दिनांक
3 फरवरी, 1977;
श्री
ओशो आश्रम, पूना।
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न :
मैं
साक्षीभाव को
जगाने के लिए
आत्मविश्लेषण, 'इंट्रॉस्पेक्यानं
करता हूं।
क्या यह पहले
कदम के रूप
में सही है? कृपापूर्वक
समझाएं।
आत्मविश्लेषण
तो विचार की
प्रक्रिया है, और
साक्षी है
निर्विचार की
दशा। विचार से
निर्विचार के लिए
कोई मार्ग नहीं
जाता। विचार
को छोड़ने से
निर्विचार का
अवतरण होता है।
तो
आत्मविश्लेषण
तो कतई सही
मार्ग नहीं है, अगर
साक्षी बनना
है।
विश्लेषण
का तो अर्थ
हुआ, सोचना।
साक्षी का
अर्थ होता है,
बिना सोचे
देखना। मात्र
जागकर देखना।
एक विचार उठा
मन में, विश्लेषण
तो तत्क्षण
निर्णय लेता
है—अच्छा है
विचार, बुरा
है विचार, करने
योग्य है, न
करने योग्य
है! इस विचार
में पडूं? न
पडूं?
इसे
हटाऊं, या
सजाऊं, संवारूं,
सिंहासन पर
बिठाऊं? एक
तो विचार उठा,
उतना ही
काफी था
तुम्हें
भटकाने के लिए,
अब और विचार
पर विचार उठे।
तुमने और जाल
बढ़ा लिया। तुम
और जंजाल में
पड़े। ये सीढ़ी
साक्षी की ओर
जाने की न हुई,
साक्षी से
दूर जाने की
हुई। तुमने
विपरीत दिशा
पकड़ ली। अब
तुम क्या
करोगे? ये
जो विचार उठे विचार
के प्रति, अगर
इनका भी तुम
विश्लेषण करो
तो और विचार
उठेंगे।
तो
विश्लेषण अगर
ठीक—ठीक
आत्यंतिक रूप
से किया जाए
तो तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे।
क्योंकि
विश्लेषण का
तो कोई अंत
नहीं है। एक
विचार को
विश्लेषण
करने के लिए
और विचार चाहिए, उन
विचारों को
विश्लेषण करने
के लिए फिर और
विचार चाहिए,
फिर विचार
के पीछे विचार,
फिर तो तुम
एक जंगल खड़ा
कर लोगे
विचारों का।
और तुम कहौ
उसमें खो
जाओगे, पता
भी न चलेगा।
एक ही विचार
डुबाने को
काफी है, चुन्न
भर पानी
डुबाने को
काफी है, तुमने
सागर खड़ा कर
लिया। तुम भटक
ही जाओगे।
आत्मविश्लेषण
साक्षी का
मार्ग नहीं है।
इसलिए पश्चिम
साक्षी की
धारणा को
उपलब्ध नहीं
कर पाया।
आत्मविश्लेषण
तो पश्चिम ने
बहुत किया है।
पश्चिम की
सारी विधियां
आत्मविश्लेषण
की हैं। और
आत्मविश्लेषण
और साक्षी में
मौलिक भेद है।
साक्षी का
अर्थ है, अब हम कुछ न
करेंगे, सिर्फ
देखेंगे, मात्र
देखेंगे। आख
भर होकर रह
जाएंगे। आख
में जरा—सा भी
हलन—चलन न
होने देंगे।
बुरा है विचार
कि भला है, इतनी
भी रेखा न
खींचेंगे।
शुभ और अशुभ
का भी चिंतन न
करेंगे, विश्लेषण
तो बहुत दूर।
उठेगा विचार
तो देखते
रहेंगे, कोई
निर्णय न
लेंगे। हो, न हो; उठे,
न उठे; ऐसा
पक्षपात भी न
करेंगे।
साक्षी का
क्या पक्षपात!
चोरी का विचार
उठा तो साक्षी
में ऐसे ही
तुम जागकर
देखते रहोगे
जैसे मोक्ष का
विचार उठा, कोई भेद
नहीं है।
इसलिए तो
अष्टावक्र
बार—बार कहते
हैं, शुभ
और अशुभ के
पार, शोभन—
अशोभन के पार,
साधु—
असाधुता के
पार, संसार
और मोक्ष के
पार, भोग
और योग के पार।
वह जो
अतिक्रमण
करनेवाली
चेतना की दशा
है, उसमें
कोई विश्लेषण
नहीं।
क्योंकि
विश्लेषण तो
मन से होता है।
विश्लेषण की
प्रक्रिया तो
मन की ही
प्रक्रिया है।
यह तो मन का ही
खेल है। यह तो
तुम मन में और
बुरी तरह
उतरते जाओगे। यह
तो चूकना है, पहुंचना
नहीं।
मैकदा
है यह समझबूझ
के पीना ऐं
रिंद
कोई
गिरते हुए
पकड़ेगा न बाजू
तेरा
मैकदा
है यह.....
ये
विचार तो शराब
की तरह भुला
लेने वाले हैं।
शराबघर है। मन
मूर्च्छा है, बेहोशी
है।
मैकदा
है यह समझबूझ
के पीना ऐ
रिंद
विचार
को जब पीने
चलो तो बहुत
सोच—समझ कर।
ओंठ से लगाया
कि खतरा है।
क्योंकि एक
विचार के पीछे
दूसरा आ रहा
है। एक
श्रृंखला है।
ऐसी श्रृंखला, जिसका
कोई अंत नहीं।
मैकदा
है यह समझबूझ
के पीना ऐ
रिंद
कोई
गिरते हुए
पकड़ेगा न बाजू
तेरा
और अगर
विचारों में
गिरे, तो
फिर कोई पकड़ने
वाला नहीं है।
क्योंकि जो
पकड़ सकता था, वही गिर गया।
जो संभल सकता
था, वही
गिर गया।
साक्षी
है निर्विचार
दशा।
विश्लेषण
नहीं, संश्लेषण
नहीं, चिंतन
नहीं, मनन
नहीं, मात्र
जागरण। बोध
मात्र।
कभी—कभी
तुम प्रयोग
करो। कभी—कभी
आख बंद कर लो
और अपने मन को
कहो कि तू जो
चाहे कर। तुझे
जो विचार
उठाने हैं, वह उठा।
संकोच न कर, बुरे — भले की
भी फिक्र मत
कर, अब तक
दबा—दबा रहा—यह
उठा, यह न
उठा—अब तू उठा
जो तुझे उठाना
है। सब लहरें
उठा। हम तो तट
पर बैठ गये, तटस्थ हो
गये। हम तो
कूटस्थ हो गये।
हम तो बैठकर
देखेंगे तेरी
लीला। तू नाच।
हम देखेंगे।
मन से कह दो कि
तू नाच और
भरपूर नाच और
जैसा नाचना है
वैसा नाच—सुंदर,
असुंदर; श्लील,
अश्लील, जैसा
भी, हम
देखेंगे। और
तुम बड़े चकित
हो जाओगे।
जैसे
ही तुम यह
कहकर बैठोगे
देखने को, तुम
पाओगे मन चलता
ही नहीं, सरकता
ही नहीं। एक
विचार—तरंग
नहीं उठती।
कुछ क्षणों को
तो मन एकदम
स्तब्ध रह
जाएगा। तुम
करके देखना जो
मैं कह रहा
हूं। आज ही
करके देखना।
कुछ क्षण को
तो मन बिलकुल
स्तब्ध रह
जाएगा।
क्योंकि उस
घड़ी में
साक्षी बहुत
सघन होगा, ताजा—ताजा
होगा। साक्षी
के सामने मन
कभी खड़ा हो
पाया? साक्षी
की
गैरमौजूदगी
मन है। जब
साक्षी
प्रगाढ होता
है, तो मन
शून्य होता है।
जब साक्षी
सोया होता है,
तब मन खूब
खुलकर खेलता
है।
देखते
नहीं, सुबह
जब नींद टूटती
है, सपना
तत्क्षण बंद
हो जाता है।
ऐसा थोड़े ही
है कि नींद
टूट गयी, फिर
सपने को पकड़—पकड़
कर बंद करना
पड़ता है। कि
अब नींद टूट
गयी, अब
सपने
को
कहना पड़ता है
कि अब तू बंद
हो जा। सुबह
नींद टूटी, इधर नींद
टूटी उधर सपना
तिरोहित होने
लगा। धुएं की
रेखा की तरह
खो जाता है।
क्या होता है?
तुम जागे।
तो नींद के
कारण जो बन
रहा था वह खो
गया।
ठीक
ऐसी ही घटना
अंतर्जागरण
में होती है।
जैसे ही तुम
जागकर बैठे, तुमने
कहा मैं
बैठूंगा, देखूंगा,
साक्षी
बनता हूं,
वैसे ही तुम
पाओगे मन गया।
मन मूर्च्छा
है। एक तरह का
सपना है।
इसीलिए तो
अष्टावक्र
कहते हैं, सारा
संसार सपना है।
और इस संसार
का मूल आधार
तुम्हारे मन
में है।
तुम्हारे मन
में सपने का
मूल आधार है।
सोए—सोए तुमने
जो देखा है, वही संसार
है। जागकर
देखोगे तो
परमात्मा के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है।
तो
बैठकर क्षण भर
को, सब
ऊर्जा इकट्ठी
करके, संगृहीत
करके, संगठित
करके, एक
प्रगाढ़
चैतन्य बनकर—
थोडी ही देर
रह पाओगे तुम
उतनी
प्रगाढ़ता में,
क्षण, दो
क्षण—मगर उन
दो क्षण में
भी स्वाद आ
जाएगा।
ज्यादा देर न
टिकेगी यह
प्रगाढ़ता, क्योंकि
तुम्हें इसका
अभ्यास नहीं
है, तुम्हें
अभ्यास तो
सोने का है, दो क्षण, तीन
क्षण और तुम
फिर झपकी खाने
लगोगे। इधर
तुमने झपकी
खायी, उधर
मन उठा, विचार
चले। जैसे ही
विचार चले, समझ जाना कि
झपकी खा गये, यह सपना उठ
आया। यह सपना
प्रतीक है कि
तुम झपकी खा
गये, साक्षी
खो गया। तब
फिर एक झटका
अपने को देना
और कहना कि
ठीक, अब
मैं फिर बैठता
हूं, अब तू
फिर चल। जब—जब
तुम संभलकर
बैठोगे तब—तब
तुम पाओगे मन
बंद हो जाता
है। और जब—जब
तुम होश खो
दोगे तब—तब
तुम पाओगे मन
फिर शुरू हो
जाता है।
विश्लेषण
किसका करोगे? साक्षी
के सामने तो
मन होता ही
नहीं, विश्लेषण
किसका करेगा?
टेबल पर
मरीज ही नहीं
रहता, एकदम
नदारद हो जाता
है। जैसे ही
साक्षी खोया,
वैसे ही
मरीज।
इसे
ऐसा समझो, तुम जब
सोए हुए हो, तो तुम्हारे
उस सोएपन का
नाम मन है।
तुम जब जागे
हुए हो, तब
तुम्हारे
जागेपन का नाम
साक्षी है।
ऐसा समझो कि
जब तुम जागे
हो, तब तुम
सर्जन और जब
तुम सोए हो, तुम मरीज।
मरीज की तरह
तुम्हीं
लेटते टेबल पर
आपरेशन की
प्रतीक्षा
करते, लेकिन
तब सर्जन नहीं
रहता। यहां दो
तो हैं नहीं।
तो बैठा है
मरीज, लेटा
है और रास्ता
देखता है, सर्जन
नहीं है। जब
विचार होता है,
तो द्रष्टा
नहीं होता। और
जब सर्जन
मौजूद होता है,
द्रष्टा
होता है तो
मरीज नहीं
होता, विचार
नहीं होता।
विश्लेषण
करोगे किसका?
विश्लेषण
तो तब हो सकता
है जब द्रष्टा
और विचार
दोनों साथ हों।
आपरेशन करोगे
किसका? कैसे
करोगे? ये
दो तो नहीं
हैं। एक ही है।
तो या तो मन
होता है, या
साक्षी होता
है।
विश्लेषण
शब्द बड़ा
खतरनाक है।
इसका मतलब यह
होता है कि
तुम हो और मन
भी है, दोनों
साथ—साथ खड़े
हैं। ऐसा कभी
हुआ नहीं। यह
तो ऐसा हुआ
जैसे कि घर
में अंधेरा था,
बड़ा अंधेरा
था और मालिक ने
अपने नौकर
मुल्ला
नसरुद्दीन को
कहा कि जरा भीतर
जाकर देखकर आ,
अंधेरा है
या नहीं? उसने
कहा मालिक, जरा लालटेन
जला लूं! तो उस
मालिक ने कहा
कि अंधेरे को
देखने के लिए
लालटेन की
क्या जरूरत है?
कंजूस आदमी,
उसने कहा, नाहक तेल
खराब करेगा, देखकर आ! पर
उसने कहा, बिना
लालटेन के
देखूंगा कैसे?
लालटेन जला
लूं। लालटेन
जला ली, नहीं
माना, लालटेन
जलाकर गया
देखने—अब
लालटेन जलाकर
जाओगे तो
अंधेरा कहां
मिलेगा!
