अध्याय
46
घुड़दौड़ के
घोड़े
जब
संसार ताओ के
अनुकूल जीता
है,
तब घुड़दौड़ के
घोड़े
कचरा-गाड़ी
खींचने के काम
आते हैं।
और
जब संसार ताओ
के प्रतिकूल
चलता है,
तब
गांव-गांव में
अश्वारोही
सेना भर जाती
है।
संतोष
के अभाव से
बड़ा कोई
अभिशाप नहीं
है;
स्वामित्व
की इच्छा से
बड़ा कोई पाप
नहीं है।
इसलिए
जो संतोष से
संतुष्ट है, वह
सदा भरा-पूरा
रहेगा।
मनुष्य
के सारे दुखों, सारी
पीड़ाओं, सारे संताप
का एक ही मूल
आधार है। और
वह मूल आधार
है कि मनुष्य
जो भी है उससे
अन्यथा होना
चाहता है, कुछ
और होना चाहता
है। जो भी
स्थिति है
उससे भिन्न
स्थिति हो, इसकी वासना
ही मनुष्य के
सारे दुखों का
मूल आधार है।
जो भी
हम हैं उससे
हम संतुष्ट
नहीं, और जो भी
हम नहीं हैं
उसे होने की
विक्षिप्त कामना
है। ऐसा जो
चित्त है वह
कभी भी आनंद
को उपलब्ध
नहीं होगा।
ऐसे चित्त में
आनंद की
संभावना ही
नहीं है। वह
जहां भी पहुंच
जाएगा वहीं
नरक निर्मित
कर लेगा।
अरब
में एक बहुत
पुरानी कहावत
है कि पापी
नरक में
प्रवेश नहीं
करता और न ही
पुण्यात्मा
स्वर्ग जाता
है;
पापी अपने
नरक को अपने
साथ लेकर चलता
है, पुण्यात्मा
भी अपने स्वर्ग
को अपने साथ
लेकर चलता है।
पुण्यात्मा
जहां पहुंच
जाता है वहीं
स्वर्ग है, और
पापी जहां
पहुंच जाता है
वहीं नरक है।
नरक चीजों को
देखने का
हमारा ढंग है;
स्वर्ग भी
चीजों को
देखने का
हमारा ढंग है।
स्वर्ग और नरक
स्थितियां
नहीं हैं, भौगोलिक
स्थान नहीं
हैं; हमारी
प्रतिक्रियाएं
हैं।
जर्मन
कवि हेन
ने एक छोटी सी
कविता लिखी
है। उस कविता
में उसने लिखा
है कि मैं एक
कारागृह के
पास से गुजरता
था। पूर्णिमा
की रात थी और
कारागृह के
द्वार पर सीखचों
के भीतर खड़े
हुए दो कैदी
मैंने देखे।
ठीक कारागृह
के द्वार के
सामने ही गंदा
एक डबरा था, जिससे
दुर्गंध उठ
रही थी। मच्छर
और कीड़े और पतिंगे
आस-पास घूम
रहे थे। और
आकाश में पूरा
चांद था। दो
कैदी कारागृह
के द्वार पर
खड़े थे। एक
निंदा कर रहा
था सामने भरे
हुए गंदे डबरे
की और दुखी था,
और उसे आकाश
का पूरा चांद
बिलकुल दिखाई
नहीं पड़ रहा
था। क्योंकि जिसे
डबरा दिखाई पड़
रहा हो उसे
चांद दिखाई पड़ना
असंभव है।
आंखें डबरे
से भर जाएं तो
फिर चांद
दिखाई नहीं
पड़ता। और दूसरा
चांद की
प्रशंसा कर
रहा था। रात
अदभुत थी। और
जिसे चांद
दिखाई पड़ रहा
है उसे न तो
गंदा डबरा
दिखाई पड़ रहा
था; न
कारागृह में
खड़ा हूं, यह
प्रतीत हो रहा
था; न सीखचों
में बंद हूं, ऐसी प्रतीति
हो रही थी।
आकाश के चांद
ने उसे मुक्त
कर दिया था।
वे दोनों एक
ही जगह खड़े
थे। उन दोनों
के पास एक
जैसी ही आंखें
थीं, पर उन
दोनों के भीतर
भिन्न मन थे।
उनके देखने का
ढंग अलग था; उनकी
व्याख्या अलग
थी।
संसार
तो यही है। जब
कोई बुद्ध हो
जाता है तो
संसार नहीं
बदलता। जहां
आप हैं वहीं
बुद्ध होते
हैं। तो देखने
का ढंग बदल
जाता है। डबरे
खो जाते हैं
और पूरा चांद
प्रकट हो जाता
है। व्यक्ति
पर निर्भर है, कैसे
देखता है, कैसे
व्याख्या
करता है।
स्वीकार करने
का मन हो तो
दुख असंभव है।
क्योंकि दुख
को भी स्वीकार
किया जा सकता
है। स्वीकृत
होते ही दुख
की मृत्यु हो
जाती है। अस्वीकार
में ही दुख
है। अगर हम
दुख को भी
स्वीकार कर
लें तो दुख
विलीन हो जाता
है। स्वीकार
में सुख है।
अगर हम सुख को
भी स्वीकार न
कर पाएं तो दुख
हो जाता है।
तो सुख
और दुख बाहर
की घटनाएं
नहीं, मेरी स्वीकृतियां
और
अस्वीकृतियां
हैं। और अगर
कोई मनुष्य इस
कला को सीख ले
कि ऐसा कुछ भी
न बचे जो उसे
अस्वीकार हो
तो हम उसे दुख
कैसे दे
सकेंगे? सारा
संसार मिल कर
भी उसे दुखी
नहीं कर सकता।
उसका सुख
खंडित करना
असंभव है। और
हम जैसे हैं, हमें सुखी
करना असंभव
है। हमारे दुख
को मिटाना बिलकुल
असंभव है।
क्योंकि हम
अस्वीकार की
कला में इतने
पारंगत हैं।
जो भी हमें
मिले, हम
उसे अस्वीकार
करना जानते
हैं; जो भी
हमें मिल जाए,
मिलते ही
हमारा मन उसके
विरोध से भर
जाता है।
लाओत्से
स्वीकृति का
पोषक है, तथाता
का। कैसी भी
हो स्थिति, स्वीकार
करते ही उसका
गुण बदल जाता
है। अब ध्यान
रहे, यह
बेशर्त बात है;
कैसी भी हो
स्थिति, स्वीकार
करते ही उसका
गुण बदल जाता
है। कितना ही
गहन दुख हो, बीमारी हो, पीड़ा हो, मृत्यु
आ रही हो, अगर
आप स्वीकार कर
सकते हैं, तत्क्षण
गुणधर्म बदल जाता
है। मृत्यु भी
मित्र बन
जाएगी।
मृत्यु भी एक
द्वार बन
जाएगी जो अनंत
की तरफ खुल
रहा है। मृत्यु
में भी तब वह
नहीं दिखाई
पड़ेगा जो छूट रहा
है, बल्कि
वह दिखाई
पड़ेगा जो
उपलब्ध हो रहा
है। लेकिन
अस्वीकार अगर
हो तो मृत्यु
तो दुख होगी
ही, जीवन
भी दुख होगा।
प्रतिपल
कुछ छूट रहा
है,
कुछ मिल रहा
है, कुछ आ
रहा है, कुछ
जा रहा है।
अगर हमें वही
दिखाई पड़ता है
जो जा रहा है
तो दुख होगा; अगर वह भी
दिखाई पड़े जो
आ रहा है तो
सुख होगा। और
हम जहां भी
खड़े हों, उसके
आगे भी जगह
हैं। कितना ही
धन हमारे पास
हो, उससे
ज्यादा धन हो
सकता है।
एक
बहुत बड़े मनसविद
कार्ल
गुस्ताव जुंग
ने अपने
संस्मरणों
में एक बड़ी
