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मंगलवार, 18 नवंबर 2014

महावीर वाणी (भाग--2) प्रवचन--10

विकास की ओर गति है धर्म—(प्रवचन—दसवां) 

दिनांक 25 अगस्त, 1973;
तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर हाल, बम्बई

लोकतत्व-सूत्र : 1

धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जन्तवो
एस लोगो त्ति पण्णतो, जिणेहिं वरदंसिहि।।
गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो
  भायणं सव्वदव्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं।।
बत्तणालक्खणो कालो,
जीवो उवओगलक्खणो
नाणेणं दंसणेणं,
सुहेणंदुहेण य।।

धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुदगल और जीव—ये छह द्रव्य हैं। केवल दर्शन के धर्ता जिन भगवानों ने इन सबको लोक कहा है।
धर्म द्रव्य का लक्षण गति है; अधर्म द्रव्य का लक्षण स्थिति है, सब पदार्थों को अवकाश देना—आकाश का लक्षण है।
काल का लक्षण वर्तना (बरतना) है, और उपयोग अर्थात अनुभव जीव का लक्षण है। जीवात्मा ज्ञान से, दर्शन से, दुख से तथा सुख से जाना पहचाना जाता है।


सा मनुष्य खोजना मुश्किल है जो जीवन के संबंध में प्रश्न न उठाता हो; जिसकी कोई जिज्ञासा न हो, जो पूछता न हो। मनुष्य और पशु में वही भेद भी है। पशु जीवन जैसा है, उसे स्वीकार कर लिया है। कोई प्रश्न पशु चेतना में नहीं उठता, कोई जिज्ञासा नहीं जगती। आदमी जैसा है, उतना होने से राजी नहीं है। आदमी जानना भी चाहता है कि "मैं क्या हूं, क्यों हूं, किसलिए हूं' प्रश्न मनुष्य का चिह्न है। इसलिए जिस मनुष्य ने प्रश्न नहीं उठाये, वह अभी पशु के जीवन से ऊपर नहीं उठा। और जिस मनुष्य के जीवन में जिज्ञासा का जन्म नहीं हुआ, अभी—अभी उस मनुष्य का मनुष्य की तरह जन्म भी नहीं हुआ है। इसलिए कठिन है खोजना ऐसा मनुष्य, जो प्रश्न न पूछ रहा हो, जिसके लिए जीवन एक जिज्ञासा न हो।
प्रश्न सभी पूछते हैं, लेकिन कुछ लोग दूसरों के उत्तर को अपना उत्तर मान लेते हैं और अटक जाते हैं, कुछ लोग जब तक अपना उत्तर नहीं खोज लेते, तब तक अथक श्रम करते हैं। जो दूसरों का उत्तर स्वीकार करके रुक जाते हैं, उनमें प्रश्न का जन्म तो हुआ, लेकिन प्रश्न की भ्रूण हत्या हो गई, एबार्शन हो गया। प्रश्न का बीज तो पैदा हुआ, लेकिन उन्होंने इसके पहले कि बीज अंकुरित होता और वृक्ष बनता, उसकी हत्या कर दी।
हत्या की विधि है : उधार उत्तर को स्वीकार कर लेना। ध्यान रहे, प्रश्न आपका है और जब तक आप अपना उत्तर न खोज लेंगे, तब तक हल न होगा। प्रश्न दूसरे का होता, तो दूसरे के उत्तर से हल भी हो जाता। प्रश्न आपका, उत्तर दूसरे के—इन दोनों में कहीं कोई मिलन नहीं होता। इसलिए जब भी आप दूसरों के उत्तर स्वीकार कर लेते हैं, तो आपने जल्दी ही प्रश्न की गर्दन घोंट दी। आपने प्रश्न को पूरा काम न करने दिया। प्रश्न तो तभी पूरा काम कर पाता है, जब जीवन की खोज और प्यास बन जाता है; जब प्रश्न जीवन से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। यह जानना कि "जीवन क्या है', जिस दिन जीवन से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, उस दिन साधना का जन्म होता है। जिस दिन आप इस खोज के लिए जीवन को भी समर्पित करने को राजी हो जाते हैं, उस दिन आप जिज्ञासु न रहे, मुमुक्षु हो गये। उस दिन प्रश्न सिर्फ बौद्धिक न रहा, बल्कि आपके रोएं-रोएं का हो गया। आपके समग्र जीवन का हो गया और जिस दिन भी प्रश्न इतना गहन हो जाता है कि हमारी श्वास-श्वास पूछने लगती है, उस दिन उत्तर दूर नहीं है।
और ध्यान रहे, जिस भांति प्रश्न भीतर से आता है, उसी भांति उत्तर भी भीतर से ही आएगा। प्रश्न बाहर से नहीं आते। और बाहर से जो प्रश्न आते हैं, उनका कोई भी मूल्य नहीं है, उन्हें बाहर के ही उत्तरों से निपटाया जा सकता है। लेकिन जो प्रश्न आपकी ही श्वासों से और आपके ही प्राण की गहनता से उठते हैं, जो आपकी ही अंतरात्मा से जगते हैं, उन प्रश्नों का उत्तर भी आपकी अंतरात्मा में ही छिपा है। और जहां से प्रश्न आया है, उसी गहराई में खोजने पर उत्तर भी उपलब्ध होगा। धर्म और दर्शन का यही फर्क है। दर्शन है—प्रश्नों की बौद्धिक खोज। और धर्म है—प्रश्नों की जीवंत खोज।
बौद्धिक खोज का अर्थ है—आपकी बुद्धि संलग्न है, आप पूरे के पूरे संलग्न नहीं हैं। एक खण्ड जीवन का लगा है, लेकिन पूरा जीवन—पूरा जीवन दूर है।
धार्मिक खोज का अर्थ है कि बुद्धि ही नहीं, आपका हृदय भी—हृदय ही नहीं, आपकी देह भी—आपकी समग्र आत्मा, आप जो भी हैं अपनी पूर्णता में, वह पूरी की पूरी खोज में लग गई है। और जिस दिन खोज अखंड होती है, पूरी होती है, उस दिन उत्तर दूर नहीं है।
महावीर ने जो भी कहा है, ये एक दार्शनिक के वचन नहीं हैं, एक फिलासफर के वचन नहीं हैं—प्लेटो या अरस्तू या कांट और हीगल के वचन नहीं हैं। महावीर ने जो भी कहा है , ये एक धार्मिक, अनुभूति को उपलब्ध व्यक्ति के वचन हैं। महावीर ने जो भी कहा है, सोचकर नहीं कहा, देखकर कहा है।
इस भेद को ठीक से समझ लें, क्योंकि यह बहुत मौलिक है। सोचकर बहुत-सी बातें कही जा सकती हैं। लेकिन सोचकर जो कहा जाता है, वह कितना ही ठीक मालूम पड़े, ठीक नहीं हो सकता। कोई व्यक्ति प्रेम के संबंध में बहुत-सी बातें सोचकर कह सकता है। शास्त्र उपलब्ध हैं, प्रेम पर लिखे हुए काव्य उपलब्ध हैं; प्रेम की कथाएं, विश्लेषण उपलब्ध हैं; जिन्होंने प्रेम को जाना है, उनके भी शब्द उपलब्ध हैं—ये सब पढ़े जा सकते हैं, और आप भी प्रेम के संबंध में कोई धारणा बना सकते हैं, वह बुद्धि की होगी। लेकिन अगर आपको प्रेम का अपना निजी अनुभव नहीं है, तो आप जो भी कहेंगे, वह कितना ही ठीक मालूम पड़े, ठीक हो नहीं सकता। उसका ठीक मालूम पड़ना बहुत ऊपरी होगा, तार्किक होगा, शब्दगत होगा। क्योंकि जिसने प्रेम नहीं जाना, वह प्रेम के संबंध में क्या कह सकता है ?
प्रेम की कोई फिलासफी नहीं हो सकती, प्रेम का सिर्फ अनुभव हो सकता है। लेकिन, तब बड़ी कठिनाई है। क्योंकि जो जान ले प्रेम को, उसे कहना मुश्किल हो जाता है। जो प्रेम को न जाने, उसे कहना बहुत आसान है, क्योंकि उसे उस कठिनाई का पता ही नहीं है जो अनुभव से पैदा होती है। जिसने प्रेम को नहीं जाना, वह दूसरों के शब्द दोहरा सकता है, और सोचेगा बात पूरी हो गई। और जिसने प्रेम को जाना है, उसके सामने एक बड़ा कठिन, दुर्गम सवाल है, जो उसने जाना है, उसे कैसे शब्दों में प्रविष्ट करे। क्योंकि जो जाना है, वह विराट है, शब्द बहुत क्षुद्र हैं। जो जाना है, वह आकाश की भांति है, और शब्द छोटी मटकियों की भांति हैं, वह उनसे भी छोटे हैं। उस बड़े आकाश को उन मटकियों में भरना, उस सागर को गागर में डालना अति कठिन है, असंभव है।
महावीर जो भी कह रहे हैं, वह उनका जाना हुआ है। वह उन्होंने सोचा नहीं है, वह उन्हें ध्यान से उपलब्ध हुआ है, विचार से नहीं। और, विचार और ध्यान की प्रक्रियाएं विपरीत हैं।
महावीर इस बोध के पहले बारह वर्ष तक मौन में रहे। तब उन्होंने सब विचार करना छोड़ दिये। तब उन्होंने सारी बुद्धि को तिलांजलि दे दी। तब उन्होंने चिंतना एक तरफ हटा दी। वे सिर्फ मौन होते चले गए। बारह वर्ष लम्बा समय है। निश्चित ही, मौन होना कठिन है। और महावीर को बारह वर्ष लगते हैं, तो सोच सकते हो, साधारण व्यक्ति को जीवन लग जायेंगे।
चुप होना कठिन है, क्योंकि चुप होना एक तरह की मृत्यु है। आप जीते ही विचार में हैं। और जब विचार चलता होता है, तब आप को लगता है आप हैं; जब विचार खोने लगते हैं, तो आप भी खोने लगते हैं। विचार बिखरने लगते हैं, आप भी बिखरने लगते हैं। और जब विचार के सब बादल खो जाते हैं तो शून्य रह जाता है भीतर। वह शून्य महामृत्यु जैसा मालूम होता है। उस महामृत्यु के लिए जो तैयार होता है, वह ध्यान में प्रवेश पाता है। और ध्यान के बाद ही अनुभव है। विचार से कोई अनुभव नहीं होता। सच, विचार तो अनुभव में बाधा है। जब आप सोचने लगते हैं, तब आप अनुभव से टूट जाते हैं। जब आप सोचते नहीं, केवल होते हैं, तब आप अनुभव से जुड़ते हैं।
तो महावीर बारह वर्ष तक अपने विचार को काटते हैं, छोड़ते हैं। एक-एक ग्रंथि, विचार की एक-एक गांठ खोलते हैं; और जब विचार की सब गांठें खुल जाती हैं, और सब बादल बिखर जाते हैं। सिर्फ खाली आकाश रह जाता है स्वयं का, तब अनुभव शुरू होता है। इस अनुभव से जो वाणी प्रगट हुई है, उस पर ही हम विचार करने जा रहे हैं। इसे सोचेंगे आप तो भूल में पड़ जाएंगे। इसे सोचना कम, हृदय को खोलना ज्यादा, ताकि यह ऐसे प्रवेश कर सके भीतर, जैसे बीज जमीन में प्रवेश कर जाता है। जमीन बीज के संबंध में कोई विचार करने लगे, कि पहले सोच लूं, समझ लूं, इस बीज को गर्भ देना है या नहीं देना, तो जमीन कुछ भी न सोच पायेगी। क्योंकि बीज में कोई फूल प्रगट नहीं है; बीज में कोई वृक्ष भी प्रगट नहीं है। होगा—वह संभावना है। अभी वास्तविक नहीं है। अभी सब भविष्य में छिपा है। लेकिन जमीन बीज को स्वीकार कर लेती है। बीज टूट जाता है भीतर जाकर। जमीन उसे पचा लेती है। बीज मिट जाता है, खो जाता है। और जब बीज खो जाता है बिलकुल, कि जमीन को पता भी नहीं चलता कि मुझसे अलग कुछ है, तब अंकुरित होता है। तब एक नये जीवन का जन्म होता है और एक वृक्ष पैदा होता है।
