जीवन
और मृत्यु के
पार—(प्रवचन—अट्ठासीवां)
अध्याय
50
जीवन
का संरक्षण
जीवन
से ही निकल कर
मृत्यु आती
है।
जीवन
के साथी (अंग)
तेरह हैं;
मृत्यु
के भी साथी
(अंग) तेरह हैं;
और
जो मनुष्य को
इस जीवन में
मृत्यु
के
घर भेजते हैं, वे
भी तेरह ही
हैं।
यह
कैसे होता है?
जीवन
को विस्तार
देने की तीव्र
कर्मशीलता के कारण।
कहते
हैं, जो जीवन
का सही
संरक्षण करता
है,
उसे
जमीन पर बाघ
या भैंसे से
सामना नहीं
होता;
न
युद्ध के
मैदान में
शस्त्र उसे
छेद सकते हैं;
जंगली
भैंसों के
सींग उसके
सामने
शक्तिहीन हैं;
बाघों
के पंजे उसके समक्ष
व्यर्थ हैं;
और
सैनिकों के
हथियार
निकम्मे हैं।
यह
कैसे होता है?
क्योंकि
वह मृत्यु के
परे है।
जिसे
तुम जीवन की
भांति जानते
हो वह अपने
भीतर मृत्यु
को छिपाए है।
जीवन ऊपर की
ही पर्त है; भीतर
मृत्यु मुंह बाए खड़ी
है। और अगर
तुमने जीवन को
सिर्फ जीवन
जाना, भीतर
छिपी मृत्यु
को न पहचाना, तो तुम जीवन
को जानने से
वंचित ही रह
जाओगे।
मृत्यु
जीवन के
विपरीत नहीं
है। मृत्यु
जीवन की
संगी-साथिन
है। वे दो
नहीं हैं; वे
एक ही घटना के
दो छोर हैं।
जीवन जिसका
प्रारंभ है, मृत्यु उसी
की
परिसमाप्ति
है। गंगोत्री
और गंगासागर
अलग-अलग नहीं।
मूलस्रोत ही
अंत भी है।
जन्म के साथ
ही तुमने मरना
शुरू कर दिया।
इसे अगर न पहचाना,
तो जो सत्य
है, जो
जीवन का
यथार्थ है, उससे
तुम्हारा कोई
भी संबंध न हो
पाएगा। अगर तुमने
जीवन को जीवन
जाना, और
मृत्यु को
जीवन से पृथक
और विपरीत
जाना, तो
तुम चूक गए। फिर
तुम्हें
बार-बार भटकना
होगा। और तुम
उसे भी न
पहचान पाओगे
जो दोनों के
पार है।
क्योंकि जब
तुम जीवन और
मृत्यु को ही
न पहचान पाए
तो उन दोनों
के पार जो है, उसे तुम
कैसे पहचान
पाओगे? और
वही तुम हो।
कबीर
ने कहा है:
मरते-मरते जग
मुआ,
औरस मरा न
कोय।
सारा
जग मरते-मरते
मर रहा है, लेकिन
ठीक रूप से
मरना कोई भी
नहीं जानता।
एक सयानी
आपनी, फिर
बहुरि न मरना
होय।
लेकिन
कबीर एक सयानी
मौत मरा, और
फिर दुबारा
उसे लौट कर न
मरना पड़ा। जो
भी ठीक से
मरने का राज
जान गया, वह
जीने का राज
भी जान गया।
क्योंकि वे दो
बातें नहीं
हैं। और जानते
ही दोनों के
पार हो गया।
और पार हो
जाना ही
मुक्ति है।
पार हो जाना
ही परम सत्य
है।
न तो
तुम जीवन हो
और न तुम
मृत्यु हो।
तुमने अपने को
जीवन माना है, इसलिए
तुम्हें अपने
को मृत्यु भी
माननी पड़ेगी।
तुमने जीवन के
साथ अपना
संबंध जोड़ा है
तो मृत्यु के
साथ संबंध कोई
दूसरा क्यों जोड़ेगा? तुम्हें ही
जोड़ना पड़ेगा।
जब तक तुम
जीवन को पकड़
कर आसक्त
रहोगे, तब
तक मृत्यु भी
तुम्हारे
भीतर छिपी
रहेगी। जिस
दिन तुम जीवन
को भी फेंक
दोगे कूड़े-कर्कट
की भांति, उसी
दिन मृत्यु भी
तुमसे अलग हो
जाएगी। तभी
तुम्हारी
प्रतिमा निखरेगी।
तभी तुम अपने
पूरे निखार
में, अपनी
पूरी महिमा
में प्रकट
होओगे। उसके
पहले तुम
परिधि पर ही
रहोगे।
मृत्यु
भी परिधि है
और जीवन भी।
तुम दोनों से भीतर, और
दोनों के पार,
और दोनों का
अतिक्रमण कर
जाते हो। यह जो
अतिक्रमण कर
जाने वाला
सूत्र है, इसे
चाहो आत्मा
कहो, चाहे
परमात्मा कहो,
चाहे
निर्वाण कहो,
मोक्ष कहो,
जो
तुम्हारी
मर्जी हो।
अलग-अलग
ज्ञानियों ने अलग-अलग
नाम दिए हैं; लेकिन बात
एक ही कही है।
सबै
सयाने एक मत।
और अगर
सयानों में
तुम्हें भेद
दिखाई पड़े तो
अपनी भूल
समझना। वह भेद
तुम्हारी
नासमझी के
कारण दिखाई
पड़ता होगा।
सयानों के
कहने के ढंग
अलग-अलग
होंगे। होने
ही चाहिए।
सयानों के
व्यक्तित्व
अलग-अलग हैं।
वे जो भी
बोलेंगे, वह
अलग-अलग होगा।
उनके गीतों के
शब्द कितने ही
अलग हों, लेकिन
उनका गीत एक
ही है। और
संगीत वे अलग-अलग
वाद्यों पर
उठा रहे होंगे,
लेकिन उनका
संगीत एक ही
है, उनकी
लयबद्धता एक
ही है। जो
कबीर ने कहा
है वही
लाओत्से कह
रहा है--अपने
ढंग से।
लाओत्से
के एक-एक वचन
को समझने की
कोशिश करें।
"जीवन
से ही निकल कर
मृत्यु आती
है। आउट ऑफ
लाइफ डेथ एण्टर्स।'
तो तुम
ऐसा मत सोचना
कि मृत्यु
कहीं अलग खड़ी
है। ऐसा मत सोचना
कि मृत्यु कोई
दुर्घटना है।
ऐसा मत सोचना
कि मृत्यु
कहीं बाहर से
आती है; कोई
भेजता है।
तुम्हारे
भीतर ही
मृत्यु बड़ी हो
रही है; तुम्हारे
साथ ही चल रही
है। अगर तुम
बायां कदम हो
तो मृत्यु
दायां, अगर
तुम दायां कदम
हो तो मृत्यु
बायां। वह
तुम्हारा ही
पहलू है। एक
पैर तुम्हारा
जीवन है तो
दूसरा पैर
तुम्हारी मौत
है। वह
तुम्हारे साथ
ही बढ़ रही है।
तुम जब भोजन
कर रहे हो तब
जीवन को ही
गति नहीं मिल
रही है, मृत्यु
को भी मिल रही
है। जब तुम
श्वास ले रहे हो
तो जीवन ही
उससे शक्तिमान
नहीं हो रहा
है, मृत्यु
भी हो रही है।
तुम्हारी हर
श्वास में छिपी
है। भीतर आती
श्वास अगर
जीवन है तो
बाहर जाती
श्वास मृत्यु
है।
इसलिए
तुम ऐसा मत
सोचना कि
मृत्यु कहीं
भविष्य में है, दूर;
सत्तर-अस्सी
साल बाद
घटेगी। ऐसे ही
टाल-टाल कर तो
तुमने जीवन
गंवाया है; यही सोच-सोच
कर कि कभी
होगी, अभी
क्या जल्दी
है। और मृत्यु
अभी हो रही
है। क्योंकि
संसार इस क्षण
के अतिरिक्त
किसी समय को
जानता ही नहीं;
कोई भविष्य
नहीं है।
अस्तित्व के
लिए वर्तमान
ही एकमात्र
समय है। जो भी
हो रहा है अभी
हो रहा है।
इसी क्षण तुम
पैदा भी हो
रहे हो, इसी
क्षण तुम मर
भी रहे हो।
इसी क्षण जीवन,
इसी क्षण
मौत। वे दो
किनारे; तुम्हारी
जीवन की सरिता
उनके बीच इसी
क्षण बह रही
है। तो तुम जो
भी कर रहे हो, वह दोनों के
लिए ही भोजन
बनेगा। तुम
उठोगे तो जीवन
उठा और मौत भी
उठी; तुम
बैठोगे तो
जीवन बैठा और
मौत भी बैठी।
तो
पहली बात
लाओत्से कहता
है कि मृत्यु
को तुम अपने
से अलग मत समझ
लेना।
सारे
जगत में, सारे
पुराणों में
कथाएं हैं।
सभी कथाएं
धोखा देती
हैं। धोखा यह
देती हैं कि
मौत कोई भेजता
है। कोई यमदूत
आता है भैंसे
पर सवार होकर,
या कि कोई
यमराज भेजता
है मृत्यु को
तुम्हें लेने
के लिए। ये सब
बातें
कहानियां
हैं। मृत्यु
उसी दिन आ गई
जिस दिन तुम
पैदा हुए; तुम्हारे
जन्म के बीज
में ही छिपी
थी।
अब तो
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
बहुत जल्दी इस
बात के उपाय
हो जाएंगे कि
जैसे ही बच्चा
गर्भ धारण
करेगा वैसे ही
हम पता लगा
लेंगे कि
कितने दिन जिंदा
रहेगा।
क्योंकि वह जो
पहला बीज है, उस
बीज में
ब्लू-प्रिंट
है, उस बीज
में पूरी कथा
छिपी है कि यह
कितने साल जीएगा--सत्तर,
कि अस्सी, कि पचास, कि
दस, कि
पांच।
ज्योतिषी तो
हार गए भविष्य
के संबंध में
बता-बता कर; विज्ञान
जल्दी ही
बताने में
पूरी तरह
समर्थ हो जाएगा।
तो बच्चे के
सर्टिफिकेट
के साथ, कि
बच्चे का जन्म
हुआ, तुम
जाकर
सर्टिफिकेट
ले आ सकोगे
वैज्ञानिक से
कि यह कितने
दिन जीएगा,
कितनी इसकी
उम्र होगी।
मौत उसी दिन आ
गई जिस दिन यह
पैदा हुआ।
कहीं और मौत
घटने वाली
नहीं है।
इसलिए तुम टाल
न सकोगे।
इसलिए पोस्टपोन
करने का कोई
उपाय नहीं है।
और तुम
टालते हो। और
तुम भी
भलीभांति
पहचानते हो इस
बात को कि रोज
तुम बूढ़े हो
रहे हो, रोज
तुम मर रहे
हो। रोज
तुम्हारे हाथ
से जीवन-ऊर्जा
छूटी जाती है;
रोज तुम
खाली हो रहे
हो। लेकिन फिर
भी तुम टालते
हो। वह कहानी
तुम्हें
सहायता देती
है कि मौत
कहीं अंत में
है, जल्दी
क्या है। अभी
और दूसरे काम
कर लो।
इसीलिए
तुम धर्म को
भी टालते हो।
क्योंकि जिसने
मौत को टाला, उसने
धर्म को भी
टाला। जिसने
मौत को आंख भर
कर देखा, वह
धर्म को न टाल
सकेगा।
क्योंकि धर्म
मौत के पार
जाने का
विज्ञान है।
तुम बीमारी ही
टाल देते हो
तो औषधि को
टालने में
क्या कठिनाई
है?
