दिनांक 6
फरवरी, 1977,
ओशो
आश्रम, पूना।
जनम
उवाच:
तत्त्वविज्ञानसंदंशमादाय
हदयोदरात्।
नानाविधपरामर्शशल्योद्धार:
कृतो मया।। 277।।
क्व
धर्म: क्व च
वा काम: क्व
चार्थ क्व
विवेकिता।
क्व
द्वैत क्व च
वाउद्वैतं
स्वमहिस्त्रि
स्थितस्थ मे।।
278।।
क्व
भूतं क्व
भविष्यद्वा
वर्तमानमयि क्व
वा।
क्व
श्तोः क्व च
वा नित्य
स्वमहिमि
स्थितस्थ मे।।
279।।
क्व
चात्मा क्व च
वानात्मा क्व
शभं क्याशभं
तथा।
क्व
चिंता क्व च
वाचिंता
स्वमहिमि
स्थितस्थ मे।।
280।।
क्व
स्वन: क्व
सषप्तिर्वा क्व
च जागरण तथा।
क्व
तुरीय भयं
वापि
स्वमहिथ्यि
स्थितस्थ मे।।
281।।
क्व
दूर क्व समीपं
वा बाह्य
क्याभ्यंतरं क्व
वा।
क्व
स्थ्यूं क्व
च वा ब्लू
स्वमहिमि
स्थितस्थ मे।।
282।।
क्व
मृत्युजार्वितं
वर क्व लोका:
क्यास्थ क्व
लौकिकम्।
क्व
लय: क्व
समाधिर्वा
स्वमहिमि
स्थितस्थ मे।।
283।।
अल
त्रिवर्गकथया
योगस्थ
कथयाध्यलम्।
अर्ल
विज्ञानकथया
विश्रांतस्थ
ममात्मनि।। 284।।
जिंदगी
दुल्हन है एक
रात की
कोई
नहीं मंजिल है
जिसके अहिवात
की
मांग
भरी शाम को
बहारों ने
सेज
सजी रात चांद—तारों
ने
भोर
हुई मेंहदी
छुटी हाथ की
जिंदगी
दुल्हन है एक
रात की
नैहर है
दूर, पता
पिया का न
गांव
कहीं न
पड़ाव कोई कहीं
नहीं छांव
जाए
किधर डोली
बारात की
जिंदगी
दुल्हन है एक
रात की
बिना
तेल बाती जले
उम्र का दिया
बीच
धार छोड़ गया
निर्दयी पिया
आंख
बनी बदली
बरसात की
जिंदगी
दुल्हन है एक
रात की
पर इस एक
रात के लिए हम
बड़ा जंजाल
फैला लेते हैं।
इस एक रात के
लिए हम बड़ा
संसार
निर्मित कर
लेते हैं। जो
क्षणभंगुर है, उसके लिए
हम शाश्वत को
गंवा देते हैं।
जो असार है, उसके लिए
सार को खो
देते हैं। इधर
कंकड़—पत्थर
बीनते रहते
हैं, वहां
जीवन के हीरे
रिक्त होते
चले जाते हैं।
जोड़ लेते हैं
कूड़ा—करकट
मरते—मरते तक,
लेकिन जीवन
गंवा देते हैं।
कहा है जीसस
ने, तू
सारी पृथ्वी
भी जीत ले और
अगर अपने को
गंवा दिया, तो इस पाने
का सार क्या
है?
अष्टावक्र
ने जो सूत्र
जनक को दिये, वे जागरण
के अपूर्व
सूत्र हैं।
कोई समझ ले तो
बस जाग गया।
जनक जैसा
शिष्य पाना भी
बहुत मुश्किल
है, दुर्लभ
है।
अष्टावक्र
जैसा गुरु तो
दुर्लभ होता
ही
है, जनक जैसा
शिष्य भी बहुत
दुर्लभ है। और
अष्टावक्र और
जनक जैसे गुरु—शिष्य
का मिलन पहले
कभी हुआ, उल्लेख
नहीं। बाद में
भी कभी हुआ, ऐसा उल्लेख
नहीं। शायद
दुबारा यह बात
घटी ही नहीं।
करीब—करीब
असंभव लगता है
दुबारा घटना।
जैसा गुरु, वैसा शिष्य।
ठीक दो स्वच्छ
दर्पण एक—दूसरे
के सामने रखे
हैं।
अष्टावक्र
ने अपनी सारी
बात कह दी।
उंडेल दिया
अपने पूरे
हृदय को। जो
कहा जा सकता
था, कह
दिया। जो नहीं
कहा जा सकता
था, उसे भी
कहने की कोशिश
की। जनक इस
पूरी अपूर्व
वर्षा के बाद
धन्यवाद दे रहे
हैं। गुरु को
धन्यवाद कैसे
दिया जाए? एक
ही धन्यवाद हो
सकता है कि
गुरु ने जो
कहा, वह
व्यर्थ नहीं
गया, समझ
लिया गया।
गुरु से उऋण
होने का कोई
और तो उपाय
नहीं है। एक
ही मार्ग है
धन्यवाद का, आभार का कि
जो वर्षा हुई,
व्यर्थ
नहीं गयी, मेरे
हृदय की झील
में भर गयी है।
तुमने जो श्रम
किया, वह
नाहक नहीं हुआ।
तुमने जो मोती
बिखेरे, वह
मूढ़ों के
सामने नहीं
फेंके। वे परख
लिये गये हैं।
संभाल लिये
गये हैं।
उन्हें मैंने
अपने हृदय में
संजो लिया है।
वे मेरे
प्राणों के
अंग हो गये
हैं। इस बात
के सूचन के
लिए जनक अंतिम
संवाद का समारोप
करते हैं।
ठीक भी
है, इस
संवाद का
प्रारंभ भी
जनक से हुआ था,
और अंत भी
जनक पर हो।
जिशासा जनक ने
की थी कि हे
प्रभु, मुझे
जीवन का सार
क्या है, सत्य
क्या है, वह
बताएं। अंत भी
जनक पर ही
होना चाहिए।
जो पूछा था, मिल गया।
जितना पूछा था,
उससे
ज्यादा मिल
गया। जो जानना
चाहा था, वह
जना दिया गया
है। और जिसका
स्वप्न में भी
जनक को स्मरण
न होगा, सुषुप्ति
में भी जिसकी
तरंग कभी न
उठी होगी, वह
सब भी उंडेल
दिया गया।
क्योंकि गुरु
जब देता है, तो हिसाब से
नहीं देता।
शिष्य के
मांगने की
सीमा होगी, गुरु के
देने की क्या
सीमा है!
शिष्य के
प्रश्न की
सीमा होगी, गुरु का
उत्तर असीम है।
और जब तक असीम
उत्तर न मिले,
तब तक सीमित
प्रश्नों के
भी हल नहीं
होते हैं।
सीमित प्रश्न
भी असीम उत्तर
से हल होता है।
थोड़ा—सा
पूछा था जनक
ने, अष्टावक्र
ने खूब दिया
है। दो बूंद
से तृप्ति हो
जाती जनक की, ऐसा उसका
प्रश्न था, अष्टावक्र
ने सागर उंडेल
दिया है।
इस बात
को भी समझ
लेना कि यह
जीवन का एक
परम आधारभूत
नियम है कि
परमात्मा के
इस जगत में
कंजूसी नहीं
है, कृपणता
नहीं है। जहां
एक बीज से काम
चल जाए, वहां
देखते हैं, वृक्ष पर
करोड़ बीज लगते
हैं। जहां एक
फूल से काम चल
जाए, वहां
करोड़ फूल
खिलते हैं। जहां
एक तारा काफी
हो, वहा
अरबों—खरबों
तारे हैं।
जीवन का एक
आधारभूत नियम
है, कंजूसी
नहीं है। वैभव
है, महिमा
है। इसीलिए तो
हम परमात्मा
को ईश्वर कहते
हैं। ईश्वर का
अर्थ होता है,
ऐश्वर्यवान।
जरूरत पर
समाप्त नहीं
है, जरूरत
से ज्यादा है,
तो ऐश्वर्य।
जब हम कहते
हैं किसी
व्यक्ति के
पास ऐश्वर्य है,
तो इसका
मतलब यह होता
है कि
आवश्यकता से
ज्यादा है।
आवश्यकता
पूरी हो जाये
तो कोई
ऐश्वर्य नहीं
होता। इतना हो
कि तुम्हारी
समझ में न पड़े
कि अब क्या करें,
आवश्यकताएं
सब कभी की
पूरी हो गयीं,
अब यह जो
पास में है
इसका क्या
उपयोग हो, तब
ऐश्वर्य है।
इस अर्थ में
तो शायद कोई
आदमी कभी
ईश्वर नहीं होता
है। ईश्वर ही
बस ईश्वर है।
परम ऐश्वर्य
है। कहीं जरा
भी कृपणता
नहीं। और जब
किसी आत्मा का
इस परम
ऐश्वर्य से
मेल हो जाता
है, तो इस
परम ऐश्वर्य
की ध्वनि उस
आत्मा में भी
झलकती है।
अष्टावक्र
ने उंडेल दिया।
तुम्हें कई
बार लगा होगा, इतना
अष्टावक्र
क्यों कह रहे
हैं, यह तो
बात जरा में
हो सकती थी।
लेकिन जो जरा
में हो सकता
है, उसको
भी परमात्मा
बहुत रूपों
में करता है।
जो संक्षिप्त
में हो सकता
है, उसको
भी विराट करता
है। विस्तार
देता है।
ब्रह्म शब्द
का अर्थ होता
है, विस्तार।
जो विस्तीर्ण
होता चला जाता
है।
ब्रह्मचर्चा
भी ब्रह्म
जैसी है।
पत्ते पर
पत्ते निकलते
आते हैं।
शाखाओं में
प्रशाखाएं
निकलती आती
हैं। प्रश्न
तो बीज जैसा
था, उत्तर
वृक्ष जैसा है।
होना भी ऐसा
ही चाहिए।
अब इस
परम सौभाग्य
के लिए जनक
धन्यवाद कर
रहे हैं।
धन्यवाद शब्द
ठीक नहीं।
धन्यवाद शब्द
से काम न
चलेगा।
धन्यवाद शब्द
बहुत औपचारिक
होगा। इसलिए
कैसे धन्यवाद
दें! तो एक ही
उपाय है कि गुरु
के सामने यह
निवेदन कर दें
कि जो तुमने
कहा, वह
व्यर्थ नहीं
गया।
तुम्हारा
श्रम सार्थक
हुआ है।
तुम्हारा श्रम
सृजनात्मक
हुआ है। मैं
भर गया हूं।
यह सुगंध उठे
जनक से कि
अष्टावक्र के
नासापुट
सुगंध से भर
जाएं। वह जो
ध्वनि, जो
गीत उन्होंने
भेजा था, लौटकर
आ जाए। और वे
समझें कि जनक
का हृदय भी गज
गया है, प्रतिध्वनित
हो उठा है।
इसलिए यह
अंतिम चरण में
जनक निवेदन
करते हैं। जनक
निवेदन करते
हैं कुछ ऐसी
बातें भी, जो
अष्टावक्र ने
छोड़ दीं।
यह भी
समझ लेने जैसा
है इसके पहले
कि हम सूत्र में
जाएं।
कोई भी
सदगुरु शिष्य
की परीक्षा के
लिए एक ही उपाय
रखता है—वह सब
कह देता है, लेकिन
कहीं कुछ एकाध—दो
मुद्दे की
बातें छोड़
जाता है। अगर
शिष्य उन्हें
पूरा कर दे, तो समझो कि
समझा। अगर
उतना ही दोहरा
दे जितना गुरु
ने कहा, तो
समझो कि
तोतारटत है।
समझ आयी नहीं।
वह जो खाली
जगह है, वह
परीक्षा है।
इतना सब कहा, लेकिन एकाध—दों
बिंदु पर थोड़ी—सी
जगह खाली छोड़
दी। अगर समझ
में आ जाएगा
शिष्य को, तो
वह उन खाली जगहों
को भर देगा।
जो गुरु ने
नहीं कहा था, सिर्फ इशारा
करके छोड़ दिया