महावीर के वचनों को अगर आप सोच-विचार में उलझा लेंगे, तो वे आपके भीतर उस जगह तक नहीं पहुंच पाएंगे, जहां हृदय की भूमि है। आप सोचना मत। आप सिर्फ हृदय की ग्राहक भूमि में उनको स्वीकार कर लेना। अगर वे व्यर्थ हैं, अगर वे निजव हैं, तो अंकुर पैदा न होगा, बीज यों ही मर जायेगा। अगर वे सार्थक हैं, अगर अर्थपूर्ण हैं, अगर उनमें कोई छिपा जीवन है, अगर कोई विराट उनमें छिपी संभावना है, तो जिस दिन आप उन्हें भीतर पचा लेंगे, हृदय में जब वे मिलकर एक हो जाएंगे, और जब आपको याद भी न रहेगा कि यह विचार महावीर का है या मेरा, जब यह विचार आपका ही हो जायेगा, घुल जायेगा, पिघल जायेगा, एक हो जायेगा भीतर, तब आपको पता चलेगा, इस विचार का अर्थ क्या है। क्योंकि तभी आपके भीतर इस विचार के माध्यम से एक नये जीवन का जन्म होगा; एक नई सुगंध, एक नया अर्थ, एक नये क्षितिज का उदघाटन।
तो विचार के साथ हम दो तरह का व्यवहार कर सकते हैं : एक तो आलोचक का व्यवहार है कि वह सोचेगा, काटेगा, विश्लेषण करेगा, तर्क करेगा। आपको मना नहीं करता। अगर महावीर के साथ आपको आलोचक होना है आप हो सकते हैं। लेकिन आप महावीर जो दे सकते हैं, उससे वंचित रह जाएंगे। दूसरा ग्राहक का, प्रेमी का, भक्त का दृष्टिकोण—सोचता नहीं, सिर्फ रिसेप्टिविटी, सिर्फ संवेदनशील होता है, स्वीकार कर लेता है। हृदय में छिपा लेता है और प्रतीक्षा करता है उस दिन की, जिस दिन इस बीज में से अंकुर पैदा होगा। तभी, पूरा अर्थ प्रगट होगा।
यहां मैं आपको समझाने की कोशिश करूंगा कि महावीर का प्रयोजन क्या है। लेकिन उस कोशिश से आप अर्थ को न जान पाएंगे। उस कोशिश से तो इतना ही हो सकता है कि आप राजी हो जायें और हृदय को खुला छोड़ दें। द्वार-दरवाजे खोल दें, ताकि यह किरण भीतर प्रवेश कर जाये। मेरी कोशिश आपके हृदय का दरवाजा खोलने की होगी, आपकी बुद्धि को समझाने की नहीं। अर्थ तो तभी प्रगट होगा, जब बीज आपके भीतर प्रविष्ट हो जाएंगे और आप उन्हें पचा लेंगे।
ध्यान रहे, किसी चीज का आहार कर लेना ही काफी नहीं है, उसका पचना जरूरी है। इसलिए महावीर को दो तरह के लोग अपने भीतर लेते हैं। पंडित भी अपने भीतर ले लेता है, लेकिन वह पचा नहीं पाता है। वह जो आहार कर लेता है, वह अनपचा रह जाता है। इसलिए पंडित का मस्तिष्क बोझिल होता चला जाता है उस अनपचे आहार से। उसका अहंकार प्रगाढ़ होता चला जाता है। उसकी आत्मा तो खाली बनी रहती है, लेकिन उसकी स्मृति भरती चली जाती है। ज्ञानी भी आहार करता है विचार का, लेकिन उसे पचाने की कोशिश करता है। और जब तक वह खून न बन जाये, अपना न हो जाये, जब तक बहने न लगे रग-रग में, जब तक अपने जीवन का एक भाग न हो जाए, तब तक चैन नहीं लेता।
अगर आपको पंडित बनना हो तो आलोचक की दृष्टि से सोचना और अगर आपको ज्ञानी की तरफ यात्रा करनी हो तो एक भक्त के भाव से सोचना।
जैसा हमारा जीवन है, वहां कोई चाहिये, जो हमें झकझोर दे। और हमारी यात्रा को पलट दे। जैसा हमारा जीवन है, वहां कोई चाहिए, जो हमें एक जोर का धक्का दे, एक शाक हमें लगे कि हमारी यात्रा की दिशा बदल जाए।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन शिकागो से एक संध्या एक ट्रेन में सवार हुआ। जिस डिब्बे में था, उस डिब्बे में एक और वृद्ध महिला भी थी। बस, वे दो ही थे। गाड़ी को छूटे पांच-सात मिनट हुए ही होंगे कि वृद्ध महिला को खयाल आया कि जो यात्री साथ में है, वह रो रहा है। सोचा उसने किसी प्रियजन से बिछुड़ना हुआ होगा। बोलना उचित न समझा।
नसरुद्दीन अपने माथे को पैरों में झुकाए, हाथों में दबाये रोए चला जा रहा है। उसकी हिचकियां उसके पूरे शरीर को हिला रही हैं। रात हो गई, वृद्धा सो गई, लेकिन सुबह जब फिर जागी तो देखा कि वह अभी भी रोए चला जा रहा है। आंसू पोंछता है, फिर हिचकियां आ जाती हैं, फिर थोड़ी देर रुकता है, फिर रोने लगता है। फिर उसने सोचा मैं अजनबी हूं, और पता नहीं कितने दुख में है वह आदमी। मेरा बीच में बोलना, या कुछ कहना कहीं दुख को और न बढ़ा दे, कहीं घाव को और न छेड़ दे।
दूसरा दिन भी बीत गया, और तीसने दिन की सुबह होने लगी। तब तो वृद्धा को भी सम्हालना मुश्किल हो गया अपने को। वह पास आई। उसने नसरुद्दीन के सिर पर हाथ रखा, थपथपाया और कहा कि क्या हो गया है ? मुझे कुछ कहें, शायद कहने से भी भार हल्का हो जाये। तो नसरुद्दीन ने कहा कि मत पूछें। सोचकर ही मन और दुखी होता है। नाउ इट इज थ्री डेज दैट आइ हैव बीन राइडिंग आन द रांग ट्रेन—तीन दिन हो गये हैं और मैं गलत गाड़ी में सवार हूं।
इस गाड़ी से कभी भी उतरा जा सकता था!
नसरुद्दीन पर आपको हंसी आ सकती है, लेकिन उस हंसी में आप मत भूल जाना कि करीब-करीब वैसी ही अवस्था आपकी है। तीन दिन ही नहीं, न-मालूम कितने जन्मों से आप गलत गाड़ी में सवार हैं। रो भी रहे हैं, ऐसा भी नहीं कि नहीं रो रहे हैं। बुरी तरह रो रहे हैं, हिचकिंया बंधी हैं। आंखें गीली हैं, सुख कहीं दिखाई नहीं पड़ता, दुख ही दुख है, फिर भी गाड़ी में बैठे हुए हैं। और जिससे दुख हो रहा है, जिससे गलत दिशा में जा रहे हैं, उसको आपका पूरा सहयोग है।
इसे थोड़ा ठीक-से अपनी तरफ देखेंगे तो खयाल में आ जायेगा कि जहां-जहां आप गलत जा रहे हैं, वहीं-वहीं आपकी ऊर्जा सहयोग कर रही है; जो-जो जीवन में गलत है, उसी-उसी के आप सहयोगी और साथी हैं। और जीवन में जो-जो श्रेष्ठ है, जहां से यात्रा का रुख बदल सकता है, पूरे जीवन का ढंग बदल सकता है, उस तरफ आपका कोई सहयोग नहीं है। उसे आप सुन भी लेते हैं, तो भी वह कभी आपके जीवन की मूलधारा नहीं बन पाता। मूलधारा तो आपकी गलत ही बनी रहती है। फिर इस गलत मूलधारा के बीच जो आप ठीक भी सुन लेते हैं, उसकी भी आप जो व्याख्या करते हैं, वह भी इस गलत को सहयोग देने वाली होती है। क्योंकि व्याख्या आप करेंगे।
इसलिए मैंने कहा कि आप सोचना-विचारना मत। महावीर की तरफ एक सहानुभूति, एक प्रेम के रुख की जरूरत है। क्योंकि जो भी आप सोचेंगे, वह "आप' सोचेंगे। और "आप' गलत हैं। आपके निर्णय के ठीक होने का कोई उपाय नहीं है। अगर आपके निर्णय ठीक हो सकते, तो आप खुद कभी के महावीर हो गये होते, महावीर को सुनने, समझने की कोई जरूरत नहीं थी। एक जिसको पश्चिम
के सौंदर्य-शास्त्री सिम्पेथेटिक पार्टिसिपेशन कहते हैं—एक सहानूभूतिपूर्ण मिलन, एक रेपर्ट—जहां आप लड़ नहीं रहे हैं, बल्कि उन्मुक्त हैं समझने को, जीने को, नये कोण को देखने को राजी हैं।
महावीर का मिजाज आपसे बिलकुल अलग है। यह आदमी बिलकुल और ढंग का है। इसकी यात्रा अलग है। यह किसी और ही ट्रेन में सवार है। इसकी दिशा भिन्न है। तो जैसे आप हैं, अगर वहीं से आप सोचेंगे, तो आप महावीर को चूक जायेंगे। जैसे महावीर हैं, अगर उनके रुख में आप झुकने को राजी होंगे, तो ही आप समझ पायेंगे।
इसलिए धर्मों ने श्रद्धा का बड़ा मूल्य माना है। नहीं कि संदेह व्यर्थ है। संदेह उपयोगी है; पर धर्म की दिशा में नहीं, विज्ञान की दिशा में उपयोगी है। संदेह बहुमूल्य है अगर पदार्थ को समझना हो, क्योंकि पदार्थ के साथ किसी सहानुभूति की जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि अगर पदार्थ को समझना हो, और सहानुभूति हो, तो आप समझ ही न पायेंगे। अगर एक वैज्ञानिक पदार्थ को समझने में सहानुभूति रखता हो, तो पदार्थ को समझ नहीं पायेगा, क्योंकि वह निरपेक्ष नहीं रह जायेगा। उसके पक्षपात जुड़ जायेंगे। उसे तो पूरी तरह निरपेक्ष, तटस्थ होना चाहिए—कोई सहानुभूति नहीं, जैसे वह है ही नहीं; उसे जरा भी प्रविष्ट नहीं होना चाहिए पदार्थ को समझने में। उसे तो सिर्फ एक निरीक्षक होना चाहिए। जिससे उसका कोई भी संबंध नहीं तो ही विज्ञान और वैज्ञानिक सफल हो पाता है।
ठीक उल्टी है बात धर्म की। वहां अगर आप बहुत तटस्थ हैं, दूर खड़े हैं, सिर्फ निरीक्षक हैं, तो आप प्रवेश ही न कर पायेंगे। धर्म में तो प्रवेश हो पायेगा, अगर आप अति सहानुभूति से भरे हैं। जैसे मां अपने बच्चे को गोद में ले लेती है, अगर महावीर के वचनों को ऐसे ही आप अपने हृदय के पास ले सकेंगे, तो ही—तो ही संबंध जुड़ पायेगा। और एक बार संबंध जुड़ जाए, तो आपका मिजाज बदल जाता है, आपके होने का ढंग बदल जाता है। फिर महावीर की बातें समझ में आनी शुरू हो जाती हैं। क्योंकि आपकी आंखों की दिशा, आपकी आंखों का ढंग, आपके देखने का ढंग, आपके होने का ढंग, सब बदल जाता है। इसके पहले कि महावीर आपके साथी बन सकें, आपको उनका साथी बन जाना बहुत जरूरी है और इसके पहले कि वे आपकी समझ में आ सकें, आपकी समझ का पूरा ढंग बदल जाना जरूरी है।
जैसे आप हैं, वैसे ही महावीर को समझने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए कोई महावीर को माननेवालों की कमी नहीं है, लेकिन समझनेवाला मुश्किल से कोई दिखाई पड़ता है। जो माननेवाले हैं, वे भी सोचनेवाले हैं। उन्होंने भी महावीर की व्याख्या कर रखी है अपने हिसाब से। अपने को पोंछकर, अपने को मिटाकर जो समझने चलेगा, वही केवल समझ पा सकता है।
अब हम सूत्र में प्रवेश करें।
ये सूत्र—प्राथमिक सूत्र थोड़े कठिन होंगे, क्योंकि महावीर अपने अनुभव को एक ढांचा दे रहे हैं, एक व्यवस्था दे रहे हैं। वह व्यवस्था समझ में आ जाये तो फिर बाद का प्रवेश बहुत आसान है।
"धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुदगल और जीव—ये छह द्रव्य हैं। केवलदर्शन के धर्ता जिन भगवानों ने इन सबको लोक कहा है।'
पहली बात : महावीर और जैनों के बाकी तेईस तीथ*कर किसी शास्त्र में विश्वास नहीं करते—किसी वेद, किसी कुरान, किसी बाइबिल में उनका विश्वास नहीं है। क्योंकि उनकी दृष्टि यह है कि अनुभव शब्द में संरक्षित नहीं किया जा सकता। इसलिए मूल स्त्रोत सदा व्यक्ति है, शास्त्र नहीं।
जैसे हिंदू-धारणा है, वेद पर भरोसा है। मूल विश्वास वेद पर है—शास्त्र पर। जो वेद कहता है, वह ठीक है। और अगर कोई व्यक्ति कुछ कहता हो, वह वेद के विपरीत जाता हो, तो व्यक्ति गलत होगा, वेद गलत नहीं होगा। लेकिन महावीर की दृष्टि बिलकुल उल्टी है।
महावीर कहते हैं, भरोसा व्यक्ति का है और अगर व्यक्ति कुछ कहता हो, और वेद विपरीत हो, तो वेद गलत हैं, व्यक्ति गलत नहीं है।
इस फर्क को ठीक-से समझ लें।
शास्त्र मृत हैं, व्यक्ति जीवित है। मृत पर बहुत भरोसा उचित नहीं है। और मृत का अगर कोई मूल्य भी है, तो भी इसीलिए है कि किसी जीवित व्यक्ति के वचन हैं वहां। लेकिन शास्त्र कितना ही प्राचीन हो, कितना ही मूल्यवान हो, किसी भी जीवित व्यक्ति के अनुभव को गलत करने के काम नहीं लाया जा सकता।
महावीर व्यक्ति पर इतना भरोसा करते हैं, जितना पृथ्वी पर किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं किया है। व्यक्ति की चरम मूल्यवत्ता महावीर को स्वीकार है। तो वेद जैसे कीमती शास्त्र को भी महावीर कह देते हैं, छोड़ देना होगा, अगर व्यक्ति के अनुभव के अनुकूल न हो। जीवित व्यक्ति चरम-मूल्य है, अंतिम इकाई है।
यह बहुत बड़ी क्रांतिकारी धारणा है। मन को भी बड़ी चोट पहुंचाती है। और मजे की बात यह है कि जैन भी इस धारणा के अनुकूल नहीं चल पाये। जैन भी अब महावीर के वचन को सुनते हैं। अगर किसी व्यक्ति का अनुभव महावीर के वचन के विपरीत जाता हो, तो वे कहेंगे कि यह व्यक्ति गलत है। फिर महावीर का वचन वेद बन गया है। इसलिए जैन हिंदू-धर्म का एक हिस्सा होकर मर गये । उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है—हो नहीं सकता। क्योंकि महावीर की मौलिक धारणा ही नष्ट हो गई। महावीर की धारणा यह है कि व्यक्ति का सत्य चरम है। और इसलिए निरन्तर महावीर बार-बार कहते हैं कि जो मैं कह रहा हूं, यह उनका अनुभव है, जो "केवलज्ञान' को उपलब्ध हुए हैं। यह अनुभव है। किसी शास्त्र की गवाही महावीर नहीं देते। हमेशा गवाही व्यक्तियों की है।
"केवलदर्शन के धर्ता जिन भगवानों ने इस सबको लोक कहा है।'
और भी कुछ बातें इसमें खयाल ले लेनी जरूरी हैं।
केवलदर्शन का अर्थ है, जो उस अवस्था को उपलब्ध हो गये जहां मात्र ज्ञान रह आता है और जानने को कुछ भी नहीं। हम जब भी कुछ जानते हैं, तो कुछ जानते हैं—कोई आब्जेक्ट
आप यहां बैठे हैं, मैं आपको देख रहा हूं, तो मैं आपको जान रहा हूं। लेकिन आपको जान रहा हूं, फिर आप यहां से हट जाएं और जानने को कुछ भी न बचे, सिर्फ मेरा जाननेवाला रह जाए—सो न जाए, मूर्छित न हो जाए, होश में हो, जानने को कुछ भी न बचे और सिर्फ जाननेवाला बच जाए; मन के पद* पर से सारी तस्वीरें खो जाएं, सिर्फ चेतना का प्रवाह बच जाए, उस अवस्था को महावीर "केवलज्ञान' कहते हैं, शुद्ध-ज्ञान—मात्र-ज्ञान। जो ऐसे मात्र-ज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं, उनको महावीर "जिन' कहते हैं। जिन का अर्थ है, जिन्होंने जीत लिया, जिन्होंने जीवन की परम विजय उपलब्ध कर ली, जिनको जीतने को अब कुछ भी न बचा। और ऐसे जिनों को महावीर "भगवान' कहते हैं।
यह भी समझ लेना जरूरी है कि महावीर के लिए "भगवान' का वही अर्थ नहीं है, जो हिंदुओं के लिए है, ईसाइयों के लिए है, मुसलमानों के लिए है। महावीर की "भगवान' की बड़ी अनूठी अवधारणा है।
तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं :
एक तो महावीर कहते हैं, उतने ही भगवान हैं, जितनी आत्माएं हैं। भगवान एक नहीं है। एक भगवान की धारणा बहुत डिक्टेटोरियल है, बहुत तानाशाहीपूर्ण है। महावीर कहते हैं, प्रत्येक आत्मा भगवान है। जिस दिन पता चल जायेगा, उस दिन प्रगट हो जायेगी। जब तक पता नहीं चला है, तब तक वृक्ष बीज में छिपा है।
अनंत भगवानों की धारणा है महावीर की, अनंत—जितने जीव हैं। आप ऐसा नहीं सोचना कि आप ही हैं। चींटी में जो जीव है, वह भी छिपा हुआ भगवान है। आज नहीं कल, वह भी प्रगट होगा। वृक्ष में जो है, वह भी भगवान है। आज नहीं कल, वह भी प्रगट होगा। समय की भर देर है। एक घड़ी जो भी छिपा है, वह प्रगट हो जायेगा।
अनंत भगवानों की धारणा दुनिया में कहीं भी नहीं है। और उस के पीछे भी व्यक्ति का मूल्य है। महावीर को यह खयाल दुखद मालूम पड़ता है कि एक ब्रह्म है, जो सबका मालिक है। यह बात ही तानाशाही की मालूम पड़ती है। यह भी बात महावीर को उचित नहीं मालूम पड़ती कि "उस एक' में ही सब खो जायेंगे। यह भी बात उचित नहीं मालूम पड़ती कि "उस एक' ने सबको बनाया है, "वह एक' सृष्टा है। यह बात बेहूदी है।
क्योंकि महावीर कहते हैं कि अगर मनुष्य की आत्मा बनाई गई है तो वह आत्मा ही न रही, वस्तु हो गई। जो बनाई जा सकती है, वह क्या आत्मा है। महावीर कहते हैं, जो बनाई जा सकती है वह वस्तु है, आत्मा नहीं। इसलिए अगर किसी परमात्मा ने आत्माएं बनाई हैं, तो वे सब वस्तुएं हो गईं।। फिर हम परमात्मा के हाथ की गुड्डियां हो गये, कोई मूल्य न रहा।
महावीर इसलिए सृष्टा की धारणा को अस्वीकार कर देते हैं। वे कहते हैं, कोई सृष्टा नहीं। क्योंकि अगर सृष्टा है तो आत्मा का मूल्य नष्ट हो जाता है। आत्मा का मूल्य ही यही है कि वह असृष्ट है, अनक्रिएटेड है। उसे बनाया नहीं जा सकता। जो भी चीज बनाई जा सकती है, वह वस्तु होगी, यंत्र होगी—कुछ भी होगी—लेकिन जीवंत चेतना नहीं हो सकती।
थोड़ा सोचें। जीवंत चेतना अगर बनाई जा सके, तो उसका मूल्य, उसकी गरिमा, उसकी महिमा—सब खो गयी। इसलिए महावीर कहते हैं, कोई सृष्टा परमात्मा नहीं है। फिर महावीर कहते हैं, जो बनाई जा सकती है, वह नष्ट भी की जा सकती है।
ध्यान रहे, जो भी बनाया जा सकता है, वह मिटाया जा सकता है। अगर कोई परमात्मा है आकाश में, जिसने कहा बन जाओ और आत्माएं बन गइ*, वह किसी भी दिन कह दे कि मिट जाओ और आत्माएं मिट जाएं, तो यह मजाक हो गया, जीवन के साथ व्यंग हो गया। इसलिए महावीर कहते हैं, न तो आत्मा बनाई जा सकती और न मिटाई जा सकती। जो न बनाया जा सकता, जो न मिटाया जा सकता, उसको महावीर "द्रव्य' कहते हैं—सब्सटेन्स
यह उनकी परिभाषा को समझ लेना आप। द्रव्य उसको कहते हैं, जो न बनाया जा सकता और न मिटाया जा सकता है—जो है। इसलिए महावीर कहते हैं, जगत में जो भी मूल द्रव्य हैं, वे हैं सदा से। उनको किसी ने बनाया नहीं है और उनको कभी कोई मिटा भी नहीं सकेगा।
आधुनिक विज्ञान महावीर से राजी है। जैनों की वजह से महावीर का विचार वैज्ञानिकों तक नहीं पहुंच पाता, अन्यथा आधुनिक विज्ञान जितना महावीर से राजी है, उतना किसी से भी राजी नहीं है। अगर आइंस्टीन को महावीर की समझ आ जाती तो आइंस्टीन महावीर की जितनी प्रशंसा कर सकता था, उतनी कोई भी नहीं कर सकता है। लेकिन जैनों के कारण बड़ी कठिनाई है।
एक मित्र मेरे पास आए थे। महावीर की पच्चीस-सौवीं वर्ष गांठ आती है। वे मुझसे कहने लगे कि "किस भांति हम इसको मनाएं कि सारे जगत को महावीर के ज्ञान का प्रसार मिल जाए ?' तो मैंने उनको कहा कि "आप जब तक हैं, तब तक बहुत मुश्किल है। आप ही उपद्रव हैं, आप ही बाधा हैं।'
महावीर विराट हो सकते हैं, लेकिन जैनों का बड़ा संकीर्ण घेरा है और जैनों की संकीर्ण बुद्धि के कारण महावीर की जो तस्वीर दुनिया के सामने आती है, वह बड़ी संकीर्ण हो जाती है। महावीर का खुलकर अध्ययन भी नहीं हो पाता। बंधी लकीरोंवाले लोग कुछ भी नहीं खोज सकते। महावीर की पुनः खोज की जरूरत है, लेकिन तब बंधी लकारें तोड़ देनी पड़ेंगी।
महावीर की यह धारणा कि "द्रव्य' उसको कहते हैं, महावीर जिसे आज विज्ञान "एलिमेंट' कहता है। वह कभी नष्ट नहीं होता और कभी बनाया भी नहीं जाता—रूपांतरित होता है, बनता है, बिगड़ता है। लेकिन बनना और बिगड़ना सिर्फ रूप का होता है, मूल तत्व न ही बनता और न बिगड़ता। इस तरह के छह द्रव्य महावीर ने कहे हैं।
पहला द्रव्य है धर्म, दूसरा अधर्म, तीसरा आकाश, चौथा काल, पांचवां पुदगल, छठवां जीव। परमात्मा की कोई जगह नहीं है, ये छह मूल द्रव्य हैं। ये छह सदा से हैं और सदा रहेंगे। और जो कुछ भी हमें बीच में दिखाई पड़ता है वह इन छह का मिलन और बिछुड़न है। इनका आपस में जुड़ना और अलग होना है। सारा संसार संयोग है, ये छह मूल द्रव्य हैं।
अनंत आत्माएं हैं और हर आत्मा परमात्मा होने की क्षमता रखती है, इसलिए महावीर की परमात्मा की धारणा को ठीक से समझ लें। महावीर कहते हैं, आत्मा की तीन अवस्थाएं हैं : एक अवस्था है आत्मा की—बहिर आत्मा। जब चेतना बाहर की तरफ बहती रहती है। दूसरी अवस्था है आत्मा की—अंतरात्मा। जब चेतना भीतर की तरफ बहती है।
