दिनांक
5 जून, 1975, प्रातः,
ओशो
कम्यून
इंटरनेशनल, पूना
सारसूत्र :
संतों
भाई आई ज्ञान
की आंधी रे।
भ्रम
की टाटी सबै
उड़ानी, माया रहै
न बांधी।।
हिति-चत
की द्वै थूनी
गिरानी, मोह
बलींदा तूटा।
त्रिस्ना
छानि परी घर ऊपरि, कुबुधि का भांडा
फूटा।।
जोग
जुगति करि संतौ
बांधी निरचू चुवै न
पानी।
कूड़
कपट काया का निकस्या, हरि की गति
जब जानी।।
आंधी
पीछे जो जल
बूढ़ा, प्रेम
हरी जन भीना।
कहै
कबीर भान के प्रकटे
उदित भया तम खीना।।
ज्ञान
और ज्ञान में
बड़ा फर्क है।
एक तो ज्ञान
है पंडित का
और एक ज्ञान
है
प्रज्ञावान
का। इन दोनों
का भेद साफ न
हो जाए तो
अज्ञान के पार
उठना कठिन है। और भेद
बारीक है। भेद
बहुत सूक्ष्म
और नाजुक है।
दोनों एक जैसे
दिखाई पड़ते
हैं। जुड़वां
भाई जैसे
मालूम होते
हैं, लेकिन
दोनों न केवल
भिन्न हैं, बल्कि
विपरीत भी
हैं। दोनों का
गुणधर्म शत्रुता
का है।
अज्ञान
से भी ज्यादा
दूरी
प्रज्ञावान
के ज्ञान की, पंडित के
ज्ञान से है।
एक बार अज्ञान
के पार हो
जाना आसान है,
पंडित के
ज्ञान के पार
होना बहुत
कठिन है।
इसे
थोड़ा समझें।
पांडित्य
का ज्ञान ऐसा है, जैसे कोई
संग्रह करे।
फिर चाहे वह
संग्रह धन का
हो, चाहे
हीरे-जवाहरातों
का हो, और
चाहे ज्ञान की
जानकारी का हो,
सूचनाओं का
हो। पंडित
संग्रह करता
है और पंडित
स्वयं उस
संग्रह से
अछूता रहता
है। वस्तुतः पंडित
उस संग्रह का
मालिक रहता
है।
जिस
दूसरे ज्ञान
की बात मैं कर
रहा हूं, प्रज्ञावान
का ज्ञान, वहां
प्रज्ञावान
अपने ज्ञान का
मालिक नहीं होता,
ज्ञान ही
प्रज्ञावान
का मालिक होता
है। और प्रज्ञावान
ज्ञान को
संगृहीत नहीं
करता है, उसकी
तो आंधी आती
है, जो सब
उड़ा ले जाती
है। असली
ज्ञान एक
तूफान है।
असली ज्ञान एक
आत्मक्रांति
है। असली
ज्ञान एक
अराजक अवस्था
है।
तुम
बचोगे ही न, असली ज्ञान
की आंधी आएगी
तो। जिस ज्ञान
में तुम बच
जाते हो, जान
लेना वह ज्ञान
धोखे का है।
जो तुम्हारे
अहंकार को
छूता ही नहीं
वरन और भी
बढ़ाता है, वह
ज्ञान नहीं
है। वह ज्ञान
का झूठा
सिक्का है। वह
तुम्हें ज्ञान
का धोखा दे
रहा है और बड़ा
खतरनाक है। उससे
तो अज्ञान भी
बेहतर है।
कम-से-कम
अज्ञान अहंकार
को तो नहीं
बढ़ाता।
अज्ञान
कम-से-कम
मनुष्य को
विनम्र तो
रखता है।
अज्ञान
कम-से-कम मनुष्य
को यथार्थ तो
रखता है, झूठा
तो नहीं
बनाता।
अज्ञान का कोई
पाखंड तो नहीं
है।
पंडित
यानी पाखंड।
वह पाखंड की
जीती-जागती
प्रतिमा है।
भीतर तो
अज्ञान है, बाहर उसने
ज्ञान और
शास्त्रों की
दीवाल खड़ी कर
रखी है। भीतर
तो दीया जला
नहीं है, लेकिन
अपने घर के
चारों तरफ
उसने वेद-वचन
इकट्ठे कर रखे
हैं। वेद-वचन
खोद दिए हैं
दीवालों पर।
स्वयं उसने तो
कोई भी लकीर
नहीं खींची
है। वह स्वयं
तो अछूता रह गया
है। वह तो
वैसा ही है, जैसा तब था, जब कुछ भी न
जानता था।
उसमें
रंचमात्र भेद
नहीं पड़ा।
उसके जीवन की
गुणवत्ता में
कोई अंतर नहीं
आया, कोई
आंधी नहीं घटी,
कोई तूफान
नहीं आया, जिसमें
पुराना मकान
गिर गया हो और
अचानक उसने
पाया हो कि वह
खुले आकाश के
नीचे है। जिसमें
पुरानी सारी
धारणाएं टूट
गई हों। और
अचानक उसने
पाया हो कि
चित्त खो गया।
जिसमें पुराने
सारे विचार बह
गए हों ऐसी
कोई बाढ़ नहीं
आई कि वह नग्न,
शून्य और
खाली रह गया
हो।
पंडित
का ज्ञान बड़ा
सुरक्षा से
भरा है। तुम वही
रहते हो, जो
थे। तुम अपने
को बचाते हुए
ज्ञान को
इकट्ठा करते
चले जाते हो।
ज्ञान
तुम्हारी
मुट्ठी में
होता है। तुम
उसके मालिक
होते हो।
ज्ञान तुम्हें
नहीं मिटा
पाता, वरन
तुम ज्ञान का
उपयोग करते हो,
शोषण करते
हो। तुम ज्ञान
का धंधा कर
सकते हो।
लेकिन
वह ज्ञान तुम्हें
परमात्मा के
पास न ले
जाएगा। उस
ज्ञान से "हरि
की गति" का कोई
पता न चलेगा।
वह ज्ञान ऐसे
ही है जैसे
राह चलते आदमी
के ऊपर धूल जम
जाती है, और
वह स्नान न
करे, और
धूल की
पर्त-पर्त
जमती चली जाए।
पंडित का ज्ञान
ऐसा ही है। वह
उस आदमी का
ज्ञान है, जो
चला तो बहुत, लेकिन जिसने
कभी ध्यान का
स्नान न किया;
जो कभी
नहाया न।
जिसने यात्रा
तो
जन्मों-जन्मों
में की, बहुत
अनुभवों से
गुजरा, सब कूड़ा-करकट
इकट्ठा कर
लिया, लेकिन
कभी स्नान न
किया।
तो बड़ा
बोझ पंडित के
ऊपर इकट्ठा हो
जाता है। तुम
अगर पंडित को
चलते भी देखो, तो तुम समझ
पाओगे कि उसके
सिर पर पहाड़
रखे हैं, दबा
जा रहा है।
ज्ञान दबाएगा
किसी को? ज्ञान
तो मुक्त करता
है। ज्ञान बोझ
बनेगा किसी का?
तो फिर
निर्बोझ कौन
करेगा? ज्ञान
चिंता पैदा
करेगा, तनाव
पैदा करेगा? ज्ञान को भी
ढोना पड़ेगा
मजबूरी में, कर्तव्यवश?
तो फिर
प्रेम का जन्म
कहां होगा? प्रेम की
स्फुरणा कहां
होगी? फिर
सहजता का झरना
कहां फूटेगा?