इसीलिए
तो पशुओं में
कोई धर्म नहीं
है,
वृक्षों
में कोई धर्म
नहीं है।
क्योंकि उन्हें
मृत्यु का कोई
बोध नहीं है।
छोटे बच्चे
पैदा होते से
धार्मिक नहीं
हो सकते; छोटे
बच्चे पैदा
होते से तो
अधार्मिक
होंगे ही।
क्योंकि वे
पौधों जैसे
हैं, पशुओं
जैसे हैं।
उन्हें भी मौत
का कोई पता
नहीं। सच तो
यह है कि जिस
दिन बच्चे को
पहली दफे मौत
का पता चलता
है, उसी
दिन बचपन
समाप्त हो गया,
उसी दिन भय
प्रविष्ट हो
गया, उसी
दिन वह पौधों
और पशुओं की
दुनिया का
हिस्सा न रहा।
अदम ईदन
के बगीचे
के बाहर निकाल
दिया गया। अब
वह बगीचे
का हिस्सा
नहीं है। जिस
दिन बच्चे को
पता चल गया कि
मौत है उसी
दिन वह बूढ़ा
हो गया।
लेकिन
फिर जिंदगी भर
हम टालते हैं
कि है मौत जरूर, लेकिन
अभी नहीं है।
अभी नहीं करके
हम अपने को सांत्वना
देते हैं। फिर
हमें यह भी
दिखाई पड़ता है:
जब भी कोई
मरता है कोई
दूसरा ही मरता
है; हम तो
कभी मरते
नहीं। कभी यह
पड़ोसी मरता है,
कभी वह
पड़ोसी मरता
है। तो मन में
हम एक भ्रांति
संजोए रखते
हैं कि मौत
सदा दूसरे की
होती है, अपनी
नहीं। और अभी
बहुत देर है।
और आदमी के मन की
क्षमता इतनी
नहीं है कि वह
तीस, चालीस,
पचास साल
लंबी बात सोच
सके। आदमी के
मन का प्रकाश
छोटे से
मिट्टी के दीए
का प्रकाश है,
बस दो-चार
फीट तक पड़ता
है; इससे
ज्यादा नहीं।
चार कदम दिखाई
पड़ते हैं, बस।
उतना काफी भी
है।
इसलिए
जब भी तुम
किसी चीज को
बहुत दूर टाल
देते हो तो वह
न होने के
बराबर हो जाती
है। जैसे
तुमसे कहे कि
तुम्हारी
मृत्यु अभी
होने वाली है, कोई
बताए कि अभी
तुम मर जाओगे
घड़ी भर में, तो तुम्हारा
रोआं-रोआं कंप
जाएगा। लेकिन
कोई कहे कि
मरोगे सत्तर
साल में; कुछ
भी नहीं
कंपता। सत्तर
साल इतना लंबा
फासला है कि
तुम्हें
करीब-करीब ऐसा
लगता है कि सत्तर
साल इतने दूर
है; अनंतता
मालूम होती
है। कोई डर की
अभी जरूरत नहीं।
फिर सत्तर साल
हाथ में हैं, हम कुछ उपाय
भी कर सकते
हैं बचने के।
लेकिन अगर अभी
ही मौत हो रही
हो तो उपाय भी
नहीं है करने का;
समय भी नहीं
है। तब तुम
कंप जाते हो; तब तुम
भयभीत हो जाते
हो।
लेकिन
क्या फर्क है, मौत
सत्तर साल बाद
घटे कि सात
क्षण बाद? मौत
घटेगी। अगर
मौत घटेगी तो
घट ही गई। यही
तो बुद्ध ने
कहा मुर्दे को
देख कर। वह
तुम नहीं कहते,
इसलिए तुम
बुद्ध नहीं हो
पाते। बुद्ध
ने मुर्दे को
देख कर यही तो
कहा कि अगर
मौत होती ही
है--और मेरी भी
होगी--तो कहा
अपने सारथी को,
लौटा ले रथ
वापस! जाते थे
एक युवक
महोत्सव में भाग
लेने। वर्ष का
बड़े से बड़ा
उत्सव था। और
राजकुमार ही
उसका उदघाटन
करता था।
सारथी से कहा,
वापस लौटा
ले! अगर मौत
होनी ही है--और
मेरी भी होनी
है--तो अब मेरे
लिए कोई
महोत्सव न
रहा। अब मेरे
जीवन में कोई
महोत्सव नहीं
है, मौत
है। और मुझे
मौत से
निबटारा करना
है।
सारथी
ने कहा भी कि
माना कि मौत
है,
लेकिन बहुत
दूर है। घर रथ
लौटा लेने की
कोई जरूरत
नहीं है। यह
महोत्सव तो
घड़ी भर का है।
मौत बहुत दूर
है।
सारथी
बुद्ध को न
समझ पाया। वह
सारथी
तुम्हारे
जैसा रहा
होगा।
बुद्ध
ने कहा, दूर
हो कि पास, जो
है वह है। पास
और दूर से
क्या फर्क
पड़ता है? मैं
मरूंगा। और
अगर यह सच है
तो मैं मर ही
गया। अब मुझे
उस सत्य तत्व
की खोज करनी
है जो नहीं मरता।
अब जितने भी
क्षण मेरे पास
बचे हैं, इनको
मुझे नियोजित
कर देना है उस
खोज में जो
मृत्यु के पार
ले जाती है।
अब यह जीवन
व्यर्थ हो
गया।
आश्चर्य
है कि तुम
मरोगे, रोज
तुम लोगों को
मरते देखते हो,
फिर भी
तुम्हारा
जीवन व्यर्थ
नहीं होता!
तुम धोखा देने
में कितने
कुशल हो!
कबीर
कहते हैं, धोखा
कासूं
कहिए!
किससे
कहने जाएं? कौन
धोखा दे रहा
है? तुम
खुद ही अपने
को धोखा दे
रहे हो। कोई
दूसरा देता
होता तो शायद
बच भी जाते; तुम खुद ही
दे रहे हो, इसलिए
बचाव का भी
उपाय नहीं है।
निहत्थे। अपने
को ही वंचना
में डाले हुए
हो।
जो भी
तुम इकट्ठा कर
रहे हो, वह
मौत छीन लेगी।
अगर मौत दिखाई
पड़ जाए तो संग्रह
की वृत्ति खो
जाएगी। जिनसे
तुम संबंध, नाते-रिश्ते
बना रहे हो, मौत तोड़
देगी। अगर मौत
दिख जाए तो
आसक्ति, संबंध
आज ही टूट
गया। इसे
तोड़ना न
पड़ेगा। मौत का
बोध तोड़ देगा।
तुम अनासक्त
हो जाओगे। यह
शरीर मौत तो
छीन लेगी। यह
जलेगा धू-धू
करके मरघट पर,
या सड़ेगा
किसी कब्र
में। अगर मौत
की प्रतीति हो
जाए तो इस
शरीर से जो भी
तादात्म्य है,
जो भी लगाव
है, वह आज
ही जा चुका; तुम आज ही मर
गए।
ज्ञानी
मौत को जानते
ही अपने को
मुर्दा मान लेता
है। अज्ञानी
कहता है, अभी
जल्दी क्या; आएगी तब देख
लेंगे।
अज्ञानी कहता
है, जब आग
लगेगी तब कुआं
खोद लेंगे।
ज्ञानी कहता
है, अगर आग
लगने ही वाली
है तो कुआं
तैयार होना चाहिए,
आज ही कुआं
खोद लो।
क्योंकि कौन
खोद पाएगा कुआं
जब आग ही लग
जाएगी? जब
घर जल रहा
होगा तब तुम
कुआं खोदोगे
पानी निकालने
को आग बुझाने
को?
