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गुरुवार, 27 नवंबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--094

शिशुवत चरित्र ताओ का लक्ष्य है—(प्रवचन—चौरनवां)

अध्याय 55

शिशु का चरित्र

जो चरित्र का धनी है, वह शिशुवत होता है।
जहरीले कीड़े उसे दंश नहीं देते,
जंगली जानवर उस पर हमला नहीं करते,
और शिकारी परिन्दे उस पर झपट्टा नहीं मारते।
यद्यपि उसकी हड्डियां मुलायम हैं,
उसकी नसें कोमल, तो भी उसकी पकड़ मजबूत होती है।
यद्यपि वह नर और नारी के मिलन से अनभिज्ञ है,
तो भी उसके अंग-अंग पूरे हैं।
जिसका अर्थ हुआ कि उसका बल अक्षुण्ण है।
दिन भर चीखते रहने पर भी उसकी आवाज भर्राती नहीं है;
जिसका अर्थ हुआ कि उसकी स्वाभाविक लयबद्धता पूर्ण है।
लयबद्धता को जानना शाश्वत के साथ तथाता में होना है,
और शाश्वतता को जानना विवेक कहलाता है।
लेकिन जीवन में संशोधन करना अशुभ लक्षण कहाता है;
और मनोवेगों को मन की राह देना आक्रामक है।
क्योंकि चीजें अपने यौवन पर पहुंच कर बुढ़ाती हैं;
वह आक्रामक दावेदारी ताओ के खिलाफ है।
और जो ताओ के खिलाफ है वह युवापन में ही नष्ट होता है।

शिशुवत चरित्र ताओ का लक्ष्य है। पुनः बच्चे की भांति हो जाना, स्रोत की तरफ लौट जाना, मूल के साथ एक हो जाना; उस अवस्था को फिर पा लेना, जब भेद नहीं था।
पहले हम शिशु की धारणा को समझ लें।
तीन अवस्थाएं हैं। एक अवस्था है भेद-पूर्व, द्वैत-पूर्व, जब दो का पता न था, अबोध, अज्ञानी की। दूसरी अवस्था है द्वैत की, जब भेद हुआ, जब हमने दो को जाना, जब सब चीजें टूट कर विभाजित हो गईं। यह दशा है तथाकथित ज्ञानी की। और फिर एक तीसरी दशा है कि पुनः टूटी हुई चीजें जुड़ गईं। जो अलग-अलग हो गया था, वापस एक हो गया; जो लयबद्धता छिन्न हो गई थी, वह फिर छंद में बंध गई। फासले समाप्त हुए। अद्वैत का पुनर्भाव हुआ। फिर एक दिखाई पड़ने लगा। यह अवस्था है परम ज्ञानी की।
परम ज्ञानी शिशुवत है। परम ज्ञान अज्ञान जैसा है। अज्ञान से बड़ा भिन्न, फिर भी अज्ञान जैसा। भेद है परम ज्ञान का, उसका विवेक, भेद है उसकी बोध की अवस्था, भेद है जानते हुए एक को जानना।
शिशु भी एक को ही जानता है, लेकिन जानता नहीं। पहचान नहीं है। दो को करने की क्षमता नहीं है, इसलिए एक को जानता है। उसकी अवस्था अबोध है। उसे पता ही नहीं कि दो होता है। अभी विभाजन नहीं हुआ। विभाजन होगा; चीजें टूटेंगी। सब चीजें भिन्न-भिन्न दिखाई पड़ने लगेंगी। मैं और तू का पता चलेगा। मैं अलग हूं, तू अलग है, इसका पता चलेगा। सफलता-असफलता में भेद पैदा होगा। धन-मिट्टी में फर्क दिखाई पड़ेगा। सोना अलग हो जाएगा, हीरे अलग हो जाएंगे, कंकड़-पत्थर अलग हो जाएंगे। सुख और दुख भिन्न होंगे। स्वर्ग और नरक का फासला हो जाएगा। यह मैं पाना चाहता हूं, यह मैं नहीं पाना चाहता हूं; वासना जगेगी, सारा संसार खड़ा होगा।
बालक तो मिटेगा; मिटने को है। मिटने के पूर्व की दशा है। बालक तो पाप में उतरेगा, उतरना ही पड़ेगा। क्योंकि पाप के बिना कोई प्रौढ़ता नहीं। बालक तो खोएगा इस निर्दोष स्वभाव को, क्योंकि यह निर्दोष स्वभाव अन-अर्जित है, यह मुफ्त मिला है। और ध्यान रखना, जो मुफ्त मिलता है वह तुम्हारा कभी भी न हो पाएगा। जो तुमने कमाया है वही तुम्हारा होगा। बालक का संतत्व मुफ्त मिला है; उसने कमाया नहीं है। वह प्रकृति का दान है। उसे छोड़ना पड़ेगा।
इसे बहुत गहरे समझ लेना कि जो तुम कमाओगे अपने ही श्रम, अपने ही बोध, अपनी ही जीवन-ऊर्जा से, केवल वही तुम्हारा होगा। बाकी सब धोखा है। आज है, कल नहीं होगा।
बालक का संतत्व धोखा है। क्योंकि जा रहा है, जा रहा है; अभी गया, अभी गया। देर नहीं है। क्षण भर का है। नींद जैसा है, जो टूटेगी। कब तक सोए रहोगे? सुबह हर क्षण करीब आ रही है; नींद टूटेगी। नींद में तो पापी भी पुण्यात्मा जैसा हो जाता है। नींद में तो असाधु भी साधु जैसा शांत रहता है; न हिंसा करता, न हत्या करता, न चोरी करता। लेकिन नींद टूटेगी। भेद शुरू होगा। बचपन तो जाएगा। पानी की लहर है। बच्चा तैयार हो रहा है टूटने को; संसार में उतरने को। वह तैयारी के पहले का क्षण है।
संत तैयार नहीं हो रहा है संसार के लिए; संत संसार से गुजर चुका। संत संसार के पार हो चुका। जान लिया जो जानना था; भटक लिया व्यर्थ में। क्योंकि व्यर्थ के भटकाव में ही सार्थकता की तलाश थी। असार को जान लिया, उसे सार की पहचान आ गई। कांटों में गिरा, क्योंकि बिना गिरे फूलों को पहचानने का कोई उपाय न था। कंकड़-पत्थर भी बीने, क्योंकि हीरों को जांचने की तब कोई सुविधा न थी। अब विवेक जगा।
अनुभव से जगता है विवेक। बच्चा गैर-अनुभवी है। निर्दोष है, लेकिन अनुभव के न होने के कारण निर्दोष है। तो बचपन की निर्दोषता नकारात्मक है। इस बात को ठीक से समझ लेना। वह विधायक नहीं है। संत की निर्दोषता विधायक है। जानने के कारण है, अज्ञान के कारण नहीं। अंधेरे के कारण नहीं है, रोशनी के कारण है। अंधेरी रात में नींद के कारण वह साधु नहीं है, खुले प्रकाश में भरी दुपहरी में अपने बोध के कारण साधु है। लेकिन है बच्चे जैसा। जो बच्चे को अज्ञान में हो रहा था अब उसे वह ज्ञान में हो रहा है। बच्चे का तो मिटता; उसका अब कभी न मिटेगा। उसने शाश्वत को पा लिया। बच्चे को भेंट मिली थी प्रकृति से; उसने अर्जित किया है। उसने खोजा, पीड़ा पाई, अग्नि से गुजरा, निखरा। यह निखार अब उसे छोड़ न सकेगा। यह किसी की देन नहीं है जो छीन ली जाए। न यह बाहर की भेंट है जो चोरी चली जाए। यह अब आविर्भाव हुआ है अंतस में, अब इसे कोई भी छीन न सकेगा। इसकी चोरी नहीं हो सकती। इस पर जंग भी नहीं लग सकती। क्योंकि यह चैतन्य का आविर्भाव है। प्रकृति जो भी देती है उस पर तो जंग लग जाएगी; क्योंकि वह पदार्थ से आया है। बचपन शरीर से आया है; संतत्व चेतना से। बच्चे की निर्दोषता प्रकृति से जुड़ी है; संत की परमात्मा से। बच्चा अवश है; संत अवश नहीं है, अपने वश में है।
लेकिन फिर भी दोनों में एक समानता है। और वह समानता यह है कि दोनों अद्वैत में जी रहे हैं। इसलिए संत शिशुवत है। शिशु ही नहीं, शिशुवत। इस फर्क को भी खयाल में ले लेना। नहीं तो तुम कहीं शिशुवत होने के खयाल से शिशु जैसे होने मत लग जाना। वह तो मूढ़ता होगी। तुमने अगर मूढ़ों को देखा हो तो वे भी बच्चों जैसे हैं। पागलखानों में जाकर तुम उन्हें देख सकते हो। उनका विकास ही नहीं हुआ; वे अटक गए। उनकी ऊर्जा कहीं उलझ गई; वे जवान नहीं हो पाए। वे भटक न पाए संसार में।
मूढ़ कौन है? मूढ़ वह बालक है जिसका बालपन अटक गया। इसलिए तो हम उसे रिटार्डेड कहते हैं, उसे कहते हैं कि वह विकसित नहीं हो पाया। तो बचपन में तो बालपन सुंदर मालूम पड़ता है, मूढ़ में बड़ा कुरूप हो जाता है। तो तुम मूढ़ता को मत आरोपित कर लेना।
ऐसा हुआ है। भारत में ऐसे कई मूढ़ हैं जो संतों की तरह पूजे जाते हैं। वे सिर्फ मूढ़ हैं। अगर दूसरे किसी मुल्क में होते तो पागलखानों में होते या मनोचिकित्सालय में होते, उनका इलाज हो रहा होता। यहां वे संतों की भांति पूजे जाते हैं। उनकी मूढ़ता के कारण उन्हें भेद नहीं है।
एक बार मैं एक गांव में मेहमान था। वहां एक संत की बड़ी पूजा थी। तो मैं देखने गया। वे संत थे ही नहीं, वे मूढ़ थे। लेकिन लोग व्याख्या कर रहे थे। जैसे कि वे वहीं पाखाना कर लेते, वहीं बैठे खाना खाते रहते; इसको लोग समझते थे परमहंस की अवस्था हो गई। यह परमहंस की अवस्था नहीं है, सिर्फ मूढ़ता है। उनमें बोध जन्मा ही नहीं; वे छोटे बच्चे जैसे हैं। जैसे छोटा बच्चा कर सकता है यह। पाखाना कर ले, वहीं बैठ कर खाना खाता रहे। अभी पाखाने और खाने का फर्क उसे हुआ नहीं है। ये संत भी उसी दशा में थे। उनके मुंह से लार टपक रही, जैसे छोटे बच्चों को टपकती रहती है। लोग उनकी लार का प्रसाद ले रहे थे। और वह लार इसलिए टपक रही थी कि उनका जबड़ा लटका हुआ था। मूढ़ों का जबड़ा लटका होता है।
तुम्हें पता नहीं होगा, शरीरशास्त्री जबड़े के कारण बड़े चकित हैं। क्योंकि जबड़े को तुम चौबीस घंटे सम्हाले रहते हो, तभी वह ऊपर है। नहीं तो गुरुत्वाकर्षण के कारण वह नीचे लटक ही जाना चाहिए। तुम्हारा मुंह खुला रहना चाहिए साधारणतः। और अगर तुम बिलकुल ढीला छोड़ दो तो तुम पाओगे, तुम्हारा मुंह खुल गया।
मूढ़ आदमी का एक लक्षण है, उसका जबड़ा खुला होगा; छोटे बच्चों जैसा होगा जबड़ा उसका। इसीलिए तो छोटे बच्चे के गले पर टावेल बांधना पड़ता है कि उसका थूक टपकता रहे तो कोई चिंता नहीं। थूक तो तुम्हारे मुंह में भी चौबीस घंटे बनता है, लेकिन तुम उसे लील जाते हो। जबड़ा खुला रहे तो वह बाहर की तरफ बहता है।
थूक टपक रहा था, उसे लोग हाथ में ले-लेकर प्रसाद की भांति ग्रहण कर रहे थे। वह आदमी निपट मूढ़ था।
लेकिन मूढ़ भी संतों जैसा मालूम हो सकता है; क्योंकि उसे भी अभेद तो है। भारत में बहुत से मूढ़ पूजे जाते रहे हैं। अभी भी पूजे जा रहे हैं। क्योंकि परमहंस और उनमें कुछ साम्यता है। परमहंस का भेद खो जाता है।
लेकिन भेद खो जाने का यह मतलब नहीं है कि वह भोजन की जगह मिट्टी खाने लगता है। वह जानता है कि भोजन भी मिट्टी है, मिट्टी से ही पैदा होता है। आखिर मिट्टी ही तो गेहूं बनती है; गेहूं रोटी बनता है। वह जानता है कि भेद जरा भी नहीं है। लेकिन फिर भी मिट्टी को नहीं खाने लगता। क्योंकि यह अज्ञान नहीं है, यह विवेक है। मिट्टी पचाई नहीं जा सकती। भेद तो नहीं है, मिट्टी ही गेहूं बनती है; लेकिन गेहूं मिट्टी का ऐसा ढंग है जो शरीर में पच सकता है। यह विवेक कायम रहता है।
आखिर पाखाने और खाने में फर्क क्या है? खाना ही तो पाखाना हो जाता है। फर्क तो जरा भी नहीं है। जिसे तुम मुंह से डालते हो वही तो आखिर पाखाना होकर निकल जाता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि संत पाखाने को खाने लगेगा। क्योंकि खाते हम इसलिए हैं, ताकि उससे शरीर चल सके। वे सब तत्व तो पाखाने से खींच लिए गए जो शरीर के काम के थे। अब तो जो असार है वह छोड़ दिया गया है।
