दिनांक
4 फरवरी, 1977,
ओशो
आश्रम,कोरेगांवपार्क, पूना।
सूत्र:
सप्तोउपि
न सषप्तौ च
स्वम्मेउयि
शयितो न च।
जागरेऽपि
न जागर्ति
धीरस्तृप्त:
पदे पदे।। 270।।
ज्ञ:
सचिन्तोउपि निश्चिन्त:
सेन्द्रियोऽयि
निरिन्द्रिय:।
सुबुद्विरपि
निर्बुद्धि
साहंकारोघ्नहंकृति:।।
271।।
न सुखी
न च वा दुःखी न
विरक्तो न
संगवान्।
न
मुमुक्षुर्न
वा मुक्तो न
किंचिन्न न
किंचन।। 272।।
विक्षेयेऽपि
न विक्षिप्त: समाधौ न
समाधिमान्।
जाडधेउपि
न जडो अन्य:
पंडित्येउपि
न पंडित:।। 273।।
मक्तो
यथास्थितिस्वस्थ:
कृतकर्तव्यनिर्वृत:।
सम:
सर्वत्र
वैतृष्णयान्न
स्मरत्यकृतं
कृतम्।। 274।।
न
प्रीयते
वद्यमानो
निद्यमानो न
कप्यति।
नैवोद्विजति
मरणे जीवने
नाभिनंदति।।
275।।
न
धावति
जनाकीर्ण
नारण्यमयशांतधी:।
यथातथा
यत्रतत्र सम
एवावतिष्ठते।!
276।।
इस अपूर्व
संवाद का
अंतिम चरण
करीब आने लगा।
अष्टावक्र के
आज के सूत्र
आखिरी सूत्र
होंगे। बाद
में थोडे
सूत्र और हैं, वे सूत्र
जनक के हैं।
गुरु ने सब कह
दिया जो कहा
जा सकता था और
जो नहीं कहा
जा सकता था।
जिसे बताया जा
सकता था और
जिसे बताने का
कोई उपाय नहीं
था। उस तरफ भी
इशारा कर दिया
जिस तरफ इशारे
हो सकते थे और
उस तरफ भी
इशारा कर दिया
जिस तरफ कोई
इशारा न कभी
हुआ है, न
हो सकता है।
आज
चरमशिखर है
अष्टावक्र के
वचनों का, आखिरी
बात। और यह
अष्टावक्र की
ही आखिरी बात
नहीं, यह
समस्त
ज्ञानियों की
आखिरी बात है।
इसके पार बात
नहीं जाती।
इसके पार शब्द
और नहीं उड़
पाते हैं। यह
उनकी सीमा आ
गयी। इसके पार
भी आकाश है, इसके पार भी
अनंत है—वस्तुत
इसी के बाद ही
असली शुरू
होता है—लेकिन
यहां तक शब्द
भी ले आते हैं।
यहां तक शब्द
की सवारी हो
सकती है, शब्द
के रथों पर
बैठकर यात्रा
हो सकती है।
इन
सूत्रों को
बहुत
ध्यानपूर्वक
सुनना, क्योंकि
इनसे ऊंचाई के
सूत्र कभी
नहीं कहे गये
हैं। फिर बाद
में जो थोड़े
सूत्र हैं, वे तो जनक की
ओर से हैं। गुरु
ने इतना दिया,
इतना दिया,
वे धन्यवाद—स्वरूप
हैं। वे आभार—स्वरूप
हैं। और इसलिए
भी हैं कि जनक
कह सकें कि
मैं समझ पाया
या नहीं। तो
जो कहा है
अष्टावक्र ने,
उसी को बहुत
संक्षिप्त
में, सूत्र
में, जनक
ने फिर दोहरा
दिया है। उस
दोहराने से
केवल इतना
बताया है कि
जो तुमने
दिखाया, वह
देख लिया गया
है। तुम्हारा
श्रम व्यर्थ
नहीं गया।
तुमने जो
मेहनत की थी, वे बीज अंकुरित
हुए हैं। फूल
खिल गये हैं।
आज के बाद के
सूत्र तो
निष्पत्तिया
हैं, सारे
अष्टावक्र के
वचनों का जो
सार—निचोड़ है।
लेकिन आज के
सूत्र शिखर
हैं, ये
गौरीशंकर हैं।
पहला
सूत्र—
सुप्तोउपि
न सुमुप्तौ च
स्वमेउपि
शयितो न च।
जागरेउपि
न जागर्ति
धीरस्तृप्त:
पदे पदे।।
'जो
सुषुप्ति में
भी नहीं सुप्त
है और जो
स्वप्न में भी
नहीं
स्वप्नाया, और जो
जाग्रत में भी
नहीं जाया हुआ
है, वह
धीरपुरुष
क्षण— क्षण
तृप्त है।’
इसे
समझने के पहले
बुद्धपुरुषों
के मनोविज्ञान
के चार खंड
समझ लेने
चाहिए।
पश्चिम
में तो अभी दो
सौ वर्ष पहले
तक जो भी
मनोविज्ञान
विचार करता था, उसकी
सीमा जागृति
थी। सुबह जब
आख खुलती है
और रात तुम सो
जाते हो, इसके
बीच ही जो
घटता था, मनोविज्ञान
उसी का अध्ययन
करता था। किसी
को यह भी
ख्याल न उठा
था कि रात भी, सोते भी तो
मनुष्य का मन
ही काम कर रहा
है। वह भी तो
मनोविज्ञान
है। और जब
आदमी आख खोलकर
देखता है, तब
भी मन का
व्यवहार है और
जब आख बंद
करके स्वप्न
देखता है, तब
भी मन का
व्यवहार है।
सिग्मंड
फ्रायड ने
पश्चिम में क्रांति
ला दी। बात
पश्चिम में
बड़ी क्रांतिकारी
लगी, क्योंकि
पूरब के ज्ञान
से पश्चिम
अपरिचित था, अन्यथा
सिग्मंड फ्रायड
ने जो कहा, उसका
कोई भी बड़ा
मूल्य नहीं है।
पूरब तो सदा
से यही कहता
रहा। सिग्मंड
फ्रायड ने क्रांति
खड़ी कर दी जब
उसने कहा कि
मनुष्य के मन
की असली खोज
तो स्वप्न में
होगी, निद्रा
में होगी।
क्योंकि
जागरण में तो
बड़ा धोखा है।
जाग्रत में तो
तुम जो
दिखलाते हो, उसके सच
होने की बहुत
कम संभावना है।
तुम जो चेहरे
ओढ़ लेते हो, वे अक्सर
झूठे हैं। तो
जागृति से तो
तुम्हारे मन
का ठीक—ठीक
पता चलेगा
नहीं, जागृति
तो धोखा पैदा
करती है। इससे
तो जो पता
चलता है, इतना
ही पता चलता
है कि ऐसे तुम
नहीं हो। आदमी
मुस्कुरा रहा,
मित्रता दिखला
रहा, और हो
सकता है भीतर
छुरे पर धार
रख रहा है
तुम्हारे लिए।
जितनी छुरे पर
धार रख रहा है,
उतना ही
मुस्कुरा रहा
है, ताकि
तुम्हें कहीं
छुरे की धार
दिखायी न पड़
जाए। वह
मुस्कुराहट
आवरण है।
मित्रता दरसा
रहा है, क्योंकि
गला काटना है।
उतनी ही
ज्यादा
मित्रता दिखला
रहा है, उतना
ही हमजोलीपन
दिखला रहा है।
चेहरे तो बड़े
झूठे हैं!
तो
फ्रायड ने जब
यह कहा कि अगर
आदमी की
असलियत जाननी
हो तो उसके
सपनों में
झांकना पड़ेगा, क्योंकि
वहा मन
निखालिस है, वहा धोखाधड़ी
नहीं है। इतने
कुशल बहुत कम
लोग हैं कि
सपने में धोखा
दे दें। हैं कुछ
लोग। और कभी—कभी
तुम भी इतने
कुशल हो जाते
हो धोखा देने
में कि सपने
में भी धोखा
दे सकते हो, लेकिन बहुत
कम लोग हैं।
सपने तक धोखा
देना मुश्किल
हो जाता है।
तो
फ्रायड ने एक
नया अध्याय
खोला कि
मनुष्य के मन
का विश्लेषण
मनुष्य के
स्वप्न का
विश्लेषण
होगा। जब फ्रायड
ने पहली दफे
यह बात कही तो
लोगों ने
भरोसा न किया।
उन्होंने कहा, हमें
जानना है तो
हमसे पूछो, सपने में
क्या देखना है?
सपने में
क्या धरा है!
सपने में हो
क्या सकता है?
तुम भी सपने
को कोई बहुत
मूल्य तो देते
नहीं। रात अगर
तुमने किसी की
हत्या कर दी
तो सुबह उठकर
तुम चिंतित
थोड़े ही होते
हो कि रात
हत्या कर दी।
लेकिन तुमने
हत्या की है, रात की कि
दिन की, क्या
फर्क पड़ता है।
तुम हत्या
करने के भाव
से भरे हो, इतना
तो सिद्ध होता
है। आज रात
में की है, कल
दिन में भी कर
सकते हो।
विचार तो
मौजूद है। बीज
तो मौजूद है।
बीज अगर मौजूद
है तो कभी भी
वृक्ष हो सकता
है। कृत्य बन
सकता है विचार,
क्योंकि
विचार ही तो
कृत्य बनते
हैं। जो आज
कृत्य हो गया
है, वह कल
विचार था। जो
आज विचार है, कल कृत्य हो
सकता है।
इसलिए
इसके पहले कि
तुम अपने जीवन
के ढांचे को
बदलों, तुम्हारे ये
स्वप्न के ढांचे
भी बदलने
चाहिए।
क्योंकि
स्वप्न
तुम्हारे
जीवन को
निर्मित कर
रहे हैं।
स्वप्नों में
नक्शे हैं
तुम्हारे
जीवन के। क्या
तुम होने वाले
हो, इसकी
खबरें हैं।
तुम रात किसी
की पत्नी को
लेकर भाग गये
सपने में, सुबह
उठकर तुम
परेशान नहीं
होते। तुम
कहते हो, सपना
था। लेकिन
भागे तुम, भागना
तुम चाहते हो।
दूसरे की पत्नी
में तुम
उत्सुक हो। रस
है तुम्हें।
शायद दिन में
तुम्हें यह
दिखायी भी
नहीं पड़ता।
दिन में तो
तुम राम—राम
जपते रहते हो,
माला फेरते
रहते हो। दिन
में तो यह
विचार उठेगा
तो तुम हंसोगे
कि कैसा गलत
विचार उठ रहा
है। दिन में
तो तुम ऐसा
दिखलाते हो
दूसरों को और
अपने को भी कि
यह विचार गलत
है। लेकिन है
तुम्हारा! रात
सपने में जब
उठेगा, तब
तुम कर
गुजरोगे। जो
आज सपने में
किया है, वह
मजबूत होता
जाएगा। उसकी
लीक पड़ेगी।
सिर्फ
एक छोटा —सा
आदिम कबीला है
फिलिपाइन्स
में, जहां
उन्होंने
सपनों को बड़ा
मूल्य दिया है।
और पहली बात
उस कबीले में
जो होती है, वह सुबह
उठकर सपनों की
चर्चा होती है।
जब उस कबीले
का अध्ययन
किया गया तो
लोग बड़े चकित
हुए, वह
अनूठा कबीला
है। छोटा—सा
कबीला है, आदिम
लोगों का है, जंगली है।
मगर उन जैसे
सभ्य आदमी
कहीं पाए नहीं
गये अब तक। और
उनकी सभ्यता
का सारा राज
यह है कि
उन्होंने
अपने सपनों
में बड़ी गति
पायी है।
छुटपन से, बच्चे
पैदा हुए और
जैसे ही बच्चा
बोलने लगा, तो जो पहली
बात बच्चे से
पूछी जाती है
वह यह कि तूने
रात सपना क्या
देखा? और
घर के बड़े—बूढ़े
उसका
विश्लेषण
करते हैं कि
इसके सपने का
अर्थ क्या है।
धीरे—धीरे
उसको सपने के
माध्यम से वे
बताने लगते हैं
कि तुझे यह
करना चाहिए, तेरा सपना
यह कह रहा है।
एक
छोटे बच्चे ने
सपना देखा कि
पड़ोस के लड़के
को एक चांटा
मार दिया। तुम
तो इसको मूल्य
भी न दोगे।
तुम तो हत्या
करने को भी
मूल्य नहीं
देते। लेकिन
इस आदिम कबीले
के लोग उस
बच्चे को
कहेंगे, जाकर उस
बच्चे से
क्षमा मांगो
कि भूल हो गयी।
सपने में
चांटा मारा!
तो चाटा मारना
तुम चाहते हो,
इतना सिद्ध
हुआ। जाकर
क्षमा मांगो।
क्षमा मांगने
से ही नहीं
चलेगा, क्योंकि
चांटा तो लग
गया, चोट
तो हो गयी, कुछ
भेंट भी ले जाओ।
कुछ खिलौना ले
जाओ, मिठाई
ले जाओ, उसे
देना और माफी
मांगना और
कहना कि बड़ी
भूल हो गयी, सपने में
चांटा मार
दिया। छोटे
बच्चे! छोटे
बच्चों को तो
सपने और जागरण
में बहुत फर्क
भी नहीं होता।
छोटा बच्चा तो
रात सपने में
खिलौना खो
जाता है तो
सुबह रोता है,
पूछता है, मेरा खिलौना
कहां है? तुम
समझाते हो कि
सपना था, पागल!