वासना में बहती है बाहर की तरफ, विचार में बहती है बाहर की तरफ तब आप बहिर आत्मा हैं—आत्मा की निम्नतम अवस्था। ध्यान में बहती है भीतर की तरफ, मौन में बहती है भीतर की तरफ, तब आप अंतरात्मा हैं—आत्मा की दूसरी अवस्था। और आत्मा की तीसरी अवस्था है, जब चेतना कहीं भी नहीं बहती—न बाहर की तरफ, न भीतर की तरफ, सिर्फ होती है। बहना बंद हो जाता है। कोई गति और कोई कंपन नहीं रह जाता—समाधि। उस तीसरी अवस्था में आत्मा का नाम परमात्मा है।
बहिर आत्मा से अंतरात्मा, अंतरात्मा से परमात्मा। और अनंत आत्माएं हैं, इसलिए अनंत परमात्मा हैं। और कोई आत्मा किसी में लीन नहीं हो जाती, क्योंकि प्रत्येक आत्मा अपने में स्वतंत्र द्रव्य है। अंतिम अवस्था में कोई भेद नहीं रह जाता, दो आत्माओं में कोई भेद नहीं रह जाता, कोई दीवार नहीं रह जाती, कोई अंतर नहीं रह जाता, किसी तरह का विवाद-विरोध नहीं रह जाता लेकिन फिर भी प्रत्येक आत्मा निजी होती है, इनडिविजुअल होती है।
ये छह द्रव्य भी महावीर के बड़े अनूठे हैं, इनकी व्याख्या समझने-जैसी है :
"धर्म द्रव्य का लक्षण है, गति।' बहुत अनूठी दृष्टि है। महावीर कहते हैं, जिससे भी गति होती है, वह धर्म है; और जिससे भी गति रुकती है, वह अधर्म है। जिससे भी विकास होता है, वह धर्म है; जिससे भी अभिव्यक्ति अपनी पूर्णता की तरफ पहुंचती है, वह धर्म है, और जिससे भी विकास रुकता है, वह अधर्म है।
अधर्म को महावीर कहते हैं, स्थिति का तत्व रोकनेवाला; और धर्म को महावीर कहते हैं, गति का तत्व बढ़ानेवाला। दोनों हैं, आप पर निर्भर है कि आप किस तत्व के साथ अपने को जोड़ लेते हैं। अगर आप अधर्म के साथ अपने को जोड़ लेते हैं, तो आप रुक जाते हैं। जन्मों-जन्मों तक रुके रह सकते हैं। अगर आप धर्म के साथ अपने को जोड़ लेते हैं, तो बढ़ने शुरू हो जाते हैं।
एक मछली है, तैरने की क्षमता है उसमें, लेकिन वह भी पानी का सहारा न ले तो तैर न पायेगी; क्षमता है—पानी का सहारा ले तो तैर पायेगी। आपकी क्षमता है, क्षमता है परमात्मा होने की, लेकिन धर्म का सहारा लें तो तैर पायेंगे, अधर्म का सहारा लें तो रुक जायेंगे। अगर आप बहिर-आत्मा होकर रह गये हैं तो उसका कारण है कि आपने कहीं अधर्म का सहारा ले लिया है।
यह बहुत सोचने-जैसी बात है, महावीर बुराई को अधर्म नहीं कहते। जो भी रोक लेती है बात, वही अधर्म है। तो बुरे की व्याख्या भी नई हो जाती है। तब बुरे का अर्थ, अशुभ का अर्थ, पाप का अर्थ बड़ा नया हो जाता है। जीवन में जहां-जहां रोकनेवाले तत्व हैं, उनके साथ आपका जो गठबंधन है, वही अधर्म है।
धर्म खोलेगा, मुक्त करेगा, स्वतंत्र करेगा, बंधनों को काटेगा। नाव बंधी है किनारे से, उसे किनारे की खूंटियों से अलग करेगा और जैसे-जैसे किनारे की खूंटियां हटती जायेंगी, नाव मुक्त होती जायेगी गति करने को। कहां-कहां हम बंधे हैं ?
जो-जो हमारी वासनाएं हैं, वे-वे हमारी खूंटियां हैं—नदी के किनारे जिनसे हमारी नाव बंधी है। और खूंटियों को हम मजबूत रखते हैं कि कहीं खूंटियां टूट न जायें। खूंटियों को हम बल देते हैं, ताकि खूंटियां कमजोर न हो जायें। हम अपने बंधनों को पोषण देते हैं। जो हमें बांध रहा है, जो हमारा कारागृह है, उसे ही हम जीवन समर्पित कर रहे हैं। जिससे हम अटक गए हैं, उसे हम सहारा समझ रहे हैं। और जब तक हमें यह दिखाई न पड़ जाए कि क्या सहारा है और क्या बाधा है—जब तक यह साफ न हो जाये, तब तक कोई गति नहीं हो सकती है।
अगर महावीर अपने राजमहल को छोड़कर चले जाते हैं, तो आप यह मत सोचना कि राजमहल में कुछ बुराई है, जिसकी वजह से छोड़कर चले जाते हैं। धन वैभव छोड़ देते हैं, तो आप यह मत सोचना कि धन, वैभव में कोई बुराई है। महावीर को दिखाई पड़ता है कि वे खूंटियां हैं, और जब तक उनके इर्द-गिर्द मैं हूं, तब तक धर्म के तत्व के साथ मेरा संबंध नहीं हो पायेगा। तो मैं गति नहीं कर पाऊंगा।
अगर ठीक-से समझें तो महावीर धन को नहीं छोड़ते, धन से अपने को छुड़ाते हैं। बुनियादी फर्क है। धन छोड़ना बहुत आसान है, धन से अपने को छुड़ाना बहुत कठिन है। क्योंकि धन छोड़कर आप भाग सकते हैं, लेकिन तत्काल आप दूसरा धन पैदा कर लेंगे, जिसको आप पकड़ लेंगे। धन कुछ रुपयों-सिक्कों में बंद नहीं है, जहां भी सुरक्षा है, वहीं धन है, और जहां भी भविष्य का आश्वासन है, वहीं धन है।
धन का मतलब क्या है ?
धन का मतलब है कि मेरे पास अगर एक हजार रुपये हैं, तो कल मेरा सुरक्षित है। कल मुझे भूखा नहीं मरना पड़ेगा। रहने को मकान होगा, भोजन होगा, कपड़े होंगे, मैं कल के लिए सुरक्षित हूं। धन की इतनी पकड़ भविष्य की सुरक्षा के लिए है। अगर आपको अचानक पता चल जाए कि कल सुबह दुनिया नष्ट हो जानेवाली है, धन पर आपकी पकड़ इसी वक्त छूट जायेगी; कंजूस-से-कंजूस आदमी धन लुटाता हुआ दिखाई पड़ेगा।
अगर दुनिया कल सुबह खत्म हो रही हो तो धन का मूल्य क्यों खतम होता है ?
धन का मूल्य है भविष्य की सुरक्षा में, अगर भविष्य ही नहीं, तो धन का कोई मूल्य नहीं। आप धन छोड़ सकते हैं, लेकिन भविष्य की सुरक्षा आपके साथ अगर लगी है, तो आप नया धन पैदा कर लेंगे।
तो एक आदमी धन को छोड़ जाता है फिर पुण्य को पकड़ लेता है। फिर पुण्य धन हो जाता है। फिर वह सोचता है कि पुण्य मेरे पास है तो स्वर्ग मुझे मिलेगा। आपके लिहाज से वह आदमी और भी बड़े भविष्य का इंतजाम कर रहा है। आप तो मरने तक भविष्य का उपयोग कर सकते हैं, वह मरने के बाद भी पुण्य का उपयोग कर सकता है। वह जिस करेंसी को इकट्ठा कर रहा है, वह जीवन के उस तरफ भी चलती है। आपके नोट उस तरफ नहीं चलेंगे। इसलिए साधु-संन्यासी गृहस्थियों को समझाते हैं कि "क्या धन को पकड़ रहे हो, क्षणभंगुर है! पुण्य को पकड़ो, जो कि सदा साथ रहेगा।'
लेकिन, यह बड़े मजे की बात है कि, "पकड़ो जरूर'। उनका कहना कुल इतना ही है कि "तुम गलत धन को पकड़ रहे हो, ठीक धन को पकड़ो। तुम जिस धन को पकड़ रहे हो, यह मौत तक काम देगा, मौत के बाद तुम मुश्किल में पड़ोगे। हमने ठीक धन पकड़ा है। तुमने गलत बैंक का सहारा लिया है, हमने ठीक बैंक का सहारा लिया है।'लेकिन सहारा है!
धन को छोड़ना बहुत आसान है, क्योंकि आप नया धन पैदा कर लेंगे। जिस मन में असुरक्षा है, वह धन को पैदा कर ही लेगा। धन, असुरक्षित मन की संतान है। फिर वह धन कई तरह का हो सकता है।
लेकिन महावीर ने धन नहीं छोड़ा, धन से अपने को छुड़ाया। यह प्रक्रिया अलग है। धन पर ध्यान नहीं है, अपने पर ध्यान है, कि जो-जो चीज मुझे पकड़ती है, उसकी पकड़ मेरे ऊपर क्यों है। वह पकड़ मेरी न रह जाए।
फिर ध्यान रहे, धन आपको पकड़े हुए भी नहीं है, आप ही धन को पकड़े हुए हैं। इसलिए असली सवाल धन छोड़ने का नहीं है, असली सवाल अपनी पकड़ छोड़ने का है। इसलिए यह भी हो सकता है कि कोई आदमी धन के बीच भी पकड़ छोड़ दे—हुआ है। और यह भी हो सकता है कि कोई आदमी धन छोड़कर भी पकड़ न छोड़े—यह रोज हो रहा है।
बारीक है दोनों के बीच मार्ग। महावीर छुड़ा रहे हैं, अपनी पकड़। जहां-जहां पकड़ है, छोड़ रहे हैं। जहां-जहां सहारा है, छोड़ रहे हैं। क्योंकि अनुभव में आ रहा है कि सब सहारे बाधा बन गये हैं। उन्हीं की वजह से नाव रुकी है।
धर्म है, गति का तत्व। विज्ञान को बड़ी कठिनाई थी सौ साल पहले, तो विज्ञान ने एक तत्व की कल्पना की थी "ईथर'। क्योंकि विज्ञान को कठिनाई थी कि सूर्य की किरणें आती हैं, यात्रा होती है, तो कोई-न-कोई तत्व चाहिए जिसमें यात्रा हो। तो ईथर परिकल्पित था, कि कोई-न-कोई तत्व होना चाहिये, नहीं तो किरण कैसे यात्रा करेगी। तो यह महाकाश जो शून्य है, इसमें कोई तत्व होना चाहिए। उस तत्व का कोई पता नहीं था। ईथर परिकल्पित था। क्योंकि यात्रा हो रही है इसलिए कोई तत्व चाहिये। अब ईथर की मान्यता क्षीण हो गई है। लेकिन, कहीं-न-कहीं चित्त में यह बात घूमती ही है विज्ञान के भी कि अगर कोई चीज यात्रा कर रही है, तो माध्यम जरूरी है। एक नदी बह रही है, तो दो किनारे जरूरी हैं। उन दो किनारों के माध्यम के बिना नदी नहीं बह पायेगी।
डार्विन ने सिद्ध किया कि मनुष्य विकास कर रहा है, लेकिन डार्विन को खयाल नहीं है, जो महावीर को खयाल है। अगर मनुष्य विकास कर रहा है, तो गति हो रही है। तो गति की एक धारणा, और गति का एक मूल द्रव्य होना चाहिए, अन्यथा गति नहीं होगी। मनुष्य यात्रा कर रहा है। पशु से मनुष्य हो गया है, या बंदर से मनुष्य हो गया है। डार्विन के हिसाब से मछली की और यात्रा चल रही है। डार्विन के हिसाब से पहला जीवन का तत्व था, पहला नदियों के किनारे लगी पत्थर पर जो काई होती है, वह है। हरी काई, वह जीवन का पहला तत्व है। उस हरी काई से आप तक यात्रा हो गई। आप तक ही नहीं, महावीर तक भी यात्रा हो गई।
तो महावीर कहते हैं, यह जो इतना एवोल्यूशन हो रहा है, इतनी गति हो रही है, इस गति का एक तत्व चाहिए। उसे वे "धर्म' कहते हैं। और जो उस गति के तत्व को पहचान लेता है अपने जीवन में, और उसका संगी-साथी हो जाता है, उसमें अपने को छोड़ देता है, वह विकास की चरम अवस्था पर पहुंच जाता है। वह चरम अवस्था परमात्मा है। इसलिए धर्म वहां समाप्त हो जता है, जहां आप परमात्मा होते हैं। वहां यात्रा पूरी हो जाती है। मंजिल आ गई।
अगर एक पत्थर को आप रास्ते पर पड़ा देखते हैं तो आप कभी भी नहीं सोचते कि वह रुका क्यों है? आपमें और पत्थर में फर्क क्या है? पत्थर के पास ही एक पौधा उग रहा है, उस पत्थर और पौधे में फर्क क्या है?
पौधा बढ़ रहा है, गतिमान है; पत्थर अगतिमान है, रुका है, ठहरा है। उसकी अगति के कारण ही उसकी चेतना कुंद है। वहां भी परमात्मा छिपा है, लेकिन अधर्म को बड़े जोर से पकड़ा है। इतने जोर से पकड़ा है कि कोई भी गति नहीं हो रही है।
गति के दो बिंदु हम खयाल में ले लें। एक पत्थर-जैसी अवस्था, बंद, सब तरफ से कुछ प्रवेश नहीं करता, कोई प्रवाह नहीं है; सब ठहरा हुआ, फ्रोजन, जमा हुआ; और फिर एक तरल अवस्था महावीर की, जहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं, कुछ भी अटका हुआ नहीं, कुछ भी रुका हुआ नहीं; जीवंत प्रवाह है, मात्र प्रवाह है।
"अधर्म और धर्म'—हम आमतौर से सोचते हैं अधर्म को अनीति की भाषा में, धर्म को नीति की भाषा में। महावीर सोचते हैं विज्ञान की भाषा में, नीति की भाषा में नहीं। इसलिए जो चीज भी आपको परमात्मा की तरफ ले जा रही है, वह धर्म है।
यह भी प्रत्येक व्यक्ति को सोचने जैसा है कि क्या उसे परमात्मा की तरफ ले जायेगा। जरूरी नहीं है कि दूसरा जिस ढंग से परमात्मा की तरफ जा रहा है, उसी ढंग से आप भी जा सकेंगे; क्योंकि दूसरा अलग बिंदु पर खड़ा है और आप अलग बिंदु पर खड़े हैं, दूसरा अलग स्थिति में खड़ा है, आप अलग स्थिति में खड़े हैं। और कभी-कभी दूसरे के पीछे चलकर आप उलझन में पड़ जाते हैं। और ऐसा भी नहीं है कि दूसरा गलत था, अपने लिए ठीक रहा हो। इसलिए धर्म बड़ी व्यक्तिगत खोज है।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन लंगड़ा-लंगड़ाकर चल रहा है रास्ते पर। एक मित्र मिल गया और मित्र ने कहा कि यही तकलीफ मुझे भी थी। दांत मैंने निकलवा दिये, तब से बिलकुल चंगा हो गया।
नसरुद्दीन ने सोचा कि कोई हर्ज तो है नहीं। दांत निकलवाने में क्या हर्ज है। दांत निकलवा दिये। लंगड़ाना तो जारी रहा, मुंह और खराब हो गया! दूसरा मित्र मिल गया। मित्रों की कोई कमी तो है नहीं। उसने कहा कि क्या! दांत से कुछ होनेवाला नहीं। तकलीफ यही मुझे भी थी, अपेन्डिक्स निकलवा दी, तब से बिलकुल चंगा हो गया हूं!
मुल्ला ने सोचा कि अपेन्डिक्स का कोई उपयोग तो है नहीं, निकलवा दी। हालत और खराब हो गई, कमर और झुक गई। तीसरा मित्र मिल गया, उसने कहा कि क्या कर रहे हो? अपेन्डिक्स और दांतों से कुछ होनेवाला नहीं—टान्सिल्स असली तकलीफ है। मैंने निकलवा दिये, तब से बिलकुल जवान हो गया।
मुल्ला ने टान्सिल्स भी निकलवा दिये, कुछ लाभ न हुआ। लेकिन एक दिन पहला मित्र मिला, और देखा कि मुल्ला बिना लंगड़ाए शान से चल रहा है। उसने कहा कि अरे, मालूम होता है कि दांत निकलवा दिये, फायदा हो गया।
मुल्ला ने कहा कि दांत निकलवाने से भी नहीं हुआ, अपेन्डिक्स निकलवाने से भी नहीं हुआ, टान्सिल्स निकलवाने से भी नहीं हुआ—जूते में एक कील थी, उसको निकलवाने से सब ठीक हो गया!
मित्रों से सावधान! गुरुओं से सावधान! हो सकता है उनको दांत निकलवाने से लाभ हुआ हो। कोई उनकी गलती नहीं है। लाभ हो सकता है। तकलीफ क्या थी, इस पर निर्भर है।
आप अपनी तकलीफ पहचान लें, अपनी स्थिति, अपना बिंदु, वहीं से यात्रा होगी। आप, जहां से महावीर बोल रहे हैं, वहां से यात्रा नहीं कर सकते; जहां से मैं बोल रहा हूं, वहां से यात्रा नहीं कर सकते, जहां से कोई भी बोल रहा हो, वहां से यात्रा नहीं कर सकते; आप तो यात्रा वहीं से करेंगे, जहां आप खड़े हैं।
इसलिए अपने जीवन में एक सतत निरीक्षण चाहिए कि क्या है जो मुझे रोक रहा है? क्या है जिससे मैं कुंद हो गया, पत्थर हो गया? क्या है जिससे मैं जड़ हो गया हूं? और क्या है जो मुझे खोलेगा? और क्या मुझे खोलता है?
तब आपको किसी गुरु के पीछे चलने की जरूरत न होगी। आप अपने गुरु हो जायेंगे। और जब व्यक्ति अपना गुरु हो जाता है, और शांत निरीक्षण करता है अपनी जीवन स्थिति का, तो बहुत कठिन नहीं होता धर्म को जान लेना—कि धर्म क्या है?
आप अगर खुद ही निरीक्षण करेंगे, तो आप पायेंगे क्रोध आपको बांधता है, रोकता है, जड़ कर देता है, मूर्छित करता है, होश खो जाता है, आप रुग्ण होते हैं, अस्थायी रूप से पागल हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं क्रोध, टेंपररी मैडनेस है। पागल जो स्थायी रूप से होता है क्रोध में, आप अस्थायी रूप से हो जाते हैं! बाकी आप हो वही जाते हैं।
आप नीचे गिर रहे हैं, बहिर-आत्मा हो रहे हैं। जब आप किसी के प्रति दया और करुणा से देखते हैं, तो ठीक उल्टी घटना घटती है, क्रोध से उल्टी। आप खुलते हैं—बंधते नहीं, मुक्त होते हैं। खूंटी टूटती है, नाव खुलती है, आप बहते हैं।
जब भी आप करुणा के क्षण में होते हैं, तब आप पाते हैं शरीर का बोझ खो गया। जब आप क्रोध में होते हैं, तो पूरा ग्रेविटेशन, सारी जमीन आपको नीचे की तरफ खींचती है। जब आप क्रोध में होते हैं, तब आप वजनी हो जाते हैं। जब आप करुणा में होते हैं, तब आप हल्के हो जाते हैं।
अपने ही भीतर निरंतर कसना है और खोजना है कि क्या मुझे मुक्त करता है और क्या मुझे बांधता है? क्या है अधर्म और क्या है धर्म? ये प्रत्येक व्यक्ति को रोज-रोज कसकर जानने की बातें है। इनके कोई बंधे सूत्र वेद में उपलब्ध नहीं हैं। यही महावीर का आग्रह है, कोई किताब नहीं है जो आपके लिए काम दे देगी। किसी किताब के सहारे चलकर आपके भटकने की संभावना है, बजाय पहुंचने की; क्योंकि हर किताब किसी व्यक्ति का निजी अनुभव है। और व्यक्ति भिन्न-भिन्न हैं। और धर्म का प्रत्येक व्यक्ति का अपना प्राथमिक अनुभव अलग-अलग होगा।
गुरजिएफ के पास लोग पहुंचते थे, तो गुरजिएफ कभी-कभी बड़ी हैरानी की बातें खड़ी कर देता था जो हम सोच भी नहीं सकते कि धर्म हो सकती हैं। एक आदमी गुरजिएफ के पास पहुंचता है जिसने कभी सिगरेट नहीं पी, और एक आदमी पहुंचता है जो सिगरेट का आदी है और सिगरेट नहीं छोड़ सकता। तो जो सिगरेट का आदी है, उसको गुरजिएफ कहेगा कि "सिगरेट बंद', और जिसने कभी नहीं पी, और जो दुश्मन है, जो कहता है कि "पी लूं तो मुझे उल्टी हो जाये', उसको कहेगा कि "तू शुरू कर!' हम सोच भी नहीं सकते कि उसका क्या प्रयोजन है! आदत बांधती है। फिर चाहे वह सिगरेट पीने की हो और चाहे सिगरेट न पीने की हो। आदत अधर्म है।
तो गुरजिएफ बड़ी उल्टी बात कह रहा है। वह जिसने कभी नहीं पी है, जो कहता है "मैं, अगर कोई दूसरा भी पी रहा हो तो मेरे भीतर मतली खड़ी हो जाती है, उल्टी होने लगती है', उसे गुरजिएफ कहता है : तू पी, क्योंकि तू भी एक आदत में कुंद है, और यह भी एक आदत में कुंद है। इसको भी इसकी आदत के बाहर लाना है, तुझे भी तेरी आदत के बाहर लाना है। आदत अधर्म है।
गुरजिएफ को महावीर का कोई पता नहीं था, नहीं तो वह बड़ा खुश हुआ होता। लेकिन आपको पता है कि महावीर को माननेवालों को यह खयाल है कि आदत अधर्म है? नहीं, वे कहते हैं कि अच्छी आदतें धर्म हैं, बुरी आदतें अधर्म है।
अच्छी और बुरी आदत का बड़ा सवाल नहीं है। आदत आपको जड़ बनाती है, तरलता खो जाती है। फिर आदत कुछ भी हो, चाहे रोज सुबह उठकर सामायिक करने की हो, या प्रार्थना करने की हो—अगर आदत है!
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, "आज ध्यान नहीं किया तो अच्छा नहीं लग रहा।' और जो आदमी सिगरेट पीता है, अगर वह भी नहीं पीता है तो उसको भी अच्छा नहीं लगता, फर्क क्या है? मगर जो सिगरेट न पिये और अच्छा न लगे तो हम कहेंगे—हिम्मत रखो, डटे रहो, ध्यानवाले से हम कहेंगे नहीं, ध्यान करना चाहिए था! मगर यह भी एक आदत का गुलाम हो रहा है, एक आदत इसके आस-पास घेरा बांध रही है।
बड़े मजे की बात है, लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान से कुछ आनंद तो नहीं आता, लेकिन अगर न करो तो तकलीफ होती है। वही तो सिगरेटवाले की भी तकलीफ है। वह भी कहता है—सिगरेट पीने से कुछ मिल नहीं रहा है, लेकिन न पीओ तो बेचैनी होती है।
आदत का अर्थ यह है कि कुछ करने की एक यांत्रिक व्यवस्था बन गई है। उस यांत्रिकता में चलो तो ठीक लगता है, उस यांत्रिकता से हटो तो गलत लगता है।
अयांत्रिक होना, धार्मिक होना, नान-मैकेनिकल होना है। कोई आदत पकड़े, कारागृह न बने। और आदत से चेतना सदा मुक्त रहे। चेतना कभी आदत के नीचे न दबे, सदा आदत के ऊपर हावी रहे, और हमारे हाथ में हो।
इसका यह मतलब नहीं है कि आप ध्यान न करें, इसका मतलब सिर्फ इतना है कि ध्यान भी आदत न हो। नहीं तो प्रेम भी आदत हो जाता है, ध्यान भी आदत हो जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी भाग गई थी तो वह छाती पीट-पीटकर रो रहा था। मित्रों ने सलाह दी कि ऐसा भी क्या है, छह महीने में सब घाव भर जायेगा, तुम फिर किसी के प्रेम में गिरोगे, फिर तुम शादी करोगे, ऐसा मत जार-जार होकर रोओ। सभी घाव भर जाते हैं, सिर्फ समय की बात है। मुल्ला ने कहा, छह महीने, और आज रात मैं क्या करूंगा?
