दिनांक 8
फरवरी, 1977;
श्री
ओशो आश्रम, पूना।
जनमउवाच:
क्व
भूतानि क्व
देहो वा क्वेंद्रियाणि
क्व वा मन:।
क्व
शून्यं क्व व
नैराश्यं
मतस्वरूपे
निरंजने।। 285।।
क्व
शास्त्र
क्यात्मविज्ञानं
क्व वा
निर्विषयं मन:।
क्व
तृप्ति: क्व
वितृष्णत्व
गतद्वंद्वस्थ
मे सदा।। 286।।
क्व
विछा क्व न
वाउविद्या
क्याहं
क्येदं मम क्व
वा।
क्व
बध: क्व च वा
मोक्ष:
स्वरूपस्थ क्व
रूपिता।। 287।।
क्व
प्रारब्धानि
कर्माणि
जीवनमक्तिरयि
क्व जा।
क्व
तद्विदेहकैवल्य
निर्विशेषस्थ
सर्वदा।। 288।।
क्व
कर्ता क्व व
वा भोक्ता
निकियं
स्करणं क्व
वा।
क्यापरन्धें
फलं वा क्व
निस्वभावस्थ
मे सदा।। 289।।
क्व
लोक: क्व
मुमुमुर्वा क्व
योगी
ज्ञानवान् क्व
वा।
क्व
बद्ध: क्व व
वा मुक्त:
स्वस्वरूयेध्हमद्वये।।
290।।
क्व
सृष्टि: क्व
व संहार: क्व
साव्यं क्व च
साधनम्।
क्व
साधक: क्व
सिद्धिर्वा
स्वस्वरूयेऽहमद्वये।।
291।।
अश्रु से
मेरी नहीं
पहचान थी कुछ
दर्द से
परिचय
तुम्हीं ने तो
कराया
छू दिया
तुमने हृदय की
धड़कनों को
गीत का
अंकुर
तुम्हीं ने तो
उगाया
मूक मन
को स्वर दिये
हैं बस
तुम्हीं ने
उम्र भर
एहसान
भूलूंगा नहीं
मैं
मैं न
पाता सीख यह
भाषा नयन की
तुम न
मिलते उम्र
मेरी व्यर्थ
होती
सांस
ढोती शव विवश
अपना स्वयं ही
और मेरी
जिंदगी किस
अर्थ होती
प्राण
को विश्वास
सौंपा बस तुम्हीं
ने
उम्र भर
एहसान
भूलूंगा नहीं
मैं
तुम
मिले हो क्या
मुझे साथी सफर
में
राह से
कुछ मोह जैसा
हो गया है
एक
सूनापन कि जो
मन को डसे था
राह में
गिरकर कहीं वह
खो गया है
शोक को
उत्सव किया है
बस तुम्हीं ने
उम्र भर
एहसान
भूलूंगा नहीं
मैं
यह हृदय
पाहन बना रहता
सदा ही
सच कहूं
यदि जिंदगी
में तुम न
मिलते
यूं न
फिर मधुमास
मेरा मित्र
होता
और
अधरों पर न यह
फिर फूल खिलते
भग्न
मंदिर फिर
बनाया बस
तुम्हीं ने
उम्र भर
एहसान
भूलूंगा नहीं
मैं
तीर्थ
सा मन कर दिया
है बस तुम्हीं
ने
उम्र भर
एहसान
भूलूंगा नहीं
मैं
शिष्य
की बड़ी
असमर्थता है
धन्यवाद देने
में। किन
शब्दों में
बांधे
धन्यवाद? क्योंकि
शब्द भी गुरु
के ही दिये
हुए हैं। मूक
ही निवेदन हो
सकता है।
लेकिन फिर भी
कहने का कुछ
मन होता है।
बिन कहे भी
रहा नहीं जाता।
तो एक
ही उपाय है कि
गुरु की
प्रतिध्वनि
गंजे। जो गुरु
ने कहा है, शिष्य
उसे अपने
प्राणों में
गुजाए। जो
गुरु ने बजाया
है, शिष्य
की प्राण—वीणा
पर भी बजे।
यही धन्यवाद
होगा, यही
आभार होगा।
गुरु से उऋण
होने का कोई
उपाय नहीं है।
बुद्ध से उनके
शिष्यों ने
पूछा है कि
इतना आपने
दिया है, हम
कभी उऋण होना
चाहें तो कैसे?
हम चुका कैसे
पाएंगे? हम
कृतज्ञता
कैसे ज्ञापन
करें? तो
बुद्ध ने कहा,
एक ही काम
है, एक ही
संभावना है कि
जो मैंने
तुम्हें दिया
है, जाओ और
दूसरों को दो।
बांटो। यही एक
उपाय है—जो
सुगंध गुरु से
मिली है, वह
बांट दी जाए।
इन
अंतिम
सूत्रों में
जनक उसी
अपूर्व
भावदशा को
अभिव्यक्त कर
रहे हैं। और
इस
अभिव्यक्ति
में सारा
संवाद
संक्षिप्त होकर
आ गया है। यह
सार—निचोड़ है।
अगर ये अंतिम
सूत्र बच जाएं
और पूरी
महागीता खो
जाए, तो
कुछ हानि न
होगी। जनक ने
ठीक—ठीक
संक्षिप्त कर
दिया है। जैसे
बीज से वृक्ष
होता और फिर
वृक्ष में बीज
लग जाते हैं, ऐसी एक छोटी—सी
जिज्ञासा जनक
ने उठायी थी—
बीज की तरह थी
जिज्ञासा—अष्टावक्र
ने उसका वृक्ष
किया, अब
जनक फिर उसे
बीज किये दे
रहे हैं। फिर
संक्षिप्त
किये दे रहे
हैं। फिर
सूत्र में
बांधे दे रहे
हैं। उनकी
अड़चन समझी जा
सकती है। उनकी
बेचैनी भी
समझी जा सकती
है। कुछ भी देकर
धन्यवाद हो
नहीं सकता।
जीव भर
का सुबरन
देकर भी
करता मन
दे दूं
कुछ और अभी
तन
अंगीकार करो
मन—धन
स्वीकार करो
लोभ—मोह—भ्रम
लेकर
प्राण
निर्विकार
करो
प्रति
पल प्रति याम
दूं
सवेरे
दूं शाम दूं
जब तक
पूजा—प्रसमन
देकर भी
करता मन
दे दूं
कुछ और अभी
भक्ति—भाव
अर्जन लो
शक्ति
साध सर्जन लो
अर्पित
है अंतर्तम
अहं का
विसर्जन लो
जन्म लो
मरण ले लो
स्वप्न—जागरण
ले लो
चिर
संचित श्रम
साधन
देकर भी
करता मन
दे दूं
कुछ और अभी
यह नाम
तुम्हारा हो
धन— धाम
तुम्हारा हो
मात्र
कर्म मेरे हों
परिणाम
तुम्हारा हो
उंगलियां
सुमरनी हों
सांसें
अनुसरणी हों
शाश्वत
स्वर आत्म—सुमन
देकर भी
करता मन
दे दूं
कुछ और अभी
इस
पीड़ा को समझना।
तो ही इन
सूत्रों में
प्रवेश हो
सकेगा। और ऐसा
मत सोचना कि
ये सूत्र
मात्र
पुनरुक्ति
हैं।
पुनरुक्ति
दिखायी पड़ते
हैं, क्योंकि
जो अष्टावक्र
ने कहा है, एक
अर्थ में वही
जनक कह रहे
हैं, लेकिन
पुनरुक्ति
नहीं हैं।
क्योंकि
अष्टावक्र ने
जो कहा था, जनक
उसे सिर्फ
तोते की भांति
अगर दोहराते
तो पुनरुक्ति
है। वह जनक के
जीवन का
अंतःप्रकाश
बन गया है। अब
वह जो कह रहे
है, अपने
प्राणों का ही
बोल है।
शिष्य
जब गुरु की
वाणी को अपना
जीवंत अनुभव
बना लेता है, तब
पुनरुक्ति
नहीं है।
यद्यपि शब्द
वही होंगे, पुनरुक्ति
नहीं होगी। इन
शब्दों को फिर
से जीवित होने
का अवसर मिल गया।
शिष्य में
जाकर ये
पुनरुज्जीवित
हुए हैं। वही
हैं, फिर
भी वही नहीं
हैं।
ऐसा
उल्लेख है एक
झेन फकीर के
जीवन में कि
वह अपने गुरु
के पास था और
गुरु ने उसे
कोई ध्यान के
लिए एक समस्या
दी थी, कोआन
दिया था। वह
उस पर विचार
करता है, मनन
करता है चिंतन
करता है। कोआन
था कि एक हाथ
की ताली कैसे
बजती है?
एक हाथ
की ताली बजती
नहीं। जितनी
ध्वनियां हम
जानते हैं, उनमें से
कोई भी एक हाथ
की ताली है नहीं।
दो का संघर्षण
हो तो ही आवाज
होती है।
ध्वनि हमारी
जानकारी में
जितनी हैं, सब संघर्षण
से होती हैं।
और जो ध्वनि
संघर्षण से
होती है, वह
संघर्ष ही है।
हिंसात्मक है।
और जो ध्वनि
संघर्ष से
पैदा होती है,
शाश्वत
नहीं हो सकती।
जो कभी पैदा
हुई, कभी
नष्ट हो जाएगी।
झेन
फकीरों का यह
ध्यान का
सूत्र कि एक
हाथ की ताली
खोजो, इसका
अर्थ होता है,
एक ऐसी
ध्वनि को खोज
लो जो बज ही
रही है, सनातन
से, प्रारंभ
से, अंत तक,
सदा बजती
रहेगी। जो न
कभी मिटती है,
न कभी पैदा
होती है।
जिसको भारतीय
रहस्यवादी
अनाहत नाद
कहते हैं। आहत
नाद का अर्थ
होता है, टक्कर
से; अनाहत
नाद का अर्थ
होता है, बिना
टक्कर के।
तो
शिष्य खोजता
है, ध्यान
करता है, रोज—रोज
उत्तर लाता है।
महीनों बीत
जाते हैं, थक
जाता है, फिर
किसी अनुभवी
दूसरे साधक से
पूछता है कि
मैं क्या करूं,
महीने बीत
गये, वर्ष
बीत जा रहे, मैं गुरु को
कैसे उत्तर
दूं?
तो उस
अनुभवी शिष्य
ने कहा कि
वर्षों मुझे
भी लगे थे और
जब—जब मैं
उत्तर ले गया, तब—तब मैं
गलत पाया गया।
फिर एक दिन
मुझे अनुभव
हुआ कि इसका
कोई उत्तर नहीं
हो सकता। मुझे
स्वयं ही एक
हाथ की ताली
बनकर जाना
पड़ेगा, वही
उत्तर होगा।
तब मैं परिपूर्ण
शात और शून्य
होकर, निर्विचार
होकर—मेरे
भीतर कोई आवाज
न रही, कोई
तरंग न रही—गुरु
के चरणों में
जाकर झुका और
उन्होंने कहा कि
अब ठीक है, तू
ले आया उत्तर!
जब मैं कोई
उत्तर न ले
गया था और
सिर्फ शून्य
भाव से उनके
चरणों में
झुका था तब
उन्होंने कहा,
ले आया उत्तर!
तो तेरी साधना
पूरी हुई। तो
उस युवक ने
कहा, ऐसा
मुझे पहले
क्यों न कहा, यह मैं कर
लेता।
वह
दूसरे दिन
सुबह पहुंच
गया स्नान—
ध्यान करके।
चुप जाकर
चरणों में
गुरु के झुक
गया। लेकिन
गुरु यह देखकर
हंसने लगा। और
गुरु ने कहा, पागल, उधारी
से काम नहीं
चलता। उसने कहा,
लेकिन मैं
ठीक वैसा ही
झुक रहा हूं
बिलकुल चुप, एक शब्द भी
नहीं बोला हूं।
गुरु ने कहा, फिर भी
उधारी से काम
नहीं चलता। वह
जब आया था, शून्य
था, तू
सिर्फ शून्य
का आभास लेकर
आया है। तू
चेष्टा करके,
ऊपर से मौन
होकर आया है, भीतर तो लाख —लाख
शब्दों के जाल
बुने जा रहे
हैं। भीतर तो
विचारों की
तरंगों पर
तरंगें चल रही
हैं। अभी जब
तू झुका, तब
भी तेरे मन
में यह विचार
चल रहा था कि
देखें, अब
गुरु स्वीकार
करते हैं कि
नहीं?
फिर
महीनों तक
शिष्य विदा हो
गया। जब सच
में ही शून्य
हो गया तो फिर
आया। अब भी सब
वैसा ही था—बाहर
तो कुछ भेद न
था—फिर झुका।
और गुरु की
चरणसेवा में
जो एक शिष्य
रहता था, उसने वह
घटना भी देखी
थी जब यह झुका
था, यह
घटना भी देखी।
और गुरु ने
कहा, ठीक, अब ठीक! तो ले
आया, उत्तर
तुझे मिल गया!
