यह
बहुत अनूठा
सूत्र है।
बुद्ध
के अनूठे से
अनूठे
सूत्रों में
एक। इसे खूब
खयाल से समझ
लेना।
प्रभातवेला
आकाश में उठता
सूर्य आम्रवन
में पक्षियों
का कलरव भगवान
जेतवन में
विहरते थे। उनके
पास ही बहुत
से आगंतुक
भिक्षु भगवान
की वंदना कर
एक ओर बैठे
थे। उसी समय
लव कुंठक
भद्दीय
स्थविर भगवान
से विदा ले
कुछ समय के
लिए भगवान से
दूर जा रहे
थे। उन्हें
जाते देख भगवान
ने उनकी ओर
संकेत कर कहा—
भिक्षुओ
देखते हो इस
भाग्यशाली
भिक्षु को? वह
माता— पिता को
मारकर
दुखरहित होकर
जा रहा है।
माता—पिता
को मारकर! वे
भिक्षु भगवान
की बात सुनकर
चौके चौककर
एक— दूसरे का
मुंह देखने
लगे कि भगवान
ने यह क्या
कहा?
माता— पिता
को मारकर
दुखरहित होकर
जा रहा है इस
भाग्यशाली
भिक्षु को
देखो! उन्हें
तो अपने कानों
पर भरोसा नहीं
हुआ! माता—
पिता की हत्या
से बड़ा तो कोई
और पाप नहीं
है। भगवान यह
क्या कहते हैं?
कहीं कुछ
चूक है। या तो
हम सुनने में
चूक गए या
भगवान कहने
में चूक गए।
माता— पिता के
हत्यारे को भाग्यशाली
कहना यह कैसी
शिक्षा है? भगवान होश
में हैं?
अत्यंत
संदेह और
विभ्रम में
पड़े
उन्होंने भगवान
से पूछा—
तथागत क्या कह
रहे हैं? ऐसी
बात न तो
आंखों देखी न
कानों सुनी।
भगवान ने तब
कहा— इतना ही
नहीं इस
अपूर्व भिक्षु
ने और भी
हत्याएं की
हैं और बड़ी
सफलता से और
बड़ी कुशलता
से। हत्या
करने में इसको
कोई सानी नहीं
है। भिक्षुओ
तुम भी इससे
कुछ सीख लो। तुम
भी इस जैसे
बनो और तुम भी
दुख— सागर के
पार हो जाओगे।
भिक्षुओं ने
कहा—आप कहते
क्या हैं!
हत्यारे की
प्रशंसा कर
रहे हैं! और बुद्ध
ने कहा— इतना
ही नहीं
भिक्षुको
इसने अपनी भी
हत्या कर दी
है। यह
आत्मघाती भी
है। यह बड़ा
भाग्यशाली
है। और तब
उन्होंने ये
सूत्र कहे—
मातरं
पितरं हंत्या
राजानो व
खत्तियो।
रट्ठं
सानुचरं' हंत्वा
अनीघो याति
ब्राह्मणो ।।
मातरं
पितरं हंत्वा
राजानो द्वे च
सोत्थिये ।
वेय्यग्धपज्चमं
हंत्वा
अनीधो याति
ब्राह्माणो
।।
'माता अर्थात
तृष्णा'—बुद्ध
कहते हैं, सारे
जीवन का जन्म
तृष्णा से हुआ
है —'माता
अर्थात
तृष्णा, पिता
अर्थात
अहंकार, दो
क्षत्रिय
राजाओं
अर्थात
शाश्वत दृष्टि
और उच्छेद
दृष्टि'—आस्तिकता
और नास्तिकता—
'और उनके
अनुचरों को' —सारे
शास्त्रीय
सिद्धातों को—'और उनके साथ
सारे राष्ट्र
को' —आसक्तियों
सहित अपने
भीतर के सारे
संसार कों—'मारकर यह
ब्राह्मण
निष्पाप हो
गया है।’माता—पिता,
दो
श्रोत्रिय
राजाओं और
व्याघ्रपंचम
को मारकर
ब्राह्मण
निष्पाप हो
जाता है।’
समझने
की कोशिश
करें।
तृष्णा
को कहा बुद्ध
ने मा। तृष्णा
है स्त्रैण।
इसलिए
स्त्रियां
ज्यादा
तृष्णातुर
होती हैं
पुरुष की
बजाय।
स्त्रियों की
पकड़ वस्तुओं
पर,
धन पर, मकान
पर बहुत होती
है—तृष्णातुर
होती हैं। और स्त्रियां
ईर्ष्या से
बहुत जलती
हैं—किसी ने
बड़ा मकान बना
लिया, किसी
ने नयी साड़ी
खरीद ली!