भेद कुछ भी नहीं है, लेकिन व्यावहारिक भेद है। पारमार्थिक भेद कुछ भी नहीं है, व्यावहारिक भेद है। तुम्हारा शरीर किन्हीं चीजों को स्वीकार करता है, किन्हीं को स्वीकार नहीं करता। शरीर की सीमाएं हैं। शरीर पत्थर नहीं खा सकता, मिट्टी नहीं खा सकता। मिट्टी से ही सब बनता है, लेकिन बनने की प्रक्रिया में वह इस योग्य हो जाता है कि तुम उसे खा सकोगे। पौधे कर क्या रहे हैं? पौधे यही कर रहे हैं कि मिट्टी को फल बना रहे हैं। फल को तुम पचा सकते हो। पौधे मिट्टी को पचा सकते हैं। मिट्टी पौधों के द्वारा पचा कर एक रूपांतरण से गुजरती है। एक केमिकल, रासायनिक परिवर्तन हो जाता है उसमें, वह तुम्हारे भोजन के योग्य हो जाती है।
संत यह जानता है कि जीवन इकट्ठा है, अद्वैत है। यह वृक्ष तुम्हारा साथी है; इसके बिना तुम न जी सकोगे। क्योंकि यह फल बना रहा है तुम्हारे लिए। सारा अस्तित्व जुड़ा है और एक है। सूरज की किरणें पड़ रही हैं, वृक्ष उन्हें पी रहा है; उन किरणों को फलों में इकट्ठा कर रहा है। फलों में इकट्ठी होकर वे विटामिन बन गई हैं। तुम सूरज की किरण को सीधी ज्यादा न पी सकोगे। थोड़ी सी पी सकते हो चमड़ी के द्वारा; डी विटामिन थोड़ा सा तुम चमड़ी के द्वारा पी सकते हो। लेकिन वह भी ज्यादा नहीं। ज्यादा पीओगे तो सारा शरीर काला पड़ जाएगा। इसलिए तो गर्म मुल्कों में शरीर काला हो जाता है। अगर बहुत पी जाओगे डी विटामिन तो चमड़ी बिलकुल काली हो जाएगी। शरीर से नहीं पीया जा सकता सीधा, लेकिन फलों के माध्यम से डी विटामिन की जो जलाने की क्षमता है वह कम हो जाती है। फिर तुम कितने ही फल ले सकते हो; फिर वे जीवनदायी हैं। जीवन संयुक्त है।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम चीजों में भेद करना छोड़ दोगे। मूढ़ भेद ही नहीं कर सकता। ज्ञानी भेद कर सकता है, विवेक को उपलब्ध हुआ है, फिर भी भेद में अभेद को जानता है। ज्ञानी निकलेगा तो दरवाजे से निकलेगा, यद्यपि दरवाजा और दीवार में अभेद है। दोनों एक ही घर के हिस्से हैं। लेकिन निकलना तो दरवाजे से होगा ज्ञानी को भी। दीवार से निकलने लगे तो मूढ़ है। दरवाजे से निकले और जाने कि दरवाजा भी दीवार का ही हिस्सा है, दोनों संयुक्त हैं, दोनों में भेद है व्यावहारिक। अगर निकलना हो तो भेद है; न निकलना हो तो दोनों एक ही अखंड भवन के हिस्से हैं। पारमार्थिक भेद नहीं है। अंततः भेद नहीं है। लेकिन व्यावहारिक रूप से बड़ा भेद है। ज्ञानी भेद को जानते हुए अभेद को पहचानता रहता है। स्वर अलग-अलग हैं, लेकिन ज्ञानी की दृष्टि स्वरों पर नहीं होती, स्वरों के बीच जो लयबद्धता है उस पर होती है। ज्ञानी भेद कर सकता है, करता है; लेकिन अभेद में जीता है। अज्ञानी भेद नहीं कर सकता; करना भी चाहे तो करने का उसके पास उपाय नहीं है। वह भी अभेद में जीता है।
तो तुम बच्चे जैसे होने की कोशिश में मूढ़ जैसे मत हो जाना। अन्यथा तुम चूक गए, तुम समझ न पाए।
मूढ़ता परमहंसत्व नहीं है। परमहंसत्व में मूढ़ता का एक तत्व है; और वह तत्व है अभेद। और परमहंसत्व में साधारण सांसारिक का भी एक तत्व है; वह है भेद। परमहंस का अर्थ है, जिसमें संसार और परमात्मा मिल गए, एक हो गए। जो संसारी जैसा भेद करता है और मूढ़ जैसे अभेद में जीता है; जो दोनों का परम संगीत है। इस परम संगीत को लाओत्से तथाता कहता है। सब उसे स्वीकार है। और सब स्वीकार के माध्यम से उसने एक लयबद्धता खोज ली है। अब उसका संगीत अखंडित है।
शिशुवत होना! हमारे पास दो शब्द हैं भाषा में, एक शब्द है बालपन और दूसरा शब्द है बचकाना। बचकाने मत हो जाना। क्योंकि वह तो मूढ़ता का लक्षण है। शिशुवत होना, बालपन को उपलब्ध होना। वह शिशु जैसा है, फिर भी शिशु से बहुत दूर है। शिशु से बहुत भेद है।
"जो चरित्र का धनी है वह शिशुवत होता है।'
हमने चर्चा की पीछे कि किस बात को लाओत्से वास्तविक चरित्र कहता है। वह कहता है, स्वभाव से जिस जीवन का आविर्भाव हो वह चरित्र है।
अब कहता है, "जो चरित्र का धनी है वह शिशुवत है।'
जिसके पास भीतर से आ रहा है चरित्र, जिसकी धारा भीतर से बाहर की तरफ बह रही है, जो केंद्र से परिधि की तरफ बह रहा है, जैसे सूरज की किरणें उसके अंतस से निकलती हैं और सारे संसार में व्याप्त हो जाती हैं, ऐसा जो बह रहा है केंद्र से परिधि की ओर सूर्य की भांति, ऐसे धनी व्यक्ति का, चरित्र के धनी व्यक्ति का स्वभाव शिशु के जैसा होगा। शिशु के क्या लक्षण हैं?
एक लक्षण है कि अभी वह अभेद में है, उसे मेरात्तेरा पता नहीं। छोटा बच्चा दूसरे के हाथ में खिलौना देख कर चीखने-चिल्लाने लगता है कि मुझे चाहिए। हम उस पर नाराज नहीं होते। हम कहते हैं, बालक है। लेकिन यही बालक कल बीस साल का हो जाएगा और फिर भी दूसरों की चीजें देख कर चिल्लाने लगे तो हम नाराज होंगे। हम कहेंगे, क्या बचकानापन कर रहे हो? वह तुम्हारी नहीं है। मेरेत्तेरे का भेद करो। जो अपना है वह तुम मांग सकते हो; जो दूसरे का है उसे मांगना अनुचित है। अपने के तुम मालिक हो, दूसरे की चीज उठा लेना चोरी है।
इसलिए छोटे बच्चों को अदालतें दंड नहीं देती हैं अगर वे चोरी भी कर लें। क्योंकि जिन्हें अपनेत्तेरे का भेद नहीं है, उनको चोरी का क्या सवाल है? उन्हें पता ही नहीं है कि चीजें किसी की होती हैं या मालकियत जैसी कोई चीज है। स्वामित्व अभी पैदा नहीं हुआ।
संत भी स्वामित्व को नहीं मानता। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह तुम्हारी चीज उठा लेगा। संत भी स्वामित्व को नहीं मानता। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वह तुम्हारे घर में घुस जाएगा और चोरी करेगा। जानता है कि चीजें किसी की भी नहीं हैं, सभी कुछ परमात्मा का है, स्वामित्व के सभी दावे गलत हैं; यह जानते हुए भी होशपूर्ण जीएगा और सर्वाधिक अपनी चीजों पर कोई स्वामित्व नहीं रखेगा। और कोई अगर उसकी चीजें छीन ले तो तुम उसे रोता हुआ न पाओगे। और कोई उसकी चीज छीन ले तो तुम उसे अदालत जाते हुए न पाओगे। वह किसी की चीज नहीं छीनेगा। क्योंकि जो अज्ञान में जी रहे हैं, उनकी तो धारणा में स्वामित्व है; वे चीजें उनकी हैं। अगर उसकी चीज तुम छीन लोगे तो वह स्वामित्व का दावा नहीं करेगा। वह दावा उसके बाहर है। स्वामित्व का बोध उसका गिर गया है। क्योंकि उसने परम स्वामी को जान लिया; वही मालिक है।
शिशुवत होगा, लेकिन फर्क होंगे। चरित्र का धनी होगा। भीतर से आता उसका स्वभाव, बहता हुआ, उसके चरित्र में होगा। और जिसके पास चरित्र का धन है उसे किसी और धन की आकांक्षा नहीं है। इसलिए कई बार तुम संत को समझ भी न पाओगे। कई बार तुम्हें भूल हो जाएगी।
कबीर ने अपने बेटे को अलग कर दिया था, क्योंकि बेटा बड़ा विद्रोही था। कबीर तो समझते थे। निश्चित समझते रहे होंगे। कबीर न समझेंगे तो कौन समझेगा! लेकिन कबीर के शिष्यों को उससे अड़चन होती थी। तो कबीर ने उससे कहा कि तू ऐसा कर कमाल, कि तू अलग ही हो जा। इनको बार-बार कष्ट क्यों देना? तो कमाल पास ही एक अलग झोपड़े में रहने लगा था। काशी के नरेश कबीर को मिलने आते थे। पूछा, कमाल दिखाई नहीं पड़ता! तो कबीर ने कहा कि उसे अलग कर दिया है। शिष्यों के साथ तालमेल नहीं खाता। तो नरेश मिलने गए। शिष्यों से पूछा तो उन्होंने कहा कि वह लोभी है। और कबीर के पास उसका होना ठीक नहीं। कोई कुछ भेंट लाता है तो कबीर तो कहते हैं, कोई जरूरत नहीं, लेकिन वह रख लेता है सम्हाल कर। तो वह संग्रह कर रहा है।
तो नरेश ने कमाल से पूछा कि तू ऐसा क्यों करता है? तो उसने कहा कि जब चीजों का कोई मूल्य ही नहीं है तो क्या लौटाना? वह ले आया बेचारा, यहां तक बोझ ढोया, अब फिर वापस ले जाए। कबीर की कबीर समझें, बाकी मैं समझ पाया हूं कि जब कोई मतलब ही नहीं है और चीज किसी की भी नहीं है, न तुम्हारी है, न मेरी है, तो किसी के पास रहे क्या फर्क पड़ता है!
नरेश को थोड़ा संदेह हुआ कि बात तो ज्ञान की कर रहा है, लेकिन चालाक मालूम पड़ता है। तो उसने अपनी जेब से एक बड़ा बहुमूल्य हीरा निकाला और कहा कि यह रख। कमाल ने कहा, है तो पत्थर, लेकिन अब ले ही आए तो रख जाओ। कहां रख दूं, नरेश ने पूछा। तो कमाल ने कहा, तुम समझे नहीं। क्योंकि तुम पूछते हो कहां रख दूं, तो तुम्हें यह पत्थर नहीं है, तुम इसे हीरा ही मान रहे हो। कहीं भी रख दो, पत्थर ही है! तो नरेश ने उसकी झोपड़ी में, छप्पर में खोंस दिया। सनौलियों का छप्पर था, उसमें खोंस दिया।
पंद्रह दिन बाद वापस आया देखने कि हालत क्या है। पक्का था उसे कि मैं इधर बाहर निकला कि उसने हीरा निकाल लिया होगा। अब तक तो हीरा बिक भी चुका होगा, बाजार पहुंच चुका होगा। लाखों की कीमत का था। पहुंचा, बैठा। पूछा कि हीरे का क्या हुआ? कमाल ने कहा, फिर वही बात! जब पत्थर ही है तो भूल क्यों नहीं जाते! और फिर भेंट भी दे दी, फिर भी याद जारी रखते हो। अगर बहुत ही उत्सुकता है तो जहां रख गए वहीं देख लो। अगर किसी ने न निकाला हो तो वहीं होगा। नरेश समझ गया कि है तो चालाक। यह कह रहा है अगर किसी ने न निकाला हो! निकाला खुद ने ही होगा। उठ कर देखा, हीरा वहीं का वहीं रखा था।
यह संत का व्यवहार है। बड़ा कठिन है इस धनी आदमी को पहचानना।
तुम पहचान लोगे अगर वह कहे कि ले जाओ, मैं छूता नहीं। तुम कहोगे, परम साधु है। तुम त्यागी को परम साधु कहते हो। लेकिन त्यागी भोगी का ही विपरीत है; त्यागी भोगी का ही उलटा छोर है। भोगी पकड़ता है, त्यागी छोड़ता है; लेकिन दोनों की संपदा मध्य में है। पकड़ो या छोड़ो, लेकिन दोनों मानते हो धन का मूल्य है। संत शिशुवत है। धन का कोई मूल्य नहीं है; पकड़ने में आतुर है, न छोड़ने में आतुर है। क्योंकि छोड़ने की आतुरता भी बताती है कि तुम्हारे मन में अभी जागरण नहीं हुआ, अभी विवेक का उदय नहीं हुआ।
तो संत कभी भोगी जैसा दिख सकता है तुम्हें, कभी त्यागी जैसा दिख सकता है तुम्हें। यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम कैसे व्याख्या करोगे। लेकिन संत न भोगी है और न त्यागी है; शिशुवत है। जीवन जैसे एक खेल है। उस खेल में गंभीरता नहीं है। हो नहीं सकती। खेल में कहीं गंभीरता होती है?
इसलिए साधु को जब भी तुम गंभीर देखो तो समझना कि कहीं कोई चीज गड़बड़ हो गई; कोई रोग लग गया; त्याग का रोग लग गया। पहले भोग का रोग लगा था, अब त्याग का रोग लग गया। और अगर भोग निमोनिया है तो त्याग डबल निमोनिया है। जब भोग ही गलत है तो भोग का छोड़ना तो और भी गलत होगा। भोग के पार होना है; छोड़ने में ग्रसित नहीं हो जाना।
इसलिए संत को पहचानना कठिन है। इन दो को तुम पहचान सकते हो। भोगी को तुम भलीभांति जानते हो; तुम्हारा अपना अनुभव भी भोग का है। त्यागी को भी तुम जानते हो, क्योंकि वह तुमसे विपरीत है। उसको तौलने में कठिनाई नहीं है। तुम पूरब जा रहे हो, वह पश्चिम जा रहा है। साफ दिखाई पड़ता है कि उसकी पीठ दिखाई पड़ रही है। जिस तरफ तुम चेहरा किए हो उस तरफ वह पीठ किए है। जहां तुम उन्मुख हो वहां वह विमुख है। भाषा एक ही है। मार्ग एक ही है। सीढ़ी एक ही है। साफ-साफ पहचान हो जाती है। लेकिन संत को तुम न पहचान पाओगे।
इसलिए संत अक्सर बिना पहचाने मर जाते हैं। क्योंकि वे कहां जा रहे हैं, तुम पक्का ही नहीं कर पाते। तुम अगर उनसे कहो कि चलो पूरब की तरफ, तो तुम्हारे साथ हो लेते हैं कि चलो, थोड़ा टहलना ही हो जाएगा। तभी संदेह पकड़ जाता है कि यह कैसा संत! हमको ले जाना था पश्चिम की तरफ, सो उलटा हमारे साथ आ रहा है और कहता है टहलना हो जाएगा।
झेन कथा है। एक सम्राट एक फकीर के प्रेम में था। और सम्राट अक्सर फकीरों के प्रेम में पड़ जाते हैं। क्योंकि फकीर बड़ी दूसरी दुनिया का अजनबी मालूम पड़ता है। अपने ही जैसा नहीं, अपने से बड़ा अजीब लगता है। और अजनबी में आकर्षण होता है। जो अपने से बहुत भिन्न है उसमें एक रस होता है। जो अपने से विपरीत है उसको जानने की जिज्ञासा जगती है। वह किसी और लोक का निवासी है। जैसे कोई खबर कर दे कि कोई चांद का आदमी चांद से उतर कर बाजार में आ गया है, माणिक चौक में खड़ा है, तो सारे लोग भागें अजनबी को देखने, चांद से आए आदमी को देखने। ऐसे ही सम्राट अक्सर फकीरों के प्रेम में पड़ जाते हैं।
यह सम्राट प्रेम में था। और प्रेम से ही इसने एक दिन निवेदन किया कि मुझे बड़ा दुख होता है कि तुम वृक्ष के नीचे पड़े हो। मैं यहां मौजूद हूं सेवा के लिए, महल मेरा मौजूद है, खाली पड़ा है। इन सैकड़ों कक्षों में कोई रहने वाला नहीं है। मैं अकेला हूं। तुम चलो!
लेकिन कभी उसने यह न सोचा था कि फकीर राजी हो जाएगा। फकीर अपना बोरा-बिस्तर बांध कर खड़ा हो गया। उसने यह भी न कहा कि सोचूंगा। सम्राट एकदम हताश हो गया कि यह आदमी तो अपने ही जैसा निकला। फंस गए। कहां भूल में पड़े रहे! यह तो ठीक भोगी मालूम पड़ता है। इसने एक दफा न भी न की। जैसे प्रतीक्षा ही कर रहा था। जैसे सब आयोजन यह फकीरी का इसीलिए था कि कब महल में निमंत्रण मिल जाए। फंस गए। इसके जाल में उलझ गए। अब अपना शब्द वापस भी कैसे लें? लाना पड़ा फकीर को, लेकिन बेमन से। खुशी चली गई। ठहराया, लेकिन बेमन से। लेकिन अब अपने शब्द को कैसे वापस लेना?
छह महीने फकीर राजा के महल में रहा। धीरे-धीरे तो राजा ने आना भी बंद कर दिया कि इसकी क्या सुनना; हमारे ही जैसा आदमी है। ठीक है, रहता है। सब व्यवस्था कर दी और बिलकुल भूल गया। छह महीने बाद एक दिन सुबह फकीर को बगीचे में टहलते देखा तो आया और कहा, महाराज, अब तो मुझमें और आप में कोई फर्क ही नहीं; जैसा मैं वैसे आप। अब क्या फर्क रहा?
फकीर ने कहा, चलो, थोड़ा गांव के बाहर चलें, वहां फर्क बताऊंगा। राजा साथ हो लिया; गांव के बाहर पहुंच गए। नदी आ गई जो गांव की सीमा बनाती थी। फकीर ने कहा कि उस तरफ चलें। पार हो गए नदी। राजा ने कहा, अब देर हुई जाती है, सूरज भी खूब चढ़ आया, अब आप बता दें। दूर जाने की क्या जरूरत है? अब यहां कोई भी नहीं है, वृक्ष के नीचे बैठ कर बता दें। उसने कहा कि थोड़ा और। दोपहर तक वह सम्राट को चलाता रहा। आखिर सम्राट खड़ा हो गया। उसने कहा, अब बहुत हो गया। व्यर्थ चलाए जा रहे हैं। जो कहना है कह दें!
फकीर ने कहा, अब मैं वापस नहीं लौटूंगा। तुम मेरे साथ चलते हो? सम्राट ने कहा, मैं कैसे साथ चल सकता हूं? राज्य है, महल है, व्यवस्था, काम-धाम, हजार उलझनें हैं। आपको क्या? तो फकीर ने कहा, अब समझ सको तो समझ लेना। हम जाते हैं, तुम नहीं जा सकते हो; वहीं भेद है। हम महल में थे, महल हममें न था। तुम महल में हो और महल भी तुममें है। भेद बारीक है। समझ सको, समझ लेना।
सम्राट रोने लगा, पैर पकड़ लिया, कहा कि मैं पहचान ही न पाया। और आप छह महीने वहां थे और मैं धीरे-धीरे आपको भूल ही गया। और मैं तो समझा कि आप भी भोगी हैं। वापस चलिए!
फकीर ने कहा, मुझे चलने में कोई हर्जा नहीं, लेकिन फिर वही गलती हो जाएगी। मेरी तरफ से कोई अड़चन नहीं है। कहो कि मैं चला। सम्राट फिर चौंका। और उस फकीर ने कहा कि देखो, तुम भोग को समझ सकते हो, तुम त्याग को समझ सकते हो; तुम संत को नहीं समझ सकते। मुझे क्या अड़चन है? इधर गए कि उधर गए, सब बराबर है। सब दिशाएं उसी की हैं। महल में रहे कि झोपड़े में, सब महल, सब झोपड़े उसी के हैं। फटे कपड़े पहने कि शाही कपड़े पहने, जमीन पर सोए कि शय्या पर, बहुमूल्य शय्या पर सोए; सभी उसका। जो दे दे वही ले लेते हैं। जो दिखा दे वही देख लेते हैं। अपनी कोई मर्जी नहीं। बोलो, क्या इरादा है? कहो तो हम लौट पड़ें। मगर तुम पर फिर बुरी गुजरेगी। इसलिए बेहतर है तुम हमें जाने दो; कम से कम श्रद्धा तो बनी रहेगी। तुम कम से कम कभी याद तो कर लिया करोगे कि किसी त्यागी से मिलना हुआ था। शायद वह याद तुम्हारे लिए उपयोगी हो जाए।
तुम्हारे कारण बहुत से संत त्याग में जीए हैं, झोपड़ों में पड़े रहे हैं, वृक्षों के नीचे बैठे रहे हैं। तुम्हारे कारण! क्योंकि तुम समझ ही न पाओगे। तुम समझ ही व्यर्थ बातें सकते हो। सार्थक की तुम्हें कोई पहचान नहीं है। सार्थक की पहचान हो भी नहीं सकती, जब तक तुम उस सार्थकता को स्वयं उपलब्ध न हो जाओ। तुम कैसे पहचानोगे संत को बिना संत हुए? वही गुणधर्म तुम्हारी चेतना का भी हो जाए, वही सुगंध तुम्हें भी आ जाए, तभी तुम पहचानोगे। कृष्ण हुए बिना कृष्ण को पहचानना मुश्किल है। लाओत्से हुए बिना लाओत्से को पहचानना मुश्किल है।
तुम यहां मेरे पास हो; निरंतर मुझे सुनते हो; हर भांति मेरे रंग में रंगे हो; फिर भी तुम मुझे पहचान नहीं सकते जब तक तुम ठीक मेरे जैसे ही न हो जाओ। तब तक तुम्हारी सब पहचान बाहर-बाहर की, तब तक तुम्हारी सब पहचान अधूरी, तब तक तुम्हारी सब पहचान तुम्हारी ही व्याख्या। उससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। अगर तुम इतना भी समझ लो तो काफी समझना है। क्योंकि यह समझ तुम्हें और आगे की समझ की तरफ सीढ़ी बन जाएगी।
"जो चरित्र का धनी है वह शिशुवत होता है।'
बचकाना नहीं, बालक जैसा। अविकसित नहीं; कहीं बचपन में अटक नहीं गया कि बढ़ न पाया हो। इतना बढ़ा, इतना बढ़ा, इतना बढ़ा कि वापस बच्चा हो गया। क्योंकि सभी चीजें बढ़ कर अपने मूल स्रोत पर आ जाती हैं।
जीवन वर्तुलाकार है। जीवन की सभी गति वर्तुलाकार है। चांदत्तारे घूमते हैं वर्तुल में, पृथ्वी घूमती है वर्तुल में, सूरज घूमता है वर्तुल में। पृथ्वी एक वर्ष में चक्कर लगा लेती है सूरज का; एक वर्तुल पूरा हो जाता है। सूरज स्वयं पच्चीस सौ वर्षों में किसी महासूर्य का चक्कर लगा रहा है। इसीलिए तो पच्चीस सौ वर्षों में चेतना में फिर से ज्वार-भाटा आता है। एक वर्ष पूरा हुआ सूरज का। एक वर्ष में पृथ्वी चक्कर लगाती है; इसीलिए तो मौसम पैदा होते हैं। गर्मी आती है, वर्षा आती है, शीत आती है; फिर गर्मी लौट आती है। यह जो तुम्हें मौसम की बदलाहट दिखाई पड़ती है, पृथ्वी के चक्कर के कारण। तुम्हारी चेतना भी ऐसे ही वर्तुलाकार में घूम रही है। इससे तुम बच्चे होते हो, जवान होते हो, बूढ़े होते हो। वे तुम्हारे मौसम हैं।
सूरज चक्कर लगा रहा है किसी महासूर्य के किसी अज्ञात केंद्र का। पच्चीस सौ वर्ष में उसका एक चक्कर पूरा होता है। तो चेतना के उस परम जगत में भी बचपन आता है, जवानी आती है, बुढ़ापा आता है। हर पच्चीस सौ वर्षों में जगत की चेतना अपनी आखिरी ऊंचाई पर पहुंचती है। उस समय जैसे द्वार खुले होते हैं; जो प्रवेश कर जाए, कर जाए। उस समय तुम बाढ़ के साथ जा सकते हो। उस समय भयंकर लहरें जा रही हैं परमात्मा की तरफ, उनके साथ तुम बह सकते हो। उस समय बुद्ध पैदा होते हैं, महावीर पैदा होते हैं, कृष्ण, पतंजलि पैदा होते हैं, जरथुस्त्र। उनकी प्रगाढ़ धारा में कोई भी बह जा सकता है।
इन आने वाले पच्चीस वर्षों में, इस सदी के पूरे होते-होते, वैसी प्रगाढ़ता का क्षण आएगा। तुम्हारे साथ मेहनत उसी क्षण के लिए तुम्हें तैयार करने को कर रहा हूं कि उस क्षण तुम्हें वह समय तैयार पाए। और इसलिए मैं इतनी जल्दी में हूं, क्योंकि वह समय आ सकता है और हो सकता है तुम सुनते ही बैठे रहो, तुम विचार ही करते रहो, द्वार खुले और बंद हो जाए।
सभी चीजें वर्तुल में घूमती हैं; जहां से शुरू होती हैं वहीं वापस पहुंच जाती हैं। तुम्हारी चेतना भी अगर बढ़ती ही जाए, बढ़ती ही जाए, तो फिर बालवत, शिशुवत हो जाएगी। तुम अगर बहुत आगे निकल जाओ तो तुम वहीं पहुंच जाओगे जहां से तुम आए थे।
इसलिए जब तुम पूछते हो कि लाओत्से को मान कर पीछे लौट रहे हैं, तो यह आगे जाना है? आगे जाएं कि पीछे लौटें? तुम ठीक से आगे चले जाओ तो तुम पीछे पहुंच जाओगे। तुम ठीक से पीछे पहुंचने को सम्हाल लो तो तुम आगे निकल जाओगे। वहां विरोध नहीं है। वर्तुल में कोई विरोध नहीं है। वर्तुल से चूकता वही है जो बैठा है और चलता ही नहीं; कहीं भी नहीं जाता--न पीछे, न आगे।
"जो चरित्र का धनी है वह शिशुवत होता है। जहरीले कीड़े उसे दंश नहीं देते, जंगली जानवर उस पर हमला नहीं करते और शिकारी परिन्दे उस पर झपट्टा नहीं मारते।'
