वैशाली में मृत्यु का तांडव नृत्य—(एस धम्मो सनंतनो)
एक समय वैशाली में दुर्भिक्ष हुआ था और महामारी फैली थी। लोग कुत्तों की मौत पर रहे थे। मृत्यु का तांडव नृत्य हो रहा था। मृत्यु का ऐसा विकराल रूप तो लोगों ने कभी नहीं देखा था न सुना था। सब उपाय किए गए थे लेकिन सब उपाय हार गए थे। फिर कोई और मार्ग न देखकर लिच्छवी राजा राजगृह जाकर भगवान को वैशाली लाए। भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नंगा नृत्य धीरे— धीरे शांत हो गया था— मृत्यु पर तो अमृत की ही विजय हो सकती है। फिर जल भी बरसा था सूखे वृक्ष पुन: हरे हुए थे; फूल वर्षों से न लगे थे फिर से लगे थे फिर फल आने शुरू हुए थे। लोग अति प्रसन्न थे।
और भगवान ने जब वैशाली से विदा ली थी तो लोगों ने महोत्सव मनाया था उनके हृदय आभार और अनुग्रह से गदगद थे। और तब किसी भिक्षु ने भगवान से पूछा था— यह चमत्कार कैसे हुआ? भगवान ने कहा था—भिक्षुओ बात आज की नहीं है। बीज तो बहुत पुराना है वृक्ष जरूर आज हुआ है। मैं पूर्वकाल में शंख नामक ब्राह्मण होकर प्रत्येक बुद्धपुरुष के चैत्यों की पूजा किया करता था। और यह जो कुछ हुआ है उसी पूजा के विपाक से हुआ है। जो उस दिन किया था वह तो अल्प था अत्यल्प था लेकिन उसका ऐसा महान कल हुआ है, बीज तो होते भी छोटे ही हैं। पर उनसे पैदा हुए वृक्ष आकाश को छूने में समर्थ हो जाते हैं। थोड़ा सा त्याग भी अल्पमात्र त्याग भी महासुख लाता है। थोड़ी सी पूजा भी थोड़ा सा ध्यान भी जीवन में क्रांति बन जाता है। और जीवन के सारे चमत्कार ध्यान के ही चमत्कार हैं। तब उन्होंने ये गाथाएं कही थीं—
मत्तासुखपरिच्चागा
पस्से चे
विपुलं सुखं।
चजे
मत्तासुखं
धीरो संपस्सं
विपुलं सुखं ।।
परदुक्खूपदानेन
यो अत्तनो
सुखमिच्छति।
'थोड़े सुख के
परित्याग से
यदि अधिक सुख
का लाभ दिखायी
दे तो
धीरपुरुष
अधिक सुख के
खयाल से अल्पसुख
का त्याग कर
दे।'
'दूसरों को
दुख देकर जो
अपने लिए सुख
चाहता है, वह
वैर में और
वैर के चक्र
में फंसा हुआ
व्यक्ति कभी
वैर से मुक्त
नहीं होता।'
पहले
तो इस छोटी सी
कथा को ठीक से
समझ लें, क्योंकि
कथा में ही
सूत्रों के
प्राण छिपे हुए
हैं।
मनुष्य
का मन ऐसा है
कि दुख में ही
भगवान को याद
करता है। सुख
हो तो भगवान को
भूल जाता है।
और दुर्भाग्य
की बात है यह।
क्योंकि जब
तुम दुख में
याद करते हो
तो भगवान से मिलन
भी हो जाए तो
भी तुम्हारी
बहुत ऊपर गति
नहीं हो पाती।
ज्यादा से
ज्यादा दुख से
छूट जाओगे।
अगर सुख में
याद करो तो
सुख से छूट
जाओगे और
महासुख को
उपलब्ध
होओगे। जब तुम
दुख में याद
करते हो तो
याद का इतना
ही परिणाम हो
सकता है कि
दुख से छूट
जाओ,
सुख में आ
जाओ। लेकिन
सुख कोई
गंतव्य थोड़े
ही है। सुख
कोई जीवन का
लक्ष्य थोड़े
ही है। जो सुखी
हैं वे भी
सुखी कहां
हैं! दुखी तो
दुखी है ही, सुखी भी
सुखी नहीं है।
इसलिए अगर सुख
भी मिल जाए तो
कुछ मिला नहीं
बहुत।
जो
सुख में याद
करता है, उसकी
सुख से मुक्ति
हो जाती है, वह महासुख
में पदार्पण
करता है। वह
ऐसे सुख में
पदार्पण करता
है जो शाश्वत
है, जो सदा
है। सुख तो
वही जो सदा
हो। सुख की इस
परिभाषा को खूब
गांठ बांधकर
रख लेना। सुख
तो वही जो सदा
रहे। जो आए और
चला जाए, वह
तो दुख का ही
एक रूप है।
आएगा, थोड़ी
देर भांति
होगी कि सुख
हुआ, चला
जाएगा—और भी
गहरे गड्डे
में गिरा
जाएगा, और
भी दुख में
पटक जाएगा।
जो
क्षणभंगुर है, वह
आभास है, वास्तविक
नहीं।
वास्तविक तो
मिटता ही नहीं,
मिट सकता
नहीं। जो है, सदा है और
सदा रहेगा। जो
नहीं है, वह
कभी भासता है
कि है और कभी
तिरोहित हो
जाता है। जैसे
दूर मरुस्थल
में तुम्हें
जल—सरोवर
दिखायी पड़े। अगर
है, तो तुम
उसके पास भी
पहुंच जाओ तो
भी है, तुम
उससे जल पी लो
तो भी है, तुम
उससे दूर भी
चले जाओ तो भी
है। लेकिन अगर
मृगमरीचिका
है, अगर
सिर्फ दिखायी
पड़ रहा है, अगर
सिर्फ
तुम्हारे
प्यास के कारण
तुमने ही कल्पना
कर ली है, तो
जैसे —जैसे
पास पहुंचोगे
वैसे—वैसे जल
का सरोवर
तिरोहित होने
लगेगा। जब तुम
ठीक उस जगह पहुंच
जाओगे जहां
जल—सरोवर
दिखायी पड़ता था,
तब तुम
अचानक पाओगे,
रेत के
ढेरों के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। तुम्हारी
प्यास ने ही
सपना देख लिया
था।
प्यास
सपने पैदा
करती है। अगर
तुमने दिन में
उपवास किया है
तो रात तुम
सपना देखोगे
भोजन करने का।
भूख ने सपना
पैदा कर दिया।
अगर तुम्हारी
कामवासना
अतृप्त है तो
रात तुम सपने
देखोगे
कामवासना के
तृप्त करने
के। क्षुधा ने
सपना पैदा कर
दिया। गरीब धन
के सपने देखता
है। अमीर
स्वतंत्रता
के सपने देखता
है। जो हमारे
पास नहीं है, उसका
हम सपना देखते
हैं। और अगर
हमारी क्षुधा इतनी
बढ़ जाए, प्यास
इतनी बढ़ जाए
कि हमारा पूरा
मन आच्छादित
हो जाए उसी
प्यास से, तो
फिर हम भीतर
ही नहीं देखते,
आंख बंद
करके ही नहीं
देखते, खुली
आंख भी सपना
दिखायी पड़ने
लगता है। वही
मृगमरीचिका
है। तब
तुम्हारा
सपना इतना
प्रबल हो गया कि
तुम सत्य को
झुठला देते हो
और उसके ऊपर
सपने को
आरोपित कर
लेते हो।
एक
समय वैशाली
में
दुर्भिक्ष
हुआ था और
महामारी फैली
थी। लोग
कुत्तों की
मौत पर रहे
थे। मृत्यु का
तांडव नृत्य
हो रहा था।
मृत्यु का ऐसा
विकराल रूप तो
लोगों ने कभी
नहीं देखा था
न सुना था। सब
उपाय किए गए
थे लेकिन सब
उपाय हार गए
थे। फिर कोई
और मार्ग न
देखकर
लिच्छवी राजा
राजगृह जाकर
भगवान को
वैशाली लाए।
भगवान की उपस्थिति
में मृत्यु का
नंगा नृत्य
धीरे— धीरे शांत
हो गया था—
मृत्यु पर तो
अमृत की ही
विजय हो सकती
है। फिर जल भी
बरसा था सूखे
वृक्ष पुन: हरे
हुए थे; फूल
वर्षों से न
लगे थे फिर से
लगे थे फिर फल
आने शुरू हुए
थे। लोग अति
प्रसन्न थे।
और
भगवान ने जब
वैशाली से
विदा ली थी तो
लोगों ने
महोत्सव
मनाया था उनके
हृदय आभार और
अनुग्रह से
गदगद थे। और
तब किसी
भिक्षु ने
भगवान से पूछा
था— यह
चमत्कार कैसे
हुआ? भगवान
ने कहा
था—भिक्षुओ
बात आज की
नहीं है। बीज
तो बहुत
पुराना है
वृक्ष जरूर आज
हुआ है। मैं
पूर्वकाल में
शंख नामक
ब्राह्मण
होकर
प्रत्येक
बुद्धपुरुष
के चैत्यों की
पूजा किया
करता था। और
यह जो कुछ हुआ
है उसी पूजा
के विपाक से
हुआ है। जो उस
दिन किया था
वह तो अल्प था
अत्यल्प था
