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शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

पाँच सौ भिक्षुओं से एक जेतवन रूक जाना (उत्‍तारर्द्ध)—(कथायात्रा—047

पाँच सौ भिक्षुओं में से एक आलस्‍यवश जेतवन में रूक जाना (उत्तारर्द्ध)—(एस धम्मो सनंतनो)



भगवान से नवदृष्टि ले उत्साह से भरे वे भिक्षु पुन: अरण्य में गये। उनमें से सिर्फ एक जेतवन में ही रह गया

चार सौ निन्यानबे गये इस बार, पहले पांच सौ गये थे। एक रुक गया।

वह आलसी था और आस्थाहीन भी। उसे भरोसा नहीं था कि ध्यान जैसी कोई स्थिति भी होती है!

वह तो सोचता था, यह बुद्ध भी न—मालूम कहां की बातें करते हैं! कैसा ध्यान! आलस्य की भी अपनी व्यवस्था है तर्क की। आलस्य भी अपनी रक्षा करता है। आलसी यह न कहेगा कि होगा, ध्यान होता होगा, मैं आलसी हूं। आलसी कहेगा, ध्यान होता ही नहीं। मैं तो तैयार हूं करने को, लेकिन यह ध्यान इत्यादि सब बातचीत है, यह कुछ होता नहीं। आलसी यह न कहेगा कि मैं आलसी हूं इसलिए परमात्मा को नहीं खोज पाता हूं, आलसी कहेगा, परमात्मा है कहां! होता तो हम कभी का खोज लेते, है ही नहीं तो खोजें क्या? और चांदर तानकर सो रहता है। आलस्य अपनी रक्षा में बड़ा कुशल है। बड़े तर्क खोजता है। बजाय इसके कि हम यह कहें कि मेरी सामर्थ्य नहीं सत्य को जानने की, हम कहते हैं, सत्य है ही नहीं। बजाय इसके कि हम कहें कि मैं जीवन में अमृत को नहीं जान पाया, हम कहते हैं, अमृत होता ही नहीं।

फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा, ईश्वर मर गया है। है ही नहीं।
नास्तिक अक्सर आलस्य के कारण नास्तिक होता है। आस्तिकता उपद्रव मालूम हौती है। आस्तिकता का मतलब यह हुआ, ईश्वर को स्वीकार किया तो अब एक चुनौती आ गयी। ईश्वर को माना कि है, तो अब खोजना पड़ेगा। न—मालूम खोज कितना समय ले! कितना कंटकाकीर्ण हो मार्ग! कितने पहाड़ी चढ़ाव हों! पता नहीं कितना श्रम करना पड़े!
ईश्वर को स्वीकार करने में ही त्उम्हारे आलस्य की मौत होने लगती है। बजाय आलस्य को मारने के यही उचित है कि कह दो, ईश्वर मर गया। ईश्वर को मारना ज्यादा आसान, आलस्य को मारना ज्यादा कठिन। अपने को मारना ज्यादा कठिन, ईश्वर को मार देना सुगम सी बात है। कह दिया, बात खतम हो गयी!
दुनिया में जो लोग नास्तिक हैं, उनमें से अधिक लोग नास्तिक नहीं हैं, मात्र आलसी हैं। इसका मतलब तुम यह मत समझना कि तुम नास्तिक नहीं हो, आस्तिक हो, तो तुम आलसी नहीं हो। आलस्य बड़ा अदभुत है। यह नास्तिकता में भी शरण खोज लेता है, आस्तिकता में भी। आस्तिक कहता है, ही जी, ईश्वर है। अब और क्या खोजना? हम तो स्वीकार ही करते हैं। हम तो मानते ही हैं कि उसी ने बनाया सब, उसी का खेल है, वही खिलवा रहा है, जब तक खिलवाएगा, खेलेंगे। और आदमी के किये क्या होता है! जब उसकी मर्जी होगी, उसका प्रसाद बरसेगा, तो सब हो जाएगा। वह न बुलाए, तब तक कहीं कोई जाता! अपनी खोज से क्या होगा? उसकी कृपा होगी तब सब होगा।
यह भी आलस्य है।
नास्तिक, ईश्वर नहीं है, ऐसा कहकर अपने आलस्य को बचा लेता है। आस्तिक, ईश्वर है, बिना खोजे, बिना सोचे, बिना चुनौती स्वीकार किये स्वीकार कर लेता है, इस स्वीकार में भी आलस्य है। वह कहता है, है जी, मंदिरों में है, मस्जिदों में है। और कभी—कभी जाकर पूजा भी कर आते हैं, धर्म—उत्सव आता है तो प्रार्थना भी कर लेते हैं, हम तो मानते हैं, आस्तिक हैं। मगर न आस्तिक खोजता, न नास्तिक खोजता। दोनों बेईमान हैं।
धार्मिक आदमी और ही तरह का होता है। धार्मिक आदमी कहता है, मैं खोजूंगा, मैं यात्रा पर निकलूंगा, कितनी ही दूर हो सत्य, लेकिन जाऊंगा। क्योंकि इस जीवन को व्यर्थ चीजों में गंवाने में क्या सार है? इसे मैं सत्य की खोज पर समर्पित करूंगा। समर्पित जीवन होता है धार्मिक का। खोज का जीवन होता है धार्मिक का। अन्वेषण का अभियान होता है उसके जीवन में। कितने ही उतुंग पर्वतों पर बैठा हो सत्य, जाऊंगा। मिट जाऊं मार्ग में भला पू लेकिन यहां बैठे —बैठे कोई प्रयोजन नहीं है।
वह जो एक भिक्षु था वह रुक गया। आलसी था आस्थाहीन भी था। लेकिन उसने अपने मन में सोचा ध्यान जैसी कोई स्थिति होती नहीं ये बुद्धपुरुष भी न— मालूम कहा की बातें करते हैं!
प्रत्येक रोग अपनी रक्षा करता है, सावधान। हर रोग अपनी रक्षा करता है, हर रोग तरकीबें जुटाता है कि तुम कहीं औषधि न खोज लो।
अरण्य में गये भिक्षु उद्योग करते हुए शीघ्र ही ध्यान के अनुभव से मंडित होकर भगवान के चरणों में उपस्थित हुए। उनके व्यक्तित्व और हो गये थे। उनकी मुखाकृतियां और हो गयी थीं। एक सौदर्य और एक ज्योति उन्हें घेरे हुए थी। अंधा भी देख ले बहरा भी सुन ले जो नहीं समझता वह भी पहचान ले ऐसी उनकी दशा थी।