था, शुरुआत
की थी, पूर्णता
नहीं की थी, वक्तव्य की
सिर्फ झलक दी
थी, लेकिन
वक्तव्य पूरा
का पूरा ठोस
नहीं था। अगर
शिष्य समझ गया
है तो जो ठोस
नहीं था वह
ठोस हो जाएगा।
जो अधूरा था
वह पूरा कर
दिया जाएगा।
शिष्य अगर
गुरु के खाली
छोड़े गये
रिक्त स्थानों
को भर दे, तो
ही समझो कि
समझा। अगर
उतना ही दोहरा
दे जितना गुरु
ने कहा, तो
यह तो तोते भी
कर सकते हैं, यह तो
यांत्रिक
होगा।
इसलिए
एकाध—दो बातें
अष्टावक्र
छोड़ गये हैं।
बुद्ध ने भी
वह किया है।
समस्त गुरुओं ने
वही किया है, एकाध दो
बात छोड़ देंगे।
जो नहीं समझा
है, वह
उनको तो पूरा
कर ही नहीं
सकता। असंभव
है। इसका कोई
उपाय ही नहीं
कि वह उन्हें
पूरा कर सके।
इसको किसी भी
चालबाजी से
पूरा नहीं
किया जा सकता,
किसी भी
बौद्धिक
व्यवस्था से
पूरा नहीं
किया जा सकता।
अनुभव ही भर
सकता है उन
रिक्त
स्थानों को।
और जनक ने
उनको भर दिया।
वही धन्यवाद
है।
एक और
बात, अष्टावक्र
के इन सारे
सूत्रों का
सार —निचोड़ है —श्रवणमात्रेण।
जनक ने कुछ
किया नहीं है,
सिर्फ सुना
है। न तो कोई
साधना की, न
कोई योग साधा,
न कोई जप—तप
किया, न
यज्ञ—हवन, न
पूजा—पाठ, न
तंत्र, न
मंत्र, न
यंत्र, कुछ
भी नहीं किया
है। सिर्फ
सुना है।
सिर्फ सुनकर
ही जाग गये।
सिर्फ सुनकर
ही हो गया—श्रवणमात्रेण।
अष्टावक्र
कहते हैं कि
अगर तुमने ठीक
से सुन लिया
तो कुछ और
करना जरूरी
नहीं। करना
पड़ता है, क्योंकि
तुम ठीक से
नहीं सुनते।
तुम कुछ का
कुछ सुन लेते
हो। कुछ छोड़
देते हो, कुछ
जोड़ लेते हो; कुछ सुनते
हो कुछ अर्थ
निकाल लेते हो,
अनर्थ कर
देते हो।
इसलिए फिर कुछ
करना पड़ता है।
कृत्य जो है, वह श्रवण की
कमी के कारण
होता है, नहीं
तो सुनना काफी
है। जितनी
प्रगाढ़ता से
सुनोगे, उतनी
ही त्वरा से
घटना घट जाएगी।
देरी अगर होती
है, तो
समझना कि
सुनने में कुछ
कमी हो रही है।
ऐसा मत सोचना
कि सुन तो
लिया, समझ
तो लिया, अब
करेंगे तो फल
होगा। वहीं
बेईमानी कर
रहे हो तुम।
वहां तुम अपने
को फिर धोखा
दे रहे हो। अब
तुम कह रहे हो
कि अब करने की
बात है, सुनने
की बात तो हो गयी।
मेरे
पास एक
सर्वोदयी
नेता आते हैं।
के हैं, जिंदगी भर
सेवा की है, भले आदमी
हैं। एक—दो
शिविरों में
आए। फिर मुझे
मिलने आए।
मैंने पूछा कि
अब दिखायी
नहीं पड़ते? तो उन्होंने
कहा, अब
क्या करूं आकर?
आपको सुना,
समझा, अब
जब तक उसको कर
न लूं तब तक
आने से क्या? अब करने में
लगा हूं जब हो
जाएगा.. .तो
मैंने उनसे कहा,
फिर सुना ही
नहीं, समझा
ही नहीं। सुन
लिया, समझ
लिया, करने
को नहीं बचना
चाहिए। करने
की बात ही
गड़बड़ है।
मैंने तुमसे
कहा, यह
दीवाल है, यह
दरवाजा है, तुमने सुन
लिया, समझ
लिया, अब
करने को क्या
है? जब
निकलना हो, दरवाजे से
निकल जाना, दीवाल से मत
निकलना। अब
तुम कहते हो, अभ्यास
करेंगे।
अभ्यास
करेंगे कि यह
दीवाल है, अभ्यास
करेंगे कि यह
दरवाजा है, जब अभ्यास
खूब हो जाएगा
तब निकलेंगे।
अभ्यास धोखा
है। यह
सारसूत्र है
अष्टावक्र का।
अष्टावक्र
अभ्यास—विरोधी
हैं। वे कहते
हैं, अभ्यासमात्र,
साधनामात्र
धोखा है।
तुमने करने की
बात उठायी तो
एक बात पक्की
हो गयी कि
तुमने सुना
नहीं और अब
तुम तरकीबें
निकाल रहे हो।
अब तुम अपने
अहंकार को
समझा रहे हो, कि सुन तो
मैंने लिया।
धोखा तुम दे
रहे हो, सुना
तुमने नहीं।
सुन तो लिया, तुम कह रहे
हो, अब
करेंगे। करने
से ही होगा न!
सुनने से क्या
होता है?
लेकिन
सत्य की महिमा
यही है कि सुन
लिया तो हो गया।
सत्य कोई
साधारण घटना
थोड़े ही है।
तुम्हारे
कृत्य पर थोड़े
ही निर्भर है
सत्य।
तुम्हारे
करने से सत्य
थोड़े ही पैदा
होता है। सत्य
तो है, तुम्हारी
आंख के सामने
खड़ा है, तुम्हारे
हृदय में धड़क
रहा है, करना
क्या है? एक
हुंकार में, एक उदघोष
में स्मरण आ
सकता है।
श्रवणमात्रेण।
लेकिन
आदमी बड़ी
तरकीबें
निकालता है।
वह सोचता है
बड़ी दूर है
मंजिल, परमात्मा तो
बहुत दूर है, चलेंगे, खोजेंगे,
भटकेंगे, जनम—जनम
लगेंगे, अच्छे
कर्म करेंगे,
बुरे
कर्मों को
छोड़ेंगे, बुरे
किये हुओं को
अच्छों से
काटेंगे, ऐसा
धीरे— धीरे
सम्हालते—सम्हालते
पुण्य की
संपदा, एक
दिन
पहुंचेंगे।
नहीं, तुम
फिर न पहुंच
सकोगे। तुम
खुद उसे दूर
किये दे रहे
हो जो पास है।
मैंने
तो सोचा था
अपनी
सारी
उमर तुझे दे
दूंगा
इतनी
दूर मगर थी
मंजिल
चलते —चलते
शाम हो गयी
निकला
तो मैं था
गुदड़ी में
लाल
छिपाए बरन—बरन
के
कुछ
संग खेले थे
बचपन के
कुछ
संग सोये थे
यौवन के
कुछ पर
रीझ गयी थीं
कलियां
कुछ पर
झूम गयी थीं
गलियां
कुछ थे
रत्न अमोल
हृदय के
कुछ थे
नौलख हार नयन
के
किंतु
ठगौरी डाल गयी
कुछ
ऐसी पथ
की भूलभुलैया
जनम—जनम
की जमा खो गयी
जुग—जुग
नींद हराम हो
गयी
मैंने
तो सोचा था
अपनी
सारी
उमर तुझे दे
दूंगा
इतनी
दूर मगर थी
मंजिल
चलते—चलते
शाम हो गयी
मंजिल
दूर नहीं है।
मंजिल
तुम्हारे
समाने है।
चलते—चलते
शाम हो गयी
चले तो
चूके। चलने का
मतलब ही यह है
कि तुमने
मंजिल दूर मान
ली। चलकर तो
हम दूरी पर
पहुंचते हैं।
जो निकट से भी
निकटतम है...
मुहम्मद ने
कहा कि जो तुम्हारी
गर्दन में
धड़कती हुई
फड़कती प्राण की
नस है, उससे
भी जो ज्यादा
करीब है।
उपनिषद कहते
हैं, पास
से भी जो
ज्यादा पास है।
जो तुम्हारे
में विराजमान
है। तुममें और
जिसमें इंच भर
की दूरी नहीं
है।
चलते—चलते
शाम हो गयी
तुम
चले, तो
भटके। तुम चले,
तो चूके।
पहुंचना हो तो
रुको।
पहुंचना हो तो
चलना मत, हिलना
भी मत।
पहुंचना हो तो
जहां खड़े हो
वहीं
मूर्तिवत हो
जाना। गति से
नहीं पहुंचता
कोई सत्य तक, क्योंकि
सत्य कोई
गंतव्य नहीं
है। सत्य की
कोई यात्रा
नहीं होती, क्योंकि
सत्य दूर नहीं
है। सत्य तुम
हो। सत्य
तुम्हारी
सत्ता का नाम
है। सत्य
तुम्हारा
अस्तित्व है।
इसलिए
अष्टावक्र
कहते हैं, श्रवणमात्रेण।
अगर
जनक अब कहे कि
प्रभु, सुन ली आपकी
बात, अब
करूंगा, तो
अष्टावक्र
अपना सिर ठोंक
लेते। लेकिन
जनक ने यह बात
ही नहीं कही।
जनक ने तो
धन्यवाद दिया,
अपना
वक्तव्य दिया।
जनक ने क्या
कहा? जनक
ने कहा
तत्वविज्ञान
संदशमादाय
हृदयोदरात्।
नानाविधपरामर्शशल्योद्धार
कृतो मया।।
'मैंने
आपके
तत्त्वज्ञान
रूपी ससी को
लेकर हृदय और
उदर से अनेक
तरह के विचार
रूपी वाण को
निकाल दिया है।’
बात
खतम ही कर दी।
जनक ने कहा कि
शल्यक्रिया
हो गयी.।
शल्योद्धार:।
चिकित्सा हो
चुकी। आपने जो
शब्द कहे, वे
शस्त्र बन गये।
और शास्त्र जब
तक शस्त्र न
बन जाएं तब तक
व्यर्थ हैं।
आपने जो
शब्द कहे वे
शस्त्र बन गये
और उन्होंने
मेरे पेट और
मेरे हृदय में
जो—जो रुग्ण
विचार पड़े थे, उन सबको
निकालकर बाहर
फेंक दिया।
बात खतम हो
गयी।
तत्वविज्ञानाय।
वह जो
आपने सत्य की
निर्दर्शना
की, वह
जो तत्त्व का
इशारा किया, वह तो ससी बन
गयी, उसने
तो मेरे भीतर
से सब खींच
लिया जहर, उसने
तो सब काटे
निकाल लिये।
यह बात
खयाल रखना कि
दो शब्दों का
उपयोग करते हैं
जनक—हृदयोदरात्।
हृदय और पेट
से। उदर और
हृदय से। यह
बात बड़ी
महत्वपूर्ण
है। यह पांच
हजार साल
पुरानी बात है।
अब कहीं जाकर
पश्चिम में
मनोविज्ञान
इस बात को समझ
पा रहा है कि
मनुष्य जो भी
दमन करता है, विचारों
का, वासनाओं
का, वृत्तियों
का, वह सब
दमित
वृत्तियां
पेट में
इकट्ठी हो
जाती हैं। यह
तो अभी नवीनतम
खोज है, इधर
पिछले बीस
वर्षों में
हुई है। लेकिन
यह सूत्र पांच
हजार साल
पुराना है।
उदर? तुम
भी थोड़े चौंके
होओगे कि अगर
कहते कि मेरे मस्तिष्क
से सारे विचार
निकाल लिये
हैं, तो
बात ज्यादा
तर्कसंगत
मालूम पड़ती।
लेकिन कहते
हैं जनक, मेरे
उदर से, मेरे
पेट से। यह
बात ही जरा
बेहूदी लगती
है कि पेट से!