तृष्णा
स्त्रैण है, अहंकार
पुरुष है।
पुरुष को कष्ट
होता है तभी जब
किसी का
अहंकार बढ़ता
देखने लगे। जब
उसके अहंकार
को चोट लगती
है तब वह
बेचैन होता
है। वस्तुएं
चाहे न हों, मगर
प्रतिष्ठा
हो।
प्रतिष्ठा के
लिए सब भी
छोड़ने को
तैयार होता है
पुरुष, मगर
प्रतिष्ठा
छोड़ने को
तैयार नहीं
होता। मैं कुछ
हूं, ऐसा
भाव रहे तो वह
सब छोड़ने को
तैयार है।
भूखा मर सकता
है, उपवास
कर सकता
है—अगर लोगों
को खयाल रहे
कि यह महातपस्वी
है। नंगा खड़ा
हो सकता है, धूप —ताप सह सकता
है, बस एक
बात भर बनी
रहे कि यह
आदमी गजब का
है।
पुरुष
की जड़ उसके
अहंकार में
है। इसलिए
स्त्री की जड़
उसकी तृष्णा
में है।
तृष्णा शब्द
भी स्त्रैण है, अहंकार
शब्द भी
पुरुषवाची
है। यह पुरुष
का रोग है
अहंकार, और
तृष्णा
स्त्री का रोग
है। इन दोनों
के मिलन से हम
सब बने हैं। न
तो तुम पुरुष
हो अकेले, न
तुम स्त्री हो
अकेले। जैसे
मां और पिता
से तुम्हारा
जन्म हुआ—आधा
हिस्सा मां ने
दिया है तुम्हारे
शरीर को, आधा
हिस्सा
तुम्हारे
पिता ने दिया
है। कोई पुरुष
एकदम शुद्ध
पुरुष नहीं है,
क्योंकि
मां का हिस्सा
कहां जाएगा? और कोई
स्त्री शुद्ध
स्त्री नहीं
है, क्योंकि
पिता का
हिस्सा कहां
जाएगा? दोनों
का मिलन है।
ऐसे ही चित्त
बना है तृष्णा
और अहंकार से।
स्त्रियों
में तृष्णा की
मात्रा
ज्यादा, पुरुषों
में अहंकार की
मात्रा
ज्यादा। भेद मात्रा
का है। और
दोनों महारोग
हैं। और दोनों
को मारे बिना
कोई दुख से
मुक्त नहीं
होता।
इसलिए
बुद्ध ने बड़ी
अजीब बात कही
है कि यह अपने
माता—पिता को
मारकर दुख से
मुक्त हो गया
है,
देखते हैं
इस भाग्यशाली
भिक्षु को!