अभी बच्चे को
सपने और सत्य
में बहुत फासला
नहीं है।
इस बात
को खयाल में
लेना कि बच्चे
को सपने और सत्य
में बहुत फर्क
नहीं है। संत
को भी सपने और
सत्य में बहुत
फर्क नहीं रह जाता।
इसीलिए तो
संतों ने जगत
को माया कहा
है। जगत को
सपना कहा है।
जिसको तुम
यथार्थ कहते
हो उसको संत
सपना कहते हैं।
और बच्चा सपने
को भी सच मान
लेता है। संत
और बच्चे में
थोड़ा—सा फर्क
है, जरा—सा
फर्क है।
बच्चा सपने को
सच मान लेता
है। संत सपने
को तो सच
मानता ही नहीं,
सच को भी
सपना जान लेता
है। मगर दोनों
में कुछ
तालमेल है।
इसलिए जीसस
ठीक कहते हैं,
मेरे प्रभु
के राज्य में
वे ही प्रवेश
करेंगे जो
छोटे बच्चों
की भांति सरल
हैं। इसलिए
अष्टावक्र
बार—बार
दोहराते हैं,
बालवत जो हो
गया, वही
परमज्ञानी है।
ये दूसरे छोर
से बालवत हो
जाना है। सपना
तो सपना हो ही
गया, यह
जिसको तुम
जाग्रत फैलाव
कहते यथार्थ
का, वस्तु —जगत,
यह भी
स्वन्नवत हो
गया।
इस
छोटे कबीले
में बच्चों को
बचपन से ही एक
बात सिखायी
जाती है कि
सपने में भी
भूल हो गयी तो भूल
हो गयी। अब
तुम सोचो, जो सपने
में भी भूल
करने में धीरे
— धीरे जागने
लगते हैं, उनसे
जागरण
में तो कैसे
भूल होगी? इसलिए यह
कबीला इस
पृथ्वी का
सबसे ज्यादा
सभ्य कबीला है।
इस कबीले में
आज तब कोई
हत्या नहीं
हुई। न कोई
चोरी हुई। न
कोई
आत्महत्या
हुई। और इस
कबीले के
इतिहास में
कोई आदमी कभी
पागल नहीं हुआ।
और यह कबीला
कभी युद्ध में
नहीं उतरा। अपूर्व
है घटना! आदमी
और युद्ध न
करे! आदमी और
चोरी न करे!
आदमी और हत्या
न करे! आदमी और
पागल न हो! तो फिर
आदमी करेगा
क्या? यही
तो सारे काम
हैं। सौ में
निन्यानबे तो
यही काम हैं
हमारे जीवन के।
कुछ थोड़ा—बहुत
बच जाता है, उसमें हम और
तरह से जीते
हैं, अन्यथा
यही हमारा
जीवन है, लड़ो,
मारो।
इस
कबीले की
सभ्यता बड़ी
अनूठी है। और
इस कबीले को न
तो किसी ने
अहिंसा की
शिक्षा दी—न
बुद्ध हुए, न महावीर
हुए—न किसी ने
सत्य की
शिक्षा दी, न किसी ने
धर्म सिखाया।
यह कबीला कोई
बहुत बड़ा
धार्मिक
कबीला नहीं है,
लेकिन इस
कबीले के लोग
बड़े धार्मिक
हैं। फर्क समझ
लेना, जब
मैं कहता हूं
धार्मिक नहीं
हैं तो मेरा
मतलब, न तो
पंडित, न
पुरोहित, न
मंदिर, इस
सबकी बहुत
चिंता नहीं है।
लेकिन एक बड़ी
कीमिया पकड़ ली
उन्होंने, कुंजी
पकड़ ली कि
स्वप्न में
रूपांतरण
करना है। जब
स्वप्न बदल
जाता है, जब
विचार बदल
जाते हैं, तो
कृत्य बदल
जाते हैं।
उन्होंने
बहुत आधारभूत
बात पकड ली।
फ्रायड
ने इस सदी को
यही आधारभूत
बात पश्चिम में
दी। जब पश्चिम
में फ्रायड ने
दी तो लोग
चकित हुए।
मनोविज्ञान
इतना ही कर
रहा है, मनोविश्लेषण
इतना ही कर
रहा है, पागल
आदमी के सपनों
की खोज करता
है। और सपनों
की खोज से
पागल आदमी को
सत्य का दर्शन
कराता है।
जैसे—जैसे
पागल आदमी को
अपने सपने का
बोध स्पष्ट होने
लगता है, वैसे—वैसे
उसके जीवन—
व्यवहार में
रूपांतरण हो
जाता है। यह
बात क्रांतिकारी
थी पश्चिम में,
लेकिन पूरब
में नहीं।
पूरब तो
सदियों से यह
कह रहा है।
यह
अष्टावक्र का
सूत्र अपूर्व
है।
अष्टावक्र यह
कह रहे हैं कि
ऐसी भी गहरी
समझ है जहां
स्वप्न ही
नहीं समझ लिये
जाते, सुषुप्ति
भी समझ ली
जाती है।
सुषुप्ति
और गहरी है।
पहले जागृति—दिन
का व्यवसाय, आचरण, व्यवहार,
फिर स्वप्न
का व्यवसाय, आचरण, व्यवहार;
फिर इसके
नीचे
सुषुप्ति है,
जहां
स्वप्न भी
नहीं रहा। न
बाहर की
दुनिया रही न
भीतर की
दुनिया रही, तुम अपने
में बिलकुल
बंद हो गये।
द्वार—दरवाजे
बंद करके तुम
बीज की तरह हो
गये। कोई
अंकुरण न उठा—कोई
विचार नहीं, कोई तरंग
नहीं। यह
सुषुप्ति। और
इससे भी एक
गहरी दशा है
जिसको तुरीय
कहा है। जहां
तुम इस भीतर
की अपूर्व शात,
स्वात दशा
में जाग्रत हो
गये। सोए—सोए
जग गये, सोए
में जग गये।
शरीर सोया रहा,
मन सोया रहा
और चैतन्य जग
गया। इसको
चौथी अवस्था
कहा।
पश्चिम
का
मनोविज्ञान
अभी दो में
उलझा है—पहले
एक में ही, जागृति
में उलझा था।
फ्रायड के
अनुदान से
स्वप्न में भी
लग गया है।
अभी— अभी दस
वर्षों में
सुषुप्ति पर
भी खोज शुरू हुई
है। अमरीका
में दस
प्रयोगशालाएं
काम कर रही
हैं आदमी की
नींद की खोज
के लिए कि
आदमी की नींद
में क्या घटता
है। लेकिन
चौथे की अभी
कोई भी खबर
नहीं है। और
उसी चौथे पर
पूरब का सारा
मनोविज्ञान
खड़ा है। चौथे
तक भी आना
पड़ेगा पश्चिम
को। पहले
स्वप्नों को
नहीं मानते थे,
क्या
रखा है
स्वप्न में, फिर
स्वप्न पर बड़ा
मूल्य हुआ।
फिर सुषुप्ति
की कोई चिंता
नहीं थी, फ्रायड
ने कोई फिकर
नहीं की नींद
की, सिर्फ
स्वप्न तक
रुका रहा, लेकिन
अब
मनोवैज्ञानिक
नींद में जा
रहे हैं। और
इससे चौथी, तुरीय का
अर्थ होता है—चौथी।
उसको नाम नहीं
दिया, क्योंकि
वह अब आखिरी
है, उसको
क्या नाम देना।
वह तो नाम के
बाहर है। इन
तीन के जो पार
है वह चौथी।
उस चौथी को
समझ लें तो यह
सूत्र समझ में
आएगा।
तुरीय
का अर्थ होता
है, इतने
शात जैसे गहरी
नींद में होते
हैं, और
इतने जाग्रत,
जैसे भरे
जागरण में
होते हैं। यह
विरोध का मिलन।
ऐसे जाग्रत
जैसे भर
जागृति में
होते हैं—कभी—कभी
होता है। कोई
आदमी
तुम्हारी
छाती पर एकदम
छुरा लेकर आ गया,
उस क्षण में
क्षण भर को
तुम जागते हो।
प्रचंड जागरण
होता है। एक
क्षण को सब
तंद्रा टूट
जाती है। चले
जा रहे थे
रास्ते पर
अपने विचार
में खोए कि यह
धंधा कर लें, कि वह धंधा
कर लें, कि
इतनी कमाई हो
जाएगी, कि
ऐसा मकान बना
लेंगे, कि
इस लड़की से
शादी कर लेंगे,
ऐसा कुछ चले
जा रहे थे मन
में अपना गणित
बिठाते, शेखचिल्ली
बने, एक आदमी
एकदम छुरा
लेकर आ गया।
अब छुरा ऐसी
बात है कि तीर
की तरह तोड़
देगा सब सपने
के जाल को।
मौत सामने खड़ी
है, अब
कहां फुरसत
किससे शादी
करें, कौन—सी
दुकान करें, कौन—सा धंधा
चलाएं, कैसे
पैसा कमाए, इधर मौत आ
गयी, ये सब
बातें एकदम
बेमानी हो
गयीं। और छुरा
इतना प्रत्यक्ष
सामने खड़ा है
कि तुम एक
क्षण को तो
जागरूक हो ही
जाओगे। इसलिए
कभी—कभी खतरे
में जागरण आता
है। और इसीलिए
खतरे में रस
है।
जो लोग
पहाड़ पर चढ़ने
जाते हैं
हिमालय, उनका रस तुम
जानते हो क्या
है? रस यही
है कि किसी
समय रस्सी से
झूलते हुए खाई—खंदक
के ऊपर
प्राणों पर
संकट होता है।
जरा—सी चूक और
गये। जरा—सा
पैर चूका कि
सदा के लिए खो
गये। एक —एक
सांस आखिरी
मालूम होती है।
उसी कारण एक
बड़ा प्रकांड
जागरण पैदा
होता है। एक
रस। वह समाधि
का रस है, वह
तुरीय का रस
है। थोड़ा—सा, झलक मात्र।
इसीलिए युद्ध
के मैदान पर
लोग ताजे हो
जाते हैं।
जहां मौत
चारों तरफ
बरसती हो।
इसीलिए लोग
कार तेजी से
चलाते हैं, एक ऐसी सीमा
आ जाती है—सौ
मील प्रति
घंटे जा रहे
हैं, एक सौ
दस मील, एक
सौ बीस मील, अब ऐसी घड़ी आ
गयी है जहां
एक—एक क्षण
खतरनाक है।
जरा—सी चूक और
गये। उस समय
एक पुलक से
प्राण भर जाता
है, विचार
सब बंद हो
जाते हैं।
इतने खतरे में
विचार करने की
सुविधा किसे
हो सकती है? इसीलिए लोग
खतरनाक खेल
खेलते हैं।
इसीलिए लोग
जुए पर दाव
लगाते हैं। सब
लगा दिया दाव।
एक
जापानी
अभिनेता ने
करोड़ों डालर
कमाए और जिंदगी
के अंत में
सारे रुपये ले
जाकर इकट्ठे, एक बार
फ्रांस में
जुए पर दांव
पर लगा दिये।
जरा उसकी सोचो
हालत! सब
इकट्ठा। या इस
पार, या उस
पार। बात ऐसी
थी कि दूसरे
दिन अखबारों
में खबर छपी—क्योंकि
वह हार गया—कि
उसने
आत्महत्या कर
ली। किसी
दूसरे जापानी
ने आत्महत्या
कर ली थी एक होटल
के ऊपर से
कूदकर।
अखबारों ने तो
मान ही लिया
कि यह वही
आदमी हो सकता
है, और कौन
कूदेगा? जिंदगी
भर की कमाई सब
दाव पर लगा दी।
मगर वह आदमी
मजे से सो रहा
था। जब उस
होटल के
मैनेजर ने
उसको जगाया और
पूछा, आप
अभी जिंदा, अखबारों में
तो खबर छप गयी
कि आप मर गये!
तो उसने कहा
मैं किस लिए
मरूं? सच
तो यह है कि
दाव पर लगाकर
सब कुछ पहली
दफे मैंने
जिंदगी का रस जाना।
ऐसा प्रगाढ़
रूप से मैं
कभी होश से
भरा हुआ नहीं
था। जब सब दाव
पर लगाया—सारी
जिंदगी दाव पर
लगा दीं—तों
सोच —विचार का
मौका न रहा।
एक—एक पल ऐसा
सरकने लगा, जैसा कभी
नहीं सरका था।
अपनी ही सास
की धड़कन
सुनायी पड़ने
लगी। इधर या
उधर! या तो सब
गया, या सब
दुगुना हो
जाएगा। सोचने—विचारने
की फुरसत न
रही। ठगा खड़ा
रह गया। और
फिर हार भी
गया। अब जब सब
हार ही गया तो
अब क्या!
इसलिए शाति से
सो गया, अब
तो कुछ बचा ही
नहीं, बात
ही खतम हो गयी,
अब सुबह
देखेंगे, जो
होगा होगा।
चिंता तो
तब होती है जब
कुछ हो। दो
अवस्थाओं में
चिंता मिटती
है—या तो सब
कुछ हो, या कुछ न हो।
तो सब कुछ तो
सिर्फ
परमात्मा को
होता है और कुछ
न संन्यासी को
होता है। बस
दो ही हालत
में चिंता
मिटती है।
क्योंकि
दोनों ही हालत
में पूर्णता
होती है। या
तो सब हो, फिर
क्या चिंता!
इसलिए
परमात्मा
निश्चित है।
या कुछ भी न हो,
फिर क्या
चिंता! चिंता
करने को भी
कुछ तो चाहिए।
अब कुछ ही
नहीं है तो
चिंता कैसी!
तौ संन्यासी निश्चित
है। और
संन्यासी और
परमात्मा का
किसी बड़े
भीतरी द्वार
पर मिलन हो
जाता है।
क्योंकि
पूर्ण और
शून्य मिलते
हैं।
खतरे
का इसीलिए
इतना आकर्षण
है, क्योंकि
खतरे में थोड़े
जागरण का
स्वाद आता है।
ये तीन
अवस्थाएं हैं।
जिसको तुम
जागरण कहते, इसको
ज्ञानी जागरण
नहीं कहते—यह
कोई जागना है!
यह तो तुम सोए—सोए
चल रहे हो।
तुम सोए—सोए
काम करने में
कुशल हो गये
हो। आख खुली
है तुम्हारी
लेकिन जागे
तुम कहां? क्योंकि
आख तो खुली है
और भीतर हजार—हजार
स्वप्न चल रहे
हैं। और सपने
तुम्हारे
नहीं हैं। तुम
सपनों के नहीं
हो। सपने सब
उधार हैं।
सपने सब औरों
के हैं। सपने
सब किसी ने दे
दिये हैं।
सपने तुम
आसपास से पकड़
रहे हो।
तुम्हें इस
सत्य का पता
नहीं है कि
सभी विचार जो
तुम्हारे
भीतर चलते हैं,
तुम्हारे
नहीं हैं। तुम
तो निर्विचार
हो, विचार
तो तुम इधर—उधर
से पकड़ लेते
हो। ऐसा भी
नहीं है कि
कोई कहे तब
तुम पकड़ते हो।
तुम्हारे पास
एक आदमी आकर
बैठ गया, उसकी
विचार की
तरंगें
तुम्हारी
खोपड़ी में प्रविष्ट
होने लगती हैं।
कभी—कभी
किसी आदमी के
पास बैठकर बड़े
बूरे विचार आने
लगते हैं। कभी
किसी आदमी के
पास बैठकर बडे
अच्छे विचार आने
लगते हैं।
इसीलिए तो लोग
सत्संग में
जाने लगे।
सदियों पहले
यह बात समझ
में आ गयी कि
किसी के पास
बैठकर शुभ
विचार आने
लगते हैं, किसी के
पास बैठकर
अशुभ विचार
आने लगते हैं।
और किसी के
पास ऐसी भी
घटना घटती है
कि विचार नहीं
आते। जिस के
पास बुरे
विचार आएं, वह असाधु।
जिसके पास
अच्छे विचार
आएं, वह
साधु। और
जिसके पास
निर्विचार की
थोड़ी—सी झलक
आने लगे, वह
संत, परमहंस,
बुद्ध, जिन।
हमने कैसे
पहचाना?
लोग
पूछते हैं कि
हमने कैसे
पहचाना कि कोई
आदमी जिनत्व
को उपलब्ध हो
गया है? कि बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
गया है? एक
ही उपाय है
पहचानने का, उसके पास
रहने लगो, बसो
उसके पास, रुको
उसके पास। अगर
तुम्हें किसी
दिन शाति के
तैरते हुए
बादल
तुम्हारे
भीतर आ जाएं
और अचानक तुम
पाओ कि सब विचार
खो गये हैं, वे जो अनवरत
चलते थे, दिन—रात
चलते थे, वह
जो तुम्हारे
भीतर कोलाहल
मचा ही रहता
था, अचानक
जैसे कोई ले
गया सब कोलाहल;
आया एक बादल
और वर्षा हो
गयी और तुम
शीतल हो गये; आया एक हवा
का झोंका और
सब धूल उड़ गयी
और तुम ताजे
और नये हो गये,
जैसे कुछ
अनहोना घटा और
तुम सकते में
आ गये, कोई
विचार न
रहा, तुम
निर्विचार हो
गये, जिसके
पास
निर्विचार घट
जाए, जानना
कि वहा
बुद्धत्व घटा
है। और तो कोई
उपाय नहीं है।
जानना कि वहा
जिनत्व घटा है।
हम
प्रतिपल
दूसरे के
विचारों से
प्रभावित होते
हैं। ऐसा समझो
कि जो श्वास
मैंने ली अभी, मेरे
भीतर है अभी, थोड़ी देर
बाद तुम्हारी
श्वास हो
जाएगी। और अभी
जो श्वास
तुम्हारे
भीतर है, थोड़ी
देर बाद मेरी
श्वास हो
जाएगी। हम एक—दूसरे
की श्वासें ले
रहे न! ठीक ऐसे
ही हम एक —दूसरे
के विचार भी
पी रहे हैं।
दिखायी नहीं
पड़ता कि दूसरे
की श्वास
तुम्हारी
श्वास में गयी।
तुमने कभी
शायद ऐसा सोचा
भी न हो, नहीं
तो घबड़ाने भी
लगो कि अरे, यह दुष्ट
बैठा है, इसकी
श्वास भीतर जा
रही है मेरे, भागो यहां
से, कहीं
इसकी श्वास
कहा का गंदा
आदमी बिना
नहाए— धोए
बैठा है, इसकी
श्वास मेरे
भीतर जा रही
है! मैं
ब्राह्मण, यह
शूद्र; मैं
नहाया — धोया, पवित्र, पुण्यात्मा,
यह पापी!
मगर श्वास आ—जा
रही है। जैसे
श्वास आ—जा
रही अदृश्य, उससे भी
ज्यादा
अदृश्य विचार
आ—जा रहे।
प्रत्येक
व्यक्ति एक
ब्राडकास्टिंग
है। पूर वक्त
फेंक रहा अपने
चारों तरफ
तरंगें, सूक्ष्म
तरंगें, और
सब आसपास
उन्हें लोग
पकड़ रहे। तुम
तभी तरंगें
पकड़ना बंद
करते हो, जब
तुम समाधि को
उपलब्ध होते
हो। तब तुम
किसी के भी
पास बैठे रहो,
तुम
सुरक्षित।
तुम्हारे
छिद्र में कुछ
प्रवेश नहीं
करता। और जिस
दिन तुम इस
शोग्य हो जाते
हो कि तुम्हारे
भीतर दूसरे की
तरंगें
प्रवेश नहीं
करतीं, उस
दिन तुम्हारा
शून्य दूसरों
में प्रवेश
करने लगता है।
शिष्य
और गुरु का
इतना ही अर्थ
है। जिसकी तरफ
से शून्य बहने
लगा, वह
गुरु; और
जो उस शून्य
को लेने को
राजी हो गया
झोली फैलाकर,
अंजुली
पसारकर, वह
शिष्य। शून्य
का आदान—प्रदान
जिनके बीच
होता है, वे
ही शिष्य और
गुरु।
ये जो स्वप्न
तुम्हारे
भीतर चलते हैं, इन्हें
तुम अपने मत
मान लेना।
और
निद्रा में
अमित
अव्यक्त
भावों के
सहस्रों
स्वप्न चलते
हैं
ये
सहस्रों
स्वप्न जो
अपने नहीं हैं, ये भी सब
उधार हैं। जरा
देखो तो अपनी
गरीबी! सपने
भी अपने नहीं।
जरा देखो तो
दीनता! धन तो
अपना है ही नहीं,
पद तो अपना
है ही नहीं, सपना तक
अपना नहीं! वह
भी दूसरे पैदा
कर देते।
तुम
इसके चाहो
छोटे—मोटे
प्रयोग कर
सकते हो।
तुम्हारी
पत्नी सो रही
हो र चले जाना
उसके पास, एक बरफ का
टुकड़ा धीरे —
धीरे उसके पैर
में छुलाना और
फिर बाद में
उससे जब वह
जागे तो पूछना
कि तूने क्या
सपना देखा? वह सपना
देखेगी कि
पहाड़ गयी है, बरफ पर चल
रही है। इस
तरह का सपना
पैदा हो जाएगा।
या जरा आच दे
देना उसके पैर
को तो सपना
देखेगी कि चली
गयी मरुस्थल
में, कि
सहारा में
पहुंच गयी, कि धूप पड़
रही भयंकर, कि पैर जल
रहे भयंकर! यह
तो तुमने बड़ा
स्थूल काम
किया। या
तकिया रख देना
उसकी छाती पर।
वह सोचेगी कि
आ गया कोई
दैत्य, दानव,
छाती पर
बैठा है।
घबड़ाने लगेगी।
परेशान होने
लगेगी। तकिया
तो दूर, उसके
ही हाथ दोनों
उसकी छाती पर
रख देना, तो
घबड़ाने का
सपना देखने
लगेगी। यह तो
मैं तुमसे
स्थूल कह रहा
हूं यह तो
स्थूल है बात।
सूक्ष्म बात
भी कर सकते हो।
कोई
आदमी सोया हो, उसके पास
बैठ जाना और
कोई एक विचार
बहुत प्रगाढता
से सोचने लगना।
अगर कोई
व्यक्ति
सोनेवाला
तुमसे
संबंधित हो—इसलिए
मैंने कहा
पत्नी, या
पति, या
बेटा जिनसे
तुम्हारा
गहरा संबंध हो—वे
ज्यादा
शीघ्रता से
ग्रहण करते हैं।
प्रेम के
सहारे सब तरह
की बीमारियां
एक—दूसरे में
आती—जाती हैं।
द्वार खुला
रहता है। बैठ
जाना अपनी
पत्नी के पास
आख बंद करके
और एक ही
विचार सोचना—कोई
भी एक विचार, जैसे एक
नंगी तलवार
लटकी है। खूब
प्रगाढ़ता से
सोचना कि नंगी
तलवार तुम्हें
बिलकुल
स्पष्ट
दिखायी पड़ने
लगे। और तुम
सोचना कि यह
नंगी तलवार
मेरी पत्नी को
भी दिखायी पड़
रही है, दिखायी
पड़ रही है।
सोचते ही जाना,
सोचते ही
जाना, घूम—घूम
कर बार—बार
इसी पर आ जाना,
बार—बार
सोचना। तुम
चकित हो जाओगे,
दो —चार दफे
प्रयास करने
के बाद तुम
सफल हो जाओगे।
पत्नी जागकर
कहेगी कि आज
एक अजीब सपना
आया कि एक
नंगी तलवार लटकते
देखी।
इस पर
बहुत प्रयोग
हुए हैं। और
अब तो एक
वैज्ञानिक
आधार पर यह
बात कही जा सकती
है कि सपने भी
एक—दूसरे में
प्रवेश करते
हैं, विचार
भी एक—दूसरे
में प्रवेश
करते हैं। एक
छोटा—सा
प्रयोग तुम कर
सकते हो। चले
जा रहे हो तुम
किसी के पीछे,
उसकी चेंथी
पर आख गड़ा
लेना और जोर
से भीतर सोचना
कि लौट, लौटकर
देख। दो —तीन
मिनिट में वह
एकदम लौटकर
देखेगा, एकदम
घबड़ाकर कि
क्या मामला
है! और तुम
देखोगे उसके
चेहरे पर कि
बड़ी बेचैनी है,
बात क्या है?