लौटकर
आ गया। बोला, मालिक, अंधेरा
बिलकुल नहीं
है। मैं
बिलकुल देख
आया, कोने—कोने
में देख आया, लालटेन
जलाकर देख आया,
चूक हो नहीं
सकती।
लालटेन
जलाकर देखने
जाओगे तो
अंधेरा मिल
नहीं सकता।
इसीलिए तो
ध्यानी को
विचार कभी
मिला नहीं। जब
ध्यान हुआ, ज्योति
जली, विचार
नहीं। विचार
तो अंधेरे की
तरह हैं। जब
ध्यान न रहा, ज्योति न
रही, तब
खूब घना
अंधेरा है।
विचार ही
विचार हैं।
तो
विश्लेषण में
तुम यह मत
सोचना कि
साक्षी पैदा
हो रहा है।
विश्लेषण में
तो एक विचार
दूसरे विचार
की टांग खींच
रहा है। वह
दूसरा विचार
भी विचार ही
है। विश्लेषण
किसका कर रहे
हो? विचार
ही विचार को
कतरनी की तरह
काट रहा है।
तुम तो मौजूद
नहीं हो। तुम
मौजूद हो जाओ
तो विश्लेषण
करने को कुछ
बचता ही नहीं।
पूरब
और पश्चिम: का
यही फर्क है।
पश्चिम में
ध्यान के नाम
से जो चलता
रहा है, वह
कंटेफ्लेशन
है। चिंतन, मनन। पश्चिम
से लोग आते
हैं और उनको
कहो कि ध्यान
करो तो वे
कहते हैं, किस
पर ध्यान करें?
स्वभावत:, ध्यान का
मतलब ही उनके
लिए होता है—किस
पर। कोई विषय
चाहिए। उनको
यह बात एक कदम
से समझने में
बड़ी कठिन होती
है कि ध्यान
का मतलब ही
होता है, निर्विषय।
किस पर, यह
बात ही गलत है।
जब तक कुछ
मौजूद है तब
तक ध्यान नहीं।
जब कुछ भी
मौजूद नहीं है,
शून्याकार
वृत्ति, तब
ध्यान।
तो
बजाय तुम
विचार में
उलझने के, जागो। मन
बडा चालाक है।
वह कहता है, चलो, विश्लेषण
करें; लेकिन
विश्लेषण भी
किस चीज का
करेगा?
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
अपने बेटे से
कहा, फिल्म
देखने मत जाना,
बड़ी गंदी
फिल्म लगी है।
और गया तो ठीक
न होगा। अब यह
तो उकसावा हो
गया। बेटे को
खयाल भी नहीं
था फिल्म में
जाने का, यह
बाप ने और
उकसावा दे
दिया। तो वह
पहुंच गया। और
जब निकल रहा
था बाहर तो
पता है आपको
क्या मिला
उसको, क्या
देखने मिला? मुल्ला
नसरुद्दीन भी
निकल रहा था
बाहर। तो उस
बेटे ने कहा, अरे पिताजी,
आप!
नसरुद्दीन
एक क्षण तो
ठिठका, फिर उसने
कहा, इसीलिए
देखने आया था
कि यह बच्चों
के देखने लायक
है या नहीं? अगर हो
देखने लायक तो
तुझसे कह
दूंगा कि देख
आ।
तुम
अगर विश्लेषण
भी करोगे तो
विश्लेषण के
नाम पर भी तुम
करोगे क्या? वही
तस्वीरें
देखोगे जो
तस्वीरें
पहले और किसी
नाम से देखी
थीं। अब इस
बहाने देखोगे
कि विश्लेषण
कर रहे हैं।
वही उठेगी
कामवासना। अब
तुम कामवासना
की प्रक्रिया
में उतरकर करोगे
क्या? होगा
क्या? वही
उठेगा क्रोध,
वही होगा
लोभ, अब
नये नाम से
विश्लेषण! तुम
डूबोगे
उन्हीं गंदगियों
में फिर। यह
धोखा तुम
किसको दे रहे
हो? कामवासना
का विश्लेषण
करते—करते तुम
कामवासना से
ही भर जाओगे।
क्योंकि जिस
बात का तुम
बहुत विचार
करोगे, वही
बात तुम्हारे
भीतर
प्रविष्ट
होती चली जाती
है। जिसका तुम
बहुत देर साथ—संग
करोगे, उसका
परिणाम होगा,
उसका
प्रभाव होगा,
उसमें तुम
रंग जाओगे। और
जितने रंगोगे,
उतने
सोचोगे और
विश्लेषण
करूं, और
विश्लेषण
करूं; यह
विश्लेषण ऐसा
ही है जैसे
कोई खाज को
खुजलाए।
खुजलाने से
खाज मिटती
नहीं और बढ़ती
है। बढ़ती है
तो और खुजलाना
पड़ता है, और
खुजलाना पड़ता
है तो और बढ़ती
है, और
बढ़ती है तो और
खुजलाना पड़ता है,
दुष्ट—चक्र
पैदा हो जाता
है। यह तो ऐसा
ही है जैसे
कोई घाव को
बार—बार कुरेद
कर देखे कि
अभी तक भरा या
नहीं? अब
तुम कुरेद कर
देखोगे तो
भरेगा कैसे!
छोड़ो, विचार का
कोई मूल्य ही
नहीं है, दो
कौड़ी का है।
इसका
विश्लेषण भी
क्या करना।
कचरे का
विश्लेषण भी
क्या करना!
व्यर्थ का विश्लेषण
भी क्या करना!
यह कोई बड़ी
बहुमूल्य
वस्तु थोड़े ही
है, जिसका
विश्लेषण करो,
बैठकर
हिसाब—किताब
लगाओ। इसे
इकट्ठा फेंक
देने जैसा है।
ध्यान
का अर्थ होता
है, जान
लिया इस बात
को कि विचार
से कुछ मिलता
नहीं। अब और
विश्लेषण
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
आत्मविश्लेषण
कौन करेगा रू
अभी आत्मा है
कहां? अभी
तो एक विचार
दूसरे विचार
को तोड़ेगा।
विचार से
विचार लड़ा
दोगे तुम।
इससे बडा
कोलाहल मचेगा।
तुम और भी
अशांत हो
जाओगे।
नहीं, इस झंझट
में मत पड़ना।
बहुत बार तो
यह
आत्मविश्लेषण
तुम्हें पागल
बना दे सकता
है। पूरब कुछ
और बात खोजा
है, जागो!
तुम चकित
होओगे, जापान
में झेन
आश्रमों में
पागलों के
इलाज के लिए
सदियों से एक
काम उपयोग में
लाया जाता रहा
है। अब तो
पश्चिम से भी
मनस्विद
पहुंचते हैं
अध्ययन करने,
क्योंकि
उनको भरोसा
नहीं होता कि
यह हो कैसे सकता
है! पश्चिम
में तो पागल
आदमी का
मनोविश्लेषण
वर्षों तक करके
भी कुछ खास
लाभ नहीं होता।
छोटे—मोटे
फर्क होते हैं।
कोई मौलिक
फर्क नहीं
पड़ता।
एक
आदमी का
मनोविश्लेषण
तीन साल तक
हुआ। और तीन
साल के बाद जब
किसी ने उससे
पूछा कि कहो, मनोविश्लेषण
से कितना लाभ
हुआ? उसने
कहा, काफी
लाभ हुआ। तो
पूछने वाले ने
पूछा कि क्या
शराब पीने की
जो तुम्हारी
विक्षिप्त
आदत थी, वह
छूट गयी? उसने
कहा, आदत
तो नहीं छूटी,
लेकिन अब
पहले जो अपराध—
भाव मालूम
होता था, वह
मालूम नहीं
होता। वह
अपराध— भाव
छूट गया। वह
जो गिल्ट
मालूम होती थी
कि कुछ बुरा
कर रहे हैं, वह बात छूट
गयी। और फिर, एक बात में
और फर्क पड़ा
कि पहले मैं
शराबघर पहुंच
जाता था, जब
शराबघर बंद
होता तब भी
पहुंच जाता था,
अब तभी
पहुंचता हूं
जब खुला होता
है। पहले तो
ऐसा होता था, रविवार को
बंद है तब भी
मैं पहुंच
जाता था। वह
पागलपन अब छूट
गया। अब तो जब
खुला होता है
तभी जाता हूं।
ये कोई फर्क
हुए! छोटे —मोटे
सुधार कहो।
किसी बड़े
मूल्य के नहीं।
झेन
आश्रमों में
पागल आदमी को
कोई विश्लेषण
नहीं करते।
उसे दूर आश्रम
के कोने में
एक कमरे में
रख देते हैं, एक झोपड़े
में रख देते
हैं। उससे कोई
बोलता भी नहीं।
उस पर कोई
ज्यादा ध्यान भी
नहीं देते।
क्योंकि झेन
फकीर कहते हैं,
पागल पर
ज्यादा ध्यान
देने से उसके
पागलपन को भोजन
मिलता है।
उसको मजा आता
है कि इतने
लोग ध्यान दे
रहे हैं! उसको
ध्यान देने की
जरूरत नहीं, क्योंकि
ध्यान बड़ा
सूक्ष्म भोजन
है। हो सकता
है वह पागलपन
इसीलिए दिखला
रहा है कि ध्यान
पाने का यही
एक उपाय है
उसके पास, और
कोई उपाय नहीं।
कोई राजनेता
बनकर ध्यान पा
लेता है, कोई
पागल बनकर
ध्यान पा लेता
है, हैं सब
पागलपन की
बातें। कोई धन
इकट्ठा करके
ध्यान पा लेता
है, कोई
आदमी नंगा खड़ा
होकर, फकीर
होकर ध्यान पा
लेता है, लेकिन
हैं सब पागलपन
की बातें।
दूसरे
से जब तक तुम
ध्यान पाने की
आकांक्षा कर
रहे हो, तब तक तुम
होश में नहीं
हो। होश वाला
आदमी दूसरे से
ध्यान की आकांक्षा
नहीं करता, अपने भीतर
ध्यान को
जगाता है।
फर्क
समझ लेना।
आमतौर से तुम
दूसरे से
ध्यान पाने की
आकांक्षा
करते हो।
इसीलिए तो
स्त्रियां
खड़ी हैं दर्पण
के सामने
घंटों।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन मक्खियां
मार रहा था, एकदम
चिल्लाया कि
दो मादा
मक्खियां मार
डालीं और दो
नर! पत्नी ने
कहा, हद हो
गयी, तुमने
जाना कैसे कि
दो मक्खियां
मादा थीं और दो
नर थीं? उसने
कहा कि जो नर
थे वे अखबार
पर बैठे थे और
जो मादाएं थीं
वे दर्पण पर
बैठी थीं।
इससे साफ है।
घंटे भर से
देख रहा हूं
कि दो
मक्खियां बस
दर्पण पर ही
बैठी हैं।
मादा होनी
चाहिए।
स्त्रियां
दर्पण के
सामने सज रही
हैं, संवर
रही हैं, किसलिए?
किसी का
ध्यान
आकर्षित हो
जाए। अब ये
बड़ी उल्टी
बातें हैं।
खूब सज —संवर
कर निकलेंगी,
आकांक्षा
भीतर यही है
अचेतन की कि
किसी का ध्यान
आकर्षित हो।
फिर कोई धक्का
दे देगा तो
नाराज भी होती
हैं। अब यह
बड़ी बेहूदी
बात है। धक्के
कोई न दे, कोई
देखे न, तो
दुख। कोई देख
ले और धक्का
दे दे, कोई
पीछे लग जाए, तो दुख।
आदमी बड़ा
बेबूझ है। लोग
ढंग—ढंग की
व्यवस्थाएं
जुटाते हैं, कैसे ध्यान
आकर्षित हो
जाए।
रॉबर्ट
रिप्ले
अमरीका का एक
बहुत
प्रसिद्ध आदमी
हुआ। उसको
प्रसिद्ध
होना था तो
उसने आधे सिर
के बाल घोट
डाले—आधे सिर
के। तीन दिन
के भीतर पूरे
अमरीका में
उसका नाम हो गया।
क्योंकि सारे
अखबारों में
फोटो छप गया, अखबार के
लोग आने लगे
उससे पूछने कि
यह आपने क्यों
किया? क्या
बात है? इसके
पीछे राज क्या
है? उसने
एक सर्कस से
हाथी खरीद
लिया और हाथी
पर बैठकर
न्यूयॉर्क
में घूम गया—आधा
सिर घुटा और
हाथी पर बैठा।
और हाथी पर
बड़े —बड़े
अक्षरों में
लिखा है —रॉबर्ट
रिप्ले।
बच्चा—बच्चा
जान गया, घर—घर
से लोग निकलकर
आ गये देखने
कि मामला क्या
है। और उससे
पूछा, तो
उसने कहा, कुछ
नहीं, मैं
प्रसिद्ध
होना चाहता था।
और वह
प्रसिद्ध हो
गया। अब तुम
देखते हो, मुझे
भी उसका नाम
मालूम है।
नहीं तो
रॉबर्ट
रिप्ले का नाम
मालूम होने का
मुझे कोई कारण
नहीं है। उसने
कुछ और किया
ही नहीं सिवाय
इसके।
मगर
फिर उसने ऐसी
कई बातें कीं, जब उसको
एक दफा तरकीब
हाथ लग गयी।
तो कई बातें
कीं। उसने एक
बड़ा दर्पण
अपने सामने
बांध लिया और
उल्टा चलकर
पूरे अमरीका
की यात्रा की।
दर्पण सामने,
दर्पण में
देखे पीछे का
रास्ता और चले
उल्टा। वह बड़ा
प्रसिद्ध हो
गया। जब वह
मरने के करीब
था, तो
उसने अपने
प्रेस एजेंट
को कहा—अब तो
उसकी बडी
ख्याति हो गयी
थी, उसके
पास प्रेस
एजेंट और सब
व्यवस्था थी
और कुल काम
उसका इसी तरह
का था, कुछ
उल्टा—सीधा
करना—उसने
अपने प्रेस
एजेंट को कहा
कि खबर कर दो, रिप्ले मर
गया। पर उसने
कहा कि अभी
तुम जिंदा हो।
उसने कहा मैं
अपनी अखबार
में खबर पढ़ना
चाहता हूं
मरने की। मर
तो मैं जाऊंगा,
डॉक्टर
कहते हैं
चौबीस घंटे से
ज्यादा जी नहीं
सकता। तो मैं
आखिरी काम यह
करना चाहता
हूं कि मैं देखना
चाहता हूं,
अखबार मेरे
मरने के बाद
मेरे संबंध
में क्या लिखेंगे।
प्रशंसा
करेंगे, निंदा
करेंगे, एडीटोरियल
लिखे जाएंगे
कि नहीं, कौन
क्या कहेगा? राजनेता
बोलते कि नहीं,
क्या होता
है? वह मैं
देखना चाहता
हू। और मैं
आखिरी खबर भी
दुनिया में
पैदा करना चाहता
हूं वह मैं
तुम्हें पीछे
बताऊंगा, तुम
अभी तो सूचना
कर दो।
अखबारों
को खबर दे दी
गयी, सब
अखबार छप गये,
फोटो छप गये
कि रिप्ले मर
गया। और
शाम को
उसने अखबार
पढ़े, अखबार
बढ़ते हुए फोटे
उतरवायी—अपने
मरने की खबर
पढ़ते हुए
रॉबर्ट
रिप्ले। और
उसने दूसरी
खबर दी कि अब
दूसरी खबर दे
दो कि रॉबर्ट
रिप्ले
मनुष्य जाति
का पहला आदमी
जिसने अपने
मरने की खबर
खुद पढ़ी।
पड़ेगा भी कोई
कैसे! तब मरा।
यह आखिरी खबर
दुनिया में
छपवाकर मरा।
जब
बर्नार्ड शॉ
को नोबल
प्राइज मिली
तो उसने इनकार
कर दिया। पहले
तो नोबल
प्राइज मिली, इसकी खबर
छपी, सारे
दुनिया के
अखबारों में।
फिर उसने
इनकार कर दिया,
इसकी खबर
छपी। वह
दुनिया का
पहला आदमी था
जिसने नोबल
प्राइज इनकार
किया। और बड़ी
खबर छपी। कि
ऐसा तो कभी
हुआ नहीं। कोई
नोबल प्राइज
इनकार करता
है! और उसने जो
वक्तव्य दिया,
उसमें कहा
कि अब मैं का
हो गया, जब
मैं जवान था
तब मिलती तो
मुझे कुछ सुख
होता। अब तो
किन्हीं
बच्चों को दो!