वह जो चरणसेवा
में रत था, उसने
पूछा कि मैं
कोई फर्क नहीं
देखता हूं,
तब भी यह ऐसे
ही झुका था, अब भी वैसे
ही झुक रहा है,
तब भी ऐसा
ही शात था, अब
भी ऐसा ही शात
है, तब
आपने कहा कि
उधार, बासा
उत्तर काम न
आएगा; अब
कहते हैं, ले
आया! मैं कुछ
फर्क नहीं
देखता हूं।
गुरु ने कहा, फर्क बाहर
नहीं है, फर्क
भीतर है।
जनक जो
कह रहे हैं, ऊपर से
समझोगे तो
लगेगा वही
दोहरा रहे हैं
जो अष्टावक्र
ने कहा, जरूरत
क्या है? अब
सब उसको
पुनरुक्त
करने का क्या
प्रयोजन हो सकता
है? लेकिन
अगर भीतर
देखोगे तो
पाओगे, अष्टावक्र
ने जो कहा था, वह फिर से
जीवित हुआ है।
जनक ने अपनी
आत्मा उसमें
डाल दी। अब ये
जनक के ही स्वर
हैं। इनको अब
अष्टावक्र के
मत मानना। अब
ये जनक की
अपनी निजवाणी
है। ऐसा नहीं
है कि
अष्टावक्र को
सोच—सोचकर जनक
दोहरा रहे हैं।
जो जनक की समझ
पैदा हुई है, उस समझ का ही
सार—निचोड़ इन
सूत्रों में
है।
पहला
सूत्र—
क्व
भूतानि क्व
देहो वा
क्येद्रियाणि
क्व वा मन:।
क्व
शून्यं क्व च
नैराश्य
मन्स्परूपे
निरंजने।।
'मेरे
निरंजन
स्वरूप में कहां
पंचभूत हैं, कहा देह है, कहां
इंद्रियां
हैं, अथवा
कहां मन है? कहां शून्य
है और कहां
आकाश का अभाव
है?'
चकित
भाव से—जो कहा
है अष्टावक्र
ने उसकी चोट
ऐसी प्रगाढ़ पडी
है कि जैसे
कोई नींद से
जाग गया हो, या जैसे
अंधेरे में
अचानक बिजली
कौंध गयी हो, या अंधे को
अचानक आंख मिल
गयी हो, या
बहरे को कान
मिल गये हों, या मुर्दा
जी उठा हो, इतनी
आकस्मिक घटना
घटी है—चकित, विभोर। ये
सारे वचन
अत्यंत
आश्चर्य से
भरे हुए हैं।
'मेरे
निरंजन
स्वरूप में......।’
मत्स्वरूपे
निरंजने।
निरंजन
शब्द बड़ा
बहुमूल्य है।
निरंजन का
अर्थ होता है, जिस पर
कोई अंजन न चढ़
सके, जिस
पर कोई लेप न
चढ़ सके। कमल
का पत्ता, कहते
हैं, निरंजन
है। पानी में
होता है, पानी
की बूंद भी
पड़ी होती है
तो भी पानी
कमल के पत्ते
को छूता नहीं।
पत्ते पर पड़ी
बूंद भी अलग
ही होती है।
पत्ता अलग
होता है। छूना
नहीं होता, स्पर्श नहीं
होता। कितने
ही पास रहे, पत्ता
निरंजन है।
मत्स्वरूपे
निरंजने।
जनक ने
कहा, आज
देख रहा हूं
कि मैं शरीर
के पास तो हूं
लेकिन शरीर
कभी नहीं हुआ।
मत्स्वरूपे
निरंजने।
मन. के
पास तो हूं —इतने
पास खड़ा हूं, सटा —सटाया
खडा हूं—लेकिन
कभी मन नहीं
हुआ। कर्म हुए,
मैं पास ही
खड़ा था और कभी
कर्ता नहीं
हुआ। भोग चले,
मैं पास ही
खड़ा था और कभी
भोक्ता नहीं
हुआ। भोग की
छाया भी बनती
रही, जैसे
दर्पण पर छाया
बनती है, तुम
दर्पण के
सामने आए तो
चेहरा बनता है।
लेकिन दर्पण
पर कोई लेप
नहीं चढ़ता, तुम चले गये,
छाया भी गयी।
यही तो
फर्क है दर्पण
में और .कैमरे
की प्लेट में।
कैमरे की
प्लेट में भी
चित्र बनता है
लेकिन लेपन
होता है। तुम
तो चले गये, लेकिन
चित्र अटका रह
गया। दर्पण पर
लेपन नहीं
होता, चित्र
बनता है और बह
जाता है। साक्षीभाव
दर्पण की तरह
है, कैमरे
की प्लेट की
तरह नहीं। अज्ञानी
कैमरे की
प्लेट की तरह
है। जो देख
लिया, उससे
पकड़ जाता है।
किसी ने बीस
साल पहले गाली
दी थी, अब
भी तुम्हारे
मन में गंजी
चली जा रही है।
अब भी तुम उसे
दोहरा रहे। अब
भी तुम उसे
कुरेद—कुरेद
कर देख लेते हो,
बार —बार
पीड़ा को फिर
अनुभव करने
लगते हो। शायद
पचास साल पहले
किसी ने
सम्मान किया
था, वह दिन
आज भी भूले —
भूले नही
भूलता। लेपन
हो गया। सारा
अतीत
तुम्हारे मन
की प्लेट पर
चढ़ बैठा है।
खरोचें—ही—खरोचें
लग गयी हैं।
सब तरह से तुम
लिप्त हो गये
हो।
जनक ने
कहा— मक्वरूपे
निरंजने—मेरे
इस निरंजन रूप
को देखकर चकित
अहोभाव से मैं
खड़ा हूं।
भरोसा नहीं
आता! इतना
किया और मुझसे
कुछ भी नहीं
हुआ। इतने दुख—सुख
झेले और मैं
अछूता रहा हूं।
धन रहा, दौलत रही, गरीबी रही, बचपन था, जवानी
थी, बुढ़ापा
था, न—मालूम
कितनी देहों
में गया—कभी पशु
था, कभी
पक्षी था, कभी
आदमी हुआ; कभी
पत्थर था—कितनी
देहों से
गुजरा, कितने
रूप धरे, लेकिन
फिर भी मैं
निरंजन का
निरंजन रहा।
'मेरे
निरंजन
स्वरूप में
कहां पंचभूत
हैं!'
यह जो
पांच भूतों का
बड़ा विराट खेल
चल रहा है, यह मुझसे
बाहर है, यह
मुझसे अलग है।
इसका मुझमें
कहीं भी
प्रवेश नहीं
है। प्रवेश हो
ही नहीं सकता,
मेरा
स्वरूप ऐसा है।
तुम जल को जल
में मिलाओ तो
मिल जाता है।
तुम जल को तेल
में मिलाओ तो
नहीं मिलता है।
तुमने अगर तेल
भरी कटोरी में
जल डाल दिया
तो पास—पास हो
जाएगा, जल
और तेल बहुत
पास—पास हो
जाएगा, दोनों
की सीमाएं
करीब —करीब एक
होती हुई
मालूम पड़ेगी,
फिर भी जल
और तेल अलग—
अलग बनै रहते
हैं। ऐसा ही
चैतन्य
पदार्थ से अलग—
अलग बना रहता।
कितना ही मेल
हो जाए, लेप
नहीं होता।
मत्स्वरूपे
निरंजने।
'कहां
देह है और
कहां
इंद्रियां
हैं?'
जनक कह
रहे हैं, खड़ा हूं आंख
के पीछे, लेकिन
मैं आंख नहीं।
देखनेवाली आंख
नहीं है, आंख
तो केवल झरोखा
है, खिड़की
है, वातायन
है, जिस पर
खड़े होकर कोई
देख रहा है।
सुननेवाला
कान नहीं है, कान तो
झरोखा है, जिसके
पास खड़े होकर
कोई सुन रहा
है। जब मैं
अपने हाथ से
तुम्हें छूऊं,
तो हाथ असली
छूनेवाला
नहीं है। नहीं
तो मुर्दा हाथ
भी छू सकता था।
मुर्दा आंख भी
तुम्हारी तरफ
देख सकती है, लेकिन फिर
भी देख नहीं
पाएगी, क्योंकि
पीछे जो खड़ा
था वह विदा हां
गया है। असली
ऊर्जा जा चुकी।
वह जो असली
ऊर्जा है, वह
निरंजन है।
'और
अब कहां
इंद्रिया, कहां
मन, कहां
शून्य?'
और
अपूर्व बात
कहते हैं कि
मन तो मैं हूं
ही नहीं, समाधि में
जो शून्य का
अनुभव होता है,
वह भी मैं
नहीं हूं।
क्योंकि कोई
अनुभव मैं
नहीं हूं।
इसे
थोड़ा समझना, थोड़ा
बारीक है। जो
भी तुम्हें
अनुभव में आ
जाता है, उससे
तुम अलग हो
गये। इसे
सूत्र समझो।
इसे
अंतर्जीवन का
गणित समझो। जो
तुम्हारे
अनुभव में आ
गया, वह
तुम न रहे। जो
तुमने देख
लिया, तुम
उससे अलग हो
गये। जो दृश्य
बन गया, वह
द्रष्टा न रहा।
तो तुमने अगर
देखा कि भीतर
खूब प्रकाश हो
रहा है, तो
उस प्रकाश से
तुम अलग हो
गये, तुम
देखनेवाले हो।
तुमने भीतर
देखा कि खूब
अमृत की धार बह
रही है, तुम
इस अमृत से भी
अलग हो गये।
तुम
देखनेवाले हो।
तुमने भीतर
देखा, सब
शून्य हो गया—न
कोई विचार, न कोई तरंग, न कोई भाव, अनंत शांति
विराजमान हो
गयी, तो
तुम इस शांति
से भी अलग हो
गये। तुम तो
इस शांति को
जानने वाले हो।
इसलिए न तो
मैं मन हूं, न शून्य हूं;
सभी चीजें
जो जानी जाती
हैं, उनसे
मैं अलग हो
गया।’मैं
आकाश भी नहीं
हूँ और आकाश
का अभाव भी
नहीं हूं।’
मत्स्वरूपे
निरंजने।
मैं तो
निरंजन हूं।
'सदा
द्वंद्वरहित
मुझको कहां
शास्त्र, कहां
आत्म—विज्ञान
है, कहा
विषयरहित मन
है, कहां
तृप्ति है और
कहां तृष्णा
का अभाव है?'
क्व
शास्त्रं क्वात्मविज्ञान
क्व वा
निर्विषय मन:।
क्व
तृप्ति: क्व
वितृष्णत्वं
गतद्वंद्वस्य
मे सदा!
गतद्वंद्वस्य
मे सदा।
मैं
सभी द्वंद्व
के पार। जहां —जहां
दो हैं, वहा—वहां
मैं नहीं। इसे
समझना। हमारे
जीवन में जो
भी अनुभव हैं,
सब दो के।
इसलिए जहां —जहां
दो हों, वहां
समझ लेना कि
तुम नहीं हो, वह तुम्हारा
स्वरूप नहीं।
मत्स्वरूपे
निरंजने।
वह
तुम्हारा
वास्तविक
स्वरूप नहीं।
जैसे, जहां—जहां
दुख है, वहां—वहां
सुख है। जहां—जहां
दिन, वहां—वहां
रात। जहां—जहां
जीवन, वहां
—वहां मौत।
जहॉ—जहां
पुरुष, वहां—वहां
स्त्री। जहां—जहां
स्त्री, वहा
—वहा पुरुष।
जहां शांति, वहां अशांति।
जहां बचपन, वहां बुढ़ापा।
जहां बनना, वहां मिटना।
जहां सृजन, वहां
विध्वंस। तो
जहां —जहां दो
हो जाएं, वहां
—वहा तुम्हारा
निरंजन
स्वरूप नहीं
है। इन दो में
से तुम एक को
चुन लेते हो।
जैसे कोई कहता
है, मैं
पुरुष हूं,
इसने एक चुन
लिया। कोई
कहता है, मैं
स्त्री हूं, उसने भी एक
चुन लिया।
बुद्ध
से किसी ने
पूछा है कि
बुद्धत्व के
बाद आप पुरुष
हैं या स्त्री? बुद्ध ने
कहा, अब
मैं चुनाव
नहीं करता हूं।
बस इतना कहा
कि अब मैं
चुनाव के बाहर
हूं। अब न मैं
स्त्री हूं, न पुरुष हूं।
अब मैं बस हूं।
वे चुनाव भी
तादात्म्य थे।
उन चुनावों के
माध्यम से भी —लेप
हो जाता था।
तुम
जवान हो या के? अगर चुन
लिया, तो
गिरे। अगर
अचुनाव में
खड़े रहे, चुना
ही नहीं तुम
कभी जरा इस पर
सोचो। यह
तुम्हारे
कितने करीब है
बात लेकिन फिर
भी तुम चूकते
हो। कभी आंख
बंद करके
तुमने सोचा कि
मैं जवान हूं
या का? हो
सकता है तुम
जवान हो, हो
सकता है तुम
के हो, कभी आंख
बंद करके सोचा
कि मैं जवान
हूं या का? तुम
भीतर बड़े
उसमें पड़
जाओगे कि मैं
जवान या का!
देह चाहे बूढ़ी
हो गयी हो, तो
भी भीतर
बूढ़ेपन का कभी
अनुभव होता है?
देह चाहे
जवान हो, इससे
क्या फर्क पड़ता
है? तुम जब
बच्चे थे तब
भी तुम भीतर
ऐसा ही अनुभव
करते थे जैसा
जवानी में
अनुभव करते हो,
जैसा
बुढ़ापे में
अनुभव करोगे।
भीतर कोई अंतर
नहीं पड़ता।
सब
रूपांतरण
बाहर होते
रहते हैं। देह
बदलती रहती है, भीतर तो
अरूप है। भीतर
तो शाश्वत है।
भीतर तो नित्य
है। तुम बाहर
से सोचते, मैं
पुरुष, मैं
स्त्री, कभी
भीतर भी झांक
कर देखा कि
वहां मैं कौन
हूं? स्त्री—पुरुष
का भेद तो
शरीर पर है, शारीरिक है।
चैतन्य तो
स्त्री—पुरुष
नहीं हो सकता।
चैतन्य पर तो
कोई स्त्री—पुरुष
के भेद के
लक्षण नहीं हो
सकते। साक्षी
तो बस साक्षी
है। न पुरुष, न स्त्री।
एक वृद्ध जैन
ने मुझसे पूछा—क्योंकि
जैन मानते हैं,
स्त्री का
मोक्ष नहीं हो
सकता, स्त्री—पर्याय
से मोक्ष नहीं
हो सकता, पुरुष
तो होना ही
पड़ेगा।
पुरुषों ने
शास्त्र रचे,
तो पुरुषों
ने सभी जगह
स्त्रियों को
नीचे रखा।
स्त्रियों को
ऊपर रखने की
हिम्मत, अपने
साथ रखने की
हिम्मत पुरुष
नहीं कर पाए।
तो उस जैन ने
पूछा कि आप
क्या कहते हैं? स्त्री का
मोक्ष हो सकता
है या नहीं?
