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गुरुवार, 27 नवंबर 2014

भिक्षुगण भ्रांत धारणाओं के शिकार—(कथायात्रा—045)

 भिक्षुगण भ्रांत धारणाओं के शिकार—(एस धम्मो सनंतनो) 

गवान के जेतवन में रहते समय बहुत शीलसंपन्न भिक्षुओं के मन में ऐसे विचार हुए— हम लोग शीलसंपन हैं ध्यानी हैं जब चाहेगे तब निर्वाण प्राप्त कर लेने। ऐसी भ्रांत धारणाएं साधना— पथ पर अनिवार्य रूप से आती हैं।

जरा सा कुछ हुआ कि आदमी सोचता है, बस.. .किसी ने जरा सा ध्यान साध लिया, किसी ने जरा सच बोल लिया, किसी ने जरा दान कर दिया, किसी ने जरा वासना छोड़ दी कि वह सोचता है बस, मिल गयी कुंजी, अब क्या देर है, जब चाहेंगे तब निर्वाण उपलब्ध कर लेंगे। आदमी बड़ी जल्दी पड़ाव को मंजिल मान लेता है। जहां रातभर रुकना है और सुबह चल पड़ना है, सोचता है—आ गयी मंजिल।


ऐसी प्रांत धारणाएं साधना— पथ पर अनिवार्य रूप से आती हैं।

अनाचरण छूटा तो आचरण पकड़ लेता है। धन छूटा तो ध्यान पकड़ लेता है। पाप छूटा तो पुण्य पकड लेता है। इधर कुआ, उधर खाई।

भगवान ने उन्हें अपने पास बुलाया और पूछा भिक्षुको क्या तुम्हारे संन्यस्त होने का उद्देश्य पूर्ण हो गया?

पूछना पड़ा होगा। क्योंकि देखा होगा, वे तो अकड़कर चलने लगे। देखा होगा कि वे तो ऐसे चलने लगे जैसे पा लिया, जैसे आ गए घर। तो बुलाया उन्हें और पूछा, क्या तुम्हारे संन्यस्त होने का उद्देश्य पूर्ण हो गया?

वे छिपाना तो चाहते थे पर छिपा न सके

गुरु के सामने छिपाना असंभव है। वे आनाकानी करना चाहते थे, लेकिन कर न सके।

बुद्ध ने कहा भिक्षुओ छिपाने की चेष्टा न करो सीधी— सीधी बात कहो संन्यस्त होने का लक्ष्य पूर्ण हो गया है क्या? क्योंकि तुम्हारी चाल से ऐसा लगता है। तुम्हारी आंख से ऐसा लगता है कि तुम तो आ गए!

उनके भाव एकष्ट ही उनके चेहरों पर लिखे थे।

उन्होंने झिझकते— झिझकते अपने मनों की बात कही स्वीकार किया भगवान ने उनसे कहा भिक्षुको चरित्र पर्याप्त नहीं है। आवश्यक है पर पर्याप्त नहीं। चरित्र से कुछ ज्यादा चाहिए।

चरित्र तो निषेधात्मक है—चोरी नहीं की, झूठ नहीं बोले, बेईमानी नहीं की, हिंसा नहीं की, यह तो सब नकारात्मक है। विधायक कुछ चाहिए।
चरित्र जरूरी है पर्याप्त नहीं। चरित्र से कुछ ज्यादा चाहिए।
सुनना इस बात को। चरित्र पर तुम अटक मत जाना। चरित्र तो बच्चों का खेल है। चरित्रवान होने में पुण्य कुछ भी नहीं है। पाप में तो बुराई है, पुण्य में कुछ भलाई नहीं है। तुम बहुत हैरान होओगे यह बात सुनकर। एक आदमी चोरी करता है, यह तो बुरी बात है। लेकिन एक आदमी चोरी नहीं करता, इसमें कौन सी खास बात है! समझना इस बात को। चोरी न की, तो इसको भी कोई झंडा लेकर घोषणा करोगे कि हम चोरी नहीं करते हैं। यह भी कोई बात हुई! चोरी न की, तो ठीक वही किया जो करना था, इसमें खास बात क्या है? किसी की जेब न काटी, तो कोई गुण पा लिया? जेब कांटते तो बुराई जरूर थी, नहीं काटी तो कुछ खास भलाई नहीं हो गयी।
एक आदमी अगर नकार पर ही जीने लगे तो चरित्र से जकड़ जाता है। धर्म विधायक की खोज है। नकारात्मक से बचना ठीक है, वह कमजोरी की बात है, मगर उतना कुछ खास नहीं है। अब तुमसे कोई पूछेगा कि तुम अपनी फेहरिश्त बनाओ, तुम उसमें बड़ी फेहरिश्त जोड़ सकते हो—सिगरेट नहीं पीते, पान नहीं खाते, चाय नहीं पीते, काफी नहीं पीते; यह सब चरित्र है। चोरी नहीं करते, बेईमानी नहीं करते, पर—स्त्रीगमन नहीं करते, यह सब चरित्र है। मगर इसमें खूबी क्या है? यह तो सहज ही मनुष्य का स्वभाव है, ऐसा होना नहीं चाहिए।
तो जो पाप करता है, वह मनुष्य होने से गिरता है। जो पाप नहीं करता, वह मनुष्य होने से ऊपर नहीं उठता। और धर्म तो वही है जो मनुष्य के ऊपर ले जाए, अतिक्रमण कराए।
तो बुद्ध ने कहा चरित्र से कुछ और ऊपर चाहिए। शील साधन है, साध्य नहीं? पाप और पुण्य दोनों ही बांधते हैं। भिक्षुओ जब तक समस्त आश्रव क्षीण न हो जाएं और अंतराकाश में शून्य ही शेष न रह जाए तब तक रुकना नहीं है। और आश्वस्त भी मत हो जाना और जल्दी मत ठहर जाना। पड़ावों को पड़ाव. जानो। पड़ाव मंजिल नहीं है।