पेट में क्या
विचार रखे हैं?
लेकिन
आधुनिक
मनोविज्ञान
भी इससे सहमत
है। अंग्रेजी
में तो जो
शब्दावली है',
लोग कहते
हैं न कि इस
बात को पेट
में न ले
सकूंगा, 'आइ
विल नाट बी
एबल टू स्टमक
इट।’ इसको
उदरस्थ न कर
सकूंगा।
यह बात
महत्वपूर्ण
है। हम जो भी दबाते
हैं वह पेट
में चला जाता
है। इसीलिए
चिंतित आदमी
के पेट मैं
अल्सर हो जाते
हैं। चिंता के
वाण अल्सर बन
जाते हैं। सिर
में नहीं होते
अल्सर, मस्तिष्क
में नहीं होते
अल्सर, तुमने
देखा? होने
चाहिए
मस्तिष्क में
लेकिन होते
पेट में। कृपण
आदमी कब्जियत
से भर जाता है।
वह जो कंजूसी
है, वह पेट
में उतर जाती
है। कंजूस
आदमी और
कब्जियत का
शिकार न हो, बडा मुश्किल
है। क्योंकि
वह जो हर चीज
को कंजूसी से
देखने की आदत
है, वह
धीरे— धीरे
उदरस्थ हो
जाती है। फिर
पेट मल को भी
पकड़ने लगता है,
उसको भी
छोड़ता नहीं।
सब चीजें पकड़नी
हैं तो मल को
भी पकड़ना है।
हमारे
चित्त के
जितने रोग हैं, सब अंततः
गिरते जाते
हैं, पेट
में इकट्ठे
होते जाते हैं।
असल में पेट
ही एकमात्र
खाली जगह है
जहां चीजें
इकट्ठी हो
सकती हैं।
इसलिए उदर जनक
कहते हैं। कि
जितने — जितने
उपद्रव मैंने
अपने पेट में
इकट्ठे कर रखे
थे, आपके
तत्वविज्ञान
की संसी से
खींच ही लिये
आपने। खींचने
को कुछ बचा
नहीं है। मेरा
पेट हल्का हो
गया है। मेरा
पेट निर्भार
हो गया है। एक
बात।
दूसरी
बात कही कि और
हृदय से।
मस्तिष्क की
तो बात ही
नहीं उठायी है।
इसका कारण है।
तीन तल हैं
हमारे जीवन के।
एक है शरीर का
तल, एक
मन का तल और एक
है आत्मा का
तल। पूर्वीय
अनुसंधानकर्ताओं
ने अनुभव किया
कि शरीर के तल
पर जो भी
दबाया जाता, वह पेट में
चला जाता है।
चित्त के तल
पर, मन के
तल पर जो भी
दबाया जाता है,
वह हृदय में
अवरुद्ध हो
जाता है। और
आत्मा के तल
पर तो दमन हो
ही नहीं सकता।
और आत्मा का
स्थान है
मस्तिष्क के
अंतस्तल में—सहस्रार।
तो यह तीन
स्थान हैं।
पेट में शरीर
का जोड़ है।
हृदय में मन
का जोड़ है।
और सहस्रार
में आत्मा का
जोड़ है।
अगर
शरीर और मन की
गांठ खुल जाए, कुछ भी
दबा हुआ न रह
जाए, तो जो
ऊर्जा पेट में
अटकी है, जो
ऊर्जा हृदय
में उलझी है, वह मुक्त हो
जाती है। वह
मुक्त हुई
ऊर्जा वह जो
कमल का फूल
तुम्हारे
मस्तिष्क में
प्रतीक्षा कर
रहा है जन्मों
—जन्मों से, उसे ऊर्जा
मिल जाए तो वह
खिल जाए।
ऊर्जा के
मिलते ही वह
खिल जाता है।
वही मुक्ति है।
अगर
बंधन कहीं है
तो पेट और
हृदय में है।
अगर तुमने कुछ
भी दबाया है, तो या तो वह
पेट में पड़
गया होगा या
हृदय में पड़
गया होगा।
अधिकतर तो पेट
में पड़ता, क्योंकि
चित्त का
दबाने योग्य
लोगों के पास
कुछ होता ही
नहीं। जैसे
समझो, तुमने
अगर कामवासना
दबायी तो पेट
में पड़ जाएगी।
तुमने क्रोध
दबाया, तो
पेट में पड़
जाएगा। तुमने
ईर्ष्या, घृणा,
हिंसा दबायी,
तो पेट में
पड़ जाएगी। यह
सब शरीर के तल
की घटनाएं हैं,
बड़ी छुद्र।
पहले तल की
घटनाएं हैं।
किस
आदमी ने अगर
प्रेम दबाया, तो हृदय
में पड़ेगा।
गीत दबाया तो
हृदय में
पड़ेगा। संगीत
दबाया तो हृदय
में पड़ेगा।
करुणा दबायी—फर्क
समझ लेना, क्रोध
दबाया तो पेट
में पड़ता है, करुणा दबायी
तो हृदय में
पड़ती है। उठी
थी करुणा, देने
का मन हो गया
था कि दे दें
और दबा ली, तो
हृदय
अवरुद्ध
हो जाएगा। उठा
था क्रोध और
दबा लिया छ, तो पेट
अवरुद्ध हो
जाएगा। क्रोध
नीचे तल की
बात है, करुणा
जरा ऊंचे तल
की बात है। हम
तो अधिकतर सौ
में नब्बे मौके
पर बिलकुल
नीचे तल पर
जीते हैं।
इसलिए हमारा
उपद्रव .सब
पेट में होता
है। और फिर
पेट की
विकृतियां
हजार तरह की
बाधाएं, व्याधियां
पैदा करती हैं।
शरीर के तल पर
जो बीमारियां
पैदा होती हैं,
उनमें भी
सत्तर
प्रतिशत तो
पेट में दबाए
गये मानसिक
विकारों का ही
हाथ होता है।
योग
में बड़ी
प्रक्रियाएं
हैं पेट को
शुद्ध करने की।
लेकिन वे तो
लंबी
प्रक्रियाएं
हैं। और फिर
भी किसी योगी
का कोई
छुटकारा होता
दिखता है, ऐसा बहुत
कठिन होता है।
लंबी यात्रा
है। जन्मों —जन्मों
तक योग के
द्वारा कोई
पेट का शोधन
करता रहता है,
तब कहीं कुछ
हल हो पाता है।
लेकिन
जनक कहते हैं
कि आपने तो
अपने शब्दों
के वाणों से
मेरे भीतर
चुभे वाणों को
निकाल लिया।
मैं खाली हो
गया। मैं
रिक्त हो गया।
मैं हल्का हो
गया। मैं
स्वस्थ हो गया
हूं।
'हृदय
और उदर से
अनेक तरह के
विचार रूपी
वाण को निकाल
दिया है।’
नानाविध
परामर्श।
यह भी
शब्द समझने
जैसा है।
तुम्हारी
जिंदगी में
इतनी सलाहें
दी हैं लोगों
ने तुम्हें, उन्ही
सलाहों के
कारण तुम झंझट
में पड़े हो।
नानाविध
परामर्श।
जो
देखो वही सलाह
दे रहा है, जिसको
कुछ पता नहीं
वह भी सलाह दे
रहा है। सलाह
दैने में लोग
बडे बेजोड़ हैं।
तुम किसी से
भी सलाह मांगो,
वह यह तो
कहेगा ही नहीं
कि भई, इसका
मुझे अनुभव
नहीं है। यह
तो कभी कहेगा
ही नहीं कि इस
संबंध में मैं
कुछ नहीं कह
सकता। तुम
क्रोधी से
क्रोधी आदमी
से सलाह मांगो
कि क्रोध के
संबंध में
क्या करूं, तो तुम्हें
सलाह देगा कि
क्या करो।
शराबी भी
तुम्हें सलाह
देगा कि शराब
कैसे छोड़ो।
चोर तुम्हें
चोरी के
विपरीत सलाह
दे सकता है।
शायद देगा ही।
क्योंकि उसी
सलाह देने के
आधार से वह
तुम्हारे मन
में एक
प्रतिमा पैदा
करेगा कि कम
से कम यह आदमी
चोर तो नहीं
हो सकता, जो
चोरी के खिलाफ
सलाह दे रहा
है। बेईमान
ईमानदारी की
बातें करेगा।
जिनको कुछ भी
पता नहीं है, वे परम सत्य
की बातें
करेंगे।
किताबों से उधार
ले लिया होगा।
शब्दजाल सीख
लिया होगा।
उसी को दूसरों
पर फेंके जाते
हैं। बुद्ध ने
कहा है, अगर
दुनिया में
इतनी भी
निष्ठा आ जाए
कि आदमी वही
कहे जितना
जानता है, तो
दुनिया में से
आधा अंधकार
दूर हो जाए।
लेकिन लोग जो
नहीं जानते वह
भी कहे चले
जाते हैं।
एक जैन —मुनि
के साथ मुझे
एक दफे बोलने
का मौका आया।
उन्होंने
आत्मज्ञान पर
एक घंटा
व्याख्यान दिया।
सुनकर तो मुझे
लगा कि उनको
कुछ भी पता
नहीं है। वह
जो भी कह रहे
हैं, सब
उधार है, सब
बासा है। जब
मैंने यह कहा
तो वह बड़े
बेचैन हो गये।
मगर आदमी भले
थे। चुप रहे
उन्होंने कुछ
विवाद खड़ा न
किया। सांझ एक
आदमी को मेरे
पास भेजा कि
मैंने दिन भर
सोचा आपने जो
कहा और मुझे
लगता है कि
ठीक है, मुझे
पता नहीं है।
मैं चाहता हूं, आपसे मिलूं।
तो मैंने कहा,
मैं आऊंगा।
इतना भला आदमी
चाहे, तो
उसे यहां मेरे
पास आने की
जरूरत नहीं, मैं आ
जाऊंगा। तो
मैं गया, वहां
दस—बीस लोग
इकट्ठे हो गये
थे। लोगों को
खबर मिल गयी।
तो जैन—मुनि
ने कहा कि मैं एकांत
में बात करना
चाहता हूं।
मैंने कहा, अब इतनी
हिम्मत तो करो!
ईमानदारी है,
तो इतनी
हिम्मत और।
इनके ही सामने
करो। घबड़ाना
क्या है? यही
न, इन
लोगों को पता
चल जाएगा आप
अभी
आत्मज्ञानी नहीं
हैं। चल जाने
दो पता। यह भी
आत्मज्ञान की
यात्रा पर
पहला कदम होगा।
सत्तर साल
आपकी उम्र हुई,
मैंने उनसे
कहा, आप
कहते हैं कोई
पचास साल हो
गये आपको
संन्यास लिये,
बीस साल के
जवान थे तब
संन्यास लिया,
आपकी बडी
खयाति है, हजारों
आपके शिष्य
हैं जो आप कह
रहे हैं उसमें
से कुछ भी
आपको पता नहीं
है, क्यों
कह रहे हैं?