महत्वपूर्ण
बात लिखी है।
उसने लिखा है
कि मनुष्य के
सारे दुखों का
कारण मनुष्य
की कल्पना की
शक्ति है। कोई
पशु दुखी नहीं
है,
क्योंकि
कोई पशु
कल्पना नहीं
कर सकता।
कल्पना की
शक्ति मनुष्य
के बड़े से बड़े
दुख का कारण
है। क्यों? क्योंकि
मनुष्य जिस
हालत में भी
हो, उससे
बेहतर की
कल्पना कर
सकता है।
एक
सुंदर स्त्री
आपको पत्नी की
तरह मिल जाए, प्रेयसी
की तरह मिल
जाए, लेकिन
ऐसा आदमी
खोजना कठिन है
जो उससे सुंदर
स्त्री की
कल्पना न कर
सके। और अगर
आप अपनी पत्नी
से सुंदर
स्त्री की
कल्पना भी कर
सकते हैं तो दुखी
हो गए। यह
पत्नी व्यर्थ
हो गई। कितना
ही सुंदर महल
हो, आप
उससे बेहतर
महल की कल्पना
तो कर ही सकते
हैं; न भी
बना सकें। बस
उस कल्पना के
साथ ही तुलना
शुरू हो गई।
और महल झोपड़े
से बदतर हो
गया। जब बेहतर
कुछ हो सकता हो
तो जो भी
हमारे पास है
वह गैर-बेहतर
हो गया।
कल्पना
की शक्ति
मनुष्य के दुख
का भी कारण है, उसकी
सृजनात्मकता
का, उसकी क्रिएटिविटी
का भी। कोई
पशु सृजन नहीं
करता। पशु एक
पुनरावृत्ति
में जीते हैं।
लाखों वर्ष तक
उनकी पीढ़ी
दर पीढ़ी
एक ही ढंग का
जीवन व्यतीत
करती है। आदमी
नए की खोज
करता है, नए
का सृजन करता
है। कल्पना के
कारण वह देख
पाता है: कुछ
बदलाहट की जा
सकती है, कुछ
बेहतर बनाया
जा सकता है।
लेकिन जिस
शक्ति से
सृजनात्मकता
पैदा होती है
उसी शक्ति से
मनुष्य का दुख
भी पैदा होता
है।
इसलिए
बड़े हैरान
होंगे आप जान
कर कि सृजनात्मक
लोग सर्वाधिक
दुखी होते
हैं। जो व्यक्ति
भी क्रिएटिव
है,
कुछ सृजन कर
सकता
है--चित्रकार
हैं, मूर्तिकार
हैं, वैज्ञानिक
हैं, कवि
हैं, बहुत
दुखी होते
हैं। क्योंकि
किसी भी
स्थिति में
उन्हें अंत
नहीं मालूम हो
सकता; उस
स्थिति से
बेहतर हो सकता
है। और जब तक
वे बेहतर को न
पा लें तब तक
दुखी होंगे।
और ऐसी कोई अवस्था
नहीं हो सकती
जिससे बेहतर
की कल्पना न की
जा सके।
पशु
आदमी से
ज्यादा सुखी
मालूम पड़ते
हैं,
क्योंकि वे
जहां हैं वही
उनका
अस्तित्व है।
उससे बेहतर न
सोच सकते हैं,
न सपना देख
सकते हैं; तुलना
भी नहीं कर
सकते। मनुष्य
की कल्पना की
क्षमता उसे
भविष्य में ले
जाती है। और
जब मन भविष्य
में चला जाता
है तो वर्तमान
से हमारे संबंध
टूट जाते हैं
और वर्तमान ही
जीवन है।
लाओत्से
कहता है, जो
व्यक्ति भी
जहां है उस
अवस्था को
उसकी परिपूर्णता
में स्वीकार
कर लेता है
उसके जीवन में
दुख का कोई
उपाय नहीं।
लेकिन
इससे हमें डर
लगेगा। इससे
डर यह लगेगा कि
जो भी हमारे
पास है, अगर
हम स्वीकार कर
लें, तो
फिर विकास का
क्या उपाय है?
और अगर हम
श्रेष्ठतर को
न सोच सकें तो
खोजेंगे
क्यों? खोजेंगे
कैसे? फिर
मनुष्य भी पशु
जैसा हो
जाएगा।
पश्चिम
के विचारक, विकासवादी
विचारक, यही
आलोचना पूरब
की उठाते हैं।
उनकी आलोचना तर्कयुक्त
है। वे कहते
हैं कि पूरब
इसीलिए विकसित
नहीं हो पाया।
और पूरब को
देख कर उनकी
बात सही भी
मालूम पड़ती
है। क्योंकि
पूरब स्वीकार कर
लेता है। अगर झोपड़ा है
तो झोपड़ा
स्वीकार है, और गरीबी है
तो गरीबी
स्वीकार है, भूख है तो
भूख स्वीकार
है। इस
स्वीकार के
कारण पूरब में
विज्ञान का
जन्म नहीं
हुआ।
यह बात
ठीक मालूम
पड़ती है।
पश्चिम में
विज्ञान का
जन्म हो सका, क्योंकि
बड़ी कल्पना
है। और जो कुछ
भी बना पाते
हैं, बना भी
नहीं पाते कि
वह व्यर्थ हो
जाता है, आउट
ऑफ डेट मालूम
होने लगता है,
क्योंकि
कुछ और नई
कल्पना सामने
आ जाती है।
तो
पश्चिम जी ही
नहीं पाता।
बनाता है जीने
के लिए, तब तक
और बेहतर हो
सकता है; बन
नहीं पाती कोई
चीज कि मिटने
के करीब, मिटने
का क्षण आ
जाता है।
पश्चिम जी
नहीं पाता, दौड़ता रहता है।
पूरब खड़ा है, लेकिन खड़ा
है बड़ी पीड़ाओं
में और कोई
विकास नहीं हो
पाता।
लाओत्से, बुद्ध,
महावीर की
जो बड़ी से बड़ी
आलोचना है वह
पूरब की वर्तमान
स्थिति है। और
अगर पूरब का
विचार पश्चिम
को स्वीकार
नहीं होता तो
उसका कारण है
कि पूरब को देख
कर लगता है कि
वह स्वीकार
करने योग्य
नहीं है। वह
खतरनाक है।
उससे एक जड़ता
पैदा हो
जाएगी।
लेकिन
लाओत्से को या
बुद्ध को
समझने में
कहीं हमारी
भूल हो गई है।
भूल की
संभावना सदा
है। क्योंकि
जिस तल से
लाओत्से
बोलता है उस
तल पर हम नहीं
समझ पाते।
लाओत्से की
बात अगर ठीक
से समझ में आ
जाए और जो भी
हमारी स्थिति
हो उसे हम
पूरे हृदय से
स्वीकार कर
लें तो इससे विकास
रुकेगा नहीं, विकास
होगा। लेकिन
विकास के होने
का ढंग बदल जाएगा।
हम उस स्थिति
में इतने
आनंदित हो
जाएंगे, और
दुख में हमारी
जो शक्ति व्यय
होती है वह शक्ति
व्यय नहीं
होगी।
ध्यान
रहे,
दुख में
शक्ति व्यय
होती है। पीड़ा
में आदमी टूटता
है, नष्ट
होता है। और
आनंद के
अतिरिक्त इस
जगत में शक्ति
का कोई दूसरा
स्रोत नहीं
है। जो व्यक्ति
जीवन को
स्वीकार कर ले,
प्रतिपल
जैसा है, इससे
ठहर नहीं
जाएगा। इस
स्वीकृति से
उसके पास
अदम्य शक्ति
बचेगी। उसकी
शक्ति का
व्यर्थ बहना
बंद हो जाएगा।
उसकी शक्ति के
छिद्र, जिनसे
शक्ति बहती है,
समाप्त हो
जाएंगे। वह
टूटेगा नहीं,
वह अखंड
होगा, वह
अटूट होगा, और एक
महाशक्ति का
स्रोत होगा।
यह महाशक्ति अपनी
शक्ति के कारण
ही प्रतिपल
विकसित होगी।
इस
विकास का ढंग ऐसा
नहीं होगा
जैसा एक आदमी
एक गाय को गले
में रस्सी
बांध कर
घसीटता है; गाय
न भी जाना
चाहे तो आदमी
घसीटता है और
गाय को जाना
पड़ता है।
पश्चिम में जो
विकास हो रहा
है वह इस तरह
का है।
महत्वाकांक्षा
आगे खींचती है
रस्सी की तरह;
रुकने का
कोई उपाय नहीं
मालूम होता। प्रत्येक
आदमी
महत्वाकांक्षा
की रस्सी में
बंधा हुआ
खिंचता है।
इसलिए विकास
तो होता है, लेकिन महादुख,
पीड़ा, तनाव
और अशांति के
साथ। और जो
विकास पीड़ा
में ले जाए, संताप में
ले जाए, विक्षिप्तता
में ले जाए, उस विकास का
करेंगे भी
क्या? मकान
अच्छा बन जाए,
भोजन अच्छा हो
जाए और आदमी
खोता चला जाए;
और जिसके
लिए हम मकान
बनाते हैं और
जिसके लिए अच्छा
भोजन, अच्छी
टेक्नालाजी,
यंत्रों का
इंतजाम करते
हैं, वह
बचे ही न उनके
उपभोग के लिए;
उपभोग की
सामग्री
इकट्ठी हो जाए,
उपभोक्ता
मर जाए, तो
क्या प्रयोजन
है?
पश्चिम
में यही हो
रहा है। आदमी
खोता जाता है; साधन,
सामग्री, व्यवस्था, सुविधा बढ़ती
जाती है। वह
जिसके लिए बढ़
रही है वह
धीरे-धीरे
बचेगा ही नहीं;
उसके बचने
की कोई
संभावना नहीं
दिखाई पड़ती।
तो एक
तो विकास है, महत्वाकांक्षा
की डोर से
जबरदस्ती
आदमी की गर्दन
खींची जाए। एक
और विकास है
जो महत्वाकांक्षा
की डोर से
पैदा नहीं
होता। हम एक
बीज को बोते
हैं; अंकुर
फूटता है। इस
अंकुर को कोई
भी खींच नहीं
रहा है। और
अगर आप खींचेंगे
रस्सी बांध कर
तो आप हत्यारे
सिद्ध होंगे;
पौधा मर
जाएगा। इसे
कोई भी खींच
नहीं रहा है; कोई भी
वासना, कोई
भी आकांक्षा,
कोई भविष्य
इसे बुला नहीं
रहा है। यह
कुछ होना नहीं
चाहता। इस बीज
की अदम्य
ऊर्जा! इसकी
शक्ति!
इसलिए
हम करते क्या
हैं?
जब बीज से
अंकुर फूटता
है तो हम पानी
देते हैं, खाद
देते हैं, पौधे
को खींचते
नहीं। पानी और
खाद का अर्थ
है, हम उसे
शक्ति दे रहे
हैं, हम
उसके भीतर जो
शक्ति छिपी है,
उसे प्रकट
होने का अवसर
दे रहे हैं।
वह शक्ति अपने
आप ही पौधे को
खींचती ले
जाएगी। और
पौधा प्रतिपल
आनंदित होगा।
क्योंकि कोई
भविष्य की वजह
से वह आज दुखी
होने वाला
नहीं है कि कल
फूल खिलेंगे,
तब सुख
होगा। जब फूल
नहीं खिले हैं
तब भी पौधा सुखी
होगा; जब
फूल खिलेंगे
तब भी सुखी
होगा; हर
क्षण में सुखी
होगा।
लाओत्से
कहता है, विकास
स्वभाव से।
विकास
जबरदस्ती
नहीं, खींचतान
से नहीं; मनुष्य
की भीतरी
शक्ति ही उसे
विकसित होने
में लेती जाए,
वह एक नदी
की धार की तरह
बहता रहे।
मनुष्य का शक्ति
का यह जो
स्रोत है यह स्वीकार
के भाव से
बढ़ता है, अस्वीकार
के भाव से कम
होता है।
क्योंकि जैसे ही
हम किसी चीज
को अस्वीकृत
करते हैं, हमारा
विरोध शुरू हो
गया। जहां
विरोध है वहां
संघर्ष है।
जहां संघर्ष
है वहां हम
लड़ने में उलझ
गए, और
हमारी शक्ति
लड़ने में नष्ट
होगी।
स्वीकार का
अर्थ है, हमारा
कोई विरोध
नहीं; हमारी
शक्ति के व्यय
होने का कोई
उपाय नहीं। हम
लड़ नहीं रहे
हैं, हमारा
कोई संघर्ष
नहीं है।
और
ध्यान रहे, जैसे
ही कोई
व्यक्ति लड़ने
की वृत्ति पकड़
लेता है, उसके
जीवन में धर्म
का अनुभव कठिन
हो जाएगा। क्योंकि
धर्म के अनुभव
का एक ही अर्थ
है कि इस
अस्तित्व के
साथ मेरी
मैत्री है, विरोध नहीं;
इस समग्र
अस्तित्व का
मैं एक हिस्सा
हूं, इसका
शत्रु नहीं, और यह पूरा
ब्रह्मांड
मुझे खिला हुआ
देखना चाहता
है, मुझे
मिटाने को
आतुर नहीं है।
उसी ने मुझे
पैदा किया है,
वही मेरी
शक्ति को
सहारा दे रहा
है। श्वास उसकी
है, रोआं-रोआं
उसका दान है।
मैं जो कुछ भी
हूं, इस
विराट विश्व
के भीतर से
उठा हूं और यह
विराट विश्व
मेरा शत्रु
नहीं है। यह
मेरा घर है। यहां
कोई कांक्वेस्ट
ऑफ नेचर, कोई
प्रकृति पर
विजय करने की
बात नहीं है।
क्योंकि
प्रकृति पर
विजय हो नहीं
सकती। मैं
प्रकृति का
हिस्सा हूं; हिस्सा
पूर्ण पर कोई
भी विजय नहीं
पा सकता। लड़
सकता है; लड़
कर नष्ट हो
सकता है; दुखी
और पीड़ित हो
सकता है; लेकिन
उस सौभाग्य को
उपलब्ध नहीं
हो सकता जहां
प्रतिपल
उत्सव हो जाता
है। यह उत्सव
तो तभी संभव
है जब
अस्तित्व के
साथ मेरी गहरी
एकता का बोध मुझे
शुरू हो जाए; जब मुझे लगे
कि मैं पराया
नहीं हूं; जब
मुझे लगे कि
मैं अजनबी
नहीं हूं; और
जब मुझे लगे
कि वृक्ष और
चांद और तारे
और पौधे और
पृथ्वी और पशु
और पक्षी सब
मेरे साथ हैं।
स्वीकार
का भाव इस साथपन
के भाव को भी
पैदा करता है।
पश्चिम
में एक नई
चिंतना चलती
है। उस नई
चिंतना
अस्तित्ववाद
ने एक महत्वपूर्ण
सवाल, जो
पश्चिम के हर
विचारशील
आदमी को
परेशान कर रहा
है, काफी
जोर से
उठाया--नारे
की तरह। और वह
यह है कि आदमी आउटसाइडर
है, आदमी
अजनबी है; और
प्रकृति को
आदमी से कोई
प्रयोजन नहीं;
और यह
ब्रह्मांड
बिलकुल
उपेक्षा से
भरा है, और
यह ब्रह्मांड
आदमी को सहारा
देने को जरा
भी उत्सुक
नहीं है। तो
आदमी एक स्ट्रेंजर
है, एक
अजनबी है। यह
अस्तित्व घर
तो हो ही नहीं
सकता, ज्यादा
