दिनांक
13 सितंबर, 1974,
प्रात : काल, श्री
रजनीश आश्रम,
पूना.
विस्मयो
योगभूमिका:।
स्वपदंशक्ति।
वितर्क
आत्मज्ञानमू।
लोकानन्द:
समाधिसुखम्।
विस्मय
योग की भूमिका
है। स्वयं में
स्थिति ही
शक्ति है।
वितर्क
अर्थात विवेक
आत्मज्ञान का
साधन है।
अस्तित्व का
आनंद भोगना
समाधि है।
विस्मय योग की
भूमिका है।
इसे
थोड़ा समझें।
विस्मय
का अर्थ
शब्दकोश में
दिया है—आश्चर्य; पर, आश्चर्य
और विस्मय में
एक बुनियादी
भेद है। और वह
भेद समझ में न
आये तो अलग—अलग
यात्राएं
शुरू हो जाती
है। आश्चर्य
विज्ञान की भूमिका
है, विस्मय
योग की; आश्चर्य
बहिर्मुखी है,
विस्मय
अंतर्मुखी; आश्चर्य
दूसरे के
संबंध में
होता है, विस्मय
स्वयं के
संबंध में—स्व
बात।
जिसे
हम नहीं समझ
पाते; जो
हमें अवाक कर'
जाता है; जिस पर
हमारी बुद्धि
की पकड़ नहीं
बैठती; जो
हमसे बड़ा
सिद्ध होता है;
जिसके
सामने हम
अनायास ही
किंकर्तव्यविमूढ़
हो जाते है; जो हमें
मिटा जाता है—उससे
विस्मय पैदा
होता है।
लेकिन, अगर
यह जो विस्मय
की दशा भीतर
पैदा होती है—अतर्क्य,
अचिंत्य के
समक्ष खड़े
होकर—इस धारा
को हम
बहिर्मुखी कर
दें, तो
विज्ञान पैदा
होता है।
सोचने लगें
पदार्थ के
संबंध में; विचार करने
लगें जगत के
संबंध में; खोज करने
लगें रहस्य की,
जो हमारे
चारों ओर है—तो
विज्ञान का
जन्म होता है।
विज्ञान
आश्चर्य है।
आश्चर्य का
अर्थ है—विस्मय
बाहर की
यात्रा पर
निकल गया। और
आश्चर्य और
विस्मय में यह
भी फर्क है कि
जिस चीज के प्रति
हम आश्चर्यचकित
होते है, हम आज नहीं
कल उस आश्चर्य
से परेशान हो
जायेंगे; आश्चर्य
से तनाव पैदा
होगा। इसलिए आश्चर्य
को मिटाने की
कोशिश होती है।
विज्ञान
आश्चर्य से
पैदा होता है, फिर आश्चर्य
को नष्ट करता
है; व्याख्या
खोजता है, सिद्धांत
खोजता है, सूत्र
चाबियां
खोजता है और
तब तक चैन
नहीं लेता जब
तक कि रहस्य
मिट न जाये; जब तक कि
ज्ञान हाथ में
न आ जाये; जब
तक विज्ञान यह
न कह सके कि
हमने समझ लिया—तब
तक चैन नहीं।
विज्ञान
जगत से आश्चर्य
को मिटाने में
लगा है। अगर
विज्ञान सफल
हुआ तो दुनिया
में ऐसी कोई
चीज न रह
जायेगी, जो आदमी न कह
सके कि हम
जानते है।
इसका अर्थ हुआ
कि जगत में
कोई परमात्मा
न बचेगा; क्योंकि
परमात्मा का
अर्थ ही यह
होता है कि जिसे
हम जान भी लें
तो भी दावा न
किया जा सके
कि हम जानते
है; जो
हमारे जानने
के बाद भी
जानने को शेष
रह जाये; जिसे
जान—जानकर भी
हम चुकता न कर
पायें; जिसके
विस्मय को अंत
करने का कोई
उपाय नहीं।
एक तो
ऐसी वस्तुएं
हैं, जिन्हें
हमने जान लिया—उन्हें
हम 'ज्ञात'
कहें; कुछ
ऐसी वस्तुएं
हैं, जिन्हें
हमने जाना
नहीं लेकिन हम
जान लेंगे—उन्हें
हम 'अज्ञय'
कहें; और
कुछ ऐसा भी है
इस जगत में, जिसे हमने
जाना भी नहीं
है और हम जान
भी न पायेंगे—उसे
हम ' अज्ञेय
' कहें।
परमात्मा
अज्ञेय है। वह
तीसरा तत्व है।
विज्ञान
इसलिए
परमात्मा को
स्वीकार नहीं
करता; क्योंकि
विज्ञान कहता
है कि ऐसा कुछ
भी नहीं है, जो न जाना जा
सके। नहीं
जाना होगा
हमने अभी तक, हमारे
प्रयास कमजोर
हैं; लेकिन
आज नहीं कल, केवल समय की
बात है, हम
जान लेंगे। एक
दिन जगत पूरा
का पूरा जान
लिया जायेगा;
इसमें
अनजाना कुछ भी
न बचेगा।
विज्ञान
आश्चर्य से
पैदा होता है
और फिर आश्चर्य
की हत्या में
लग जाता है।
इसलिए, विज्ञान को
मैं 'पितृघाती'
कहता हूं
जिससे पैदा
होता है, उसे
मिटाने में लग
जाता है। धर्म
बिलकुल
विपरीत है।
धर्म भी एक आश्चर्य—
भाव से पैदा
होता है; इस
आश्चर्य—भाव
को शिवसूत्र
में विस्मय
कहा है। फर्क
इतना ही है कि
जब किसी
स्थिति में आश्चर्य
से भर जाता है
धार्मिक खोजी,
तो वह बाहर
की यात्रा पर
नहीं जाता, वह भीतर की
यात्रा पर
जाता है। जब भी
कोई रहस्य उसे
घेर लेता है
तो वह सोचता
है कि मैं
जानूं कि मैं
कौन हूं।
रहस्य
अंतर्मुखी बन
जाये; यात्रा,
खोज भीतर
चलने लगे, पदार्थ
की तरफ नहीं, स्व की तरफ
मेरी खोज उसुख
हो जायें; मेरा
संधान पहले
उसे जानने में
लग जाये कि
मैं कौन हूं—तो
विस्मय।
और, दूसरी बात
समझ लेनी
जरूरी है कि
विस्मय कभी
चुकता नही; जितना ही हम
जानते हैं, उतना ही
बढ़ता है।
इसलिए विस्मय
एक विरोधाभास
है; क्योंकि
जानने से
विस्मय नष्ट
होना चाहिए।
लेकिन, बुद्ध
या कृष्ण या
शिव या जीसस—उनका
विस्मय नष्ट
नहीं होता।
जिस दिन वे
परम ज्ञान को
उपलब्ध होते
हैं, उस
दिन उनका
विस्मय भी परम
होता है। उस
दिन वे ऐसा
नहीं कहते कि
हमने सब जान
लिया; उस
दिन वे ऐसा
कहते हैं कि
सब जानकर भी, सब जानने को
शेष रह गया।
उपनिषदों
ने कहा है कि
पूर्ण से
पूर्ण निकाल लिया
जाये, तो
भी पीछे पूर्ण
शेष रह जाता
है। सब जान
लिया जाए, तो
भी सब जानने
को शेष रह
जाता है।
इसलिए, धार्मिक
ज्ञान अहंकार
का जन्म नहीं
बनता; वैज्ञानिक
ज्ञान अहंकार
का जन्म बनेगा।
धार्मिक
ज्ञान में तुम
जाननेवाले
कभी भी न बनोगे;
तुम सदा
विनम्र रहोगे।
और, जितना
तुम जानते
जाओगे, उतनी
ही तुम्हें
प्रतीति होगी
कि मैं कुछ भी
नहीं जानता
हूं। परम
ज्ञान के क्षण
में तुम कह
सकोगे कि मेरा
कोई भी ज्ञान
नहीं। परम
ज्ञान के क्षण
में यह पूरा
अस्तित्व
विस्मय हो
जायेगा।
वितान
अगर सफल हो तो
सारा जगत
ज्ञात हो
जायेगा; धर्म अगर
सफल हो तो
सारा जगत
अज्ञात हो
जायेगा।
वितान अगर सफल
हो तो तुम, जाननेवाले,
अस्मिता से
भर जाओगे और
सारा जगत
साधारण हो जायेगा;
क्योंकि
जहां विस्मय
नहीं है, वहां
सब साधारण हो
जाता है; जहां
रहस्य नहीं
है, वहां
सारी आत्मा खो
जाती है; जहां
रहस्य का और
उपाय नहीं है,
वहां आगे की
यात्रा बंद हो
जाती है; जहां
जिज्ञासा
पूरी हो गयी, कुतूहल
समाप्त हो गया।
अगर विज्ञान
जीता तो जगत
में ऐसी ऊब
पैदा होगी, जैसी ऊब कभी
भी पैदा नहीं
हुई थी। इसलिए,
अगर पश्चिम
में लोग
ज्यादा ऊब से
भरे हैं, बोरडम
से भरे हैं, तो उसका
मौलिक कारण
विज्ञान है; क्योंकि
लोगों की
विस्मय—
क्षमता घटती
जा रही है।
लोग किसी भी
चीज से चकित
नहीं होते; चकित होना
ही भूल गये
हैं। अगर तुम
उनके सामने
कुछ ऐसा सवाल
भी रखो, जो
उलझानेवाला
है, तो भी
वे कहेंगे कि
सुलझ जायेगा।
क्योंकि
लोगों की
विस्मय—
क्षमता घटती
जा रही है।
लोग किसी भी
चीज से चकित
नहीं होते; चकित होना
ही भूल गये हैं।
अगर तुम उनके
सामने कुछ ऐसा
सवाल भी रखो, जो
उलझानेवाला
है, तो भी
वे कहेंगे कि
सुलझ जायेगा।
क्योंकि, मौलिक
रूप से ऐसी
कोई भी वस्तु
नहीं है, विज्ञान
की दृष्टि में,
जो अज्ञात
सदा के लिए रह
जाए हम पर्दे
उघाड़ ही लेंगे।
लेकिन, धर्म की
यात्रा बड़ी उलटी
है। जितने हम
पर्दे उघाडते
है, पाते
हैं कि रहस्य
उतना सघन होता
जाता है; जितने
हम करीब आते
हैं, उतना ही
पता चलता है
कि जानना बहुत
मुश्किल है।
और, जिस
दिन हम परमात्मा
के ठीक केंद्र
में प्रवेश कर
जाते हैं; उस
दिन सभी कुछ
रहस्यपूर्ण
हो जाता है।
बुद्ध के लिए
आकाश के तारे
ही
रहस्यपूर्ण
नहीं है, जमीन
पर पड़े कंकड—पत्थर
भी आश्चर्यपूर्ण
हो गये हैं; बुद्ध के
लिए यह विराट
ही रहस्यमय
नहीं है, क्षुद्र
से क्षुद्र
घटना भी
रहस्यपूर्ण
हो गयी है। एक
बीज का जमीन
से अंकुरित
होना भी उतना
ही रहस्यपूर्ण
है, जितना
इस पूरी सृष्टि
का जन्म।
तो, जैसे—जैसे
विस्मय घना
होगा, वैसे—वैसे
तुम्हारी आंखें
छोटे बच्चे की
तरह होती
जायेंगी; क्योंकि
छोटे बच्चे के
लिए सभी कुछ
विस्मय होता
है। छोटे
बच्चे को चलते
देखो। वह
रास्ते से जा
रहा है, हर
चीज उसे
चौंकाती है।
एक रंगीन
पत्थर उसे
कोहिनूर मालूम
होता है। तुम
हंसते हो, क्योंकि
तुम ज्ञाता हो;
तुम जानते
हो कि यह
रंगीन पत्थर
है। तुम कहते
हो—पागल मत हो,
यह कोहिनूर
नहीं है।
लेकिन छोटा
बच्चा उस
पत्थर को खीसे
में रखना चाहता
है। तुम कहोगे:
'वजन मत
ढोओ। और, गंदा
पत्थर है, कीचड़
में पड़ा है; फेंक इसे।’ लेकिन बच्चा
इसे पकड़ता है।
क्योंकि, तुम
बच्चे को नहीं
समझ पा रहे हो,
यह बच्चे के
लिए विस्मय है;
यह रंगीन
पत्थर किसी
कोहिनूर से कम
कीमती 'नहीं
है। कीमत
विस्मय की है,
पत्थरों की
थोड़ी ही कोई
कीमत होती है।
एक तितली भी
उसे इतना
सम्मोहित कर
लेती है, जितना
परमात्मा भी
तुम्हें मिल
जाए तो इतना
सम्मोहित
नहीं करेगा।
वह तितली के
पीछे दौड़ना
शुरू कर देता
है।
एक
छोटे बच्चे की
जैसी निर्मल
दशा है, ऐसे विस्मय
की परम स्थिति
में—बुद्धत्व
की स्थिति में—किसी
भी व्यक्ति की
हो जाती है।
इसलिए, जीसस
ने कहा है कि
जो छोटे
बच्चों की तरह
सरल होंगे, वे ही केवल
मेरे प्रभु के
राज्य में
प्रवेश कर
सकेंगे। जीसस
ने वही कहा है,
जो शिव
सूत्र में कह
रहे हैं.
