अध्याय
49
लोगों
के हृदय
संत
के कोई अपने
निर्णीत मत व
भाव नहीं होते;
वे
लोगों के मत व
भाव को ही
अपना मानते
हैं।
सज्जन
को मैं शुभ
करार देता हूं,
दुर्जन
को भी मैं शुभ
करार देता हूं;
सदगुण
की यही शोभा
है।
ईमानदार
का मैं भरोसा
करता हूं,
और
झूठे का भी
मैं भरोसा
करता हूं;
सदगुण
की यही
श्रद्धा है।
संत
संसार में
शांतिपूर्वक, लयबद्धता
के साथ जीते
हैं।
संसार
के लोगों के
बीच हृदयों का
सम्मिलन होता
है।
और
संत उन सब को
अपनी ही संतान
की तरह मानते
हैं।
ज्ञान
कोई तालत्तलैयों
की भांति बंद
घटना नहीं है।
ज्ञान तो
तरलता है--सरिता
की भांति बहती
हुई। इसलिए
ज्ञान की कोई
बंधी हुई
धारणाएं नहीं
हो सकतीं।
ज्ञान की कोई
धारणा ही नहीं
होती, न कोई
विचार होता
है। अगर विचार
होगा तो पक्षपात
हो जाएगा।
ज्ञान तो
निष्पक्ष है।
एक
दीया हम जलाते
हैं। तो जो भी
कमरे में हो, जैसा
भी कमरे में
हो, प्रकाश
उसे प्रकट
करता है।
प्रकाश का कोई
अपना पक्ष
नहीं है।
प्रकाश यह
नहीं कहता कि
सुंदर को
प्रकट करूंगा,
असुंदर को ढांक
दूंगा; कि
शुभ को
ज्योतिर्मय
करूंगा, अशुभ
को अंधकार में
डाल दूंगा।
प्रकाश निष्पक्ष
है; जो भी
सामने होता है,
उसे प्रकट
कर देता है।
जहां भी पड़ता
है, प्रकट
करना प्रकाश
का स्वभाव है।
प्रकाश की अगर
अपनी कोई
धारणा हो तो
फिर प्रकाश
निष्पक्ष न
होगा।
ज्ञान
प्रकाश की
भांति है।
ज्ञान तो एक
दर्पण है; जो
भी सामने आता
है, झलक
जाता है।
ज्ञान कोई
फोटोग्राफ
नहीं है।
ज्ञान के पास
अपना कोई
चित्र नहीं
है। ज्ञान तो
एक खालीपन है।
उस खालीपन के
सामने जो जैसा
होता है, वैसा
ही प्रकट हो
जाता है। इस
बात को पहले
समझ लें।
क्योंकि
साधारणतः हम
जिन लोगों को
ज्ञानी कहते
हैं, वे वे
ही लोग हैं, जो पक्षपात
से भरे हुए
लोग हैं। कोई
हिंदू है, कोई
मुसलमान है।
कोई गीता को
मानता है, कोई
कुरान को।
उनकी अपनी
धारणाएं हैं।
सत्य के पास
जब वे जाते
हैं तो अपनी
धारणा को लेकर
जाते हैं; वे
सत्य को अपनी
धारणा के
अनुकूल देखना
चाहते हैं।
सत्य
किसी के पीछे
छाया बन कर
थोड़े ही चलता
है। और सत्य
किसी की
धारणाओं में
ढल जाए तो
सत्य ही नहीं।
सत्य के पास
तो वे ही
पहुंच सकते
हैं,
जिनकी कोई
धारणा नहीं है,
जिनके मन
में कोई
प्रतिमा नहीं
है; जो
सत्य का कोई
रूप-रंग पहले
से सोच कर
नहीं चले हैं;
जिनके
परमात्मा की
कोई आकृति
नहीं है, और
जिनके
परमात्मा का
कोई रूप नहीं
है। और जैसा
भी होगा रूप
और जैसी भी
होगी आकृति उस
परमात्मा की,
वे अपने
हृदय के दर्पण
में वैसी ही
झलका देंगे।
वे जरा भी
ना-नुच न
करेंगे। वे यह
न कहेंगे कि तुम
अपनी धारणा के
अनुकूल नहीं
मालूम पड़ते हो।
अपनी
धारणा का अर्थ
है अहंकार।
तुम
ज्ञान को भी
चाहोगे कि वह
तुम्हारे
पीछे चले। और
तुम सत्य को
भी चाहोगे कि
तुम्हारा
अनुयायी हो
जाए। और तुम
परमात्मा को
भी चाहोगे कि
वह तुम्हारी
धारणाओं से
मेल खाए। तभी
तुम स्वीकार
करोगे।
तुम्हारी
स्वीकृति के
लिए अस्तित्व
नहीं रुका है।
तुम्हारी
स्वीकृति की
कोई चाह भी
नहीं है।
तुम्हारी
स्वीकृति के
बिना अस्तित्व
पूरा है। तुम
हो कौन? तुम
किस भ्रांति
में हो कि
तुम्हारी
धारणा के अनुकूल
सत्य हो? तुमने
कभी विचार
किया अपने मन
पर कि तुम किस
बात को सत्य
कहते हो?
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
कि आपने जो
बात कही, वह
बहुत जंची, बिलकुल सच
है। मैं उनसे
पूछता हूं, तुमने जानी
कैसे कि सच है?
तुमने किस
मापदंड से
मापी? तुम्हें
सत्य का पता
है? तो ही
तुम जांच सकते
हो। हां, वे
कहते हैं, सत्य
का पता है।
आपने वही कहा
जो हमारे मन
में भी छिपा
है। आपने वही
कहा जो हम
पहले से ही
मानते रहे
हैं।
सत्य
की परिभाषा
लोगों की यह
है: अगर उनकी
मान्यता के
अनुकूल हो।
तुम तो सत्य
हो;
तुम्हीं
कसौटी हो
जैसे। अब रही
बात इतनी कि
तुम्हारे
अनुकूल जो पड़
जाए, वह भी
सत्य हो
जाएगा।
कुछ
लोग हैं, वे
कहते हैं, आपने
जो बात कही, वह जंचती
नहीं, मन
को भाती नहीं;
सत्य नहीं मालूम
होती। तर्क से
भला ठीक हो; आप समझाते
हैं, तब
ठीक भी लग
जाती है; लेकिन
ठीक है नहीं, अंतःकरण साथ
नहीं देता।
क्या
है तुम्हारा
अंतःकरण? तुम्हारी
धारणाएं? तुम्हें
बचपन से जो
सिखाया गया? तुम्हारे
खून में जो
डाला गया? मां
के स्तन से
दूध के
साथ-साथ तुमने
मां का धर्म
भी पीया
है। पिता का
हाथ पकड़ने
के साथ-साथ
पिता की
धारणाएं भी
तुम्हारे
जीवन में उतर
गई हैं।
तुम्हारा
सीखा हुआ
तुम्हारा अंतःकरण
है! तुम उससे
जांच करते
हो--अगर मेल खा जाए
सच, अगर
मेल न खाए तो
झूठ। तो कसौटी
तुम हो। और
जिसने यह समझ
लिया कि मैं
कसौटी हूं
सत्य की, वह
सदा भटकता
रहेगा। ज्ञान
की कोई कसौटी
नहीं; ज्ञान
तो निर्मल है।
ज्ञान का अपना
कोई भाव नहीं;
ज्ञान तो
निर्भाव है।
ज्ञान तो बस
कोरे दर्पण की
भांति है; जो
है, उसे
प्रकट कर
देगा। जो है, बिना
व्याख्या के,
अपने को बीच
में डाले बिना,
अपने को
जोड़े बिना, प्रकट कर
देगा। ज्ञान
निष्पक्ष है।
कबीर
ने कहा, पखापखी के पेखने
सब जगत
भुलाना। पक्ष
और विपक्ष के
उपद्रव में
सारा जगत भटका
हुआ है। ज्ञान
का न तो कोई
पक्ष है और न
कोई विपक्ष।
ज्ञान का कोई
मत नहीं, कोई
दल नहीं।
ज्ञान तो शुद्ध
दर्शन है।
ज्ञान कोई
विचार ही नहीं;
वह तो
निर्विचार
प्रतिबिंब की
क्षमता है--दि कैपेसिटी
टु रिफ्लेक्ट।
दर्पण को तुम
ले आते हो घर
में। दर्पण
अगर पहले ही
किसी चित्र से
भरा हो तो
तुम्हारे काम
न आएगा। और
दर्पण
तुम्हें
बताता है।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
एक जंगल से
गुजरता था, किसी
राही का गिरा
हुआ दर्पण मिल
गया। कभी दर्पण
उसने पहले
देखा नहीं था।
दर्पण देखा, शक्ल कुछ
पहचानी सी लगी;
बाप से
मिलती-जुलती
थी। अपनी शक्ल
तो देखी नहीं
थी। दर्पण कभी
देखा न था।
बाप की शक्ल
देखी थी।
दर्पण देखा, बाप से
मिलती-जुलती
थी। नसरुद्दीन
ने कहा, अरे
बड़े मियां, हमने कभी
सोचा भी न था
कि तुमने फोटो
उतरवाई
है। अच्छा हुआ,
कोई और न
उठा ले गया।
कहां से आ गई
यह फोटो तुम्हारी?
पिता तो चल
बसे थे। पिता
की फोटो समझ
कर सम्हाल कर
घर ले आया। कई
बार रास्ते
में देखी, हमेशा
फोटो वही थी।
पिता की फोटो
थी; स्मृति
के लिए सम्हाल
कर मकान के
ऊपर, जहां
अपनी गुप्त
चीजें रखता था,
वहीं छिपा
कर उसने रख
दी। रोज जाकर
सुबह नमस्कार
कर आता था।
पत्नी
को शक होना
शुरू हुआ--किसलिए
रोज ऊपर जाता
है?
