले हैं।
इसलिए
आत्म-दर्शन नहीं
हो सकता, आत्म-ज्ञान
नहीं हो सकता।
शब्द के अर्थ
में गलत है।
वहां तो बिना
जाने जानना
होगा, और
बिना देखे
दिखाई पड़ेगा।
वहां प्रतीति
होगी, एहसास
होगा, अनुभूति
होगी। लेकिन
वहां कोई बंटाव
नहीं होगा।
वहां दो नहीं
होंगे, वहां
एक होगा।
"बिना
देखे समझते
हैं, और
बिना कर्म किए
सब कुछ संपन्न
करते हैं।'
सब कुछ
करते हैं। संत
कोई भाग गया
हुआ नहीं है, वह
कोई भगोड़ा
नहीं है।
पलायनवादी तो
डरा हुआ आदमी
है, वह तो
भयभीत है। अगर
वह कर्म के
जगत में रहा
तो उससे गलती
हो जाएगी, इसका
उसे भय है।
अगर उसने
स्त्री को
देखा तो वासना
उठेगी, इसका
उसे भय है।
अगर उसने धन
देखा तो वह
मालिक बनना
चाहेगा, इसका
उसे भय है।
अगर उसने पद
देखा तो वह पद
पर होना
चाहेगा, इसका
उसे भय है।
इसलिए वह
भागता है।
भागना भय के
कारण होता है।
जो भागता है
वह कमजोर है।
भागने वाला
समर्थ नहीं हो
सकता। भागने
का मतलब ही यह
है कि मैं
भयभीत हूं, मैं डरा हुआ
हूं; मैं
परिस्थिति
छोड़ रहा हूं।
संत तो सब कुछ
करेगा; करने
के जगत में
होगा; क्योंकि
भय की कोई बात
नहीं है।
लेकिन यह सारा
करना ऐसे होगा
जैसे कोई
अभिनय कर रहा
है।
इस बात
को ठीक से समझ
लें। एक आदमी
राम बनता है रामलीला
में। सीता खो
जाती है, चोरी
चली जाती है।
वह रोता है, चिल्लाता है,
सीता! सीता!
वृक्षों से
पूछता है, मेरी
सीता कहां है?
और भीतर
उसको कुछ भी
नहीं हो रहा।
कृत्य वह पूरा
कर रहा है।
शायद राम भी
देखें तो वे
भी थोड़ा संकोच
अनुभव करें कि
इतने जोरदार
ढंग से मैंने
भी नहीं किया
था, जिस
ढंग से
अभिनेता
करेगा; जैसे
वृक्ष से
पूछेगा जिस
ढंग से, जिस
लज्जत से। आंख
से आंसू टपक
रहे होंगे, और भीतर कोई
रुदन नहीं।
पर्दा गिरेगा,
वह पीछे
जाकर मजे से
चाय पीएगा।
सीता का खोना
न खोना
अभिनेता के
लिए मूल्य नहीं
रखता; कर्ता
के लिए मूल्य
रखता है। अगर
लगता हो, मेरी
सीता खो गई, तो अड़चन है।
मेरे अहंकार
को पीड़ा और
चोट लगे तो
अड़चन है। मेरे
राग, मेरी
कामना और
वासना को चोट
लगे तो अड़चन
है। मेरी
आसक्ति को घाव
लगे तो अड़चन
है। लेकिन अगर
मैं वहां नहीं
हूं, कर्ता
नहीं हूं; सिर्फ
अभिनेता हूं।
संत
अभिनय कर रहा
है। जो भी इस
संसार के मंच
पर जरूरी है, कर
रहा है, लेकिन
इस करने में
वह कर्ता नहीं
है। रो भी सकता
है, हंस भी
सकता है; लेकिन
न हंसने में
है और न रोने
में है।
कृष्ण
बहुत जोर देकर
अर्जुन को
गीता में यही
बात समझा रहे
हैं कि तू लड़
एक अभिनेता की
तरह,
तू कर्ता मत
बन; तू समझ
कि परमात्मा
ने इस
परिस्थिति
में तुझे रखा,
यही तेरा
नाटक है, तू
इसे पूरा कर।
तू इससे भाग
मत। क्योंकि
भागने में तो
तू भयभीत होगा,
भागने में
तो तू भागने
का कम से कम
कर्ता हो जाएगा।
तू अपनी तरफ
से निर्णय मत
ले।
परिस्थिति जहां
तुझे ले आई है,
नियति ने
तुझे जहां खड़ा
कर दिया है, तू उसे
चुपचाप
स्वीकार कर ले
और पूरा कर
दे। तू अपने
को निमित्त
मान।
लाओत्से
कह रहा है, "और
बिना कर्म किए
हुए सब कुछ
संपन्न करते
हैं।'
अपनी
तरफ से कुछ भी
नहीं कर रहे
हैं,
अस्तित्व
उनसे जो करवा
ले। जीवन तो
जीवन और मृत्यु
तो मृत्यु!