पंडित
असहज आदमी है।
वह कभी-कभी
अपने ज्ञान के
अनुसार चलने
की भी कोशिश
करता है।
लेकिन वह कोशिश
करनी पड़ती है, वह सहज नहीं
है। चेष्टा
करनी पड़ती है,
जबरदस्ती
करनी पड़ती है।
अपने को चलाने
का आग्रह करना
पड़ता है, अनुशासन
थोपना पड़ता
है।
फिर भी
अनुशासन
टूट-टूट जाता
है। वह टटोलता
है अंधे आदमी
की तरह। वह आंखवाले
की यात्रा
नहीं है, जिसे
दिखाई पड़ता है
कि दरवाजा
कहां है।
पंडित अगर
कोशिश करके
शीलवान भी हो
जाए, तो
उसका शील भी
प्रफुल्ल
नहीं होता, हंसता हुआ
नहीं होता, नाचता हुआ
नहीं होता।
उसके शील में
भी दंश होता
है शिकायत का।
जैसे वह कह
रहा है
परमात्मा से
कि देखो कितना
चरित्रवान
हूं! कितने
नियम से चल
रहा हूं और
गैर-चरित्रवान
मजा ले रहे
हैं; और
मैं दुख में
पड़ा हूं।
ध्यान
रखना, वह
सदा कहेगा कि
पापी सुखी हैं
और मुझ जैसा
पुण्यात्मा
और पंडित
व्यक्ति दुख
पा रहा है। यह
कैसा न्याय
है! उसकी
प्रार्थनाएं
शिकायतों से
भरी होंगी।
उसकी
प्रार्थनाओं
में पीड़ा होगी,
धन्यवाद
नहीं होगा।
जितना ही कोई
अपने को दबाएगा
और जबरदस्ती
करेगा, उतना
ही परमात्मा
से दूर होता
चला जाता है।
हरि की
गति तो सहजता
है। इसलिए
कबीर बार-बार
कहते हैं, "साधो सहज
समाधि भली"।
सहज समाधि का
अर्थ उसी ज्ञान
से है, जहां
जानने के पीछे
आचरण अपने आप
आता है। इसे तुम
ठीक से याद रख
लेना।
और जब
मैं कहता हूं, ठीक से याद
रख लेना, तो
दो तरह से याद
रख सकते हो।
क्योंकि ज्ञान
दो तरह के
हैं। तुम इसे
अपनी स्मृति
में सम्हाल कर
रख सकते हो, जैसे कोई
परीक्षा देनी
हो; जहां
ठीक-ठीक यही
शब्द दोहराने
पड़ें। जैसा विश्वविद्यालयों
में बच्चे
परीक्षा देते
हैं। तब
तुम्हारी
स्मृति में यह
संजोया रहेगा
कि मैंने कहा
था; ऐसा-ऐसा
कहा था। तब
तुम लकीर के
फकीर रहोगे।
शब्द-शब्द
दोहरा दोगे, लेकिन वह
शब्द मुर्दा
होंगे; आएंगे
तुम्हारे
ओंठों से
लेकिन उनका
जन्म तुम्हारे
हृदय में न
होगा।
तुम्हारे
स्मृति के यंत्र
से सीधे
तुम्हारे
ओंठों को पार
करके आ जाएंगे।
तुम्हारे
हृदय को खबर
भी न मिलेगी।
सहज-समाधि
का अर्थ है, जहां आचरण
ज्ञान का अपने
आप अनुसरण
करता है, कराना
नहीं पड़ता।
तो एक
तो अहिंसा है
पंडित की, कि वह थोपता
है, नियम
लेता है। जमीन
फूंक-फूंक कर
पैर रखेगा कि
चींटी न मर
जाए। रात भोजन
न करेगा, पानी
छान कर पीएगा।
सब ठीक कर रहा
है, कुछ भी
गलत नहीं है
इसमें, लेकिन
कहीं गहरे में
कुछ गलती हो
रही है।
वह
गलती यह है कि
यह, वह कर रहा
है, यह
उससे हो नहीं
रहा। इसमें
योजना है।
इसमें भविष्य
का विचार है।
इसमें
पाप-पुण्य का
लेखा-जोखा है,
गणित है। यह
वह कर रहा है।
चींटी के
प्रति कोई प्रेम
नहीं उदय हुआ
है। सिर्फ
शास्त्र को पढ़
कर चालाकी
पैदा हुई है
कि अगर चींटी
मरेगी तो तुम्हें
इसका फल पाना
पड़ेगा। चींटी
को दुख दोगे
तो तुम्हें
दुख भोगना
पड़ेगा। दुख वह
भोगना नहीं
चाहता। चींटी
से कुछ
लेना-देना
नहीं है। चींटी
मरे, न मरे;
मुझसे न मर
जाए। क्योंकि
मेरा फिर पाप,
और मेरा
भविष्य का
जीवन संकट में
पड़ता है। यह
उसका हिसाब
है। अगर कोई
शास्त्र
बताता हो, कि
मारो चींटी।
जितनी ज्यादा
चींटियों
मारोगे, उतना
ही जल्दी
मोक्ष
मिलेगा। तो
यही आदमी खोज-खोज
कर चींटियां
मारने लगेगा।
अगर शास्त्र
सिद्ध कर दे
कि अनछना
पानी पीना ही
पुण्य है--और
इसमें कोई
अड़चन नहीं है।
यह सिद्ध किया
जा सकता है।
तर्क तो वेश्या
है।
मैं
जिस गांव में
पैदा हुआ, मेरे पड़ोस
में एक जैन
परिवार है।
परंपरागत, रूढ़ि-ग्रस्त,
पुराने ढंग
के लोग हैं।
उस घर की जो
गृहिणी है, वह सामने ही
कुएं पर रोज
पानी भरती। तो
जैसा जैन करते
हैं, वह
पानी ऐसे भरती
फिर पानी को
छानती, फिर
कपड़े में जो
कुछ भी बचा
रहता--कुछ अगर
बचा रहता--कूड़ा-करकट--कुछ
भी, अदृश्य
जीव--जिनका कि
जैन हिसाब
लगाते हैं; उन सब को
उलटा कर वह
कुएं में झड़ा
देती।
क्योंकि कुएं
से निकाला है
प्राणियों को,
वे कुएं के
बाहर मर न
जाएं।
मैंने
उससे एक दिन
कहा, ऐसे ही
मजाक में कहा,
यह तो ठीक
है। लेकिन
इतना फासला
कुएं का, वे
जो कीड़े-मकोड़े
तू गिरा रही
है वापस, जो
किसी को दिखाई
भी नहीं पड़ते,
वे सब मर
जाएंगे। इतने
छोटे जीव हैं!
कुएं के ऊपर
से वापस उनको
फेंकोगे नीचे,
वे रास्ते
में मर
जाएंगे। चोट
खाकर मर
जाएंगे। वह तो
घबड़ा गई। उसने
कहा, तो
मैं तो यह
जन्म भर से कर
रही हूं; तो
अब तक तो न
मालूम कितना
पाप हुआ होगा!
अभी तक
पुण्य था!
पुण्य ही
सोचकर कर रही थी।
अब वह पाप हो
गया। अब वह
घबड़ा गई, वह
मुझसे पूछने
लगी, तो
फिर क्या करना?
वह जो छान
लिया पानी, फिर जो बच
गया छना
हुआ हिस्सा, उसको क्या
करना? छानी
में जो बच गया,
उसका क्या
करना?
मैंने
उसको कहा, वे तो छानने
में ही मर
जाएंगे, जो
आंख से नहीं
दिखाई पड़ते।
तो उसने कहा, क्या बिना
ही छाने
पानी पीना?
उनसे
तो कोई
प्रयोजन नहीं
है--जीवाणुओं
से। किसको
प्रयोजन है? उनसे कुछ
लेना-देना
नहीं है।
फिक्र अपनी है,
अपने
अहंकार की है,
अपने
सुख-दुख की
है।
तो जो
व्यक्ति
अहिंसा को
साधता है, वह पांडित्य
की अहिंसा है।
वह
ब्रह्मचर्य
को भी साध
सकता है।
लेकिन उसने
ब्रह्मचर्य
की सहजता को
जाना नहीं। वह
उपवास भी कर
सकता है, लेकिन
उपवास का आनंद
उसे कभी भी न
छुएगा। वह
सिर्फ परेशान
रहेगा, भूखा
मरेगा। उसका
उपवास भूखा
मरना ही होगा।
और उसके चेहरे
पर उसका सारा
विषाद लिखा
हुआ तुम
पाओगे। अब यह
बड़ी हैरानी की
बात है कि
किसी ने उपवास
किया हो, और
बिना नाचे कर
ले तो समझना
कि उपवास
बेकार था।
क्योंकि जो
वस्तुतः
सहजता से
उत्पन्न होगा
उपवास, वह
शरीर, मन
को, तन को
ऐसा ताजा कर
देता है, ऐसा
स्वस्थ कर
देता है, कि
तुम बिना नाचे
रह न पाओगे।
तुम्हारे
पैरों में पंख
लग जाएंगे।
तुम्हारे
अंतरतम में
घूंघर बजने
लगेंगे। तुम नाचोगे।
लेकिन तुम जैन
साधुओं को
नाचते देखते
हो? तुम
उन्हें
मुर्दे की तरह
बैठे हुए
देखते हो--मरे
हुए। यह
मृत्यु उपवास
से नहीं आ रही
है। यह ज्ञान
के पीछे आचरण
को चलाने से
सदा आती है।
ज्ञान के पीछे
आचरण अपने से
आना चाहिए, तो ही ज्ञान
ज्ञान है। वह
कसौटी है असली
ज्ञान की।
अगर
तुम्हें कोई
बात समझ आ
गई--"समझ आ गई"
याद रखना, तो क्या तुम
उससे विपरीत
कर सकोगे? तुम्हें
समझ आ गया कि
आग में हाथ
डालने से हाथ जल
जाता है, तो
क्या अब
तुम्हें जाकर
मंदिर में कसम
लेनी पड़ेगी
व्रत लेना
पड़ेगा कि आज
से कसम खाता
हूं भगवान को
साक्षी रखकर,
कि अब कभी
आग में हाथ न
डालूंगा? अगर
तुम ऐसी कसम
लोगे, तो तुम मूढ़
समझे जाओगे।
लोग हंसेंगे।
और वह कहेंगे
तो इसका तो
अर्थ यही हुआ,
कि न तो
तुम्हें
पता है
कि आग जलाती
है; न
तुम्हें इसका
कोई अनुभव हुआ
है। यह तुमने
कहीं पढ़ लिया
होगा, कि
आग जलाती है, इसलिए तुम
कसम ले रहे
हो।
व्रत
तो पंडित लेते
हैं, ज्ञानी
नहीं लेता।
ज्ञानी के
जीवन में व्रत
फलित होते
हैं। जैसे
वृक्षों में
फूल लगते हैं,
लगाने नहीं
पड़ते, ऐसे
ज्ञानी के
जीवन में व्रत
लगते हैं।
जब
तुम्हें
दिखाई पड़ता है, तब तुम उसके
अनुसार चलते
ही हो। उससे
अन्यथा कोई
उपाय नहीं है।
फिर कुछ किया
ही नहीं जा
सकता। जब
दरवाजा दिखाई
पड़ता है, तो
तुम उससे
निकलते हो।
तुम दीवाल से
कैसे निकलने
की कोशिश
करोगे? क्या
तुम कसम लोगे
कि आज से मैं
बस दरवाजे से
ही निकलूंगा,
दीवाल से
कभी भी न
निकलूंगा?जहां
समझ है, जहां
बोध है, जहां
वास्तविक
ज्ञान है, वहां
आचरण ऐसे ही
आता, जैसे
तुम्हारे
पीछे
तुम्हारी छाया
आती है। उसको
लाना थोड़े ही
पड़ता है
बांध-बांध कर!
पीछे लौट-लौट
कर देखना थोड़े
ही पड़ता है कि
छाया आ रही कि
नहीं आ रही।
कहीं चूक, भटक
तो नहीं गई!
कहीं कोई चुरा
तो नहीं ले
गया। कहीं
संबंध तो नहीं
टूट गया!
भीड़-भाड़ बहुत
थी, कहीं
खो तो नहीं गई!