बताता भी
नहीं। एक दिन
जब मुल्ला
बाहर था तो वह
ऊपर गई, देखा।
अपनी ही शक्ल
पाई दर्पण
में। बड़ी
नाराज हो गई।
तो कहा कि इस बुढ़िया के
पीछे दीवाने
हुए हो! वह
समझी कि
प्रेयसी की तस्वीर
रखे हुए है।
अपनी ही फोटो
दिखी। कभी दर्पण
तो देखा न था।
तो सोचा कि
अच्छा, तो
इस चुड़ैल
के पीछे
दीवाने हुए जा
रहे हो!
दर्पण
में तो
तुम्हीं
दिखाई पड़ोगे।
दर्पण के पास
अपनी कोई
धारणा नहीं
है। और अगर तुम्हें
आखिरी दर्शन
करना हो जीवन
का तो तुम्हें
ऐसा ही दर्पण
हो जाना पड़ेगा
जिसकी कोई
धारणा नहीं।
तभी तुम्हारे
आर-पार जो
बहेगा वह सत्य
है। तुम्हारी
धारणाओं में
ढल कर जो
बहेगा वह असत्य
हो गया, तुम्हारे
कारण असत्य हो
गया। वह नकली
हो गया; वह
असली न रहा।
ढांचा तुमने
दे दिया। और
तुम्हारे
ढांचे के कारण
उसकी जो
असीमता थी, अनंतता थी, निराकार रूप
था, वह सब
खो गया। अब वह
एक क्षुद्र
चीज हो गई।
सत्य
जब धारणाओं
में बंधा होता
है और शास्त्रों
में कैद होता
है,
तब वह जंजीरों
में पड़ा होता
है। उसमें
प्राण नहीं
होते और पंख
नहीं होते, जिनसे वह
आकाश में उड़
जाए। सत्य जब निर्धारणा
में उतरता है,
तब वह मुक्त
होता है। तब
उस पर कोई
जंजीरें नहीं
होतीं और कोई
दीवाल नहीं
होती, वह
किसी कारागृह
में बंद नहीं
होता, तब
खुले आकाश की
भांति होता
है। ज्ञान खुला
आकाश है, कोई
कारागृह का
आंगन नहीं।
तुम्हारे
मन में जितनी
धारणाएं हैं, सब
कारागृहों के
आंगन हैं। नाम
अलग होंगे; कोई हिंदू
का कारागृह है,
कोई
मुसलमान का, कोई ईसाई का,
कोई जैन का।
लेकिन सभी
मान्यताएं
कारागृह हैं।
और सभी
मान्यताओं के
बाहर जो आ जाए,
वही ज्ञानी
है।
ज्ञानी
के पास अपना
कोई विचार
नहीं होता। वह
तो दीए की
भांति जीता है; जो
आ जाता है, वही
दिखाई पड़ने
लगता है। और
ज्ञानी के पास
अपना कोई भाव
भी नहीं होता
कि वह किसी को
बुरा कहे और
किसी को भला
कहे। उसके मन
में न किसी की
निंदा होती है
और न किसी की
प्रशंसा होती
है। वह न तो
चोर को चोर
कहता है, न
साधु को साधु
कहता है। उसके
लिए तो
द्वंद्व का
सारा जगत मिट
गया; उसके
लिए द्वैत न
रहा, दुई न
रही। उसके लिए
तो अब एक ही
है। और वह एक
परम शुभ है।
उस एक का होना
ही एकमात्र
शुभ है, एकमात्र
मंगल है।
इसलिए
तुम ज्ञानी को
धोखा न दे
सकोगे। नहीं
कि तुम ज्ञानी
को धोखा नहीं
दे सकते, तुम
दे सकते हो।
लेकिन ज्ञानी
को तुम न दे
सकोगे, क्योंकि
ज्ञानी धोखे
को मानता ही
नहीं। वह तुम
पर भी भरोसा
करता है। तुम
उसे कितना ही
धोखा दिए जाओ,
वह बार-बार
तुम पर भरोसा
किए चला
जाएगा। उसके भरोसे
का कोई अंत
नहीं है। तुम
उसके भरोसे को
न चुका सकोगे;
तुम ही चुक
जाओगे, तुम
ही हारोगे।
ज्ञानी से
जीतने का कोई
उपाय नहीं; देर-अबेर
तुम्हें
हारना ही
पड़ेगा।
बड़ी
प्रसिद्ध कथा
है। एक झेन
फकीर नदी में
खड़ा है और एक
बिच्छू डूब
रहा है। तो
उसे उठाता है
हाथ में और
किनारे पर रख
देता है। जब
तक वह उठाता
है और किनारे
पर रखता है तब
तक वह दस-पांच
बार डंक मार
देता है। बिच्छू
का स्वभाव है; कोई
कसूर नहीं है।
इसमें कुछ न
होने जैसा भी
नहीं है, अनहोना
भी नहीं है।
बिच्छू का
स्वभाव है। वह
उसे किनारे पर
रख देता है।
बिच्छू फिर
पानी में उतर
कर तैरने लगता
है। वह उसे
फिर बचाने के
लिए किनारे पर
रखता है।
जैसा
कि तुमने देखा
होगा, पशुता
में एक तरह की
गहरी जिद्द।
पशुता जिद्दीपन
है। सभी पशु हठयोगी
हैं। तुम किसी
चींटे को हटाओ,
फिर वहीं
भागेगा जहां
से हटाया गया
है। इसमें चुनौती
हो जाती है।
तुम एक मक्खी
को उड़ाओ, वह वापस
वहीं बैठ
जाएगी जहां से
तुमने उड़ाई
थी। जब तक तुम
उसको छोड़ ही न
दोगे उसके हाल
पर, तब तक
वह चुनौती से
संघर्ष लेगी।
उसके अहंकार को
भी चोट लगती
है। तुम हो
कौन हटाने
वाले? तुमने
समझा है कि यह
नाक तुम्हारी
है जिस पर मक्खी
बैठ रही है।
मक्खी के लिए
यह केवल उड़ने
के बाद
विश्राम करने
का स्थल है।
तुम हो कौन बीच
में बाधा
डालने वाले? तुम नाक भी
काट लो तो भी
मक्खी वहीं
उतरेगी।
बिच्छू
को जैसे-जैसे
वह उठा कर
बाहर रखता, बिच्छू
वापस पानी में
दौड़ता।
एक आदमी
किनारे खड़ा था,
उसने कहा कि
तुम पागल हो
गए हो--उसका
सारा हाथ नीला
पड़ गया
है--मरने दो इस
बिच्छू को, तुम्हें
क्या पड़ी है? और वह
बिच्छू
तुम्हें काट
रहा है।
उस झेन
फकीर ने कहा, जब
बिच्छू अपना
स्वभाव नहीं
छोड़ता तो मैं
कैसे अपना
स्वभाव छोडूं?
जब बिच्छू
नहीं मानता, काटे चला
जाता है, और
वापस लौट कर आ
जाता है पानी
में, तो
मैं कैसे
मानूं? जैसे
बिच्छू का
काटना स्वभाव
है वैसे साधु
का बचाना
स्वभाव है।
मैं कुछ कर
नहीं रहा हूं,
सिर्फ मैं
अपने स्वभाव
के अनुसार
वर्तन कर रहा
हूं। बिच्छू
अपने स्वभाव
के अनुसार
वर्तन कर रहा
है। देखना यह
है कि बिच्छू
जीतता है कि साधु!
ज्ञानी
को तुम हरा न
सकोगे। हरा तो
तुम सकते थे
जब उसकी कोई
सीमा होती, कोई
पक्ष होता। वह
तो निष्पक्ष
है। उसका कोई
भाव भी नहीं
है। तुम उसकी
जेब काट सकते
हो, लेकिन
तुम उसके
भरोसे को न
डिगा सकोगे।
तुम उसे धोखा
दे सकते हो।
और ऐसा नहीं
है कि धोखा
उसे दिखाई
नहीं पड़ता।
क्योंकि वह तो
निर्मल दर्पण
की तरह है, तुम
जो भी करते हो
वह सभी दिखाई
पड़ता है। लेकिन
धोखे के पार
तुम भी उसे
दिखाई पड़ते
हो। और तुम्हारी
महिमा अनंत
है। धोखा
ना-कुछ है।
धोखे का जो
कृत्य है, उसका
कोई मूल्य
नहीं है। वह
जो तुम्हारे
भीतर छिपा है महिमावान,
उसका ही
मूल्य है।
उसका भरोसा
तुम पर है, तुम्हारे
कृत्यों पर
नहीं। तुम
क्या करते हो,
इससे कोई भी
फर्क नहीं
पड़ता
तुम्हारे
होने में। तुम
कैसे हो, कैसा
तुम्हारा
वर्तन है, आचरण
है, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता
तुम्हारी
आंतरिक प्रतिमा
में। और
ज्ञानी उस
प्रतिमा को
देख रहा है, जहां
परमात्मा का
वास है। तो
तुम्हारे
आचरण से कोई
भेद नहीं
पड़ता। उसका
अपना कोई भाव
नहीं है कि
तुम क्या करो।
वह तुम्हें
परिपूर्ण
स्वतंत्रता
देता है।
इसे
थोड़ा समझो।
अगर तुम्हारे
पास कोई भी
भाव है, धारणा
है, तो तुम
अपने
प्रियजनों को
भी कोई
स्वतंत्रता नहीं
दे सकते।
क्योंकि तुम
चाहोगे कि वे
तुम्हारे भाव
के अनुकूल
हों। और तुम
उनके हित में
ही चाहोगे कि
वे तुम्हारे
भाव के अनुकूल
हों। यह
ज्ञानी का
लक्षण न हुआ।
यह अज्ञानी का
लक्षण है।
अज्ञानी
प्रेम के
माध्यम से भी
कारागृह खड़ा करता
है। वह अपने
बच्चों को भी
चाहता है वे
ऐसे हो जाएं।
कोई उसको गलत
भी न कह
सकेगा। क्योंकि
वह बच्चों को
अच्छा ही
बनाना चाहता
है। लेकिन
अच्छे बनाने
की चेष्टा भी
बच्चों के
भीतर छिपे
परमात्मा का
अस्वीकार है।
क्योंकि अच्छे
बनाने की
चेष्टा में भी
तुम मालिक हुए
जा रहे हो।
तुमने बच्चों
की उनकी अपनी
मालकियत छीन
ली।
खलील
जिब्रान ने
कहा है, तुम
बच्चों को
प्रेम देना, लेकिन आचरण
नहीं; तुम
प्रेम देना, लेकिन अपना
ज्ञान नहीं।
तुम प्रेम
देना और तुम्हारे
प्रेम के
माध्यम से
स्वतंत्रता
देना; ताकि
वे वही हो
सकें जो होने
को पैदा हुए
हैं। तुम उनकी
नियति में
बाधा मत डालना।
लेकिन
बड़ा मुश्किल
है कि बाप
बेटे की नियति
में बाधा न
डाले; कि मां
बेटे की नियति
में बाधा न
डाले; कि
शिक्षक शिष्य
की नियति में
बाधा न डाले।
वे बाधा
डालेंगे, और
तुम्हारे हित
में ही बाधा
डालेंगे।
संत
खुला आकाश है।
वह तुम्हें
बिलकुल बाधा न
डालेगा। वह
तुम्हारे लिए
मार्ग भी दिखाएगा, तो
भी चलने का
आग्रह न
करेगा। वह खुद
ही मार्ग है--खुला
हुआ। तुम्हें
चलना हो तो
चलना; तुम्हें
न चलना हो न
चलना; तुम्हें
लौटना हो लौट
जाना। वहां
कोई आग्रह न होगा।
सत्य का आग्रह
भी न होगा।
संत निराग्रही
होगा।
तीन
तरह के लोग
हैं: असत्य-आग्रही, सत्याग्रही
और अनाग्रही।
संत उसमें
तीसरी कोटि का
है: अनाग्रही।
उसका
सत्याग्रह भी
नहीं है कि वह
अनशन करके बैठ
जाए कि अगर
तुम मेरे
अनुसार न चले
तो मैं मर जाऊंगा।
तुम्हारा
सत्य दूसरे का
सत्य नहीं हो
सकता। तुम्हारे
लिए जो सत्य
है,
वह दूसरे का
भी सत्य बन
जाए, यह
कोशिश ही
आग्रह है।
पहले तो यही
पक्का नहीं है
कि तुम्हारा
जो सत्य है, वह तुम्हारा
भी सत्य है! और
यह भी पक्का
हो जाए कि
तुम्हारा
सत्य
तुम्हारा
सत्य है, तो
भी कैसे
निर्णय लिया
जा सकता है कि
यह दूसरे का
सत्य भी होगा!