विस्मय योग भूमिका:।
विस्मय योग का
प्रथम चरण है।
तब तो बहुत
बातें खयाल
में लेनी
जरूरी हैं।
तुम्हारे
पास जितना ज्ञान
होगा, उतनी
ही योग की भूमिका
मुश्किल हो
जायेगी।
तुम्हें
जितना दंभ
होगा कि मैं
जानता हूं उतना
ही तुम योगी न
हो पाओगे।
जितने
शास्त्र
तुम्हारे
चित्त पर भारी
होंगे, उतना
ही तुम्हारा
विस्मय नष्ट
हो गया। एक
पंडित को पूछो,
परमात्मा
के संबंध में,
तो वह ऐसे
उत्तर देता है,
जैसे
परमात्मा कोई
उत्तर देने की
बात हो; जैसे
कि कोई उत्तर
दिया जा सकता
हो। पंडित को
पूछो, उसके
पास उत्तर
रेडीमेड हैं।
तुमने पूछा भी
नहीं था, उसके
पास उत्तर
तैयार था।
परमात्मा भी
उसे अवाक नहीं
करता। उसके
पास सूत्र सब निश्चित
हैं, वह तो
तत्क्षण समझा
देता है।
लेकिन, बुद्ध के
पास जाओ, पूछो
परमात्मा के
संबंध में, बुद्ध चुप
रह जाते है।
शायद तुम यही
सोचकर लौट आओ
कि बहुत से
पंडित बुद्ध
के पास से यही
सोचकर लौट गये
कि यह आदमी चुप
रह गया! इसका
मतलब है, इसे
पता नहीं है।
और, यह
आदमी इसलिए
चुप रह गया कि
विस्मय तो
द्वार है। तुम
अगर थोड़े समझदार
होते तो तुम
रुक गये होते
इस आदमी के
पास, जिसने
उत्तर नहीं
दिया। और, तुमने
इस आदमी को
समझने की
कोशिश की होती;
इसकी आंखों
में झांका
होता; इसके
सत्संग में, इसकी
सन्निधि में
तुम रहे होते;
क्योंकि
इसे कुछ स्वाद
मिल गया है और
वह स्वाद इतना
बड़ा है कि
शब्द उसे कह
नहीं सकते और
इसे कोई ऐसा
दर्शन हुआ है,
जो उत्तर
नहीं बनाया जा
सकता।
प्रश्न
और उत्तर
स्कूली
बच्चों की
बातें हैं।
तुम्हारा प्रश्न
ही बेहूदा है।
परमात्मा के
संबंध में कोई
प्रश्न नहीं
पूछ सकता।
विराट के
संबंध में कोई
प्रश्न कैसे
पूछा जा सकता
है! विराट के
संबंध में तो प्रश्न—उत्तर
दोनों गिर
जाते हैं।
तुम्हारा प्रश्न
क्षुद्र है।
इसलिए, बुद्ध चुप
रह गये हैं।
लेकिन, तुम
शायद यह सोचकर
लौटोगे कि इस
आदमी को पता होता
तो जवाब देता।
इसने जवाब
नहीं दिया, इसे पता
नहीं है। तुम
पंडित को
पहचानते हो; क्योंकि
तुम्हारा सिर
भी शब्दों से
भरा है। तुम
ज्ञानी को न
पहचान पाओगे;
क्योंकि
ज्ञानी
विस्मय से भरा
है। और
तुम्हारा
विस्मय नष्ट
हो गया है।
जगत
में बड़ी—से—बड़ी
दुर्घटना है
और वह है कि
विस्मय का
नष्ट हो जाना।
जिस दिन
तुम्हारा
विस्मय नष्ट
होता है, उसी दिन
तुम्हारे
छुटकारे का उपाय
नष्ट हो गया।
जिस दिन
तुम्हारा
विस्मय नष्ट
हुआ, उसी
दिन तुम्हारा
बाल—हृदय मर
गया, जड़
हो गया, तुम
बूढ़े हो गये।
क्या अब भी
तुम चौकते हो?
क्या जीवन
तुम्हें प्रश्न
बनता है? क्या
चारों तरफ से
पक्षियों की
आवाजें, झरनों
का शोरगुल, हवाओं का
वृक्षों से
गुजरना, तुम्हारे
लिए किसी पुलक
से भर जाता है?
तुम
आह्लादित हो
जाते हो? तुम
जीवन को चारों
तरफ देखकर
अवाक होते हो?
नहीं; क्योंकि
तुम्हें सब यह
पता है कि यह
पक्षियों की
आवाज है, यह
शोरगुल है
हवाओं का
वृक्षों में—तुम्हारे
पास हर चीज के
उत्तर है।
उत्तरों ने
तुम्हें मार
डाला है। तुम
ज्ञान के पहले
ज्ञानी हो गये
हो।
विस्मय
योग भूमिका:।
जो व्यक्ति
योग में
प्रवेश करना
चाहे, विस्मय
उसके लिए
द्वार है।
अपने बचपन को
वापस लौटाओ।
फिर से पूछो, फिर से
कुतूहल करो, फिर से
जिज्ञासा
जगाओ—तो
तुम्हारे
भीतर जहां—जहां
जीवन के स्रोत
सूख गये हैं, फिर हरे हो
जायेंगे; जहां—जहां
पत्थर अड़ गये
है, वहां—वहां
वह झरना फिर
प्रगट हो
जायेगा। तुम
फिर से आंख
खोलो और चारों
तरफ देखो। सब
उत्तर झूठे
हैं। क्योंकि
सब तुम्हारे
उत्तर उधार
हैं। तुमने
खुद कुछ भी
नहीं जाना है।
लेकिन, तुम
उधार ज्ञान से
ऐसे भर गये हो
कि तुम्हें
प्रतीति होती
है कि मैंने
जान लिया।
विस्मय
को जगाओ।
तुम्हारे आसन, प्राणायाम
से कुछ भी न
होगा, जब
तक विस्मय न
जग जाए।
क्योंकि आसन,
प्राणायाम
सब शरीर के
हैं। ठीक है, शरीर—शुद्धि
होगी, शरीर
स्वस्थ होगा;
लेकिन शरीर
की शइद्ध और
शरीर का
स्वास्थ्य तुम्हें
कोई परमात्मा
से न मिला
देगा।
विस्मय
मन की शुद्धि
है। विस्मय का
अर्थ है—मन
सभी उत्तरों
से मुक्त हो
गया। विस्मय
का अर्थ है—तुमने
हटा दिया
उत्तरों का
कचरा; तुम्हारा
प्रश्न फिर
नया और ताजा
हो गया और
तुमने अपने अज्ञान
को समझा।
विस्मय
का अर्थ है—मुझे
पता नहीं; पांडित्य
का अर्थ है—मुझे
पता है। जितना
तुम्हें पता
है, उतने
ही तुम गलत हो।
जब तुम सरल
भाव से कहते
हो—मुझे कुछ
भी पता नहीं
है, सारा
जगत अज्ञान है।
जो भी मुझे
पता है वह भी
कामचलाऊ है; मैंने अभी
कुछ भी नहीं
जाना है—ऐसी
प्रतीति जैसे
ही तुम्हारे
हृदय में जितनी
गहरी बैठ
जायेगी, तुमने
योग का पहला
कदम उठाया।
फिर दूसरे कदम
आसान हैं।
लेकिन अगर
पहला कदम ही
चूक जाये, तो
फिर तुम कितनी
ही यात्रा करो,
उससे कुछ हल
नहीं होता।
क्योंकि, जिसका
पहला कदम गलत
पड़ा वह मंजिल
पर नहीं पहुंच
सकेगा। पहला
कदम जिसका सही
है, उसकी
आधी यात्रा
पूरी हो गयी।
और, विस्मय
पहला कदम है।
थोड़ा
गौर से देखो।
तुम्हारे पास ज्ञान
है? तुम
भी थोड़े गौर
से देखोगे तो
तुम समझ लोगे
कि ज्ञान नहीं
है; सब
कचरा है, इकट्ठा
कर लिया है—शाख
से, गुरुओं
से, संतों
से और उसे तुम
बहुमूल्य
थाती की तरह
संजोये बैठे
हो। उसने
तुम्हें कुछ
भी नहीं दिया,
सिर्फ
तुम्हारे
विस्मय की
हत्या कर दी।
तुम्हारा
विस्मय तड़प
रहा है, मरा
हुआ पडा है; अब तुम
चौकते नहीं।
अब तुम्हें
कोई भी चीज
चौंकाती नहीं।
एक
ईसाई फकीर हुआ—इकहार्ट।
उसने एक बड़ी
अनूठी बात कही
है। उसने कहा
है: संत वही है, जिसे हर
चीज चौका दे; हर चीज, छोटी—छोटी
घटनायें जिसे
चौका देती हैं।
पानी में
पत्थर गिरता
है, आवाज
होती है, लहरें
उठता हैं—संत
को चौका देती
हैं। यह इतना
विस्मयपूर्ण
है, इतना
रहस्यपूर्ण
है। संत श्वास
लेता है, जीता
है—यह भी काफी
चौकानेवाला
है।
इकहार्ट
रोज सुबह की प्रार्थना
में परमात्मा
को कहता था, 'आज फिर
सुबह हुई। आज
फिर सूरज उगा।
तेरी लीला
अपार है। न
उगता तो क्या
करते? क्या
उपाय था? आदमी
बेबस है।’
इकहार्ट
कहता था, ' आज सांस आती
है, कल न आए,
क्या
करूंगा?'
तुम
सांस ले तो न
सकोगे। सांस
तुम्हारे बस
में तो नहीं
है। इतने पास
है श्वास, फिर भी
तुम उसके
मालिक नहीं हो।
गयी बाहर और न
लौटी, तो
नहीं लौटोगी।
इतने पास जो
है, उसके
भी हम ज्ञाता
और मालिक नहीं
हैं। और, खयाल
हमें यह है कि
हम सब कुछ
जानते है।
तुम्हारे सब
जानने ने ही
तुम्हें मारा
है। इस कचरे
को हटा दो और
हलके हो जाओ। तत्क्षण,
तुम्हारी आंखें
जब ज्ञान से न
भरी होंगी, तब रहस्य से
भर जायेंगी।
उस रहस्य की
अंतर्यात्रा
का नाम विस्मय
है, बहिर्यात्रा
का नाम आश्चर्य
है।
अगर उस
रहस्य को
तुमने
पदार्थों पर
लगा दिया, तो तुम एक
वैज्ञानिक हो
जाओगे। अगर उस
रहस्य को
तुमने स्वयं
की सत्ता पर
लगा दिया तो
तुम एक
महायोगी हो
जाओगे। और, दोनों के
परिणाम भिन्न
होंगे।
क्योंकि, आश्चर्य
हिंसात्मक है;
विस्मय
अहिंसात्मक
है। आश्चर्य
जिस तरफ लग
जाता है, उसे
तोड्ने लगता
है, विश्लेषण
करता है; क्योंकि
आश्चर्य में
एक बेचैनी है,
विस्मय में
एक रस है।
इस
फर्क को भी
ठीक से समझ लो।
शब्दकोश में
वह नहीं लिखा
हुआ है, लिखा भी
नहीं जा सकता;
क्योंकि
शब्दकोश
बनानेवाले को
कोई विस्मय पता
भी नहीं है।
आश्चर्य
हिंसात्मक है, आक्रमक
है। तुम जिस
चीज के प्रति आश्चर्य
से भरते हो, एक तनाव
पैदा हो जाता
है। उस तनाव
को हल करना ही
पड़ेगा। जब तक
वह जिज्ञासा
पूरी न हो
जायेगी; जब
तक तुम जान न
लोगे, तब
तक एक बेचैनी
तुम्हारे सिर
पर सवार रहेगी।
वह जो
वैज्ञानिक
अपनी
प्रयोगशाला
में लगा रहता
है, अट्ठारह—अट्ठारह
घंटे, वह
किस लिए लगा
है? एक
बेचैनी है; जैसे एक भूत
प्रेत ने उसे
पकड़ लिया है। और,
जब तक वह
उसको हल न कर
लेगा, तब
तक वह लगा ही
रहेगा।
लेकिन, विस्मय
आक्रमक नहीं
है और विस्मय
एक बेचैनी नहीं
है; बल्कि
विस्मय एक
विश्राम है।
जब कोई
व्यक्ति
विस्मय से
भरता है तो
एकदम विश्राम
से भर जाता है।
विस्मय को
मिटाना नहीं
है, विस्मय
को पीना है
विस्मय का
स्वाद लेना है।
विस्मय में
लीन हो जाना
है, एक हो
जाना है। आश्चर्य
मिटाने में लग
जाता है; विस्मय
जीने में लग
जाता है।
विस्मय जीवन
की एक शैली है;
आश्चर्य
मनुष्य का एक
हिंसात्मक
रूप है।
इसलिए
विज्ञान विजय
की भाषा में
सोचता है—तोड़ो, फोड़ो, जीतो।
धर्म समर्पण
की भाषा में
सोचता है—अपने
को खो दो। जब
तुम्हारे
भीतर विस्मय
का प्रवेश
होगा, तो
विस्मय
तुममें इस तरह
लीन हो जायेगा,
जैसे तुम ने
नमक की डली
पानी में डाल
दी और सारा
पानी खारा हो
जाये। जिस दिन
तुम विस्मय से
भरोगे उस दिन
तुम विस्मय से
खारे हो जाओगे।
रोआं—रोआं
विस्मय से भर
जायेगा।
उठोगे तो
विस्मय, बैठोगे
तो विस्मय।
तुम सदा चौंके
रहोगे। हर चीज
रहस्यपूर्ण
हो जायेगी।
खतम भी विराट
का हिस्सा हो
जायेगा।
क्योंकि जब छ
में भी विस्मय
जुड़ जाता है, तो छ भी
विराट हो जाता
है। तब जाना
हुआ कुछ भी
नहीं है, सभी
तरफ रहस्य
तुम्हें घेरे
हुए है। तब
प्रतिपल नया
हो रहा है और
प्रतिपल
निमंत्रण दे
रहा है।
विस्मय एक
आमंत्रण है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
चुनाव में खड़ा
हो गया था, तो मत
मांगने घर—घर
गया। गांव में
जो चर्च का
पादरी था, उसके
द्वार पर भी
गया। जब मत
मांगने गया था,
तब भी उसके
मुंह से शराब
की बास आ रही
थी। पादरी भला
आदमी था। सीधे—सीधे
कहना
अशिष्टता
होगी। तो, उसने
नसरुद्दीन से
कहा, 'मुझे
तुमसे एक बात
पूछनी है। अगर
संतोषजनक
उत्तर दिया तो
मेरा मत, मेरा
वोट तुम्हारे
लिए है। क्या
तुम कभी शराब
पीते हो?' पूछने
का इसमें कुछ
भी नहीं था, शराब वह
पिये ही हुये
था।
नसरुद्दीन
चौका और उसने
कहा कि इसके
पहले मैं जवाब
दूं एक सवाल
मुझे भी पूछना
है, 'यह
जांच—पड़ताल है
या आमंत्रण? इज दिस ऐन
इंक्वायरी आर
ऐन इन्वीटेशन?'