ध्यानमंडित हो वे वापस लौटे। वे. चार सौ निन्यानबे भिक्षु एक नये ज्योतिर्प्रवाह की तरह वापस लौटे। उनकी सुगंध बदल गयी थी। उनके मुखौटे गिर गये थे। उनके झूठ गिर गये थे। उनके विचार विसर्जित हुए थे, वे शांत हुए थे। शून्य का उन्हें स्वाद लगा था, शून्य की तरंग उठी थी। वे नये होकर आये थे, उनका पुनर्जन्म हुआ था। उनकी चाल और थी, ढाल और थी। उनकी सारी शैली बदल गयी थी। जिन्होंने उन्हें पहले जाना था वे शायद पहचान भी न पाते कि ये वही व्यक्ति हैं। सिर्फ रंग—रूप वही रह गया था। उतना ही फर्क हो गया था जैसे कि बुझे दीये में और जले दीये में होता है। बुझा दीया, मिट्टी का दीया, तेल— भरा हो, बाती भी अटकी हो, मगर बुझा है। जला दीया, वही का वही है एक अर्थ में, मिट्टी वही है, तेल वही है, बाती वही है, लेकिन एक अभिनव घटना घट गयी कि ज्योति उतर आयी है। ये आत्मवान होकर लौटे थे।
ध्यान का दीया जलता है तो मनुष्य के जीवन में जो क्रांति घटती है, वैसी और कोई क्रांति नहीं है।
उन्होंने आकर आज जैसी भगवान की वंदना की वैसी कभी न की थी।
वैसी कभी करते भी कैसे! आज पहली बार भगवान के चरणों में झुके। आज झुकने के लिए कुछ कारण था। अब तक तो जो था औपचारिक रहा होगा। झुकना चाहिए, झुकते थे। आज झुकना चाहिए की बात ही न थी, आज तो चाहते भी कि न झुकें तो भी रुक न —सकते थे, क्रांति घटी थी, स्वाद लगा था, अनुभव हुआ था। आज दिखायी पड़ा था बुद्ध का वास्तविक रूप उन्हें। दिखायी .ही तब पड़ता है जब कुछ ज्योति तुम्हारे भीतर भी आ जाए। कुछ तुम कृष्णमय हो जाओ तो कृष्ण समझ में आते हैं। कुछ तुम बुद्धमय हो जाओ तो बुद्ध समझ में आते हैं। बुद्ध जैसे जब तक न हो जाओ कुछ, तब तक कैसे बुद्ध को पहचानो!
ध्यान ने उन्हें भी भगवत्ता की थोड़ी सी झलक दे दी थी। आज भगवान को पहचान सकते थे। अब तक तो मान्यता थी। लोग कहते थे भगवान हैं, तो. वे भी कहते थे भगवान हैं। मगर भीतर तो 'कहीं संदेह रहा ही होगा। संदेह इतनी आसानी से जाता भी कहा! भीतर तो कहीं न कहीं छिपे तल पर कोई कहता ही रहा होगा कि पता नहीं भगवान हैं कि नहीं हैं! दिखते तो जैसे और आदमी वैसे ही, फिर कौन जाने! फिर क्या इनके भीतर हुआ है, हम कैसे पहचानें! जब अपनी ज्योति भी जल जाती है तब पहचान आती है। तब भाषा हमारे हाथ में होती है।
ये बुद्ध की भाषा सीखकर लौटे थे, ध्यान सीखकर लौटे थे।
उन्होंने आकर आज जैसी भगवान की वंदना की.।
जैसे नाचे होंगे, जैसे आह्रादित उत्सव मनाया होगा। आज जाने होंगे, इस आदमी की करुणा कितनी प्रगाढ़ है। आज जाने होंगे कि यह अगर न होता तो हम कभी जागते ही न, जन्मों—जन्मों तक न जागते, जागना हो ही नहीं सकता था, इस आदमी ने हमें जगा दिया। अगर यह न होता तो हम सोए ही रहते, सोए ही रहते, कोई आशा न थी। और यह आदमी रोज—रोज चिल्लाता रहा, सुबह, सांझ, दोपहर—ध्यान, ध्यान, ध्यान। हमने कभी सुना नहीं। और भी कितने हैं करोड़ों, जिन्होंने नहीं सुना। आज उनको लगा होगा, हम कितने धन्यभागी और दूसरे कितने अभागे! आज तुलना का उपाय था, आज तराजू हाथ में थी, आज बात तौली जा सकती थी।