क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति की
अपनी नियति है,
अपनी
स्वतंत्रता
है, अपना
यात्रा-पथ है।
जन्मों-जन्मों
से प्रत्येक
व्यक्ति अपनी
अनूठी चाल, अपनी अनूठी
यात्रा पर
निकला हुआ है।
इन
बातों को खयाल
में ले लें; फिर
लाओत्से के ये
अदभुत वचन
समझने की
कोशिश करें।
"संत
के कोई अपने
निर्णीत मत व
भाव नहीं होते;
वे लोगों के
मत व भाव को ही
अपना मानते
हैं।'
निर्णीत
मत आमतौर से
बड़ी बहुमूल्य
बात समझी जाती
है। हम सोचते
हैं कि जिस
आदमी के
निर्णीत मत
हैं,
वह बड़ा सुदृढ़
आदमी है। और
जिस आदमी का
कोई निर्णीत
मत नहीं है, वह आदमी
संदिग्ध, संशय
में पड़ा है।
तो हम
तो बड़ा मूल्य
देते हैं
निर्णय करने
वाले लोगों
को। संशय में
पड़े लोगों को
हम अनादर देते
हैं। हम कहते
हैं,
क्या संशय
में पड़े हो, निर्णय लो!
निर्णीत होकर जीओ। जीवन
को कहां ले जा
रहे हो? दिशा
क्या है? सब
पक्का करके
चलो।
लेकिन
संत न तो
संशयी होता है
और न उसका कोई
निर्णीत मत
होता है। संत
तो बहता है
क्षण-क्षण। और
क्षण का जो
यथार्थ है, उस
यथार्थ और संत
की चेतना के
बीच जो भी घट
जाए, घटने
देता है। क्षण
के यथार्थ के
साथ जीता है।
आने वाले क्षण
का पता नहीं।
निर्णय अभी
कैसे किया जा
सकता है?
एक
हसीद फकीर के
जीवन में
उल्लेख है कि
एक सुबह वह
अपने झोपड़े
के बाहर खड़ा
हुआ और पहला
आदमी जो
रास्ते पर आया, उसने
उसे भीतर
बुलाया। और उस
आदमी से कहा
कि मेरे
प्यारे, एक
छोटा सा सवाल
है, उसका
जवाब दे दो, और फिर जाओ।
सवाल यह है कि
अगर रास्ते पर
दस कदम चलने
के बाद
तुम्हें
हजारों
स्वर्ण अशर्फियों
से भरी हुई एक
थैली मिल जाए
तो क्या तुम
उसके मालिक का
पता लगा कर
उसे वापस लौटा
दोगे? उस
आदमी ने कहा, निश्चित ही,
तत्क्षण!
जैसे ही थैली
मुझे मिलेगी
मैं आदमी का
पता लगा कर
उसे वापस लौटा
दूंगा। वह
फकीर हंसा।
उसके शिष्य जो
पास बैठे थे, उनसे उसने
कहा कि यह
आदमी मूर्ख
है।
वह
आदमी बड़ा
बेचैन हुआ; क्योंकि
उसने तो सीधी
भली बात कही
थी। और यह किस
प्रकार का
फकीर है! अब तक
उस आदमी ने भी
इस फकीर को
फकीर की तरह
समझा था और
ज्ञानी साधु
मानता था। और
यह आदमी तो
बड़ा गलत
निकला। मैं कह
रहा हूं कि
थैली वापस
लौटा दूंगा।
यही तो सभी धर्मों
का सार है कि
दूसरे की चीज
मत छीनना। और
यह आदमी कह
रहा है कि यह
आदमी मूर्ख
है।
और उस
फकीर ने उससे
कहा कि तू जा, बात
खतम हो गई। तब
वह बाहर आकर
खड़ा रहा, फिर
जब दूसरा आदमी
निकला, उसको
भीतर ले गया
और कहा, एक
सवाल है। अगर
हजारों
स्वर्ण अशर्फियों
से भरी हुई
थैली दस कदम
चलने के बाद
तुम्हें राह
पर पड़ी मिल
जाए तो क्या
तुम उसे मालिक
को खोज कर
लौटा दोगे? उसने कहा, तुमने क्या
मुझे मूर्ख
समझा? इतना
बड़ा मूर्ख
समझा? लाखों
रुपयों की
स्वर्ण अशर्फियां
मुझे मिलेंगी
और मैं लौटा
दूंगा! तुमने
मुझे समझा
क्या है? एकदम
भाग जाऊंगा
यह बस्ती भी
छोड़ कर कि
कहीं वह मालिक
पता न लगा ले।
फकीर ने अपने
शिष्यों से
कहा, यह
आदमी शैतान
है।
अब तो
शिष्य भी थोड़ी
झंझट में पड़े।
क्योंकि पहले
आदमी को कहा, मूर्ख!
अगर पहला आदमी
मूर्ख है तो
यह आदमी ज्ञानी
है। गणित तो
साफ है। और
अगर यह आदमी
शैतान है तो
पहला आदमी संत
है। गणित तो
साफ है। पहले
को कहना मूर्ख
और दूसरे को
कहना शैतान, संगति नहीं
मिलती। लेकिन
शिष्य चुप रहे;
क्योंकि
फकीर तब तक
बाहर चला गया
था।
वह
तीसरे आदमी को
पकड़ लाया। और
उससे भी यही
सवाल किया कि
लाखों रुपए के
मूल्य की अशर्फियां
मिल जाएं दस
कदम की दूरी
पर,
तुम उसके
मालिक को वापस
लौटा दोगे? उस आदमी ने
कहा, कहना
मुश्किल है।
मन का भरोसा
क्या? क्षण
का भी पक्का
नहीं है। अगर
परमात्मा की
कृपा रही तो
लौटा दूंगा।
लेकिन मन बड़ा
शैतान है, और
बड़ा उत्तेजनाएं
देगा मन कि मत लौटाओ!
मेरा सौभाग्य
और परमात्मा
की कृपा रही
तो लौटा दूंगा;
मेरा
दुर्भाग्य और
उसकी कृपा न
रही तो लेकर
भाग जाऊंगा।
पर अभी कुछ भी
कह नहीं सकता;
क्षण आए, तभी पता
चले। उस फकीर
ने अपने
शिष्यों से
कहा कि यह
आदमी सच्चा
संत है।
क्या
मतलब है?
संत का
पहला लक्षण यह
है कि वह क्षण
के साथ जीएगा।
कल के लिए
निर्णय नहीं
लिया जा सकता।
कल की कौन कहे? कल
क्या होगा, कौन जानता
है? कल हम
होंगे भी या
नहीं, यह
भी कौन जानता
है? और कल
की परिस्थिति
में क्या मौजू
पड़ेगा, इसका
निर्णय आज कौन
लेगा और कैसे
लिया जा सकता
है? कल
अज्ञात है; अज्ञात के
लिए तुम कैसे
निर्णय लोगे?