आश्चर्य
जांच—पड़ताल है; विस्मय
आमंत्रण है।
विस्मय एक
भीतरी बुलावा
है। और, जैसे—जैसे
तुम भीतर
प्रवेश करते
हो, वैसे—वैसे
डूबते चले
जाते हो। एक
दिन ऐसा आयेगा
कि तुम न
बचोगे और
विस्मय ही बचेगा।
उस दिन परम
ज्ञान घट गया।
अगर तुमने आश्चर्य
किया तो एक
दिन ऐसा आयेगा
कि तुम ही
बचोगे और आश्चर्य
न बचेगा। यह
विज्ञान की
निष्पत्ति है।
अहंकार बचेगा
और आश्चर्य
नष्ट हो
जायेगा। अगर
विस्मय की
यात्रा पर गये
तो तुम नष्ट
हो जाओगे, विस्मय
बचेगा; रोआं—रोआं
उसी स्वाद से
भर जाएगा।
तुम्हारा
होना ही
विस्मयपूर्ण
होगा। इसे शिव
ने भूमिका कहा
है योग की।
ज्ञान
को हटाओ।
विस्मय से भरो।
और अब कठिन
लगेगा, शुरू में, क्योंकि
तुम्हें खयाल
है कि तुम सब
जानते हो।
डी.एच.
लारेंस, एक बड़ा
विचारक—कीमती,
मूल्यवान
विचारक—हुआ।
एक छोटे बच्चे
के साथ बगीचे
में घूम रहा
था। उस छोटे
बच्चे ने पूछा,
‘‘व्हाई दि
ट्रीज आर मीन?
वृक्ष हरे
क्यों है?''
छोटे
बच्चे ही ऐसे
सवाल पूछ सकते
हैं—इतने ताजे
सवाल। तुम तो
यह सवाल ही
नहीं सोच सकते।
तुम कहोगे कि
वृक्ष हरे, हरे है, इसमें पूछना
क्या है! यह
कोई सवाल है!
यह बच्चा छू
है। लेकिन तुम
फिर से सोचो
कि वृक्ष हरे
क्यों है।
तुम्हें सच
में उत्तर पता
है? शायद
तुम में कोई
विज्ञान का
विद्यार्थी
हो तो वह
कहेगा—क्लोरोफिल
के कारण। मगर
इससे कोई
बच्चे के प्रश्न
का हल तो नहीं
होता। बच्चा
पूछेगा कि
वृक्ष में
क्लोरोफिल
क्यों है? आखिर
क्लोरोफिल को
वृक्ष में
होने की क्या
जरूरत है? और,
आदमी में
क्यों नहीं है?
और, क्लोरोफिल
कैसे वृक्षों
को खोजता रहता
है? 'क्यों'
का कोई सवाल
क्लोरोफिल से
हल नहीं होता।
विज्ञान
जो भी जवाब
देता है, सब ऐसे ही
हैं। उससे प्रश्न
सिर्फ एक सीढ़ी
पीछे हट जाता
है, बस।
अगर तुम जरा
समझदार हो तो प्रश्न
फिर उठा सकते
हो। विज्ञान
के पास 'क्यों'
का कोई
उत्तर नहीं है।
इसलिए
विज्ञान
विस्मय को
नष्ट नहीं कर
सकता, सिर्फ
भ्रम पैदा
करता है नष्ट
करने का।
लेकिन
डी.एच लारेंस
कोई
वैज्ञानिक
नहीं था; कवि था, एक
उपन्यासकार
था। उसके पास
संचेतना थी।
सौंदर्य की।
वह खड़ा हो गया।
वह सोचने लगा।
उसने बच्चे से
कहा कि मौका
दो; क्योंकि
मुझे खुद ही
पता नहीं
तुम्हारे
बच्चे ने भी
तुमसे कई बार
ऐसे सवाल किये
होंगे। तुमने
कभी कहा कि
मुझे पता नहीं
है। उससे
अहंकार को चोट
लगेगी। हर बाप
सोचता है कि
उसे पता है।
बच्चा पूछता
है, बाप
जवाब देता है।
इन्हीं
जवाबों के
कारण बाप
प्रतिष्ठा
खोता है बाद
में; क्योंकि
बच्चे को एक—न—एक
दिन पता चल
जाता है कि
पता तुम्हें
कुछ भी न था।
तुम नाहक ही
जवाब देते रहे।
जैसा अज्ञानी
मैं हूं वैसे
ही तुम हो।
तुम्हारी
उम्र ज्यादा
थी, तुम्हारा
अज्ञान जरा
पुराना था। बस,
इतनी ही बात
थी। लेकिन
छोटे बच्चे को
तुम जवाब दे
देते हो। छोटा
बच्चा भरोसा
करता है। वह
मान लेता है
कि ठीक है, होगा।
कितने दिन तक
मानेगा?
डी.एच.
लारेंस खड़ा हो
गया। उसने कहा
कि मैं
सोचूंगा और
अगर तुम
ज्यादा ही जिद
करो तो मैं
इतना ही कह
सकता हूं कि
वृक्ष हरे हैं, क्योंकि
हरे हैं।
इसमें कोई और
उत्तर नहीं है।
मैं खुद ही
इसी रहस्य से
भरा हुआ हूं।
अगर
तुम आंख से
थोड़े ज्ञान का
पर्दा थोड़ा
हटाओगे तो तुम
पाओगे कि
चारों तरफ
रहस्य खड़ा हुआ
है। हरे वृक्ष
हरे है, यह भी
रहस्यपूर्ण
है। वृक्षों
में लाल फूल
लग रहे हैं, यह भी
रहस्यपूर्ण
है। एक छोटे—से
बीज में इतने—इतने
विराटकाय
वृक्ष छिपे
हैं, यह भी
रहस्यपूर्ण
है। एक बीज को
तुम संभाल कर
रखे रहो, सैंकडों—हजारों
सालों के बाद
बोओ, वृक्ष
प्रगट हो जाता
है। जीवन
शाश्वत मालूम
होता है। हर
घड़ी रहस्य से
भरी है। पर, तुमने जैसे
अपनी आंखें
बंद कर ली हैं।
तुम निश्चित
हो गये हो। निश्चितता
तुम्हारी
जड़ता है।
तुम
झिझकते भी
नहीं। इसमें
कुछ कारण हैं।
क्योंकि इससे
अहंकार को
आश्वासन मिला
रहता है कि
मैं जानता हूं।
मैं जानता हूं
तो एक सुरक्षा
बनी है। मैं
नहीं जानता तो
सब सुरक्षा खो
जाती है। पता
तुम्हें कुछ
भी नहीं है।
लेकिन यह बात
पीड़ा देती है
मुझे कुछ भी
पता नहीं है।
इसलिए तुम कुछ
भी पकड़ लेते
हो। तिनके को पकड़
लेता है डूबता
हुआ आदमी, तिनके के
सहारे ले लेता
है। यह तुम जो
पक्के हो, यह
तिनका भी नहीं
है। तिनके से
शायद कभी कोई
बच भी जाए, पर
तुमने जो
पक्का है, वह
तिनका भी नहीं;
वह तो सिर्फ
सपना है, सिर्फ
कोरे शब्द हैं।
एक
आदमी पका
मानकर बैठा है
कि उसे ईश्वर
का पता है। यह
बात ही बेहूदी
है कि कोई
आदमी कहे कि
मुझे पका पता
है।’पके'
का मतलब
होता है कि
तुम ईश्वर के
रहस्य को भी खोज
लिये।’पके'
का अर्थ
होता है कि
तुम उसके भी
आर—पार गुजर
गये, उसे
भी नाप—जोख
लिया।’पके'
का अर्थ
होता है कि वह
भी माप लिया
गया। तुमने
तोल लिया
तराजू पर, जांच—पड़ताल
कर ली
प्रयोगशाला
में। पके का
क्या अर्थ
होता है?
एक
दूसरा आदमी है, जिसको
पका पता है कि
ईश्वर नहीं है।
ये दोनों मूढ़
हैं और दोनों
की बीमारी एक
है। एक अपने
को आस्तिक
कहता है, एक
नास्तिक; और
दोनों में जरा
भी फर्क नहीं
है। गहरे में
दोनों की
बीमारी एक है।
दोनों मानते
है कि हमें
पता है और
दोनों में विवाद
खड़ा होता है।
ज्ञान
से विवाद पैदा
होता है; विस्मय से
संवाद होता है।
जब तुम विस्मय
से भरोगे तो
तुम्हारे
जीवन में एक
संवाद आयेगा।
महावीर के पास
कोई जाता और
कहता: 'ईश्वर
है?' तो वे
कहते: 'है।’
कोई
नास्तिक जाता
और कहता कि
ईश्वर नहीं है
तो वे कहते कि
नहीं है। कोई
दोनों को न
माननेवाला
अज्ञेयवादी
(ऐग्रास्टिक)
पहुंच जाता, तो महावीर
उससे कहते कि
है भी और नहीं
भी।
बड़ी
कठिन बात हो
गयी। क्योंकि
हम चाहेंगे—उत्तर
साफ दो, सीधे दो; चाहे
गलत हों, लेकिन
साफ चाहिए। और
ध्यान रखें, यह जगत इतना
जटिल है कि
यहां साफ
उत्तर गलत ही होंगे।
यहां जो उत्तर
विरोधाभासी
नहीं है, वह
गलत होगा।
यहां जो उत्तर
अपने से
विपरीत को भी
समा लेता है, वही सही होगा;
क्योंकि
जगत अपने से
विपरीत को
समाये हुए है।
यहां
जन्म भी है और
मृत्यु भी है।
यहां साफ—सुथरा
रास्ता नहीं
है। यहां
अंधेरा भी है
और प्रकाश भी
है। यहां शुभ
भी है और अशुभ
भी है। यहां
दोनों साथ—साथ
जी रहे हैं।
यहां पापी और
पुण्यात्मा
अलग—अलग नहीं
हैं, दोनों
साथ जी रहे है।
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू है।
परमात्मा
दोनों को अपने
में समाये हुए
है। अस्तित्व
बड़ा है। कोई
तर्क की कसौटी
पर कटा हुआ
नहीं है, अतर्क्य
है। वहां
दोनों एक—दूसरे
में मिले हुए
हैं।
ऐसा
हुआ कि
जुन्नैद ने एक
रात
प्रार्थना की
परमात्मा से
कि मैं जानना चाहता
हूं कि इस
गांव में ऐसा
कोई आदमी है, जो
महापापी हो; क्योंकि
उसको देखकर, उसको समझकर
में पाप से
बचने की कोशिश
करूंगा। मेरे
पास मापदंड हो
जायेगा कि यह
महापापी है, इस जीवन से
बचना है। आवाज
आयी कि तेरा
पडोसी। हैरान
हुआ जुन्नैद।
उसने कभी सोचा
भी न था कि उसका
पड़ोसी और
महापापी!
साधारण आदमी
था, काम—
धंधा करता था,
दुकान
चलाता था; 'महापापी'
का तो उसने
सोचा भी न था।
उसका तो खयाल
था कि महापापी
होगा कोई रावण,
महापापी
कोई होगा कोई
दुष्ट, शैतान।
यह आदमी दुकान
चलाता है, बाल—बच्चे
पालता है। बड़ी
उलझन में पड़
गया। यह तो साधारण
आदमी था। इसको
तो महापापी
कोई भी न
कहेगा।
दूसरी
रात, उसने
फिर
प्रार्थना की
कि ठीक; तू
जो कहे, ठीक;
अब मुझे एक
और मापदंड
चाहिए कि इस
गांव में जो सबसे
बड़ा महात्मा
हो, पुण्यात्मा
हो, उसकी
मुझे खबर दे।
परमात्मा ने
कहा कि वही
आदमी, वह
जो तेरे पड़ोस
में है।
जुन्नैद ने
कहा, 'तू
मुझे मुश्किल
में डाल रहा
है, मै
वैसे ही काफी
मुश्किल में
हूं। दिनभर उस
आदमी को देखता
रहा, ऐसा
कुछ महापाप
नहीं देखा। अब
और झंझट खड़ी
हो गयी कि
पुण्यात्मा
भी वही है।’
तो
आवाज आयी कि
मेरी दुनिया
में दोनों
जुड़े है।
सिर्फ, बुद्धि
तोड़कर चीजों
को देखती है।
यहां बड़े—से—बड़े
संत के पीछे
भी छाया पड़ती
है। यहां बड़े—से—बड़े
पापी के चेहरे
पर भी रोशनी
है। इसलिए तो
यह संभव होता
है कि पापी
चाहे तो संत. हो
जाये, संत
चाहे तो पापी
हो जाये। इतनी
आसानी से
बदलाहट
इसीलिए तो
संभव है कि दोनों
छिपे है एक
में ही।
अंधेरा
और उजाला अलग—अलग
नहीं है; रात और दिन
जुड़े है। तर्क
तोड़ता है और
साफ रास्ते
बनाता है।
तर्क ऐसे है
जैसे तुमने एक
छोटा—सा बगीचा
बना लिया हो
साफ—सुथरा, कटा—पिटा।
जीवन जंगल की
तरह है। वहां
कुछ साफ—सुथरा
नहीं है। वहां
सब चीजें एक
दूसरे से उलझी
है।
जो
जीवन को समझने
चला है, उसे साफ कटे—कटाय
उत्तरों से
बचने की
क्षमता चाहिए।
उनको पकड़ लेने
में सुरक्षा
है; क्योंकि
तुम्हें
आश्वासन हो
जाता है कि
ठीक मुझे पता
है। जैसे ही
तुम्हें लगता
है कि मुझे
पता है, तुम्हारी
हिम्मत आ जाती
है, जिंदगी
में चलने में
भरोसा आ जाता
है। इसलिए, तुम डरते हो
ज्ञान छोड़ने
से। इसलिए बड़ी
पीड़ा होती है।
तुमसे कोई धन
छीन ले, इतनी
मुसीबत नहीं,
फिर कमा
लेंगे। और धन
तो मिट्टी थी—तुम
जानते ही थे।
तुमसे कोई पद
छीन ले, कोई
बड़ी चिंता की
बात नहीं; तुम
खुद भी त्याग
सकते हो।
लेकिन ज्ञान......!
