दिनांक
13 मई, 1975, प्रातः,
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र
:
अब
मैं पाइबो
रे पाइबो
रे
ब्रह्मज्ञान।
सहज
समाधें
सुख में रहिबो, कौटि कलप
विश्राम।
गुरु
कृपाल कृपा जब
कीन्ही, हिरदै कंवल विगासा।
भागा
भ्रम दसों दिसि
सू)या, परम
ज्योति परगासा।
मतक उठया धनक
कर लीये, काल अहेड़ी
भागा।
उदया
सूर निस किया पयाना, सोवत थें
जब जागा।
अविगत
अकल अनूपम
देख्या, कहंता कहया न
जाई।
सैन
करे मन ही मन रहसे, गूंगे जान
मिठाई।
पहप
बिना एक तरुवर
फलिया, बिन कर तूर
बजाया।
नारी
बिना नीर घट
भरिया, सहज
रूप सो पाया।
देखत
कांच भया तक
कंचन, बिन
बानी मन माना।
उड़या
विहंगम खोज न
पाया, ज्यूं जल जलही
समाना।
पूजा
देव बहुरि
नाहिं पूजौ, उन्हाये उदिक न
जाऊं।
भागा
भ्रम ये कहीं
कहता, आये
बहुरि न आऊं।
आपै
में तब आपा निरख्या, अपन पै आपा सूझ्या।
आपै कहत सुनत
पुनि अपना, अपन पै आपै
बूझ्या।
अपने
परिचै
लागी तारी, अपन पै आप
समाना।
एक
ज्ञान है, जो भर तो
देता है मन को
बहुत जानकारी
से, लेकिन
हृदय को शून्य
नहीं करता।
एक
ज्ञान है, जो मन को
भरता नहीं, खाली करता
है। हृदय को शून्य
का मंदिर
बनाता है। एक
ज्ञान है, जो
सीखने से
मिलता है और
एक ज्ञान है
जो अनसीखने
से मिलता है।
जो सीखने से
मिले, वह कूड़ा करकट
है। जो अनसीखने
से मिले, वही
मूल्यवान है।
सीखने से वही
सीखा जा सकता
है, जो
बाहर से डाला
जाता है। अनसीखने
से उसका जन्म
होता है, जो
तुम्हारे
भीतर सदा से
छिपा है।
ज्ञान
को अगर तुमने
पाने की
यात्रा बनाया, तो पंडित
होकर समाप्त
हो जाओगे।
ज्ञान को अगर खोने
की खोज बनाया,
तो प्रज्ञा
का जन्म होगा।
पांडित्य
तो बोझ है; उससे तुम
मुक्त न
होओगे। वह तो
तुम्हें और भी
बांधेगा। वह
तो गले में
लगी फांसी है,
पैरों में
पड़ी जंजीर है।
पंडित तो
कारागृह बन जाएगा,
तुम्हारे
चारों तरफ।
तुम उसके कारण
अंधे हो जाओगे।
तुम्हारे
द्वार दरवाजे
बंद हो जाएंगे।
क्योंकि जिसे
भी यह भ्रम
पैदा हो जाता
है, कि
शब्दों को
जानकर उसने
जान लिया, उसका
अज्ञान पत्थर
की तरह मजबूत
हो जाता है।
तुम उस
ज्ञान की तलाश
करना जो
शब्दों से
नहीं मिलता, निःशब्द से
मिलता हैं। जो
सोचने
विचारने से नहीं
मिलेगा, निर्विचार
होने से मिलता
है। तुम उस
ज्ञान को खोजना,
जो
शास्त्रों
में नहीं है, स्वयं में
है। वही ज्ञान
तुम्हें
मुक्त करेगा,
वही ज्ञान
तुम्हें एक नए
नर्तन से भर
देगा। वह
तुम्हें
जीवित करेगा
वह तुम्हें
तुम्हारी कब्र
के ऊपर बाहर
उठाएगा। उससे
ही आएंगे फूल
जीवन के। और
उससे ही अंततः
परमात्मा का
प्रकाश प्रकटेगा।
पंडित
जानता है और
नहीं जानता।
लगता है कि
जानता है। ऐसे
ही, जैसे
बीमार आदमी
बजाय औषधि
लेने के, चिकित्साशास्त्र
का अध्ययन
करने लगे।
जैसे भूखा
आदमी
पाकशास्त्र
पढ़ने लगे।
ऐसे
सत्य की अगर
भूख हो, तो
भूल कर भी
धर्मशास्त्र
में मत उलझ
जाना। वहां
सत्य के संबंध
में बहुत
बातें कहीं गई
हैं, लेकिन
सत्य नहीं है।
क्योंकि सत्य
तो कब कहा जा
सका है? कौन
हुआ है समर्थ
जो उसे कह सके?
इसलिए गुरु
ज्ञान नहीं
देता, वस्तुतः
तुम जो ज्ञान
लेकर आते हो
उसे भी छीन लेता
है। गुरु
तुम्हें
बनाता नहीं, मिटाता है।
तुम्हारी
याददाश्त के
संग्रह को बढ़ाता
नहीं, तुम्हारी
याददाश्त, तुम्हारे
संग्रह को
खाली करता है।
जब तुम पूरे
खाली हो जाते
हो, तो
परमात्मा
तुम्हें भर
देता है।
शून्य हो जाना
पूर्ण को पाने
का मार्ग है।
कोई
बीस वर्ष पहले, मैं एक वर्ष
तक रायपुर में
रहा था। जिस
मकान में मैं
रहता था, एक
बूढ़ा आदमी उसी
मकान में पड़ोस
में रहता था। वह
दांत का मंजन
बेचने का काम
करता था। जब
मेरा उससे
परिचय हो गया
तो मैंने उससे
पूछा, कि
दांत तो
तुम्हारे एक
भी नहीं।
तुमसे दांत का
मंजन कौन
खरीदता होगा?
तुम अपने
दांत नहीं बचा
सके और तुम
तख्ती लगाकर
बैठते हो
बाजार में कि
ये मंजन से
दांत मजबूत हो
जाते हैं, दांत
गिरने से बच
जात हैं और
तुम्हारा एक
दांत नहीं है।
कौन तुमसे
मंजन खरीदता
होगा? और
किस हिम्मत से
तुम मंजन बेच
आते हो?
उस
बूढ़े ने थोड़ी
नाराजगी से
कहा, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? कई
लोग पुरुष
होते हुए भी चोलियां
बेचते हैं, साड़ियां बेचते हैं, चूड़ियां बेचते हैं।
मैं उससे राजी
हुआ, तो
उसने इतनी बात
और जोड़ी, और
उसने कहा, कि
फिर लोग अपने
दांतों में
उत्सुक हैं।मेरे
दांत की तरफ
देखते कहां? वस्तुतः उस
बूढ़े आदमी ने
कहा कि आप
मेरे पहले पूछनेवाले
हैं, जिसने
यह संदेह
उठाया। लोग
अपने दांत की
चिंता कर रहे
हैं। दंत-मंजन
का डब्बा
देखते हैं। मेरे
दांत की कौन
फिकर करता है?
तुम
पंडितों के
दांतों की
थोड़ी फिकर
करो। वे जो
बेच रहे हैं, वह उन्हें
भी बचा सका।
वे जो तुम्हें
समझा रहे हैं,
उससे उनकी
भी समझ नहीं
जागी। वे जो
तुम्हें दे
रहे हैं उससे
उन्हें भी कुछ
मिला नहीं है।
उनके जीवन को
थोड़ा परखो।
वहां तुम
पाओगे। एक रिक्तता
पाओगे। भारी
तुम पाओगे
उन्हें। वजन
से दबे हुए
पाओगे, लेकिन
तुम्हें वह
नृत्य वहां न
दिखाई पड़ेगा जो
कबीर कह रहे
हैं--पाइबो
रे पाइबो
रे
ब्रह्मज्ञान।
नाच
उठता है हृदय, जब ज्ञान की
पहली किरण
उतरती है। मोर
को नाचते देखा?
आषाढ़ के
प्रथम दिवसों
में आकाश में
मेघ घिरने
लगते हैं और
मोर पंख फैला
देते है और
नाचता है।
वैसा ही
ब्रह्मज्ञानी
भी नाचता है, जब उसके
जीवन में
परमात्मा के
मेघ घिर जाते
हैं। आषाढ़ का
दिन आ जाता
है। वर्षा
होने के करीब हो
जाती है।
जन्मों-जन्मों
की छाती
प्यासी थी।
मेघ घिर उठे, आषाढ़ का
दिवस आ गया।
नाच उठता है
मन-मयूर।
तुमने कोयल को
गाते देखा है?