तुम
टाल रहे हो
मौत को। आग तो
लगेगी, तुम्हें
पता है; कुआं
तुम नहीं खोद
रहे हो। आग
बुझाने का
तुम्हारे पास
कोई उपाय
नहीं। और सच
तो यह है कि आग
तो लगेगी, यह
भी तुम्हें
पता है, और
घर में तुम घी
के पीपे
इकट्ठे कर रहे
हो, कि जब
आग लगेगी तो
बुझाना भी
असंभव हो
जाएगा। तुम
जीवन में जो
भी इकट्ठा
करते हो, वह
अग्नि में घृत
का काम कर रहा
है।
लाओत्से
कहता है, "जीवन
से ही निकल कर
मृत्यु आती
है।'
तुम्हारे
भीतर ही बड़ी
होती है।
मृत्यु तुम्हारी
ही संतान है।
जैसे मां के
गर्भ में
बच्चा बड़ा
होता है, और
मां से निकल
कर बाहर आता
है, ऐसे ही
तुम्हारी
मौत--हरेक की
मौत--तुम्हारे
भीतर ही बड़ी
होती है; तुम्हारे
भीतर से ही
निकल कर बाहर
आती है। कोई
यमदूत नहीं है,
कोई भैंसों
पर सवार होकर
यम नहीं आता; कोई मृत्यु
का देवता नहीं
है जो मृत्यु
को भेजता हो।
जीवन ही
मृत्यु का
देवता है। और
तुम पर ही मौत
सवार है; तुम
ही वह भैंसे
हो जिस पर मौत
सवार होकर चल
रही है। तुम
इसे बाहर से
आता हुआ न
पाओगे।
अगर
मौत बाहर से
आती तो बचने
के उपाय हो
सकते थे। हम
अपने को बंद
कर लेते एक
ऐसे सुदृढ़
किले के भीतर
कि बाहर से
कुछ भी न आ
सकता। लेकिन
तब भी तुम
मरोगे। तुम
बिलकुल कांच
की दीवारों
में बंद कर
दिए जाओ, जहां
से हवा भी न आती
हो, तो भी
तुम मरोगे।
क्योंकि मौत
तुम्हारे
भीतर बड़ी हो
रही है। हां, अगर तुम
अपने को भी
बाहर छोड़ आओ
तो ही तुम न
मरोगे। वही
ज्ञानी करता
है; वह
अपने को बाहर
छोड़ देता है, खुद भीतर
सरक जाता है।
मृत्यु
तुम्हारे
भीतर प्रतिपल
बड़ी हो रही है।
जाग कर रहना।
ऐसा हुआ
कि एक यहूदी
फकीर एक
अंधेरी रात
में एक ध्यान
की साधना कर
रहा था। वह
साधना थी चलते
हुए स्मरण
रखने की कि
मैं हूं।
स्मरण खो-खो
जाता था। उसी
अंधेरी रात
में रास्ते पर
चलते हुए जब
वह साधना कर
रहा था, उसने
एक आदमी को और
टहलते हुए
देखा। सोचा, शायद वह भी
साधना में लीन
है। तो उसने
पूछा कि तुम
किस बात का
स्मरण रख कर
भटक रहे हो? तुम क्यों
चल रहे हो? क्या
है तुम्हारी
साधना? उसने
कहा, मेरी
कोई साधना
नहीं है, मैं
तो एक अमीर
आदमी का वाचमैन
हूं, पहरेदार
हूं। यह महल
है मेरे मालिक
का, मैं
इसके सामने
पहरा देता
हूं। रात भर
जागा हुआ मुझे
एक ही स्मरण
रखना होता
है--मालिक के दरवाजे
का।
फकीर
उसके साथ ही
फिर-फिर टहलता
रहा। आखिर उस आदमी
ने पूछा, और
मैं तो तुमसे
पूछा ही नहीं,
आप किसका
पहरा दे रहे
हैं? उस
फकीर ने कहा
कि जरा कहना
कठिन है, मालिक
भीतर है, पहरा
उसका दे रहा
हूं। लेकिन
तुम जैसा कुशल
नहीं। चौबीस
घंटे बहुत दूर,
चौबीस क्षण
भी पहरा नहीं
लग पाता। कभी
क्षण भर को लग
जाए तो बहुत।
फिर छूट जाता
है; फिर
छूट जाता है; फिर छूट
जाता है।
फिर
दोनों टहलते
रहे। उस फकीर
ने विदा होते
वक्त कहा कि
क्या तुम मेरे
नौकर होना
पसंद करोगे? उस
आदमी ने कहा, बड़ी खुशी
से। तुम
प्यारे आदमी
मालूम पड़ते हो;
तुम्हारा
पास होना ही
सुखद था। ऐसी
शांति मैंने
कभी किसी के
पास नहीं
जानी। खुशी
से। लेकिन काम
क्या होगा? फकीर ने कहा,
काम यही
होगा, मुझे
याद दिलाते
रहना, टु रिमाइंड
मी। जब-जब मैं
सो जाऊं, मुझे
जगा देना।
जब-जब मैं होश खोऊं, मुझे
हिला देना।
याद मेरी बनी
रहे। उसने
पूछा, लेकिन
याद क्या कर
रहे हो? कौन
सी चीज की याद
कर रहे हो? तो
उसने कहा, एक
तरफ से मौत की
याद और दूसरी
तरफ से
परमात्मा की
याद।
और ये
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। इधर
तुमने मौत को
पूरी तरह याद
किया कि उधर
परमात्मा की
याद अपने आप
सघन होने लगती
है। अगर
तुम्हें मौत
अभी दिखाई पड़
जाए तो
तत्क्षण
तुम्हारे
हृदय से
परमात्मा की
पुकार और प्यास
उठेगी। जैसे
प्यासे आदमी
को पानी की
याद आती है।
मौत प्यास है; मौत
से भयभीत मत
होना। मौत तो
पानी की याद
है। इसलिए मौत
से बचना नहीं
है; मौत से
छिपना भी नहीं
है। छिप भी न
सकोगे, बच
भी न सकोगे।
कोई कभी नहीं
बचा। हां, मौत
के पार जा
सकते हो। मौत
तुम्हारे
भीतर उग रही
है, बड़ी हो
रही है। तुम
उसे सम्हाल
रहे हो। वह
तुम्हारा
गर्भ है। यह
पहली बात।
"जीवन
से निकल कर
मृत्यु आती
है। जीवन के
साथी (अंग)
तेरह हैं।
मृत्यु के भी
साथी (अंग)
तेरह हैं। और
जो मनुष्य को
इस जीवन में
मृत्यु के घर भेजते
हैं, वे भी
तेरह ही हैं।'
चीन
में लाओत्से
के समय में
ऐसी प्रचलित
धारणा थी।
धारणा ठीक भी
है कि आदमी के
शरीर में नौ छेद
हैं;
उन्हीं नौ
छेदों से जीवन
प्रवेश करता
है। और उन्हीं
नौ छेदों से
जीवन बाहर
जाता है। और
चार अंग हैं।
सब मिला कर
तेरह। दो
आंखें, दो
नाक के स्वर, मुंह, दो
कान, जननेंद्रिय,
गुदा, ये
नौ तो छिद्र
हैं। और
चार--दो हाथ और
दो पैर। ये
तेरह जीवन के
भी साथी हैं
और यही तेरह
मृत्यु के भी
साथी हैं। और
यही तेरह
तुम्हें जीवन
में लाते हैं
और यही तेरह
तुम्हें जीवन
से बाहर ले
जाते हैं।
तेरह का मतलब
यह पूरा शरीर।
इन्हीं से तुम
भोजन करते हो;
इन्हीं से
तुम जीवन पाते
हो; इन्हीं
से
उठते-बैठते-चलते
हो; ये ही
तुम्हारे
स्वास्थ्य का
आधार हैं। और
ये ही
तुम्हारी
मृत्यु के भी आधार
होंगे।
क्योंकि जीवन
और मृत्यु एक
ही चीज के दो
नाम हैं।
इन्हीं से
जीवन
तुम्हारे भीतर
आता, इन्हीं
से बाहर
जाएगा।
इन्हीं से तुम
शरीर के भीतर
खड़े हो।
इन्हीं के साथ
शरीर टूटेगा,
इनके
द्वारा ही
टूटेगा।
यह बड़ी
हैरानी की बात
है,
ये ही
तुम्हें
सम्हालते हैं,
ये ही
तुम्हें
मिटाएंगे।
भोजन तुम्हें
जीवन देता है,
शक्ति देता
है। और भोजन
की शक्ति के
ही माध्यम से
तुम अपने भीतर
की मृत्यु को
बड़ा किए चले
जाते हो। भोजन
ही तुम्हें
बुढ़ापे तक
पहुंचा देगा,
मृत्यु तक
पहुंचा देगा।
आंख से, कान
से, नाक से,
जीवन की
श्वास भीतर
आती है, उन्हीं
से बाहर जाती
है। नौ द्वार
और चार अंग।
लाओत्से
कहता है, तेरह
ही जीवन के
साथी, तेरह
ही मौत के
साथी। ये तेरह
ही लाते हैं, ये तेरह ही
ले जाते हैं।
अगर तुम सजग
हो जाओ तो तुम
चौदहवें हो।
इन तेरह में
तुम नहीं हो; इन तेरह के
पार हो।
इस
तेरह की
संख्या के कारण
चीन में, और
फिर धीरे-धीरे
सारी दुनिया
में, तेरह
का आंकड़ा
अपशकुन हो
गया। वह चीन
से ही फैला।
पश्चिम में
जहां तेरह का आंकड़ा
अपशकुन है
उनको पता भी
नहीं कि क्यों
अपशकुन है।
उसका जन्म चीन
में हुआ। उस
सुपरस्टीशन
की पैदाइश चीन
में हुई।
तो आज
तो हालत ऐसी
है कि अमरीका
में होटलें
हैं जिनमें
तेरह नंबर का
कमरा नहीं
होता; तेरह
नंबर की मंजिल
भी नहीं होती।
क्योंकि कोई
ठहरने को तेरह
नंबर की मंजिल
पर राजी नहीं
है। तो बारह
के बाद चौदह
नंबर होता है।
क्योंकि तेरह
शब्द से ही घबड़ाहट
पैदा होती है।
तेरह नंबर का
कमरा नहीं
होता; बारह
नंबर के कमरे
के बाद चौदह
नंबर का आता
है। होता तो
वह तेरहवां
ही है, लेकिन
जो ठहरता है
उसको नंबर
चौदह याद रहता
है; तेरह
की उसे चिंता
नहीं पकड़ती।
इसका जन्म हुआ
चीन में, और
बड़े
अर्थपूर्ण
कारण से यह
विश्वास
फैला। ये तेरह
ही अपशकुन
हैं। तुम
चौदहवें हो।
और तुम्हें
चौदहवें का
कोई भी पता
नहीं। तुम न जीवन
हो, न मौत; तुम दोनों
के पार हो।
अगर तुम इन
तेरह के प्रति
सजग हो जाओगे,
जैसे-जैसे
तुम जागोगे
वैसे-वैसे
शरीर दूर होता
जाएगा।
जैसे-जैसे
तुम्हारा होश
बढ़ेगा वैसे-वैसे
शरीर से
तुम्हारा
फासला बढ़ेगा।
तुम देख पाओगे,
मैं पृथक
हूं, मैं
अन्य हूं।
शरीर और, मैं
और। और यह जो
भीतर भिन्नता,
शरीर से अलग
चैतन्य का
आविर्भाव
होगा, इसकी
न कोई मृत्यु
है, न इसका
कोई जीवन है।
न यह कभी पैदा
हुआ, न कभी
यह मरेगा।
एक सयानी
आपनी, फिर
बहुरि न मरना
होय। जिसने
इसको जान कर
जो मरा, वह
सयाना, वह
ज्ञानी। उसने
जाना। जो इसको
बिना जाने मर
गए, उनकी
मौत सम्यक
नहीं। वे यूं
ही मर गए। वे
व्यर्थ ही जीए
और व्यर्थ ही
मर गए। अकारण
ही दौड़-धूप
हुई, बहुत
चले, पहुंचे
कहीं नहीं।
बहुत खोजा, पाया कुछ भी
नहीं; खोजने
में सिर्फ
अपने को
गंवाया। अंत
में जब वे
जाते हैं, उनके
हाथ खाली
होंगे। जीसस
ने कहा है, खाली
हाथ तुम आते
हो और खाली
हाथ मैं
तुम्हें जाते
देख रहा हूं।
और जीसस राजी
थे कि तुम्हारे
हाथ भर दें।
लेकिन तुम
सोचते हो कि
तुम्हारे हाथ
पहले से ही
भरे हैं। खाली
हों तो भर दिए
जाएं। तुम कंकड़-पत्थरों
से हाथ भरे
हो। और अगर
जीसस या
लाओत्से
हीरे-जवाहरातों
से तुम्हारे
हाथ भरना
चाहें तो तुम
कहते हो, हाथ
खाली कहां
हैं! तुम कंकड़-पत्थर
जुटा रहे हो।
तुम व्यर्थ का
कूड़ा-कर्कट
इकट्ठा कर रहे
हो। वह सब भी
तुम्हारे साथ
जल जाएगा।
तुम्हारी
सारी संपदा
तुम्हारी विपदा
ही सिद्ध होती
है। तुम उससे
परेशान ही
होते हो; तुम
उससे कुछ
शांति और चैन
और आनंद अनुभव
नहीं करते।
"यह
कैसे होता है?'