शिशु पर हमला करना मुश्किल है। नहीं कि हमला नहीं किया जा सकता; मुश्किल है। क्या कारण है? कई बार तुम देखते हो, ऐसा होता है कि मकान में आग लग गई, सब मर गए; एक छोटा बच्चा बच गया। मकान से, ऊंचाई से एक छोटा बच्चा गिरता है और जरा भी चोट नहीं लगती। लोग कहते हैं, जाको राखे साईयां मार सके न कोय! नहीं, परमात्मा को इसमें कुछ करना नहीं पड़ता। साईयां का इसमें कुछ हाथ नहीं है, कुछ लेना-देना नहीं है। यह शिशुवत होने में कुछ खूबी है। शिशु गिरते हैं, टूट नहीं पाते। क्योंकि गिरने की उन्हें समझ नहीं है। वे जब गिर रहे हैं तब भी वे खेल ही समझ रहे हैं। तन नहीं गए हैं, घबड़ा नहीं गए हैं, हड्डियां खिंच नहीं गईं, मस्तिष्क में तनाव नहीं है। क्योंकि तुम जब पृथ्वी से जाकर टकराओगे खिड़की से गिर कर तो पृथ्वी नहीं मारेगी तुम्हें, तुम्हारा तनाव मारेगा। अगर तुम बहुत तने हुए हो तो तुम्हारे तनाव पर पड़ी चोट को तुम झेल न पाओगे, टूट जाओगे।
कड़ी चीज टूट जाएगी, मुलायम चीज क्षण भर को झुकेगी, फिर अपनी जगह आ जाएगी। जितनी कोमल चीज होगी उतनी ही लोचपूर्ण होती है। शिशु लोचपूर्ण है। वह चोट खा जाएगा, टूटेगा नहीं। तूफान आता है; छोटे पौधे झुक जाते हैं, अपनी जगह खड़े हो जाते हैं। तूफान को हरा दिया उन्होंने, झुकने में उनकी कला थी। बड़े वृक्ष गिर जाते हैं, फिर उठ नहीं पाते। क्योंकि बड़े वृक्ष पहले तो लड़ते हैं, पहले तो पूरी कोशिश करते हैं तूफान के खिलाफ खड़े रहने की; उस लड़ाई में, उस प्रतिरोध में, उस रेसिस्टेंस में ही जड़ें उखड़ जाती हैं। कहां तूफान? छोटे पौधे इस झंझट में नहीं पड़ते। वे अपने को छोटा मानते हैं, झुक जाते हैं। झुक गए, तूफान तो निकल जाता है। बड़े वृक्षों को मिटा जाता है, छोटों को नया जीवन दे जाता है। फिर खड़े हो जाते हैं लहलहाते। तूफान में सिर्फ उनकी धूल झड़ जाती है। तूफान और कुछ नहीं कर पाता।
अब यह बड़ी हैरानी की बात है कि छोटे पौधे बच जाते हैं, बड़े वृक्ष नहीं बच पाते। नहीं, इसमें परमात्मा का कुछ हाथ नहीं है। छोटे वृक्ष की खूबी है उसका लोचपूर्ण होना। छोटे बच्चे लोचपूर्ण हैं। इसलिए तो दिन भर गिरते रहते हैं। तुम जरा दिन भर एक दिन बच्चे के साथ गिर कर देखो; फिर जिंदगी भर उठ न सकोगे।
पश्चिम में उन्होंने एक प्रयोग किया है, एक बहुत बड़े पहलवान को...। एक मनोवैज्ञानिक लाओत्से को पढ़ रहा था। तो उसे लगा कि इस पर प्रयोग करने जैसा है। तो हार्वर्ड युनिवर्सिटी में प्रयोग किया गया। एक बड़े से बड़े पहलवान को बुलाया गया, जिसका शरीर बड़ा शक्तिशाली है। और उसे एक काम दिया गया है कि आठ घंटे वह एक बच्चे का अनुकरण करे, बच्चा जो करे वही वह भी करे। बस कुछ और नहीं करना है, एक आठ घंटे बच्चा बैठे तो बैठ जाए, बच्चा खड़ा हो तो खड़ा हो जाए, बच्चा घिसटे तो घिसटे, बच्चा लोटे तो लोटे, बच्चा उचके तो उचके, रोए तो रोए, चिल्लाए तो चिल्लाए। जो भी बच्चा करे, बस उसका अनुकरण करता रहे।
वह पहलवान छह घंटे में चारों खाने चित्त हो गया। और बच्चे को बहुत मजा आया तो वह और ज्यादा करने लगा। जब कोई आदमी उसकी नकल कर रहा था तो उसने ऐसे-ऐसे काम किए कि वह पहलवान को उसने पस्त कर दिया। छह घंटे में वह पड़ गया। और उसने कहा कि मेरी हिम्मत अब आगे खींचने की नहीं, यह मार डालेगा। और बच्चा प्रसन्न है; उसे कुछ हुआ ही नहीं है। वह खेल समझ रहा है।
लाओत्से ठीक है। क्योंकि बच्चे के लिए जीवन अभी खेल है। काम जिस दिन हुआ उसी दिन थकान शुरू हुई। जिस दिन काम आया चित्त में उसी दिन थकान शुरू हुई। जब तक खेल है तब तक सब मौज है। खेल में कभी कोई थकता है?
मैं एक गांव में रहता था। एक वकील मेरे पास रहते थे। बड़े से बड़े वकील थे उस गांव के। बड़े थके-मांदे सांझ वे अदालत से लौटते। हाईकोर्ट का बड़ा कारोबार था उनका। और फिर वे आते ही से कि बहुत थक गया हूं, अब जरा टेनिस खेलने जा रहा हूं। मैंने उनसे पूछा कि तुम कभी सोचो भी तो कि थक कर आए हो और अब टेनिस खेलने जाओगे तो और थकोगे। उन्होंने कहा कि नहीं, कभी इस पर सोचा नहीं, क्योंकि टेनिस खेल है। तो फिर, मैंने कहा, तुम अदालत भी खेल की तरह क्यों नहीं जाते कि थको ही न? और जब बात ही साफ है, क्योंकि तुम इतना काम करके आए, अब टेनिस खेलने जा रहे हो तो शरीर तो थकेगा ही! पर वे कहते हैं, नहीं, टेनिस खेल कर घंटे भर बाद आता हूं, बिलकुल ताजा हो जाता हूं। तो फिर तुम इतनी सी बात के सूत्र को समझ क्यों नहीं ले रहे हो कि अदालत को भी खेल बना लो।
श्रम से कोई भी नहीं थकता, काम से थकता है। क्योंकि श्रम से थकता होता तो खेल से भी थकता। क्योंकि खेल भी श्रम है। काम से थकता है आदमी। और जिस काम को तुम प्रेम करते हो वह खेल हो जाता है। जिस काम को तुम प्रेम नहीं करते, वही काम है। अगर तुम खेल को भी प्रेम न करो, वह भी काम हो जाएगा। प्रोफेशनल खिलाड़ी होते हैं, वे थक जाते हैं। क्योंकि उनका धंधा है, एक घंटा खेलना है। यह काम है। इससे कमाई करनी है।
खेल और काम में एक ही फर्क है। खेल है क्षण में जीना। यहीं प्रारंभ है, यहीं अंत है। यही साधन है, यही साध्य है। काम का अर्थ है: यह साधन है, साध्य आगे है, फल में है। अगर कृष्ण की पूरी गीता का कोई सार है तो वह इतने से में है कि तुम जीवन को खेल बना लो, फल की आकांक्षा मत करो। फल की आकांक्षा से प्रत्येक चीज काम हो जाती है। खेल में कुछ फल थोड़े ही है। खेलना ही फल है।
शिशु थकता नहीं। उसकी ऊर्जा सदा बहती रहती है। मां-बाप थक जाते हैं, पूरा घर थक जाता है; एक छोटा सा बच्चा सबको नचा डालता है, थका डालता है अच्छी तरह से। और जब वे थक कर विश्राम के लिए जा रहे हैं तब भी वह अपने बिस्तर पर बैठा है, अभी उसे नींद नहीं आ रही। अब उसको सुलाने की भी कोशिश करनी पड़ती है। क्या कारण होगा उसकी इस अथक ऊर्जा का?
लाओत्से कहता है, वही सूत्र बना लो। और जिसकी ऊर्जा लोचपूर्ण है, और जिसकी ऊर्जा सरल है, और जिसकी ऊर्जा निर्दोष है, उस पर कोई आक्रमण नहीं करना चाहता। तुम्हारी कोई जेब भी काट ले, बच्चे की कोई जेब नहीं काटता। और बच्चे को तुम एक रुपया हाथ में दे दो और वह चला जाए, गिर जाए रुपया, तो चोर भी पास में खड़ा हो तो वह भी ढूंढ़ कर उसका रुपया उसको दे देता है। बच्चा खो जाए तो लोग उसे कंधे पर रख कर घूमते हैं कि भई, किसका बच्चा है! मिठाई खिलाते हैं, खिलौना खरीद देते हैं। इस बच्चे में मामला क्या है? यही बच्चा अगर बड़ा होता तो इसकी ये ही आदमी जेब काट लेते। बच्चे पर लोग आक्रमण नहीं करते। रहस्य कहां है? अगर वह दिख जाए तो तुम उस रहस्य को कुंजी की तरह उपयोग कर सकते हो।
क्योंकि बच्चा किसी पर आक्रमण नहीं करता। बच्चा अनाक्रामक है। इसलिए उस पर करुणा आती है, इसलिए उस पर दया का प्रवाह होता है, इसलिए उस पर प्रेम उपजता है। वह अहिंसात्मक है। वह किसी को कुछ नुकसान नहीं करना चाहता। इसलिए किसी का भी मन उसका नुकसान करने का नहीं होता है।
तुम इसीलिए नुकसान उठाते हो, क्योंकि तुम किसी का नुकसान करना चाहते हो। यह भी हो सकता है, आज तुम न करना चाहते होओ नुकसान, पीछे कभी किया हो। इसलिए तो हिंदू कहते हैं कि जो भी किया है उसका निबटारा करना होता है। कभी पीछे नुकसान किया हो तो भी उसका फल भुगताना पड़ेगा। या कभी आगे करने की योजना बना रहे होओ तो भी उसका फल भुगताना पड़ेगा।
अभी तुम बिलकुल निरीह चले जा रहे हो रास्ते से, किसी का नुकसान करने का अभी इरादा भी न हो, खयाल भी न हो, लेकिन तुम आदमी नुकसान करने वाले हो। तुम पर किसी को प्रेम नहीं आता। तुम गिर पड़ो तो लोग हंसते हैं, प्रसन्न होते हैं। तुम हार जाओ तो लोग मिठाइयां बांटते हैं।
एक बच्चा गिर पड़ता है तो कोई नहीं हंसता; लोग उसे दौड़ कर उठा लेते हैं। क्या है बच्चे का राज? वही राज तुम्हारी साधना का सूत्र हो जाना चाहिए। अनाक्रामक! उसकी ऊर्जा अपने में है, वह किसी पर हमला नहीं करना चाहता। वह अपने में जीता है। न किसी के लेने में है, न किसी के देने में है। न माधो का लेना, न साधो का देना। अपने में काफी है। छोटे बच्चे की एक पर्याप्तता है, वह अपने में पूरा है। कोई कमी नहीं है। वासना की कोई दौड़ नहीं है। कोई भविष्य नहीं है। इसी क्षण में पूरा का पूरा जी रहा है। तितली के पीछे दौड़ रहा है तो बस यह दौड़ना ही सब कुछ है। कंकड़-पत्थर नदी के किनारे बीन रहा है तो यह बीनना ही सब कुछ है। इस क्षण में उसकी समग्रता है, उसका पूरा अस्तित्व लीन है।
इस पर प्रेम उपजेगा। और जिस दिन तुम शिशुवत हो जाओगे, तुम पर भी प्रेम उपजेगा। इसलिए संतों पर बड़ा प्रेम आता है। उनके पास होना ही, और उनके प्रति प्रेम से भर जाना हो जाता है। कोई अंतस का एक संबंध जुड़ने लगता है। तुम बचाना चाहोगे। तुम संत के साथ ऐसा ही व्यवहार करोगे जैसे वह छोटा बच्चा है। उसके तुम चरणों में भी झुकोगे, क्योंकि उसकी ऊंचाई अनंत; और तुम उसे पंख फैला कर अपने में बचा भी लेना चाहोगे, क्योंकि वह शिशुवत है। इसलिए संत के प्रति बड़ी अनूठी प्रतीति होती है। श्रद्धा की, प्रेम की, करुणा की, सबकी सम्मिलित अनुभूति होती है। जो जानता है वही जानता है। न तुम्हें वैसी अनुभूति हुई हो तो बड़ा कठिन हो जाएगा। तुम संत को छिपा लेना चाहोगे, बचाना चाहोगे, उसे कांटा न गड़ जाए, पत्थर न लग जाए। क्योंकि वह शिशुवत हो गया है। तुम उसके चरणों में सिर भी रखोगे; क्योंकि उससे और बड़ी कोई ऊंचाई नहीं। तुम्हारा सारा हृदय उसकी तरफ बहेगा; क्योंकि उससे बड़ा तुम कोई प्रेम-पात्र न पा सकोगे।
संतों को जिन्होंने मारा है वे निश्चित विचारणीय लोग हैं। क्योंकि संतत्व के निकट सहज ही प्रेम उपजता है, बचाने का भाव उपजता है। तुम संत को आशीर्वाद भी देना चाहोगे--अपने गहनतम हृदय से! तुम उससे आशीर्वाद भी पाना चाहोगे और उसे आशीर्वाद भी देना चाहोगे। तुम अपने जीवन को खोकर भी उसके जीवन को बचाने की आकांक्षा करोगे। इसलिए बड़ी अनूठी घटना है कि जब कोई जुदास जीसस को धोखा देता है। क्योंकि असंभव जैसी घटना है, पर घटती है। इससे पता चलता है कि कितनी आदमी की ऊंचाई हो सकती है और कितनी आदमी की नीचाई हो सकती है। जीसस जैसी ऊंचाई हो सकती है, जुदास जैसी नीचाई हो सकती है।
इसलिए जुदास नाम भी अपमानित हो गया। यहूदियों में जुदास का नाम बहुत प्रचलित नाम था। जीसस के बारह शिष्यों में दो का नाम जुदास था। बहुत प्रचलित नाम था। जिस गांव में जाओगे सौ-पचास जुदास पाओगे। कुछ नाम सभी जगह प्रचलित होते हैं। लेकिन जीसस को सूली देने के बाद वह नाम रखना भी मुश्किल हो गया। उस नाम में ही निंदा हो गई। वह नाम ही घृणित हो गया। क्या हो गया? क्योंकि इससे और नीचाई क्या हो सकती है कि एक शिशुवत व्यक्ति को इस जुदास ने सूली पर लटकवा दिया? पीड़ा फिर उसको भी अनुभव हुई तत्क्षण, क्योंकि इतना बुरा आदमी भी नहीं हो सकता न! कितना ही बुरा रहा हो, उसे भी यह प्रगाढ़ अनुभव हुआ कि यह मैंने क्या किया? तीस रुपए में बेच दिया! केवल तीस रुपए मिल थे उसे, तीस चांदी के सिक्के। उस आधार पर उसने जीसस को धोखा दे दिया, पकड़वा दिया।