वे पत्नी के लिए रो भी नहीं रहे हैं। एक आदत है।
तो सेक्स भी आदत हो जाती है, प्रेम भी आदत हो जाती है। अच्छी हैं, बुरी आदतें हैं, पर धर्म की फिकर इस बात की है कि आदत न हो, आप मुक्त हों। कोई भी चीज बांधती न हो, किसी ची का व्यसन न हो। ऐसी मुक्ति आपको धर्म की दिशा में ले जायेगी। और व्यसन कुछ भी हों—धार्मिक व्यसन हों, कि रोज जाकर धर्म की चर्चा सुननी, कि रोज मंदिर जाना है, नहीं कह रहा हूं कि रोज मंदिर मत जायें। लेकिन रोज मंदिर जाना आदत बन जाये, तो मुर्दा बात हो गई, आप यंत्र की भांति जाते हैं और आते हैं, कोई परिणाम नहीं है। मंदिर तो चेतना को मुक्त करे, ऐसा चाहिये।
महावीर का यह सूत्र बड़ा विचारणीय है : धर्म द्रव्य का लक्षण है, गति। तो जहां-जहां आप गत्यात्मक हैं, डायनैमिक हैं, वहां-वहां धर्म है। लेकिन जैन साधुओं को देखें, उनसे ज्यादा अगति में लोगों को पाना कठिन है। जैन साधु को कोई गत्यात्मक नहीं कह सकता, कि उसमें गति है। उसमें गति है ही नहीं। ढाई हजार साल पहले जो जैन साधु की लक्षणा थी, वही अब भी है। ढाई हजार साल में समय जैसे बहा ही नहीं, चीजें बदली ही नहीं। वह अभी भी वहीं जी रहा है, जहां वह ढाई हजार साल पहले था। सब कुछ बदल गया है, लेकिन वह अपनी आदतों से जकड़ा है, वह वहीं खड़ा है। फिर भी वह सूत्र रोज पढ़ता है कि धर्म का लक्षण है गति। अगर धर्म का लक्षण है गति, तो जैन साधु से ज्यादा क्रांतिकारी व्यक्तित्व दूसरा नहीं होना चाहिये। उसे तो रुकना ही नहीं चाहिये। उसे तो जीवन के प्रवाह में गतिमान होना चाहिये।
लेकिन वह ठहरा हुआ है जड़ की तरह, पत्थर की तरह। और जितना पथरीला हो, उतने अनुयायी कहते हैं कि तपस्वी है। और अगर उसमें जरा- सी भी हलन-चलन दिखाई पड़े, जरा-सा कुछ अंकुरित होता दिखाई पड़े, तो वह आदमी विद्रोही है, वह आदमी ठीक नहीं है, वह मार्ग से च्युत हो गया। अगर गति दिखाई पड़े तो मार्ग से च्युत है, अगर अगति दिखाई पड़े तो बिलकुल ठीक है।
हम सब अगति के पूजक हैं, हम सब अधर्म के पूजक हैं, इसलिए हम सब आर्थोडाक्स हैं। ध्यान रहे, अगर महावीर की बात हमारे खयाल में आ जाये तो आर्थोडाक्स धर्म जैसी कोई चीज नहीं हो सकती, या हो सकती है? जो भी आर्थोडाक्स होगा्र रूढ़ होगा, वह अधर्म होगा। धर्म तो सिर्फ क्रांतिकारी ही हो सकता है। धर्म का कोई रूप जड़ नहीं हो सकता। धर्म प्रवाहमान होगा, उसमें गति होगी।
मैं तो कहता हूं कि धर्म यानी क्रांति। और जिस दिन धर्म क्रांति नहीं रहता उस दिन संप्रदाय बन जाता है। और जैसे ही संप्रदाय बनता है, वैसे ही व्यर्थ बोझ और कारागृह हो जाता है।
धर्म का लक्षण है, गति। अधर्म का लक्षण है, स्थित, स्टेटिक, ठहरे होना। आप अगर ठहरे हैं, तो अधार्मिक हैं; चाहे रोज मंदिर जा रहे हों, चाहे रोज पूजा कर रहे हों; अगर ठहरे हैं, तो अधार्मिक हैं। अगर गति कर रहे हैं, नदी की तरह बह रहे हैं, तालाब की तरह बन्द नहीं हैं — रोज सागर की तरफ जा रहे हैं, और भयभीत भी नहीं हैं कि कल क्या होगा, कल का आनंदपूर्ण स्वीकार है, स्वागत है, तो आप धार्मिक हैं। लेकिन हमारा मन स्थिति को पकड़ता है। इसे थोड़ा समझ लें।
हमारा मन सदा स्थिति को पकड़ता है, क्यों? क्योंकि मन के लिए सुविधापूर्ण है। जब भी कुछ नई बात होती है, तो मन को असुविधा होती है। क्योंकि मन को नई बात सीखनी पड़ती है। जब भी कोई नई घटना घटती है, तो मन को फिर से समायोजित होना पड़ता है, री-एडजस्टमेंट करना पड़ता है। इसलिए मन हमेशा आदतें पसंद करता है। क्योंकि आदतों के साथ कुछ नया नहीं है, सब पुराना है, इसलिए पुराने की धारा में आप बहे चले जाते हैं, नये से अड़चन होती है।
इसलिए मन नये को पसंद नहीं करता। जब आप कोई नई बात सुनते हैं, आप फौरन पायेंगे कि भीतर रेजिस्टेन्स है, भीतर विरोध है। जब आप कोई पुरानी बात सुनते हैं, जो आप पहले से ही जानते हैं, और मानते हैं, आप बिलकुल स्वीकार कर लेते हैं, कि बिलकुल ठीक है, इसलिए नहीं कि बिलकुल ठीक है बल्कि इसलिए कि आप आदी हैं, आपको पता है कि ऐसा है। मन को कुछ सीखना नहीं पड़ता। मन सीखने का दुश्मन है। सीखने में प्रवाह है। मन चाहता है, सीखो मत; जो है, वहीं ठहरे रहो।
पशुओं को देखें, पशु कुछ भी नहीं सीखते। सीखने की कोई संभावना ही नहीं पशु में। बामुश्किल, थोड़ा बहुत सर्कस के लिए उनको राजी किया जा सकता है। बाकी, वह भी बामुश्किल! बिलकुल स्थित हैं।
अगर अधर्म का आप अर्थ समझते हों, तो पक्के अधार्मिक हैं; क्योंकि जहां उनके बाप-दादे थे, वहीं वे हैं, बाप-दादों के बाप-दादे थे, वहीं वे हैं। कहीं कोई फर्क नहीं हुआ है। बंदर दस लाख साल पहले का था, तो बंदर अभी भी ठीक वैसे ही है। बंदर बड़ा पक्का अनुयायी है अपने बाप-दादों का। प्राचीन का अनुयायी है। सनातन, वही उसकी धारणा है। वह कभी नहीं बदलता। कोई उपद्रव नहीं, कोई क्रांति नहीं, किसी तरह का कोई परिवर्तन नहीं।
आपके हिसाब से तो बंदर ही धार्मिक होना चाहिए। महावीर के हिसाब से वह अधर्म में जी रहा है। आदमी बदलता है। बदलता है, इसलिए आदमी गति करता है, सीखता है, नया अनुसंधान करता है, आविष्कार करता है, खोजता है। नये क्षितिज खोलता चला जाता है और आदमी हमेशा तैयार है, अपने पुराने को छोड़ने, काटने, बदलने को।
इसलिए मैं कहता हूं, महावीर की दृष्टि वैज्ञानिक है। विज्ञान कभी भी दावा नहीं करता कि जो हम जानते हैं, वह ठीक है। वह कहता है, अभी तक जो जानते हैं, उस हिसाब से ठीक है। कल जो हम जानेंगे, उस हिसाब से गलत भी हो सकता है। इसलिए महावीर कभी भी नहीं कहते कि यही ठीक है। वे कहते हैं कि इसके विपरीत भी ठीक हो सकता है, इससे भिन्न भी ठीक हो सकता है। यह एक दृष्टि है, और दृष्टियां भी हैं, उनसे ये चीज गलत भी हो सकती है।
एक प्रवाह है जीवन सीखने का, जानने का। हम ज्ञान को पकड़ते हैं, जानने से बचना चाहते हैं। ज्ञान मुर्दा चीज है। मैंने आपसे कुछ कहा, आपने पकड़ लिया, कहा कि बिलकुल ठीक है। लेकिन जानने की प्रक्रिया से आप नहीं गुजरे। ज्ञान को हम पकड़ लेते हैं, जानने से हम बचते हैं। क्योंकि जानना बड़ा कष्टपूर्ण है, जैसे कोई खाल उतारता हो। पुराना सब उतरता है, नए में प्रवेश करना पड़ता है।
इसलिए आप देखेंगे कि हमारे तथाकथित धर्मों में युवक उत्सुक नहीं होते, बूढ़े उत्सुक होते हैं। होना उलटा चाहिए। महावीर ने जब अपने जीवन का रूपांतरण किया, तब वे जवान थे। लेकिन मेरे पास जैन भी आते हैं, वे कहते हैं कि अभी तो काफी समय बाकी है, और ये बातें तो अंतिम समय की हैं। अभी कुछ संसार को देख लें, फिर आखिर में!
असल में मरता हुआ आदमी सीखने में बिलकुल असमर्थ हो जाता है। तब सब जड़ हो जाता है, सब ठहर गया होता है। उस ठहराव में आदमी धार्मिक हो जाते हैं, क्योंकि जिसको हम धर्म कहते हैं, वह खुद एक ठहराव हो गया है।
अगर धर्म जीवित हो तो जवान उत्सुक होंगे, अगर धर्म मुर्दा हो तो बूढ़े उत्सुक होंगे। मंदिर में कौन इकट्ठे हैं, इससे पता चल जायेगा कि मंदिर जिंदा है या मर गया है। अगर मंदिर में बूढ़े इकट्ठे हैं तो मंदिर मर चुका है, बहुत पहले मर चुका है। बूढ़ों से मेल खाता है। अगर जवान इकट्ठे हैं तो मंदिर अभी जिंदा है। यह मतलब नहीं है कि बूढ़े मंदिर न जाएं। लेकिन अगर मंदिर जवान हो तो बूढ़ों को जवान होना पड़ेगा, और अगर मंदिर बूढ़ा हो, और जवान उसमें जायें तो उनको बूढ़ा होना पड़ेगा। तभी तालमेल बैठ सकता है।
महावीर का धर्म, युवा का धर्म है। एक बड़ी क्रांति महावीर ने की। हिंदू विचार था कि धर्म अंतिम बात है। चौथे चरण में जीवन के संन्यास, पहले पूरे संसार का अनुभव। ब्रह्मचर्य—शिक्षण का काल, फिर गृहस्थ—भोग का समय, फिर वानप्रस्थ—संन्यास की तैयारी का समय, और फिर पचहत्तर वर्ष की उम्र में, आखिरी पच्चीस वर्ष में संन्यास।
यह हिंदू धारणा थी। हिंदू धारणा दो चीजों पर टिकी थी—एक चार वर्ण : और चार आश्रम। महावीर ने दोनों तोड़ दिये। महावीर ने कहा, न तो कोई वर्ण है। जन्म से कोई वर्ण नहीं होता। जन्म से तो सभी शूद्र पैदा होते हैं। इन शूद्रों में से कभी-कभी कोई-कोई ब्राह्मण हो पाता है। वह ब्राह्मण होना उपलब्धि है। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता।
इसलिए जब हम महावीर की ब्राह्मण की परिभाषा पढ़ेंगे, बड़ी अनूठी है। महावीर किसको ब्राह्मण कहते हैं? जिसको ब्रह्म का अनुभव हो गया हो। तो जन्म से कोई कैसे ब्राह्मण हो सकता है, जन्म से सभी शूद्र होते हैं।
तो महावीर ने वर्ण की धारणा तोड़ दी थी, कि कोई ऊंचा-नीचा नहीं है जन्म से। और महावीर ने चार आश्रम की धारणा भी तोड़ दी, और कहा, ऐसी कोई बात नहीं है कि मरते समय धर्म। असल में ये तो बात ही गलत है। धर्म तो तब जब जीवन अपनी पूरी ऊर्जा पर है, युवा है। जब जीवन अपने पूरे शिखर पर है, जब काम-वासना पूरे प्रवाह में है, तब उसको बदलने का जो मजा है, और जो रस है, वह रस बुढ़ापे में नहीं हो सकता। क्योंकि बुढ़ापे में तो सब चीजें अपने-आप उदास होकर क्षीण हो गयी हैं।
वृद्धावस्था में ब्रह्मचर्य का क्या अर्थ होता है? पचहत्तर वर्ष के बाद ब्रह्मचर्य का क्या अर्थ होगा? शरीर शिथिल हो गया, इंद्रियां काम नहीं करतीं, रुग्ण देह कुरूप हो गई, कोई आकर्षित भी नहीं होता, अब सब प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब आप विदा हों, तब अगर आप कहते हैं कि अब मैं ब्रह्मचर्य का व्रत लेता हूं तो आप भी बड़े गजब के आदमी हैं।
जब सारे शरीर का रोआं-रोआं वासना से भरा हो, और जब शरीर का एक-एक कोष्ठ मांग कर रहा हो, जब शरीर की सारी जीवन चेतना एक ही तरफ बहती हो, काम, तब कोई ठहर जाए, ट्रेन से उतर जाए, तब जो चरम अनुभव होता है, जीवन के प्रवाह को बदलने का, वह वृद्धावस्था में नहीं हो सकता। इसलिए महावीर ने युवकों को संन्यास दिया।
महावीर पर बहुत नाराज थे लोग। नाराजगी की बहुत-सी बातों में सबसे बड़ी नाराजगी यह थी कि युवक संन्यास लें। क्योंकि आपको पता नहीं, युवक के संन्यास का मतलब क्या होता है? युवक के संन्यास का मतलब होता है, सारी गृहस्थी का जाल अस्त-व्यस्त हो जायेगा। बाप बूढ़ा है, वह युवक पर निर्भर है; पत्नी नई घर में आई है, वह युवक पर निर्भर है। छोटे बच्चे हैं, वह युवक पर निर्भर हैं।
समाज का पूरा जाल चाहता है कि आप पचहत्तर साल के बाद संन्यास लें। समाज में इससे बड़ी बगावत नहीं हो सकती थी कि युवक संन्यासी हो जाये। क्योंकि इसका मतलब था कि समाज की पूरी व्यवस्था अराजक हो जाये। महावीर अनार्किस्ट हैं, अराजक हैं। लाखों युवक संन्यासी हुए, लाखों युवतियां संन्यासिनी हुई आप सोच सकते हैं, उस समय के समाज का पूरा जाल कैसा अस्त-व्यस्त हो गया होगा।
सब तरफ कठिनाई खड़ी हो गई होगी। सब तरफ अड़चन आ गई होगी। लेकिन महावीर ने कहा कि यह अड़चन उठाने जैसी है। क्योंकि जब ऊर्जा अपने उद्दाम वेग में हो, तभी क्रांति हो सकती है, और तभी छलांग हो सकती है। जैसे-जैसे ऊर्जा शिथिल होती है, वैसे-वैसे छलांग मुश्किल होती जाती है। फिर आदमी मर सकता है, समाधिस्थ नहीं हो सकता। शिथिल होती हुई इंद्रियों के साथ कुछ भी नहीं हो सकता; क्योंकि शरीर ही तो यात्रा का रथ है।
इसलिए महावीर ने युवकों को संन्यास दिया, उसका भी कारण इसलिए है कि धर्म गति है, और युवक गतिमान हो सकता है। बूढ़ा गतिमान नहीं हो सकता। हिंदुओं ने एक समाज पैदा किया था, जो स्टेटिक है, जो ठहरा हुआ है तालाब की तरह। हिंदुओं के इस समाज में कभी कोई लहर नहीं उठी, इसलिए हिंदू माफ नहीं कर पाये महावीर को। आप हैरान होंगे कि उनकी नाराजगी का सबसे बड़ा लक्षण यह है कि हिंदुओं ने महावीर के नाम का भी उल्लेख नहीं किया, अपने किसी शास्त्र में।
और ध्यान रहे, यह आखिरी बात है। अगर मैं आपसे प्रेम करूं, यह एक संबंध है। आपसे घृणा करूं, यह भी एक संबंध है। क्योंकि मेरा नाता जारी रहता है। लेकिन मैं आपसे न प्रेम करूं, न घृणा करूं, उपेक्षा करूं तो यह आखिरी बात है। क्योंकि जब भी हम किसी को घृणा करते हैं, तब भी मूल्य देते हैं।
महावीर के साथ हिंदुओं ने आखिरी उपाय किया। उनकी उपेक्षा की। उनके नाम की भी चर्चा नहीं उठाई। जैसे यह आदमी हुआ ही नहीं। इसे भूल ही जाओ। इसकी चर्चा भी खतरनाक है। इसकी चर्चा चलाये रखने का मतलब है कि वे बिंदु जो उसने उठाये थे, वह जारी रहेंगे।
महावीर की बिलकुल, जैसे घटना घटी ही नहीं। अगर सिर्फ हिंदू-ग्रंथ उपलब्ध हों, तो महावीर गैर-ऐतिहासिक व्यक्ति हो जायेंगे। महावीर का कोई उल्लेख नहीं है। आदमी बड़ा खतरनाक रहा होगा, जिस वजह से इसकी इतनी उपेक्षा करनी पड़ी। इतना अराजक रहा होगा कि समाज ने इनका नाम भी संरक्षित करना उचित नहीं समझा।
बड़ी क्रांति यह थी कि युवक, ऊर्जा-प्रवाह में है, तभी धार्मिक हो सकता है। युवा-चेतना धार्मिक हो सकती है, क्योंकि त्वरा चाहिए, वीर्य चाहिए, क्षमता चाहिए।
"सब पदार्थों को अवकाश देना आकाश का लक्षण है।' आकाश यानी अवकाश देने की क्षमता; स्पेस। यह भी बहुत सोचने जैसा है। महावीर कहते हैं, सब पदार्थों को अवकाश देना आकाश है। आप जो भी करना चाहें, आकाश आपको अवकाश देता है करने को। आप चोरी करना चाहें, तो चोरी। आप पत्थर होना चाहें, तो पत्थर। आप परमात्मा होना चाहें, तो परमात्मा। आकाश आपको सभी तरह के अवकाश देता है।
यह जो हमारे चारों तरफ घिरी हुई स्पेस है, यह आपको कुछ भी बनाने के लिए जोर नहीं डालती। यह बिलकुल तटस्थ है। यह आपसे कहती नहीं कि आप ऐसे हो जाएं। आप जैसे हो जाएं, इसे स्वीकार है। और यह आपको पूरा सहारा देती है। आकाश किसी का दुश्मन नहीं है, और किसी का मित्र नहीं है। सिर्फ अवकाश की क्षमता है।
तो आप जो भी हैं, अपने कारण हैं। ऐसा दबा नहीं रहा है, और कोई आपको बना नहीं रहा है। हिंदू-धारणा भिन्न थी। हिंदू-धारणा थी कि आप ऐसे हैं, क्योंकि परमात्मा, नियति, भाग्य! आपकी विधि में कुछ लिखा है, इसलिए आप ऐसे हैं, आप परतंत्र हैं। महावीर कहते हैं, आप पूर्ण स्वतंत्र हैं। और परमात्मा घेर रहा है सब को, हिंदू-धारणा में। महावीर की धारणा में आकाश घेर रहा है। आकाश आपको कुछ भी बनाने के लिये उत्सुक नहीं है। आप जो बनना चाहते हैं, आकाश राजी है। आपको वही जगह दे देगा।
एक बीज वृक्ष बनता है, बरगद का वृक्ष बन जाता है, तो आकाश बाधा नहीं देता। उसे जगह देता है। रिसेप्टिव है, ग्राहक है। एक गुलाब का पौधा है। आकाश उसे गुलाब होने की सुविधा देता है।
आकाश बिलकुल तटस्थ सुविधा का नाम है। जो हमें घेरे हुए है, वह कोई परमात्मा नहीं है जिसकी अपनी कोई धारणा है कि हमें क्या बनाए? कोई भाग्य हमें घेरे हुए नहीं है। हमारे अतिरिक्त हमारा कोई भाग्य नहीं है। यह बड़ी कठिन बात है। यह स्वतंत्रता भी है, और एक महान जिम्मेवारी भी।
निश्चित ही, जहां भी स्वतंत्रता होगी, वहां रिस्पांसिबिलिटी, वहां उत्तरदायित्व हो जायेगा। परमात्मा के साथ एक खतरा है कि आप परतंत्र हैं, लेकिन एक लाभ है क्योंकि आप जिम्मेवार हैं; फिर आप पाप भी कर रहे हैं तो वही जिम्मेवार है। फिर आप नरक में भी पड़ते हैं, तो वही जिम्मेवार है; फिर जो भी हो रहा है, वही जिम्मेवार है। परतंत्र जरूर है, लेकिन परतंत्रता में एक लाभ है, एक सौदा है, वह यह कि आपकी कोई जिम्मेवारी नहीं, कोई चिंता नहीं। आप निश्चिंत हैं। उसकी जो मज। उसकी बिना मज के पत्ता भी नहीं हिलता।
महावीर परमात्मा की जगह आकाश की धारणा को स्थापित करते हैं। और वे कहते हैं, पत्ता अपनी ही मज से हिलता है, और किसी की मज से नहीं। आकाश की अपनी कोई मज नहीं है आपको हिलाने-डुलाने की। आकाश सिर्फ अवकाश देता है। पत्ता हिलना चाहता है, तो अवकाश देता है, पत्ता ठहरना चाहता है, तो ठहरने के लिए सुविधा देता है।
निरपेक्ष अस्तित्व है चारों ओर। यह अस्तित्व आपको न तो खींच रहा है, और न आपको धक्के दे रहा है। आप जो भी कर रहे हैं, आपके अतिरिक्त और कोई भी जिम्मेवार नहीं है। आप परम स्वतंत्र हैं। लेकिन तब चिंता पैदा हो जाती है। क्योंकि तब उसका अर्थ हुआ अगर गलत हो रहा है, तो मैं जिम्मेवार हूं, उसका अर्थ हुआ अगर मैं दुख पा रहा हूं तो मैं जिम्मेवार हूं। कोई ऊपर परमात्मा नहीं है।
इसलिए बहुत बड़ी संख्या में महावीर के अनुयायी नहीं बन सके; क्योंकि लोग चिंता छोड़ना चाहते हैं, चिंता पकड़ना नहीं चाहते। गुरु के पास लोग आते हैं कि मेरा बोझ आप ले लो। और ये महावीर खतरनाक आदमी हैं, ये सारे संसार का बोझ आप पर रखे दे रहे हैं। गुरु के पास आप जाते हैं, उसके चरणों में सिर रखते हैं कि सम्हालो! बस, अब आप ही हो। आपकी जो मज, वैसा ही—कि आप एक आकाश में बैठे परमात्मा को समर्पण करते हैं।
समर्पण क्या करेंगे? आपके पास है क्या समर्पण करने को, सिवाय दुख और उपद्रव के? जब आप कहते हैं कि आपकी ही मज, तो आप छोड़ क्या रहे हो? बीमारियां, उपाधियां, उपद्रव, पागलपन!