और तब भगवान ने ये गाथाएं कहीं—

 न सीलब्‍बतमत्‍तेन बाहुसच्‍चेन वा पन।
अवथा समाधि लाभेन विवित्‍तयनेन वा ।।
            फुसमि नेक्‍खम्‍मसुखं अपुथुज्‍जनसेवितं।
            भिक्‍खु विस्‍सासमापादि अप्‍पत्‍तो आसवक्‍खयं ।।

'न केवल शील और व्रत के आचरण से, न बहुश्रुत होने से, न समाधि—लाभ से और न ही एकांत में शयन करने से और न ऐसा सोचने से ही कि मैं सामान्यजनों द्वारा अप्राप्य निर्वाण के सुख का अनुभव कर रहा हूं दुख समाप्त होता है। हे भिक्षु, ( अपने निर्वाण—लाभ में) तब तक विश्‍वास मत करो, जब तक समस्त आस्रवों का क्षय न हो जाए।'
जब तक तुम्हारे चित्त में कोई भी चीज आती—जाती है, तब तक आसव। आसव का मतलब, आना—जाना। जब तक तुम्हारे चित्त में कोई भी तरंग उठती है, गिरती है, तब तक आसव। जब तक समस्त आना—जाना शांत न हो जाए—जब तुम्हारे चित्त में न कोई आए, न कोई जाए, सूना आकाश सूना ही बना रहे, फिर बदलिया कभी न घिरे और असाढ़ कभी न हो, तभी आश्वस्त होना, उसके पहले विश्वास मत कर लेना कि पहुंच गए। जरा सा समाधि—लाभ हुआ, जरा शांत बैठे, सुख आया, इससे समझ मत लेना कि आ गयी मंजिल।
इस परम मार्ग में बहुत बार ऐसे पड़ाव आते हैं जो बड़े सुंदर हैं, जहां रुक जाने का मन करेगा, जहां तुम सोचोगे कि आ गया घर, बस अब यहीं ठहर जाएं। मन सदा चालबाजी करता है। वह कहता रु,, बस, अब रुक जाओ, थक भी गए और काफी तो पहुंच गए, और क्या करना है! देखो, ब्रह्मचर्य भी हो गया, अब देखो लोभ भी नहीं रहा, अब देखो दान भी करने लगे हैं, अब देखो क्रोध भी नहीं आता है, अब रुक जाओ, अब कितनी सुंदर जगह आ गार!
मगर बुद्ध कहते हैं, जब तक मन में आना—जाना बना रहे, कोई भी भाव उठता हो, तब तक रुकना मत। निर्भाव जब तक न हो जाओ, जब तक शून्य बिलकुल 'महाशून्य न हो जाए, कुछ भी न उठे, कोइ तरंग नहीं, तभी, तब रुक जाना। तब तौ रुकना ही होगा। तब तो तुम न भी रुकना चाहो तो भी रुक जाओगे। तरंग ही नहीं उठती तो अब जाओगे कहा! जब तक जरा सी भी तरंग उठे, समझना कि अभी यात्रा पूरी नहीं हुई है।
ऐसे बुद्ध छोटे—छोटे जीवन—प्रसंगों को उठाकर बड़े परम सत्यों की उदघोषणा करते हैं। धर्म शाश्वत है, सनातन है, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति तो क्षण— क्षण जीवन की परिस्थितियों में होनी चाहिए। इसीलिए मैं इन दृश्यों को तुम्हारे सामने उपस्थित कर रहा हूं। ये तुम्हारे जीवन के ही दृश्य हैं। और इनको ठीक से समझोगे तो इन संकेतों में तुम्हारे लिए बहुत पाथेय मिल सकता है।

 ओशो
एस धम्‍मो सनंतनो

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