और एक आदमी यह जीसस है कि जाने के पहले, विदा होने के पहले उसने सबके पैर धोए। उसमें जुदास के पैर भी थे। एक शिष्य ने पूछा कि यह आप क्या कर रहे हैं? आप और हमारे पैर धो रहे हैं! हम अपने आंसुओं से धोएं, अपने प्राणों से धोएं, तो भी थोड़ा है। लेकिन आप क्यों यह कर रहे हैं? तो जीसस ने कहा, ताकि तुम्हें याद रहे। क्योंकि ये मेरे आखिरी क्षण हैं। जल्दी ही तुममें से कोई मुझे धोखा देगा। यह रात आखिरी है। ताकि तुम्हें याद रहे। और जो मैंने तुम्हारे साथ किया, तुम नीचे से नीचे व्यक्ति के साथ वही करना। क्योंकि अगर मैं तुम्हारे पैर धो सकता हूं तो फिर तुम किसी के भी पैर धोने के योग्य हो और कोई भी तुमसे पैर धुलाने के योग्य है। तुम छोटे से छोटे हो जाना। जो मैंने तुम्हारे साथ किया है वह तुम दूसरों के साथ करना, और सदा याद रखना। और यह भी याद रखना कि जो मुझे धोखा देगा क्षण भर बाद, उसके भी मैं पैर धो रहा हूं। तुम उस पर भी नाराज मत होना।
एक ऊंचाई यह हो सकती है!
और तब जीसस ने जुदास के पैर धोने के बाद कहा कि अब तू जल्दी कर, क्योंकि रात बीतने के करीब है। कोई भी नहीं समझा कि जीसस क्या कह रहे हैं। तू जल्दी कर, तुझे जो भी करना है जल्दी कर। क्योंकि अब रात बीतने के करीब है। और जुदास वहां से नदारद हो गया। उसने तीस रुपए लिए और लोगों को खबर दे दी कि जीसस कहां हैं। जीसस को जब पकड़ कर ले जाया गया तब उसके प्राणों को पीड़ा हुई। तब वह समझा कि उसने क्या कर दिया है! तीस रुपए के अंधेपन में उसने क्या कर दिया है! ये तीस ठीकरे किस काम के हैं? उसे बोध हुआ। वह भागा और जाकर उसने प्रधान पुरोहित को, जिसने तीस रुपए दिए थे, जाकर तीस रुपए उसके ऊपर फेंक दिए और कहा कि रख लो अपने ये रुपए। और उसने जाकर आत्महत्या कर ली। जुदास जीसस को सूली लगने के बाद ही आत्महत्या कर लिया उसी दिन।
ये दो छोर हैं। नीचे-नीचे तुम अगर जाओ तो अंत में सिर्फ आत्महत्या के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और इससे बड़ी क्या नीचाई होगी--एक शिशुवत व्यक्ति को धोखा दे दिया! जिसका तुम पर इतना भरोसा था कि तुम्हारे पैर धोए, और जिसका तुम पर इतना प्रेम था कि तुम उसकी हत्या करवाने जा रहे थे तो भी उसने कहा, अब तू जल्दी कर जो भी तुझे करना है, क्योंकि रात फिर बीती जाती है।
जिस पुरोहित ने तीस रुपए दिए थे और जीसस को फांसी लगवाई थी वह भी डरा कि इन तीस रुपयों को वापस कैसे रखना? उसको भी लगा कि ये हैं तो रुपए बहुत घृणित, इनका कोई उपयोग तो हो नहीं सकता। तो उसने अपने सब पुरोहितों को इकट्ठा किया और पूछा, इनका क्या करना? उन्होंने कहा, इनका कुछ उपयोग नहीं हो सकता, एक ही काम हो सकता है कि एक जमीन बिकती है उसे हम खरीद लें इन रुपयों से और भिखमंगों और गरीबों के लिए मरघट नहीं है तो उनके लिए मरघट हो जाए। बस इन रुपयों से मरघट ही खरीदा जा सकता है।
वह मरघट जेरूसलम में अब भी है। उन तीस रुपयों से सिर्फ मरघट खरीदा जा सकता है। जीवन का कुछ भी उनसे खरीदना जीवन को कलुषित करना होगा। सिर्फ लाशें ही दफनाई जा सकती हैं उन तीस रुपयों से। यह पुरोहित को भी लगा, जिसने कि फांसी लगवाई है। वह भी उन रुपयों को रख न सका वापस। वे रुपए भारी थे पाप से। और बड़े से बड़े पाप से भारी थे। क्योंकि एक शिशुवत, बच्चे को...। एक छोटा सा बच्चा रास्ते पर जा रहा हो और तुम उसकी हत्या कर दो।
लाओत्से कहता है, "जंगली कीड़े उसे दंश नहीं देते, जंगली जानवर उस पर हमला नहीं करते, और शिकारी परिन्दे उस पर झपट्टा नहीं मारते।'
पर आदमी उन सबसे गया-बीता है। और आदमी ने शिशुवत व्यक्तियों की भी हत्याएं की हैं; उनको भी जहर पिला दिया है। इसे तुम खयाल रखना कि आदमी की ऊंचाई कोई जानवर नहीं पा सकता और आदमी की नीचाई भी कोई जानवर नहीं पा सकता। अगर आदमी ऊंचा होना चाहे तो परमात्मा की ऊंचाई उसकी ऊंचाई हो जाती है। और अगर नीचा होना चाहे तो कोई जानवर उससे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता। कोई जानवर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता; हिंस्र से हिंस्र पशु भी पीछे छूट जाएंगे। आदमी का कोई मुकाबला नहीं है। नीचे गिरे तो नरक तक जा सकता है; ऊंचा उठे तो स्वर्ग उसकी श्वास-श्वास में बस जाता है।
लेकिन लाओत्से कहता है कि जब तुम शिशुवत हो जाते हो तो सारा अस्तित्व जैसे तुम्हारी सुरक्षा करता है। तुम जब आक्रामक नहीं हो तो कोई क्यों आक्रामक होगा?
"यद्यपि उसकी हड्डियां मुलायम हैं, उसकी नसें कोमल, तो भी उसकी पकड़ मजबूत होती है।'
छोटे बच्चे की पकड़ का तुम्हें खयाल है? तुम एक अंगुली दे दो, वह अंगुली को पकड़ ले, तब तुम्हें पता चलेगा कि उसकी पकड़ मजबूत है। कोमल की पकड़ मजबूत! छोटा पौधा झुकता है तो भी जड़ों की पकड़ मजबूत है। जड़ें बड़ी छोटी हैं और बड़ी कोमल हैं। कोमलता की भी एक पकड़ है जो बड़ी मजबूत है। सच तो यह है कि कोमलता से बड़ी मजबूत जड़ें किसी चीज की नहीं हैं। कोमल से ज्यादा शक्तिशाली कोई नहीं है। निर्मल से ज्यादा शक्तिशाली कोई नहीं है। सरलता से ज्यादा शक्तिशाली कोई भी नहीं है। निर्दोषता परम शक्ति है, इनोसेंस, उसकी पकड़ मजबूत है। और अगर तुम्हारे हृदय से बहा हो तुम्हारा चरित्र तो उस चरित्र की भी पकड़ ऐसी ही मजबूत होगी; उसे कोई हिला न सकेगा। तूफान आएं, चले जाएं; तुम पर कोई चोट, कोई निशान भी नहीं छूटेगा
"यद्यपि वह नर और नारी के मिलन से अनभिज्ञ है, तो भी उसके अंग-अंग पूरे हैं।'
यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। छोटा बच्चा अभी विभाजित नहीं है सेक्स की दृष्टि से भी। छोटे बच्चे के भीतर की स्त्री और पुरुष अभी मिले हुए हैं। इसीलिए तो छोटा बच्चा, चाहे वह लड़का हो, तो भी स्त्रैण मालूम होता है। लड़के और लड़कियों में एक उम्र तक कोई फर्क नहीं होता; दोनों एक जैसे कोमल होते हैं। फर्क इतना ही होता है, कपड़े हम उनको अलग-अलग पहना देते हैं। संभावनाएं भिन्न हैं उनकी, लेकिन एक सीमा तक उनमें कोई फर्क नहीं होता; तब तक वे दोनों एक ही जैसे होते हैं। क्योंकि दोनों के भीतर के स्त्री और पुरुष संयुक्त हैं। अभी वर्तुल पूरा है। अभी वर्तुल कहीं से टूटा नहीं है।
इसलिए तो बच्चे के अंग-अंग पूरे हैं। और बच्चा एक गहन ब्रह्मचर्य में जीता है। अभी वासना नहीं जगी। वासना के साथ ही भेद शुरू होगा। वासना जगेगी, तभी तो वह पुरुष और स्त्री बनेगा। और वासना के जगते ही भीतर का वर्तुल टूट जाएगा। भीतर की स्त्री से मिलन छूट जाएगा, भीतर के पुरुष से मिलन छूट जाएगा। फिर बाहर खोज शुरू होगी। जिससे भीतर हम टूट जाते हैं उसको हम बाहर खोजते हैं।
बच्चा काफी है। बच्चा एक तृप्त अवस्था है। उसकी सारी जीवन-ऊर्जा भीतर ही संयुक्त है। इसलिए तुम किसी बच्चे को कुरूप न पाओगे। सभी बच्चे सुंदर होते हैं। फिर क्या हो जाता है बाद में? यही सुंदर बच्चे बड़े कुरूप व्यक्तियों में परिवर्तित हो जाते हैं। फिर ऐसा सौंदर्य संतत्व को पुनः उपलब्ध होता है, अन्यथा नहीं उपलब्ध होता। जब फिर दुबारा भीतर की स्त्री और पुरुष मिल जाते हैं, तब फिर ब्रह्मचर्य आता है। तब कोई जरूरत नहीं रह जाती बाहर की खोज की। वही ब्रह्मचर्य का अर्थ है।
तो दो ब्रह्मचर्य हैं। एक बच्चे का ब्रह्मचर्य, क्योंकि वह भेद के पूर्व। और एक संत का ब्रह्मचर्य, क्योंकि वह भेद के बाद।
"यद्यपि वह नर और नारी के मिलन से अनभिज्ञ है...।'
उसे कोई पता नहीं कि नर और नारी का कोई मिलन होता है। वह अभी मिला ही हुआ है; अभी उसके भीतर सब पूरा है।
"तो भी उसके अंग-अंग पूरे हैं।'
अंग-अंग पूरे हैं, क्योंकि वह पूरा है। जब भीतर पूर्णता होती है तो रोएं-रोएं में पूर्णता होती है।
"जिसका अर्थ हुआ कि उसका बल अक्षुण्ण है।'
अभी उसका बल विभाजित नहीं हुआ; अभी उसका वर्तुल टूटेगा। चौदह वर्ष की उम्र में लड़की का मासिक धर्म शुरू होगा। वर्तुल टूट गया। लड़के की काम प्रौढ़ता होगी; चौदह वर्ष में वह योग्य हो गया, अब बच्चों को जन्म दे सकता है। उसका वर्तुल टूट गया। जब भीतर का वर्तुल टूट जाता है तो जिससे हमारा संबंध अब तक भीतर था उसको हम बाहर खोजते हैं; बेचैनी शुरू होती है।
इसलिए चौदह वर्ष की उम्र सबसे ज्यादा बेचैन उम्र है। सबसे ज्यादा बेचैन। समझ ही नहीं पड़ता कि क्या हो रहा है! क्यों हो रहा है! चौदह वर्ष का लड़का और लड़की बड़ी संकट की अवस्था में होते हैं। जानते भी नहीं क्या हो रहा है। जो अतीत था वह खो गया; जो सुख था, जो शांति थी, वह खो गई। एक बेचैनी है; एक अनजानी प्यास है। किस पानी से बुझेगी, इसका भी कोई पता नहीं है। बुझेगी, इसका भी कोई पता नहीं है। कैसे बुझेगी, इसका भी कोई पता नहीं है। सब स्वप्न वासना से भर जाते हैं। सारा चित्त वासना से भर जाता है। किसी से कह भी नहीं सकता; कोई उसकी सुनने को भी नहीं है। किसी के साथ अपने भीतर की अवस्था को बता भी नहीं सकता। बताना भी चाहे तो उसके पास शब्द भी नहीं हैं अभी कि क्या हो रहा है। बस सिर्फ बेचैन है। कुछ खोया-खोया है।
तुम चौदह वर्ष के लड़के-लड़कियों को देखो, उनकी आंखों में तुम्हें पता लगेगा, कुछ खोया-खोया है। कुछ था जो खो गया है। और कुछ मिलने की तलाश है जिसका पता नहीं, वह कहां मिलेगा। वर्तुल टूट गया है। भीतर की ऊर्जा अब खंडित हो गई है। इसलिए चौदह साल के लड़के और लड़कियां बहुत उत्तेजित अवस्था में होते हैं। और उनको सहना मां-बाप को भी मुश्किल होता है। वे जहां भी जाते हैं अपने साथ एक उत्तेजना का वातावरण ले जाते हैं। क्योंकि न तो वे अब बच्चे रहे और न अभी जवान हुए। एक बड़ी बेहूदी अवस्था है। उनकी आवाज कठोर हो जाती है लड़कों की, भर्रायी हुई हो जाती है। वह भर्रायी हुई आवाज भीतर के संगीत के टूट जाने के कारण है। लड़कियां शरमाई-शरमाई हो जाती हैं, अपने को छुपाई-छुपाई रखना चाहती हैं। कुछ शरीर में हो रहा है जो समझ के बाहर हो रहा है। लड़कियां बड़ी पीड़ित होती हैं जब उनका मासिक धर्म शुरू होता है। क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, कोई उत्तर नहीं है आस-पास। और अपने ही सहारे अंधेरे में रास्ता खोजना है।