इसकी तृष्णा
भी नहीं
रही—यह कुछ
पाने को
उत्सुक भी
नहीं है। और
इसका कोई
अहंकार भी
नहीं रहा—इसकी
कोई मैं की
घोषणा भी नहीं
रही। यह
शून्यवत हो
गया है। जैसे
है ही नहीं।
इसने अपने को
पोंछ लिया। इसलिए
बुद्ध कहते
हैं, इतना
ही नहीं, इसने
अपना भी
आत्मघात कर
लिया है।
अब
खयाल करना, अगर
हमारे जीवन की
सारी दौड़
अहंकार और
तृष्णा से बनी
है, तो जिस
दिन अहंकार और
तृष्णा समाप्त
हो जाएगी, उसी
दिन हमारा
जीवन भी
समाप्त हो
गया—आत्मघात भी
हो गया। इसलिए
तो
बुद्धपुरुष
कहते हैं कि जिस
व्यक्ति ने
तृष्णा और
अहंकार छोड़
दिया, उसका
दुबारा जन्म
नहीं होगा, वह संसार
में फिर नहीं
आएगा, उसका
फिर पुन: आगमन
नहीं है। उसने
जीवन का मूलस्रोत
ही तोड़ दिया।
वह महाजीवन
में विराजता।
आकाश उसका घर होगा,
निर्वाण
उसकी नियति
होगी।
इतना
ही नहीं, बुद्ध
कहते हैं, माता—पिता
को, दो
क्षत्रिय
राजाओं को..।
यह भी बडी
अनूठी बात है।
बुद्ध कहते
हैं, आस्तिकता
और नास्तिकता,
ये दो राजा
हैं दुनिया
में। कुछ लोग
आस्तिक बनकर
बैठ गए हैं, कुछ लोग
नास्तिक बनकर
बैठ गए हैं।
कुछ के ऊपर आस्तिकता
का राज्य है, कुछ पर
नास्तिकता का
राज्य है।
दोनों से मुक्ति
चाहिए।
क्योंकि जो है,
उसे न तो ही
से कहा जा
सकता, और न
ना में कहा जा
सकता। जो है
वह इतना बड़ा
है कि हां और
ना में नहीं
समाता।
इसलिए
बुद्ध से जब
कोई पूछता है, ईश्वर
है? तब चुप
रह जाते हैं।
वह कुछ भी
नहीं कहते।
बुद्ध से कोई
पूछता है, आप
आस्तिक हैं? तो चुप रह
जाते हैं।
नास्तिक हैं?
तो चुप रह
जाते हैं।
क्योंकि वह
कहते हैं कि अस्तित्व
इतना विराट है
कि ही और ना की
कोटियों में
नहीं समाता।
ही कहो तो भी
गलती हो जाती
है, ना कहो
तो भी गलती हो
जाती है। हां
और ना, दोनों
इसमें समाहित
हैं। कोई
कोटियां मन की
काम नहीं आती।
इसलिए
मन की सारी
विभाजक
कोटियों से
मुक्त हो गया
है। दो
क्षत्रिय
राजाओं को भी
इसने मार डाला
है।
हम
अक्सर विभाजन
में पड़े रहते
हैं। कभी तुम
कहते हो, दुख, कभी तुम
कहते हो, सुख,
विभाजन हो
गया। कभी तुम
कहते हो, मैं
पुरुष, कभी
तुम कहते हो, मैं स्त्री,
विभाजन हो
गया।
जहां—जहां दो
का विभाजन है,
वहां—वहा
तुम मन के
प्रभाव में
रहोगे। द्वैत
यानी मन। और
जहां दोनों
गिरा दिए, तुम
चुप हो गए—मौन
यानी मन के
पार हो जाना; मौन मन के
बाहर हो जाने
की स्थिति है,
मौन अद्वैत
है।
इसने
दो राजाओं को
मार डाला है।
उनके अनुचरों कों
भी मार डाला
है—सब सिद्धात, सब
शास्त्र, सब
फिलासफी इसने
आग लगा दी है।
अब न यह सोचता,
न यह
विचारता, अब
तो यह शून्य
निर्विचार
में ठहरा है।
इसने सारे
राष्ट्र को भी
मार डाला है।
इसने अपने भीतर
के सारे संसार
को ही उखाड़
डाला है।
खयाल
करना, तुम्हारा
संसार
तुम्हारे
पड़ोसी का
संसार नहीं
है। पत्नी का
संसार पति का
संसार नहीं है,
बेटे का
संसार बाप का
संसार नहीं
है। यहां उतने
ही संसार हैं
जितने लोग
हैं। हर आदमी
अपने संसार
में रह रहा
है। हर आदमी
ने अपने मन का
विस्तार किया
हुआ है, वही
उसका संसार
है।
बुद्ध
कहते हैं, इसने
सारे अपने
भीतर के जगत
को ही जलाकर
राख कर दिया।
तो यह
ब्राह्मण
निष्पाप हो
गया है।
'माता—पिता, दो क्षत्रिय
राजाओं, व्याघ्रपंचम
को मारकर
ब्राह्मण निष्पाप
हो जाता है।'
पाच
शत्रु हैं, जो
मनुष्य को
काटे डालते
हैं। चाहे
उनको पचेन्द्रिया
कहो, या
पांच शत्रु
कहो, पांच
प्रकार की
कामवासनाए
कहो, लेकिन
पांच शत्रु
हैं जो मनुष्य
को काटे डालते
हैं। यह उन
पांचों को भी
मारकर.।
हत्या
का ऐसा अदभुत
अर्थ!