यह
जीवन में
मृत्यु का
आविर्भाव, यह
जीने के
रास्ते पर मौत
की घटना, यह
कैसे घटती है?
"जीवन
को विस्तार
देने की तीव्र
कर्मशीलता के कारण।'
अगर
तुम अपने भीतर
पाओगे...तो
मैंने दो ही
तरह के लोग
देखे। एक, जिनके
भीतर और-और-और
का मंत्रपाठ
चलता है। जो
भी है, उससे
ज्यादा होना
चाहिए। जो भी
है, उससे
उनकी कोई
तृप्ति नहीं।
उनके भीतर एक
ही स्वर बजता
है, एक ही
संगीत वे
पहचानते हैं:
और-और। करोड़
रुपए हों तो
भी और, कौड़ी हो तो भी और।
कुछ भी न हो तो
भी और, साम्राज्य
हो तो भी और।
उनका मुंह, उनके प्राण
अभाव से भरे
रहते हैं। जो
भी है वह बढ़ना
चाहिए।
लाओत्से
कहता है, इसी
कारण वे, जो
जीवन और
मृत्यु के पार
तत्व है, उससे
वंचित रह जाते
हैं। जीवन और
की दौड़ है, और
मौत इसी और की
दौड़ का अंत।
अगर तुम इस
दौड़ में रुक
जाओ, उसी
क्षण मौत भी
रुक गई। फिर
बहुरि न मरना
होय। फिर
दुबारा मरना
नहीं होता।
तुम
अपने भीतर
खोजो, चौबीस
घंटे क्या पाठ
चल रहा है? कौन
सा मंत्र
तुम्हारे
भीतर काम कर
रहा है? तो
तुम पाओगे, रोएं-रोएं
में, श्वास-श्वास
में एक ही आकांक्षा
है: जो भी है और
बड़ा हो जाए।
करोगे
क्या इसे बड़ा
करके? अगर
तुम्हें रहना
ही नहीं आता
तो मकान छोटा
हो तो भी तुम
बेचैन रहोगे,
मकान बड़ा हो
तो भी तुम
बेचैन रहोगे।
अगर तुम्हें
सोना ही नहीं
आता तो तुम
गरीब के
बिस्तर पर सोओ
कि अमीर के
राजभवन में, क्या फर्क
पड़ेगा? अगर
तुम्हें भोजन
करना ही नहीं
आता तो तुम
रूखी रोटी खाओ
कि श्रेष्ठतम
सुस्वादु
भोजन, क्या
फर्क पड़ेगा?
दूसरे
तरह का आदमी
है जो और की
दौड़ नहीं
करता। जो उसे
मिला है--जो भी
मिला है--वह
उससे परितृप्त
है,
संतुष्ट
है। एक गहन
परितोष उसे
घेरे रहता है।
उसके चारों
तरफ एक
वायुमंडल
होता है परम
संतोष का। जो
भी मिला है वह
बहुत है, उसके
भीतर एक स्वर
होता है। और
उसके कारण वह
निरंतर
धन्यवाद देता
है। उसके भीतर
अनुग्रह का
भाव होता है।
वह परमात्मा
को कहता रहता
है, धन्यवाद
तेरा। जो भी
तूने दिया है,
उसकी भी कोई
पात्रता मेरी
न थी। जो भी
तूने दिया है,
वह मेरी
योग्यता से
सदा ज्यादा
है। उसके भीतर
एक अनुग्रह का
नाद होता रहता
है।
उठते-बैठते-चलते
एक परम अहोभाव
से भरा रहता
है।
ये दो
ही स्वर के
लोग हैं।
जिनके भीतर और
का नाद है, वे
संसारी। और
जिनके भीतर
अहोभाव का नाद
है, वे
संन्यासी। कहां
तुम रहते हो, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। अगर
तुम्हारे
भीतर अहोभाव
है तो तुम परम
संन्यासी हो।
और अगर तुम्हारे
भीतर और की ही,
और की दौड़
है तो तुम
चाहे आश्रम
में रहो चाहे
हिमालय पर, तुम संसारी
रहोगे। तुम
अगर अहोभाव से
भर जाओ तो
स्वर्ग यहीं
और अभी है। और
तुम और से ही
भरे रहो तो
तुम जहां भी
जाओगे वहीं
नरक पाओगे।
क्योंकि नरक
तुम्हारे
भीतर है; स्वर्ग
भी तुम्हारे
भीतर है।
ऐसा
हुआ। एक सूफी
फकीर ने एक
रात सपना
देखा। कुछ ही
दिन हुए, उसका
गुरु मर गया
है। सपने में
उसने देखा कि
वह स्वर्ग गया
है और अपने
गुरु की तलाश
कर रहा है।
फिर उसने एक
वृक्ष के नीचे
अपने गुरु को
प्रार्थना
करते देखा तो
वह बहुत हैरान
हुआ कि अब किसलिए
प्रार्थना कर
रहे हैं? जो
पाना था पा
लिया, आखिरी
मंजिल आ गई।
स्वर्ग के ऊपर
तो कुछ है भी नहीं।
अब किसलिए
प्रार्थना कर
रहे हैं?
लेकिन
गुरु
प्रार्थना
में था तो वह
रुका रहा। एक
देवदूत
गुजरता था।
उसने पूछा कि
मैं बड़ा हैरान
हूं! मैं तो
सोचता था, पृथ्वी
पर लोग
प्रार्थना
करते हैं
स्वर्ग जाने
के लिए। इसलिए
हम भी छाती
पीटते हैं और
प्रार्थना
करते हैं, सिर
झुकाते हैं।
मेरा गुरु तो
स्वर्ग पहुंच
गया। और यह
ऐसा तन्मय
बैठा है, ऐसा
मगन होकर
प्रार्थना कर
रहा है। अब किसलिए?
अब क्या
पाने को है? मैं तो
जानता था, सोचता
था कि स्वर्ग
में कोई
प्रार्थना न
होती होगी।
उस
देवदूत ने कहा, स्वर्ग
में कोई
प्रार्थना
नहीं होती; प्रार्थना
में ही स्वर्ग
होता है। जिस
क्षण इसकी
प्रार्थना
चूक जाएगी उसी
क्षण स्वर्ग
खो जाएगा।
प्रार्थना
स्वर्ग का
द्वार नहीं है,
प्रार्थना
स्वर्ग है।
प्रार्थना
मार्ग नहीं है,
प्रार्थना
मंजिल है।
प्रार्थना
साधन नहीं है,
साध्य है।
वह कोई साधक
की अवस्था
नहीं है, सिद्ध
का अहोभाव है।
लेकिन
अहोभाव तो तभी
होगा, जब और से
छुटकारा हो
जाए। इसलिए यह
समझ लेना
जरूरी है कि
जो आदमी कह
रहा है और
चाहिए, और
चाहिए, और
चाहिए, वह
धन्यवाद नहीं
दे सकता; वह
शिकायत कर
सकता है।
क्योंकि वह
हमेशा परेशान
है, हमेशा
कम है। अहोभाव
कैसा? प्रार्थना
कैसी? पूजा
कैसी? अर्चना
कैसी? धन्यवाद
किसको? जो
आदमी और-और की
मांग कर रहा
है वह
परमात्मा के
प्रति शिकायत से
ही भरा रहेगा।
उसके पूरे
प्राणों में
शिकायत का
कांटा रहेगा,
पीड़ा की तरह
चुभता रहेगा,
दंश देता
रहेगा।
मंदिर
शिकायत लेकर
मत जाना।
क्योंकि जो
शिकायत लेकर
गया वह मंदिर
कभी पहुंचता
ही नहीं। शिकायत
लेकर
परमात्मा के पास
जाने की कोशिश
मत करना, क्योंकि
शिकायत
परमात्मा से
दूर ले जाने
की व्यवस्था
है। मांगने
उसके द्वार पर
जाना मत, क्योंकि
मांगने का
अर्थ ही है कि
अभी धन्यवाद देने
का क्षण नहीं
आया, अभी
और चाहिए।
लाओत्से
कहता है, यह
कैसे होता है
कि तुम्हारे
जीवन में ही
मौत पनप जाती
है। यह ऐसे
होता है कि
तुम और-और-और
मांगते चले
जाते हो।
"बिकाज ऑफ दि इनटेंस
एक्टिविटी ऑफ मल्टीप्लाइंग
लाइफ।'
तुम और
ज्यादा करना
चाहते हो, और
ज्यादा करना
चाहते हो।
कितना ही मिल
जाए, तृप्ति
नहीं होती।
सुना
है मैंने, मुल्ला
नसरुद्दीन
नियाग्रा
जलप्रपात
देखने गया।
शिकायती आदमी
है; अहोभाव
मुश्किल है।
किसी चीज को
देख कर तृप्त होना
असंभव है।
किसी चीज को
देख कर
प्रसन्न होना
मुश्किल है।
खड़ा है नियाग्रा
जलप्रपात के
पास। जो
मार्गदर्शक
है, वह
प्रशंसा करता
है। क्योंकि
ऐसा कोई
जलप्रपात
नहीं, ऐसी
अनूठी घटना है
नियाग्रा।
लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन
ऐसे खड़ा है
जैसे कुछ भी
नहीं।
वह
मार्गदर्शक
कहता है, आप
ऐसे खड़े हैं, गौर से तो
देखें! यह
अनूठी घटना
है। कितना जल
गिर रहा है, पता है आपको?
अरबों-खरबों
गैलन प्रति
सेकेंड!
मुल्ला ने ऐसी
नजर डाली और
कहा, दिन
भर में कितना
गिरता है? आंकड़े।
दिन भर में
कितना गिरता
है? उस
आदमी ने कहा, मुझे हिसाब
नहीं, लेकिन
आप अंदाज कर
सकते हैं।
असंख्य गैलन!
