सारसूत्र
:
सुरति
करौ मेरे
सांइयां, हम हैं भवजल
मांहि।
आपे
ही बहि जाएंगे, जे नहिं
पकरौ बाहिं।।
अवगुण
मेरे बापजी, बकस गरीब
निवाज।
जे
मैं पूत कपूत
हों, तउ
पिता को लाज।।
मन
परतीत न प्रेम
रस, ना कछु तन
में ढंग।
ना
जानौ उस पीव
सो, क्यों कर
रहसी रंग।।
मेरा
मुझमें कुछ नहीं, जो कछु है सो
तोर।
तेरा
तुझको सौंपते, क्या लागत
है मोर।।
अहंकार
है सारी
पीड़ाओं का
स्रोत, नरक
का द्वार।
लेकिन तुमने
समझ रखा है, कि वही
स्वर्ग की
कुंजी है। और
अहंकार को सिर
पर लेकर तुम
लाख उपाय करो,
सुख की कोई
संभावना नहीं
है, न
शांति का कोई
उफाय है, न
स्वर्ग का
द्वार खुल
सकता है।
अहंकार के लिए
द्वार बंद है,
द्वार के
कारण नहीं, अहंकार के
कारण ही बंद
है।
और
अहंकार
बिलकुल अंधा
है। उसे दिखाई
भी नहीं पड़ता।
और उस अंधेपन
में जिसे
मिटाना है, उसे तुम
बचाते हो।
जिसे छोड़ना है,
उसे तुम
पकड़ते हो।
जिसे फेंकना
है, उसे
तुम सम्हालते
हो।
हीरे-मोती
तो फेंक देते
हो, कूड़ा-करकट
बचा लेते हो।
जो असार है, उसे तो
सम्हाल कर
रखते हो, जो
सार है उसकी
खबर भूल जाती
है।
रोज ही
यह मुझे अनुभव
होता है।
क्योंकि रोज
ही लोग आते
हैं। उनकी
पीड़ा है, उनका
कष्ट है। और
उनका कष्ट
वास्तविक है।
लेकिन कष्ट
मिटता नहीं, पीड़ा जाती
नहीं, अशांति
खोती नहीं। और
जब मैं उनसे
बात करता हूं,
तो पाता हूं
कि वे उसे बचा
रहे हैं।
कल रात
ही एक महिला
आई। पढ़ी-लिखी
है, विश्वविद्यालय
में प्रोफेसर
है, पी.एच.डी.
है, सुसंस्कृत
है। उसने मुझे
कहा, कि
मेरे मन में
बड़ी उदासी है।
उदासी जाती
नहीं। तो
मैंने पूछा, डाक्टरों को
पूछा? डाक्टर
क्या कहते हैं?
उस
महिला ने कहा, "डाक्टर!
डाक्टर क्या
ठीक
करेंगे!"जैसे
कि बीमारी
इतनी विशिष्ट
है कि
डाक्टरों का
क्या वश कि
ठीक कर सकें!
जिस ढंग से
उसने कहा, जिस
भाव-भंगिमा से
कहा, कि
डाक्टर क्या
करेंगे; उसमें
ऐसा लगा, कि
उसकी बीमारी
डाक्टरों के
लिए एक चुनौती
है। और डाक्टर
न कर पाएंगे, क्योंकि वह
करने न देगी।
डाक्टरों और
उसके बीच जैसे
कोई संघर्ष, कोई
प्रतिस्पर्धा
चल रही है।
और
उसने कहा, कि संतों के
यहां भी गई; कुछ हुआ
नहीं। अब आपके
चरणों में आई
हूं।
संतों
को भी हरा
चुकी है! अब वह
मुझको हराने
आई है। कहती
तो यही है ऊपर
से, कि आपके
चरणों में आई
हूं; लेकिन
भीतर भाव यह
है, कि एक
मौका आप को भी
देना उचित
है--एक अवसर!
चरणों में
नहीं आई है, सेवा लेने
आई है। उससे
मैंने कहा, रुक जाओ दस
दिन ध्यान कर
लो।
वह
संभव नहीं है।
अभी तो
विश्वविद्यालय
खुलने के करीब
है।
अगर
बीमारी सच में
बीमारी है और
कष्ट दे रही है, तो आदमी
हजार उपाय
करेगा उसे दूर
करने का। लेकिन
यह महिला उसे
बचाती मालूम
पड़ती है।
मैंने
कहा, ध्यान
करो। उसने कहा,
एक दिन कल
करके देखा!
बीमारी
को तो
जन्मों-जन्मों
तक आदमी
इकट्ठा करता
है।
ध्यान को एक
दिन में करके
देख लेता
है!मैंने उससे
कहा, तो ऐसा
करो, जब तक
न आ सको--जब आ
सको तो दस दिन
का वक्त निकाल
कर आ जाओ, ताकि
पूरा ध्यान का
शिविर कर सको।
जब तक न आ सको
तो मैंने
जो-जो कहा है, उसे पढ़ जाओ।
उसने
कहा, पढ़ने से
क्या होगा? आपका
आशीर्वाद
चाहिए।
जैसे
कि आशीर्वाद
मांगे जा सकते
हैं!
आशीर्वाद
मिलते हैं, मांगे नहीं
जा सकते।
आशीर्वाद
पाने की पात्रता
चाहिए।
मांगने से
उनका कोई
संबंध नहीं
है। तुम जब
तैयार होते हो,
तब आशीष बरस
जाती है, छीनी-झपटी
नहीं जा सकती।
लेकिन
ऐसा लगता है, महिला जिद
करके बैठी है।
उसकी उदासी
कोई मिटा न सकेगा।
और जब तुम ही
जिद करके बैठे
हो, तो कौन
मिटा सकेगा? और असली
सवाल मिटाने
का नहीं है।
उदासी क्यों है?
उदासी
इसीलिए होगी,
कि अहंकार
ने बड़ी
महत्वाकांक्षा
की होगी, वह
पूरी नहीं हो
पाई है।
अहंकार ने बड़ी
सफलताएं चाही
होंगी वह पूरी
न हो पाई, अहंकार
ने बड़े आभूषण
उपलब्ध करने
चाहे होंगे, सजाना चाहा
होगा स्वयं को;
वह पूरा
नहीं हो पाया।
वह कभी पूरा
नहीं होता।
सुसंस्कृत
महिला है, पढ़ी-लिखी है,
इसका अर्थ
ही यह हुआ, कि
महत्वाकांक्षा
साधारण
स्त्रियों से
ज्यादा है।
पुरुषों जैसी
महत्वाकांक्षा
है, पुरुषों
जैसा अहंकार
है, एक दौड़
है। उसमें सफल
नहीं हो पा
रही है। कोई कभी
सफल नहीं हो
पाता।
कहीं
भी पहुंच जाओ, अहंकार की
भूख तृप्त
होती ही नहीं।
क्योंकि अहंकार
की भूख झूठी
है। सच हो, तो
तृप्त हो जाए।
झूठी भूख को
तृप्त करने का
कोई उपाय
नहीं। जितना
करो तृप्त, उतनी बढ?
ती चली
जाती है।
इसलिए उदासी
है। अब उदासी
अहंकार के
कारण है। और
आशीर्वाद तब
तक नहीं मिल सकता, जब तक
अहंकार न
मिटे।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लो। यह
गणित सभी के
जीवन के काम
का है।
आशीर्वाद तभी
मिल सकता है, जब अहंकार न
हो। और मजा यह
है, कि
अहंकार न हो, तो आशीर्वाद
के बिना भी
उदासी मिट
सकती है। आशीर्वाद
की कोई जरूरत
भी नहीं है।
अहंकार हो, तो आशीर्वाद
की जरूरत है, क्योंकि
उदासी रहेगी।
लेकिन अहंकार
के रहते आशीर्वाद
नहीं बरस
सकता।
और
अहंकार गलत को
बचाए चला जाता
है।
एक
सज्जन कुछ दिन
पहले आए। संन्यास
लेना चाहते
हैं, ध्यान
करना चाहते
हैं, शांत
होना चाहते
हैं। लेकिन
"मैं" का स्वर
बड़ा प्रगाढ़
है। मैंने
उनसे पूछा, "कहां से आए
हैं?" मैंने
यह पूछा नहीं,
कि आप कौन
हैं, क्या
हैं; सिर्फ
इतना ही पूछा,
कि कहां से
आए हैं? बस,
उन्होंने
शुरू कर दिया,
कि मैं समाज
सुधारक हूं, कि मैं
आदिवासियों
का काम कर रहा
हूं, कि
मैंने इतनी
संस्थाएं चला
दीं; कि
मैं फलां
काफ्रोंस में
इंग्लैंड में
भाग लिया और
जर्मनी में
भाग लिया।
और
इतनी तेजी से
वे चलने लगे
यह सब बताने
में, कि संध
भीछन दी
उन्होंने
मुझे, कि
मैं किसी तरह
उन्हें रोकूं,
कि रुको। यह
मैंने पूछा
नहीं है। यही
तो तुम्हारी
बीमारी है। वे
चले ही जा रहे
हैं--"मैं. .मैं. .मैं।"
लोगों
के पत्र मेरे
पास आते हैं।
वे "मैं" से ही
शुरू करते हैं
हर वाक्य। सब
"मैं" से भरा
है और नीचे
दस्तखत होते
हैं, "आपका
विनम्र।" वह
विनम्रता बड़ी
झूठी है। वह
विनम्रता भी
अहंकार का ही
एक आभूषण, एक
सजावट होगी।
अहंकार
पीड़ा का स्रोत
है। और उसी के
कारण तुम अपने
स्वभाव को
नहीं पा सकते; न परमात्मा
को पा सकते
हो। आशीर्वाद
तुम पर बरसेगा
ही नहीं।
अहंकार के
कारण तुम उलटे
घड़े हो। वर्षा
होती रहेगी तो
भी तुम पर
बूंद न
पहुंचेगी।
तुम खाली के
खाली रह
जाओगे। काश, तुम अहंकार
से खाली हो
जाओ तो तुम आज
भर सकते हो, इसी क्षण भर
सकते हो। कहीं
कोई रुकावट
नहीं है, तुम्हारे
अतिरिक्त
कहीं कोई बाधा
नहीं है। इसलिए
गहरा सवाल
प्रार्थना
करने का नहीं
है, गहरा
सवाल यह जो
करने वाला है,
इसको मिटाने
का है। नहीं
तो यही दुकान
चलाता है, यही
प्रार्थना
करेगा। यह मिट
जाए, तो
तुम्हारा
जीवन
प्रार्थना
है।
कबीर
उसी को
सहज-योग कहते
हैं। यह मिट
जाए, तो
तुम्हारा
प्रतिपल पूजा
है, परिक्रमा
है, तो घर
में ही स्नान,
गंगा-स्नान
है। तो तुम
जहां हो, वहीं
धर्म है, वहीं
तीर्थ है। तो
तुम्हारी
श्वास-श्वास
स्मरण है।
पर
अहंकार मिट
जाए। नहीं तो
पूजा भी
व्यर्थ, प्रार्थना
भी व्यर्थ।
अहंकार का विष
सभी को विषाक्त
कर देता है।
एक
करोड़पति
मैंने सुना है, बहुत अड़चन
में था।
करोड़ों का
घाटा लगा था।
और सारी जीवन
की मेहनत
डूबने के करीब
थी। नौका
डगमगा रही थी।
कभी मंदिर
नहीं गया था, कभी
प्रार्थना भी
न की थी।
फुरसत ही न
मिली थी। ऐसे
उसने पुजारी
रख छोड़े थे।
और मंदिर भी
बनवा दिया था,
जहां वे
उसके नाम से
पूजा किया
करते थे।
लेकिन
आज इस दुःख की
घड़ी में
कांपते हाथों
वह भी मंदिर
गया। सुबह
जल्दी गया, ताकि
परमात्मा से
पहली मुलाकात
उसी की हो, पहली
प्रार्थना
वही कर सके।
कोई दूसरा
पहले ही मांग
कर परमात्मा
का मन खराब न
कर चुका हो। लेकिन
देख कर हैरान
हुआ कि गांव
का भिखारी
उससे पहले
मौजूद था।
अंधेरा था
अभी। वह भी
पीछे खड़ा हो
गया, कि
भिखारी क्या
मांग रहा है।
धनी
आदमी देखता है, कि मेरे पास
तो मुसीबतें
हैं; भिखारी
के पास क्या
मुसीबतें हो
सकती हैं? और
भिखारी सोचता
है, देखता
है, कि
मुसीबतें
मेरे पास हैं।
धनी आदमी के
पास क्या
मुसीबतें
होंगी?