मैंने
कहा, जहां
मोक्ष होता है
वहा न कोई
स्त्री होती
है न कोई
पुरुष होता है।
जब तक कोई
स्त्री है और
जब तक कोई
पुरुष है, तब
तक मोक्ष नहीं।
तो न तो
स्त्री का
मोक्ष होता है,
न पुरुष का
मोक्ष होता है।
यह बात गलत ही
तुम कहते हो
कि पुरुष का
मोक्ष होता है।
मोक्ष तो
अचुनाव में
होता है।
मोक्ष तो
साक्षीभाव
में होता है।
मत्स्वरूपे
निरंजने।
जहां
कोई अंजन नहीं
रह जाता है, कोई लेप
नहीं रह जाता
है। जहां
तुमने भीतर की
उस
अंतर्वस्तु
को पहचान लिया
जो न स्त्री, न पुरुष; न
जवान, न की;
न गोरी, न
काली, न
हिंदू न
मुसलमान।’सदा
द्वंद्वरहित
मुझमें कहां
शास्त्र हैं?'
सारे
शास्त्र मन
में हैं, बुद्धि में
हैं। क्योंकि 'सारे शब्द
बुद्धि में
हैं। तो
शास्त्र कहां
हो सकते हैं!
मुझमें कोई
शास्त्र नहीं।
कुरान मानते
हो कि पुरान
मानते हो, वेद
मानते हो कि
बाइबिल मानते
हो, सब मन
का ही खेल है।
जहां तक शब्द
जाते हैं, वहां
तक मन है।
जहां शब्द
नहीं जाते, केवल
निशब्दता
जाती है, वहीं
से तुम शुरू
हुए। जहां तक
शब्द हैं, वहां
तक लेप, वहा
तक तुम निरंजन
नहीं। शब्दों
ने कैसा पकड़ा
है!
किसी
से पूछो, आप कौन हैं? वह कहते हैं,
मैं
मुसलमान हूं, मैं हिंदू
हूं मैं जैन, मैं बौद्ध, मैं ईसाई।
शब्दों ने
कैसा पकड़ा है!
कौन ईसाई है, कौन हिंदू
है, कौन
मुसलमान है!
बच्चा जब पैदा
होता है तो न
हिंदू होता है,
न मुसलमान
होता है, न
ईसाई होता है।
हम उसे सिखाते,
संस्कारित
करते, उसे
सब भांति
पिलाते घोंट—घोंट
कर। जिस दिन
से हम उसको
अपने हाथ में
पाते हैं, उसी
दिन से हिंदू
या मुसलमान
बनाने में लग
जाते हैं।
निश्चित ही
निरंतर के
संस्कार से एक
दिन वह भी
दोहराने लगता
है, मैं
हिंदू। मानने
लगता है, मैं
हिंदू। तुमने
उस व्यक्ति को
बड़ा संकीर्ण
कर दिया।
आत्मा कहां
हिंदू कहां
मुसलमान!
मंदिर—मस्जिद
सब सीमाएं हैं,
आत्मा असीम।
आत्मा का कोई
शास्त्र नहीं।
आत्मा के पास
कोई शब्द नहीं।
आत्मा
निःशब्द है, निर्विचार
है, निर्विकार
है।
मत्स्वरूपे
निरंजने
गतद्वंद्वस्य
मे सदा।
जहां
तक शब्द जाते
हैं, वहा
तक द्वंद्व है।
तुम ऐसा कोई
शब्द नहीं खोज
सकते जिसका
विपरीत शब्द न
हो। शब्द तो
द्वंद्व से ही
भरा है। तुमने
कहा किसी को
सुंदर, तो
तुम्हें किसी
को असुंदर
कहना ही पड़ेगा।
तुम यह तो न कर
सकोगे कि तुम
कहो कि मुझे
सभी सुंदर
दिखायी पड़ते
हैं। अगर सभी
सुंदर दिखायी
पड़ते हैं तो
सुंदर शब्द का
कोई अर्थ नहीं
रहा, अर्थहीन
हो गया। तुम्हें
असुंदर
दिखायी पड़ता
हो, तो ही
सुंदर दिखायी
पड़ सकता है।
कुरूप को बिना
स्वीकार किये
सुंदर का कोई
बोध नहीं हो
सकता। तुमने
कहा, यह
आदमी महात्मा
है, तुम
चक्कर में पड़
गये। क्योंकि
महात्मा कहने
का मतलब ही यह
हुआ कि तुम
किसी को हीन —
आत्मा कहोगे।
बिना हीन—
आत्मा कहे तुम
किसी को
महात्मा नहीं
कह सकते।
महात्मा का तो
मतलब ही हुआ
कि तुमने
श्रेष्ठ कहा
किसी को। तो
तुमने किसी को
अश्रेष्ठ कह
दिया। भेद
पैदा हो गया।
अच्छा कहा, बुरा हो गया।
अच्छे में
बुरा समाया है।
ये एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
सभी
शब्द
द्वंद्वग्रस्त
हैं। शब्द के
भीतर द्वंद्व
से पार होने
का कोई उपाय
नहीं। तुम यह
न कह सकोगे कि
मुझे तो सभी
में भगवान दिखायी
पड़ता है। अगर
सभी में भगवान
दिखायी पड़ता
है तो कोई बात ही
कहने की न रही।
जब तक तुम्हें
किन्हीं में
शैतान दिखायी
पड़ता है तभी
तक किसी में
भगवान दिखायी
पड़ सकता है।
नहीं तो कोई
अर्थ ही नहीं
रहा, बात
ही व्यर्थ हो
गयी। अगर तुम
कहते हो, मैं
तो हर स्थिति
में सुखी हूं, तो इस बात के
कहने में कोई
भी अर्थ न रहा।
यह व्यर्थ हो
गयी। तुम
किन्हीं स्थितियों
में जरूर दुखी
होते होओगे, तभी कहते हो
हर स्थिति में
सुखी हूं।
गतद्वंद्वस्य
मे सदा।
जनक
कहते हैं, मैं
द्वंद्व के
बाहर हूं —गतद्वंद्वस्य—पार।
जहां तक
द्वंद्व है, वहां तक मैं
नहीं। जहां
द्वंद्व नहीं,
वहां मैं
हूं। फिर वहां
न कोई शास्त्र
है, न आत्म—विज्ञान
है। न विषय
रहित मन है।
वहा तृप्ति भी
कहां, क्योंकि
वहां तृष्णा
भी नहीं है।
जब तक तृष्णा
है तब तक
तृप्ति है। जब
कोई आदमी कहता
है कि मैं तो
बड़ा संतुष्ट हूं, मेरे मन में
असंतोष रहा ही
नहीं, तो
समझना कि
असंतोष कहीं—न—कहीं
होगा। नहीं तो
तृप्ति का
अनुभव कैसे
होता? प्यास
न हो तो
तृप्ति का
अनुभव नहीं
होगा। भूख न
हो तो तृप्ति
का अनुभव न
होगा। सारे
अनुभव अपने
विपरीत को
अपने साथ ही
खींच लाते हैं।
इसलिए मैंने
कल तुमसे कहा.
कि अगर
तुम्हारे जीवन
में सुख के
शिखर अनुभव
होते हैं, तो
ध्यान रखना, दुख की
घाटियां भी
पास ही हैं।
तुम उनमें
गिरोगे, बच
न सकोगे।
कृष्णमूर्ति
की देशना में
एक शब्द बडा
बहुमूल्य है
च्वाइसलैसनेस, विकल्परहितता,
चुनाव—
रहितता।
चुनना ही नहीं।
अगर तुम इतना
ही कर लो कि
खड़े देखते रहो
और चुनाव न
करो—न कहो
सुंदर, न
कहो असुंदर, न कहो अपना, न कहो पराया,
न कहो
प्रीतिकर, न
अप्रीतिकर, न पास रखना
चाहो, न
दूर हटाना
चाहो—तो उसी
चुनावरहितता
में तुम मुक्त
हो गये।
'स्वरूप
को कहां
रूपिता है, कहां विद्या
है, कहां
अविद्या है, कहां मैं है,
अथवा कहां
यह, कहां
मेरा है; कहां
बंध है, कहां
मोक्ष है?'
क्व
विद्या क्व च
वाउविद्या
क्याहं
क्येदं मन क्व
वा।
क्व
बंध: क्व च वा
मोक्ष:
स्वरूपस्य क्व
रूपिता।।
स्वरूपस्य
क्व रूपिता
'स्वरूप
को कहां
रूपिता है?'
शब्द
का उपयोग तो
करना पड़ रहा
है, निःशब्द
को बताने के
लिए। इसलिए
शब्द की सीमा
को ध्यान रखना।
इसलिए जितना
बहुमूल्य वचन
होगा, उतना
विरोधाभासी
होगा। जैसे, स्वरूप को
कहां रूपिता?
स्व—रूप, और फिर कहते
हैं कहां
रूपिता? स्वरूप
को कहां रूप? स्वरूप शब्द
में ही रूप है।
लेकिन मजबूरी
है। आदमी के
पास जितने
शब्द हैं, सभी
द्वंद्व में
भरे हैं।
इसलिए
गतद्वंद्व के
लिए एक ही
उपाय है प्रगट
करने का कि हम
विपरीत
शब्दों का साथ—साथ
उपयोग करें।
उपनिषद
कहते हैं, परमात्मा
दूर से भी दूर
और पास से भी
पास। बात ठीक
नहीं मालूम
पड़ती
तर्कयुक्त
नहीं है। या
तो दूर है तो
दूर है, या
पास है तो पास
है। यह क्या
बात हुई कि
दूर से भी दूर
पास से भी पास! लेकिन
मजबूरी है।
मजबूरी
यह है—दूर
कहें तो चूक
हो जाती है, पास कहें
तो चूक हो
जाती है।
क्योंकि जिसको
पास कहा, पास
कहने में ही
दूर हो गया।
पास में ही
दूरी छिपी है।
जिसको तुम पास
कहते हो, यह
भी दूरी को ही
नापने का एक
ढंग है। कोई
मेरे पास बैठा
है चार फीट
दूरी पर, कोई
छ: फीट दूरी पर
कोई दस फीट
दूरी पर, कोई
दस मील दूरी
पर और कोई दस
प्रकाश—वर्ष
दूरी पर। ये सिर्फ
दूरियां ही
हैं सब। जो
चार फीट पास
बैठा है, वह
भी तो चार फीट
दूर बैठा है।
चाहे चार फीट
पास कहो, चाहे
चार फीट दूर
कहो, क्या
फर्क पड़ता है,
दोनों में
एक ही मतलब है।
हर पास में
दूरी छिपी है।
हर दूरी में
पास छिपा है।
भाषा में बड़ी
कठिनाई है।
भाषा
तो सापेक्ष है।
तुम कहते हो, पानी
ठंडा। या कहते
हो, पानी
गर्म। कहते
वक्त ऐसा लगता
है कि
तुम कोई बड़े
बहुमूल्य
तथ्य कह रहे
हो। यह तथ्य
नहीं है।
क्योंकि किस
पानी को तुम
ठंडा कहते हो? किस पानी
को तुम गर्म
कहते हो?
मैं एक
यात्री का जीवन
पढ़ रहा था। वह
साइबेरिया की
यात्रा को गया
था। और ऐसा
हुआ कि रास्ता
भटक गया।
चारों तरफ
सफेद ही सफेद
बर्फ। और
रास्ता भूल
गया। और जिस
डेरे पर लौटना
था उस पर न लौट
सका। और सांझ
हो गयी और रात
होने लगी और
भयंकर सर्दी।
खून जमने लगा।
वह घबड़ाया। बच
न सकेगा अगर
यह रात नहीं
पहुंच पाया
डेरे पर। भाग—दौड़
की, यहां
भागा, वहा
भागा। एक
दूसरे किसी
गांव में
पहुंच गया, जहां दो —चार—छ:
ईगलू थे —साइबेरियन
एस्किमो के
मकान। वह तो
बर्फ के ही
बने होते हैं।
बर्फ को ही
जमाकर ईगलू
बना लेते हैं।
वह कंप रहा है।
और वह डर रहा
है कि मौत
पक्की। मगर यह
ईगलू मिल गया
तो चलो ठीक, कुछ सहारा
मिल जाएगा। वह
भीतर पहुंचा,
ईगलू के
मालिक ने कहा
कि घबड़ाओ मत, बैठो, विश्राम
करो। लेकिन वह
ईगलू का मालिक
बिलकुल उघाड़ा
बैठा है! उसको
कोई सर्दी—वर्दी
का पता नहीं
है। और ये
कंपा जा रहा
है और दांत
खटखटा रहे हैं
और बोल भी
नहीं सकता ठीक
से। जब ईगलू
का मालिक सोने
जाने लगा तो
उसने एक पतला—सा
कंबल इसको
लाकर दिया कि
शायद रात थोडी
सर्दी पड़े, तो तुम ओढ़
लेना। शायद!
रात में अगर
सर्दी पड़े!