इधर
मैं देखता हूं
एक अनूठी घटना
घटती है। एक
आदमी समाज छोड़
देता है, गांव छोड़
देता है, घर
छोड़ देता है, पली—परिवार
छोड़ देता है; लेकिन अगर
वह जैन था तो
हिमालय पर भी
जैन रहता है; हिंदू था तो
हिंदू रहता है;
मुसलमान था
तो मुसलमान
रहता है। जिस
समाज को यह
छोड्कर भाग
आया, उसी
ने यह मुसलमान
होना दिया था;
उसी ने यह
ज्ञान दिया था
कि तुम
मुसलमान हो; यह कुरान
सच्ची किताब
है, सब
किताबें बाकी
गलत हैं। सबको
छोड़ आया, लेकिन
ज्ञान को
बचाकर आ जाता
है हिमालय पर
भी। कुछ भी
नहीं बदला, इस आदमी की
जिंदगी में; क्योंकि
ज्ञान का
भरोसा इसे
यहां भी है।
ज्ञान
तुम छोड़ दो, तो जहां
तुम खड़े हो, वहीं हिमालय
आ जाएगा।
हिमालय का
अर्थ ही इतना
है कि जहां सब
रहस्यपूर्ण
है; जहां
उतुंग शिखर
हैं, जिन्हें
तुम छू न
सकोगे और जहां
अनंत खाइयां हैं,
जिनमें तुम
उतर न सकोगे; जो हमारे
सभी पैमानों
से बड़ा है।
विस्मय
का अर्थ है:
जहां
तुम्हारी बुद्धि
व्यर्थ हो
जाती है; जहां
तुम्हारा
अहंकार
असमर्थ हो
जाता है; जहां
तुम एकदम
असहाय हो जाते
हो; तुम रो
सकते हो वहां,
हंस सकते हो
वहां, लेकिन
बोल नहीं सकते।
कहा
जाता है कि
मूसा जब सिनाई
के पर्वत पर
गये तो रोये
भी, हंसे
भी, पर
बोले नहीं।
पीछे जब लौटकर
उनके शिष्यों
ने पूछा कि यह
क्या हुआ, परमात्मा
सामने मौजूद
था और
परमात्मा ने
खुद कहा, 'मोजिज!
जूते बाहर
उतारकर आ; क्योंकि
यह पवित्र भूमि
है। यहां मैं
मौजूद हूं।’ तो तुमने
जूते उतारे।
तुम रोये भी, हंसे भी, तुम
बोले, क्यों
नहीं? यह
मौका क्यों छोड़
दिया? जो
भी पूछने जैसा
था, पूछ
लेना था। एक
कुंजी तो मांग
लेनी थी, जिससे
सभी ताले खुल
जाते हैं।
मोजिज
ने कहा, 'जब वह सामने
था, तब
बुद्धि खो गयी;
तब हृदय ही
बचा। खुशी में
रोया भी, खुशी
में हंसा भी।’
और, यह मजा है
जिंदगी का कि
खुशी में तुम
रो भी सकते हो,
खुशी में
तुम हंस भी
सकते हो।
इसलिए यह मत
सोचना कि जो
रोता है, वह
दुख में ही
रोता है—वह
तर्क का हिसाब
है। जिंदगी
तर्क को मानती
नहीं, सब
तर्क की
सीमाओं को
तोड़कर जिंदगी
की नदी बाढ़ की
तरह बहती है।
आदमी खुशी में
भी रो सकता है।
तब उसके आंसुओ
का गुणधर्म
बदल जाता है।
तब उसके आंसुओ
में आनंद की
झलक होती है।
हंस भी सकता
है। ये विपरीत
एक को ही
प्रगट
करनेवाले बन
सकते है। यही
जीवन का रहस्य
है।
तो
मोजिज ने कहा, 'हृदय ही
बचा, मेरी
तो बुद्धि खो
गयी। जहां
मैंने जूते
छोड़े, लगता
है, वहीं
संस्कार भी
छूट गया।’ और
मंदिर के बाहर
जूते ही मत
छोड़ना, सिर
भी वहीं रख
आना। जूतों के
साथ जो सिर को
रख आयेगा, मंदिर
के बाहर, वही
मंदिर में
प्रविष्ट
होता है। और, जूते और सिर
का बड़ा जोड है।
इसलिए जिससे
कभी तुम
गुस्से मे आ
जाते हो तो तुम
जूते उसके सिर
पर मारते हो।
साधु अपना ही
जूता अपने सिर
में मार लेता
है।
ये दो
छोर है। ये दो
अतियां है। एक
तरफ जूते है, एक तरफ
सिर है, दोनों
के मध्य में
तुम हो। और वह
जो मध्यबिंदु
है तुम्हारा,
वहां सभी
विपरीत मिल
रहे हैं। वहां
तुम्हारे पैर
और वहां
तुम्हारा सिर
मिल रहा है—वही
हृदय
जो
मोजिज ने कहा, 'रोया, हंसा; क्योंकि
विस्मय से भर
गया, अवाक
रह गया।’ मोजिज
ने कहा है कि
अब सो न
सकूंगा; अब
जो देखा है, उसे अनदेखा
न कर सकूंगा; अब जो हो गया,
अब उसका
मिटना नहीं हो
सकता।
वह जो
मोजेज पहले था, अब बचा
नहीं। अब मैं
दूसरा ही आदमी
हूं।
यह एक
नया जन्म है।
इसको हिंदू 'द्विज' कहते है——जब
कोई आदमी का
ऐसा दूसरा
जन्म हो जाये।
सभी ब्राह्मण
द्विज नहीं
हैं। कभी—कभी
कोई ब्राह्मण
द्विज हो पाता
है। द्विज का
मतलब है—दुबारा
जिसका जन्म हो
द्विज शब्द का
मतलब जनेऊ पहन
लेने से नहीं
है। द्विज का
मतलब है
दुबारा जिसका
जन्म हो।
मोजिज ने कहा
है कि अब मैं द्विज
हूं
ट्वाइसबार्न
हूं। अब मैं
दूसरा आदमी
हूं; वह
आदमी मर गया।
विस्मय
से अगर तुम
गुजरोगे तो
तुम्हारा
पुराना मर
जाएगा और नये
का जन्म होगा।
और अगर तुम
विस्मय में
ठहर गये, तो प्रतिपल
नया जन्मता है
और पुराना
नष्ट होता है;
प्रतिपल
पुराना जाता
है और नया आता
है। और
तुम्हारी
धारा शाश्वत
है। फिर तुम
कभी जरा—जीर्ण
न होओगे फिर
तुम्हें
शाश्वत जीवन
की स्कुरणा
मिल गयी।
इसलिए, शिव
कहते हैं; विस्मय
योग की भूमिका
है। दूसरा
सूत्र है.
रूपदम् शक्ति—स्व
में स्थिति
शक्ति है।
विस्मय भूमिका
है। विस्मय का
अर्थ है. भीतर
की तरफ यात्रा;
मैं कौन हूं—इस
प्रश्न की
अंतखोंज।
बाहर गये—आश्चर्य;
बाहर गये—तर्क;
बाहर गये—वितान।
भीतर आये—विस्मय,
ध्यान, प्रार्थना;
सारी विधि
बदल जाती है।
विस्मय
तुम्हें भीतर
लाएगा।
क्योंकि जब
सारा जगत रहस्यपूर्ण
मालूम पड़ेगा,
तब एक ही प्रश्न
महत्वपूर्ण
रह जाएगा कि
मैं कौन हूं।
यह विस्मय का
मौलिक आधार है
कि 'मैं
कौन हूं,।
जब तक मैं इस 'मैं' को
ही न जान लूं
तब तक मैं
जिसे जानने
चला हूं वह
यात्रा हो
नहीं सकती।
कैसे मैं
जानूंगा इन
वृक्षों को, कैसे
जानूंगा मैं
तुम्हें, कैसे
जानूंगा 'पर'
को, जब
मैं ही अभी
अज्ञात और
अज्ञान में
हूं; जब
मुझे मेरा ही
पता नहीं।
इसलिए, 'मैं कौन
हूं —यह
महामंत्र है।
और जल्दी
उत्तर मत देना;
क्योंकि
तुम्हारे पास
उत्तर तैयार
है। तो 'मैं
कौन हूं—तुम
भीतर से कहते
हो, मैं
आत्मा हूं। यह
उत्तर काम न
आयेगा। यह तो
तुम्हें पता
ही है। इससे
तुम्हारी
जिंदगी बदली
नहीं। ज्ञान
आग है; वह
तुम्हें जला
देगा। —जब तुम
कहते हो— 'मैं
कौन हूं, और
भीतर से आवाज
आती है, वह
भीतर की आवाज
नहीं है। वह
तुम्हारा सिर
बोल रहा है; सिर में
छिपे शाख बोल
रहे हैं; स्मृति
बोल रही है।
जब तुम कहते
हो कि मैं
आत्मा हूं तो
यह दो कौड़ी का
है; इसका
कोई मूल्य
नहीं है।
क्योंकि इससे
तुम बदले नहीं;
यह आग नहीं
है, यह राख
है। इसमें कभी
अंगारा रहा
होगा—किसी ऋषि
को इसमें
अंगारा रहा
होगा—तुम्हारे
लिए तो यह
सिर्फ राख है।
जिसके लिये
अंगारा रहा, वह तो खो गया
इस जगत से, अब
तुम सिर्फ राख
को ढो रहे हो।
'मैं कौन हूं,
—इसको तुम
पूछते जाना और
उधार उत्तर मत
देना। जब भी
उधार उत्तर
आये, कहना
कि यह मेरा
उत्तर नहीं, मैंने जाना
नहीं, मेरा
कैसे हो सकता
है!
जो मैं जानता
हूं वही केवल
मेरा हो सकता
है। जो तुम
उपलब्ध करोगे
अपने श्रम से, वही केवल
तुम्हारी
संपदा है।
ज्ञान में
चोरी नहीं चल
सकती और न
ज्ञान में भिखमंगापन
चलता है। न
तुम भीख मांग
सकते हो, न
तुम चोरी कर
सकते हो। यहां
डकैती नहीं चल
सकती। हां तो
तुम्हें स्व—श्रम
से ही स्वयं
को निर्मित
करना होगा।
दूसरा
सूत्र है स्व
में स्थिति
शक्ति है।
जैसे ही
विस्मय पैदा
हो, भीतर
की तरफ चलना, डूबना और
स्व में स्थित
हो जाने की
चेष्टा करना।
क्योंकि जब
तुम पूछते हो— 'मैं कौन हूं,
तो कब
तुम्हें
उत्तर मिलेगा।
अगर इसका
उत्तर
तुम्हें
चाहिए तो भीतर
स्व में ठहरना
पड़ेगा। उसको
ही हमने
स्वास्थ्य
कहा है—स्वयं
में ठहर जाना।
और, जब कोई
व्यक्ति
स्वयं में ठहर
जायेगा, तभी
तो देख पाएगा;
दौड़ते हुए
तुम कैसे देख
पाओगे?
तुम्हारी
हालत ऐसी है
कि तुम एक तेज
रफ्तार की कार
में जा रहे हो।
एक फूल
तुम्हें खिड़की
से दिखायी
पड़ता है। तुम
पूछ भी नहीं
पाते कि यह
क्या है कि
तुम आगे निकल
गये।
तुम्हारी
रफ्तार तेज है
और वासना से
तेज रफ्तार दुनिया
में किसी और
यान की नहीं।
चांद पर
पहुंचना हो, राकेट भी
वक्त लेता है;
तुम्हारी
वासना को इतना
भी वक्त नहीं
लगता, इसी
क्षण तुम
पहुंच जाते हो।
वासना तेज से
तेज गति है।
और, जो
वासना से भरा
है, उसका
अर्थ है कि वह
गहरा हुआ नहीं
है; भाग
रहा है, दौड़
रहा है। और, तुम इतनी
दौड़ में हो कि
तुम पूछो भी
कि 'मैं
कौन हूं,, तो
उत्तर कैसे
आयेगा?