इन्हीं क्षणों में भटकाव हो जाता है। समाज ऐसा चाहिए जो इस क्षण में बड़ा सहयोग दे। मां-बाप, शिक्षक। क्योंकि इस समय से ज्यादा फिर और कोई महत्वपूर्ण क्षण कभी नहीं आएगा। इस क्षण में जो चूक हो गई तो पूरे जीवन भटकाव होगा। और बड़े दुख की बात यह है कि इस क्षण में गलत लोग ही सहायता देने आते हैं, ठीक लोग नहीं। तुम किसी संत के पास नहीं जा सकते पूछने; जाना चाहिए संत के पास पूछने। मुहल्ले-पड़ोस के उपद्रवी लफंगे, उनसे तुम पूछोगे, उनका सत्संग करोगे। क्योंकि वे ही इन बातों को बता सकते हैं। गलत का शिक्षण गलत लोगों से होता है।
मैं अपने संन्यासियों को कहता हूं कि तुम अपनी सारी चिंतना को, सारी चिंता को मेरे पास ले आओ। तो कभी-कभी कोई बुजुर्ग बैठा होता है मेरे पास तो उसे बड़ी बेचैनी होती है। एक सज्जन मुझसे कहने लगे कि यह क्या मामला है! आपको तो सिर्फ ध्यान के संबंध में ही इन्हें समझाना चाहिए। परमात्मा के संबंध में। यह लड़का अपनी कामवासना की बात कर रहा है। इसको आप क्यों समझा रहे हैं? इससे आपको क्या लेना-देना?
अगर इसे ठीक लोग न बताएंगे तो इसे गलत लोग बताएंगे। यह सीखेगा तो ही। अगर इसके लिए कोई सम्यक मार्ग न होगा जानने का तो भी यह जानेगा--गलत लोगों से जानेगा। और सारे लोग जीवन की बड़ी महत्वपूर्ण बातें गलत लोगों से जानते हैं। फिर जीवन भर अड़चन बनी रहती है। और जो संत हैं वे निंदा किए जा रहे हैं। इसलिए वे सिखाएंगे कैसे? साधु हैं, वे गाली दिए जा रहे हैं। इसलिए वहां तो सीखने का कोई उपाय नहीं है। असाधु तैयार हैं सिखाने को। लेकिन उनसे जो भी सीखा जाएगा वह गंदे कुएं का पानी है। उसको पीना जहरीला है।
यह समाज इतना विकृत है इसीलिए कि हम चौदह साल की उम्र में, जो बहुत महत्वपूर्ण क्षण है, क्योंकि वहीं बच्चा टूटता है। अगर यह क्षण चूक गया तो जोड़ने का क्षण बहुत मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि कैसे टूटता है इस पर ही निर्भर होगा कैसे जुड़ेगा। अगर बहुत व्यवस्था से टूट हो सके, होशपूर्वक उसके भीतर के स्त्री और पुरुष अलग हो सकें, उसकी जानकारी में यह सब हो सके कि क्या हो रहा है, तो जिस दिन उसे इन दोनों को मिलाना होगा उसके पास कुंजी होगी। क्योंकि जिस तरह वह अलग हुआ था उसी तरह मिलने का इंतजाम कर लेगा।
इसलिए दो अड़चन के क्षण हैं: एक चौदह वर्ष के करीब और एक उनचास वर्ष के करीब। चौदह वर्ष के करीब आदमी टूटता है और उनचासवें वर्ष के करीब फिर दूसरा क्षण आता है, पचास वर्ष के करीब, जहां जुड़ाव होना चाहिए। और हर सात वर्ष के बाद मंजिलें हैं। इसलिए पचास नहीं कह रहा हूं, उनचास।
सात वर्ष बच्चा बालक है। सात वर्ष के बाद काम-ऊर्जा सघन होनी शुरू होती है। चौदहवें वर्ष में काम-ऊर्जा प्रकट होती है। इक्कीसवें वर्ष में काम-ऊर्जा अपनी पूरी चरम उत्कर्ष स्थिति में होती है। अट्ठाइसवें वर्ष में व्यवस्थित हो जाती है। वह जो ऊंचाई थी इक्कीस वर्ष की वह खो जाती है, और एक संतुलन आ जाता है। पैंतीसवें वर्ष में उतार शुरू हो जाता है; पैंतीसवें वर्ष में जवानी उतरने लगती है। घाटी शुरू हो गई। बयालीसवें वर्ष में चिंतन फिर शुरू होता है, जैसा सात वर्ष में शुरू हुआ था। इसलिए धर्म का आविर्भाव करीब-करीब लोगों के मन में बयालीसवें वर्ष के करीब होना शुरू होता है। थोड़ा हेर-फेर होता है, बाकी औसत।
जुंग ने, पश्चिम के एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने कहा है कि मैंने जितने मरीज देखे चालीसवें साल के बाद, उनकी बीमारी धार्मिक है। उनको धर्म चाहिए।
बयालीसवें वर्ष के करीब धर्म का चिंतन शुरू होता है। देख ली जिंदगी, समझ लिया सब; कुछ सार न पाया। यह अवस्था फिर वैसी है जैसी सात साल में थी। अब एक नया उपक्रम शुरू हो रहा है। उनचासवें वर्ष में जोड़ का क्षण आता है, जैसा चौदह वर्ष में आया था। अगर चौदह वर्ष की घटना ठीक से घटी हो तो उनचासवें वर्ष की घटना सुगमता से घट जाती है। जो टूटा था वह फिर जुड़ जाता है।
इसलिए हमने पचास वर्ष में वानप्रस्थ की अवस्था मानी थी कि पचास वर्ष में आदमी वानप्रस्थ हो जाए। वानप्रस्थ का अर्थ है: मुंह जंगल की तरफ हो जाए। जंगल न जाए, लेकिन मुंह जंगल की तरफ हो जाए। पीठ हो जाए संसार की तरफ। गया, वह वक्त गया। सपना, दुख-सपना, जो भी था, बीत गया। उसे देख लिया, जान लिया। अब फिर भीतर जुड़ गए। यह जो भीतर का जुड़ना है यह फिर एक नए ब्रह्मचर्य का उदय है। इस क्षण में फिर आदमी बालक जैसा हो जाना चाहिए। न हो पाए तो जिंदगी में कहीं कोई भूल हो गई।
"यद्यपि वह नर और नारी के मिलन से अनभिज्ञ है, तो भी उसके अंग पूरे-पूरे हैं।'
पचास वर्ष में फिर नर और नारी का मिलन व्यर्थ हो जाएगा। अब भीतर के नर और नारी का फिर मिलन होगा। वह फिर शिशुवत हो जाएगा। अब फिर उसके अंग पूरे-पूरे हो जाएंगे। और जब कभी यह घटना घटती है तो इससे ज्यादा सुंदर आदमी फिर न पा सकोगे। इसका बुढ़ापा बड़ा सौंदर्य से भरा हुआ होगा।
आमतौर से बुढ़ापा बड़ी दरिद्रता से भरा हुआ होता है। क्योंकि वर्तुल फिर जुड़ ही नहीं पाता। टूटा कैसे, उसका पता नहीं है, तो जोड़ कैसे पाओगे? जैसे टूटा है उसके ही विपरीत चल कर तो जुड़ना होगा।
"जिसका अर्थ हुआ कि उसका बल अक्षुण्ण है। दिन भर चीखते रहने पर भी उसकी आवाज भर्राती नहीं।'
बच्चा दिन भर रोता है, चिल्लाता है, चीखता है, आवाज नहीं भर्राती। क्योंकि भीतर एक अहर्निश नाद बज रहा है; भीतर की स्त्री और पुरुष मिल रहे हैं। अधूरापन नहीं है।
"जिसका अर्थ हुआ कि उसकी स्वाभाविक लयबद्धता पूर्ण है।'
लयबद्धता का क्या अर्थ है? लयबद्धता का अर्थ है: तुम पूरे हो, कुछ कमी नहीं है। तुम्हारी प्रेयसी, तुम्हारा प्रेमी तुम्हारे भीतर है। मैंत्तू दोनों भीतर हैं, इकट्ठे हैं। उन दोनों के मिलन से जो संगीत पैदा होता है वही लयबद्धता है।
संभोग में उसकी ही तो क्षण भर को झलक मिलती है। वह झलक क्षण भर की ही होगी। क्योंकि बाहर की स्त्री से तुम कितनी देर मिले रहोगे? क्षण भर को भी मिलना हो जाए तो बहुत है। पराए से तो तुम दूर हो ही; एक क्षण को भी पास आना हो जाए तो काफी है। समाधि में वही सतत मिलता है, संभोग में जो क्षण भर को मिलता है। समाधि का अर्थ है: अब भीतर संभोग हो गया, अब भीतर लयबद्धता बजने लगी; भीतर का तार पूरा जुड़ गया। अब कोई कमी नहीं है।
संत है पूरा अस्तित्व अपने में। कोई जरूरत न रही; कोई कमी न रही। तभी तो संत के आस-पास एक तृप्ति की वर्षा होती रहती है। तुम उसके पास भी बैठोगे, तुम उसे देखोगे भी, तो भी तुम पाओगे कि कुछ बरस रहा है, कुछ अहर्निश बरस रहा है। इसलिए तो हिंदुओं ने, जो कि पुराने से पुराने धर्म के तलाशी हैं, दर्शन को इतना मूल्य दिया है। पश्चिम के लोग समझ ही नहीं पाते कि दर्शन का क्या मतलब? पश्चिम से कोई आता है तो वह पूछने को आता है, संत को देखने को नहीं। देखने से क्या लेना-देना है? देख तो तस्वीर ही लेते हैं। यहां आने की क्या जरूरत थी! सवाल लेकर आता है। पश्चिम से जब कोई आता है तो सवाल लेकर आता है, पूछने आता है, विचार करने आता है। पूरब ने जान लिया राज। पूरब कहता है: संत को देख लिया, आंखें भर गईं; बस बहुत है। पूछना क्या है? और जो देखने से न दिखा वह पूछने से कैसे दिखेगा? सवाल लेकर थोड़े ही संत के पास जाना है। संत के पास तो खुला हुआ मन लेकर जाना है, ताकि दर्शन हो जाए।
यह दर्शन जैसी घटना हिंदुस्तान के बाहर कहीं भी नहीं घटी है। क्योंकि इस राज को वे पहचान ही न पाए कि संत एक अहर्निश वर्षा है, एक तृप्ति है, एक परितोष है; जहां कोई कमी नहीं है, जहां सब भरा-भरा है। और जिसका भराव इतना है कि ऊपर से बह रहा है; एक बाढ़ आई है। तुम कहां पूछने जा रहे हो? तुम सिर्फ बैठ जाओ और बाढ़ में थोड़े नहा लो, थोड़ी सुगंध से भर जाओ। संत बंट रहा है--तुम थोड़ा बांट लो, और अपने साथ ले जाओ।
यह जो घटना घटती है, तभी घटती है, जब भीतर के स्त्री-पुरुष का मिलन हो जाता है। तब फिर से बच्चा पैदा हो गया; एक नया जन्म हुआ। यह द्विज की अवस्था है, जिसको जीसस ने रिबर्थ कहा है।
निकोडेमस से जीसस ने कहा कि जब तक तू फिर से पैदा न हो जाए तब तक तू मेरे परमात्मा के राज्य में प्रविष्ट न हो सकेगा। निकोडेमस ने कहा, तो फिर से पैदा होने का तो मतलब हुआ कि मरना पड़े, फिर जन्म लेना पड़े। जीसस ने कहा कि नहीं, जीते जी मरने की विधि है।
तब जन्म होता है, तब फिर से बच्चा आया संसार में। इसके बाल सफेद होंगे, इसके चेहरे पर झुर्रियां होंगी। लेकिन नहीं, इस जगत ने इससे बड़ा सौंदर्य नहीं देखा है। जब कोई बूढ़ा फिर से बच्चा हो जाता है तब अप्रतिम सौंदर्य का जन्म होता है। क्योंकि यह सौंदर्य अब भीतर का है। चरित्र भीतर का था, अब यह सौंदर्य भी भीतर का है। अब कुछ भी बाहर का नहीं है। अब यह लेता नहीं, अब यह सिर्फ देता है। अब यह सिर्फ बांटता है। यह अनंत के स्रोत से जुड़ गया। जितना बांटता है उतना बढ़ता है। संत एक सतत प्रसाद है। वह बांट रहा है, बंट रहा है। जो भी ले सकते हैं वे ले लें। जो भी देख सकते हैं वे देख लें। जो भी सुन सकते हैं वे सुन लें।
"लयबद्धता को जानना शाश्वत के साथ तथाता में होना है।'
और जैसे ही भीतर लय हो जाती है बाहर सब विसंगीत खो जाता है। जो अपने से जुड़ गया वह परमात्मा से जुड़ गया। इसलिए तो याद आती है बचपन की बार-बार; बार-बार पछताते हो कि कहीं बचपन थोड़ी देर और टिक जाता। बार-बार सपना देखते हो कि कैसे प्यारे दिन थे बचपन के! एक-एक क्षण कैसी गरिमा से भरा था! न कोई चिंता थी, न कोई संताप था, न कोई दायित्व था, न कोई विचार पीड़ित करते थे। हर घड़ी कितनी आनंदपूर्ण थी! बचपन की तरफ बार-बार लौट कर तुम देखते हो।
