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बुधवार, 19 नवंबर 2014

बुद्ध-सुअरी देख मुस्‍कुराए—(कथायात्रा—026)

 बुद्ध एक सुअरी को देख कर मुस्‍कुराए--(कथा--यात्रा)

गवान वेणुवन में विहार करते थे। एक दिन भिक्षाटन को जाते हुए राह में एक सुअरी को देखकर ठिठक गए और फिर कुछ सोचकर मुस्कुराए और आगे बड़े एक सुअरी को देखकर...। आनंद स्थविर ने— जो उनके साथ सदा छाया की तरह लगा रहता था उनका सेवक था— यह देखा कि बुद्ध ठिठके एक सुअरी को देखकर! कुछ सोचा। फिर मुस्कुराए और आगे बड़े। आनंद अपनी जिज्ञासा को न रोक सका। और उसने भगवान से ठिठकने फिर कुछ सोचने और फिर मुस्कुराने का कारण पूछा
शास्ता ने कहा. आनंद! यह सुअरी ककुसंध बुद्ध के शासन में एक मुर्गी थी। और प्राचीन बुद्ध ककुसंधु उनके शासन में एक मुर्गी थी। भगवान ककुसंध के वचनों को सुनकर और भगवान के विहार— स्थल के पास ही रहने के कारण उनके प्रति प्रीति को उत्पन्न हो गयी थी।
जब वे बोलते तो यह सदा पास आ जाती। समझ न भी सकती तो भी सुनती समझ कोन सकता है? तो भी सुनती। भावविभोर हो जाती तन्मय हो जाती।