छाया
तुम्हारे पीछे
आती है। आचरण
छाया है
वास्तविक
ज्ञान का। लेकिन
झूठे ज्ञान का
आचरण
जबर्दस्ती है, आग्रह है, आरोपण है।
असली
ज्ञान तो आंधी
की तरह आता है
और तुम्हें मिटा
जाता है। तुम
तुम्हारी
पूरी हिंसा
में, तुम
तुम्हारे
पूरे अज्ञान
में, तुम
तुम्हारे
पूरे अहंकार
में डूब जाते हो,
मिट जाते
हो। आंधी सब
मिटा जाती है।
इसलिए
पहली बात खयाल
रख लो कि
वास्तविक
ज्ञान आंधी
है। उसमें तुम
सुरक्षा मत
खोजना। वह भयंकर
झंझावात है।
वह तो तुम्हें
मिटाएगा।
वह तुम्हें
बचाने नहीं
आया है।
इसलिए
तो लोग
शास्त्रों की
तलाश करते
हैं। वहां से
ऐसा ज्ञान खोज
लेते हैं, जो तुम्हें
मिटाए ही न; वरन
तुम्हारा
आभूषण बन जाए।
तुम्हें और
सजाए। तुम
जैसे हो, वैसे
ही तुम्हारी
जड़ों को मजबूत
कर दे। तुम्हारे
घर को और थोड़े
सहारे और बल्लियां
लगा दे।
तुम्हारा
छप्पर, जो
वैसे ही
जराजीर्ण हुआ
जा रहा था, उसको
थोड़ा एक बरसात
के योग्य और
बना दे। और
तुम्हारा घर
जो अपने ही
बोझ से गिरा
जा रहा था, उसको
थोड़ा
और बचा
ले, थोड़े दिन
और खींच ले।
मैं
तुमसे कहता
हूं कि पाप ही
काफी है
तुम्हारे
जीवन के घर को
गिरा देने को।
अगर ज्ञान का
सहारा न मिले, तो हर पापी
संत हो जाए।
लेकिन ज्ञान
का सहारा मिल जाता
है। और पापी
को जब
पांडित्य का
सहारा मिल
जाता है, तो
संतत्व बहुत
दूर हो जाता
है। तब तो
तुम्हें
सीमेंट मिल गई,
जिससे तुम
ठीक से
सुरक्षा कर लो
अपने घर की।
कबीर
इस सूत्र में
बड़ी अनूठी
बातें कह रहे
हैं।
पहली
अनूठी बात तो
यही है कि
ज्ञान आंधी है, तूफान है। उसमें
तुम बच न
सकोगे। ज्ञान
को निमंत्रण
देना बड़ा
दुस्साहस का
काम है। वह
निमंत्रण है
अपनी मृत्यु
को, अहंकार
की मृत्यु को।
तुम जैसे हो, उसके मिट
जाने को।
तुम्हारा
नाममात्र भी न
बचेगा।
तुम्हारी
रेखा भी न
बचेगी। तुम
ऐसे खो जाओगे
जैसी रेत पर
खींची गई
रेखाएं आंधी
के बाद खोजे
भी नहीं मिलतीं।
तुमने
हस्ताक्षर कर
रखे हैं रेत
पर। सजा रखा है।
बड़ी आशा कर
रहे हो कि
इतिहास में
बचोगे। लोग
सदियों तक
तुम्हारा नाम
याद रखेंगे।
और जब
ज्ञान की आंधी
आती है, सब
हस्ताक्षर पुछ जाते
हैं। पता भी
नहीं चलता, कहां
तुम्हारे
हस्ताक्षर थे!
कहां तुमने
सजाया था अपना
घर!तुम
बचोगे
परमात्मा की
भांति; तुम्हारी
भांति तुम न
बचोगे। तुम
बचोगे अनंत की
भांति, असीम
की भांति।
सीमा में तुम
न बचोगे। तुम
जैसे हो, वैसे
न बचोगे, तुम
जैसे होने को
हो, वैसे
बचोगे।
तुम्हारा
भविष्य बचेगा,
तुम्हारा
अतीत न बचेगा।
यह
आंधी का तत्व
खयाल में ले
लेना।
मेरे
पास लोग आते
हैं। दो तरह
के लोग आते
हैं। एक, वे
जो मेरे पास
आते हैं, कि
उन्हें मैं
कुछ सहारा दूं
कि वे जैसे भी
हैं, उसमें
थोड़ी मजबूती,
और थोड़ी
शक्ति आ जाए।
ये लोग गलत
लोग हैं। और मेरे
पास तो बिलकुल
गलत आदमी के
पास आ गए।
इन्हें कहीं
और जाना
चाहिए। मेरे
पास तो उसी
आदमी का साथ
बन सकता है, जो मिटने को
आया हो। जिसने
तय ही कर लिया
हो कि चाहे
कोई भी कीमत
हो, अब
दांव पर पूरा
ही लगा देना
है। अब दांव
पर कुछ बचाना
नहीं है।
क्योंकि
जरा सा भी
तुमने बचाया, कि पूरा बच
जाएगा। जुआंरी
चाहिए, व्यवसायी
नहीं।
व्यवसायी
पंडित हो जाते
हैं। जुआंरी
ही ज्ञान को
उपलब्ध होते
हैं। जुआंरी
का मतलब यह है,
कि जो बिना
फिक्र सब कुछ
लगा देता है।
इस पार या उस
पार।
होशियारी से
नहीं चलता, चालाकी से
नहीं चलता, गणित से
नहीं चलता। एक
दुस्साहसी
अभियान है।
खतरा मोल लेने
को तैयार होता
है।
"संतों
भाई आई ज्ञान
की आंधी रे।"
कबीर
कहते हैं, ज्ञान की
आंधी आ गई है।
"भ्रम
की टाटी सबै
उड़ानी।"
वे जो बना रखे
थे बहुत से
जाल भ्रम के, सपने सजा
रखे थे, बड़े
इंद्रधनुष
फैलाए थे . .
."भ्रम की टाटी
सबै उड़ानी"--वह
सब उड़ गई,वह कोई
परदा बचा
नहीं। वे सब
दीवालें गिर
गईं।
"माया रहै न बाधीं।"
और अब कोशिश
भी करें कि
माया रह जाए, तो रहने का
उपाय नहीं
दिखता।
"संतों
भाई आई ज्ञान
की आंधी रे।"
एक तो तुम्हारी
माया है कि
तुम हटाओ
तो हटती नहीं।
और कबीर कहते
हैं कि ऐसी भी
घड़ी आती है
आंधी की, जब
तुम माया को बांधो तो बंधती
नहीं। अभी तुम
हटाओ, हटती
नहीं। अभी तुम
माया से भागो,
भगती नहीं;
सदा
तुम्हारे साथ है।क्योंकि
माया यानी तुम
ही हो।
तुम्हारे
सारे अज्ञान का
केंद्र है
माया।
तुम्हारे
होने के गलत
ढंग की
बुनियाद है
माया।
तुम्हारे
सारे सपनों, कामनाओं, तृष्णाओं
की संग्रहीभूत
स्थिति है
माया। वह
तुम्हारे
भीतर भ्रांति
का जोड़ है, सार-निचोड़
है। वह
तुम्हारे गलत
होने का ढंग
है।
अभी
तुम उससे
भागकर कहां
जाओगे? अभी
तो तुम जहां
भी जाओगे, माया
तुम्हारे साथ
होगी। तुम जो
भी करोगे, माया
उस पर ही सवार
हो जाएगी। तुम
शास्त्र पढ़ोगे,
माया
शास्त्र पर ही
सवार हो
जाएगी। तुम
त्याग करोगे,
माया त्याग
पर ही सवार हो
जाएगी . . . तुम जो
भी करोगे!
तुम्हारे
भीतर जब तक
माया है, तब
तक वह सभी को
आच्छादित कर
देगी। महल
होगा तुम्हारे
पास तो माया
महल को पकड़
लेगी; झोपड़ी होगी तो, झोपड़ी को पकड़
लेगी। कोई
फर्क नहीं
पड़ता। बड़ा
साम्राज्य हो
तो भी माया
जीती है; छोटी-सी
लंगोटी हो पास
में, तो भी
माया जीती है।
कोई भेद नहीं
पड़ता। माया के
लिए इससे कोई
अंतर नहीं
पड़ता कि छोटी
संपत्ति है कि
बड़ी। कुछ भी
हो पकड़ने
को।
समझो
कि मुट्ठी है
तुम्हारी, इसमें तुम
कोहिनूर पकड़ो
या कंकड़
पकड़ो, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? मुट्ठी
दोनों हालत
में बंधी
रहेगी। तुमने
कोहिनूर पकड़ा
है या कंकड़
पकड़ा है, इससे
क्या भेद पड़ता
है? मुट्ठी
बंधी रहेगी।
माया को पकड़ने
को चाहिए कुछ।
माया यानी
पकड़। जो भी हो,
उसी को पकड़
लेगी। लंगोटी
भी काफी है, कंकड़ भी काफी है, पत्थर भी
काफी हैं। बस,
कुछ पकड़ने
को चाहिए। तुम
जहां भी जाओगे,
अगर माया
भीतर है, तुम
जो भी करोगे
उसी को पकड़ लेगी।इसके
पहले कि तुम
कुछ करने जाओ,
ज्ञान की
आंधी को
निमंत्रण
देना जरूरी है,
जो तुम्हें
निखार जाए; जो तुम्हें
धो जाए; जो
तुम्हें साफ
कर जाए; जो
तुम्हें
स्नान करा दे।
और स्नान कोई
साधारण जल का
स्नान नहीं
है। इसे अच्छा
होगा हम कहें,
"अग्नि-स्नान।"
यह तुम्हें
साफ ही नहीं
करेगा, जलाएगा भी।
क्योंकि
जलाने से ही
तुम शुद्ध हो
सकोगे।
तुम्हारा
स्वर्ण अग्नि
से गुजर कर ही निखर
सकेगा।
और जब
एक उलटी दशा
हो जाती है।
कबीर कहते हैं, "माया रहै
न बांधी।" अब
मैं चाहूं भी
कि माया को बांधू,
तो वह बंधती
नहीं। अब मैं
चाहूं कि माया
मेरे साथ रहे,
तो रहती
नहीं। दूर-दूर
चलती है।
यह ऐसे
ही है, जैसे
घर में अंधेरा
होता है, फिर
तुम दीया जला
लो; तो फिर
अंधेरे को
तुम घर
में बांधकर रख
सकोगे? असंभव!