यह दौड़
छोड़नी होगी।
स्व में स्थित
होना होगा।
थोड़ी देर के
लिए सारी
वासना, सारी दौड़, सारी यात्रा
बंद कर देनी
होगी। लेकिन,
एक वासना
समाप्त नहीं
हो पाती कि
तुम पच्चीस को
जन्म दे लेते
हो; एक
यात्रा पूरी
नहीं हो पाती
कि पच्चीस नये
रास्ते खुल
जाते हैं और
तुम फिर दौड़ने
लगते हो।
तुम्हें
बैठना आता ही
नहीं। तुम
रुके ही नहीं
हो जन्मों से।
मैंने
सुना है कि एक
सम्राट ने एक
बहुत बुद्धिमान
आदमी को वजीर
रखा। लेकिन
वजीर बेईमान
था और उसने
जल्दी ही
साम्राज्य के
खजाने से
लाखों—करोड़ों
रुपये उड़ा
दिये। जिस दिन
सम्राट को पता
चला, उसने
वजीर को
बुलाया और
उसने कहा कि
मुझे कहना
नहीं है। जो
तुमने किया है,
वह ठीक नहीं
और ज्यादा मैं
कुछ कहूंगा
नहीं। तुमने
भरोसे को तोड़ा
है। बस, इतना
ही कहता हूं
कि अब तुम
मुंह मुझे मत
दिखाओ। इस
राज्य को
छोड्कर चले
जाओ। और, व्यर्थ
की बातचीत
इसमें न फैले,
इसलिए किसी
को भी इस
संबंध में कुछ
न कहूंगा।
तुम्हें भी
कोई किसी से
कुछ कहने की
जरूरत नहीं।
वजीर
ने कहा, 'सुनें; कहेंगे,
चला जाऊंगा।
यह पकी है बात
कि मैंने
करोड़ों रुपये
चुराये हैं।
लेकिन, फिर
भी एक सलाह
वजीर होने के
नाते मैं आपको
देता हूं। और
वह यह कि अब
मेरे पास सब
कुछ है। बड़ा
महल है, पहाड़
पर बंगले हैं,
समुद्र के
किनारे बंगले
है—सब कुछ
मेरे पास है।
पीढियो—दर—पीढियो
तक अब मुझे
कुछ कमाने की
जरूरत नहीं।
आप मुझे अलग
करके दूसरे
आदमी को वजीर
रखेंगे, उसको
फिर अ, ब, स से शुरू
करना पड़ेगा।
सम्राट
बुद्धिमान था,
उसकी बात
समझ में आ गयी।
ऐसा
क्षण
तुम्हारे
जीवन में कभी
नहीं आता जब तुम
कह सको कि अब
सब मेरे पास
है। जिस दिन
यह क्षण आ
जायेगा, उसी दिन दौड़
बंद होगी।
अन्यथा तुम हर
घड़ी अ, ब, स से शुरू कर
रहे हो। हर
घड़ी नयी वासना
पकड़ लेती है,
नया चोर आ
जाता है, नया
लुटेरा खजाना
तोड्ने लगता
है। और एकाध
लुटेरा हो तो
ऐसा भी नहीं; बहुत
वासनाएं हैं।
तुम एक साथ बहुत
दिशाओं में
दौड़ रहे हो।
तुम एक साथ
बहुत—सी चीजों
को पाने की
कोशिश कर रहे
हो। तुमने कभी
बैठकर यह भी
नहीं सोचा कि
उसमें से कई
चीजें तो
विपरीत हैं, उनको तुम पा
ही नहीं सकते;
क्योंकि एक
तुम पाओगे तो
दूसरी खोयेगी
दूसरी को
पाओगे तो पहली
खो जायेगी।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मरता था तो
उसने अपने
बेटे को कहा
कि अब मैं
तुझे दो बातें
समझा देता हूं।
मरने के पहले
ही तुझे कह
जाता हूं
इन्हें ध्यान
में रखना। दो
बातें हैं। एक—आनेस्टी
(ईमानदारी) और
दूसरी है—विजडम
(बुद्धिमानी)।
तो, दुकान
तू सम्हालेगा,
काम तू
सम्हालेगा।
दुकान पर तखती
लगी है—आनेस्टी
इज द बैस्ट
पालिसी।
(ईमानदारी
सबसे अच्छी
नीति है।)
इसका तू पालन
करना। कभी
किसी को धोखा
मत देना। कभी
वचन भंग मत
करना। जो वचन
दो, उसे
पूरा करना।
बेटे
ने कहा, 'ठीक, दूसरा
क्या है? बुद्धिमानी,
उसका क्या
अर्थ है?'
नसरुद्दीन
ने कहा, ' भूलकर कभी
किसी को वचन
मत देना।’
बस, ऐसा ही
विपरीत बंटा
हुआ जीवन है।
ईमानदारी भी
और
बुद्धिमानी
भी, दोनों
संभालने की
कोशिश है। वचन
पूरा करना
ईमानदारी का
लक्ष्य है।
वचन कभी न
देना बुद्धिमानी
का लक्ष्य है।
इधर तुम चाहते
हो कि लोग
तुम्हें संत
की तरह पूर्जे
और उधर तुम
चाहते हो कि
तुम पापी की
तरह मजे भी
लूटो। बड़ी
कठिनाई है।
इधर तुम चाहते
हो कि राम की
तरह तुम्हारे
चरित्र का
गुणगान हो; लेकिन उधर
तुम रावण की
तरह दूसरे की
सीता को भगाने
में तत्पर हो।
तुम असंभव संभव
करना चाहते हो।
तुम होना तो
रावण जैसा
चाहते हो; प्रतिष्ठा
राम जैसी
चाहते हो। बस,
तब तुम
मुश्किल में
पड़ जाते हो।
तब विपरीत
दिशाओं में
तुम्हारी
यात्रा चलती है
और अनंत तुम
लक्ष्य बना
लेते हो। उन
सब में तुम
बंट जाते हो।
टुकड़े—टुकड़े
हो जाते हो।
जीवन के आखिर में
तुम पाओगे जो
भी तुम लेकर
आये थे, वह
खो गया।
एक
बहुत बड़ा
जुआरी हुआ।
बहुत समझाया
पत्नी ने, परिवार
ने, मित्रों
ने; लेकिन
उसने सुना
नहीं, धीरे—धीरे
सब खो गया। एक
दिन ऐसी हालत
आ गयी कि
सिर्फ एक
रुपया घर में
बचा। पली ने
कहा, 'अब तो
चौंको। अब तो
सम्हलो।’ पति
ने कहा, 'जब
इतना सब चला
गया है और एक
रुपया ही बचा
है तो आखिरी
मौका मुझे और
दे। कौन जाने,
एक रुपये से
भाग्य खुल जाए।’
जुआरी सदा
ऐसा ही सोचता
है। और फिर
उसने कहा कि
जब लाखों चले
गये, अब एक
ही बचा तो अब
एक के लिए
क्या रोना—धोना।
और एक रुपया
चला ही जायेगा,
कोई
बचनेवाला
नहीं है। लगा
लेने दे दाव
पर उसे भी।
पत्नी
ने भी सोचा कि
अब जब सब ही
चला गया, एक ही बचा है
और एक कोई
टिकनेवाला
वैसे भी क्या
है; सांझ
के पहले खत्म
हो जायेगा। तो
ठीक है, तू
अपनी आखिरी
इच्छा भी पूरी
कर।
जुआरी
गया जुए के
अड्डे पर। बड़ा
चकित हुआ। हर
बाजी जीतने
लगा। एक के
हजार हुये, हजार के
दस हजार हुये,
दस हजार के
पचास हजार
हुये, पचास
हजार के लाख
हो गये; क्योंकि
वह इकट्ठे ही
दांव पर लगाता
गया। फिर उसने
लाख भी लगा
दिये और कहा
कि बस, अब
आखिरी हल हो
गया सब। और वह
सब हार गया।
वह घर लौटा।
पली ने पूछा, 'क्या हुआ?' उसने कहा कि
एक रुपया भी
चल गया।
क्योंकि
तुम वही खो
सकते हो, जो तुम लेकर
आये थे। लाख
की क्या बात
करनी! उसने
कहा, 'एक
रुपया खो गया,
कोई चिंता
की बात नहीं।
वह दांव खराब
गया।’ पर
उसने यह बात न
कही कि लाख हो
गये थे। ठीक
ही किया; क्योंकि,
जो
तुम्हारे
नहीं थे, उनके
खोने का सवाल
भी क्या है!
मरते वक्त तुम
पाओगे कि जो
आत्मा तुम
लेकर आये थे, वह तुम
गंवाकर जा रहे
हो। बस, एक
खो जायेगा!
बाकी तुमने जो
गंवाया, जोड़ा,
मिटाया, बनाया,
उसका कोई
बड़ा हिसाब
नहीं है; अंतिम
हिसाब में
उसका कोई
मूल्य नहीं।
तुमने लाखों
जीते हों तो
भी मौत के
वक्त तो वे सब
छूट जायेंगे;
हिसाब एक का
रह जायेगा। वह
एक तुम हो। और
अगर तुम उस एक
में ठहर गये
तो तुम जीत
गये। अगर तुम
उस एक में आ
गये, रम
गये; उसके
लिए शिव कह
रहे है: स्व
में स्थिति
शक्ति है।
तुम
दुर्बल हो, दीन हो, दुखी हो—इसका
कारण यह नहीं
कि तुम्हारे
पास रुपये कम
है, मकान
नहीं है, धन
नहीं है, धन—दौलत
नहीं है। तुम
दीन हो, दुखी
हो; क्योंकि,
तुम स्वयं
में नहीं हो।
स्वयं में
होना ऊर्जा का
स्रोत है।वहां
ठहरते ही
व्यक्ति
महाऊर्जा से
भर जाता है।
जीसस
से किसी ने
पूछा कि मै
क्या करूं; मैं बहुत
दीन हूं मैं
गरीब हूं दुखी
हूं। जीसस ने
कहा कि तू कुछ
और मत कर; पहले
परमात्मा के
राज्य को खोज
ले, शेष सब
अपने—आप पीछे
चला आयेगा। एक
को खोज लेने
से शेष सब
पीछे चला आता
है। और, एक
को गंवा देने
से, सब
गंवा दिया
जाता है। वह
एक तुम हो और
वही तुम्हारी
संपदा है; क्योंकि
उसी को लेकर
तुम आये हो।
और आखिरी
हिसाब में यही
पूछा जायेगा
कि जो तुम
लेकर आये थे, उसे बचा सके
या उसकी भी
गंवा दिया।
स्व
में स्थिति
शक्ति है—स्वपदम्
शक्ति। अपने
में ठहर जाना
महाशक्तिवान
हो जाना है।
महाशक्तिवान
तो तुम हो; लेकिन
तुम ऐसे हो
जैसे किसी
बाल्टी में
हजार छेद हों
और कोई कुएं
से पानी भर
रहा हो। पानी
भरता हुआ
दिखायी पड़ता
है हर बार; क्योंकि
जब तक बाल्टी
पानी में डूबी
रहती है बिलकुल
भरी रहती है।
जैसे ही
बाल्टी पानी
से ऊपर उठती
है, तुम
खींचना शुरू
करते हो कि
हजार मार्गों से
पानी गिरना
शुरू हो जाता
है। जब तक
बाल्टी ऊपर
आती है, तब
तक तो उसमें
कुछ भी नहीं
बचता।
हजार
वासनाएं
तुम्हारे
हजार छेद है।
उनसे
तुम्हारी
ऊर्जा खोती है।
जब तक तुम
सपना देखते हो, तब तक
बाली भरी है; जब तक तुम
कामना करते हो,
तब तक
बाल्टी भरी है।
जैसे ही कामना
को कृत्य में
लाते हो; जैसे
ही खींचना
शुरू करते हो
कुएं से
बाल्टी को; जैसे ही
सपने को सत्य
बनाने की
कोशिश करते हो,
वैसे ही
ऊर्जा खोनी
शुरू हो जाती
है। हाथ आते
तक बाल्टी हाथ
आ जाती है, हजार
छेद हाथ में आ
जाते है; पानी
की एक बूंद
नहीं आती, प्यास
उतनी की उतनी
रह जाती है।
हर बार जब
खींचते हो, बड़ा शोरगुल
मचता है कुएं
में और लगता
है कि पानी
चला आ रहा है, तूफान आ रहा
है; हाथ
कुछ भी नहीं
आता। हर बार
तुम खाली हाथ
लौटते हो; लेकिन,
वासना बड़ी
अदभुत है।
एक
मछलीमार को
कोई राहगीर
पूछता था कि
कितनी मछलियां
पक्कीं। सांझ
होने के करीब
थी, सुबह
से बैठा था बंसी
को डाले। यह
राहगीर कई बार
वहां से निकला
और देख गया था।
आखिर उससे न
रहा गया। उसने
पूछा, 'कितनी
पक्की है?' उस
मछलीमार ने
कहा कि जिस एक
को पकड़ने की
अभी मैं कोशिश
कर रहा हूं एक
यह और अगर दो और,
तो तीन
होंगी। अभी
पक्की एक भी
नहीं है—जिसको
पकड़ रहा हूं
यह एक और दो और,
तो तीन
होंगी।
तुम
हमेशा इस
मछलीमार की
हालत में हों—जिसको
पकड़ रहे हो, यह एक और
दो अभी सपने
में है। और यह
भी अभी सत्य
नहीं हुई है।
हिसाब तीन का
है और तुम बड़े
प्रसन्न हो
रहे हो। जब भी
बाल्टी हाथ
में आती है, तुम पाते हो,
फिर खाली आ
गयी। और ध्यान
रहे, जितनी
बार तुम डालते
हो कुएं में, छेद उतने
बड़े होते जाते
है। इसलिए
बच्चे
प्रसन्न
मालूम होते है।
बूढ़े बिलकुल
उदास मालूम
होते है; उनकी
बाली छेद—ही—छेद
हो गयी। कितनी
बार डाल चुके
कितनी बार
निकाल चुके —सब
छेद बड़े हो
गये। लेकिन, फिर भी
पुरानी आशा
मरती नहीं—कभी
तो भरी हुई आ
जायेगी; क्योंकि
भरी हुई
दिखायी पड़ती
है! फिर पानी
गिरता हुआ भी
दिखायी पड़ता
है। शक्ति तो
तुम्हारे पास
है परमात्मा
की; लेकिन
मन तुम्हारे
पास छेदवाली
बाल्टी की तरह
है।
'रूपदमू
शक्ति' का
अर्थ है कि अब
तुम वासनाओं
में न दौड़ोगे।
एक वासना गिरी
कि एक छेद बंद
हुआ। वासनाएं
गिर गयीं, सारे
छेद खो गये।
और तब तुम्हें
किसी और कुएं
में बाल्टी
डालने की