ऐसी वंदना उन्होंने कभी न की थी। आह्लाद अनुग्रह उत्सव से भरे उनके हृदय गदगद थे। आज बहे जाते थे अनुग्रह के भाव से।
रखा होगा सिर बुद्ध के चरणों पर, बहे होंगे आंसू  आनंद के। कहने को तो कुछ भी न था, शब्द तो छोटे हैं, मौन निवेदन किया होगा।
यह वंदना औपचारिक न थी।
आज पहली दफा वे शिष्य हुए। और आज पहली दफा बुद्ध गुरु हुए। आज पहली दफा गुरु—शिष्य का संबंध बना, सेतु बना। आज तार जुड़े, आज हृदय से हृदय एक हुआ।
वस्तुत: पहली बार ही उन्होंने भगवान को जाना और पहचाना था।
अपने भीतर का भगवान न पहचान में आए, तो अपने से बाहर का भगवान कैसे पहचान में आ सकता है!
भगवान ने उनसे बड़े ही मधुर वचनों में कुशल— क्षेम पूछा।
यह स्वाभाविक ही था; वे अपना संकल्प पूरा करके लौटे थे। उनकी साधना ने एक महत्वपूर्ण मंजिल पूरी कर ली थी। जीवन की सबसे बड़ी संपदा का अनुभव शुरू हुआ था। उनके बीज अंकुरित हुए थे। कठिन को उन्होंने श्रम से सरल कर लिया था, असंभव को संभव बनाया था।
निश्चय ही ध्यान से असंभव कुछ भी नहीं, ध्यान से ज्यादा असंभव कुछ भी नहीं। और जिस दिन ध्यान संभव हो जाता है, उस दिन सब संभव हो गया। तुम सब कमा लो, तुम सब इकट्ठा कर लो, तुम सारी पृथ्वी के मालिक हो जाओ, तुम दरिद्र हो, दरिद्र ही मरोगे। तुम ध्यान कमा लो और सब छूट जाए, कोई चिंता नहीं, तुम समृद्ध हो गये, तुम सम्राट हो गये। और तुम्हारे पास संपदा ऐसी आयी जिसे मौत भी न छीन सकेगी।
तो भगवान ने बड़े ही मधुर वचनो में उनसे कुशल— क्षेम पूछा। उन्होंने भगवान की सुनी थी। वे भगवान की सुनकर तीर की तरह ध्यान के लक्ष्य की तरफ गये थे और लक्ष्य वेधकर लौटे थे।
स्वभावत:, गुरु हर शिष्य की उपलब्धि में आनंदित होता है। उतना ही आनंद गुरु को फिर मिलता है जितना स्वयं के बोध में मिला था। हर बार जब गुरु का एक शिष्य बोध को उपलब्ध होता है, तो फिर—फिर जैसे उसका बोध वापस लौटता। जैसे मां बेटे को देखकर प्रसन्न होती है कि बेटा सफल हुआ, जैसे बाप बेटे को देखकर प्रसन्न होता है कि बेटा बड़ा हुआ—यें तो छोटी तुलनाएं हैं, छोटी उपमाएं हैं, गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है वह बेटा—बाप, मां—बेटे से बहुत बड़ा है, अनंत गुना बड़ा है। गुणात्मक रूप से भिन्न है, मात्रात्मक भेद ही नहीं है।
जब देखा होगा अपने इन पुत्रों को, ज्योतिर्मय दीये की तरह आते—ज्योतियों का एक जुलूस जैसे आया हो—देखा होगा खिले इनके फूलों को, तो बुद्ध आनंदित हों, यह स्वाभाविक है। परम आनंदित हों, यह स्वाभाविक है। एक विजय यात्रा पूरी करके ये शिष्य वापस लौटे थे।
लेकिन वह एक भिक्षु जो जेतवन में ही रह गया था यह सब देखकर जल— भुन गया। उसे बड़ी ईर्ष्या की लपटें पैदा हुईं। उसमें ईर्ष्या और प्रतिएकर्धा भयंकर रूप से फुफकार मारने लगी। उसने सोचा अरे शास्ता इनके साथ बहुत मीठी— मीठी बातें करते हैं और मेरी तरफ देखते भी नहीं! और इनसे बड़ी मिठास से कुशल— क्षेम पूछ रहे हैं! और मुझसे कभी बोलते भी नहीं। जान पड़ता है कि ये ध्यान पा गये हैं। लेकिन कोई बात नहीं मैं आज ही ध्यान पाकर भगवान से बातचीत करूंगा। ईर्ष्या जलन प्रतिएकर्धा अहंकार के कारण वह ध्यान पाना चाहता था।