अंधेरा
दूर-दूर
भागेगा। तुम
दीया लेकर जहां-जहां
जाओगे, अंधेरा
वहीं-वहीं से
दूर-दूर
भागेगा। दीया
न हो तो
अंधेरा
साम्राज्य
बनाकर जीता है।जब तक
भीतर का भान न
हो--उसी को
ज्ञान कह रहे
हैं कबीर।
"संतों
आई ज्ञान की
आंधी रे।" और
आंधी है वह।
सब उखाड़
देती है।
"भ्रम
की टाटी सबै
उड़ानी, माय रहै
न बांधी।
हिति-चत
की द्वै थूनी
गिरानी मोह बलींदा तूटा।"
जिस
खंभे पर सब
सहारा लगा था
घर का--आसक्ति
का खंभा।
"थूनी"
: जिस पर गांव
में लोग घर के
सारे छप्पर को
सम्हाल कर
रखते हैं।
"थूनी"
शब्द
बड़ा
महत्वपूर्ण
है। ग्रामीण
शब्द है। शहर
में तो होने
का कोई कारण
भी नहीं। जिस
खंभे पर सारा झोंपड़ा
टिका होता है, उस खंभे के
ऊपर दो हिस्से
होते हैं। दो
हिस्सों की
थूनी पर ही, द्वैत पर ही
सारा घर टिकता
है। थूनी
अर्थात् द्वैत।
और
कबीर कहते हैं, "हिति-चत की द्वै
थूनी
गिरानी।" वह
जो दोहरे मुखवाली
थूनी थी, जिस
पर सारा घर
टिका था, वह
गिर गई। दो
बातें खयाल
रखनी जरूरी
हैं कि द्वैत
पर ही सारा घर
टिका है। जब
तक तुम्हें संसार
में दो दिखाई
पड़ते हैं, तब
तक ज्ञान की
आंधी नहीं आई।
तब तक तुम
जिंदा रहोगे।
जब तक दो हैं, तब तक "मैं"
जिंदा रहेगा।
क्योंकि "तू"
जिंदा रहेगा,
तो "मैं" भी
जिंदा रहेगा।
दो में से एक
भी गिर जाए, तो न तो "तू"
बचता है, न
"मैं" बचता
है। सब बंद हो
गया। व्यवसाय
समाप्त हो
गया।
वह
दोहरे मुंहवाले
खंभे पर खड़ा
है सारा का
सारा घर। और
उस खंभे का नाम
कबीर कह रहे
हैं आसक्ति।
आसक्ति के दो
मुंह हैं सब
तरफ। एक तरफ
उसका नाम राग
है, एक तरफ
उसका नाम
विराग है। एक
तरफ उसका नाम
प्रेम है, एक
तरफ उसका नाम
द्वेष है। एक
तरफ उसका नाम,
जो भी
तुम्हारे
जीवन
में हो, चुन
लो, तुम
तत्क्षण
पाओगे कि उसका
दूसरा विपरीत
हिस्सा भी
तुम्हारे साथ
जुड़ा है।
जब तक
तुम प्रेम
करोगे, तब
तक तुम घृणा
भी करोगे। और
जब तक तुम्हें
सौंदर्य
दिखाई पड़ेगा,
तब तक
तुम्हें
कुरूपता भी
दिखाई पड़ेगी।
और जब तक
तुम्हें कोई
चीज शुभ मालूम
होगी, तब
तक अशुभ भी
मालूम होगी।
और जब तक तुम
भरोसा करोगे,
तब तक तुम
संदेह भी
करोगे। दोनों
साथ ही होंगे।
द्वैत साथ-साथ
चलेगा। और इस
द्वैत पर ही
सारा का सारा
घर टिका है
तुम्हारे
जीवन का।
"हिति-चत
की द्वै थूनी
गिरानी मोह बलींदा तूटा।"
और उस
थूनी के ऊपर
जो मोह का
बांस रखा था, थूनी के गिर जाने
से मोह का
बांस टूट गया।
"त्रिस्ना
छानि परी घर ऊपरि" वह
जो तृष्णा का
छप्पर था, फैलाव था, वह गिर पड़ा।
"कुबुधि
का भांडा
फूटा।" और उसी
क्षण--क्योंकि
जब तृष्णा का
छप्पर गिर जाए
तो कुबुद्धि
के बचने के लिए
कोई जगह नहीं
बचती।
"कुबुधि"
जीती है
तृष्णा की
छाया में।
तृष्णा ही "कुबुधि"
का आधार है।
तृष्णा के
कारण ही तुम
हजार तरह के
अज्ञान से भरे
हुए कृत्य
करने को तैयार
हो जाते हो।
जानते हुए भी, समझते हुए
भी, कि
करना गलत है; लेकिन
तृष्णा करवा
लेती है।
समझो, कि राह से
तुम निकल रहे
हो, हजार
रुपए पड़े हैं।
तुम जानते हो,
उठाना गलत
है। अंतःकरण पुकारे
चला जाता है, अपने नहीं
हैं। लेकिन कुबुधि
चारों तरफ
देखती है कि
कोई देख भी
नहीं रहा; उठा
लेने में हर्ज
क्या है? तृष्णा
का विस्तार
होता है कि कई
दिन से सोच रखा
था, कुछ
चीजें खरीदकर
घर लानी थीं, एक रेडिओ
खरीदना था, कि टेलीविजन
खरीदना था; सब सपने
एकदम साकार
होने लगते हैं।
वह हजार
रुपयों में न
मालूम कितनी
तृष्णा की
तृप्ति छिपी
मालूम होती
है।
अंतःकरण
की आवाज धीमी
होती जाती है।
अंतःकरण कहता
रहता है, मत
उठाओ। चोरी
पाप है। लेकिन
तृष्णा का
छप्पर फैलने
लगता है, बड़ा
होने लगता है।
उन हजार
रुपयों में
हजार संभावनाएं
छिपी हैं। न मालूम
कितने-कितने
दिन से, न
मालूम
कितनी-कितनी
वासनाएं
अधूरी पड़ी हैं,
वे सब पूरी
हो सकती हैं।
रास्ता खुल
सकता है। हजार
रुपए से धंधा
कर सकते हो।
हजार से दस
हजार हो सकते
हैं। दस हजार
से दस करोड़
हो सकते हैं।
सब संभावनाओं
के द्वार हजार
रुपए से खुल
जाते हैं।
अब यह
छोटी-सी आवाज
अंतःकरण
की--"चोरी!
चोरी!" और फिर
संसार में कौन
चोरी नहीं कर
रहा है? सब
चोर हैं। कौन
है, जो
ईमानदार है?तृष्णा जाल
बुनती है
कुबुद्धि का।
भीतर अंतःकरण
की आवाज
धीमी-धीमी-
धीमी होती हुई
खो जाती है।
तृष्णा का
बाजार खड़ा हो
जाता है। आवाज
तो तब भी गूंजती
रहती है, लेकिन
सुनाई पड़ना
मुश्किल हो
जाता है। आवाज
इतनी धीमी है,
कि सुनने के
लिए बड़ी शांति
चाहिए। और
तृष्णा उतनी
शांति नहीं
देती।"
कोई
देख भी नहीं
रहा है, कोई
पकड़ने की
संभावना भी
नहीं दिखाई
पड़ती, उठा
ही लो।
"फिर
तुम कब उठा
लेते हो
तुम्हें पता
भी नहीं चलता।
तुम उठा कर
भागने लगे हो, तुम छिपने
के उपाय में
लग गए हो, पता
भी नहीं चलता।
तुम तो घर
पहुंच कर ही
सांस लेते हो,
तभी
तुम्हें खयाल
आता है कि
तुमने क्या कर
लिया!
कुबुद्धि
का अर्थ है, एक बेहोश
अवस्था। जब
तुम क्या कर
रहे हो उसका भी
तुम्हें
ठीक-ठीक पता
नहीं चलता।
तुम क्यों कर
रहे हो उसका
भी पता नहीं
चलता।
कुबुद्धि का
अर्थ है, एक
तरह का नशा, जिसमें सब
कुछ संभव है, क्योंकि तुम
बेहोश हो।
तुम्हें कोई
भान नहीं है।
कबीर
कहते हैं,
"त्रिस्ना छानि परी घर ऊपरि"
वह जो
छाई है तृष्णा
घर के ऊपर
छप्पर की
भांति, वह
गिर पड़ी।
"कुबुधि
का भांडा
फूटा।"
अब
कुबुद्धि के
रहने का कोई
उपाय न रहा।
वह घड़ा ही फूट
गया।
"जोग
जुगति करि संतौ
बांधी, निरचू
चुवै न
पानी।"
और
कबीर कहते हैं, अब हमने एक
दूसरा ही घर
बनाया। दूसरा
घर बनाना ही
पड़ा। आंधी ऐसी
आ गई ज्ञान की,
कि पुराना
घर गिर गया। थूनी
टूट गई, खंभे
गिर गए, छप्पर
जमीन पर आ रहा
है। सब नष्ट
हो गया। पुराना
गया, अतीत
विदा हुआ, और
आंधी ने इस
तरह तोड़ डाला
सब, कि अब
तो नया घर
बनाना पड़ा।
यही तो
नया जन्म है।
इसी को हम
द्विज कहते
हैं। वही
ब्राह्मण है, जिसके जीवन
में आंधी आ
जाए; और
आंधी जिसके पुराने
घर को गिरा
जाए और नया
जन्म हो; जिसका
ईसाई
रिसरेक्शन
कहते हैं।
और
ईसाइयों को
बड़ी तकलीफ रही
है समझाने में; वे कैसे
समझाएं। वे
कहते हैं, जीसस
की मृत्यु हुई
सूली पर और
फिर तीन दिन
बाद वे
पुनरुज्जीवित
हो गए। यह
पुनरुज्जीवन
का सिद्धांत
ईसाई समझा
नहीं पाए दो
हजार सालों
में। उनको खुद
ही शक होता है,
कि यह हो
कैसे सकता है?