उन्होंने
कभी सोचा ही
नहीं था।
उन्होंने कहा, मैंने
कभी इस तरह
सोचा ही नहीं।
आज आप पूछते
हैं तो बड़ा
किंकर्त्तव्यविमूढ़
हो गया हूं।
यह मैंने कभी
सोचा ही नहीं
कि क्यों कह
रहा हूं। कह
रहा हूं? यह
बेहोशी में
चलता रहा है।
संन्यस्त हुआ
था, शास्त्र
पढ़ने शुरू
किये, शास्त्र
पढ़ने से
प्रवचन शुरू
हुआ, लोग
पूछने आने लगे,
मैं सलाह
देने लगा, यह
तो भूल ही गये
कि ये पचास
साल कैसे बीत
गये इसी सलाह
में। और जो
सलाहें मैंने
दी हैं, उनका
मुझे कुछ पता
नहीं।
दुनिया
में इतना
परामर्श है, इतनी
सलाहें दी जा
रही हैं, उनकी
वजह से बड़ी
कीचड़
तुम्हारे पेट
में मची हुई
है।
नानाविधपरामर्श।
यह जो न
मालूम कितने—कितने
तरह के
परामर्श, मत—मतांतर, सिद्धात, शास्त्र
लोगों ने समझा
दिये हैं, उन
सबको आपने
खींच लिया।
आपने मेरी
शल्य—चिकित्सा
कर दी, सर्जरी
कर दी, जनक
ने कहा। मैं
मुक्त हुआ 1
आपने काट लिया।
'अपनी
महिमा में
स्थित हुए
मुझको कहां
धर्म है, कहा
काम है, कहां
अर्थ; कहां
द्वैत और कहां
अद्वैत?
और अब, अब जब
जागकर मैं
अपने को देखता
हूं तो पाता
हूं —
क्व
धर्म: क्व च
वा काम: क्व
चार्थ क्व
विवेकिता।
क्व
द्वैत क्व च
वाउद्वैतं
स्वमहिम्नि
स्थितस्य में।।
अब जब
जागकर देखता
हूं तो एक ही
बात दिखायी पड़ती
है—अपनी महिमा
के सिंहासन पर
विराजमान हूं।
कुछ करने को
नहीं है। अपने
गौरव में
प्रतिष्ठित
हो गया हूं।
स्वमहिमा को
उपलब्ध
कर दिया
आपने मुझे।
सिर्फ कहकर, सिर्फ
हिलाकर, सिर्फ
आवाज देकर।
जीसस
के जीवन में
उल्लेख है कि
उनका एक भक्त
लजारस मर गया।
वह बाहर थे
गांव के।
लजारस की
बहनों ने खबर
भेजी कि लजारस
मर गया, आप जल्दी
आएं। वे आये
तो भी चार दिन
लग गये। तब तक
तो लाश को
संभालकर रखा
उन्होंने—स्व
कब में रख
दिया था। एक
गुफा में छिपा
दी थी लाश। जब
जीसस आए तो वे
दोनों बहनें
मेरी और
मार्था रोने
लगीं और
उन्होंने कहा
कि अब तो क्या
हो सकेगा! अब
तो बदबू भी
आने लगी। जीसस
ने कहा, तुम
फिकिर छोड़ो।
अगर मैं
पुकारूंगा तो
लजारस सुनेगा।
किसी
को भरोसा न था।
पर भीड़ इकट्ठी
हो गयी। जब वे
गये उस गुफा
के द्वार पर
और उन्होंने
जोर से आवाज
दी कि लजारस
बाहर आ! तो कहते
हैं, लजारस
अपनी अर्थी से
उठा, चलकर
बाहर आ गया।
और जब बाहर आ
गया तो लोग
घबड़ा गये, लोग
भागने लगे।
जीसस ने कहा, भागो मत।
मैंने तुमसे
कहा था न, अगर
मैं
पुकारूंगा तो
वह सुनेगा!
क्योंकि वह मुझे
सुन ही चुका
है। और जब
उसने जिंदा
रहते हुए मेरी
आवाज सुन ली, तो कोई कारण
नहीं है कि
मुर्दा रहते
मेरी आवाज
क्यों न
सुनेगा! तुम न
मुझे जिंदा
रहकर सुने हो,
न तुम मुझे
मुर्दा रहकर
सुन पाओगे —तुम
जिंदा में भी
नहीं सुन पाए
तो तुम मुर्दा
में कैसे
सुनोगे?
ऐसी
घटना घटी हो, न घटी हो,
ये घटनाएं
प्रतीक
घटनाएं हैं।
लेकिन बात तो
सच है, गुरु
जब पुकारता है
शिष्य को कि
लजारस उठ, बाहर
आ, तो
लजारस उठकर
बाहर आ जाता
है।
श्रवणमात्रेण।
फिर ना—नुच
नहीं करता है।
फिर यह नहीं
कहता है कि
अभी कैसे आऊं,
अभी तो
अंधेरा है, अभी तो रात
बहुत है, अभी
थोड़ी देर और
सो लेने दें, कि मैं तो
मरा पड़ा हूं —लजारस
ने यह भी न कहा
कि यह कोई
वक्त की बात
है, मैं
इधर मरा पड़ा हूं, इधर कब में
रखने की मेरी
तैयारी चल रही
है —जब लजारस
बाहर आया तो
उसके ऊपर कफन
बंधा था—उसने
यह भी न कहा कि
अब कफन में
बंधे से तो मत
उठाओ, लोग
क्या कहेंगे!
कुछ तो
औपचारिकता
बरतो। नियम
बिलकुल तो मत
तोड़ो, मर्यादा
तो रखो। मैं
इधर मरा पड़ा हूं, अर्थी पर
कसा पड़ा हूं, तुम बुलाते
हो? नहीं, आ गया।
सुनना आ जाए!
तो अगर
तुम गौर से
देखो तो तुम
भी अर्थी पर
रखे हो। यह
शरीर जिसको
तुम अपना कह
रहे हो, अर्थी से
ज्यादा नहीं है।
और जिनको तुम
वस्त्र कह रहे
हो, यह
कफनी से
ज्यादा नहीं
हैं। इसीलिए
तो फकीर के
वस्त्र को
कफनी कहते हैं।
कफन से बनाया
कफनी। है तो
कफनी ही। कफन
कहो, कफनी
कहो, क्या
फर्क पड़ता है?
इस शरीर पर
जो भी वस्त्र
पड़े हैं, सभी
कफनी हैं। और
यह शरीर खुद
तो तुम्हारी
अर्थी है। इसी
पर चढ़े —चढ़े तो
तुम मौत की
तरफ जा रहे हो।
यही शरीर तो
तुम्हें एक
दिन ले जाएगा
चिता पर। इस
मुर्दा शरीर
के भीतर तुम
जीवित पड़े हो,
मगर
तुम्हें
सुनना नहीं
आया। जनक ने
आवाज सुन ली।
उसने कहा कि
धन्य है! मैं
किन शब्दों
में धन्यवाद
दूं?
'अपनी
महिमा में स्थित
हुए मुझको।’
एक
क्षण में
तुमने मुझे
मेरी महिमा
में स्थित कर
दिया। ऐसा
नहीं कि तुमने
मुझे रास्ता
बताया कि कैसे
महिमा में
स्थित हो जाऊं।
तुमने रास्ता
नहीं दिया, तुमने
मार्ग नहीं
दिया, तुमने
मंजिल दे दी।
अब कैसा धर्म?
अब कैसा
अर्थ? अब
कैसा काम? कहां
द्वैत है? कहां
अद्वैत है? चकितभाव से—यह
चकितभाव के
उदघोषण हैं —इसलिए
बार—बार यह
शब्द आएगा।
क्व
धर्म:।
कहा है
धर्म?
क्व च
वा काम:?
कहां
गयी वासनाएं? कहां
गयीं
महत्वाकांक्षाएं?
क्व
चार्थ?
कहां
गयी अर्थ की
प्रबल दौड़? आपाधापी
र इतना कमा
लूं र ऐसा कमा
लूं र यह हो जाऊं,
इस पद पर
बैठ जाऊं।
इतना ही नहीं
क्व
विवेकिता?
जिस
विवेक को बहुत
मूल्य देता था, विचार को,
समझ को, वह
समझ भी अब
किसी काम की न
रही। वह समझ
भी अंधे के
हाथ की लकड़ी
थी। आंख खुल
गयी, लकड़ी
की क्या जरूरत
रही। हिंदू
शास्त्र कहते
हैं, 'उत्तीणें
तु यते पारे नौकाया
किं
प्रयोजनम्।’ जब पार हो
गये नदी, तब
फिर नौका की
क्या जरूरत? अंधा आदमी
लकड़ी का सहारा
लेकर टटोल—टटोलकर
चलता है।
लंगड़ा आदमी
बैसाखी के
सहारे चलता है।
जीसस
के जीवन में
एक उल्लेख है, एक लंगड़ा
आया जो बैसाखी
पर चलता आया।
और कहते हैं, जीसस ने उसे
छुआ और लंगड़ा
स्वस्थ हो गया।
जब वह जाने
लगा तो भी वह
अपनी बैसाखी
साथ ले जाने
लगा, तो
जीसस ने कहा, अरे पागल, बैसाखी तो
छोड़! अब यह
बैसाखी कहां
ले जा रहा है? लोग हंसेंगे।
पुरानी
आदत। न—मालूम
कितने वर्षों
से बैसाखी
लेकर चलता था, आज ठीक भी
हो गया तो भी
बैसाखी लिये
जा रहा है।
जनक
कहने लगे—कहां
बैसाखिया! ये
सब जो 'क्व
धर्म:?' धर्म
की क्या जरूरत
है दुनिया में?
लाओत्सु ने
कहा है, एक
समय ऐसा था जब
लोग धार्मिक
थे, इतने
धार्मिक थे कि
धर्म का किसी
को पता ही न था।
जब अधर्म होता
है, तब
धर्म का पता
होता है।
लाओत्सु कहता
है, जब लोग
अधार्मिक हो
गये, तब
धर्म पैदा हुआ।
तब धर्मगुरु
आए।
एक
हिंदू
संन्यासी
मेरे घर
मेहमान थे और
मुझसे कहने
लगे, यह
भारत— भूमि
बड़ी धार्मिक
है! मैंने कहा,
कुछ शर्म
करो, संकोच
खाओ। वह कहने
लगे, क्या
मतलब आपका? संकोच, शर्म?
सब
तीर्थंकर, सब
अवतार, सब
बुद्धपुरुष यहीं
पैदा हुए हैं।
मैंने कहा कि
फिर भी मैं
तुमसे कहता
हूं कि संकोच
खाओ। ड़ब मरो
चुल्ल भर पानी
में।
उन्होंने कहा,
आपका मतलब
क्या है? मेरी
कुछ समझ में
नहीं आता। यह
तो महिमा की
बात है।
मैंने
कहा, महिमा
की बात नहीं
है। तुमसे
ज्यादा
अधार्मिक कोई
नहीं होगा, तब तो इतने
धर्मगुरु, अवतार,
तीर्थंकर, इनको पैदा
होना पड़ा। जिस
घर में रोज
डाक्टर आएं, उसका मतलब
कोई बड़ी महिमा
की बात है! कि
सब बड़े —बड़े
डाक्टर रोज
हमारे यहां
आते हैं, देखो
कारें खड़ी
रहती हैं
डाक्टरों की!
ऐसा कोई दिन
नहीं जाता जिस
दिन डाक्टर न
आते हों।
हमारे घर की
महिमा! लोग
कहेंगे, यह
महिमा की बात
नहीं, तुम
बीमार हो। घर
तो वह
महिमावान है जहां
डाक्टरों की
कोई जरूरत
नहीं।
जहां
डाक्टर आते ही
नहीं। जहां
दवा की बोतल
आयी ही नहीं।
लाओत्सु
यही कहता है।
लाओत्सु कहता
है, धन्य
वे लोग थे जब
धर्म का किसी
को पता ही
नहीं था कि
धर्म क्या
होता है! धर्म
का पता तो तभी
होता है जब
अधर्म हो जाता
है। अधर्म के
इलाज के लिए
धर्म की बोतल
लानी पड़ती है,
दवा लानी
पड़ती है।
अधर्म फैल
जाता है तो
धर्मगुरु
होता है।
दुनिया में
अगर फिर कभी
धर्म होगा तो
धर्मगुरु
पहली चीज होगी
जो विदा हो
जाएगी।
धर्मगुरु की
क्या जरूरत!