कभी—कभी रात
सर्द हो जाती
है।
तो
क्या सर्दी है
और क्या गर्मी
है? सापेक्ष
है। जो चीज
तुम्हें गर्म
मालूम पड़ती है,
किसी को सर्द
मालूम पड़ सकती
है। किसी को
सर्द मालूम
पड़ती है, तुम्हें
गर्म मालूम
पड़ती है। और
कभी—कभी तो
ऐसा हो सकता
है कि तुम एक
बाल्टी में पानी
भर कर रख लो, एक हाथ को
बर्फ की शिला
पर रख लो, एक
हाथ को स्टोव
पर गरम करते
रहो और फिर
दोनों हाथों
को उस पानी की
बाल्टी में डुबा
दो, एक हाथ
कहेगा पानी
गर्म है और एक
हाथ कहेगा पानी
ठंडा है।
तुम्हें
दोनों अनुभव
एक साथ होंगे
कि पानी ठंडा,
पानी गरम।
सापेक्ष है।
जो हाथ तुमने
बर्फ पर रखा
है, वह हाथ
कहेगा, पानी
गर्म।
क्योंकि पानी
उस हाथ से
ज्यादा गर्म
है। जो हाथ
तुमने स्टोव
पर गरमा लिया
है, वह हाथ
कहेगा, पानी
बहुत ठंडा।
क्योंकि पानी
उस हाथ से
ठंडा है।
तुम्हारे
दोनों हाथ
पानी बिलकुल
एक ही है, सामने
एक ही बाल्टी
में भरा है।
क्या
पास है, क्या दूर है!
शब्द
का उपयोग
ध्यानपूर्वक
करना। इसलिए
सारे
धर्मशास्त्र
और सारे
धर्मशास्ताओं
ने शब्द का
विपरीत उपयोग
किया है—एक ही
साथ विपरीत—सिर्फ
इतना बताने को
कि तुम ध्यान
रखना, शब्द
के द्वंद्व
में न उलझ
जाना। इसलिए
हम दोनों को
लड़ा देते हैं।
दोनों को
लड़ाकर दोनों
मर जाते हैं, दोनों गिर
जाते हैं। जो
शेष रह जाए
वही सच है।
'स्वरूप
में कहा
रूपिता?'
अब यह
बड़ा बेक वचन
हो गया।
उलटबांसी हो
गयी।
'स्वरूप
में कहां
रूपिता?'
स्वरूप
का मतलब ही यह
होता है कि
स्वयं का रूप, और उसमें
जोड़ दिया—'कहां
रूपिता?' स्वरूप
में कहा रूप, कैसा रूप, बात पूरी हो
गयी। इतना ही
कह रहे हैं
जनक कि
तुम्हारा जो
अंतरतम है, वहा कोई रूप
नहीं है, वहा
कोई आकार नहीं,
वहां कोई
आकृति नहीं।
असल में यह भी
कहना
कि जो
तुम्हारा
अंतरतम है, ठीक नहीं
है, क्योंकि
जो तुम्हारा
अंतरतम है, वहां बाहर
और भीतर भी
कुछ नहीं। जो
तुम्हारी
वास्तविक
सत्ता है, वही
तो सबकी भी है।
वहां तो सब एक
हैं। वहां अलग—
अलग कोई भी
नहीं है।
स्वरूपस्य
क्व रूपिता।
और ऐसी
परम अरूप दशा
में कैसी तो
विद्या और कैसी
अविद्या? विद्या का
अर्थ है, जो
हम सीखते हैं।
सब सिखावन मन
में रह जाती
है, इससे
भीतर नहीं
जाती। इसलिए
तुम्हारे मन
को अगर चोट लग
जाए, तो
तुम्हारी
सिखावन भूल
जाएगी।
मेरे
एक मित्र
डाक्टर हैं।
ट्रेन से गिर
पड़े। चोट खा
गये। चोट कुछ
ऐसी लगी सिर
में, ऊपर
तो कोई घाव
नहीं बना
लेकिन भीतर
उनकी स्मृति
नष्ट हो गयी।
बचपन से मेरे
साथ, बचपन
से मेरे साथ
पढ़े, खेले—कूदे।
जब मुझे खबर
मिली और मैं
गया गांव उनको
देखने तो वे
मुझे पहचान भी
नहीं सके। वे
मुझे ऐसे
देखते रहे।
उनकी आंखों
में कोई
प्रत्यभिज्ञा
न हुई। कोई
पहचान न बनी।
मैंने उनके
पिता से पूछा,
उनके पिता
रोने लगे। वे
कहने लगे कि
किसी को नहीं
पहचानता, न
पिता को, न
मां को, न
पत्नी को, न
अपने बेटे को।
किसी को नहीं
पहचानता।
गरीब
परिवार है।
बडी मुश्किल
से उनको पढ़ा—लिखाकर
डाक्टर बनाया
था, वह
सब डाक्टरी
धुल गयी।
आदमियों को
नहीं पहचानते!
तो वह जो
जानते थे, जो
सीखा था, जो
विद्या
अध्ययन की थी—होशियार
डाक्टर थे—वह
सब समाप्त हो
गयी। कुछ याद
ही नहीं आता
उन्हें कि कभी
उन्होंने कुछ
पढ़ा कि लिखा।
तीन साल तो
ऐसी ही हालत
रही। फिर धीरे
— धीरे जैसे
छोटा बच्चा
सीखता है, पुन:
उन्होंने सब
सीखा। अब किसी
तरह कामचलाऊ
हो गये हैं।
लेकिन इलाज
करवाने तो
उनके पास कोई
नहीं आता। कौन
उनसे इलाज
करवाए, लोग
संदिग्ध हो
गये हैं। इनका
अब कुछ भरोसा
नहीं रहा। कुछ—कुछ
स्मृति लौट
आयी है, लेकिन
सब टूटी—फूटी
है।
जिसको
हम विद्या
कहते हैं, वह तो
सीखी हुई बात
है। वह तो
छीनी जा सकती
है। अब तो
ब्रेन—वाश के
बहुत उपाय
दुनिया में
चलते हैं। रूस
में अब वह अगर
कोई आदमी
कम्यूनिज्म—विरोधी
है तो उसकी
हत्या नहीं
करते। हत्या
करना बहुत
पुराना, प्राथमिक,
बहुत आदिम
उपाय हो गया।
अब तो वह
सिर्फ उसके
मस्तिष्क में
विद्युत की
धाराएं दौड़ा
देते हैं।
इतने जोर से
विद्युत की
धाराएं दौड़ा
देते हैं कि
उसकी स्मृति
सब नष्ट हो
जाती है। जब
उसकी स्मृति
नष्ट हो जाती
है, तो
कहां का
विरोध! कैसा
कम्यूनिज्म, कैसा
कम्यूनिज्म
का विरोध! वह
आदमी बिलकुल
फिर खाली हो
गया, उसकी
स्लेट पोंछ दी।
फिर उसको जो
सिखाना हो, सिखाओ। अब
उसको
कम्यूनिज्म
सिखाना हो, कम्यूनिज्म
सिखा दो।
खतरनाक
औजार आदमी के
हाथ लग गये
हैं। सरकारों
के हाथ में
बड़ी खतरनाक
शक्तियां आ गयी
हैं। विरोधी
को मारने की
भी जरूरत न
रही, यह
तो और भी मारने
से भी बुरा
मारना हुआ।
मार डालते तो
आदमी कम—से —कम
गौरव से तो
मरता। उसका
मस्तिष्क
पोंछ दिया।
इस
मस्तिष्क
पोंछने की
स्थिति से
सिर्फ एक आदमी
बच सकता है, वही, जो
ध्यान को
उपलब्ध हो गया
हो। तुम उसका
मस्तिष्क
पोंछ डालो, कुछ फर्क न
पड़ेगा, क्योंकि
वह पहले से ही
जान रहा है कि
मैं मस्तिष्क
नहीं हूं। अगर
अष्टावक्र का
मस्तिष्क
पोंछो, तो
नहीं पुछेगा।
तुम मस्तिष्क
पोंछ
डालोगे, कुछ फर्क
न पड़ेगा।
अष्टावक्र की
गरिमा जरा भी
खंडित न होगी।
इसलिए
मैं कहता हू
कि ध्यान के
सूत्र जितने
जल्दी सारी
दुनिया में
फैलाए जा सकें, फैला
दिये जाने
चाहिए, क्योंकि
सरकारों के
हाथ में
खतरनाक औजार
लग गये हैं।
आदमी की
स्वतंत्रता
इतने खतरे में
कभी भी नहीं
थी जितनी अब
है। किसी भी
आदमी का
मस्तिष्क बड़ी
आसानी से पोंछ
डाला जा सकता
है। अगर
तुम्हारे पास
ध्यान का
सूत्र हो और
तुम साक्षी बन
सको, तो
तुम्हें कोई
सरकार नष्ट न
कर सकेगी। मगर
साक्षी तो
बहुत कम हैं, लोग तो
कर्ता और
भोक्ता बने
हैं। लोगों ने
तो अपने मन को
ही सब समझ
लिया है।
'स्वरूप
को कहा रूपिता
है, कहां विद्या
है?'
एक ऐसा
तल अपने भीतर
पाओ जहां तुम
अपनी
जानकारियों
से ज्यादा पार, ऊपर, बड़े
हो। जहां तुम
जानकारी ही
नहीं हो, जानने
वाले हो।
तुमसे कोई
पूछता है, आप
कौन? कहते
हैं, इंजीनियर।
कहते, डाक्टर।
मगर यह तो
तुम्हारा
होना नहीं है,
यह तो
तुम्हारी
विद्या है, यह तुम्हारा
जानना है।
इंजीनियर
होना
तुम्हारा
अस्तित्व
नहीं है। और न
डाक्टर होना
तुम्हारा
अस्तित्व है।
यह तो तुमने
विद्या के साथ
अपना
तादात्म्य कर
लिया, आइडेंटिटी
कर ली। यह तो
तुमने बड़ा गलत
जोड़ बांध लिया।
यह तो गांठ
बुरी है और
महंगी पड़ सकती
है। साक्षी हो।
'कैसी
विद्या और
कैसी अविद्या?'
इसलिए एक
बात खयाल रखना, साक्षी
होने के लिए
कोई बहुत बड़ा
विद्वान और पंडित
होना आवश्यक
नहीं है। तुम जहां
हो, वहीं
से साक्षी हो
सकते हो। लोग
मुझसे कभी
पूछते हैं आकर
कि बिना
शास्त्र पढ़े,
बिना
शास्त्र को
समझे, बिना
निष्णात हुए
विद्या में
कोई कैसे
ध्यान को
उपलब्ध हो
जाएगा? यह
तो बड़ी कठिन
बात है।
इसकी
कोई कठिनाई
जैसी बात ही
नहीं है। तुम
बडे
बुद्धिमान हो, बहुत
शास्त्रों के
ज्ञाता हो, इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। या तुम
बिलकुल नहीं
शास्त्र के
ज्ञाता हो, तुम्हें
भाषा भी नहीं
आती, तो भी
फर्क नहीं
पड़ता। साक्षी
होने का मतलब
है, तुम जो
भी करते हो, उसमें अपने
को जोडो मत।
समझो।
एक आदमी खेती—बाड़ी
करता है। वह
खेती—बाड़ी
करते —करते
साक्षी हो
सकता है।
सिर्फ इतना ही
ध्यान रखे कि
यह जो हल—बक्सर
चला रहा है, यह मैं
नहीं हूं,
यह मैं
देखनेवाला
मात्र। शरीर
से हल—बक्सर
चल रहा है, मन
से योजना
बनायी जा रही
है, मैं
देखनेवाला
हूं। या कि
तुम वेद पढ़
रहे हो, एक
ही बात है। या
कि जूते बना
रहे हो, चमार
हो, या कि मूर्ति
गढ़ रहे हो, मूर्तिकार
हो, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। तुम
क्या कर रहे
हो, इससे
कोई संबंध
नहीं है। तुम
जो भी कर रहे
हो उसके प्रति
जागकर अगर
साक्षी हो जाओ,
तो तुम
साक्षी के परम
जगत में
प्रवेश कर
जाओगे। इसलिए
गोरा कुम्हार
भी ज्ञान को
उपलब्ध हो गया,
काशी के
पंडित राजी
नहीं होते।
क्योंकि काशी
के पंडित कहते
हैं कि गोरा
कुम्हार, घड़े
बनाते —बनाते
और जान को
उपलब्ध हो
गया! कबीर, कपड़े
बुनते —बुनते!
यह कबीर
जुलाहा और
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया!
काशी के पंडित
राजी नहीं
होते। कि
रैदास चमार, जूते बनाते —बनाते
और ज्ञान को
उपलब्ध हो
गया! नहीं यह
बात जँचती
नहीं।
काशी
का पंडित
सोचता है कि
जब तक कोई
पांडित्य को
उपलब्ध न हो, बडी—बड़ी
उपाधियां न
हों, तब तक
कोई ज्ञान को
कैसे उपलब्ध
होगा?
स्वामी
रामतीर्थ
अमरीका से
भारत वापस
लौटे। अमरीका
में तो उन्हें
बड़ी ख्याति
मिली। इस
लिहाज से
अमरीका सरल है।
अमरीका शायद
अकेला मुल्क
है मनुष्य
जाति के इतिहास
में जहां
पंडित का कोई
बहुत मूल्य
नहीं है।
व्यावहारिक
आदमी का मूल्य
है। पंडित का
इतना कोई
मूल्य नहीं है।
अमरीका में
तुम्हें ऐसे
प्रोफेसर मिल
जाएंगे जिनके
पास कोई
डिग्री नहीं
है और
यूनिवर्सिटी
में पढ़ाते हैं।
यह बडा कठिन
मामला है।
भारत में
तुमको कोई ऐसा
प्रोफेसर
नहीं मिल सकता
जिसके पास
डिग्री न हो
और
यूनिवर्सिटी में
पढ़ाता हो।
डिग्री तो
होनी चाहिये
चाहे गधा
डिग्रीधारी हो
वह
यूनिवर्सिटी
में प्रोफेसर
हो जाएगा।
तुम
चकित होओगे, कबीरदासजी
को पढ़ानेवाले
प्रोफेसर हैं,
कबीरदासजी
अगर आ जाएं तो
उनको
प्रोफेसरी
नहीं मिल सकती।
कबीरदास को
यूनिवर्सिटी
में पढ़ाते हैं,
कबीरदास पर
थीसिस लिखी
जाती है, कबीरदास
पर थीसिस
लिखनेवाले
डाक्टर हो
जाते, प्रोफेसर
हो जाते, कबीरदासजी
अगर आ जाएं तो यूनिवर्सिटी
कमीशन उनसे
पूछेगा कि
डिग्री कहां है
गुम सिर्फ
अमरीका में
कबीरदास को भी
प्रोफेसरी
मिल सकती है।
अमरीका की पकड़
व्यावहारिक
है। अमरीका
में ऐसे बहुत
से कवि
प्रोफेसर हैं,
जिनके पास
कोई डिग्री
नहीं है।
लेकिन डिग्री
क्या करोगे? जो आदमी
कविता को जन्म
दे सका है, जिसकी
कविता पढ़ाने
को सैकडों
वर्ष
प्रोफेसर संलग्न
रहेंगे, तुम
उसको
प्रोफेसरी
नहीं दे सकते?