और मुल्ला ने
कहा, रात
भर भी गिरता
रहता है? लेकिन
उसके मन पर
कोई भाव नहीं
है। इस विराट
घटना के करीब
भी वह ऐसे ही
खड़ा है जैसे
बाथरूम में नल
की टोंटी खोल
कर खड़ा रहता
हो। कोई फर्क
नहीं है।
शिकायती
को तुम किसी
भी क्षण में
विराट से नहीं
भर सकते। वह
विराट की भी
नाप-जोख कर
लेगा: कितने
गैलन दिन में? रात
में भी गिरता
है? वह
विराट को भी
माप लेगा।
और जब
भी तुम किसी चीज
को माप लोगे, तुम्हारा
मन कहेगा, इससे
बड़ा भी तो हो
सकता है। तो
इसमें
प्रभावित
होने का क्या
है? पानी
ही तो गिर रहा
है। कोई सोना
तो नहीं बरस रहा।
और जितनी भी
बड़ी संख्या हो,
इससे क्या
फर्क पड़ता है।
अन्यथा तो एक
पानी की बूंद,
सुबह दूब पर
पड़ी एक ओस, सूरज
की चमकती
किरणें--और
विराट प्रकट
हो जाता है।
कोई नियाग्रा
जाने की जरूरत
है? एक
बूंद काफी है,
अगर अहोभाव
हो। अन्यथा नियाग्रा
भी काफी नहीं
है।
कैसे
तुम्हारे
भीतर मौत बड़ी
होती है?
लाओत्से
कहता है, तुम्हारे
भीतर मौत बड़ी
होती है, क्योंकि
तुम जो हो
उससे तुम
तृप्त नहीं।
लाओत्से यह कह
रहा है, अतृप्ति
से मौत सघन
होती है, बनती
है, निर्मित
होती है।
अतृप्ति मौत
है।
इसलिए
तो बूढ़े मरते
हैं। क्योंकि
बूढ़े अतृप्ति
के ज्यादा
करीब पहुंच
जाते हैं
बच्चों की बजाय।
बच्चे
छोटी-छोटी
चीजों में
तृप्त मालूम होते
हैं। एक
खिलौना, एक
उड़ती तितली
काफी है। एक
छोटा सा घास
में खिला फूल
पर्याप्त
खजाना है।
छोटे बच्चे
इतने ताजे और
जीवंत हैं, मौत बड़ी दूर
है। क्योंकि
छोटे-छोटे में,
क्षुद्र
में भी विराट
का दर्शन हो
रहा है।
लेकिन
यह अज्ञान के
कारण हो रहा
है। जल्दी ही मौत
प्रवेश कर
जाएगी। जल्दी
ही शिकायत
शुरू हो
जाएगी। जल्दी
ही बच्चा भी
कहने लगेगा, और
चाहिए। फिर
उसका कोई अंत
नहीं है।
एक
मित्र मेरे
पास आते थे।
एक राज्य में
शिक्षा
मंत्री हैं।
उन्होंने
मुझसे कहा, मुझे
नींद नहीं
आती। और कहने
लगे, न
मुझे ईश्वर की
खोज है, न
मुझे आत्मा
जाननी, न
मुझे मोक्ष की
इच्छा है। मैं
आपके पास
सिर्फ इसलिए
आया हूं कि मुझे
सिर्फ नींद आ
जाए। यह मेरे
जीवन-मरण का प्रश्न
है। मैं सब
दवाइयां लेकर
हार चुका। ट्रैंक्वेलाइजर
लेता हूं तो
सुस्ती आ जाती
है, नींद
नहीं आती।
उलटा सुबह और
भी ज्यादा
बेचैन उठता
हूं। फिर सुबह
मुझे शक्ति
पाने के लिए
और ताजगी पाने
के लिए दूसरी
दवाइयां लेनी
पड़ती हैं। तो
आप इतना ही
करें कि मुझे
किसी तरह नींद
आ जाए। क्या
ध्यान से नींद
आ सकेगी? और
ज्यादा मेरी
मांग नहीं है।
जब वे
यह बोल रहे थे
तो मैंने
इशारा किया और
उनकी सब बातें
टेप कर ली
गईं। क्योंकि
मैं जानता हूं, राजनीतिज्ञ
हैं, इनकी
बात का कोई
भरोसा नहीं
है। और यह भी
मैं जानता हूं
कि जब साधारण
आदमी की और की
दौड़ इतनी ज्यादा
होती है तो
राजनीतिज्ञ
की तो और
ज्यादा होनी
ही चाहिए। वह
तो मनुष्यों
में सब से ज्यादा
पागल मनुष्य
है। ये कैसे
सिर्फ नींद से
राजी हो
जाएंगे? मुझे
भरोसा नहीं
आया।
उनसे
ध्यान करने को
कहा।
उन्होंने
मेहनत की। तीन
सप्ताह बाद वह
आए और कहने
लगे कि ठीक है, नींद
तो आ गई, लेकिन
और कुछ नहीं
हुआ। मैंने
कहा कि अब आप रुकें। आप
भूल गए कि तीन
सप्ताह पहले
आपने कहा था, यह जीवन-मरण
का सवाल है।
और आप कहते
हुए आए थे कि
मुझे सिर्फ
नींद चाहिए, और कुछ नहीं
चाहिए। और जब
नींद आ गई तो
आप कह रहे हैं
कि और कुछ भी
नहीं हुआ; बस
नींद आ गई।
जो
नींद वर्षों
से नहीं आई थी, जो
दवाओं से नहीं
आई थी, वह आ
गई, लेकिन
उनके मन में
धन्यवाद नहीं
है। मैंने टेप
लगवाया। सुना,
कहने लगे कि
हां, ठीक
है। थोड़े चौंके,
कहने लगे कि
नहीं, ऐसी
बात नहीं।
मेरा मतलब यह
था कि जब
ध्यान से इतना
हो सकता है तो
और भी हो सकता
है। पर मैंने कहा
कि अब आप सोच
लें, क्योंकि
जैसे आप आदमी
हैं, अगर
आपको
परमात्मा भी
मिल जाए तो आप
लौट कर कहेंगे,
परमात्मा
मिल गया, और
कुछ नहीं हुआ।
मोक्ष मिल जाए,
आप कहेंगे,
अब? मोक्ष
मिल गया, और
कुछ भी न हुआ।
और इस
तरह के आदमी
को मोक्ष नहीं
मिल सकता। और यह
नींद भी
ज्यादा देर न टिकेगी।
यह खो जाएगी।
क्योंकि आपको
नींद लेने की
भी पात्रता
नहीं है।
क्यों
गांव-देहात का
गरीब आदमी, जिसे
एक जून रोटी
मिलती है, कभी
वह भी नहीं
मिलती, गहरी
नींद सोता है?
क्यों शहर
का धनी, सुखी
आदमी, जिसके
पास सब है, एक
झपकी नहीं ले
पाता? होना
तो उलटा चाहिए
कि जिसके पास
कुछ नहीं है वह
चिंता में सो
न सके, और
जिसके पास सब
है निश्चिंत
होकर सो जाए।
ऐसा होता
नहीं।
कारण
कहीं और है।
वह जो गांव का
गरीब आदमी है
उसके मन में
शिकायत नहीं
है। जो है, वह
उससे भी तृप्त
है। एक जून
रोटी मिल गई, वह भी क्या
कम है! हो सकता
था, वह भी न
मिले। वह एक
जून रोटी के
लिए भी धन्यवाद
दे रहा है। उस
धन्यवाद से ही
उसके मन में
विश्राम है।
वही विश्राम
उसकी प्रगाढ़
निद्रा बन
जाता है।
भिखमंगों को
सोते देख कर सम्राटर्
ईष्या से भर
जाते हैं।
तुमने रास्ते
पर भिखमंगों
को सोते देखा
होगा। दिन की
भरी दुपहरी
में--बाजार चल
रहा है, कारें
दौड़ रही हैं, शोरगुल मचा
है, भोंपू,
सब कुछ हो
रहा है--और कोई
आदमी वृक्ष के
नीचे मजे से
सो रहा है।
सड़क की पटरी
पर सो रहा है, घुर्राटे की आवाजें
ले रहा है। और
तुम अपने कक्ष
में, जहां
कोई आवाज नहीं
पहुंचती, जहां
कोई शोरगुल
नहीं होता, सुखद से
सुखद शय्या पर
पड़े करवटें
बदलते रहते हो।
सम्राटर्
ईष्या से भर
जाते हैं
भिखारी को
सोया हुआ देख कर।
क्या होगा? कारण क्या
होगा?
भिखारी
को जो मिल
जाता है, उसकी
भी उसे
अपेक्षा न थी।
पक्का न था कि
वह भी मिलेगा।
कोई गारंटी न
थी। मिल जाए
मिल जाए, न
मिले न मिले।
मिल गया तो
धन्यवाद, न
मिले तो पानी
पीकर सो रहना
है।
जब
तुम्हारी
अपेक्षा कम
होती है तब
तुम विश्राम
में होते हो।
जब तुम्हारी
अपेक्षा
ज्यादा हो
जाती है तब तुम
तनाव से भर
जाते हो। और
अपेक्षा और
प्रार्थना का
कभी भी मिलना
नहीं होता। और
अपेक्षा और परम
जीवन के मिलने
का कोई उपाय
नहीं है।
लाओत्से
कहता है कि यह
कैसे होता है? जीवन
को विस्तार
देने की तीव्र
कर्मशीलता के कारण।
तुम
दौड़े जा रहे
हो--और ज्यादा
चाहिए, और
ज्यादा चाहिए,
और ज्यादा
चाहिए। किसी
दिन वह
तुम्हें मिल
भी जाएगा। इस
जगत का एक बड़ा
चमत्कार यह है
कि तुम्हारी नासमझियां
भी पूरी हो
जाती हैं। और
परमात्मा ऐसा
परम कृपालु है
कि तुम्हारी मूढ़ता को
भी आशीष दिए
जाता है, आशीर्वाद
दिए जाता है।
तुम्हारी
क्षुद्र और
व्यर्थ
वासनाएं भी
तृप्त करने का
आयोजन कर देता
है। तब तुम
अचानक पाते हो
कि सब हाथ में
है; खुद को
तुम कहीं छोड़
आए, खुद को
कहीं दूर अतीत
में भटका आए।
खुद कहीं छूट
गया मार्ग पर,
तुम तो
मंजिल पर
पहुंच गए। सब
इकट्ठा हो गया,
लेकिन
तुम्हारी
आत्मा कहीं
राह में छूट
गई है। और तब
तुम्हें फिर
कोई बेचैनी
पकड़ लेती है।
फिर अशांति
पकड़ लेती है।
तुम सब भी
पाकर भिखारी ही
रहोगे।
और इसी
सब पाने की
दौड़ में
तुम्हारी मौत
बड़ी हो रही
है। क्योंकि
तुम जीवन को
चुका रहे हो।
तुम जीवन को
सम्हाल नहीं
रहे। तुम जीवन
की ऊर्जा को
बेच रहे
हो--ठीकरों में।
इस जीवन-ऊर्जा
से परमात्मा
पाया जा सकता
है। यही अवसर
तुम तिजोड़ी
भरने में लगा
रहे हो। इसी
अवसर से आत्मा
भरी जा सकती
है। अवसर
बहुमूल्य है।
एक-एक क्षण
खोया गया वापस
नहीं लौट
सकता।
तुम
जीवन की इस और
की दौड़ से
बचो। तुम उसे
देखना शुरू
करो जो
तुम्हें मिला
ही हुआ है।
तुम उसकी बहुत
चिंता मत करो
जो तुम्हें
मिला हुआ नहीं
है। क्योंकि
उसकी जिसने
चिंता की, वह
कभी भी
विश्राम को न
उपलब्ध हो
सकेगा। क्योंकि
कितना ही मिल
जाए, सदा
कुछ शेष रहेगा
जो नहीं मिला
हुआ है। क्या तुम
सोचते हो, ऐसी
कोई घड़ी आ
जाएगी जब पाने
को कुछ भी शेष
न रहेगा?