ईर्ष्या के कारण वह ध्यान पाना चाहता था। एकर्धा के कारण वह ध्यान पाना चाहता था। और ध्यान के मार्ग में इनसे बड़ी बाधाएं नहीं। और वह चाहता था, आज का आज हो जाए। वह चाहता था, कल सुबह मैं भी ऐसे ही आऊं, ज्योतिर्मय, और भगवान मुझसे भी ऐसी ही कुशल— क्षेम पूछें।
मगर ये कारण ही गलते थे। एक क्षण में भी कभी ध्यान हो सकता है, लेकिन कारण ही गलत थे। तब तो जन्मों में भी नहीं हो सकता। इन कारणों के आधार पर तो यह भिक्षु अनंत जन्मों तक भी चेष्टा करे, तो भी इसका दीया जलेगा नहीं, इसका फूल खिलेगा नहीं।
वह रातभर ध्यान की कोशिश करता रहा। कभी बैठकर ध्यान किया कभी खड़े होकर ध्यान किया— बैठकर भी नहीं लगा खड़े होकर भी नहीं लगा नीदं भी आने लगी क्रोध भी आने लगा ईर्ष्या और—और घना हआ उठाने लगी। कभी चलकर ध्यान किया— कि कहीं नीदं न आ जाए) सुबह के पहले ध्यान कर ही लेना था। जैसे— जैसे रात बीतने लगी नीदं जोर करने लगी वैसे— वैसे और पगलाने लगा वह भिक्षु। वह विहार में चलता हुआ चारों तरफ रात के अंधेरे में.।
बुद्ध ने दो तरह के ध्यान कहे हैं। एक बैठकर और एक चलकर। चलने वाले ध्यान का नाम है—चक्रमण। तो बैठकर करे तो नींद लग जाए तो वह चल—चलकर ध्यान करने लगा। दौड़ने लगा। क्योंकि चलते—चलते भी नींद के झपके आने लगे और सुबह के पहले पूरा कर लेना है।
रातभर का जागरण और जलन की ऐसी दशा और अहंकार का ऐसा आहत— भाव और अहंकार की ऐसी प्रबल चेष्टा कि कल सुबह सिद्ध ही कर देना है कि न केवल मेरा दीया जल गया है बल्कि और दूसरों से ज्यादा प्रज्वलित है बड़ी मेरे दीये की लौ है। सुबह होने के पहले ही वह करीब— करीब पागल सी अवस्था में हो गया। एक पत्थर पर गिर पड़ा जिससे उसके पैर की एक थी टूट गयी। उसकी चीख सुनकर सारे भिक्षु जाग गये। भगवान भी जाग गये। उस भिक्षु पर उन्हें बड़ी दया आयी। उन्होंने उससे कहा— भिक्षु यह तो ध्यानी होने का मार्ग नहीं। और गलत कारणों से कोई कभी ध्यान को उपलब्ध होता भी नहीं। जान होश में आ। ध्यान हो सकता है लेकिन बीज को ठीक भूमि चाहिए। पत्थरों पर रख देगा बीज को तो ध्यान नहीं होगा ऐसी जगह बीज को फेक देगा जहां जल अनुपलब्ध हो तो बीज अंकुरित नहीं होगा। अहंकार पर ध्यान को अंकुरित करना चाह रहा है। पत्थर पर शायद कभी बीज अंकुरित हो जाए लेकिन अहंकार के पत्थर पर ध्यान कभी तांकुरित नहीं होता। ध्यान की तो मौलिक शर्त है— निरहंकार— भाव; अनता— भाव; रमृा—अनात्म— भाव। और ईर्ष्या के' कारण तू ध्यान करना चाहता है तुझे ध्यान से कोई प्रकेजन ही नहीं है। दूसरों को ध्यान हो गया मुझसे पहले यह तेरी अड़चन है। जब तक' दूसरों पर नजर है तब तक तो कोई अकेला भी नहीं हो सकता ध्यान की तो बात ही अलग है। भीड़ खड़ी रहेगी दूसरा खड़ा रहेगा।

