ब्राह्मणी ने ब्राह्ममण को छुपाया-(एस धम्मों सनंतनो)
भगवान
श्रावस्ती
में विहरते
थे।
श्रावस्ती में
पंचग्र—
दायक नामक एक
ब्राह्मण था।
वह खेत बोने
के पश्चात फसल
तैयार होने तक
पांच बार भिक्षुसंघ
को दान देता
था एक दिन
भगवान उसके
निश्चय को देखकर
भिक्षाटन
करने के लिए
जाते समय उसके
द्वार पर जाकर
खड़े हो गए। उस
समय ब्राह्मण
घर में बैठकर
द्वार की ओर
पीठ करके भोजन
कर रहा था।
ब्राह्मणी ने
भगवान को
देखा। वह
चिंतित हुई कि
यदि मेरे पति
ने श्रमण गौतम
को देखा तो फिर
यह निश्चय ही
भोजन उन्हें
दे देगा और तब
मुझे फिर से
पकाने की झंझट
करनी पड़ेगी
ऐसा सोच वह
भगवान की ओर
पीठ कर उन्हें
अपने पति से
छिपाती हुई
खड़ी हो गयी
जिससे कि
ब्राह्मण
उन्हें न देख
सके।
उस
समय तक
ब्राह्मण को
भगवान की
उपस्थिति की अंत—प्रज्ञा
होने लगी और
वह अपूर्व
सुगंध जो
भगवान को सदा घेरे
रहती थी उसके
भी नासापुटों
तक पहुंच गयी और
उसका मकान भी
एक अलौकिक
दीप्ति से
भरने लगा। और
इधर
ब्राह्मणी भी
भगवान को
दूसरी जगह जाते
न देखकर हंस
पड़ी
ब्राह्मण
ने चौककर पीछे
देखा। उसे तो
अपनी आंखों पर
क्षणभर को
भरोसा नहीं
आया और उसके
मुंह से निकल
गया : यह क्या।
भगवान। फिर
उसने भगवान के
चरण छू वंदना
की और अवशेष
भोजन देकर यह
प्रश्न पूछा.
हे गौतम! आप
अपने शिष्यों
को भिक्षु कहते
हैं क्यों
भिक्षु कहते
हैं? भिक्षु
का अर्थ क्या
है? और कोई
भिक्षु कैसे
होता है?
यह
प्रश्न उसके
मन में उठा
क्योंकि
भगवान की इस
अनायास
उपस्थिति के
मधुर क्षण में
उसके भीतर
संन्यास की
आकांक्षा का
उदय हुआ। शायद
भगवान उसके
द्वार पर उस
दिन इसीलिए गए
भी थे। और शायद
ब्राह्मणी भी
अचेतन में उठे
किसी भय के
कारण भगवान को
छिपाकर खड़ी हो
गयी थी।
तब
भगवान ने इस
गाथा को कहा :
सब्बसो
नाम—रूपस्मिं
यस्स नत्थि
ममयितं।
असता च न सोचति स वे भिक्खूति
वुच्चति
।।
'जिसकी
नाम—रूप—पंच—स्कंध—में
जरा भी ममता
नहीं है और जो
उनके नहीं
होने पर शोक
नही करता, वही
भिक्षु है, उसे ही मैं
भिक्षु कहता
हूं।'
इसके
पहले कि इस
सूत्र को समझो, इस
छोटी सी घटना
में गहरे जाना
जरूरी है।
घटना सीधी—साफ
है। लेकिन
उतरने की कला
आती हो, तो
सीधी—साफ घटनाओं
में भी जीवन
के बड़े रहस्य
छिपे मिल जाते
हैं।
हीरों
की खदानें भी
तो कंकड़—पत्थर
और मिट्टी में
ही होती हैं—खोदना
आना चाहिए।
जौहरी की नजर
चाहिए। तो कंकड़—पत्थर
को हटाकर हीरे
खोज लिए जाते
है।
इन
छोटी—छोटी
घटनाओं में
बड़े हीरे दबे
पड़े हैं। मैं
यही कोशिश कर
रहा हूं कि
तुम्हें थोड़ी
जौहरी की नजर
मिले। तुम
इनकी पर्तें उघाड़ने
लगो। जितने गहरे
उतरोगे, उतनी
बड़ी संपदा
तुम्हें
मिलने लगेगी।
श्रावस्ती
में पंचग्र
—दायक नामक
ब्राह्मण था।
वह खेत के
बोने के पश्चात
फसल तैयार
होने तक पांच
बार भिक्षुसंघ
को दान देता
था। एक दिन
भगवान उसके
निश्चय को देखकर
भिक्षाटन
करने के लिए
जाते समय उसके
द्वार पर जाकर
खड़े हो गए।
अभी
ब्राह्मण को
भी अपने
निश्चय का पता
नहीं है। उसके
अंतस्तल में
क्या उठा है, अभी
ब्राह्मण को
भी अज्ञात है।
अभी ब्राह्मण को
खयाल नहीं है
कि उसके
भिक्षु होने
का क्षण आ
गया।
मनुष्य
का बहुत छोटा
सा मन मनुष्य
को ज्ञात है। मनस्विद
कहते हैं.