क्योंकि
ठीक चेंथी के
पास वह केंद्र
है, जहां
से ग्रहण किए
जाते हैं
विचार।
मस्तिष्क में
जहां से
प्रवेश होता
है; जहां
से बड़ी सुगमता
से प्रवेश
होता है। सपने
भी अपने नहीं
हैं। और
तुम्हारी
जिंदगी सिवाय
सपनों के और
कुछ भी नहीं
है। और सपने
भी अपने नहीं
हैं।
बचे
हैं खंडहर अब
तो महज दो—चार
सपनों के
न सोचा
इस तरह हमको
करेगा बेदखल
कोई
जिंदगी
के आखिर में
पाओगे कि कुछ
भी नहीं बचा—असली
खंडहर भी नहीं
बचते।
बचे
हैं खंडहर अब
तो महज दो—चार
सपनों के
न सोचा
इस तरह हमको
करेगा बेदखल
कोई
लेकिन
कोई बेदखल
करता भी नहीं, तुम खुद
ही सपनों से
उलझे हुए अपने
हाथ से बेदखल
हो जाते हो।
और जीवन भर हम
जो भी चाहते
हैं, करते
हैं, सब
सपनों का जाल
है। ऐसे हो
जाएं, ऐसे
बन जाएं, यह
पा लें, लोग
ऐसा जानें कि
हम ऐसे हैं, इन्हीं सब
में खोए—खोए
एक दिन खो
जाते हो। ऐसा
डोलते, डांवाडोल
होते, इन्हीं
तरंगों में
डूबे —डूबे, धक्के—मुक्के
खाते कब में
गिर जाते हो।
श्यामल
यमुना से
केशों में
गंगा करती वास
है
भोगी
अंचल की छाया
में सिसक रहा
संन्यास है
मेंहावर—मेहदी, काजल—कंघी
गर्व तुझे जिन
पर बड़ा
मुट्ठी
भर मिट्टी ही
केवल इन सबका
इतिहास है
नटखट
लटका नाग जिसे
तुम भाल बिठाए
घूमती
अरी, एक दिन
तुझको ही डस
लेगा भरे
बाजार में
कोई
मोती गूंथ
सुहागिन तू
अपने गलहार
में
मगर
विदेशी रूप न
बंधनेवाला है
श्रृंगार में
कितने
ही सपने देखो, कितनी ही
योजनाएं
बिठाओ, कितनी
ही
परिकल्पनाएं
दौड़ाओ, कितना
ही श्रम करो, सपनों में
कोई सुंदर
नहीं हो पाता
और सपनों में
कोई सत्य नहीं
हो पाता।
एक तो
जागृति है
तुम्हारी वह
भी सपनों से
ही भरी है।
सपने तो सपने
से भरे ही हैं।
और फिर एक दशा
है जिसका
तुम्हें थोड़ा—
थोड़ा एहसास है—सुषुप्ति।
जहां तुम
बिलकुल खो
जाते। इन तीन
में आदमी
डोलता रहता है।
और चौथी आदमी
की असलियत है।
इन तीन में ही
भटकता रहता है।
इन तीन के
पीछे ही धक्के
खाते रहता है—यहां
से वहां। जाग
गये, फिर
सो गये, फिर
सपना देखा, फिर जाग गये,
फिर सो गये,
फिर सपना
देखा, फिर
जाग गये, ऐसा
इन त्रिकोण
मेँ घूमता
रहता है। और
आदमी चौथा है—तुरीय।’दि फोर्थ '।
चौथे
का अर्थ है, साक्षी।
चौथे का अर्थ
है, जो
देखता सपनों
को, जो
सपना नहीं है।
सुबह उठकर तुम
कहते हो, रात
एक सपना देखा।
तो निश्चित
देखने वाला
अलग रहा, अन्यथा
कैसे देखते—सुबह
कैसे कहते कि
सपना देखा, कौन कहता? और किसी दिन
सुबह तुम कहते
हो कि रात बड़ी
गहरी नींद सोए,
ऐसी गहरी
नींद, ऐसी
अमृतमयी नींद
कभी नहीं सोए
थे। सब ताजा—ताजा
हो गया है, स्वच्छ
हो गया है।
नये हो गये।
तो निश्चित
गहरी नींद में
भी कोई देखता
था कि बड़ी
गहरी नींद है।
किसको यह
अनुभव हुआ? जिसको यह
सारे अनुभव
होते हैं, वही
तुम हो।
द्रष्टा तुम
हो, साक्षी
तुम हो।
भोक्ता बन गये,
कर्ता बन
गये, तो खो
गये सपनों में।
फिर तुम इसे
जागरण कहो, आख खोलकर
देखा हुआ सपना
कहो कि आख बंद
करके देखा हुआ
सपना कहो, मगर
तुम जहां
भोक्ता बन गये,
कर्ता बन
गये, वहीं
तुम स्मृत हो
गये। वहीं तुम
स्वस्थ न रहे।
वहां अपने
केंद्र पर न
रहे।
अब इस
सूत्र को समझो—
'जो
सुषुप्ति में
भी नहीं सुप्त
है।’
तुरीय
को जो उपलब्ध
हो गया, चौथी अवस्था
जिसने पा ली, जिसने अपनी
असली अवस्था
पा ली, स्वभाव
पा लिया, ऐसा
व्यक्ति
सुषुप्ति में
भी सुप्त नहीं
है। वह सोया
भी है और जागा
भी है। बाहर
से देखोगे तो
सोया है। उसके
भीतर से देखो
तो पाओगे जागा
है। इसीलिए तो
कृष्ण कहते
हैं. 'या
निशा
सर्वभूतानाम्
तस्याम्
जागर्ति संयमी।’
सब जहां सोए,
सबके लिए तो
निशा है, अंधेरी
रात है, वहां
भी संयमी जागा
हुआ है। वहा
भी जागा है।
जागरण अखंड है,
अविच्छिन्न
है। संयमी
सोता ही नहीं।
उसके भीतर एक
दिया जलता
रहता है, गहरी
से गहरी अंधेरी
अमावस में भी
उसके भीतर
दिया जलता ही
रहता है। उसका
घर रोशनी से
कभी खाली नहीं
होता।
है तो
हालत
तुम्हारी भी
यही। दीया तो
तुम्हारा भी
जल रहा है, लेकिन
तुम्हें
स्मरण नहीं।
तुम भी दीये
हो, वैसे
ही दीये जैसे
कृष्ण, वैसे
ही दीये जैसे
बुद्ध, वैसे
ही दीये जैसे
अष्टावक्र, रत्तीभर कम
नहीं—कोई
तुमसे
रत्तीभर
ज्यादा नहीं
था—लेकिन तुम
लौटकर देखते
ही नहीं। बाहर
उलझे हो। ऐसा
समझो कि कोई
आदमी खिड़की पर
खड़ा, खड़ा, खडा बाहर के
दृश्य में इस
तरह भूल गया
है, रास्ते
पर चलते सब
लोगों को
देखता है, सिर्फ
एक की याद
नहीं आती, जो
खिड़की पर खड़ा
होकर देख रहा
है। उसकी भर
याद भूल गयी
है। और सब याद
में है, अपनी
भर सुध खो गयी
है।
जागृति
का अर्थ है, वस्तु
जगत पर ध्यान।
ये वृक्ष, ये
पर्वत, ये
पहाड़, ये
चांद—सूरज, ये लोग,
इन पर
ध्यान।
जाग्रत—अपने
पर ध्यान नहीं, वस्तुओं
पर ध्यान।
स्वप्न—शब्दों
पर ध्यान, विचारों
पर ध्यान।
प्रतीकों, बिंबों
पर ध्यान।
कल्पनाओं पर
ध्यान। अपने
पर ध्यान नहीं।
सुषुप्ति—न तो
वस्तुएं हैं
अब, न
विचार हैं, लेकिन फिर
भी अपने पर
ध्यान नहीं।
तुरीय—अपने पर
ध्यान।
जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तीनों में
एक बात समान
है—अपने पर
ध्यान नहीं।
जाग्रत में
वस्तुओं पर, स्वप्न में
कल्पनाओं पर,
सुषुप्ति
में किसी पर
नहीं, अपने
पर भी नहीं, गैर— ध्यान
की अवस्था।
तुरीय में
अपने पर ध्यान।
और जैसे ही
तुरीय में
अपने पर ध्यान
आया, फिर
तुम सब
क्रियाओं में
होकर भी कर्ता
नहीं रहोगे।
फिर तुम सब
दृश्यों को
देखकर भी
द्रष्टा ही
बने रहोगे। एक
क्षण को आत्म—विस्मृति
न होगी।
'जो
सुषुप्ति में
भी नहीं सुप्त
है और जो
स्वप्न में भी
नहीं
स्वप्नाया है,
जाग्रत में
भी नहीं जागा
हुआ है, वह
धीरपुरुष
क्षण— क्षण
तृप्त है।’
अब न तो
सोने में सोना
है, न
सपने में सपना
है, न जागने
में जागना है,
क्योंकि अब
तो एक नया
स्वर उसके
भीतर उठ गया है—तुरीय
का, चौथे
का। अब तो हर
हालत में वह
चौथा है। बाहर
कुछ भी होता
रहे, भीतर
वह चौथा है।
ऐसा
हुआ। कबीर के
जीवन में एक
अनूठा उल्लेख
है। कबीर की
ख्याति फैलने
लगी—फैलनी ही
चाहिए थी, ऐसे कमल
कभी—कभी खिलते
हैं। अपूर्व
कमल खिला था।
सुगंध
पहुंचने लगी
लोगों तक।
लेकिन अड़चन थी।
कबीर का
अस्तित्व
परंपरागत तो
नहीं था—कभी
किसी शानी का
नहीं रहा।
परंपरा
मुर्दों की
होती है, जिंदा
आदमियों की
नहीं होती। तो
यह भी पक्का
नहीं था—कबीर
हिंदू हैं कि
मुसलमान हैं।
मेरे संबंध
में पक्का है?
कि हिंदू
हूं कि
मुसलमान हूं?
पक्का हो ही
नहीं सकता।
असल
में ऐसा
व्यक्ति न तो
हिंदू होता है, न
मुसलमान होता
है। फिर
जुलाहे का काम
करते थे। और
ब्राह्मणों
को बड़ी बेचैनी
थी काशी के।
क्योंकि लोग
इस जुलाहे की
तरफ जाने लगे।
ब्राह्मणों
के दरबार खाली
होने लगे और
लोग इस जुलाहे
की तरफ जाने
लगे। और यह
बात तो बड़ी
बेचैनी की थी।
परंपरागत
धंधा, प्रतिष्ठा,
मान—मर्यादा,
न्यस्त
स्वार्थ! तो
ब्राह्मणों
ने तरकीब सोची,
कुछ उपाय
करना पड़ेगा।
और जब भी
ब्राह्मणों
को कोई तरकीब
सूझती है तो
दो ही तरह की
सूझ सकती है।
क्योंकि दो ही
तरह से परंपरा
बंधी है। या
तो कबीर के
आचरण पर कुछ
धब्बा पड़ जाए,
तो एक उपाय
है। आचरण पर
धब्बा डालने
की दो ही
व्यवस्थाएं
हैं—या तो
किसी स्त्री
को उलझा दो और
या धन—पैसे
में उलझा दो।
बस दो चीजों
में से कुछ हो
जाए तो काम हो
जाए।
लेकिन
धन—पैसे से भी
उतनी कठिनाई
पैदा नहीं
होती, जितनी
इस देश में
स्त्री से हो
सकती है।
क्योंकि इस
देश का पूरा
मन काम—दमन से
भरा हुआ है।
इस देश का मन
स्त्री के
प्रति स्वस्थ
नहीं है।
अत्यंत
अस्वस्थ, रुग्ण
और बीमार है।
तो एक वेश्या
को पैसे देकर
तैयार कर लिया
कि जब कबीर
सांझ को बेचने
आएं अपना कपड़ा
बाजार में तो
तू हाथ पकड़
लेना।
वेश्या
को तो पैसे
मिले थे, कोई अड़चन न
थी, उसको
तो पैसे से
प्रयोजन था; जब कबीर
सांझ को अपने
कपड़े बेचकर
लौटने लगे तो
उसने भरे
बाजार में
काशी के उनका
हाथ पकड़ लिया।
और उनसे
लिपटकर रोने
लगी और कहने
लगी, क्यों
बगुला भगत, मुझे अकेली
छोड्कर तुम
कहां चले आए? मेरे पास न
तो पेट भरने
को अन्न है न
तन ढंकने को
वस्त्र और
तुम्हारे
जैसे ढोंगी की
सर्वत्र
पूजा हो
रही है। और वह
तो धाड़ मार—मार
कर रोने लगी।
और भीड़ इकट्ठी
हो गयी। भीड़
तो तैयार ही
थी—वह
ब्राह्मण तो
तैयार ही थे।
पत्थर फेंकने
लगे, कबीर
को गालियां दी
जाने लगीं।
लेकिन
वेश्या भी
बहुत चौंकी और
ब्राह्मण भी बहुत
चौके, कबीर
ने कहा तो
अच्छा किया, तू आ गयी, इतनी
देर क्यों राह
देखी? अरे
पागल, जब
मैं जिंदा हूं?
तब तो वह
जरा वेश्या
घबडायी कि यह
आदमी क्या कहू
रहा है? क्योंकि
वह तो सब बना—बनाया
था। यह तो बात
ऐसे ही करने
की थी और कबीर
ने तो हाथ पकड़
लिया उसका कि
अब आ ही गयी है
तो अब साथ ही
रहेंगे। अब वह
घबडायी कि इस
के से और कहा
झंझट हो गयी!
अब वह इधर—उधर
देखने लगी।
तो
ब्राह्मणों
ने जिन्होंने
उसे जमाया था, वे भी भीड़
में सरक गये
कि यह, यह
सोचा ही नहीं
था, यह बात
भी हो सकती है!
और कबीर ने
कहा, अब आ
ही गयी तो घर
चल! भाड़ में
जाए यह पूजा—प्रतिष्ठा,
अरे तुझे
छोड्कर ऐसी
पूजा—प्रतिष्ठा
में क्या रखा
है! तू इतने
दिन कहां रही!
वह औरत तो
सोचने लगी अब
करना क्या है?
इसके चंगुल
से कैसे
निकलना है? और वह तो
उसका हाथ
पकड़कर ले चले।
अब वह इंकार
भी न कर सके।
वह तो
ले गये उसे घर
अपने झोपड़े पर, उसके पैर
दबाने लगे।
उसने कहा कि
महाराज, क्या
कर रहे? अब
मुझे और
लज्जित मत करो।
मुझे क्षमा
करो, मुझे
जाने दो। मैं कहां
चक्कर में पड़
गयी! उन्होंने
कहा, अब
किसी कारण से चक्कर
में पड़ी, लेकिन
तू मुसीबत में
तो रही ही
होगी, नहीं
तो चार पैसे
के लिए कोई
ऐसी झंझट करता
है! अब तू
फिकिर छोड़।
खाना बना कर
उसको खिलाने
बैठ गये! वह खा
रही और रो रही।
वह उनके पैरों
पर गिर पड़ी कि
मुझे क्षमा कर
दो, मुझसे
बड़ी भूल हो
गयी, मुझसे
भूल ऐसी हो
गयी कि अब
आत्महत्या
करूं तो भी
शायद यह न
धुलेगी। अब यह
जिंदगी भर
मेरी छाती में
कांटे की तरह
गड़ी रहेगी।
चार पैसे के
लिए मैंने
क्या किया!