स्वास्थ्य हो
तो चिकित्सक की
क्या जरूरत? लोग ईमानदार
हों तो सिखाना
थोडे ही पड़े
कि ईमानदारी
से जीओ। और
तुम लाख सिखाओ,
क्या होता
है!
एक
ईसाई फकीर
रविवार को
चर्च में
बोलता था और उसने
कहा, अगले
रविवार को
सत्य के ऊपर
मैं
व्याख्यान दूंगा,
लेकिन सबसे
मेरी
प्रार्थना है
कि ल्यूक का
अड़सठवां
अध्याय पढ़कर
आना। और जब वह
बोलने खड़ा हुआ
दूसरे रविवार
को तो उसने
खडे होकर कहा
कि भाइयो, जिन
लोगों ने ल्यूक
का अडुसठवां
अध्याय पढ़
लिया हो, वे
सब हाथ उठा
दें। एक को
छोड़कर सब
लोगों ने हाथ
उठा दिये। उस
फकीर की आंखों
से आंसू गिरने
लगे। उसने कहा,
अब सत्य पर
बोलने से क्या
सार है? क्योंकि
ल्यूक का अड़सठवां
अध्याय है ही
नहीं, तुम
पढ़ोगे कैसे!
किसी ने
बाइबिल थोड़े
ही उठायी, किसी
ने खोली थोड़े
ही। कौन इन
पंचायतों में
पड़ता है! अब
सत्य पर, उसने
कहा, क्या
खाक बोलूं? अब असल पर ही
बोलना ठीक है।
मगर फिर भी
धन्यभाग कि कम
से कम एक आदमी
तो हाथ नहीं
उठाया। वह
आदमी खडा हुआ,
उसने कहा कि
मैं जरा कम
सुनता हूं,
आपने क्या
पूछा? आप
उस अड़सठवें
अध्याय के
संबंध में तो
नहीं पूछ रहे
हैं? वह तो
मैं पढ़ा हूं।
सत्य
की चर्चा चलती
है, जो
असत्य में
निष्णात हैं
उनको समझाया
जाता है।
अहिंसा की बात
उठती है, क्योंकि
लोग हिंसा में
डूबे हैं। लोग
बेईमान हैं, ईमानदारी
समझानी पड़ती
है। लोग पापी
हैं, इसलिए
पुण्य का
गुणगान गाना
पड़ता है।
अन्यथा इनकी
क्या जरूरत!
यह परम
अवस्था है
स्वमहिमा की।
कहने लगे जनक—
स्वमहिम्नि
स्थितस्य में।
यह
अपनी महिमा
में मुझे
विराजमान कर
दिया। एक
चुटकी बजा दी
और मुझे मेरी
महिमा में
विराजमान कर
दिया। अब मैं
चौंककर देखता
हूं कि अब
धर्म की कहा
जरूरत है!
धर्म क्या है
यही मेरी समझ
में अब न आएगा।
धर्म की तो तब
जरूरत होती है
जब अधर्म होता
है। और काम की
क्या जरूरत? क्योंकि
कामवासना तो
तभी पैदा होती
है जब तक तुम्हें
अपनी महिमा का
स्वाद नहीं
मिला है, तब
तक तुम दूसरे
के पीछे जा
रहे हो। काम
का अर्थ, किसी
और से मिल
जाएगा सुख।
पकड़े किसी का आंचल
चले जा रहे।
किसी का पल्लू
पकड़े हो कि
शायद इससे सुख
मिल जाए, शायद
उससे सुख मिल
जाए। काम का
अर्थ है, भिखारीपन।
कोई दे देगा
सुख, कोई
स्त्री, कोई
पुरुष। कोई
प्रियजन सुख
दे देगा—बेटा,
बेटी, पति,
पत्नी, कोई
सुख दे देगा।
दूसरे से काश
सुख मिलता
होता तो सभी
को मिल गया
होता। सुख
मिलता स्वयं
से। स्वयं की
महिमा में
विराजमान
होने से।
जनक ने
कहा कि धन्य
है, मुझे
बिठा दिया
मेरे सिंहासन
पर। अब मेरी
समझ में यह
नहीं आता कि
लोग कामवासना से
भरते क्यों
हैं? जिनको
स्वयं का
स्वाद आ गया, जिसने भीतर
की रति जान ली—आत्मरति,
जिसने
अंतर्संभोग
जान लिया, जो
अपने से ही
मिल गया, अब
उसको और कोई
रति, और कोई रस,
किसी और के
आगे
भिक्षापात्र
फैलाने की
जरूरत न रही।
अब तो उसे
भरोसा भी न
आएगा कि लोग
कैसे पागल हैं,
जो
तुम्हारे
भीतर है तुम
उसके लिए बाहर
हाथ फैलाए खड़े
हो! जिसके
झरने
तुम्हारे
भीतर बह रहे हैं,
तुम उसके
लिए भिक्षापात्र
लिये दर—दर
घूम रहे हो, द्वार—द्वार
धक्के खा रहे
हो और जगह—जगह
कहा जा रहा है,
आगे बढ़ो।
क्योंकि तुम
जिनके पास
सोचते हो है, उनके पास भी
कहां है! वह
किसी दूसरे के
सामने हाथ
फैलाए खडे हैं।
एक
भिखमंगा एक
मारवाडी की
दूकान के
सामने भीख मांग
रहा था। उसने
जोर से कहा कि
मालिक कुछ मिल
जाए। उस
मारवाड़ी ने
कहा, घर
में कोई भी
नहीं है। वह
भिखमंगा भी
जिद्दी था, उसने कहा कि
हम किसी को
थोड़े ही मांग
रहे हैं। कि
तुम्हारी
पत्नी को मांग
रहे हैं कि
तुम्हारे
बेटे को मांग
रहे हैं, अरे
भीख मांग रहे
हैं! कोई न हो न
हो! कुछ मिल
जाए। मारवाड़ी
भी कोई ऐसे
भिखमंगों से
हार जाएं तो कभी
के खत्म ही हो
जाते।
मारवाड़ी ने
कहा कि न कोई
घर में है, न
कुछ देने को
घर में है, अपना
रास्ता लो, आगे बढ़ी। तो
भिखमंगा भी
हद्द था, उसने
कहा, तो
फिर भीतर बैठे
तुम क्या कर
रहे हो? तुम
भी मेरे साथ
हो लो। जो
मिलेगा, आधा—
आधा बांट कर
खा लेंगे। अरे,
जब कुछ है
ही नहीं, तो
भीतर क्या कर
रहे हो?
मगर
हालत यही है, जिनके
सामने तुम
मांगने गये हो
उनके पास भी
कुछ नहीं है।
किसके पास कुछ
है? सब तरफ
तुम्हें उदास,
मुर्दा
चेहरे दिखायी
पड़ेंगे। बुझी आंखें,
बुझे हृदय,
बुझे प्राण।
राख ही राख!
कोई फूल खिलते
दिखायी नहीं
पड़ते। न कोई
वीणा बजती है,
न कोई पायल।
कोई नृत्य
नहीं, कोई
गीत नहीं।
बिना गीत और
नृत्य के
जन्मे तुम
कैसे जान पाओगे
कि परमात्मा
है? परमात्मा
कोई तर्क थोड़े
ही है, कोई
सिद्धात थोड़े
ही है।
परमात्मा तो
उनकी समझ में
आता है, जिनके
भीतर गीत
जन्मता है।
स्वयं की
महिमा में जो
प्रतिष्ठित
हो जाते हैं।
जो मस्त हो
जाते हैं, जो
अपनी ही शराब
में डोल जाते
हैं। वही कह
पाते हैं कि
परमात्मा है।
जो जान पाते
हैं कि मैं हूं, वही कह पाते
हैं कि
परमात्मा है।
जिन्होंने
स्वयं को भी
नहीं जाना, वे क्या
परमात्मा को
जानेंगे। और
जिन्होंने
स्वयं की
महिमा को नहीं
जाना, वे
परमात्मा की
इस विराट
महिमा से कैसे
परिचित होंगे।
थोड़ा
इस छोटे —से
भीतर के दीये
से परिचित हो
लो, तो
तुम
महासूर्यों
के राज से
परिचित हो गये।
क्योंकि
प्रकाश छोटा
हो कि बड़ा, उसका
नियम एक है।
छोटे —से दीये
में भी जो
प्रकाश जलता
है, वह
महासूर्यों
के प्रकाश से
भिन्न नहीं है।
बिलकुल एक है,
वही है। पर
दीये से तो
थोड़ी दोस्ती
बना लो। फिर
सुर्यों से
दोस्ती बना
लेना। अभी तो
घर में दीया
रखा है और तुम
अंधेरे में टटोल
रहे हो, दूसरों
के घर के
सामने धक्के
खा रहे हो।
'कहां
काम है? कहां
अर्थ है? कहां
द्वैत, कहां
अद्वैत?'
इसे
थोड़ा समझना।
आदमी में काम
की वासना पैदा
होती, क्योंकि
उसे स्व—रस
नहीं मिला।
इसलिए पर—रस
का भाव पैदा
होता है। और
आदमी में अर्थ
की वासना पैदा
होती है, कि
धन हो, पद
हो, प्रतिष्ठा
हो, क्योंकि
भीतर उसे
हीनता को बोध
होता है।
मनस्विद उससे
राजी हैं।
मनोवैशानिक
कहते हैं कि
जो लोग हीनता
की ग्रंथि, इनफीरिआरिटी
काप्लेक्स से
पीड़ित हैं, वही लोग धन
के पीछे, पद
के पीछे
दीवाने होते
हैं। ऐसा तो
राजनीतिज्ञ
तुम पा ही
नहीं सकते जो
हीनता की
ग्रंथि से
पीड़ित न हो।
नहीं तो कौन
चिंता करेगा
कुर्सियों पर
चढ़ने की! और
इतनी मार—कुटौवल
के बाद! सौ —सौ
जूते खाएं
तमाशा घुसकर
देखें। कुछ भी
हो जाए, कितने
ही जूते पडे, तमाशा
उन्हें घुसकर
ही देखना है।
चाहे तमाशा
वहां कुछ हो
भी नहीं। चाहे
तमाशा यही हो
जो उनको जूते
पड़ रहे हैं, इसकी ही भीड़
लगी हो। मगर
कहीं न कहीं
पद पर होना है।
धन की ढेरी पर
बैठना है।
क्यों? भीतर
तो कोई जरा—सा
भी महिमा का
बोध नहीं होता।
शायद बाहर से
थोडी अकड़ जुटा
लें, धन के
सहारे थोड़ी
घोषणा कर सकें
कि मैं भी कुछ हूं।
महावीर
और बुद्ध अगर
राजसिंहासनों
से उतर गये तो
तुम गलत मत
समझ लेना।
अक्सर गलत
समझा गया है।
अक्सर यही
समझा गया है
कि वे
राजसिंहासन
से उतर गये।
मैं तुमसे एक
और बात कहना
चाहता हूं—वे
असली सिंहासन
पर चढ़ गये, इसलिए
झूठे सिंहासन
से उतरना पड़ा
है। पहले लकडी—पत्थरों
के सिंहासनों
पर बैठे थे, अब उन्हें
हीरे —जवाहरातों
के सिंहासन
मिल गये, वे
क्यों बैठें?