कभी भी
न आएगी। अनंत
है विस्तार।
तुम कैसे सब पा
सकोगे? तुम्हारे
छोटे हाथों
में तुम इस
अनंत को कैसे समा
सकोगे? तुम
कुछ पा लोगे
तो बहुत कुछ
पाने को शेष
रहेगा। तुम
कितना ही पा
लोगे तो भी
अनंत गुना
पाने को शेष
रहेगा। और कभी
वह क्षण न
आएगा जब तुम
धन्यवाद दे
सको। शिकायत
बड़ी होती
जाएगी।
सम्राट की
शिकायत गरीब
की शिकायत से
भी बड़ी हो
जाती है।
जितनी वासना
बड़ी होती है
उतनी ही बड़ी
शिकायत हो
जाती है। और
शिकायत
अधार्मिक
आदमी का लक्षण
है।
अगर
कोई मुझसे
पूछे तो मैं
नास्तिक उसको
नहीं कहता जो
कहता है ईश्वर
नहीं है।
नास्तिक मैं
उसको कहता हूं
जिसके जीवन
में सिवाय
शिकायत के और
कुछ भी नहीं
है। भला वह
मंदिर जाता हो, मस्जिद
जाता हो, गुरुद्वारा
जाता हो, लेकिन
वह वहां भी
शिकायत करता
है। वह वहां
भी कहता है कि
यह तू क्या कर
रहा है? तू
क्या करवा रहा
है? बेईमान
जीते जा रहे
हैं, मैं
ईमानदार हारा
जा रहा हूं।
जिनकी कोई
योग्यता नहीं
है, वे सिर
पर बैठे हैं
और मुझ जैसा
योग्य आदमी सड़कों
पर भटक रहा
है। अन्याय हो
रहा है।
तुम्हारी
सारी
प्रार्थनाएं
तुम्हारी
शिकायतें
हैं। और
प्रार्थना
कहीं शिकायत
हो सकती है?
तुम
उसी दिन मंदिर
पहुंच पाओगे
जिस दिन तुम
धन्यवाद देने
जाओगे, जिस
दिन तुम कहने
जाओगे कि मैं
किसी योग्य न
था, मेरी
कोई क्षमता और
पात्रता न थी,
और तूने
इतना दिया!
जिस दिन
तुम्हारे पास
जो है, तुम्हारी
पात्रता से
तुम्हें
ज्यादा दिखाई पड़ेगा,
उसी दिन
प्रार्थना का
जन्म होगा।
फिर उस
प्रार्थना का
कोई अंत नहीं
है। वह बढ़ती
जाती है, बढ़ती
जाती है। और
एक घड़ी ऐसी
आती है कि
तुम्हारी
पात्रता
शून्य हो जाती
है। उस शून्य
पात्र में ही
सारा
अस्तित्व उतर
आता है। जिस
दिन तुम कह
पाते हो, मेरी
कोई भी
योग्यता नहीं,
मैं जीवन के
योग्य भी न था,
एक सांस भी
ले सकूं
अस्तित्व की,
इसकी भी
मेरी कोई
क्षमता न थी, और तूने
मुझे अनंत
जीवन दिया, जिस दिन
तुम्हें
इसमें
परमात्मा के
अनुग्रह के
अतिरिक्त कुछ
भी न दिखाई
पड़ेगा, तुम
बिलकुल शून्य
मात्र हो
जाओगे, उसी
क्षण फिर
तुम्हारी कोई
मृत्यु नहीं
है।
मृत्यु
वासना की है।
तुम्हारा
जीवन वासना है, इसलिए
तुम्हारे
भीतर मृत्यु
बड़ी होती है।
तुम्हारे
भीतर की वासना
ही तुम्हारे
भीतर की मृत्यु
है। जो
निर्वासना को
उपलब्ध हुआ वह
अमृत को
उपलब्ध हो
गया।
"कहते
हैं, जो
जीवन का सही
संरक्षण करता
है, उसे
जमीन पर बाघ
या भैंसे से
सामना नहीं
होता; न
युद्ध के
मैदान में
शस्त्र उसे
छेद सकते हैं;
जंगली
भैंसों के
सींग उसके
सामने
शक्तिहीन हैं;
बाघों के
पंजे उसके
समक्ष व्यर्थ
हैं; और
सैनिकों के
हथियार
निकम्मे हैं।
यह कैसे होता
है? क्योंकि
वह मृत्यु से
परे है।'
कृष्ण
ने गीता में
यही कहा है:
नैनं छिन्दंति
शस्त्राणि--न
तो तुझे
शस्त्र छेद
सकते हैं; नैनं
दहति पावकः--न
अग्नि तुझे
जला सकती है।
लेकिन
शरीर तो जल
जाता है। शरीर
को तो छेद देते
हैं शस्त्र।
और युद्ध के
मैदान पर
कृष्ण कहते
हैं अर्जुन
को! कैसा झूठ
बोल रहे हैं? युद्ध
के मैदान पर, जहां कि
मृत्यु अपनी प्रगाढ़ता
में प्रकट
होती है, जहां
कि अर्जुन को
साफ दिखाई पड़
रहा है कि ये मेरे
प्रियजन, सगे,
बंधु-बांधव,
मेरे
गुरुजन, ये
सब थोड़ी ही
देर में
मिट्टी चाटते
होंगे, थोड़ी
ही देर में हम
धूल-धूसरित हो
जाएंगे, खून
हमारा जमीन पर
बह रहा होगा, शरीर कटे
हुए पड़े होंगे,
लाश और लाश
के पहाड़ लग
जाएंगे, वहां
कृष्ण अर्जुन
को कहते हैं
कि नहीं, तुझे
न शस्त्र छेद
सकते हैं और न
अग्नि जला सकती
है। यह ऐसे ही
है जैसे मरघट
पर कोई जल रही
हो लाश और मैं
तुमसे कहूं कि
घबड़ाओ मत,
आग तुम्हें
जला नहीं
सकती।
लेकिन
कृष्ण ठीक ही
कह रहे हैं।
वे कोई मजाक नहीं
कर रहे, न कोई
झूठ बोल रहे
हैं। क्योंकि
तुम जो हो, उसका
तुम्हें पता
ही नहीं।
अग्नि में जो
जलता है, वह
तुम नहीं हो।
शस्त्र जिसे
छेद जाते हैं,
वह तुमसे
बाहर है। वह
तुम्हारा
आवास हो भला, तुम्हारा
वस्त्र हो, तुम नहीं
हो। थोड़ी देर
तुम रुके हो, पड़ाव हो भला, लेकिन
तुम्हारी
सत्ता नहीं
है। तुम तो
चैतन्य हो, तुम शुद्ध
चैतन्य हो।
शुद्ध चैतन्य
को कैसे शस्त्र
छेदेंगे?
चेतना को
शस्त्र
छुएंगे कैसे?
चेतना को
अग्नि में
जलाओगे कैसे?
चेतना, अग्नि
का कोई मिलन
ही नहीं हो
सकता। लोग
कहते हैं, पानी
और तेल को
नहीं मिलाया
जा सकता।
लेकिन फिर भी
पानी और तेल
को मिलाने की
कोशिश की जा
सकती है।
लेकिन अग्नि
और चेतना को
तो मिलाने की
कोशिश भी नहीं
हो सकती।
चेतना कैसे
जलेगी?
लाओत्से
यही कह रहा
है। वह यह
कहता है कि
कहते हैं, जो
जीवन का सही
संरक्षण करता
है...।
जो
जीवन का
ठीक-ठीक सम्यक
उपयोग करता है, जीवन
को वासना में
नहीं गंवाता,
समय को और
की दौड़ में
नहीं लगाता, अभाव के
पीछे नहीं
भागता, जो
जीवन का
संरक्षण करता
है। क्या है
संरक्षण?
तुम दो
तरह से जी
सकते हो। एक
तो फूटी बाल्टी
की तरह। कुएं
में डालो, शोरगुल
बहुत होता है,
बाल्टी
भरती भी दिखाई
पड़ती है, जब
पानी में
डूबती है कुएं
के तो भर जाती
है। फिर खींचो,
बड़ी आवाज मचनी शुरू
होती है, क्योंकि
सब तरफ से
पानी गिरना
शुरू होता है।
और ऐसा लगता
है कि बाल्टी
पूरा सागर
लेकर आ रही है।
लेकिन जब तक
तुम्हारे हाथ
तक पहुंचती है,
खाली हो
जाती है। वह
शोरगुल सागर
का नहीं था, वह शोरगुल
छिद्रों का
था। वह शोरगुल
इसलिए नहीं हो
रहा था कि
बाल्टी बड़ी
विराट घटना को
लेकर आ रही थी;
वह इसलिए हो
रहा था कि
बाल्टी
हजार-हजार
छिद्रों से
भरी थी।
तो एक
तो फूटी बाल्टी
की तरह का
जीवन है। मरते
दम तुम पाओगे
कि तुम्हारे
छेद से सब बह
गया,
जो भी तुम
लेकर आए थे वह
तुमने गंवा
दिया, और
बदले में तुम
कुछ भी लेकर
नहीं जा रहे
हो। जीवन यूं
ही गया। दूसरा
एक ऐसा जीवन
है, जिस
बाल्टी में
छिद्र नहीं।
उसी को
लाओत्से संरक्षण
कह रहा है।
वासनाएं
तुम्हारे छेद
हैं,
जिनसे जीवन
की ऊर्जा बह
जाती है। जब
भी तुम वासना
से भरते हो, तभी तुम
अपने को
गंवाते हो।
निर्वासना
संरक्षण है।
इसलिए तो
बुद्ध, महावीर,
सभी का एक
जोर है कि
तृष्णा छोड़ दो,
वासना छोड़
दो। मांगो मत।
जो है, वैसे
ही काफी है।
तुम, जो है,
उसको जी लो।
और जितने कम
से चल जाए।
क्योंकि वह कम
भी तुम्हारी
वासना के कारण
मालूम पड़ता
है। वासना
हटाओगे तो तुम
पाओगे, वह
कम कभी था ही
नहीं।
बहुत
बार तुमसे
मैंने कहा है।
अकबर ने एक
दिन अपने
दरबार में एक
लकीर खींच दी
और कहा, इसे
बिना छुए छोटा
कर दो। दरबारी
बड़ी परेशानी
में पड़ गए; न
कर पाए छोटा।
बिना छुए
करोगे भी कैसे?