अस्तित्व
उन्हें जहां
ले जाए, वे
चुपचाप चले
जाते हैं।
लाओत्से का
वचन है, संत
सूखे पत्ते की
तरह हैं, हवा
उन्हें जहां
ले जाए, पूरब
तो पूरब, पश्चिम
तो पश्चिम।
जमीन पर गिरा
दे तो ठीक और आकाश
में उठा दे तो
ठीक। सूखा
पत्ता अपना
निर्णय नहीं
ले रहा है, हवा
जहां ले जाए।
उसका अपना कोई
अहंकार नहीं है,
उसका अपना
कोई मैं-भाव
नहीं है। उससे
बहुत कर्म
होते हैं; शायद
साधारण आदमी
से ज्यादा
कर्म होते
हैं। थोड़ा समझें।
एक
अभिनेता
रामलीला में
राम का काम कर
सकता है; दूसरे
दिन रामलीला
में रावण बन
सकता है; तीसरे
दिन कुछ और बन
सकता है। और
एक जिंदगी में
हजार अभिनय कर
सकता है। राम
एक ही अभिनय
कर सकते हैं
अपनी जिंदगी
में। अभिनेता
के करने की क्षमता
बढ़ जाती है।
क्योंकि उसका
कर्ता कहीं जुड़ता
नहीं, इसलिए
वह हमेशा पीछे
बचा हुआ है।
सब ऊपर-ऊपर है।
वह चुकता नहीं,
उसकी शक्ति
व्यय नहीं
होती।
अगर आप
अभिनेता हैं
तो आपके जीवन
में विराट कर्म
हो सकता है, अनंत
कर्म हो सकते
हैं, और
फिर भी आप थकेंगे
नहीं। अगर आप
कर्ता हैं तो
छोटा सा कर्म
थका देगा; उसमें
ही जिंदगी चुक
जाएगी और नष्ट
हो जाएगी। एक
बार मैं छूट
जाऊं अलग अपने
कर्मों से, उनका
द्रष्टा हो
जाऊं और उनको
सिर्फ
स्वीकार कर
लूं एक नाटक
के मंच पर
खेले गए अभिनय
जैसा, फिर
कितना ही कर्म
हो जीवन में, वह कर्म
मुझे छुएगा
नहीं, थकाएगा नहीं, बासा
नहीं करेगा।
बल्कि हर कर्म
मुझे और ताजा
कर जाएगा, हर
कर्म मेरी
शक्ति को और
नया कर जाएगा।
हर कर्म मेरी
शक्ति के लिए
सिर्फ एक खेल
होगा।
ध्यान
रहे,
जब आप काम
करते हैं तो
थकते हैं, और
जब आप खेलते
हैं तो आप
ताजे हो जाते
हैं। यह बड़े
मजे की बात
है। क्योंकि
खेल भी काम
है। शायद खेल
में ज्यादा भी
श्रम पड़ता हो
काम से, लेकिन
खेल में आप
थकते नहीं, ताजे होते
हैं। आदमी दिन
भर का थका हुआ
आता है काम से,
और वह कहता
है कि जरा मैं
खेल लूं तो
ताजा हो जाऊं।
खेल में भी
श्रम हो रहा
है। अगर हम
शरीर-शास्त्री
से पूछें तो
वह जांच कर
बता देगा--कितनी
कैलोरी खर्च
हो रही है, कितना
श्रम हो रहा
है, कितनी
शरीर की ऊर्जा
व्यय हो रही
है। और यह आदमी
कह रहा है कि
मैं खेल कर
ताजा हो जाऊंगा।
दिन भर का थका
हुआ आदमी खेल
कर ताजा हो
जाता है।
खेल
में आदमी
अभिनेता हो
जाता है, कर्ता
नहीं। और अगर
कोई आदमी दिन
भर ही खेल में
हो, दुकान
पर भी, बाजार
में भी, तो
उसके थकने
का कोई उपाय
नहीं है। और
अगर आप खेल
में भी काम बना
लें। जैसे कुछ
लोग
प्रोफेशनल
होते हैं; फुटबाल
का कोई खिलाड़ी
है पेशेवर, वह थकता है।
खेलता वह भी
है, लेकिन
वह थक कर
लौटता है।
क्योंकि उसके
लिए यह धंधा
था। वह कोई
खेलने नहीं
गया था; उसका
धंधा था। एक
खेल में खेल
कर उसे इतने
रुपये मिल
जाने हैं, उतने
रुपये लेकर घर
लौट आया। वह
प्रोफेशनल है।
प्रोफेशनल थक
जाएगा, पेशेवर
थक जाएगा।
क्योंकि खेल
उसके लिए काम
हो गया।
अगर
काम आपके लिए
खेल हो जाए तो
आपके थकने
का कोई उपाय
नहीं।
इसलिए
संत कभी थका
हुआ नहीं है।
उसके भीतर वह सदा
ताजा है; अनंत
स्रोत से जुड़ा
है। अहंकार से
हट गया है तो
परमात्मा से
जुड़ गया है।
मैं की
क्षुद्रता से
हट गया है तो
परम ब्रह्म की
विराटता से एक
हो गया है। उस महास्रोत
से जुड़ कर फिर
वह निमित्त है,
एक साधन
मात्र है।
"और
बिना कर्म किए
संत सब कुछ
संपन्न करता
है।'
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें