दिनांक
21 सितम्बर, 1972;
द्वितीय
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल, बम्बई
आत्म-सूत्र
: 2
जस्सेवमप्पा
उ हवेज्ज निच्छिओ,
चइज्ज देहं न हु धम्मसासणं।।
तं
तारिसं
नो पइलेन्ति
इन्दिया,
उविंतिवाया
व सुदंसणं
गिरिं।।
सरीरमाहु
नाव त्ति,
जीवो वुच्चई नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो,
जं तरन्ति
महेसिणो।।
जिस
साधक की आत्मा
इस प्रकार
दृढ़-निश्चयी
हो कि देह भले
ही चली जाये, पर मैं अपना
धर्म-शासन
नहीं छोड़ सकता,
उसे इन्दिरयां
कभी भी विचलित
नहीं कर
सकतीं। जैसे
भीषण बवंडर
सुमेरु पर्वत
को विचलित नहीं
कर सकता।
शरीर
को नाव कहा
गया है और जीव
को नाविक तथा
संसार को
समुद्र। इसी
संसार समुद्र
को महर्षिजन
पार कर जाते
हैं।
एक
मित्र ने पूछा
है कि सदगुरु
की खोज हम
अज्ञानी जन कर
ही कैसे सकते
हैं?
यह
थोड़ा जटिल
सवाल है और
समझने योग्य।
निश्चय ही, शिष्य सदगुरु
की खोज नहीं
कर सकता है।
कोई उपाय नहीं
है आपके पास जांचने का
कि कौन सदगुरु
है। और
संभावना इसकी
है कि जिन
बातों से प्रभावित
होकर आप सदगुरु
को खोजें, वे
बातें ही गलत
हों।
आप जिन
बातों से
आंदोलित होते
हैं, आकर्षित
होते हैं, सम्मोहित
होते हैं, वे
बातें आपके
संबंध में
बताती हैं, जिससे आप
प्रभावित
होते हैं उसके
संबंध में कुछ
भी नहीं बताती।
यह भी हो सकता
है, अकसर
होता है कि जो
दावा करता हो
कि मैं सदगुरु
हूं, वह
आपको
प्रभावित कर
ले। हम दावों
से प्रभावित
होते हैं और
बड़ी कठिनाई
निर्मित हो
जाती है कि
शायद ही जो सदगुरु
है, वह
दावा करे। और
बिना दावे के
तो हमारे पास
कोई उपाय नहीं
है पहचानने
का।
हम
चरित्र की
सामान्य
नैतिक
धारणाओं से
प्रभावित
होते हैं, लेकिन सदगुरु
हमारी चरित्र
की सामान्य
धारणाओं के
पार होता है।
और अकसर ऐसा
होता है कि
समाज की बंधी
हुई धारणा
जिसे नीति
मानती है, सदगुरु
उसे तोड़ देता
है। क्योंकि
समाज मानकर
चलता है अतीत
को और सदगुरु
का अतीत से
कोई संबंध
नहीं होता।
समाज मानकर चलता
है सुविधाओं
को और सदगुरु
का सुविधाओं
से कोई संबंध
नहीं होता।
समाज मानता है
औपचारिकताओं
को, फामलिटीज को और सदगुरु
का
औपचारिकताओं
से कोई संबंध
नहीं।
तो यह
भी हो जाता है
कि जो आपकी
नैतिक
मान्यताओं
में बैठ जाता
है, उसे आप सदगुरु
मान लेते हैं।
संभावना बहुत
कम है कि सदगुरु
आपकी नैतिक
मान्यताओं
में बैठे।
क्योंकि महावीर
नैतिक
मान्यताओं
में नहीं बैठ
सके, उस
जमाने की।
बुद्ध नहीं
बैठ सके, कृष्ण
नहीं बैठ सके,
क्राइस्ट
नहीं बैठ सके।
जो छोटे-छोटे
तथाकथित साधु
थे, वे बैठ
सके। अब तक इस
पृथ्वी पर जो
भी श्रेष्ठजन
पैदा हुए हैं,
वे अपनी
समाज भी
मान्यताओं के
अनुकूल नहीं
बैठ सके।
क्राइस्ट
नहीं बैठ सके
अनुकूल, लेकिन
उस जमाने में
बहुत से
महात्मा थे, जो अनुकूल
थे। लोगों ने
महात्माओं को
चुना, क्राइस्ट
को नहीं।
क्योंकि लोग
जिन धारणाओं में
पले हैं, उन्हीं
धारणाओं के
अनुसार चुन
सकते हैं।
सदगुरु
का संबंध होता
है सनातन सत्य
से। साधुओं, तथाकथित
साधुओं का
संबंध होता है
सामयिक सत्य
से। समय का जो
सत्य है, उससे
एक बात है
संबंधित होना;
शाश्वत जो
सत्य है उससे
संबंधित होना
बिलकुल दूसरी
बात है। समय
के सत्य रोज
बदल जाते हैं,
रूढ़ियां रोज बदल
जाती हैं, व्यवस्थाएं
रोज बदल जाती
हैं। दस मील
पर नीति में
फर्क पड़ जाता
है, लेकिन
धर्म में कभी
भी कोई फर्क
नहीं पड़ता।
इसलिए
अति कठिन है
पहचान लेना कि
कौन है सदगुरु।
फिर हम सबकी
अपने मन में
बैठी
व्याख्याएं
हैं। जैसे अगर
आप जैन घर में
पैदा हुए हैं
तो आप कृष्ण
को सदगुरु
कभी भी न मान
सकेंगे। इसका
यह कारण नहीं
है कि कृष्ण सदगुरु
नहीं हैं।
इसका कारण यह
है कि आप जिन
मान्यताओं
में पैदा हुए
हैं, उन
मान्यताओं से
कृष्ण का कोई
ताल-मेल नहीं
बैठेगा। अगर
आप जैन घर में
पैदा हुए हैं
तो राम को सदगुरु
मानने में
कठिनाई होगी।
अगर आप कृष्ण
की मान्यता
में पैदा हुए
हैं तो महावीर
को सदगुरु
मानने में
कठिनाई होगी।
और जिसने
महावीर को सदगुरु
माना है, वह
मुहम्मद को सदगुरु
कभी भी नहीं
मान सकता।
धारणाएं
हमारी हैं, और कोई सदगुरु
धारणाओं में बंधता
नहीं। बंध
नहीं सकता।
फिर हम एक सदगुरु
के आधार पर
निर्णय कर
लेते हैं कि सदगुरु
कैसा होगा।
सभी सदगुरु
बेजोड़
होते हैं, अद्वितीय
होते हैं, कोई
दूसरे से कुछ
लेना-देना
नहीं होता।
मुहम्मद के
हाथ में तलवार
है, महावीर
के हाथ में
तलवार हम सोच
भी नहीं सकते।
महावीर नग्न
खड़े हैं, कृष्ण
आभूषणों से
लदे बांसुरी
बजा रहे हैं।
इनमें कहीं
कोई मेल नहीं
हो सकता। राम
सीता के साथ
पूजे जाते
हैं। एक
दम्पति का रूप
है। कोई जैन तीथकर
पत्नी के साथ
नहीं पूजा जा
सकता। क्योंकि
जब तक पत्नी
है, तब तक
वह तीथकर
कैसे हो
सकेगा! तब तक
वह गृही है, तब तक तो वह
संन्यासी भी
नहीं है। हम
तो राम का नाम
भी लेते हैं
तो सीता-राम
लेते हैं, पहले
सीता को रख न
डाले। तब डर
लगेगा कि फिर
कहीं ऐसे न असदगुरु
हमें चुन लें।
यहां जरा और
बारीक बात है।
जिस तरह मैंने
कहा कि शिष्य
का अहंकार
होता है और
इसलिए उसे ऐसा
भास होना
चाहिए कि
मैंने चुना।
उसी तरह असदगुरु
का अहंकार
होता है, उसे
इसी में मजा
आता है कि
शिष्य ने उसे
चुना। थोड़ा
समझ लें।
असदगुरु
को तभी मजा
आता है, जब
आपने उसे चुना
हो। असदगुरु
आपको नहीं
चुनता। सदगुरु
आपको चुनता
है। असदगुरु
कभी आपको नहीं
चुनता। उसका
तो रस ही यह है
कि आपने उसे
माना, आपने
उसे चुना।
इसलिए आप
चुनने की बहुत
फिक्र न करें,
खुलेपन की
फिक्र करें।
सम्पर्क में
आते रहें, लेकिन
बाधा न डालें,
खुले रहें।
इजिप्शियन
साधक कहते हैं, व्हेन द डिसाइपल
इ रेडी, द मास्टर एपीयर्स।
और आपकी रेडीनेस,
आपकी
तैयारी का एक
ही मतलब है कि
जब आप पूरे खुले
हैं, तब
आपके द्वार पर
वह आदमी आ
जायेगा, जिसकी
जरूरत है।
क्योंकि आपको
पता नहीं है
कि जीवन एक
बहुत बड़ा
संयोजन है।
आपको पता नहीं
है कि जीवन के
भीतर बहुत कुछ
चल रहा है पद
की ओट में।
आपके भीतर
बहुत कुछ चल
रहा है पद की
ओट में।
जीसस
को जिस
व्यक्ति ने
दीक्षा दी, वह था जान द बैप्टिस्ट,
बप्तिस्मा
वाला जान।
बप्तिस्मा
वाला जान एक बूढ़ा
सदगुरु
था, जो जोर्डन
नदी के किनारे
चालीस साल से
निरन्तर
लोगों को
दीक्षा दे रहा
था। बहुत बूढ़ा
और जर्जर हो
गया था, और
अनेक बार उसके
शिष्यों ने
कहा कि अब बस, अब आप श्रम न
लें। लाखों
लोग इकट्ठे
होते थे उसके
पास। हजारों
लोग उससे
दीक्षा लेते
थे। जीसस के
पूर्व बड़े से
बड़े गुरुओं
में वह एक था।
लेकिन
बप्तिस्मा
वाला जान कहता
है कि मैं उस
आदमी के लिए
रुका हूं, जिसे
दीक्षा देकर
मैं अपने काम
से मुक्त हो जाऊंगा।
जिस दिन वह
आदमी आ जायेगा,
उस दिन मैं
विलीन हो जाऊंगा।
जिस दिन वह
आदमी आ जायेगा,
उसके दूसरे
दिन तुम मुझे
नहीं पाओगे, और फिर एक
दिन आकर जीसस
ने दीक्षा ली,
और उस दिन
के बाद
बप्तिस्मा
वाला जान फिर
कभी नहीं देखा
गया। शिष्यों
ने उसकी बहुत
खोज की, उसका
कोई पता न चला
कि वह कहां
गया। उसका
क्या हुआ।
वह
जीसस के लिए
रुका हुआ था।
इस आदमी को
सौंप देना था।
लेकिन इसकी
प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी, जब यह आदमी
आये। और इस
आदमी के पास
जान जा सकता था।
जीसस का गांव जोर्डन से