मुर्गी ही थी। कुछ ज्यादा सोच—विचार की संभावना भी न थी। आदमियों तक की नहीं है! लेकिन सरल थी, निर्दोष थी। उनकी सुवास इस अज्ञानी मुर्गी को भी छू गयी थी।
भगवान जब भी बोलते यह आसपास ही बनी रहती। इसे सत्संग का चाव लग गया था।
ऐसा हो जाता है। महर्षि रमण के पास एक गाय बनी रहती थी। यह तो अभी की बात है। वे जब बोलते, तो गाय निश्चित आ जाती। खिड़की में से सिर अंदर कर लेती। सुनती रहती! जब तक वे बोलते, बराबर सुनती रहती। जैसे ही बोलना बंद करते—जाती। रोज आती। इतना नियमित भक्त कोई भी नहीं था, जितनी गाय थी! जब गाय मरी, तो रमण महर्षि ने उसे वैसे ही सम्मान से विदा दी, जैसे कोई मनुष्य को देता है। उसकी समाधि बनवायी।
ऐसी ही यह मुर्गी रही होगी। जब भगवान ध्यान करते, तो यह अत्यंत निकट आकर खड़ी रहती थी। कभी—कभी आंखें बंद कर लेती थी। ज्यादा तो नहीं समझ सकती थी, लेकिन जैसा भगवान शांत बैठे, ऐसे ही यह भी शांति खड़ी हो जाती। देखती भगवान हिलते—डुलते नहीं; यह भी अडोल हो जाती। देखती. उन्होंने आंखें बंद कीं, तो यह भी आंखें बंद कर लेती। ऐसे धीरे— धीरे इसको रस लगा; रस पगी। धीरे— धीरे सुवास पकड़ी। सत्संग जमा।
ऐसे उसने बहुत पुण्य अर्जन किया था। और उस पुण्य के कारण दूसरे जन्म में उवरी नाम की राजकन्या होकर उत्पन्न हुई थी। उस दूसरे जन्म में एक पाखानाघर में कीड़ों को देखकर पुलवक लगा की भावना कर प्रथम ध्यान को प्राप्त हुई। मुर्गी थी। ककुसंध के सान्निध्य का परिणाम राजकुमारी होकर पैदा हुई। जब राजकुमारी होकर पैदा हुई, तो एक दिन पाखाने में कीड़े दिखायी पडे, उन कीड़ों को देखकर उसे अपूर्व बोध हुआ—कि ऐसी ही तो हमारी दशा है। जैसे कीड़े बिलबिला रहे हैं, ऐसे ही आदमी बिलबिला रहा है! और कीड़े भी सोचते पाखाने के कि बड़े मस्ती में हैं। संसार बसा रहे हैं। वे भी प्रेम में पड़ते। विवाह इत्यादि करते। बच्चे पैदा करते। सारा संसार जमाते। ऐसे ही तो हम भी हैं। हम में और इनमें भेद क्या है?
ऐसा उसे बोध हुआ। तो पहले ध्यान का फूल उसके जीवन में खिला था। उस पुण्‍य के कारण उस ध्यान के कारण उस ध्यान— धन के कारण फिर ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुई। एक देवी की तरह उत्पन्न हुई देवतालोक में उत्पन्न हुई। लेकिन देवलोक के सुख में मूर्च्छित हो गयी।
अक्सर ऐसा होता है दुख जगा देता है, सुख सुला देता है। इसलिए सुख से सावधान रहना। दुख इतना बड़ा अभिशाप नहीं जितना सुख है। क्योंकि दुख में तो कोई सो नहीं सकता। दुख की पीड़ा जगाए रखती है। सुख में आदमी सो जाता है। मुर्गी थी, तब ककुसंध बुद्ध का सत्संग करने का रस लिया। उसके परिणाम में राजकुमारी हुई। राजकुमारी थी, तो पाखाने में कीड़ों को देखकर इस बोध को उत्पन्न हो गयी कि सब असार है। और योनियों में भटकना बहुत हो चुका। कंप गयी होगी—कि कभी शायद मैं भी पाखाने का कीड़ा रही होऊं। या कभी हो जाऊं। उस अवस्था में मोह—तृष्णा क्षीण हो गयी, भवतृष्णा क्षीण हो गयी। जीवन को पकड़ने का जो भाव था, वह एकदम शिथिल हो गया। उस ध्यान के कारण देवलोक में उत्पन्न हुई।
लेकिन बुद्ध ने कहा आनंद समझना। देवलोक के सुख में मूर्च्छित हो गयी। और अब ध्यान— धन के चुक जाने के कारण इस पृथ्वी पर पुन: सुअर की बेटी होकर गैदा हुई है। आवागमन के इस चक्कर को देखकर मैं ठिठका बुद्ध ने कहा सोच में पड़ा। और फिर इसलिए मुस्कुराया कि कैसी मूढ़ता है! जागते— जागते फिर सो गए। उठते— उठते फिर गिर गए!
देवलोक से भी आदमी गिर जाता है, क्योंकि पुण्य एक दिन चुक जाते हैं। समाधि से नहीं कोई गिरता है, ध्यान से गिर जाता है। ध्यान और समाधि में यही फर्क है। ध्यान यात्रा है; तुम चाहो तो बीच से लौट सकते हो। समाधि मंजिल है, एक बार पहुंच गए, फिर लौटना नहीं है। क्योंकि समाधि में तुम खो जाओगे। बचता सी नहीं कोई लौटने वाला। जब तक निर्वाण न घट जाए तब तक गिरने का डर है, संभावना है।
तो बुद्ध कहते हैं. मैं ठिठका। यह कैसा हुआ! मुर्गी थी, तब इतना पुण्य अर्जन किया और देवी होकर गिरी और सुअर की बेटी होकर पैदा हुई! तो चौंका; सोच —विचार में पड़ा। फिर हंसी भी आयी कि कैसा आदमी है! कैसी मूढ़ता है! यह कथा सुनकर आनंद तथा अन्य भिक्षु जो बुद्ध के साथ भिक्षाटन को गए थे, महान संवेग को प्राप्त हुए। शास्ता ने उनमें पैदा हुए संवेग को देखकर नगर की वीथी में खड़े हुए ही इन गाथाओं को कहा।
बोलने के क्षण होते हैं, तभी कुछ बातें कही जाती हैं। जैसे लोहा गरम हो, तभी पीटा जाता है, तभी कुछ बन सकता है। तो सड़क पर खड़े हुए बुद्ध ने ये वचन कहे। क्योंकि लौटते—लौटते विहार तक संवेग खो जाए। आदमी का भरोसा क्या!
ये जो भिक्षु साथ गए थे, इस घटना के आघात में एकदम चौकन्ने हो गए थे; इस घटना के आघात में बड़े जागरूक हो गए थे। उस जागरूकता के क्षण को चूका नहीं जा सकता है। इसलिए बुद्ध ने बीच सड़क में खड़े होकर ये वचन कहे।
यथापि मूले अनुपद्दवे दल्‍हे छिन्‍नोपि रूक्‍खो पुनरेव रूहति।
एवम्‍पि तण्‍हानुसये अनूहते निब्‍बत्‍तति दुक्‍खमिदं पुनण्‍पुनं।।