लेकिन एक लाभ है। हो परमात्मा या न हो, जब आप अनुभव करते हैं कि किसी पर छोड़ा, तो आप निश्चिंत हो पाते हैं।
महावीर की प्रक्रिया बिलकुल उलटी है। महावीर कहते हैं कि धार्मिक व्यक्ति अति चिंता से भर जायेगा। इसे समझ लें, क्योंकि बिलकुल विपरीत है। समर्पण नहीं है महावीर की धारणा में—संकल्प है। महावीर कहते हैं, कि धार्मिक व्यक्ति ही चिंतित होगा, अधार्मिक व्यक्ति चिंतित होता ही नहीं। और यह बात सच है। धार्मिक चिंता से बड़ी चिंता और नहीं हो सकती; क्योंकि धार्मिक चिंता का अर्थ है कि मैं जो भी हूं, मैं जिम्मेवार हूं। और कल मैं जो भी होऊंगा, मैं ही जिम्मेवार होऊंगा। इसलिए एक-एक कदम फूंक-फूंककर रखना है; और किसी दूसरे पर दायित्व नहीं डाला जा सकता; और किसी के कंधों पर बोझ नहीं रखा जा सकता ; और दोष दूसरों को नहीं दिये जा सकते। सब दोष मेरे हैं।
खतरा है। भारी चिंता का बोझ सिर पर हो जायेगा। अकेला हो जाऊंगा मैं, कोई सहारा नहीं। इसलिए महावीर कहते हैं, असहाय है, असहाय है आदमी। हिंदू भी कहते हैं, आदमी असहाय है। लेकिन हिंदू कहते हैं, आदमी असहाय है, इसलिए परमात्मा का सहारा खोजो। महावीर कहते हैं, आदमी असहाय है और कोई सहारा है नहीं, इसलिए अपने ही सहारे खड़े होने की चेष्टा करो।
निश्चित ही महाचिंता घेरेगी सिर पर। पर ध्यान रहे, इस चिंता झेलने को जो राजी है, उसके आनंद का मुकाबला कोई भी नहीं कर सकता। क्योंकि इसी चिंता से विकास है। इसी चिंता और संघर्ष से निखार है। इसी चिंता से फौलाद जन्मेगा, इसी आग से। कोई सहारा नहीं। इस असहाय अवस्था में ही खड़े रहने की हिम्मत साहस है जो आत्मा का जन्म बनेगी और एक ऐसी घड़ी आयेगी कि जब किसी सहारे की कोई जरूरत भी नहीं रह जायेगी, आकांक्षा भी नहीं रह जायेगी। आदमी अपने ही पैरों पर पूरी तरह खड़ा हो जायेगा।
महावीर कहते हैं, जब भी कोई आत्मा अपनी अवस्था में पूरी तरह खड़ी हो जाती है, जब बाहर के सहारे की कोई जरूरत नहीं होती, तब सिद्ध की अवस्था है। जब तक बाहर का सहारा चाहिये, तब तक संसार है। इसलिए महावीर की धारणा में भक्ति की कोई गुंजाइश नहीं है। मगर जैन बड़े अदभुत लोग हैं। वे महावीर के सामने हाथ जोड़े खड़े हैं। वे उन्हीं की पूजा-प्रार्थना कर रहे हैं। जबकि महावीर कहते हैं, भक्ति का कोई उपाय नहीं है।
और महावीर से कोई सहारा नहीं मिल सकता। अगर सहारा चाहिए तो दूसरी जगह जाना पड़ेगा। कृष्ण के पास जाना पड़ेगा। कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, छोड़ सब, मेरी शरण में आ। वह अलग मार्ग है, अलग पद्धति है। महावीर कहते हैं, छोड़ मुझे, और अपने पैरों पर खड़ा हो।
महावीर कभी कृष्ण की बात नहीं कह सकते। और जैनों ने कृष्ण को अगर नरक में डाल रखा है तो उसका कारण है। इसलिए महावीर की दृष्टि बिलकुल विपरीत है। महावीर कहेंगे यह बात ही उपद्रव की है कि कोई किसी की शरण जाये। यह तो खतरा है। यह तो इस आदमी की आत्मा का हनन है। अगर कहीं अर्जुन महावीर के पास गया होता तो वे कहते, तू भी किस के चक्कर में पड़ गया है! और कृष्ण कह रहे हैं, सर्वधर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणंव्रज। सब धर्म-वर्म छोड़ मेरी शरण आ। महावीर कहते कि सब शरण छोड़, निज शरण बन। महावीर का शब्द है, अशरण बन। और जब तू अशरण बन जायेगा, तभी तू सिद्ध हो सकता है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि कृष्ण के मार्ग से लोग नहीं पहुंच पाते। उस मार्ग से भी पहुंचते हैं। ज्यादा लोग उसी मार्ग से पहुंचते हैं। लेकिन महावीर का मार्ग अनूठा है। जिसमें साहस है, उनके लिए चुनौती है। जिनमें थोड़ी हिम्मत है, जिनमें थोड़ा पुरुषार्थ है, उनके लिए महावीर का मार्ग है।
कृष्ण का मार्ग स्त्रैण है, स्त्री-चित्त के लिए है, समर्पण। महावीर का मार्ग पौरुषेय है। पुरुष का है, संकल्प। लेकिन पुरुष बहुत कम हैं, स्त्रियां बहुत ज्यादा हैं। पुरुषों में भी स्त्री-चित्त ज्यादा हैं; क्योंकि आदमी इतना कमजोर और भयभीत है कि उसके मन की आकांक्षा है, कोई सहारा मिल जाये, कोई कह दे!
इसलिए तो इतने गुरु पैदा हो जाते हैं दुनिया में। कितने गुरु हैं? कोई उपाय नहीं है। ये गुरु हैं, ये आपकी खोज है किसी सहारे की। इसलिए एक गधे को भी खड़ा कर दो, शिष्य मिल जायेंगे। इसमें गधे की कोई खूबी नहीं है, ये आपके सहारे की खोज हैं। तो उसको भी शिष्य मिल जायेंगे। एक पत्थर को भी रख दो, उस पर भी सिंदूर लगा दो, थोड़ी देर बाद आप देखोगे, कोई आदमी फूल रखकर उसके सामने सिर झुका रहा है। सिर झुकाने की जरूरत है किसी को। यह पत्थर मूल्यवान नहीं है, यह पत्थर जरूरत की पूर्ति है।
महावीर का मार्ग निर्जन है, अकेले का है—एकाकी का। जिनमें साहस है, केवल उनके लिए है। जिनमें हिम्मत है अकेले होने की, उनके लिए है।
"आकाश का लक्षण है, अवकाश देना। काल का लक्षण है, वर्तना'
समय : समय का अर्थ है—चलना, वर्तन होना। समय पर कोई दोष मत दें कभी। लोग समय को दोष देते रहते हैं। लोग कहते हैं, समय बुरा है। जैसे आकाश जगह देता है आपको दिशाओं में, वैसे ही समय भी आपको जगह देता है भविष्य और अतीत की दिशा में। आइंस्टीन ने तो अभी सिद्ध किया कि समय भी आकाश का ही एक अंग है, वह भी एक दिशा है। चार दिशाएं आकाश की हैं। ये दो दिशाएं भी आकाश की हैं। फर्क इतना है कि इनमें आगे-पीछे की यात्रा है।
समय भी आपको अवकाश देता है। समय भी आपके ऊपर जोर नहीं डालता। लेकिन इधर मैं सुनता हूं, जैन भी कहते हुए सुने जाते हैं कि यह पंचम-काल है। इसमें कोई तीर्थंकर नहीं हो सकता। इसमें कोई सिद्ध नहीं हो सकता। इसमें कोई केवलज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता। यह काल ही खराब है।
समय खराब नहीं होता, समय तो सिर्फ शुद्ध परिवर्तन है। आप समय पर बोझ डालते हैं और खुद निश्चिंत हो जाते हैं। आप निश्चिंत होना चाहते हैं तीर्थंकर होने की चिंता से। क्योंकि तीर्थंकर अगर हुआ जा सकता था, तो आपको भी बेचैनी होगी कि मैं क्यों नहीं हो रहा हूं। अगर कोई आदमी घोषणा कर दे कि वह तीर्थंकर है, तो आप सब मिलकर सिद्ध करने की कोशिश करेंगे कि नहीं तुम, तीर्थंकर नहीं हो सकते, यह काल ही तीर्थंकर होने का नहीं है। यह बात ही गलत है।
आप असल में किस बात से लड़ रहे हैं, आपको पता नहीं है। मन बड़ा चालाक है। आप इस बात से लड़ रहे हैं कि अगर तीर्थंकर हुआ जा सकता है, तो फिर मैं तीर्थंकर क्यों नहीं हो सकता? वह अड़चन है।
नीत्से ने लिखा है कि अगर कहीं कोई ईश्वर है, तो फिर मुझे बड़ी अड़चन हो जायेगी कि फिर मैं ईश्वर क्यों नहीं हूं? इसलिए दो ही उपाय हैं : एक उपाय नीत्से का है। वह कहता है, ईश्वर है ही नहीं, और निश्चिंत हो जाता है। दूसरा उपाय महावीर का है। तर्क दोनों का एक है। महावीर ईश्वर होने की कोशिश में लग जाते हैं, और ईश्वर हो जाते हैं। चिंता एक ही है। नीत्से कहता है, इफ देयर इज गाड, देन हाउ आई कैन रिमेन विदाउट बीइंग ए गाड। देअरफोर देअर इज नो गाड—अगर ईश्वर है, तो मैं ईश्वर हुए बिना कैसे रुक सकता हूं। इसलिए कोई ईश्वर नहीं है। महावीर भी कहते हैं कि अगर ईश्वर है तो मैं ईश्वर हुए बिना कैसे रुक सकता हूं, इसलिए ईश्वर होकर रहते हैं, ईश्वर हो जाते हैं।
तो एक चिंता पैदा होती है। हम कह देते हैं कि यह तो काल खराब है, कलयुग है, पंचम काल है, समय खराब है। खुद खराब होने के लिए सुविधा चाहते हैं, इसलिए कहते हैं, समय खराब है। सुविधा मिल जाती है। क्योंकि समय सुविधा देता है। आप खराब होना चाहते हैं, समय खराब होने की सुविधा देता है। आप महावीर होना चाहें, समय आपको वह भी सुविधा देता है। समय पर कोई पक्षपात नहीं है। समय जीवन प्रवाह की शुद्ध धारा है। ये सारे तत्व निष्पक्ष हैं।
"और उपयोग अर्थात अनुभव जीव का लक्षण है। जीवात्मा ज्ञान से, दर्शन से, सुख से तथा दुख से पहचाना जाता है।'
अंतिम तत्व है, जीवात्मा। जैसे आकाश का लक्षण है—अवकाश, और काल का लक्षण—वर्तन, और धर्म का लक्षण—गति, और अधर्म का लक्षण—अगति, वैसे जीव का लक्षण—अनुभव।
जैसे-जैसे आपके अनुभव की क्षमता प्रगाढ़ होती है, वैसे-वैसे आप आत्मा बनने लगते हैं। जितनी आपके अनुभव की क्षमता कम होती है, उतने आप पदार्थ के करीब होते हैं और आत्मा से दूर होते हैं। और अंतिम अनुभव है, शुद्ध अनुभव, जब अनुभव करने को कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ अनुभोक्ता रह जाता है, एक्सपीरियन्सर। सब खो जाता है, सिर्फ शुद्ध ज्ञाता, अनुभोक्ता बचता है। वह अंतिम क्षमता है।
एक पत्थर में और आप में फर्क क्या है?
सुबह होगी, सूरज निकलेगा, पत्थर खिल नहीं जायेगा, और नहीं कहेगा कि कितनी सुन्दर सुबह है। आप खिल सकते हैं। जरूरी नहीं कि आप खिलेंगे, सौ में से निन्यानबे आदमी भी नहीं खिलते। सूरज उगता रहे, उन्हें मतलब ही नहीं कब उगता है, कब डूबता है। फूल खिलते रहें, उन्हें मतलब नहीं, कब वसंत आती है, कब पतझड़। उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है। वे भी अपने में बंद एक पत्थर की तरह जी रहे हैं।
चेतना का लक्षण है, अनुभव, सूरज सुबह उगता है, आपके भीतर भी कुछ उगता है। एक अनुभव प्रगाढ़ हो जाता है। आप जानते हैं, कुछ हो रहा है। फूल खिलता है, आपके भीतर भी कुछ खिलता है। पत्थर पड़ा रहता है, जैसे कुछ भी नहीं हुआ।
सुख है, दुख है, ज्ञान है, बोध है—सब जीवन के लक्षण हैं। जिस मात्रा में बढ़ते चले जायें, उतनी जीवन की गहराई बढ़ती चली जाती है। जीवन उस दिन परम गहराई पर होता है, जब हम पूरे जीवन का अनुभव उसके शुद्धतम रूप में कर लेते हैं। उसे ही महावीर सत्य कहते हैं। वह जीवन का परम अनुभव है। सुख, दुख प्राथमिक अनुभव हैं, आनंद परम अनुभव है। इसे हम आगे विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे।

आज इतना ही।





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