फिर उठा बीरबल
और उसने एक
बड़ी लकीर उसके
नीचे खींच दी।
बिना छुए लकीर
छोटी हो गई, तत्क्षण
छोटी हो गई।
तुम्हारे
पास जो है, वह
बहुत थोड़ा
मालूम पड़ रहा
है; क्योंकि
बड़ी वासना की
लकीर तुमने
खींच रखी है।
वह थोड़ा नहीं
है। वह जरूरत
से ज्यादा है।
परमात्मा सदा
जरूरत से
ज्यादा देता
है। वह कोई
कृपण नहीं है।
और अस्तित्व
कोई सौदा थोड़े
ही कर रहा है
तुम्हारे
साथ। और
अस्तित्व का
तो देना आनंद
है, ओवरफ्लोइंग है।
अस्तित्व तो
ऊपर से बह रहा
है। यह अस्तित्व
है ही इसलिए
कि परमात्मा
के पास जरूरत
से ज्यादा है।
यह उसका आनंद
है बांटना।
बिना बांटे वह
नहीं रह सकता।
इसलिए
तुम यह मत
सोचना कि
तुम्हें
जरूरत के हिसाब
से दिया जा
रहा है।
तुम्हें तो
जरूरत से सदा
ज्यादा दिया
जा रहा है।
लेकिन तुम
वासना की बड़ी
लकीर खींचते
चले जाते हो।
और कितना ही
तुम्हें
मिलता जाए, तुम्हारी
लकीर बड़ी होती
जाती है। तो
जो भी तुम
पाते हो, वह
सदा थोड़ा
मालूम पड़ता
है। जब तक
वासना है तब तक
तुम गरीब
रहोगे, तब
तक तुम भिखारी
रहोगे। जिस
दिन कोई वासना
न रही उस दिन
तुम्हारा
सम्राट प्रकट
होता है। उस
दिन फिर तुम
सम्राट हो।
राम, स्वामी
राम अपने को
बादशाह कहते
थे। लंगोटी थी
उनके पास एक।
और जब किसी ने
पूछा अमरीका
में कि क्यों
कहते हो तुम
अपने को
बादशाह, कुछ
तुम्हारे पास
है नहीं!
तो
रामतीर्थ ने
कहा,
इसीलिए।
मेरी कोई
जरूरत नहीं है
और कोई मांग नहीं
है, तो तुम
मुझे भिखारी
कैसे कह सकते
हो? और जो
भिखारी नहीं
है, वही
सम्राट है।
एक
फकीर के घर एक
अमीर आदमी एक
बार मेहमान
हुआ। फकीर का
घर था, उसमें
ज्यादा कुछ
साज-सामान न
था। थोड़ी-बहुत
जरूरत की
चीजें थीं। बस
काम चल जाए, इतनी थीं।
क्योंकि कम
में काम चला
लेने की कला फकीरों को
आती है। अमीर
बड़ा परेशान
था। जब रात
सोने लगा तो
फकीर उसके
द्वार पर आया
और उसने कहा
कि देखो, कोई
ऐसी चीज जो
यहां न हो और
तुम्हें
जरूरत मालूम
पड़े तो मुझे
बता देना। तो
उस अमीर आदमी
ने मजाक में
कहा, बताने
से क्या होगा?
तुम करोगे
भी क्या? जो
है ही नहीं, मैं बता भी
दूं तो तुम
करोगे क्या? उस फकीर ने
कहा, मैं
तुम्हें
रास्ता बता
दूंगा कि उसके
बिना कैसे काम
चलाया जाए। हाउ टु डू विदाउट
इट। कोई मैं
चीज लाने वाला
नहीं हूं।
यहां चीज है
ही नहीं, वह
मुझे भी पता
है। लेकिन जब
मैं जी रहा
हूं देखो, तो
तुम भी जी
सकते हो। तो
अगर कोई अड़चन
मालूम पड़े, तुम मुझे
बता भर देना; फिर मैं
तुम्हें
तरकीब बता
दूंगा कि उसके
बिना कैसे
चलाया जाए।
यूनान
में एक फकीर
हुआ
डायोजनीज। वह
महावीर जैसा
फकीर था, नग्न
ही रहता था।
दुनिया में
डायोजनीज और
महावीर
समानांतर हैं,
और
करीब-करीब एक
ही समय में
हुए हैं। जब
वह फकीर हो
गया और नग्न
घूमने लगा, तो एक
भिक्षा-पात्र
उसने अपने पास
रखा था, जिसमें
वह पानी पी
लेता था, रोटी
ले लेता था।
फिर एक दिन
उसने देखा एक
झरने में एक
कुत्ते को
पानी पीते, उसने फौरन
भिक्षा-पात्र
फेंक दिया, और कुत्ते
के जाकर चरणों
में नमस्कार
किया कि गजब
कर दिया तूने भी,
मात दे दी।
हम यह सोचते
थे कि बिना
भिक्षा-पात्र
के पानी कैसे
पीएंगे। उस
दिन से वह
कुत्ते जैसा
ही पानी पीने
लगा। और जब
लोग उससे
पूछते, यह
क्या है! तो
उसने कहा, जब
एक कुत्ता चला
लेता है तो
मैं कोई
कुत्ता से
गया-बीता तो
नहीं। जब
कुत्ता इतना
बुद्धिमान है,
बिना
भिक्षा-पात्र
के चला लेता
है, तो मैं
कितना ही
गया-बीता होऊं,
कुत्ते से
गया-बीता तो
नहीं। हम भी
चला लेंगे।
अगर कुत्ता
इतनी फकीरी की
शान रखता है
तो हम कोई
कुत्ते से
छोटे फकीर
नहीं।
और जिस
कुत्ते के
उसने पैर छुए
थे और जिस
कुत्ते से
उसने सीखा था, कहते
हैं, वह
कुत्ता फिर
सदा डायोजनीज
के साथ रहा।
जब सिकंदर
डायोजनीज को
मिला, तब
वह कुत्ता भी
पास बैठा हुआ
था डायोजनीज
के। वे दोनों
रहते थे एक...। कचरेघर के
आस-पास टीन का पोंगरा रख
देते हैं कचरे
को रोकने के
लिए। ऐसा ही
एक पोंगरा
उसको कहीं पड़ा
हुआ मिल गया
था। उसी पोंगरे
को आड़ा कर
लिया था, उसी
में वे दोनों
रहते थे।
सिकंदर जब
मिलने आया, तब कुत्ता
भी पास बैठा
हुआ था। और जब
सिकंदर ने
डायोजनीज से
प्रश्न पूछे
तो वह सिकंदर
को भी उत्तर
देता था, बीच-बीच
में वह कुत्ते
से भी कहता था,
सुन ले!
तो
सिकंदर ने
पूछा कि यह
क्या बकवास है? तुम
बात मुझसे
करते हो, इस
कुत्ते से
क्या कहते हो,
सुन ले?