हालांकि
तुम्हें नहीं
दिखायी पड़े
हीरे —जवाहरात
के सिंहासन, क्योंकि तुम
अंधे हो और
तुम्हारी आंखों
को हीरे—जवाहरात
दिखायी पड़ने
बंद हो गये
हैं। तुम कंकड़—पत्थरों
के सौदागर हो।
तुम्हें
व्यर्थ की
चीजें दिखायी
पड़ती हैं, सार्थक
चूक जाता है।
महावीर और
बुद्ध असली
सिंहासन पर
बैठ गये, इसलिए
फिर नकली
सिंहासन से
उतरना ही पड़ा,
दो—दो पर तो
बैठा नहीं जा
सकता। दो
सिंहासन पर तो
कोई भी नहीं
बैठ सकता।
एक
राजनेता
मुल्ला
नसरुद्दीन को
मिलने आया। तो
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपनी कुर्सी
पर बैठा है, उसने कहा,
कहिए, कैसे
आए? राजनेता
को बडा बुरा
लगा, क्योंकि
मुल्ला ने यह
भी नहीं कहा
कि बैठिये।
उसने कहा, तुम
जानते नहीं हो
मैं कौन हूं? पार्लियामेंट
का मेंबर हूं।
संसद—सदस्य
हूं। तो
मुल्ला ने कहा,
अच्छी बात
है, तो
कुर्सी पर
बैठिये। उसने
कहा, तुम्हें
यह भी पता
नहीं है कि
जल्दी ही मैं
मिनिस्टर हो
जानेवाला हूं।
तो मुल्ला ने
कहा, तो
फिर ऐसा करिये
दो कुर्सी पर
बैठ जाइये—अब
और क्या करें!
मगर दो
कुर्सियों पर
कोई बैठ कैसे
सकता है!
नहीं, दो
सिंहासन पर
बैठने का कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए एक
सिंहासन खाली
कर दिया।
तुमने यही
देखा है, जैन—शास्त्रों
में बस इसी का
वर्णन है; जो
सिंहासन छोड़
दिया उसका
वर्णन है, इसलिए
ये शास्त्र
अंधों ने लिखे
होंगे। त्याग
का वर्णन है, जो परमभोग
उपलब्ध हुआ
उसकी कोई बात
ही नहीं हो
रही है। तो
ऐसा लगता है, ऐसी भ्रांति
पैदा होती —है
कि महावीर त्यागी
थे। मैं तुमसे
कहता हूं,
परमभोगी थे।
त्याग? समझदार
त्याग करेगा?
त्याग का
अर्थ ही क्या
होता है? अगर
कौड़िया छोड़
दीं और हीरे
संभाल लिये तो
इसको त्याग
कहोगे! व्यर्थ
छोड़ दिया, सार्थक
को पकड़ लिया, इसको त्याग
कहोगे? असली
साम्राज्य
स्थापित हो
गया, नकली
साम्राज्य
छोड़ दिया, इसको
त्याग कहोगे?
नहीं, यह त्याग
नहीं, त्यागी
तुम हो। असली
छोड़े, नकली
पकड़े बैठे हो,
त्यागी तुम
हो। तुम्हारे
महात्याग की
जितनी
प्रशंसा हो
उतनी कम है।
तुम कुछ ऐसे
त्यागी हो कि
जिसका हिसाब
नहीं। अगर
सोना और
मिट्टी रखी हो,
तुम तत्काल
मिट्टी पकड़ लेते
हो, तुम
छोड़ते ही नहीं
मिट्टी।
तुम्हें
मिट्टी ही
सोना दिखायी
पड़ती है, और
सोना मिट्टी
दिखायी पड़ता
है। और तुमने
ही महावीर और
बुद्ध की
कथाएं लिखी हैं।
तुमने सब गड़बड़
किया। तुमने
इस तरह सिद्ध
करने की कोशिश
की तो जैन—शास्त्रों
में लिखा है, इतने घोड़े
छोड़े, इतने
हाथी छोड़े, इतने रथ—संख्या
बडी करते चले
जाते हैं। न
इतने घोड़े थे,
न इतने रथ
थे। हो भी
नहीं सकते, क्योंकि
महावीर का
राज्य बड़ा
छोटा था। एक
तहसील से
ज्यादा
बड़ा
नहीं था।
तहसीलदार की
हैसियत से
ज्यादा बड़ी
हैसियत हो नहीं
सकती। जब
महावीर ने
राज्य छोड़ा तब
इस देश में
कोई दो हजार
राज्य थे।
टुकड़ों —टुकड़ों
में बंटा था।
छोटे —छोटे
राज्य थे।
जैसे अभी भी
थे। दस —बीस
गांव किसी के
पास हैं, वह राजा।
इतने घोड़े —हाथी
जिसने लिखे
हैं जैन —शास्त्रों
में, इनको
तो खड़े करने
की भी जगह
नहीं थी उनके
राज्य में।
मगर
आदतें हमारी
खराब हैं।
कुरुक्षेत्र
में युद्ध हुआ, अट्ठारह
अक्षौहिणी
सेना! वह जगह
इतनी नहीं है।
वहा अगर
अट्ठारह
अक्षौहिणी
सेना खड़ी करो
तो खड़ी ही
नहीं हो सकती
है, लड़ने
की तो बात ही
और है। लड़ने
के लिए थोडी—बहुत
जगह तो चाहिए।
बिलकुल घसमकश
खड़ा कर दो
उनको —तो भी
खड़े नहीं हो
सकते —मगर फिर
हाथ भी नहीं
हिलेगा, रथ
वगैरह चलाना
और घोड़े वगैरह
दौड़ाना, यह
असंभव है। मगर
संख्या बडी
करने का एक
मोह होता है।
वह हम पागल
हैं, हम
संख्या पर
भरोसा करते
हैं। हमारी
आदतें ऐसी हैं।
तुम्हारी जेब
में पांच
रुपये पड़े हों,
तो तुम इस
तरह दिखलाने
की कोशिश करते
हो, पचास
पड़े हैं।
क्योंकि
हमारे मन में
एक ही मूल्य
है —धन का।
तो
महावीर ने
त्याग किया—छोटा—मोटा
धन त्याग किया
तो छोटा—मोटा
त्याग हो
जाएगा। हम
जानते एक ही
उपाय हैं, त्याग को
भी तोलना हो
तो धन के
तराजू पर ही तोलते
हैं। तो खूब
त्याग दिखाते
हैं —इतना—इतना
था, वह सब
छोड़ा! देखो, कितना महान
त्याग! लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं,
असली बात तुम
चूके जा रहे
हो। जो पाया, उसकी बात
करो। क्योंकि
पाने के लिए
छोड़ा। सच तो
यह है, पाकर
छोड़ा। इधर मिल
गया, अब
उधर कचरे को
कौन संभालता
है!
कहने
लगे जनक, ' अपनी महिमा
में स्थित हुए
मुझको कहां
धर्म, कहां
काम, कहां
अर्थ? और
कहां द्वैत, कहां अद्वैत?'
नहीं, अब न तो
यह कह सकता
हूं एक है, न
यह कह सकता
हूं दो है।
सिद्धातों की
सब बात बकवास
हो गयी। आपने
सब सिद्धात
मुझसे निकाल
लिये। अब तो
मुझे सत्य में
छोड़ दिया।
सत्य तो बस है।
उसके संबंध
में ज्यादा नहीं
कहा जा सकता।
जैसा है, है।
एक है, दो
है, छोटा
है, बडा है,
लाल है, पीला
है, हरा—काला
है, कुछ भी
नहीं कहा जा
सकता। कोई
व्याख्या, कोई
परिभाषा, कोई
निर्वचन नहीं
हो सकता। न तो
कह सकते दो है
और न कह सकते
एक है। बस
इतना कह सकते
हैं, है।
और खूब है, भरपूर
है। होना
मात्र कहा जा
सकता है।
'नित्य
अपनी महिमा
में स्थित हुए
मुझको कहां भूत
है, कहा
भविष्य है, अथवा कहां
वर्ततान भी है,
अथवा कहां
देश भी है?'
क्व
भूतं क्व
भविष्यद्वा
वर्तमानमपि क्व
वा।
क्व
देश: क्व च वा
नित्यं
स्वमहिम्नि
स्थितस्य मे।
समझना।
'नित्य
अपनी महिमा
में स्थित
हुए......।’
नित्य
को समझो।
नित्यता, इटर्निटी, इसे समझो।
साधारणत: हम
जीते हैं समय
में। और जो
समाधिस्थ हुआ,
वह जीता है
नित्यता में।
समय में नहीं।
फर्क क्या है?
समय बदलता
है, नित्यता
नित्य है, बदलती
नहीं। इसीलिए
तो नित्य नाम
दिया है। समय
अनित्य है।
आया, गया।
आ भी नहीं
पाया कि गया।
अभी सुबह हुई,
अभी दोपहर
होने लगी, अभी
दोपहर हो ही
रही थी कि सांझ
आ
गयी, कि रात आ
गयी, कि
फिर सुबह हो
गयी—आया और
गया। आना और
जाना, आवागमन
है समय।
प्रवाह।
लहरों की तरह।
मन तो
जीता .है समय
में। और अगर
तुम्हें स्वयं
को जानना है
तो समय के पार
हटना पड़े—।
समय का विभाजन
है. भूत—जो जा
चुका, कभी
था, अब
नहीं है।
भविष्य—जो कभी
होगा, अभी
हुआ नहीं है।
और दोनों के
बीच में
वर्तमान का
छोटा—सा क्षण।
वह भी बड़ा
कंपता हुआ
क्षण है।
वर्तमान का
अर्थ हुआ, भविष्य
भूत हो रहा है।
वर्तमान का
क्या अर्थ
होता है? इतना
ही अर्थ होता
है कि जो नहीं
था, फिर
नहीं हो रहा
है। एक नहीं
से दूसरी नहीं
में जाते हुए
जो थोड़ी—सी
देर लगती है
क्षण भर को, उसको हम
वर्तमान कहते
हैं। अभी नौ
बजकर पांच
मिनट हुए हैं,
यह जो सेकेंड़
है, मैं
बोल भी नहीं
पाया और गया।
सेकेंड़ कहने
में जितनी देर
लगती है? वह
ज्यादा है, सेकेंड़
उससे जल्दी
बीत गया है। आ
भी नहीं पाता,
एक क्षण
पहले भविष्य
में था—तब भी
नहीं था, और
एक क्षण बाद
फिर अतीत में
हो गया—फिर
नहीं हो गया, एक नहीं से
दूसरी नहीं
में चला गया, और जरा—सी
देर को इालक
मारा, पलक
मारा, इसीलिए
तो पल कहते
हैं। पत्न
इसीलिए कहते
हैं उसे कि
पलक मारा, बस
गया। एक झलक
दी और गया।
यह समय
की तीन
स्थितियां
हैं— भूत तो है
ही नहीं, भविष्य तो
है ही नहीं और
वर्तमान भी
क्या खाक है? जरा—सा है। न
होने के बराबर
है। इन तीनों
के पार जो है, उसका नाम
नित्य।
'नित्य
अपनी महिमा
में स्थित हुए
मुझको कहां
भूत है, कहा
भविष्य है और
कहां वर्तमान
भी है?' अब
तुम थोड़ा
सोचना, साधारणत:
कहा जाता है, वर्तमान में
जीओ। मैं भी
तुमसे कहता
हूं कि
वर्तमान में
जीओ। —क्योंकि
इससे पार की
बात तो
तुम्हारी अभी
समझ में न आ
सकेगी।
कृष्णमूर्ति
भी तुमसे कहते
हैं, वर्तमान
में जीओ।
लेकिन
वर्तमान में
कैसे जीओगे? भविष्य है, काफी बड़ा है,