बहुत दूर न
था। वह जाकर
भी दीक्षा दे
सकता था, लेकिन
तब भूल हो
जाती। तब शायद
जीसस उस
दीक्षा को ऐसे
ही न झेल पाते,
जैसा
कृष्णमूर्ति
को मुसीबत हो
गयी।
पास ही
था गांव, लेकिन
जान वहां नहीं
गया उसने
प्रतीक्षा की
कि जीसस आ
जाये। जीसस को
यह खयाल तो
होना चाहिए कि
मैंने चुना
है। बुनियादी
अंतर पड़ जाते
हैं। इतना
खयाल देने के
लिए बूढ़ा आदमी
श्रम करता रहा
और प्रतीक्षा
करता रहा।
जीसस के आने
पर तिरोहित हो
गया।
एक
आयोजन है जो
भीतर चल रहा
है, उसका
आपको पता नहीं
है। आपको पता
हो भी नहीं सकता।
आप सतह पर
जीते हैं। कभी
अपने भीतर
नहीं गये तो
जीवन के भीतरी
तलों का आपको
कोई अनुभव
नहीं है। जब
आप खिंचे
चले जाते हैं;
किसी आदमी
की तरफ, तो
आप इतना ही मत
सोचना कि आप
ही जा रहे
हैं। कोई खींच
भी रहा है। सच
तो यह है कि जब
चुम्बक खींचता
होगा लोहे के
टुकड़े को तो
लोहे का टुकड़ा
नहीं जानता है
कि चुम्बक ने
खींचा।
चुम्बक का उसे
पता भी नहीं
है। लोहे का टुकड़ा
अपने मन में
कहता होगा, मैं जा रहा
हूं। लोहा
जाता है।
चुम्बक
खींचता है, ऐसा लोहे के
टुकड़े को पता
नहीं चलता।
सदगुरु
एक चुम्बक है, आप खिंचे
चले जायेंगे।
आप अपने को
खुला रखना।
फिर यह भी
जरूरी नहीं है
कि सब सदगुरु
आपके काम के
हों। असदगुरु
तो काम का है
ही नहीं। सभी सदगुरु भी
काम के नहीं
हैं, जिससे
आपका ताल-मेल
बैठ जाये, जिसके
साथ आपकी
भीतरी रुझान
ताल-मेल खा
जाये। तो आप
खुले रहना।
जापान
में झेन गुरु
अपने शिष्यों
को एक दूसरे के
पास भी भेज
देते हैं।
यहां तक भी हो
जाता है कभी
कि एक सदगुरु
जो दूसरे सदगुरु
के बिलकुल
सैद्धान्तिक
रूप से विपरीत
है, विरोध
में है, जो
उसका खण्डन
करता रहता है,
वह भी कभी
अपने किसी
शिष्य को उसके
पास भेज देता
है। और कहता
है कि अब तू
वहां जा।
बोकोजू
के गुरु ने
उसे अपने
विरोधी सदगुरु
के पास भेज
दिया। बोकोजू
ने कहा कि आप
अपने शत्रु के
पास भेज रहे
हैं। और अब तक
तो मैं यही
सोचता था, कि वह आदमी
गलत है। तो
बोकोजू के
गुरु ने कहा, हमारी
पद्धतियां
विपरीत हैं।
कभी मैंने कहा
नहीं कि वह
गलत है। इतना
ही कहा कि
उसकी पद्धति
गलत है।
पद्धति उसकी
भी गलत नहीं
है, लेकिन
मेरी पद्धति
समझने के लिए
उसकी पद्धति
को जब मैं गलत
कहता हूं तो
तुम्हें
आसानी होती
है। और मेरी
पद्धति जब वह
गलत कहता है
तो उसके पास जो
लोग बैठे हैं,
उन्हें
समझने में
आसानी होती है;
कंट्रास्ट,
विरोध से
आसानी हो जाती
है। जब हम
कहते हैं, फलां
चीज सही है और
फलां चीज गलत
है तो काले और
सफेद की तरह
दोनों चीजें
साफ हो जाती
हैं। लेकिन
बोकोजू, तू
वहां जा, क्योंकि
तेरे लिए वही
गुरु है। मेरी
पद्धति तेरे
काम की नहीं।
लेकिन किसी को
यह बताना मत। जाहिर
दुनिया में हम
दुश्मन हैं, और भीतरी
दुनिया में
हमारा भी एक
सहयोग है।
बोकोजू
दुश्मन गुरु
के पास जाकर
दीक्षित हुआ, ज्ञान को
उपलब्ध हुआ।
जिस दिन ज्ञान
को उपलब्ध हुआ,
उसके गुरु
ने कहा, अपने
पहले गुरु को
जाकर धन्यवाद
दे आ, क्योंकि
उसने ही तुझे
मार्ग
दिखाया। मैं
तो निमित्त
हूं। उसने ही
तुझे भेजा है।
असली गुरु तेरा
वही है। अगर
वह असदगुरु
होता तो तुझे
रोक लेता। सदगुरु
था इसलिए तुझे
मेरे पास भेजा
है। लेकिन
किसी को कहना
मत। जाहिर
दुनिया में हम
दुश्मन हैं। पर
वह दुश्मनी भी
हमारा
षडयंत्र है।
उसके भीतर एक
गहरी मैत्री
है। मैं भी
वहीं पहुंचा
रहा हूं लोगों
को, जहां
वह पहुंचा रहा
है। मगर यह किसी
को बताने की
बात नहीं है।
हमारा जो खेल
चल रहा है, उसको
बिगाड़ने की
कोई जरूरत
नहीं है।
एक अन्तर्जगत
है रहस्यों का, उसका आपको
पता नहीं है।
इतना ही आप कर
सकते हैं कि
आप खुले रहें।
आपकी आंख बन्द
न हो। और आप इतने
ग्राहक रहें
कि जब कोई
आपको चुनना
चाहे, और
कोई चुम्बक
आपको खींचना
चाहे तो आपसे
कोई प्रतिरोध
न पड़े। एक दिन
आप सदगुरु
के पास पहुंच
जायेंगे। यह
तैयारी अगर
हुई तो आप
पहुंच
जायेंगे।
थोड़ी बहुत
भटकन बुरी
नहीं है। और
ऐसा मत सोचें
कि भटकना बुरा
ही है। भटकना
भी एक अनुभव
है। और भटकने
से भी एक प्रौढ़ता,
एक मेच्योरिटी
आती है। जिन
गुरुओं को आप
व्यर्थ समझकर
छोड़कर चले
जाते हैं, उनसे
भी आप बहुत
कुछ सीखते
हैं। जिनसे आप
कुछ भी नहीं
सीखते, उनसे
भी कुछ सीखते
हैं। जिनको आप
व्यर्थ पाते हैं,
अपने काम का
नहीं पाते और
हट जाते हैं, वे भी आपको
निर्मित करते
हैं।
जिन्दगी
बड़ी जटिल व्यवस्था
है, और उसका
सृजन का जो
काम है, उसके
बहु आयाम हैं।
भूल भी ठीक की
तरफ ले जाने का
मार्ग है।
इसलिए भूल
करने से डरना
नहीं चाहिए, नहीं तो कोई
आदमी ठीक तक
कभी पहुंचता
नहीं। भूल
करने से जो
डरता है वह
भूल में ही रह
जाता है। वह
कभी सही तक
नहीं पहुंच
पाता। खूब दिल
खोलकर भूल
करनी चाहिए।
एक ही बात
ध्यान रखनी
चाहिए कि एक
ही भूल दुबारा
न हो। हर भूल
इतना अनुभव दे
जाये कि उस
भूल को हम
दुबारा नहीं
करेंगे, तो
फिर हम
धन्यवाद दे
सकते हैं उसको
भी, जिससे
भूल हुई, जिसके
द्वारा हुई, जिसके कारण
हुई, जिसके
साथ हुई, जहां
हुई; उसको
भी हम धन्यवाद
दे सकते हैं।
लेकिन कुछ लोग
जीवन की, सृजन
की, जो बड़ी
प्रक्रिया है
उसको नहीं
समझते। वे कहते
हैं, आप तो
सीधा-साधा ऐसा
बता दें कि
कौन है सदगुरु?
हम वहां चले
जायें। आपको
जाना पड़ेगा।
भूल, भटकन
अनिवार्य
हिस्सा है।
थोड़ी-सी भूलें
कर लेने से
आपकी गहराई
बढ़ती है। और
भूलें करके ही
आपको पता चलता
है कि ठीक
क्या होगा।
इसलिए असदगुरु
का भी थोड़ा-सा
उपयोग है। वह
भी बिलकुल
व्यर्थ नहीं
है।
एक बात
ध्यान रखें कि
परमात्मा के
इस विराट आयोजन
में कुछ भी
व्यर्थ नहीं
है। यहां जो
आपको व्यर्थ
दिखायी पड़ता
है, वह भी
सार्थक की ओर
इशारा है। और
यहां अगर असदगुरु
हैं, तो वे
भी पृष्ठभूमि
का काम करते
हैं, जिनमें
सदगुरु चमककर
दिखायी पड़
जाते हैं, नहीं
तो वह भी
दिखायी नहीं
पड़े। जिन्दगी
विरोध से
निर्मित है।
सत्य की खोज
असत्य के
मार्ग से भी
होती है। सही
की खोज भूल के
द्वार से भी होती
है। इसलिए
भयभीत न हों, अभय रखें और
खुले रहें। भय
की वजह से
आदमी बन्द हो
जाता है। वह
डरा ही रहता
है कि ऐसा न हो
कि किसी गलत
आदमी से जोड़
हो जाये। इस
भय से वह बन्द ही
रह जाते हैं।
बन्द आदमी का,
गलत आदमी से
तो जोड़ नहीं
होता, सही
आदमी से भी
कभी जोड़ नहीं
होता। खुले
आदमी का गलत
आदमी से जोड़
होता है, लेकिन
जो खुला है, वह जल्दी ही
गलत आदमी के
पार चला जाता
है। और खुले
होने के कारण
और गलत के पार
होने के अनुभव
से जल्दी ही
सही के निकट
होने लगता है।
इतना
स्मरण रखें, सदगुरु आपको चुन ही
लेगा। वह सदा
मौजूद है।
शायद आपके ठीक
पड़ोस में हो।
एक दिन
हसन ने
परमात्मा से
प्रार्थना की
कि दुनिया में
सबसे बुरा
आदमी कौन है, बड़े से बड़ा
पापी? रात
उसे स्वप्न
में संदेश आया,
तेरा पड़ोसी
इस समय दुनिया
में सबसे बड़ा
पापी है।
हसन
बहुत हैरान
हुआ। पड़ोसी
बहुत
सीधा-सच्चा आदमी
था। साधारण
आदमी था। कोई पापऐसी
कोई खबर नहीं
थी, कोई
अफवाह भी न
थी। बड़ा चकित
हुआ कि पापी
पास में है
जगत का सबसे
बड़ा, और
मुझे अब तक
कोई पता न
चला।
उसने
उस रात दूसरी
प्रार्थना की
कि एक प्रार्थना
और मेरी पूरी
कर। इस जगत
में सबसे बड़ा
पुण्यात्मा, सबसे बड़ा
ज्ञानी, सबसे
बड़ा सन्त
पुरुष कौन है?
एक तो तूने
बता दिया, अब
दूसरा भी बता
दें। रात
संदेश आया कि
तेरा दूसरा
पड़ोसी। एक तरफ
बाइ तरफवाला
कल था, दाइ तरफवाला
आज है। वह
दुनिया में
सबसे बड़ा
ज्ञानी और सबसे
बड़ा रहस्यदश
है।
हसन तो
हैरान हो गया।
यह भी एक
साधारण आदमी
था। एक चमार
था जो जूते
बेचता था। यह पहलेवाले
आदमी से भी
साधारण था।
हसन ने तीसरी
रात फिर प्रार्थना
की कि
परमात्मा, तू मुझे और
उलझनों में
डाल रहा है।
पहले हम ज्यादा
सुलझे
हुए थे, तेरे
इन उत्तरों से
हम और मुसीबत
में पड़ गये। कैसे
पता लगे कि
कौन अच्छा है,
कौन बुरा है?
तो
तीसरे दिन
संदेश आया कि
जो बन्द हैं, उन्हें कुछ
भी पता नहीं
चलता। जो खुले
हैं, उन्हें
सब पता चल
जाता है। तू
एक बन्द आदमी
है, इसलिए
दोनों तरफ
तेरे पड़ोस में
लोग मौजूद हैं,
नरक और
स्वर्ग तेरे
पड़ोस में
मौजूद हैं और
तुझे पता नहीं
चला। तू बन्द
आदमी है। तू
खुला हो, तो
तुझे पता चल
जायेगा।
खुला
होना खोज है।
आपका
मस्तिष्क एक
खुला मस्तिष्क
हो, जिसमें
कहीं कोई
दरवाजे बन्द
नहीं, ताले
नहीं डाल रखे
हैं आपने, जहां
से हवाएं
गुजरती हैं
ताजी, रोज।
जहां सूरज की
किरणें
प्रवेश करती
हैं, जहां
चांद की
चांदनी भी आती
है। जहां
वर्षा हो तो
उसकी बूंदें
भी पड़ती हैं।
जहां धूप
निकले तो भीतर
रोशनी
पहुंचती है।
बाहर अंधेरा
हो तो अंधेरा
भी भीतर
प्रवेश करता
है। मन आपका
एक खुला आकाश
हो, तो सदगुरु
आपको चुन
लेगा।
सदगुरु
ही चुनता है।
एक
दूसरे मित्र
ने पूछा
है--जागृति की, होश की
साधना में भय
का जन्म हो
जाता है, और
हर समय डर
लगता रहता है
कि जीवन-चर्या
अस्त-व्यस्त न
हो जाये। फिर
ऐसा भी लगता
है कि क्रोध, काम आदि
उठते हैं, तो
कर लेने से
पांच-सात मिनट
में निपट जाते
हैं। उनसे
मुक्ति हो
जाती मालूम
पड़ती है। न
करो तो दिनों
तक उनकी
प्रतिध्वनि, उनकी तरंगें
भीतर गूंजती
रहती हैं। और
तब ऐसा लगता
है कि इससे तो
कर ही लिया
होता तो निपट गये
होते। तो क्या
करें? ऐसी
जागृति दमन
नहीं है?
दो
बातें हैं--एक
तो, अगर, जागृति
से क्रोध--जो
पांच मिनट में
निपट जाता है,
दो दिन चल
जाता है, तो
समझना कि वह
जागृति नहीं
है, दमन ही
है। क्योंकि
दमन से ही
चीजें फैल
जाती हैं। भोग
से भी ज्यादा
उपद्रव खड़ा हो
जाता है। अगर
कामवासना
उठती है और
क्षणभर में निपट
जाती है। और
जागृति से
दिनों सरकती
है और सघन
होने लगती है
और मन पर बोझ
बन जाती है, तो समझना कि
जागृति नहीं
है, दमन ही
है।
हममें
से बहुत से
लोग ठीक से
समझ नहीं पाते
कि जागृति और
दमन में क्या
फर्क है? उसे
समझ लें।
दमन का
मतलब है, जो
भीतर उठा है, उसे भीतर ही
दबा देना, बाहर
न निकलने
देना। भोग का
अर्थ है; उसे
बाहर निकलने
देना किसी पर।
फर्क समझ लें--दमन
का अर्थ है, अपने पर दबा
देना; भोग
का अर्थ है, दूसरे पर
निकाल लेना।
जागृति तीसरी
बात है--शून्य
में निकाल
लेना, न
अपने पर दबाना,
न दूसरे पर
निकालना।
शून्य में
निकाल लेना।
समझें--क्रोध
उठा, द्वार
बन्द कर लें, एक तकिया
अपने सामने रख
लें और तकिये
पर पूरी तरह
क्रोध निकाल
लें। जितनी आग
उबल रही हो, जो-जो करने
का मन हो रहा
हो, घूंसा
मारना हो, पीटना
हो तकिये को, पीटें। उसके ऊपर
गिरना हो, गिरें, चीड़ना-फाड़ना हो, चीड़ें-फाड़ें। काटना हो, काटें। जो
भी करना हो, पूरी तरह कर
लें। और यह
करते वक्त
पूरा होश रखें
कि मैं क्या
कर रहा हूं, मुझसे
क्या-क्या हो
रहा है।
इसको
ठीक से समझ
लें।
यह
करते वक्त पूरा
होश रखें कि
मेरे दांत
काटना चाह रहे
हैं और मैं
काट रहा हूं।
मन कहेगा कि
यह क्या
बचकानी बात कर
रहे हो, इसमें
क्या सार है? यह वह मन बोल
रहा है, जो
कह रहा है, असली
आदमी को काटो
तो सार है, असली
आदमी को मारो
तो सार है।
लेकिन आपको
पता है कि
घूंसा चाहे आप
तकिये में मारें
और चाहे असली
आदमी में, भीतर
की जो
प्रक्रिया है,
वह बराबर एकसी हो
जाती है, उसमें
कोई फर्क नहीं
है।
शरीर
में जो क्रोध
के अणु फैल
गये खून में, वह तकिये
में मारने से
भी उसी तरह
निकल जाते हैं
जैसा असली
आदमी में
मारने से
निकलते हैं। हां
असली आदमी में
मारने से
शृंखला शुरू
होती है, क्योंकि
अब उसका भी
क्रोध जगेगा।
अब वह भी आप पर
निकालना
चाहेगा।
तकिया बड़ा ही
संत है। वह आप
पर कभी नहीं
निकालेगा। वह
पी जायेगा।
अगर आप महावीर
को मारने
पहुंच जाते तो
जिस तरह वे पी जाते,
उसी तरह यह
तकिया पी
जायेगा। आपको
दबाना भी न
पड़ेगा, रोकना
भी नहीं पड़ेगा
और निकालने भी
किसी पर नहीं
जाना पड़ेगा।
इसको
ठीक से समझ
लें, तो
कैथार्सिस, रेचन की
प्रक्रिया
समझ में आ
जायेगी, रेचन
में ही जागरण
आसान है। यह
है रेचन, निकालना।
और आप सोचते
होंगे कि हमसे
नहीं निकलेगा
तो आप गलत
सोचते हैं।
मैं सैकड़ों
लोगों पर
प्रयोग करके
कह रहा हूं--आप
ही जैसे लोगों
पर, बहुत
दिल खोलकर
निकलता है। सच
तो यह है कि
दूसरे पर
निकालने में
थोड़ा दमन तो
हो ही जाता
है। पूरा नहीं
निकल पाता। तो
वह जो थोड़ा
दमन हो जाता
है, वह जहर
की तरह घूमता
रहता है।
दूसरे पर दिल
खोलकर कभी
निकाला ही
नहीं जा सकता,
क्योंकि
कितना ही बुरा
आदमी हो, फिर
भी दूसरे आदमी
के साथ कितना
निकाल सकता है।
एक
युवक पर मैं
प्रयोग कर रहा
था, तो वह
पहले तो हंसा।
उसने कहा कि
आप भी कैसी मजाक
करते हैं, तकिये
पर ! मैंने
उससे कहा, मजाक
ही सही, तुम
शुरू तो करो।
पहले तो वह
हंसा, थोड़ा
उसने कहा कि
यह तो एक्टिंग
हो जायेगी, अभिनय हो
जायेगा।
मैंने कहा, होने दो। दो
मिनट बाद गति
आनी शुरू हो
गयी। पांच
मिनट बाद वह
पूरी तरह
तल्लीन था।
पांच
दिन के भीतर
तो वह इतना
आनंदित था उस
तकिये के साथ, और उसने
मुझे तीसरे
दिन बताया कि
यह चकित होनेवाली
बात है। अब
मेरा क्रोध
मेरे पिता पर
है, सारा
क्रोध। और अब
मैं तकिये में
तकिये को नहीं
देख पाता, मुझे
पिता पूरी तरह
अनुभव होने
लगे। सातवें दिन
वह एक छुरा
लेकर आ गया।
मैंने कहा, यह छुरा किसलिए
ले आये हो? उसने
कहा कि अब
रोकें मत। जब
कर ही रहा हूं
तो अब पूरा ही
कर लेने दें।
जब इतना निकला
है, और मैं
इतना हल्का हो
गया हूं, तो
पिता की हत्या
करने का मेरे
मन में न
मालूम कितनी
दफे खयाल आया।
अपने को दबा
लिया हूं कि यह
तो बड़ी गलत
बात है, पिता
और हत्या !
वह
लड़का अमरीका
से
हिन्दुस्तान
आया सिर्फ इसलिए
कि पिता से
इतनी दूर चला
जाये कि कहीं
हत्या न कर
दे। फिर उसने
पिता की हत्या
कर दी सिंबालिक।
छुरा लेकर
उसने तकिये को
चीर फाड़
डाला, हत्या
कर डाली। उस
युवक का चेहरा
देखने लायक था।
जब वह पिता की
हत्या कर रहा
था और जब
मैंने उसे
आवाज दी कि अब
तू होशपूर्वक
कर, तो वह
दूसरा ही आदमी
हो गया, तत्काल।
इधर हत्या
चलती रही बाहर,
उधर भीतर एक
होश का दीया
भी जलने लगा।
वह अपने को
देख पाया।
अपनी पूरी
नग्नता में, अपनी पूरी
पशुता में। और
सात दिन के इस
प्रयोग के बाद
अब वह होश रख
सकता है क्रोध
में, अब
तकिये पर
मारने की
जरूरत नहीं
है। अब क्रोध
आता है तो आंख
बन्द कर लेता
है। अब वह
क्रोध को देख
सकता है सीधा।
अब तकिये के
माध्यम की कोई
जरूरत न रही।
क्योंकि असली
माध्यम से
नकली माध्यम
चुन लिया। अब
नकली माध्यम
से गैर-माध्यम
पर उतरा जा सकता
है।
तो
जिनको भी
क्रोध का दमन
करना हो, अगर
वे जागृति का
उपयोग कर रहे
हों तो उनको
जागृति से कोई
संबंध नहीं
है। वह सिर्फ
क्रोध को
दबाना चाह रहे
हैं। जिन्हें
क्रोध का विसर्जन
करना हो, उन्हें
क्रोध का
प्रयोग करना
चाहिए, क्रोध
पर ध्यान करना
चाहिए। अकेले
महावीर ने सारे
जगत में दो
ध्यानों की
बात की है, जिसको
किसी और ने
कभी ध्यान
नहीं कहा।
महावीर ने चार
ध्यान कहे
हैं। दो ध्यान,
जिनसे ऊपर
उठना है, और
दो ध्यान, जिनमें
जाना है।
दुनिया में
ध्यान की बात
करनेवाले
लाखों लोग हुए
हैं, लेकिन
महावीर ने जो
बात कही है वह
बिलकुल उनकी
है, वह
किसी ने भी
नहीं कही।
महावीर
ने कहा है, दो ध्यान
ऐसे, जिनके
ऊपर जाना है, और दो ध्यान
ऐसे, जिनमें
जाना है। तो
हम सोचते हैं,
ध्यान
हमेशा अच्छा
होता है।
महावीर ने कहा,
दो बुरे
ध्यान भी हैं।
उनको महावीर
कहते हैं, आर्त
ध्यान और
रौद्र ध्यान,
दो बुरे
ध्यान, यह
ठीक सन्तुलन
हो जाता है दो
भले ध्यान का।
भले ध्यान को
महावीर कहते हैं--धर्म
ध्यान और
शुक्ल ध्यान।
चार ध्यान हैं।
रौद्र ध्यान
का अर्थ है
क्रोध, आर्त
ध्यान का अर्थ
है दुख।
जब आप
दुख में होते
हैं तब आपको
पता है, चित्त
एकाग्र हो
जाता है। कोई
मर गया, उस
वक्त आपका
चित्त बिलकुल
एकाग्र हो
जाता है। आपका
प्रेमी मर
गया। जितना जिन्दे थे
वे, तब उन
पर कभी एकाग्र
नहीं हुआ। अब
मर गये तो उन पर
चित्त एकाग्र
हो जाता है।
अगर जिन्दे
थे, तभी
इतना चित्त
एकाग्र कर
लेते तो शायद
उन्हें मरना
भी न पड़ता
इतनी जल्दी !
लेकिन जिन्दे
में चित्त
कहीं कोई
एकाग्र होता
है? मर गये,
इतना धक्का
लगता है कि
सारा चित्त
एकाग्र हो
जाता है।
दुख
में आदमी
चित्त एकाग्र
कर लेता है।
क्रोध में भी
आदमी का चित्त
एकाग्र हो
जाता है। क्रोधी
आदमी को देखो, क्रोधी आदमी
बड़े ध्यानी
होते हैं। जिस
पर उनका क्रोध
है, सारी
दुनिया मिट
जाती है, बस
वही एक बिन्दु
रह जाता है।
और सारी शक्ति
उसी एक बिन्दु
की तरफ दौड़ने
लगती है।
क्रोध में
एकाग्रता आ
जाती है।
महावीर ने कहा
है, ये भी
दोनों ध्यान
हैं। बुरे
ध्यान हैं, पर ध्यान
हैं। अशुभ
ध्यान हैं, पर ध्यान
हैं। इनसे ऊपर
उठना हो तो
इनको करके इनमें
जागकर ही
ऊपर उठा जा
सकता है।
जब दुख
हो, द्वार
बन्द कर लें। दिल
खोलकर रोयें,
पीटें,
छाती पीटें,
जो भी करना
हो करें। किसी
दूसरे पर न
निकालें। हम
दुख भी दूसरे
पर निकालते
हैं। इसलिए
अगर लोगों की
चर्चा सुनो तो
लोग अपने दुख
एक दूसरे को
सुनाते रहते
हैं। यह
निकालना है।
लोगों की चर्चा
का नब्बे
प्रतिशत
दुखों की
कहानी है। अपनी
बीमारियां, अपने दुख, अपनी तकलीफें,
दूसरे पर
निकाल रहे
हैं।
मन--लोग
कहते हैं, कह देने से
हल्का हो जाता
है। आपका हो
जाता होगा, दूसरे का
क्या होता है,
इसका भी तो
सोचें। आप
हल्के
होकर
घर आ गये और
उनको जिनको
फंसा आये आप? इसलिए लोग
दूसरे के दुख
की बातें
सुनकर भी
अनसुनी करते
हैं, क्योंकि
वे अपना बचाव
करते हैं। आप
सुना रहे हैं,
वे सुन रहे
हैं, लेकिन
सुनना नहीं
चाहते।
जब
आपको लगता है
कि कोई आदमी
बोर कर रहा है
तो उसका कुल
मतलब इतना ही
होता है कि वह
कुछ सुनाना
चाह रहा है, निकालना चाह
रहा है, हल्का
होना चाह रहा
है और आप भारी
नहीं होना चाह
रहे हैं। आप
कह रहे हैं, क्षमा करो।
या यह हो सकता
है कि आप खुद
ही उसको बोर
करने का
इंतजाम किये
बैठे थे, वह
आपको कर रहा
है।
दुख भी
दूसरे पर मत
निकालें। दुख
को भी एकांत ध्यान
बना लें।
क्रोध भी
दूसरे पर मत
निकालें, एकांत
ध्यान बना
लें। शून्य
में होने दें
विसर्जन और
जागरूक
रहें--होशपूर्वक।
आप थोड़े ही
दिन में
पायेंगे कि एक
नयी जीवन दिशा
मिलनी शुरू हो
गयी, एक
नया आयाम खुल
गया। दो आयाम
थे अब तक--दबाओ,
या निकालो।
अब एक तीसरा
आयाम मिला, विसर्जन। यह
तीसरा आयाम
मिल जाये तो
ही आपका होश
सधेगा, और होश
से
अस्त-व्यस्तता
न आयेगी। और
जीवन ज्यादा
शांत, ज्यादा
मौन, ज्यादा
मधुर हो
जायेगा।
अगर
आपने दमन कर
लिया होश के
नाम पर, तो
जीवन ज्यादा
कड़वा, ज्यादा
विषाक्त हो
जायेगा। अगर
मुझसे पूछते हो
कि अगर भोग और
दमन में ही
चुनना हो तो
मैं कहूंगा, भोग चुनना, दमन मत चुनना।
क्योंकि दमन
ज्यादा
खतरनाक हैं।
उससे तो भोग
बेहतर। लेकिन
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
भोग चुनना। इन
दोनों से भी
बेहतर एक है
विसर्जन। अगर
विसर्जन चुन
सकें, तो
ही भोग छोड़ना।
अगर विसर्जन न
चुन सकें तो भोग
ही कर लेना
बेहतर है। तब
वह मित्र ठीक
कहते हैं कि
पांच मिनट में
क्रोध निकल
जाता है। फिर
देखेंगे जब
दुबारा, जब
दूसरा आदमी
निकालेगा, देखा
जायेगा।
फिलहाल शांति
हुई। लेकिन
अगर दबा लें
तो वह चौबीस
घण्टे चलता
है।
और
ध्यान रखें, कोई भी
दबायी हुई चीज
की मात्रा
उतनी ही नहीं रहती
जितनी आप
दबाते हैं। वह
बढ़ती है, भीतर
बढ़ती चली जाती
है। जैसे आप
पत्नी पर
नाराज हो गये।
अब आपने क्रोध
दबा लिया। अब
आप दफतर
गये, अब
चपरासी जरा सी
भी बात कहेगा,
जो कल
बिलकुल चोट
नहीं खाती, आज चोट दे
देगी। उसको भी
दबा गये। आपने
मात्रा बढ़ा
ली। अब आपका
मालिक बुलाता
है और कुछ
कहता है। वह
कल आपको बिलकुल
नहीं अखरती थी
उसकी बात, आज
उसकी आंख
अखरती है, उसका
ढंग अखरता है।
वह आपके भीतर
जो इकट्ठा है,
वह कलर दे
रहा है आपकी
आंखों को। रंग
दे रहा है। अब
उस रंग में सब
उपद्रव दिखाई
पड़ता है। यह आदमी
दुश्मन मालूम
पड़ता है। वह
जो भी कहता है,
उससे क्रोध
और बढ़ता है।
वह भी आपने
इकट्ठा कर
लिया।
वह
सुबह आप लेकर
पत्नी से चले
गये थे दफतर, सांझ जब आप
लौटते हैं तो
जो बीज था, वह
वृक्ष हो गया।
सुबह ही निकाल
लिया होता तो मात्रा
कम होती, सांझ
निकलेगा अब
मात्रा काफी
होगी। और यह अन्याययुक्त
होगा। सुबह तो
हो सकता था, न्यायपूर्ण
भी होता।
इसमें दूसरों
पर भी जो
क्रोध होता है,
वह भी
संयुक्त हो
गया।
दबायें
मत, उससे तो
भोग लेना
बेहतर है।
इसलिए जो लोग
भोग लेते हैं,
वे सरल लोग
होते हैं।
बच्चों को
देखें, उनकी
सरलता यही है।
क्रोध आया, क्रोध कर
लिया। खुशी
आयी खुशी कर
ली, लेकिन
खींचते नहीं।
इसलिए जो
बच्चा अभी
नाराज हो रहा
था कि दुनिया
को मिटा देगा,
ऐसा लग रहा
था, थोड़ी
देर बाद गीत
गुनगुना रहा
है। निकाल
दिया जो था, अब गीत
गुनगुनाना ही
बचा। आप न
दुनिया को
मिटाने लायक
उछल कूद करते
हैं और न कभी
तितलियों जैसा
उड़ सकते हैं
और न पक्षियों
जैसा गीत गा
सकते हैं। आप
अटके रहते हैं
बीच में।
धीरे-धीरे आप मिक्सचर, एक खिचड़ी
हो जाते हैं
सब चीजों की।
जिसमें न कभी
क्रोध निकलता
शुद्ध, न
कभी प्रेम
निकलता शुद्ध,
क्योंकि
शुद्ध कुछ
बचता ही नहीं।
सब चीजें मिश्रित
हो जाती हैं।
और यह जो
मिश्रित आदमी
है, यह
रुग्ण और
बीमार आदमी है,
पैथोलाजिकल
है। इसके
प्रेम में भी
क्रोध होता
है। इसके
क्रोध में भी
प्रेम भर जाता
है। यह अपने
दुश्मन से भी
प्रेम करने
लगता
है, अपने
मित्र से भी
घृणा करने
लगता है। इसका
सब एक दूसरे
में घोल-मेल
हो जाता है, इसमें कोई
चीजें साफ
नहीं होतीं।
बच्चे साफ होते
हैं। जो करते
हैं, उसी
वक्त कर लेते
हैं। फिर
दूसरी चीज में
गति कर जाते
हैं, फिर
पीछे नहीं ले
जाते। हम साफ
नहीं होते। और
जैसे-जैसे
आदमी बूढ़ा
होने लगता है
वैसे-वैसे सब
गड्ड-मड्ड हो
जाता है।
आत्मा नाम की
कोई चीज उनके
भीतर नहीं
रहती है--एक
गड्ड-मड्ड, कनफयूजन।
भोग चुन
लें, अगर दमन
करना हो तो।
दमन तो कतई
बेहतर नहीं है।
लेकिन भोग दुख
देगा। दमन दुख
देगा। भोग कम
देगा शायद, लम्बे अस
में देगा शायद,
टुकड़े-टुकड़े
में, खण्ड-खण्ड
में, अलग-अलग
मात्रा में
देगा शायद।
दमन इकट्ठा दे
देगा, भारी
कर देगा, लेकिन
दोनों
दुखदायी हैं।
मार्ग तो
तीसरा है, विसर्जन--न
भोग, न
दमन। यह जो
विसर्जन है, यह है शून्य
में
वृत्तियों का
रेचन, और
जब आप शून्य
में करते हैं
तो जागना आसान
है, जब आप
किसी पर करते
हैं तो जागना
आसान नहीं है।
जब आप किसी को
घूंसा मारते
हैं, तो
आपको दूसरे पर
ध्यान रखना
पड़ता है, क्योंकि
घूंसे का
उत्तर आयेगा।
जब आप तकिये
को घूंसा
मारते हैं तो
अपने पर पूरा
ध्यान रख सकते
हैं, क्योंकि
तकिये से कोई
घूंसा नहीं आ
रहा।
अपने
पर ध्यान रखें
और रेचन हो
जाने दें।
धीरे-धीरे
ध्यान बढ़ता
जायेगा और
रेचन की कोई
जरूरत न रह
जायेगी। एक
दिन आप
पायेंगे, भीतर
क्रोध उठता है,
होश भी साथ
में उठता है।
होश के उठते
ही क्रोध विसर्जित
हो जाता है।
अभी जिसे आप
होश समझ रहे
हैं वह होश
नहीं है, दमन
की ही एक
प्रक्रिया
है। रेचन के
माध्यम से होश
को साधें।
एक
छोटा-सा
प्रश्न और।
एक बहन
ने लिखा है कि
जब भी मैं आंख
बन्द करके शून्य
में खो जाना
चाहती हूं, तभी थोड़ी
देर शांति
महसूस होती है
और फिर भीतर
घना अंधेरा छा
जाता है।
प्रकाश का कब
अनुभव होगा? क्या कभी
कोई प्रकाश की
किरण दिखायी न
पड़ेगी?
थोड़ा
समझ लें पहली
तो बात यह, अंधेरा बुरा
नहीं है। और
ऐसी जिद्द
मत करें कि
प्रकाश का ही
अनुभव होना
चाहिए। आपकी
कोई भी जिद्द,
कि यह अनुभव
होना चाहिए, बाधा है
गहराई में
जाने में।
गहराई में
जाना हो तो जो
अनुभव हो, उसको
पूरे आनन्द से
स्वीकार कर
लेना चाहिए। अंधेरे
को स्वीकार कर
लें, अंधेरे
का अपना आनन्द
है। किसने कहा
कि अंधेरे में
दुख है? अंधेरे
की अपनी शांति
है, अंधेरे
का अपना मौन
है, अंधेरे
का अपना
सौन्दर्य है।
किसने कहा?
लेकिन
हम जीते हैं
धारणाओं में।
अंधेरे से हम डरते
हैं, क्योंकि
अंधेरे में
पता नहीं कोई
छुरा मार दे, जेब काट ले।
इसलिए बच्चे
को हम अंधेरे
से डराने लगते
हैं।
धीरे-धीरे
बच्चे का मन
निश्चित हो
जाता है कि
प्रकाश अच्छा
है, अंधेरा
बुरा है।
क्योंकि
प्रकाश में कम
से कम दिखायी
तो पड़ता है !
मैं एक
प्रोफेसर के
घर रुकता था।
उनका लड़का नौ
साल का हो
गया।
उन्होंने
मुझसे कहा कि
कुछ समझायें
इसको, इसको
रात में भी
पाखाना जाना
हो--पुराना
ढंग का मकान, बीच में आंगन,
उस तरफ
पाखाना--तो
इसके साथ जाना
पड़ता है। इतना
बड़ा हो गया, अब अकेला
जाना चाहिए।
रात में इसके
पीछे कोई जाये
और दरवाजे के
बाहर खड़ा रहे
तो ही यह जा
सकता है। तो
मैंने उस लड़के
से कहा कि अगर
तुझे अंधेरे
का डर है तो
लालटेन लेकर
क्यों नहीं
चला जाता? उस
लड़के ने कहा, खूब कह रहे
हैं आप।
अंधेरे में तो
मैं किसी तरह
भूत-प्रेत से
बच जाता हूं, लालटेन में
तो वे सब मुझे
देख ही लेंगे।
अंधेरे में तो
मैं ऐसा चकमा
देकर, इधर-उधर
से निकल जाता
हूं।
धारणाएं
बचपन से हम
निर्मित करते
जाते हैं, कुछ भी, चाहे
भूत-प्रेत की,
चाहे प्रकाश
की, चाहे
अंधेरे की।
फिर वे
धारणाएं
हमारे मन में गहरी
हो जाती हैं।
फिर जब हम
अध्यात्म की
खोज में चलते
हैं तब भी
उन्हीं
धारणाओं को
लेकर चलते
हैं। उससे भूल
होती है। न तो
परमात्मा के लिए
अंधेरे से कोई
विरोध है, न
प्रकाश से कोई
लगाव है।
परमात्मा
दोनों में एक-सा
मौजूद है। जिद्द
मत करें कि
हमें प्रकाश
ही चाहिए। यह जिद्द
बचकानी है।
यह
जानकर आपको
हैरानी होगी
कि प्रकाश से
ज्यादा शांति
मिल सकती है
अंधेरे में, क्योंकि
प्रकाश में
थोड़ी
उत्तेजना है,
अंधेरा
बिलकुल ही
उत्तेजना
शून्य है। और
प्रकाश में तो
थोड़ी चोट है, अंधेरा
बिलकुल ही
अहिंसक है।
अंधेरा कोई
चोट नहीं करता।
और प्रकाश की
तो सीमा है, अंधेरा असीम
है। और प्रकाश
को तो कभी करो,
फिर बुझ
जाता है।
अंधेरा सदा है,
शाश्वत है।
तो क्या
घबराहट
अंधेरे से?
प्रकाश
को जलाओ, बुझाओ,
लेकिन
अंधेरा न जलता,
न बुझता, वह सदा है।
थोड़ी देर
प्रकाश जला
लेते हैं, वह
दिखायी नहीं
पड़ता। फिर
प्रकाश बुझा,
अंधेरा
अपनी जगह ही
था। आप भ्रम
में पड़ गये थे।
बड़े-बड़े सूरज
जलते हैं और
बुझ जाते हैं,
अंधेरे को
मिटा नहीं
पाते। वह है।
फिर प्रकाश तो
कहीं न कहीं
सीमा बांधता
है। अंधेरा
असीम है, अनन्त
है। क्या
घबराहट, अंधेरे
से?
छोड़
दें अंधेरे
में अपने को।
अगर ध्यान में
अंधेरा आ जाता
है, लीन हो
जायें अंधेरे
में। जो
व्यक्ति
अंधेरे में भी
लीन होने को
राजी है, उसे
प्रकाश तो
दिखाई नहीं
पड़ेगा, लेकिन
स्वयं का
अनुभव होना
शुरू हो
जायेगा, वही
प्रकाश है।
जो
अंधेरे में भी
लीन होने को
राजी है, उसने
परम समर्पण कर
दिया। वह एक
होने को राजी हो
गया, अनन्त
के साथ। यह जो
अनुभव है एक
हो जाने का, उसको ही
सिम्बालिक
रूप से प्रकाश
कहा है, ज्योति
कहा है। इन
शब्दों में मत
पड़ें, इन
शब्दों का कोई
अर्थ नहीं है।
ईसाई फकीर अकेले
हुए हैं
दुनिया में जिन्होंने
अंधेरे को आदर
दिया है, और
उन्होंने कहा
है, "डार्क नाइट आफ दि
सोल।' जब
आदमी ध्यान
में जाता है
तो आत्मा की
अंधेरी रात से
गुजरता है। वह
परम सुहावनी
है। है भी। कोई
भय न लें।
ध्यान
में जो भी
अनुभव आये, उस पर आप
अपनी अपेक्षा
न थोपें
कि यह अनुभव
होना चाहिए।
जो अनुभव आये,
उसे
स्वीकार कर
लें, और
आगे बढ़ते
जायें।
अंधेरे के साथ
दुश्मनी छोड़
दें। जिसने
अंधेरे के साथ
दुश्मनी छोड़
दी, उसे
प्रकाश मिल
गया। और जिसने
अंधेरे से
दुश्मनी
बांधी, वह
झूठा, कल्पित
प्रकाश बनाता
रहेगा। लेकिन
उसे असली प्रकाश
कभी भी मिल
नहीं सकता।
क्यों? क्योंकि
अंधेरा
प्रकाश का ही
एक रूप है। और
प्रकाश भी
अंधेरे का ही
एक छोर है। ये
दो चीजें नहीं
हैं। इनको दो
मानकर मत
चलें। यह
द्वैत छोड़
दें।
परमात्मा
अंधेरा दे रहा
है तो अंधेरा
सही, परमात्मा
रोशनी दे रहा
है तो रोशनी
सही। हमारा
कोई आग्रह
नहीं। वह जो
दे, हम
उसके लिए राजी
हैं। ऐसे राजीपन
का नाम ही
समर्पण है।
अब
सूत्र।
"जिस
साधक की आत्मा
इस प्रकार दृढ़निश्चयी
हो कि देह भले
चली जाये, पर
मैं अपना
धर्म-शासन
नहीं छोड़ सकता,
उसे
इंद्रियां
कभी भी विचलित
नहीं कर
पातीं। जैसे
भीषण बवंडर भी
सुमेरु पर्वत
को विचलित नहीं
कर सकता।'
इस
सूत्र के कारण
बड़ी
भ्रांतियां
भी हुई हैं। ऐसे
सूत्र कुरान
में भी मौजूद
हैं, ऐसे
सूत्र गीता
में भी मौजूद
हैं, और उन
सबने दुनिया
में बड़ा
उपद्रव पैदा
किया है। उनका
अर्थ नहीं
समझा जा सका, और उनका
अनर्थ समझा
गया। इस तरह
के सूत्रों की
वजह से अनेक
लोग सोचते हैं
कि अगर कोई
धर्म पर खतरा
आ जाये धर्म
पर--मतलब
हिन्दू धर्म
पर, जैन
धर्म पर--तो
अपनी जान दे
दो। क्योंकि
महावीर ने कहा
कि चाहे देह
भले चली जाये,
मैं अपना
धर्म-शासन
नहीं छोड़
सकता।
तो
अनेक शहीद हो
गये नासमझी
में। वे यह
सोचते हैं कि
जैन धर्म छोड़
नहीं सकता, चाहे देह
चली जाये। और
मजा यह है कि
जैन धर्म पकड़ा
कभी है ही
नहीं, छोड़ने
से डर रहे
हैं। सिर्फ
जैन घर में
पैदा हुए हैं,
पकड़ा कब था
जो आपसे छूट
जायेगा? हिन्दू
धर्म नहीं छोड़
सकते, बस !