मगर
ब्राह्मण चुप
नहीं बैठे।
उन्होंने
देखा कि यह घर
ले गया इसको, वेश्या
को, तो वे
तो राजा के
पास भागे चले
गये।
उन्होंने
जाकर काशी—नरेश
को कहा कि हद
हो गयी, आप
भी जाते हैं
इस ढोंगी के
पास, वह एक
वेश्या को घर
लेकर बैठ गया
है। बुलावा
भेजा। कबीर
अकेले नहीं आए,
उसको साथ ही
लेकर आए। वह
कहे भी कि
मुझे जाने दें,
मुझे कहीं
जाना नहीं है,
अब वह और
घबडाए कि अब
यह सम्राट के
सामने ले चला।
तो कबीर ने
कहा, तू
फिकर क्यों
करती है। जनम—जनम
के बिछड़े मिल
गये। वह अपनी
ही लगाए जा
रहे।
सम्राट
के दरबार में
भी उसको अंदर
ले गये। वहां
तो वह स्त्री
घबड़ा गयी। और
जब सम्राट ने
देखा कि वह
वेश्या का हाथ
पकड़े चले आ
रहे हैं, तो वह भी
थोड़ा घबडाए।
उसने कहा कि
आप यह क्या कर
रहे हैं और
किस तरह अपनी
प्रतिष्ठा और
यश को नष्ट कर
रहे हैं!
उन्होंने कहा,
खाक करें
प्रतिष्ठा—यश!
इसके पहले कि
वह कुछ बोलें,
वह स्त्री
चिल्लायी कि
क्षमा करना, पहले मुझे
बोलने दो।
मेरी कुछ समझ
में ही नहीं आ
रहा है, मैं
सिर्फ पैसे के
पीछे यह
उपद्रव किये
हूं और पैर पर
कबीर के गिर
पड़ी और सम्राट
से उसने कहा
कि मुझे किसी
तरह छुटकारा
दिला दो। मुझे
ब्राह्मणों
ने उलझा दिया
है।
सम्राट
कबीर से पूछे
कि तुम कैसे
पागल हो! कबीर
ने कहा, अब और क्या
करने का इसमें
उपाय था! और
मुझे तो कुछ
फर्क नहीं
पडता। मैं तो
कर्ता नहीं
हूं। तो यह
खेल भी देखा।
द्रष्टा तो
द्रष्टा
ही रहेगा।
भोक्ता होने
का कोई उपाय
नहीं। यह तो
मौका था मेरी
परीक्षा का कि
क्या मैं चौथे
में रह सकता
हूं? और
मैं चौथे में
ही रहा। और
रत्ती भर चौथे
से नहीं डिगा।
यह एक स्वप्न
है, इस तल
पर मेरा होना
नहीं है। यह
जो चौथा तल है,
उस चौथे तल
के लिए
अष्टावक्र
कहते हैं—
सुप्तोऽपि
न सुमुप्तौ।
सोए
तो भी ज्ञानी
सोया नहीं, एक दीया
जलता, एक
दीया अहर्निश
जलता, अखंड
जलता। स्वप्नेउपि
शयितो न च।
देखे
स्वप्न, तो भी जानता
कि मैं
देखनेवाला
हूं देखा गया
नहीं।
जागरेउपि
न जागर्ति।
जागकर
भी जागा हुआ
नहीं होता, क्योंकि
वह तो महारूप
से जागा हुआ
है।
महाजागृति को
उपलब्ध है, इस क्षुद्र
जागृति से अब
कुछ लेना—देना
नहीं है। यह
धोखा तो अंधों
के लिए है। यह
धोखा तो उनके
लिए है जो
जागे हुए नहीं
हैं, उनको
लगता है यह
जागृति है। जो
जाग गये उनको
किसी इतने बड़े
शब्द का पता
चलता कि यह
जागृति तो नींद
ही मालूम होती
है।
धीरस्तृप्त
पदे पदे।
और ऐसी
जो चित्त की, चैतन्य
की दशा है, वह
पद—पद पर
परमतृप्ति से
भरी है। क्षण—
क्षण। इसे
समझना। ऐसा
धीरपुरुष
क्षण— क्षण
तृप्त है।
क्यों? अब
अतृप्ति का
कोई उपाय ही न
रहा। अतृप्ति
आती है
तादात्म्य से।
या तो बंध जाओ
जागृति से, या बंध जाओ
स्वप्न से, या बंध जाओ
सुषुप्ति से।
जहां बंधे, वहा संकट है।
जहां बंधे, वहां गांठ
पड़ी। जहां
गांठ पडी, वहा
पीड़ा है। जहां
पीड़ा, वहां
संताप, चिंता
और सारा नर्क
पीछे चला आता
है। गांठ ही
नहीं पड़ती ऐसे
आदमी को। वह
हर जगह से
अछूता निकल
जाता है।
इसीलिए
तो कबीर ने
कहा है, ज्यों की
त्यों धरि
दीन्ही
चदरिया। खूब
जतन कर ओढ़ी
चदरिया, ज्यों
की त्यों धरि
दीन्ही। खूब
जतन कर। जतन
शब्द बड़ा
महत्वपूर्ण
है, उसका
मतलब होता है,
अवेयरनेस; उसका अर्थ
होता है, जागृति,
होश रहे।
खूब जतन से, जरा भूल—चूक
न की, जरा
नींद न ली, जरा
झपकी न खाई, जागे —जागे।
खूब जतन से
ओढ़ी रे चदरिया।
और जीवन की
चादर को इतने
जतन से ओढ़ा कि
जरा दाग न लगा।
और ज्यों की
त्यों धरि
दीन्ही
चदरिया। जैसी
पायी थी जन्म
के साथ, स्वच्छ,
निर्मल, क्यारी,
वैसी ही
मृत्यु के समय
वापस दे दी, निर्मल, क्यारी,
स्वच्छ।
जैसे उपयोग ही
न की गयी।
भोक्ता न बने,
कर्ता न बने,
तो जीवन की
चादर पर दाग
नहीं पड़ते हैं।
एक ही जतन है, साक्षी बने
रहना।
तुम
मंद चलो!
ध्वनि
के खतरों
बिखरे मग में
तुम
मंद चलो!
सूझों
का पहन कलेवर—सा
बिकलाई
का कल जेवर—सा
घुल—घुल
आंखों के पानी
में
फिर
छलक—छलक बन
छंद चलो
पर मंद
चलो!
ज्ञानी
धीमे — धीमे
चलता।
क्योंकि
होशपूर्वक
चलता। ज्ञानी
दौड़ता नहीं।
ज्ञानी के
जीवन में कोई
आपाधापी नहीं
है। कहीं
पहुंचना थोड़े
ही है कि दौड़
करे। वहां तो
है ही जहां
पहुंचना है।
वहीं तो है, जहां
पहुंचना है।
इसलिए मंद—मंद
चलता, इसीलिए
तो उसे धीर
कहते हैं। परम
धैर्य है उसके
जीवन में।
तुम
मंद चलो!
ध्वनि
के खतरों
बिखरे मग में
तुम
मंद चलो!
कहीं
दौड्धाप में, कहीं
आपाधापी में
उलझ मत जाना।
कर्ता मत बन
जाना। यहां
बड़े खतरे हैं।
खतरे दो ही
हैं, कर्ता
और भोक्ता बन
जाने के।
सुरक्षा एक ही
है—साक्षी की।
तुम
मंद चलो!
सूझों
का पहन कलेवर—सा
सूझ, होश, समझ।
सूझों
का पहन कलेवर—सा
अपने
चारों तरफ
जागृति की एक
चादर ओढ़ लो।
रोशनी को जगा
लो। अपने
चारों तरफ
विवेक, होश, चैतन्य
को संभाल लो।
सूझों
का पहन कलेवर—सा
बिकलाई
का कल जेवर—सा
घुल—घुल
आंखों के पानी
में
फिर
छलक —छलक बन
छंद चलो
पर मंद
चलो!
और तब
तुम्हारे
जीवन से एक
छंद छलकेगा, जब तुम
मंद चलोगे।
सूझों
का पहन कलेवर—सा
जब तुम
जतन से जिओगे, होशपूर्वक,
साक्षी बने,
तुरीय में,
तो
तुम्हारे
जीवन में एक
छंद का अवतरण
होगा। उस छंद
को ही
अष्टावक्र ने
स्वच्छंदता
कहा है।
तुम्हारे
जीवन में एक
गीत उमगेगा।
तुम्हारे
जीवन में कोई
वीणा अनायास
बज उठेगी।
बिना बजाए
बजने लगेगी।
इसीलिए उसे
अनाहत नाद कहा
है, क्योंकि
बिना बजाए
बजती है, तुम्हें
बजाना भी नहीं
पड़ता। बज ही
रही है। लेकिन
तुम बाहर की
आवाजों में
उलझे, इसलिए
भीतर की आवाज
सुनायी नहीं
पड़ती।
'ज्ञानी
चितासहित भी
चितारहित है,
इद्रियसहित
भी
इद्रियरहित
है, बुद्धिसहित
भी
बुद्धिरहित
है और
अहकारसहित भी
निरहकारी है।’
ज्ञ: सचिंतोउपि
निश्चित:
सेन्द्रियोउपि
निरिन्द्रिय।
सुबुद्धिरपि
निर्बुद्धि
साहकारोउनहंकृति:।।
किसी
ने नेपाल के
एक बहुत अनूठे
संत शिवपुरी बाबा
से पूछा, आप कभी दुखी
होते हैं? उन्होंने
कहा. दुख होता
है। पर उस
आदमी ने पूछा,
मैं यह नहीं
पूछता हूं कि
दुख होता है, मैं पूछता
हूं? आप कभी
दुखी होते हैं?
उन्होंने
कहा. दुख होता
है, मैं
दुखी नहीं होता।
इस
फर्क को समझना।
दुख होता है, मैं दुखी
नहीं होता।
दुख होना एक
बात है। पैर
में काटा
गड़ेगा—बुद्ध
को गड़े कि
बुद्ध को, इससे
क्या फर्क पड़ता
है—पैर में
काटा गड़ेगा तो
पीड़ा होगी।
लेकिन बुद्ध
पीड़ा में बुरी
तरह खो जाएगा।
वह पीड़ा ही हो
जाएगा। वह
पीड़ा के साथ
तादात्म्य कर
लेगा। वह
चीखने —चिल्लाने
लगेगा। बुद्ध
को भी पीड़ा
होगी, लेकिन
वे पीड़ा के
बाहर खड़े
रहेंगे। वे
पीड़ा के
साक्षी मात्र
रहेंगे। काटे
को बुद्ध भी
निकालेंगे, लेकिन बाहर—बाहर।
तुम्हारे
घर में आग लग
जाएगी तो
तुम्हें लगता है
तुममें आग लग
गयी, क्योंकि
तुमने घर के
साथ बड़ा राग
बांध रखा था।
शानी के घर
में आग लग
जाएगी तो घर
में आग लगी।
तुम जब मरोगे,
तो तुम्हें
लगेगा, मैं
मर रहा हूं।
ज्ञानी भी
मरता है, मृत्यु
उसको भी आती, लेकिन मरते
क्षण में भी
जानता है, देह
जा रही, और
देह तो मैं
कभी भी नहीं
था। इतना
फासला है।
इतना भीतरी
भेद है।
'ज्ञानी
चितासहित भी
चितारहित है।’
कभी
अगर चिंता
करने का कारण
आ जाए, तो
चिंता करता है,
लेकिन फिर
भी किसी गहरे
तल में चिंता
के पार खड़ा
रहता है। तुम
अगर उसे सवाल
दे दो हल करने
को तो वह हल
करने की कोशिश
करेगा, लेकिन
उस कोशिश में
डूब नहीं जाता,
भूल नहीं
जाता, भटक
नहीं जाता, स्मृति नहीं
खोती। अगर एक
ज्ञानी जंगल
में भटक जाए, तो रास्ता
तो रब्रोजेगा
न! चिंता तो
करेगा कि बाएं
जाऊं, कि
दाएं जाऊं? यहां जाने
से निकल
पाऊंगा बाहर
कि यहां जाने
से निकल
पाऊंगा? लेकिन
फिर भी
निश्चित होगा,
चिंता में
भी निश्चित होगा।
चिंता चलती
रहेगी और भीतर
कोई भी डांवाडोल
न होगा। अकंप।
’इद्रियसहित
भी
इद्रियरहित
है।’
आखिर
शानी की भी
इंद्रिया हैं।
आख है। लेकिन
ज्ञानी यह
जानता है कि
आख देखती नहीं, देखता
कोई और है।
कान हैं।
लेकिन ज्ञानी
जानता है कान
सुनता नहीं, सुनता कोई
और है। कान तो खिड़की
है, जिस पर
भीतर का
सुननेवाला
बैठा है। आख
तो खिड़की है, जिस पर भीतर
झाकने वाला
बैठा है। तब
सारी
इंद्रियां
द्वार हो जाती
हैं। द्वार की
तरह
इंद्रियां
सुंदर हैं।
लेकिन जब भीतर
का मालिक
इंद्रियों
में खो जाता
है और जो
द्वार होने
चाहिए, वे
दीवार हो जाती
हैं, और
जिन्हें
गुलाम होना
चाहिए वे
सिंहासन पर विराजमान
हो जाती हैं, तब भूल—चूक
हो जाती है।
शानी
प्रत्येक चीज
को उसके स्थान
पर रख देता है।
जो जहां है, वहां है। आख
आख की जगह है, कान कान की
जगह है। न तो
कान मालिक है,
न आख मालिक
है। मालिक
भीतर बैठा है।
भीतर, बहुत
गहरे भीतर
बैठा है, जहां
इंद्रियों की
कोई पहुंच
नहीं है। जहां
तुम आख से
देखना चाहो तो
देख न सकोगे, क्योंकि
इंद्रियों के
पीछे बैठा है
मालिक।
इंद्रिया
बाहर देखती
हैं, मालिक
भीतर है।
'इंद्रियसहित
भी
इद्रियरहित
है, बुद्धिसहित
भी
बुद्धिरहित
है।’
ज्ञानी
कोई बुद्ध
नहीं है। कोई
मूढ़ नहीं है।
जब जरूरत होती
है, बुद्धि
का उपयोग करता
है, जैसे
जरूरत होती है
तो पैर का
उपयोग करता है।
जब जरूरत होती
है, तर्क
का उपयोग करता
है। जब जरूरत
होती है तो
ज्ञानी विवाद
कर सकता है।
वस्तुत:
ज्ञानी ही
विवाद कर सकता
है। क्योंकि
बुद्धि एक उपकरण
मात्र है। और
वह मालिक की
तरह बुद्धि को
अपने हाथ में
खेल की तरह, खिलौने की
तरह उपयोग कर
लेता है।
बुद्धि एक
कंप्यूटर है।
लेकिन ज्ञानी
बुद्धि के साथ
अपने को
तादात्म्य
नहीं किये है।
'बुद्धिसहित
भी
बुद्धिरहित
है और
अहकारसहित भी
निर—अहंकारी।’
शानी
भी तो मैं
शब्द का उपयोग
करता है। शायद
अज्ञानी से
ज्यादा
बलपूर्वक
करता है।
अज्ञानी क्या
खाक करेंगे!