दोनों
मुसीबत में
जीते हैं।
अपने-अपने ढंग
की मुसीबतें
हैं; मुसीबतें
जरूर हैं।
भिखारी
की मुसीबत
भिखारी के लिए
बहुत बड़ी थी, धनपति के
लिए कुछ बड़ी न
थी। उसने सुना,
कि भिखारी
कह रहा है, हे
परमात्मा! अगर
पांच रुपए आज
न मिलें तो
जीवन नष्ट हो
जाएगा।
आत्महत्या कर
लूंगा। ये तो
चाहिए ही।
पत्नी बीमार
है और दवा के
लिए पांच रुपए
होना बिलकुल
आवश्यक हैं।
मेरा जीवन
संकट में है।
इस
अमीर आदमी ने
यह सुना। और
वह भिखारी बंद
ही नहीं कर
रहा है और कहे
जा रहा है और
प्रार्थना जारी
है। तो उसने
अपने खीसे से
पांच रुपए
निकालके उस
भिखारी को दिए
और कहा, कि
ये पांच रुपए
तू ले और जा।
फिर उसने
परमात्मा से
कहा, "सर, नाउ यू केन
गिव मी युअर
अनडिवाइडेड
अटेनशन : अब आप
अनबटा ध्यान
मेरी तरफ दे
सकते हैं। यह
भिखारी से
छुटकारा हुआ।
मुझे पांच
करोड़ रुपए की
जरूरत है।"
अहंकार
का सूत्र है : ए
सर्च फार
अनडिवाइडेड
अटेनशन। एक
खोज है अहंकार
की, कि ध्यान
तुम्हें मिल
जाए।
अब इसे
तुम समझ लो।
अहंकार ध्यान
मांगता है और
निरहंकार ध्यान
देता है।
अहंकार
मांगता है, सारी दुनिया
की नजरें मुझ
पर हों।
अहंकार कहता
है, जहां
से मैं निकलूं,
लोग मुझे
देखें--"मुझे।"
अहंकार की
मांग है कि ध्यान
मुझे मिले; और निरहंकार
की मांग है, मैं कितना
ध्यान बांट
सकूं।
फूल के
पास से भी
गुजरूं, तो
मेरी पूरी
आत्मा को
ध्यान के
द्वारा फूल पर
उंडेल दूं। और
अगर तुम पूरी
आत्मा से फूल
पर अपने ध्यान
को उंडेल दो, तो फूल
परमात्मा हो
जाता है। जहां
ध्यान समग्र
रूप से उंडेल
दिया जाता है,
वहीं मंदिर
निर्मित हो
जाता है। वह
मंदिर बनाने की
कला है।
और जब
तुम ध्यान
मांगते हो, वहीं नरक
खड़ा हो जाता
है।
ध्यान
देना साधना है, ध्यान
मांगना संसार
है।अब जो
ध्यान देने को
राजी है, वह
तभी राजी हो
सकता है, जब
उसने अपने
भीतर का सूत्र
तोड़ डाला हो, जो सदा
मांगता है।
अहंकार
भिखारी है, विनम्रता
सम्राट है।
यह बड़ा
विरोधाभास
है। क्योंकि
हमें तो लगता
है अहंकार
सम्राट होने
की कोशिश कर
रहा है। लेकिन
अहंकार सदा
भिखारी है, मांगता है।
ध्यान मांगता
है। लोग मेरी
तरफ देखें, प्रतिष्ठा
दें, इज्जत
दें। संसार
मुझे जाने, मेरा नाम
लिखा जाए
स्वर्ण
अक्षरों में।
मेरा रूप खुदा
रह जाए इतिहास
के पन्नों पर।
मैं भी चला
हूं यहां।
मेरे पद-चिन्ह
कभी मिटें न।
अहंकार की सारी
चेष्टा यही
है।
निरहंकार
की चेष्टा
क्या है? निरहंकार
की चेष्टा है
कि किसी को
पता भी न चले, कि मैं यहां
था। मेरे कोई
पद-चिन्ह न
छूटे। मेरी
कोई रेखा भी न
खिंचे संसार
में। जैसे
पानी पर खींची
हुई रेखा मिट
जाती है, ऐसे
मैं मिट जाऊं।
मैं कहीं भी
संसार को गंदा
न कर पाऊं।
मेरा होना न
होना बराबर
हो।
एक
गांव में क्यू
लगा था। राशन
कार्ड का होगा, कि मिट्टी
के तेल के लिए
होगा। मुल्ला
नसरुद्दीन
देर से पहुंचा
था, लेकिन
आगे खड़े होने
की कोशिश कर
रहा था।
स्वभावतः जो
पुलिसवाला
देखरेख कर रहा
था उसने कहा, कि मुल्ला, पीछे जा कर
खड़े होओ। उसने
इतनी कड़क से
कहा, फिर
पुलिसवाला।
तो
मुल्ला को
जाना पड़ा, लेकिन थोड़ी
देर बाद वह
फिर वापस आ
गया और फिर कोशिश
करने लगा। उस
पुलिसवाले ने
कहा, "तुम
फिर आ गए? मैंने
कहा, पीछे
जा कर खड़े
होओ।
"मुल्ला
ने कहा, "भाई!
वहां तो पहले
ही से कोई खड़ा
है।"
पीछे
पहले से ही
कोई खड़ा है! और
जब किसी को
हटा कर
ही खड़ा होना
हो, तो आगे ही
हटा कर क्यों
न खड़ा होना? जब जद्दोजहद
ही करनी है, झंझट ही
करनी है, तो
आगे ही हटा कर
खड़ा होना ठीक
है। पीछे तो
पहले से कोई
खड़ा है।
अहंकार
आगे खड़े होने
का संघर्ष है।
और अहंकार सदा
देखता है, कि पीछे की
जगह तो भरी
है। मजा यह है,
कि पीछे की
जगह कभी नहीं
भरी है। पीछे
तो कोई होना
ही नहीं
चाहता। वह जगह
सदा खाली है।
और फीछे खड़े
होने के लिए
पीछे के आदमी
को थोड़े ही
हटाना है! तुम
उसके पीछे खड़े
हो सकते हो।
आगे खड़े होने
के लिए आगे के
आदमी को हटाना
पड़ेगा। वह
संघर्ष है।
अहंकार
एक संघर्ष है, निरहंकारिता
शांति है। फिर
संघर्ष से
तनाव फैदा
होता है।
संघर्ष से
उदासी, विफलता,
विषाद फैदा
होता है। फिर
संघर्ष के
हजार रोग पैदा
होते हैं, पागलपन
पैदा होता है।
फिर तुम उनके
इलाज में निकलते
हो। लेकिन मूल
जड़ को तुम
सींचते चले
जाते हो।
पत्तों को
काटते हो, जड़
को सींचते हो।
जड़ को काटो; पत्तों को
काटने से कुछ
भी न होगा।
और
कबीर की सारी
शिक्षा यही है, कि तुम अगर
अपने "मैं" को
मिटा दो--और मिटाना
क्या है? वह
है ही नहीं।
जानना भर है।
छाया की तरह
है। है नहीं; मालूम पड़ता
है। एक सपना
है। एक झूठ है,
जो
तुम्हारे
मानने की वजह
से सच मालूम
पड़ता है। तुम
न मानो तो
अपने आप गिर
जाता है, नष्ट
हो जाता है।
तुम्हारे
सहारे से ही
खड़ा है। सहारा
छोड़ दो, वह
अपने से गिर
जाता है। ताश
के पत्तों का
बनाया घर है।
कागज की नाव
है, जो हो
सकता है थोड़ी
देर लहरों पर
इतरा ले; लेकिन
डूबना
निश्चित है।
और जो उसमें
बैठ कर भवसागर
को पार करने
चला है, वह
तो निश्चित ही
डूबेगा।
कबीर
कहते हैं,
"आपे
ही बहि जाएंगे,
जे नहिं
पकरौ बांहि"
अपने आप तो हम
बह जाएंगे, अगर
तुम्हारा हाथ
न आया।
यह
"आपे" शब्द
बहुत अच्छा
है। इसके दो
अर्थ हो सकते
हैं, कि अपने
आप तो हम बह
जाएंगे। और
"आपे" का एक
अर्थ अहंकार
भी होता है।
"आपे ही बहि
जाएंगे"--यह जो
आपा है, यह
जो "मैं" भाव
है, इससे
तो हम बह
जाएंगे।
समझने
की चेष्टा
करें;
"सुरति
करौ मेरे
सांइयां, हम
हैं भवजल
मांहि।
आपे ही
बहि जाएंगे, जे नहिं
पकरौ
बांहि।।"
कबीर
की पहली
शिक्षा तो है, कि तुम
सुरति से भरो;
कि तुम
स्मरण से भरो
परमात्मा के।
जैसे-जैसे तुम
परमात्मा के
स्मरण से
भरोगे
जैसे-जैसे उसकी
याद सघन होगी,
तुम्हें
अपने अहंकार
का भाव कम
होता जाएगा।
ये दोनों साथ
नहीं रह सकते।
ये तो एक
म्यान में दो
तलवारें हैं,
ये साथ नहीं
चल सकतीं। यह
राह बड़ी संकरी
है, बड़ी
बारीक है।
"प्रेम
गली अति
सांकरी ता में
दो न समाहि।"
यहां
या तो
परमात्मा का
स्मरण बचेगा, या अहंकार
का स्मरण। दोनों
स्मरण साथ
नहीं चल सकते।
अगर परमात्मा को
पाना है, तो
स्वयं को
छोड़ना होगा।
अगर स्वयं को
पकड़ना है, तो
परमात्मा
छूटा ही हुआ
समझो।
यह तो
तुम भूल कर भी
मत सोचना, कि तुम
परमात्मा को
पा लोगे। तुम
कभी भी न पाओगे।
पाना हो सकता
है; लेकिन
तुम न रहोगे, तभी पाना होगा।
पाने की घटना
घटेगी, लेकिन
तुम न रहोगे
तभी। जब तक
तुम हो, तब
तक बाधा बनी
रहेगी। तब तक
तुम्हारे
कारण ही तुम
परमात्मा को
दूर हटाते
रहोगे।
तो
कबीर कहते हैं, पहले तो
मेरी सुरति सध
जाए; कि
मुझे
परमात्मा का
स्मरण सध जाए।
लेकिन कबीर
जानते हैं, कि
जिन्होंने ऐसा
सोच लिया कि
हमें सुरति सध
गई, वे एक
नए अहंकार से
भर गए। जो
कहने लगे, कि
हम तो
परमात्मा के
भक्त हैं; कि
हम तो उसकी ही
याद करते हैं;
कि हम तो
उसकी याद से
भरे हैं।
उन्होंने एक
नया "मैं"
जन्मा लिया।
पुराना "मैं"
नया हो गया, और मजबूत हो
गया। पुराना
"मैं" सांसारिक
था, यह
धार्मिक हो
गया। यह जहर
और खतरनाक है।
तो एक
तो अहंकार है, कि तुम्हारे
पास बड़ी दुकान
है; और एक
अहंकार है, कि तुम रोज
पूजा करते हो।
एक अहंकार है
कि तुम्हारे
पास धन है; और
एक अहंकार है
कि तुमने बहुत
त्याग किया
है। एक अहंकार
है, कि
दुनिया में
तुम्हारा बड़ा
बल है; और
एक अहंकार है,
कि
परमात्मा के
पास तुम्हारी
बड़ी पहुंच है।
वह
दोनों ही एक
जैसे हैं।
दूसरा ज्यादा
खतरनाक है।
क्योंकि पहले
की मूढ़ता तो
दिखाई पड़ जाए, दूसरे की
मूढ़ता दिखाई
भी न पड़ेगी।
दूसरे की मूढ़ता
दिखाई न पड़ेगी,
क्योंकि वह
शास्त्रों
में ढंकी है; प्रार्थना,
पूजा, धूफ,
दीप, अर्चना
में ढंकी है।
पहली मूढ़ता तो
नग्न है, बाजार
में खड़ी है।
दूसरी मूढ़ता
छिपी है मंदिर
में, मसजिद
में, गुरुद्वारे
में। पहली
मूढ़ता तो बहुत
लोगों में है।
इसलिए दिखाई
पड़ना बहुत
कठिन नहीं है।
उसके मरीज तो
बहुत हैं।
दूसरी मूढ़ता
बड़ी न्यून है।
उसके मरीज
बेजोड़ हैं। वह
बीमारी कभी-कभी
होती है, मुश्किल
से होती है।
इसलिए उस
बीमारी में भी
अकड़ पैदा हो
जाती है।
तो
कबीर पहले
सूत्र तो देते
हैं, कि तुम
सुरति से भर
जाओ; लेकिन
इस तरह मत पकड़
लेना सुरति को,
कि सुरति ही
अहंकार को
भरने का कारण
हो जाए।
भक्तों
को देखो, उनकी
अकड़ देखो!