उस लौट कर देखने में कुछ सार नहीं। एक और बचपन आगे प्रतीक्षा कर रहा है, जो पहले बचपन से बहुत बड़ा है। जिस दिन तुम उस बचपन को जान लोगे उस दिन पहला बचपन एकदम फीका पड़ जाएगा। वह जैसे केवल दूसरे आने वाले परम बचपन का संकेत मात्र था, सिर्फ सूचना मात्र थी, सिर्फ एक झलक थी। तुम जब तक अपने पीछे लौट कर देख रहे हो तब तक तुम्हें पता नहीं कि आगे एक और बचपन आ सकता है। तुम्हारे हाथ में है वह घड़ी।
अगर तुम उस बचपन को पा लिए तो फिर तुम्हारा कोई जन्म-मरण न होगा। अगर तुमने उसे न पाया, फिर आएगा बचपन जो तुम मांग रहे हो, लेकिन वह फिर बाहर से आएगा। जब तक तुम भीतर से न ला सकोगे बचपन को तब तक तुम्हें बाहर से बचपन आता रहेगा। और जब तक तुम भीतर से न ला सकोगे मृत्यु को तब तक बाहर की मृत्यु तुम्हें झेलनी पड़ेगी। तब तक तुम पैदा होओगे, मरोगे; आवागमन जारी रहेगा। जिस दिन तुम भीतर से ले आओगे बचपन को, फिर बाहर के बचपन की कोई जरूरत न रही। तुम खुद ही गर्भ बन गए और तुमने स्वयं को ही स्वयं से जन्म दे दिया। तुम स्वयंभू हो गए। तुम न केवल अपने बच्चे हो, अपने मां-बाप भी हो गए। अब तुम पूरे हो गए। अब कुछ कमी न रही। अब तुम्हें मरने की कोई जरूरत नहीं। अब तुमने अमृत को पा लिया।
"शाश्वतता को जानना विवेक कहलाता है। लेकिन जीवन में संशोधन करना अशुभ लक्षण है; और मनोवेगों को मन की राह देना आक्रामक है।'
लाओत्से कहता है, जीवन में संशोधन करना अशुभ है।
"टु इम्प्रूव अपान लाइफ इज़ काल्ड एन इल ओमेन'
वह यह नहीं कहता कि तुम अपने चरित्र को सम्हालो, संशोधन करो, शुद्ध करो, चरित्रवान बनो, नैतिक बनो। वह कहता है, यह सब तो अशुभ लक्षण है, क्योंकि यह सब ऊपर-ऊपर होगा। तुम फिर से जन्मोइम्प्रूवमेंट नहीं, रिबर्थ; सुधार नहीं, नया जन्म।
सुधार से कुछ भी न होगा। वह तो घर को सजाना है; उससे आत्मा में कोई क्रांति न होगी। तुम कितने ही अच्छे हो जाओ, सज्जन से सज्जन हो जाओ, तो भी तुम संत न हो सकोगे। दुर्जन न रहोगे, सज्जन हो जाओगे। दुर्जन भी मरते हैं, सज्जन भी मरते हैं। क्योंकि दोनों की संपदा बाहर है। दुर्जन फिर पैदा होते हैं; सज्जन फिर पैदा होते हैं। क्योंकि दोनों की संपदा बाहर है। सिर्फ भीतर की संपदा का आदमी फिर पैदा नहीं होता।
तो तुम सुधार में मत लगना। क्रांति से कम में काम न चलेगा। आमूल रूपांतरण चाहिए। टोटल, समग्र ट्रांसफार्मेशन। रत्ती भर कम से काम नहीं चलेगा। तुम ऊपर से रंग-रोगन मत लगाना। क्रोध को दबा कर तुम करुणा मत दिखाना। लोभ को थोड़ा काट कर दान मत कर देना। इससे कुछ भी न होगा। तुम्हारा नया जन्म चाहिए। तुम पूरे के पूरे ही गलत हो। तुम ऐसे मकान नहीं हो कि जिसमें थोड़ा सा यहां पलस्तर बदल दिया और वहां थोड़ा डंडा खड़ा कर दिया और खंभा बदल दिया और सब ठीक हो गया। रिनोवेशन से काम न चलेगा। तुम बिलकुल जीर्ण-जर्जर भवन हो। तुम खंडहर हो। कितना ही तुम्हें ऊपर-ऊपर से सुधारें, तुम सुधरोगे न। और जब तक एक कोने को ठीक कर पाओगे, पाओगे दूसरा कोना बिगड़ गया। दूसरे कोने को ठीक करने जाओगे, पहला तब तक जराजीर्ण हो चुका होगा।
नहीं, इस पूरे भवन को गिरा देना है। पुनर्जन्म चाहिए। इस भवन को बिलकुल ही गिरा देना है; नये आधार रखने हैं। तुम जैसे हो, इसको सुधारने की चिंता मत करो। वही तो सज्जन लोग सारी दुनिया में कर रहे हैं। तुम पूरे नए भवन को बनाने का विचार करो। उसी का नाम संन्यास है।
संन्यास का अर्थ है कि मैं आमूल बदलने को तत्पर हुआ हूं। संन्यास क्रांति है, सुधार नहीं। संन्यास कपड़े बदल लेना नहीं है। संन्यास नाम बदल लेना नहीं है। संन्यास आमूल क्रांति है; सब बदल देना है। रत्ती भर इसमें से बचाने योग्य नहीं है। यह सब जहरीला है जो तुम्हारे पास है। यह सब विषाक्त हो गया है। तुम्हारा क्रोध ही बुरा नहीं है, तुम्हारे प्रेम तक में तुम्हारा क्रोध घुस गया है। वह भी विषाक्त हो गया है। तुम्हारी घृणा तो बुरी है ही, तुम्हारे प्रेम में भी तुम्हारी घृणा की छाया पड़ गई है। वह भी नष्ट हो गया है। तो तुम अगर सोचो कि घृणा को काट दें, प्रेम को बचा लें, तो तुम गलती में हो। उस प्रेम में तुम्हारी घृणा बच जाएगी। उस पर छाया पड़ गई है। वह प्रेम तुम्हारी घृणा को काफी सोख गया है। बहुत दिन से साथ-साथ रहे हैं; वे दोनों ही विकृत हो गए हैं। तुम्हारा बुरा तो बुरा है ही, तुम्हारा जिसको तुम भला कहते हो वह भी बुरा हो गया है। इसलिए आमूल!
लाओत्से कहता है, "जीवन में संशोधन करना अशुभ लक्षण है।'
इस भूल में तुम पड़ना ही मत। क्योंकि इसमें जीवन गंवाओगे, कुछ होगा नहीं। अशुभ लक्षण है।
"और मनोवेगों को राह देना आक्रामक है।'
लेकिन इसका तुम यह मतलब भी मत समझ लेना कि जो भी बुरा है उसको राह देनी है। लाओत्से कहता है, क्रोध को काटने से कुछ भी न होगा। क्रोध को काट-काट कर करुणा न आएगी। लेकिन लाओत्से तत्क्षण यह भी कहता है कि इसका यह मतलब नहीं है कि तुम क्रोध करने में लग जाना। क्योंकि कर-करके भी कोई करुणा न आएगी।
तुम्हें दो ही रास्ते दिखाई पड़ते हैं: या तो क्रोध करो या क्रोध दबाओ। अगर कोई कहता है, मत दबाओ! तुम फौरन समझते हो, करो। क्योंकि तुम्हें तीसरे विकल्प का पता नहीं है। वही तीसरा विकल्प नव-जीवन का सूत्र है: तुम साक्षी बनो। न तो तुम करो और न तुम दबाओ। क्योंकि दोनों में तुम कर्ता हो जाते हो। और कर्ता ही तुम्हारा रोग है। अहंकार ही तुम्हारा रोग है।
ऐसा हुआ कि सिकंदर भारत की तरफ यात्रा पर आ रहा था। तो उसे खबर मिली एक मरुस्थल को पार करते समय कि एक मरूद्यान, शिवा नाम के मरूद्यान में एक छोटा सा मंदिर है और उस मंदिर का पुजारी बड़ा अनूठा पुरुष है। सिकंदर अपने से अनूठा तो किसी को मानता नहीं था। जब बार-बार लोगों ने खबर दी कि सच ही अनूठा पुरुष है, इसके दर्शन कर ही लेने चाहिए, तो वह दर्शन करने गया।
संत को यूनानी भाषा नहीं आती थी। सिकंदर के आदमियों ने पहुंच कर उसे थोड़ी यूनानी भाषा पहले सिखाई कि सिकंदर आ रहा है तो आप कम से कम कुछ शब्द तो उससे बोल दें। संत ने बहुत कहा कि बोलने से हमेशा भूल होती है, मैं चुप रहना ही पसंद करता हूं। क्योंकि चुप रहने में, कम से कम जो मैं हूं वही तुम देखोगे। शब्द बोलने में खतरा है, तुम अपनी व्याख्या करोगे। लेकिन उन लोगों ने नहीं माना। उन्होंने कहा, सिकंदर आता है, वह अगर कुछ पूछ बैठा, और कम से कम स्वागत में तो दो शब्द कहने ही पड़ेंगे। संत राजी हो गया। संत सदा ही राजी है। उसने कहा, ठीक। तो उन्होंने कुछ शब्द सिखा दिए।
सिकंदर आया। तो संत को आदत थी कहने की किसी को भी, जब वह बोलना था तो कहता था, मेरे बेटे! वत्स! तो ग्रीक में शब्द है मेरे बेटे के लिए पायदीयान। तो जब सिकंदर आया, अपनी अकड़...सिकंदर अपनी अकड़ कहां छोड़ कर आएगा? अकड़ के अलावा उसमें कुछ है भी नहीं। अकड़ ही तो उसकी सब संपदा है। वह आया अपने दरबारियों के साथ, नंगी तलवारों के साथ, अपना मुकुट लगाए हुए।
फकीर ने कहा, पायदीयान! कि मेरे बेटे! सिकंदर बड़ा प्रसन्न हो गया और उसने कहा, अब कुछ और कहने की जरूरत नहीं। जो मैं सुनने आया था सुन लिया। क्योंकि सिकंदर ने समझा, वह कह रहा है: पायदीयाजपायदीयाज का मतलब होता है सन ऑफ गॉड, ईश्वर के बेटे। उसने कहा था, मेरे बेटे, पायदीयान। और सिकंदर ने समझा कि वह कह रहा है, ईश्वर के बेटे, ईश्वर के पुत्र, पायदीयाज
जरा ही सा फर्क है पायदीयान और पायदीयाज में। और सिकंदर को फिर लोगों ने बहुत कहा कि नहीं, उसने पायदीयान कहा था। उसने कहा, अपनी जबान बंद! नहीं तो जबान खिंचवा दूंगा। पायदीयाज कहा था, लिखो! और उसके इतिहासकारों ने लिखा है कि ठीक, पायदीयाज कहा था।
तुम वही सुन लेते हो जो तुम सुनना चाहते हो। तुम वही समझ लेते हो जो तुम समझना चाहते हो।
अहंकार सुधार के लिए तो राजी होता है, क्रांति के लिए राजी नहीं होता। क्योंकि सुधार से अहंकार को और आभूषण मिलेंगे; अहंकार और अहंकारी हो जाएगा। चरित्र भी तो आभूषण बन जाता है। तुम सत्य बोलते हो, ईमानदार हो, साधु हो, चोरी नहीं करते, बेईमानी नहीं करते, तुम कोई भ्रष्टाचारी नहीं हो, तो अहंकार की अपनी अकड़ हो जाती है। साधुओं का अहंकार हो जाता है।
जयप्रकाश को किसी ने पटना में पूछा कि अगर इंदिरा गांधी मिलना चाहें तो आप तैयार हैं? तो उन्होंने कहा, हां, मैं तैयार हूं। और अगर इंदिरा गांधी मिलना चाहें तो मैं दिल्ली आने को तैयार हूं, क्योंकि मैं उतना बड़ा आदमी नहीं हूं कि इंदिरा गांधी को पटना आना पड़े।
लेकिन यह बात ही खयाल में आनी कि मैं उतना बड़ा आदमी नहीं हूं! और जिस ढंग से कही गई बात! कोई पूछ ही नहीं रहा था कि तुम कितने बड़े आदमी हो या नहीं हो। यह बात ही कहां थी? लेकिन मैं उतना बड़ा आदमी नहीं हूं। आकांक्षा, वासना, अहंकार साधुता में और गहन हो जाता है। जयप्रकाश साधु की तरह जीए हैं; उनका अहंकार और भी सूक्ष्म है। और वे और भी खतरे में ले जा सकते हैं इस मुल्क को, क्योंकि अहंकार साधु का है। अकड़ इस बात की है कि मैंने पदों पर लात मारी है। और बुढ़ापे में--जीवन भर पदों को लात मारी, वह बाहर-बाहर से मारी है--इसलिए अब बुढ़ापे में जब जीवन चुकता जा रहा है तो पद की प्रगाढ़ आकांक्षा भीतर पैदा हो गई है।
ऐसा होगा ही। अगर कोई आदमी ब्रह्मचर्य को ऊपर-ऊपर साधे तो मरते वक्त कामवासना इस बुरी तरह सताएगी कि वह पागल हो जाएगा। क्योंकि जीवन हाथ से जा रहा है, और सारी वासना इकट्ठी हो गई। कोई आदमी उपवास करता रहे तो मरते वक्त सिवाय भोजन की याद करने के और कोई चीज में नहीं मरेगा; भोजन ही करता हुआ मरेगा--मन में करेगा।
अब जयप्रकाश जीवन भर पद को छोड़ते रहे कि पद छोड़ने से भी तो भारत में बड़ा आदर मिलता है। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें ऐसा लगने लगा इन पीछे के दिनों में कि अब कोई फिक्र नहीं कर रहा है, और जीवन हाथ से चुका जा रहा है, तो अब पद की प्रगाढ़ आकांक्षा पैदा हो गई। जयप्रकाश को किसी को जाकर कहना चाहिए कि जय जय जयप्रकाश, गए राम भजन को, ओटन लगे कपास।
लेकिन वह होता है। वह होता है। अगर तुम क्रोध को ऊपर से दबाओगे तो भीतर क्रोध इकट्ठा होगा। और किसी न किसी दिन कपास ओटोगे। कामवासना दबाओगे, किसी न किसी दिन कपास ओटोगे। दबाना भूल कर मत। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि प्रकट करना। तब तुम कहोगे, बड़ी अड़चन में डालते हो। न दबाने देते, न प्रकट करने देते, तो फिर हम करें क्या?