प्रतिएकर्धा जब तक हो, तब तक एकांत कैसे बनेगा? एकांत तो तभी बन सकता है जब दूसरे को हमने बिलकुल विदा कर दिया है, भूल ही गये, दूसरे से कुछ लेना —देना नहीं है। ध्यान तो ऐसी दशा है जब इस संसार में किसी से कुछ लेना—देना नहीं। न किसी के आगे होना है, न किसी के पीछे होना है, जब तुम इस संसार में किसी से अपनी तुलना ही नहीं करते हो, तभी ध्यान घट सकता है।
खयाल रखना, ध्यान की यात्रा में भी प्रतिएकर्धा पकड़ लेती है। जैसे धन की यात्रा में पकड़ती है, किसी ने बड़ा मकान बना लिया तो तुम जले कि मैं भी बड़ा मकान बनाऊं, चाहे तुम्हें जरूरत हो, चाहे न हो। किसी ने शादी में लाख रुपये खर्च किये तो तुम पागल हो गये, कि दो लाख खर्च करने ही पड़ेंगे अपने बेटे की शादी में, इज्जत का सवाल है। चाहे दिवाला निकल जाए, लेकिन ये दो लाख तो करने ही पड़ेंगे।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी कार से उतरी और बेहोश होकर गिर पड़ी। मुल्ला भागा हुआ आया, पंखा किया, पानी छिड़का, होश आया तो पूछा, बात क्या है? तो उसने कहा, इतनी गर्मी! तो मुल्ला ने कार की तरफ देखा और कहा कि भागवान, तो खिड़की के काच क्यों नहीं खोले? उसने कहा, कैसे खोलती! क्या मोहल्लेभर में बदनामी करवानी है कि अपने पास गाड़ी है जो एयरकंडीशंड नहीं! तो काच की खिड़कियां बंद रखे है। चाहे प्राण निकल जाएं, मगर मोहल्ले में यह बदनामी तो नहीं होनी चाहिए कि एयरकंडीशंड गाड़ी नहीं है मुल्ला के पास! ऐसे ही हम जी रहे हैं। ऐसे हम संसार में जीते हैं। यह संसार में तो ठीक ही है, लेकिन ऐसे ही तो हम ध्यान में भी जीने लगते हैं। ऐसे ही हम संन्यास में भी जीने लगते हैं। वहा भी प्रतिएकर्धा कि कोई मुझसे आगे न निकल जाए, कि कौन पीछे है, कौन आगे है, बड़ी चिंता लगी रहती है। तो फिर ध्यान कभी फलित न होगा।
तब बुद्ध ने ये गाथाएं कहीं—