ज्ञानियों को
देखो, उनकी
अकड़ देखो!
त्यागियों को
देखो, उनकी
अकड़ देखो!
पुरानी अकड़
चली गई, नई
अकड़ पकड़ गई।
अकड़ इतनी
सूक्ष्म है, कि तुम एक
तरफ से छोड़ते
हो, कि
दूसरी तरफ से
पकड़ लेते हो।
तो इस
अकड़ की
संभावना ही
मिट जाए इसलिए
कबीर दूसरा
सूत्र देते
हैं--"सुरति
करौ मेरे
सांइयां।"
इसलिए वे
परमात्मा से
कहते है, कि
मैं तो
तुम्हारे
स्मरण से भरने
की कोशिश कर
रहा हूं। पर
वह काफी नहीं
है। मैं अकेला
भव-सागर पार न
कर सकूंगा।
मैं तो डूब ही
जाऊंगा। मेरा
त्याग, मेरी
पूजा, मेरी
साधना
पर्याप्त
नहीं है।
जरूरी हो सकती
है, पर्याप्त
नहीं है। मेरी
तरफ से मैं जो
भी कर रहा हूं,
वह अंधेरे
में टटोलने
जैसा है। उससे
द्वार खुलेगा
ही यह पक्का
नहीं है।
उससे
द्वार क्या
खुलेगा! मैं
ही कैसे द्वार
को खोल पाऊंगा? अंधा!
अंधेरे में!
सब तरफ से
बेचैन और
परेशान। पुकारता
हूं तुम्हें,
लेकिन मेरी
पुकार ही तुम
तक पहुंच
पाएगी? न
तो तुम्हारा
पता मुझे
मालूम, न
ठिकाना मुझे
मालूम। तुम
कहां हो, यह
भी मुझे मालूम
नहीं।
पुकारता हूं,
और पुकार
में भी कहीं न
कहीं मेरा
संदेह छिपा है।
मैं हूं ऐसा।
मेरी सुरति भी
पूरी नहीं है।
वह भी खंड-खंड
है। कभी भूल
जाता हूं, कभी
याद कर लेता
हूं।
"सुरति
करौ मेरे
सांइयां"
इसलिए
तुम्हें भी मेरी
याद करनी
पड़ेगी। मैं तो
चल रहा हूं, अपनी चेष्टा
कर रहा हूं।
मुझे पता भी
नहीं, कि
यह तुम्हारी
ही दिशा है, जिसमें मैं
चल रहा हूं? तुम्हें
पुकारता चल
रहा हूं, लेकिन
मुझे पता नहीं
यह पुकार
तुम्हारे घर
की तरफ जा रही
है, नहीं
जा रही है? इसलिए
अकेले न हो
सकेगा।
"सुरति
करौ मेरे
सांइयां"—
तुम भी
मेरी थोड़ी याद
करो।
"हम
हैं भवजल
मांहि।" सागर
बड़ा है। संसार
बड़ा सूक्ष्म
है, किनारा
दिखाई नहीं
पड़ता। डूबना
ज्यादा निश्चित
मालूम पड़ता है,
उबरने के।
अपनी ही सुरति
की नाव को बना
कर तुम्हारे
किनारे को पा
लेंगे, यह
संदिग्ध
मालूम पड़ता
है। हम ही तो
बनाएंगे उस
नाव को; हमारी
सामर्थ्य
क्या! हमारी
पात्रता
कितनी! हमारी
बनाई हुई नाव
भी तो हमारी
ही नाव होगी।
हमसे ही बनी
होगी, हमसे
बड़ी तो नहीं
हो सकती। हमसे
महत्वपूर्ण
तो नहीं हो
सकती। हमारी
सब भूलें उस
नाव में
होंगी। हमारे
सब छिद्र उस
नाव में होंगे।
बनानेवाले
से बनाई गई
चीज बड़ी नहीं
हो सकती। एक
चित्रकार
चित्र बनाता
है; तो
चित्रकार ही
तो बनाता है।
तो चित्रकार
की सारी भूलें
उसमें होंगी।
चित्रकार की
सारी मनोदशा उसमें
झलकेगी।
चित्रकार के
सारे मनोभाव
उसमें
चित्रित हो
जाएंगे।
एक
मूर्तिकार
मूर्ति बनाता
है। मूर्ति
क्या कभी
मूर्तिकार से
बड़ी हो सकती
है? कैसे
होगी? बनानेवाले
से बनाई गई
चीज बड़ी नहीं
हो सकती। सृष्टि
सदा ही
स्रष्टा से
छोटी होगी।
तो
कबीर कहते हैं, सुरति करौ मेरे
सांइयां। हे
प्रभु, तुम
मेरी याद करो।
मैं तुम्हारी
याद कर रहा हूं।
हम हैं
भवजल मांहि।"
हम अब
डूबे तब डूबे
की हालत में
हैं। पुकारते हैं, चिल्लाते
हैं, लेकिन
तुम तक
पहुंचती है
आवाज? कैसे
हमें भरोसा हो,
जब तक कि
तुम्हारी
आवाज भी हम तक
न पहुंचे? हम
तो हाथ फैला
रहे हैं
अंधेरे
में--स्वभावतः,
क्योंकि
प्रकाश अगर
होता तो हम
तुम्हें पुकारते
ही क्यों? हमारा
हाथ अंधेरे
में फैला है, लेकिन हमें
कैसे पक्का
पता चले, कि
तुम्हारे हाथ
तक पहुंच गया
है, जब तक
तुम्हारा हाथ
हमारे हाथ का
स्पर्श न करे?
यह
अहंकार को
बिलकुल जड़ से
मिटा देने की
चेष्टा है।
थोड़ा सा बच
सकता है साधक
में, तपस्वी
में; भक्त
में बिलकुल
नहीं बच सकता।
क्योंकि भक्त यह
नहीं कहता कि
मेरी ही
सामर्थ्य से
पहुंच जाऊंगा।
तेरा सहारा
चाहिए।
"सुरति
करौ मेरे
सांइयां, हम
हैं भवजल
मांहि। आपे ही
बहि जाएंगे. . ."
अगर हम
अपनी ही
चेष्टा करते
रहे, तो बह
जाना निश्चित
है।
और यह
अहंकार इतना
भयंकर है, कि हम
छोड़-छोड़ कर
इसे पकड़ लेते
हैं। एक तरफ
से छोड़ते हैं,
दूसरी तरफ
से पकड़ लेते
हैं। इधर से
विदा करते हैं,
कि वह पीछे
के दरवाजे से
भीतर आ जाता
है। उसे हम
फिर पाते हैं,
वह सिंहासन
पर विराजमान
है। उससे हम
बच नहीं पाते।
यह जो
विनम्र
निवेदन है, यह जो
अहंकार का
साफ-साफ
स्वीकार है, यही विनम्र
आदमी का लक्षण
है। अहंकारी
तो कहेगा, मैं
विनम्र हूं।
विनम्रता ही
उसका अहंकार
बन जाएगी।
विनम्र आदमी
कहेगा, पक्का
नहीं है।
अहंकार
सूक्ष्म है।
जाल कठिन है।
बाहर निकलना
मुश्किल है।
चेष्टा करता
हूं, लेकिन
जीत मालूम
नहीं होती।
यह
विनम्र आदमी
कहेगा, जिसने
निश्चित ही
अहंकार को
छोड़ने के
प्रयास किए
हैं और पाया
है कि हर बार
अहंकार किसी न
किसी रूप में
बच जाता है।
बड़े
जटिल मार्ग
हैं अहंकार
के। तुम धन
छोड़ देते हो, क्योंकि तुम
सोचते थे, धन
के कारण हैं।
अचानक अहंकार
कहता है, "देखो!
तुम जैसा
त्यागी इस
संसार में कोई
भी नहीं।"
तुम
घर-द्वार छोड़
देते हो, जंगल
में बैठ जाते
हो। अहंकार कहता है,
देखो!
पाफी
तो सब संसार
में हैं, तुम
कैसे
पुण्यात्मा!