से ज्यादा, अच्छी से
अच्छी
संभावना एक
धर्मशाला
होने की है, बुरी से
बुरी संभावना
एक युद्धस्थल
की। लेकिन यह
घर नहीं है।
और अगर ऐसी
प्रतीति हो कि
यह अस्तित्व
घर नहीं है, एक धर्मशाला
है--श्रेष्ठतम
संभावना
धर्मशाला की
है।
श्रेष्ठतम
संभावना तो
बहुत थोड़े लोग
पा सकेंगे, अधिकतम
लोगों को
युद्धस्थल
की। यह जगत
युद्धस्थल है,
जहां लड़ना
है और मरना है;
जहां जीने
का, आनंद
से, उत्सव
से जीने का
कोई उपाय नहीं
है। क्योंकि सब
तरफ शत्रु हैं
और सब
अपने-अपने को
बचाने और दूसरे
को नष्ट करने
के खयाल में
संलग्न हैं।
ऐसी धारणा अगर
हो और फिर
मनुष्य अगर
बहुत बेचैन हो
जाए तो
आश्चर्य क्या?
फिर अगर
पश्चिम में
पागलों की
संख्या बढ़ने
लगे और मस्तिष्क
प्रतिदिन
रुग्ण होता
चला जाए, इसे
स्वाभाविक
मानना होगा।
यह सहज परिणति
है। अगर आदमी
अकेला है और
सारा जगत
शत्रु है, तो
इस
अंधकारपूर्ण
जगत में जहां
सभी कुछ शत्रु
है, हम
कैसे शांत हो
सकते हैं? कैसे
आनंदित हो
सकते हैं? समाधि
कैसे फलित हो
सकती है?
लाओत्से
की दृष्टि इस
जगत को एक घर, अपना
घर बनाने की
है। घर तो है
ही, हमारी
दृष्टि पर
निर्भर है। हम
चाहें तो उसे
युद्ध का स्थल
बना सकते हैं।
तथाता, स्वीकार
का भाव, टोटल
एक्सेप्टबिलिटी
लाओत्से का
आधार सूत्र
है। जो भी मैं
हूं, जहां
भी मैं हूं, उस क्षण में
उससे अन्यथा
की मांग न हो।
इसके
परिणाम बहुत
होंगे। पहला
परिणाम तो यह
होगा: जो भी
मैं हूं, जहां
भी हूं, जैसा
भी हूं, जो
मुझे मिला है
कम या
ज्यादा--क्योंकि
कम और ज्यादा
का खयाल तभी
पैदा होता है
जब मैं कुछ और की
मांग करूं--जो
भी है उससे
अगर मैं
संतुष्ट हूं,
तो यह क्षण
मेरा परम सुख
का क्षण हो
जाएगा। और इस
संतोष के माध्यम
से यह जगत
मेरा घर बन
जाएगा; और
इस संतोष के
माध्यम से
मेरी शक्ति
बचेगी, और
उस शक्ति से
नए अंकुर फूटेंगे;
मैं विकसित
होता रहूंगा,
मैं प्रवाहवान
रहूंगा।
लेकिन वह
प्रवाह सहज
होगा। वह किसी
संघर्ष के
द्वारा नहीं,
वह किसी
युद्ध के
द्वारा नहीं,
वह प्रवाह
प्रेमपूर्ण
होगा, वह
प्रवाह एक
प्रार्थना की
धारा होगी।
लाओत्से
या बुद्ध को
पूरब समझ नहीं
पाया, या फिर
पूरब के लोगों
ने लाओत्से और
बुद्ध की जो
व्याख्या की,
वह उनके
चालाक मन का
सबूत है।
लाओत्से यह
नहीं कह रहा
है कि तुम रुक
जाना। वह यह
भी नहीं कह
रहा है कि तुम
आंखें बंद कर
लेना। वह यह
भी नहीं कह
रहा है कि तुम
मुर्दा हो
जाना। और
लाओत्से
जिसको संतोष
कहता है, हम
उसे संतोष
नहीं कहते।
शब्द के कारण
बड़ी भ्रांति
पैदा होती है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। एक मित्र
ने एक दिन मुझे
आकर कहा कि
साधु-संत कहते
हैं कि संतोषी
सदा सुखी। मैं
तो सदा से
संतोष कर रहा
हूं,
लेकिन सुख
का तो कोई पता
नहीं।
इस
व्यक्ति का
संतोष किस
भांति का होगा? क्योंकि
संतोष का सुख
सहज परिणाम
है। यह तो ऐसे
ही हुआ कि कोई
आदमी कहे कि
पानी तो मैं
रोज पी रहा
हूं, लेकिन
प्यास तो मेरी
कभी बुझी
नहीं। तो
समझना चाहिए
कि पानी की
जगह वह कुछ और
पी रहा होगा।
पानी का तो लक्षण
ही प्यास को
बुझाना है। वह
उसका स्वभाव
है। यह आदमी
कहता है कि
संतोष तो मैं
सदा से कर रहा
हूं, लेकिन
सुख मुझे कभी
मिला नहीं।
इस एक
वाक्य में
पूरे पूरब की
भूल छिपी हुई
है। मैंने उस
आदमी को कहा
कि तुम संतोष
तो इस क्षण भी
नहीं कर रहे
हो,
सदा की तो
बात छोड़ो।
क्योंकि यह
असंतुष्ट
चित्त का
लक्षण है जो कह
रहा है कि सुख
मुझे कभी नहीं
मिला। संतोष
का अर्थ ही यह
होता है कि जो
मुझे मिला वह
सुख था; जो
भी मुझे मिला
वह मेरा सुख
था। संतोष का
इतना ही अर्थ
है। तो इस
आदमी का संतोष
कुछ और ढंग का
है। इसके
संतोष
को--अच्छा
होगा--हम कहें,
सांत्वना, कंसोलेशन; कंटेंटमेंट
नहीं।
सांत्वना बड़ी
उलटी बात है।
जो आप नहीं पा
सकते, जिसको
पाने की आप सब
कोशिश कर लेते
हैं और सफल नहीं
होते...।
ईसप की
कहानी आपको
खयाल है? लोमड़ी छलांग
लगाती है और
अंगूर के
गुच्छों तक
नहीं पहुंचती,
तो वह कहती
हुई सुनी जाती
है कि अंगूर
खट्टे हैं। यह
सांत्वना है।
इससे लोमड़ी
अपनी पराजय को
छिपा रही है।
यह संतोष नहीं
है। लोमड़ी
ने पूरी कोशिश
की है कि
अंगूरों को पा
ले। अंगूर दूर
हैं, और
पाने का कोई
उपाय नहीं। और
लोमड़ी यह
भी मानने को
तैयार नहीं कि
मैं कमजोर हूं,
मेरी छलांग
छोटी है। और
दूसरों को यह
पता चले कि
मैं हार गई, यह भी
अहंकार को चोट
पहुंचाने
वाली बात है।
तो लोमड़ी
कहती है कि
अंगूर खट्टे
हैं। वह इसलिए
कह रही है कि
अंगूर खट्टे
हैं ताकि अपने
को भी समझा ले,
दूसरों को
भी समझा दे--कि
ऐसा नहीं है
कि मैं पाना
चाहती तो न पा
सकती थी; मैं
पा सकती थी।
लेकिन अंगूर
खट्टे हैं, पाने योग्य
नहीं। यह लोमड़ी
संतोष करके
वापस लौट रही
है। यह संतोष
सांत्वना है,
कंसोलेशन
है। यह चालाक
चित्त का उपाय
है।
हमारा
संतोष ऐसा ही
संतोष है। हम
सब उपाय करते
हैं;
तभी तो इस
मित्र ने कहा
कि मैं सदा से
संतोष कर रहा
हूं, लेकिन
सुख तो मिला
नहीं। सुख
मिलना चाहिए,
इसके सब
उपाय कर रहा