जैसे बर्फ का
टुकड़ा पानी
में तैराओ, तो
थोड़ा ऊपर रहता
है, अधिक
नीचे डूबा
होता है। एक
खंड बाहर रहता
है, नौ खंड
भीतर डूबे
रहते हैं। ऐसा
मनुष्य का मन है,
एक खंड केवल
चेतन हुआ है, नौ खंड
अंधेरे में
डूबे हैं।
तुम्हारे
अंधेरे मन में
क्या उठता है, तुम्हें
भी पता चलने
में कभी—कभी
वर्षों लग
जाते हैं। जो
आज तुम्हारे
मन में उठेगा,
हो सकता है,
पहचानते—पहचानते
वर्ष बीत
जाएं। और अगर
कभी एक बार जो तुम्हारे
अचेतन में उठा
है, तुम्हारे
चेतन तक भी आ
जाए, तो भी
पक्का नहीं है
कि तुम समझो।
क्योंकि तुम्हारी
नासमझी के जाल
बड़े पुराने
हैं। तुम कुछ
का कुछ समझो!
तुम कुछ की
कुछ व्याख्या
कर लो। तुम
कुछ का कुछ
अर्थ निकाल
लो। क्योंकि
अर्थ आएगा
तुम्हारी
स्मृतियों से,
तुम्हारे
अतीत से।
तुम्हारी
स्मृतियां और
तुम्हारा
अतीत उसी छोटे
से खंड में
सीमित हैं, जो
चेतन हो गया
है। और यह जो
नया भाव उठ
रहा है, यह
तुम्हारी
गहराई से आ
रहा है। इस
गहराई का अर्थ
तुम्हारी
स्मृतियों से
नहीं खोजा जा
सकता। तुम्हारी
स्मृतियों को
इस गहराई का
कुछ पता ही नहीं
है। इस गहराई
के अर्थ को
खोजने के लिए
तो तुम्हें जहां
से यह भाव उठा
है, उसी
गहराई में
डुबकी लगानी
पड़ेगी; तो
ही अर्थ
मिलेगा; नहीं
तो अर्थ नहीं
मिलेगा।
कल
किसी का
प्रश्न था; इस
संदर्भ में
सार्थक है। नेत्रकुमारी
ने पूछा है कि
अब संन्यास का
भाव उठ रहा
है। प्रगाढ़ता
से उठ रहा है।
लेकिन एक सवाल
है—कि यह मेरा
भावावेश तो
नहीं है? आपने
सच में मुझे
पुकारा है? या यह केवल
मेरी भावाविष्ट
दशा है कि
आपको सुन—सुनकर
इस विचार में
मोहित हो गयी
हूं?
भाव
उठ रहा है।
पुराना मन कह
रहा है : यह
सिर्फ भावावेश
है। यह असली
भाव नहीं है, भाव
का आवेश मात्र
है! यह असली
भाव नहीं है।
यह तो सुनने
के कारण, यहां
के वातावरण
में, इतने
गैरिक वस्त्रधारी
संन्यासियों
को देखकर एक
आकांक्षा का
उदय हुआ है।
ठहरो। घर चलो।
शांति से
विचार करो।
कुछ दिन धैर्य
रखो। जल्दी
क्या है?
घर
जाकर, शांति
से विचार करके
करोगे क्या? यह जो भाव की
तरंग उठी थी, इसको विनष्ट
कर दोगे। इसको
भावावेश कहने
में ही तुमने
विनष्ट करना
शुरू कर दिया।
और मजा ऐसा है
कि जब यह तरंग
चली जाएगी, और तुम्हारे
भीतर दूसरी
बात उठेगी कि
नहीं; संन्यास
नहीं लेना है,
तब तुम
क्षणभर को न
सोचोगे कि यह
कहीं भावावेश
तो नहीं!
यह
आदमी का अदभुत
मन है! तब तुम न
सोचोगे कि कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि वापस घर
आ गए;
गृहस्थों के बीच आ गए; अब गैरिक वस्त्रधारी
नहीं दिखायी
पड़ते, अब
ध्यान करते
हुए मदमस्त
लोग नहीं
दिखायी पड़ते,
अब वह वाणी
सुनायी नहीं
पड़ती; अब
वह हवा नहीं
है; और
यहां बाजार, और कोलाहल, और घर, और
घर—गृहस्थी की
झंझटें; और सब अपने
ही जैसे लोग—कहीं
इस प्रभाव में
संन्यास न लूं
यह भावावेश तो
नहीं उठ रहा
है? फिर
नहीं सोचोगे।
फिर एकदम राजी
हो जाओगे कि यह
असली चीज हाथ
आ गयी!
यह
असली चीज नहीं
हाथ आ गयी। यह
तुम्हारी
स्मृतियों से
आया।
तुम्हारे
अतीत से आया; तुम्हारे
अनुभव से आया।
और अभी जो आ
रहा है, वह
तुम्हारे
अनुभव से नहीं
आ रहा है, तुम्हारे
अतीत से नहीं
आ रहा है। वह
तुम्हारी
गहराई से आ
रहा है। और
तुम्हारी
गहराइयों का
तुम्हें कुछ
पता नहीं है।
पूछा
है कि यह कहीं
भावावेश तो
नहीं है? आपने
सच में मुझे
पुकारा है?
अब
समझो। अगर मैं
कहूं कि ही, सच
में मैंने
तुम्हें
पुकारा है; तो क्या तुम
सोचते हो, और
विचार नहीं
उठेंगे कि पता
नहीं, ऐसा
मुझे समझाने
के लिए ही तो
नहीं कह दिया
कि मैंने तुझे
पुकारा है!
इसकी सचाई का
प्रमाण क्या
कि वस्तुत:
पुकारा है? कहीं
सांत्वना के
लिए तो नहीं
कह दिया? कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि मुझे
संन्यास में
दीक्षित करना
था, इसलिए
कह दिया हो?
विचार
की तरंगें तो
उठती चली
जाएंगी। उनका
कोई अंत नहीं
है। विचार से
इसलिए कभी कोई
हल नहीं होता।
इस
कहानी का जो
पहला हिस्सा
है,
वह यह कि एक
दिन भगवान
उसके निश्चय
को देखकर...।
अभी
ब्राह्मण को
निश्चय का कुछ
पता नहीं है।
ब्राह्मण को
पता होता, तो
ब्राह्मण
स्वयं भगवान के
पास आ गया
होता। कि हे
प्रभु! मेरे
हृदय में भिक्षु
होने का भाव
उठा है। घड़ी आ
गयी। फल पक
गया। अब मैं
गिरना चाहता
हूं। और आप
में खो जाना
चाहता हूं। जैसे
फल भूमि में
खो जाता है, ऐसे मुझे
आत्मलीन कर
लें। मुझे
स्वीकार कर लें;
मुझे
अंगीकार कर
लें।
ब्राह्मण
नहीं आया है।
बुद्ध उसके
द्वार पर गए
हैं। और इसलिए
मैं फिर से
तुम्हें
दोहरा दूं.
इसके पहले कि शिष्य
चुने, गुरु
चुनता है।
इसके पहले कि
शिष्य को पता
चले, गुरु
को पता चलता
है। शिष्य चुनेगा
भी कैसे
अंधेरे में
भटकता हुआ!