जरूरत नहीं, तुम खुद ही
कुआं हो। बडी
है ऊर्जा
तुम्हारे पास! सिर्फ
तुम्हारी
व्यर्थ खोती
शक्ति बच जाये
तो तुम
महाऊर्जा
लेकर पैदा हुए
हो। तुम्हें
कुछ पाना नहीं
है; जो
भी पाने योग्य
है, वह
तुम्हारे पास
है; सिर्फ
उसे खोने से
बचना है।
परमात्मा को
पाने का सवाल
नहीं है, सिर्फ
खोने से बचना
है। वह
तुम्हें मिला
ही हुआ है।
कैसे तुम खो
देते हो, यही
बड़ी—से—बड़ी
रहस्य की घटना
है जगत में।
तीसरा
सूत्र है:
वितर्क
अर्थात विवेक
से आत्मज्ञान
होता है। एक—एक
सूत्र कुंजी
की तरह है।
पहला—विस्मय, विस्मय
मोड़ेगा स्वयं
की तरफ; दूसरा—स्वयं
में ठहरना, ताकि तुम
महाऊर्जा को
उपलब्ध हो जाओ।
लेकिन, कैसे
तुम स्वयं में
ठहरोगे, उसकी
कुंजी तीसरे
सूत्र में है—विवेक,
वितर्क
आत्मज्ञानम्।
यह 'वितर्क' शब्द समझ
लेने जैसा है।
तर्क तो हम
जानते हैं।
तर्क विज्ञान
के हाथ है। वह आश्चर्य
को काटने की
तलवार है।
तर्क काटता है,
विश्लेषण
करता है। तर्क
बाहर जाता है,
वितर्क
भीतर जाता है।
वह काटता नहीं,
जोड़ता है।
तर्क
विश्लेषण है—एनालिसिस
वितर्क
संश्लेषण है—सिंथीसिस।
फरीद
हुआ एक फकीर।
एक भक्त उसके
पास एक सोने
की कैंची ले
आया; बड़ी
बहूमूल्य थी,
हीरे—जवाहरात
लगे थे। और
उसने कहा कि
मेरे परिवार
में चली आ रही
है सदियों से।
करोड़ों का दाम
है इसका। मैं
इसका क्या
करूं? आपके
चरणों में रख
जाता हूं।
फरीद
ने कहा, 'तू इसे वापस
ले जा। अगर
तुझे कुछ भेंट
ही करना हो तो
एक सुई—डोरा
ले आना।
क्योंकि हम
तोड़नेवाले
नहीं, जोड़नेवाले
है। कैंची
काटती है। अगर
भेंट ही करना
हो, तो एक
सुई—डोरा ले
आना।’ तर्क
कैंची की तरह
है, काटता
है। हिंदुओं
में गणेश तर्क
के देवता हैं,
इसलिए चूहे
पर बैठे हैं।
चूहा यानी
कैची। वह
काटता है।
चूहा जीवित
कैंची है। वह
काटता ही रहता
है। गणेश उस
पर बैठे हैं।
वे तर्क के
देवता हैं। और
हिंदुओं ने
खूब मजाक किया
गणेश का।
उन्हें देखकर
अगर तुम्हें
हंसी न आये तो
हैरानी की बात
है। आती नहीं
है तुम्हें; क्योंकि तुम
उनसे भी आश्वस्त
हो गये हो कि
वे ऐसे हैं।
अन्यथा वे
हंसी—योग्य है।
गणेश
के शरीर को
ठीक से देखो
तो सब ढंग से
बेढंगा है।
सिर भी अपना
नहीं है, वह भी उधार
है। तार्किक
के पास सिर
उधार होता है।
बहुत बड़ा है, हाथी का है; लेकिन अपना
नहीं है। उधार
सिर हाथी का
भी हो तो भी
किसी का नहीं;
काम वह
सिर्फ कुरूप
करेगा। भारी—
भरकम शरीर है।
चूहे पर सवार
है। यह भारी—भरकम
शरीर देखने का
ही है। सवारी
तो चूहे की है।
कितना ही बड़ा
पंडित हो, लेकिन
सवारी चूहे की
ही है—वह
कैंची, तर्क।
फरीद ने ठीक
कहा कि अगर
भेंट ही करनी
ही तो एक सुई —
धागा दे जाना;
क्योंकि हम
जोड़ते है।
वितर्क
जोड्ने की कला
है। वितर्क
शब्द का अर्थ
होता है—विशेष
तर्क। साधारण
तर्क तोड़ता है; विशेष
तर्क जोड़ता है।
बुद्ध, महावीर,
शिव, लाओत्से—वे
भी तर्क करते
हैं, लेकिन
उनका तर्क
वितर्क है।
एक और
तर्क है, जिसको हम
कुतर्क कहते
हैं। तीन तरह
की संभावनाएं
हैं। तर्क
तोडता है, विश्लेषण
करता है; लेकिन
लक्ष्य उसका
बुरा नहीं है,
आश्चर्य
को हल करना है।
उसे तोड्ने
में रस नहीं
है। तोड़ना
प्रक्रिया है;
लक्ष्य तो
किसी
सिद्धांत की
उपलब्धि है, जिससे कि आश्चर्य
समाप्त हो जाए,
चीजें साफ—सुथरी
हो जायें।
लक्ष्य
सृजनात्मक
है तर्क का।
लेकिन, जब तर्क
का कोई लक्ष्य
ही नहीं होता
और सिर्फ तोड़ना
ही लक्ष्य हो
जाता है; जब
मजा मारने में
ही आने लगता
है, तब हम
उसे कुतर्क
कहते हैं।
तर्क पागल हो
जाए तो कुतर्क
हो जाता है।
एक विक्षिप्त
अवस्था है
तर्क की, तब
वह पागल हो
जाता है; तब
वह तोड्ने में
लग जाता है; तब कोई और
लक्ष्य नहीं
रह जाता, नष्ट
करना ही
रसपूर्ण हो
जाता है।
वितर्क, तर्क की
अंतर्यात्रा
है। तुम यहां
तक आये हो, घर
से चलकर, तो
नजर, तुम्हारी
दृष्टि, तुम्हारी
दिशा, इस
तरफ रही है—मेरी
तरफ रही है।
पीठ घर की तरफ
हो गयी थी।
यहां से जब
तुम लौटोगे घर
की तरफ, रास्ता
वही होगा।
रास्ते में
क्या फर्क
पड़ना है, रास्ता
वही होगा; सिर्फ
दिशा बदल
जायेगी—पीठ
मेरी तरफ होगी,
मुंह घर की
तरफ होगा।
तर्क
और वितर्क में
रास्ता तो वही
है; इसलिए
उसको वितर्क
कहते हैं—विशेष
तर्क। रास्ता
तो वही है, लेकिन
दिशा बदल गयी।
पहले तर्क
दूसरे की तरफ
जा रहा था—पदार्थ
की तरफ; अब
अपनी तरफ आ
रहा है—घर की
तरफ। और दिशा
बदलने से सारा—का—सारा
गुणधर्म बदल
जाता है।
दूसरे की तरफ
जाता था, तो
तोड़कर ही जाना
जा सकता था; क्योंकि दूसरे
में प्रवेश
करना हो तो
तोड़कर ही
प्रवेश हो सकता
है, और कोई
उपाय नहीं है।
अगर
तुम मेडीकल
कालेज में जाओ
तो वहां तुम
विद्यार्थियों
को काटते हुए
पाओगे—मेंढक
को काट रहे है; क्योंकि
उसके भीतर
जानना है। और
तो कोई उपाय
भी नहीं।
मेंढक को
काटकर ही भीतर
जाना सकता है।
लेकिन खुद के
भीतर जाना हो
तो काटने की
कोई भी जरूरत
नहीं; क्योंकि
तुम भीतर
मौजूद ही हो।
दूसरे को
जानना हो तो
तोड़कर जानना
पड़ेगा, मारकर
जानना पडेगा;
क्योंकि
उसके भीतर
प्रवेश का और
कोई रास्ता नहीं
है। स्वयं को
जानना हो तो तोड्ने
और मारने का
कोई सवाल नहीं;
वहां तो तुम
मौजूद ही हो।
स्वयं को
जानना हो तो
सिर्फ आंख बंद
कर लेनी काफी
है। आंख बंद
करने का नाम
ध्यान है।
बाहर से ध्यान
हट जाये, भीतर
चलने लगे तो
तर्क, वितर्क
हो जाता है।
वितर्क
का ही दूसरा
नाम विवेक है—होश, अवेयरनेस।
और यह विवेक
या वितर्क
संश्लेषण की
प्रक्रिया है।
जैसे—जैसे तुम
भीतर आते हो, वैसे—वैसे
तुम इकट्ठे
होते जाते हो,
ऐसा समझो कि
एक वर्तुल है,
बड़ी उसकी
परिधि है।
वर्तुल के
मध्य में उसका
केंद्र है।
अगर तुम परिधि
पर दो बिंदु
बनाओ तो दूर
होंगे, फिर
दो बिंदुओं से
तुम दो रेखाएं
खींचना शुरू
करो केंद्र की
तरफ, तो
जैसे—जैसे
दोनों रेखाएं
केंद्र के
करीब आयेंगी,
वैसे—वैसे
पास आने
लगेंगी — और
पास, और
पास। और जब
केंद्र पर
दोनों आ
जायेंगी तो एक
ही रेखा रह
जायेगी, दो
नहीं; केंद्र
पर मिल
जायेंगी। अगर
इन्हीं दो
रेखाओं को तुम
परिधि के बाहर
फैलाते चले
जाओ तो ये दूर
होती जायेगी—और
दूर, और
दूर, और
दूर। अनंत
आकाश में, इनकी
अनंत दूरी हो
जायेगी।
तुम्हारे
भीतर से जब
तुम बाहर की
तरफ जाते हो तो
चीजें एक
दूसरे से दूर
होती जाती हैं, फासला
बढ़ता जाता है।
इसलिए हजार
तरह के
विज्ञान पैदा
हो गये हैं, होंगे ही; क्योंकि
फासला बड़ा
होता जाता है।
रोज नये
विज्ञान पैदा
हो रहे है; क्योंकि
जैसे—जैसे हम
आगे बढ़ते हैं,
और फासला हो
जाता है। अब
वैज्ञानिक
बहुत परेशान
है; क्योंकि
वे कहते है कि
एक विज्ञान की
भाषा दूसरे की
समझ में नहीं
आती। और अब
ऐसा एक भी
आदमी पृथ्वी
पर नहीं जो
सभी विज्ञान
को समझता है; जो सभी के
बीच कोई
संश्लेषण कर
ले। ऐसे तो
बहुत कठिन हो
गया मामला।
एक ही
विज्ञान को
जानना असंभव
जैसा है, तो दुनिया
में ज्ञान
बहुत है, लेकिन
संश्लेषण
बिलकुल खो गया
है। और, धर्म
एक है, उनके
नाम कितने ही
अलग हों; क्योंकि
जैसे ही कोई
व्यक्ति भीतर
की तरफ आता है, फासला कम
होने लगता है।
केंद्र पर सब
चीजें जुड़
जाती है।
केंद्र परम
संश्लेषण है—अल्टीमेट
सिंथीसिस।
वितर्क
अर्थात विवेक
से आत्मज्ञान
होता है। तोड़ो
मत! बाहर मत
जाओ! दूसरे पर
ध्यान मत रखो!
भीतर ध्यान
लाओ! जोड़ो!
धीरे—धीरे
सरकते आओ
केंद्र की तरफ; उस जगह
पहुंच जाओ, जहां
तुम्हारे
प्राणों का
मध्यबिंदु है।
वहां ठहर जाओ;
महाऊर्जा
उलन्न होगी।
वह जो हम
प्रकाश देखते
हैं—बुद्ध और
महावीर में; वह जो हम
आनंद देखते
हैं—कृष्ण में,
मीरा में, चैतन्य में—वह
किस बात का
आनंद है? वह
रोशनी किस बात
की खबर है? वे
उस जगह पहुंच
गये, जो
अनंत ऊर्जा का
स्रोत है। अब
वे दरिद्र
नहीं हैं। अब
वे दीन नहीं
हैं। अब वे
किसी से मांग
नहीं रहे हैं।
अब वे सम्राट
हो गये हैं।
उनका सम्राट
होना
तुम्हारी भी
संभावना है।
लेकिन एक—एक
कदम उठाना
जरूरी है।
विस्मय—स्व
में स्थिति की
धारणा, वितर्क से
स्वयं तक
पहुंचने का
उपाय, और
चौथा सूत्र है—लोकानद
समाधिसुखमू—अस्तित्व
का आनंद भोगना
समाधि—सुख है।
और, जब तुम
स्वयं में
पहुंच गये, ठहर गये तो
तुम अस्तित्व
की गहनतम
स्थिति में आ
गये। वहां
सघनतम
अस्तित्व है;
क्योंकि
वहीं से सब
पैदा हो रहा
है। तुम्हारा
केंद्र
तुम्हारा ही
केंद्र नहीं है,
सारे लोक का
केंद्र है।
हम
परिधि पर ही
अलग—अलग है।
मैं और तू का
फासला शरीरों
का फासला है।
जैसे ही हम
शरीर को छोड़ते
और भीतर हटते
है, वैसे—वैसे
फासले कम होने
लगते हैं। जिस
दिन तुम आत्मा
को जानोगे, उसी दिन
तुमने
परमात्मा को
भी जान लिया।
जिस दिन तुमने
अपनी आत्मा
जानी उसी दिन
तुमने समस्त
की आत्मा जान
ली; क्योंकि
वहां केंद्र
पर कोई फासला
नहीं। परिधि
पर हममें भेद
हैं। वहां
भिन्नताएं
हैं। केंद्र
में हममें कोई
भेद नहीं।
वहां हम सब एक
अस्तित्वरूप
हैं।
शिव
कहते हैं: उस
अस्तित्व को
स्वयं में
पाकर समाधि का
सुख उपलब्ध
होता है।
समाधिसुखम्—इस
शब्द को समझ
लेना जरूरी है।
तुमने बहुत—से
सुख जाने हैं—कभी
भोजन का सुख, कभी
स्वास्थ्य का
सुख, कभी
प्यास लगी तो
जल से तृप्ति
का सुख, कभी
शरीर—भोग का
सुख, संभोग
का सुख—तुमने
बहुत सुख जाने
हैं। लेकिन, इन सुखों के
संबंध में एक
बात समझ लेनी
जरूरी है और
वह यह कि इन
सुखों के साथ
दुख जुड़ा हुआ
है। अगर
तुम्हें
प्यास न लगे, तो पानी
पीने की
तृप्ति भी न
होगी। प्यास
की पीड़ा को
तुम झेलने को
राजी हो, तो
पानी पीने का
मजा तुम्हें
आयेगा। दुख
पहले है, और
दुख लंबा है
और सुख क्षणभर
है; क्योंकि
जैसे ही कंठ
से पानी उतरा,
तृप्ति हो
गयी। फिर भूख,
फिर प्यास!