अज्ञानी तो
डरते—डरते
करते हैं, घबडाए—घबडाए
करते हैं। मैं
कहते हैं तो
कंपते — कंपते
कहते हैं।
कृष्ण को
सुनो. 'सर्वधर्मान्
परित्यज्य
मामेकं शरणं
वज।’ कहा
अर्जुन से, छोड़—छाड़ सब
बकवास, धर्म
इत्यादि, मेरी
शरण आ। यह कोई
ज्ञानी ही कह
सकता है। मेरी
शरण आ त्र:
मामेकं शरणं
वज। मुझे एक
की शरण आ। तुम
साधारणत:
सोचते हो कि
ज्ञानी तो
कहेगा मैं
आपके पैर की
धूल, मैं
तो कुछ भी
नहीं। लेकिन
जरा शानियों
को सुनो।
अलहिल्लाज
मंसूर कहता है,
अनलहक। मैं
खुदा। मैं
भगवान। सूली
चढ़ गया, तो
भी यही कह रहा
था। सूली पर
चढ़ते वक्त
किसी ने पूछा
कि मंसूर, अब
तो छोड़ दे यह
पागलपन की बात।
मंसूर हंसने
लगा और मंसूर
ने कहा, मैं
बोल रहा होता
तो छोड़ भी
देता, वही
बोलता है, मैं
क्या करूं? यह वही कहता
है. अनलहक। यह
शब्द मेरे
नहीं हैं, यह
शब्द उसी के
हैं। मैं तो
उसको समर्पित,
वह जो बोले
वही बोलूंगा।
एक बड़ी
अनूठी झेन कथा
है। एक झेन
फकीर जंगल से
गुजर रहा था।
पाई चान उसका
नाम था। एक
लोमड़ी बीच
रास्ते पर आ
गयी और उसने
कहा कि रुके
महाराज! फकीर
बडा हैरान हुआ, लोमड़ी
बोली! लोमड़ी
ने कहा, ऐसा
हुआ, कोई
पांच सौ साल
हो गये मैं भी
एक धार्मिक
पुरोहित था।
एक मंदिर में
बड़ा पुजारी था।
और एक आदमी ने
मुझसे सवाल
पूछा कि जो
लोग बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
जाते हैं, उन
पर कार्य —कारण
का नियम काम
करता है या
नहीं? और
मैंने कहा, नहीं। और
उसकी वजह से
मैं यह फल भोग
रहा हूं। पांच
सौ साल से
लोमड़ी बना हूं।
मेरा पतन हो
गया। और मुझे
यह सजा मिली
है कि जब तक
मैं ठीक उत्तर
न खोज लूं तब
तक मैं इस
पशुभाव से
मुक्त न हो सकूंगा।
आप महाज्ञानी
हैं, मुझे
ठीक उत्तर बता
दें।
पाई
चान ने कहा, तू बोल, तू पूछ, फिर
से पूछ। क्या
प्रश्न है? तो उस के
पुरोहित ने जो
पांच सौ साल
से लोमड़ी बना
बैठा है, उसने
कहा कि प्रश्न
यह है कि
बुद्धपुरुष, जो बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
गये, क्या
कार्य —कारण
के नियम के
बाहर हो जाते
हैं? तो
पाई चान ने
कहा, कार्य
—कारण के नियम
में वे अवरोध
नहीं बनते।
समझना, बड़ी
अनूठी बात कही।
कार्य —कारण
के नियम में
वे अवरोध नहीं
बनते। जो होता
है, उसे
होने देते हैं।
न तो बाधा
डालते, न
सहयोग देते, जो होता है, होने देते
हैं। और कथा
कहती है कि
लोमड़ी का
सदभाग्य हुआ,
ज्योति की
किरण उस पर
उतरी, वह
फिर मनुष्य हो
गयी।
इस
कहानी को तथ्य
की तरह मत पकड
लेना, यह
तो एक बोधकथा
है। लोमड़ी और
आदमी का सवाल
नहीं है, पशुभाव
और मनुष्यभाव
का सवाल है।
जो व्यक्ति
गलती में जी
रहा है, वह
पशुभाव में
जीता है। जो
समझ में जीने
लगा, उसका
मनुष्यभाव
पैदा हो गया।
अब तुम हो, न
मालूम कितने
जन्मों से
लोमड़ी बने हो।
अभी पशुभाव से
छुटकारा नहीं
हुआ।
और यह
जो वचन पाई
चान ने कहा कि
कार्य —कारण
के नियमों में
बाधा नहीं
बनता, यही
घटना जीसस के
जीवन में घटती
है, मंसूर
के जीवन में
घटती है।
इसलिए मंसूर
की बात करते
हुए मुझे पाई
चान की याद आ
गयी। मंसूर ने
कहा, मैं
क्या करूं, वह बोलता है
तो बोलने देता
हूं। न मैं
रोक सकता......मैं
हूं कौन रोकने
वाला?
मंसूर
को कई मंदिरों
से निकाला गया, कई
मस्जिदों से
निकाला गया, कई
गुरुगृहों से
निकाला गया, कई
गुरुकुलों से
निकाला गया।
क्योंकि वह
जहां भी जाता
वहीं बैठकर जब
मस्ती आती तो
वह कहता अनलहक,
अनलहक। और
वह इतनी मस्ती
में कहता!
उसका रोआं—रोआं
पुलकित होकर
कहता, वह
हर्षोन्माद
से भर जाता!
लोग कहते, भई,
यह खतरनाक
आदमी है, इसको
यहां से जाने
दो। अगर पता
चल जाए, तो
झंझट होगी। यह
तो झंझट में
पड़ेगा ही—क्योंकि
मुसलमान
देशों में यह
घोषणा करना कि
मैं भगवान हूं, बड़ी कठिन
बात है। यह तो
बर्दाश्त के
बाहर है। उसे
जगह —जगह
समझाया गया, लोग उसे
प्रेम करते थे।
वह अनेक
गुरुओं के पास
रहा—गुरु उसे
प्रेम करते थे—वे
कहते थे, पागल,
हमें भी पता
है कि यह बात
ठीक है, मगर
कहने की नहीं।
तो मंसूर कहता,
फिर
तुम्हें पता
नहीं है। जब
पता है कि यह
बात ठीक है तो
रोकोगे कैसे?
यही तो
जीसस ने सूली
पर कहा, कि हे प्रभु,
तेरी मर्जी
पूरी हो!
बुद्धपुरुष
कार्य —कारण
के नियमों में
बाधा नहीं
बनते। अनवरोध।
जो होता है, होने
देता है। तो
किसी क्षण में
अगर जरूरत हो,
तो ज्ञानी
अहंकार का भी
उपयोग करता है।
और किसी क्षण
में जरूरत हो
तो विनम्रता
का भी उपयोग
करता है।
लेकिन हर हाल,
जो भी
ज्ञानी से
होता है, ज्ञानी
उसके बाहर बना
रहता है। चाहे
नींद हो, चाहे
चिंता हो, चाहे
इंद्रियां
हों, चाहे
बुद्धि—विचार
हो और चाहे
अहंकार हो।
शानी किसी भी
कृत्य में
नहीं समाता।
इस बात
को याद रखना।
और इसलिए
ज्ञानियों को
कृत्यों के
आधार से तौलना
मत, क्योंकि
ज्ञानी कृत्य
में नहीं
समाता। तुमने
अगर कृत्य से
देखा तो तुम
ज्ञानी को देख
ही न पाओगे।
ज्ञानी कृत्य
में समाता
नहीं, ज्ञानी
कृत्य के पार
है। कृत्य का
कोई मूल्य
नहीं है।
इसलिए कभी ज्ञानी
के हाथ में
तलवार मिल
सकती है।
मेरे
पास जैन आते
हैं, वे
कहते हैं, आप
महावीर के साथ
मुहम्मद का
नाम ले देते
हैं और
मुहम्मद
तलवार लिये
हैं! मेरी एक
किताब को किसी
ने जाकर
काजीस्वामी
को भेंट किया।
उन्होंने
किताब उलट—पुलटकर
देखी।
उन्होंने कहा,
और तो सब
ठीक है, लेकिन
इसमें यह
मुसलमान, फरीद
का नाम आया, हटाओ यहां
से। और तो सब
ठीक है, लेकिन
यह इसमें
मुसलमान का
नाम कैसे? मांसाहारी
का नाम कैसे? जैन कहते
हैं, आप कम—से
—कम महावीर के
साथ मुहम्मद
का नाम तो न
लें। तलवार
हाथ में!