अभी हुआ
नहीं है, मगर
विस्तार है
भविष्य का।
अगर हाथ—पैर
मारना चाहो तो
मार सकते हो, थोड़ा जी
सकते हो।
इसीलिए
तो लोग भविष्य
में जीते हैं, वर्तमान
में नहीं जीते।
क्योंकि थोड़ी
सुविधा तो
चाहिए चलने —फिरने
की। या अतीत
में जीते हैं,
क्योंकि
अतीत भी लंबा
है। जो हो गया,
उसकी भी
धारा है।
वर्तमान में
कैसे जीओ, यह
तो एक क्षण
आया और गया।
लेकिन कहते
हैं तुमसे हम
वर्तमान में
जीने को, क्योंकि
यह पहला कदम
है नित्य में उतरने
का। वर्तमान
के क्षण में
नित्य और समय
का मिलन होता
है। जर—सी देर
को नित्यता
समय में
झांकती है, उतनी देर को
समय सत्य हो
जाता है।
इसको
ठीक से समझना।
समय तो
झूठ है। एक
झूठ भविष्य, दूसरा
झूठ अतीत। और
दोनों के बीच
में जो थोड़ा—सा
सच मालूम होता
है, वह भी
समय के कारण
सच नहीं है, वह नित्य
उसमें झलक
मारता है।
वर्तमान का
अर्थ हुआ, जहां
समय और शाश्वत
का थोड़ी देर
को मिलन होता है।
शाश्वत के
प्रकाश में
वर्तमान का
क्षण चमक उठता
है, एक
क्षण को, फिर
भागा, गया।
इस शाश्वतता
में उतरने के
लिए वर्तमान
में जीने की
बात कही जाती
है, लेकिन
वह सिर्फ
कामचलाऊ है।
जब तुम उतरने
लगोगे
वर्तमान में
तो तुम बहुत जल्दी
पा जाओगे कि
वर्तमान में
उतरने का असली
मतलब यह है कि
वर्तमान के भी
पार उतर जाना,
समय के पार
उतर जाना। न
रह जाए अतीत, न भविष्य, न वर्तमान।
यह काल की
धारा न रह जाए।
इसके पीछे
छिपा है अ—काल।
वह जो
पीछे छिपा है
इस धारा के और
जिसकी रोशनी के
कारण, जिसकी
पुलक के कारण
जिसके प्राण
के कारण थोड़ी देर
को वर्तमान
जीवित हो जाता
है, उस
जीवंत में उतर
जाना, उसका
नाम है नित्य,
इटर्निटी।
अब ऐसा
समझो कि ये
मेरी तीन
अंगुलियां
तुम्हारे सामने
हैं। एक का
नाम भविष्य, एक का नाम
वर्तमान, एक
का नाम अतीत।
लेकिन तीन
अंगुलियों के
बीच में
तुम्हें दो खाली
जगह भी दिखायी
पड़ रही हैं।
वर्तमान, अतीत,
भविष्य, इनके
बीच में जो दो
खाली जगह हैं,
उन्हीं
खाली जगहों
में उतरकर
नित्यता का
अनुभव होता है।
समय के दो
क्षण के बीच
में जो अ— क्षण
होता है, जो
नो मोमेंट
होता है, वही
नित्यता का है।
एक क्षण गया, दूसरा आ रहा
है, इन
दोनों के बीच
में जो थोड़ा—सा
अंतराल है, इंटरवल है, रिक्त जगह
है, शून्य
है, उसी
में शाश्वत का
निवास है।
'नित्य
अपनी महिमा
में स्थित हुए
मुझको कहां भूत,
कहां
भविष्य, कहां
वर्तमान और
कहां देश?' आइंस्टीन
ने तो अभी इस
सदी में जाकर
यह पता लगाया
कि समय और देश
एक ही घटना के
पहलू हैं। समय
और देश, टाइम
और स्पेस अलग—
अलग चीजें
नहीं हैं, दोनों
जुड़े हैं। यह
अष्टावक्र की
गीता में, जनक
के इस वचन में
जोड़ है। यह
आकस्मिक नहीं
है कि एक साथ
कहा—
क्व
देश:.....।
क्व
भूतं क्व
भविष्यद्वा
वर्तमानमपि क्व
वा क्व देश:।
न भूत, न भविष्य,
न वर्तमान,
और कोई देश
भी नहीं, कोई
'स्पेस' भी नहीं।
यह
दोनों एक
सूत्र में कहे, बात
जाहिर है कि
दोनों का
संबंध स्मरण
में होगा।
दोनों का
संबंध अनुभव
में होगा। देश
और काल एक ही
घटना के दो
पहलू हैं।
आइंस्टीन ने
तो एक अलग ही
शब्द बना लिया,
स्पेसियोटाइम;
अलग— अलग
जिसमें न कहना
पड़े। क्योंकि
दोनों इकट्ठे
हैं। समय को
आइंस्टीन ने
कहा, स्पेस
का ही चौथा
आयाम। समय और
देश एक—साथ
हैं। जैसे ही समय
गया वैसे ही
देश चला जाता
है। कठिन होगा
समझना, क्योंकि
बुद्धि तो समय
और देश में
जीती है।
बुद्धि के पार
एक ऐसी जगह है,
जहां जगह भी
मिट जाती है।
इसलिए
तुम अगर मुझसे
पूछो कि आत्मा
किस जगह है, तो मैं
उत्तर न दे
सकंगूा। किसी
ने कभी उत्तर
नहीं दिया, क्योंकि आत्मा
जगह के बाहर
है। शरीर किस
जगह है, बताया
जा सकता है।
पूना में है, कि कलकत्ता
में है, कि
न्यूयार्क
में है। अक्षांश—देशांश
पर कहां है, तो नक्शे
पर बताया जा
सकता है कि
इतने अक्षांश,
इतने देशांश
पर है। अभी
तुम यहां बैठे
हो, कौन
कहां बैठा है,
बताया जा
सकता है।
लेकिन आत्मा
कहां है, उत्तर
नहीं दिया जा
सकता। लोग
पूछते हैं, आत्मा कहां
है, हृदय
में है नाभि
में है, मस्तिष्क
में है, कहां
है? तुम जब
प्रश्न पूछते
हो, तुम्हें
पता नहीं है
कि तुम एक गलत
प्रश्न पूछ
रहे हो जिसका
कोई उत्तर
नहीं हो सकता
है। आत्मा
स्थान के बाहर
है। तुम पूछो,
आत्मा कब है?
सुबह छ: बजे
है, कि
दोपहर बारह
बजे है, कि
शाम तीन बजे
है, आत्मा
कब है? भविष्य
में, वर्तमान
में, अतीत
में? नहीं,
आत्मा के
लिए फिर भी
उत्तर नहीं
दिया जा सकता है,
आत्मा समय
और स्थान के
बाहर है। समय
और स्थान
आत्मा में हैं,
आत्मा समय
और स्थान में
नहीं है।
आत्मा ने सबको
घेरा है। उस
आत्मा में सब
शून्य हो जाता
है।
जनक ने
कहा, आपकी
कृपा से मैं
वहां हूं जहां
मेरे मन में ये
प्रश्न उठ रहे
हैं, जिज्ञासा
उठ रही है कि
कहां गया समय,
कहां गया
वर्तमान, कहां
गया अतीत, कहां
गया भविष्य? और देश भी खो
गया है। मैं
शून्य में खड़ा
हूं। और परम
महिमा में
विराजमान हूं।
नित्यं
स्वमहिम्नि
स्थितस्य में।
और
शाश्वत रूप से
स्थिर हो गया
हूं। इसमें
कुछ बदलाहट भी
नहीं हो रही
है, कुछ
आ नहीं रहा है,
कुछ जा नहीं
रहा है। जो है,
जैसा है, वैसा ही
ठहरा है। अकंप,
निष्कंप। यह
जीवन की परम
अनुभूति है।
' अपनी
महिमा में
स्थित हुए
मुझको कहां
आत्मा है और
कहां अनात्मा
है? अथवा
कहां अचिता है,
कहां चिंता
है?'
अब और
एक अपूर्व
सूत्र वे
जोड़ते हैं।
हिंदू जैन
कहते हैं, आत्मा—उस
परम सत्य का
नाम। बौद्ध उस
परम सत्य को
नाम देते हैं,
अनात्मा।
अष्टावक्र
दोनों के पार
चले जाते हैं।
अष्टावक्र का
शिष्य जनक
घोषणा करता है,
अब न कोई
आत्मा है, न
कोई अनात्मा।
न तो कोई मैं, न कोई पर। अब
तो यह भी नहीं
कह सकता कि
मैं हूं। और
यह भी नहीं कह
सकता कि मैं
नहीं हूं। कुछ
ऐसी नयी घटना
घट रही है कि
किसी शब्द में
नहीं बंधती है।
कोई
अभिव्यक्ति
अब सार्थक
नहीं है।
क्व च
आत्मा क्व च
वानात्मा क्व
शुभं
क्याशुभं तथा।
क्व
चिंता क्व च
वाचिता
स्वमहिम्नि
स्थितस्य मे।
अपनी
महिमा में
बैठा, न
कोई चिंता
पकड़ती है, और
ऐसा भी नहीं
कह सकता कि
अचिता की
अवस्था है।
ऐसा भी नहीं
कह सकता कि
चिंता मौजूद
नहीं है। न तो
चिंता मौजूद
है, न गैर—मौजूद
है। चिंता और
अचिता दोनों
एक—साथ
तिरोहित हो
गयी हैं। न यह
कह सकता हूं
कि मैं आत्मा हूं, न यह कह सकता
हूं कि मैं
अनात्मा हूं।
दोनों शब्द
अधूरे हैं, पूरे—पूरे
नहीं। और घटना
इतनी बड़ी है
कि और कोई
शब्द इसे कह
नहीं पाता। अब
न कुछ शुभ है
और न कुछ अशुभ।
न कोई पुण्य, न कोई पाप। न
कोई स्वर्ग, न कोई नर्क।
न कोई सुख, न
दुख। गये सब
द्वंद्व, गये
सब द्वैत।
' अपनी
महिमा में
स्थित हुए
मुझको कहां
स्वप्न, कहां
सुषुप्ति, कहां
जाग्रत' —और
सुनना— 'कहां
तुरीय?'
यह
सूत्र छोड़
दिया था
अष्टावक्र ने।
कहा था, न स्वप्न, न जागृति, न सुषुप्ति।
इन तीनों के
पार जो है, तुरीय।
लेकिन जनक
कहते हैं, अब
तुरीय भी
कहां! चौथे को
तो हम तभी गिन
सकते हैं जब
तीन हों। तीन
के बाद ही
चौथा अर्थवान
हो सकता है।
जब तीन ही गये
तो अपने साथ
चौथे को भी ले
गये, तुरीय
को भी ले गये।
संख्या ही गयी।
संख्यातीत
में प्रवेश
हुआ।
यह
मैंने कहा कि
थोड़ी—सी बात
जैसे छोड़ दी
थी अष्टावक्र
ने, उसको
जनक पूरा कर
देते हैं। वे
योग्य उतरते
हैं कसौटी पर।
वे अपने गुरु
को कह रहे हैं
कि आप मुझे
धोखा मत दो।
जब तीन चले
गये तो चौथा
कैसे बचेगा? मैं तुमसे
कहता हूं,
चौथा भी गया।
गणना मात्र
गयी।
क्व
स्वप्न)— क्व
सुमुप्तिर्वा
क्व च जागरण
तथा।
क्व
तुरीय भयं
वापि
स्वमहिम्नि
स्थितस्य में।।
और बड़ी
अनूठी बात
कहते हैं।
स्वप्न गया, जागरण
गया, निद्रा
गयी, तुरीय
भी गयी। और सब भय
गया। अचानक भय
को क्यों जोड़
देते हैं? भय
से इसका क्या
लेना—देना है?