स्वभावत:, भिक्षु
चौंक गए होंगे
जब पहली दफा
सुना होगा कि
मां—बाप को
मारकर यह दुख
से मुक्त हो
गया है।
उन्होंने
पूछा—तथागत
क्या कह रहे
हैं!
तथागत
शब्द का भी
वही अर्थ होता
है जो सुगत का।
सुगत का अर्थ
होता है, जो
भलीभांति चला
गया, जो इस
जमीन पर
दिखायी पड़ता
है लेकिन अब
यहां जिसकी
चेतना नहीं
है। तथागत का
यह भी अर्थ
होता है, जो
भलीभांति आया
और भलीभांति
चला गया। जो
ऐसे आया जैसे
आया ही न हो और
ऐसे चला गया
जैसे गया ही न
हो, जिसका
होना न होना
किसी को पता
ही न चला, जैसे
पानी पर लकीर
खींचते
हैं—ऐसे
बुद्धों का आगमन
है। इतिहास पर
कोई रेखा नहीं
छूटती।
इतिहास
पर रेखा तो
हिटलर, चंगेजखां,
तैमूरलंग, इनकी छूटती
है, बुद्धों
की नहीं
छूटती। न करते
हैं विध्वंस,
तो कैसे
रेखा छूटेगी
इतिहास पर!
अंतर्जगत में प्रवेश
करते हैं, बाहर
के जगत में तो
धीरे— धीरे
शून्य हो जाते
हैं, तो
कैसे इतिहास
पर रेखा छूटेगी?
बुद्धों को
तथागत कहा
जाता
है—चुपचाप आते
हैं, चुपचाप
चले जाते हैं।
किसी को कानों
—कान खबर नहीं
पड़ती।
शिष्यों
ने पूछा कि
तथागत क्या कह
रहे हैं? यह आप
कैसी बात कर
रहे हैं कि
माता—पिता को
मारकर!
माता—पिता को
मारना तो सब
से बड़ा पाप
है।
इसका
एक और अर्थ
मैं करना
चाहूंगा, जो
इस सूत्र में
नहीं कहा गया
है, लेकिन
अगर बुद्ध आज
होते तो कहते।
अमरीका में मनोविज्ञान
की एक नयी
पद्धति
विकसित हुई है,
ट्राजेक्यानल
एनालिसिस।
महत्वपूर्ण
है बहुत।
ट्राजेक्यानल
एनालिसिस के
हिसाब से प्रत्येक
व्यक्ति में
तीन व्यक्ति
होते हैं—एक तुम्हारी
मां, एक
तुम्हारा
पिता, एक
तुम्हारा
बचपन। छोटा
बच्चा है, हजार
काम करना
चाहता है, हजार
रुकावटें
पड़ती हैं। आग
से खेलना
चाहता है, मां
कहती है, नहीं।
बाहर जाना
चाहता है
मित्रों के
पास, बाप
कहता है, नहीं,
रात हो गयी,
सो जाओ। जब
सोना नहीं
चाहता है तब
मां—बाप कहते
हैं सो जाओ, जब उठना
चाहता है सुबह
तो उठने नहीं
देते, जब
नहीं उठना
चाहता है तो
उठाते हैं। जब
खाना नहीं
चाहता तो
खिलाते हैं, जब खाना
चाहता है तो
रोकते हैं कि
अब बहुत हो गया।
हजार निषेध
हैं, तो
छोटा बच्चा
निषिद्ध होता
जाता है।
वह
जो निषिद्ध
छोटा बच्चा है
तुम्हारे
भीतर, वह कभी
नहीं मरता, वह तुम्हारे
भीतर मौजूद
है। इसलिए
कभी—कभी तुम
अगर समझोगे