अब तो मैं उस
जगह के पार आ
गया, जहां
नोबल प्राइज
का कोई मतलब
नहीं होता। यह
शान बतायी
उसने! यह छपी।
यह तो सम्राट
का अपमान है, स्वीडन के
सम्राट का।
उसकी तरफ से
सम्मान मिलता
है नोबल
प्राइज का, कभी किसी ने
इनकार किया
नहीं था, यह
पहला ही
उपद्रव खड़ा
हुआ। सारी
दुनिया से
दबाव डाला गया,
इंग्लैंड
के राजा ने
दबाव डाला और
बड़े —बड़े
राजनेताओं ने
दबाव डाला कि
स्वीकार करो,
यह तो अपमान
है। चाहे
स्वीकार करके
फिर तुम दान
कर देना यह
धनराशि।
तो इस
बड़े दबाव में, बड़ी
मजबूरी में
उसने स्वीकार
किया, अब
अखबारों में
खबर छपी कि वह
राजी हो गया, उसने
स्वीकार कर
लिया।
स्वीकार करके
उसने तत्क्षण—एक
हाथ से दस्तखत
किया स्वीकार
का और दूसरे
हाथ से दान कर
दिया, पूरी
धनराशि, कोई
दस लाख रुपये
की धनराशि दान
कर दी। वह
अखबारों में
खबर छपी कि, बड़ा दानी।
और आखिरी खबर
यह छपी कि वह
दान जिसको
किया है, वह
संस्था कुछ और
नहीं उसकी ही
संस्था है, वह खुद ही एक
मेंबर हैं
उसके। ऐसे इस
हाथ से देकर
अपने को ही ले
ली। और जब
उससे पूछा गया,
यह सब जाल
क्यों किया? तो उसने कहा
कि नोबल
प्राइज मिलती,
एक दफे छपकर
बात खतम हो
जाती, मैंने
सात दफे छपवा
ली। सात दिन
तक दुनिया भर
की आंखें
अटकाए रखा।
आदमी
उत्सुक है कि
ध्यान कोई दे।
पागलपन करने
को तैयार है।
तो झेन
फकीर कहते हैं, पागल को
तो ध्यान देना
ही मत। उसको
रख देते हैं
दूर एक झोपड़े
में। खाना
पहुंचा देते
हैं, उसकी
तीमारदारी कर
देते हैं, लेकिन
उससे कोई
बोलता भी नहीं।
उससे कहते हैं,
तीन सप्ताह
तू शात बैठकर
देख जो भी
होता है तेरे
भीतर। अक्सर
ऐसा होता है
कि तीन सप्ताह
पूरे होते—होते
वह आदमी ढंग
पर आ जाता है, रास्ते पर आ
जाता है। कुछ
किया नहीं
जाता, सिर्फ
उसको छोड़ दिया
जाता है उस पर
ही। कोई ध्यान
नहीं देता, कोई
उत्सुकता
नहीं लेता।
तुम
चकित होओगे
जानकर यह बात
कि अक्सर हम
जब ध्यान देते
हैं लोगों पर
तो हम उनकी
गलत आदतें मजबूत
करते हैं।
बच्चा बीमार
है तो बाप
उसके पास
बैठता है आकर, मां सिर
दबाती। बच्चा
स्वस्थ है तो
न बाप उसके
पास बैठता, न मां उसकी
कोई फिकिर
लेती। तुम गलत
काम कर रहे हो।
तुम बीमारी के
साथ बच्चे का
रस जोड़ रहे हो।’तुम कह रहे
हो कि जब भी
तुझे ध्यान की
जरूरत हो, बीमार
पड़ जाना।
तुमने एक ऐसा
रस पैदा कर
दिया बीमारी
में कि बच्चा
जब भी अनुभव
करेगा कि मेरी
तरफ कोई ध्यान
नहीं दे रहा, तब वह बीमार
हो जाएगा, रुग्ण
हो जाएगा। सौ
में नब्बे
प्रतिशत
बीमारियां
ध्यान के लिए
पैदा की जाती
हैं।
इसलिए
तुम देखते, पत्नी
मजे से बैठी
है, रेडियो
सुन रही है, अपना स्वेटर
बुन रही है और
जैसे ही हार्न
नीचे बजा कि
पति आ गये कि
एकदम लेट गयी,
सिर में
दर्द हो गया।
और तुम ऐसा मत
सोचना कि वह
बनकर ही लेटी
है। हो ही
जाता है।
तुमसे मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि वह
धोखे दे रही
है। यह उसकी
अब आदत हो गयी
है, पति का
जो हार्न बजना
है यह काफी है
सिरदर्द के
लिए। संयोग हो
गया, दोनों
का जोड़ बैठ
गया। जिसको
मनोवैज्ञानिक
एसोसिएशन
कहते हैं।
इसका संयोग हो
गया। ऐसा मत
सोचना कि मैं
यह कह रहा हूं
कि वह धोखा दे
रही है। शायद
कभी शुरू—शुरू
में दिया होगा,
अब तो वह
बहुत गये
दिनों की बात
हो गयी। अब तो
यह आदत का
हिस्सा हो गयी।
पति के आते ही
सिर में दर्द
उठता है।
क्योंकि जब
सिर में दर्द
होता है तभी
पति सिर पर
हाथ रखता है।
नहीं कौन अपनी
पत्नी के सिर
पर हाथ रखता
है! कोई दूसरे
की पत्नी के
सिर पर हाथ
भला रख दे, अपनी
पत्नी के सिर
पर कौन हाथ
रखता है!
पत्नी जब
परेशान होती
है, तब पति
थोड़ी
सहानुभूति
दिखाता है।
प्रेम तो खो
गया है, अब
सहानुभूति से
ही काम चलाता
है। पत्नी को
भी अब प्रेम
तो मिलता नहीं,
लेकिन
सहानुभूति की
भिक्षा। तो
कभी बीमार, तो कभी
सिरदर्द, तो
कभी कमर में
दर्द, कभी
यह, कभी वह,
वह कुछ—न—कुछ
लगाए रखती है।
तुम
इसे खयाल रखना।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं जब
बच्चा बीमार
हो तो ध्यान
मत देना। मैं
यह कह रहा हूं
इस भांति
ध्यान देना कि
बच्चे को एक
बात साफ हो
जाए कि सम्मान
स्वास्थ्य का
है, बीमारी
का नहीं। उसकी
तीमारदारी कर
लेना, उसकी
हिफाजत कर
लेना, लेकिन
यह भूलकर भी
उसके मन में
भाव पैदा मत
होने देना कि
तुम बीमारी को
प्रेम देते हो।
प्रेम तो
बच्चे को तब
देना जब वह
हंसता हो, मुस्कुराता
हो, आनंदित
होता हो। तब
उसे गले लगाना।
और जब बीमार
हो, तब दवा
देना, भोजन
देना, लेकिन
ज्यादा
उत्सुकता मत
लेना। तुम
उसके जीवन में
स्वास्थ्य, आनंद, खुशी,
उत्सव को बढ़ावा
देना। तुम
पाओगे उसके
जीवन में कम—से
—कम बीमारियां
होंगी और
ज्यादा—से—ज्यादा
स्वास्थ्य
होगा। तुम
अपनी पत्नी को
तब प्रेम देना
जब वह प्रसन्न
है, हंस
रही है, आनंदित
है, नाच
रही है, तब
प्रेम देना।
जब वह उदास
पड़ी है तब दवा
दे देना, लेकिन
उसमें बहुत
उत्सुकता मत
लेना। बीमारी
में रस लेना
ही मत, अन्यथा
बीमारी बढ़ती
है। बीमारी
में रस तोड़ ही
देना।
और
हजारों साल का
झेन फकीरों का
अनुभव है कि वह
पागलों को भी
ठीक कर लेते
हैं, सिर्फ
ध्यान हटाकर।
ध्यान नहीं
देते। सिर्फ
पागल को छोड़
देते हैं उसके
भाग्य पर, थोड़ी
देर में वह
खुद ही समझ
जाता है, क्या
सार है इस
सबमें? अब
तुम थोड़ी देर
को तुम समझो, यह रॉबर्ट
रिप्ले सिर
घुटा कर निकला,
अगर किसी ने
इस पर ध्यान न
दिया होता तो
दुबारा यह
झंझट न करता।
इसकी जिंदगी
खराब कर दी
जिन्होंने
ध्यान दिया।
जो बाहर निकल
आए अपनी दूकान
छोड्कर देखने
कि क्या मामला
है, उन्होंने
इसकी जिंदगी
खराब कर दी।
फिर यह जिंदगी
भर इसी तरह के
काम करता रहा।
यही इसकी
जिंदगी हो गयी।
यह भी कोई काम
है! हाथी पर
बैठकर निकल
गये, यह
कोई काम है।
आईना बांधकर
पूरे मुल्क की
पूरी उल्टी
यात्रा कर ली,
यह कोई काम
है। यह कोई
सृजनात्मकता
है। इससे जीवन
का कोई अहोभाव
हो सकता है।
नहीं, आदमी
को चुका दिया।
जिन्होंने
चुकाया
उन्हें पता भी
नहीं है।
तुम जब
भी अपने
विचारों के
प्रति बहुत
ध्यान देने
लगो, तो
तुम विचारों
को प्राण देते
हो, विचारों
को बल देते हो।
पूरब कहता है,
शात, तटस्थ
होकर बैठ जाओ,
रस ही मत लो,
विरस होकर
बैठ जाओ, वीतराग
होकर बैठ जाओ।
कह दो मन को कर
तुझे जो करना
है, तू
अपनी उधेड़बुन
कर जैसा तुझे
करना है।
तुमने देखा
कभी घर में
बच्चे शात
बैठे अपना काम
कर रहे हैं, और कोई
मेहमान आने को
हैं और तुम
उनसे कह दो भई,
मेहमान आते
हैं जरा शांत
रहना, फिर
वे शात नहीं
रहते। मेहमान
घर में आएं कि
बच्चे बहुत
उपद्रव करने
लगते हैं। बीच—बीच
में आ जाते
हैं, अपनी
मांग खड़ी करने
लगते हैं, कि
भूख लगी है
मम्मी, कि
ऐसा हो रहा है,
कि वैसा हो
रहा है, कि
सिर में दर्द
हो रहा है। और
तुम चकित होते
हो कि ये
बच्चे जब
मेहमान आते
हैं तब क्यों
इतना शोरगुल
मचाते हैं! बच्चों
को एक बात
अखरती है कि
मेहमानों पर
ज्यादा ध्यान
दिया जा रहा
है और उन पर
ध्यान नहीं दिया
जा रहा है। तो
वे बीच—बीच
में आकर ध्यान
मांग रहे हैं।
वे कहते हैं, ध्यान हमें
दो।
जिस
चीज को तुम
ध्यान दोगे वह
बलशाली हो जाती
है। ध्यान हट
जाए, निर्बल
हो जाती है, टूट जाती है।
तो मैं
तो तुम्हें
आत्मविश्लेषण
को नहीं कहता।
मैं तो
आत्मजागरण को
कहता हूं।
विचारों को
ध्यान ही मत
दो। अगर तुमने
कामवासना को
बहुत—बहुत
विचार किया, तुम
पाओगे कि तुम
और कामुक हो
गये। तुमने
अगर क्रोध पर
बहुत विचार
किया कि कैसे
इससे छुटकरा
हो, कैसे
इससे मुक्ति
मिले, क्या
उपाय करूं, इसका
विश्लेषण
करूं, क्या
इसकी जड़ है, कहा यह पड़ा
है, तुम
धीरे— धीरे
पाओगे तुम इसी
में उलझ गये।
नहीं, तुम्हारा
ध्यान इन
क्षुद्र
बातों में
लगाने का नहीं।
क्षुद्र को
होने दो, तुम
अपने ध्यान को
विदा कर लो।
तुम ध्यान का
सेतु तोड़ दो।
तुम बहुत
जल्दी पाओगे
कि मन अपने — आप—
थोड़ी देर
उधेड़बुन
करेगा और फिर
पाएगा कि कोई ध्यान
नहीं देता, क्या फायदा
है।
सांख्य—सूत्रों
में अदभुत बात
कही है कि यह
प्रकृति की
नटी तब तक
नाचती है जब
तक तुम ध्यान
देते हो। जब
ध्यान देने
वाला कोई नहीं, देखनेवाला
कोई नहीं रहता
तो नर्तकी
सोचती है, अब
क्या सार!