है वह। सुख
नहीं मिल रहा
है तो अपने को
समझा रहा है
कि मैं संतोषी
आदमी हूं, और
तब संतोष के
माध्यम से सुख
पाने की कोशिश
कर रहा है।
संतोष के माध्यम
से कोई सुख
पाने का सवाल
नहीं है; संतोष
सुख है। संतोष
का मतलब यह कि
हमने दुख को
अस्वीकार
करना छोड़ दिया,
और हमने सुख
की मांग छोड़
दी। हमें जो
मिल जाता है
वही हमारी
नियति है, वही
हमारा भाग्य
है; उससे
ज्यादा की हमारी
आकांक्षा
नहीं है। उससे
ज्यादा के लिए
हमारी कोई दौड़
भी नहीं है।
ऐसे क्षण में
जो भीतर एक
संगीत बजने
लगता है; जब
कोई मांग नहीं,
कोई
आकांक्षा
नहीं, कोई
दौड़ नहीं, तो
भीतर जो शांति
का संगीत बजने
लगता है उसका नाम
संतोष है। इस
संतोष का जिसे
भी अनुभव हो जाए,
क्या वह कभी
भी कह सकता है
कि मुझे सुख
नहीं मिला? क्योंकि इस
संतोष के
अतिरिक्त और
सुख होगा क्या!
पूरब
ने संतोष को
ढाल बना लिया
और अपनी
कमजोरी और
कायरता उसमें
छिपा ली।
संतोष केवल
उनके लिए है
जो शक्तिशाली
हैं। कमजोरों
के लिए
सांत्वना है।
पर वे
सांत्वना को
संतोष कहते
हैं। और तब
शब्दों के
कारण बड़ी उलझन
हो जाती है।
लाओत्से
के इस सूत्र
को समझना।
उसके पहले एक
बात और खयाल
में ले लेनी
जरूरी है। जो
आदमी संतुष्ट
है वह
महत्वाकांक्षी
नहीं हो सकता, एंबीशस
नहीं हो सकता।
कुछ भी पाने
का लक्ष्य--वह
चाहे मोक्ष ही
क्यों न हो, परमात्मा
क्यों न हो, आत्मज्ञान
क्यों न हो, ध्यान और
समाधि क्यों न
हो--कुछ भी
पाने का लक्ष्य
संतोषी
व्यक्ति को
नहीं हो सकता।
और बड़े मजे की
बात तो यह है
कि
महत्वाकांक्षी
दौड़ता है,
दौड़ता है सदा, पहुंचता
कभी नहीं, और
संतुष्ट
व्यक्तित्व दौड़ता
नहीं और पहुंच
जाता है।
क्योंकि अगर
मैं इतना
संतुष्ट हूं
कि मैं कुछ भी
नहीं मांगता
तो ध्यान
मुझसे कितनी
देर बचेगा? अशांत होने
का उपाय नहीं
है तो शांत
होने की विधि
की क्या जरूरत
है? विधियां
तो तब जरूरी
हैं जब
बीमारियां
हों। पहले हम
बीमारी पैदा
करते हैं, फिर
हम विधि की
खोज करते हैं।
लाओत्से कह
रहा है, बीमारी
पैदा करने की
कोई जरूरत
नहीं।
इसलिए
लाओत्से का
प्रसिद्ध
सूत्र है कि
जब जगत में
ताओ था तो
धर्म नहीं था, धर्म-उपदेशक
नहीं थे, धर्मगुरु
नहीं थे। जब
जगत से ताओ
नष्ट हो जाता
है, स्वभाव
खो जाता है, तब धर्म का
जन्म होता है।
सीधी
बात है।
क्योंकि धर्म
औषधि है। पहले
बीमारी चाहिए, बीमारी
के पीछे फिर
डाक्टर
प्रवेश करता
है। फिर हम
डाक्टर के बड़े
अनुगृहीत
होते हैं।
लाओत्से का
जोर चिकित्सा
पर नहीं है।
पहले बीमारी पैदा
करो, फिर
इलाज करो, इस
पर उसका जोर
नहीं है।
लाओत्से का
जोर है, बीमारी
पैदा मत करो।
और बीमारी
हमारी पैदा की
हुई है। फिर
हजारों
औषधियां पैदा
होती हैं।
बीमारी को ठीक
करने के लिए
हजारों
औषधियां
अस्तित्व में
आती हैं। और
फिर औषधियों
के रिएक्शंस
हैं, फिर
औषधियों से
पैदा हुई
बीमारियां
हैं। और उनका
फिर कोई
सिलसिले का
अंत नहीं है।
फिर चिकित्सक
जो कर सकता है
इलाज जिस
बीमारी का, उसी बीमारी
को खोजता है।
इधर मेरा
अनुभव यही है।
आपकी तकलीफ
क्या है, चिकित्सक
को इससे कम
संबंध है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
ने एक बार
चिकित्सा का
काम शुरू किया
था। सारा
आयोजन कर लिया
था,
द्वार पर
तख्ती लगा दी
थी और मरीज की
प्रतीक्षा
में था। पहला
ही मरीज आया।
और उस मरीज ने
कहा कि मैं
बड़ी मुश्किल
में हूं, बहुत
निराश हो चुका
हूं। जगह-जगह
खोज तो चुका, जगह-जगह
चिकित्सक, वैद्य,
हकीम, कोई
भी मुझे ठीक
नहीं कर पा
रहे हैं। मेरी
रीढ़ में सदा
ही दर्द बना
रहता है। और
इसे कुछ वर्षों
हो गए, बारह-पंद्रह
वर्ष हो गए।
मुल्ला नसरुद्दीन
ने काफी सोचा
और फिर कहा, तुम एक काम
करो। सर्दी के
दिन हैं, रात
तुम स्नान करो
और बाहर घर के
खड़े हो जाओ। कपड़े
से सुखाना भी
मत शरीर को।
ठंडी बर्फीली
हवाएं बह
रही हैं। उस
आदमी ने कहा, क्या? क्या
इससे मेरी रीढ़
का दर्द ठीक
हो जाएगा? नसरुद्दीन ने कहा, यह
मैंने कहा भी
नहीं। इससे
तुम्हें डबल
निमोनिया हो
जाएगा। और डबल
निमोनिया का
इलाज मेरे पास
है, रामबाण
दवा मेरे पास
है।
फिर
चिकित्सक के
पास जिस बात
की दवा है वह
उस बीमारी को
खोजता है। न
हो तो पैदा
करता है। इसलिए
आप जाएं
होम्योपैथ के
पास,
तो वह और
बीमारी खोजता
है; एलोपैथ के पास, वह
और बीमारी
खोजता है; नेचरोपैथ
के पास, वह
कोई और ही
बीमारी खोजता
है। जितनी
चिकित्सा
विधियों के
पास आप जाएंगे,
वे अलग-अलग
निदान
करेंगे।
निदान का मतलब
ही इतना है कि
जिस बात का वे
इलाज कर सकते हैं
वही उनका
निदान होगा।
आपसे बहुत कम
प्रयोजन है।
वे क्या कर
सकते हैं, उससे
ही ज्यादा
प्रयोजन है।
आप सिर्फ
निमित्त
मात्र हो।
धर्मगुरुओं के
पास भी वही
है। आपकी क्या
तकलीफ है, यह
सवाल नहीं है;
उनके पास
कौन सी औषधि
है।
लाओत्से
कहता है, एक तो
बीमारी का
उपद्रव, फिर
औषधि का
उपद्रव; इसका
फिर कोई अंत
नहीं है।
बीमारी पैदा न
हो।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे पूछते
हैं,
मन अशांत है,
कैसे शांत
करें?