उडानकालम्हि अनुद्वहानो युवा बली आलसिय उपेतो ।
संसन्नसंकप्पमनो कुसीतो पज्जाय मग्गं अलसो न विंदति ।।
योगा के जायती हरि अयोगा भूरि संखयो ।
एत द्वेधापथं लत्वा भवाय विभवाय व ।
तथत्तान निवेसेथ्य अंक हरि पवद्वति ।।
वन छिंदथ मा रुक्‍खं वनतो जायती भयं ।
छेत्वा वनरहच वनथज्व निब्बना होथ भिक्खवो ।।

'जो उद्योग करने के समय उद्योग न करने वाला है, जो युवा और बली होकर भी आलस्य से युक्त होता है, जो संकल्परहित है और दीर्घसूत्री है, वह आलसी पुरुष प्रज्ञा के मार्ग को प्राप्त नहीं करता है'
जब समय हो उद्योग करने का तो उद्योग करना चाहिए। ठीक समय था जब ये पांच सौ भिक्षु जा रहे थे अरण्य को, तू भी गया होता। तब इनकी इतनी बड़ी तरंग थी उस तरंग में शायद तू भी तिर गया होता। तब एक मौसम आया था ध्यान का, वह सारा जंगल ध्यान से भर गया होगा। जैसे वसंत आता है और फूल खिल जाते हैं, ऐसे ये पांच सौ भिक्षु ध्यान कर रहे थे, इनके ध्यान की तरंगें पैदा हो रही थीं, तब तो तू गया नहीं पागल, जब समय था, ऋतु आयी थी, जब वसंत आया था!
ऐसा मुश्किल से होता है जब पांच सौ लोग एक साथ ध्यान करने किसी जंगल में प्रविष्ट हुए हों। उस जंगल की पूरी हवा बदल जाती है, उस जंगल की तरंगें बदल जाती हैं। उस तरंग में तो कभी—कभी यह भी हो जाता है कि पशु —पक्षी भी ध्यान को उपलब्ध हो जाते हैं, कभी—कभी पौधे भी ध्यान को उपलब्ध हो जाते हैं। अनहोनी घट सकती थी, असंभव संभव हो सकता था, इतना बडा प्रवाह था, तब तो तू गया नहीं! जब उद्योग करना था तब उद्योग न किया—युवा है तू बली है तू और आलस्य से युक्त है और आलस्य के लिए तर्क खोजता है!
तब तो तूने यह सोचा कि ध्यान इत्यादि होता कहा है! तब तो तूने अपने को बचा लिया, अपने को बंद कर लिया! तब तो तूने अपनी संकल्प—रहितता न देखी! जब संकल्प का क्षण आया था और जब इतने लोग संकल्प कर रहे थे, तब भी तेरे भीतर संकल्प की चोट न पड़ी कि इतने लोग जाते हैं, जरूर कुछ होगा, मैं भी जाऊं। एक प्रयोग तो करके देखूं। और बुद्ध कहते हैं, तो झूठ तो न कहते होंगे।
और तुम ध्यान करो या न करो, इससे बुद्ध को क्या मिलता है! कहते हैं, तो 'कुछ बात होगी सार की। और रोज—रोज कहते हैं, सुबह—शाम कहते हैं, वही—वही कहते हैं, तो जरूर कुछ बात होगी। तूने मुझे तो देखा होता! मेरी तरफ तो देखा होता! त्। छ भी तूने न किया। तूने सोचा, ध्यान इत्यादि होता कहा है!
ये चार सौ निन्यानबे लोग जाते थे, इनकी भी बुद्धि पर तूने जरा भरोसा न किया, (1 ने अपने आलस्य पर भरोसा किया। आलसी पुरुष ध्यान को उपलब्ध नहीं होता। श्रम की क्षमता चाहिए, संकल्प का बल चाहिए।
'योग से प्रज्ञा उत्पन्न होती है और अयोग से प्रज्ञा का क्षय होता है। उत्थान और पतन के इन दो भिन्न मार्गों को जानकर, जिस तरह प्रज्ञा बढ़े उस तरफ अपने को लगाना चाहिए।'
योग का अर्थ होता है, तुंम्हारी सारी शक्तियां युक्त हो जाएं, संयुक्त हो जाएं, एक हो जाएं। आलसी की सारी शक्तियां बिखरी होती हैं। आलसी का एक हिस्सा एक तरफ जाता है, दूसरा हिस्सा दूसरी तरफ जाता है। आलस्य के त्याग के साथ ही ज्यक्ति की शक्तियां इकट्ठी होती हैं, एकजुट होती हैं, केंद्रित होती हैं, एकाग्र होती है।