तुम
यहां जंगल में
हिमालय की
गुफा में बैठे
हो।
इससे
तुम कैसे
भागोगे? कहां
जाओगे? यह
तुम्हारे साथ
ही खड़ा
रहेगा।विनम्र
आदमी इसको
पहचान लेता
है।
विनम्र
आदमी
स्वीकार करता है, कि अहंकार
बहुत कठिन है।
इसलिए विनम्र
परमात्मा से
कहेगा, "आपे
ही बहि
जाएंगे।"
अपने से तो तर
न पाएंगे, बह
जाएंगे।
". . .जे
नहिं पकरौ
बांहि।"
तुम्हारा
हाथ अगर न बढ़ा
तो हमारा डूब
जाना निश्चित
है।
चिल्लाते
हैं, पुकारते
हैं, रोते
हैं; लेकिन
यह काफी कहां
है? शुरुआत
हो सकती है, अंत नहीं।
अंत तो
तुम्हारा हाथ
हमारे हाथ में
आ जाए, तभी!
तुम्हारा
सहारा मिल
जाए--"सुरति
करौ मेरे
सांइयां।"
"अवगुण
मेरे बापजी, बकस गरीब
निवाज।"
तपस्वी तो
हिसाब रखता है,
कितनी
तपश्चर्या की!
साधक हिसाब
रखता है कितने
उपवास किए, कितनी
पूजाएं कीं, कितने
मंत्र
जपे--करोड़, दो
करोड़, पांच
करोड़!
वह सब
अहंकार का ही
हिसाब है। वह
खाते-बही सब संसार
की ही है। अहंकार
के अतिरिक्त
कोई दावेदार
ही नहीं है
दुनिया में।
दावेदारी कुछ
भी हो; कि
मैंने इतने
मंत्र पढ़े, इतनी पूजा
की।
भक्त
का भाव कुछ और
है। भक्त कहता
है,
"अवगुण
मेरे बापजी।"
भक्त
कहता है, अवगुणों
का मुझे पता
है। उन्हें
मैं मिटा नहीं
पाया, यह
भी मुझे पता
है। उन्हें
मैं मिटा न
पाऊंगा यह भी
मुझे पता है। तेरे
बिना कुछ भी न
होगा। तो मैं
यह नहीं कहता,
कि मैं गुणी
हूं इसलिए तू
हाथ बढ़ा; यहीं
फर्क है।
अहंकारी
वहां भी कहता
है, कि देख
मैंने इतने
उपवास किए, अभी तक तेरा
हाथ नहीं मिला?
अन्याय हो
रहा है।
बेईमान तरे जा
रहे हैं, ईमानदार
डूब रहा है।
अनैतिक पार
हुए जा रहे हैं
और जिन्होंने
तपश्चर्या की,
साधना की, तुझे पुकारा,
राम-राम जप
कर जीवन
गुजारा, वे
डूब रहे हैं।
यह अन्याय है।
जहां
अहंकार है, वहां सदा
शिकायत होगी।
शिकायत
अहंकार के पीछे
ऐसी चलती है, जैसे छाया
तुम्हारे
पीछे।
जहां
अहंकार नहीं
है, वहां
अहोभाव होगा।
वहां दीनता की
स्वीकृति होगी
और उसके दान
के प्रति
अहोभाव होगा।
जहां अहंकार
है, वहां
सदा यह लगेगा,
कि जो मुझे
मिलना चाहिए,
वह नहीं मिल
रहा है। जिसके
मैं योग्य हूं,
वह मुझे
नहीं मिल रहा
है। जो मेरी
पात्रता है, उससे कम मुझे
मिल रहा है।
यही तो विषाद
है। यही तो
उदासी है
अहंकार की।
यही तो उसकी
असफलता है।
लेकिन
कबीर कहते हैं, "अवगुण मेरे
बापजी।"
मुझे
पता है। कुछ
छिपा नहीं है
मुझसे। कुछ
तेरे द्वार पर
मैं दावा लेकर
नहीं आया हूं।
और अगर यह
कहता हूं, कि तू हाथ
बढ़ा, तो
इसलिए नहीं कहता
हूं कि मैं
इसके योग्य
हूं।
इस भेद
को ठीक से समझ
लेना; क्योंकि
उसी भेद पर
भक्त की सारी
की सारी कीमिया,
सारी कला
निर्भर है।
मैं
इसलिए नहीं
कहता हूं, तू हाथ बढ़ा, क्योंकि
मैंने
पात्रता
अर्जित कर ली
है। पात्रता
कहां? अपात्र
हूं बिलकुल।
"अवगुण
मेरे बापजी"—
अवगुणों
का मुझे पता
है। शायद तुझे
भी पता न हो
मेरे अवगुणों
का; मुझे पता
है। मुझे तो
अवगुणों
अवगुणों का ही
पता है।". . .बकस
गरीब निवाज।"
तो
तुझसे यह नहीं
कहता कि मैंने
अर्जित कर लिया
है तेरा हाथ।
इतना ही कहता
हूं, कि मैं
जानता हूं तू
गरीब निवाज
है। तू उन पर
दया करता है, जिनके पास
कुछ भी नहीं।
तेरी करुणा
अपार है। मैं
तेरी करुणा को
पुकार रहा हूं;
अपनी
पात्रता की
घोषणा नहीं कर
रहा हूं। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं, कि
अब दे, अगर
देर हुई तो
अन्याय होगा।
मैं जानता हूं, कि जब
भी मुझे
मिलेगा, तेरी
करुणा के कारण
मिलेगा, मेरी
पात्रता के
कारण नहीं।
इस
संबंध में एक
बात समझ लेनी
जरूरी है। बड़ा
प्राचीन
विवाद है।
सारे संसार के
सभी धर्मो के सामने
उठा है। और वह
विवाद यह है, कि परमात्मा
न्यायपूर्ण
है या
करुणावान?
बड़ा
कठिन है
विवाद। तय
करना बहुत
मुश्किल है। क्योंकि
अगर
न्यायपूर्ण हो, तो करुणावान
नहीं हो सकता।
न्याय का तो
मतलब है, जिसने
बुरा किया उसे
दंड मिलना
चाहिए; जिसने
भला किया, उसे
पुरस्कार
मिलना चाहिए।
करुणावान का
अर्थ है, जिसने
बुरा किया
उसको भी
प्रसाद मिल
जाता है। करुणावान
का अर्थ है, कि जिसने
कमाया नहीं, उस पर भी
वर्षा हो जाती
है।
तो
परमात्मा
क्या है? जस्ट--न्यायपूर्ण;
या
कम्पैशनेट--
करुणावान? दोनों
एक साथ तो
कैसे होगा? क्योंकि अगर
मजिस्ट्रेट
अदालत में
न्यायपूर्ण
हो, तो
करुणावान
नहीं हो सकता।
क्योंकि अगर
करुणा करने
लगे, तो
फिर
न्यायपूर्ण
कैसे होगा?
एक
आदमी ने चोरी
की है उसे
करुणा आ जाए, कि बेचारा
गरीब! तो फिर
न्याय न कर
सकेगा। अगर उसे
माफ कर दे, तो
जिसकी उसने
चोरी की थी, उसके साथ
अन्याय हो
गया।
और अगर
न्याययुक्त
हो, ठीक वही
करे, जो
न्याय कहता है
तो फिर करुणा
कहां होगी?
जिन
लोगों ने माना, कि परमात्मा
न्यायपूर्ण
है, उन्होंने
धीरे-धीरे
परमात्मा को
हिसाब के बाहर
ही कर दिया।
क्योंकि अगर
परमात्मा
न्यायपूर्ण
है, तो
उसकी जरूरत ही
नहीं रह जाती।
फिर तो नियम काफी
है, परमात्मा
की क्या जरूरत
है?
इसलिए
जैनों ने
परमात्मा को
इनकार कर
दिया। क्या
जरूरत है? अगर वह सदा
ही
न्यायपूर्ण
है, तो
नियम काफी
हैं। पाप के
कारण दुःख
मिलता है, यह
नियम है। जैसे
कोई आदमी आग में हाथ
डालता है, हाथ
जल जाता है।
आग कोई सोचती
थोड़े ही है, कि इस आदमी
पर दया करें, या दंड दें।
आग तो एक नियम
के अनुसार
चलती है। इसलिए
जैनों ने तय
कर लिया, कि
परमात्मा को
बाद दी जा
सकता है, उसकी
कोई जरूरत
नहीं मालूम
पड़ती। अगर वह
सदा ही
न्यायपूर्ण
है और कभी
नियम के बाहर
नहीं जाता, तो नियम
काफी है। उसकी
क्या जरूरत?
और अगर
यह सदा ही
नियम के
अनुसार चलता
है तो वह नियम
से नीचे है, नियम से ऊपर
नहीं है। तो
नियम ही असली
परमात्मा है।
इसलिए बुद्ध
और महावीर
दोनों ने कहा,
धर्म
परमात्मा है।
और कोई
परमात्मा
नहीं है--नियम।
धर्म यानी
नियम। वह जो
जीवन का
शास्त्र है, उसका नियम।
जो आग में हाथ
डालता है उसका
हाथ जल जाता
है। बस, ऐसे
ही जो पाप
करता है, उसे
दुःख मिलता है;
जो पुण्य
करता है, उसे
सुख मिलता है।
यह कर्म का
सिद्धांत है।
अगर
ठीक से समझो, तो परमात्मा
के साथ कर्म
का सिद्धांत
मेल नहीं
खाता। यह
तुमने कभी
सोचा न होगा।
हिंदुओं को या
तो परमात्मा
को पकड़ना
चाहिए या कर्म
का सिद्धांत
छोड़ देना
चाहिए। जैन
ज्यादा
तर्क-युक्त
हैं।
उन्होंने
कर्म का
सिद्धांत
पकड़ा, परमात्मा
को छोड़ दिया।
क्योंकि
जब नियम ऐसा
है, कि जैन यह
पूछते हैं, परमात्मा
अगर चाहे तो
क्या पापी को
भी स्वर्ग भेज
सकता है? अगर
भेज सकता है, तो यह जगत एक
अन्यायपूर्ण
व्यवस्था है।
और यह परमात्मा,
परमात्मा
नहीं है, यह
तो एक अन्यायी
व्यक्ति है।
और ऐसे
व्यक्ति का न
होना बेहतर
है।
और तब
पुण्य करने
में भी क्या
सार है? क्योंकि
जैन कहते हैं,
अगर पापी
स्वर्ग जा
सकता है, तो
इससे उलटा भी
हो सकता है, कि
पुण्यात्मा
नरक भेज दिया
जाए। क्योंकि
यह तो फिर
परमात्मा की
दिमागी करुणा
पर निर्भर है।
नाराज हो
जाए--नियम
तोड़ा जा सकता
है अगर पापी
के पक्ष में, तो
पुण्यात्मा
के विपरीत भी
तोड़ा जा सकता
है। एक दफा
नियम अगर तोड़ा
जा सकता है, तो नियम का
फिर कोई भरोसा
नहीं है।
तो
परमात्मा तो
फिर एक तरह का
तानाशाह है।
वह ढंग हिटलर
और स्टेलिन
जैसा है फिर
उसका। जैन कहते
हैं, ऐसे
परमात्मा को
हम बर्दाश्त नहीं
करते। अन्याय
को हम
बर्दाश्त
नहीं करते। हम
तो नियम और
नीति और न्याय
को चाहते हैं।
इसलिए नियम
काफी है।
परमात्मा की
कोई जरूरत नहीं
है।
हिंदू
दोनों मानते
हैं। हिंदू
दुनिया में बड़ा
विरोधाभासी
धर्म है। और
वही उसकी खूबी
भी है, वही
उसकी मुश्किल
भी है। खूबी
यह है, कि
वह दोनों
बातें एक साथ
मानता है, कि
परमात्मा
न्यायपूर्ण
है और
परमात्मा करुणावान
है। क्योंकि
हिंदू कहते
हैं, कि
अगर सिर्फ
नियम है तो
जीवन इतना
रूखा-सूखा हो
जाता है कि
वहां कोई
करुणा की छाया
नहीं। अगर
कानून से ही
सब चल रहा है
तो जीवन में
फिर रस, संगीत,
और रहस्य की
क्या जगह रही?