भूख न लगे, भूख
की पीड़ा न हो
तो भोजन की
कोई तृप्ति
नहीं।
इसलिए, दूनियां
में एक बड़ी
दुर्घटना
घटती है—जिनके
पास भूख है, उनके पास भोजन
नहीं; वे
भोजन का मजा
ले सकते थे; उन्हें भोजन
में सुख आता, क्योंकि वे
बड़ा दुख झेल
रहे हैं भूख
का। और जिनके
पास भूख नहीं
है, उनके
पास भोजन है; वे भोजन का
सुख ले नहीं
पाते; भोजन
से दुख ही
मिलता उनको
उलटा।
जब तक
तुम्हें
प्यास लगती है, तभी तक
तुम्हें पानी की
तृप्ति है।
लेकिन तुम ऐसा
जीवन जी सकते
हो, जिसमें
प्यास न लगे।
धूप में मत
जाओ, श्रम
मत करो, आराम
से घर में रहो—प्यास
नहीं लगेगी।
तब तुम सोचते
हो, अब खूब
मजे से पानी
पियो और सुख
भोगो तो तुम
पाओगे कि अब
पानी में कोई
सुख नहीं। जिस
आदमी ने दिनभर
श्रम किया है,
उसे ही रात
सोने का सुख
मिलेगा। अब यह
बडी कठिन बात
हो गयी। अगर
रात सोने का सुख
चाहिए तो दिन
में मजदूर
जैसी जिंदगी
चाहिए।
कठिनाई यह है
कि दिन तो तुम
चाहते हो एक
अमीर सम्राट
जैसा, और
रात की नींद
मजदूर जैसी—यह
नहीं हो सकता।
बाहर
के जगत में
सुख और दुख
जुड़े हैं।
इसलिए जिस दिन
तुम्हारे पास
महल डा जायेगा, उसी दिन
नींद खो
जायेगी। जिस
दिन तुम शैया
का इंतजाम कर
लोगे सुखद, उसी दिन तुम
पाओगे कि करवट
बदलने के
सिवाय और कोई
उपाय नहीं। और
देखो मजदूर को।
वह सो रहा है
वृक्ष के नीचे।
कच्छ—पत्थरों
का भी उसे पता
नहीं है।
मच्छर भी काट
रहे हैं, उनका
भी उसे कुछ
पता नहीं है।
गरमी है, पसीना
बह रहा है—उसका
भी उसे कुछ
पता नहीं। यह
सब गौण है।
उसने दिनभर
इतनी पीड़ा झेल
ली है कि रात
का सुख अर्जित
कर लिया।
दुख की
कीमत चुकानी
पड़ती है सुख
पाने के लिए, संसार
में। यहां हर
सुख के साथ
दुख जुड़ा है।
और आदमी यहीं
ही एक मजबूरी
में उलझा हुआ
है। वह चाहता
है कि सुख बचे
और दुख कट
जाये; पर
यह नहीं हो
सकता। यही
हमने हजारों
साल से कोशिश
की है कि दुख
कट जाये और
सुख बच जाये।
हम जो कर रहे
है कोशिश, वह
संभव नहीं हो
पाती। निश्चित
ही दुख कट
जाता है, लेकिन
उतना ही सुख
कट जाता है।
दुख हम चाहते
नहीं, सुख
हम चाहते हैं;
इसलिए बडी
झंझट है।
समाधि—सुख
का क्या अर्थ
है: जिसके साथ
दुख बिलकुल
नहीं है।
समाधि—सुख
किसी प्यास की
तृप्ति नहीं
है। समाधि—सुख
किसी भूख में
लिया गया भोजन
नहीं है।
समाधि—सुख
श्रम करके रात
में ली गयी
निद्रा का सुख
नहीं है।
समाधि—सुख के
साथ दुख का
कोई भी संबंध
नहीं है। वही
अंतर है
सांसारिक सुख
और
आध्यात्मिक
सुख में।
समाधि—सुख
सिर्फ होने का
आनंद है। उसके
साथ कोई तृषा, कोई
तृष्णा, कोई
दुख नहीं जुडा
है। वह सिर्फ
होने का आनंद
है।
इसलिए
शिव कह रहे
हैं, लोकानद:
अस्तित्व का
आनंद है। तुम
हो—बस, इतनी
ही बात आनंदपूर्ण
है। इसमें कोई
तृषा और पीड़ा
और इस सबका
कोई संबंध नहीं
है। फिर ध्यान
रहे कि आत्मा
की न तो कोई
प्यास है, न
कोई भूख है।
इसलिए वहा कोई
भूख और प्यास
और उनकी
तृप्ति से
होनेवाला कोई
सुख तो हो
नहीं सकता।
सारी भूख—प्यास
शरीर की है।
इसलिए शरीर के
सुख, दुख
से जुड़े ही
रहेंगे। जो
आदमी भी शरीर
के सुख लेना
चाहता है, उसे
दुखों की
तैयारी रखनी
चाहिए। और
जितनी वह दुख
की तैयारी
रखेगा, उतने
ही शरीर के
सुख ले सकता
है। आत्मा का
सुख शुद्धतम
सुख है; वहां
दुख का कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन, वह
केंद्र पर
घटता है; परिधि
पर तो तुम
शरीर हो।
शरीर
परिधि है। वह
तुम्हारा
घेरा है घर का, वह तुम
नहीं हो। वह
तुम्हारा
बाहरी वर्तुल
है। केंद्र पर
तुम आत्मा हो।
वहां एक नये
सुख का
आविर्भाव
होता है। वहां
सुख सिर्फ
होने का सुख
है—सिर्फ होना
मात्र। वहां
दुख की कोई
खाई नहीं है
और वहां सुख
का कोई शिखर
नहीं है। वहां
ऊंचाइयां—निचाइयां
नहीं है। वहां
पाना—खोना
नहीं है। वहां
दिन—रात वहीं
है! वहां श्रम—विश्राम
नहीं है। वहां
तुम सिर्फ हो।
वहां शाश्वत
होना है। उस
शाश्वत होने
की एक दशा है, जो बड़ी
रसपूर्ण है।
उस रस में कभी
विघ्न नहीं
पड़ता। इसलिए,
उसे संत 'सनातन', 'शाश्वत'
कहते है, 'नित्य' कहते
हैं। उस रस
में कभी भी
बाधा नहीं आती।
कबीर ने कहा
है कि वहां
अमृतरस झरता
ही रहता है—एक—सा,
एकरस।
यहां
भी वर्षा होती
है; लेकिन
उस वर्षा के
लिए गरमी का
होना जरूरी है।
जब गरमी से
तुम उत्तप्त
हो जाते हो, पृथ्वी पर
दरार पड़ जाती
है सब तरफ, वृक्ष
चीख—पुकार
करने लगते है,
सब तरफ
त्राहि—त्राहि
मच जाती है
गरमी से—तब
वर्षा होती है।
तुम कहोगे कि
ऐसा बेहूदा
नियम क्यों है।
ऐसा क्यों
नहीं कि वर्षा
हो और त्राहि—त्राहि
न हो; लेकिन,
तब तुम्हें
पूरी
व्यवस्था
समझनी पड़ेगी,
गणित समझना
पड़ेगा। यह
त्राहि—त्राहि
मचे तो ही
बादल निर्मित
होते हैं। जब
भयंकर धूप
पड़ती है, तो
पानी भाप बनता
है। जब पानी
भाप न बने तो
वर्षा नहीं हो
सकती। तो जब
पानी भाप बन
जाएगा, आकाश
में बादल सघन
होंगे—जब बादल
इतने सघन हो
जायेंगे, तो
उनको बरसना ही
पड़ेगा, तभी
वर्षा होगी।
तो, वर्षा
के पहले भयंकर
गरमी जरूरी है।
आत्मा
के जगत में
विपरीतता
नहीं है; वहां
द्वंद्व नहीं
है। इसलिए उसे
'निर्द्वंद्व',
' अद्वैत' —इन शब्दों
से पुकारते
हैं। वहां एक
है, वहां
दो नहीं है।
पर, तब
तुम्हें
समझना बहुत
कठिन हो
जायेगा कि वहां
किस तरह का
सुख होगा; क्योंकि
ऐसा तो
तुम्हें कोई
सुख पता नहीं
है, जिसके
साथ दुख न
जुड़ा हो।
कोई
पूछ रहा था
सिग्मंड
फ्रायड से कि
विक्षिप्तता
की क्या
परिभाषा है और
विक्षिप्तता
पर लोग कैसे
पहुंच जाते है।
सिग्मंड
फ्रायड ने बड़ा
अदभुत उत्तर
दिया। उसने
कहा कि
विक्षिप्तता
और सफलता, इनकी एक
ही परिभाषा है
और जो ढंग
सफलता तक पहुंचने
का है, वही
ढंग
विक्षिप्तता
तक पहुंचने का
है। क्योंकि,
जब तुम सफल
होना चाहते हो,
तो तुम तन
जाते हो। जब
तुम सफल होना
चाहते हो, तो
तुम लड़ते हो।
जब तुम सफल
होना चाहते हो
तो तुम्हारे
रात—दिन चिंता
से भर जाते
हैं। जब तुम
सफल होना
चाहते हो, तो
प्रतिपल तुम
भयभीत होते हो
कि पता नहीं, जीत पाओ, न
जीत पाओ। तुम
अकेले ही नहीं
हो सफलता के
लिए, करोड़ों
प्रतिद्वंद्वी
हैं। तब
तुम्हारी रात—दिन
चिंता, पीड़ा,
तनाव.. .तुम
कंपते ही रहते
हो कि पता
नहीं क्या होगा,
क्या नहीं
होगा। और यही
तो पागल होने
का भी रास्ता
है। तो जिनको
तुम सफल कहते
हो, अगर
तुम उन्हें
बहुत गौर से
देखो, तुम
उन्हें उसी
तनाव की और
बेचैनी की
अवस्था में
पाओगे, जिनमें
तुम पागलों
में पाते हो।
ऐसा
हुआ कि जब रूस
में खुश्रेव
प्रधान
मंत्री था तो
एक पागलखाना
देखने गया।
कुछ जरूरी बात
उसे याद आ गयी।
तो उसने अपने
सेक्रेटरी को
फोन करना चाहा; लेकिन
बड़ी मुश्किल
थी—वह लड़की जो
आपरेटर होगी
बीच में, वह
कोई ध्यान ही
नहीं दे रही
थी। ध्यान न देने
का कारण भी था,
जौ पीछे साफ
हुआ। खुश्रेव
ने बार—बार
उसे कहा कि
शीघ्र नंबर दो,
तो उस लड़की
ने कोई फिक्र
ही नहीं की।
तब खुश्रेव ने
कहा की लड़की, तू समझती है,
मै कौन हूं?
जो कि सदा
ही सफल, पद
पर, धन पर
पहुंचे आदमी
की धारणा रही
है— भीतर वह
पूरे वक्त, चौबीस घंटे
कहता रहता है,
पता है, मै
कौन हूं; चाहे
बोले न बोले, भीतर वह यही
बोलता रहता है
कि पता है, मैं
कौन हूं; क्योंकि
इसी के लिए तो
सारा गंवाया
है, इसी
पता करवाने के
लिए। आखिर
नहीं रहा गया
और उसने कहा
कि लड़की, पता
है, मैं
कौन हूं! मैं
खुश्रेव बोल
रहा हूं—प्रधानमंत्री।
उस
लड़की ने कहा, 'मुझे पता
नहीं कि आप
कौन है; लेकिन
मुझे पता है
कि आप कहां से
बोल रहे हैं—पागलखाने
से।’?
लेकिन, सभी
प्रधान
मंत्री वहीं
से बोल रहे
हैं। और कोई
जगह है भी
नहीं, जहां
से वे बोले।
खुश्रेव
एक बार लंदन
आया। किसी ने
उसे —बहुमूल्य
कपड़ा भेंट किया
था। कपड़ा इतना
कीमती था कि
वह चाहता था
कि दुनिया का
श्रेष्ठ—से—श्रेष्ठ
दर्जी उसे
बनाए। मास्को
में भी उसने
पुछवाया—जो
अच्छे—से—अच्छादर्जी
था। वह चाहता
था कि एक कोट
भी बन जाये, एक बडी भी
बन जाये, एक
पैट भी बन
जाये। पर उस
दर्जी ने कहा
कि मुश्किल है,
तीन चीजें
मुश्किल हैं।
दो कोई भी बन
सकती हैं।
कपड़ा इतना
कीमती था कि
वह चाहता था
कि पूरा सूट
ही बने। तो वह
लंदन ले आया।
लंदन के दर्जी
ने उसको देखा
तो उसने कहा, 'ठीक है; एक
पैंट, एक
कोट और बडी तो
बन ही सकती
हैं, कुछ
कपड़ा भी बचेगा।
आपके बच्चे के
लिए भी बन
सकता है।’ तो
खुश्रेव बहुत
हैरान हुआ।
उसने कहा, 'क्या?