कृत्य
से जांचते हो
तुम? तुम
फिर नहीं पहचान
पाओगे।
मुहम्मद के
हृदय को देखो।
तुम महावीर
जैसी ही करुणा
पाओगे। असल
में उसी करुणा
के कारण तलवार
हाथ में है।
समय अलग है, स्थिति अलग
है, लोग
अलग हैं, इसलिए
अभिव्यक्ति
अलग है। लेकिन
भीतर का सत्य
तो एक ही है।
जैसे महावीर
को तुम उनके
कृत्यों के
बाहर पाओगे, वैसे ही
मुहम्मद को भी
उनके कृत्यों
के बाहर पाओगे।
करने से
ज्ञानी को
सोचना ही मत।
क्योंकि
ज्ञानी जीता
जानने में, करने में
नहीं। इसलिए
करने से सोचना
ही मत। नहीं
तो तुम
ज्ञानियों
में बड़ी
मुश्किल में पड
जाओगे।
महावीर ने
कपड़े फेंक
दिये। अब तुम
किसी दूसरे को
पूछो—मुसलमान
को पूछो, ईसाई
को पूछो! वह
कहेगा, यह
जरा अशिष्टता
है। लेकिन
कृत्य में मत
खोजना।
कृष्ण
तो युद्ध में
उतर गये, इतना बड़ा
युद्ध करवा
दिया। कृत्य
से मत सोचना।
कृत्य का कोई
मूल्य ही नहीं
है, क्योंकि
ज्ञानी कृत्य
के बाहर है।
असल में जिसने
ऐसा जाना कि
मैं कर्ता
नहीं हूं,
वही तो ज्ञानी
है।
'ज्ञानी
न सुखी है और न
दुखी, न
विरक्त है और
न संगवान है; न मुमुक्षु
है, न
मुक्त है, न
कुछ है और न ना —कुछ
है; न यह है
और न वह है।’
न सुखी
न च वा दुःखी न
विरक्तो न
संगवान्।
न
मुमुक्षुर्न
वा मुक्तो न
किचिन च किंचन।।
'न
कुछ है और न ना—कुछ
है।’
न तो
तुम ऐसा कह
सकते—ऐसा है
और न ऐसा कह
सकते कि ऐसा
नहीं है। यह
तो कृत्यों का
विभाजन होगा।
जानी न सुखी, न दुखी।
क्योंकि सुख—दुख
भी भोक्ता
बनने से होते
हैं। तुमने
किसी अनुभव से
अपने को जोड़
लिया—लगाव से
जोड़ लिया तो
सुख, न
जुड़ना चाहा था
और जोड़ना पड़ा
तो दुख—लेकिन
जोड़ हर हालत
में घटता है।
ज्ञानी अपने
को तोड़ लिया
है। जो होता, होता; जो
नहीं होता, नहीं होता।
'न
विरक्त है, न संगवान है।’
ज्ञानी
न तो किसी के
साथ है और न
अलग है।
ज्ञानी भीड़
में भी अकेला
है। और अकेले
में भी सारा
अस्तित्व
उसमें समाया
हुआ है।
'न
मुमुक्षु है,
न मुक्त है।’
न तो
खोज रहा है, न यह कह
सकता कि खोज
लिया।
क्योंकि जब
तुम जानोगे तब
तुम पाओगे जो
तुमने पाया
उसे कभी खोया
ही नहीं था।
इसलिए खोज
लिया, यह
बात फिजूल है।
न तो ज्ञानी
खोज रहा है और
न यह कह सकता
है कि मैंने
खोज लिया।
ज्ञानी तो
इतना ही कह
सकता है कि जो
था, है। जो
था, सदा था।
मैं भूल गया
था कभी, फिर
कभी मैं जाग
गया और मैंने
देख लिया, मगर
खोया कभी भी
नहीं था।
'न
कुछ है, न
यह, न वह।’
ज्ञानी
के लिए कोई
परिभाषा में
बांधना संभव नहीं
है।
'धन्यपुरुष
विक्षेप में
भी विक्षिप्त
नहीं हैं, समाधि
में भी
समाधिमान
नहीं हैं, जड़ता
में भी जड़
नहीं हैं और
पांडित्य में
भी पंडित नहीं
हैं।’
विक्षेपेउपि
न विक्षिप्त:
समाधौ न
समाधिमान्
जाडधेउपि
न जडो धन्य:
पांडित्येउपि
न पंडित:।।
इसलिए
कभी अगर
तुम्हें
ज्ञानी पंडित
जैसा मालूम
पड़े तो पंडित
मत सोच लेना। क्योंकि
ज्ञानी कभी
पंडित नहीं है।
पांडित्य का
उपयोग कर सकता, लेकिन
पंडित नहीं
होता। और कभी
तुम्हें
ज्ञानी जड़भरत
की तरह मिल
जाए, तो भी
तुम जड़ मत समझ
लेना। जडूता
भी घट रही तो
घट रही। लेकिन
शानी पीछे पार
खडा है। एक
सूत्र मौलिक
याद रखना, ज्ञानी
हर स्थिति में
बाहर है।
अंग्रेजी
में समाधि के
लिए जो शब्द
है वह बडा प्यारा
है, वह
है इक्सटैसी।
इक्सटैसी
शब्द का अर्थ
होता है, जो
बाहर खड़ा है।
यह बड़ा अदभुत
शब्द है।
जिन्होंने
गढ़ा होगा, बड़े
सोचकर गढ़ा होगा।
यह समाधि से
भी ज्यादा
सुंदर शब्द है।
इसका अर्थ है,
जो बाहर खडा
है। जो किसी
भी चीज में
कभी भीतर नहीं
है। तुम जहां
उसे पाओ, सदा
बाहर पाओगे।
वह हर चीज के
बाहर हो जाता
है। कोई चीज
उसे बांध नहीं
पाती। और कोई
चीज उसकी सीमा
नहीं बन पाती।
और कोई चीज
उसकी परिभाषा
नहीं है।
'मुक्तपुरुष
सब स्थिति में
स्वस्थ है, किये हुए और
करने योग्य
कर्म में
संतोषवान है,
सर्वत्र
समान है, और
तृष्णा के
अभाव में किये
और अनकिये
कर्म को स्मरण
नहीं करता है।’
मुक्तो
यथास्थितिस्वस्थ
कृतकर्तव्यनिर्वृत:।
सम:
सर्वत्र
वैतृष्णयाव्र
स्मरत्यकृतं
कृतम्।।
मुक्तो
यथास्थितिस्वस्थ.......।
जैसी
स्थिति है, जो है, जैसा है, वैसा
ही प्रसन्न है।
रत्ती भर
अन्यथा की
मांग नहीं है।
और किसी तरह
हो, ऐसा
कोई विचार ही
नहीं है। जहां
विचार उठा
अन्यथा का, वहीं वासना
जगी, तृष्णा
उठी, चिंता
उठी, फिर
तुम भटके।
यथास्थिति
स्वस्थ:।
अमीरी
तो अमीरी, गरीबी तो
गरीबी। महल तो
महल, झोपड़ा
तो झोपड़ा। सुख
तो सुख, दुख
तो दुख।
सम्मान तो
सम्मान, अपमान
तो अपमान।
जैसा है।
एक
बौद्ध कथा है।
एक बौद्ध
भिक्षु रोज
भिक्षा
मांगने आता
वैशाली में, राजधानी
में। एक घर जो
बड़े अभिजात्य
का घर था, बड़े
कुलीन परिवार
का घर था, उसके
द्वार पर
भिक्षा
मांगने गया।
द्वार पर
दस्तक दी, अति
सुंदर हीरे—जवाहरातों
से लदी एक
स्त्री ने
द्वार खोला।
वह परिवार
बुद्ध का
विरोधी था। तो
वह स्त्री
नाराज हो गयी,
उसने कहा, दुबारा कभी
यहां मत आना।
भिक्षु ने कहा,
तो
भिक्षापात्र
खाली जाए। तो
वह क्रोध में
आ गयी, तो
उसने उठाकर एक
कचरे की टोकरी
उसके भिक्षापात्र
में और भिक्षु
के ऊपर फेंक
दी। सारा कचरा
उसके ऊपर गिर
गया, भिक्षापात्र
कचरे से भर
गया। जैसा
बुद्ध की
आज्ञा थी कि
जब कोई
तुम्हें कुछ
भी भेंट दे तो
धन्यवाद देकर
आगे बढ़ जाना।
तो उसने झुककर
धन्यवाद दिया।
राहगीर
एक खडा यह सब
देख रहा था।
उसने भिक्षु
से पूछा कि यह
क्या पागलपन
है? तुम
किस बात के
लिए सिर झुकाए,
और किस बात
के लिए
धन्यवाद दिया?
तो भिक्षु
ने कहा, उसने
कुछ तो दिया।
कम—से—कम देना
तो आया। कचरा
सही, मगर
उठाना कचरे की
टोकरी को, डालना,
इतना श्रम
किया।
धन्यवाद! कुछ
तो दिया।
अपमान सही, मगर देने की
कृपा तो की।
यथास्थितिस्वस्थ:।
जो हो, उसमें
स्वस्थ, प्रसन्न।
ऐसे व्यक्ति
के जीवन में अशांति
कैसे होगी? और फिर ऐसे
व्यक्ति को जो
किया, नहीं
किया, जो
हुआ, नहीं
हुआ, उसकी
याद नहीं आती,
जो होना
चाहिए, जो
करना चाहिए, उसकी योजना
नहीं बनती; न कोई अतीत, न कोई
भविष्य, ऐसा
व्यक्ति
वर्तमान में
जीता, तथाता
में। यह क्षण
पर्याप्त है।
यह क्षण काफी
से ज्यादा है।
'मुक्तपुरुष
न स्तुति किये
जाने पर
प्रसन्न होता
है और न
निंदित होने
पर क्रुद्ध
होता है। वह न
मृत्यु में
उद्विग्न
होता है, न
जीवन में
हर्षित होता
है।’
न
प्रीयते
वद्यमानो निद्यमानो
न कुप्यति।
नैवोद्विजति
मरणे जीवने
नाभिनंदति।।
नहीं
मृत्यु में
उसे कोई विरोध
है, न
जीवन में कोई
आग्रह। हर चीज
के बाहर खड़ा
देखता। जीवन
में जीवन के
बाहर, मृत्यु
में मृत्यु के
बाहर। स्तुति
जब की जाती, तब सुन लेता।
निंदा जब की
जाती, तब
सुन लेता।
निंदा भी तुम
करते तुम जानो,
स्तुति भी
तुम करते तुम
जानो। न निंदा
उसे डंवा पाती,
डुला पाती,
कुपित कर
पाती न स्तुति
उसे
प्रफुल्लित
कर पाती।
उद्विग्नता
उसकी चली गयी,
जो बाहर खड़ा
होने का राज
सीख गया।
खयाल
करना, हर्ष
भी एक तरह की
उद्विग्नता
है और विषाद
भी एक तरह की
उद्विग्नता
है। एक तरह का
ज्वर। तुम
हर्ष में भी
तो बहुत
ज्यादा कंपित
हो जाते हो।
लाटरी मिल गयी,
हृदय इतने
जोर से धड़कने
लगता है, कितनों
का तो
हार्टफेल
इसीलिए हो
जाता है। एकदम
सफलता मिल गयी।
सफलता बड़ी
चिंता ले आती
है। अमरीका
में चिकित्सक
कहते हैं कि
जो आदमी चालीस
साल की उम्र
तक हार्ट अटैक
से बीमार न हो,
वह आदमी
समझो कि असफल
हो गया। सफल
आदमी तो हो ही
जाता है, चालीस—पैंतालीस
के बीच कहीं न
कहीं हार्ट
अटैक के चक्कर
में आ ही जाता
है। सफल आदमी
को आना ही
पडेगा। सफल
आदमी और करेगा
क्या? जब
सफलता मिलेगी
तो धक्के तो
लगेंगे हृदय
को।
प्रफुल्लता
तो डांवाडोल
करेगी।
सफल
आदमी को अगर
अल्सर न हों
पेट में तो
समझना, क्या खाक
सफलता? तो
बेकार ही जीवन
गंवाया! अल्सर
की गिनती से तो
पता चलता है
कि कितनी
सफलता? अल्सर
से तुम बैंक
बैलेंस का पता
लगा सकते हो।
अल्सर से पता
चल जाता है कि
डिप्टी
मिनिस्टर, कि
मिनिस्टर, कि
केबिनेट में
हो, यहां
कि दिल्ली में,
कहां? अल्सर
से पता चल
जाता है।
उद्विग्नता।
एक तरह का
ज्वर।
झंझावात। दुख
भी लाते हैं
झंझावात, सुख
भी लाते हैं।
और बड़ी हैरानी
की बात है, दुख
इतने झंझावात
नहीं लाते हैं
जितने सुख लाते
हैं। तुम दुखी
आदमी को कभी
भी इतना
परेशान न
पाओगे। सुखी
आदमी तुम्हें
ज्यादा
परेशान
मिलेंगे।
इसलिए अमरीका
में जितनी
परेशानी, दुनिया
में कहीं भी
नहीं। और
अमरीकन जब
भारत आते हैं
तो बड़े
प्रभावित होते
हैं इस बात से
कि कुछ भी
नहीं है लोगों
के पास, झोपड़े
के सामने बैठे
हैं और ऐसे
प्रसन्न हैं!
देवेश
की मां
इंग्लैंड से
आयी। जब उसने—बूढ़ी
महिला—जब
एअरपोर्ट से
उतरकर और उसने
देखे बंबई के
झोपडुपट्टे
और गंदगी, तो वह
भरोसा ही नहीं
कर सकी कि यह
बीसवीं सदी है।
और भी चमत्कार
तो तब हुआ जब
नंग— धडंग
बैठे बच्चे
उसने प्रसन्न
देखे। और जब
उसने एक बिलकुल
गंदी धोती
पहने हुए, चीथड़ा
धोती पहने हुए
एक स्त्री को
एक झोपड़पट्टे
से बाहर आते
हुए देखा और
उसकी चाल ऐसे
जैसे कोई रानी
चल रही है। तो
वह भरोसा न कर
सकी।
पश्चिम
से समृद्ध लोग
जब पूरब आते
हैं और दरिद्र
लोगों को
देखते हैं और
फिर भी देखते
हैं एक तरह की
तृप्ति, तो उनको
भरोसा नहीं
आता कि मामला
क्या है! इतनी
दरिद्रता में
तृप्ति हो
कैसे सकती है?
लेकिन इसके
पीछे
मनोवैज्ञानिक
कारण हैं।
दुखी आदमी
हार्ट अटैक से
परेशान होता
ही नहीं। दुखी
आदमी को अल्सर
होते ही नहीं।
दुख में इतनी
उत्तेजना
नहीं है जितनी
सुख में है।
तुम जितने सुख
में डांवाडोल
हो जाते हो, उतने दुख
में थोड़े ही
डांवाडोल
होते हो। सुखी
ही डांवाडोल
होता है, दुखी डांवाडोल
नहीं होता।
सुखी ही
चिंतित होता
है।
तुमने
पुराण पढ़े हैं? तुमने
सदा पढ़ा होगा
कि जब भी कोई
ऋषि—मुनि अपनी
तपश्चर्या की ऊंचाई
पर आने लगता
है, तो
इंद्र का
सिंहासन
डोलने लगता है।
लेकिन तुमने
कभी ऐसा सुना
है कि नरक में
जो बैठे हैं
यमदेवता, उनका
सिंहासन किसी
भी कहानी में
डोला? वह
डोलता ही नहीं।
वह बैठे अपने
भैंसे पर आराम
कर रहे हैं।
ये ऋषि —मुनि
लाख करें, कुछ
जो करना है
करते रहो, उनका
क्या बिगाड़
लोगे! वह अपने
मजे से बैठे
हैं। मगर
इंद्र का
सिंहासन
डोलने लगता है।
या इंदिरा का,
मगर डोलता
है। इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। चले ऋषि—मुनि,
कोई
जयप्रकाश, लेकर
अपना त्रिशूल
इत्यादि, उपद्रव
खड़ाकर दें!