 'जैसे दृढ़ मूल के बिलकुल नष्ट न हो जाने से कटा हुआ वृक्ष फिर भी वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही तृष्णा और अनुशय के समूल नष्ट न होने से यह दुख—चक्र बार—बार प्रवर्तित होता है।'
तो बुद्ध ने कहा कि भिक्षुओ, पत्ते और शाखाएं मत काटते रहना; जड़—मूल से तृष्णा को काटना है। अगर जड़ बच गयी—मूल जड़ बच गयी—तो तुम पूरे वृक्ष को भी काट दो, फिर नए अंकुर निकल आते हैं।
ऐसा ही इस बेचारी सुअरी को हुआ। मुर्गी थी। अनजाने कुछ शाखाएं गिर गयीं। फिर राजकुमारी थी, तो संवेग की एक दशा में, भाव के एक प्रवाह में ध्यान फला। लेकिन तृष्णा जड़—मूल से नहीं गयी, तो स्वर्ग तक पहुंचकर वापस लौट आयी। फिर अंकुर आ गए। फिर तृष्णा ने पकड़ लिया!
सात अनुशय कहे हैं बुद्ध ने. काम, भवराग। भवराग का अर्थ होता है. मैं जीऊं, मैं सदा जीऊं; मैं बना रहूं मैं कभी मिटू नहीं। प्रतिहिंसा, मान; मिथ्यादृष्टि—जैसा है, उसको वैसा न देखना, जैसा है, उसको कुछ और करके, कुछ और बनाकर देखना, अपने मन के अनुकूल बनाकर देखना। संदेह और अविद्या—ये सात अनुशय हैं। ये सातों जड़ें हैं, जिन पर तृष्णा खड़ी है, जिन पर तृष्णा का वृक्ष बडा होता है। ये सातों अनुशय कट जाएं, तो तृष्णा कटती है! फिर उसमें कभी अंकुर नहीं आते।

यस्‍स छतिंसति सोता मनापस्‍सवना भुसा।
वाहा वहन्‍ति दुद्दिट्ठिं संकप्‍पा रागनिस्‍सितिा।।
 'जिसके छत्तीसों स्रोत संसार में प्रिय पदार्थों की तरफ बने रहते हैं, उसके रागपूर्ण संकल्प उसे दुर्दृष्टि की ओर बहा ले जाते हैं।'
और तुम अनंत रूपों में संसार की वस्तुओं की तरफ बह रहे हो। तुम्हारे सब द्वार संसार की तरफ खुले हैं, जो तुम्हें दुर्दृष्टि में बहा ले जाते हैं।
इधर एक सुंदर स्त्री दिखायी पड़ गयी—और तुम बहे। यहां किसी की सुंदर कार दिखायी पड़ गयी—और तुम बहे। यहां किसी का बड़ा मकान दिखायी पड़ गया—और तुम बहे। यहां कोई सुंदर कपड़े पहनकर निकला है—और तुम बहे।
जागकर चलना होगा।
इस तरह बुद्ध ने कहा : ये छत्तीस द्वार हैं, जो बहाते हैं। जो तुम्हें प्रतिपल पुकार रहे हैं आ जाओ, बाहर आ जाओ। और यह जो लता है बिना जड़ की, यह बढ़ती चली जाती है, फैलती चली जाती है।
सवन्‍ति सब्‍बधि सोता लता उब्‍भिज्‍ज तिट्ठति।
तन्‍च दिस्‍वा लतं जातं मूलं पज्‍जाय छिन्‍दथ।।