मैंने अपने
दर्जी को पूछा
मास्को में, हद कर दी उस
बेईमान ने। वह
कह रहा था कि
इसमें, बस
दो ही चीजें
बन सकती है।’
तो
लंदन के दर्जी
ने कहा कि आप
उस पर नाराज न
हों। मास्को
में आप बहुत
बड़े आदमी हैं, ज्यादा
कपड़ा लगेगा; लंदन में आप
ना—कुछ हैं।
आदमी
पूरा जीवन जिन—जिन
सुखों की खोज
में—सफलताओं
की, महत्वाकांक्षाओं
की खोज में—होता
है, उनके
साथ—साथ, उतने
दुख झेलने की
तैयारी में से
गुजरना पड़ता है
और दुख तोड
जाते हैं।
इसके पहले कि
तुम सफल होओ, तुम पहले ही
करीब—करीब
असफल हो जाते
हो। संसार में
सफल कोई होता
ही नहीं, क्योंकि,
यहां सफलता
की कीमत में
इतनी गहरी
विक्षिप्तता
झेलनी पड़ती है,
इतना
पागलपन झेलना
पड़ता है कि जब
तक सफलता हाथ
में आती है, हाथ में आने
योग्य नहीं रह
जाती।
समाधि
का सुख बिलकुल
भिन्न है; वहां
मूल्य
तुम्हें
चुकाना नहीं
है। क्योंकि,
जो तुम पाने
चले हो, वह
अभी मौजूद है—इसी
वक्त; वह
कोई भविष्य
नहीं है कि
जिसके लिए
तुम्हें यात्रा
करनी पड़े, चलना
पड़े, मेहनत
करनी पड़े। वह
अभी मौजूद है।
इसी वक्त
मौजूद है। वह
तुम्हें मिला
ही हुआ है। वह
तुम्हारी
स्वभाव—सिद्ध
संपदा है।
उसकी कीमत में
कोई दुख नहीं
है। लेकिन, तब उसका
स्वाद कैसा
होगा?
तुमने
जो भी सुख
जाने हैं, उनमें से
किसी से भी
उसके स्वाद का
पता नहीं चल
सकता; क्योंकि
उन सब में दुख
मिश्रित है।
तुमने जो—जो
अमृत जाना है,
चखा है, उस
सब में जहर
पड़ा हुआ है; क्योंकि
शरीर के साथ
यह होगा ही।
शरीर में जन्म
और मृत्यु
दोनों जुड़े
हैं; अमृत
और जहर दोनों
पड़े हैं। शरीर
से तुम जो भी
सुख जानोगे, उसमें दुख
रहेगा ही।
लेकिन आत्मा
सिर्फ अमृत है।
उसकी कोई
मृत्यु नही।
वह शाश्वत है।
वहां विपरीत
नहीं है। वह
सिर्फ जीवन है—शुद्ध
जीवन।
इसलिए
तुमने जो भी
सुख चखे हैं, उनकी
तिक्तता, उनकी
कड़वाहट छोड़
दो, उनकी
तिक्तता को
बिलकुल हटा दो,
तो तुम
कल्पना शायद
थोड़ी—सी कर
पाओ। तुमने जो
भी सुख जाने
हैं, उन सब
में से, उनका
विपरीत जो दुख
का हिस्सा है,
वह लग कर दो,
तो थोडी—सी
तुम्हें झलक
कल्पना में आ
सकती है।
लेकिन, वह
झलक भी पकी
खबर न देगी; क्योंकि
परिधि पर
सिर्फ झलकें
मिलती हैं; क्योंकि तुम
कितना ही सोचो,
जो तुमने
नहीं चखा है, उसके तुम
प्रत्यय और
धारणा न बना
सकोगे; चखना
ही पड़ेगा।
ये
सूत्र बड़े हैं।
विस्मय से भरो।
मुड़ो स्व की
ओर। स्वयं में
ठहरो, ताकि
महा ऊर्जा
तुम्हें
उपलब्ध हो
जाये। जीवन
तुम्हारा हों—परम
जीवन; विवेक
से आत्मज्ञान
को उपलब्ध हो
जाओ—जागृति से,
परम जागृति
से, निद्रा
को तोड़कर और
अस्तित्व का
आनंद भोग सकोगे
तब तुम। समाधि—सुख
तुम्हारा है।
समाधि—सुख
के संबंध में
कुछ बातें और।
स्व—जीवन में
जो भी सुख तुम
भोगते हो, वह बहुत—सी
बातों पर
निर्भर करेगा;
तुम्हारी
योग्यता—अयोग्यता,
शिक्षा—अशिक्षा,
शक्ति—सामर्थ्य, परिवार—संबंध—सब
पर निर्भर
करेगा। तुम
अकेले नहीं हो
वहां। अगर
गरीब के घर
में पैदा हुए
हो तो उसी सुख
को पाने में
तुम्हें
जीवनभर
गंवाना पड़ेगा;
अमीर घर में
पैदा हुए हो, जल्दी पहुंच
जाओगे। अगर बुद्धिमान
हो, चालाक
हो, होशियार
हो गणित में
तो जल्दी
पहुंच जाओगे;
अगर बुद्ध
हो, काफी
भटकोगे पहुंच
जाओ यह
संदिग्ध है।
शरीर रुग्ण है,
मुश्किल
पड़ेगा; शरीर
स्वस्थ है, जल्दी पहुंच
जाओगे। यह सब
सांयोगिक है,
हजार बातों
पर निर्भर है।
लेकिन, समाधि—सुख
किसी बात पर
निर्भर नहीं
है, अनक्कीशनल
है, बेशर्त
है। न
तुम्हारी बुद्धि
पर, न
तुम्हारे
शरीर पर, न
तुम्हारी
योग्यता—अयोग्यता
पर, न
तुम्हारी
शिक्षा—परिवार
पर, सुंदर—कुरूप,
स्री—पुरुष—किसी
बात पर निर्भर
नहीं; शूद्र—ब्राह्मण,
हिंदू—मुसलमान—किसी
बात पर निर्भर
नहीं; जवान—वृद्ध—किसी
बात पर निर्भर
नहीं। बेशर्त
सुख है; क्योंकि
वह तुम्हारी
संपदा है। वह
तुम्हारे पास
है ही। तुम
उसे लेकर ही
पैदा हुए हो।
तुमने उस तरफ
ध्यान नहीं
दिया, बस
इतनी ही बात
है। तुमने उसे
विस्मरण किया
है, तुमने
खोया नहीं है।
सिर्फ आंख
लौटाओ, मुड़ो
पीछे की तरफ
और अपने को
देख लो।
तो, ऐसा कुछ
नहीं कि
बुद्धिमान
ज्यादा समाधि—सुख
पा लेंगे, बुद्ध
वंचित रह
जायेंगे—ऐसा
कुछ भी नहीं
है। बे पढ़े—लिखे
भी वहां पहुंच
जाते हैं।
कबीर भी वहां
पहुंच जाता है—निपट
गंवार। बुद्ध
भी वहां
पहुंचते हैं।
और, जब
दोनों पहुंच
जाते हैं, तो
जरा भी फर्क
नहीं है।
समाधि—सुख
जीवन का
स्वरूप है।
तुम्हारी
बाहरी परिधि
काली है या
गोरी, स्वस्थ
या सुंदर, रुग्ण—गैर
रुका; तुम्हारी
बुद्धि में
बहुत—से शब्द
भरे हैं कि
थोड़े; शास्त्र
तुमने ज्यादा
जाने कि कम—इस
सबसे कोई भी
संबंध नहीं।
तुम्हारा
होना
पर्याप्त है।
तुम हो, इतना
काफी है।
इसलिए, समस्त
ध्यान, शुद्ध
होने की खोज
है। जहां तुम
शरीर को भी
भूल जाओगे, मन को भी भूल
जाओगे—वहीं
तुम्हें
आत्मा का
समाधि—सुख, अस्तित्व का
आनंद उपलब्ध
होना शुरू हो
जायेगा। किसी
भांति बस इतना
ही करो कि
थोड़ी देर को
शरीर तुम्हें
स्मरण न रहे, मन स्मरण न
रहे। जैसे ही
शरीर और मन का
विस्मरण होगा,
आत्मा का
स्मरण होगा।
जब तक तुम्हें
शरीर और मन का
स्मरण रहेगा,
आत्मा का
स्मरण न रहेगा।
क्योंकि शरीर
और मन बाहर
हैं, आत्मा
भीतर है। तुम
दोनों की तरफ
एक साथ न देख
सकोगे; एक
की तरफ ही देख
सकोगे।
इस
समाधि शिविर
में, तुमने
अगर इतना ही
किया कि थोड़ी
देर को, एक
क्षण को भी, शरीर और मन
भूल जायें, तो तुम्हें
समाधि—सुख का
स्वाद मिल
जायेगा। और, एक बार
स्वाद मिल
जाये, बस
काफी है। फिर
तुम्हारी
जिंदगी दूसरी
हो गयी। पहला
स्वाद ही कठिन
है। एक दफा
गर्दन मुड़
जाये, फिर
तो तुम जान
लिये तरकीब, फिर
तुम्हारे हाथ
में है। फिर
तुम जहां भी
गर्दन मोड़
लोगे, वहीं
तुम देख लोगे।
पहले गर्दन का
मोडना ही सारा
श्रम लेता है।
एक बार
कुंजी हाथ में
आ गयी, फिर
तुम मालिक हो।
फिर जब चाहा
तब। तब तुम
मजे से संसार
में घूमो, तुम्हारे
समाधि—सुख को
कोई छीन न
सकेगा। तुम
दुकान पर बैठो,
तुम समाधि—सुख
में रहोगे।
तुम बाजार में
रहो तुम समाधि—सुख
मे रहोगे। एक
बात घटना शुरू
होगी कि बाहर
जो तुम्हारी सुखों
को दौड़ है, वह
अपने—आप क्षीण
होती जायेगी;
क्योंकि, जब महान सुख
हाथ में आ
जाये, तो
क्षुद्र
सुखों की
चिंता कौन
करता है! जब हीरे—जवाहरात
हाथ में आ
जायें, तो
कंकड़—पत्थर
आदमी अपने—आप
फेंक देता है,
उन्हें फिर
त्यागना नहीं
पड़ता।
इसलिए, मैं
निरंतर कहता
हूं कि ज्ञानी
कभी कुछ त्यागता
नहीं; जो
व्यर्थ है, वह छूट जाता
है। अज्ञानी
त्यागते हैं,
क्योंकि
त्याग उन्हें
कष्टपूर्ण है।
उन्हें
सार्थक का तो
कोई पता नहीं
और व्यर्थ को
छोडने की
कोशिश करते
हैं। मन पकड़ता
है; क्योंकि,
मन कहता है
कि इसको छोड़
दे रहे हो, जो
हाथ में है और
जो हाथ में
नहीं है, उसका
क्या भरोसा!
वह है भी या
नहीं, यह
भी संदिग्ध है।
तो, मैं
तुमसे कुछ भी
त्यागने को
नहीं कहता; मैं तुमसे
सिर्फ उसका
स्वाद लेने को
कहता हूं। वह
स्वाद
तुम्हारे
जीवन में महा
त्याग हो जायेगा।
उस स्वाद के
बाद तुम्हें
खुद ही दिखायी
पड़ जायेगा कि
क्या व्यर्थ
है; और, जो
व्यर्थ है, उसे कोई भी
नहीं पकड़ता।
उसे तो लोग
अपने—आप ही
छोडने लगते
हैं।
सुना
है मैंने, बंगाल
में एक संत
हुए—युक्तेश्वर
गिरि। एक धनी
समृद्ध
व्यक्ति उनके
पास आया और
कहने लगा, 'आप
महात्यागी
हैं! 'गिरि
खिलखिलाकर
हंसने लगे और
उन्होंने
अपने शिष्यों
से कहा, 'देखो! यह आदमी खुद
ही महात्यागी
है और मुझको
महात्यागी
कहता है। तू
मुझको मत फंसा?'
आदमी चौका।
उसने तो
प्रशंसा में
कहा था। शिष्य
भी चौके; क्योंकि
गिरि त्यागी
थे, इसमें
कोई संदेह ही
न था। शिष्यों
ने कहा, 'हम
समझे नहीं। वह
आदमी ठीक ही
कहता है।’ गिरि
ने कहा, 'ऐसे
समझो कि हीरा पड़ा
है और पत्थर
पड़ा है; यह
आदमी पत्थर
पक्के है और
मैं हीरा
पक्के हूं। यह
मुझको त्यागी
कहता है।’
कौन
त्यागी है? महावीर
त्यागी हैं कि
तुम? बुद्ध
त्यागी हैं कि
तुम? तुम
ही त्यागी हो,
क्योंकि
कचरे को पकड़े
हो। समाधि—सुख
को छोडूं रहे
हो और व्यर्थ
क्षुद्र, परिधि
पर घटनेवाली
दुखमिश्रित
घटनाएं—जहां
कुछ भी शुद्ध
नहीं हैं, जहां
सभी अशुद्ध है,
जहां सभी
बासा है, उच्छिष्ट
है—उसे तुम
पकड़े बैठे हो।
संसारी
महात्यागी है;
लेकिन
संसारी
संन्यासियों
को त्यागी
समझते हैं।
उनको लगते हैं
संन्यासी
त्यागी। सच
में तो वे दया
करते हैं कि
बेचारे! सब
छूट गया! सब
छोड़ दिया, कुछ
भोगा नहीं!
सम्मान भी
करते हैं भीतर,
गहरे मन में
दया भी करते
हैं कि नासमझ
हैं, बिना
भोगे सब छोड़
दिया। कुछ तो
भोग लेते।
उन्हें पता ही
नहीं कि वे
किससे कह रहे
हैं।
संन्यासी को
महाभोग
उपलब्ध हुआ है।
अस्तित्व ने
उसे महाभोग
में आमंत्रित
कर लिया है।
तुमसे
मैं छोड़ने को
नहीं कहता; तुमसे
मैं जानने को
कहता हूं
स्वाद लेने को
कहता हूं। वही
स्वाद
तुम्हारे
जीवन में धीरे—
धीरे, जो
व्यर्थ है, उसका कटना
हो जायेगा।
व्यर्थ छूट ही
जाता है, उसे
छोड़ना नहीं पड़ता।
आज इतना ही।
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