गणित का
हिसाब है; धर्म
का क्या उपाय
रहा?इसलिए
जैन शास्त्र
अगर तुम पढ़ो, तो तुम
पाओगे वह गणित
का फैलाव है।
उनमें तुम्हें
उपनिषदों का
रस न मिलेगा।
मेरे
पास लोग आते
हैं; वे कहते
हैं, आप
कुंदकुंद पर
क्यों नहीं
कभी बोलते, जैसा कबीर
पर बोलते हैं?
कुंदकुंद
परम ज्ञानी
हुए। जरूर मैं
चाहूंगा, कि
उन पर बोलूं।
लेकिन अड़चन
वहां आ जाती
है, कि
एकदम सब
रूखा-सूखा है।
एक मरुस्थल
मालूम होता
है-- नियम! कोई
काव्य नहीं है,
कोई करुणा
नहीं है, कोई
रसधार नहीं
बहती। चलो
मरुस्थल में,
लेकिन कहीं
कोई पानी की
बूंद नहीं
मिलती। और सब
गणित का ही
हिसाब है।
तो ऐसा
लगता है, जैसे
जीवन एक गणित
है। उसमें से
काव्य खो जाता
है। जीवन एक
कविता नहीं रह
जाती। शुद्ध
गणित हो जाता
है--हिसाब। दो
और दो चार
होते हैं, ऐसा
हिसाब हो जाता
है। दो और दो न
तो पांच होते,
न तीन होते।
हिंदू
बड़े अदभुत हैं
इस अर्थ में।
वे कहते हैं, कि जीवन में
नियम है, लेकिन
नियम ही सब
कुछ नहीं है।
नियम के पीछे
करुणावान
हृदय भी छिपा
है।
जीसस
की एक कहानी
है। वह जीसस
ने निश्चित ही
हिंदुओं से
इसी मुल्क में
सीखी है।
क्योंकि यहूदी
उसको बिलकुल
नहीं समझ पाए
और यहूदियों के
लिए बिलकुल
बेबूझ हो गई।
यहूदी भी राजी
हैं, कि परमात्मा
न्याययुत्त
है। इसलिए
यहूदियों का परमात्मा
बड़ा कठोर है, जैसा नियम
कठोर होता है।
आग जलाती है।
छोटा बच्चा
हाथ डाले तो
भी जलाती है, पहलवान हाथ
डाले तो भी
जलाती है। आग
सोचती नहीं, कि छोटा
बच्चा है, क्षमा
करो, छोड़
दो एक दफा। एक
दो दफा भूल
करता है, सीख
लेने दो।
नहीं
नियम बड़ा कठोर
है। इसलिए
यहूदियों का
परमात्मा
एकदम नियम का
प्रतीक है, बड़ा कठोर
है। तुमने भूल
की, वह
तुम्हें
सड़ाएगा, नरको
में डालेगा, काटेगा।
तुमने ठीक किया, वह तुम्हें
स्वर्गो में
उठाएगा।
तुम्हारे
जीवन में सुख
ही सुख की
धाराएं बह
जाएंगी। पुरस्कृत
होओगे, दंडित
होओगे; और
सब नियम से
चलेगा।
परमात्मा
नियम है।
जीसस
ने एक कहानी
जब कहनी शुरू
की, तो
यहूदियों के
लिए बड़ी अड़चन
हुई। जीसस की
कहानी बड़ी
साधारण, सरल,
सीधी-साफ
है।
जीसस
ने कहा, कि
एक आदमी का एक
अंगूरों का
बगीचा था। और
उसने सुबह
अपने मुनीम को
भेजा, कि
तू जा और गांव
से मजदूरों को
ले आ। वह गया, वह कुछ
मजदूरों को
लाया लेकिन और
मजदूरों की
जरूरत थी। दोपहर
होते-होते उसे
फिर भेजा गया,
वह फिर और
मजदूरों को
लाया। लेकिन
और भी मजदूरों
की जरूरत थी।
मालिक जल्दी
में था और काम
सांझ तक पूरा
कर लेना था तो
दोपहर के बाद
भी कुछ मजदूर
आए। फिर भी
उसे भेजा गया।
कुछ मजदूर तो
तब आए जब काम
बंद होने के
ही करीब था।
वे आए ही; काम
करने का
उन्हें मौका
ही नहीं मिला
और सूरज ढल
गया।
फिर उस
मालिक ने सभी
मजदूरों को
इकट्ठा किया और
सभी को बराबर
पैसे बांट
दिए। जो सुबह
आए थे उन्हें
भी, और जो
अभी-अभी आए थे,
उन्हें भी।
निश्चित
ही इसमें थोड़ा
अन्याय मालूम
पड़ा। जो सुबह
से मेहनत कर
रहे थे
उन्होंने कहा, यह अन्याय
है। क्योंकि
हम सुबह से
जी-जान तोड़ रहे
हैं। कुछ लोग
दोपहर में आए,
उन्हें आधा
मिलना चाहिए।
कुछ लोग और भी
बाद में आए, उन्हें तो
पाव ही मिलना
चाहिए। और कुछ
लोग तो अभी-अभी
आए हैं, उन्हें
देने का तो
कोई सवाल ही
नहीं उठता।
उस
मालिक ने कहा, कि तुम्हें
जितना मिलना
चाहिए था, उतना
मिला या नहीं?
"उन्होंने
कहा, "हमें
तो उतना मिल
गया।"
तो
मालिक ने कहा, "फिर तुम
फिक्र मत करो।
तुम्हें
जितना मिलना चाहिए
था, वह
तुम्हें मिल
गया। इन्हें
मैं अपनी खुशी
से देता हूं।
मेरे पास देने
को बहुत है।
इनकी मजदूरी
के कारण नहीं
देता, अपने
ज्यादा होने
के कारण देता
हूं। इसमें तुम्हें
कोई एतराज है?"यह कहानी
जीसस ने
निश्चित ही हिंदुओं
से सीखी होगी।
इस कहानी का
सूत्र कहीं हिंदुओं
की धारणा में
है। हिंदू
कहते हैं, परमात्मा
न्यायपूर्ण
है; मगर
न्याय का
उपयोग वह
पुण्यात्माओं
के साथ करता
है।
यह जरा
समझ लेना। यह
बड़े मजे की
बात है। न्याय
का उपयोग करता
है
पुण्यात्माओं
के साथ, क्योंकि
उनको करुणा की
जरूरत ही नहीं
है। उन्होंने
करुणा कभी
मांगी ही
नहीं। तो
उन्हें जितना
मिलना चाहिए,
उतना मिल
जाता है।
उन्होंने
मेहनत की सुबह
से सांझ तक।
तप किया, उपवास
किया, भूखे
रहे, जंगल
गए, उलटी-सीधी
सांसें साधीं,
प्राणायाम
किया, सिर
के बल खड़े रहे,
योग किया।
हजार उपाय किए,
जुगुत की, जोग की।
निश्चित ही
उन्होंने बड़ी
मेहनत की सुबह
से सांझ तक।
परमात्मा
उन्हें उतना
देता है, जितना
उन्होंने
अर्जित कर
लिया। करुणा
उन्होंने
मांगी नहीं।
उन्होंने
अपने श्रम की
मांग की है।
इसलिए यह बड़े
मजे की बात है,
कि महावीर
और बुद्ध के
धर्म का नाम
श्रमण है।
श्रमण का अर्थ
होता है, जो
श्रम पर
आधारित है।
हिंदुस्तान
में दो
संस्कृतियां
हैं; एक
ब्राह्मण और
एक श्रमण।
श्रमण
संस्कृत का अर्थ
होता है, हम
अपने श्रम से
जो अर्जित है
उसकी मांग कर
रहे हैं।
निश्चित उतना
मिलेगा। उससे
कम कभी भी नहीं
मिलेगा, क्योंकि
परमात्मा
न्यायपूर्ण
है।
लेकिन
जिन्होंने
सिर्फ अर्जित
किया है, वे
बड़ी मुश्किल
में पड़ेंगे
परमात्मा के
द्वार पर; जब
वे देखेंगे, कि पापियों
को भी मिल रहा
है और खूब मिल
रहा है। और
उतना ही मिल
रहा है, जितना
उन्हें मिल
रहा है। तब
परमात्मा
उनसे कहेगा, कि यह मैं
अपने आधिक्य
से देता हूं।
यह मेरे पास
बहुत ज्यादा
है, इसका
मैं क्या करूं?
तुमने
जितना कमाया,
तुम्हें
मिल गया। फिर
भी बहुत मेरे
पास बचा है, उसका मैं
क्या करूं?यह
गणित के बाहर
है बात। मगर
जीवन गणित है
ही नहीं। ऐसा
नहीं है, कि
गणित से
चलनेवाले लोग
नहीं पहुंचेंगे;
पहुंचेगे।
पर उतना ही
पाएंगे जितना
उनकी जरूरत है,
जितना
उन्होंने
कमाया है।
अंत
में एक बड़ा
अदभुत अनुभव
होता है, कि
उनको भी मिल
जाता है, जिन्होंने
कमाया न था, लेकिन
जिन्होंने
अनुभव किया था,
हम अवगुणी
हैं; जो
निरहंकारी
थे। कमाई तो
अहंकार की
घोषणा है। अहंकार
के साथ पूरा
न्याय किया
जाता है। लेकिन
ऐसे लोग भी
हैं, जिन्होंने
कमाया नहीं; या कमाया भी
तो भी पाया, कि हमारी
कमाई का क्या
दावा हो सकता
है? उन्होंने
अपने अवगुणों
की बात कही है . . .