ठीक से, ऐसी
घड़ी आ जाती है
जब तुम्हारा
छोटा बच्चा
प्रगट हो जाता
है—किसी ने
गाली दे दी, उस वक्त तुम
जो व्यवहार
करते हो वह
छोटे बच्चे का
व्यवहार है।
तुम्हारी उमर
पचास साल की
हो, लेकिन
तत्थण तुम ऐसा
व्यवहार करते
हो जैसे सात
साल का बच्चा
भी करने में
संकोच करे।
जरा सी बात और
तुम भूल गए
अपने
पैंतालीस साल,
लौट गए बचपन
में। पीछे तुम
पछताओगे, तुम
कहोगे, यह
मैंने कैसे
किया, यह
किस बात ने
मुझे पकड लिया,
यह तो शोभा
नहीं देता। जरा
सी बात हो गयी
और तुम एकदम
बचकानी
अवस्था में
व्यवहार कर
लिए। वह बच्चा
तुम्हारे
भीतर जिंदा है,
दबा पड़ा है,
जरा सी चोट
की जरूरत है, निकल आता
है।
तुमने
देखा होगा, किसी
के घर में आग
लग गयी मैं एक
गांव में ठहरा
था, एक घर
में आग लग
गयी। उस घर के
मालिक को मैं
बहुत दिन से
जानता था, बड़े
हिम्मत का
आदमी, वह
एकदम छाती
पीट—पीटकर
रोने लगा।
मैंने
उसे जाकर कहा
कि तू
हिम्मतवर
आदमी है—उसकी
छाती भी बडी
थी,
वह गांव में
रामलीला में
अंगद का पार्ट
करता था, उससे
बड़ी छाती का
आदमी मैंने
फिर देखा नहीं,
उसकी बड़ी
चौड़ी छाती थी,
वह एकदम
छाती
पीटकर—मैंने
उसको जाकर कहा
कि देख, जरा
सुन भी, इतनी
बडी छाती और
ऐसे पीट रहा
है! और तू अंगद
का काम करता
है! मकान में
ही आग लग गयी
है न!
वह
मुझसे बोला, ज्ञान
की बातें अभी
नहीं! मुझे मत
छेड़ो। अरे, मैं मर गया!
वह फिर पीटने
लगा कि मैं
मारा गया, मैं
लुट गया! छोटे
बच्चे
जैसा—जैसे
छोटा बच्चा
पैर पटकने
लगता है और
चिल्लाने
लगता है।
तुमने
कभी खयाल किया, छोटे
बच्चे का एक
लक्षण होता है,
वह किसी भी
चीज को चाहता
है तो अभी
चाहता है, इसी
वक्त चाहता
है। आधी रात
में आइसक्रीम
चाहिए, तो
अभी चाहिए। वह
मान ही नहीं
सकता कि कल पर
छोडा जा सकता
है—क्यों कल
पर? अभी
क्यों नहीं?
तुमने
अपने चित्त
में भी यह
वृत्ति देखी
कई बार सिर
मारती। एक कार
रास्ते से
गुजरते देखी
और तुम कहते
हो,
अभी चाहिए,
इसी वक्त
चाहिए। चाहे
अब घर बिक जाए,
चाहे झंझट
में पड़ जाओ, चाहे कर्ज
लेना पड़े, चाहे
जिंदगीभर चुकाने
में लग जाए
कर्ज, मगर
इसी वक्त
चाहिए, अब
तो लेना ही
है।
अमरीका
इस समय दुनिया
में सबसे
ज्यादा बचकाना
देश है, तो हर
चीज
इंस्टेंट—इंस्टेंट
काफी—हर चीज
इसी वक्त
चाहिए। काफी
बनाने की भी
झंझट कौन करे?