पुकारती है
प्यारे को, पुकारती
रहती है।
विरह
की वैसी ही
अग्नि खोजी को
जलाती है, जब तक कि
प्रेमी मिल ही
न जाए। मिलन
पर बड़ी गहन शांति,
बड़ा गहन
आनंद।
ज्ञानी
का अस्तित्व
बदलता है।
पंडित की केवल
स्मृति भरती
है। स्मृति तो
यंत्र मात्र
है। उसका कोई
मूल्य नहीं। तुम्हारा
पूरा
अस्तित्व
अहोभाव से भर
जाए। तुम्हारा
रोआं-रोआं
धन्यवाद देने
लगे। तुम्हारे
सब द्वार-दरवाजों
से उस
परमात्मा का
प्रकाश भीतर आ
जाए। सब तरफ से
तुम्हें आपूर
परमात्मा घेर
ले। आकंठ तुम
भर जाओ। बाढ़ आ
जाए उसकी, कि तुम समझ
ही न पाओ, कैसे
धन्यवाद दें।
शब्द खो जाएं,
बोलने का
कुछ न बचे।
तुम्हारा
पूरा
अस्तित्व ही
बोलने लगे।
वाणी छोटी पड़
जाए। आनंद
लक्षण है।
सच्चिदानंद
लक्षण है।
पंडित के दांत
खुद ही टूट
हुए हैं। और
तुम उससे सीख
ले रहे हो।
आनंद
को कसौटी समझो, अन्यथा तुम
धोखा खाओगे।
शब्दों के धनी
बहुत है, आनंद
का धनी खोजो।
जिसके जीवन
में सब शांति
और परिपूर्ण
हो गया हो।
जिसे कुछ पाने
को न बचा हो, वही तुम्हें
कुछ दे सकेगा।
वही गुरु हो
सकता है।
पंडित तो
तुम्हारे ही
साथ है। तुमसे
थोड़ा ज्यादा
जानता है, तुम
थोड़ा कम जानते
हो। तुम भी
थोड़ी मेहनत
करो, तो
थोड़ा ज्यादा
जान लोगे।
पंडित में और
तुम में कोई
गुणात्मक भेद
नहीं है।
मात्रा का भले
हो, गुण का
नहीं है।
ज्ञानी और तुम
में गुणात्मक
भेद है।
जैसे
दो आदमी सोते
हों, एक आदमी
अपना देखता हो
कि चोर है; और
एक आदमी सपना
देखता हो, कि
साधु है। क्या
तुम सोचते हो,
उन दोनों
में कोई
गुणात्मक भेद
है? दोनों
सो रहे हैं।
दोनों सपना
देख रहे हैं।
दोनों के हाथ
में सत्य नहीं
है। और एक
तीसरा आदमी
जागा हुआ पास
ही बैठा है।
जागा हुआ है, सपना नहीं
देख रहा है।
इस आदमी उन दो
सोए आदमियों
में गुणात्मक
भेद है। इसकी
चेतन-दशा ही
अलग है। यह
जागा हुआ है।
सपने
इसे नहीं
सताते हैं।
क्योंकि सपने
तो गहन तंद्रा
में ही आते
हैं। जब तुम
बेहोश होते हो, तब ही सपने
तुम्हें आते
हैं। जागे हुए
व्यक्ति को
वासना नहीं
सताती, क्योंकि
वासना एक
स्वप्न है।
जागे हुए
व्यक्ति को
लोभ नहीं
सताता, क्योंकि
लोभ एक स्वप्न
है। जागे हुए
व्यक्ति को
पाप नहीं
सताता, क्योंकि
पाप एक स्वप्न
है। और मैं
तुमसे कहता हूं,
जागे हुए
व्यक्ति को
पुण्य भी नहीं
सताता, क्योंकि
पुण्य भी एक
स्वप्न है।
अशुभ तो सताता
ही नहीं, शुभ
भी नहीं
सताता। न तो
जागा हुआ आदमी
शैतान होने की
कामना करता है,
और न साधु
होने की कामना
करता है। जागा
हुआ आदमी, जागा
हुआ आदमी है।
अब इन
स्वप्नों से
कुछ लेना-देना
नहीं है।
और जब
जीवन सारे
द्वंद्व के
पार जागता है, तभी कोई
कबीर की तरह
खड़ा हो सकता
है मेघों के नीचे--
पाइबो
रे पाइबो
रे
ब्रह्मज्ञान
यह महानतम
तुम्हें आनंद
दिखाई पड़े, भला उस आदमी
में पांडित्य
भी न हो, तो
भी तुम पीछे
उस आदमी के
दौड़ना। उसके
पास कोई सुवास
है। और भला
कोई आदमी
कितने ही
ज्ञान से भरा
हो और उसके
चेहरे पर और
उसकी आंखों
में तुम्हें
आनंद की पुलक,
रहस्य का
भाव, कुछ
ऐसे
महत्वपूर्ण
को पाने की
प्रतीति न हो,
जो शब्दों
में कहा नहीं
जा सकता, कुछ
ऐसी मूढ़ता
का बोध न हो, जो हृदय में
तो तलाबल
है, लेकिन
शब्द उसे बाहर
नहीं ला पाते,
लेकिन बैठ
कर तुम्हें
किसी शांत झील
का अनुभव हो, जिसके पास
आकर तुम्हें
सूर्य के
प्रकाश का अनुभव
हो, जिसके
पास बैठ कर तुम्हें
चांद की
शीतलता मिले,
अपरिचित
फूलों की गंध
ओ, जिसके
पास अनजान
वीणा बजने लगे,
तुम्हारे
हृदय के तार
भी जिसे
दोहराने
लगें।
क्या
तुम्हें पता
है? संगीतज्ञ
एक बड़े अनूठे
अनुभव को कहते
हैं। एक वीणा
को रख दिया
जाए कक्ष के
एक कोने में, कोई छुए भी न;
और कुशल संगीतज्ञ
दूसरी वीणा पर
गीत बजाए,
राग उठाए तो
तुम्हें पता
है, एक
अनूठी घटना
घटती है--कि
पहली वीणा जो
कोने में रखी
है, धीरे-धीरे
उसी धुन को
बजाने लगती है।मगर
बड़ा कुशल
संगीतज्ञ
चाहिए। एक
वीणा तो वह
बजाता है।
उससे उठती हुई
झंकार दूसरी
वीणा के तारों
को छूती है। उससे
उठती हुई
स्वर-लहरी
दूसरी वीणा पर
चोट करती है।
धीरे-धीरे
दूसरी वीणा के
तार भी कंपायमान
होने लगते
हैं। एक धीमी
सिहरन उनमें
दौड़ जाती है।
तानसेन या बैजू
बावरा जैसे संगतज्ञों
के संबंध में
कथाएं हैं, कि दूसरी
वाणी ठीक वही
दोहराने लेती
है, जो
पहली वीणा कर
रही है।
और अब
तो इस पर
वैज्ञानिक
शोध हुई है और
पाया गया कि
यह सच है। इसे
वैज्ञानिक
कहते हैं, ला आफ सिंक्रोनिसिटी।
अगर एक चीज बज
रही हो एक ढंग
से, तो सके
चारों तरफ
तरंगों का एक
जाल पैदा होता
है। उस जाल
में उसके
समान-धर्मा
कोई भी मौजूद हो,
तो उसके
भीतर भी उसी
तरह की ध्वनि
कंपित होने
लगती है।
ज्ञानी
तो वही है, जिसके पास
बैठने से
तुम्हारे
हृदय की वीणा
कंपित होने
लगे। उसका
स्वर जाग गया।
उसकी वीणा बज
रही है, अनंत-अनंत
हाथों से
परमात्मा
उसकी वीणा पर
खेल रहा है।
तुम उसके पा
जाओगे, तुम्हारे
हृदय के तार
झंकृत होने
लगेंगे। यह
कोई बुद्धि का
संबंध न होगा।
यह एक हार्दिक
संबंध होगा।
इसका तालमेल
प्रेम से ज्यादा
होगा, ज्ञान
से कम होगा।
इसका तालमेल
श्रद्धा से ज्यादा
होगा, सोच-विचार
से कम होगा।
समान-धर्मा
तुम्हारी आत्मा
भी कंपित होने
लगेगी।
तुम्हारे
भीतर की वीणा
भी जागेगी,
हिलेगी, उठेगी।
गुरु
वही है, जिसके
पास शिष्य
रूपांतरित
होने लगे।
कबीर
के इन वचनों
को बहुत
ध्यानपूर्वक
समझने की
कोशिश करें।
अब मैं
पाइबो रे पाइबो रे
ब्रह्मज्ञान।
ये
शब्द भी बड़े
मिठास से भरे
हैं--पाइबो
रे! अब मैंने
पा लिया! अब
मैंने पा
लिया! सहज समाधें
सुख में रहिबो
कौटि कलप
विश्राम।
घट गई
वह घटना, जिसे
सहज समाधि
कहते हैं।
समाधियां
दो तरह की
हैं। एक तो
समाधि है जो
चेष्टा से घटती
है, प्रयास
से घटती है, आयोजन से
घटती है, यत्न
श्रम से घटती
है। ऐसी समाधि
को पूरी समाधि
नहीं कहा जा
सकता।
क्यों? क्योंकि
तुम्हारे प्रयास
से जो घटी है
उसमें
तुम्हारा कुछ
न कुछ बाकी रह
ही जाएगा।
तुम्हारा
प्रयास तुमसे
ऊपर कैसे जा
सकता है? तुमने
जो किया, उसमें
तुम्हारी
छाया रह ही
जाएगी।
तुम्हारे हस्ताक्षर
उसमें मौजूद
रहेंगे ही।
तुम्हारा
प्रयास
तुम्हीं हों।
तो तुम्हारे
प्रयास से आई
समाधि, तुमसे
पार नहीं जा
सकती। वह
परमात्मा तक
नहीं पहुंच
सकती।
एक तो
समाधि है, जो प्रयत्न
से फलित होती
है। हां, तुम
थोड़े शांत हो
जाओगे। तुम
थोड़े तनाव से
मुक्त हो
जाओगे।
तुम्हें नींद
ठीक आने
लगेगी। तुम्हारे
जीवन में थोड़ा
संतुलन आ
जाएगा। भटकाव कम
हो जाएगा।
व्यर्थ की
बातों में तुम
कम उलझोगे।
लोभ, क्रोध
तुम्हें कम
आकर्षित
करेंगे।
काम-वासना
वैसी प्रगाढ़
न रह जाएगी, जैसी पहले
थी। लेकिन फिर
भी माडिफर्ड,
थोड़े से
रूपांतरित--रहोगे
तुम पुराने
ही।
जैसे
कोई पुराने
मकान को रिनोवेशन
कर लेता है।
पुराने मकान
को थोड़ा
टीमटाम सजा लेता
है। जरा जीर्ण
मकान को यहां
वहां ठीक-ठाक
करके, थोड़े
नए पत्थर जोड़कर,
थोड़ी
दीवालों को
नया पोत कर, रंग रोगन
लगा कर, नये
का ढंग दे
देता है।
लेकिन भीतर तो
जराजीर्ण
मकान, जराजीर्ण
ही रहेगा।
यत्न
से जो समाधि
आती है, वह
ऐसी है जैसे
किसी ने
जराजीर्ण
मकान का पुनरुद्वार
कर लिया। वह
नया भवन नहीं
है। उसका
पुराने से संबंध
नहीं टूटा।
सातत्य जारी
रहा। वह पुराने
का ही सिलसिला
है। उसे तुमने
कितना ही
संवार लिया हो,
भीतर से वह
जीरा जीर्ण ही
है।
पुराना
बिलकुल टूट
जाए और समग्र
रूपेण नये का जन्म
हो। सिलसिला
ही टूट जाए, सातत्य ही
टूट जाए।
पुराने और नये
के बीच कोई
जोड़ ही न बचे।
इधर पुराना
गया, उधर
नया आया।
दोनों के बीच
कोई संबंध न
हो। तभी समाधि
परम होगी।
लेकिन
वैसी समाधि
तुम कैसे
लाओगे? क्योंकि
तुम लाओगे, तो तुम्हारा
सातत्य जारी
रहेगा।
तुम्हारी समाधि,
लाई गई
समाधि
चेष्टित, कितनी
ही तुम्हें
शांत कर दें,तुम्हें
पुलक और आनंद
से नहीं भरी
सकेगी। क्योंकि
आनंद तो
परमात्मा का
है। मनुष्य की
गहनतम से गहनतम
संभावना शांत
होने की। उससे
ऊपर मनुष्य
नहीं जा सकता।
और
वैसी शांति
कभी भी खंडित
हो सकती है।
क्योंकि जिसे
आनंद न मिला
हो, उसकी
शांति का बहुत
भरोसा नहीं
है। क्योंकि
शांति एक
नकारात्मक
स्थिति है।
अशांत तुम कम
हो गए हो, इसलिए
शांत लगते हो।
लेकिन प्रकाश
नहीं जला है।
आनंद की वर्षा
नहीं हुई है।
जिसके
जीवन में आनंद
की वर्षा हो
जाती है, उसके
अशांत होने की
संभावना
समाप्त हो
जाती है। और
जिसके जीवन
में आनंद खिल
जाता है वह
सिर्फ शांत
नहीं होता, क्योंकि
शांत तो बड़ी
निष्क्रिय
अवस्था है। शांत
तो नकारात्मक
स्थिति है। वह
विधायक आनंद से
भरा होता है।
उसकी समाधि
नाचती हुई
होती है। उसकी
समाधि में एक
गीत होता है।
एक सतत प्रवाह
होता है, एक
सृजनात्मक, सक्रिय ऊर्जा
होती है। उसकी
समाधि अशांति
का हट जाना
नहीं है, आनंद
का उतर आना
है। उसकी
समाधि बीमारी
का मिट जाना
नहीं है, स्वास्थ्य
का आर्विभाव
है।
कबीर
कहते हैं--
सहज समाधें
सुख में रहिबो, कौटि कलट
विश्राम।
वह जो
अनंत-अनंत
कल्पनाएं थीं, पीड़ाएं थीं, विकल्प
थे, सबसे विश्राम
हो गया। वे सब
जा चुके। अब
कोई सताता नहीं।
न लोभ द्वार
पर दस्तक देता
है, न मोह, न राग, न
क्रोध--कौटि
कलप
विश्राम। वे
सब विकल्प जा
चुके।
सहज समाधें
सुख में रहिबो...
और एक महासुख का
अवतरण हुआ है।
लेकिन वह
अवतरण सहज
समाधि में
होता है। यत्नपूर्वक
जो समाधि है
वह असहज समाधि
है। सहज समाधि
का अर्थ: स्वयंस्फूर्त, अपने आप उतर
आई।
लेकिन
यह कैसे होगा? अपने आप उतर
आई तब
तो तुम्हारे
करने में कुछ
बचाव नहीं।
क्या करोगे? तुम्हें तो
चेष्टा करनी
पड़ेगी असहज
समाधि की।
शांति तो
तुम्हें लानी
पड़ेगी। आनंद
आता है। शांति
तो केवल
तैयारी है कि
आनंद उतर सके।
जगह खाली करना
है। सारा योग
शांत समाधि तक
ले जाता है।
इसलिए
जिन्होंने उस
परम समाधि को
पाया वह कहेंगे,
गुरु कृपा
से, प्रभु
कृपा से, प्रसाद
से। क्योंकि
दूसरी समाधि
तो तुम नहीं ला
सकते। वह तो
आएगी।
ऐसा ही, जैसे बाहर
सूरज उगा है।
तुम द्वार बंद
किए भीतर बैठे
हो। सूरज भीतर
नहीं आ सकता।
प्रकृति, परमात्मा
आक्रामक नहीं
है। वह
तुम्हारे द्वार
पर दस्तक भी न
देगा। बाहर
खड़ा रहेगा।
उसकी किरणें
तुम्हारे
द्वार को हिलाएंगी
भी न, तुम्हें
चेताएंगी
भी न, कि
मैं आ गया हूं,
द्वार खोलो।
और द्वार को
छेद कर भी
सूर्य की
किरणें भीतर
प्रकाश न
करेंगी। अगर
तम अंधेरे में
रहने को राजी
हो, तो यह
तुम्हारी
स्वतंत्रता
है। यह
तुम्हारा चुनाव
है। जबरदस्ती
नहीं की जा
सकती।
तुम
द्वार खोल
देते हो, सूर्य
की किरणें
भीतर आ जाती
हैं। द्वार
खोलना यत्नपूर्वक
समाधि है।
लेकिन सूरज का
आना तुम्हारे
यत्न से नहीं
होता, सूरज
अपने आप आता
है। तुम थोड़ी
किरणों के
घसीट कर भीतर
लाते हो! तुम
थोड़ी बाहर
जाकर किरणों को
हांकते
हो, कि चलो
भीतर! तुम
थोड़ी बाहर जा
कर किरणों को
कहते हो कि आओ
भीतर, स्वागत
है! नहीं, कुछ
भी नहीं करना
पड़ता है। तुम
सिर्फ द्वार
खोल दो।
इसका
अर्थ हुआ, कि तुम
सिर्फ बाधा मत
बनो। तुम
सिर्फ
प्रतिरोध मत
खड़ा करो।
दरवाजा खोल दो,
सूरज अपने
से भीतर आता
है। आगमन सहज
है। तुम्हें
उसके लिए कुछ
भी न करना
होगा।
योग का
अर्थ है, यत्नपूर्वक समाधि।
इसलिए पतंजलि योगशास्त्र
तुम्हें सविकल्प
समाधि तक ले
जाएगा।
निर्विकल्प
समाधि तो घटेगी।
द्वार खुल
जाएगा सविकल्प
समाधि से।
निर्विकल्प
समाधि आएगी।
तुम तैयार
होते
परमात्मा एक
क्षण भी देरी
नहीं करता। तुमने
द्वार खोला, वह मौजूद
है। वह भीतर आ
जाता है। और
जब परमात्मा
भीतर आता है
तब स्वभावतः
तुमने कुछ भी
तो नहीं किया
था उसे पाने
को। तुम कैसे
कहोगे, कि
यह मेरे कारण
भीतर आया? कार्य-कारण
की शृंखला टूट
जाती है। इसे
तुम आगे
समझोगे कबीर
के वचनों में।
कार्य-कारण की
शृंखला टूट
जाती है। अब
तुम यह नहीं
कह सकते कि मैंने
दरवाजा खोला,इसलिए सूरज
भीतर आया। तुम
इतना ही कह
सकते हो कि
मैं दरवाजा न
खोलता, तो
सूरज भीतर
नहीं आ सता
था। मेरे
दरवाजे खोलने
से, दरवाजा
ही खुलता है।
सूरज का आना, दरवाजे के
खुलने से जुड़ा
ही नहीं है।
सिर्फ अवरोध
टूट जाता है।
सूरज तो आ ही
रहा था, सिर्फ
बीच का अवरोध
हट जाता है।
तुम भर बीच से हट
जाओ। और
परमात्मा
प्रतिपल बरस
रहा है। आषाढ़
की प्रतीक्षा
करने की जरूरत
नहीं, उसके
मेघ सदा ही
घिरे हैं। वह
कोई मौसम नहीं
है, कि आता
है और चला
जाता है। सदा
जो मौजूद है, सदा ही उसके
मेघ आकाश को
घेरे हैं। तुम
जिस दिन हृदय
पट के द्वार
खोल दोगे, उसी
दिन सहज समाधि
घटित हो
जाएगी। लेकिन
सहज समाधि के
लिए तो कुछ
किया नहीं जा
सकता।
फिर
तुम क्या
करोगे?
तुम यत्नपूर्वक
शांत होने की
चेष्टा करो।
ये जो ध्यान
के सारे
प्रयोग हैं, ये सिर्फ
दरवाजा खोलना
है। अगर ठीक
समझो, तो
इनको ध्यान
कहना भी ठीक
नहीं। इनका तो
ध्यान की
पूर्व तैयारी
कहना चाहिए।
जैसे माली
घास-पात को उखाड़ता
है, जमीन
को साफ करता
है; लेकिन
इसको कोई
बगीचा लगाना
थोड़े ही
कहोगे! क्योंकि
यह भी हो सकता
है कि माली
घास-पात उखाड़
दे, जमीन
को साफ कर दे
और नये बीज न
बोए और बगीचा
कभी पैदा न
हो। घास-पात उखाड़ कर
फेंक देना, जमीन को
तैयार कर लेना,
कंकड़-पत्थर से
मुक्त कर देना,
सिर्फ
पूर्व तैयारी
है। भूमिका
है। अब बीज बोने
पड़ेंगे।
भूमिका तुम
तैयार करो, बीज
परमात्मा
बोता है। तुम
हृदय को तैयार
करो, वर्षा
उसकी तरफ से
हो जाती है।
इजिप्त
की एक बहुत
पुरानी
पुस्तक कहती
है कि तुम एक
कदम चलो, परमात्मा
हजार कदम
तुम्हारी तरफ
चलता है। मगर
पहला कदम
तुम्हें
उठाना पड़ेगा।
क्योंकि परमात्मा
आक्रामक नहीं
है। जब तुम दर्शाओगे
प्यास, जब
तुम दिखाओगे
मुमुक्षा, जब
तुम उठोगे और
एक कदम चलोगे,
तत्क्षण
तुम पाओगे, परमात्मा
हजार कदम करीब
आ गया। इधर
तुमने तैयार
किया भूमि को,
उधर बीज आने
शुरू हो गए।
इधर तुमने
द्वार खोला, उधर प्रकाश
आया।
सहज समाधें
सुख में रहिबो...
जिसे
तुम सुख कहते
हो, कबीर उस
सुख की बात
नहीं कर रहे
हैं। क्योंकि उस
सुख में रहना
हो ही नहीं
सकता। वह आया
भी नहीं, कि
गया हो जाता
है। आ भी नहीं
पाया, कि
जा रहा है।
इधर तुम देख
रहे थे कि
मुंह था अपनी
तरफ, तुम
ठीक से पहचान
भी न पाए थे कि
सुख आ रहा था, कि देखा कि
पीठ हो गई, जा
रहा है।
क्षण
भर के सुख में
कैसे रहोगे? होश आते ही
क्षण खो जाता
है। और फिर
सुख-जिसे तुम
सुख कहते
हो--जब आता है, तब भी मन सुख
से ही भरा
रहता है।
क्योंकि तुम जानते
हो कि यह
टिकेगा नहीं।
तब भी भीतर एक
गहरी उदासी
घेरे रहती है
चित्त को। तुम
जानते हो भलीभांति,
कि यह लहर
की तरह आया, और लहर की
तरह चला
जाएगा। यह लहर
तट पर सदा रुकनेवाली
नहीं है। जैसी
आई है, वैसी
चली जाएगी। यह
ज्वारा
जल्दी ही भाटा
हो जाएगा।
स्वभावतः
जब सुख आता है, और पता चलता
रहता है कि
गया...गया...गया।
कैसे तुम सुख
में रह सकते
हो? सुख
आता है, तो
तुम पकड़ने
की कोशिश से
भर जाते हो।
रहना तो बहुत
मुश्किल है, पकड़ते हो। रोक लें
थोड़ी देर और, एक क्षण और, उस पकड़ने
में ही वह
क्षण खो जाता
है, जो कि
जीने का क्षण
हो सकता था।
सुख आता है, तब कहीं चला
न जाए, यह
चिंता मन में
व्याप्त हो
जाती है। दुख
होता है, तब
तुम दुख से
पीड़ित। दुख
होता है, तब
तुम चिंता से
पीड़ित, कि
कैसे जाए। सुख
होता है, तो
तुम इस चिंता
से पीड़ित कि
कहीं चला न
जाए। कि जब
गया--कि अब
गया। कैसे
बांध लूं।
रह कैसे
पाओगे? सुख
में रहना तो
तभी हो सकता
है, जब सुख
आए और न। आ गया,
फिर जाने को
न हो।
तुम्हारा
स्वभाव हो जाए,
चित्त की
वृत्ति नहीं।
चित्त की
वृत्ति तो लहर
की तरह आती है
और चलती जाती है।
तुम जिसको सुख
कहते हो, वह
चित्त की एक
तरंग है। कबीर
जिस सुख की
बात कर रहे
हैं, वह
अस्तित्व की
अवस्था है। वह
आत्मा की भावदशा
है। स्वभाव
फिर जाता
नहीं।
बोधिधर्म
चीन गया: एक
बहुत
महत्वपूर्ण
संन्यासी, बौद्ध
भिक्षु। चीन
के सम्राट ने
उसे पूछा, कि
क्रोध आता है,
लोभ आता है,
अशांति आती
है, क्या
करूं? तो
बोधिधर्म ने
कहा, आंख
बंद कर। मुझे
बता, अभी
क्रोध है? सम्राट
ने कहा, अभी
तो नहीं। तो
बोधिधर्म ने
कहा, जो
चौबीस घंटे और
सदा नहीं है, वह तेरा
स्वभाव नहीं
है। आता है, जो चला जाता
है, वह तू
कैसे हो सकता
है? तू तो
सदा है। क्या
तू यह भी कह
सकता है, कि
कभी-कभी तू
होता है और
कभी-कभी नहीं
भी हो जाता है?
नहीं, सम्राट
न कहा, मैं
तो चौबीस घंटे
में चाहे
क्रोध हो, चाहे
अशांति हो, चाहे शांति
हो, चाहे
सुख हो, चाहे
नींद हो, चाहे
जागरण हो, मैं
तो सतत हूं।
तो बोधिधर्म
ने कहा, वह
जो सतत है, उसकी
फिकर कर। उसको
जान। और जो
कभी आता है और
कभी चला जाता
है, वह तो
बाहर की तरंग
है। किनारे को
छूती है, लौट
जाती है। उस
पर ज्यादा
ध्यान मत दे।
न तो
सुख मूल्यवान
है तुम्हारा, न दुख
मूल्यवान है
तुम्हारा।
तुमने बहुत
ध्यान इन पर
दिया, इसलिए
तुम बुरी तरह
उलझ गए हो। वे
ध्यान देने
योग्य भी नहीं
है। उपेक्षा
के अतिरिक्त
उनके प्रति
दूसरा भाव नहीं
चाहिए। सुख आए
तो उपेक्षा
रखना, क्योंकि
वह जाने ही
वाला है। दुख
आए तो उपेक्षा
रखना, कि
जानते हो कि
कितनी देर
टिकेगा! कभी
दुख सदा नहीं
टिकता। तो फिर
क्या इतनी
परेशान होने
की जरूरत है? रह लेने दो
थोड़ी देर।
आ गया
है पक्षी उड़कर
तुम्हारे
कमरे में, दुख का हो या
सुख का क्षण
भर फड़फड़ाएगा,
दूसरी
खिड़की से निकल
जाएगा। कोई
सदा रहने को नहीं
है। एक खिड़की
से प्रवेश कर
जाता है पक्षी,
क्षण भर फड़फड़ाता
है, दूसरी
खिड़की से निकल
कर, अनंत यात्रा
पर निकल जाता
है। तुम तो वह
भवन हो, जहां
पक्षी थोड़ी
देर उड़ा--वह
रिक्तता, वह
खाली जगह; उसी
ससे अपना
तादात्म्य
करो, तो
तुम समझ पाओगे
कबीर किस सुख
की बात कर रहे
हैं! जो आता है,
और जाता
नहीं। आया कि
आया, फिर
जाने का नाम
नहीं लेता। वह
कोई मेहमान
नहीं है, वह
तुम ही हो। वह
कोई अतिथि
नहीं है, वह
स्वयं आतिथेय
है। मेहमान
नहीं, मेजबान।
वह तुम ही हो।
वह कोई किनारे
पर आनेवाली
तरंग नहीं, वह किनारा
ही है।
सहज समाधें
सुख में रहिबा, कौटि कलप
विश्राम।
गुरु
कृपाल कृपा जब
किन्हीं, हिरदै कंवल विगासा।
जब
गुरु का
प्रसाद मिला, जब गुरु की
कृपा हुई, जब
उसकी अनुकंपा
बरसी, तो
हृदय का कमल
विकसित हुआ।
खुद की
चेष्टा से
भूमि तैयार
होती है।
इसलिए जो लोग
खुद की चेष्टा
को ही सब कुछ
समझ लेते हैं, भटक जाते
हैं। खुद की
चेष्टा ऐसी ही
है, जैसे
कोई अपने
जूतों के
बंदों को
उठाकर खुद को
उठाने की
कोशिश करे।
थोड़ा-बहुत उछल
कूद मचा सकता
है। क्षण दो
क्षण को, फीट
दो फीट छलांग
भी लगा सकता
है। लेकिन
कितनी देर यह
छलांग टिकेगी?
उछल भी नहीं
पाएगा, कि
पाएगा कि फिर
जमीन पर खड़ा
है।
आदमी
की सामर्थ्य
कितनी! बड़ी
छोटी
सामर्थ्य है।
उस छोटी
सामर्थ्य से
विराट को खोजने
हम जाएं, तो
हम विराट को
भी रंग
डालेंगे। वह
विराट भी हम
जैसा ही छोटा
हो जाएगा, इसलिए
तो हमारे सब
भगवान छोटे हो
गए हैं। छोटे
आदमी का भगवान
बड़ा कैसे हो
सकता है?
तुम
राम को बनाओगे, तो अपनी ही
शक्ल में
बनाओगे।
कितने ही धनुष
वगैरह दे दो, कितनी ही
मूर्ति सुंदर
बनाओ, लेकिन
होगी आदमी ही
मूर्ति।
तुम्हारी ही
मूर्ति का
प्रतिफलन
होगा। तुम
कृष्ण का जीवन
पढ़ोगे, तुम क्या पढ़ोगे?
तुम अपने को
ही पढ़ लोगे।
बुद्ध को तुम,
महावीर को,
गौर से
देखो! या तो
तुम्हारे
चेहरे उन में
प्रकट हुए हैं,
या
तुम्हारी
आकांक्षा--ज्यादा
से ज्यादा
तुम्हारी आकांक्षाएं,
अभीप्साएं,
जैसे तुम
होना चाहोगे।
लेकिन तुमसे
बाहर कुछ भी
नहीं जा सकता।
तुम जो भी
करोगे, तुम
उसे घेर लोगे।
वह तुम्हारी
प्रतिध्वनि होगी।
इसलिए
कबीर कहते
हैं--गुरु
कृपाल जब
किन्हीं।
गुरु
से अर्थ है, जो जाग गया।
जो जाग गया, वह तुम्हारे
और परमात्मा
के बीच कड़ी बन
सकता है। इसे
थोड़ा समझो।
गुरु
एक द्वार है; द्वार से
ज्यादा कुछ भी
नहीं। उस
द्वार के एक तरफ
तुम हो और
दूसरी तरफ
परमात्मा है।
तुम परमात्मा
को समझने में
असमर्थ हो।
क्योंकि वह भाषा
बिलकुल
अपरिचित। वह
रूप
अनचीन्हा। वह
राग अनसुना।
तुम्हारे कान
उस संगीत के
लिए तैयार
नहीं है।
तुम्हारा
हृदय उस
स्पर्श के लिए
तैयार नहीं।
तुम्हारी भूमि
घास-पात से
भरी है। वे
बीज तुममें
गिर भी जाएं, तो भी
अंकुरित न हो
पाएंगे।
फिर
तुम द्वार की
तरफ पीठ किए
खड़े हो।
परमात्मा की
तरफ तुम
उन्मुख नहीं
हो, परमात्मा
से विमुख हो।
संसार की तरफ
जितनी
उन्मुखता
होगी, उतनी
परमात्मा की
तरफ विमुखता
होगी, पीठ
होगी। तुम
मुंह तो एक ही
तरफ कर सकते
हो--या तो
संसार की तरफ
या परमात्मा
की तरफ।
संन्यासी
का इतना ही
अर्थ है, जिसने
संसार की तरफ
पीठ कर ली और
मुंह परमात्मा
की तरफ कर
लिया। गृहस्थ
का अर्थ है, जिसने पीठ
परमात्मा की
तरफ की और
मुंह संसार की
तरफ किया। बस,
उनके खड़े
होने के ढंग
का जरा सा
फर्क है। एक
जहां पीठ किए
है, दूसरा
वहां मुंह किए
है। बस, इतना
ही फर्क है।
जरा सा मुड़ना,
एक सौ अस्सी
डिग्री धूम
जाना--और
गृहस्थ संन्यासी
हो जाता है।
एक क्षण में!
संन्यासी
गृहस्थ हो
सकता है।
मुंह
कहां है? प्रभु-उन्मुखता,
संन्यास
है। लेकिन
तुम्हारी पीठ
द्वार की तरफ...और
उस द्वार के
पार जो अनंत
फैला हुआ है, वह तुम्हारी
परिभाषाओं
में नहीं आता
है। तुमने जो
भी जाना है, उससे उसका
कोई मेल नहीं
है। तुम्हारा
सब जानना
व्यर्थ है।
गुरु का अर्थ
है, जो कभी
तुम जैसा था।
पीठ किए खड़ा
था द्वार की तरफ।
फिर उसने
द्वार की तरफ
मुंह किया।
गुरु
का अर्थ है, जो तुम्हारी
भाषा
भलीभांति
समझता है। जो
तुम्हारे बीच
से ही पाया
है। जिसका
अतीत तुम्हारे
जैसा ही था।
लेकिन जिसका
वर्तमान
भिन्न हो गया
है। जिसके
जीवन में
परमात्मा की
थोड़ी किरण उतर
गई है। वह
परमात्मा की
भाषा को भी
थोड़ा समझा है।
वह अनुवाद का
काम कर सकता
है।
गुरु
एक अनुवादक है, एक ट्रांसलेटर।
वह परमात्मा
को समझता है, उसकी भाषा
को। वह
तुम्हें
समझता है, तुम्हारी
भाषा को। वह
परमात्मा को
तुम्हारी
भाषा में लाता
है। वह
परमात्मा को
तुम्हारे
अनुकूल...जिसे
तुम सह सको।
वह छानता है तुम्हारे
लिए। रस लग
जाए, तो
तुम छलांग ले
लोगे। लेकिन
रस इतना बड़ा न
हो कि उस आघात
में तुम मिट
जाओ। वह
धीरे-धीरे तुम्हें
तैयार करता
है।
एक
छोटे पौधे को
तो सुरक्षा की
जरूरत होती
है। बड़े हो
जाने पर किसी बागुड़ की
कोई जरूरत
नहीं रहती। वह
तुम्हारे
छोटे से पौधे
को सम्हालता
है। छोटे से
पौधे पर तो
मेघ भी बरस
जाए, तो मौत हो
सकती है। मेघ
से भी बचना
पड़े। छोटे पौधे
पर तो सूरज भी
ज्यादा पड़ जाए,
तो मृत्यु
हो सकती है।
सूरज
जीवनदायी है।
लेकिन छोटे
पौधे के लिए
मृत्यु हो
सकती है। जरूरत
से ज्यादा है।
छोटा पौधा
उतना लेने को,
उतना
आत्मसात करने
को तैयार
नहीं।
गुरु
की सारी
चेष्टा इतनी
है है, कि वह
परमात्मा को
तुम्हारे
योग्य बना दे
और तुम्हें
परमात्मा के
योग्य बना दे।
परमात्मा को
उसे थोड़ा
रोकना पड़ता कि
थोड़ा ठहरो, इतनी जल्दी
नहीं। इतनी
जोर से मत बरस
जाना। वह आदमी
मिट ही जाएगा।
और
तुम्हें उसे
तैयार करना
पड़ता है कि
घबराओ मत, थोड़ी
प्रतीक्षा
करो। जल्दी ही
वर्षा होने को
है। अगर एक
बूंद गिरी है,
तो पूरा मेघ
भी गिरेगा।
घबराओ मत।
तुम्हें तैयार
करता है ज्यादा
लेने को, परमात्मा
को तैयार करना
है, कम
देने को। और
जब तुम्हारे
दोनों के बीच
एक संतुलन बन
जाता है तो
गुरु की कोई
जरूरत नहीं रह
जाती।
गुरु
तो सिर्फ एक
द्वार है। तुम
उससे पार हो जाते
हो। वह
तुम्हें
रोकता भी
नहीं। द्वार
किसी को कभी
रोकता है? तुम उससे पार
हो जाते हो।
गुरु तो सिर्फ
मध्य की कड़ी
है। और अगर
तुम गुरु के
साथ संबंध न
जोड़ पाओ, तो
तुम्हारी
हालत ऐसी होगी,
कि तम हिंदी
जानते हो, दूसरा
आदमी जापानी
जानता है। वह
जापानी बोलता
है, तुम
हिंदी बोलते
हो। दोनों के
बीच कोई
तालमेल नहीं
बनता। एक आदमी
चाहिए, जो
जापानी भी
जानता है और
हिंदी भी
जानता हो। जो
तालमेल बिठा
दे। गुरु
तालमेल बिठा
देता है।
पर
कबीर कहते
हैं--
गुरु
कृपाल कृपा जब
किन्हीं
पर
गुरु की कृपा
भी अर्जित
करनी होगी। वह
भी मुफ्त नहीं
मिल सकती।
मुफ्त कुछ
मिलता ही नहीं।
और जो लोग
मुफ्त लेने की
चेष्टा में होते
हैं, वे सदा
भिखारी रह
जाते हैं।
मुफ्त कुछ
मिलता ही
नहीं। धर्म तो
कभी नहीं।
वहां तो
तुम्हें अपने
को पूरा ही
दांव पर लगाना
पड़े, तो ही
मिल सकता है।
गुरु
की कृपा का
क्या अर्थ? जो शब्द
उपयोग किए
कबीर ने वे
बड़े अदभुत
हैं। गुरु
कृपाल कृपा जब
किन्हीं।
कहते हैं, गुरु
तो स्वयं कृपा
है, वह तो
कृपाल है। यह
पुनरुक्ति
क्यों? गुरु
कृपाल कृपा जब
किन्हीं।
गुरु तो स्वयं
कृपा है, अनुकंपा
है, करुणा
है। लेकिन वह
करुणा भी तुम
पर तभी बरस सकती
है, जब तुम
तैयार हो जाओ।
वह करुणा तो
सदा ही है गुरु
की, लेकिन
तुम अगर औंधे
रखे घड़े
हो, तो वह
करुणा तुम पर
बरसती भी रहे,
तो भी तुम न
भर पाओगे।
तुम्हें पता
भी नहीं चलेगा।
बुद्ध
ने कहा है, मुझे लोग जब
सुनने आते हैं
तो मैं जानता
हूं कि उसमें
कुछ तो ऐसे
हैं, जो
उल्टे घड़े
की तरह हैं।
उन पर कितना
ही डालो, उनके भीतर
कुछ पहुंच ही
नहीं सकता।
क्योंकि उनका
मुंह ही जमीन
पर टिका है।
कुछ
हैं, जो फूटे घड़े की तरह
हैं। मुंह
उनका चाहे
सीधा भी हो, डालो, छू भी नहीं
पाता कि बाहर
निकल जाता है।
कुछ
हैं, जो
डांवाडोल घड़े
की तरह
हैं--कंपित, चंचल। कुछ
पड़ता है, कुछ
गिर जाता है, कुछ बचता
है। पूरा कभी
नहीं बच पाता।
कुछ जो
सधे हुए, सीधे
घड़े की
तरह हैं। न तो
फूटे हैं, न
उल्टे हैं, न चंचल हैं।
उनमें जितना डालो, उतना
तो सुरक्षित
होता ही है, लेकिन उनके
सधे होने के
कारण वह बढ़ता
है। बीज डालो,
अंकुर हो
जाता है।
जितना डालो,
उतना ही
नहीं रहता, वह बढ़ता है।
घटता तो है ही
नहीं; विकासमान
होता है।
कबीर
कहते हैं, हिरदै कंवल विगासा।
हृदय का कमल
खिल गया। जब कृपावान
गुरु ने कृपा
की। गुरु तो कृपावान
है। वह तो सदा
कृपा कर ही
रहा है। लेकिन
जब एक शिष्य
राजी न हो जाए,
तब तक उससे
कृपा का संबंध
न जुड़ेगा।
कृपा बरसती
रहेगी, चांद
उगा रहेगा, तुम आंख बंद
किए बैठे
रहोगे।
गुरु
की कृपा को
पाने के लिए
क्या तैयारी
करनी होगी? उसको ही
समस्त धर्मों
ने श्रद्धा
कहा है। शिष्य
की श्रद्धा और
गुरु की कृपा
इनका मिलन
होता है। जब
शिष्य की
श्रद्धा पूरी
होती है, तब
गुरु की कृपा
पूरी हो जाती
है। एक तरफ
श्रद्धा
चाहिए, दूसरी
तरफ कृपा, तब
कहीं हृदय का
कमल खिलता है।
श्रद्धा
बड़ी दूभर घटना
है। बड़ी कठिन
है। करीब-करीब
असंभव। इसलिए
मैं धर्म को
असंभव क्रांति
कहता हूं। बड़ी
मुश्किल से
घटती है।
क्योंकि इसका
मौलिक आधार ही
असंभव जैसा
मालूम पड़ता है।
संदेह तो मन
के लिए
स्वाभाविक
है। श्रद्धा
मन के लिए
बिलकुल
अस्वाभाविक
मालूम होती
है। संदेह तो
सुरक्षा
मालूम पड़ता
है। श्रद्धा
में खतरा
मालूम पड़ता है, कि पता
नहीं!...और पता
तो है नहीं।
जिसके साथ जा
रहे हैं, वह
कहीं ले जाएगा
कि भटका होगा
जिसका हाथ
पकड़ा है, वह
हाथ पकड़ने
योग्य भी है
या नहीं, इसका
भरोसा कैसे आए?
अनुभव के
बिना भरोसा
नहीं हो सकता।
और धर्म कहता
है, श्रद्धा
के बिना अनुभव
नहीं हो सकता।
बड़ी असंभव बात
मालूम पड़ती
है: कैसे करें
श्रद्धा?
और
सारा जीवन
संदेह का
शिक्षण है।
जीवन भर हम संदेह
सिखाते हैं।
क्योंकि
संसार में
श्रद्धा अगर
करोगे तो लुट
जाओगे। यहां
तो संदेह ही
आत्मरक्षा
है। यहां तो
हर वक्त अपने
जेब को पकड़
रहना है। अपनी
तिजोड़ी
पर ताला डालना
है। द्वार पर
ताला लगाना
है। यहां तो
हर आदमी पर
संदेह रखना है, कि चोर है।
यहां तो हर
आदमी को मान
कर चलना है, कि दुश्मन
है, प्रतिस्पर्धा
है, प्रतियोगी
है। यहां तो
किसी को मित्र
नहीं मानना।
इस जीवन का तो
पूरा शास्त्र
ही मैक्वेवली
और चाणक्य का
है। मैक्येवली
ने लिखा है, अपने मित्र
का भी इतना
भरोसा कभी मत
करना, कि
उससे सभी
बातें कह दो।
मित्र से भी
इसी तरह बात
करना, जैसे
वह कभी हो
जानेवाला
दुश्मन है।
कभी भी मित्र
दुश्मन हो
सकता है। फिर
पछताना
पड़ेगा। तो मैक्येवली
कहता है, कि
मित्र से भी
ऐसी ही बातें
करना, जो
तुम अपने
दुश्मन से भी
कह सकते हो।
क्योंकि कल यह
दुश्मन हो
सकता है। और
दुश्मन के भी
खिलाफ ऐसी
बातें मत कहना,
जो तुम अपने
मित्र के
खिलाफ न कह
सको। क्योंकि
कौन जाने, कल
दुश्मन मित्र
हो जाए। फिर
पछतावा होगा।
चालाकी
शास्त्र है
संसार का।
दिल्ली के
राजनीतिज्ञों
ने जो नगरी
बसाई है
राजनीतिज्ञों
की, उसका नाम
चाणक्य नगरी
रखा है।
बिलकुल ठीक
रखा है।
क्योंकि सारे
बेईमान, चोर
सब वहां
इकट्ठे हैं।
वह
चाणक्य--नगरी
बिलकुल ठीक
है। चाणक्य
भारतीय मैक्येवली
है। ये दो
आदमी मैक्येवली
और चाणक्य
वैसे ही हैं
संसार के लिए;जैसे बुद्ध,
महावीर, कृष्ण,
क्राइस्ट, मोहम्मद
धर्म के लिए।
ये महर्षि हैं
संसार के।
किसी पर भरोसा
मत करना।
मैक्येवली
की किताब द प्रिन्स
का इतना
प्रभाव पड़ा युरोप में, सभी सम्राट
और राजा उससे
प्रभावित
हुए। क्योंकि
राजाओं के लिए
लिखी गई किताब
है, राजनीतिज्ञों
के लिए। लेकिन
प्रभाव इतना
पड़ा, कि मैक्येवली
को कोई आदमी
वजीर बनाने को
राजी नहीं था।
क्योंकि यह
आदमी इतना
चालाक है और
इतना जानकार
है। मैक्येवली
गरीब आदमी
मरा। उसको नौकरी
नहीं मिली।
हालांकि कोई
भी सम्राट
उसको नौकरी
देने को
उत्सुक हो
जाता, क्योंकि
वह आदमी सच
में चालबाज
था।
लेकिन
उसकी किताब का
तो प्रभाव
बहुत पड़ा। किताब
तो सबने पढ़ी।
लेकिन द्वार
पर भी उसने
दस्तक दी, लोगों ने
कहा क्षमा
करो। क्योंकि
तुम्हारी किताब
से हम सीखे,
उसी का
उपयोग कर रहे
हैं। तुम्हें
करीब लेना खतरनाक
है। तुम जरूरत
से ज्यादा
जानते हो आदमी
की बेईमानी के
संबंध में।
तुम्हारा
भरोसा नहीं
किया जा सकता।
संदेह
शास्त्र है
संसार का। और
मन की तैयारी
संदेह के लिए
की जाती है।
स्कूल, कालेज,
युनिवर्सिटी
संदेह सिखाते
हैं। विश्वास
तो कब करना, जब संदेह की
कोई जगह न रह
जाए। यह सूत्र
है संसार का।
लेकिन संदेह
की जगत तो सदा
रहेगी।
और
आत्मा के जगत
में तो संदेह
की जगह बहुत
बड़ी है। वहां
तो तुम अनजान
रास्ते पर जा
रहे हो। अनुभव
तुम्हारा कोई
भी नहीं है।
और श्रद्धा की
मांग है, खतरा
है। श्रद्धा
तुम कर न
सकोगे, अगर
संदेह के मन
को तुमने जारी
रखा।
इसलिए
श्रद्धा केवल
वे ही लोग कर
सकते हैं जो अति
दुःसाहसी
हैं। साहसी भी
नहीं कहता, अति दुःसाहसी।
जिन्होंने
जीवन का सब
राग-रंग देख
लिया। संदेह
भी करके देख
लिया और
चालाकी भी
करके देख ली और
पाया, कि
हाथ में राख
के सिवाय कुछ
भी नहीं लगता।
बेईमानी भी
करके देख ली, चोरी भी
करके देख लीख
सारी दुनिया
को दुश्मन मान
कर भी देख
लिया और पाया,
कि हाथ में
सिवा राख के
कुछ भी नहीं
लगता। जिनके
जीवन का विषाद
गहन हो गया है,
और
जिन्होंने
संदेह की
असमर्थता देख
ली, और अब
जो तैयार हैं
श्रद्धा में
छलांग लगाने
को।
श्रद्धा
तो अंधी है। संदेहवाले
व्यक्ति को
श्रद्धा अंधी
दिखाई पड़ेगी।
जो कूदने को
तैयार है, जो इस बात के
लिए राजी है, कि ज्यादा
से ज्यादा मौत
ही होगी। तो
जीवन भी देख
लिया, वहां
भी मौत के
सिवाय कुछ भी
न पाया। ज्यादा
से ज्यादा मिट
जाऊंगा।
तो जिंदगी देख
ली, वहां
मिटने के
सिवाय कुछ और
न हुआ। बहुत
जन्मों से
मिट-मिट कर
देख लिया जो
तैयार है, जो
इतना परिपक्व
है, कि जो
कहता है मिट
जाएंगे, ठीक
है। अब अंधे
होने की
तैयारी। अब
आंख से चल कर
देख लिया, कहीं
न पहुंचे। अब
आंख बंद करके
भी चल कर देख
लें। शायद
पहुंच जाए।
और बड़े
मजे की बात यह
है, कि जो आंख
बंद करके चलने
को तैयार होता
है, उसकी
भीतर की आंख
तत्क्षण खुल
जाती है।
श्रद्धा, संदेह
से देखने जाने
पर अंधी है और
अनुभव से देखी
जाने पर उससे
बड़ी कोई आंख
नहीं। वही
दृष्टि है।
लेकिन वह उसी
को मिलती है।
जो छलांग लेता
है।
तुम्हारी
दशा वैसी है, कि तुम नदी
के तट पर खड़े
हो, और मैं
तुमसे कहता
हूं कि आओ, उतर
आओ। तैरना सीख
लो। तुम कहते
हो, पहले
हम तैरना सीख
लेंगे। पानी
का क्या पता? खतरा हो, जान
चली जाए। बात
आपकी ठीक होगी,
लेकिन हम
पहले तैरना
सीख लेंगे, तभी पानी
में उतरेंगे।
बात
तुम्हारी भी
ठीक है।
क्योंकि खतरा
पानी में
उतरने का तभी
लेना चाहिए जब
तैरना आता हो।
संदेह का
शास्त्र यही
कहता है कि
पहले सीख लो, समझ लो, फिर
उतरो।
लेकिन
तुम तैरना सीखोगे
कैसे अगर तुम
पानी में
उतरने को राजी
ही नहीं? तुम्हें
पानी में
उतरना ही
पड़ेगा, बिना
तैरना सीखे।
क्योंकि
तैरना पानी
में उतरने से
ही जाएगा। धीरे-धीरे
उतरो, आहिस्ता,
आहिस्ता, उतरो, सम्हाल-सम्हाल
कर कदम रखो, पर उतरो।
पानी में तुम
उतर गए, तैरना
सीखने में
बहुत कठिनाई
नहीं है।
वस्तुतः
गुरु कुछ
ज्यादा नहीं
सिखाता। तुम
में साहस हो, तो गुरु की
शिक्षा बहुत
थोड़ी है। वह
तुम्हें तैरना
सिखा देता है।
तैरना तो सभी
को आता है। यह
तम जान कर
चकित होओगे।
तैरना सभी को
आता है, तुमने
सिर्फ अपनी
संभावना की
परीक्षा नहीं
की। तैरना तो
सभी को आता
है। सीखना
नहीं है, सिर्फ
स्मरण करना
है। पानी में
उतर कर तुम
हाथ-पैर
फेंकना शुरू
कर दोगे। वह
तैरना
है--थोड़ा
अकुशल। दो चार
दिन में कुशलता
से तुम हाथ
फेंकने
लगोगे। वह वही
का वही है।
पहले दिन जो
तुमने हाथ
फेंके थे, उस
हाथ फेंकने
में और आखिरी
दिन, जिस
दिन तुम कुशल तैराने हो
जाओगे, हाथ
फेंकने में
फर्क नहीं है।
थोड़ा
व्यवस्था का
फर्क है।
और वह
फर्क भी बहुत
गहरा नहीं है।
वस्तुतः थोड़ी
आस्था का फर्क
है। पहले दिन
आस्था न थी, घबड़ाहट में फेंके
थे। अब तुम
आस्थावान हो।
जानते हो कि
हाथ फेंकने से
बच जाते हो।
कोई खतरा नहीं,
पानी कितना
ही गहरा हो। तैरनेवाले
को क्या फर्क
पड़ता है, कि
पानी दस गज
गहरा है कि दस
मील गहरा है? कोई फर्क
नहीं पड़ता। एक
बार कला आ गई, फिर तो हाथ
भी फेंकने की
जरूरत नहीं रह
जाती। आदमी
ऐसे ही पड़ा रह
जाता है पानी
में, तिरता है; तैरता
भी नहीं। क्या
हो गया? आस्था
बड़ी गहन हो
गई। अब वह
जानता है कि
डूब तो सकते
ही नहीं।
अब यह
बड़े मजे की
बात है, कि
आदमी जिंदा
आदमी हो, तैरना
न जानता हो, तो डूब कर मर
जाता है।
लेकिन जब मर
जाता है तो पानी
के ऊपर आ कर
तैरने लगता
है। मुर्दे भी
जानते हैं, कैसे तैरना।
और जिंदा आदमी
डूब जाता है।
मुर्दों
को कोई कला
आती है, जो जिंदों को
नहीं आती।
मुर्दे का
संदेह समाप्त
हो गया। मुर्दे
की घबड़ाहट
मिट गई।
मुर्दा और
क्या होगा? जो होना था, हो चुका। अब
यह नदी भी
क्या करेगी? अब यह सागर
भी क्या मिटना
खतम हो गया।
तत्क्षण नदी
उसे ऊपर उठा
देती है।
क्योंकि
तुम्हारे
शरीर में इतनी
वायु है ही, कि तुम पानी
में तिर
सकते हो।
लेकिन
तुम्हें
सिर्फ स्मरण
नहीं है। तुम
पानी से हल्के
हो। क्योंकि
तुम्हारे रोएं-रोएं
में वायु भरी
है। तुम एक
गुब्बारे की तरह
हो, जो
पानी में तिर
जाते है बिना
हाथ पैर फड़फड़ाए।
वस्तुतः जो
लोग डुबते हैं,
वे तैरना न
जानने की वजह
से नहीं, जरूरत
से ज्यादा हाथ
पैर फड़फड़ा
देते हैं। उसी
में डुबकी खा
जाते हैं।
पानी मुंह में
भर जाता है।
श्वास
अवरुद्ध हो
जाती है, प्राण
निकल जाते
हैं। हर एक
तैरना जान कर
ही पैदा हुआ
है।
यह जो
मैं तुमसे कर
रहा हूं, इसलिए
कि ध्यान को
तुम जानते हुए
ही पैदा हुए हो।
समाधि तुम्हारा
स्वभाव है।
सिर्फ स्मरण!
थोड़ी श्रद्धा
करो। और जो
समाधि के सागर
में तुम्हें
बुला रहा हो, उसके पास
जाओ। छोड़ो
संदेह, बहुत
दिन तक किनारे
और संदेह से
बंध रहे। उतरो
पानी में।
उतरते ही
श्रद्धा बढ़ेगी।
लेकिन उतरने
के पहले भी
श्रद्धा
चाहिए। फिर श्रद्धा
प्रगाढ़
होगी। मजबूत
होगी। एक घड़ी
आती है, तुम
हंसोगे। तुम
हंसोगे और तुम
कहोगे यह तो
बिना गुरु के
भी हो सकता
था।
मेरे
गांव में जो
व्यक्ति
लोगों तो
तैरना सिखाते
थे, वे कुछ
खुद भी बड़े
तैराक न थे।
उन्होंने ही
मुझे भी तैरना
सिखाया था। और
उनकी कला कुल
इतनी थी कि
उठा कर बच्चे
को फेंक देते
थे पानी में।
उन्होंने मुझे
भी फेंक दिया
था। लेकिन वे
किनारे पर खड़े
हैं, इसलिए
कोई डर न था।
हाथ पैर फड़फड़ा
कर मैं वापिस
आ गया।
उन्होंने
दुबारा फेंका,
आस्था बढ़ती
गई। वे कभी
पानी में उतरे
नहीं, कभी
उन्होंने
मुझे हाथ पकड़
कर सिखाया
नहीं। सिर्फ
किनारे से
मुझे पानी में
फेंका। लेकिन
घबराहट में
डुबकी खाने
में आदमी
भागता है वापस
किनारे की
तरफ।
पर वे
खड़े हैं।
जरूरत होगी, तो बचा
लेंगे। वे खड़े
हैं इसलिए कोई
चिंता नहीं।
उन्होंने सैकड़ों
बच्चों को
तैरना सिखायें।
बहुत
छोटे-छोटे
बच्चों को
तैरना
सिखाया। और
कभी वे नीचे
उतर कर किसी
को सिखाने
नहीं गए। वे
किनारे पर
बैठे रहते।
अपना कपड़ा
धोते रहते, या मालिश
करते रहते
शरीर की, और
उठा कर बच्चे
को फेंक देते
और देखते रहते,
कि बच्चा आ
रहा है। बस
इतना भरोसा, कि कोई
बचाने को
मौजूद है, काफी
है।
श्रद्धा
भीतर जन्म जाए, तो गुरु की
कृपा तो सदा
मौजूद है।
कृपा और श्रद्धा
का मिलन हो
जाए, तो
क्रांति की
चिनगारी पैदा
हो जाती है।
असंभव
क्रांति भी
घटती है।
इसलिए मैं
असंभव कहता हूं
तो यह मत
समझना, कि
संभव नहीं है।
असंभव कहता
हूं सिर्फ
इसलिए, अति
दूभर है, अति
कठिन है।
करीब-करीब
असंभव है।
घटती तो है, असंभव भी
घटता है।
असंभव भी संभव
है।
गुरु
कृपाल कृपा जब
किन्हीं, हिरदै कंवल विगासा।
भागा
भ्रम दसों
दिशि सू)या।
एक
क्षण में सारा
भ्रम टूट गया।
दसों दिशाएं सूझने
लगीं।
परम
ज्योति परगासा--परम
ज्योति प्रकट
हुई।
एक
क्षण में घट
जाती है घटना।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, जन्मों-जन्मों
का कर्मों का
जाल है। आप
कहते हैं, एक
क्षण में घट
जाती है घटना,
यह कैसे
घटेगा? पाप-पुण्य
जो किए हैं, उनका क्या
होगा?
वे सब
तुमने सपने
में किए हैं।
वे सब तुमने
बेहोशी में
किए हैं, उसकी
कोई
जिम्मेदारी
तुम पर नहीं
है। एक आदमी
शराब पीकर
किसी को मार
दे, अदालत
भी क्षमा कर
देती है। एक
आदमी पागल हो,
पत्थर फेंक
कर किसी की
खिड़की तोड़ दे,
अदालत भी
माफ कर देती
है। छोटा
बच्चा चोरी कर
ले, अदालत
क्षमा कर देती
है। बेहोश का
भी कोई दायित्व
है? और
परमात्मा
बेहोश को
क्षमा न करे, तो अन्याय
हो जाए। मैं
तुमसे कहता
हूं, कि
कोई कर्म बाधा
नहीं है। एक
क्षण में तुम
जाग सकते हो।
तुम यह
मत कहो, कि
मैं रात भर
सोया रहा, तो
एक क्षण में
तुम मुझे
उठाओगे कैसे?