सिंहासन
डोलने लगता है।
लेकिन
सिंहासन ही
डोलता है।
गरीब का है ही
क्या? डुलाओगे
क्या? बिना
ही सिंहासन के
जमीन पर बैठे
हैं, क्या
खाक डुलाओगे?
छीन क्या
लोगे? झोपड़पट्टे
वाले से तुम
क्या छीन सकते
हो?
मैं पढ़
रहा था एक
अफ्रीकी
कहानी कि एक
गरीब औरत, उसका
छोटा बच्चा, सर्दी के
दिन और उसके
पास कपड़े
उडाने को नहीं
तो उसने कुछ
भी, लकड़ी
के टुकडे, चिदिया,
कागज, अखबार,
इन सबका खूब
पूर बना लिया
और उसको उसमें
ढांप देती थी।
वह बेटा मस्त
सो जाता। एक
रात उस बेटे
ने कहा, मा,
जरा उन
गरीबों की तो
सोचो जिनके
पास लकड़ी के ये
टुकड़े, अखबार
और ये चिदिया
नहीं होंगी, वे बेचारे
कैसे सोते
होंगे! वह मजे
से रात नींद
लेता है। वह
सोच रहा है यह
बड़ी अमीरी है।
जरा उनकी तो
सोचो, वह
कहने लगा, जिनके
पास लड़की के
टुकड़े और ये
चीजें नहीं
होंगी, वे
कैसे सोते
होंगे!
दुख
इतना नहीं डांवाडोल
करता जितना
सुख कर जाता
है। इसीलिए
समस्त साधकों
ने दुख को तो
वरण कर लिया
है, सुख
को छोड़ दिया
है। क्योंकि
उन्होंने
देखा कि दुख
इतना दुखी नहीं
करता। अंततः
दुख सुख से
आता है। तप का
इतना ही अर्थ
है, तपश्चर्या
का इतना ही
अर्थ है कि
सुख में से तो
कुछ तुम पा
सकते हो, इसकी
आशा ही मत
रखना, हौ, दुख में से
कुछ पाया जा
सकता है। दुख
में से कुछ
पाया जा सकता
है, यही तप
का अर्थ है।
सुख में से
कुछ भी नहीं
पाया जा सकता,
सुख बिलकुल
बांझ है।
लेकिन
परमज्ञान की
अवस्था तो वही
है जहां न सुख
सुखी करता है,
न दुख दुखी
करता है। कोई
चीज डुलाती
नहीं, आदमी
अपने स्वयं
में थिर है।
'शांत
बुद्धिवाला
पुरुष न लोगों
से भरे नगर की
ओर भागता है
और न वन की ओर ही।
वह सभी स्थिति
और सभी स्थान
में समभाव से
ही स्थित रहता
है।’
न
धावति
जनाकीर्ण
नारण्यमुपशांतधी:।
यथातथा
यत्रतत्र सम
एवावतिष्ठते।।
न
धावति
जनाकीर्ण.....।
जो
व्यक्ति
ज्ञान को
उपलब्ध हुआ, साक्षी
को उपलब्ध हुआ,
तुरीय का
जिसने स्वाद
लिया, अब
वह भीड़ की तरफ
नहीं भागता।
भीड़ में क्या
रस! दूसरे में
तो तभी तक रस
मालूम होता है
जब तक अपना रस
नहीं चखा। इसे
याद रखना।
दूसरे में तो
तभी तक स्वाद
मालूम होता है
जब तक स्वयं
का स्वाद नहीं
लिया। दूसरे
में तो हम
अपने को
डुबाते ही
इसीलिए हैं कि
अपने में
डुबाना आता
नहीं। अकेले
बैठने में
हमें कुछ रस
ही नहीं आता।
अकेला आदमी
बैठा है तो
कहता है, बड़ी
ऊब लगती
है।
चलें, कहीं
जाएं, किसी
से मिलें —जुले।
जिनसे तुम
मिलने जा रहे
हो उनको भी
अकेले में ऊब
लग रही है। वे
भी उत्सुक हैं
कि कोई उनको
मिले। अब दो
उबानेवाले
आदमी मिल गये
एक—दूसरे को।
अब ये सोचते
हैं, बड़ा
सुख होगा! ये
हो कैसे सकता
है, गणित
तो थोडा समझो।
एक उबा
रहा था अपने
को, दूसरा
उबा रहा था
अपने को, अब
एक—दूसरे को
उबाके।
गुणनफल हो
जाएगा।
दुगुना नहीं,
कई गुना हो
जाएगा मामला।
मगर लोग चले!
क्योंकि लोग
स्वात में रस
नहीं ले पाते।
अपना स्वाद ही
नहीं जानते।
अपना छंद ही
अपरिचित है।
भीतर की वीणा
में कोई स्वर
नहीं उठता
मालूम होता।
भीतर सब खाली—खाली,
रिक्त—रिक्त
मरुस्थल जैसा।
चले, कहीं
से रस मिले, कहीं रसधार
बहे, थोड़े
प्रसन्न हों।
तो क्लब बनाते,
समूह बनाते,
नाचघर जाते,
सिनेमा में
बैठ जाते, रेडियो
खोल लेते, अखबार
पढ़ते, लेकिन
कहीं अपने को
भुलाओ! किसी
में अपने को डुबाओ!
अकेलेपन में
बड़ी बेचैनी है।
ख्याल
रखना, जो
जहां है, जैसा
है, अगर
वहीं सुखी
नहीं है तो
फिर कहीं भी
सुखी नहीं हो
सकता। और जो जहां
है, जैसा
है, वहीं
सुखी है, वह
कहीं भी सुखी
हो सकता है।
इसका
मतलब यह भी मत
समझ लेना कि
ज्ञानी भीड़ से
भागता है।
इसलिए
अष्टावक्र
कहते, 'शात
बुद्धिवाला
पुरुष न लोगों
से भरे नगर की
ओर भागता है
और न वन की ओर
ही।’
क्योंकि
वह भी फिर
दूसरा उपद्रव
हो गया। कुछ
लोग हैं जो
कहते हैं, भीड़ में
नहीं जाएंगे,
भीड़ में
अच्छा नहीं
लगता, हम
तो जंगल चले!
हम तो स्वात
के वासी हैं।
मगर यह बात भी
बंधन हो गयी।
अब तुम्हें
दूसरे की
मौजूदगी में
अशांति होने
लगी। पहले
दूसरे की
मौजूदगी में
आनंद होता था,
अब दुख होने
लगा। मगर हर
हालत में नजर
दूसरे पर रही।
पहले दूसरे:
की तरफ भागते
थे, अब
दूसरे से
भागने लगे, मगर नजर
दूसरे पर रही।
अब भी अपने पर
आना नहीं हुआ।
अपने पर वही
आदमी आता है, जो न दूसरे
की तरफ भागता
है, न
दूसरे से
भागता है। न
तो भागो
स्त्री की तरफ,
न स्त्री से
भागो। न भागो
धन की तरफ, न
धन को छोड्कर
भागो। न भागो
पुरुषों की
तरफ, न
पुरुषों को
भागो छोड्कर।
भागो ही मत। जहां
हो, जैसे
हो, वहीं
परमात्मा
पूरा का पूरा
उपलब्ध है।
भाग कर कहां
जा रहे! क्या
तुम सोचते हो
परमात्मा
कहीं और थोड़ा
ज्यादा है? तुम सोचते
हो पूना में
कम और प्रयाग
में थोड़ा ज्यादा
है? तो तुम
पागल हो।
तुमको
अगर
हिंदुस्तान
के सब पागल
देखने हों, तो अभी
तुम्हें कुंभ
के मेले में
मिल जाएंगे।
करीब—करीब
पचास परसेंट
पागल वहा
मौजूद हैं।
तीर्थ की तरफ
जा रहे हो त्र:
तीर्थ का अर्थ
ही इतना होता
है, जो
जहां है वहीं
जिसे रस आ गया।
जैसा है वैसे
में रस आ गया।
वही व्यक्ति
तीर्थ हो गया।
तीर्थ सगनों
में थोडे ही
होते हैं, व्यक्तियों
की आत्माओं
में होते हैं।
तीर्थ आंतरिक
घटना है। और
जो व्यक्ति
तीर्थ बन गया,
वही
तीर्थंकर है।
'वह
सभी स्थिति और
सभी स्थान में
समभाव से ही स्थित
रहता है।’
रिंद
जो जर्फ उठा
लें वही कूजा
बन जाए
जिस
जगह बैठ के पी
लें वहीं
मयखाना बने
पीनेवाले
तो वही हैं कि
जो प्याली उठा
लें वही मधु
बन जाए। जो
प्याली उठा
लें, उनके
छूने से सुरा
बन जाए। जहां
बैठकर पी लें,
वहीं
मयखाना बने।
रिंद
जो जर्फ उठा
लें वही कूजा
बन जाए
जिस
जगह बैठ के पी
लें वहीं
मयखाना बने
जो जहां
है, जैसा
है, उसमें
ही रस आ जाए, तो मुक्ति
आयी, मोक्ष
आया। अन्यथा
को छोड़ो। अन्य
होने की दौड़
छोड़ो। किसी और
जगह कहीं
स्वर्ग है, ऐसी भ्रांति
छोड़ो। इसी
भ्रांति के
कारण तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ रहा है।
क्योंकि तुम
कहीं और देख
रहे हो, दूर
तुम्हारी आंखें
उलझी हैं
तारों पर, चांद—तारों
पर और
परमात्मा
बहुत पास है।
परमात्मा
वहीं बैठा है
जहां तुम।
परमात्मा उसी
जगह मौजूद है
जहां तुम।
तुममें और
परमात्मा में
रत्ती भर
फासला नहीं है।
इसलिए यात्रा
तो करनी ही
नहीं है।
तीर्थयात्रा
सब यात्राओं
से मुक्त हो
जाने का नाम
है।
कहते
हैं, फकीर
बायजीद को
धर्म से बाहर
निकाल दिया
गया था, क्योंकि
उसने एक कुफ्र
की बात की।
बैठा था एक
वृक्ष के नीचे
और कुछ लोग हज
की यात्रा को
जा रहे थे और
उसने कहा कि
पागलो, कहां
जा रहे हो, हज
यहां बैठा है?
और उनमें से
कुछ लोग रुक
गये। और
उन्होंने
देखा बात तो
सच थी। ऐसा
सौंदर्य, ऐसा
प्रसाद, ऐसा
माधुर्य
उन्होंने कभी
देखा न था। वे
ठगे खड़े रह
गये। तो
बायजीद ने कहा,
अब खड़े क्या
हो, परिक्रमा
करो। तो
उन्होंने
उसकी
परिक्रमा की।
उसके हाथ ये, जैसा लोग
काबा का पत्थर
चूमते हैं।
अब
उसने कहा, अब घर लौट
जाओ। और
दुबारा अगर फिर
हज करना हो, तो मेरे पास
भी आने की
जरूरत नहीं, अपनी ही
परिक्रमा कर
लेना। यह तो
मैंने
तुम्हें एक
पाठ पढ़ाया। इस
पाठ को मत पकड़
लेना जोर से, नहीं तो मैं
मर जाऊंगा तो
तुम इस झाडू
के चक्कर
लगाओगे। ऐसे
ही तो लोग
उपद्रव कर रहे
हैं। अभी तक
काबा के पत्थर
का चक्कर लगाया
जा रहा है।
परिक्रमाएं
कर रहे हैं।
चले काशी, चले
गिरनार, चले
जेरूसलम।
कहीं जाना है!
सदा मन में एक
भ्रांति है कि
सुख कहीं और
बरस रहा है, बस तुम्हें
छोड्कर बरस
रहा है। जैसे
तुम पर कोई
भगवान विशेष
इंतजाम किया
है कि तुम पर
भर न बरसे। और
कहीं बरसे। और
जेरूसलम में
जो रहते हैं
उनका तुम्हें
पता है, काशी
में जो रहते
हैं उनका
तुम्हें पता
है, उन्हें
कुछ मिला? वहां
भी नहीं बरस
रहा है। अगर
आख नहीं खुली
है तो कहीं भी
नहीं बरस रहा
है और अगर आख
खुली है तो
कहीं भी बरस
रहा है।
रिंद
जो जर्फ उठा
लें वहीं कूजा
बन जाए
जिस जगह
बैठ के पी लें
वहीं मयखाना
बने
ऐसे
पियक्कड़ बनो।
ऐसे पीनेवाले
बनो।
मधुशालाएं
खोजना बंद करो।
जहां बैठ जाओ
वहीं मधुशाला
बने। साधारण
जल भी पी लो तो
अमृत हो जाए, ऐसे बनो।
और ऐसे बनने
की कला साक्षी
होने की कला
है।
आज
इतना ही।
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