तैयार करने
की भी झंझट
कौन करे? तैयार
चाहिए। हर चीज
तैयार चाहिए।
भोजन तैयार
चाहिए, बस
ज्यादा से
ज्यादा
डिब्बा खोलना
आना चाहिए और
कुछ खास जरूरत
नहीं है।
हर
चीज इसी वक्त
हो,
ये बचकानी
बातें हैं।
मगर ये मरती
नहीं, ये
भीतर रहती हैं,
ये कभी भी
लौट आती हैं।
ये किसी
दुर्दिन में,
दुर्घटना
में प्रगट हो
जाती हैं।
तुम्हारी
प्रौढ़ता
ऊपर—ऊपर है, भीतर
तुम्हारा
बच्चा छिपा है
जो कभी नहीं
बढ़ा, जिसमें
कोई प्रौढ़ता
आयी ही नहीं।
सामान्य कामकाज
में तुम
सम्हाले रहते
हो अपने को, लेकिन जरा
भी असामान्य
स्थिति आती है
कि तुम्हारी
प्रौढ़ता दो
कौडी की साबित
होती है। तुम्हारी
प्रौढ़ता चमड़ी
से ज्यादा
गहरी नहीं है,
जरा किसी ने
खरोंच दिया कि
तुम्हारा
बच्चा प्रगट
हो जाता है।
तो यह बच्चा
जाना चाहिए, इसकी मृत्यु
होनी चाहिए, तो ही तुम
प्रौढ़ हो
पाओगे।
फिर
तुम्हारी मां
और पिता
तुम्हारे
भीतर सदा बैठे
हैं। इनकी भी
मृत्यु होनी
चाहिए। इसका बाहर
के माता—पिता
से कोई संबंध
नहीं है।
ट्राजेक्यानल
एनालिसिस का
कहना यह है कि
वही व्यक्ति
ठीक से प्रौढ
हो पाता है
जिसके भीतर
माता—पिता की
आवाज समाप्त हो
जाती है। नहीं
तो तुम कुछ भी
करो,
माता—पिता
की आवाज पीछा
करती है।
समझो
कि तुम बचपन
में कुछ काम
करते थे, मां
—बाप ने रोक
दिया था, अब
भी तुम वह काम
करना चाहते हो,
भीतर से एक
आवाज आती है, तुम्हारा
पिता कहता
है—नहीं।
हालांकि अब
तुम स्वतंत्र
हो। तुम
अंधेरी रात
में बाहर जाना
चाहते थे, पिता
ने रोक दिया
था। तुम छोटे
बच्चे थे, यह
ठीक भी था रोक
देना, तुम्हारी
परिस्थिति के
अनुकूल था। अब
भी तुम अंधेरे
में जाते हो
बाहर तो ऐसा
लगता है पिता
इनकार कर रहे
हैं। साफ नहीं
होता, भीतर
से कोई रोकता
है, भीतर
से कोई दबाता
है, भीतर
से कोई कहता
है—मत जाओ, यह
मत करो, ऐसा
मत करो। यह जो
भीतर
तुम्हारे
पिता की आवाज
है, यह
तुम्हें कभी
बढ़ने न देगी।
तुम्हारी मां
अभी भी
तुम्हें पकड़े
हुए है। वह
तुम्हारा पीछा
नहीं छोड़ती।
उससे छुटकारा
चाहिए।
समझो
कि तुम किसी
एक लड़की के
प्रेम में पड़
गए थे, और
तुम्हारी मां
ने बाधा डाल
दी थी—शायद
जरूरी था
डालना, तुम्हारी
उम्र भी नहीं
थी अभी, अभी
तुम प्रेम का
अर्थ भी नहीं
समझ सकते थे, अभी तुम
झंझट. में पड़
जाते, अभी
तुम उलझ जाते,
तुम्हारी
पढ़ाई—लिखाई
रुक जाती, तुम्हारा
विकास रुक
जाता—मां ने
रोक दिया था। मां
ने सब तरह से
तुम्हें
लड़कियों से
बचाया था।
अब
तुम्हारी
शादी भी हो
गयी है, तुम्हारी
पत्नी घर में
है, लेकिन
जब तुम पत्नी
का भी हाथ हाथ
में लेते हो, तुम्हारी
मां भीतर से
रोक रही है।
वह कह रही है, सावधान!