योगा के जायती हरि अयोगा भूरि संखयो ।

 और योग से ही कुछ पाया जाता है—प्रज्ञा जगती है—अयोग से खो जाती है। अयोगी बुद्धिहीन हो जाता है। बुद्धिमत्ता तो जगती तभी है, जब तुम्हारा सारा जीवन इकट्ठा, एकजुट, एक चीज पर आरूढ़ हो जाता है। जब तुम्हारे भीतर एक संकल्प का उदय होता है और सारी वासनाएं और सारी इच्छाएं उसी एक संकल्प के चरणों में समर्पित हो जाती हैं, तब योग पैदा होता है। योग से प्रज्ञा उत्पन्न होती है। अयोग से प्रज्ञा का क्षय होता है। और ये दो ही मार्ग हैं, बुद्ध ने कहा, ठीक से जानकर जिस पर प्रज्ञा बढ़े उस मार्ग पर जाना चाहिए।
और अंतिम सूत्र उन्होंने कहा, 'भिक्षुओ, वन को काटो, वृक्ष को नहीं। वन से भय उत्पन्न होता है। वन और झाडी को कांटकर निर्वन हो जाओ।'
      बड़ा अजीब सूत्र है यह। समझना इसे।
बुद्ध ने कहा, 'वन को काटो, वृक्ष को नहीं। '
अक्सर हम वृक्षों को कांटते हैं। मेरे पास कोई आता है, वह कहता है, मुझे क्रोध बहुत आता है, मैं क्रोध से कैसे मुक्त हो जाऊं? कोई आता है, वह कहता है, मैं बहुत लोभी हूं, लोभ से कैसे मुक्त हो जाऊं? कोई आता है, वह कहता है, मोह बहुत सताता है मुझे, मोह से कैसे मुक्त हो जाऊं? कोई आता है, वह कहता है, कामवासना बहुत पकड़ती है, इससे कैसे छुटकारा हो?
ये एक—एक वृक्ष को कांटने में लगे हैं। क्रोध को कांट भी लोगे तो कुछ कटेगा नहीं। क्योंकि क्रोध जब कट जाएगा तब तुम पाओगे कि जो ऊर्जा क्रोध में जाती थी, वह लोभ में जाने लगी। लोभ को किसी तरह सम्हालोगे, तो पाओगे कि जो लोभ में जाती थी ऊर्जा, वह काम में जाने लगी। मूल तो वहीं के वहीं हैं। यह पूरा जंगल कटना चाहिए, इसमें एक वृक्ष के कांटने से कुछ भी न होगा।
जंगल को कांटने का उपाय ध्यान है। लेकिन लोग एक—एक वृक्ष से उलझते हैं। कोई कहता है, क्रोध से छुटकारा हो जाए तो बस सब ठीक। कोई कहता है, काम से छुटकारा हो जाए तो सब ठीक। ये अलग— अलग वृक्ष हैं। ये सारे वृक्ष एक चीज से ही जुड़े हैं। और वह एक चीज है गैर— ध्यान की अवस्था, अयोग की अवस्था। योग को उपलब्ध व्यक्ति, ध्यान को उपलब्ध व्यक्ति, पूरे जंगल को कांट डालता है, इकट्ठा कांट डालता है।

'भिक्षुओ, वन को काटो, वृक्ष को नहीं।'

एक—एक बीमारी से मत उलझो, सारी बीमारियों का जो मूल है, उससे इकट्ठी टक्कर ले लो। नहीं तो तुम बीमारियां बदलते रहोगे, कभी स्वस्थ न हो सकोगे। जो सारी बीमारियों के भीतर मूल कारण है, वह है गैर— ध्यान की अवस्था, बेहोशी की अवस्था, नींद की अवस्था, प्रमाद की अवस्था, मूर्च्छा।
उस मूर्च्छा को कांट डालो, पूरा जंगल कट जाएगा। क्रोध ही नहीं कटेगा, मोह भी कट जाएगा; लोभ ही नहीं कटेगा, काम भी कट जाएगा। सब कट जाएंगे, तुम पूरे जंगल को जला डालो।

'भिक्षुओ, वन को काटो, वृक्ष को नहीं। वन से भय उत्पन्न होता है। वन और झाड़ी को कांटकर निर्वन हो जाओ।'
तुम्हारे भीतर जिस दिन ध्यान आ गया, सब गये—काम, लोभ, मद, मत्सर। सब विचार गये। सारा जंगल का जंगल चला गया। निर्वन हो गये। ऐसे हो गये जैसे खाली आकाश—जब बदलिया विदा हो जाती हैं, निर्विचार चैतन्य। और निर्विचार चैतन्य ही ध्यान है।

ओशो
एस धम्‍मो सनंतनो

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