उसे कुछ भी तो
पता नहीं है।
वह तो अगर कुछ चुनेगा भी,
तो गलत चुनेगा।
बुद्ध
भिक्षाटन को
जाते थे। उस
ब्राह्मण के
घर जाने का
अभी कोई खयाल
भी न था।
लेकिन अचानक
उन्हें
दिखायी पड़ा कि
उस ब्राह्मण
के अचेतन में
निश्चय हो गया
है। संन्यास
की किरण पहुंच
गयी है।
एक
दिन भगवान
उसके निश्चय
को देखकर.......।
ध्यान
रखना : बुद्ध
जैसे व्यक्ति
सोचते नहीं, देखते
हैं। सोचना तो
अंधों का काम
है। आंख वाले
देखते हैं।
बुद्ध को
दिखायी पड़ा।
जैसे तुम्हें
दिखायी पड़ता
है कि वृक्ष
के पत्ते हरे हैं।
कि एक पीला
पत्ता हो गया
है, कि अब
यह गिरने के
करीब है। जैसे
तुम्हें दिखायी
पड़ता है कि
दिन है; कि
रात है, कि
सूरज निकला है,
कि बादल घिर
गए; कि
वर्षा हो रही
है—ऐसे बुद्ध
को चैतन्य—लोक
की स्थितियां
दिखायी पड़ती
हैं।
यह
निश्चय पक
गया। यह आदमी
संन्यस्त
होने की घड़ी
के करीब आ
गया। इसको इस
पर ही छोड़ दो, तो
पक्का नहीं है
कि इसको अपने
निश्चय का पता
कब चले। जन्म—जन्म
भी बीत जाएं।
और जब चले भी, तब भी पता
नहीं कि यह
क्या
व्याख्या
करे। किस तरह
अपने को समझा
ले, बुझा
ले। किस तरह
वापस सो जाए, करवट ले ले।
फिर सपनों में
खो जाए।
इस
परम घड़ी को
बुद्ध इस
ब्राह्मण पर
नहीं छोड़ सकते
हैं। इस
ब्राह्मण का
कुछ भरोसा
नहीं है। इसलिए
स्वयं उसके
द्वार पर जाकर
रुक गए। गए तो
थे भिक्षाटन
को,
उसके द्वार
पर जाने की
बात न थी।
द्वार
पर जाकर खड़े
हो गए। उस समय
ब्राह्मण घर में
बैठकर द्वार
की ओर पीठ
करके भोजन कर
रहा था।
ब्राह्मण
को तो कुछ पता
ही नहीं था, क्या
होने वाला है।
किस घड़ी में
मैं आ गया हूं उसे
कुछ पता नहीं
है। वह तो
सामान्य—जैसे
रोज अपने भोजन
के समय भोजन
करता होगा—
भोजन कर रहा
था। द्वार की
ओर पीठ किए
था। उसे यह भी
पता नहीं कि
बुद्ध आ रहे
हैं।
लेकिन
साधारण आदमी
की दशा इससे
ठीक उलटी है।
वह कहता है दो
और मैं नहीं
लूंगा। आओ, मैं
पीठ कर लूंगा।
द्वार खटखटाओ,
मैं खोलने
वाला नहीं।
ब्राह्मण को
इतना भी पता
नहीं कि बुद्ध
का आगमन हो
रहा है। नहीं
तो पीठ किए बैठा
होता!
इसलिए
मैं कहता हूं,
इन छोटी—छोटी
बातों में
खयाल करना।
तुममें से भी
अधिक मेरी तरफ
पीठ किए बैठे
हैं! इसका
मतलब यह नहीं कि
तुम पीठ किए
बैठे हो। हो
सकता है. तुम
बिलकुल सामने
बैठे हो। मुझे
देख रहे हो।
लेकिन फिर भी
मैं तुमसे
कहता हूं जो
मुझे देख रहे
हैं, उनमें
से भी बहुत से
पीठ किए बैठे
हैं। जो मुझे
सुन रहे हैं, उनमें से भी
बहुत से पीठ
किए बैठे हैं।
पीठ किए बैठे
हैं, अर्थात
रक्षा कर रहे
हैं अपनी।
अपने को गंवाने
की तैयारी
नहीं दिखा रहे
हैं। अपने को
विसर्जित करने
की हिम्मत
नहीं जुटा रहे
हैं।
ब्राह्मण
द्वार की ओर
पीठ किए भोजन
कर रहा था।
परम घड़ी आ गयी, संन्यास
का क्षण करीब
आ गया, बुद्ध
द्वार पर खड़े
हैं। और वह एक
छोटी सी प्रक्रिया
में लगा था—भोजन!
यह
भी समझ लेना।
भोजन का अर्थ
है यह साधारण
जो रोजमर्रा
का जीवन है—खाना—पीना, उठना—सोना।
खाते—पीते, उठते—सोते
आदमी जन्म से
लेकर मृत्यु
तक की यात्रा
पूरी कर लेता
है। खाने—पीने
में ही तो सब
चला जाता है!
भोजन
कर रहा था।
उसे पता नहीं
कि भगवत्ता
द्वार पर खड़ी
है! वह भोजन कर
रहा है। वह एक
छोटे से काम
में लगा है।
एक दैनंदिन
कार्य में लगा
है। कालातीत
द्वार पर खड़ा
है और उसे इसकी
कुछ खबर नहीं
है!
आदमी
ऐसा ही सोया
हुआ है।
तुम्हारी राह
पर भी बहुत
बार बुद्ध का
आगमन हुआ है।
लेकिन तुम पीठ
किए रहे। ऐसा
नहीं है कि
तुम बुद्धों
से नहीं मिले
हो। मिले हो, मगर
पीठ थी, इसलिए
मिलना नहीं हो
पाया।
ब्राह्मणी
ने भगवान को
देखा। लेकिन
ब्राह्मणी के
मन में तो कोई
निश्चय उदय
नहीं हुआ है।
और उसे देखकर
पता है, क्या
चिंता पैदा
हुई! आदमी
कैसा क्षुद्र
है! उसे एक
चिंता पैदा
हुई। उसे यह
नहीं दिखायी
पड़ा कि भगवान
द्वार पर खड़े
हैं। उठूं? पांव पखारूं,
बिठाऊं! उसे फिक्र
एक बात की हुई
कि यदि मेरे
पति ने इस
श्रमण गौतम को
देखा, तो
फिर यह निश्चय
ही भोजन उसे
दे देगा। और
मुझे फिर
पकाने की झंझट
करनी पड़ेगी।
आदमी
कैसी क्षुद्र
बातों में
विराट को खोता
है! ऐसी दशा
तुम्हारी भी
है। इस
ब्राह्मणी पर
नाराज मत
होना। इस
ब्राह्मणी को
क्षमा करना।
क्योंकि यह
ब्राह्मणी
तुम्हारी
प्रतीक है।
क्षुद्र
बातों में
आदमी विराट को
खो देता है। चिंता
भी क्या उठी!
तुम्हें हंसी
आएगी। क्योंकि
यह तुम्हारी
स्थिति नहीं
है। तुम सोचते
हो अपनी
स्थिति नहीं
है यह।
तुम्हें हंसी
आएगी कि
ब्राह्मणी भी
कैसी मूढ़
है! लेकिन यही
आम आदमी की
दशा है। तुम
भी ऐसी ही
क्षुद्र—
क्षुद्र
बातों से
चूकते हो।
बातें इतनी
क्षुद्र होती
हैं,
लेकिन उनके
लिए तुम कारण
खूब जुटा लेते
हो!
ब्राह्मणी
को एक फिक्र
पैदा हुई कि
और एक झंझट
द्वार पर आकर
खड़ी हो गयी! अब
यह श्रमण गौतम
भिक्षापात्र
लिए खड़ा है।
यद्यपि
बुद्ध भिक्षा
मांगने आए
नहीं हैं। बुद्ध
भिक्षा देने
आए हैं! इस
ब्राह्मण के
मन में एक
संकल्प जन्म
रहा है। बुद्ध
उसे जन्म देने
आए हैं। बुद्ध
ऐसे आए हैं, जैसे
कि दाई। इसके
भीतर कुछ पक
रहा है। इसे
सहारे की
जरूरत है।
जैसे गर्भ
पूरा हो गया
है और बच्चा
पैदा होने को
है—और दाई को
हम बुलाते
हैं।
तो
बुद्ध तो
इसलिए आए हैं।
लेकिन यह
स्त्री सोच
रही है कि एक
झंझट हुई। अब
कहीं मुझे फिर
भोजन न बनाना
पड़े! इतना
फासला है आदमी
और बुद्धों में!
ऐसा सोच, वह
भगवान की ओर
पीठ कर अपने
पति को छिपाती
हुई खड़ी हो
गयी, जिससे
कि ब्राह्मण
उन्हें देख न
सके।
ऐसा
यहां रोज होता
है। अगर पत्नी
यहां आने में
उत्सुक हो
जाती है, तो
पति अपनी
पत्नी को
छिपाकर
सुरक्षा करने
लगता है। अगर
पति यहां आने
में उत्सुक हो
जाता है, तो
पत्नी अपने
पति को छिपाकर
खड़ी हो जाती
है, रोकने
की कोशिश में
लग जाती है।
सौभाग्यशाली हैं
वे, जो पति—पत्नी
दोनों यहां आ
गए हैं। नहीं
तो एक बाधा
डालेगा।
क्योंकि उसे
डर पैदा होता
है कि एक झंझट
हुई! अब कहीं
कुछ से कुछ न
हो जाए। यह मेरी
पत्नी कहीं
संन्यस्त न हो
जाए! यह मेरा
पति कहीं संन्यस्त
न हो जाए! लोग
अपने बेटों को
नहीं लाते।
मैं
ग्वालियर
में कई वर्षों
पहले सिंधिया
परिवार में मेहमान
था। विजय राजे
सिंधिया ने ही
मुझे निमंत्रित
किया था।
लेकिन जब मैं
पहुंच गया और
मेरे संबंध
में उसने
बातें सुनी; तो
वह डर गयी।
अब
मुझे बुला
लिया था, तो सभा
का आयोजन भी
किया। डरते —डरते
मुझे सुना भी।
उसके बेटे ने
भी सुना। दूसरे
दिन दोपहर वह
मुझे मिलने
आयी। उसने कहा
कि क्षमा
करें! आपसे छुपाना
नहीं चाहिए।
मेरा बेटा भी
आना चाहता था,
लेकिन मैं
उसे लायी
नहीं। मैं तो
प्रौढ़ हूं,
लेकिन वह भावाविष्ट
हो सकता है।
वह आपकी बातों
में आ सकता
है। और आपकी
बातें खतरनाक
हैं। इसलिए
मैं उसे लायी
नहीं। मैं उसे
आपसे नहीं
मिलने दूंगी।
और मैं आपसे
कहे देती हूं
क्योंकि मैं
आपसे छिपाना
भी नहीं
चाहती।
अब
यह मां बेटे
को आडू में
लेकर खड़ी हो
रही है। इसे
पता नहीं, किस
बात से बचा
रही है! और
अपने को प्रौढ़
समझती है।
प्रौढ़ का मतलब
यह कि मैं तो
बहुत जड़ हूं; मुझ पर कुछ
असर होने वाला
नहीं है। आप
कुछ भी कहें, मैं सुन लूंगी।
मुझे कुछ खतरा
नहीं है।
लेकिन मेरा
बेटा अभी जवान
है, अभी
ताजा है। और
आपकी बातों
में विद्रोह
है। और कहीं
उसको चिनगारी
न लग जाए।
फिर
कहने लगीं.
मुझे क्षमा
करें, क्योंकि
मेरे पति चल
बसे और अब
बेटा ही मेरा
सब सहारा है।
जैसे कि मेरे
संपर्क में
आकर बेटा
विकृत हो
जाएगा!
यह
बड़ी हैरानी की
बात है। पत्नी
इतनी परेशान नहीं
होती, अगर पति
शराबघर चला
जाए। लेकिन
सत्संग में चला
जाए, तो
ज्यादा परेशान
होती है।
क्योंकि
शराबघर कितनी
ही अड़चनें
ला दे; लेकिन
कम से कम
पत्नी की
सुरक्षा तो
कायम रहेगी!
पति एक बार
वेश्यालय भी
चला जाए, तो
पत्नी उतनी
परेशान नहीं
होती, जितनी
साधु—संगत में
बैठ जाए तो।
क्योंकि चला
गया, वापस
लौट आएगा।
लेकिन साधु—संगत
में खतरा है। कहीं
चला ही न जाए!
कहीं वापस
लौटने का सेतु
ही न टूट जाए!
जो
हमारे मोह के
जाल हैं, और उन
मोह में जो
लोग ग्रस्त
हैं, उन
सबको भय पैदा
हो जाता है—जब
तुम किसी बुद्धपुरुष
के पास जाओगे।
क्योंकि बुद्धपुरुषों
की एक ही तो
शिक्षा है कि
मोह से मुक्त
हो जाओ। तो
जिनका मोह में
निहित
स्वार्थ है, वे सब तरह की
अड़चन
डालेंगे। और
आदमी तरकीबें
निकाल लेता
है।
पत्नी
घेरकर खड़ी हो
गयी है। पीछे
जाकर खड़ी हो गयी
पति के, ताकि
भूल—चूक से भी
पति कहीं पीछे
न देख ले; द्वार
पर खड़ा हुआ
गौतम दिखायी न
पड़ जाए।
उस
समय तक लेकिन
भगवान की
उपस्थिति की
अंतःप्रज्ञा
होने लगी
ब्राह्मण को।
वह जो भीतर
संकल्प उठा था, उसी
को सहारा देने
बुद्ध वहा आकर
खड़े हुए थे। खयाल
रखना जिसके
पास होते हो, वैसा भाव
शीघ्रता से उठ
पाता है। जहां
होते हो, वहा
दबे हुए भाव
उठ आते हैं।
तुम्हारे
भीतर
कामवासना पड़ी
है और फिर एक
वेश्या के घर
पहुंच जाओ। या
वेश्या
तुम्हारे घर आ
जाए; तो तत्क्षण
तुम पाओगे.
कामवासना जग
गयी। पड़ी तो
थी। वेश्या
ऐसी कोई चीज
पैदा नहीं कर
सकती, जो
तुम्हारे
भीतर पड़ी न
हो। वेश्या
क्या करेगी? बुद्ध के
पास पहुंच जाएगी,
तो क्या
होगा!
लेकिन
अगर तुम्हारे
पास आ गयी, तो
कामवासना, जो
दबी पड़ी थी, अवसर देखकर,
सुअवसर
देखकर, उमगने
लगेगी। तलहटी
से उठेगी, सतह
पर आ जाएगी।
यही हुआ।
बुद्ध वहा आकर
खड़े हो गए।
अभी बोले भी
नहीं। उनकी
मौजूदगी, उनकी
उपस्थिति, उनका
अंत—नाद, इस
व्यक्ति की चेतना
को हिलाने
लगा। उनकी
वीणा इस
व्यक्ति के
भीतर भी गूंजने
लगी।
उसकी
अंतःप्रज्ञा
जागने लगी।
उसे अचानक बुद्ध
की याद आने
लगी। अचानक
भोजन करना रुक
गया। भोजन
करने में रस न
रहा। एकदम
बुद्ध के भाव
में डूबने
लगा। और जैसे—जैसे
भाव में डूबा, वैसे—वैसे
उसे वह अपूर्व
सुगंध भी
नासापुटों
में भरने लगी,
जो बुद्ध को
सदा घेरे रहती
थी।
और
चौंका, और
गहरा डूब गया
उस सुगंध में।
और जैसे ही
सुगंध में और गहरा
डूबा, उसने
देखा कि घर उस
कोमल दीप्ति
से भर गया है, जैसे बुद्ध
की मौजूदगी
में भर जाता
है
वह
पीछे लौटकर
देखने ही वाला
था कि मामला
क्या है! और
तभी पत्नी भी
हंस पड़ी। पत्नी
इसलिए हंस पड़ी
कि यह भी हद्द
हो गयी! मैं
छिपाकर खड़ी
हूं इस आशा
में कि यह
गौतम कहीं और
चला जाए
भिक्षा
मांगने। मगर
यह भी हद्द है
कि यह भी डटकर
खड़ा हुआ है। न
कुछ बोलता, न
कुछ चालता। यह
भी यहीं खड़ा
हुआ है! यह भी
जाने वाला
नहीं है, दिखता
है!
उसे
इस स्थिति में
जोर से हंसी आ
गयी। कि एक तो मैं
जिद्द कर
रही हूं कि
फिर भोजन न
बनाना पड़े; और
यह भी जिद्द
किए हुए खड़ा
है कि आज
बनवाकर रहेगा!
इसलिए
ब्राह्मणी
हंस उठी।
बुद्ध
की
अंतःप्रज्ञा, उनकी
सुगंध का
नासापुटों
में भर जाना, उनकी दीप्ति
का घर में
दिखायी पड़ना,
फिर पत्नी
का हंसना—तो
स्वभावत: उसने
पीछे लौटकर
देखा। चौंककर
उसने पीछे
देखा। उसे तो
अपनी आंखों पर
क्षणभर को
भरोसा ही नहीं
आया।
किसको
आएगा? जिसके
पास भी आंख है,
उसे भरोसा
नहीं आएगा। ही,
अंधों को तो
दिखायी ही
नहीं पड़ेंगे।
ब्राह्मणी को
दिखायी नहीं
पड़े थे।
ब्राह्मणी बिलकुल
अंधी थी। उसके
भीतर कोई दबा
हुआ स्वर भी
नहीं था अज्ञात
का। सत्य की
खोज की कोई आकांक्षा
भी नहीं थी।
वह गहन तंद्रा
में थी। मूर्च्छित
थी।
ब्राह्मण
इतना मूर्च्छित
नहीं था। आंख
खुलने —खुलने
के करीब थी।
ब्राह्मण का
ब्रह्म—मुहूर्त
आ गया था।
सुबह होने के
करीब थी। झपकी
टूटती थी। या
आधी टूट ही
चुकी थी। रात
जा चुकी थी, नींद
भी हो चुकी थी,
भोर के
पक्षियों के
स्वर सुनायी
पड़ने लगे थे। ऐसी
मध्य की दशा
थी ब्राह्मण
की।
ब्राह्मणी
तो अपनी आधी
रात में थी—मध्य—रात्रि
में—जब स्वप्न
भी खो जाते
हैं और
सुषुप्ति
महान होती है, प्रगाढ़
होती है।
ब्राह्मणी की
अमावस्या थी
अभी। अंधेरी
रात। लेकिन
ब्राह्मण की
सुबह करीब आ
गयी थी।
ध्यान
रखना, बाहर की
सुबह तो सबके
लिए एक ही समय
में होती है।
भीतर की सुबह
सबके लिए अलग—अलग
समय में होती
है। बाहर की रात
तो सभी के लिए
एक ही समय में
होती है। लेकिन
भीतर की रात
सबकी अलग—अलग
होती है।
यह
हो सकता है कि
तुम्हारे
पड़ोस में जो
बैठा है, उसकी
सुबह करीब है,
और तुम अभी
आधी रात में
हो। यह हो
सकता है कि तुम्हारी
सुबह आने में
अभी जन्मों—जन्मों
की देर हो। और
इसीलिए तो हम
एक—दूसरे को
समझ नहीं पाते,
क्योंकि
हमारी समझ के
तल अलग— अलग
होते हैं। कोई
पहाड से
बोल रहा है, कोई घाटी
में भटक रहा
है। कोई आंखें
खोलकर देख
लिया है, किसी
की आंखें सदा
से बंद हैं।
तो एक—दूसरे
को समझना बडा
मुश्किल हो
जाता है। क्योंकि
सब सीढ़ी के अलग—अलग
पायदानों पर
खड़े हैं।
यह
तो चौंक उठा।
इसे तो भरोसा
नहीं आया।
बुद्ध—और उसके
द्वार पर आकर
खड़े हैं! पहले
कभी नहीं आए
थे। जब भी उसे
जाना था, वह
दान देने जाता
था। पांच बार
वह दान देता
था भिक्षुसंघ
को। वह जाता
था, दान कर
आता था। बुद्ध
कभी नहीं आए
थे, पहली
बार आए हैं।
कैसे भरोसा
हो! भरोसा हो
तो कैसे भरोसा
हो?
अनेक
बार सोचा होगा
उसने, प्राणों
में संजोयी
होगी यह आशा
कि कभी बुद्ध
मेरे घर आएं।
सोचा होगा :
कभी आमंत्रित
करूं। फिर डरा
होगा कि मुझ गरीब
ब्राह्मण का
आमंत्रण
स्वीकार होगा
कि नहीं होगा!
भय—संकोच में
शायद आमंत्रण
नहीं दिया
होगा। या
क्यों कष्ट
दूं! क्यों
वहां ले जाऊं!
क्या प्रयोजन
है! जब आना हो, मैं ही आ
सकता हूं; उन्हें
क्यों भटकाऊं!
ऐसा सोचकर रुक
गया होगा।
प्रेम के कारण
रुक गया होगा।
संकोच के कारण
रुक गया होगा।
बुद्ध आज
अचानक, बिना
बुलाए, द्वार
पर आकर खड़े हो
गए हैं।
जब
जरूरत होती है, तब
सदगुरु
सदा ही उपलब्ध
हो जाता है। सदगुरु को
बुलाने की
जरूरत नहीं
पड़ती।
तुम्हारी पात्रता
जब भर जाएगी; जब तुम उस
जगह के करीब
होओगे, जहां
उसके हाथ की
जरूरत है—वह
निश्चित
मौजूद हो
जाएगा। होना
ही चाहिए।
ब्राह्मण
ने चौंककर
देखा। उसे
अपनी आंखों पर
भरोसा नहीं
आया। और उसके
मुंह से निकल
गया—यह क्या!
भगवान!
चकित, आश्चर्य
विमुग्ध, आंखें
मीड़कर
देखी होंगी।
सोचा होगा.
कोई सपना तो
नहीं देख रहा!
सोचा होगा.
सदा—सदा सोचता
रहा हूं कि
भगवान आएं, आएं, आएं!
कहीं उसी
सोचने के कारण
यह मेरी ही
कल्पना तो
मेरे सामने
खड़ी नहीं हो
गयी है!
फिर
उसने भगवान के
चरण छू वंदना
की। अवशेष भोजन
देकर यह
प्रश्न पूछा
हे गौतम! आप
अपने शिष्यों
को भिक्षु
कहते हैं—क्यों?
उस
समय तक दो तरह
के संन्यासी
उपलब्ध थे
भारत में। जैन
संन्यासी, मुनि
कहलाता है; हिंदू
संन्यासी, स्वामी
कहलाता है। बुद्ध
ने पहली दफे
संन्यासी को
भिक्षु का नाम
दिया।
संन्यास को एक
नयी भाव—
भंगिमा दी और
एक नया आयाम
दिया।
एस धम्मो सनंतनो
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