जब फांसी लग
गई, सूली
लग गई, आदमी
मर गया, खत्म
हो गया, पुनरुज्जीवन
संभव कैसे है?
मुर्दा
कैसे उठ सकता
है?लेकिन
वे भूल ही गए, कि
रिसरेक्शन की
बात, पुनरुज्जीव की बात एक
गहरा प्रतीक
है, एक
संकेत है।
उसका जीसस के
वास्तविक
शरीर से उठकर
चलने का कोई
संबंध नहीं
है।
जीसस
की सूली भी
प्रतीक है और
उनका पुनरुजीवन
भी। वह आंधी
की खबर है। जब
आंधी आती है
तो पुराने को
तो सूली लग
जाती है। वह
तो मरियम का
बेटा जीसस था, वह तो मर
गया। और अब
परमात्मा के
बेटे जीसस का जन्म
हुआ। जीसस की
मृत्यु हुई, क्राईस्ट का जन्म
हुआ। वह द्विज
है। उसी दिन
जीसस ब्राह्मण
हो गए। फांसी
लगी इधर, उधर
नए का जन्म
हुआ। पुराना
गया, नया
आया। दोनों के
बीच में एक
अंतराल है।तो
कबीर कहते हैं,
जब आंधी आ
गई, पुराना
सब गिर गया; नया घर
बनाना पड़ा।
"जोग जुगति
करि संतौ
बांधी, निरचू
चुवै न
पानी।"
और अब
एक दूसरा ही
घर बनाया, जिसमें पानी
के चूने की भी
संभावना
नहीं। बड़ी जोग
और जुगति से
बनाया है।
कबीर के ये
शब्द बड़े
ग्राम्य हैं,
पर बड़े
अर्थपूर्ण।
जुगत--जुगत
का अर्थ होता
है डिवाइस।
जुगत का अर्थ
होता है बड़े
होशपूर्वक की
गई साधना। बड़ी
सजगता से, सावधानी से,
सावचेतता से जीया गया
जीवन।
जोग का
अर्थ होता है :
जोड़।
योग का
अर्थ होता है :
जोड़। और परम
अनुभूति तो
जोड़ की है; जहां दो जुड़
जाते हैं।
जहां दो
समाप्त होते
हैं और एक
बचता है। जहां
मैं और तू मिल
जाते हैं। जहां
पदार्थ और
परमात्मा मिल
जाता है। जहां
दृश्य और अदृश्य
का मिलन हो
जाता है, वहां
योग।और
जुगत . . . उस योग
की तरफ जाने
के लिए साधक
को जो-जो करना
पड़ता है वह
बड़ी सावधानी
से करना पड़ता
है। क्योंकि
जरा सी भी चूक . . .
और तुम
वापस लौट आओगे
पुराने घर
में। जरा सी चूक
. . .
और तुम फिर
पुराना घर
बनाने में लग
जाओगे। जरा सी
चूक . . . और नए ढंग
से फिर पुरानी
दुनिया वापस लौट
आएगी।जीवन
एक सतत
सावधानी है। उस
सावधानी का
नाम है जुगत।
"जोग
जुगति करि संतौ
बांधी . . ."
और अब
एक नया घर
बनाया है, जिसको बड़े
योग से--जिसे
दो का सहारा ही
नहीं दिया।
जिसके लिए दो
की थूनी नहीं
लगाई; जिस
पर दो मुंह
वाला खंभा
नहीं बांधा; जिस पर
तृष्णा का
छप्पर नहीं
रखा। अब इसमें
से पानी की एक
बूंद भी नहीं चू सकती।
यह
थोड़ा सोचने
जैसा है कि
संसार के घर
को तुम कितना
ही मजबूत बनाओ, उसमें से
दुःख तो चूता
ही रहता है।
कितना ही बनाओ
सुंदर घर, स्वर्ग
नहीं हो पाता।
नरक चूता ही
रहता है। कितना
ही मजबूत
छप्पर हो
तृष्णा का, क्या फर्क
पड़ता है? तृष्णा
के नीचे आदमी
असुरक्षित ही
बना रहता है, पीड़ित ही
बना रहता, दुखी
ही बना रहता।
कभी ऐसी घड़ी
नहीं आती कि
निश्चिंत हो
जाए। चिंता बनी
ही रहती है।
मजबूत से
मजबूत तृष्णा
के छप्पर के
नीचे भी चिंता
का अंत नहीं
होता; पानी
चूता ही रहता
है।
असल में
तृष्णा में
छेद है, इसलिए
तुम तृष्णा का
छप्पर बना
नहीं सकते। तृष्णा
का स्वभाव सछिद्र
है।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है। वे
कुएं पर, एक
गांव से निकलते
हुए एक कुएं
पर पानी पीने
के लिए खड़े
हैं। उनका
भिक्षु, उनका
शिष्य आनंद भी
उनके पास खड़ा
है। एक आदमी पानी
भर रहा
है--पागल रहा
होगा। पागलों
की कोई कमी भी
नहीं है। वे
ही ज्यादा
हैं।
बुद्धिमान तो
कहीं खोजे
से कोई मिलता
है।
कोई
पागल पानी भर
रहा होगा।
बुद्ध प्रतीक्षा
कर रहे हैं कि
वह पानी भर ले, तो वे पानी
पी लें और
अपनी राह पर
आगे बढ़ जाएं। बढ़ा
शोरगुल मचाता
है वह पागल।
उसकी बालटी
बड़ा शोरगुल
मचाती है।
उसमें छेद ही
छेद हैं। तो
जब वह नीचे
कुएं में
डालता है तो
बालटी बिलकुल
भर जाती है और
जब खींचता है
तो ऊपर-ऊपर तक
आते बिलकुल
खाली हो जाती
है। उसमें छेद
ही छेद हैं और
पूरे कुएं में
बड़ा शोरगुल
मचता है। भारी
काम चल रहा हो
ऐसा मालूम
पड़ता है और
हाथ कुछ भी नहीं
आता।
बुद्ध
थोड़ी देर खड़े
रहे, फिर
उन्होंने
आनंद से कहा
कि हम कहीं और
चलें। इस आदमी
के पास तो
तृष्णा की
बालटी है।
तृष्णा
में छेद ही
छेद हैं। भरते
हुए मालूम
पड़ते हो
जिंदगी भर, हाथ कुछ
नहीं आता।
तुम्हारे करोड़पति
से करोड़पति
भिखमंगे
की तरह मरते
हैं।
तुम्हारे
सिकंदर, तुम्हारे
नेपोलियन सब
रोते हुए विदा
होते हैं।
जिंदगी भर
भरते हैं, कुएं
में बड़ा
शोरगुल मचाते
हैं, दूसरों
को भरने भी
नहीं देते।
खुद ही अड़े
रहते हैं। और
जब वे भरते
हैं, तब
आवाज भी ऐसी
लगती है, पता
नहीं कि पूरा
कुआं से बाहर
आ रहा है; कि
पूरा सागर ही
बाहर आ रहा
है।
लेकिन
जब आती है, तो खाली
बालटी वापस
लौट आती है।
बालटी में बड़े
छेद हैं।
बुद्ध ने आनंद
से कहा, आनंद
हम कहीं और
चलें। यह आदमी
पागल है, यह
तृष्णा की
बालटी में
पानी भर रहा
है।
बुद्ध
जैसे जागरूक
पुरुषों का तो
प्रत्येक वचन,
और प्रत्येक
घड़ी एक उदबोधन
है। शायद
बुद्ध उस कुएं
पर इसीलिए
रुके हों कि
आनंद को कुछ
कहना चाहते
थे।
तुम भी
छिद्रवाली
बालटी से भर
रहे हो पानी।
अछिद्र बालटी
चाहिए, तब
जीवन
तृप्त
होता है।
अछिद्र बालटी
तभी हो पाती
है, जब जीवन
में कोई
तृष्णा न हो।
अब यह
बड़ी उलटी बात
है, बड़ी
विरोधाभासी।
जब तक तृष्णा
हो, तब तक
तृप्ति नहीं;
और जब
तृष्णा नहीं
होती तब
तृप्ति ही
तृप्ति रह
जाती है। तुम
तृष्णा से
तृप्ति की तरफ
जाने की कोशिश
कर रहे हो; वह
असंभव है। जो
भी तृप्त हुए
हैं, वे
तृष्णा को
छोड़कर तृप्त
हुए हैं। और
तुम चाहते हो
किसी तरह तृष्णातुर
चित्त तृप्त
हो जाए!