गहरा
संबंध है। ये
सब तरंगें भय
की ही हैं। ये
सोना और जागना
और स्वप्न और
तुरीय, ये सब भय की
तरंगें हैं।
गहरे
विश्लेषण पर
पाया जाता है
कि भय ही मन है।
जब तक तुम
भयभीत हो, तब
तक मन है। जब
भय गया, मन
गया। जहां भय
न रहा, मन न
.रहा। और जहां
मन न रहा, वहां
सब गणना गयी।
यह गणना
करनेवाला
हिसाब —किताब
लगानेवाला मन
है। तुमने
देखा कभी? जितने
तुम भयभीत
होते हो उतना
ही हिसाब—किताब
लगाते हो।
मेरे गांव
में मेरे
सामने एक
सुनार रहता है।
उसकी बड़ी
मुसीबत है। वह
ताला लगाएगा, फिर
देखेगा
हिलाकर, फिर
दो कदम चला
जाएगा, फिर
लौटकर आएगा, फिर ताला
हिलाका और
गांव भर उसको
सताता।
रास्ते पर मिल
गया, कोई
कह देता है, अरे, ताला
ठीक से देख
लिया है कि
नहीं? तो
पहले तो वह
कहता है, देख
लिया है, मुझे
परेशान करने
की जरूरत नहीं
है। लेकिन दो
कदम जाकर उसको
शंका पैदा हो
जाती है कि
पता नहीं यह
आदमी ठीक कह
रहा हो! तो वह
फिर लौटकर, आधे बाजार
से लौटकर चला
आएगा, फिर
ताला हिलाकर
देखेगा।
मैं
उसे बैठा
देखता रहता था, मैंने
उससे कहा कि
मामला क्या है?
उसने कहा, यह पता नहीं
मुझे क्यों
आदत पड़ गयी है?
मैंने कहा,
यह ताले का
सवाल नहीं है,
तेरे भीतर
कहीं भय होगा।
ताले में क्या
रखा है, तेरे
भीतर कहीं भय
होगा। कुछ. भय
है। तूने कुछ
छिपा रखा है
घर में कि कोई
चोरी चला जाए,
या क्या हो
जाए! इस गांव
में इतने
पैसेवाले लोग
हैं, कोई
ताला नहीं
हिलाता, एक
तू है —तेरी
कोई हालत भी
अच्छी नहीं है,
दिन भर
बमुश्किल
मेहनत करके
रुपये —दो
रुपये कमा
पाता है —तू
छिपाए क्या है?
वह थोड़ा
घबड़ाया। वह
कहने लगा, आपको
पता कैसे चला?
मैंने कहा,
पता का सवाल
ही नहीं है, इसमें पता
चलने की क्या
बात है, तेरा
भय बता रहा है
कि कुछ छिपा
बैठा है। और
तेरा यह ताला
नहीं छूटेगा,
क्योंकि
तुझे लोग इतना
सताते हैं। वह
नदी में नहीं
रहा है, और
बीच में कह दो
जरा कि अरे, सोनी जी!
ताला! अब वह, पहले तो वह
गाली देगा, नाराज होगा
कि नहींने भी
नहीं देते
फुरसत से, मगर
वह एक मिनट से
ज्यादा नही
रुक सकता है
पानी में, वह
निकला, भागा,
वह ताला!
उसका लाख लोग
समझा चुके हैं
कि तू ताला
हिलाना छोड़, इसमें कुछ
सार नहीं है, एक दफे देख
लिया, हिला
लिया, बहुत
हो गया।
और जब
मैंने उसको
कहा कि ताला
असली सवाल
नहीं है, तू सोचता है
कि ताले से
तेरी उलझन है,
यह बात गलत
है, कुछ और
मामला है। भय
है कुछ। उस
दिन से उसने
ताला हिलाना
छोड़ दिया।
मैंने उससे
पूछा कि मामला
क्या है? गांव
बड़ा चकित हुआ।
क्योंकि लोग
उससे कहें, सोनी जी, ताला!
वह कहे कि
तुम्हीं हिला
लेना। जा रहे
हो उसी तरफ, जरा हिला
लेना। लोग बडे
चौंके कि हुआ
क्या? मामला
क्या है? मामला
कुछ भी न था।
बड़ी छोटी—सी
बात थी। एक भय
था उसके मन
में, पैसे
उसने गड़ा रखे
थे। वह उन्हीं
में उलझा हुआ
था। मैंने
उससे कहा, तू
पैसे निकाल ले,
कुछ
बैंक में जमा
कर आ। कुछ
ज्यादा पैसे
भी नहीं थे —ज्यादा
—कम का कहां
हिसाब है, आदमी एक
पैसे को लेकर
भयभीत हो सकता
है। भय हो, तो
हजार कंपन
उठते हैं।
कहीं ऐसा तो
नहीं हो जाएगा,
कहीं वैसा
तो नहीं हो
जाएगा। कहीं
कोई निकाल तो
नहीं लेगा। भय
हो तो मन
कंपता है।
कंपता है तो
इंतजाम करना
पड़ता है कैपने
से रुकने का।
लेकिन जहां भय
गया, वहा
सब कंपन चला
जाता है।
भय
क्या है? भय एक है कि
मौत होगी। और
तो कोई खास भय
नहीं है। मरना
पड़ेगा, यह
भय है। जब तक
तुम्हें लगता
है कि मरना
पड़ेगा, मरना
होगा, मौत
आएगी, तब
तक तुम कंपते
रहतो। कंपन से
फिर सब पैदा
होता है, लहरों
पर लहरें उठती
हैं—जागने की,
सोने की, सपने की, नींद
की, तुरीय
की। लेकिन जिस
दिन तुमने यह
स्वीकार कर
लिया कि जो है,
वह कैसे
मरेगा। और जो
नहीं है, वह
बचने से भी
कैसे बचेगा।
मैं तो मरूंगा,
अहंकार की
तरह—मरूंगा ही,
क्योंकि
अहंकार
शाश्वत नहीं
हो सकता, बनावटी
है। लेकिन मैं
रहूंगा
शाश्वत में
शाश्वत की तरह।
वह मुझसे भी
पहले था, वह
मेरे बाद भी
रहेगा। जो
मेरे जन्म के
पहले था, वह
मेरे जन्म के
बाद भी रहेगा।
जो जन्म के
कारण निर्मित
हुआ है, मौत
के साथ समाप्त
हो जाएगा।
जैसे ही
तुम्हें बोध
होना शुरू
होता है कि तुम
अहंकार नहीं
हो, तुम्हारा
मैं — भाव
गिरता है, वैसे
ही मृत्यु—
भाव गिर जाता
है। मृत्यु —
भाव जहां गिरा,
वहा सब गिरा।
भय गिरा, मन
गिरा। मन गिरा
कि तुम जगे।
और उस जागरण
में जनक कहते
हैं कि न तो
स्वप्न है, न सुषुप्ति,
न जागरण।
इतना तो क्या,
तुरीय भी
कहां है? इसका
भी मुझे पता
नहीं चलता है।
इस
आखिरी
वक्तव्य से कि
तुरीय भी नहीं
है, जनक
ने कह दिया, साक्षीभाव
परिपूर्ण हो
गया। पूर्ण हो
गया।
'अपनी
महिमा में
स्थित हुए
मुझको कहां
दूर और कहां
समीप? कहां
बाह्य और कहां
अंतस है? कहां
स्थूल, कहां
सूक्ष्म है?'
क्व
दूर क्व समीप
वा बाह्य
क्याभ्यंतरं क्व
वा।
क्व
स्थूल क्व च
वा सूक्ष्म
स्वमहिम्नि
स्थितस्य मे!
अपने
में आ गया, अपने घर आ
गया, अपने
केंद्र पर बैठ
गया। अब कौन
दूर, कौन
पास! दूर और
पास का तो
मतलब ही होता
है, अन्य
है। अब तो मैं
बैठ गया अपने
में और पाया
कि मैं सर्व
में बैठा हूं।
स्व में बैठकर
पाया कि सर्व
हो गया हूं।
अब कोई दूर
नहीं, कोई
पास नहीं, क्योंकि
कोई दूसरा है
ही नहीं।
अनन्यभाव
पैदा हुआ है।
मैं ही हूं।
'अपनी
महिमा में
स्थित हुए
मुझको कहां
मृत्यु है
अथवा कहां
जीवन? कहां
लोक, कहां
लौकिक
व्यवहार? कहां
लय और कहां
समाधि?'
क्व
मृत्युजार्वितं
वा क्व लोका:
क्यास्य क्व
लौकिकम्।
क्व
लय: क्व
समाधिर्वा
स्वमहिम्नि
स्थितस्य मे।
अपने
में विराजमान
होकर अब न तो
किसी में लय होना
है, न
कहीं समाधि
लगानी है।
क्योंकि कोई
है ही नहीं
जिसमें लय
होना हो। कोई
है ही नहीं
जिसमें
समाधिस्थ
होना हो। न तो
कुछ लोक है, न कुछ परलोक
है। ये सारे
द्वंद्व गये।
ये सारे
विभाजन गये।
सब विभाजन भय
के हैं।
मृत्यु के
कारण सब
विभाजन हैं।
अब तो जीवन भी
नहीं है, मृत्यु
भी नहीं है।
और
अंतिम सूत्र
आज का
'आत्मा
में विश्रांत
हुए मुझको
धर्म, अर्थ
और काम की कथा
अलम् है, योग
की कथा अलम्
है और विज्ञान
की कथा भी
अलम् है।’
अल
त्रिवर्गकथया
योगस्य
कथयाप्यलम्।
अर्ल
विज्ञानकथया
विश्रांतस्य
ममात्मनि।।
अलम्
शब्द का अर्थ
होता है, हो गयी बात, पूर्ण हो
गयी। आ गया
पूर्ण विराम।’दि एंड़'।
अलम् का अर्थ
होता है, आखिरी
बात आ गयी, आत्यंतिक।
यहां कहानी
पूरी होती है,
अलम् का
अर्थ होता है।
इत्यलम्—दि एंड़।
आत्मा
में विश्रांत
हुए मुझको अब
न तो धर्म की
कथा में कोई
रुचि है, न अर्थ की
कथा में कुछ
रुचि है, न
काम की कथा
में कुछ रुचि
है। जो आदमी
काम की कथा
में रुचि लेता
है, वह
बताता है कि
उसका शरीर अभी
कामातुर है।
जो आदमी धन की
कथा में रुचि
लेता है, वह
बताता है कि
उसका मन अभी
धनातुर है। और
जो आदमी धर्म
की कथा में
रुचि लेता है,
उसका मन
बताता कि उसके
प्राण मोक्ष
पाने के लिए, परमात्मा
पाने के लिए
उत्सुक हैं, जिज्ञासु
हैं।
जनक
कहते हैं, मैंने पा
लिया। तुमने
कहा और मैंने
पा लिया। तुमने
पुकारा और
मैंने सुन
लिया। तुमने
चुनौती दी और
मैं जाग गया।
अल
त्रिवर्गकथया.....।
अर्थ, काम, मोक्ष,
धर्म
इत्यादि की सब
कथाएं समाप्त
हो गयीं। मैं
पूर्ण हुआ।
अल
विज्ञानकथया
विश्रांतस्य
ममात्मनि।
योग की
कथा भी अब
व्यर्थ है और
विज्ञान की भी।
विज्ञान का
अर्थ होता है, बाहर का
योग। योग का
अर्थ होता है,
भीतर का
विज्ञान। अब
तो बाहर— भीतर
का भेद नहीं
रहा, इसलिए
सब बातें
व्यर्थ हो
गयीं। अब शब्द
का कोई
प्रयोजन नहीं
है। शब्द का
काम पूरा हो
गया। एक काटा
लग जाता है
पैर में, तुम
दूसरे काटे से
उस काटे को निकाल
लेते। अब तो
दोनों काटे
बेकार हो गये।
अब तुम दोनों
को फेंक देते
हो।
जनक यह
कह रहे हैं कि
मैंने शब्दों
के बहुत—बहुत
काटे जन्मों —जन्मों
में लगा रखे
थे, सदगुरु
की कृपा से, तुम्हारे
शब्दों से
तुमने मेरे
काटे निकाल लिये,
अब तो
तुम्हारे
शब्दों की भी
कोई जरूरत
नहीं है। अब
तो बात ही खतम
हो गयी। अलम्।
आ गया अंत।
वह
मौजे —हवादिस
का थपेड़ा न
रहा
कश्ती
वह हुई गर्क
तो बेड़ा न रहा
सारे
झगड़े थे
जिंदगानी के ' अनीस'
जब हम न
रहे तो कुछ
बखेड़ा न रहा
अलम्।
हरि ओम तत्सत्।
आज इतना
ही।
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