"अवगुण
मेरे बापजी, बकस गरीब
निवाज।"
उन्होंने
कहा, कि अवगुण
ही अवगुण हैं
हममें। दावा
हमारा कुछ
नहीं। अगर न
मिलेगा तो हम
शिकायत न कर
सकेंगे और
कहीं अपील न
कर सकेंगे
तुम्हारे
खिलाफ। कोई
अदालत है भी
नहीं अपील की।
कोई शिकायत भी
न कर सकेंगे।
हम पाएंगे, कि ठीक है।
जो हुआ, वह
अपने अवगुणों
के कारण हुआ।
तुमसे हमारी
कोई शिकायत न
होगी। लेकिन
हम तुम्हारी
करुणा को तो
पुकार सकते
हैं।
अब
अस्तित्व में
दोनों तत्त्व
हैं; न्याय के
और करुणा के।
न्याय को
पुकारता है ज्ञानी,
करुणा को
पुकारता है
भक्त। नियम को
पुकारता है
ज्ञानी, करुणा
को पुकारता है
भक्त। भक्त
निर्भर होता है
इस अस्तित्व
की प्रीति पर।
ज्ञानी
निर्भर होता
है इस
अस्तित्व के
नियमों पर।
इसीलिए
मैं तुमसे
कहता हूं, अगर ज्ञानी
ही सिर्फ ठीक
हो, तो
किसी न किसी
दिन धर्म, विज्ञान
का एक छोटा-सा
हिस्सा हो कर
समाप्त हो
जाएगा।
क्योंकि
विज्ञान भी
नियम पर
निर्भर है। वह
भी नियम की
खोज है। इसलिए
आइंस्टीन में
और महावीर के
विचार में
बहुत फर्क
नहीं है। एक न
एक दिन तालमेल
बैठ जाएगा।
आइंस्टीन भी
रिलेटिविटी
की बात करता
है, सापेक्ष
की; और
महावीर भी बात
करते हैं।
महावीर के
वचनों में और
आइंस्टीन के
वचनों में
विरोध खोजना
कठिन है।
कभी न
कभी विज्ञान, जैन धर्म और
बौद्ध धर्म से
राजी हो
जाएगा। उस दिन
जैन धर्म और
बौद्ध धर्म खो
जाएंगे।
क्योंकि जिस
दिन विज्ञान
ही इन काम को
पूरा कर देगा,
उस दिन इन
धर्मो की कोई
जरूरत न रह
जाएगी। जो धर्म
नियम पर
आधारित हैं, उनके खोने
का दिन जल्दी
करीब आ जाएगा।
उस दिन तो वे
ही धर्म
बचेंगे जो नियम
के बाहर हैं, जरा बेबूझ
हैं, पहेली
जैसे हैं।
हिंदू
धर्म बहुत
बेबूझ है।
गहरी से गहरी
पहेली है उसकी; और वह यह
कहता है, कि
वे भी पहुंच
जाते हैं, जिन्होंने
कमाने का दावा
ही नहीं किया।
जिन्होंने
केवल अपने
दुर्गुणों की
स्वीकृति की,
जिन्होंने
अपनी कमियों
को स्वीकार
किया, वे
भी पहुंच जाते
हैं। वे
निरहंकारिता
के कारण
पहुंचते हैं।
और मेरी अपनी
समझ यह है, कि
वे और भी गहरे
पहुंच जाते
हैं, जिन्होंने
परमात्मा के
हृदय से
पहुंचने की कोशिश
की। जो
परमात्मा के
मस्तिष्क से
पहुंच रहे हैं,
नियम के
अनुसार, गणित
के अनुसार; वे भी
पहुंचते हैं,
लेकिन उतने
गहरे नहीं
पहुंच पाते।
"अवगुण
मेरे बापजी . . ."
भक्त
परमात्मा से
संबंध जोड़ता
है। क्योंकि भत्त
यह मान ही
नहीं सकता, कि अस्तित्व
के साथ हमारा
जीवन अनजुड़ा
है। जीसस कहते
हैं परमात्मा
को, "मेरे
पिता।" कबीर
कहते हैं, "बापजी"।
"बापजी"
शब्द बड़ा
प्यारा है।
मैं
राजस्थान में
घूमता था, तो राजस्थान
में ग्रामीण
जब भी आते हैं
किसी संत के
पास, तो वे
कहते हैं
बापजी या
बापू--गुजरात
में भी। तो
कभी-कभी ऐसा
होता-- उदयपुर
के महाराजा के
पिता मुझे
मिलने आए। वे
बड़े सादे भक्त
हैं, बड़े
सीधे आदमी
हैं। दस-पच्चीस
लोग ही मैंने
मुल्क में
देखे हैं, जिनमें
वैसा गुण है।
वे तो बहुत
बूढ़े हैं। मेरे
पिता से भी
उनकी उम्र
ज्यादा है।
मेरे पिता के
पिता की उम्र
के होंगे।
वे
मुझसे जब
"बापजी" कहने
लगे तो मैंने
उनको कहा, "रुकें। मुझे
आप बापजी मत
कहें। आप तो
मेरे पिता के
भी पिता की
उम्र के हैं।"
वे
कहने लगे, कि नहीं।
शरीर की बात
ही नहीं है।
उम्र का सवाल
ही नहीं है।
हम तो आपमें
बापजी को ही
देखते हैं।
बापजी
का अर्थ है, परमात्मा।
बापजी का अर्थ
है, जिससे
सारा जगत हुआ
और जिसमें लीन
हो जाएगा। वह
एक संबंध है
प्रेम का।
परमात्मा
कोई न्यायाधीश
नहीं है।
न्यायाधीश से
भी कोई संबंध
होते हैं? न्यायाधीश
से तो बड़ा
फासला होता
है। न्यायाधीश
तो संबंध
बनाता ही नहीं
किसी से।
इसलिए
न्यायाधीश को
हम वर्ष दो
वर्ष में एक
गांव से दूसरे
गांव में बदली
करते रहते
हैं। क्योंकि
वह एक जगह
ज्यादा देर रह
जाए तो लोगों
से संबंध हो
ही जाएंगे।
आदमी आखिर
आदमी है! जब
संबंध हो
जाएंगे तो
न्याय में
बाधा फड़ने लगेगी।
किसी से
ज्यादा परिचय
हो जाएगा और
उसका लड़का
चोरी में पकड़ा
जाएगा, तो
दो साल की सजा
न देकर दो
महीनों में
निपटा देगा।
किसी से झगड़ा
हो जाएगा, विरोध
बन जाएगा तो
जहां दो महीने
की सजा देनी
थी, दो साल
की दे देगा।
इसलिए
हम
न्यायाधीशों
को एक गांव
में ज्यादा देर
टिकने नहीं
देते। और गांव
में भी टिकें
तो उनसे गांव
से संबंध नहीं
बनने देते।
उनको दूर रहना
चाहिए, फासले
पर रहना चाहिए,
मित्रता
नहीं बनानी
चाहिए।
ऐसे
धर्म हैं, जिनका परमात्मा
से नाता
न्यायाधीश का
है। यह भी कोई
नाता हुआ! यह
तो बात ही
खराब हो गई।
जीवन की सारी
रसधार ही सूख
जाएगी। तुम
फिर नाच न
सकोगे। अदालतों
में कहीं नाच
हो सकता है?इसलिए तो
चर्च उदास हो
गए, मसजिदें
खाली हो गईं, मंदिरों में
नौकर बैठ गए
पूजा करने। सब
काम अदालती हो
गया।
संबंध
सीधा होना
चाहिए। वह
संबंध ऐसा
होना चाहिए
जैसे बेटे और
पिता के बीच
होता है; मां
और बेटे के
बीच होता है; पति-पत्नी
के बीच होता
है; प्रेमी-प्रेयसी
के बीच होता
है। वह संबंध
कहीं निकटता
का होना
चाहिए। वह
संबंध किसी न
किसी रूप में
प्रेम का होना
चाहिए।
और
बहुत तरह के
संबंध भक्तों
ने खोजे हैं।
सूफी फकीर
उसको प्रेयसी
कहते हैं।
उसका भी अपना
राज है। हिंदू
भक्त--मीरा, चैतन्य उसे
पति की तरह
पूजते हैं।
बंगाल में एक
भक्तों का
संप्रदाय है,
राधा
संप्रदाय।
पुरुष भी अपने
को राधा ही
मानता है।
कृष्ण एक ही
हैं, पति
एक ही है।
लेकिन
कबीर का जोर
पिता और बेटे
के संबंध पर है।
इसमें कोई
बातें समझने
जैसी हैं। अगर
वह पिता है, तो पिता और
बेटे के बीच
बड़ा अनूठा
नाता है।
एक तो, बेटा पिता
का ही फैलाव
है। वह उससे
अलग है, अलग
नहीं भी है।
यह बात पहली
समझ लेनी
जरूरी है।
क्योंकि बेटा
है तो पिता का
ही वीर्याणु।
वह उसकी ही यात्रा
है, जीवन-धारा
है। कितनी ही
दूर हो जाए, फिर भी दूर
नहीं, अपना
ही है। आत्मज
कहते हैं हम
बेटे को, कि
वह अपने से ही
जन्मा है।
तो हम
परमात्मा से
कितनी ही दूर
हो जाएं और कितनी
ही पीठ कर लें
और कितनी ही
यात्रा पर निकल
जाएं संसार
में; कोई फर्क
नहीं पड़ता। हम
उससे ही पैदा
हुए हैं।
पति-पत्नी
का संबंध
हमारा बनाया
हुआ है। पिता-बेटे
का संबंध
हमारा बनाया
हुआ नहीं है।
पत्नी को हम
बदल ले सकते
हैं, डायवोर्स
हो सकता है।
पिता को बदलने
का कोई उपाय
नहीं। पत्नी
हम दूसरी चुन
सकते हैं, लेकिन
पिता दूसरा
कैसे चुनिएगा?
कैसे
चुनेंगे
दूसरा पिता? वह बात हो गई,
हो गई। उसके
न होने की कोई
सुविधा नहीं
है।
पिता
को बदला नहीं
जा सकता। वह
अपरिवर्तनीय
संबंध है। और
बेटा कितना ही
बड़ा हो जाए, बाप से बड़ा
कभी नहीं हो
सकता। कोई
उपाय नहीं है।
बेटा बाप से जान
ले ज्यादा, ज्यादा
ज्ञानी हो जाए,
ज्यादा
त्यागी हो जाए,
ज्यादा धन
कमा ले, तो
भी कोई फर्क
नहीं पड़ता।
बाप बाप है, बेटा बेटा
है। और फासला
और अनुपात वही
का वही है, जो
सदा था। बेटा
बूढ़ा हो जाए
तो भी बाप के
लिए बेटा ही
है। कोई अंतर
नहीं पड़ता।
बाप और
बेटे का संबंध
कई और आयामों
में भी बड़ा
महत्त्वपूर्ण
है। बेटे और
बाप के बीच जो
संबंध है, वह अत्यंत
गहन श्रद्धा
का है।
श्रद्धा
प्रेम का
नवनीत है। वह
आखिरी चरण है
प्रेम का।
पति-पत्नी में
संबंध प्रेम
का है। वह टूट
सकता है। प्रेम
घृणा में बदल
सकता है।
लेकिन
श्रद्धा का संबंध
एक बार
निर्मित हो
जाए, तो वह
कभी अश्रद्धा
में नहीं बदल
सकता। अगर बदल
जाए तो समझना
कि वह निर्मित
ही न हुआ था।
श्रद्धा में
वापस लौटने का
उपाय ही नहीं
है। वह पाइंट
आफ नो रिटर्न
है। वहां से
कोई वापस नहीं
लौटता।
गुर्जिएफ
पश्चिम का एक
बहुत बड़ा संत, अपने आश्रम
के बाहर दीवाल
पर लिख रख
छोड़ा था, कि
जिसने अपने
मां-बाप को
आदर देना नहीं
सीख लिया है, उसके लिए
मंदिर के
द्वार बंद
हैं।
बड़ी
हैरानी की बात
थी। इस बात को
वहां लिखने की
क्या जरूरत थी? लोग पूछते
भी गुर्जिएफ
से, कि यह
क्या मामला है?
इससे
मां-बाप से
क्या लेना-देना!