आने दो
कल। जीवन कोई
नाटक नहीं है
कि तुमने आज
रिहर्सल कर
लिया और कल नाटक
में सम्मिलित
हो गए। जीवन
में कोई भी
रिहर्सल नहीं
है। इसीलिए तो
नाटक में सफल
हो जाना आसान, जीवन
में सफल होना
बहुत मुश्किल
है। तैयारी करने
का उपाय ही
नहीं है। जीवन
जब आता है, तभी
अनजाना। जब भी
जीवन द्वार पर
दस्तक देता है,
तभी नई
तस्वीर।
पुराने से
पहचान की थी, तब तक वह बदल
जाता है। जीवन
प्रतिपल नया
है। पुराना
कभी दुहरता
नहीं। हर सूरज
नया है। और
हेराक्लाइटस
ठीक कहता है
कि एक ही नदी
में तुम
दुबारा न उतर
सकोगे। इसलिए
पहले की तैयारियां
काम न आएंगी।
जीवन में कोई
अभिनय की पूर्वत्तैयारी
नहीं हो सकती;
तुम जीवन के
लिए तैयार कभी
हो ही नहीं
सकते। यही
संतत्व का सार
है।
तब एक
ही उपाय है कि
तुम तैयारी
छोड़ ही दो।
क्योंकि
तुम्हारी
तैयारी बोझ की
तरह सिद्ध
होगी। और जीवन
सदा नया है, तैयारी
सदा पुरानी
है। तुम कभी
मिल ही न
पाओगे। जीवन
और तुम्हारा
मिलन न हो
पाएगा। ऐसे ही
तो तुम वंचित
हुए हो; ऐसे
ही तो तुमने
गंवाया है; तैयार
हो-होकर तो
तुमने खोया
है।
बिना
तैयारी के, अनप्रिपेयर्ड,
यही
श्रद्धा है
संत की कि वह
बिना तैयार
हुए क्षण को
स्वीकार
करेगा। और जो
भी उसकी चेतना
में उस क्षण
प्रतिफलित
होगा उसके
अनुसार आचरण
करेगा। लेकिन
आचरण सद्यःस्नात
होगा, नया
होगा, ताजा
होगा। आचरण
बासा नहीं
होगा।
कल के
निर्णय से जो
पैदा हुआ है, वह
बासा है। तुम
बासा भोजन भी
नहीं करते, लेकिन बासा
जीवन जीते हो।
तुम कल की
रोटी आज नहीं
खाते, लेकिन
कल का निर्णय
आज जीते हो।
तुम्हारा
सारा जीवन
इसीलिए तो
बासा-बासा हो
गया है। उससे
दुर्गंध उठती
है; उससे
सुगंध नहीं
उठती नए फूलों
की। उससे सड़ांध
उठती है कूड़े-कर्कट
की; लेकिन
जीवन की नई
प्रभात और नई
किरणें वहां
दिखाई नहीं पड़तीं।
तुम्हारे
जीवन पर धूल
जम गई है।
क्योंकि न मालूम
कब के लिए
निर्णय तुम अब
पूरे कर रहे
हो। वह समय जा
चुका, वह
नदी बह चुकी, जब तुमने
निर्णय लिए
थे। वे घाट न
रहे, वे
लोग न रहे, तुम
भी वही नहीं
हो। और उन
निर्णयों को
तुम पूरा कर
रहे हो! तुम कब
तक बासे-बासे
जीओगे?
संत
ताजा जीता है।
ताजा होने का
एक ही अर्थ है: बिना
तैयारी के
जीना।
लेकिन
तुम तैयारी
क्यों करते हो? तैयारी
तुम इसलिए
करते हो कि
तुम्हें अपने
पर भरोसा नहीं
है। तैयारी
तभी करता है
कोई आदमी, जब
भरोसा न हो।
तुम इंटरव्यू
देने जा रहे
हो एक दफ्तर
में नौकरी का।
तुम बिलकुल
तैयार होकर जाते
हो कि क्या
तुम पूछोगे, क्या मैं
जवाब दूंगा।
अगर तुमने यह
पूछा तो मैं
यह जवाब
दूंगा। तुम
बिलकुल तैयार
होकर जा रहे
हो। क्योंकि
तुम्हें अपने
पर कोई भरोसा
नहीं है। तुम
तो मौजूद
रहोगे, तैयारी
क्या कर रहे
हो? जब जो
भी पूछा जाएगा,
तुम्हारी
मौजूदगी से
निकले, वही
उत्तर। लेकिन
नहीं, तुम
तैयार होकर जा
रहे हो।
तुम्हारी
तैयारी
तुम्हें मुश्किल
में डाल दे
सकती है।
लेकिन
शायद
इंटरव्यू में
तुम सफल भी हो
जाओ तैयारी से; क्योंकि
तुम भी बासे
हो और लेने
वाले भी बासे
हैं। लेकिन
जीवन की जो
चुनौती है वह
ताजे परमात्मा
की तरफ से है; वहां बासे
उत्तर कभी
स्वीकार नहीं
किए जाते। तुम
कर लो गीता
कंठस्थ, तुम
कर लो कुरान
याद, वेद
तुम्हारी
जिह्वा पर आ
जाएं; लेकिन
परमात्मा
तुमसे वे
प्रश्न नहीं
पूछेगा जिनके
उत्तर वेद में
हैं। वह कभी
दुहराता ही
नहीं पुराने
प्रश्न।
जीवन
रोज नया होता
जाता है। उस
नई परिस्थिति
में तुम्हारे
पुराने
प्रश्न बाधा
बनते हैं। तुम
परिस्थिति को
भी नहीं देख
पाते; क्योंकि
तुम अपनी
धारणा से अंधे
होते हो। धारणा
के कारण बड़ी
भ्रांतियां
पैदा होती
हैं।
एक
मनोवैज्ञानिक
ने एक छोटा सा
प्रयोग
किया--धारणाओं
से कैसे
भ्रांतियां
पैदा होती
हैं। काशी के
विश्वनाथ
मंदिर में वह
गया और शंकर
की प्रतिमा के
पास,
शिवलिंग के
पास, उसने
अपना हैट उतार
कर रख दिया।
दरवाजे पर जाकर
उसने एक आदमी,
जो अजनबी
आदमी अंदर आ
रहा था, उसने
कहा, रुको,
यह शंकर की
प्रतिमा के
पास क्या रखा
हुआ है तुम
बता सकते हो? अब कोई भी
नहीं कल्पना
कर सकता कि
शंकर की प्रतिमा
के पास और हैट
होगा! उस आदमी
ने गौर से देखा
और उसने कहा, किसी ने
घंटा उतार कर
रख दिया है।
शंकर
की प्रतिमा के
पास घंटा की
तो संगति है, हैट
की बिलकुल
नहीं। शंकर जी
हैट लगाए नहीं
कभी। तो तुम
सोच भी नहीं
सकते, तुम्हारी
धारणा प्रवेश
नहीं कर पाती।
रात अंधेरे
में तुम
निकलते हो और
तुम्हें
भूत-प्रेत दिखाई
पड़ने शुरू हो
जाते हैं। ये
तुम्हारी धारणाओं
के हैं। लकड़ी
का खूंट
खड़ा है और
तुम्हें भूत
दिखाई पड़ता
है। और तुम उसमें
सब हाथ-पैर
वगैरह जोड़
लेते हो।
धीरे-धीरे आंख
की प्रतिमा भी
निकल आती है, चेहरा
भी दिखाई पड़ने
लगता है। तुम
अपनी धारणा से
खड़ा कर रहे
हो।
तुम
मरघट से निकल
सकते हो रोज, अगर
तुम्हें पता न
हो कि यह मरघट
है। बस एक दफे पता
चल गया कि फिर
भूत-प्रेत
मिलेंगे।
पहले नहीं
मिले; पहले
तुम वहीं से
निकलते थे।
क्योंकि
धारणा न थी।
अब धारणा रूप
खड़ा करती है।
तुम जो देखते
हो, ध्यान
रखना, जरूरी
नहीं है कि
वही हो--जो तुम
देख रहे हो, वह हो भी
वहां। तुम वही
देख लेते हो
जो तुम्हारी
धारणा में
बैठा है। तुम
वही सुन लेते
हो जो तुम्हारी
धारणा में
बैठा है।
और जब
तुम बहुत
तैयार होकर
जीवन के पास
जाते हो तो
तुम्हारे
भीतर संध भी
नहीं होती
जिससे जीवन
प्रवेश कर
जाए।
तुम्हारी
तैयारी सख्त
पत्थर की
दीवार की तरह
खड़ी होती है।
जीवन कुछ
पूछता है, तुम
कुछ और कहते
हो। जीवन कुछ
मांगता है, तुम कुछ और
देते हो। तुम
मिल नहीं
पाते। इसीलिए
तो तुम बेचैन
हो। क्या है
संताप मनुष्य
का? यही कि
वह जीवित है
और जीवित नहीं;
यही कि वह
जीवित होते
हुए भी
मरा-मरा जी
रहा है। उसका
जीवन एक
यथार्थ नहीं
है, बल्कि
एक स्वप्न है।
इस स्वप्न को
ही हमने माया
कहा है।
संसार
तो सत्य है; लेकिन
जिस संसार को
तुम देख रहे
हो, वह
सत्य नहीं है।
तुम्हारा
देखा हुआ
संसार तुम्हारी
धारणा से
बनाया हुआ
संसार है, तुम्हारी
कल्पना से भरा
हुआ संसार है।
तुम अपने जीवन
में खोजने की
कोशिश करना; कई बार तुम
अपने ही कारण,
अपनी ही
धारणा के कारण
कुछ का कुछ
समझ लेते हो।
एक
हसीद फकीर हुआ, झुसिया।
वह एक गांव से
गुजर रहा था।
उसके दो शिष्य
साथ थे। अचानक
एक औरत दौड़ कर
आई और लकड़ी से
उसने झुसिया
पर प्रहार
किया। झुसिया
गिर पड़ा। और
वह लकड़ी और
उठा कर मारने
ही वाली थी कि
शिष्यों ने
कहा, यह
क्या करती हो?