जब छोड़ने का
सवाल आता है, तभी पकड़ने
का पता चलता
है, और कभी
पता नहीं चला।
मस्जिद में नहींजा
सकते, क्योंकि
हम मन्दिर में
जानेवाले हैं,
लेकिन
मन्दिर में
गये कब? मन्दिर
में जाने की
कोई जरूरत
नहीं, जब
मस्जिद से
झंझट हो तभी
मन्दिर का
खयाल आता है।
इसलिए
बड़ा मजा है।
जब
हिन्दू-मुस्लिम
दंगे होते हैं, तब ही पता
चलता है कि
हिन्दू कितने
हिन्दू, मुस्लिम
कितने
मुस्लिम। तभी
पता चलता है
कि सच्चे
धार्मिक कौन
हैं। वैसे कोई
पता नहीं चलता।
मामला
क्या है? जिस
धर्म को आपने
कभी पकड़ा ही
नहीं, उसको
छोड़ने का कहां
सवाल उठता है?
जन्म से कोई
धर्म नहीं
मिलता, क्योंकि
जन्म की
प्रक्रिया से
धर्म का कोई
संबंध ही नहीं
है। जन्म की
प्रक्रिया है बायोलाजिकल,
जैविक।
उसका धर्म से
कोई संबंध
नहीं है। आपके
बच्चे को
मुसलमान के घर
में बड़ा किया
जाये, मुसलमान
हो जायेगा, हिन्दू के
घर में बड़ा
किया जाये
हिन्दू हो जायेगा।
ईसाई के घर
में बड़ा किया
जाये ईसाई हो
जायेगा। यह जो
धर्म मिलता है,
यह तो
संस्कार है, शिक्षा है
घर की। इसका
जन्म से, खून
से कोई
लेना-देना
नहीं है। ऐसा
नहीं है कि आपके
बच्चे को, पहले
दिन पैदा हो
और ईसाई घर
में रख दिया
जाये तो कभी
वह पता लगा ले
कि मेरा खून
हिन्दू का है।
इस भूल में मत पड़ना।
लोग
बड़ी भूलों में
रहते हैं।
माताएं कहती
हैं लड़के से
कि मेरा खून।
और बच्चा पैदा
हो, जैसे मेटरनिटी
होम में बच्चे
पैदा होते हैं,
बीस बच्चे
एक साथ रख
दिये जायें जो
अभी पैदा हुए
हैं और बीसों
माताएं छोड़ दी
जायें, एक
न खोज पायेगी
कि कौनसा
बच्चा उसका
है। आंख बन्द
करके बच्चे
पैदा करवा दिये
जायें, बीसों
बच्चे रख दिये
जायें, बीसों
माताओं को छोड़
दिया जाये, एक मां न खोज
पायेगी कि कौन
सा खून उसका
है। कोई उपाय
नहीं है।
खून का
आपको कोई पता
नहीं चलता, सिर्फ दिये
गये शिक्षाओं
और संस्कारों
का पता चलता
है। खोपड़ी में
होता है धर्म,
खून में
नहीं। तो जिसको
मिला मौका
आपकी खोपड़ी
में डालने का
धर्म, वही
धर्म आपका हो
जाता है। यह
सिर्फ अवसर की
बात है। लेकिन
इससे कोई पकड़
भी पैदा नहीं
होती, क्योंकि
जो धर्म मुफत
मिल जाता है, वह धर्म कभी
गहरा नहीं
होता। जो धर्म
खोजा जाता है,
और जिसमें
जीवन
रूपांतरित
किया जाता है,
और इंच-इंच
श्रम किया
जाता है, वह
धर्म होता है।
तो
महावीर कहते
हैं, दृढ़
निश्चयी की
आत्मा ऐसी
होती है कि
देह भली चली
जाये, धर्म-शासन
नहीं छोड़
सकता।
धर्म-शासन
का अर्थ है कि
वह जो अनुशासन, मैंने
स्वीकार किया
है। वह जो
विचार, वह
जो साधना, वह
जो जीवन
पद्धति मैंने
अंगीकार की है,
उसे मैं
नहीं
छोडूंगा।
शरीर तो आज है,
कल गिर
जायेगा।
लेकिन वह जो
मैंने जीवन को
रूपांतरित
करने की
कीमिया खोजी
है, उसे
मैं नहीं
छोडूंगा।
बुद्ध
को ध्यान हुआ, परम ज्ञान
हुआ। उस दिन
सुबह वे बैठ
गये थे वृक्ष
के तले और
उन्होंने कहा
था अपने मन
में, सब हो
चुका, कुछ
होता नहीं। अब
तो सिर्फ इस
बात को लेकर
बैठता हूं इस
वृक्ष के नीचे
कि अगर कुछ भी
न हुआ तो अब उठूंगा
भी नहीं यहां
से। फिर सब
करना छोड़कर वे
वहीं लेट गये।
फिर उन्होंने
कहा, अब उठूंगा
नहीं, अब
बात खत्म हो
गयी। अब सब
यात्रा ही
व्यर्थ हो गयी
तब इस शरीर को
भी क्यों
चलाये फिरना?
कहीं कुछ
मिलता भी नहीं,
तो अब जाना
कहां है? कुछ
करने से कुछ
होता भी नहीं,
तो अब करने
का भी क्या
सार है? अब
कुछ भी न
करूंगा, मैं
जिन्दा ही
मुर्दा हो
गया। अब तो इस
जगह से न हटूंगा।
यह शरीर यहीं सड़ जाये, गल जाये, मिट्टी
में मिल जाये।
उसी रात ज्ञान
की किरण जग
गयी। उसी रात दीया
जल उठा। उसी
रात उस महासूर्य
का उदय हो
गया। क्या हुआ
मामला? पहली
दफा, आखिरी
चीज दांव पर
लगा दी। आखिरी
दांव लगाते ही
घटना घट जाती
है।
हम
दांव पर भी
लगाते हैं तो
बड़ी छोटी-मोटी
चीजें लगाते
हैं। कोई कहता
है कि आज
उपवास
करेंगे। क्या
दांव पर लगा
रहे हैं? इससे
आपको लाभ ही
होगा, दांव
पर क्या लगा
रहे हैं? क्योंकि
गरीब आदमी तो
उपवास वगैरह
करते नहीं।
ज्यादा जो खा
जाते हैं, ओवर
फैड, वे
करते हैं। तो
आपको थोड़ा लाभ
ही होगा।
डाक्टर
कहेंगे, अच्छा
ही हुआ, कर
लिया। थोड़ा
ब्लड प्रेशर
कम होगा, उम्र
थोड़ी बढ़
जायेगी।
यह बड़े
मजे की बात है, जिन समाजों
में ज्यादा
भोजन उपलब्ध
है, वे ही
उपवास को धर्म
मानते हैं।
जैसे जैनी, वे उपवास को
धर्म मानते
हैं। इसका
मतलब, ओवर फैड लोग
हैं। ज्यादा
खाने को मिल
रहा है, इसलिए
उपवास में
धर्म दिखायी
पड़ा है। गरीब
आदमी का धर्म
देखा? जिस
दिन धर्म दिन
होता है, उस
दिन वह मालपुआ
बनाता है।
गरीब आदमी का
धर्म का दिन
होता है भोजन
का उत्सव।
अमीर आदमी के
धर्म का दिन
होता है, अनशन।
ये दोनों ठीक
हैं, बिलकुल,
लाजिकल हैं। होना
भी ऐसा ही
चाहिए। होना
भी यही चाहिए,
क्योंकि सालभर तो
मालपुआ गरीब
आदमी खा नहीं
सकता, धर्म
के दिन ही खा
सकता है। जो सालभर
मालपुआ खाते
हैं इनके लिए
धर्म के दिन
ये क्या
खायेंगे, कोई
उपाय नहीं।
उपवास कर सकते
हैं। कुछ नया
कर लेते हैं।
लोग
कहीं उपवास
करके दांव पर
लगाते हैं।
कोई टुच्ची
चीजें छोड़ते
रहता है। कोई
कहता है, नमक
छोड़ दिया। कोई
कहता है, घी
छोड़ दिया।
इनसे कुछ भी न
होगा। ये दांव
दांव
नहीं हैं, धोखे
हैं। यह ऐसा
है जैसा एक करोड़पति
जुआ खेल रहा
हो और एक कौड़ी
दांव पर लगा
दे, ऐसा।
जुए का मजा ही
नहीं आयेगा।
जुए का मजा ही तब
है कि करोड़पति
सब लगा दे। और
एक क्षण को ऐसी
जगह आ जाये कि
अगर हारा तो
भिखारी होता
हूं। उस क्षण
में जुआ भी
ध्यान बन जाता
है। उस क्षण
में सब विचार
रुक जाते हैं।
आपको
जानकर हैरानी
होगी, जुए
का मजा ही यही
है कि यह भी एक
ध्यान है। जब
पूरा दांव पर
कोई लगाता है,
तो छाती की
धड़कन रुक जाती
है एक सेकेंड
को कि अब क्या
होता है; इस
पार या उस पार,
नरक या
स्वर्ग, दोनों
सामने होते
हैं और आदमी
बीच में हो
जाते हैं। सस्पेन्स
हो जाता है, सारा विचार,
चिंतन बन्द
हो जाता है।
प्रतीक्षा भर
रह जाती है कि
अब क्या होता
है। सब कंपन
रुक जाता है, श्वास रुक
जाती है कि
कहीं श्वास के
कारण कोई गड़बड़
न हो जाये। उस
क्षण में, जो
थोड़ी सी शांति
मिलती है, वही
जुए का मजा
है। इसलिए जुए
का इतना
आकर्षण है।
और जब
तक सारी
दुनिया ध्यान
को उपलब्ध
नहीं होती, तब तक जुआ
बन्द नहीं हो
सकता क्योंकि
जिनको ध्यान
का कोई अनुभव
नहीं, वह
अलग-अलग
तरकीबों से ध्यान
की झलक लेते
रहते हैं, जुए
से भी मिलती
है झलक। पर
झलक काहे की? दांव की।
धर्म भी एक
बड़ा दांव है।
महावीर
कहते हैं, शरीर चाहे
चला जाये, लेकिन
वह जो धर्म का
अनुशासन
मैंने
स्वीकार किया
है, उसे
मैं नहीं छोड़ूंगा।
ऐसा जो दृढ़
निश्चय कर
लेता है, ऐसा
जो संकल्प कर लेता
है, उसे
फिर
इंद्रियां
कभी भी विचलित
नहीं कर पातीं,
जैसे
सुमेरु पर्वत
को हवाओं के
झोंके विचलित नहीं
कर पाते।
शरीर
को कहा है नाव, जीव को कहा
नाविक, संसार
को कहा है
समुद्र। इस
संसार-समुद्र
को महर्षिजन
पार कर जाते
हैं।
शरीर
को कहा है
नाव।
इस वचन
को समझ लेना
ठीक से।
क्योंकि
महावीर को माननेवाले
भूल गये मालूम
होता है इस
वचन को। अगर
शरीर है नाव, तो नाव
मजबूत होनी
चाहिए, नहीं
तो सागर पार
नहीं होगा।
देखो
जैन-साधुओं के
शरीर। कोई
उनकी नाव मैं
बैठने को
तैयार भी न हो
कि कहां डुबा
दें, कुछ
पता नहीं।
डूबी हालत ही
है उनकी। और
शरीर का वह एक
ही उपयोग कर
रहे हैं जैसे
कोई नाव का
उपयोग कर रहा
हो, उसमें
और छेद करता
चला जाये।
इसको हम
तपश्चर्या
कहते हैं।
महावीर नहीं
कह सकते, क्योंकि
महावीर कहते
हैं, शरीर
है नाव।
नाव तो
स्वस्थ होनी
चाहिए--अछिद्र।
उसमें कोई छेद
नहीं होना
चाहिए। बीमारी
छेद है। शरीर
तो ऐसा स्वस्थ
होना चाहिए कि
उसपार तक
ले जा सके।
महावीर के पास
ऐसा शरीर था।
लेकिन कहीं
कोई भूल हो
गयी है। उनका माननेवाला
शरीर का
दुश्मन हो गया
है। वह समझता
है गलाओ
शरीर को, मिटाओ शरीर को।
जितना मिटाये,
उतना बड़ा
आदमी है। अगर
भक्तों को पता
चल जाये कि
थोड़ा ठीक से
खाना खा रहे
हैं उनके गुरु,
तो
प्रतिष्ठा
चली जाती है।
अगर भक्तों को
पता चल जाये
कि थोड़ा ठीक
से विश्राम कर
लेते हैं लेटकर,
तो सब गड़बड़
हो जाता है।
तो अगर जैन
साधुओं को ठीक
से लेटना भी
हो, ठीक से
भोजन भी करना
हो, उसके
लिए भी चोरी
करनी पड़ती है।
क्योंकि वह जो
भक्त-गण हैं
चारों तरफ, दुश्मन की
तरह लगे हैं।
वे पता लगा
रहे हैं, क्या
कर रहे हो, क्या
नहीं कर रहे
हो।
एक
दिगम्बर जैन
मुनि एक गांव
में ठहरे थे।
तो दिगम्बर
जैन मुनि तो
किसी चीज पर
सो नहीं सकता--किसी
वस्त्र पर, बिस्तर
पर--किसी चीज
पर सो नहीं
सकता। सर्द
रात्रि थी। तो
क्या किया जाये,
तो दरवाजा
बन्द कर दिया
जाता है, थोड़ी-बहुत
गम हो जाये।
और किस तरह के
पागलपन चलते
रहते हैं।
घासफूस डाल
दिया जाता है
कमरे में, वह
भी भक्त गण
डालते हैं।
क्योंकि अगर
मुनि खुद कहे
कि घास-फूस
डाल दो, तो
उसका मतलब हुआ,
तुम शरीर के
पीछे पड़े हो? तुम्हें
शरीर का मोह
है। जब आदमी
आत्मा ही है, तो फिर क्या
सद और क्या
गम। तो पुआल
डाल देते हैं।
लेकिन वह पुआल
भी भक्त ही
डालें। वह
मुनि कह नहीं
सकता कि तुम
डाल दो। डली
है, इसलिए
मजबूरी में उस
पर सो जाता
है।
मैं उस
गांव में था, मुझे पता
चला कि रात
में जिन
भक्तों ने
पुआल डाली थी,
वे जाकर देख
भी आते हैं कि
पुआल ऊपर तो
नहीं कर ली, नीचे डली
रहे। ऐसे
दुष्ट भक्त भी
मिल जाते हैं
कि वह पुआल
कहीं ऊपर तो
नहीं कर दी।
नहीं की हो तो
निश्चिंत लौट
आते हैं कि
ठीक आदमी है।
अगर कर ली हो, तो सब
भ्रष्ट हो
जाता है।
ऐसा
होता है कि
पर-दुख का रस
है। और पर-दुख
का जिनको रस
है वे वैसे
आदमी को आदर
दे सकते हैं, जिसको
स्व-दुख का रस
हो। अगर इसको
मनोविज्ञान की
भाषा में कहें,
तो दो तरह
के लोग हैं
दुनिया में, सैडिस्ट और मैसोचिस्ट।
सैडिस्ट
वे लोग हैं जो
दूसरे को दुख
देने में मजा
लेते हैं, और
मैसोचिस्ट
वे लोग हैं जो
खुद को दुख
देने में मजा
लेते हैं। ऐसा
मालूम पड़ता है
कि
हिन्दुस्तान
में इन दोनों
के बड़े
ताल-मेल हो
गये हैं। मैसोचिस्ट
हो गये हैं
गुरु और सैडिस्ट
हो गये हैं
शिष्य।
तो
गुरु को कितनी
तकलीफ--गुरु
अपने हाथ सिर
उठा रहा है, उतना शिष्य
चर्चा करते
हैं कि क्या
तुम्हारा गुरु,
हमारा गुरु
तो कांटों पर
सोया हुआ है।
जैसे कि यह
कोई सर्कस है।
यहां कौन कहां
सोया हुआ है, इसका सब
निर्णय
होनेवाला है।
कौन खा रहा है,
कौन नहीं खा
रहा है, इसका
निर्णय
होनेवाला है।
कौन पानी पी
रहा है, कौन
नहीं पी रहा
है, इसका
निर्णय
होनेवाला है।
निर्णायक एक
ही बात है कि
शरीर की कौन
कितनी बुरी
तरह से हिंसा
कर रहा है।
महावीर
का यह मतलब
नहीं हो सकता।
महावीर कहते हैं, शरीर को
कहता हूं नाव।
इससे ज्यादा
आदर शरीर के
लिए और क्या
होगा? क्योंकि
नाव के बिना
नदी पार नहीं
हो सकती।
इसलिए शरीर
मित्र है, शत्रु
नहीं। शरीर
साधन है, शत्रु
नहीं। शरीर
मार्ग है, शत्रु
नहीं। शरीर
उपकरण है, शत्रु
नहीं। और
उपकरण का जैसा
उपयोग करना
चाहिए वैसा
शरीर का उपयोग
करना चाहिए।
कि कोई कहे कि
कार से पार
करनी है
यात्रा और
पेट्रोल हम देंगे
न कार को। कोई
कहे कि शरीर
से करनी है
यात्रा और भोजन
डालेंगे न
शरीर में, तो
फिर वह शरीर
के यंत्र को
नहीं समझ पा
रहा है।
महावीर
ने कहा है कि
किसी भी दिशा
में असंतुलित
न हो जाओ, न
तो इतना भोजन
डाल दो कि नाव
भोजन से ही
डूब जाये, और
न इतना अनशन
कर दो कि नाव
के प्राण बीच
नदी में ही
निकल जायें।
सम्यक--इतना
जितना पार
होने में
सहयोगी हो, बोझ न बने।
इतना कम भी
नहीं कि अशक्य
हो जाये और
बीच में डूब
जाये। सम्यक
भाव शरीर के
प्रति हो, और
शरीर का पूरा
ध्यान रखना
जरूरी है।
"जीव
को नाविक और
संसार को
समुद्र।'
वह जो
भीतर बैठी हुई
आत्मा है, वह जो चेतना
है, वह है
यात्री। और
सारा संसार है
समुद्र, उससे
पार होना है।
वह बुरा है, ऐसा नहीं
है। उसके साथ
कोई दुर्भाव
पैदा करना है,
ऐसा भी
नहीं। लेकिन
वहां कोई
किनारा नहीं
है, वहां
कोई विश्राम
की जगह नहीं
है। वहां
अशांति रहेगी,
तूफान
रहेंगे, आंधियां
रहेंगी। अगर आंधियों, अशांतियों और दुखों और पीड़ाओं से
बचना हो तो इस
संसार सागर को
पार करके, तट
पर पहुंच जाना
चाहिए, जहां
आंधियों
और तूफानों
का कोई प्रभाव
नहीं है। और
जब तक कोई
सागर में है
तब तक डूबने
का डर बना ही
रहेगा, कितनी
ही अच्छी नाव
हो। नाव पर ही डूबना,
न डूबना
निर्भर नहीं
है, सागर
की उत्ताल
तरंगें भी
हैं। भयंकर
आघात होते हैं,
तूफान हैं,
आंधियां
उठती हैं, वर्षा
आती है। इससे
जितनी जल्दी
कोई पार हो सके।
अगर हम
इस प्रतीक को
ठीक से समझें
और अपने चारों
तरफ संसार को
देखें तो वहां
क्रोध है, दुख है, पीड़ा
है, संताप
है, उपद्रव
ही उपद्रव है।
और हम उसके
बीच में खड़े हैं।
और यह एक शरीर
ही मार्ग है
जिससे हम उसके
पार उठ सकें।
अगर
संसार को कोई
समुद्र की तरह
देख पाये तो बराबर
समुद्र की तरह
दिखाई पड़ेगा।
और महावीर के
समय में तो
छोटा-मोटा
समुद्र था, अब तो बड़ा
समुद्र दिखायी
पड़ता है।
महावीर के
जमाने में
भारत की आबादी
भी दो करोड़
से ज्यादा
नहीं थी। अब
भारत दुनिया
को मात किये
दे रहा है, आबादी
में। अब ऐसा
समझो, जमीन
हमने बचने
नहीं दी, समुद्र
ही समुद्र हुआ
जा रहा है।
सारी दुनिया की
आबादी साढ़े
तीन अरब हो
गयी है। इस
सदी के पूरे होते-होते
भारत की ही
आबादी एक अरब
होगी। आदमियों
का सागर है।
और आदमियों के
सागर में, आदमियों
की वृत्तियों,
इनिदरयों,
क्रोध, रोष,
मान, अपमान,
इन सबका
भयंकर
झंझावात है।
अगर
महावीर इस
सागर को देखें
तो वे कहें, अब जरा नाव
को और ठीक से
संभालना।
क्योंकि आदमी
अकेला पैदा
नहीं होता, अपने सारे
पाप, अपने
सारे रोग, अपनी
सारी
वृत्तियों को
लेकर पैदा
होता है। और
हर आदमी इस
पूरे सागर में
तरंगें पैदा
करता है। जैसे
मैं सागर में
एक पत्थर फेंक
दूं, तो वह
एक जगह गिरता
है, लेकिन
उसकी लहरें
पूरे सागर को
छूती हैं। जब
एक बच्चा इस
जगत में पैदा
होता है तो एक
पत्थर और
गिरा। उसकी लहरें
सारे जगत को
छूती हैं। वह
हिटलर बनेगा,
कि मुसोलिनी
बनेगा, कि तोजो
बनेगा, कि
क्या बनेगा, कुछ कहा
नहीं जा सकता।
उसकी लहरें
सारे जगत को कंपायेंगी।
यह जो
सागर है हमारा, इसको महर्षिजन
पार कर जाते
हैं।
सांसारिक आदमी
और धार्मिक
आदमी में एक
ही है फर्क।
सांसारिक
आदमी वह है जो
इस सागर में
गोल-गोल चक्कर
काटता रहता
है। कभी आपने
नाव देखी? उसमें
दो डांड
लगाने पड़ते
हैं। एक डांड
बन्द कर दें
और एक ही डांड
चलायें, तब आपको पता
लगेगा कि
सांसारिक
आदमी कैसा होता
है। एक ही डांड
चलायें
तो नाव
गोल-गोल चक्कर
खायेगी।
जगह वही रहेगी,
यात्रा
बहुत होगी।
पहुंचेंगे
कहीं भी नहीं,
लेकिन
पसीना काफी झरेगा।
लगेगा कि
पहुंच रहे हैं,
और गोल-गोल
चक्कर
खायेंगे।
आपकी
जिन्दगी गोल
चक्कर तो नहीं
है? एक व्हिशियस
सर्कल तो नहीं
है? क्या
कर रहे हैं आप,
गोल-गोल घूम
रहे हैं? कल
जो किया था, वही आज भी कर
रहे हैं, वही
परसों भी किया
था, वही