लेकिन उसका
ऐसा महान कल
हुआ है, बीज
तो होते भी
छोटे ही हैं।
पर उनसे पैदा
हुए वृक्ष
आकाश को छूने
में समर्थ हो
जाते हैं।
थोड़ा सा त्याग
भी अल्पमात्र
त्याग भी
महासुख लाता
है। थोड़ी सी
पूजा भी थोड़ा
सा ध्यान भी
जीवन में
क्रांति बन
जाता है। और जीवन
के सारे
चमत्कार
ध्यान के ही
चमत्कार हैं।
तब उन्होंने
ये गाथाएं कही
थीं—
मत्तासुखपरिच्चागा
पस्से चे
विपुलं सुखं।
चजे
मत्तासुखं
धीरो संपस्सं
विपुलं सुखं
।।241।।
परदुक्खूपदानेन
यो अत्तनो
सुखमिच्छति।
वेरसंसग्गसंसट्ठे
वेरा से न
परिमुच्चति
।।242।।
'थोड़े सुख के
परित्याग से
यदि अधिक सुख
का लाभ दिखायी
दे तो
धीरपुरुष
अधिक सुख के
खयाल से
अल्पसुख का
त्याग कर दे।'
'दूसरों को
दुख देकर जो
अपने लिए सुख
चाहता है, वह
वैर में और
वैर के चक्र
में फंसा हुआ
व्यक्ति कभी
वैर से मुक्त
नहीं होता।'
पहले
तो इस छोटी सी
कथा को ठीक से
समझ लें, क्योंकि
कथा में ही
सूत्रों के
प्राण छिपे हुए
हैं।
मनुष्य
का मन ऐसा है
कि दुख में ही
भगवान को याद
करता है। सुख
हो तो भगवान
को भूल जाता
है। और दुर्भाग्य
की बात है यह।
क्योंकि जब
तुम दुख में
याद करते हो
तो भगवान से
मिलन भी हो
जाए तो भी
तुम्हारी
बहुत ऊपर गति
नहीं हो पाती।
ज्यादा से ज्यादा
दुख से छूट
जाओगे। अगर
सुख में याद
करो तो सुख से
छूट जाओगे और
महासुख को उपलब्ध
होओगे। जब तुम
दुख में याद
करते हो तो याद
का इतना ही
परिणाम हो
सकता है कि
दुख से छूट
जाओ,
सुख में आ
जाओ। लेकिन
सुख कोई
गंतव्य थोड़े
ही है। सुख
कोई जीवन का
लक्ष्य थोड़े
ही है। जो सुखी
हैं वे भी
सुखी कहां
हैं! दुखी तो
दुखी है ही, सुखी भी
सुखी नहीं है।
इसलिए अगर सुख
भी मिल जाए तो
कुछ मिला नहीं
बहुत।
जो
सुख में याद
करता है, उसकी
सुख से मुक्ति
हो जाती है, वह महासुख
में पदार्पण
करता है। वह
ऐसे सुख में
पदार्पण करता
है जो शाश्वत
है, जो सदा
है। सुख तो
वही जो सदा
हो। सुख की इस
परिभाषा को
खूब गांठ
बांधकर रख
लेना। सुख तो
वही जो सदा
रहे। जो आए और
चला जाए, वह
तो दुख का ही
एक रूप है।
आएगा, थोड़ी
देर भांति
होगी कि सुख
हुआ, चला
जाएगा—और भी
गहरे गड्डे
में गिरा
जाएगा, और
भी दुख में
पटक जाएगा।
जो
क्षणभंगुर है, वह
आभास है, वास्तविक
नहीं।
वास्तविक तो
मिटता ही नहीं,
मिट सकता
नहीं। जो है, सदा है और
सदा रहेगा। जो
नहीं है, वह
कभी भासता है
कि है और कभी
तिरोहित हो
जाता है। जैसे
दूर मरुस्थल
में तुम्हें
जल—सरोवर
दिखायी पड़े। अगर
है, तो तुम
उसके पास भी
पहुंच जाओ तो
भी है, तुम
उससे जल पी लो
तो भी है, तुम
उससे दूर भी
चले जाओ तो भी
है। लेकिन अगर
मृगमरीचिका
है, अगर
सिर्फ दिखायी
पड़ रहा है, अगर
सिर्फ
तुम्हारे
प्यास के कारण
तुमने ही कल्पना
कर ली है, तो
जैसे —जैसे
पास पहुंचोगे
वैसे—वैसे जल
का सरोवर
तिरोहित होने
लगेगा। जब तुम
ठीक उस जगह पहुंच
जाओगे जहां
जल—सरोवर
दिखायी पड़ता
था, तब तुम
अचानक पाओगे,
रेत के
ढेरों के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। तुम्हारी
प्यास ने ही
सपना देख लिया
था।
प्यास
सपने पैदा
करती है। अगर
तुमने दिन में
उपवास किया है
तो रात तुम
सपना देखोगे
भोजन करने का।
भूख ने सपना
पैदा कर दिया।
अगर तुम्हारी
कामवासना
अतृप्त है तो
रात तुम सपने
देखोगे
कामवासना के
तृप्त करने
के। क्षुधा ने
सपना पैदा कर
दिया। गरीब धन
के सपने देखता
है। अमीर
स्वतंत्रता
के सपने देखता
है। जो हमारे पास
नहीं है, उसका
हम सपना देखते
हैं। और अगर
हमारी क्षुधा इतनी
बढ़ जाए, प्यास
इतनी बढ़ जाए
कि हमारा पूरा
मन आच्छादित
हो जाए उसी प्यास
से, तो फिर
हम भीतर ही
नहीं देखते, आंख बंद
करके ही नहीं
देखते, खुली
आंख भी सपना
दिखायी पड़ने
लगता है। वही
मृगमरीचिका
है। तब
तुम्हारा
सपना इतना
प्रबल हो गया कि
तुम सत्य को
झुठला देते हो
और उसके ऊपर
सपने को आरोपित
कर लेते हो।
मरघट
को देखते हो, सारी
दुनिया में, कोई जाति हो,
कोई धर्म हो,
कोई देश हो,
गांव के
बाहर बनाते
हैं। और मौत
खड़ी है जिंदगी
के बीच में।
ठीक जहां
तुम्हारा बाजार
है, एम जी
रोड पर, वहां
होना चाहिए
मरघट। ठीक बीच
बाजार में। ताकि
जितनी बार तुम
बाजार जाओ—सज्जी
खरीदो, कि
कपड़ा खरीदो, कि
सिनेमा—गृह
जाओ—हर बार
तुम्हें मौत
से साक्षात्कार
हो, हर बार
तुम देखो कि
कोई चिता जल
रही है। हर
बार तुम देखो
कि फिर कोई
अर्थी आ गयी।
बीच बाजार में
होना चाहिए
मरघट, क्योंकि
जिंदगी के बीच
में खड़ी है
मौत। उसे हम
बाहर हटाकर
रखते हैं—दूर
गांव के, जहां
हमें जाना
नहीं पड़ता। या
कभी—कभी किसी
के साथ जाना
पड़ता है अर्थी
में, तो
बड़े बेमन से
चले जाते हैं
और जल्दी से
भागते हैं
वहां से। जाना
वहीं पड़ेगा
जहां से तुम भाग—
भाग आते हो।
जैसे तुम
दूसरों को
पहुंचा आए
वैसे दूसरे
तुम्हें
पहुंचा आएंगे—ठीक
ऐसे ही।
मैं
छोटा था—तो
जैसा सभी घरों
में होता
है—कभी कोई मर
जाए तो मेरी
मां मुझे
जल्दी से अंदर
बुलाकर
दरवाजा बंद कर
लेती, चलो
अंदर चलो, अंदर
चलो! मैं
पूछता, बात
क्या है? वह
कहती, अंदर
चलो, बात
कुछ भी नहीं
है। मेरी
उत्सुकता
बढ़ी, स्वाभाविक
था, कि बात
क्या है? जब
भी कोई हंडी
लिए निकलता, बाजा—बैंड
बजता, मुझे
अंदर बुला
लिया जाता, दरवाजा बंद
कर दिया
जाता—मौत
दिखायी नहीं
पड़नी चाहिए
बच्चों को।
अभी से इतनी
खतरनाक बात दिखायी
पड़े, कहीं
जीवन में हताश
न हो जाएं।
मगर मेरी मा
का दरवाजे को
बंद करना मेरे
लिए बड़ा कारगर
हो गया, वह
एक दरवाजे को
बंद करतीं, मैं दूसरे
से नदारद हो
जाता। मैं
धीरे — धीरे जो
भी गाव में
मरता उसी के
साथ मरघट जाने
लगा। फिर तो
गांव में
जितने आदमी
मरे, मैं
सुनिश्चित था,
लोग मुझे
पहचानने भी
लगे कि वह
लड़का आया कि
नहीं! कोई भी
मरे, इसकी
फिर मुझे फिकर
ही नहीं रही
कि कौन मरता
है, इससे
क्या फर्क
पड़ता है, फिर
मैं जाने ही
लगा। हर आदमी
की मौत पर
मरघट जाने
लगा। और धीरे —
धीरे बात यह
मुझे खयाल में
उस समय से आने
लगी कि मरघट
को गांव के
बाहर छिपाकर
क्यों बनाया
है, दीवाल
उठा दी है, सब
तरफ से छिपा
दिया है, कहीं
से दिखायी न
पड़े।
एक
म्युनिसिपल
कमेटी में
विचार किया जा
रहा था मरघट
के चारों तरफ
बड़ी दीवाल
उठाने का, सब
पक्ष में थे, एक झक्की सा
आदमी खड़ा हुआ
और उसने कहा
कि नहीं, इसका
क्या सार!