मैं
उनसे पूछता
हूं कि तुम
इसकी फिक्र न
करो कि कैसे
शांत करें; पहले
इसकी ही फिक्र
करो कि कैसे
तुमने अशांत किया
है! और तुम उन कारणों
को हटा दो
जिनसे तुमने
अशांत किया
है।
लेकिन
यह लंबा मामला
मालूम पड़ता
है। और उन्हें
लगता है कि यह
असंभव है। वे
कहते हैं, यह
तो छोड़ें, आप
तो शांति का
कोई उपाय, कोई
मंत्र बता
दें। अशांति
को वे पैदा
करते रहेंगे;
अशांति को
रोकने के लिए
वे तैयार नहीं
हैं; अशांति
में इनवेस्टमेंट
है, उससे
कुछ और मिल
रहा है, तो
अशांति वे छोड़
नहीं सकते और
शांति का कोई
ऊपर से इलाज
चाहते हैं!
अगर शांति ऐसे
मिल सकती तब
सारी दुनिया
के लोग कभी के
शांत हो गए
होते। शांति
ऐसे नहीं मिल
सकती; अशांति
के कारण हटाने
होंगे।
लाओत्से के
हिसाब से
अशांति के
कारण समझ लेने
चाहिए।
"जब
संसार ताओ के
अनुकूल जीता
है, स्वभाव
के अनुकूल
जीता है, तब
घुड़दौड़
के घोड़े
कचरा-गाड़ी
खींचने के काम
आते हैं।'
घुड़दौड़ के
घोड़े आपकी
महत्वाकांक्षाओं
के घोड़े हैं। यह
थोड़ी हैरानी
की बात है कि
आदमी घोड़ों
को दौड़ा
कर भी हार-जीत
का निर्णय
करता है। घोड़े
दौड़ते हैं, और
आदमी उनमें
प्रथम और
द्वितीय आते
हैं। घोड़े
दौड़ते हैं, और लाखों
लोग उन्हें
देखने इकट्ठे
होते हैं। आप
आदमियों को दौड़ाएं, लाख घोड़ों
को इकट्ठा आप
कभी नहीं कर
सकते देखने के
लिए। घोड़ों
को इसमें कुछ
रस ही न होगा, और घोड़े
बिलकुल भी
प्रसन्नचित्त
न होंगे कि
कोई आदमी दौड़
रहे हैं और
इससे कुछ...। घोड़ों की
अपनी कोई
महत्वाकांक्षा
नहीं है। आदमी
सब बहाने--चाहे
वह खेल खेलता
हो, ताश
खेलता हो, कबड्डी
खेलता हो, फुटबाल
खेलता हो, वह
कुछ भी करता
हो--सब जगह हार
और जीत को
खोजता है, सब
जगह अहंकार को
प्रतिष्ठित
करने के उपाय
करता है। उसके
खेल भी
बीमारियां
हैं।
लाओत्से
कह रहा है, अगर
संसार ताओ के
अनुकूल हो तो घुड़दौड़ के
घोड़े
कचरा-गाड़ी
खींचने के काम
आएंगे। कौन उन्हें
दौड़ाएगा?
कौन उनके
ऊपर
महत्वाकांक्षा
की सवारी
करेगा? कौन
उनके प्रथम और
द्वितीय आने
में रस लेगा? यह तो हम
प्रथम होना
चाहते हैं तो
हम कई उपाय खोजते
हैं प्रथम
होने के। कोई
भी बहाने हम
प्रथम होना
चाहते हैं।
ऐसे-ऐसे उपाय
हम खोजते हैं कि
कोई भी सोचेगा
तो हंसी आएगी।
कोई
आदमी डाक के
टिकट ही
इकट्ठे करने
लगता है। तो
वह इसमें रस
लेता है कि
गांव में सबसे
ज्यादा डाक के
टिकट उसके पास
हैं। डाक के टिकटों
का क्या मूल्य
हो सकता है? कोई
आदमी शराब की
बोतलें
इकट्ठी करने
लगता है--खाली
बोतलें। पर
कुछ भी हो, कोई
भी बहाना काम
देगा। मेरी
अस्मिता
तृप्त होनी
चाहिए। मैं
कुछ हूं जो
दूसरा नहीं है;
मैं कहीं
हूं जहां
दूसरा नहीं है;
मैं कुछ
अनूठा, अद्वितीय
हूं, असाधारण
हूं। अगर आप
अपनी
गतिविधियों
को खोजेंगे तो
उनमें पाएंगे
कि यह असाधारण
की खोज चल रही
है।
लाओत्से
हंसी उड़ा रहा
है। लाओत्से
यह कह रहा है
कि तुम्हारे घुड़दौड़ के
घोड़े कचरा-गाड़ियां
ढोएंगे, अगर
लोग ताओ के
अनुकूल हों।
"और जब
संसार ताओ के
प्रतिकूल
चलता है, तब
गांव-गांव में
अश्वारोही
सेना भर जाती
है।'
समस्त
युद्धों के
पीछे
महत्वाकांक्षा
है। और जब भी
हम स्वभाव को
खो देते हैं
तो हिंसा भड़क
उठती है।
हिंसा का अर्थ
है कि हम
स्वभाव के प्रतिकूल
चले गए, हम
रुग्ण हो गए।
इसे
थोड़ा समझें।
जब भी हम
रुग्ण होते
हैं तो हम
दूसरे को जिम्मेवार
ठहराते हैं।
जब भी हम दुखी
होते हैं तो
किसी को
उत्तरदायी
ठहराते हैं।
अगर आप परेशान
हैं तो आप
तत्क्षण
खोजते हैं कि
कौन आपको परेशान
कर रहा है! आप
कभी नहीं
सोचते कि
परेशानी के
चुकता मालिक
आप खुद ही हो
सकते हैं; किसी
को आपको
परेशान करने
की जरूरत नहीं
है। जब आप
क्रोधित होते
हैं तो आप
सोचते हैं, किसी ने
क्रोधित
करवाया। जब भी
आप बीमार होते
हैं तो आप
बाहर कारण
खोजते हैं; कोई न कोई
जिम्मेवार
होना चाहिए।
इससे आपकी आत्मग्लानि
कम हो जाती
है। और इससे
आप यह भूल जाते
हैं कि आपके
सब उपद्रव
स्वनिर्मित
हैं।
वैज्ञानिक
इस पर बहुत से
प्रयोग किए
हैं। कुछ प्रयोगों
में उन्होंने
कुछ
व्यक्तियों
को सब भांति
एकांत में रखा
और उनके मन की
निरंतर परीक्षण
की व्यवस्था
की। अड़तालीस
घंटे तक एक आदमी
अकेला है। कोई
कारण नहीं
है--कोई उसे
गाली नहीं दे
रहा है; कोई
उसे चिढ़ा
नहीं रहा है; कोई उसे दर्ुव्यवहार