रात भर सोया
रहा, तो
उठाने में
इतना ही तो
वक्त लगेगा, जितना मैं
सोया रहा।
नींद गहरी हो गई।
लेकिन हम
जानते हैं कि
एक झटके में
उठाए जा सकते
हैं। नींद
बाधा नहीं
बनेगी। तुम
जन्मों-जन्मों
से सोए रहे हो,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। सिर्फ
तुम राजी हो जाओ,
कि कोई
तुम्हें
हिलाए, तो
तुम श्रद्धा
से उठ जाओ।
भागा
भ्रम दसों
दिशि सूस्या, परम ज्योति परगासा।
एक
क्षण में खिल
गया हृदय का
कमल। परम
ज्योति प्रकट
हुई। एक क्षण
में ही घट
जाता है। जैसे
चकमक को रगड़ो, और एक क्षण
में आग पैदा
हो जाती है।
और यह हो सकता
है, कि
चकमक के दोनों
पत्थर करोड़ों
साल से पड़े
रहे हों, और
आग पैदा न हुई
हो। करोड़ों
साल से दोनों
पत्थर पास ही
पास पड़े रहे
हों, टकराए न हों, तो
क्या तुम
सोचते हो, करोड़ों
वर्ष ने कोई
बाधा डाल दी? अब तुमको
करोड़ों वर्ष
तक रगड़ना
पड़ेगा, तब
कहीं आग पैदा
होगी? आग
तो एक क्षण
में पैदा हो
जाएगी।
करोड़ों वर्ष
तक पैदा न हुई,
क्योंकि
रगड़ न हुई।
श्रद्धा और
कृपा की रगड़
हो जाए, बस।
वे दो चकमक के
पत्थर
हैं--तत्क्षण...!
...परम
ज्योति परगासा
मतक उठया धनक
कर लीये..
पर जो
कल तक मरा हुआ
पड़ा था, वह
पुनरुज्जीवित
हो गया
परम-ऊर्जा से
भरा हुआ, धनुष-बाण
लिए। जो कल तक
मेरा हुआ पड़ा
था...
मृतक उठया धनक
कर लीये, काल अहेड़ी
भागा।
ओर
उसकी जीवन
ऊर्जा को
देखकर मृत्यु
भाग खड़ी हुई।
उदया
सूर निस किया पयाना।
सुबह
हो गई सूरज
उगा रात्रि
भाग गई।
रात्रि ने एक
क्षण भी रुक
कर चेष्टा
नहीं की, कि
थोड़े पैर जमा
कर खड़ी रहे।
रात ने यह भी न
कहा, कि यह
कैसा अन्याय
है! सदा से मैं
यहां हूं। और अचानक
तुम आ गए आज? मेहमान की
तरह ठीक, लेकिन
मुझे घर से तो
मत भगाओ।
मैंने
सुना है, बड़ी
पुरानी कथा है,
कि अंधेरे
ने जाकर
परमात्मा को
कहा कि तुम्हारे
सूरज को तुम
रोक लो।
सदा-सदा से
मुझे परेशान
करता रहा है।
मैंने इससे
कभी कोई
छेड़छाड़ नहीं
की। ऐसा कभी
कुछ मेरे ऊपर
नहीं, कि
मैंने इसे कभी
सताया है या
परेशान किया
है, या कोई
दुख दिया।
लेकिन मैं सो
भी नहीं पाता
विश्राम भी
नहीं कर पाता
और यह सुबह आ
कर परेशान कर
देता है। और
फिर मुझे
भगाता रहता है
दिन भर।
परमात्मा
ने अंधेरे को
कहा कि बात
ठीक है, लेकिन
तुम दोनों का
साथ-साथ मौजूद
होना जरूरी है;
तभी फैसला
किया जा सकता
है। क्योंकि
सूरज की भी तो
बात सुननी
पड़ेगी, वह
क्या कहता है।
रात की सुन ली,
अंधेरे की
सुन ली, सूरज
की भी सुननी
पड़ेगी।
कहते
हैं, इस बात को
कई-कई कल्प, महाकल्प बीत
गए, अंधेरा
अब तक सूरज को
लेकर अदालत
में मौजूद नहीं
हो पाया।
क्योंकि यह हो
ही नहीं सकता।
ये दोनों साथ
नहीं हो सकते।
इसलिए फैसला
अटका है। फाईल
में पड़ा है।
वह कभी हल
नहीं होगा। वह
फाईल में ही
रहेगा। वह
फाईल दिल्ली
की फाईल है।
यह हो ही नहीं
सकता। कैसे सूरज
को अंधेरा
लेकर मौजूद
होगा? और
स्वभावतः जब
तक दोनों दल
मौजूद न हों, दोनों पक्ष
मौजूद न हों, परमात्मा भी
कैसे निर्णय
करे? सूरज
से भी तो
पूछना जरूरी
है।
ऐसी
मैंने सुनी है
अफवाह, कि
उसने सूरज से
कभी एकांत में
पूछा, अदालत
में मुकदमा है,
कभी न कभी
मौजूद होना ही
पड़ेगा, लेकिन
मैं तुमसे
निजी एकांत
में पूछता हूं,
कि क्यों
अंधेरे के
पीछे पड़े हो? क्यों
परेशान करते
हो? सूरज
ने कहा, कौन
अंधेरा? मैं
तो जानता भी
नहीं। मेरा
कभी मिलना
नहीं हुआ।
मेरी पहचान ही
नहीं है, किस
अंधेरे की बात
कर रहे हैं? मैंने कभी
अंधेरे को
देखा नहीं। सब
जगह घूम आया
हूं। अंधेरे
से मेरी कोई
मुलाकात न
हुई। अगर आपकी
मुलाकात कभी
हो जाए, तो
मुझे मिला
देना।
परमात्मा
भी वह नहीं कर
सकता। कहते
हैं, परमात्मा
सभी कुछ कर
सकता है, लेकिन
यह तो नहीं कर
सकता। कहते
हैं, वह
सर्व
शक्तिशाली
है। शक की बात
है। यह तो नहीं
कर सकता, कि
अंधेरे को
सूरज के सामने
खड़ा कर दे।
कौन करेगा?
अंधेरा
सूरज का अभाव
है। तो अभाव
और भाव एक साथ
तो नहीं हो
सकते। मैं
यहां हूं, या नहीं
हूं। दोनों तो
एक साथ नहीं
हो सकता इस कुर्सी
पर। या हूं और
या नहीं हूं।
दोनों एक साथ
कैसे होंगे? अंधेरा सूरज
का अभाव है, गैरमौजूदगी
है, अनुपस्थिति
है, एबसेंस
है। तो सूरज
की मौजूदगी और
सूरज की
गैरमौजूदगी
दोनों तो
साथ-साथ नहीं
हो सकती।
जैसे
ही भीतर का
सूरज उगता है, वह जो
अंधेरी रात थी
जन्मों-जन्मों
की, भाग
जाती है।
उदया
सूर निसा
किया पयाना, सोवत थें
जब जागा।
जब जगा
कि दिया गुरु
ने, नींद
टूटी, सब
अंधेरा, सब
रात, सब
पाप, सब
पुण्य सब
कर्मों का जाल
जा चुका। एक
क्षण में सभी
दिशाएं दिखाई
पड़ने लगी।
अविगत
अकल अनूपम
देख्या--
जो कभी
नहीं देखा था।
जिसे कभी जाना
न था। अज्ञात, अविगत, जो
पूर्ण है, समग्र
है, परिपूर्ण
है, अकल्प
है, जो
अद्वितीय है,
बेजोड़ है, उसे
देखा।
कहंता कहया न जाई
अब उसे
कहना बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि उस
जैसा कोई भी
नहीं, जिससे
तुलना हो सके।
तुमको
अगर मैं कहूं
गुलाब के फूल
के संबंध में
कुछ। हो सकता
है, तुमने
गुलाब का फूल
न देखा हो, तो
मैं किसी और
फूल की तुलना
कर सकता हूं।
लेकिन तुमने
फूल ही न
देखें हों, तो फिर
गुलाब के फूल
को समझाना
मुश्किल है।
हो
सकता है, तुमने
कभी शक्कर न
चखी हो लेकिन
गुड़ चखा हो, तो समझाया
जा सकता है।, कि शक्कर
गुड़ का ही
शुद्धतम रूप
है। लेकिन तुमने
मिठास ही न
जानी हो, न
शक्कर, न
गुड़ न मधु, तुमने
मिठास ही न
जानी हो, तो
फिर समझाना
मुश्किल है।
परमात्मा
अकेला है।
जिन्होंने
जाना, जाना;
और नहीं
जाना, नहीं
जाना। दोनों
के बीच सब
सेतु टूट जाते
हैं। भाषा कामन
हीं आती। किस
ढंग से समझाएं?
कोई उपमा
काम नहीं
करती। कोई
प्रतीक
सार्थक नहीं
मालूम होता।
अविगत
अकल अनुपम देख्या, कहंता कहया न
जाई।
सैन
करे मन ही मन रहसे, गूंगे
जान मिठाई।
गूंगे
ने मिठाई खा
ली है। हाथ से
सैन करता है। मन
ही मन स्वाद
लेता है। हाथ
का इशारा करता
है, कि गजब की
चीज है। लेकिन
सैन से कहीं
मिठास का पता
चलता है? सभी
संत सैन करते
रहे हैं।
इशारा करते
हैं, भीतर
स्वाद भरा है।
सब तरफ से
तुम्हें
समझाते हैं।
हर तरह से
उपाय करते हैं,
कि किसी तरह
बात तुम तक
पहुंच कर
तुम्हारे कान
में पड़ जाए।
क्योंकि तुम
भी तड़फ
रहे हो उसी
प्यास के लिए।
वही पानी
तुम्हें भी
चाहिए। और
पानी किसी को
मिल गया हो।
वह इशारे करता
है। गूंगे के
इशारे। स्वाद
भीतर भरा है, तृप्ति
भरपूर है। आकंठ
पूरा हो गया
है, लेकिन
कैसे तुमसे
कहे?