उसको अपनी
कविता समझाने
का मौका नहीं
दे सकते?
अमरीका
में ऐसे लोग
इंजीनियर हैं, जिनके
पास कोई
डिग्री नहीं।
लेकिन अनुभव
है, अमरीका
अनूठा है इस
लिहाज से।
अमरीका की पकड़
बहुत
व्यावहारिक
है। क्योंकि
अमरीका
व्यवसायी देश
है। व्यवसायी
की पकड़
व्यावहारिक
होती है, प्रैक्टिकल।
व्यवसायी
हमेशा
व्यावहारिक
होता है। उसकी
नजर इस पर
होती है कि
परिणाम किससे
आते हैं?
रामतीर्थ
अमरीका में
रहे तो लोगों
ने खूब उन्हें
आदर दिया।
क्योंकि बात
इतनी
प्रत्यक्ष थी!
अब यह पूछने की
जरूरत थोड़े ही
थी रामतीर्थ
से कि तुमने
कितने
शास्त्र पढ़े
हैं? तुम
वेद जानते कि
नहीं? यह
रामतीर्थ की
मौजूदगी वेद
की मौजूदगी थी।
यह वाणी वेद
की वाणी थी।
इन आंखों में
सागर लहरा रहा
था। यह
रामतीर्थ की
मस्ती काफी थी
प्रमाण।
लेकिन
यह बात काशी
में नहीं
चलेगी। जब
रामतीर्थ
वापस लौटे तो
वे काशी गये।
और काशी में
बड़ी उन्हें
हैरानी हुई।
क्योंकि जब वे
काशी में बोले
तो एक आदमी
बीच में खड़ा
हो गया एक
पंडित और उसने
कहा, रुकिये!
संस्कृत आती
है गुर
रामतीर्थ को
संस्कृत आती
नहीं थी, वे
तो फारसी के
विद्वान थे।
लाहौर में पढ़े,
लाहौर के
पास ही पैदा
हुए, उर्दू
जानते थे, फारसी
जानते थे। और
गणित के
प्रोफेसर थे।
संस्कृत से तो
कुछ लेना ही
देना नहीं था।
चौंककर
रामतीर्थ रह
गये। और उस
आदमी ने कहा, महाराज, पहले
संस्कृत तो
पढो! वेद का
कुछ पता नहीं
है और
ब्रह्मज्ञान
बखान रहे हो!
यह
ब्रह्मज्ञान
किसी काम का
नहीं है। यह
सब बातचीत है,
जब तक
शास्त्र का
समर्थन नहीं
है।
रामतीर्थ
दिखायी नहीं
पड़ते!
रामतीर्थ
सामने बैठे
हैं। इससे
ज्यादा मस्त
आदमी इन सौ
वर्षों में
भारत में
दूसरा नहीं
हुआ। इससे
ज्यादा
सूफियाना, इससे
ज्यादा मौलिक,
इससे
ज्यादा
परमात्मा के
निकट मुश्किल
से कोई आदमी
होता है। मगर
नहीं, पंडितों
को यह बात न
दिखी। सभा उखड़
गयी, लोग
उठ गये, लोगों
ने कहा कि
छोड़ो, जाने
दो, क्या
रखा है!
संस्कृत तक तो
आती नहीं! एक
पर्दा
पड़ गया आंख
पर।
कोई
प्रयोजन नहीं
है संस्कृत के
जानने से।
मुसलमान होने
के लिए अरबी
जानना आवश्यक
नहीं है। न
हिंदुत्व के
सार को समझने
के लिए
संस्कृत जानना
जरूरी है। और
न यहूदी होने
के लिए हिलू
जानना जरूरी
है। सत्य को
जानना जरूरी
है। और सत्य
तो भीतर पड़ा
है। तो सिर्फ
जागना जरूरी
है। जो भीतर
पड़ा है उसे आंख
खोलकर देख
लेना आवश्यक
है, बस।
'कहां
विद्या, कहां
अविद्या, कहां
मैं है, अथवा
कहां यह, कहां
मेरा, कहां
बंध है, और
कहां मोक्ष?' बंधन और
मोक्ष भी
द्वंद्व के ही
जगत के हिस्से
हैं।
स्वरूपस्य
क्व रूपिता?
यहां
तो कोई बंधन, कोई
मोक्ष, कोई
रूप नहीं बनता,
कोई आकृति
नहीं बनती।
मुक्तपुरुष
इतना भी नहीं
कहेगा कि मैं
मुक्त हूं।
क्योंकि न तो
मैं बचा, न
मुक्ति बची।
ऐसा ही
समझो कि एक
आदमी जेलखाने
से छूटता है।
बीस साल
कारागृह में
रहा, हथकड़ियों
में जकड़ा रहा।
छूटा आज, तो
छूटते ही से
मुक्ति लगती
है। तुम्हें
तो मुक्ति
नहीं लगती!
तुम सड़क पर
चले जा रहे हो,
उसी सड़क पर
जहां वह
कारागृह से
छूटता है एक
आदमी—जेल के
दरवाजे पर
लाकर जेलर उसे
विदा करता है और
कहता है, धन्यभागी
कि तुम जीवित
निकल आए, बीस
साल लंबा वक्त
था, प्रभु
तुम्हारी
रक्षा करे, दुबारा मत आ
जाना। वह आदमी
चौंककर अपने
को खड़ा खुली
हवा में देखता
है, सूरज
की रोशनी, पक्षी
उड़ते हुए, लोग जाते
हुए—बीस साल
कारागृह में
बंद था, अंधेरी
कोठरियां, सींकचे,
सिर्फ
संतरियो के
पैरों के
जूतों की आवाज
के सिवाय कोई
और संगीत नहीं
सुना, आज
अचानक फिर से
बीस साल के
बाद जीवन का
रूप—रंग, यह
सतरंगा जीवन,
ये फूल, ये
पक्षी, चौंककर
खड़ा रह जाता
है।
परममुक्ति का
अनुभव होता है।
लेकिन तुम भी
वहीं जा रहे
रास्ते पर, तुम्हें कुछ
अनुभव नहीं
होता।
मुक्ति
के अनुभव का
अर्थ इतना ही
है कि वह
जंजीरों का ही
अनुभव है।
जंजीर बंधी
रही तो मुक्ति
का अनुभव होता
है। तो जब कोई
व्यक्ति पहले
पहले मुक्त
होता होगा, तो शायद
क्षण भर को
मुक्ति का
अनुभव होता हो,
लेकिन फिर
तो पता चलता
है—कैसी
मुक्ति, कैसा
बंधन? दोनों
गये। बंधन के
साथ मुक्ति भी
गयी। जानी ही
चाहिए। दुख के
साथ सुख भी
गया। जाना ही
चाहिए। अशांति
के साथ शांति
भी गयी। जाना
ही चाहिए। अब
तो जो बचा—
गंतद्वंद्वस्य
मे सदा—अब तो
वही बचा जो
द्वंद्व के
अतीत है।
'धर्माधर्मरहित
मुझको कहां
प्रारब्धकर्म
हैं, अथवा
कहां जीवन मुक्ति
है और कहां वह
विदेह कैवल्य
ही है!'
क्व
प्रारव्यानि
कर्माणि
जीवनमुक्तिरपि
क्व वा।
क्व
तद्विदेह
कैवल्य
निर्विशेषस्य
सर्वदा।।
'मैं
तो निर्विशेष
हूं.....।’
निर्विशेषस्य
सर्वदा!
जनक
कहते हैं, मेरे ऊपर
अब कोई विशेषण
नहीं लगता।
निर्विशेषस्य
सर्वदा।
न तो हिंदू न
मुसलमान, न
ईसाई; न
ब्राह्मण, न
शूद्र; न
स्त्री, न
पुरुष; न
जानी, न
अज्ञानी; न
बंद, न
मुक्त, मुझ
पर कोई विशेषण
नहीं लगता। अब
तो मैं बस हूं।
होना शुद्ध है,
सीमा के पार
है। होना
परिभाषा के
बाहर है। अब
मुझ पर कोई
परिभाषा नहीं
लगती।
निर्विशेषस्य
सर्वदा।
इस
निर्विशेष
शब्द को समझना, इसके दो
अर्थ हैं। एक
तो
विशेषणरहित, कि अब कोई भी
विशेषण
सार्थक नहीं
रहा। ज्यादा
क्या कहें —जनक
कहते हैं—इतना
ही कहना काफी
है कि कोई
विशेषण अब मुझ
पर नहीं लगता।
न छोटा, न
बड़ा; न धनी,
न गरीब, न
त्यागी, न
भोगी; न
कर्ता, न
अकर्ता, कोई
विशेषण नहीं
लगता, एक
बात। और
निर्विशेषस्य
का एक और अर्थ
है कि अब मैं जरा
भी विशिष्ट
नहीं। वह बात
भी खयाल में
लेना। अब मैं
कोई खास आदमी
नहीं हूं। अब
मैं जरा भी
विशिष्ट नहीं।
विशिष्ट
होने का मोह
तो अहंकार का
ही मोह है।
हमारे सबके मन
की इच्छा एक
ही रहती है कि
मैं विशिष्ट, मैं कुछ
खास। हम हजार
तरह से जीवन
में एक ही तो
उपाय करते हैं
कि किसी तरह
सिद्ध हो जाए
कि मैं कुछ
विशिष्ट, मैं
कोई साधारण
आदमी नहीं हूं, मैं
असाधारण हूं।
कोई धन कमाकर
सिद्ध करता है
कि मैं
असाधारण हूं —कोई
रॉकफेलर, कोई
मार्गन, कोई
एन्ड्रू
कारनेगी
सिद्ध करता है
कि मैं
विशिष्ट हूं
देखो कितना
मेरे पास धन
है, तुम्हारे
पास क्या है? कोई सिद्ध
करता है बड़ा
पंडित होकर कि
मैं चारों
वेदों का
ज्ञाता, देखो।
तुम्हारे पास
क्या है? कोई
सिद्ध करता
बड़ा त्यागी
होकर कि देखो,
मैंने धन—दौलत
छोड़ दी, मकान
छोड़ दिया, पत्नी—बच्चे
छोड़ दिये, देखो
नग्न खड़ा हूं
रास्ते पर—सर्वत्यागी—तुमने
क्या छोड़ा!
यह
हमारी सब
विशिष्टता की
दौड़े हैं। और
विशिष्टता की
दौड़ का एक ही
अर्थ है कि
हमें अभी अपना
कुछ भी पता
नहीं चला। अभी
हम विशेषण
तलाश रहे हैं।
अभी हम चेष्टा
कर रहे हैं
दुनिया को
दिखाने की कि
हम कौन हैं।
जिसने स्वयं
को जान लिया, उसकी सब
चेष्टा
समाप्त हो
जाती है कि
मैं कौन हूं।
जिसने स्वयं
को जान लिया, उसने तो जान
लिया कि सारा
अस्तित्व ही
विशिष्ट है, यहां
विशिष्ट होने
की दौड़ पागलपन
है। यहां सभी
कुछ असामान्य
है, क्योंकि
सभी कुछ प्रभु
से परिपूरित
है।
जनक
कहते हैं, 'और कहां
वह विदेह
कैवल्य ही?'
जनक के
संबंध में एक
विशेषण उपयोग
किया जाता है
कि वह विदेह
कैवल्य को
उपलब्ध हो गये
थे। कहते हैं
न, राजा
जनक विदेह थे।
विदेह का मतलब
कि देह में
रहते —रहते
देह के जो पार
था उसे
उन्होंने जान
लिया था।
विदेह का अर्थ,
संसार में
रहते —रहते वे
मोक्ष को
उपलब्ध हो गये
थे। लेकिन जनक
कहते हैं ' 'और
कहां वह विदेह
कैवल्य ही!'
जिसकी
लोग चर्चा
करते हैं कि
जनक को मिल
गया, विदेह
कैवल्य, वह
भी कहां है! अब
कुछ भी नहीं
है। महाशून्य
है। शून्य भी
जब न रह जाए तो
उसका नाम है
महाशून्य।
'सदा
स्वभावरहित
मुझको कहां
कर्तापन है और
कहां
भोक्तापन है?
अथवा कहां
निष्कियता है
और कहां
स्फुरण है? अथवा कहां
प्रत्यक्ष
ज्ञान है और
कहां उसका फल
है?'
क्व
कर्ता क्व च
वा भोक्ता
निष्कियं
स्फुरणं क्व
वा।
क्वापरोक्षं
फलं वा क्व
निस्वभावस्य
मे सदा।।
समझें।
'सदा
स्वभावरहित
मुझको कहां
कर्तापन है?'