तो वह
स्त्री भी
चौंकी। उसने
गौर से देखा, सिर से लहू बह
रहा है। उस
स्त्री का पति
बीस साल पहले
भाग गया था।
यह झुसिया
उसके पति जैसा
लगता था। देख
कर उसने होश
खो दिया, क्रोध
आ गया। झुसिया
उठ कर खड़ा हुआ,
लहू पोंछा।
वह स्त्री
माफी मांगने
लगी, पैर
पर सिर रखने
लगी। उसने कहा
कि रुक, तूने
मुझ पर चोट ही
नहीं की, तूने
अपने पति पर
चोट की। कभी
मिल जाए तो
माफी मांग लेना।
मुझसे माफी मत
मांग! मैं
माफी देने
वाला कौन? तूने
मुझे चोट ही
नहीं की, तूने
अपने पति को
चोट की। कभी
मिल जाए, माफी
मांग लेना।
मुझसे तेरा
कुछ लेना-देना
ही नहीं है।
जिंदगी
में कितनी बार
तुम किसी और
पर चोट करते हो, जो
चोट किसी और
पर करना चाही
थी। पत्नी पर
नाराज थे, बेटे
पर क्रोध
निकाल लेते
हो। दफ्तर में
गुस्सा हुए थे,
पत्नी पर
टूट पड़ते हो।
और तुम्हें
कभी खयाल भी
नहीं होता, तुम क्या कर
रहे हो? क्योंकि
बासे ढंग
से जीना
तुम्हारी आदत
हो गई है। तुम
सदा भरे-भरे
हो। और वह भरा
हुआ पन
तुम्हारा न
तुम्हें
पहचानने देता,
न देखने
देता कि जीवन
की मांग क्या
है। और जीवन
प्रतिपल नया
मांगता है।
क्योंकि नए
मांग से ही वह
तुम्हें नया
करता है। जीवन
तुम्हें युवा
रखता है।
तैयारी
तुम्हें बूढ़ा
कर देती है।
तैयारी
से बचना, अगर
संतत्व की तरफ
जाना हो।
संतत्व का कोई
रिहर्सल नहीं
है। और एक बात
दुबारा नहीं दुहरती।
इसलिए तैयारी
का कोई उपाय
नहीं है। हर
घड़ी बस एक बार
घटती है और खो
जाती है।
तुम
सभी
बुद्धिमान हो!
जब घड़ी निकल
जाती है तब तुम
सोचते हो कि
क्या करना था।
तुम्हारी
बुद्धि जरा
देर से आती
है। किसी आदमी
ने कुछ कहा, तुमने
कुछ उत्तर
दिया; घड़ी
भर बाद
तुम्हें याद
आता है कि अगर
यह उत्तर दिया
होता तो ठीक
होता।
बुद्धिमान का
लक्षण ही यही
है कि उसे
उत्तर उस क्षण
में आए जब
उत्तर की
जरूरत है।
अन्यथा तो
बुद्धू भी बड़े
ऊंचे उत्तर
खोज लेते हैं।
प्रतिभा का एक
ही लक्षण है
कि वह पछताती
नहीं। अगर तुम
पछताते हो तो
प्रतिभा नहीं
है। और पछतावा
क्यों पैदा होता
है। और
प्रतिभा
क्यों नहीं
जन्मती?
प्रतिभा
तो हर व्यक्ति
लेकर पैदा
होता है, लेकिन
तैयारी की धूल
जम जाती है।
तुम तैयारी के
भीतर से देखते
रहते हो। वहीं
तुम चूकते हो।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
के गांव में
सम्राट का
आगमन हुआ। वह
गांव का सबसे
बड़ा बूढ़ा था।
तो गांव के
लोगों ने कहा
कि तुम्हीं
हमारे
प्रतिनिधि
हो। और गांव
के लोग डरे भी
थे,
गैर पढ़े-लिखे
थे। मुल्ला
अकेला लिख-पढ़
सकता था। तो
तुम्हीं
सम्हालो!
सम्राट
के पहले वजीर
आए। क्योंकि
गांव गंवारों
का था और पता
नहीं वे कैसा
स्वागत करें, तो
उन्होंने सब
तैयारी करवा
दी। मुल्ला को
कहा कि देखो, कुछ अनर्गल
मत बोल देना, क्योंकि यह
सम्राट का
मामला है।
छोटी सी बात में
गर्दन चली
जाए। और तुम
जरा कुछ बक्कार
हो, कुछ भी
बोलते रहते
हो। यहां जरा
खयाल रख कर
बोलना। एक-एक
शब्द की कीमत
चुकानी
पड़ेगी। तो
बेहतर यह है
कि तुम तैयारी
कर लो। और हम
सम्राट को कह
रखेंगे कि वह
तुमसे वही पूछे
प्रश्न जो
तुमने तैयार
किए हैं। तो
पहले वह तुमसे
पूछेगा, तुम्हारी
उम्र कितनी? तो तुम बता
देना कि सत्तर
साल। फिर वह
पूछेगा कि तुम
इस गांव में
कितने समय से
रहते? तो
तुम तीस साल
से रहते तो कह
देना तीस साल।
ऐसे पांच-सात
प्रश्न तैयार
करवा दिए और
कहा कि ठीक
याद रखना! जरा
भी भूल-चूक न
हो।
मुल्ला
ने कंठस्थ कर
लिए,
मुल्ला
बिलकुल तैयार
था।
सम्राट
आया। सम्राट
ने पूछा कि इस
गांव में कब से
रहते हो? मुल्ला
मुश्किल में
पड़ा; क्योंकि
पहले सम्राट
को पूछना
चाहिए था, तुम्हारी
उम्र कितनी है?
और वह पूछ
रहा है, इस
गांव में
कितने दिन से
रहते हो? तो
मुल्ला ने कहा,
सम्राट
गलती करे तो
करे, अपन
क्यों गलती
करें! उसने
कहा, सत्तर
साल। सम्राट
जरा चौंका। तो
उसने कहा, और
तुम्हारी
उम्र कितनी है?
मुल्ला ने
कहा, तीस
साल। सम्राट
ने कहा, तुम
होश में हो या
पागल! मुल्ला
ने कहा, हद्द
हो गई। उलटे
सवाल तुम पूछ
रहे हो; सीधे
जवाब हम दे
रहे हैं। और
होश में हम
हैं कि तुम? और पागल तुम
कि हम? हम
बिलकुल ठीक
वही जवाब दे
रहे हैं, जो
तैयार किए गए
हैं।
एक बार
एक आदमी ने विंसटन
चर्चिल को बड़ी
मुश्किल में
डाल दिया। वह
मुल्ला नसरुद्दीन
जैसा ही आदमी
रहा होगा।
राजनीतिज्ञ
अक्सर यह तरकीब
करते हैं कि
भीड़ में
अपने-अपने
आदमी छिपा
रखते हैं, जो
वक्त पर ताली
बजाते हैं, इशारे पर
खड़े होकर
प्रश्न पूछते
हैं--वही
प्रश्न जो
राजनीतिज्ञ
जवाब दे सकता
है। और भीड़ पर
प्रभाव पड़ता
है इसका कि देखो,
सब जवाब
साफ-साफ दे
दिए। तो विंसटन
चर्चिल लड़ रहा
था एक चुनाव।
एक आदमी खड़ा
हुआ, उसने
बड़ा कठिन सवाल
पूछा कि विंसटन
चर्चिल ने भी
पसीना पोंछा।
मगर जवाब ऐसा
दिया कि वाह-वाह
हो गई। तब एक
दूसरा आदमी
खड़ा हुआ। उसने
और भी कठिन
सवाल पूछा कि विंसटन के
पैर कंप जाएं।
भीड़ सांस रोक
कर सुनने लगी।
विंसटन
ने उसे भी ऐसा
जवाब दिया कि
मुंह की खाकर
रह गया। तब
तीसरा आदमी
खड़ा हुआ। खड़े
होकर उसने कोट
के खीसे में
हाथ डाला, फिर
पैंट के खीसे
में हाथ डाला,
फिर इधर
देखा, उधर
देखा, और
कहा कि
महानुभाव, आपने
जो प्रश्न
पूछने को कहा
था, वह चिट
कहीं खो गई।
कहते
हैं,
विंसटन चर्चिल ऐसी
मात कभी नहीं
खाया। अब उसको
कुछ न सूझा
कि अब क्या
कहे। वे अपने
ही आदमी थे, तैयार थे।
नाटक
तो तैयारी से
चल सकता है, जिंदगी
नहीं चल सकती।
नेता तैयारी
से चल सकते
हैं, संत
नहीं चल सकता।
क्योंकि नेता
उधार हैं। तुम्हारे
नेता हैं, तुम
जैसे ही हैं; तुमसे भी
गए-बीते हैं, तभी
तुम्हारे
नेता हैं।
चोरों का नेता
होना हो तो
बड़ा चोर होना
जरूरी है।
बेईमानों का
नेता होना हो
तो बड़ा बेईमान
होना जरूरी
है। और तुम
बड़े हैरान हो,
तुम हमेशा
कहते हो कि
नेता बेईमान
क्यों हैं? तुम्हारे
नेता नहीं हो
सकते, अगर
बेईमान न हों।
अगर चोर न हों
तो तुम्हारे नेता
नहीं हो सकते।
और फिर तुम
शिकायत करते
हो कि चोर
क्यों हैं? झूठे क्यों
हैं? झूठे
न हों तो
तुम्हारा
नेता होना कौन
चाहेगा? राजनीति
नाटक है झूठ
का, धर्म
नहीं।
लाओत्से कहता
है, "संत के
अपने कोई
निर्णीत मत और
भाव नहीं
होते।'
वह
खाली जीता है
एक शून्य की
भांति। न कोई
भाव है, न कोई
निर्णय है।
क्षण जहां खड़ा
कर देता है, जैसा खड़ा कर
देता है, जो
उत्तर निकाल
लेता है, वही
उत्तर है, वही
उसका
प्रति-उत्तर
है। वही उसका
प्रतिसंवेदन
है। पूर्व कोई
तैयारी नहीं
है। इसलिए संत
कभी पछताता
नहीं है।
क्योंकि कोई
उत्तर उसने तय
ही न किया था, जिसके आधार
पर वह सोच सके
कि यह गलत हुआ
कि सही हुआ।
वह कभी नहीं
पछताता।
क्योंकि जब
क्षण निकल गया
तब उस क्षण के
संबंध में
सोचता ही
नहीं।
क्योंकि तब
दूसरा क्षण आ
गया; फुरसत
किसे है?
तुम्हें
पीछे के संबंध
में सोचने की
फुरसत है, तुम्हें
आगे के संबंध
में सोचने की
फुरसत है, संत
को नहीं। संत
के लिए
वर्तमान इतना प्रगाढ़ है,
संत के लिए
वर्तमान इतना
गहरा है कि
समय कहां है
कि पीछे लौट
कर देखे? समय
कहां है कि
आगे लौट कर
देखे?