 'ये स्रोत सभी तरफ बहते हैं। लता फूटकर निकलती है। उसी फूटी हुई लता को देखकर उसके मूल को प्रज्ञा से काट डालो।'
तो बुद्ध कहते हैं ये सात मूल, सात अनुशय हैं, इन्हें काटोगे कैसे? किस कुल्हाड़ी से काटोगे? प्रज्ञा की कुल्हाड़ी से।
प्रज्ञा का अर्थ होता है. जागरूकता, अवेयरनेस। प्रज्ञा का अर्थ होता है : प्रतिपल होशपूर्वक जीना, एक क्षण को भी बेहोशी में न करना कुछ। राह चलो, तो ऐसे चलना, जागे हुए। भोजन करो, तो जागे हुए। बोलो, तो जागे हुए। क्रोध, लोभ, मोह—कुछ भी आए, तुम जागे हुए रहना।
और एक अपूर्व घटना घट जाती है। जागरण के साथ ही जो तुम्हारे शत्रु हैं, तुम्हारे पास आने बंद हो जाते हैं। और जो तुम्हारे मित्र हैं, वही आते हैं। जागरण के साथ धृणा खो जाती है, प्रेम बचता है। मूर्च्छा में प्रेम खो जाता है, घृणा बचती है। जागरण में क्रोध खो जाता, करुणा बचती है। मूर्च्छा में करुणा खो जाती, क्रोध बचता है।
बुद्ध ने कहा है. जैसे किसी घर में दीया जला हो और घर का मालिक जगा हो, तो चोर उस घर की तरफ नहीं आते। पहरेदार सजग हों, घर में दीया जला हो; खिड़कियों से रोशनी बाहर आती हो और मालिक चलता—फिरता हो, तो चोर उस तरफ नहीं आते। दूर—दूर रहते हैं।
मालिक सोया हो, घर का दीया बुझा पड़ा हो, घर में गहन अंधकार हो, पहरेदार शराब पीकर पड़ा हो; फिर चोरों के लिए निमंत्रण है। तुमने खुद ही निमंत्रण भेज दिया! फिर चोर न आएं, तो क्या करें! चोरों को कसूर मत देना। चोरों को दोषी मत ठहराना। तुम ही दोषी हो।
ऐसी ही मन की दशा है। जब मन में होश का दीया जगा होता है, जब तुम्हारा ध्यान पहरे पर बैठा होता है, जब तुम्हारा मालिक शराब पीकर खोया नहीं रहता, मूर्च्छा में डूबा नहीं रहता....।
और शराबें बहुत तरह की हैं। अहंकार की शराब है; उसको पीकर कपिल नाम का भिक्षु महापंडित था, लेकिन गिरा—गर्त में गिरा। भयंकर दुर्गंध वाली मछली हुआ। सुख भी शराब है, उसको पीकर राजकुमारी, जो देवलोक पहुंच गयी थी, वहां से गिरी। और कैसी गिरी कि सुअर की बेटी हुई! किस बुरी तरह खोया!
मूर्च्छा गिराती है, क्योंकि मूर्च्छा शत्रुओं को निमंत्रण है। और होश पहुंचाता है, क्योंकि होश के साथ वही बचता है, जो शुभ है।
होश में जो हो, वही पुण्य; बेहोशी में जो हो, वही पाप। इसे तुम कसौटी
ओशो
एस धम्‍म सनंतनो

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