दर्शक जा चुके,
अब क्या
अर्थ!
एक सभा
में एक
राजनेता बहुत
देर तक बोलता
चला गया। धीरे
— धीरे लोग
हटते गये, उठते गये।
आखिर में
सिर्फ एक आदमी
मुल्ला
नसरुद्दीन बैठा
रह गया। फिर
भी राजनेता ने
पीछा न छोड़ा, उसे जों
कहना था वह
कहता ही रहा।
अंत करके उसने
नसरुद्दीन को
कहा कि
धन्यवाद नसरुद्दीन,
मैंने तो
कभी नहीं सोचा
था कि
तुम्हारा
मुझमें इतना
लगाव है, कि
तुम और इतने
प्रेम से मुझे
सुनोगे। मैं
तुम्हारा
आभारी हूं।
वर्षों हो गये
इस गांव में
रहते, मैंने
तुम्हारी तरफ
कभी ध्यान ही
नहीं दिया। एक
तुम अकेले बचे
और सब चले गये।
नसरुद्दीन ने
कहा फिजूल की
बातों में न
पड़ो, मैं
आपके बाद का
बोलने वाला
हूं इसलिए
बैठा हूं। अब
बैठो और सुनो
मुझे।
सुननेवाले तो
जा चुके, मुझे
बोलना है। मैं
वक्ता को
धन्यवाद देने
के लिए
बोलनेवाला हूं, अब तुम बैठो
और सुनो।
सुनने को मैं
भी यहा बैठा
नहीं हूं।
अगर
नर्तकी देखे
कि सारे दर्शक
जा चुके हैं
तो नर्तन का
क्या अर्थ रह
जाएगा! बंद हो
जाएगा। यह मन
का जो नर्तन
चल रहा है, तुम इसके
जब तक रसविभोर
होकर, उत्सुक
होकर, विश्लेषक
बने हो, तब
तक गड़बड है, तब तक जारी
रहेगा। तुम
मुंह मोड़ लो, तुम पीठ कर
लो, तुम मन
से विमुख
हो जाओ।
जो मन से
विमुख हुआ, वह आत्मा
के सन्मुख हो
जाता है। जो
मन की तरफ
उन्मुख रहा, उसकी पीठ
आत्मा की तरफ
रहती है। तुम
पीठ मन की तरफ
करो—मन को कहो
कि तुझे जो
करना है, कर।
तेरे करने, न—करने में
कुछ फर्क नहीं
पड़ता।
अप्रासंगिक
है तेरा करना,
न—करना। तू
कर तो हमें
कुछ प्रयोजन
नहीं, तू न
कर तो हमें
प्रयोजन नहीं।
तेरा अच्छा—बुरा
सब व्यर्थ है।
समग्ररूपेण
तू व्यर्थ है।
हम पीठ फेरते
हैं। इस घड़ी
में क्रांति
घटती है।
दूसरा
प्रश्न :
मैं
ब्राह्मण हूं, और शायद
यही भाव
समर्पण में
बाधा बन रहा
है। झुकने की
आदत
नहीं है और अब
चाहता हूं तो
भी पुरानी आदत
बाधा बन रही
है। आप कछ
सहायता
करें।
मौत इस बात की
चिंता न करेगी
कि तुम
ब्राह्मण हो कि
शूद्र हो। कि
हिंदू हो कि
मुसलमान हो।
कि दरिद्र हो
कि धनी हो।
मौत इस बात की
चिंता न करेगी
कि तुम कौन हो।
मौत के सामने
सब बराबर हैं।
मौत को ध्यान
में रखो तो
तुम भल जाओगे
कि तुम ब्राह्मण
हो। मौत को
भूल गये तो ये
अकड़े याद रहती
हैं। मौत को
याद रखो तो
तुम भूल जाओगे
कि तुम धनी हो
कि गरीब हो।
ही, मौत
को भूल गये तो
ये अकड़े बनी
रहती हैं।
किसीके
मुंह से न
निकला यह मेरे
दफन के वक्त
कि इन
पे खाक न डालो
ये हैं नहाए
हुए
नहाए
हुओं पर भी
खाक पड़ जाती
है। पड़ती ही
है। स्वच्छ से
स्वच्छ देह भी
कब्र में दबती
है, दबती
ही है। यह
स्वच्छता और
ब्राह्मण और
श्रेष्ठता और
ऐसा और वैसा, यह सब
अहंकार के
आयोजन हैं।
स्वभावत: अगर
इनमें तुम
बहुत ग्रसित
रहे, तो
संन्यस्त न हो
सकोगे।
भारत
की तुमने एक
अनूठी बात
देखी? कि
संन्यासी को
हमने वर्ण—व्यवस्था
के बाहर रखा
है। संन्यस्त
होते से ही
कोई व्यक्ति न
तो ब्राह्मण
रह जाता है न
शूद्र, न
क्षत्रिय न
वैश्य।
संन्यास वर्ण —व्यवस्था
के बाहर है।
चाहे
ब्राह्मण
संन्यासी हो,
चाहे शद्र
संन्यासी हो,
संन्यासी
होते से ही
वर्ण के बाहर
हो गया, वर्णातीत
हो गया।
वर्ण
का अर्थ होता
है, रंग।
रंगों में
उलझे हो? रूपों
में उलझे हो? नाम में
उलझे हो? तो
तुम संन्यस्त
न हो सकोगे।
ब्राह्मण तो
संन्यस्त
नहीं हो सकता।
ब्राह्मण
छोड्कर कोई
संन्यस्त
होता है।
और इस
अकड़ से मिला
क्या है, जो इसको
खींचे जा रहे
हो? पाया
क्या है? ब्राह्मण
होने से होगा
भी क्या? ब्रह्म
होने का मौका
चूक रहे
ब्राह्मण
होने के पीछे!
उद्दालक
ने अपने बेटे
श्वेतकेतु को
कहा है कि बेटे
तू सिर्फ जन्म
से ही
ब्राह्मण
होकर मत रह
जाना, क्योंकि
हमारे घर में
ऐसा कभी नहीं
हुआ।’ऐसा
दुर्भाग्य
कभी नहीं हुआ।
हमारे घर में
लोग ब्रह्म को
जानकर
ब्राह्मण होते
रहे। इस
परंपरा को
खयाल रखना।
ब्राह्मण पैदा
होकर ही अपने
को ब्राह्मण
मत मान लेना।
यह बड़ा सस्ता
ब्राह्मणपन
है। इसमें का
रखा है! संयोग
की बात है।
अगर ब्राह्मण
के घर में
पैदा हुए और
उसी वक्त उठाकर
रख दिया होता
शूद्र के घर
में तो तुम समझते
कि तुम शूद्र
हो। शूद्र के
घर में शायद
पैदा हुए हो
और रख दिये गये
ब्राह्मण के
घर में तो तुम
समझ रहे हो कि
तुम ब्राह्मण
हो। संयोग की
बात है।
संस्कार की
बात है—क्या
तुम्हें सिखा
दिया दूसरों
ने। दूसरों के
सिखाए कहीं
कोई ब्राह्मण
हुआ है!
बड़ी
पुरानी और बड़ी
प्यारी कथा है।
विश्वामित्र
अपने को
ब्रह्म—ऋषि
घोषित करना
चाहते थे। क्षत्रिय
थे। और जब तक
वशिष्ठ
उन्हें
ब्रह्म—ऋषि
स्वीकार न
करें तब तक
कोई उनको
स्वीकार करने
को राजी न था।
और वशिष्ठ
उन्हें हमेशा
राज—ऋषि कहते
थे, कभी
ब्रह्म —ऋषि
नहीं कहते थे।
बात
बिगड़ती चली
गयी। फिर तो
बात यहां तक
बन गयी— थे तो
क्षत्रिय, और
इसीलिए तो
वशिष्ठ
उन्हें
ब्रह्म—ऋषि
नहीं कहते थे—एक
दिन तलवार
लेकर, पूर्णिमा
के चांद की
रात है, पहुंच
गये वशिष्ठ के
आश्रम कि आज
फैसला ही कर लेंगे।
या तो मुझे
ब्रह्म—ऋषि
कहे या गर्दन
अलग कर दूंगा।
क्षत्रिय तो
क्षत्रिय, बुद्धि
तो वही थी
तलवार वाली।
वह लेकर पहुंच
गये। वहां वशिष्ठ
अपने शिष्यों
को लेकर—पूर्णिमा
की रात है—ब्रह्मचर्चा
हो रही है।
वह
छिपे बैठे हैं
एक झाड़ी में
कि जब मौका
मिले तो
निकलकर इसका
फैसला ही कर
दें। किसी ने
पूछा वशिष्ठ
को कि
विश्वामित्र
इतनी चेष्टा
कर रहे हैं और
इतने
साधुपुरुष, आप उनको
ब्रह्म—ऋषि कह
क्यों नहीं
देते? क्यों
उन्हें दुख दे
रहे हैं? वशिष्ठ
ने कहा कि
विश्वामित्र
अपूर्व व्यक्ति
है, अनूठा
व्यक्ति है, अद्वितीय
व्यक्ति है और
इसीलिए रुका हूं, क्योंकि
मुझे आशा है
वह ब्रह्म—ऋषि
हो जाएगा। हो
जाए, तभी
कहूं; अभी
कह दूंगा तो
रुक जाएगी बात।
थोड़ी अकड़
क्षत्रिय की
अभी उसमें शेष
—रह गयी है।
अभी तलवार
उसके हाथ से
छूटी नहीं है।
तलवार छूट जाए
तो जरूर
कहूंगा। है
योग्य। और
होकर रहेगा यह
भी पक्का है।
लेकिन
प्रतीक्षा कर
रहा हूं ठीक
समय की। अभी
कह दूंगा तो
बात अटक जाएगी,
फिर कभी
होने का उपाय
न रहेगा। मैं
उसका दुश्मन
नहीं हूं।
यह बात
सुनी छिपे हुए
झाड़ी में
विश्वामित्र
ने। भरोसा न
आया कि वशिष्ठ
और मेरे प्रेम
में इतनी बात
कह रहे हैं।
फेंक दी तलवार
वहीं। दौड़ कर
वशिष्ठ के पैर
पर गिर पडे।
वशिष्ठ ने
उठाया तो कहा, उठो
ब्रह्मर्षि!
आख से आंसू
बहने लगे।
विश्वामित्र
ने कहा, अब
आप कहते
ब्रह्मर्षि!
अब किसलिए
कहते हैं! मत
कहें, मैं
इस योग्य नहीं
हूं, आपको
पता नहीं है
मैं क्या करने
आया था।
वशिष्ठ ने कहा,
उसकी फिक्र
छोड़ो तुम क्या
करने आए थे।
तुमने जो किया,
कि तुम चरण
में झुक गये, यह झुक जाने
की कला ही तो
ब्राह्मण
होने की कला
है। अब यह बड़ी
मुश्किल बात।
इसीलिए तो
रोका था अब तक
कि कब तुम
झुको कि तुम्हें
कह दूं।
तुम्हारी अकड़
गयी, अब
क्षत्रिय न
रहा। अब तुम सच
में ब्राह्मण
हुए।
लेकिन
साधारणत: हालत
उल्टी।
ब्राह्मण
किसी के चरणों
में नहीं
झुकता। यह कथा
उल्टी है।
ब्राह्मण
किसी के चरणों
में झुकता
नहीं, वह
तो सबको चरणों
में झुकाता है।
वह तो अकड़ा
खड़ा रहता है।
ब्राह्मण की
अकड़ तुमने
देखी? ब्राह्मण
से ज्यादा
अहंकारी आदमी
खोजना मुश्किल
है। क्योंकि
वह अपने को
सबसे श्रेष्ठ
माने बैठा है।
जिसने अपने को
श्रेष्ठ मान
लिया है, उसके
श्रेष्ठ होने
के द्वार बंद
हो गये। जिसने
अपने को
श्रेष्ठ मान
लिया, अवरुद्ध
हो गयी यात्रा।
जीसस
ने कहा है, धन्य हैं
वे जो अंत में
खड़े हैं, क्योंकि
वे ही मेरे
प्रभु के
राज्य में
प्रथम हो
जाएंगे। जो
अंतिम हैं वे
प्रथम हो
जाएंगे और जो
प्रथम हैं वे
अंतिम हो
जाएंगे।
तुम
कहते हो, मैं
ब्राह्मण हूं।
अगर तुम सच
में ही
ब्राह्मण हों—जन्म
से ही, जाति
से ही नहीं— तब
तो कोई हर्जा
नहीं है।
लेकिन तब
झुकना
तुम्हें
बिलकुल सरल
होगा। तब
समर्पण
तुम्हारा
स्वभाव होगा।
तब अकड़
तुममें होगी
ही नहीं। अगर
अकड़ है, तो
तुम ब्राह्मण
नही हो सिर्फ
जाति से ब्राह्मण
हो। और जाति
के
ब्राह्मणत्व
का क्या मूल्य
है! जीवन का
ब्राह्मणत्व
चाहिए।
प्राणों में
उठे ऊर्जा। यह
तो जातिवाली
बात तो छिन
जाएगी। यह तो
मौत छीन लेगी।
तुम अपने हाथ
से छोड़ दो तो
सौभाग्य है।
नहीं तो मौत
छीन लेगी।
कब्र में जब
पड़ोगे, चिता
में जब जलोगे,
तो चिता की
आग यह फर्क न
करेगी कि
ब्राह्मण हो कि
शूद्र। मौत
कोई फर्क नहीं
करती। मौत तो
सिर्फ एक फर्क
जानती है, अगर
तुम सच में ही
ब्राह्मण हो
गये, ब्रह्म
को जान लिया, तो फिर मौत
तुम्हारी कभी
नहीं होती।
शरीर मरता है,
मन मरता है,
तुम नहीं
मरते। तुम
भीतर अपने अमृत
में थिर होते
हो।
संन्यास
का इतना ही
अर्थ है, जो मौत
करेगी, वह
तुम स्वेच्छा
से कर दो। जो
मौत छीन लेगी,
वह तुम छोड़
दो। संन्यासी
प्रतिभाशाली
व्यक्ति है, देख लेता है
कि मौत तो यह
करेगी ही, तो
छीन—झपट से
क्या सार, खुद
ही दे देते
हैं। जो बात
जानी ही है)
उसे छोड़ने का
मजा क्यों न
ले लें। जो
देनी ही पड़ेगी,
उसे दान
क्यों न कर
दें।
संन्यासी
बहुत कुशल है।
बोधपूर्वक एक
बात को समझ
लेता है कि जो
मौत नहीं
छीनेगी, वही
बचाने योग्य
है।
इसको
तुम सूत्र
समझो। हमेशा
मौत को कसौटी
बना लेना, कस लेना,
यह बात मौत
छीन लेगी? अगर
छीन लेगी तो
तुम्हीं छोड़
दो। अगर मौत
इसे नहीं
छीनेगी, फिर
बचाओ; फिर
यह बचाने
योग्य है।
जिसको तुम मौत
के पार भी ले
जा सकोगे अपने
साथ, वही
बचाने योग्य
है, क्योंकि
वही संपदा है।
ये ब्राह्मण
और शूद्र, और
हिंदू और
मुसलमान, और
जैन और ईसाई, ये मौत के
साथ जाने वाले
नहीं, ये
सब जलकर राख
हो जाएंगे। ये
तुम्हारी
खोपड़ी की
बीमारिया हैं।
ये कोई स्वस्थ
होने के लक्षण
नहीं हैं।
पुराने
शास्त्र एक
अदभुत बात
कहते हैं कि
पैदा तो सभी
शूद्र होते
हैं—यह बात
मेरी समझ में
आती है—पैदा
तो सभी शूद्र
होते हैं, कोई कभी—कभार
ब्राह्मण बन
पाता है।
ब्राह्मण भी
शूद्र ही पैदा
होते हैं।
पैदा तो सभी
शूद्र होते
हैं। जन्म से
कोई ब्राह्मण
होता है! जीवन
से कोई ब्राह्मण
होता है।
संन्यास
ब्राह्मण
होने का अवसर
है। क्योंकि
ब्रह्म को
जानने का अवसर
है।
अजीजो
सादा ही रहने
दो लोह—ए—तुर्बत
को
हमीं
नहीं तो ये
नक्या और
निगार क्या
होगा
अब
कब्र को खोद
रहे हैं, नक्या कर
रहे हैं, सुंदर
बना रहे हैं, हीरे —जवाहरातों
से जड़ रहे हैं।
हमीं
नहीं तो ये
नक्या और
निगार क्या
होगा
अजीजो
सादा ही रहने
दो लोह—ए—तुर्बत
को
मिट्टी
में खुद ही
मिल गये, तो अब संगमरमर
की भी मजार हो
तो क्या सार
है! खुद ही न बचे,
तो अब और
कुछ बचने का
अर्थ भी क्या
होता है!
तुम
मौत को सदा
कसौटी समझो।
जो मौत तुमसे
न छीन सके, वही
बचाने योग्य
है। जो मौत
छीन ले, वह
छोड़ देने
योग्य है। मौत
को तुम ऐसे
उपयोग करो
जैसा तुमने
देखा हो, सराफ
सोने को कसने
को एक पत्थर
रखे रहता है।
उस पत्थर पर
सोने को कसकर
देख लेता है —सोना
है या नहीं? कसौटी। मौत
कसौटी है। तो
मौत के पत्थर
पर हर चीज
कसकर देखते
रहो। तुम
पाओगे कि
सिवाय
संन्यास के, ध्यान के, साक्षी के
और कुछ मौत की
परीक्षा पर
उतरता नहीं।
वही सिर्फ खरा
सोना सिद्ध
होता है। और
तब मौत एक नया
अनुभव बनती है।
तब मौत मोक्ष
बन जाती है।
हिचकी
का तार टूट
चुका रूह अब
कहां
जंजीर
खुलके गिर पड़ी
दीवाना छूट
गया
अगर
तुमने अपने को
शरीर के साथ
एक समझा, मन के साथ एक
समझा, तो
तुम भी, लगेगा
तुम्हें कि मर
गये। अगर
तुमने समझा कि
तुम शरीर और
मन के पार हो, साक्षी हो, तो तुम
पाओगे. सांस
की जंजीर टूट
गयी और दीवाना
मुक्त हो गया।
वह जो भीतर
छिपा था, वह
मौत से नष्ट
नहीं हुआ, मुक्त
हुआ। मौत तब
मोक्ष बनकर
आती है।
लेकिन
मौत को समझने
की कीमिया
संन्यास है।
उसको समझने का
रसायन
संन्यास है।
संन्यास का
इतना ही अर्थ
होता है —सम्यक
न्यास। ठीक—ठीक
त्याग। किस
बात को ठीक—ठीक
त्याग कहते
हैं? जो
मौत छीन लेगी,
उसके त्याग
को ठीक त्याग
कहते हैं। जो
मौत नहीं
छीनेगी, उसके
भोग को ठीक
भोग कहते हैं।
संन्यास का
अर्थ होता है,
ठीक—ठीक का
त्याग, ठीक
—ठीक का भोग।
और मौत कसौटी
है। और तब—
अहबाब
के काधे से
लहद में उतर
आए
किस
चैन से सोए
हुए हम अपने
घर आए
और तब
मौत दुश्मन
नहीं मालूम
होती है।
किस
चैन से सोए
हुए हम अपने
घर आए
तब मौत
तो घर आना है।
अपने परम
विश्राम की
अवस्था में
आना है। पर
उसके पहले
संन्यास की
अपूर्व घटना
से गुजरना
जरूरी है।
संन्यास
का अर्थ होता
है, स्वेच्छा
से वरण की गयी
मृत्यु।
इसलिए पुराने
दिनों में जब
संन्यास देते
थे, तो
आदमी का सिर
घोंट देते थे
जैसे मुर्दे
का घोंट देते
हैं। नहा—
धोकर उसके
कपड़े बदल देते
थे, जैसे
मुर्दे के बदल
देते हैं।
उसका नाम बदल
देते थे, क्योंकि
वह पुराना
आदमी तो मर
गया। और
प्रतीकरूप
में उसे चिता
पर चढ़ाते थे।
चिता सजा देते
थे, उस पर
उसे लिटा देते
थे, चिता
जला देते थे
और उसको घोषणा
कर देते थे कि पुराना
मर चुका, अब
तू नया होकर
उठ आ। और वह
आदमी उठता। फिर
वह लौटकर
पुराने दिनों
की बात नहीं
करता था। न
पुराने नाम का
उपयोग करता था।
न पुराने
संबंधों की
बात करता था।
पुराना तो मर
गया। वह बात
समाप्त हो गयी।
यह नये का
आविर्भाव है।
संन्यास का
अर्थ है, सूली
और
पुनरुज्जीवन।
पुराने को
मिटा देना, नये को
जन्माना।
तुम कहते
हो, 'मैं
ब्राह्मण हूं
और शायद यही
भाव समर्पण
में बाधा बन
रहा है।’
शायद
नहीं, निश्चित
यही भाव। एक
तो ब्राह्मण
को यह खयाल
होता है कि
मैं जानता ही हूं, क्योंकि वह
शास्त्र का
ज्ञाता होता
है।
एक
मित्र मुझे
पत्र लिखते थे, त्रिवेदी
हैं। मैं भूल
सें—कुछ चूक हो
गयी होगी—उनको
पत्र लिखा तो
द्विवेदी लिख
दिया। वह बड़े
नाराज हो गये।
पत्र आ गया
उनका कि आपने
यह क्या किया!
मैं त्रिवेदी हूं, तीन वेदों
के ज्ञाता को
आपने एक क्षण
में दो वेदों
का शांता बना
दिया! तो
मैंने उन्हें
पत्र लिखा, उसमें
चतुर्वेदी
लिख दिया। अब
और क्या करूं!
फिर उनका पत्र
आया कि आप बात
क्या है, आप
भूल क्यों
करते हैं? मैंने
कहा, भूल
नहीं कर रहा, जुर्माना भर
रहा हूं। एक
वेद छीन लिया
था, एक जोड़
दिया, लेन—देन
बराबर हो गया।
ब्राह्मण
को तो बोध है
कि मैं जानता
हूं। और ज्ञान
से बड़ी अकड़
कहीं कोई
दूसरी होती
है! शान की अकड़
के कारण आदमी
अज्ञानी रह
जाता है।
जानना ज्ञान
नहीं है, ज्ञान के
त्याग से
जानना घटित
होता है। जब
छूट जाते हैं
शास्त्र और
शब्द और रह
जाता है मौन, निर्विचार,
निःशब्द; शास्त्र
विदा हो जाते
हैं, कुरान,
वेद, बाइबिल,
गीता, सब
विदा हो जाते
हैं, बचते
तुम अपने
शुद्धतम
चैतन्य में, निर्धूम
जलती
तुम्हारी
चेतना की शिखा,
वहां ज्ञान
है। जहां सब
जानकारी से
मुक्ति हो
जाती है वहां
ज्ञान है।
लेकिन तुम अगर
वेद कंठस्थ
करे बैठे हो, तो अड़चन
होगी। तुम
पहले से ही
मान बैठे कि
मुझे पता है।
बिना जाने मान
बैठे कि पता
है। तो फिर
रुकावट होगी।
शायद
नहीं, निश्चित
इसी के कारण
समर्पण में
बाधा पड़ रही है।
मेरे पास जो
लोग आते हैं, जिनको
ज्ञानी होने
का दंभ है, उनको
सबसे ज्यादा
अड़चन होती है।
पश्चिम
का बहुत बड़ा
संगीतज्ञ हुआ, मोजॅर्ट।
उसके पास कोई
संगीत सीखने
आता तो वह
पहले ही पूछ
लेता, तुम
जानते तो नहीं,
पहले कुछ
सीखा तो नहीं?
अगर वह कहता
कि पहले सीखा
है, काफी
सीखा है, तो
वह कहता
दुगुनी फीस
लूंगा। और अगर
कोई कहता कि
मैं बिलकुल
नया हूं कुछ
भी नहीं जानता,
तो वह कहता
आधी फीस ले
लूंगा। लोग
सुनते तो चकित
होते।
सीखनेवाला
कहता हम सीखकर
आए हैं, दस
वर्ष का
अभ्यास है, हमसे फीस कम
लो। हमसे
ज्यादा लेते
हो? मोजॅर्ट
कहता, तुम्हारे
साथ ज्यादा
मेहनत होगी।
तुम पहले जो
जानते हो वह
मुझे मिटाना
पड़ेगा।
तुम्हारी
स्लेट पर काफी
लिखा जा चुका
है, उसे
साफ करना पड़ेगा,
वह मेहनत
अलग। उस मेहनत
की भी फीस
लगेगी। और जो
कोरा आया है, उस पर तो
मेहनत नहीं है।
उस पर तो सीधा
लिखा जा सकता
है।
अक्सर
मेरे अनुभव
में यह आया है, जो लोग
कोरे आते हैं,
वे बड़ी
शीघ्रता से
गति करते हैं
ध्यान में। जो
भरे — भराए आते
हैं, उनको
बड़ी अडूचन होती
है। उनके
सिद्धात, उनकी
धारणाएं, उनके
शास्त्र बीच
में खड़े हो
जाते हैं। वे
मुझे सुनते ही
नहीं। मैं कुछ
कहता हूं,
वे कुछ अर्थ
करते हैं।
उनके
अनुवादों में
बड़ी भूल हो
जाती है।
कुछ
दिन पहले मैं
एक के क्रांतिकारी
राजा महेंद्र
प्रताप के
संस्मरण पढ
रहा था। नब्बे
साल के हो गये, झक्की
किस्म के आदमी
हैं। मगर
सुंदर आदमी
हैं। लंबे
संस्मरण हैं
उनके—नब्बे
साल, और वे
भारत के बाहर
चक्कर लगाते
रहे, भारत
की आजादी के
लिए कोई तीस
साल एक—एक देश
छान डाला। तो
सबसे उनके
संबंध रहे।
लेनिन से, स्टेलिन
से, ट्राटस्की
से, माओ से,
होची मिन्ह
से, सबसे
उनके संबंध
रहे। सब तरह
के
क्रांतिकारियों
से, हिटलर
से। सब तरह के
लोगों से उनके
संबंध रहे।
उनके
संस्मरण में
एक बात मुझे
बड़ी प्रीतिकर
लगी।
उन्होंने
लिखा है कि जब
मैं रूस गया
और लेनिन से
मिला और एक
सभा को मैंने
संबोधन किया, तो जो
आदमी रूसी में
मेरा अनुवाद
करता था। वह
बड़े ढंग से
अनुवाद कर रहा
था और मैं बड़ा
चकित हो रहा
था कि जहां —जहां
मैं कहूं कि
धर्म के बिना
मनुष्य नहीं
जी सकता, धर्म
मनुष्य के लिए
अनिवार्य है,
तो लोग खूब
ताली बजाए। तो
मैं बहुत
हैरान हो रहा
था, क्योंकि
सुना तो मैंने
यह था कि ये
कम्यूनिस्ट, रूसी, धर्म
के विपरीत हैं,
और ये तो
एकदम ताली
बजाते हैं! वह
बड़े बेचैन हो गये।
क्योंकि जब भी
वह धर्म का
नाम लें एकदम
ताली बजे।
तो
उन्होंने बाद
में पूछा उस
अनुवादक को कि
भई, बात
क्या थी! उसने
कहा, अब आप
पूछते हैं तो
बता देता हूं।
असल में आज्ञा
हमें ऐसी है
कि जब भी कोई
धर्म शब्द कहे
तो उसका
अनुवाद हम
करते हैं—कम्यूनिज्म।
अनुवाद
कम्यूनिज्म
करते हैं, तुम
धर्म कहो इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। अनुवाद
में तो हम
कहते हैं कि
कम्यूनिज्म।
तो जब तुमने
कहा कि धर्म
मनुष्य की
अनिवार्यता
है, तो
हमने कहा, कम्यूनिज्म
मनुष्य की
अनिवार्यता
है, लोगों
ने ताली बजायी।
और फिर है भी
ठीक यही
अनुवाद, क्योंकि
हमारा तो धर्म
कम्यूनिज्म
ही है। तो और
मैंने कोई
फर्क नहीं
किया, आपके
व्याख्यान
में और सब
मैंने वैसा का
ही वैसा रखा
है, सिर्फ
धर्म शब्द को
जब—जब आपने
कहा तब—तब
मैंने कम्यूनिज्म
कर दिया, इतना
आप क्षमा करना,
इतनी
मजबूरी है, इसकी हमें
आज्ञा है कि
ऐसे ही करना।
मगर यह तो सब
बात गड़बड़ ह्मे
गयी।
तुम्हारा मन
जब अनुवाद
करता है—अनुवाद
तुम करते हो, जब मुझे सुन
रहे हो तो तुम
पूरे वक्त
अनुवाद कर रहे
हो। तुम सीधा
थोडे ही सुन
रहे हो, बीच
में तुम्हारा
मन बैठा है, वह अनुवाद
करता जाता है
कि देखो यह
कहा, अच्छा
तो ठीक, यह
वेद में लिखा
कि नहीं लिखा?
लिखा है तो
ठीक, नहीं
लिखा है तो
ठीक नहीं।
अपने कुरान से
मेल खाता? खाता
है तो ठीक, नहीं
खाता है तो
बात गलत है।
कुरान तो गलत
हो ही नहीं
सकती! तुम्हें
कुरान का भी
पता नहीं है
कि कुरान क्या
है? जैसा
तुम कुरान को
मानते हो वैसी
कुरान गलत तो
हो ही नहीं
सकती—तुम कहीं
गलत हो सकते
हो!
अहंकार
पकड़ कर बैठा
है कि मैं ठीक हूं, मैं तो
ठीक हूं ही।
अब अगर तुमसे
मेरी बात मेल
खा जाती है तो
तुम सिर
हिलाते हो, तुम कहते हो,
बिलकुल ठीक।
मगर तुम मेरी
बात के लिए
सिर नहीं हिला
रहे हो, तुम
यह कह रहे हो
कि आप ठीक ही
कह रहे होओगे,
क्योंकि
ठीक वही कह
रहे हो जो मैं
कहता हूं। ठीक
मुझसे मेल खा
रही है।
फर्क
समझना।
रस्किन
ने कहा है, दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं। एक
वे जो सत्य के
साथ खड़े होने
को तैयार हैं।
दूसरे वे, जो
सदा सत्य को
अपने साथ खड़ा
कर लेते हैं।
पहले लोग ही
सत्य को खोज
पाते हैं,
दूसरे
लोग कभी नहीं।
सत्य
को तुम अपने
साथ खड़ा मत
करना।
क्योंकि अगर
सत्य तुम्हें
पता ही होता
तब तो खोजने
की कोई जरूरत
ही न थी। सत्य
तुम्हें पता
नहीं है, इसीलिए तो
खोज है। तो
जहां सत्य हो,
वहा तुम
जाना।
अगर
तुम्हें मेरी
बात सुननी है, तो
तुम्हें अपने
मन को एक तरफ
रखकर सुनना
होगा।
स्वभावत:
ब्राह्मण के
पास काफी बड़ा
मन है। शूद्र
से ज्यादा बड़ा
मन है। शूद्र
का मन तो
ब्राह्मण ने
बनने ही नहीं
दिया, उसको
वेद पढ़ने ही
नहीं दिया, रामायण पढ़ने
नहीं दी, गीता
पढ़ने नहीं दी,
उसको वंचित
कर दिया। तो
शूद्र का मन
तो बनने ही
नहीं दिया।
ब्राह्मण के
पास बड़ा मन।
ब्रह्म तो
बिलकुल नहीं,
मन बहुत बड़ा।
और वह बहुत
बड़ा मन ही बाधा।
निश्चित
ही ब्राह्मण
होना बाधा बन
रहा होगा।
लेकिन जरूरी
नहीं है कि
तुम उसको बाधा
बनाओ। जो बाधा
है, उसको
तुम सीडी भी
बना सकते हो।
राह पर एक बड़ा
पत्थर पड़ा है,
उसको तुम
रुकावट भी समझ
सकते हो और
रुक जाओ, ठहर
जाओ कि अब कहौ
जाएं, पत्थर
आ गया! और तुम
पत्थर पर चढ़
भी सकते हो।
चढ़ जाओ, तो
शायद तुम्हें
और दूर के
दृश्य दिखायी
पड़ने लगें।
तुम पर निर्भर
है, पत्थर
सीढ़ियां बन
सकते हैं, सीढ़ियां
पत्थर बन सकती
हैं। अवरोध
सहयोगी हो
सकते हैं, सहयोग
अवरोध हो सकते
हैं।
मैं
तुमसे कहूंगा, ब्राह्मण
घर में पैदा
हुए हो, इस
अवरोध को भी, इस बाधा को
भी सीडी बना
लो। अब
तुम्हारे
सामने एक
चुनौती है कि
ब्राह्मण घर
में तो पैदा
हो ही गये, अब
वस्तुत:
ब्राह्मण हो
जाओ। अभी जो
जाति से है, संस्कार से
है, उसे
जीवंत अनुभव
क्यों न बना
लो। एक
सौभाग्य है
तुम्हारा कि
तुम ब्राह्मण
हो, अब उस
सौभाग्य को और
महासौभाग्य
में क्यों न
परिणित कर लो।
बाधा क्यों
बनाते हो? सीढ़ी
बनाओ। हर चीज
को सीडी बनाया
जा सकता है।
हर चीज को
सीडी बनाया जा
सकता है। जहर
अमृत हो जाता
है, समझदार
का हाथ होना
चाहिए। नहीं
तो अमृत भी
जहर हो जाता
है। देखते हैं,
चिकित्सक
जहर को भी
औषधि बना लेता
है।
तो
ब्राह्मण
होना तो कुछ
बुराई नहीं है।
सौभाग्य है, धन्यभागी,
अच्छे घर
में पैदा हुए,
जहां हवा थी,
ईश्वर की
चर्चा थी, शब्द
में ही सही, लेकिन ईश्वर
की कुछ भनक तो
थी। दूर की ही
आवाज सही, लेकिन
थी तो आवाज
ईश्वर की ही।
जहां ऋषियों
के वेद और
उपनिषदों का
गुंजार था।
बहुत पुराना
हो गया, बहुत
पुराना हो गया,
बहुत धूल जम
गयी, लेकिन
फिर भी पीछे
तो सत्य छिपा
ही पड़ा है।
अंगार कितना
ही दब गया हो
राख में, बुझ
तो नहीं गया
है। राख की ही
पूजा चल रही
हो, फिर भी
अगर थोड़ा राख
को हटाओगे तो
अंगार मिल जाएगा।
सौभाग्य समझो
इसे।
मैं जब
तुमसे कह रहा
हूं कि
सौभाग्य समझो
तो मेरी बात
को गलत मत समझ
लेना। यह मत
समझ लेना कि
मैं यह कह रहा
हूं कि जो
शूद्र के घर
में पैदा हुआ
उसका सौभाग्य
नहीं। उससे भी
मैं कहता हूं, तेरा भी
सौभाग्य है।
तेरा सौभाग्य
यह कि बचा
उपद्रव से
पंडितों के।
कि बचा जाल से
सिद्धातों —शास्त्रों
के। कोरा—का—कोरा
है, तेरा
बड़ा सौभाग्य
है। तू इसका
फायदा उठा ले।
जब मैं कह रहा
हूं सौभाग्य,
तो मैं
तुलनात्मक
रूप से नहीं
कह रहा हूं, मैं तो हर एक
आदमी को
सौभाग्यशाली
मानता हूं। जो
जहां है, जैसा
है। किसी ने
गाली दी तो
सौभाग्य, क्योंकि
उसने एक अवसर
दिया,
अगर
तुम क्रोध न
करो तो
तुम्हारे
जीवन में बड़ी
गरिमा आ जाए।
जिसने स्वागत
किया
तुम्हारा, स्वागत
हुआ तो
सौभाग्य।
क्योंकि
स्वागत में
अगर तुम
अहंकारी न बनो
तो तुम्हारे
जीवन में
वास्तविक
गौरव का जन्म
हो जाए।
तिब्बत
में एक बहुत
अदभुत संत
अतीसा के
सूत्र हैं।
उसमें एक
सूत्र है कि
हर जहर को
अमृत बनाया जा
सकता है। और
हर बुराई, हर काटा
फूल बन सकती
है। दृष्टि पर
निर्भर है।
तो
ब्राह्मण
होना कुछ ऐसा
बुरा तो नहीं।
इससे उलझन मत
खड़ी करो।
लिखते हो कि 'झुकने की
आदत नहीं है
और अब चाहता
हूं कि जो भी आदत
बाधा बन रही
है, इससे
कैसे छुटकारा
हो? आप कुछ
प्रकाश डालें।’
झुकने
की आदत नहीं
है, तो
धीरे — धीरे
झुकना शुरू
करो। तैरने की
आदत नहीं तो
आदमी क्या
करता है? धीरे—
धीरे तैरना
शुरू करता है।
पहले उथले
पानी में
तैरता, फिर
थोड़े और गहरे
में जाता फिर
और थोड़े गहरे
में जाता, फिर
अतल में चला
जाता, फिर
कोई डर नहीं।
फिर कितनी ही
गहराई हो। आदत
नहीं है झुकने
की तो धीरे —
धीरे अभ्यास
करो। जहां से
बन सके वहां
से झुको।
इस देश
में हमने ऐसी
व्यवस्था की
थी कि झुकने की
आदत बनी रहे।
तो कुछ हमने
नियम बना दिये
थे। हर बेटा
बाप के चरण
छुए। वह झुकने
की आदत थी। हर
बाप चरण छूने
योग्य होता
नहीं। वह तो
सिर्फ उथले
पानी में
अभ्यास करवा
रहे हैं कि चल, कुछ नहीं
बनता, इतना
तो बन सकता है
यही कर। हर
बेटा मां के
चरण छुए। गुरु
के चरण छुए।
जो औपचारिक
गुरु हैं उनके
भी चरण छुए—गणित
जिन्होंने
सिखाया., भूगोल
सिखायी, उनके
भी चरण छुए।
कोई मतलब नहीं
है इसमें
लेकिन मतलब है।
मतलब इतना ही
है कि अभ्यास
बना रहे। तो
किसी दिन अगर
किन्हीं ऐसे
चरणों के करीब
आने का भाग्य
आ जाए जहां
झुकने में
अर्थ हो, तो
ऐसा न हो कि
तुम अकड़े ही
खड़े रह जाओ
आदत के न होने
से। झुकने की
आदत.।
तो
झुको। जहां से
बन सके वहां
झुको, जैसे
बन सके वैसे
झुको। अगर
आदमियों के
सामने झुकने
में अड़चन हो
तो हमने उसकी
भी व्यवस्था
की थी। पीपल
का झाडू है, उसी के
सामने झुको—देवता।
गंगा नदी है, उसी के
सामने झुको।
पहाड़, उसी
के सामने झुको।
कहीं भी झुको
अभ्यास करो।
तुम्हारी रीढ़
थोड़ा झुकना
सीख जाए।
और
अभ्यास का
परिणाम क्या
होता है? जब तुम
झुकोगे, तब
किसी दिन झुके
में तुम पाओगे
कि जो मिला, वह अकडू कर
कभी नहीं मिला।
उससे रस बढ़ेगा।
कभी तुम देखो,
जाकर किसी
वृक्ष के पास
ही झुक कर सिर
रखकर बैठ जाओ,
तुम बड़े
हैरान हो
जाओगे, अपूर्व
शाति का अनुभव
होगा। जितने
अकड़े हो, उतनी
अशांति है।
उसी अनुपात
में अशांति है।
जितने झुकोगे
उतने शांति का
अनुभव होगा।
किसी के चरणों
में कभी सिर
रखकर देखा? चाहे चरण इस
काबिल न भी
रहे हों इसकी
फिकिर ही मत
करो।
मुझसे
कभी—कभी लोग
पूछते हैं कि
यह हम कैसे
जानें कि
किसके चरण
लगें? कैसे
पक्का हो कि
सदगुरु है, कि कुगुरु
है, कि
फलां—ढिका? मैंने कहा
कि तुम इसकी
फिकिर छोड़ो, तुम्हें
लेना—देना
इससे क्या? कोई भी हो, तुम झुकने
का मजा ले लो।
झुकने में
असली बात है, किसके सामने
झुके यह उतनी
मूल्यवान बात
नहीं है।
इसलिए हमने
पत्थर की मूर्तियां
तक मंदिरों
में बनाकर
रखीं। उन्हीं के
सामने झुक जाओ।
मुसलमानों ने
मूर्तियां
हटा दी हैं, लेकिन झुकना
तो नहीं हटाया
है, नमाज
में झुकते तो
हैं। झुकना
नहीं हटाया जा
सकता है, मूर्ति
हटायी जा सकती
है। मूर्ति तो
गौण थी। झुकना
नहीं हटाया जा
सकता है। कहीं
भी झुको। चलो,
काबा की तरफ
सिर करके झुको।
तुम
मेरी बात खयाल
में ले लेना।
जिस विषय के
प्रति तुम
झुकते हो, उसका कोई
मूल्य नहीं है,
मूल्य
तुम्हारे
झुकने का है।
तुम झुके, इसमें
मूल्य है।
क्योंकि झुक
कर तुम किसी
दिन पाओगे कि
अपूर्व शाति
की वर्षा हो
गयी। तुम झुके
थे और कुछ बह
गया। कुछ
रसधार आ गयी।
कुछ उमंग, जिससे
मन हलका हो
गया, निबोंझ
हो गया। फिर
तुम और— और
झुकोगे। फिर
तो झुकने का
स्वाद लग
जाएगा। फिर तो
तुम जब खड़े हो,
तब भी भीतर
तुम झुके ही
रहोगे।
तुम्हारा
झुकना तब सहज
स्वभाव हो
जाएगा।
लेकिन
मेरे देखे, असली
सवाल समर्पण,
संन्यास और
झुकने का नहीं
है। और भी
असली सवाल यह
है कि शायद
तुम अभी संसार
से ऊबे नहीं, हारे नहीं।
असली बात वहा
अटकी होगी।
लोग संन्यस्त
होना चाहते, लेकिन अभी
संसार में रस
अटका है।
ध्यान करना
चाहते, लेकिन
अभी लगता
विचार में भी