क्व
निस्वभावस्य
मे सदा।
फिर
विरोधाभास है।
स्वभाव और
उसमें और एक
निषेध लगा
दिया—निःस्वभाव।
जब तुम स्वयं
को जानोगे तो
एक अनूठी बात
जानोगे कि वहॉं
स्व जैसा कुछ
भी नहीं है।
स्वयं को
जानकर पाओगे
कि स्व तो गया।
वह स्व भी पर
के साथ ही
जुड़ा था। जब
तुम बिलकुल
अकेले रह
जाओगे तो
अकेले भी न रहोगे, क्योंकि
अकेलापन भी
भीड़ की तुलना
में था।
समझो।
जब तुम बाजार
में हो, भीड़ में हो।
फिर तुम चले
हिमालय के एक
शिखर पर बैठ
गये। तुम कहते
हो, बड़ा
आनंद, अकेले
बैठे, कोई
भीड़— भाड़ नहीं।
लेकिन
तुम्हारे
अकेलेपन की
परिभाषा भीड़—
भाड़ से आती है।
मैं
कुछ मित्रों
को लेकर
कश्मीर में था।
जिस बजरे पर
हम रुके थे।
उस बजरे का जो
मालिक था, वह धीरे —
धीरे मेरे
प्रेम में पड़
गया। जब हम
आने लगे, वह
रोने लगा। तो
मैंने उससे
पूछा कि बात
क्या है? तो
उसने कहा, बाबा,
बस एक दफे
बंबई दिखला दो।
तू बंबई देखकर
क्या करेगा, यह बंबई के
सब लोग मेरे
साथ यहां हैं।
ये बंबई से
छूटना चाहते
हैं। उसने कहा
कि नहीं बाबा,
हो गयी
जिंदगी इसी ड़ल
झील पर मरते—मरते,
एक दफा बंबई
दिखा दो। उसे ड़ल
झील पर लग रहा
है कि इससे
ज्यादा और
व्यर्थ काम
क्या होगा ? उसे यह भी
समझ में नहीं
आ रहा है कि ड़ल
झील में उसकी
नौका पर जो
मेहमान होते
हैं अधिकतर
बंबई के ही
होते हैं।
बंबई से
घबड़ाया हुआ
आदमी कश्मीर
भागता है।
कश्मीर से
घबड़ाया हुआ
आदमी बंबई आना
चाहता है।
तुम्हें ड़ल
झील पर शांति
मालूम पड़ती है।
डल झील पर जो
रह रहा है उसे
सूनापन मालूम
पड़ता है।
फर्क
समझ लेना।
तुम्हारी शांति
की परिभाषा
तुम्हारी
बंबई की भीड़
से आती है। जब
बंबई का आदमी
जाकर झील पर
बैठ जाता है
तो कहता है, अहा हा!
मगर यह है अभी
भी बंबई में
ही, क्योंकि
यह जो अहा हा
रहा है, यह
बंबई की ही
तुलना में आ
रहा है, नहीं
तो अहा जैसा
कुछ भी नहीं
है। वह बगल
में इसके वहीं
बैठा हुआ माझी
मछली मार रहा
है, कि
नौका खे रहा
है, उसको
कुछ अहा हा
नहीं हो रहा
है। उसके मन
में कोई भाव
नहीं उठता। वह
किसी तरह चला
रहा है, मक्खियां
मार रहा है।
वह कहता है, क्या करो
कहीं और जाने
का उपाय नहीं,
बंबई अपने
भाग्य में
नहीं, यहीं
गुजार देंगे!
मक्खियां मार
रहे हैं! उसे डल
झील पर
मक्खियां
मारने जैसा
लगता है।
तुम जब
भीड़ से भागते
हो तो अकेलेपन
का अनुभव होता
है। अकेलापन
भीड़ की ही
प्रतीति है।
जिस दिन तुम
सच में ही
अकेले हो
जाओगे, उस दिन न तो
भीड़ रहेगी, न अकेलापन
रहेगा। कैसा
अकेलापन, कैसी
भीड़, दोनों
गये। वह तो एक
ही सिक्के के
दो पहलू थे, पूरा सिक्का
चला गया। जिस
दिन तुम स्वयं
पर आओगे, स्वयं
को भी न पाओगे।
न स्व, न पर।
'सदा
स्वभावरहित
मुझको —
निस्वभावस्य
मे सदा—कहां
कर्तापन है, कहां
भोक्तापन है,
कहां
निष्कियता, कहां स्फुरण
है?'
फिर एक
सूत्र जो
मैंने
तुम्हें पीछे
कहा कि कुछ
बिंदु
अष्टावक्र ने
छोड़ दिये हैं, उनको
पूरा करने के
लिए रखा है।
जनक उनको पूरा
करे, तो ही
समझो कि जनक
समझा है। एक
सूत्र था—तुरीय।
अष्टावक्र ने
कहीं भी यह
नहीं कहा कि
तुरीय के भी
पार हो जाओगे।
जनक ने कहा कि
तुरीय के भी
पार हो गया।
अगर सिर्फ
दोहराता होता
तो उतना ही
कहता जितना
अष्टावक्र ने
कहा था। एक
कदम
अष्टावक्र ने
छोड़ दिया था।
अगर अनुभव
होगा तो वह
कदम भी उसको
दिखायी पड़ जाएगा।
यह
दूसरा सूत्र—स्फुरण।
अष्टावक्र का
सूत्र था.
स्वस्फुरण, स्वच्छंद—
अपने स्वयं की
स्फुरणा से जो
जीए। वही सत्य
को पा गया है।
जो दूसरे के
उधार से नहीं
जीता, जो
दूसरे के आदेश
से नहीं जीता,
जो दूसरे का
अंधानुकरण
नहीं करता, जो स्वयं से
ही स्फूर्ति
लेता है, स्पांटेनिटी
से जीता है, वही। जनक
कहते हैं, 'कहां
स्फुरण?'
क्व
कर्ता क्व च
वा भोक्ता
निष्कियं
स्फुरण क्व
वा।
कहां
का स्फुरण, कैसी
बातें लगाए
हैं! यहां कोई
स्फुरण नहीं
हो रहा है। जब
सारी वासना
चली गयी, सारी
तृष्णा चली
गयी, आकांक्षाए
चली गयीं, स्फुरण
कैसा? जब
सारी किया चली
गयी, स्फुरण
कैसा? जब
परतंत्रता
चली गयी तो
स्वच्छंदता
कैसी? दोनों
गये, दोनों
साथ —साथ गये
गतद्वंद्वस्य
मे सदा।
मैं तो
द्वंद्व के
पार विराजमान
हूं। यह
स्फुरण भी गया।
अष्टावक्र
अपूर्व आनंद
को उपलब्ध हुए
होंगे, जब उनका
शिष्य कहने
लगा, स्फुरण
भी गया
स्वच्छंदता
भी गयी, स्वतंत्रता
भी गयी। ये भी
सब परतंत्रता
की ही भाषाएं
हैं।
' अथवा
कहां
प्रत्यक्ष
ज्ञान है?'
अष्टावक्र
ने जोर दिया
है, अपना
ही ज्ञान होना
चाहिए।
शास्त्र का
ज्ञान तो
परोक्ष है।
बुद्ध को हुआ
था, पता
नहीं, ठीक
हुआ, गलत
हुआ, धोखा
दिया, कि
कल्पना कर ली,
कि खुद धोखा
खा गये, कौन
जाने! तुम्हें
तो नहीं हुआ।
मैं कुछ कहता
हूं मुझे हुआ।
हुआ या नहीं
हुआ, तुम
कैसे तय करोगे?
अंधेरे में
टटोलना होगा।
जब तक तुम्हें
प्रत्यक्ष ज्ञान
न हो जाए, तुम
जब तक न जान लो,
तब तक कोई
जानने में
अर्थ नहीं है।
ऐसा
अष्टावक्र ने
कहा। ऐसा सभी
सदगुरु कहते
रहे हैं कि
प्रत्यक्ष जानो,
अपनी आंख से
जानो, अपना
ही अनुभव हो।
जनक
कहने लगे, कहां का
प्रत्यक्ष
ज्ञान और कहां
उसका फल! कुछ
भी नहीं।
अष्टावक्र
खूब आनंदित
हुए होंगे।
यही बात सच है।
जहां परोक्ष
गया, वहा
प्रत्यक्ष भी
गया। यह सब
द्वंद्व ही
हैं, एक ही
साथ बंधे हैं।
ये अलग— अलग
नहीं होते हैं।
' अपने
स्वरूप में
अद्वय मुझको
कहां लोक है, कहां
मुमुक्षु है
अथवा कहां
योगी है, कहां
ज्ञानवान है
अथवा कहां
बद्ध है और
कहां मुक्त है?'
क्व
लोक: क्व
मुमुक्षुर्वा
क्व योगी
ज्ञानवान क्व
वा।
क्व
बद्ध: क्व च
वा मुक्त:
स्वस्वरूपेउहमद्वये।।
'अपने
स्वरूप में
अद्वय मुझको।’
ख्याल
रखना, निरंतर
इस देश के
सिद्धों ने, संतों ने
अद्वय का
उपयोग किया है,
एक का नहीं।
जब वे एक कहना
चाहते हैं तो
अद्वय शब्द का
उपयोग करते
हैं, बहुत
सोचकर। अद्वय
का अर्थ होता
है, दो
नहीं। सीधी —सीधी
बात कह देते, कान को इतना
उल्टा लंबा
चक्कर लगाकर
क्यों पकड़ना,
कह देते
एक, मुझ
एक को। लेकिन
नहीं, ऐसा
भारत के
सतपुरुष नहीं
कहते मुझे एक
को। क्योंकि
एक के साथ दो
का बोध आ जाता
है। एक तो
बनता ही तब है
जब दो हों।
पश्चिम
में बहुत से
गणितज्ञों ने
बहुत तरह की चेष्टाएं
की हैं।
सामान्य रूप
से तो गणित
में दस अंक
होते हैं—एक
से लेकर दस तक।
और फिर इन दस
ही के आधार पर
सारा गणित का
विस्तार होता
है। फिर तो
पुनरुक्ति है।
फिर ग्यारह, बारह, तेरह
और फिर करोड़ों
तक, अरबों —खरबों,
शंख—महाशंख
तक उसी की
पुनरुक्ति है,
लेकिन मूल आंकड़े
तो दस हैं। यह
दस का जन्म
बड़ा
अवैज्ञानिक
है। यह दस
पैदा हुए आदमी
की दस
अंगुलियों के
कारण, क्योंकि
आदमी ने गिनती
सबसे पहले
अंगुलियों पर
शुरू की। तब
कोई गणित तो न
था—अब भी गांव
का ग्रामीण
अंगुलियों पर
गिनता है।
चूंकि दस
अंगुलियां, सारी दुनिया
में सभी
आदमियों की दस
अंगुलियां
हैं, इसलिए
सारी दुनिया
में जितने
गणित पैदा हुए
सबका मूल अंक
दस है।
लेकिन
यह कोई बड़ी
गणित की तो
बात न थी, यह तो संयोग
की बात थी कि
आदमी की दस
अंगुलियां
हैं। इस पर
कोई दस आंकडे
होना जरूरी
नहीं। तो फिर
गणितज्ञों ने
बहुत कोशिश की
कि इतने आंकड़ों
से कम से काम
चल सके। तो
लीवनिस बड़ा
दार्शनिक और
गणितज्ञ हुआ,
उसने तीन आंकड़े
लिये—स्थ, दो,
तीन। फिर
तीन के बाद
चार नहीं आता,
तीन के बाद
दस आता है।
तीन मूल आंकड़े,
उसने कहा
तीन से काम चल
जाएगा। उसको
तीन का ख्याल
आया ईसाई 'ट्रिनिटी'
से कि जीसस
कहते हैं, मूलरूप
से तीन हैं।
वैसा हिंदू भी
कहते हैं—त्रिमूर्ति।
मूल रूप से
तीन हैं। और
वैसा
वैज्ञानिक भी
कहते हैं—इलेक्ट्रान,
प्रोटान, च्छान।
पदार्थ का तीन
खंड़ है मूल।
तो उसने सोचा
कि तीन
पर्याप्त
होना चाहिए।
जब तीन का ही
सारा जगत
विस्तार है तो
तीन से ही गणित
का भी विस्तार
हो जाना चाहिए।
तो एक, दो, तीन। तीन के
बाद आता है दस;
फिर ग्यारह,
बारह, तेरह,
फिर तेरह के
बाद आता है
बीस। इस तरह
संख्या चलती
है। उसने काम
चला लिया तीन
आकड़ों से। और
विज्ञान तो
हमेशा सोचता
है, जितने
से कम से काम
चल जाए उतना
अच्छा।
फिर
आइंस्टीन ने
सोचा कि तीन
की इतनी कोई
जरूरत नहीं
मालूम पड़ती।
दो से काम चल
सकता है।
क्योंकि सारा
जगत द्वंद्व
है—डुआलिटी।
अंधेरा और
उजेला, सुबह और शाम,
जन्म और
मृत्यु, सारा
जगत द्वंद्व
है। स्त्री—पुरुष,
ऋण— धन, सारा
जगत द्वंद्व
है। तो दो से
काम चल जाना
चाहिए, तो
उसने दो से ही
काम चलाया। एक
और दो। फिर आ
जाती है
पुनरुक्ति एक,
दो की। तीन
नहीं आता। एक
और दो के बाद आ
जाता है दस।
आइंस्टीन ने
दो से काम चला
लिया। फिर
बहुतों ने
कोशिश की है
कि इससे भी कम
हो सके, लेकिन
इससे कैसे कम
हो, इससे
कम नहीं हो
सकता। एक से
अकेले काम
नहीं चल सकता।
एक से गणित
नहीं बनता। दो
तो अनिवार्य
हैं।
भारतीय
संतों को यह
बात सदा से
खयाल में रही
कि जहां तुमने
एक कहा, वह दो तो आ ही
जाएगा, एक
तो बन ही नहीं
सकता; एक
अकेला हो ही
नहीं सकता, उसके लिए
होने के लिए
दूसरे का होना
बिलकुल जरूरी
है। इसलिए वे
कभी नहीं कहते
कि मुझे एक को,
वे कहते हैं,
मुझ अद्वय
को। वे कहते
हैं, मेरी
जो सत्ता है
वहा दो नहीं
हैं, अब
तुम समझ लेना
इशारा। मगर वह
इशारा है।
स्पष्ट नहीं
कहते कि वहां
एक है। इतना
ही कहते हैं
कि दो नहीं है।
द्वंद्व वहां
समाप्त हो गया
है। द्वंद्व
के वहां हम
पार चले गये
हैं। दो के
अतीत हो गये
हैं, दुई
मिट गयी है।
स्वस्वरूपेउहमद्वये।
'अपने
स्वरूप में, अपने अद्वय
स्वरूप में न
मुझे कोई लोक
है, न कोई
मुमुक्षा है,
न कोई योग
है, न कोई
ज्ञान है, कहां
बद्ध, कहा
मुक्त?'