क्योंकि जो
वहां दफना दिए
गए हैं, वे
निकलकर बाहर
नहीं आ सकते, और जो बाहर
हैं, वे अपने
आप भीतर जाना
नहीं चाहते, इसलिए दीवाल
की जरूरत क्या?
मगर
दीवाल का
प्रयोजन
दूसरा है।
उसका प्रयोजन
है,
जो बाहर हैं,
उनको
दिखायी न पड़े
कि जीवन का
सत्य क्या है।
जीवन का सत्य
है मृत्यु।
जीवन महामारी
है। क्योंकि
जीवन सभी को
मार डालता है।
इसका कोई इलाज
नहीं है।
तुमने
कभी सोचा, जीवन
का कोई इलाज
है! टी. बी का
इलाज है, कैंसर
का भी इलाज हो
जाएगा अगर
नहीं है तो, मगर जीवन का
कोई इलाज है!
और जीवन सभी
को मार डालता
है, तुमने
देखा? सौ
प्रतिशत मार
डालता है। जो
जीवित हुआ, वह मरेगा
ही। जीवन का
कोई भी इलाज
नहीं है। जीवन
महामारी है।
लेकिन
वैशाली के
लोगों को पता
नहीं था—जैसा
तुमको पता
नहीं है, जैसा
किसी को पता
नहीं है—हम
महामारी के
बीच ही पैदा
होते हैं।
क्योंकि हम
मरणधर्मा दो
व्यक्तियों
के संयोग से
पैदा होते
हैं। हम मौत
के बीच ही
पैदा होते हैं,
हम मौत के
नृत्य की छाया
में ही पैदा
होते हैं। हम
मौत की छाया
में ही पलते
और बड़े होते
हैं। और एक
दिन हम मौत की
ही दुनिया में
वापस लौट जाते
हैं—मिट्टी
मिट्टी में
गिर जाती है।
हम महामारी
में ही जी रहे
हैं। जिसे यह
दिख जाता है, उसके जीवन
में क्रांति का
सूत्रपात होता
है।
वैशाली
में
दुर्भिक्ष हुआ
तब लोगों को
याद आयी, महामारी
फैली तब याद
आयी, सब
उपाय कर लिए, सब उपाय हार
गए, तब याद
आयी। फिर
उन्होंने
अपने राजा को
राजी किया
होगा कि अब आप
जाएं, भगवान
राजगृह में
ठहरे हैं, उन्हें
बुला लाएं।
शायद! शायद
उनकी मौजूदगी
और चीजें बदल
जाएं।
खयाल
रखना कि तुम
चाहे शायद ही
भगवान को
बुलाओ तो भी
चीजें बदल जाती
हैं। कभी—कभी
तुम
संयोगवशांत ही याद
करो तो भी
परिवर्तन हो
जाता है।
तुम्हारी आस्था
अगर होती है
तब तो बड़ा
गहरा
परिवर्तन हो जाता
है,
तुम अगर कभी
संदेह से भरे
हुए भी याद कर
लेते हो, तो
तुम्हारे
संदेह को भी
हिलाकर
परिणाम होते
हैं।
तुम्हारा
संदेह बाधा तो
बनता है, लेकिन
बिलकुल ही रोक
नहीं पाता, कुछ न कुछ हो
ही जाता है।
पूरा सागर मिल
सकता था अगर
आस्था होती, अब पूरा
सागर शायद न
मिले, मगर
छोटा—मोटा
झरना तो फूट
ही पड़ता है।
तुम्हारे
संदेह को
तोड़कर भी
भगवान फूट
पड़ता है। इसलिए
जो न बुला
सकते हों
आस्था से, कोई
फिकर नहीं, शायद— भाव से
ही बुलाएं, मगर बुलाएं
तो। जो न बुला
सकते हों सुख
में, कोई
फिकर नहीं, दुख में ही
बुलाएं, मगर
बुलाएं तो। आज
दुख में
बुलाया, कल
शायद सुख में
भी बुलाएंगे।
राजा
गया,
राजगृह
जाकर भगवान को
वैशाली लिवा आया।
भगवान ने एक
बार भी न कहा
कि अब आए! बड़ी
देर करके आए।
और मैं तो
निरंतर यही
कहता रहा हूं
कि जीवन दुख
है और जीवन
मृत्यु है और
सब क्षणभंगुर
है और सब जा
रहा है, तुमने
कभी न सुना!
मेरी नहीं
सुनी, महामारी
की सुन ली!
कभी—कभी
ऐसा होता है, श्रेष्ठतम
पुकार हम नहीं
सुनते, निकृष्ट
की पुकार हमें
समझ में आ
जाती है, क्योंकि
हम निकृष्ट
हैं। हमारी
भाषा निकृष्ट
की भाषा है।
बुद्ध बीच में
खड़े होकर हमें
पुकारें तो
शायद हम न
सुनें, दिवाला
निकल जाए और
हमारी समझ में
आ जाए। पत्नी
मर जाए और
हमारी समझ में
आ जाए। जुए
में हार जाएं
और हमारी समझ
में आ जाए। और
बुद्ध
पुकारते रहें और
हमारी समझ में
न आए। हमारी
एक दुनिया है,
कीड़े
—मकोड़ों की
दुनिया है, जमीन पर
सरकती हुई दुनिया
है। हम आकाश
में उड़ते नहीं,
आकाश की
भाषा हमारी
पकड़ में नहीं
आती। लेकिन बुद्ध
ने इनकार न
किया।
उन्होंने कहा,
चलो, किसी
बहाने सही, मुझे याद
किया। चलो
महामारी इनको
एक संदेश ले आयी
कि अब भगवान
की जरूरत है, चलो इसका भी
उपयोग कर लें।
भगवान
की उपस्थिति
में मृत्यु का
नंगा नृत्य धीरे—
धीरे शांत हो गया।
ऐसा
हुआ या नहीं, इसकी
फिकर में मत
पड़ना। ये
बातें कुछ
भीतर की हैं।
बाहर हुआ हो तो
ठीक, न हुआ
हो तो ठीक।
लेकिन भगवान
की उपस्थिति
में मृत्यु का
नृत्य शांत हो ही
जाता है। तुम
अपने हृदय की
वैशाली में
भगवान को
बुलाओ, इधर
भगवान का
प्रवेश हुआ, उधर तुम
पाओगे, मौत
बाहर निकलने
लगी। यह है
अर्थ।
बौद्ध
शास्त्रों
में भी ऐसा
अर्थ नहीं
लिखा है। वे यही
मानकर चलते
हैं कि यह
तथ्यगत बात
है। मैं नहीं
मानता कि यह
तथ्यगत बात
है। यह बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है—तत्वगत
है,
तथ्यगत
नहीं। इसमें
तत्व तो बहुत
है, लेकिन
इसको फैक्ट और
तथ्य मानकर मत
चलना। अन्यथा
व्यर्थ के
विवाद पैदा
होते हैं कि
ऐसा कैसे हो
सकता है!
महामारी कैसे
दूर हो जाएगी!
और कैसे दूर
होगी, बुद्ध
कौ खुद भी तो
एक दिन मरना
पडा। यह शरीर
तो जाता ही है,
बुद्ध का हो
तो भी जाता
है। बुद्ध
जैसे प्यारे
आदमी का शरीर
हो तो भी जाता
है।
तो
मौत बुद्ध की
मौजूदगी में
हट गयी हो
वैशाली से, ऐसा
तो लगता नहीं,
लेकिन किसी
और गहरे तल पर
बात सच है। जब
भी कोई
व्यक्ति
भगवान को बुला
ले आता है
अपने हृदय में,
तो मौत हट
जाती है।
तुम्हें पहली
दफा अमृत की प्रतीति
होनी शुरू
होती है।
भगवान की
मौजूदगी में
तुम्हारे
भीतर पहली दफे
वे स्वर उठते
हैं जो शाश्वत
के हैं। एस
धम्मो
सनंतनो।
तुम्हें एक दृष्टि
का नया आयाम
खुलता हुआ
मालूम पड़ता
है।
हमने
देह के साथ
अपने को एक
समझ लिया है, तो
हम मरणधर्मा
हो गए हैं। हम
भूल ही गए हैं
कि हम देह
नहीं हैं—देह
में जरूर हैं।
हमें स्मरण
नहीं रहा है
कि हम मिट्टी
के दीए नहीं
हैं। मिट्टी
के दीए में
जलती हुई जो
चिन्मय ज्योति
है, वही
हैं।
तुम्हारे
भीतर जो जागरण
है, होश है,
चैतन्य है,
वही तुम हो।
देह तो मंदिर
है, तुम्हारा
देवता भीतर
विराजमान है।
और देवता मंदिर
नहीं है।
देवता के हटते
ही मंदिर कचरा
हो जाएगा, यह
भी सच है। मगर
देवता के रहते
मंदिर मंदिर है।
जैसे ही
तुम्हारी
अंतर्दृष्टि
बदलती है, तुम्हें
अपने
साक्षीभाव का
स्मरण आता है,
वैसे ही
अमृत का
प्रवेश होता
है।
तो
मैं तो इसका
ऐसा अर्थ करता
हूं —तत्वगत।
तथ्यगत, मुझे
चिंता नहीं
है। मैं कोई
ऐतिहासिक
नहीं हूं। और
मेरे मन में
तथ्यों का कोई
बड़ा मूल्य नहीं
है। मैं
तथ्यों को
हमेशा तत्वों
की सेवा में
लगा देता हूं।
भगवान की
उपस्थिति में
मृत्यु का
नंगा नृत्य धीरे—
धीरे शांत हो गया
था।
हो
ही जाना
चाहिए। हो ही
जाता है। जैसे
ही याद आनी
शुरू होती है
कि मैं आत्मा
हूं कि मैं
परमात्मा हूं,
कि मेरे भीतर
दिव्य ज्योति
जल रही है, वैसे
ही देह की बात
समाप्त हो
गयी। फिर जो
तुम्हारे
मां—बाप से पैदा
हुए तुम, वह
तुम न रहे।
तादात्म्य
टूट गया। तुम
तो वह हो गए जो
सदा से हो।
तुम्हारे
मां—बाप भी न
थे तब भी तुम
थे। तुम्हारी
देह मिट्टी
में गिर जाएगी
फिर भी तुम
रहोगे। उसकी
जरा सी याद
आती है, सब
बदल जाता है।
मृत्यु
पर तो अमृत की
ही विजय हो
सकती है।
और
जिसको अमृत की
उपलब्धि हो
गयी है, उसकी
मौजूदगी में
यह सरलता से
घट जाता है।
इसलिए सत्संग
का बडा मूल्य
है। महामारी
तो सभी नगरियों
में फैली हैं,
सभी
नगरियां
वैशाली हैं।
तुम भी
छोटे—मोटे नहीं
हो, तुम भी
एक बड़े नगर
हो। एक—एक
व्यक्ति एक—एक
नगर है।
हमारे
पास जो शब्द
है पुरुष, वह
बहुत
बहुमूल्य है।
पुरुष उसी से
बना है जिससे
पुर—नगर।
पुरुष का मतलब
होता है, तुम
एक पूरे नगर
हो, और
तुम्हारे नगर
में छिपा हुआ,
बसा हुआ
मालिक
हैं—पुरुष।
वैज्ञानिकों
से पूछो तो वे
कहते हैं, एक
शरीर में कम
से कम सात
करोड़ जीवाणु
हैं। सात
करोड़! बंबई छोटी
नगरी है। बंबई
से समझो कि
चौदह गुना
ज्यादा। एक
शरीर में सात
करोड़ जीवाणु
हैं। सात करोड़
जीवन। उन सबके
बीच में तुम
बसे हो। नगर
तो हो ही।
वैशाली छोटी
रही होगी। और
इस नगर में
जल्दी ही मौत
आने वाली है, महामारी आने
वाली है। उसके
कदम तुम्हारी
तरफ पड़ ही रहे
हैं। इस बीच
अगर तुम्हें
कभी भी, कहीं
भी भगवत्ता का
साथ मिल जाए, किसी भी ऐसे
व्यक्ति का
साथ मिल जाए
जिसके भीतर
घटना घट गयी
हो, तो
उसकी मौजूदगी
तुम्हें
तुम्हारी
गर्त से उठाने
लगेगी—सिर्फ
मौजूदगी।
सत्संग
का अर्थ होता
है,
गुरु कुछ
करता
नहीं—करने का
यहां कुछ है
भी नहीं, किया
कुछ जा भी
नहीं
सकता—लेकिन
उसकी मौजूदगी,
सिर्फ उसकी
उपस्थिति, उसकी
तरंगें
तुम्हें सोते
से जगाने लगती
हैं। तुमने
देखा न, कोई
नाचता हो, तुम्हारे
पैर में थाप
पड़ने लगती
है। कोई हंसता
हो, तुम्हारे
भीतर हंसी
फूटने लगती
है। कोई उदास
हो, तुम्हारे
भीतर उदासी
घनी हो जाती
है। दस आदमी उदास
बैठे हों, तुम
जब आए थे तो
बड़े प्रसन्न
थे, उनके
पास बैठ जाओगे
उदास हो
जाओगे। तुम
बड़े उदास थे, दस आदमी बड़े
खिलखिलाकर
हंसते थे, गपशप
करते थे, तुम
आए, तुम
अपनी उदासी
भूल गए, तुम
भी हंसने लगे।
किसी जागरूक
पुरुष के
सत्संग में, जो उसके
भीतर घटा है, वह तुम्हारे
भीतर तरंगित
होने लगता है।
हम अलग—अलग
नहीं हैं, हम
एक—दूसरे से
जुड़े हैं।
हमारे तंतु
एक—दूसरे से
गुंथे हैं।
अगर तुम किसी
भी व्यक्ति के
साथ हो जाओ, तो जैसा वह
व्यक्ति है
वैसे तुम होने
लगोगे।
इसलिए
अपने से छोटे
व्यक्तियों
का साथ मत खोजना—अक्सर
हम खोजते हैं; क्योंकि
अपने से छोटे
के साथ एक मजा
है, क्योंकि
हम बड़े मालूम
होते हैं।
अपने से छोटे के
साथ एक रस है, अहंकार की
तृप्ति मिलती
है। दुनिया
में लोग अपने
से छोटे का
साथ खोजते
रहते हैं। अपने
से बड़े के साथ
तो अड़चन होती
है।
तुमने
सुना न, ऊंट
जब हिमालय के
पास पहुंचा तो
उसे बड़ा दुख हुआ।
उसने हिमालय
की तरफ देखा
ही नहीं, वह
रास्ता बदलकर
वापस अपने
मरुस्थल में
लौट आया। ऊंट
को हिमालय के
पास बड़ी पीड़ा
होती है, क्योंकि
ऊंट को पहली
दफा पता चलता
है कि अरे, मैं
कुछ भी नहीं
हूं। ऊंट को
तो रेगिस्तान
जमता है, जहां
वह सब कुछ है, सबसे ऊंची
चीज है।
अक्सर
यह होता है, यह
मन की एक बहुत
बुनियादी
प्रक्रिया है
कि हम अपने से
छोटे को खोज
लेते हैं। यह
रोज होता है, सब दिशाओं
में होता है।
राजनेता अपने
से छोटे छुटभइयों
को खोज लेते
हैं। अपने से
छोटे लोगों पर
ही अपने अहंकार
को बसाया जा
सकता है, और
कोई उपाय नहीं
है।
सत्संग
का अर्थ है, अपने
से बड़े को
खोजना। वह मन
की प्रक्रिया
के विपरीत
जाना है, वह
ऊर्ध्वगमन है,
वह मन का
नियम तोड़ना
है। क्योंकि
अगर अपने से छोटे
को खोजा तो
तुम्हारा
अहंकार मजबूत
होगा, अपने
से बड़े को
खोजा तो
तुम्हारा
अहंकार विसर्जित
होगा। अपने से
बड़े को खोजा
तो उसकी दूर जाती
हुई किरणें
तुम्हें भी
दूर ले जाने
लगेंगी, उसके
भीतर हुआ
प्रकाश
तुम्हारे
भीतर सोए प्रकाश
को भी तिलमिला
देगा। उसकी
चोट तुम्हें
जगाएगी—सिर्फ
मौजूदगी।
सत्संग
अनूठा शब्द है, दुनिया
की किसी भाषा
में ऐसा कोई
शब्द नहीं है,
क्योंकि
दुनिया में
कभी इस बात को
ठीक से खोजा
ही नहीं गया
है जैसा हमने
इस देश में
खोजा। सत्संग
अनूठा शब्द
है। इसका मतलब
है, सिर्फ
उसके साथ हो
जाना जिसे
सत्य मिल गया
हो। सिर्फ
उसके पास हो जाना,
बैठ
जाना—चाहे चुप
बैठे रहो तो
भी चलेगा—उसके
संग—साथ हो
लेना; उसके
और अपने बीच
की दीवालें
गिरा देना, अपने ऊपर
कोई रक्षा का
इंतजाम न करना,
अपने हृदय
को खोल देना
कि अब जो हो हो,
उसकी
तरंगों को
अपने भीतर आने
देना, उसकी
स्वरलहरी को
गंजने देना, धीरे— धीरे तुम
उसमें ड़बकी
लगा लोगे।
उसको अमृत
मिला है, तुम्हें
भी अमृत की
तरफ पहले—पहले
अनुभव आने शुरू
हो जाएंगे, झरोखा
खुलेगा।
मृत्यु
पर तो अमृत की
ही विजय हो
सकती है। फिर जल
भी बरसा, फिर
वृक्षों में
पत्ते आए; फिर
फूल खिले, जहां
फूल खिलने बंद
हो गए थे, जहां
जीवन सूखा जा
रहा था वहा नए
पल्लव लगे।
एक
जीवन है बाहर
का और एक जीवन
है भीतर का, सत्संग
की वर्षा हो
जाए तो भीतर
के जीवन में फूल
आने शुरू होते
हैं। वे ही
फूल वास्तविक
फूल हैं, क्योंकि
वे टिकेंगे, उनकी सुगंध
सदा रहेगी, सुबह खिले
सांझ मुर्झा
गए ऐसे फूल
नहीं, खिले
तो खिले, फिर
मुर्झाते
नहीं।
इस
कथा को दोनों
तल पर समझना।
लोग
अति प्रसन्न
थे। और भगवान
ने जब वैशाली
से विदा ली तो
लोगों ने
महोत्सव
मनाया था।
उनके हृदय
आभार और
अनुग्रह से
गदगद थे। और
तब किसी भिक्षु
ने भगवान से
पूछा—यह
चमत्कार कैसे
हुआ?
लोगों का
दुख मिट गया
है, लोग
शांत
हुए हैं, लोगों
की मृत्यु से
दृष्टि हट गयी,
महामारी
विदा हो गयी, सूखे
वृक्षों पर
पत्ते आ गए
हैं, जिन्होंने
कभी जीवन का
रस न जाना था
उनमें जीवन की
रसधार बही, यह चमत्कार
कैसे हुआ?
लोग
अति प्रसन्न
थे। यद्यपि और
बहुत कुछ हो
सकता था, लेकिन
दुख में पुकारों
तो इतना ही हो
सकता है। इससे
ज्यादा हो सकता
था, अगर
सुख में
पुकारते। जब
दुखी थे तो
भगवान को ले
आए थे, जब
सुखी हो गए तो
रोकना न चाहा।
तब रोक लेना
था, कहते
कि अब कहां
जाते हैं! अब
तो न जाने
देंगे। जिससे
दुख में इतना
मिला था, काश
उसे रोक लेते
सुख में भी, तो फिर सब
कुछ मिल जाता!
लेकिन सोचा
होगा, बात
तो पूरी हो
गयी, अब
क्यों रोकना?
अब क्या
प्रयोजन? सुख
आया कि फिर हम
फिर भूलने
लगते हैं, फिर
हम विदा देते
हैं। हम कहते
हैं, अब जब
जरूरत होगी तब
फिर याद कर
लेंगे। हम भगवान
का भी उपयोग
करते हैं। और
यह भगवान का
उपयोग बडा
छोटा है। यह
तो ऐसे ही है
जैसे कोई
तलवार से एक
चींटी को
मारे। चींटी
को मारने के
लिए तलवार की
क्या जरूरत है?
भगवान
की मौजूदगी से
सिर्फ दुख
मिटे, तो यह
तुमने तलवार
का उपयोग
चींटी मारने
के लिए किया।
चींटी तो बिना
ही तलवार के
मारी जा सकती
थी।
यहां
मेरी दृष्टि
तुम्हें समझा
देना चाहता
हूं। इसलिए मैं
विज्ञान का
पक्षपाती
हूं। मैं कहता
हूं यह काम तो
विज्ञान से हो
सकता है, इसके
लिए धर्म की
कोई जरूरत
नहीं। बीमारी
तो विज्ञान से
दूर हो सकती
है, दरिद्रता
तो विज्ञान से
दूर हो सकती
है, विक्षिप्तता
तो विज्ञान से
दूर हो सकती
है, देह की
और मन की
आधियां और
व्याधियां तो
विज्ञान से
दूर हो सकती
हैं, इसके
लिए धर्म की
कोई जरूरत
नहीं है। धर्म
की तो तब
जरूरत है जब
विज्ञान अपना
काम पूरा कर चुका,
तुम सब
भांति सुखी हो,
अब महासुख
चाहिए। इसलिए
मैं विज्ञान
का पक्षपाती
हूं। तो मैं
मानता हूं
विज्ञान का
कुछ काम है।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं, वे
कहते हैं कि
लड़के को नौकरी
नहीं मिलती, कि पत्नी
बीमार है, कि
बेटी को वर
नहीं मिल रहा
है, आप कुछ
करें। मैं
कहता हूं कि
इन बातों का
इंतजाम तुम
खुद ही कर ले
सकते हो, कर
ही लोगे, कुछ
न कुछ हो ही
जाएगा, इन बातों
के लिए मेरे
पास मत आओ।
कुछ और बड़ा
नहीं खोजना है?
कुछ और
विराट की दिशा
में यात्रा
नहीं करनी है?
गांव
के लोग
प्रसन्न थे, अति
प्रसन्न थे।
बहुत छोटा ही
पाया था, शुरुआत
ही हुई थी
यात्रा की, लेकिन बुद्ध
को उन्होंने
रोका नहीं।
बुद्ध
के भिक्षुओं
ने पूछा होगा
किसी ने राह
में जाते
वक्त—यह
चमत्कार कैसे
हुआ?