नहीं कर रहा
है--वह अकेला
ही है। सारी
सुविधाएं हैं;
भोजन की, पानी की, रहने
की, सारी
सुविधाएं
हैं। लेकिन
चौबीस घंटे
में वह आदमी
चौबीस रंग
बदलता है, अकेले
में भी। कभी
वह क्रोधित हो
जाता है; कभी
उदास हो जाता
है; कभी
खुश हो जाता
है; कभी
गीत
गुनगुनाने
लगता है; कभी
बेचैन दिखाई
पड़ता है; कभी
बड़े चैन में
होता है। जैसे
ये उसके भीतर
के मौसम हैं
जो उसके भीतर
चल रहे हैं।
अगर वह किसी
के साथ होता
तो वह इनका
कारण दूसरे
में खोजता।
लेकिन इस
एकांत में भी,
जब वह खुद
ही सब चीजों
को पैदा कर
रहा है, तब
भी वह अपने मन
में कारण
दूसरा ही
खोजता है। अगर
वह क्रोधित हो
गया है तो वह
सोचता है कि
परसों किसी
आदमी ने गाली
दी थी इसलिए
मैं क्रोधित
हो रहा हूं।
अगर वह
प्रसन्न हो
गया तो सोचता है
कि दस दिन
पहले उसका
फलां आदमी ने
इतना सम्मान
किया था, इसलिए
वह प्रसन्न हो
रहा है। लेकिन
हम कारण सदा
बाहर खोजते
हैं।
लाओत्से
के हिसाब
से--और समस्त
जानने वालों
के हिसाब
से--सभी के
कारण हमारे
भीतर हैं। हम
प्रसन्न होते
हैं तो कारण
भीतर हैं, दुखी
होते हैं तो
कारण भीतर हैं,
आनंदित
होते हैं तो
कारण भीतर
हैं। बाहर
सिर्फ बहाने
हैं, एक्सक्यूजेज हैं, खूंटियां
हैं। जो भी हम
होते हैं उसी
को उन खूंटियों
पर टांग देते
हैं।
और जब
सभी लोग अपने
स्वभाव से
विचलित हो
जाते हैं तो
स्वभाव से
विचलित आदमी
निश्चित ही
गहरे संताप से
भर जाएगा, और
संताप के कारण
बाहर खोजेगा।
यह बाहर कारण
खोजना ही
समस्त कलह का
कारण है। चाहे
आप पत्नी से
लड़ रहे हों या
पत्नी पति से
लड़ रही हो, बाप
बेटे से लड़
रहा हो, हिंदुस्तान
पाकिस्तान से
लड़ रहा हो, कि
चीन किसी और
से लड़ रहा हो, देश हों, कि
जातियां हों,
कि व्यक्ति
हों, कि
समाज हों, सारा
क्रोध स्वभाव
से च्युत होने
का लक्षण है।
हम भीतर
परेशान हैं।
और परेशानी के
लिए किसी न
किसी को
जिम्मेवार
ठहराना जरूरी
है। और जब भी
हम किसी को
जिम्मेवार ठहरा
लेते हैं, राहत
मिलती है।
एडोल्फ
हिटलर ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है कि अगर
तुम्हारे
राष्ट्र का
कोई शत्रु न
भी हो, तो भी
तुम्हें
शत्रु की
कल्पना
राष्ट्र में
बनाए रखनी चाहिए,
नहीं तो लोग
अति बेचैन हो
जाते हैं। और
किसी भी
राष्ट्र को
ठीक से जीना
हो तो उसके
लिए दुश्मन
चाहिए। अगर
वास्तविक
दुश्मन न हों
तो झूठे सही, प्रचारित
दुश्मन चाहिए,
लेकिन
दुश्मन
चाहिए।
जर्मनी
जैसा
विचारशील
मुल्क, जो कि
इधर पिछले सौ
वर्षों में
अगर किसी भी
मुल्क के ऊपर
विचार की
ठीक-ठीक
प्रतिष्ठा हो
सकती है, तो
वह जर्मन जाति
थी, उस
विचारशील
जाति ने इतना
अभद्र और मूढ़तापूर्ण
व्यवहार किया
दो महायुद्धों
में कि विचार
पर से हमें
संदेह हो जाना
चाहिए।
विचारशील लोग
भरोसे के नहीं
मालूम होते।
हिटलर ने ऐसी
बातें लोगों को
समझा दीं जो
कि बुद्धिहीन
से बुद्धिहीन
आदमी को दिखाई
पड़ सकती हैं
कि भ्रांत हैं,
लेकिन
जर्मनी को
दिखाई नहीं
पड़ीं। उसके
कारण थे। पहले
महायुद्ध में
जर्मनी हारा।
कोई भी मानना
नहीं चाहता कि
हम अपनी
कमजोरी से
हारे, कि अपनी
भूल से हारे।
यह तो कोई
मानना ही नहीं
चाहता, क्योंकि
इससे अहंकार
को चोट लगती
है। जरूर कोई
कारण था बाहर।
पूरी जर्मन
जाति खोज रही
थी कि किस
कारण हम हारे।
और हिटलर ने
कारण बता दिया।
उसने बताया कि
यहूदियों की
वजह से हारे।
यहूदियों
का कोई भी
संबंध नहीं
है। यह संबंध
इतना ही है
जैसे हिटलर कह
देता कि लोग
साइकिल चलाते
हैं इसलिए हम
पहले
महायुद्ध में
हारे, कि लोग
चश्मा लगाते
हैं इसलिए
युद्ध में
हारे। इतना ही
संबंध
यहूदियों का
युद्ध से
हारने का है।
कोई संबंध न
था। लेकिन लोग
खोजना चाहते थे
कोई दुश्मन, जिसको वे
दबा सकें।
करोड़ों यहूदी
हिटलर ने काट
डाले। और पूरी
जर्मन जाति
राजी थी, क्योंकि
दुश्मन को
मिटाना जरूरी
है। कोई तर्क
नहीं है, कोई
गणित नहीं है,
कोई संबंध
नहीं है, लेकिन
बात जंच गई।
क्योंकि हम
सदा बाहर कोई
कारण खोजना
चाहते हैं।
कोई भी कारण
चाहिए।
अब अगर
इस मुल्क में
परेशानी बढ़ेगी
तो ज्यादा देर
नहीं है कि
आपको युद्ध
में घसीटा
जाए। अगर
आर्थिक संकट
बढ़ता जाए, चीजों
के दाम बढ़ते
जाएं, लोग
मुसीबत में
पड़ते जाएं, तो जल्दी ही
किसी युद्ध
में ले जाना
जरूरी हो जाएगा।
नहीं तो
हिंदुस्तान