न मैं
बद्ध हूं? न मैं
मुक्त हूं,
न मैं अमुक्त,
न ज्ञानी, न अज्ञानी।
सब विशेषण खो
गये हैं। यह
निवेदन कर रहे
हैं जनक अपने
गुरु के सामने
कि तुमने मुझे
जगाया है।
तुमने जो जाग
मुइाए दी, उससे
मुझे ऐसा हुआ
है। यह शिष्य
अपने हृदय को
खोलकर रख रहा
है जो उसे हुआ
है। और
श्रवणमात्रेण
हुआ है। जनक
को सिर्फ
अष्टावक्र को
सुन—सुनकर ऐसा
हुआ है। जनक
अप्रतिम
पात्र हैं।
इससे श्रेष्ठ
कोई पात्र
नहीं होता, जिसे सुनकर
ही सत्य का
अनुभव हो जाए।
और ऐसा अनुभव
कि जो —जो
कमियां गुरु
ने छोड़ दी थीं—जानकर
छोड़ दी थीं—उनको
वह पूरा कर
सका। उनको
पूरा भर लाया।
पश्चिम
में एक बहुत
बड़ा चित्रकार
हुआ है—दोरेक।
उसके पास
सैकड़ों शिष्य
चित्रकला
सीखने आते थे।
उसकी परीक्षा
का ढंग बड़ा
अनूठा था। ऐसे
ही रहा होगा
जैसा
अष्टावक्र का।
दोरेक अपने
शिष्यों की
परीक्षा ऐसे
लेता था कि वह
खुद एक चित्र
बनाता और
उसमें कहीं
कोई ऐसी बारीक
कमी छोड़ देता, जिसको
उसकी हैसियत
का चित्रकार
ही पहचान सकता
है। बाकी को
तो कमी दिखायी
पड़ ही नहीं
सकती। और वह
अपने शिष्यों
को कहता कि
अगर इसमें तुम्हें
कोई कमी दिखती
हो तो उसे
पूरा कर दो।
जो शिष्य पूरा
कर देता उसे—कभी—कभी
तो ऐसा होता
कि ब्रुश की
जरा—सी एक
लकीर, और
उसने छोड़ दी
है, कि जरा—सा
एक चिह्न, और
देखने पर किसी
को भी समझ में
नहीं आएगा कि
कोई कमी छूट गयी
है, कोई
कमी छूट गयी
है। उसके
चित्र
सर्वांग
सुंदर चित्र
होते थे, वह
अनूठा कलाकार
था। जिंदगी
में हजारों
लोगों ने उससे
सीखा चित्र बनाना,
लेकिन दो —चार
ही उत्तीर्ण
हुए। क्योंकि
पहले तो जो
देखता वह कह
देता कि इसमें
कोई कमी नहीं
है, घंटों
देखता और कहता
इसमें कमी है
ही नहीं।
इसमें कोई कमी
नहीं है। कभी—कभी
कोई यह सोचकर
कि गुरु कहते
हैं, कमी
होनी चाहिए, तो खोजबीन
कर कुछ कमी
खोज लेता जो
कमी थी ही नहीं।
तो वह कुछ
उपाय करता तो
चित्र और बिगड़
जाता। कभी—कभी
ऐसा होता कि
कोई शिष्य
पहचान पाता
कहां कमी है।
जो उस कमी को
पहचान लेता
उसको दोरेक
उत्तीर्ण कर
देता।
मुझे
लगता है, परीक्षा का
ठीक उपाय उसने
खोजा था। वह
कमी, दोरेक
की चित्तदशा
ही जिस शिष्य
में आ गयी हो, उसी को
दिखायी पड़
सकती थी। और
किसी को नहीं
दिखायी पड़
सकती थी। जो
दोरेक के साथ
इतना आत्मलीन
हो गया है, जो
अब शिष्य नहीं
रहा है, वस्तुत:
गुरु ही हो
गया है। तुम
अगले सूत्र
में पाओगे।
अगले सूत्र
में जनक कहते
हैं, और अब
कैसा गुरु, कैसा शिष्य!
वह अंतिम
सूत्र है। और
जनक उसकी
पात्रता
घोषित कर रहे
हैं।
उन्होंने भर
दिये छिद्र जो
—जो छोड़ दिये
थे। छिद्र बड़े
बारीक थे। अगर
कोई नकल कर रहा
होता तो डरता
कि गुरु के
खिलाफ बोले कि
झंझट हो जाएगी।
स्फुरण भी
नहीं, प्रत्यक्ष
ज्ञान भी नहीं,
ज्ञान का
कोई फल भी
नहीं, न
कोई मुक्ति है,
न कोई मोक्ष
है, न कोई
बद्ध —है, न
कोई बंधन है।
न संसार, न
निर्वाण।
'अपने
स्वरूप में
अद्वय मुझको
कहां सृष्टि
है और कहां
संहार है, कहां
साध्य है, कहा
साधन है अथवा
कहां साधक है
और कहा सिद्धि
है?'
क्व
सृष्टि: क्व
च संहार: क्व
साध्य क्व च
साधनम्।
क्व
साधक: क्व
सिद्धिर्वा
स्वस्वरूपेउहमद्वये।।
मैं
अपने अद्वय
रूप में खड़े
होकर देख रहा
हूं। निवेदन
करता हूं, जनक कहने
लगे, मुझे
क्षमा करें
लेकिन मेरा
निवेदन यह है
कि यहां, इस
अद्वय दशा में
न तो मुझे कोई
सृष्टि
दिखायी पड़ती
है और न कोई
प्रलय। न तो
कभी कुछ बनाया
गया है और न
कभी कुछ
मिटाया जाता
है, जो है, है। जो नहीं
है, नहीं
है। न कोई
बनाने वाला है,
क्योंकि
कोई चीज बनायी
ही नहीं गयी
है कभी—स्रष्टा
कैसा, सृष्टि
ही कभी नहीं
हुई। और न कोई
संहारकर्ता
है। ये
तुम्हारे
ब्रह्मा, विष्णु,
महेश
संभालकर रखो,
मुझे धोखा
मत दो। न
सृष्टि है, न स्रष्टा, तो ब्रह्मा
कैसे? सृष्टि
नहीं तो
संभालनेवाला
कौन? और
संहार नहीं
होता तो कौन
शिव है? कोई
नहीं है। जो
है, अद्वय,
एक। उस जगह
मैं खड़ा होकर
कह रहा हूं कि
यहां कुछ भी नहीं
है, सब
सपना है, और
तब तक दिखायी
पड़ता है जब तक
तुमने अपने को
जगाया नहीं।
सब नींद में
देखी गयी
बातें हैं। सब
स्वप्न में
देखे गये
ख्याल हैं।
'कौन
साध्य है और
कहां साधन, अथवा कहा
साधक है और कहां
सिद्धि?'
यह
आखिरी बात
मालूम होती है—कहा
सिद्धि? अब तुम समझो,
सिद्धि का
लक्षण ही यही
है। सिद्ध
होने का अर्थ
ही है कि जहां
सिद्धि भी व्यर्थ
हो जाए। जो
सिद्धि में
उलझ गया, वह
सिद्ध होते—होते
चूक गया।
पतंजलि ने
पूरा एक
अध्याय लिखा
है योगसूत्रों
में—सिद्धियों
का। सिर्फ यह
बताने को कि
जागरूक रहना,
ऐसी—ऐसी
घटनाएं
घटेंगी, उलझ
मत जाना। नहीं
तो संसार से
बचे, तो
फिर स्वर्ग
में उलझ गये।
बाहर से बचे
तो भीतर उलझ
गये। बाहर का
उपद्रव किसी
तरह गया तो
भीतर के उपद्रव
में लीन हो
गये। बाहर का
जादू टूटा तो
भीतर का जादू
पकड़ लिया, लेकिन
जादू जारी रहा,
नींद न खुली।
सिद्ध वही है
जिसके भीतर अब
कोई सिद्धि भी
नहीं रही। जो
इतना सरल हो
गया है। यह
परमसिद्धि की
अवस्था है।
ऐसा व्यक्ति
तो हवा का
झोंका है। जल
की धार है।
पानी की लहर
है। इतना ही
सरल है। सरलता
सिद्धि है।
शून्यता
सिद्धि है।
सिद्धि के भी
पार हो जाना
सिद्धि है। कल
किसी का
प्रश्न था।
उत्तर मैंने
नहीं दिया, आज के लिए
छोड़ रखा था।
पूछा है, सिद्ध
कौन?
जो
असंग
वह
अभंग
जो
अकेला है, जो इतना
अकेला है कि
अब अकेलापन भी
न बचा, उसी
को कहते असंग।
और जो असंग है,
वह अभंग है।
उसका अब खंड़न
नहीं हो सकता
है। उसके अब
टुकड़े नहीं हो
सकते हैं। मैं,
तू यह, वह,
सब टुकड़े
समाप्त हो गये।
जो
असंग
वह
अभंग
और ऐसी
अभंग दशा को
सिद्ध कहा है।
महाराष्ट्र
में सिद्धों
के वचन, बहुत से वचन
अभंग कहलाते
हैं। वे
इसीलिए अभंग
कहलाते हैं।
वे एक ऐसी
चित्त की दशा
से पैदा हुए
हैं जहां कोई
विभाजन नहीं
रहा।
अंग्रेजी में
जो शब्द है
इनडिवीजुअल, वह ठीक शब्द
है अभंग के
लिए।
इनडिवीजुअल
का अर्थ होता
है, जिसके
विभाजन न हो
सकें।
अविभाज्य जो
है, खंड़ न
हो सकें।
जिसके खंड़ हो
जाएं, वह
भीड़, वह
अभी व्यक्ति
नहीं। सिद्धि
की जो परमदशा
है, वह अभंग
होने की दशा
है। अद्वय, दो नहीं बचे,
इतना भी खंड़
नहीं
रहा कि
दो बचें। अनेक
की तो बात ही
छोड़ दो, दो भी नहीं
बचे।
अपना
अपने
में बो
अंत: जग
बाहर सो
सिद्ध
की यह दशा है।
अपना
अपने
में बो
अब कोई
दूसरा तो है
नहीं।
अपना
अपने
में बो
खुद ही
बीज है, खुद ही खेत
है, खुद ही
किसान है, खुद
ही फसल है, खुद
ही काटेगा। बस
अपना ही अपना
बचा।
अपना
अपने
में बो
अंत: जग
बाहर सो
और जो
भीतर है, वही अब बाहर
है। जो बाहर
है, वही
भीतर है। बाहर
भीतर भी गया।
अभंग। अब न
कुछ बाहर है, न भीतर है।
नियति
निरपेक्ष है
भ्रम है
विरोधाभास
तम—विभा
द्वय से
मुक्त
है महाकाश
नियति
निरपेक्ष है
तो जब
तक सापेक्ष हो
—ठंडा और गरम, सुख और
दुख ये सब
सापेक्ष
बातें हैं। जो
तुम्हें सुख
है, दूसरे
को दुख हो
सकता है।
ऐसा एक
बार हुआ कि
मैं एक राजमहल
में मेहमान हुआ।
मेरे साथ एक
मित्र भी वहां
मेहमान हुए।
मित्र फक्कड़
फकीर हैं। और
राजमहल में
होने का
उन्हें कभी
मौका आया नहीं
था। जिस राजा
के हम मेहमान
थे, उसने
जो श्रेष्ठतम
उनके घर में
सुविधा थी वह
हमारे लिए
जुटायी थी।
सुंदरतम जो
कक्ष था, उसमें
हमें ठहराया
था। लेकिन रात
मैंने देखा कि
मित्र करवट
बदलते हैं, उन्हें नींद
नहीं आती।
मैंने उनसे
पूछा कि बात
क्या है? तुम
इतनी करवट
बदलते हो! तो
उन्होंने कहा
कि मुझे नींद
नहीं आती, अगर
आप आज्ञा दें
तो मैं फर्श
पर सो जाऊं।
तो मैंने कहा,
तुम्हें
बिस्तर पर कोई
तकलीफ है? बोले,
बहुत तकलीफ
हो रही है, क्योंकि
यह इतना सुखद
है, इतना
गुदगुदा और
इतना मुलायम,
ऐसे बिस्तर
पर मैं कभी
सोया नहीं, मुझे बड़ा
दुख हो रहा है,
मुझे नीचे
सो जाने दें।
वह
नीचे सो गये।
पांच मिनट बाद
मैंने देखा वो
घर्राटे ले
रहे हैं। सुबह
मैंने अपने
मेजबान को कहा
कि आपने इनको बड़ा
दुख दिया।
कहने लगे, दुख? आप
कैसी बात करते
हैं! मुझसे
क्या भूल हुई
है, क्या
दुख हुआ, आप
बताएं। मैंने
कहा, दुख
यह हुआ कि
आपने इनको
इतना इंतजाम
कर दिया, इतना
सुंदर बिस्तर
दे दिया कि यह
बिचारे रात अधिा
रात तक तो
करवट बदलते
रहे, अगर
मैं न पूछता
तो शायद यह रात
भर ऐसे ही पड़े
रहते। इनको
ऐसा भी लगा कि
नीचे सोऊ तो
अशोभन मालूम होगा।
लोग सोचेंगे,
कैसा
अशिष्ट, इसको
सोना भी नहीं
आता। और
उन्होंने
किया भी यही।
जैसे ही सुबह
मैं उठा, उन्होंने
जल्दी से उठकर,
वापिस
बिस्तर पर बैठ
गये वे। मैंने
कहा, कपों?