भगवान ने
कहा—भिक्षुओ,
बात आज की
नहीं है।
बुद्ध
बड़े
वैज्ञानिक
हैं। वह
प्रत्येक चीज
की श्रृंखला
जोड़ते हैं।
विज्ञान का
अर्थ होता है, कार्य
—कारण का
नियम। अगर
वृक्ष है, तो
बीज रहा होगा।
अगर बीज था, तो पहले भी
वृक्ष रहा
होगा। अगर
वृक्ष था, तो
उसके भी पहले
बीज रहा होगा।
एक चीज से
दूसरी चीज
पैदा होती है,
सब चीजें
संयुक्त हैं,
कार्य—कारण
का जाल फैला
हुआ है। यहां
अकारण कुछ भी
नहीं होता, सब सकारण
है। बुद्ध का
इस पर बहुत
जोर था। इस सकारण
होने की धारणा
का ही नाम
कर्मवाद है।
तो
बुद्ध से जब
भी कोई कुछ
पूछता है तब
वह तत्क्षण
श्रृंखला की
बात करते हैं।
वे कहते हैं, किसी
कृत्य को
आणविक रूप से
मत लेना, एटामिक
मत लेना, कोई
कृत्य अपने
में पूरा नहीं
है, उस
कृत्य का जोड़
कहीं पीछे है
और कहीं आगे
भी। तो बुद्ध
ने कहा—बात आज
की नहीं है।
बीज बहुत
पुराना है, वृक्ष जरूर
आज हुआ है।
जब
भी बुद्ध के
शिष्य उनसे
पूछते हैं
उनके संबंध
में कोई बात, वह
उन्हें अपने
अतीत जीवनों
में ले जाते
हैं। वह बड़ी
गहरी खोज करते
हैं कि कहां
से यह संबंध जुड़ा
होगा, कैसे
यह घटना शुरू
हुई होगी। बीज
से ही शुरुआत
करो तो ही
वृक्ष को समझा
जा सकता है।
कारण को ठीक
से समझ लो तो
कार्य समझा जा
सकता है।
सूक्ष्म को ठीक
से समझ लो तो
स्थूल समझा जा
सकता है।
क्योंकि सारे
स्थूल की
प्रक्रियाएं
सूक्ष्म में
छिपी हैं।
वृक्ष
जरूर आज हुआ
है,
बुद्ध ने
कहा। मैं
पूर्वकाल में
शंख नामक ब्राह्मण
होकर
प्रत्येक
बुद्धपुरुष
के चैत्यों की
पूजा किया
करता था।
प्रत्येक
बुद्धपुरुष
की! ऐसा कोई
हिसाब न रखता
था कि कौन जैन, कौन
हिंदू कौन
अपना, कौन
पराया, कौन
श्रमण, कौन
ब्राह्मण, ऐसी
कर्हे चिंता न
रखता था। जो
भी जाग गए हैं,
उन सभी की
पूजा करता था।
गांव में
जितने मंदिर
थे, सभी पर
फूल चढ़ा आता
था। ऐसी
निष्पक्ष भाव
से मेरी पूजा
थी। कुछ बहुत
बड़े काम न
था। लेकिन, बुद्ध ने
कहा, उसका
ही जो बीज
मेरे भीतर पड़ा
रहा, उससे
ही चमत्कार
हुआ है। वह जो
निष्पक्ष भाव
से पूजा की थी,
वह जो
निष्कपट भाव
से पूजा की थी,
अपना—पराया
न देखा था, वही
बीज खिलकर आज
इस जगह पहुंच
गया है कि मैं
अमृत को
उपलब्ध हुआ
हूं। और जिनका
मुझसे साथ हो
जाता है, जो
मुझे किसी भी
कारण पुकार
लेते हैं अपने
पास, उनको
भी अमृत की
झलक मिलने
लगती है, उनके
जीवन से भी
मृत्यु विदा
होने लगती है।
मैं
प्रत्येक
बुद्धपुरुष
के चैत्यों की
पूजा किया
करता था। और
यह जो कुछ हुआ, उसी
के विपाक से
हुआ है। जो उस
दिन किया था
वह तो अल्प था,
अत्यल्प था, लेकिन उसका
ऐसा महान फल
हुआ है। बीज
तो होते भी
छोटे ही हैं।
पर इससे पैदा
हुए वृक्ष, छोटे से बीज
से पैदा हुए
वृक्ष आकाश के
साथ होड़ लेते
हैं। थोड़ा सा
त्याग भी, अल्पमात्र
त्याग भी
महासुख लाता
है।
कुछ
बड़ा मैंने
त्याग भी न
किया था उस
जन्म में, इतना
ही त्याग किया
था, अपना—पराया
छोड़ दिया था।
सभी
जाग्रतपुरुषों
को बेशर्त आदर
दिया था।
समझते
हो,
यह धार्मिक
आदमी का लक्षण
है। छोटा मत
समझना इसे, बुद्ध कितना
ही कहें कि
अल्पमात्र, यह छोटा
नहीं है। तुम
मस्जिद के
सामने से ऐसे ही
गुजर जाते हो
जैसे मस्जिद
है ही नहीं।
तुम गुरुद्वारे
के सामने से
ऐसे निकल जाते
हो जैसे
गुरुद्वारा
है ही नहीं।
अगर तुम
मुसलमान हो तो
हिंदू का
मंदिर
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ता। अगर तुम
हिंदू हो तो
जैन का मंदिर
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ता। यह धार्मिक
होने का लक्षण
न हुआ। यह तो
राजनीति हुई।
यह तो समूह और
संप्रदाय और
धारणा और
सिद्धात से
बंधे होना
हुआ।
धार्मिक
व्यक्ति को तो
जहां भी दीए
जले हैं, जिसके
भी दीए जले
हैं, वे
सभी दीए
परमात्मा के
हैं। फिर नानक
का दीया जला
हो
गुरुद्वारे
में तो कोई
फर्क नहीं
पड़ता, वहा
भी झुक आएगा।
फिर राम का
दीया जला हो
राम के मंदिर
में, वहा
भी झुक आएगा।
फिर कृष्ण का
दीया हो, वहां
भी झुक आएगा।
फिर मोहम्मद
का दीया हो, वहां भी झुक
आएगा।
धार्मिक
व्यक्ति ने तो
एक बात सीख ली
है कि जब भी
कहीं कोई दीया
जलता है तो
परमात्मा का
ही दीया जलता
है।
बुझे
दीए संसार के, जले
दीए भगवान के।
बुझे बुझों
में भेद होगा,
जले जलों
में कोई भेद
नहीं है। बुझा
दीया एक तरह
का, दूसरा
बुझा दीया
दूसरे तरह का!
मिट्टी अलग
होगी, कोई
चीनी का बना
होगा, कोई
लोहे का बना
होगा, कोई
सोने का बना
होगा, कोई
चांदी का बना
होगा।
स्वभावत:, मिट्टी
के दीए और
चांदी के दीए
में बडा फर्क
है। लेकिन जब
ज्योति जलेगी
तो ज्योति
कहीं चांदी की
होती है, कि
सोने की होती
है, कि
मिट्टी की
होती है!
ज्योति तो
सिर्फ ज्योति
की होती है।
ज्योति को जो
देखेगा, उसको
तो सभी जले
दीयों में एक
ही ज्योति का
निवास दिखायी
पड़ेगा। एक ही
सूरज उतर आया
है, एक ही
किरण
प्रविष्ट हो
गयी है।
इसको
बुद्ध तो कहते
हैं अल्प, लेकिन
मैं न कहूंगा
अल्प।
क्योंकि यह
अल्प भी हो
नहीं रहा है।
लोग सोचकर
जाते हैं, अपना
मंदिर, अपना
गुरु, अपना
शास्त्र।
दूसरे का
मंदिर तो
मंदिर ही नहीं
है। दूसरे के
मंदिर में
जाना तो पाप।
ऐसे शास्त्र हैं
इस देश में...।
जैन—शास्त्रों
में लिखा
है—ऐसा ही
हिंदू —शास्त्रों
में भी लिखा
है—कि अगर कोई
पागल हाथी तुम्हें
रास्ते पर मिल
जाए,
जैन—शास्त्र
कहते हैं, और
तुम मरने की
हालत में आ
जाओ, और
पास में ही
हिंदुओं का
देवालय हो, तो हाथी के
पैर के नीचे
मर जाना बेहतर,
लेकिन
हिंदुओं के
देवालय में
शरण मत लेना।
ऐसा ही हिंदू
के शास्त्र भी
कहते हैं—ठीक
यही का यही।
पागल हाथी के
पैर के नीचे
दबकर मर जाना
बेहतर है, लेकिन
जैन—मंदिर में
शरण मत लेना।
अगर जैन—मंदिर
के पास से
निकलते हो और
जैन—गुरु कुछ
समझा रहा हो
तो अपने कानों
में अंगुलियां
डाल लेना, सुनना
मत।
ये
धार्मिक आदमी
के लक्षण हैं? तो
फिर अधार्मिक
के क्या लक्षण
होंगे?
बुद्ध
कहते हैं—कुछ
और मेरी
विशिष्टता न
थी,
जब मैं शंख
नामक
ब्राह्मण था
किसी जन्म में,
तो मेरी
इतनी ही
विशिष्टता
थी—छोटी ही
समझो, बीजमात्र—
कि मैं सभी
बुद्धपुरुषों
को नमस्कार
करता था, सभी
चैत्यों में
जाता, सभी
शिवालयों में
जाता और
प्रार्थना कर
आता था, पूजा
कर आता था।
मैंने कोई
भेदभाव न रखा
था। उस अभेद
दृष्टि से यह
धीरे— धीरे बीज
फैला।
जो
अभेद को
देखेगा, वह एक
दिन अभेद को
उपलब्ध हो
जाएगा। जिसने
मिट्टी के
दीयों का
हिसाब रखा, वह दीयों
में ही पड़ा
रहेगा। जिसने
ज्योति देखी,
वह एक दिन
ज्योतिर्मय
हो जाएगा। तुम
जो देखते हो
वही हो जाते
हो। दृष्टि एक
दिन तुम्हारे
जीवन की
सृष्टि हो
जाती है।
तो
बुद्ध कहते
हैं,
आज यह जो
चमत्कार हुआ,
इसका बीज
बड़ा छोटा है।
अब समझना।
मैंने इसलिए कहा
कि दो तल पर यह
कथा है। एक तल
पर तो बुद्ध
का आना
महामारी से
भरी हुई
वैशाली में, वह एक तल है।
फिर दूसरा तल
है, भिक्षुओं
का बुद्ध से
पूछना। बुद्ध
कोई अवसर नहीं
चूकते। उन्होंने
अपने
भिक्षुओं को
भी संदेश दे
दिया कि कैसा
भाव होना
चाहिए। अगर
कभी तुम अमृत
को उपलब्ध
करना चाहते हो,
मृत्यु के
विजेता होना
चाहते हो, वस्तुत:
जिन होना
चाहते हो, तो
भेद मत करना।
सभी
बुद्धपुरुष, सभी
जाग्रतपुरुष
एक ही सत्य को
उपलब्ध हो गए
हैं—इस बीज को
अपने भीतर
जितने गहराई
में डाल सको
डाल देना। इसी
से किसी दिन
वृक्ष पैदा
होगा, फूल
लगेंगे। ठीक
समय, ठीक
अवसर पर
तुम्हारे
जीवन में बसंत
आ जाएगा। तब न
केवल
तुम्हारे
भीतर बसंत
आएगा, तुम
जहां से गुजर
जाओगे वहा भी
बसंत की हवा
बहेगी। तुम
जिनके साथ खड़े
हो जाओगे, उनके
भीतर भी
ज्योति पैदा
होगी। तुम
जिनका हाथ पकड़
लोगे, उनका
जीवन से
छुटकारा होना
शुरू हो
जाएगा। तुम्हारा
जो सहारा पकड़
लेंगे, तुम
उनके लिए नाव
बन जाओगे।
'थोड़े सुख के
परित्याग से
यदि अधिक सुख
का लाभ दिखायी
दे तो
धीरपुरुष
अधिक सुख के
खयाल से अल्पसुख
का त्याग कर
दे।’
और
बुद्ध ने कहा, यह
छोटा सा गणित
याद रखो कि
कभी—कभी ऐसा
होता है कि आज
हमें लगता है
कि इसमें खूब
सुख है और हमें
यह भी दिखायी
पड़ता है कि
अगर इसका
त्याग कर दें
तो कल अनतगुना
सुख हो सकता
है, लेकिन
वह कल होगा, तो हम आज के
ही सुख को पकड
लेते हैं। कल
के अनंत गुने
को छोड़ देते हैं।
इसलिए हम दीन
रह जाते हैं, दरिद्र रह
जाते हैं।
समझो कि
तुम्हारे पास
मुट्ठीभर
अन्न है, तुम
आज खा लो उसे, तो थोड़ा सा
सुख मिलेगा।
लेकिन अगर तुम
इसे बो दो—तो
शायद दों—चार
महीने
प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी—लेकिन
बड़ी फसल पैदा
होगी। शायद
सालभर के लायक
भोजन पैदा हो
जाए।
तो
बुद्ध कहते
हैं,
बुद्धिमान
कौन है? बुद्धिमान
वह है, जो
अल्प को
छोड़कर विराट
को उपलब्ध
करने में लगा
रहता है। जो
जीवन के
आत्यंतिक
गणित पर सदा ध्यान
रखता है कि जो
मैं कर रहा
हूं इसका अंतिम
फल क्या होगा?
आज का ही
सवाल नहीं है,
इसका आत्यंतिक
परिणाम क्या
होगा?
स्वभावत:, उस
दिन जब बुद्ध
शंख नाम के
ब्राह्मण थे,
थोड़ी अड़चन
हुई होगी। अगर
जैनों के
मंदिर में गए
होंगे तो
हिंदुओं ने
कहा होगा, तू
वहां क्यों
जाता
है—ब्राह्मण
थें—कष्ट हुआ होगा।
अगर हिंदुओं
के मंदिर में
गए होंगे तो जैनों
ने कहा होगा, कि तू तो
हमारे मंदिर
में आता है, अब वहां
क्यों जाता है?
कष्ट हुआ
होगा। गाव में
शायद पागल
समझे जाते होंगे।
तुम
जरा सोचो कि
तुम सब
मंदिर—मस्जिद
में जाकर
नमस्कार करने
लगो,
लोग
समझेंगे
दिमाग खराब हो
गया। जिनका
दिमाग खराब है,
वे समझेंगे
कि तुम्हारा
दिमाग खराब हो
गया। कष्ट हुआ
होगा।
प्रतिष्ठा
गंवायी होगी।
लोगों ने पागल
समझा होगा।
लेकिन
बुद्ध कहते
हैं,
वह छोटा सा
त्याग था, क्या
फर्क पड़ता है
कि लोगों ने
पागल समझा!
क्या फर्क
पड़ता था अगर
लोग समझते कि
मैं पागल नहीं
हूं! कुछ भी
फर्क नहीं
पड़ता था।
लेकिन उसका जो
परिणाम हुआ, व्यापक है।
जब
गंगा पैदा
होती है तो
बूंद—बूंद
पैदा होती है।
गोमुख से
गिरती है
गंगोत्री, तुम
अपनी मुट्ठी
में सम्हाल ले
सकते हो। फिर
रोज बड़ी होती
जाती है, बड़ी
होती जाती है।
जब गंगा सागर
में गिरती है तब
तुम विश्वास
भी न कर सकोगे
कि यह वही
गंगा है जो
गोमुख से
गिरती है। जो
गंगोत्री में
बूंद—बूंद टपकती
है, जिसको
तुम मुट्ठी
में बांध ले
सकते थे, यह
वही गंगा है? पहचान नहीं
आती।
बीज
छोटा, वृक्ष
बहुत बड़ा हो
जाता है।
बुद्धिमान
व्यक्ति
अल्पसुख को
छोड़ता चले
महासुख के
लिए। छोटे को
न पकड़े, क्षुद्र
को न पकड़े, विराट
पर ध्यान रखे।’दूसरे को
दुख देकर जो
अपने लिए सुख
चाहता है, वह
वैर—चक्र में
फंसा हुआ
व्यक्ति कभी
वैर से मुक्त
नहीं होता।’
और
बुद्ध ने कहा, सुख
तो सभी चाहते
हैं, मगर
सुख की चाह
में एक बात
खयाल
रखना—पहला तो
सूत्र कहा, अल्पसुख को
छोड़ देना
महासुख के लिए;
दूसरा सूत्र
कहा—यह खयाल
रखना कि सुख
तो चाहना, लेकिन
दूसरे के दुख
पर तुम्हारा
सुख निर्भर न हो।
दूसरे के दुख
पर आधारित सुख
तुम्हें अंतत:
दुख में ही ले
जाएगा, महादुख
में ले जाएगा।
हम
जो जीवन में
दुख भोग रहे
हैं,
वह हमने कभी
न कभी उन
सुखों की
आकांक्षा में
पैदा कर लिए थे,
जिनके कारण
हमें दूसरों
को दुख देना
पड़ा था। दूसरों
के लिए खोदे
गए गड्डे एक
दिन स्वयं को
गिराते हैं।
मैं
एक गांव में
ठहरा हुआ था।
उस रात उस
गांव में एक
बड़ी अनूठी
घटना घट गयी, फिर
मैं उसे भूल न
सका। छोटा
गांव, बस
एक ही ट्रेन
आती और एक ही
ट्रेन जाती, तो दो बार
स्टेशन पर
चहल—पहल होती।
आने वाली
ट्रेन दिन को
बारह बजे आती,
जाने वाली