यह तुम
छिद्र-भरी
बालटी से पानी
भरने की कोशिश
कर रहे हो।
तुम्हारी
प्यास कभी न बुझेगी।
कबीर
कहते हैं, कि जब
तृष्णा का
छप्पर गिर गया
और कुबुद्धि
का भांडा फूट
गया, तब
फिर हमने एक
नया घर बनाया
संतो। और वह
घर हमने बनाया
जोग-जुगति से।
पहले तो हमने
दो पर रखा था
सहारा; अब
हमने एक पर
रखा सहारा। और
पहले तो हमने
बेहोशी में
बनाया था घर; जैसे नींद
में रखी हो
दीवालों की ईंटें; वह
गिरने ही वाला
था। कहीं
बेहोशी में
कोई घर बने
हैं! अब हमने
होश से बनाया
घर, जोग से,
जुगति से।
और अब एक बूंद
पानी भी नहीं
चूता। अब हम
चादर तान कर
सो सकते हैं
संतो। अब
अछिद्र है
हमारा जीवन।
"कूड़-कपट
काया का निकस्या,
हरि की
गति तब जानी।"
शरीर
का सारा कूड़ा-करकट
निकल गया। वह
उस घर में ही
जुड़ा था। घर
यानी शरीर अब
इस घर की उपमा
का एक दूसरा
पहलू सामने
आता है। घर
यानी शरीर, घर यानी
जिसमें तुम रह
रहे हो।अभी
जिस घर में
तुम रह रहे हो,
वह तृष्णा
से बना है।
अभी जिस घर
में तुम रह रहे
हो, वह
द्वैत से बना
है। अभी जिस
घर में तुम रह
रहे हो, उसमें
छेद ही छेद
हैं।
अगर
तुम कबीर के
वचनों को ठीक
से समझो, तो
कबीर बार-बार
कहते हैं कि
इस नौ छेदवाले
घर में मत
रहो। क्योंकि
शरीर में जो
इंद्रियां
हैं, वे नौ
छेद हैं। कबीर
कहते हैं, ये
सारे छेद बंद
कर लो, तो
तुम वहां
पहुंच जाओगे,
जहां
पहुंचने की
तुम
आकांक्षा
कर रहे हो।
अछिद्र हो
जाओ। आंख बंद
कर लो तो भीतर
दिखाई पड़ना
शुरू होता है।
कान बंद कर लो, तो भीतर का
नाद अनुभव में
आता है। संभोग
बंद हो जाए, तो वही
ऊर्जा समाधि
बनने लगती है।
सब
छिद्र बाहर ले
जाते हैं।
छिद्र यानी
बाहर जाने का
द्वार। और जब
सभी छिद्र
शांत होते हैं, निष्क्रिय
होते हैं और
तुम अपने भीतर
ही रह जाते हो
तभी--तभी उससे
मिलन होता है,
जिससे मिले
बिना तृप्ति न
होगी, संतोष
न होगा। जिससे
मिले बिना
अहोभाव न आएगा,
कि पहुंच गए,
मंजिल पूरी
हुई, विश्राम
का क्षण आ
गया। अब रुक
सकते हैं, सदा
को रुक सकते
हैं। अब
शाश्वत की
छाया मिल गई।
अब सनातन घर
मिल गया। अब
कोई और
छोटे-मोटे घर
बनाने की
जरूरत न रही।
अब ऐसा घर मिल
गया, जो
कभी मिटेगा
नहीं। अब अमृत
उपलब्ध हुआ
है।
यह
सारे घर का जो
प्रतीक है, गौर से समझो,
तो शरीर का
प्रतीक है।
इसे तुम बनाते
हो तृष्णा से।
एक आदमी मरा; जैसे ही वह
मरता है, वैसे
ही उसकी आत्मा
तड़फने
लगती है नए घर
के लिए, नए
मकान के लिए, नए शरीर के
लिए। दौड़-धूप
शुरू हो जाती
है।
इसलिए
हिंदू जलाते
हैं शरीर को।
क्योंकि जब तक
शरीर जल न जाए, तब तक आत्मा
शरीर के आसपास
भटकती है।
पुराने घर का
मोह थोड़ा सा पकड़े रखता है।तुम्हारा
पुराना घर भी
गिर जाए तो भी
नया घर बनाने
तुम एकदम से न
जाओगे। तुम
पहले कोशिश
करोगे, कि
थोड़ा इंतजाम
हो जाए और इसी
में थोड़ी सी
सुविधा हो जाए,
थोड़ा खंभा
सम्हाल दें, थोड़ा सहारा
लगा दें। किसी
तरह इसी में
गुजारा कर
लें। नया
बनाना तो बहुत
मुश्किल होगा,
बड़ा कठिन
होगा।
जैसे
ही शरीर मरता
है, वैसे ही
आत्मा शरीर के
आसपास
वर्तुलाकार
घूमने लगती
है। कोशिश
करती है फिर
से प्रवेश की।
इसी शरीर में
प्रविष्ट हो
जाए। पुराने
से परिचय होता
है, पहचान
होती है। नए
में कहां
जाएंगे, कहां
खोजेंगे? मिलेगा,
नहीं
मिलेगा?इसलिए
हिंदुओं ने इस
बात को बहुत
सदियों पूर्व
समझ लिया कि
शरीर को बचाना
ठीक नहीं है।
इसलिए
हिंदुओं ने कब्रों
में शरीर को
नहीं रखा।
क्योंकि उससे
आत्मा की
यात्रा में
निरर्थक बाधा
पड़ती है। जब
तक शरीर बचा
रहेगा थोड़ा
बहुत, तब
तक आत्मा वहां
चक्कर लगाती
रहेगी।
इसलिए
हिंदुओं के
मरघट में तुम
उतनी प्रेतात्माएं
न पाओगे, जितनी
मुसलमानों या
ईसाइयों के
मरघट में पाओगे।
अगर तुम्हें
प्रेतात्माओं
में थोड़ा रस हो,
और तुमने
कभी थोड़े
प्रयोग किए
हों--किसी ने
भी प्रेतात्माओं
के संबंध में,
तो तुम चकित
होओगे; हिंदू
मरघट
करीब-करीब
सूना है। कभी
मुश्किल से
कोई
प्रेतात्मा
हिंदू मरघट पर
मिल सकती है। लेकिन
मुसलमानों के
मरघट पर
तुम्हें
प्रेतात्माएं
ही
प्रेतात्माएं
मिल जाएंगी।
शायद यही एक
कारण इस बात
का भी है, कि
ईसाई और
मुसलमान
दोनों ने यह
स्वीकार कर
लिया, कि
एक ही जन्म
है। क्योंकि
मरने के बाद
वर्षों तक
आत्मा भटकती
रहती है कब्र
के आस-पास।
हिंदुओं
को तत्क्षण यह
स्मरण हो गया
कि जन्मों की
अनंत शृंखला
है। क्योंकि
यहां शरीर
उन्होंने जलाया
कि आत्मा
तत्क्षण नए
जन्म में
प्रवेश कर जाती
है। अगर
मुसलमान फिर
से पैदा होता
है, तो उसके
एक जन्म में
और दूसरे जन्म
के बीच में काफी
लंबा फासला
होता है।
वर्षों का
फासला हो सकता
है। इसलिए
मुसलमान को
पिछले जन्म की
याद आना
मुश्किल है।
इसलिए
यह चमत्कारी
बात है, और
वैज्ञानिक इस
पर बड़े हैरान
होते हैं कि
जितने लोगों
को पिछले जन्म
की याद आती है,
वे अधिकतर
हिंदू घरों
में ही क्यों
पैदा होते हैं?
मुसलमान घर
में पैदा
क्यों नहीं
होते? कभी
एकाध घटना घटी
है। ईसाई घर
में कभी एकाध
घटना घटी है।
लेकिन
हिंदुस्तान
में आए दिन
घटना घटती है।
क्या कारण है?कारण है।
क्योंकि
जितना लंबा
समय हो जाएगा,
उतनी
स्मृति धुंधली
हो जाएगी
पिछले जन्म
की। जैसे आज
से दस साल पहले
अगर मैं तुमसे
पूछूं, कि आज से दस
साल पहले
उन्नीस सौ
पैंसठ, एक
जनवरी को क्या
हुआ? एक
जनवरी उन्नीस
सौ पैंसठ में
हुई, यह
पक्का है; तुम
भी थे, यह
भी पक्का है।
लेकिन क्या
तुम याद कर
पाओगे एक
जनवरी उन्नीस
सौ पैंसठ?
तुम
कहोगे कि एक
जनवरी हुई यह
भी ठीक है।
मैं भी था यह
भी ठीक है।
कुछ न कुछ हुआ
ही होगा यह भी
ठीक है। दिन
ऐसे ही खाली
थोड़े ही चला
जाएगा! ज्ञानी
का दिन भला
खाली चला जाए, अज्ञानी का
कहीं खाली जा
सकता है? कुछ
न कुछ जरूर
हुआ होगा। कोई
झगड़ा-झांसा,
उपद्रव, प्रेम,
क्रोध, घृणा--मगर
क्या याद आता
है?
कुछ भी
याद नहीं आता।
खाली मालूम
पड़ता है एक
जनवरी उन्नीस
सौ पैंसठ, जैसे हुआ ही
नहीं।
जितना
समय व्यतीत
होता चला जाता
है, उतनी नई
स्मृतियों की पर्ते
बनती चली जाती
हैं, पुरानी
स्मृति दब
जाती है। तो
अगर कोई
व्यक्ति मरे
आज, और आज
ही नया जन्म
ले ले तो शायद
संभावना है, कि उसे
पिछले जन्म की
थोड़ी याद बनी
रहे। क्योंकि
फासला बिलकुल
नहीं है।
स्मृति कोई
बीच में खड़ी
ही नहीं है।
कोई दीवाल ही
नहीं है।
लेकिन
आज मरे, और
पचास साल बाद
पैदा हो तो
स्मृति
मुश्किल हो जाएगी।
पचास साल!
क्योंकि
भूत-प्रेत भी
अनुभव से
गुजरते हैं।
उनकी भी
स्मृतियां
हैं; वे
बीच में खड़ी
हो जाएंगी। एक
दीवाल बन
जाएगी मजबूत।
इसलिए
ईसाई, मुसलमान
और यहूदी; ये
तीनों कौमें
जो मुर्दो को
जलाती नहीं, गड़ाती हैं; तीनों
मानती हैं कि
कोई
पुनर्जन्म
नहीं है, बस
एक ही जन्म
है। उनके एक
जन्म के
सिद्धांत के
पीछे गहरे से
गहरा कारण यही
है, कि कोई
भी याद नहीं
कर पाता पिछले
जन्मों को।
हिंदुओं
ने हजारों
सालों में
लाखों लोगों
को जन्म दिया
है, जिनकी
स्मृति
बिलकुल प्रगाढ़
है। और उसका
कुल कारण इतना
है कि जैसे ही
हम मुर्दे को
जला देते
हैं--घर नष्ट
हो गया
बिलकुल।
खंडहर भी नहीं
बचा कि तुम
उसके आसपास
चक्कर काटो।
वह राख ही हो
गया। अब वहां
रहने का कोई
कारण ही नहीं।
भागो और
कोई नया छप्पर
खोजो।
आत्मा
भागती है; नए गर्भ में
प्रवेश करने
के लिए उत्सुक
होती है। वह
भी तृष्णा से
शुरुआत होती
है। इसलिए तो
हम कहते हैं, जो तृष्णा
के पार हो गया,
उसका
पुनर्जन्म
नहीं होता।
क्योंकि
पुनर्जन्म का
कोई कारण न
रहा। सब घर
कामना से बनाए
जाते हैं।
शरीर कामना से
बनाया जाता
है। कामना ही
आधार है शरीर
का। जब कोई
कामना ही न
रही, पाने
को कुछ न रहा, जानने को
कुछ न रहा, यात्रा
पूरी हो गई, तो नए गर्भ
में यात्रा
नहीं होती।
तो
कबीर कहते हैं,.