गुर्जिएफ
कहता, कि
जिसने इस
संसार के
मां-बाप से
संबंध श्रद्धा
का नहीं बना
लिया, उसके
पास सीढ़ी ही
नहीं है उस
ऊपर के पिता
की तरफ चढ़ने
की। उसकी सीढ़ी
नहीं है उसके
पास। उसके पास
मौलिक अनुभव
नहीं है, जिसका
बीज बन जाए और
जिसका वृक्ष
हो सके। उसके
पास पहली
कुंजी ही नहीं
है। इसलिए
पूरब में, जहां
धर्मो का जन्म
हुआ--सारे
धर्मो का जन्म
पूरब में हुआ।
पश्चिम में एक
भी धर्म पैदा
नहीं हुआ है।
जैसे सूरज
पूरब में उगता
है, वैसे
सारा धर्म
पूरब में पैदा
हुआ है। पूरब
में जितने
धर्मो का जन्म
हुआ--सभी
धर्मो का
हुआ--और पूरब
में सभी लोगों
ने एक बात पर
जोर दिया है; वह है, बेटे
के द्वारा
पिता के प्रति
एक अनन्य
श्रद्धा, जिसको
तोड़ा नहीं जा
सकता।
कारण
है उसका। कारण
है, क्योंकि
अगर तुम इस
पृथ्वी पर
अपने पिता के
प्रति एक
श्रद्धा का
भाव पैदा नहीं
कर पाए, तो
तुम उस अज्ञात
पिता के प्रति
तो कैसे
श्रद्धा का
भाव पैदा कर
पाओगे? मूल
सीढ़ी खो रही
है। इसलिए जिन
लोगों का भी
अपने पिता से
बहुत अच्छा
संबंध नहीं है,
उन्हें उस
संबंध को
सुधार लेना
चाहिए। उसको बिना
सुधारे उनके
और परमात्मा
के बीच थोड़ी
सी झंझट बनी
रहेगी।
पश्चिम
में परमात्मा
की धारणा टूटती
गई है। और वह
उसी हिसाब से
टूटी है, जिस
हिसाब से बेटे
और बाप का
संबंध टूटा
है। पिछले तीन
सौ वर्षो में
जिस हिसाब से
बेटे और बाप
का संबंध टूटा
है, उसी
हिसाब से
मनुष्य का और
परमात्मा का
संबंध टूटा
है। अब तो
पश्चिम में
बेटे बाप का
संबंध जैसा
कोई संबंध
नहीं रह गया
है। परमात्मा
से भी कोई
संबंध नहीं रह
गया है।
जीवन
में हर चीज
कड़ी की तरह
जुड़ी है।
पृथ्वी के
संबंध भी आकाश
के संबंध की
कड़ियां बनते
हैं।
प्यारा
शब्द है
बापजी।
"अवगुण
मेरे बापजी, बकस गरीब
निवाज।
जे मैं
पूत कपूत हों, तउ पिता को
लाज।।
" और
मुझे पता है, मैं दावा
नहीं कर सकता
सपूत होने का।
हो सकता है, मैं कपूत
हूं, लेकिन
यह मेरी
भूल-चूक है; इससे तुझे
लज्जा में
पड़ने की कोई
भी जरूरत नहीं।
यह मेरी गलती
है। जो भी
भूल-चूक है, वह मेरी है; इससे तुझे
लज्जा में
फड़ने की कोई
भी जरूरत नहीं।
"जे
मैं कपूत हों,
तउ पिता को लाज।"
और
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता, कि बेटा
कपूत हो, कि
सपूत हो। पिता
के प्रेम में
कोई फर्क नहीं
पड़ता। और पड़ता
हो प्रेम में
फर्क, तो
वह पिता का
प्रेम नहीं
है। हालत तो
उलटी है।
अक्सर ऐसा
होता है कि
कपूत बेटे के
प्रति पिता का
ज्यादा प्रेम
और ज्यादा
लगाव होता है।
जीसस
की दूसरी
कहानी है; कि एक बाप के
दो बेटे थे।
छोटा बेटा
उपद्रवी था, लंपट था।
उसने आधी
संपत्ति ले ली
और शहर चला गया
गांव छोड़ कर।
वहां उसने
संपत्ति
बरबाद कर दी
जुए में, शराब
में, स्त्रियों
में। भिखारी
हो गया, दर-दर
भीख मांगने
लगा।
बड़ा
बेटा बाप के
पास रहा। उसकी
खेती में, उसके बगीचों
में काम किया,
मेहनत की।
बाप बूढ़ा था।
जो संपत्ति
उसे मिली भी, उसकी उसने
चारगुनी, पांचगुनी
कर दी।
फिर एक
दिन भीख
मांगते छोटे
बेटे को याद
आई, कि मैं
भीख मांग रहा
हूं। ऐसे न
मालूम कितने भिखारियों
को मेरे पिता
रोज भीख देते
हैं। मैं
जिनसे भीख
मांग रहा हूं,
ऐसे लोग
मेरे पिता के
खेत पर काम
करने आते हैं,
नौकर-चाकर
हैं। क्या
मेरे पिता
मुझे क्षमा न
कर सकेंगे? एक दफा
कोशिश कर लेनी
उचित है।
उसने
खबर भेजी, कि वह वापस
आना चाहता है।
पिता ने बड़ा
स्वागत समारंभ
किया। सारे
गांव को भोज
पर निमंत्रित
किया। पुरानी
से पुरानी
शराब तलघरों
से निकलवाई।
मोटी से मोटी
भेड़ काटने की
आज्ञा दी। घर
में दीये जलाए,
सुगंध
छिड़की गई, बैंड-बाजे
बजाए, फूल-हार
लटकाए। बेटा
लौट रहा है।
बाप बड़ा प्रसन्न
था।
किसी
ने जाकर बड़े
बेटे को खेत
में खबर दी, जो अब भी
वहां मेहनत कर
रहा था, कि
तुम्हें पता
है, घर पर
क्या हो रहा
है? अन्याय
हो रहा है।
तुम्हारा
छोटा भाई लौट
रहा है लंपट
आवारा! सब
बरबाद करके, सब
प्रतिष्ठा खो
कर। और बाप
उसके स्वागत
का समारंभ कर
रहा है।
फूलबत्ती
जलाई जा रही
है, दीप
सजाए जा रहे
हैं, सारे
गांव को
निमंत्रण
मिला है। पुरानी
से पुरानी
शराब निकाली
गई है। मोटी
से मोटी भेड़
को काटने की
आज्ञा दी गई
है। और तुमने
सदा बाप की
सेवा की है, और कभी
तुम्हारे लिए
ऐसा समारंभ न
हुआ? कोई
उत्सव न हुआ? यह अन्याय
है।
बड़े
बेटे को भी
लगा, यह
अन्याय है। वह
बड़े क्रोध में
बगीचे से वापस
लौटा। यह सब
देख कर, वह
तो हैरान हो
गया। उसने बाप
से कहा, कि
आप मेरे साथ
क्या कर रहे
हैं? मेरे
लिए कभी दीये
न जले, मेरे
लिए कभी भोज न
दिया गया। और
मैं सदा से तुम्हारे
चरणों की सेवा
कर रहा हूं।
और ये दीये उसके
लिए जल रहे
हैं, जिसने
तुम्हारी आधी
संपदा बरबाद
कर दी और तुम्हारे
नाम को कालिख
लगा दी। बाप
ने कहा, तू
तो मेरे पास
ही है सदा।
तेरे लिए अलग
से स्वागत की
कोई जरूरत
नहीं। तू तो
मेरे हृदय के
पास है। लेकिन
जो भटक गया है
और वापस आ रहा
है--स्वागत के
बिना ठीक से
वापसी न हो
सकेगी। हम उसे
स्वागत न
देंगे, तो
उसे लगेगा कि
हमने स्वीकार
नहीं किया, अंगीकार
नहीं किया। तू
तो मेरा ही
है। तू कभी दूर
ही न गया।
लेकिन उसके
लिए स्वागत की
जरूरत है, ताकि
उसका
आत्मगौरव
वापस लौट आए।
जैसे
जीसस कहते हैं
परमात्मा
पुण्यात्माओं
के लिए शायद
स्वागत-
समारंभ न भी
दे, लेकिन
जिन्होंने
अपने अवगुण स्वीकार
कर लिए हैं और
जिन्होंने
प्रार्थना भेजी
है, कि हम
वापस लौट आना
चाहते हैं, उनके लिए
बड़ा
स्वागत-समारंभ
रचा जाता है।
जीसस
ने कहा है, जैसे
गड़ेरिया अगर
उसकी एक भेड़
खो जाए तो
अपनी सौ भेड़ों
को अंधेरी रात
में, अकेले
पहाड़ पर छोड़
कर खोई भेड़ को
खोजने निकल जाता
है। और जब भेड़
मिल जाती है
तो उसे कंधे
पर लेकर लौटता
है और बड़ा खुश
होता है। और
जो भेड़ें सदा उसके
पास थीं, उन्हें
कभी कंधे पर
लेकर नहीं चला
और न कभी प्रसन्न
हुआ। कोई
जरूरत ही न
थी। भक्त की
धारणा यह है, कि अगर तुम
अपने हृदय को
पूरा
परमात्मा के
सामने खोल दो;
अपने पाप को,
अपने अफराध
को, अपनी
दीनता को, दरिद्रता
को--वही खोल
देना, वही
कन्फेशन, वही
स्वीकारोक्ति
उसके हाथ का
तुम्हारे तरफ बढ़ने
का उपाय हो
जाएगा।
तुम
उससे भटक गए
हो, वह भी
तुम्हें खोज
रहा है। उसका
हाथ भी अंधेरे
में तुम्हें
टटोल रहा है।
तुम अकेले ही
नहीं खोज रहे
हो, अस्तित्व
भी तुम्हें
खोज रहा है।
अगर तुम अकेले
ही खोज रहे हो
और अस्तित्व
बिलकुल
निरपेक्ष है,
तो खोज पाकर
भी क्या समाधि
घटित होगी? खोज पाकर, घर लौट कर भी
अगर वहां कोई
दीये जलते न
मिले, कोई
स्वागत न मिले,
कोई
स्वागत-समारंभ
न हुआ, तो
घर आना भी
क्या घर आना
होगा? फिर
धर्मशाला और
घर में क्या
फर्क होगा?
नहीं, अस्तित्व भी
खोज रहा है।
ईसाइयत की बड़ी
से बड़ी देन
दुनिया को एक
ही है, कि
मनुष्य ही
परमात्मा को
नहीं खोज रहा
है, परमात्मा
भी मनुष्य को
खोज रहा है।
उसका हाथ भी
तुम्हें टटोल
रहा है।
"जे
मैं पूत कपूत हों,
तउ पिता को
लाज।
मन
परतीत न प्रेम
रस"-- न तो कोई
प्रतीति है मन
में; कोई
अनुभव नहीं। न
कोई प्रेम का
रस है।
"ना
कछु तन में
ढंग"—
न शरीर
ही कोई ढंग का
है। किस मुंह
से तेरे सामने
आऊं? किस
हिम्मत से
तेरे द्वार को
खटखटाऊं? किस
आधार पर
पुकारूं, चिल्लाऊं
तुझे? किस
पात्रता पर
दावा करूं?