सैन कर
करे मन ही मन रहसे।
लेकिन जो है
वह तो भीतर रह
जाता है। सैन
में पहुंच
नहीं पाता।
उंगली में आ
नहीं पाता
स्वाद। अनुभव
उंगली में उतर
ही नहीं पाता
है।
...गूंगे
जान मिठाई।
पहुप
बिना एक तरुवर
फलिया, बिन कर तूर
बजाया।
बिना
फूल के एक
वृक्ष में फल
आ गए हैं। यह
बड़ा रहस्यपूर्ण
बचन है। इनको
कबीर की उलटबांसिया
कहा गया है।
ये कबीर के
अनूठे शब हैं।
इन शब्दों के
द्वारा कबीर
ने यह कहने की
कोशिश की, जो मैं थोड़ी
देर पहले
तुमसे कह रहा
था; कि उस
परमात्मा का
अनुभव अकारण
है। तुम्हारे
किसी उपाय से
नहीं घटता।
कार्य-कारण की
शृंखला टूट
जाती है।
पहुप
बिना एक तरुवर
फलिया।
बिना
फूल के किसी
वृक्ष में फल
नहीं लग सकते।
क्योंकि फूल
पहली अवस्था
है। फिर फूल
ही तो फूल में
रूपांतरित
होता है। फूल
कारण है, फल
कार्य है।
पहुप
बिना एक तरुवर
फलिया।
कबीर कह रहे
हैं, यहां सब
उलटा हो गया
है मामला।
यहां बांसुरी
उलटी बज रही
है। यहां
मैंने कुछ
किया नहीं। और
सब कुछ हो गया
है। कारण था
नहीं, और
कार्य हो गया
है। फूल लगे
ही हनीं
और फल आ गया
है।
पहुप
बिना एक तरुवर
फलिया, बिन कर तूर
बजाया
अब कोई
तुरही बजाए
तो हाथ तो हैं
ही नहीं, जिनमें
मैं तुरही को
पकड़ लूं। मेरे
कारण नहीं हो
रहा है। मेरे
हाथों से नहीं
हो रहा है, हो
रहा है। मैं
ज्यादा से
ज्यादा
साक्षी हूं। कर्ता
नहीं हूं।
नारी
बिना नीर घट
भरिया।
समझ
में आता है, कि नारी एक
घट लेकर जाती
है, भरती
पानी, डुबाती
घड़े को पानी
में, लेकिन
नारी तो
चाहिए। कबीर
कहते हैं, यहां
मैं बड़ी अनघट
घटना देख रहा
हूं। नारी तो
दिखाई नहीं
पड़ती, भरनेवाला
तो दिखाई नहीं
पड़ता और घट भर
गया है। कर्ता
दिखाई नहीं
पड़ता और घटना
घट गई है।
सहज समाधें
सुख में रहिबो, कौटि कलप
विश्राम।
जब
बिना कर्ता के
समाधि फलित हो
जाती है, तब
सहज-समाधि। जब
तुम्हारे
बिना किए हो
जाती है।
नारी निबा नीर
घट भरिया, सहज रूप सो
पाया
अब उसे
पा लिया जो
सिर्फ सहज रूप
से ही मिलता है।
क्योंकि वह
मिला ही हुआ
है। उसे पाने
के लिए कुछ भी
करना नहीं है।
करने की
भ्रांति छोड़ देनी
है। कर्ता को
थोड़ा शांत
करना है। बस, इतना ही
करना है।
कर्ता को कहना
है, ज्यादा
मत कर। बैठे।
तेरे करने से
उपद्रव हो रहा
है, कर ही
मत तू, तू
विश्राम कर।
थोड़ी देर बिना
किए रह जाना
है। और जो
व्यक्ति भी
बिना किए रह
जाता है, उसके
जीवन में सहज
समाधि फलित
होने लगती है।
अकर्म
ध्यान है।
अक्रिया
ध्यान है। कुछ
न करने की
अवस्था को
उपलब्ध कर
लेना ध्यान
है। फिर वर्षा
शुरू हो जाती
है। मेघ तो
घिरे ही थे।
आषाढ़ तो सदा
से ही था। एक
क्षण को भी वे
गए न थे। तुम
प्यासे थे तो
अपने कर्ता के
कारण, अहंकार
के कारण। तुम
करने में लगे
थे। तुम परमात्मा
के सामने
दिखाने में
लगे थे, कि
मैं कर के
दिखा दूंगा।
वहीं भूल हो
गई थी। छोड़ो
कर्तापन अकर्तापन
से राजी हो
जाओ।
देखत
कांच भया तन
कंचन--
और कल
तक जो शरीर
कांच का था, इस
परम-प्रकाश
में अचानक
स्वर्ण का हो
गया। अनघट
घटने लगा।
बिना
बानी मन माना।
और
किसी ने समझाया
न, किसी ने
सांत्वना न दी,
किसी ने
संतोष न
बंधाया, किसी
ने तर्क-विचार
न किया, और
मन मान गया।
और लाख
समझाने वाले
मिले, और मन
न माना। और मन
तर्क उठाए चला
गया। और लाख सिद्धांत
जांचे, संदेह न
मरा। लाख
शास्त्र पढ़े,
लेकिन भीतर
की शंका, दुविधा
न गई। और आज कोई
समझ नहीं रहे
हैं। बस आंख
खुल गई, नींद
टूट गई।
...बिना
बानी मन माना।
उड़या
विहंगम खोज न
पाया--और
पक्षी उड़ गया।
कहां, पता नहीं।
किस दिशा में,
पता नहीं।
क्योंकि यह
पक्षी शून्य
का है। इस पक्षी
में कोई
अहंकार नहीं,
कोई रूप
नहीं, कोई
नाम नहीं।
उड़या
विहंगम खोज न
पाया, ज्यूं जल जलही
समाना। जैसे
बूंद सागर में
गिर गई और एक
हो गई; अब
कहां खोजूं?
हेरत हेरत हे
सखि, रहया कबीर हिराई।
बूंद समानी
समुंद में सो
कत हेरि
जाई।
उड़या
विहंगम खोज न
पाया, ज्यूं जल जली ही
समाना।
परमात्मा हैं
घटनाएं--तुम्हारा
खोना, और
उसका होना। जब
तक तम हो, वह
न हो पाएगा। मिटो! वही
पा लेने का
सूत्र है।
उड़या
विहंगम खोज न
पाया, ज्यूं जल जलही
समाना।
पूज्या
देव बहुरि
नहिं पूजै
बहुत
पूजे देवता, मंदिर, मस्जिद,गुरुद्वारे,
अब नहीं। अब
उसकी पूजा? तो पूज्य और
पुजारी दोनों
एक हो गए।
...न्हाये उदिक न
जाऊं
बहुत तीर्थयात्राएं
की। बहुत
स्नान किए गंगाओं
में। अब कोई
जरूरत न रही।
परम स्नान हो
गया। परमत्तीर्थ
मिल गया।
भागा
भ्रम ये कहीं कहंता--सारा
भ्रम, सारा
अज्ञान, सारी
माया भागी यह
कहते हुए--आए
बहुरि न आऊं।
बहुत आए हम
तेरे पास। अब
न आएंगे।
भागा
भ्रम ये कहि
कहंगता, आए बहुरि न
आऊं।
अब न
आएंगे। बात
खतम हो गई।
भ्रम भाग गया, यह कहते हुए,
कि अब न
लौटूंगा।
बुद्ध
को ज्ञान हुआ।
बुद्ध ने जो
पहले वचन कहे
वे ये थे--कहा, अपने अज्ञान
से, कहा
अपनी वासनाओं
से, कहां
अपने वासना के
मूल काम से, कि अब तू
विश्राम कर
सकता है। अब तुझे
दुबारा आने की
जरूरत नहीं।
तूने बहुत घर मेरे
लिए बहुत बार
बनाए। अब तुझे
घर बनाने की जरूरत
नहीं। अब तू
मुक्त है। अब
तू जा सकता है।
अब तेरी चाकरी
समाप्त हुई।
धन्यवाद! तूने
बहुत शरीर
मेरे लिए धारण
किए और बहुत नामरूप।
अब कोई जरूरत
न रही।
कबीर
दूसरी तरफ से
वही बात कह
रहे हैं
भागा
भ्रम ये कहीं कहंता, आए बहुरि न
आऊं।
खुद
भ्रम भागने
लगा दूर और
कहता गया
भागते भागते, बहुत बार आए
अब न आऊंगा।
आपै
में तब आपा निरख्या, अपन पै आपा
सू)या
कुछ और
बचा नहीं। खुद
ही देखनेवाला, खुद ही
दिखाई पड़नेवाला,
खुद ही
दर्पण के
सामने खड़ा, खुद ही
दर्पण, खुद
ही दर्पण में
बनी तस्वीर।
बस, खुद के
सिवाय कुछ न
पाया। जिस
क्षण तुम पा
लोगे कि खुद
के सिवाय कुछ
नहीं, उसी
क्षण खुदा को
पा लिया। खुदा
शब्द बड़ा प्रतिकार
है। कबीर के
इस वचन में
खुदा की
व्याख्या है।
खुदा का अर्थ
है, खुदी
को इस भांति
पा लेना, कि
उसके सिवाय
कुछ भी न बचे।
स्वयं को इतना
जान लेना
समग्रता में,
कि उस स्वयं
में समा जाए।
आपै
में तब आपा निरख्या, अपन पै आपा
सु)या
आपै कहत सनत
पुनि अपना...
अब कोई
दूसरा है ही
नहीं। खुद रहे
हैं, खुद ही
सुन रहे हैं।
सैन
करे मनहि
मन रहसे।
गूंगे जानि
मिठाई।
आपै कहत सुनत
पुनि अपना, अपन पै आपा
सू)या।
अपने
परचे लागी
तारी, अपन
पै आप समाना।
कहे
कबीर जो आप विचोर
मिट गया आवन
जाना।
और
जिसने इस आप
को पहचान लिया, इस आत्मा को,
उसका
आना-जाना मिट
गया। अपने
परचे लागी
तारी--
तारी
कबीर का बड़ा
प्यारा शब्द
है और बड़ा
सूक्ष्म। बड़ा
अर्थपूर्ण, बड़ा रहस्य
से भरा हुआ।
तारी ऐसी नींद
का नाम है, जब
तुम सोये भी
नहीं होते, जागे भी
नहीं होते, तब तारी लग
गई। ऐसा कहते
हैं। भीतर तुम
जागे भी रहते
हो। बाहर तुम
सोए भी रहते
हो। शरीर विश्राम
में होता है, लेकिन चेतना
का दिया जलता
रहता है। तारी,
निद्रा और
जागरण के ठीक
मध्य की
अवस्था है। जहां
जागरण है पूरा,
और निद्रा
का विश्राम भी
पूरा।
पतंजलि
ने योगसूत्रों
में कहा, कि
समाधि
सुषुप्ति
जैसी है, नींद
जैसी है, सिर्फ
एक फर्क के
साथ, कि
नींद में
बेहोशी है और
समाधि में होश
है।
तारी, कबीर का
शब्द है। तारी
का मतलब है, जागे भी
पूरे, विश्राम
से भरे भी
पूरे। और तारी
शब्द में एक तरह
की मादकता का
भी भाव है।
जैसे कोई शराब
पी गया--परमात्मा
की शराब! एक
गहन नशा छा
गया।
उमर खैयाम की रुबाइयात, कबीर की
तारी की पूरी
व्याख्या है।
जिसमें उमर खैयाम
मधुशाला की
बात करता रहता
है वह सूफी
ग्रंथ है। और
सारे
अनुवादों ने
उसे भ्रष्ट कर
दिया है।
पश्चिम में फिटजराल्ड
ने उसका
अनुवाद किया। फिटराल्ड
ने समझा, कि
यह शराब की ही
बात है।
यह
शराब की बात
नहीं है। यह
तो परमात्मा
के नशे की बात
है। और उमर खैयाम
एक सूफी फकीर
है, जिसने
शराब कभी छुई
नहीं। लेकिन
शब्द भ्रांति
में डाल देते
हैं। फिर फिटजराल्ड
के अनुवाद से
सारी दुनिया
में अनुवाद
हुए। और
मधुशाला, मधुशाला
मालूम होने
लगी। पियक्कड़
सच में ही पियक्कड़
मालूम होने
लगे। लेकिन
बात खो गई।
बात कुछ और ही
थी।
यह
किसी और ही
मधुशाला की बात
थी। यह किसी
और ही मधु और
साकी और
किन्हीं और ही
पियक्कड़ों
की बात
थी--परमात्मा
के पियक्कड़!
कबीर के शब्द
तारी में बड़ा
रहस्य है।
समाधि! सुषुप्ति
जैसी। लेकिन
इतना ही नहीं, कि जागरण और
नींद का
विश्राम; पर
एक मस्ती
भी--एक विधायक
मस्ती, एक
नशा, एक
आनंद, एक
अहोभाव।
अब मैं
पाइबो रे पाइबो रे
ब्रह्मज्ञान।
अपने परिचै
लागी तारी, अपन पै आप
समाना।
कहे
कबीर जो आप
विचारे, मिट
गया आवन जाना।
आज
इतना ही।
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