ट्रेन रात को
दो बजे।
स्टेशन पर भी कुछ
ज्यादा लोग
नहीं हैं—एक
स्टेशन
मास्टर है, एकाध पोर्टर
है, एकाध
और आदमी
क्लर्क है।
कोई ज्यादा
यात्री आते
—जाते भी नहीं
हैं।
उस
रात ऐसा हुआ
कि एक आदमी
रात की गाड़ी
पकड़ने के लिए
सांझ स्टेशन
पर आया। वह
बार—बार अपने
बैग में देख
लेता था। स्टेशन
मास्टर को
संदेह हुआ, शक
हुआ कि कुछ
बड़ा धन लिए
हुए है। वह
अपने बैग को
भी दबाए था, एक क्षण को
भी उसे छोड़ता
नहीं था। आदमी
देखने से भी
धनी मालूम
पड़ता था। रात
दो बजे ट्रेन
जाएगी। मन में
बुराई आयी।
उसने पोर्टर
को बुलाकर कहा
कि ऐसा कर, दो
बजे रात तक
कहीं भी इसकी
जरा भी झपकी
लग जाए—और आठ
बजे रात के
बाद तो गांव
में सन्नाटा
हो जाता है, गाव भी कोई
दो मील
दूर—इसको खतम
करना है।
पोर्टर
ने कुल्हाड़ी
ले ली और वह
घूमता रहा कि यह
कब सो जाए।
मगर वह भी
आदमी जागा रहा, जागा
रहा, जागा
रहा। पोर्टर
को झपकी आ
गयी। और जब
पोर्टर को
झपकी आ गयी तो
वह आदमी जिस
बेंच पर बैठा
था उससे उठकर,
उसको नींद
आने लगी थी तो
अपना बैग लेकर
वह टहलने लगा
प्लेटफार्म
पर। इस बीच
स्टेशन
मास्टर आकर उस
बेंच पर लेट
गया, जिस
पर वह धनी
लेटा था।
पोर्टर की आंख
खुली, देखा
कि सो गया, उसने
आकर गर्दन अलग
कर दी। स्टेशन
मास्टर मारा
गया। सुबह
गांव में खबर
आयी। मैं उसे
भूल नहीं सका
उस घटना को।
इंतजाम उसी ने
किया था, मारा
खुद ही गया।
जीवन
में करीब—करीब
ऐसा ही हो रहा
है। जो दुख तुमने
दूसरों को दिए
हैं,
वे लौट
आएंगे। जो सुख
तुमने दूसरों
को दिए हैं, वे भी लौट
आएंगे। दुख भी
हजारगुने
होकर लौट आते
हैं, सुख
भी हजारगुने
होकर लौट आते
हैं।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं,
दूसरा
सूत्र याद
रखना, सुख
बन सके तो दे
देना; अगर
सुख न दे सको, तो कम से कम
दुख मत देना।
दूसरों को दुख
मत देना। अपना
सुख ऐसा बनाना
कि तुम पर ही
निर्भर हो, दूसरे के
दुख पर निर्भर
न हो।
फर्क
समझो।
एक
आदमी धन के
इकट्ठे करने
में सुख लेता
है। निश्चित
ही यह कई
लोगों का धन
छीनेगा। बिना
धन छीने धन
आएगा भी कहां
से?
धन बहुत
बहुलता से है
भी नहीं, न्यून
है। धन ऐसा
पड़ा भी नहीं
चारों तरफ।
जितने लोग हैं,
उनसे धन
बहुत कम है।
तो धन छीनेगा
तो धन इकट्ठा
कर पाएगा। यह
आदमी दूसरों
को दुख दिए
बिना धनी न हो
सकेगा। और धन
पाने से जो
सुख मिलने
वाला है, दो
कौड़ी का है।
और जितना दुख
दिया है, उसके
जो
दुष्परिणाम
होंगे, अनंत
समय तक उसकी
जो
प्रतिक्रियाएं
होंगी, वे
बहुत भयंकर
हैं।
एक
दूसरा आदमी
ध्यान में सुख
लेता है।
ध्यान और धन
में यही खूबी
है। ध्यान जब
तुम करते हो
तो तुम किसी
का ध्यान नहीं
छीनते।
तुम्हारा ध्यान
बढ़ता जाता है, किसी
का ध्यान
छिनता नहीं।
तो
बुद्ध कहेंगे, अगर
ध्यान और धन
में चुनना हो
तो ध्यान
चुनना, यह
अप्रतियोगी
है, इसकी
किसी से कोई
स्पर्धा
नहीं है। और
तुम्हारा
आनंद बढ़ता
जाएगा। और
आश्चर्य की
बात यह है कि
तुम जितने
आनंदित होते
जाओगे अनायास
तुम दूसरों को
भी आनंद देने
में सफल होने
लगोगे, समर्थ
होने लगोगे।
जो
है,
उसे हम
बांटते हैं।
दुखी आदमी दुख
देता है, सुखी
आदमी सुख देता
है —देना ही
पड़ेगा। जब फूल
खिलेगा और गंध
निकलेगी तो
हवाओं में
बहेगी ही। जब
तुम्हारा
ध्यान
सघनीभूत होगा,
तो
तुम्हारे
चारों तरफ गंध
उठेगी। सुख
दोगे तो सुख
मिलेगा। ऐसा
सुख खोजना जो
किसी के दुख
पर आधारित न
होता हो, यही
बुद्ध की
मौलिक शिक्षा
है।
और
फिर अल्प भी
सुख मिले आज, अल्प
भी शायद छोड़ना
पड़े कल के
महासुख के लिए,
तो उसे भी
छोड़ देना।
अल्प मिले तो
अल्प ले लेना,
अल्प छोड़ना
पड़े तो छोड़
देना, मगर
एक खयाल
रखना—जीवन का
पूरा विस्तार
खयाल रखना।
चीजें एक
—दूसरे से
संयुक्त हैं।
अंतिम परिणाम
क्या होगा, उस पर ध्यान
रहे। और ऐसा सुख
कमाना, जो
तुम्हारा
अपना हो, जिसके
लिए दूसरे को
दुखी नहीं
करना पड़ता है।
अब
एक आदमी को
राजनेता बनना
है,
तो उसे
दूसरों को
दुखी करना
होगा। अब
इंदिरा और
मोरारजी
दोनों साथ—साथ
सुखी नहीं हो
सकते, इसका
कोई उपाय नहीं
है। कोई न कोई
दुखी होगा।
तो
बूद्ध कहते
हैं,
ऐसी दिशा
में मत जाना, जहां किसी
को बिना दुखी
किए तुम सुखी हो
ही न सको।
हजार और उपाय
हैं जीवन में
आनंदित होने
के।
अब
एक आदमी
बांसुरी
बजाता हो, तो
इससे किसी का
कुछ लेना—देना
नहीं है,
यह अपने एकांत
में बैठकर
बांसुरी बजा
सकता है। एक
आदमी नाचता हो,
यह एकांत
में नाच सकता
है। एक आदमी
ध्यान करता हो,
यह एकांत
में ध्यान कर
सकता है। इसका
किसी से कुछ
लेना—देना
नहीं है।
ऐसे
सुख खोजना जो
निजी हैं। और
ऐसे बहुत सुख
हैं जो निजी
हैं। वस्तुत:
वे ही सुख है'।
क्योंकि
दूसरे को दुखी
कर कैसे सुखी
होओगे? कैसे
सुखी हो सकते
हो? पूरे
वक्त पीड़ा
भीतर बनी
रहेगी कि
दूसरे को दुख
दिया है, बदला
आता होगा प्रतिकार
होकर रहेगा, दूसरा भी
क्षमा तो नहीं
कर देगा।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं,
वैर—चक्र
पैदा हो जाता
है; विशियस
सर्किल पैदा
हो जाता है, दुष्ट—चक्र
पैदा हो जाता
है। तुम दूसरे
को दुख देते
हो, दूसरा
तुम्हें दुख
देने को आतुर
हो जाता है। फिर
इस श्रृंखला
का कहीं कोई
अंत नहीं है।
महासुख
के लिए अल्प
को छोड़ देना, बड़े
के लिए छोटे
को छोड़ देना, शाश्वत के
लिए
क्षणभंगुर को
छोड़ देना; और
ऐसा सुख खोजना
जो तुम्हारा
अपना हो, जिसके
लिए दूसरे पर
निर्भर नहीं
होना पड़ता है,
तब तुम
स्वतंत्र हो
गए। यही मुक्त
जीवन की आधारशिला
है।
ओशो
एस धम्मो सनंतनो
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