झंझट में. मत
पड़ना। तो तुम
पत्नी का हाथ
भी हाथ में
लेते हो, लेकिन
पूरे मन से
नहीं ले पाते।
वह मां पीछे खींच
रही है। इस मा
का जाना होना
ही चाहिए, नहीं
तो तुम कभी
प्रौढ़ न हो
पाओगे।
ट्रांजेक्यानल
एनालिसिस के
लोगों को अगर
बुद्ध के ये
सूत्र मिल
जाएं, तो उनके
लिए तो बड़ा
सहारा मिल
जाएगा—माता—पिता
की हत्या!
माता—पिता की
हत्या से
तुम्हारे बाहर
के माता—पिता
की हत्या का
कोई संबंध
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर जो
माता—पिता की
प्रतिमा बैठ
गयी है उसकी
हत्या होनी चाहिए,
तभी तुम
मुक्त हो
पाओगे। और यह
बड़े मजे की और
विरोधाभासी
बात है कि जिस
दिन तुम भीतर
के माता—पिता
से मुक्त हो
जाओगे, उस
दिन तुम बाहर
के माता—पिता
को पहली दफा
ठीक आदर दे
पाओगे, उसके
पहले नहीं।
समादर पैदा
होगा। अभी तो
तुम भीतर इतने
ग्रसित हो
उनसे कि
तुम्हारे मन
में क्रोध है,
मां—बाप को
क्षमा करना भी
मुश्किल है।
गुरजिएफ
ने अपने
दरवाजे पर लिख
रखा था कि अगर तुमने
अपने मां —बाप
को क्षमा कर
दिया हो तो मेरे
पास आओ। अजीब
सी बात! सत्य
की खोज में आए
आदमी से पूछना
कि तुमने
मां—बाप को
क्षमा कर दिया
या नहीं? क्षमा!
लोग कहते, हम
तो आदर करते
हैं। वह कहता
कि जाओ वापस, पहले क्षमा
करो, आदर
अभी कहां है, सब थोथा है।
माफ तो करो
पहले!
माफ
तुम तभी कर
सकोगे जब
तुम्हारे
भीतर से सारा
मां—बाप का
जाल मिट जाए, तुम
मुक्त हो जाओ।
जिनसे तुम
बंधे हो, उन्हें
माफ नहीं कर
सकते। गुलामी
को कोई माफ
करता है!
परतंत्रता को
कोई माफ करता
है! कारागृह
को कोई माफ
करता है! और
जिसने
तुम्हें गुलाम
बनाया है, उसको
तुम आदर कैसे
दे सकते हो? इसलिए अगर
बच्चे मां—बाप
के प्रति
अनादर से भर
जाते हैं तो
आश्चर्य नहीं
है। मां —बाप
के प्रति आदर
तभी हो सकता
है जब मां—बाप से
पूरा छुटकारा
हो जाए। और यह
बाहर की बात
नहीं है कि
बाहर के मां
—बाप को
छोड़कर भाग
जाओ। बाहर के
मां—बाप को
छोड़ने से कुछ
भी नहीं होता।
हिमालय चले
जाओ, वहां
भी भीतर के
मां—बाप
तुम्हारा
पीछा करेंगे,
वे
तुम्हारे मन
के हिस्से हो
गए हैं। उस मन
को बदलना
जरूरी है।
बुद्ध
के ये सूत्र, इसलिए
मैंने कहे, बड़े
महत्वपूर्ण
हैं।
मातरं
पितरं हंत्वा
राजानो द्वे च
खत्तिये।
रट्ठं
सानुचरंहंत्वा
अनीधो याति
ब्राह्मणो ।।
ब्राह्मण
मुक्त हो जाता
है माता—पिता
को मारकर, क्षत्रिय
दो राजाओं को
मारकर, राजा
के अनुचरों को
मारकर, सारे
राष्ट्र की
हत्या करके, अंततः स्वयं
अपनी हत्या
करके सारे
दुखों के पार
हो जाता है।
निर्वाण
का अर्थ ही
यही होता
है—अपने हाथ
से अपनी
महामृत्यु को
निमंत्रित कर
लेना। निर्वाण
का अर्थ होता
है—दीए की
ज्योति जैसे
बुझ जाती है, ऐसा
जो बुझ जाए, जिसके भीतर
कोई मैं न बचे।
इस न—मैं की
अवस्था का नाम
निर्वाण है।
ओशो
एस धम्मो सनंतनो
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