वहीं सारी खूबी है। तुम साक्षी होना। कर्ता मत बनना, तुम सिर्फ देखना। जब क्रोध है तो सिर्फ देखना। करने की जरूरत क्या है? दबाने की भी कोई जरूरत नहीं है। तुम आंख बंद करके क्रोध को देखना। बड़े प्रेम से देखना; शांति से देखना। यह क्रोध उठ रहा है, यह धुआं उठ रहा है, यह चारों तरफ फैल रहा है, यह हत्या करना चाहता है, यह उपद्रव करना चाहता है, यह पद पाना चाहता है, यह यह करना चाहता है--इसको देखना। तुम चुपचाप अपने भीतर छिप कर अपनी गुफा में बैठ जाना और वहीं से टकटकी लगा कर देखना। यह सब ट्रैफिक गुजर रहा है क्रोध का। बड़ा बनजारा है क्रोध का, तुम गुजरने देना। तुम न पक्ष में, न विपक्ष में; तुम निष्पक्ष हो जाना।
उस निष्पक्षता से ही, उस सिर्फ देखने मात्र से तुम पाओगे, यह बनजारा धीरे-धीरे, यह लंबा काफिला धीरे-धीरे छोटा होने लगा, तुमसे दूर होने लगा। एक ऐसी घड़ी आती है जब न तो दबा कर और न करके तुम अचानक मुक्त हो जाते हो। सिर्फ देख कर, दर्शन से, द्रष्टा-भाव से, साक्षी से। वहीं तुम्हारा नया जन्म है, जब तुम साक्षी-भाव से मुक्त हो जाते हो।
अन्यथा तुम कुछ भी करो, क्रोध करो तो मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि क्रोध करने से क्रोध की शृंखला पैदा होती है; अभ्यास घना होता है। क्रोध को दबाओ तो मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि दबाने से क्रोध भीतर इकट्ठा होता है, और उसका नासूर बड़ा होता जाता है। सज्जन बनने की कोशिश मत करना। दुर्जन होने में कोई सार नहीं है। सज्जन होने में भी कोई सार नहीं है। तुम संत होने की कोशिश करना। उससे कम पर राजी मत होना।
और संत, दुर्जन और सज्जन दोनों के पार है। संत फिर बालक हुआ। भेद मिट गया। अब न कोई दुर्जन, न कोई सज्जन। अब न कुछ अच्छा, न कुछ बुरा। अब सिर्फ साक्षी-भाव ही एकमात्र संगीत रह गया।
"और मनोवेगों को मन की राह देना आक्रामक है।'
संशोधन अशुभ। मनोवेगों को राह देना आक्रामक।
"और चीजें अपने यौवन पर पहुंच कर बुढ़ाती हैं। वह आक्रामक दावेदारी ताओ के खिलाफ है।'
और तुम किसी चीज को उसकी अति पर मत ले जाना। क्योंकि अति पर जाकर चीजें बुढ़ा जाती हैं। किसी भी चीज को अति पर मत ले जाना। भोग को भी नहीं, त्याग को भी नहीं। क्योंकि जब कोई चीज अति हो जाती है तभी तुम्हारे जीवन का संतुलन खो जाता है। जहां संतुलन खो जाता है वहीं तुम्हारी जीवन-ऊर्जा मर गई। तब तुम बहते नहीं। तब तुम बर्फ की तरह हो जाते हो, धार की तरह नहीं नदी की।
"चीजें अपने यौवन पर पहुंच कर बुढ़ाती हैं।'
जब तुम किसी चीज को उसके पूरे पर खींच देते हो, बस बात वहीं मर जाती है। तो करो क्या?
लाओत्से कहता है, किसी चीज को अति पर मत ले जाओ; समय रहते रुक जाओ। मध्य में ठहर जाओ। न इस तरफ, न उस तरफ। वहीं साक्षी-भाव का उदय होता है, मध्य में।
अगर चौदह वर्ष के बच्चे को ठीक से शिक्षित किया जा सके तो हम उसे तरकीब बताएंगे कि वह जीवन में उतरे, लेकिन अति पर न जाए; मध्य में रहे। जीवन के अनुभव से गुजरे, लेकिन अति पर न जाए। क्योंकि एक अति दूसरे अति पर ले जाती है। अगर वह भोग में बहुत उतर गया तो त्यागी हो जाएगा कभी न कभी। और दोनों गलत हैं। अगर दुर्जन हुआ तो कभी न कभी सज्जन हो जाएगा। अगर सज्जन हुआ तो कभी न कभी दुर्जन हो जाएगा। क्योंकि एक अति पर पहुंच कर चीजें बुढ़ा जाती हैं। फिर वहां से लौटना पड़ता है दूसरी अति पर। क्योंकि एक अति पर जब तुम जाते हो तो तुम्हें दिखता है कि जीवन दूसरी अति पर है।
भोगी सोचता है, त्यागी बड़े आनंद में है। तुम्हें त्यागी का पता नहीं। त्यागी सोचता है, भोगी सारी दुनिया का मजा ले रहा है; हम मुफ्त मारे गए। हम न मालूम किस बात में फंस गए। मैं दोनों को जानता हूं। भोगी दुखी है, भोग की चिंताएं हैं। त्यागी दुखी है, क्योंकि त्याग की चिंताएं हैं। भोगी वासना के कारण दुखी है, क्योंकि वह उलझा रही है। त्यागी वासना को दबाने के कारण दुखी है, क्योंकि वह मवाद की तरह भीतर बढ़ रही है।
अगर व्यक्ति ठीक, सम्यक राह पकड़े तो इतना भोग में जाने की जरूरत नहीं है कि त्याग पैदा हो जाए। मध्य में ठहर जाना जरूरी है कि भोग से साक्षी-भाव आ जाए। बस इतना काफी है। वहीं रुक जाए। ऐसा व्यक्ति कभी नहीं बुढ़ाता। ऐसे व्यक्ति के भीतर की जीवन-धार सदा युवा बनी रहती है। ऐसे व्यक्ति के भीतर जीवन सदा अपनी उत्कृष्टता में, संतुलन में, गरिमा में ठहरा रहता है। ऐसा व्यक्ति कभी चुकता नहीं। ऐसा व्यक्ति सदा ही भरा रहता है।
"क्योंकि चीजें अपने यौवन पर पहुंच कर बुढ़ाती हैं; वह आक्रामक दावेदारी ताओ के खिलाफ है।'
और जब भी तुम अति पर गए तुम स्वभाव के विपरीत चले गए। क्योंकि स्वभाव मध्य में है, संतुलन में है, संयम में है। न भोग, न त्याग; दोनों के मध्य में है, साक्षी-भाव में है।
"और जो ताओ के खिलाफ है वह युवापन में ही नष्ट हो जाता है।'
और जो व्यक्ति भी स्वभाव के विपरीत गया वह मरने के पहले मर जाता है। उसकी मौत तो बाद में आती है, वह मर जाता है तीस साल में। सत्तर साल में मौत आती है, चालीस साल वह मुर्दे की तरह जीता है। उसका जीवन एक बोझ हो जाता है। वह लाश की तरह अपने को ढोता है। वह एक कब्र हो जाता है। जीसस ने बहुत जगह कहा है कि तुम सफेद पुती हुई कब्रों की भांति हो। ऊपर सफेद-सफेद, भीतर सिवाय हड्डियों के और कुछ भी नहीं।
तुम मुर्दे हो। तुम दिखाई पड़ते हो कि जी रहे हो। क्या तुम जी रहे हो? तुम्हारे जीने की कहां है गरिमा? कहां है गौरव? तुम्हारे जीवन का कहां है आनंद? कहां है नृत्य? तुम्हारे जीवन का गीत कहां है? चिंताओं को तुम जीवन कहते हो? संताप को तुम जीवन कहते हो? हताशा को तुम जीवन कहते हो? तो फिर मृत्यु क्या है?
तुम एक अर्थ में जी नहीं रहे हो, मरे-मरे हो। और तुम जीवन को ही नहीं जान पा रहे हो तो तुम मृत्यु को कैसे जान पाओगे? तुम वंचित हुए जा रहे हो।
लाओत्से कहता है, जो स्वभाव में जीता है वह सतत शाश्वत जीवन को उपलब्ध हो जाता है। उसके भीतर फिर कभी कुछ मरता नहीं।
भीतर कभी कुछ मरता ही नहीं। तुम बाहर इतने अटके हो, इसलिए तुम्हें मौत मालूम पड़ती है। और भीतर वही पहुंचता है जो दो से बच जाए--दुर्जन से और सज्जन से, जो भोग से और त्याग से बच जाए। जो अति से बच जाए, वही शाश्वत जीवन को उपलब्ध हो जाता है।
अति से सावधान! और साक्षी-भाव में जितनी ज्यादा लीनता ला सको लाना। साक्षी-भाव से तुम्हारा पुनर्जन्म होगा, तुम नए हो जाओगे। और ऐसे नए कि वह नयापन फिर कभी बासा नहीं होता है। ऐसे नए कि वह कुंआरापन फिर सदा कुंआरा ही रहता है। ऐसे नए कि उस नएपन में शाश्वतता है। वह जराजीर्ण नहीं होता है। वह टिकता है, सदा टिकता है। और उसे पाए बिना कभी कोई परितोष को उपलब्ध नहीं हो सकता। जो खो जाएगा, उसे पाकर कोई कैसे परितोष पा सकता है! जो नहीं खोएगा, कभी नहीं खोएगा, वहीं घर बनाया जा सकता है। वही घर है।

आज इतना ही।


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