और वह
कुत्ता भी ऐसे
ढंग से बैठा
था कि लगता है सुनता
है। और जब
कहता
डायोजनीज सुन
ले,
तो वह सिर
हिलाता।
तो
डायोजनीज ने
कहा कि
आदमियों को
मैंने इस योग्य
नहीं पाया कि
उनसे कुछ समझ
की बातें की
जा सकें।
नासमझी की
बातें कितनी
ही कर लो, समझदारी
की बात
आदमियों से
नहीं हो सकती
है। यह कुत्ता
बड़ा समझदार
है। और बड़ी से
बड़ी समझदारी
की बात तो यह
है कि मैं
कितना ही
बोलूं, यह
चुप रहता है।
यह मुझसे भी
ज्यादा
समझदार है।
कभी
बेवक्त-वक्त
सिर हिला देता
है; इशारे
में बात करता
है। बड़ा
ज्ञानी है।
ना-कुछ
से काम चल
सकता है; और सब
कुछ से भी काम
नहीं चलता। तो
जरूर सवाल ना-कुछ
और सब कुछ का
नहीं हो सकता।
तुम पर निर्भर
है, सब तुम
पर निर्भर है।
सब कुछ से भी
काम नहीं चलता,
ना-कुछ से
भी काम चल
जाता है।
जितना तुम
ना-कुछ से काम
चला लेते हो, उतनी ही
वासना की लकीर
छोटी होती चली
जाती है। जिस
दिन लकीर पूरी
विदा हो जाती
है उस दिन अचानक
तुम पाते हो
कि तुम्हारे
भीतर की
चैतन्य की
प्रतिमा, तुम्हारी
आत्मा अपनी
पूरी गरिमा
में प्रकट हो
गई। अब उसे
छुपाने वाला
कोई धुआं न
रहा। अब सब
बदलियां हट
गईं। आकाश, नीला आकाश
सामने है।
"जो
जीवन का सही
संरक्षण करता
है...।'
इसका
अर्थ हुआ, जो
तृष्णा से
मुक्त होता है
और तृष्णा में
अपनी
जीवन-ऊर्जा को
नष्ट नहीं
करता, जिसकी
बाल्टी छेद
वाली नहीं।
"उसे
जमीन पर बाघ
या भैंसे से
सामना नहीं
होता; न
युद्ध के
मैदान में
शस्त्र उसे
छेद सकते हैं;
जंगली
भैंसों के
सींग उसके
सामने
शक्तिहीन हैं;
बाघों के
पंजे उसके
समक्ष असमर्थ
हैं, और
सैनिकों के
हथियार
निकम्मे हैं।'
तुम यह
मत सोचना कि
तुम्हारे
शरीर को छेदा
न जा सकेगा।
तुम यह भी मत
सोचना कि
तुम्हारे
शरीर को आग न
लगाई जा
सकेगी। तुम यह
भी मत सोचना
कि भैंसे
तुम्हारे
शरीर में सींग
न प्रवेश कर
सकेंगे।
लेकिन तुम
शरीर न रह
जाओगे। जिसने
अपनी ऊर्जा को
संरक्षित
किया वह अशरीरी
हो जाता है।
तब सींग भी
तुम्हारे
शरीर में
भैंसा चुभा
रहा हो, और
शस्त्र--भाला--तुम्हारे
शरीर के
आर-पार जा रहा
हो, तो भी
तुम साक्षी ही
रहोगे। तब भी
तुम जानोगे कि
यह तुमसे बाहर
घट रहा
है--तुम्हारे
आस-पास जरूर, पर तुममें
नहीं। जैसे
तुम्हारे घर
में कोई दीवार
को छेद दे, इससे
तुममें छेद
नहीं हो जाता।
जैसे तुम्हारा
वस्त्र
जराजीर्ण हो
जाए, उसमें
छिद्र हो जाएं,
तुममें
छिद्र नहीं हो
जाता।
तुम्हारे
शरीर के छिद्र
तुम्हारे
छिद्र नहीं
हैं।
और
शरीर तो मौत
का ग्रास है
ही;
वह मरणधर्मा
है, वह
मरेगा ही।
बुद्ध का शरीर
भी मर जाता है;
कृष्ण का
शरीर भी मर
जाता है; राम
का शरीर भी
धूल में खो
जाता है।
तुम्हारा भी
खो जाएगा।
क्योंकि शरीर
धूल से उठता
है। वह धूल से
ही आया है।
धूल में ही
जाना उसकी नियति
है। क्योंकि
जो जहां से
आता है वहीं
वापस चला जाता
है।
तुममें
दो तत्व हैं।
एक तो पृथ्वी
से आया है, और
एक आकाश से
उतरा है। जो
आकाश से उतरा
है वही तुम
हो। जो पृथ्वी
से आया है वह
केवल
तुम्हारा
आवरण है। वह
तुम्हारा
वेष्टन है, तुम उससे
आच्छादित हो।
पृथ्वी
पृथ्वी में वापस
लौट जाएगी।
उसकी मृत्यु
सुनिश्चित
है। वह उसका
स्वभाव है।
लेकिन वह
मृत्यु
तुम्हारी नहीं
है। यह तुम
उसी दिन जान
पाओगे जिस दिन
तुम तृष्णारहित
होकर अपने
भीतर जागोगे।
क्यों तृष्णारहित
होकर? क्योंकि
जो तृष्णा से
भरा है, वह
जाग ही नहीं
सकता। तृष्णा
शराब है। वह
बेहोशी है, वह अंधापन
है।
सुना
है मैंने, एक
यहूदी फकीर
वृद्धावस्था
में अंधा हो
गया। एक गांव
से गुजर रहा
था। अंधा था; किसी ने दया
की और कहा कि
अच्छा हुआ तुम
यहां आ गए।
यहां एक बड़ा
चिकित्सक है,
वह तुम्हारी
आंखें ठीक कर
देगा। उस फकीर
ने कहा, लेकिन
आंखें ठीक
करवा कर करना
क्या है? क्योंकि
जो आंखों से
देखा जा सकता
था, खूब
देख लिया, कुछ
पाया नहीं। और
जो आंखों के
बिना देखा जा
सकता है, उसे
देख ही रहे
हैं और खूब पा
रहे हैं।
तो एक
तो संसार है
जो आंखों से
देखा जा सकता
है। लेकिन
शरीर की आंखें
वही देख सकती
हैं जो शरीर
जैसा है।
पदार्थ को देख
सकती हैं; पार्थिव
को देख सकती
हैं; पृथ्वी
को देख सकती
हैं। और एक वह
भी है जो आंख बंद
करके देखा
जाता है। उसे
देखने के लिए
इन आंखों की
कोई जरूरत
नहीं है। उसे
देखने के लिए आंख
की ही जरूरत
नहीं है। उसे
तुम्हारा
हृदय, उसे
तुम्हारी
अंतरात्मा
देखती है, और
जानती है। वह
आंख बंद करके
भी देख लिया
जाता है।
उस
फकीर ने ठीक
ही कहा कि जो
इन आंखों से
देखा जा सकता
था,
खूब देख
लिया, कुछ
पाया नहीं। और
जो इनके बिना
देखा जा सकता है,
उसे खूब
भरपूर देख रहे
हैं, और
खूब पा रहे
हैं। आंखों को
ठीक करवाना
किसे है? करवा
कर आंखें ठीक
क्या करेंगे?
"यह
कैसे होता है?'
कैसे
भीतर की आंख
खुलती है? कैसे
अमृत के दर्शन
होते हैं? कैसे
शरीर के पार
तुम हो जाते
हो, जहां
मृत्यु नहीं
पहुंचती, जहां
शस्त्र नहीं
छेदते, जहां
आग नहीं जलाती,
कैसे? जहां
तुम बूढ़े नहीं
होते, जहां
जराजीर्णता
नहीं आती?
कहता
है लाओत्से, यह
होता है
मृत्यु के परे
होकर।
"क्योंकि
वह मृत्यु के
परे है। बिकाज
ही इज़ बियांड
डेथ।'
जैसे
ही तुम जान
लेते हो कि
तुम मृत्यु के
परे हो...। और
तुम हो ही, इसलिए
जानने में तुम
देर कितनी ही
लगाओ, कठिनाई
कुछ भी नहीं
है। टालो तुम
कितना ही जानने
को, जिस
दिन जानना
चाहोगे उसी
दिन जान लोगे।
आंख भर बंद
करने की बात
है। अपने को
ही देखना है।
कहीं जाना भी
नहीं है; कोई
यात्रा भी
नहीं करनी है।
कोई शर्त भी
नहीं पूरी
करनी है। किसी
और से सौदा भी
नहीं है, कोई
कीमत भी नहीं
चुकानी है। बस
आंख बंद करनी है।
थोड़ा तृष्णा
को शिथिल करना
है, ताकि
दौड़ बंद हो।
दौड़
चलती रहे तो
अपने घर कैसे
आओगे? दौड़
चलती रहे तो
तुम कहीं और, कहीं और। यह
और की जो भीतर
चल रही सतत
धारा है, इसे
थोड़ा कम करना
है, ताकि
तुम शांत बैठ
सको। बैठते हो
तुम ध्यान में,
तब हजार
विचार चलते
हैं। मन दौड़ा
ही रहता है, शरीर ही
बैठा रहता है।
शरीर को
बिठाने से
क्या होगा? वह जो दौड़ा
हुआ मन है, वह
बैठना चाहिए।
वह बैठ जाए, तत्क्षण
दर्शन हो
जाएं। इधर मन
बैठा, उधर
आत्मा प्रकट
हुई। और वह
आत्मा अमृत
है। वह न तो
जीवन है, न
वह मृत्यु है;
वह दोनों के
पार है। जब
बिलकुल जीवन
नहीं था तब भी
वह थी। और जब
सारा जीवन खो
जाएगा तब भी
वह होगी। वह
शाश्वतता है।
उस
आत्मा को ही
हम सत्य कहते
हैं। सत्य का
अर्थ होता है:
जो शाश्वत है, जो
सदा है, सदा
था, सदा
रहेगा। जिसके
होने में कभी
भी कोई भेद
नहीं पड़ता; सब बदल जाए, पूरी सृष्टि
प्रलय में चली
जाए, नई
सृष्टि हो जाए,
लेकिन वह
रहेगा वैसा ही
जैसा था, उसके
स्वभाव में
रंच मात्र
फर्क न आए, वही
सत्य है। वैसे
सत्य को तुम
अपने भीतर लिए
चल रहे हो।
तुम्हें
परमात्मा ने
सभी कुछ दिया
है। लेकिन जो
संपदा
तुम्हारे पास
है,
उसको भी तुम
नहीं देख पा
रहे हो। दौड़
के कारण तुम
बैठ नहीं
पाते। वासना
के कारण तुम
शांत नहीं हो
पाते। और के
मंत्र के कारण
राम का मंत्र
नहीं जप पाते।
इसे देखो, इसे
पहचानो, इसे
अपने भीतर
विश्लेषण
करो। क्योंकि
लाओत्से के
वचन किसी
दार्शनिक के
वचन नहीं हैं।
लाओत्से के
वचन एक ज्ञानी
के वचन हैं--एक
परम ज्ञानी
के। और वह तुमसे
जो भी कह रहा
है, वह
प्रयोग के लिए
कह रहा है। वह
तुम्हें कोई सिद्धांत
नहीं दे रहा
है; न
तुम्हें किसी
शास्त्र में
बांधने का
आयोजन है; न
तुम्हें कोई रूढ़
अनुशासन दे रहा
है। तुम्हें
सिर्फ एक बोध
दे रहा है। उस
बोध की सुवास
को तुम पकड़ो
अपने भीतर तो
ही लाओत्से की
सही-सही
व्याख्या
तुम्हारी समझ
में आएगी।
अपने ही भीतर
तुम जब जागोगे
तब तुम पाओगे
कि लाओत्से ने
जो कहा है वह
कैसा अनूठा
है।
लेकिन
बिना जागे, मैं
कितना ही
तुम्हें समझाऊं
और कितना ही
तुम्हें लगे
कि समझ रहे हो,
समझ पैदा न
होगी।
लिखा-लिखी की
है नहीं, देखा-देखी
बात। तुम देखोगे
अपनी ही आंख
से तो ही
जानोगे। लोगे
स्वाद तो ही
जानोगे।
गूंगे केरी सरकरा, खाय
और मुस्काय।
तब एक
मुस्कुराहट
तुम्हारे
तन-प्राण को
भर लेगी। तब
तुम्हारा रोआं-रोआं
मुस्काएगा।
क्योंकि
तुमने एक
स्वाद ले
लिया। स्वाद
से ही समझ
होगी।
जो मैं
तुम्हें समझा
रहा हूं, यह
स्वाद की तरफ
इशारा है। यह
असली समझ नहीं
है, इससे
असली समझ न
होगी। इसे तुम
असली समझ मत
समझ लेना।
नहीं तो रुक
जाओगे। इससे
तो तुम पंडित
बन जाओगे।
इसको पांडित्य
मत बनाना।
इसको तो सिर्फ
इशारा समझना--मील
का एक पत्थर
जिस पर लगा है
तीर। उधर बैठ मत
जाना। थोड़ी
देर विश्राम
कर लेना
विश्राम करना
हो तो। मेरे
शब्दों के साथ
थोड़ा विश्राम
कर लेना करना
हो तो। लेकिन
यात्रा करनी
है। यह सारा
समझाना इसलिए
है, ताकि
तुम स्वाद ले
सको। और स्वाद
मिल जाए, तभी
असली समझ
आएगी। उसके
पहले, उसके
पहले न कभी आई
है, न आ
सकती है।
आज
इतना ही।
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