उन्होंने
कहा, ऐसे कोई
देख ले और कहे
कि नीचे सोए!
तो क्या
समझेंगे कि इस
आदमी को
बिस्तर पर
सोने की भी
तमीज नहीं।
लेकिन
उन्होंने कहा,
मैं भी क्या
करूं, जमीन
पर ही सोने की
आदत है।
तो जो
किसी को सुख
हो, किसी
को दुख हो
सकता है।
सापेक्ष। जो
ठंडा, वह
किसी को गरम
लग सकता है।
जो किसी को
सुंदर लगता है
वह किसी को
असुंदर लग
सकता है। जो
तुम्हें आज
सुंदर लगता है,
कल असुंदर
लग सकता है।
रोज तो
तुम्हें यह
अनुभव होता है।
एक स्त्री के
प्रेम में पड़
गये, वह
बिलकुल सुंदर
लगती थी, देवी
लगती थी। आज
प्रेम समाप्त
हो गया, वह
नशा उतर गया, वह खुमारी
चली गयी, अब
वह कुरूप लगती
है, बेढब
लगती है। आज
तुम्हें
भरोसा नहीं
आता कि कभी इस
स्त्री में
मैंने
सौंदर्य कैसे
देख लिया था!
सापेक्ष।
नियति
निरपेक्ष है
लेकिन
जो सत्य है, वह
निरपेक्ष है।
जितना
सापेक्ष है, वह सत्य
नहीं। जहां तक
सापेक्ष है, वहां तक
सत्य नहीं, वहा तक
मनुष्य के मत
हैं, सत्य
नहीं।
मान्यताएं, धारणाएं।
भ्रम है
विरोधाभास
और
जहां —जहां
तुम्हें
विरोध दिखायी
पड़ता है, जानना वहां—वहां
भ्रम है।
क्योंकि यहां
सब विरोध जुड़े
हैं, अलग
नहीं हैं।
तुम्हें लगता
है कि सुख और
दुख विरोधी।
गलती बात है।
दोनों जुड़े
हैं। पार्टनर
हैं, साझेदार
हैं। एक ही
उनकी दुकान है।
जरा भी अलग
नहीं हैं। एक
मर जाए, दूसरा
मर जाता है।
जीवन—मृत्यु,
तुम्हें
लगते हैं
विरोधाभास, विरोधी नहीं।
मृत्यु के
कारण जीवन है,
जीवन के
कारण मृत्यु
है, दोनों
जुड़े हैं।
भ्रम है
विरोधाभास
नियति
निरपेक्ष है
तम —विभा
द्वय से
और
अंधेरे और
प्रकाश के
द्वंद्व से—
मुक्त
है महाकाश
वह जो
सिद्ध का
महाकाश है, वह
द्वंद्व से
मुक्त है।
स्वस्वरूपेउहमद्वये—वहां
कोई दो नहीं
है।
जो दे
व्यर्थ को
अर्थ
वही
सिद्ध वही
समर्थ
तुम तो
अभी अर्थ को
भी —व्यर्थ
किये दे रहे
हो। अर्थ का
भी अनर्थ किये
दे रहे हो।
इतना
बहुमूल्य जीवन
मिला है और
ऐसा गंवा रहे
हो। ऐसा
बहुमूल्य रतन—सा
जीवन मिला है, कौड़ियों
में लुटा रहे
हो। तुम तो
अभी अर्थ का
अनर्थ किये दे
रहे हो।
जो दे
व्यर्थ को
अर्थ
वही
सिद्ध वही
समर्थ
जो
जीवन की
व्यर्थता में
से भी सार्थक
को खोज ले, जो इस
कूड़े —करकट
में हीरे को
पहचान ले, जो
इस लहरों के
जाल में सागर
में डुबकी लगा
ले, जो
सपनों में न
खोए और सत्य
को पकड़ ले।
लहर निगोड़ी
दिन भर
दौड़ी
मांगा
मोती
लायी
कौड़ी
तुम्हारा
जीवन ऐसा है
लहर
निगोड़ी
दिन भर
दौड़ी
मांगा
मोती
लायी
कौड़ी
दौड़ते
तो जिंदगी भर
हो, दिन
बीत जाता है
दौड़ते —दौड़ते,
लाते क्या
हो? सांझ
घर क्या लाते
हो? कौड़िया
लिये चले आते
हो। उदास, थके,
आसुओ के
सिवाय
तुम्हारे
जीवन की कोई
फलश्रुति
नहीं है।
सिद्ध वही जो
इसी क्षण, यहीं
हीरा ले आया।
इसी क्षण
डुबकी लगायी
और मोती ले
आया। अभी और
यहीं जिसने
अपने सुख, परम,
महासुख को
उदघोषित कर
दिया।
लेकिन
तुम्हें
कठिनाई होती
है, तुम
तो इस आनंद की
खबर को सुनकर
भी बेचैन होने
लगते हो।
क्यों?
मैं
नियति के
व्यंग्य से
घायल हुआ हूं
और
तुमको गीत
गाने की लगी
है!
तुम तो
सिद्धों से
नाराज हुए हो।
तुम तो
बुद्धों से
नाराज हुए हो।
तुमने तो उनसे
जा—जाकर
बार—बार
कहा —
मैं
नियति के
व्यंग्य से
घायल हुआ हूं
और
तुमको गीत
गाने की लगी
है!
इस तरह
की चोट कुछ मन
पर हुई है
घाव
गहरा, खून
पर बहता नहीं
है
मन बहुत
समझा रहा, आघात सह
जा
किंतु
तन कमजोर यह
सहता नहीं है
बिजलियों
ने वक्ष मेरा
छू लिया है
और
तुमको
मुस्कुराने
की लगी है!
कर्म की
पूजा अधूरी ही
पड़ी है
और
तुमको रस
बहाने की लगी
है!
द्वार
की सांकल बजाए
जा रहा दुख
और
तुमको मधु
पिलाने की लगी
है!
लेकिन, मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं,
तुम्हारे दुख
कल्पित हैं।
तुम्हारे दुख
तुम्हारे ही
मन—निर्मित
हैं। न—मालूम
कितने हजारों
लोगों के दुख—सुख
मैं सुनता हूं, और मैं चकित
होता हूं कि
लोग कितने
गहरे न सो रहे
होंगे! उन्हें
यह भी नहीं
दिखायी पड़ता
कि दुख उनका
बिलकुल
कल्पित है।
बिलकुल झूठा
है। अब तक
मैंने ऐसा
आदमी नहीं
पाया जिसका
कोई दुख
वास्तविक हो।
जो सच में दया
का पात्र हो।
हंसी के पात्र
हैं, दया
के पात्र नहीं
हैं। यद्यपि
मैं भी हंसता
नहीं, क्यौंकि
तुम्हें और
चोट लगेगी।
मैं गंभीरता
से तुम्हारी
बातें सुनता
हूं।
तुम्हारे दुख
में ऐसा
दिखाता हूं कि
मैं भी सम्मिलित
हूं
सहानुभूति
दिखाता हूं
तुम्हारी पीठ
थपथपाता हूं।
क्योंकि तुम
अभी न समझ
सकोगे। अभी
तुम दुख में
ऐसे डूबे हो
कि तुम्हें लग
रहा है कि यही
सचाई है।
तुम्हारे सब
दुख झूठे हैं।
इसलिए
बुद्धपुरुषों
पर तुम नाराज
हुए तो कुछ आश्चर्य
नहीं है।
स्वाभाविक है।
क्योंकि वे एक
ऐसी जगत
की बात कर रहे
हैं जिससे
तुम्हारी कोई
भी पहचान नहीं।
दिवस
उनींदे उन्मन
बीते
रात
जागरण के प्रण
जीते
क्यों
आगमन गमन बन
जाता
क्यों
संहार सृजन बन
जाता
मरण जनम
या जनम मरण है
कहीं न
कोई निराकरण
है
ज्ञान
गुमान शेष हो
जाते
आदि अंत
को सीते —सीते
पल में
धूप बनी क्यों
छाया
माया
रूप रूपरत माया
जल मैं
उपल उपल में
जल है
जीव — जीव
में जगत समाया
सरि में
लहर लहर में
धारा
धार — धार
में जीवन सारा
बूंद —
बूंद में भरने
वाले
भरे —
पुरे सागर
क्यों रीते
कुशल—क्षेम
ही कहते सुनते
चले गये
सब क्यूं सिर
सुनते
ब्रह्म
सत्य तो जग
मिथ्या क्यों
रविकर
क्यों
स्वप्नाबर
बुनते
तम में
किरण किरण तम
कारा
जीत जीत
क्यों जीवन
हारा
हीरा
जनम गंवाया
यों ही
रोते —
गाते, खाते
— पीते
ज्ञान
गुमान शेष हो
जाते
आदि अंत
को सीते —सीते
कहीं
कोई निराकरण
नहीं दिखायी
पड़ता। जीवन की
चादर के आदि—
अंत सीते —सीते
ही सारा जीवन
बीत जाता है।
धन, पद, ज्ञान के सब
गुमान व्यर्थ
हो जाते।
हीरा
जनम गंवाया
यों ही
और यह
हीरे —सा जन्म
ऐसे ही खो
जाता है।
तो
तुम्हें बड़ी
हैरानी होती
है जब तुम
अमृत, अद्वैत,
आनंद, सच्चिदानंद
के गीत सुनते
हो, तो
तुम्हें लगता
है कहां की
बातें हो रही
हैं! हम यहां
दुख में पड़े—दुख
साकल बजा रहा
है—तुम्हें रस
बहाने की पड़ी
है! तुम्हें
मधु पिलाने की
पड़ी है!
तुम्हें गीत
गाने की पड़ी
है! लेकिन फिर
भी मैं तुमसे
कहता हूं,
अगर तुम सुन
सको और तुम
थोड़ा अपने दुख
की इस गठरी को
उतारकर थोड़ा—सा
भी, एक
क्षण को भी इस
महोत्सव में
सम्मिलित हो
सको, जिसका
निमंत्रण
सिद्धपुरुषों
ने तुम्हें
दिया है तो
तुम भी हंसोगे।
यह गठरी
उतारते से ही
तुम्हें
दिखायी पड़
जाएगी कि झूठ
थी, अपनी
ही बनायी थी।
तुम
भी आंचल गीला
कर लो
अब रूठे
रहो न फागुन
में
चर्गो
पर थाप पड़ा
गहरी, सब
फड़क उठे
ढप—ढप ढोलक
खड़के
मृदंग झमकीं
झांझें
पग थिरक
उठे नैना अपलक
लो होड़
लगी देखा —देखो
घुंघरू
पायल की
रुनझुन में
कुमकुम
अबीर के मेघ
उड़े
खिलता
पलाश फागुन
गाओ
ऐसे में
मन मारे न रहो
कुछ रस
में ड़बो, उतर
आओ आओ, शामिल हो
जाओ
मौसम के
पूजन — अर्चन
में
तुम भी आंचल
गीला कर लो
अब
रूठे रहो न
फागुन में
यह जो
अष्टावक्र और
जनक का संवाद
मैंने तुमसे
कहना चाहा है, इसी आशा
में कि तुम भी
थोड़े इस फागुन
के रस में डूब
सको। एक बूंद
भी तुम्हारे
हाथ लग जाए तो
सागर दूर नहीं।
एक किरण भी
हाथ लग जाए तो
सूरज दूर नहीं।
तुम भी आंचल
गीला कर लो
अब रूठे
रहो न फागुन
में
चर्गो
पर थाप पडी
गहरी, सब
फड़क उठे
ढप—ढप ढोलक
खड़के
मृदंग झमकीं
झांइाएं
पग थिरक
उठे नैना अपलक
लो होड़
लगी देखो —देखो
घुंघरू
पायल की
रुनझुन में
कुमकुम
अबीर के मेघ
उड़े
खिलता
पलाश फागुन
गाओ
ऐसे में
मन मारे न रहो
कुछ रस
में ड़बो, उतर आओ
आओ, शामिल हो
जाओ
मौसम के
पूजन— अर्चन
में
तुम भी आंचल
गीला कर लो
अब रूठे
रहो न फागुन
में
यह जो
महा अमृत का
संदेश है र
इसे थोड़ा चखो।
चखते ही अर्थ
खुलेगा। तुम
पूछते हो—सिद्ध
कौन? सिद्ध
हुए बिना पता
न चलेगा। और
सिद्ध तुम इसी
क्षण हो सकते
हो। क्योंकि
सिद्ध होने के
लिए न किसी
साधन की जरूरत
है, न किसी
साध्य की।
सिद्ध होना
तुम्हारा
स्वभाव है।
तुम स्वरूप से
सिद्ध हो।
तुम्हारा
मोक्ष
तुम्हारे
भीतर है। तुम
सम्राट हो। न
मालूम किस
अपशगुन में
तुमने अपने को
भिखारी मान
लिया है। न
मालूम किस
पागलपन में
तुम भीख मांगे
चले जा रहे हो।
छोड़ो इस सपने
को, थोडे
जागो और सिद्ध
का अर्थ
तुम्हें पता
चलेगा। सिद्ध
का अर्थ है, ऐसी चैतन्य
की दशा जहां
अब पाने को
कुछ भी न रहा।
जो पाना था, पा लिया। जो
होना था, हो
लिये। तृप्ति
की ऐसी परमदशा
जहां तृष्णा
तो है ही नहीं,
तृप्ति भी
नहीं है।
हरि ओं
तत्सत्!
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें