सम्राट
प्रसेनजित
भोजन— भट्ट
था। उसकी सारी
आत्मा जैसे
जिह्वा में
थी। खाना-खाना
और खाना। और
तब स्वभावत: सोना-सोना
और सोना। इतना
भोजन कर लेता
कि सदा बीमार
रहता। इतना
भोजन कर लेता
कि सदा चिकित्सक
उसके पीछे
सेवा में लगे
रहते। देह भी
स्थूल हो गयी।
देह की आभा और
कांति भी खो
गयी। एक मुर्दा
लाश की तरह
पड़ा रहता।
इतना भोजन कर
लेता।
बुद्ध
गांव में आए
तो प्रसेनजित
उन्हें सुनने
गया।
जाना
पड़ा होगा।
सारा गाव जा
रहा है और गाव
का राजा न जाए
तो लोग क्या
कहेंगे? लोग समझेंगे,
यह
अधार्मिक है।
उन दिनों
राजाओं को
दिखाना पड़ता
था कि वे
धार्मिक हैं।
नहीं तो उनकी
प्रतिष्ठा
चूकती थी, नुकसान
होता था। अगर
लोगों को पता
चल जाए कि
राजा
अधार्मिक है,
तो राजा का
सम्मान कम हो
जाता था। तो
गया होगा।
जाना पड़ा
होगा।
लेकिन
जाने के
पहले—इतनी देर
बुद्ध को पता
नहीं घंटाभर
सुनना पड़े डेढ़
घंटा सुनना
पड़े कितनी देर
बुद्ध बोले
इतनी देर वहां
रहना पड़े— तो
उसने डटकर भोजन
कर लिया।
इतनी
देर भोजन करने
को मिलेगा
नहीं। खूब
डटकर भोजन
करके गया।
राजा
था तो सामने
ही बैठा बुद्ध
के वचन सुनने को
और जैसे ही
बैठा वैसे ही
झपकी लेने लगा
फुरसत
कहो थी! न
बुद्ध को
सुनने आया था, न सुनने
की स्थिति थी।
इतना खाकर आ
गया था कि डोलने
लगा। और तो
मस्ती में डोल
रहे थे, वह
नींद में
डोलने लगा।
बुद्ध
ने यह देखा।
उन्हें उस पर
बड़ी दया आयी। उसकी
झपकियां
देखीं और
बुद्ध ने कहा
महाराज क्या
ऐसे ही जीवन
गंवा देना है? जागना
नहीं है ' बहुत
गयी थोड़ी बची
है अब होश
सम्हालो।
भोजन जीवन
नहीं है इस
परम अवसर को
ऐसे ही मत
गंवा दो
प्रसेनजित ने
कहा भंते सब
दोष भोजन का
है मानता हूं।
उसके कारण ही
मेरा
स्वास्थ्य भी
सदा खराब रहता
है तंद्रा भी
बनी रहती है। प्रमाद
और आलस्य भी
घेरे रहता है।
और इसके बाहर
होने का कोई
मार्ग भी नहीं
दिखायी पड़ता।
सब दोष भोजन
का है भगवान।
बुद्ध
ने उससे कहा
पागल! दोष
भोजन का कैसे
हो सकता है ' अपने दोष
को भोजन पर
टाल रहा है।
भोजन जबरदस्ती
तो तेरे ऊपर
सवार नहीं हो
जाता।
इसे
खयाल रखना। हम
भी यही करते
हैं। हम दोष
टालते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
पकड़ा गया
अदालत में, क्योंकि
उसने एक
कास्टोबेल की
पिटाई कर दी।
और जब झूमता, नशे में
डोलता अदालत
में लाया गया,
तो
मजिस्ट्रेट
ने कहा कि
नसरुद्दीन, कितनी बार
तुम्हें
समझाया है, यह शराब
छोड़ो। उसने
कहा, हुजूर,
सब दोष शराब
का है, इसी
शराब की वजह
से यह गरीब
कास्टेबिल
पिट गया है।
सब दोष शराब
का है! आप
बिलकुल ठीक
कहते हैं।
दोष
शराब का कैसे
हो सकता है? लेकिन हम
दोष टालते
हैं। कोई आदमी
दोष अपने पर
नहीं लेता। और
जो अपने पर ले
लेता है, उसी
के जीवन में
क्रांति घट
जाती है।
उसने
बुद्ध से कहा
भगवान भंते सब
दोष भोजन का है।
इसके कारण ही
सब उलझन हो
रही है! इससे
बाहर आने का
कोई उपाय भी
नहीं दिखता है
बुद्ध
ने कहा दोष
भोजन का कैसे
हो सकता है ' दोष बोध
का है।
तुम्हें पता
भी है कि
स्वास्थ्य
खराब हो रहा
है तुम्हें
पता है आलस्य
आ रहा है
तुम्हें पता
है जीवन
व्यर्थ जा रहा
है लेकिन यह
बोध तुम भोजन
करते वक्त
सम्हाल नहीं
पाते यह बोध
भोजन कर लेने
के बाद तुम्हारे
पास होता है
लेकिन जब भोजन
करते हो तब चूक
जाता है।
तो
प्रसेनजित ने
पूछा मैं क्या
करूं ' बुद्ध
ने कहा तुमसे
शायद न भी हो
सके मैं देखता
हूं तुम बहुत?
जड़ हो गए
हो। तो
प्रसेनजित के
पास उसका
अंगरक्षक खड़ा
था अंगरक्षक
का नाम था
सुदर्शन। तो
बुद्ध ने कहा
सुदर्शन तू
अंगरक्षक
कैसा। यह अंग
तो सब खराब
हुआ जा रहा है!
और तू
अंगरक्षक है!
तू खाक सेवा
कर रहा है
अपने सम्राट
की। तू याद रख!
और जब
प्रसेनजित भोजन
को बैठे तो
बिलकुल सामने
खड़ा हो जा।
खड़ा ही रह
सामने। और याद
दिलाता रह कि
ध्यान रखो स्मरण
करो बुद्ध ने
क्या कहा था तू
चूकना ही मत
यह नाराज भी
होगा यह तुझे
हटाएगा भी मगर
तू हटना ही
मत। तू
अंगरक्षक है
तू अपना काम
पूरा कर। यह
बात सुदर्शन
को भी जमी कि
अंगरक्षक तो
है ही और उसकी
आंखों के
सामने यह अंग
सब खराब हुआ
जा रहा है यह
देह नष्ट हुई
जा रही है। तो
वह खड़ा रहने
लगा।
वह
बड़ा हिम्मत का
आदमी रहा
होगा।
क्योंकि
प्रसेनजित
बहुत नाराज
होता जब उसे
बीच में याद
दिलायी जाती।
जब वह ज्यादा
खाने लगता, वह कहता,
याद करो, याद करो, भगवान
ने क्या कहा
है? तो वह
कहता, बंद
कर बकवास! कहा
के भगवान! फिर
सोचेंगे। मगर वह
मानता ही नहीं,
वह याद
दिलाए ही जाता,
दिलाए ही
जाता।
धीरे—धीरे
इसका परिणाम
होना शुरू
हुआ।
रसरी
आवत जात है, सिल पर
परत निसान
पड़ने
लगा निशान।
करत
करत अभ्यास के
जडमति होत
सुजान
थोड़ा—
थोड़ा बोध जगने
लगा। नाराज भी
होता था, फिर क्षमा
भी माग लेता
सुदर्शन से कि
नहीं, तेरी
क्या भूल! फिर
सुदर्शन ने कहा
कि देखिए, मुझे
भगवान को
उत्तर देना
पड़ेगा। और
वहां से कई
दफे खबर आ
चुकी है कि
सुदर्शन खबर
दे! तो प्रसेनजित
और भी डरा।
तीन
महीने भगवान
उस नगर में
रुके थे।
प्रसेनजित जब
दुबारा आया तो
वह आदमी ही
दूसरा था उसके
चेहरे पर आभा
लौट आयी थी।
तेजस्विता आ
गयी थी उसने
भगवान का बहुत
धन्यवाद किया
उसने सुदर्शन
का भी बहुत
धन्यवाद किया
सुदर्शन के
साथ अपनी बेटी
का विवाह
किया। उसे आधा
राज्य दे
दिया।
जब
दुबारा वह
भगवान के पास
आया था
रूपांतरित होकर
अत्यंत
अनुग्रह से
भरा हुआ तब
भगवान ने यह
गाथा कही थी—
आरोग्य
परमा लामा
संतुट्टी
परमं धनं।
विक्सास
परमा जाति
निबानं परमं
तखं ।।
आरोग्य
सबसे बडा लाभ
है। संतोष
सबसे बड़ा धन
है। विश्वास
सबसे बड़ा बंधु
है और निर्वाण
सबसे बड़ा सुख
है।’
आरोग्य
शब्द बड़ा
अदभुत है।
अंग्रेजी के
हेल्थ शब्द
में वह बात
नहीं। आरोग्य
का अर्थ है, सारे
रोगों से
मुक्ति।
इसमें मन के
रोग सम्मिलित
हैं। देह के
रोग सम्मिलित
हैं। इसमें
आत्मा के रोग
सम्मिलित हैं।
आरोग्य शब्द
विराट है। तभी
तुम कहे जा
सकते हो
आरोग्य को
उपलब्ध हुए जब
तुम्हारी
सारी उपाधियां
खो जाएं। जब
तुम्हारे ऊपर
कोई सीमा न रह
जाए।
आरोग्य
सबसे बडा लाभ
है।’
तो
बुद्ध तो
बार—बार कहते
हैं कि मैं तो
चिकित्सक हूं, वैद्य
हूं र तुम्हें
आरोग्य देने
आया हूं सिद्धात
देने नहीं, दर्शनशास्त्र
देने नहीं।
आरोग्य
परमा लामा ......।
परम
लाभ कहा
आरोग्य को। तो
निश्चित ही यह
शारीरिक
स्वास्थ्य ही
नहीं होगा।
मानसिक, आध्यात्मिक
सभी तलों पर
जब व्यक्ति
रोगों से
मुक्त हो जाता
है। और बड़े से
बड़ा रोग है, मूर्च्छा।
बड़े से बड़ा
रोग है, बेहोशी।
आरोग्य
परमा लामा
संतुट्ठी
परमं धनं।
और
जो आरोग्य को
उपलब्ध हो
जाता है वह
संतोष को भी
उपलब्ध हो
जाता है।
क्योंकि जहा
आरोग्य है, वहा
संतोष है। जहा
कोई रोग न रहा,
वहा कैसा
असंतोष। वहां
तो छोटे से
पर्याप्त मिलने
लगता है। थोड़ा
सा भोजन और
खूब तृप्ति हो
जाती है। थोड़ा
सा मिल जाए, बहुत मिल
जाता है।
क्षुद्र में
विराट मिलने लगता
है।
'संतोष सबसे
बड़ा धन।
विश्वास सबसे
बड़ा बंधु। और
निर्वाण सबसे
बड़ा सुख।
निर्वाण
का अर्थ होता
है, शून्य
भाव। पहले रोग
मिटते हैं। तो
फिर धीरे—धीरे
रोगों के
सहारे जो
अहंकार जीता
है वह भी विसर्जित
हो जाता है।
सभी रोगों का
केंद्र है अहंकार।
जब सब रोग हट
जाते हैं तो
धीरे—धीरे अहंकार
भी गिर जाता
है। जब खंभे न
रहे सम्हालने को
तो अहंकार का
भवन गिर जाता
है। उस घड़ी जो
अवस्था बनती,
उसको बुद्ध
निर्वाण कहते
हैं। निर्वाण
सबसे बड़ा सुख।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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