कुछ बल है, विचार
से भी बहुत
कुछ मिलता है।
श्रद्धा
जगाना चाहते,
लेकिन तर्क
को अभी संभाले
रखते कि शायद
काम पड़ जाए।
जब तक तर्क पर
पूरी
अश्रद्धा न हो
जाए तब तक श्रद्धा
पर श्रद्धा न
होगी। और जब
तक ऐसा साफ न
दिखायी पड़ जाए
कि संसार असार
है, तब तक
तुम संन्यास
की तरफ जा न
सकोगे।
तो तुम
तो कहते हो, ब्राह्मण
होने का भाव
शायद बाधा बन
रहा है, मेरे
देखे उससे भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
बात यह है कि
अभी संसार से
तुम चुके नहीं,
अभी फल पका
नहीं, अभी
कच्चे हो।
ऐसे
कुछ बदल गये
हम
बेमानी
अब हर मौसम
रंग
बरसे या झड़ी
लगे
वासंती
ज्वार ज्वर
जगे
कितु
नहीं सरसेंगे
अब
सपने
पतझार के सगे
सुमनों
की हार हो गयी
बदशकल
बहार हो गयी
ऐसे कुछ
छाया भ्रम—तम
धुंधलाया
दिनकर का क्रम
ऐसे कुछ
बदल गये हम
बेमानी
अब हर मौसम
मन जब
उन्मन बेहाल
हो
कैसे
जीवन निहाल हो
सासों
का काफिला
लुटा
क्या
अबीर क्या
गुलाल हो
टेसू के
फूल जल रहे
आग में
पलास ढल रहे
ऐसे कुछ
आख हुई नम
दृष्टि—दृष्टि
लगती पुरनम
ऐसे कुछ
बदल गये हम
बेमानी
अब हर मौसम
फागुनी
धमार क्या
करें
गूंजता
खुमार क्या
करें
तार—तार
अश्रु से कसा
तान
बेशुमार क्या
करें
मीडों
में भरा क्लेश
है
केवल
अवरोह शेष है
ऐसे कुछ
राग गये थम
मौन हुआ
असमय सरगम
ऐसे कुछ
बदल गये हम
बेमानी
अब हर मौसम
असली
बात है कि
तुम्हें
दिखलायी पड
जाए कि जीवन
के सब मौसम
अर्थहीन, व्यर्थ। तब
संन्यास सहज
ही घटित होता
है। तब उपाय
नहीं करना
पड़ता। तब झगड़ना
नहीं पड़ता, संघर्ष नहीं
करना पड़ता। तब
समर्पण
अनायास आता है।
और जो अनायास
आ जाए, वही
सुंदर है। जो
चेष्टा से
लाया जाए वह
सुंदर नहीं है।
तो मैं
तुमसे कहूंगा, जल्दी न
करो, चेष्टा
न करो, लोभ
न करो। अभी
संसार में
शायद थोड़ा राग—रंग
बाकी है, उसे
भी देख लो। और
उसमें उतर जाओ,
और थोड़े दिन
सही। समय बहुत
पड़ा है। इस
देश में हमने
समय की कमी
नहीं मानी है।
पश्चिम में
समय कम है।
क्योंकि एक ही
जीवन है। जन्म
और मृत्यु, सत्तर साल, सब समाप्त।
फिर कुछ नहीं।
कर लो तो कर लो,
गये तो गये।
इस देश में
इतनी कंजूसी
नहीं है, हमने
खूब लंबा समय
माना है—जनम—जनम।
अनंतकाल तक।
कोई जल्दी
नहीं है।
इसीलिए तो
हड़बड़ाहट नहीं
है पूरब में।
इसीलिए तो घड़ी
पर इतना आग्रह
नहीं है।
घड़ी
पूरब में पैदा
ही नहीं हो
सकती थी, वह पश्चिम
की पैदाइश है।
घड़ी को पैदा
करने के लिए
ईसाई चाहिए, हिंदू पैदा
नहीं कर सकते
घड़ी। इसलिए
हिंदू का कोई
भरोसा नहीं है।
कहता है आ
जाएंगे पांच
बजे, पता
नहीं आए न आए, पांच बजे आए
कि सात बजे आए,
कि कल आए, कि आज आए, कि
परसों आए, कुछ
पक्का नहीं।
और तुम यह मत
समझना कि वह
तुम्हें धोखा
देता है, उसे
समय का बोध
नहीं। उसकी
धारा नहीं समय
की। वह कहता है,
क्या फर्क
पड़ता है?
मेरे
एक मित्र हैं, बड़े
राजनेता हैं।
ट्रेन जाते
हैं पकडने तो
एक घंटा पहले
पहुंच जाते
हैं। एक दफे
मैं उनके घर
मेहमान और
मेरे साथ उनको
भी यात्रा
करनी, तो
वह मुझे भी
घसीटने लगे।
मैंने उनसे
पूछा कि भई, दो मिनट का
फासला है यहां
से स्टेशन का,
अभी तो घंटे
भर वहां बैठकर
क्या करेंगे?
और मैंने
कहा कोई ट्रेन
पहले तो आने
वाली नहीं, देर से भले
आए! मगर वे
बोले कि नहीं,
मेरी तो आदत
ही यही है।
इसमें
निश्चितता
रहती है।
मालूम है कि
ट्रेन तीन बजे
आएगी, वह
दो बजे मुझे
जाकर स्टेशन
पर बिठा दिये।
बैठे हैं! मगर
अब वह प्रसन्न
हैं।
उनके
घर मैं एक दफे
मेहमान था।
रात मुझे कोई
चार बजे सुबह
ट्रेन पकड़नी
थी। तो
उन्होंने
अपने एक
ड्राइवर को कह
दिया कि तू
यहीं सो जाना।
अपने
तागेवाले को
कह दिया कि तू
भी यहीं सो जाना।
और पड़ोस के एक
रिक्योवाले
को भी बुलवाकर
कह दिया। और
अपने एक आदमी
को भी कह दिया
कि अगर कोई न
आए तो तू
सामान लेकर
स्टेशन
पहुंचा देना, चाहे
पैदल ही जाना
पड़े, क्योंकि
उनको जाना
जरूरी है।
मैंने उनसे
पूछा कि मैं
अकेला आदमी और
चार इंतजाम!
उन्होंने कहा,
चार में से
एक भी आ जाए
मौके पर तो
बहुत! किसी का कोई
पक्का भरोसा
थोड़े ही है
यहां! यहां
चार इंतजाम
करो तो शायद
एक, वह भी
शायद।
और यही
हुआ। एक भी
नहीं हुआ। जब
चार बजे मैं
उठा तो कोई
नहीं। उनको
जाकर मैंने
उठाया तब वह
भागे, दौड—
धाप की।
ड्राइवर शराब
पी गया। वह
आया ही नहीं।
वे खुद ही
मुझे लेकर
स्टेशन
पहुंचे।
उन्होंने मुझसे
कहा, देखा?
इधर कुछ
भरोसा नहीं।
और इसीलिए मैं
एक घंटा पहले
पहुंच जाता
हूं ट्रेन पर।
इधर कुछ भरोसा
ही नहीं। किसी
बात का कोई
भरोसा नहीं।
कारण
है! समय का बोध
नहीं। समय की
कोई जल्दी
नहीं। आज हो
गया तो ठीक, कल हो गया
तो ठीक, परसों
हो गया तो भी
ठीक और नहीं हुआ,
तो भी कुछ
हर्जा नहीं।
तुम
जल्दी मत करो।
तुम जीवन में
जहां हो, उसे ठीक से
समझ लो और जी
लो। उसका
स्वाद कडुवा
है, देर—
अबेर समझ में
आ जाएगा। जिस
दिन जीवन पर
तुम्हारी पकड
छूटेगी उस दिन
संन्यास का
जन्म होता है।
फिर मैं
तुम्हें जीवन
से छोड्कर भाग
जाने को तो
कहता नहीं—संन्यास
के बाद भी
नहीं कहता। क्रांति
तो अंतर में
है, भीतर
की है। रहोगे
वहीं, जहां
हो। और ढंग से
रहोगे।
बोधपूर्वक
रहोगे। जागकर
रहोगे। लेकिन
जल्दी मत करो।
अगर कहीं कुछ
थोड़ा—बहुत रस
उलझा रह गया
है, उसका
भी निपटारा कर
लो। उसका भी
चुकतारा कर लो।
आखिरी
प्रश्न :
मैं
सदा से आपका
विरोधी था।
लेकिन जबसे
आपके निकट आया
हूं,
पता
नहीं क्या हो
गया है? आप कुछ नशे
जैसे हैं।
क्या पिला
दिया है?
नशा
उतरता नहीं। और
ऐसा डर भी
लगता है कि
कहीं पागल तो
नहीं हो जाऊंगा।
सच कहा था
तूने जाहिद जहर—ए—कातिल
है शराब
हम भी
कहते थे यही जब
तक बहार आयी न
थी
दूर से
विरोधी होना
बड़ा आसान है।
स्वाद के बाद
विरोधी होना
बड़ा कठिन है।
इसीलिए अक्सर
विरोधी पास
आते ही नहीं, दूर ही
बने रहते हैं।
दूर में विरोध
बड़ा सुगम है।
न जाना, न
देखा, अड़चन
नहीं कुछ। जो
सुन लिया, मान
लिया, जो
सुन लिया, अपने
हिसाब से बढा
लिया, घटा
लिया, रंग —रूप
दे दिया। दूर
रहकर बड़ी
सुगमता है—विरोध
की।
पास
रहकर विरोध
कठिन है।
क्योंकि
कितने ही तुम
बेहोश होओ, इतने
बेहोश तो नहीं
कि कुछ भी समझ
में न आए। और
कितने ही तुम
सोए होओ, इतने
तो सोए नहीं
कि जो पुकार
मैं दे रहा
हूं वह बिलकुल
भी सुनायी न
पड़े। थोडा—बहुत
स्वर तो
पहुंचेगा।
सच कहा
था तूने जाहिद
जहर—ए—कातिल
है शराब
हम भी
कहते थे यही
जब तक बहार
आयी न थी
स्वाद
लेने के बाद
ही कुछ कहना
चाहिए।
बुद्धिमान
आदमी दूर से
कोई वक्तव्य न
देगा, न
पक्ष में, न
विपक्ष में।
बुद्धिमान
आदमी सुनी—सुनायी
बातों पर
निर्णय न लेगा।
बुद्धिमान
आदमी स्वयं
देखेगा।
देखेगा ही
नहीं, स्वयं
अनुभव करेगा।
अनुभव के बाद
ही वक्तव्य
देगा—पक्ष में,
या विपक्ष
में। और तभी
किसी वक्तव्य
का कोई मूल्य
है।
पूछिए
मयकशों से लुक—ए—शराब
यह मजा
पाकबाज क्या
जानें
वे जो
पाएंगे शराब
वे ही जानेंगे
मजा।
यह मजा
पाकबाज क्या
जानें
जिन्होंने
कभी शराब पी
ही नहीं, वे तो क्या
मजा जानेंगे!
पूछना हो तो
उन्हीं से
पूछना चाहिए
जिन्होंने
पीया है। सच
तो यह है, उनसे
भी पूछना क्या
चाहिए, उनके
साथ पीकर
देखना चाहिए।
जैसा मैं
निरंतर कहता हूं, यहां तो
कोशिश यही चल
रही है कि तुम
किसी तरह डूबो
परमात्मा में।
तुम पीओ
परमात्मा की
शराब। यहां
कोई सिद्धात
नहीं समझाए जा
रहे हैं, यहां
तो सत्य की
शराब ढाली जा
रही है। इसलिए
हिम्मतवरों
के लिए ही
निमंत्रण है।
कमजोर और
कायरों की
यहां कोई जगह
नहीं है।
जिन्हें धर्म
एक औपचारिकता
है, उनके
लिए यहां कोई
स्थान नहीं।
जिनके लिए
धर्म एक जीवंत
निमंत्रण है,
चुनौती है,
बस उनके लिए।
अच्छा
हुआ कि तुम आ
गये। अच्छा
हुआ कि इस
झंझट में पड़
गये। अच्छा
हुआ कि यह
पागलपन
तुम्हारे सिर
पर चढ़ा जा रहा
है। अच्छा हुआ
कि यह खुमारी तुम्हें
आने लगी।
तुझको
बरबाद तो होना
था बहरहाल
खुमार
नाज कर
नाज कि उसने
तुझे बरबाद
किया
आदमी
को बरबाद तो
होना ही है।
चाहे धन के
पीछे हो, पद के पीछे
हो, बरबाद
तो होना ही है।
अगर परमात्मा
के पीछे हो
लिए, तो
अच्छा!
नाज कर
नाज कि उसने
तुझे बरबाद
किया
तुझको
बरबाद तो होना
था बहरहाल
खुमार
यहां
मौत तो आने को
है? जाने
को तो सब है ही,
बचेगा तो
कुछ भी नहीं, अगर
रारमात्मा के
चरणों में सब
छोड़ा, अगर
यह प्रभु का
नशा लग जाए, अगर मंदिर
तुम्हारी
मधुशाला बन
जाए, तो
इससे बडा और
कोई सौभाग्य
नहीं। एक दिन
तुम कहोगे—
इसका
रोना नहीं है
क्यों तुमने
किया दिल
बरबाद
इसका
गम है कि बहुत
देर में बरबाद
किया
एक दिन
जरूर तुम
कहोगे कि
क्यों इतनी
देर हो गयी, क्यों
इतनी देर तक न
आया! कैसे
इतनी देर अटका
रहा!