"कूड़
कपट काया का निकस्या . .
."
सब कूड़ा-करकट
शरीर का जल
गया। वह जो
पुराना घर
गिरा, उसी
में वह सब
समाप्त हो
गया।
"हरि
की गति जब
जानी . . ."
और जब
काया शुद्ध
होती है, और
जब सब कूड़ा-करकट
जल जाता है, शुद्ध कुंदन
बचता है, शुद्ध
सोना बचता है।
"हरि
की गति तब
जानी . . ."
और तभी
पता चलती है
कि हरि की गति
क्या है? हरि
का रहस्य क्या
है? परमात्मा
का राज क्या
है?जब तुम
बिलकुल मिट
जाते हो, तुम्हारा
घर जलकर राख
हो जाता है, आंधी आती है
और तुम्हें सब
उखाड़
डालती है, तुम्हारा
कुछ भी नहीं
बचता, तभी
तुम्हें हरि
का रहस्य पता
चलना शुरू
होता है। जब
तक तुम हो, तब
तक हरि नहीं।
कबीर
ने कहा है,जब
तक मैं हूं, तब तक हरि
नाहीं, "जब
हरि तब मैं
नाहीं।"
और जब
हरि हैं, तब
फिर मैं नहीं।
हरि का
और तुम्हारा
मिलना कभी
होगा नहीं।
तुम मिलोगे
उसी दिन जिस
दिन तुम न
रहोगे।
तुम्हारा
खाली रूप ही
परमात्मा से
मिलेगा।
तुम्हारी
शून्यता ही
उसके द्वार पर
दस्तक देगी, तुम नहीं।
तुम्हारी
अनुपस्थिति
ही प्रवेश करेगी
उसके भवन में,
तुम नहीं।
तुम्हारा न
होना ही उसके
होने के लिए
उपाय है। तुम
इतने ज्यादा
हो! तुम्हारे
इतने ज्यादा
होने के कारण
ही वह तुम्हारे
भीतर प्रवेश
नहीं कर पाता।
तुम इतने भरे
हुए हो कि जगह
ही नहीं है।
थोड़ी जगह
चाहिए, स्थान
चाहिए।
और जब
विराट को
बुलाना हो तो
थोड़ी जगह से
काम न चलेगा।
फिर तो विराट
जगह चाहिए।
आकाश जैसी जगह
चाहिए।
"कूड़
कपट काया का निकस्या, हरि की गति
जब जानी।"
इसके
दो अर्थ हो
सकते हैं। और
दोनों
अर्थ
महत्वपूर्ण
हैं।
एक
अर्थ तो यह है
कि जब सब कूड़ा-करकट
निकल गया तब
हरि की गति का
पता चला।
दूसरा
अर्थ यह भी हो
सकता है जब
हरि की गति का
पता चला, तभी
सब कूड़ा-करकट
निकला। और
दूसरा अर्थ
पहले से गहरा
है।
मगर
दोनों
संयुक्त हैं।
वे ऐसे ही
संयुक्त हैं, जैसे मुर्गी
और अंडा
संयुक्त हैं।
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
यहां शरीर का कूड़ा-करकट
निकल जाता है,
तृष्णा
टूटती है, माया-मोह
का जाल टूटता
है, कुबुद्धि
का भांडा
फूटता है, वहां
हरि की गति
अनुभव में आने
लगती है। उधर
हरि की गति
अनुभव में आती
है और यहां जो
भी बचा-खुचा
है, वह भी
विदा हो जाता
है।
ये
दोनों साथ-साथ
घटते हैं। असल
में हम जब कहने
चलते हैं, तब दो
हिस्से हो
जाते हैं।
घटना में एक
साथ ही घटता है,
युगपत घटता
है। जैसे जब
तुम दीया
जलाते हो तो कोई
अगर तुमसे
पूछे कि जब
तुम दिया
जलाते हो तब
दीया जलाने के
बाद अंधकार
जाता है बाहर
कमरे के, या
अंधकार के
बाहर चले जाने
के बाद दीया
जलता है?
तुम
जरा मुश्किल
में पड़ जाओगे।
क्योंकि अगर तुम
कहो कि अंधकार
पहले चला जाता
है, तब दीया
जलता है, तो
उसका अर्थ हुआ
कि दीये के
जलने की कोई
जरूरत ही न
रही। अंधकार
जब बाहर ही
चला गया, तो
दीया बुझा भी
रहे तो भी
प्रकाश होगा।
अगर तुम यह
कहो कि जब
दीया जल जाता
है, तब
अंधकार बाहर
जाता है, तब
भी मुश्किल
है। इसका मतलब
यह हुआ, कि
दीया भी जल
गया और अंधकार
भी भीतर रहा।
थोड़ी देर ही सही।
तो फिर दीया
भी अंधकार को
मिटा नहीं
पाता।
घटना
ऐसी है कि
दीये का जलना
और अंधकार का
जाना एक ही
घटना के दो
पहलू हैं। एक
साथ घटता है।
युगपत। जरा भी
फासला नहीं
है। इंच भर का
फासला भी--मुश्किल
खड़ी हो जाएगी।
फिर पहेली हल
न हो पाएगी।
अगर अंधेरा
पहले चला जाए
तो दीये की
कोई जरूरत
नहीं। अगर
दीया जले और
अंधेरा एक
क्षण भी भीतर
रह जाए, तो
दीया फिजूल, नपुंसक!
उसका कोई
मूल्य ही
नहीं।
कब
जाता है
अंधेरा? कब
आता है प्रकाश?--एक साथ
अगर और
भी ठीक से
समझना हो, तो यह कहना
भी उचित नहीं
है कि ये दो
घटनाएं हैं।
दीये का जलना
और अंधेरे का
जाना एक ही
बात को कहने
के दो ढंग हैं।
चाहो, कहो
अंधेरा चला
गया; चाहो,
कहो दीया जल
गया; एक ही
बात है। ये दो
बातें नहीं
हैं। लेकिन भाषा
में दो हो
जाती हैं।
क्योंकि भाषा
द्वैत पर खड़ी
है। वह जो
भाषा की थूनी
है, वह दो
पर खड़ी है।
भाषा का मतलब
ही है, दो
के बीच का
संबंध। तुम
अगर अकेले रह
जाओ जंगल में,
तो तुम भाषा
बोलोगे? क्या
करोगे? अगर
तुम अकेले
होते पृथ्वी
पर तो कोई
भाषा पैदा
होती? किसलिए पैदा होती?
भाषा
तो तब पैदा
होती है, जब
दूसरा हो।
दूसरे के लिए
भाषा है।
दूसरे से
बोलते हो। और
अगर तुम कभी
अकेले में भी
बोलते हो, तो
भी तुम दूसरे
की कल्पना कर
लेते हो, तभी
बोलते हो; नहीं
तो नहीं बोल
सकते। अकेले
में कभी-कभी
लोग बोलते
हैं। एकांत
में बैठे हैं,
कोई नहीं है,
थोड़ी बात
करते हैं। तो
शायद उनकी
पत्नी मायके गई
हो, उससे बात
कर रहे हैं।
या मित्र से
बात कर रहे हो;
या रिहर्सल
कर रहे हो, कल
किसी से बात
करनी है उसको।
लेकिन
दूसरा सदा
मौजूद है; चाहे कल्पना
में ही क्यों
न हो। दो के
बिना भाषा
नहीं है। सब
भाषा द्वैत
है। इसलिए
भाषा जब भी
किसी चीज को
प्रकट करती है,
तभी अद्वैत
टूट जाता है।
और
जीवन अद्वैत
है। यहां
प्रकाश का
जलना और अंधेरे
का जाना एक
साथ घटता है, एक साथ घटता
है वह भी भाषा
की गलती है।
वे दो नहीं
हैं, इसलिए
कैसे कहें कि
एक साथ घटता
है? वह एक
ही है। दो की
तरह मालूम
पड़ता है।
"कूड़
कपट काया का निकस्या, हरि की गति
जब जानी।
आंधी
पीछे जो जल
बूढ़ा, प्रेम
हरी जन भीना।
कहै
कबीर भान के प्रकटे, उदित भया तम खीना।।
आंधी के
पीछे जो जल की
वर्षा हुई . .
.ज्ञान सब कुछ
नहीं है।
ज्ञान तो
सिर्फ आंधी
है। पंडित के
लिए ज्ञान सब
कुछ हो जाता
है। लेकिन असली
ज्ञान तो
सिर्फ शुरुआत
है, सिर्फ
प्रारंभ है।
आंधी आ
गई, आंधी
थोड़े ही सब
कुछ है! वह तो
आनेवाली
जल-वृष्टि की
सूचना है। वह
तो सिर्फ खबर
है कि खाली करो
जगह; कि
तैयार हो
जाओ--कि बनो
शून्य, और
बादल बरसने को
है।
तो
ज्ञान तो आंधी
है, और अमृत
आनंद की
वर्षा।
"आंधी पीछे
जो जल बूढ़ा, प्रेम हरी
जन भीना" और जो
हरि के प्रेम
में मतवाले
हैं, आंधी
के पीछे वे
नाचते हैं। और
जो हरि के
प्रेम में
मतवाले नहीं,
वे आंधी के
पीछे बैठकर
रोते हैं।
क्योंकि उनका
घर गिर गया।
उनका सब खो
गया। वे बरबाद
हो गए। उनका
दिवाला निकल
गया।
जब भी
नासमझ का
अहंकार टूटता
है, तो वह
रोता है और जब
ज्ञानी का
अहंकार टूटता
है, तो वह
नाचता है।
क्योंकि वह
कहता है कि
यही तो एक
उपद्रव था, जो समाप्त
हुआ। जब
अज्ञानी का
शरीर छूटता है
तो वह
चीखता-चिल्लाता
है। ज्ञानी का
शरीर छूटता है
तो वह
परमात्मा को
धन्यवाद कहता
है, कि
थोड़ी सी बाधा
थी, वह भी
मिट गई।
कबीर
ने कहा है, "कब मरिहों
कब भेंटिहों
पूरन
परमानंद"
--कब मिटूंगा, कब मिलूंगा
पूर्ण
परमानंद से?