"मन
परतीत न प्रेम
रस, ना कछु
तन में ढंग।
ना
जानौ उस पीव
को, क्यों कर
रहसी रंग।।"
और न
कभी तुझे देखा, न कभी तुझे
जाना।
प्यारे
से कभी पहचान
ही न हुई। उस
प्रियतम से कभी
मिलना ही न
हुआ।
"ना
जानौ उस पीव
को, क्यों
कर रहसी
रंग।"तो कैसे
समझूं, कि
कौन सा रंग, कौन सा
रहस्य, कौन
सा रास, कौन
सा आनंद घटित
होगा तेरे
द्वार पर? कैसी
तैयारी करूं?
किस रंग में
अपने को रंगू?"
किस रहस्य
में डुबाऊं? तेरे द्वार
पर कौन
स्वीकृत होता
है, कैसे
मुझे पता चले?
"ना
जानौ उस पीव
को, क्यों
कर रहसी रंग।"
तो किस
भांति नाचूं, कौन सा गीत
गाऊं? कौन
से वाद्य तुझे
प्रिय हैं? कौन सा रंग, कौन सा रास? कुछ भी तो
पता नहीं है।
"मन
परतीत न प्रेम
रस, ना कछु तन में
ढंग।
ना
जानौ उस पीव
को, क्यों कर
रहसी रंग।।"
मेरा
मुझमें कुछ
नहीं, जो
कछु है सो
तोर।
तेरा
तुझको सौंपते
क्या लागत है
मोर।।
" भक्त
का यही भाव है,
कि अगर मेरा
मुझमें कुछ है,
तो वे सब
दुर्गुण हैं।
अगर मेरा
मुझमें कुछ है,
तो वह सब
अंधकार है।
अगर मेरा
मुझमें कुछ है,
तो वे सब
बीमारियां
हैं, उपाधियां
हैं। उनकी तो
तुझसे बात भी
क्या करें!
उनसे तो कोई
पात्रता बनती
नहीं, न
मेरी कोई
योग्यता
सम्हलती है, न मेरा दावा
निर्मित होता
है।
और तू
कैसा है, तेरी
क्या पसंद है,
क्या लेकर
तेरे द्वार पर
आऊं? कैसे
चेहरे तुझे
प्रिय हैं? कैसी आंखें
तुझे प्यारी
लगती हैं? कैसे
हृदय को तू
हृदय लगा लेता
है? तेरा
ही पता नहीं
है; तो मैं
तेरे द्वार पर
गलत ही
पहुंचूंगा।
ठीक पहुंचने
का उपाय कहां
है?
तो गलत
तो मुझमें
बहुत है, भक्त
कहता है। और
जो कुछ ठीक हो,
उसका मैं
क्या दावा
करूं?
"मेरा
मुझमें कुछ
नहीं . . ."
अगर
कुछ ठीक हो, तो वह तेरी
सुगंध है, तेरा
दान है, वह
तेरी जीवन-धार
है। तू ही है।
"मेरा
मुझमें कुछ
नहीं, जो
कछु है सो
तोर।" कुछ भी
अगर कहने
योग्य हो, प्रशंसा
योग्य हो, तो
वह तेरा है।
और समर्पण
करने में मुझे
अड़चन क्या?"तेरा तुझको
सौंपते"--तेरा
ही तुझे सौंप
रहा हूं।"
क्या
लागत है मोर?
मेरा
लगता ही क्या
है? मेरा
खर्च ही क्या
हो रहा है?लोग
परमात्मा पर
समर्पण भी
करते हैं तो
ऐसे, जैसे
कोई एहसान
करते हैं।
कभी-कभी मेरे
पास लोग आ
जाते हैं। वे
कहते हैं कि
हमने तय कर
लिया कि अब सब
आप ही समर्पण
करते हैं।
लेकिन वे इस
ढंग से कहते
हैं, कि
जैसे कोई बहुत
बड़ा एहसान कर
रहे हैं किसी
पर।
समर्पण
तो तुम तभी कर
पाओगे जब तुम
समझोगे, कि
तुम्हारे पास
समर्पण करने
योग्य कुछ भी
तो नहीं है।
है क्या, जिसको
तुम समर्पण कर
रहे हो? था
क्या, जिसको
तुम समर्पण
करने ले आए हो?
कुछ भी तो
नहीं है।
और फिर
परमात्मा के
द्वार पर तो
एक ही बात हो सकती
है। वह कबीर
ठीक कह रहे
हैं।
"मेरा
मुझमें कुछ नहीं,
जो कछु है
सो तोर।
तेरा
तुझको सौंपते, क्या लागत
है मोर।।" यही
समर्पण का भाव
है।
दो
बातें, दो
शब्द तुम याद
रख लो--एक है
अहंकार और
दूसरा है
समर्पण।
अहंकार यानी
संसार, समर्पण
यानी मुक्ति।
अहंकार यानी
तुम, और
समर्पण यानी
परमात्मा।
अहंकार यानी
नरक, समर्पण
यानी स्वर्ग।
छोड़ दो
अपने को उस के
हाथ में। नदी
बही ही जा रही
है सागर की
तरफ। तुम नाहक
ही तैरने की
कोशिश कर रहे
हो।
छोड़ दो नदी
में। तैरने की
भी जरूरत नहीं
है। निवेदन कर
दो, कि जैसा
हूं, मुझे
स्वीकार कर
लो। और अन्यथा
होना मैं जानता
भी कहां हूं?
और मैं
तुमसे कहता
हूं, जिस दिन
तुम ऐसा कर
पाओगे, उसी
क्षण अन्यथा
हो जाओगे। जिस
क्षण तुम कह
सकोगे, कि
मेरे पास है
ही क्या, जो
तुझे दूं? जो
है, तेरा
ही है। समर्पण
भी किस मुंह
से करूं? किसका
करूं? अपना
कुछ होता तो
समर्पण की अकड़
भी बचती। तेरा
ही तुझे
लौटाता हूं।
तुझसे ही जो
आया वह तुझे
ही मे वापस
लौटता है।
तेरी ही जलधार
तेरे सागर में
वापस गिरती है;
इसमें क्या
गौरव है? क्या
गरिमा है?तू
अंगीकार कर ले,
इतना ही
काफी है।
क्योंकि राह
में बहुत धूल,
कूड़ा, कचरा,
मिट्टी
मैंने इकट्ठी
कर ली। तेरी
जलधार उतनी शुद्ध
नहीं है, जितनी
तूने भेजी थी।
आकाश
में बादल
घिरते हैं, मेघों से जल
बरसता है
शुद्ध, फिर
जमीन पर आता
है। जमीन पर
आते-आते ही
अशुद्ध होने
लगता है।
हवाओं में
धूल-कण हैं, जल की
बूंदें पकड़
लेती हैं। फिर
मिट्टी पर गिरता
है, फिर सब
तरह की गंदगी
पकड़ लेती है।
सब तरह का स्थूल
पदार्थ का जगत
जल को ओतप्रोत
कर लेता है।
फिर बहता है
सागर की तरफ।
जैसे-जैसे
बहता है, गांव
की, नगरों
की, शहरों
की गंदगी
मिलती चली
जाती है।
शुद्ध जल तो
परमात्मा का
है; वह जो
मेघ से घिरा
था। लेकिन
बाकी जो राह
में गंदगी
इकट्ठी कर ली
है, वह
तुम्हारी है।
और जब
वापस नदी सागर
में गिरेगी तो
किस मुंह से
तुम कहोगे
समर्पण करता
हूं? तब तुम
यही कहोगे, जो कबीर
कहते हैं--
"सुरति
करौ मेरे
सांइयां, हम
हैं भवजल
मांहि।
आपे ही
बहि जाएंगे, जे नहिं
पकरौ बांहि।।
अवगुण
मेरे बापजी, बकस गरीब
निवाज।
जे मैं
पूत कपूत हों, तउ पिता को
लाज।।
मन परतीत
न प्रेम रस, ना कछु तन में
ढंग।
ना
जानौ उस पीव
को, क्यों कर
रहसी रंग।।
मेरा
मुझमें कुछ
नहीं, जो
कछु है सो
तोर।
तेरा
तुझको सौंपते, क्या लागत
है मोर।।"
समर्पण
की यह भावदशा
है।
दुर्गुण
मेरे हैं, सदगुण तेरे
हैं। दुर्गुण
छोड़ना मुझे
आता नहीं; नहीं
तो छोड़ ही दिए
होते। सदगुण
पैदा करना
मुझे आता नहीं;
नहीं तो
पैदा कर लिए
होते।
तो अब
सब छोड़ देता
हूं। दुर्गुण, सदगुण--सब
तेरे ही चरणों
में रख देता
हूं। तू ही
सम्हाल ले। जो
तुझे करना हो।
और यही
रहस्य है जीवन
का, कि जिस
दिन कोई
व्यक्ति
परमात्मा में
इस भांति
समर्पित हो
जाता है, सभी
दुर्गुण
अचानक सदगुण
के लिए उपयोगी
हो जाते हैं।
अंधकार
पृष्ठभूमि बन
जाता है
प्रकाश की।
क्रोध
रूपांतरित
होकर करुणा बन
जाता है। कामवासना
उर्ध्वगमन
करती है, ब्रह्मचर्य
हो जाती है।
मोह बदलता है
ढंग, और
प्रेम हो जाता
है।
सब बदल
जाता है।
समर्पित करते
ही, अहंकार
के हटते ही, सागर में
गिरते ही सब
शुद्ध हो जाता
है।
फिर
मेघ उठने लगते
हैं सागर से
परम शुद्ध
होकर, फिर
गंगोत्री पर
बरसने की
तैयारी हो
जाती है।
जीवन, चेष्टा नहीं
है, समर्पण
है। "लेट गो"
है; छोड़
देना है।
जितना तुम
लड़ोगे उतना ही
तुम मुश्किल
में पड़ोगे।
अहंकार
संघर्ष है, समर्पण
असंघर्ष की
दशा है।
पर तब
सभी स्वीकार
कर लेना है
छोड़ कर। फिर
जो उसकी
मर्जी! जैसा
वह रखे, जैसा
वह चलाए, जहां
वह ले जाए, जो
वह करे।
अचानक
तुम पाओगे, सब हलका हो
गया। गरीब रखे
तो गरीब; अमीर
रखे तो अमीर।
स्वर्ग
ले जाए तो
स्वर्ग; नरक
ले जाए तो
नरक।
जिस
दिन तुमने सब
उसके हाथ पर
छोड़ दिया, उसका हाथ
तत्क्षण
तुम्हें
सम्हाल लेता
है। उसके हाथ
का सवाल है।
उसके हाथ में
हाथ हो, तो
नरक स्वर्ग हो
जाता है। दुःख
सुख हो जाते हैं।
पीड़ाएं बड़े
अपूर्व आनंद
में
रूपांतरित हो
जाती हैं।
क्षुद्र
विराट हो जाता
है।
सीमा
तो अहंकार की
है, समर्पण
की कोई सीमा
नहीं।
तत्क्षण, अहंकार
के गिरते ही
तुम असीम हो
जाते हो।
अभी तक
तुमने समझा
था। तुम दीवाल
में घिरे आंगन
हो; अब तुम सब
जानते हो तुम
सब तरफ फैले
आकाश हो।
"मेरा
मुझमें कुछ
नहीं, जो
कछु है सो
तोर।
तेरा
तुझको सौंपते, क्या लागत
है मोर।।"
आज
इतना ही।
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