यहूदी
फकीर बालसेम
से किसी ने
पूछा कि मैं
वर्षों से
साधना कर रहा
हूं और मैंने
अपनी जवानी
में सुना था
कि अगर तुम
सम्मान का
तिरस्कार करो
और अगर तुम
लौट-लौट कर
फिक्र न करो
कि सम्मान मिल
रहा है कि नहीं, तो
तुम्हें जरूर
सम्मान
मिलेगा, और
अतिशय से
मिलेगा। आदर
मत चाहो और
आदर मिलेगा।
पूजा मत चाहो
और पूजा
मिलेगी।
लेकिन अब मुझे
चालीस साल हो
गए तपश्चर्या
करते-करते, अभी तक वह
घटना घटी
नहीं। अब तो
मुझे उस कहावत
पर भरोसा उठने
लगा है।
बालसेम ने
क्या कहा? बालसेम ने
कहा, कहावत
तो वैसी की
वैसी सही है।
तुम उसे पूरा
नहीं कर पाए; तुम पीछे
लौट-लौट कर
देख रहे हो कि
सम्मान आ रहा
कि नहीं? तुम
सम्मान पाने
के लिए ही
सम्मान का
तिरस्कार कर
रहे हो। यह
तिरस्कार
झूठा है। और
यह तैयारी--यह
तैयारी
ही--बाधा बन
रही है। तुम
फिक्र छोड़ो।
आता है या
नहीं आता, क्या
लेना-देना है?
तब आता है।
लेकिन अगर तुम
इसीलिए छोड़
रहे हो कि आए, तो तुम छोड़
ही नहीं रहे
हो। और तुम
लौट-लौट कर पीछे
देखते रहोगे
कि अभी तक, अभी
तक नहीं आया, अभी तक
सम्मान नहीं
मिला, अभी
तक दुनिया में
पूजा शुरू
नहीं हुई और
मैंने पूजा की
फिक्र छोड़ रखी
है तीस वर्षों
से, चालीस
वर्षों से। यह
देखना ही
बताता है कि
फिक्र छोड़ी
नहीं।
तुम
पीछे लौट कर
देखते हो; क्योंकि
पछतावा है हाथ
में। तुम आगे
देखते हो; क्योंकि
जो भूल पीछे
हो गई, आगे
न हो। इसलिए
आगे का इंतजाम
करते हो। और
इंतजाम के
कारण ही भूल पीछे
हो गई। अतीत
तुमने गंवाया,
क्योंकि
तुम तैयार थे।
भविष्य भी तुम
गंवाने की
तैयारी कर रहे
हो, क्योंकि
तुम फिर तैयार
हो रहे हो।
संत के
लिए न तो कोई
अतीत है, न कोई
भविष्य है।
संत के लिए
यही क्षण बस, यही क्षण
पर्याप्त।
यही क्षण
एकमात्र क्षण
है। यही क्षण
पूरा समय है।
इस क्षण के न
आगे कुछ है, न पीछे कुछ
है। और यह
इतना प्रगाढ़
है कि समय
किसको है? और
यह इतना
आनंदपूर्ण है
कि कौन लौट कर
पीछे देखे? और यह इतना
गहन है कि कौन
आगे जाए? और
यह इतना
रसपूर्ण है कि
जैसे भंवरा
बंद हो जाता
है कमल में, ऐसा संत
क्षण में बंद
हो जाता है, क्षण में
डूब जाता है।
क्षण के पार
कुछ भी नहीं
बचता। क्षण ही
शाश्वतता है।
संत के
न कोई अपने
निर्णय हैं, न
कोई भाव। वह
तो दर्पण की
भांति है। वह
तो वही प्रकट
कर देता है जो
लोगों के भाव
हैं और जो लोगों
के निर्णय
हैं।
जब तुम
संत के पास
जाते हो तो वह तुम्हें
प्रकट कर देता
है। तुम यह मत
सोचना कि वह
अपनी धारणाएं
तुमसे कह रहा
है;
तुम यह मत
सोचना कि वह
अपने भाव
तुम्हें दे रहा
है। जब भी तुम
संत के पास
जाओ, याद
रखना कि संत
दर्पण है, वह
तुम्हारे
चेहरे को ही
तुम्हें दिखा
देता है। हां,
अगर पंडित
के पास तुम
जाओगे तो वह
तुम्हें अपनी
धारणाएं देगा,
अपने विचार
देगा, ज्ञान
देगा। संत के
पास तुम जाओगे
तो वह तुम्हें
तुम्हारे
सामने प्रकट
कर देगा। वह
माध्यम हो
जाएगा
तुम्हें
आमने-सामने
करने का, अपने
ही आमने-सामने
होने का मौका
देगा।
मेरे
पास लोग आते
हैं। कोई आदमी
आकर कहता है
कि मैं संसार
नहीं छोड़
सकता। उसे मैं
देखता हूं तो
मैं उससे कहता
हूं,
छोड़ने की
कोई जरूरत ही
नहीं। शायद यह
आदमी लोगों से
जाकर कहेगा कि
मैं संसार
छोड़ने के
खिलाफ हूं।
मैं केवल उसकी
ही तस्वीर बता
रहा था और मैं
कोशिश कर रहा
था कि उसकी ही
तस्वीर वह
पहचान ले। क्योंकि
उसी पहचान से
वह पार जाएगा,
आगे बढ़ेगा,
विकास
होगा। अपने
पार जाना ही
तो परमात्मा
से मिलना है।
तो उससे मैं
यह कह रहा था, तू व्यर्थ
परेशान मत हो;
ठीक है, संसार
छोड़ने की क्या
जरूरत है!
संसार में ही
रह, ध्यान
वहीं साधा जा
सकता है।
फिर
कोई मेरे पास
आता है, वह
कहता है, मैं
संसार छोड़
चुका, मैं
संन्यासी हूं,
और आप क्या
लोगों को
समझाते हैं कि
संसार में रहने
से ही ज्ञान
मिलेगा? उससे
मैं कहता हूं,
कोई जरूरत
नहीं संसार
में होने की।
परम सौभाग्य
है तेरा कि
संसार छूट
गया। अब तू
लौट-लौट कर मत
देख; अब जो
छूट ही चुका
छूट ही चुका।
अब परम आनंदित
हो और इस क्षण
का उपयोग कर।
वह
लोगों से जाकर
कहेगा कि मैं
साथ देता हूं, सलाह
देता हूं, छोड़
दो सब!
मैंने
कुछ भी नहीं
किया; मैंने
कोई सलाह नहीं
दी किसी को।
मैंने केवल उसको
ही दर्पण
बताया।
और तुम
जहां हो वहीं
से तो पार
होना है। तुम
जहां हो वहीं
से तो यात्रा
करनी है।
संसारी
संन्यासी
नहीं हो सकता
आज। जो हो ही
नहीं सकता, उसकी
बात क्या करनी?
संन्यासी
जो हो ही चुका
है, अब
गृहस्थ होने
का और उपद्रव
उसके सिर पर
क्यों डालना?
मेरी कोई
धारणा नहीं
है। तुम जहां
हो, वहीं
से तुम्हें
कैसे पार जाने
का मार्ग मिल
जाए। वह भी
तुम्हारे साथ
जबरदस्ती करूं
कि तुम्हें उस
मार्ग पर जाना
ही चाहिए तो हिंसा
हो जाएगी। वह
भी तुम्हारी
मर्जी है। मार्ग
खोल देना, मार्ग
साफ कर देना।
फिर तुम्हारी
मौज है! तुम चलो
तो ठीक, न
चलो तो ठीक!
लोग
मेरे पास आते
हैं,
वे कहते हैं,
आप अपने संन्यासियों
को अनुशासन
क्यों नहीं
देते कि इतने
बजे उठो, इतने
बजे सोओ, यह
खाओ, यह
करो, यह मत
करो!
मैं
कौन हूं किसी
को अनुशासन
देने वाला? उनके
जीवन में
ध्यान की
ज्योति आ जाए,
वही उनका
अनुशासन
बनेगी। उस
ध्यान की
ज्योति से ही
वे चलेंगे; जो उन्हें
ठीक होगा, वह
करेंगे। और जो
एक के लिए ठीक
है, वह
दूसरे के लिए
ठीक नहीं है।
और जो एक के
लिए मार्ग है,
वही दूसरे
के लिए
कुमार्ग हो
जाता है। जो
एक के लिए
औषधि है, वही
दूसरे के लिए
जहर हो जाता
है। जो एक के
लिए पथ्य है, वही दूसरे
के लिए मौत हो
सकती है।
इसलिए मैं कौन
हूं अनुशासन
देने वाला? और जो भी
अनुशासन ऊपर
से दिए जाते
हैं, वे
कारागृह बन
जाते हैं।
अनुशासन आना
चाहिए तुम्हारे
भीतर से, तुम्हारे
बोध से, तुम्हारी
समझ से, तुम्हारी
प्रज्ञा से।
तो मैं
तुम्हें
प्रज्ञा की
तरफ इशारा दे
सकता हूं, लेकिन
अनुशासन
नहीं।
संत एक
दर्पण है। और
जब तुम संत के
पास जाओ तो
बहुत सम्हल कर
जाना।
क्योंकि वह
तुम्हीं को
बताएगा, और
तुम समझोगे कि
यह उसकी धारणा
है। वह तुम्हीं
को प्रकट कर
देगा। वह
तुम्हीं को
तुम्हारे सामने
रख देगा कि यह
रहे तुम!