पूरी जिन्दगी
किया है
रोज-रोज, वही
और जिन्दगियों
में भी किया
है। एक ही नाव
का डांड
मालूम पड़ती चल
रही है और आप
गोल-गोल घूम
रहे हैं।
धार्मिक
आदमी गोल नहीं
घूमता, एक
सीधी रेखा में
तट की तरफ
यात्रा करता
है। दोनों डांड
हाथ में होने
चाहिए, दोनों
पतवार। न तो
बायें झुकें,
और न दायें।
ठीक से समझ
लें, यही
संयम का अर्थ
है। अगर नाव
को बिलकुल ठीक
चलाना हो तो
दोनों साधने
पड़ेंगे, न
बायें झुक
जाये नाव, न
दायें। जरा
दायें झुके तो
बायें झुका
लें, जरा
बायें झुके तो
दायें झुका
लें और बीच
सीधी रेखा में
लीनियर, एक रेखा में
यात्रा करें।
तो आप किसी
दिन तट पर
पहुंच
पायेंगे।
संयम
का इतना ही
अर्थ है कि
दोनों तरफ विषमताएं
हैं। भोग की
है, त्याग की
है, दोनों
के बीच संयम
है। नरक की, स्वर्ग की
दोनों के बीच
संयम। सुख की,
दुख की, दोनों
के बीच संयम।
शत्रु भी
झुकाते हैं।
मित्र भी
झुकाते हैं।
दोनों के बीच
संयम है। कोई न
झुका पाये और
आपकी नाव बीच
में चल पाये।
ऐसा अगर आप
बीच में नाव
को चला सकें
सीधी रेखा में,
तो किसी दिन
आप तट पर
पहुंच सकते हैं।
लेकिन सीधी
रेखा में चलने
वाले आदमी के
अनुभव बदल
जायेंगे।
उसके जीवन में
पुनरुक्ति नहीं
होनी चाहिए।
जिसके जीवन
में
पुनरुक्ति हो रही
है, वह
आदमी गोल-गोल
घूम रहा है।
लेकिन इसका
मतलब यह मत
समझना आप कि
रोज नया भोजन
होगा तो पुनरुक्ति
न होगी। कि
रोज नये कपड़े
पहन लेंगे तो
पुनरुक्ति न
होगी।
कपड़े-भोजन का
सवाल नहीं है,
वृत्ति का
सवाल है। आपकी
वृत्तियां
पुनरुक्ति
में तो नहीं
घूम रही हैं। सरकुलर तो
नहीं है, इसका
ध्यान रखना
चाहिए।
कभी
आपने खयाल
किया कि जब भी
आप क्रोध करते
हैं, फिर वैसे
ही करते हैं
जैसा पहले
किया था। कुछ
भी न सीखा
जीवन से। जब
फिर प्रेम में
गिरते हैं तब
फिर वैसे ही
गिरते हैं
जैसे पहले
गिरे थे। फिर
वही बातें
करने लगते हैं
जो पहले करके उपद्रव
खड़ा कर चुके
हैं। फिर वही मूढ़ता, फिर
पुनरुक्ति कर
रहे हैं आप।
जिंदगी को
थोड़ा जांचें,
पीछे लौटकर
एक नजर फेकें।
जिन्दगी पर एक
सर्च लाइट
फेंकना जरूरी
है पीछे
जिन्दगी पर।
उसमें देखें
कि आप जिंदगी
जी रहे हैं कि चक्कर
में घूम रहे
हैं। अगर आप
चक्कर में घूम
रहे हैं तो
समझें कि यही
संसार है।
हम
संसार का अर्थ
ही चक्कर करते
हैं। इस मुल्क
में हमने
संसार शब्द को
ही इसलिए चुना
है। संसार का
मतलब होता है, द व्हील, चक्का।
वह गोल-गोल
घूमता रहता
है। भ्रम होता
है यात्रा का,
मंजिल नहीं
आती। जिसे भी
मंजिल लानी है,
उसे एक रेखा
में चलने की
कला सीखनी
पड़ती है, वही
धर्म है।
जो कल
हो चुका, उससे
सीखें और पार
जायें, दुहराएं मत। और
जिंदगी में
जिन रास्तों
से गुजर गये
उन पर से
बार-बार
गुजरने का मोह
छोड़ दें। कोई
सार नहीं है।
जहां से गुजर
गये, वहां
से गुजर ही
जायें, उसको
पकड़े मत
रखें। कल किसी
ने गाली दी थी,
वह बात हो
गयी। उस
रास्ते को छोड़
दें, आगे
बढ़ें लेकिन वह
गाली अटकी हुई
है। जिसके मन
में कल की
गाली अटकी हुई
है, वह
वहीं रुक गया।
उसने गाली को
मील का पत्थर
बना लिया।
जमीन में गाड़
दिया खम्बा
और उसने कहा, अब हम यहीं
रहेंगे। अब हम
आगे नहीं
जाते।
अगर
आपको कल अब भी
सता रहा है, बीता हुआ कल,
तो आप वहीं
रुक गये हैं।
अगर इसको हम
सोचें तो हमें
तो बड़ंी
हैरानी होगी
कि हम कहां
रुक गये।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं आमतौर
से लोग बचपन
में ही रुक
जाते हैं। फिर
शरीर ही बढ़ता
रहता है। न
बुद्धि बढ़ती
है, न
आत्मा बढ़ती है,
कुछ नहीं
बढ़ता है, वहीं
रुक जाते हैं।
इसलिए आपके
बचपन को जरा
में निकाला जा
सकता है। अभी
एक आदमी आप पर
हमला बोल दे
तो आप एकदम
चीख मारकर
नाचने-कूदने
लगेंगे। आप
भूल जायेंगे
कि आप क्या कर
रहे हैं। अगर
आपका चित्र
उतार लिया
जाये, या
आपको स्मरण
दिलाया जाये
तो यह शायद आप
जब पांच साल
के बच्चे थे, जो करते, वही
आपने किया।
मतलब, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, आपका
रिग्रेशन
हो गया, आप
पीछे लौट गये
बचपन में। उस खूंटे पर
पहुंच गये, जहां आप
बंधे हैं।
इसलिए मनसविद
किसी भी
व्यक्ति की
मानसिक
बीमारी दूर
करना चाहते
हैं तो पहले
उसके अतीत
जीवन में
उतरते हैं, खासकर उसके
बचपन में
उतरते हैं। वे
कहते हैं, जब
तक हम
तुम्हारा
बचपन न जान
लें तब तक हम
जान नहीं सकते,
तुम कहां
रुक गये हो।
कहां रुक जाने
से तुम्हारा
सारा उपद्रव
पैदा हो रहा
है। हम सब
रुके हुए लोग
हैं। गति नहीं
है जीवन में, यात्रा नहीं
है।
महावीर
कहते हैं, महर्षिजन पार कर जाते
हैं इस सागर
को। पार करने
का मार्ग है, संयम, संतुलन
अतियों से बच
जाना। दो
अतियों के बीच
जो बच जाता है,
वह तट पर
पहुंच जाता
है। लेकिन हम
क्या करते हैं?
हम घड़ी के पेंडुलम
की तरह हैं।
घड़ी का
पेंडुलम, पुरानी घड़ियों
का--नयी घड़ियों
में खयाल नहीं
आता, कुछ
पुरानी घड़ी पर
जरा ध्यान
करना चाहिए।
दीवार घड़ी का पेंडुलम
जाता है बायें,
दायें, घूमता
रहता है। जब
वह दायें जाता
है तब ऐसा
लगता है कि अब
बायें कभी न
आयेगा। वहां
भूलकर रहे हैं
आप। जब वह
दायें जा रहा
है तब वह
बायें आने की
ताकत जुटा रहा
है, मोमेंटम इकट्ठा कर
रहा है। वह
बायें जा ही
इसलिए रहा है
कि दायें जाने
की ताकत
इकट्ठी हो
जाये। फिर वह
दायें जायेगा।
जब वह दायें
जाता है तब वह
फिर बायें
जाने की ताकत
इकट्ठी करता
है। और इसी
तरह वह घूमता
रहता है। हम भीहममें
से एक आदमी
कहता है कि
उपवास करना
है। ये अब बायें
जा रहे हैं।
अब ये फिर
भोजन जोर से
करने की ताकत
जुटायेंगे।
एक आदमी कहता
है, ऊब गये
हम तो वासनाओं
से, अब
त्याग करना है,
अब यह बायें
जा रहे हैं।
अतियों
में डोलना
बहुत आसान है।
इसलिए एक बहुत
बड़ी घटना घटती
है दुनिया
में। क्रोधी
अगर चाहे तो
एक क्षण में
क्षमावान हो
जाते हैं।
दुष्ट अगर
चाहें तो एक
क्षण में
शांति को धारण
कर लेते हैं।
भोगी अगर
चाहें तो एक
क्षण में
त्यागी हो
जाते हैं। देर
नहीं लगती।
क्योंकि एक
अति से दूसरी
अति पर लौट
जाने में कोई
अड़चन नहीं है।
बीच में रुकना
कठिन है। भोगी
संयम पर आ
जाये, यह
कठिन है।
त्याग पर जा
सकता है।
त्यागी भोग में
आ जायें, यह
आसान है। संयम
में आना कठिन
है। एक उपद्रव
से दूसरा उपद्रव
चुनना आसान है,
क्योंकि
उपद्रव की
हमारी आदत है,
उपद्रव कोई
भी हो, उसे
हम चुन सकते
हैं। बीच में
रुक जाना, निरुपद्रवी हो जाना अति
कठिन है।
महावीर
संयम को सूत्र
कहते हैं, धर्म का। यह
शरीर है नाव।
इसका उपकरण की
तरह उपयोग
करें। यह
आत्मा है
यात्री, इसे
वर्तुलों में
मत घुमायें,
इसे एक रेखा
में चलायें।
यह संसार है
सागर, इसमें
एक डांड
की नाव मत
बनें। इसमें
दोनों पतवार
हाथ में हों, और दोनों
पतवार बीच में
सधने में
सहयोगी बनें,
इस पर
दृष्टि हो। तो
एक दिन
व्यक्ति जरूर
ही संसार के
पार हो जाता
है।
संसार
के पार होने
का अर्थ
है--दुख के पार
हो जाना, संताप
के पार हो
जाना।
संसार
के पार होने
का अर्थ
है--आनन्द में
प्रवेश।
जिसे
हिन्दुओं ने
"सच्चिदानंद' कहा है, उसे
महावीर ने
"मोक्ष' कहा
है। उसे ही
बुद्ध ने
"निर्वाण' कहा
है। उसे जीसस
ने "किंगडम आफ
गाड' कहा
है, ईश्वर
का राज्य कहा है।
कोई भी हो नाम,
जहां हम हैं
उपद्रव में, वहां वह
नहीं है। इस
उपद्रव के पार
कोई तट है, जहां
कोई आंधी नहीं
छूती, जहां
कोई तूफान
नहीं उठता, जहां सब
शून्य और शांत
है।
इतना
ही।
अब
हम कीर्तन
करें।
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