ज्ञानी
के लिए मृत्यु
भी परमात्मा
का द्वार है।
अज्ञानी घबड़ाता
है।
"आंधी
पीछे जो जल
बूढ़ा, प्रेम
हरी जन भीना।"
वे जो
हरि के प्रेम
में दीवाने
हैं, वे तो भीग
गए। वे तो
अमृत से भीग
गए। वे तो
आर्द्र हो गए।
उनके तो रोएं-रोएं
में अमृत भर
गया। वे तो
झील की तरह भर
गए। खाली थे, तरंगे लेने लगा
परमात्मा
उनमें।
"कहै
कबीर भान के प्रकटे, उदित भया तम खीना।"
और जब
भान उगा, भीतर
का सूरज उगा, तब अंधकार
क्षीण हो गया।
सदा के लिए
क्षीण हो गया।
बाहर
का सूरज उगता
है, अंधकार
क्षीण होता
है--सदा के लिए
नहीं। फिर रात
आ जाती है।
दीया जलाओ, अंधकार बाहर
जाता है, कब
तक? थोड़ी
देर में तेल
चुक जाएगा, बाती बुझ
जाएगी, अंधकार
फिर भीतर आ
जाएगा।
बाहर
का प्रकाश
क्षणिक है और
अंधकार
शाश्वत है। यह
बड़े मजे की बात
है। अंधकार को
करने के लिए
कुछ भी नहीं
करना पड़ता।
बिना दीये के
चलता है, बिना
तेल के जलता
है। दीये को
जलाओ--तेल लाओ,
बाती लाओ, हजार उपद्रव
हैं। फिर भी
क्षण भर जलता
है, फिर
बुझ जाता है।
बाहर
अंधकार
शाश्वत है, प्रकाश
क्षणिक है।
भीतर इससे ठीक
उलटी स्थिति
है; अंधकार
क्षणिक है, प्रकाश
शाश्वत है। एक
बार मिटा लो, सदा के लिए
मिट जाता है।
अगर भीतर का
प्रकाश भी तेल
और बाती पर
निर्भर होता,
तो फिर
आत्मा को
पा-पा कर खोना
पड़ता।
परमात्मा से
मिल-मिल कर
टूटना पड़ता।
पहुंच-पहुंच
कर मार्ग खो
जाता है।
मंजिल आ-आ कर
भटक जाती। बहुत
उपद्रव हो
जाता।
वह जो
भीतर का
प्रकाश है, वह जलता है
बिन बाती बिन
तेल। एक बार
उसकी प्रतीति
हो जाए--वह जल
ही रहा है।
अभी भी
तुम्हारे भीतर
जल रहा है। वह
कभी बुझता ही
नहीं। उसे जलाना
नहीं है, सिर्फ
आंख मोड़नी
है। सिर्फ नजर
डालनी है।
सिर्फ
पहचानना है।
"कहै कबीर
भान के प्रकटे"—
और जब
भीतर का भान, भीतर का
सूरज प्रकट
होता है;
"उदित
भया तम खीना--"
और तम
सदा के लिए
क्षीण हो गया।
ज्ञान की यह
आंधी--इसके दो
हिस्से हैं।
पहले तो
तुम्हें मिटाती
है, फिर
तुम्हें
आर्द्र कर
देती है, भिगाती
है। पहले
तुम्हें कूटती
है, पीटती
है, नष्ट
करती है। अगर
तुम राजी हुए
टूटने को, मिटने
को, खाली
होने को तो
फिर तुम्हें
भरती है।
जो
खाली होने से
ही डर गया, उसके जीवन
में दूसरा चरण
नहीं घट पाता।
तो पांडित्य
पैदा हो सकता
है। पांडित्य
बड़ा सुरक्षापूर्ण
है। उसमें न
कोई आंधी है, न तूफान है, न कोई खतरा
है। शास्त्र
लिए बैठे रहो;
अध्ययन
करते रहो। तुम
अछूते बने
रहोगे।
ज्ञानियों
ने सदा कहा है
कि वीतराग
पुरुष संसार
में ऐसे जीता
है, जैसे कमल
पानी में। कमल
को पानी छूता
नहीं, ऐसे
ही पंडित
ज्ञान में
जीता है; ज्ञान
उसे छूता
नहीं--कमलवत्।
जीता है ज्ञान
में, चारों
तरफ वेद, उपनिषद,
कुरान, बाइबिल
का ढेर लगाए
बैठा रहता है।
जीता है वहीं,
लेकिन
कमलवत। छूता
नहीं ज्ञान
उसे। और अगर
ज्ञान न छुएगा
तो कैसे
तुम्हारा
अज्ञान
मिटेगा?
पंडित
का ज्ञान
अज्ञान को ढांक
लेता है, मिटाता
नहीं। और ढंका
हुआ अज्ञान उघड़े
अज्ञान से
ज्यादा
खतरनाक है। वह
ऐसे ही है, जैसे
किसी ने अपने
फोड़े को ढांक
लिया हो। पहले
तो ढांका
हो कि दूसरों
को पता न चले; फिर
धीरे-धीरे खुद
भी भूल गया
हो। तो फिर
फोड़ा बढ़ते-बढ़ते
भीतर नासूर
बनेगा और
कैंसर बनेगा। फोड़े
का इलाज चाहिए;
ढांकने से
कुछ भी न
होगा। अज्ञान
को ढांको
मत, ढांकने
से तुम्हारी
आत्मा और
अंधकार से भर
जाएगी।
अज्ञान को उघाड़ो,
प्रकट करो।
उसे काटना है।
और उसे काटने
का उपाय यही
है कि तुम
ज्ञान की आंधी
को निमंत्रण
दो।
वह
निमंत्रण
ध्यान से संभव
होता है।
जैसे-जैसे तुम
शांत होते हो, निर्विचार
होते हो, ध्यान
में उतरते हो,
तुम आंधी को
बुला रहे हो।
शायद
तुम्हें पता
हो; बाहर के
जगत में जो
आंधी घटती
है--कैसे घटती
है, तुम्हें
मालूम है? अभी
दो दिन पहले
जोर की आंधी
आई; हिला
गई वृक्षों को,
गिरा गई
वृक्षों को।
वह कैसे आती
है? बाहर
आंधी कैसे
घटती है? कौन
उसे बुलाता है?उसको बुलाने
की एक
प्रक्रिया
है। और किसी
दिन विज्ञान
के हाथ में यह
बात आ जाएगी।
जानकारी तो
हाथ आ गई है; किसी दिन
विज्ञान कर भी
सकेगा। रूस
में वे कुछ
प्रयोग करते
भी हैं।
आंधी के
आने का ढंग यह
है, कि जहां
भी जोर की
गर्मी पड़ती है,
सूरज जहां
जोर से तपता
है, वहां
की हवा विरल
हो जाती है, सूखी हो
जाती है। सूखी
होने के कारण
गर्म होने के
कारण, फैल
जाती है। जब
हवा फैल जाती
है तो वहां पैदा हो
जाते हैं।
चारों तरफ की
हवा भरी होती
है और कुछ जगह
हवा के
पैदा हो जाते
हैं। उन्हीं
के कारण दूर
से हवा खींच
ली जाती है। जैसे
तुम बर्तन में
पानी भर लो
नदी से, तो
पैदा हो जाता
है। चारों तरफ
का पानी दौड़कर
उस को
भर देता है।
सूरज
गर्मी पैदा
करता है।
जहां-जहां
बहुत गर्मी हो
जाती है, वहां
हवा विरल हो
जाती है, पैदा
हो जाते हैं
हवा में। उन
हवाओं के को
भरने के लिए
पास की हवाएं
जोर से दौड़ती
हैं। वह दौड़
ही आंधी है।
इसलिए जितनी
भयंकर गर्मी
पड़ेगी, उतनी
भयंकर आंधी
आनेवाली है।
इसलिए लोग
कहते हैं, जब
बहुत गर्मी
पड़ती है, वे
कहते हैं, अब
वर्षा होगी।
क्योंकि बहुत
गर्मी का मतलब
है आंधी आएगी;
आंधी का
मतलब, साथ
में बादल उड़े
चले आ एंगे।
ठीक
वही भीतर का
सूत्र भी है।
इसलिए हमने
भीतर की साधना
को तपश्चर्या
कहा है। तप का
अर्थ होता है, गर्मी। तप
का अर्थ होता
है, उत्तप्त
भीतर की
अवस्था।
ध्यान
तुम्हारे
भीतर एक
निश्चित ताप
पैदा करेगा।
तुम्हारी
ऊर्जा
उत्तप्त
होगी। तुम्हारे
भीतर की अग्नि
जलेगी। तुम
यज्ञ बन जाओगे।
तुम्हारे
भीतर सब
उत्तप्त होकर
खाली होने
लगेगा, शून्य
होने लगेगा।
और जैसे ही
भीतर शून्य
निर्मित होता
है, परमात्मा
की आंधी भागती
चली आती है।और
जब आंधी आती
है, तब साथ
में अमृत के
बादल भी आते
हैं।
संतों
भाई आई ज्ञान
की आंधी रे।
भ्रम
की टाटी सबै
उड़ानी, माया रहै
न बांधी।।
हिति-चत
की द्वै थूनी
गिरानी, मोह
बलींदा तूटा।
त्रिस्ना
छानि परी घर ऊपरि, कुबुधि का भांडा
फूटा।।
जोग
जुगति करि संतौ
बांधी, निरचू
चुवै न
पानी।
कूड़
कपट काया का निकस्या, हरि की गति
जब जानी।।
आंधी
पीछे जो जल
बूढ़ा, प्रेम
हरी जन भीना।
कहै
कबीर भान के प्रगटे, उदित भया तम खीना।।
आज
इतना ही।
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