सुलझा लो, उलझा
लो; जो
तुम्हें करना
हो। लेकिन वह
तुम्हें खोल
कर रख देगा।
अगर तुम
समझदार
हो--थोड़े भी
समझदार हो--तो
तुम उस सुलझाव
से बड़े कीमती
सूत्र पा लोगे;
तुम्हारा
पूरा पथ खुल
जाएगा। अगर
तुम बिलकुल ही
बुद्धिहीन हो
तो तुम संत के
पास जाकर और
भी उपद्रव
होकर लौटोगे।
क्योंकि जो
उसने बताया था
दर्पण की तरह,
उसे तुम
आदेश समझोगे।
जैन
शास्त्रों
में एक बड़ी
अदभुत बात है।
वे कहते हैं, तीर्थंकर
उपदेश देते
हैं, आदेश
नहीं। उपदेश
और आदेश का
यही फर्क है।
उपदेश का मतलब
यह है: कह दिया,
मानना हो
मानो; न
मानना हो न
मानो; बता
दिया, चलना
हो चलो; न
चलना हो न
चलो। आदेश का
मतलब है: चलना
पड़ेगा। पूछा
ही क्यों था
अगर नहीं चलना
था? आदेश
का अर्थ है: लो
कसम, व्रत
लो! उपदेश का
अर्थ है: जो
मेरे भीतर
झलका तुम्हें
देख कर, वह
कह दिया; इसको
तुम जीवन का
बंधन मत बना
लेना। इस पर
चल सको, चलना;
न चल सको, फिक्र मत
करना, चिंता
मत बना लेना।
यह तुम्हारे
ऊपर बोझ न हो जाए।
सब आदेश बोझ
हो जाते हैं; क्योंकि
आदेश पत्थर की
तरह हैं।
उपदेश फूलों की
तरह हैं, वे
बोझ नहीं
होते।
नानक
एक गांव में
आकर ठहरे। तो
गांव बड़े फकीरों
का गांव था, बड़े
संत थे वहां; सूफियों की
बस्ती थी। तो
सूफियों का जो
प्रधान था
उसने एक कटोरे
में दूध भर कर
भेजा। कटोरा
पूरा भरा था।
नानक बैठे थे
गांव के बाहर
एक कुएं के
पाट पर।
मरदाना और
बाला गीत गा
रहे थे। नानक
सुबह के ध्यान
में थे। कटोरा
भर कर दूध आया
तो बाला और
मरदाना ने
समझा कि फकीर
ने स्वागत के
लिए दूध भेजा
है--सुबह के
नाश्ते के
लिए।
लेकिन
नानक ने पास
की झाड़ी से एक
फूल तोड़ा, दूध
के कटोरे में
रख दिया। दूध
तो एक बूंद भी
नहीं समा सकता
था उस कटोरे
में, वह
पूरा भरा था; लेकिन फूल
ऊपर तिर
गया। छोटा सा
फूल झाड़ी का, जंगली झाड़ी
का फूल, ऊपर
तिर गया।
कहा, कटोरा
वापस ले जाओ।
मरदाना और
बाला ने कहा, यह आपने
क्या किया? यह तो
नाश्ते के लिए
दूध आया था।
और हम कुछ
समझे नहीं।
उन्होंने कहा,
रुको, सांझ
तक समझोगे।
क्योंकि
सांझ को वह
फकीर नानक के
चरणों में आ गया।
उसने चरण छुए
और कहा कि
स्वागत है
आपका! तब
मरदाना और
बाला, नानक के
शिष्य कहने
लगे, हमें
अब अर्थ खोल
कर कहें! तो
नानक ने कहा, इस फकीर ने
भेजा था दूध
का कटोरा पूरा
भर कर कि अब
यहां और फकीरों
की जरूरत नहीं
है, बस्ती
पूरी भरी है।
यहां वैसे ही
काफी गुरु हैं;
और गुरु की
कोई जरूरत
नहीं है।
शिष्यों की
तलाश है, गुरु
तो ज्यादा
हैं। और अब आप
और आ गए, इससे
और उपद्रव
होगा, कुछ
सार नहीं होने
वाला। आप कहीं
और जाएं। तो
मैंने फूल रख कर
उस पर भेज
दिया कि मैं
तो एक फूल की
भांति हूं, कोई जगह न भरूंगा,
तुम्हारी
कटोरी पर तिर
जाऊंगा।
आदेश
पत्थर की
भांति है; उपदेश
फूल की भांति
है। उपदेश जब
तुम्हें कोई संत
देता है तो वह
तुम्हें भरता
नहीं, तुम्हारे
ऊपर फूल की
तरह तिर
जाता है। उसकी
सुगंध का
अनुसरण तुम कर
सको तो तुम्हारा
जीवन भी वैसा
फूल जैसा हो
जाएगा। न कर
सको तो संत
तुम्हारे ऊपर
बोझ नहीं है।
आदेश बोझ है।
आदेश! मिलिटरी
में देना तो
ठीक है आदेश; क्योंकि
वहां अंधों की
कतार खड़ी करनी
है, वहां बुद्धिहीनों
की जमात बनानी
है। इसलिए
जनरल आदेश दे,
वह तो समझ
में आता है; संत आदेश दे,
वह बिलकुल
समझ में नहीं
आता। संत कोई
सैनिक खड़े
नहीं कर रहा
है। सैनिक और
संत बिलकुल
विपरीत हैं।
सैनिक को आदेश
देना पड़ता है।
और अगर तुम्हें
भी संतत्व की
तरफ ले जाना
हो, उपदेश
काफी है।
वे
लोगों के मत व
भाव को सिर्फ
झलका देते
हैं।
कहता
है लाओत्से, "सज्जन
को मैं शुभ
करार देता हूं,
दुर्जन को
भी शुभ करार
देता हूं; सदगुण
की यही शोभा
है।'
शैतान
कौन है? शैतान
वह है जो अशुभ
को तो शुभ
कहता है, बुरे
को ठीक कहता
है, रात को
दिन कहता है, शुभ को अशुभ कहता
है, दिन को
रात बताता है,
फूल को
कांटा समझाता
है। वह शैतान
है।
साधारणजन
कौन है? साधारणजन
जो शैतान और
संत के बीच
में है। वह शुभ
को शुभ कहता
है, अशुभ
को अशुभ कहता
है, दिन को
दिन, रात
को रात।
संत
कौन है? संत
शुभ को तो शुभ
कहता ही है, अशुभ को भी
शुभ कहता है।
दिन को तो दिन
कहता ही है, रात को भी
दिन कहता है।
फूल को तो फूल
कहता ही है, कांटे को भी
फूल कहता है।
क्यों? क्योंकि
संतत्व की
घटना जैसे ही
घटी, अशुभ
दिखाई पड़ना
बंद हो जाता
है। कहना नहीं
पड़ता, दिखता
ही नहीं।
जिसने फूल को
देख लिया, उसे
कांटा दिखेगा?
इस गणित को
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है। और
जिसने कांटे
को देख लिया
और कांटे में चुभ गया, उसे फूल
दिखाई पड़ेगा?
कभी
तुमने देखा है
कि गुलाब की
झाड़ी में गए
और कांटा चुभ
गया और खून
निकलने लगा, दर्द
होने लगा; फिर
फूल दिखाई
पड़ेगा? फिर
फूल दिखाई ही
नहीं पड़ता।
फिर तुम क्रोध
से भरे आते
हो। और अगर
तुम्हारी
जिंदगी भर ऐसे
ही कांटों को
चुनने में बीत
गई हो तो तुम
कहने लगोगे कि
फूल सब झूठे
हैं, दूर
के सपने हैं, दूर के ढोल
सुहावने हैं;
पास जाओ, कांटे मिलते
हैं; फूल
सब दूर के
दिखाई पड़ते
हैं, हैं
नहीं; मृग-मरीचिका
है। और जिसने
कांटे ही
कांटे को जाना,
धीरे-धीरे
फूल झूठा हो
जाता है, धूमिल
हो जाता है।
भरोसा ही नहीं
आता कि कांटों
भरी दुनिया
में फूल हो
कैसे सकता है?
यही
तुम्हारे साथ
हुआ है। तुमने
दुर्जन गिने हैं, बुरे
को जाना है, अशुभ को
पहचाना है, चोर, बेईमान,
लुटेरे, सबको
तुम जानते हो,
उनसे
तुम्हारा
गहरा परिचय है;
इसलिए
तुम्हें
भरोसा ही नहीं
आता कि संत हो
भी सकता है।
संत को भी तुम
देखते हो तो
वैसे ही देखते
हो कि होगा
कोई चोर, बस
देर-अबेर की
बात है, पता
चल जाएगा।
दूसरे चोर पकड़
गए, यह अभी
तक पकड़ा नहीं
गया, बस
इतना ही फर्क
है। और ज्यादा
फर्क हो नहीं
सकता। संत के
पास भी जाते
हो तो तुम अपनी
जेब पकड़े
रखते हो कि
पता नहीं काट
ले। सावधान
रहते हो। क्योंकि
कितना धोखा खा
चुके हो, अब
भरोसा कैसे हो?
तुमने इतनी
अश्रद्धा
जानी है जीवन
में कि श्रद्धा
का फूल अब
विश्वास
योग्य नहीं
रहा। इतना धोखा,
इतनी प्रवंचना,
कि भरोसा
कैसे करें!
इससे
ठीक उलटी घटना
संत को घटती
है। उसने ऐसा फूल
जाना है जीवन
में,
ऐसी सुगंध,
कि कैसे
भरोसा करे कि
कहीं कांटा भी
हो सकता है! और
अगर होगा तो
फूल की रक्षा
के लिए ही
होगा। हैं भी
कांटे गुलाब
में फूल की
रक्षा के लिए
ही। वे फूल को
बचाते हैं, वे फूल के
प्रहरी हैं, पहरा दे रहे
हैं। वे फूल
के दुश्मन
नहीं हैं। वे
किसी को चुभने
के लिए नहीं
हैं वहां, कोई
अगर फूल को
तोड़े तो रक्षा
के लिए हैं।
फूल के मित्र
हैं, संगी-साथी
हैं। फूल का
परिवार हैं।
आखिर कांटा भी
उसी रस से
बनता है, जिससे
फूल बनता है।
दोनों के भीतर
एक ही रसधार
बहती है। वे
अलग-अलग हो भी
नहीं सकते।
जिसने ठीक से
फूल को जाना, उसको कांटे
में से भी कांटापन
चला जाता है।
और जिसने एक
भी संत जान
लिया, यह
सारा संसार
संतत्व से भर
जाता है।
क्योंकि वह
श्रद्धा इतनी
अपरंपार है, उसकी महिमा
इतनी अनंत है,
कि फिर कौन
भरोसा करेगा
कि कोई चोर हो
सकता है! जहां
ऐसे संतत्व का
फूल खिलता है
पृथ्वी पर, आकाश में, वहां कैसे
कोई चोर हो
सकता है?
तब
तुम्हारा
गणित तुमसे
कहेगा कि है
तो यह भी संत, अभी
तक पहचाना
नहीं गया। है
तो यह भी संत, भला इसके
कृत्य विपरीत
जाते हों। भला
यह इस तरह के
ढंग कर रहा हो
कि संत नहीं
है, है तो
संत। भीतर
छिपा हुआ
संतत्व
तुम्हें दिखाई
ही पड़ता
रहेगा। तब
तुम्हें दो
तरह के संत होंगे:
एक अंगारे की
तरह प्रकट, दूसरे राख
में दबे हुए।
अंगारा चाहे
प्रकट हो, चाहे
राख में, स्वभाव
तो एक ही है।
तो कुछ संत जो
अंगारे की तरह
जाज्वल्यमान
हैं, और
कुछ संत जिन
पर राख जम गई
है कृत्यों
की। कर्म का
ही भेद है, स्वभाव
का कोई भेद
नहीं है।
कहते
हैं लाओत्से, "सज्जन
को मैं शुभ
करार देता हूं,
दुर्जन को
भी शुभ करार
देता हूं; सदगुण
की यही शोभा
है।'
और जब
तक तुम दोनों
को शुभ न कह
सको,
तब तक जानना,
सदगुण
अवतरित नहीं
हुआ। तब तक
तुमने सदगुण
नहीं जाना।
एक
फकीर को
अस्पताल में
भर्ती किया
गया। डाक्टर
बड़ा हैरान था।
वह उसकी बांह
पर मलहम-पट्टी
कर रहा था और
मन में सोच
रहा था। आखिर
वह न सोच पाया
तो उसने पूछा
कि मैं जरा
चकित हूं!
क्योंकि यह जो
घाव है, घोड़े
का काटा हुआ
नहीं हो सकता;
क्योंकि
छोटा है घाव।
यह कुत्ते का
काटा भी नहीं
हो सकता, क्योंकि
यह बड़ा है। यह
किस तरह के
जानवर का घाव
है, मैं
समझ ही नहीं
पा रहा। उस
फकीर ने हंस
कर कहा, यह
किसी तरह के
जानवर का घाव
नहीं है; एक
सज्जन पुरुष
ने काटा है।
लेकिन
उसने कहा, एक
सज्जन पुरुष
ने। जिसने
काटा है, वह
भी सज्जन
पुरुष है।
कृत्य का बहुत
मूल्य नहीं
है। भीतर जो
छिपा है! राख
का क्या मूल्य
है? भीतर
जो अंगारा
छिपा है।
"ईमानदार
का मैं भरोसा
करता हूं, और
झूठे का भी
भरोसा करता
हूं; सदगुण
की यही
श्रद्धा है।'
और तब
तक तुम अपने
को श्रद्धालु
मत कहना, जब तक
तुम उन्हीं पर
श्रद्धा कर
सको जो शुभ हैं।
क्योंकि उस
श्रद्धा में
क्या जान? उस
श्रद्धा का
मूल्य क्या? अगर मैं
अच्छा हूं और
इसलिए तुम
श्रद्धा करते हो
तो तुम्हारी
श्रद्धा की
क्या कीमत? अगर तुम संत
पर श्रद्धा कर
लेते हो तो
इसमें संत का
गुण होगा, तुम्हारी
श्रद्धा का
क्या गुण है?
लेकिन
जिस दिन तुम
असंत पर
श्रद्धा कर
सकोगे, उस
दिन तुम्हारी
श्रद्धा का
गुण प्रकट हुआ,
उस दिन अब
संतत्व-असंतत्व
गौण हो गए, अब
तुम्हारे
हृदय का भाव
प्रधान है। और
वही श्रद्धा
तुम्हारी नाव
बनेगी। वही
श्रद्धा जो
कोई अपवाद
नहीं जानती, जो संत पर तो
करती ही है, असंत पर भी
करती है, जो
बेशर्त है। जो
यह नहीं कहती
कि तुम ऐसा
करोगे तो मैं
श्रद्धा
करूंगा, जो
कहती है तुम
कुछ भी करो, श्रद्धा
मेरा स्वभाव
है। तुम चोरी
करो तो श्रद्धा,
तुम दान दो
तो श्रद्धा, तुम कुछ भी
करो, तुम्हारे
करने से मेरी
श्रद्धा डगमगाएगी
नहीं।
तुम्हारा
करना और मेरी
श्रद्धा का
होना अलग-अलग
बातें हैं।
मेरी श्रद्धा
मेरे भीतर का
स्वास्थ्य
है। उससे
तुम्हारा कुछ
लेना-देना
नहीं। जिस दिन
तुम चोर पर भी
श्रद्धा कर सकोगे--उस
चोर पर जो
बहुत बार
तुम्हें धोखा
दे चुका, बहुत
बार काट चुका
जो बिच्छू, फिर भी तुम
श्रद्धा करते
रहोगे--वैसी
श्रद्धा ही
नाव बनती है।
बेशर्त
श्रद्धा नाव
बनती है।
संतों
पर तो श्रद्धा
नपुंसक भी कर
लेते हैं। जिनके
भीतर कोई
श्रद्धा नहीं
है वे भी कर
लेते हैं, क्योंकि
करनी पड़ती है,
मजबूरी है।
लेकिन जिस दिन
तुम बुरे पर
भी श्रद्धा
करते हो, उस
दिन तुम्हारे
भीतर श्रद्धा
का पहली दफा
फूल खिलता है।
और अब इस फूल
को कोई तूफान
न मिटा सकेगा।
क्योंकि अब
तूफान भी
संगी-साथी है।
तुम उस पर भी
श्रद्धा करते
हो। अब
तुम्हारे
विपरीत कोई भी
न रहा। अब यह
जगत शत्रुओं
से खाली हो
गया। क्योंकि
शत्रु पर भी
अब तुम्हारी
श्रद्धा है।
अब तुमने
श्रद्धा का एक
आकाश अपने
चारों तरफ
निर्मित कर
लिया, जिसकी
कोई सीमा
नहीं।
ऐसी
श्रद्धा ही ले
जाएगी
परमात्मा तक।
इससे कम में
काम न कभी चला
है,
और न चल
सकता है।
"संत
संसार में
शांतिपूर्वक,
लयबद्धता
के साथ जीते
हैं। संसार के
लोगों के बीच--ऐसे
संतों के
माध्यम
से--हृदयों का
सम्मिलन होता
है। दि पीपुल
ऑफ दि वर्ल्ड
आर ब्रॉट इनटु ए कम्युनिटी
ऑफ हार्ट।'
सारी
दुनिया एक
हृदय का
सम्मिलन बन
जाती है--ऐसे
संत के माध्यम
से,
जो अपनी
भीतरी शांति
और लयबद्धता
में जीता है।
जब
तुम्हारे
भीतर श्रद्धा
रही,
अश्रद्धा न
रही, तो
लयबद्धता आ
गई। जब
तुम्हारे
भीतर प्रेम ही
रहा, घृणा
न रही, क्योंकि
घृणा करने
योग्य कोई न
रहा; जब
तुम्हारे
भीतर भरोसा ही
रहा, संदेह
न रहा; क्योंकि
अब संदेह करने
योग्य कोई
नहीं, तुमने
बुरे पर भी
भरोसा कर लिया,
अब संदेह की
तुमने जड़ें
काट दीं, तो
तुम्हारे
भीतर एक परम
लयबद्धता और
शांति का जन्म
होता है। इस महासंगीत
का नाम ही
संतत्व है। और
जब भी किसी एक
व्यक्ति के
भीतर ऐसी घटना
घटती है, वह
व्यक्ति इस
जगत का हृदय
हो जाता है।
उस व्यक्ति के
आर-पार हजारों
हृदय डोलते
हैं, गुजरते
हैं उस हृदय
से, और उन
हजारों
हृदयों की एक कम्युनिटी,
एक परिवार
निर्मित हो
जाता है।
बुद्ध
के पास ऐसा
परिवार बना, लाओत्से
के पास ऐसा
परिवार बना, जीसस के पास
ऐसा परिवार
बना। वही
परिवार जब भ्रष्ट
होता है तो
संप्रदाय
बनता है।
परिवार तो तुम्हारी
श्रद्धा से
बनता है; संप्रदाय
तुम्हारे
जन्म से।
संप्रदाय तुम
खून से लेकर
आते हो; परिवार
तुम्हें अपना
खून देकर
बनाना पड़ता है।
परिवार के लिए
तुम्हें
बलिदान होना
पड़ता है।
जब तुम
किसी संत पर
ऐसा भरोसा ले
आओगे, ऐसा
भरोसा जो असंत
को भी अपने
बाहर नहीं
छोड़ता है, निरपवाद,
तभी तुम संत
के हृदय से गुजरोगे।
अन्यथा तुम
बाहर-बाहर भटक
सकते हो, उसके
शरीर को छू
सकते हो, लेकिन
उसकी
अंतरात्मा से
वंचित रह
जाओगे।
और जब
तुम उसके
अंतरात्मा से
गुजरते हो तो
संत सदगुरु
हो जाता है।
उसके आस-पास
प्रेम का एक
परिवार बनता
है। वही परिवार
इस जगत में
श्रेष्ठतम
घटना है। उससे
ऊंची कोई घटना
इस पृथ्वी पर
नहीं घटती।
और जो
उस घटना से
गुजर गया, वह
दुबारा इस
पृथ्वी पर
वापस नहीं
लौटता है। जो
एक बार संत के
हृदय में बस
गया, उसके
लिए बस अब एक
हृदय और बसने
को रहा, वह
परमात्मा का
है। संत के
द्वार से वह
परमात्मा में
विलीन हो जाता
है।
आज
इतना ही।
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