और सब
तरह का प्रेम
एक तरह का
पागलपन है। और
परमात्मा का
प्रेम तो सबसे
बड़ा पागलपन है।
और सब तो छोटे —छोटे
पागल हैं। धन
के पागल की
क्या बिसात!
लेकिन जो
मोक्ष के लिए
पागल हुआ है, उसका
पागलपन तो
अनंत है। उतना
ही अनंत जितना
मोक्ष है। धन
पानेवाला तो
शायद किसी दिन
हग्न पा भी
लेगा और
पागलपन से
छुटकारा हो
जाएगा, लेकिन
परमात्मा को
जो पाने चला
है यह तो पा—पा
कर भी चूकता
रहेगा। यह तो
पा—पा कर भी
फिर पाएगा कि
और पाने को
शेष है। यह
पागलपन तो छूट
जानेवाला
नहीं है। यह
पागलपन तो
अनंत है।
हमसे
पहले भी
मुहब्बत का
यही अंजाम था
कैस भी
नाशाद था
फरहाद भी
नाकाम था
और
प्रेम तो सदा
से उलझन में
रहा है।
समझदार जिनको
तुम कहते हो, तथाकथित
समझदार, वे
प्रेम में
नहीं पड़ते।
परमात्मा के
तो प्रेम की
बात छोडो, वे
सांसारिक
प्रेम तक में
नहीं पड़ते। वे
किसी स्त्री
के प्रेम में
नहीं पड़ते, किसी पुरुष
के प्रेम में
नहीं पडते, किसी मित्र
के प्रेम में
नहीं पड़ते।
क्योंकि वे
जानते हैं, प्रेम में
झंझट है। वे
तो प्रेम से
अपना दामन
बचाकर चलते
हैं। प्रेम की
जगह विवाह कर
लेते हैं।
प्रेम में
नहीं पड़ते।
क्योंकि
प्रेम में
खतरा है। खतरा
इस बात का है
कि प्रेम को
नियंत्रण
नहीं किया जा
सकता। और फिर
परमात्मा का
प्रेम 'तो
बहुत खतरनाक
है। तुमने
अनंत के हाथों
में छोड़ दिया
अपने को।
बागडोर उसके
हाथों में दे
दी, अब वही
हुआ सारथी
तुम्हारा।
तो
यहां तो जो भी
मैं तुमसे कह
रहा हूं, वह बहुत
थोडा—सा है।
वह इतना ही है
कि तुम अपने
हाथ परमात्मा
के हाथ में दे
दो। तुम
बागडोर उसके
हाथ में छोड़
दो, तुम
कर्ता न रहो।
हमसे
पहले भी
मुहब्बत का
यही अंजाम था
कैस भी
नाशाद था
फरहाद भी
नाकाम था
प्रेमी
तो सदा से
उपद्रव में, अड़चन में,
झंझट में
रहे। लेकिन
उन्होंने ही
कुछ पाया भी।
जिन्होंने
अपने को
गंवाया है, उन्होंने ही
कुछ पाया है।
जो डूबे, वही
उबरे। जो
मझधार में खो
गये, उन्हीं
को किनारा
मिला।
आखिरी
जाम में थी
बात क्या ऐसी
साकी
हो गया
पी के जो
खामोश वह
खामोश रहा
अब आ
गये हो तो
घबडाओ मत। अब
यह पागलपन तुम
पर छा रहा है
तो डरो मत, हिम्मत
करो, छा
जाने दो।
इसमें बाधा मत
डालना।
क्योंकि बहुत
हैं जो पास
आकर भाग जाते
हैं। भाग जाते
हैं डर के
कारण। लगता है
कि खिंचे जा
रहे हैं। लगता
है कि जल्दी
ही अपने बस
में न रह
जाएंगे। इसके
पहले कि बस खो
जाए, भाग
जाते हैं। फिर
स्वभावत: जो
मुझसे भाग
जाते, उनको
मुझसे भागने
के लिए कई
तर्क खोजने
पड़ते, कारण
खोजने पड़ते,
कि क्यों
छोड़ आए, क्यों
भाग आए। अपने
को भी धोखा
देने के लिए
उन्हें कई
इंतजाम
मानसिक करने
पड़ते है—बौद्धिक—कि
क्यों भाग आए।
लेकिन मैं
जानता हूं बड़े
—से —बड़ा भय
तुम्हें पैदा
होगा वह यह कि
कहीं ऐसा न हो
कि तुम इसमें
इतने उलझ जाओ
कि फिर इसके
बाहर न जा सको।
आखिरी
जाम में क्या
बात थी ऐसी
साकी
हो गया
पी के जो
खामोश वह
खामोश रहा
यहां
पहले तो
पागलपन पैदा
होगा—प्रेम
पैदा होगा—और
अगर हिम्मत
रखी और डूबते
गये, तो
खामोशी पैदा
होगी। पागलपन
चला जाएगा, सब तूफान
चले जाएगे—और
तूफानों के
बाद ही जो
शाति आती है, वही शाति है।
पहले तूफान
आएगा, फिर
शाति आएगी।
अगर तूफान में
ही घबड़ाकर भाग
गये, तो
शाति से वंचित
रह जाओगे। अगर
तूफान में टिक
गये और तूफान
को गुजर जाने दिया
तो तुम्हारी
धूल झड़ जाएगी।
तुम्हारी
सदियों की धूल
झड़ जाएगी।
तुम्हारा
दर्पण फिर
निखर आएगा। उस
निखरे दर्पण
का नाम ही
ध्यान है। उस
निखरे दर्पण
में ही जो
अस्तित्व की
छवि बनती है, उसी का नाम
परमात्मा है।
और उस छवि तक
जाने का जो
उपाय है, वही
संन्यास है।
हिम्मत
करो। इतनी
हिम्मत की पास
आने की तो
विरोध छूट गया।
अब और थोड़े
पास आओ कि भय
भी छूट जाए।
भय लगता है।
पुराने
शास्त्र कहते
हैं, गुरु
तो मृत्यु है।
आचार्यो
मृत्यु:।
क्योंकि गुरु
के पास आकर
तुम्हारी
मृत्यु घटित
होती है। तुम
जैसे थे, वैसे
तो मर जाओगे।
और तुम्हें
जैसे होना
चाहिए वैसे
तुम पैदा
होओगे।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
की उदघोषणा
होगी। तुम
पहली बार
आत्मवान
बनोगे।
एक
जन्म तो
तुम्हारी मां
ने दिया है।
वह शरीर का
जन्म है। एक
जन्म गुरु
देता है, वह आत्मा का
जन्म है। मां
से पैदा होते
वक्त भी बड़ी
पीड़ा होती है।
बड़ा कष्ट होता
है। गुरु से
फिर पैदा होते
और भी बड़ी
पीड़ा होती है,
और भी बड़ा
कष्ट होता है।
लेकिन
खयाल रखना, अधिकतर
बच्चे जब पैदा
होते हैं तो
उनका सिर नीचे
की तरफ होता
है। और अगर
कोई
संभालनेवाली
दाई पास न हो
तो बच्चा जमीन
पर गिरेगा सिर
के बल और शायद
सदा के लिए सिर
खराब हो जाएगा,
विकृत हो
जाएगा। कभी—कभी
ऐसा होता है
कि कोई बच्चा
सिर के बल
पैदा नहीं
होता, पैर
के बल पैदा
होता है, पैर
पहले आते हैं,
पर बहुत—हजार
में कभी एकाध।
ठीक ऐसा ही
कभी—कभी हजार
में एकाध ऐसा
भी होता है जो
गुरु के बिना
पैदा हो जाता
है। जिसको
गुरु की कोई
जरूरत नहीं
होती है।
लेकिन हजार
में नौ सौ
निन्यानबे तो
सिर के बल पैदा
होते हैं।
गुरु तो दाई
है, 'मिडवाइफ'। सुकरात ने
यही कहा है कि
मैं मिडवाइफ
हूं दाई हूं।
और जब तुम
पैदा
होओगे, तब सिर के
बल पर न गिर
जाओ कहीं, अन्यथा
खतरा है।
अक्सर
ऐसा होता है
कि बहुत से
लोग गुरु से
बचने के लिए
किताबों से
विधियां पढ़—पढ़कर
काम में लग
जाते हैं और
उसका परिणाम
भयानक होता है।
जब कभी
किताबों से पढ़
—पढ़कर अगर
कहीं पैदा हो
गये और
किताबें पास
में रहीं, तो
किताबें
दाइयां नहीं
हैं। और
किताबें कुछ
भी न कर
सकेंगी। अगर
चोट लगी कोई
गहरी, तो
किताब कुछ भी
न कर सकेगी।
तो जो लोग
गुरु के बिना
इस यात्रा में
निकलते हैं, उनका सच में
ही बड़ा खतरा
है। वे
वस्तुत: पागल
हो सकते हैं।
तुम्हें
इस देश में कई
लोग मिल
जाएंगे, जिनको लोग 'मस्त' कहते
हैं।’मस्त'
इत्यादि
कुछ भी नहीं
हैं, उनकी
हालत बड़ी खराब
है। वे पागलों
से भी बुरी
हालत में हैं।
क्योंकि
पागलों का तो
मनोवैज्ञानिक
इलाज भी कर
सकता है, इन
मस्तों का
मनोवैज्ञानिक
इलाज भी नहीं
कर सकता। ये
सामान्य भी न
रहे और
असामान्य भी न
हो पाए। यह
संसार छूट गया
और वह दूसरा
संसार इनके
हाथ में आने
से रह गया। ये
बीच में अटक
गये, ये
त्रिशंकु हो
गये। इससे तो
बेहतर है, संसार
में ही सोए
रहना। कहीं
ऐसा न हो कि
नींद भी टूट
जाए और जागरण
भी न आए। तब
तुम बड़ी बेचैनी
में पड़ जाओगे।
तो अगर
मेरे पास आ
गये हो तो अब
दूर मत बने
रहना। और ऐसा
कोशिश मत करना
कि जो —जो मिले
आसपास से बीन
लें, इकट्ठा
कर लें और
अपने— आप काम
में लग जाएं।
तो खतरा तुम
मोल लेते हो।
तुम्हारी
मर्जी! अगर
कुछ वस्तुत:
करना हो तो पास
आने की पूरी
हिम्मत रखना।
मेरे हाथ में
हाथ देने की
हिम्मत रखना,
ताकि जब
तुम्हारा
जन्म हो, तो
तुम्हें कोई
ऐसी चोट न लग
जाये जो
संघातक हो।
तुम बचाए जा
सको। अब आ ही
गये हो तो आ ही
जाओ। यह भय
इत्यादि छोड़ो।
जैसा विरोध
चला गया वैसा
ही भय भी चला
जाएगा। तूफान
आएगा, और
उसके बाद ही
शाति है।
दूर से
आए थे साकी
सुनके मयखाने
को हम
पर
तरसते ही चले
अफसोस पैमाने
को हम
अगर
पास न आए तो
ऐसा ही होगा।
दूर से
आए थे साकी
सुनके मयखाने
को हम
बड़े
दूर से खबर
सुनी थी
मधुशाला की और
आए थे।
पर
तरसते ही चले
अफसोस पैमाने
को हम
लेकिन
बिना पीए जा
रहे हैं।
लेकिन
तुम्हारे
अतिरिक्त कोई
और जिम्मेवार नहीं
है। तुम
उत्तरदायित्व
मुझ पर न सौंप
सकोगे। मैं तो
रोज डाले जा
रहा हूं। मैं
तो सुराही लिए
खड़ा हूं।
पैमानों का
हिसाब कहां है, चुल्ल से
पीओ, भरके
पीओ। अगर तुम
खाली हाथ गये
तो तुम्हारे
अतिरिक्त कोई
और जिम्मेवार
नहीं है।
और इस
जिंदगी में है
भी क्या, जिसको खोने
से तुम इतने
डर रहे हो! है
क्या तुम्हारे
पास, जिसे
बचाने को इतने
आतुर हो!
खोजती
भौतिक
क्षितिज आंखें
यहां
कब्र
से ज्यादा न
कीमत ताज की
प्यार
के पुख्ता
धरातल पर
बनाये थे महल
पर
बिना आधार की
मीनार से ढहते
रहे
कहीं घर
है न कहीं
द्वार जिंदगी
तेरा
करें
किस ठौर
इंतजार
जिंदगी तेरा
मौत के
पास तलक हाथ
खींचकर लायी
मगर
मरता न एतबार
जिंदगी तेरा
जिस
जिंदगी में
सिवाय मौत के
कुछ नहीं घटता, उस पर भी
भरोसा किये
चले जाते हो!
और जिस समर्पण
से मृत्यु के
माध्यम से भी
महाजीवन घटता
है, वहां
भी डरते हो
भयभीत होते हो,
संकोच करते
हो!
जिंदगी
है अपने कब्जे
में न अपने वश
में मौत
आदमी
मजबूर है और
किस कदर मजबूर
है
न जन्म
तुम्हारे हाथ
में है, न मौत
तुम्हारे हाथ
में है। सिर्फ
एक चीज
तुम्हारे हाथ
में है, वह
है समर्पण।
जन्म हो गया, मौत होकर
रहेगी।
समर्पण तुम
चाहो तो हो
सकता है, तुम
चाहो तो नहीं
होगा। सिर्फ
एक बात के तुम
मालिक हो, वह
है संन्यास।
जिंदगी
है अपने कब्जे
में न अपने वश
में मौत
आदमी
मजबूर है और
किस कदर मजबूर
है
नहीं, एक
स्वतंत्रता
भी है। एक बात
है जहां
मजबूरी नहीं
है। वही
स्वतंत्रता
संन्यास है।
आज इतना
ही।
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