का नेता आपको
क्या जवाब दे
कि मुसीबत किसलिए
है? मुसीबत
हमारे कारण तो
कभी है नहीं।
अगर पाकिस्तान
से या चीन से
कोई उपद्रव
शुरू हो जाए, हल हो गया, समस्या का
समाधान हो गया
कि मुसीबत
इनके कारण है।
फिर पूरा
मुल्क शांत
है। फिर हम
झेल सकते हैं
तकलीफ, क्योंकि
कारण कहीं मिल
गया।
इस तरह
के झूठे कारण
पूरे इतिहास
को युद्धों
में ले जाते
रहे हैं। जैसे
ही हम स्वभाव
से च्युत होते
हैं वैसे ही
तत्काल जरूरत
हो जाती है कि
बाहर हम कोई
कारण खोजें।
लाओत्से
कहता है, और जब
संसार ताओ के
प्रतिकूल
चलता है, तब
गांव-गांव में
अश्वारोही
सेना भर जाती
हैं। तब युद्ध
अनिवार्य हो
जाता है।
इस सदी
में निरंतर
सोचा जा रहा
है कि युद्धों
से कैसे बचा
जाए। लेकिन
युद्धों से
बचा नहीं जा
सकता--जैसा
आदमी है इसको
देखते हुए।
इसमें कोई
निराशा की बात
नहीं है। यह
सीधा तथ्य है।
आदमी जैसा
हमारे पास है, इस
आदमी को
युद्धों की
जरूरत है।
चाहे परिणाम कुछ
भी हो, चाहे
पूरी
मनुष्यता मिट
जाए, लेकिन
जैसा आदमी
हमारे पास है,
यह आदमी
बिना युद्धों
के नहीं रह
सकता। हर दस वर्ष
में युद्ध
चाहिए। पिछले
तीन हजार, साढ़े
तीन हजार
वर्षों में
केवल सात सौ
वर्ष ऐसे हैं
जब युद्ध न
हुआ हो। साढ़े
तीन हजार
वर्षों में
केवल सात सौ
वर्ष छोड़ कर
निरंतर युद्ध
चलता रहा। वे
सात सौ वर्ष
भी इकट्ठे
नहीं; कभी
एक दिन, कभी
दो दिन, कभी
दस दिन।
अन्यथा जमीन
पर कहीं न
कहीं युद्ध
चलता ही रहा
है।
युद्ध
कोई आकस्मिक
घटना नहीं
मालूम होती।
आदमी के जीने
का ढंग कुछ
ऐसा बुनियादी
रूप से गलत है
कि उसको युद्ध
की जरूरत पड़
जाती है। हर
दस साल में एक
बड़ा युद्ध
चाहिए। शायद
हम इतना क्रोध
इकट्ठा कर
लेते हैं, इतनी
घृणा और इतनी
हिंसा भर जाती
है, इतनी
मवाद पैदा हो
जाती है हमारे
भीतर, उसका
कोई निकास
चाहिए। उस
गंदगी को
फेंकने के लिए
कोई सामूहिक
आयोजन चाहिए।
युद्ध वैसा सामूहिक
आयोजन है।
युद्ध के बाद
हलकापन आ जाता
है, जैसे
तूफान के बाद
थोड़ी शांति आ
जाती है।
लाओत्से
के हिसाब
से--मेरी समझ
से भी--दुनिया
से तब तक
युद्ध नहीं
मिटाए जा सकते
जब तक आदमी को
स्वभाव के
अनुकूल नहीं
लाया जाता।
चाहे बर्ट्रेंड
रसेल लाख उपाय
करें, चाहे
दुनिया के
सारे
शांतिवादी
शांति के लिए
युद्ध ही करने
में क्यों न
लग जाएं, लेकिन
युद्धों से
आदमी को मुक्त
नहीं किया जा सकता।
आदमी को उसके
स्वभाव में
प्रतिष्ठा चाहिए।
इसे
थोड़ा देखें।
जब आप सुखी
होते हैं तो
लड़ने का मन
नहीं होता। जब
आप सुखी होते
हैं तो आप लड़ने
का सोच भी नहीं
सकते। जब आप
सुखी होते हैं, कोई
आपको उकसाए भी,
तो भी आप
हंस कर टाल
देते हैं। आप
हंस सकते हैं।
कोई उकसा भी
रहा हो लड़ने
के लिए तो भी
आप उपेक्षा कर
सकते हैं।
लेकिन जब आप
दुखी हों तब
आप प्रतीक्षा
करते हैं कि
कोई जरा सा
उकसाए। आपकी बारूद
तैयार है, कोई
जरा सी चिनगारी
चाहिए। अगर
चिनगारी न भी
मिले तो आप कोई
कल्पित
चिनगारी से भी
विस्फोट पैदा
कर सकते हैं।
यह अपने जीवन
में आप देखें
तो आपको खयाल में
आ जाएगा। एक
ही परिस्थिति
में कभी आप
लड़ने को तैयार
हो जाते हैं
और कभी आप
हंसते रहते हैं।
परिस्थिति एक
ही होती है; आपकी भीतर
की वृत्ति और
मनोवेग भिन्न
होता है। कल
भी पति ने यही
कहा था पत्नी
को, कोई
कलह पैदा नहीं
हुई थी; आज
वही कहने से
कलह पैदा हो
गई। कल पत्नी
प्रसन्न रही
होगी; उसकी
प्रसन्नता
लड़ने को तैयार
नहीं थी। प्रसन्नता
टाल सकती है, क्षमा कर
सकती है, भूल
सकती है।
लेकिन आज
पत्नी
प्रसन्न नहीं
है; आज वही
बात चिनगारी
बन सकती है।
जापान
में एक बहुत
बड़ी,
टोकियो की एक बड़ी
कंपनी ने, जो
कारें बनाने
का काम करती
है, अपने
दरवाजे पर
मालिक की और
जनरल मैनेजर
की दो
प्रतिमाएं
खड़ी कर रखी
हैं--फैक्टरी
के बाहर। यह
आज नहीं कल
सभी फैक्टरी
के बाहर करने
जैसा होगा। जब
भी कोई नाराज
हो तो जाकर
मालिक को जूते
मार सकता है, गाली दे
सकता है। वे
प्रतिमाएं
बाहर खड़ी हैं।
वे इसीलिए खड़ी
की गई हैं।
मनोवैज्ञानिक
उस फैक्टरी का
अध्ययन कर रहे
हैं। और उनका
कहना है कि उस
फैक्टरी के
मजदूर, काम
करने वाले लोग
अति प्रसन्न
हैं और दिन
में अनेक बार
लोग जाकर उन
प्रतिमाओं पर
क्रोध निकाल
कर आ जाते हैं
और हलके हो
जाते हैं।
आप भी
जब एक-दूसरे
पर क्रोध
निकाल रहे हैं
तो दूसरे से
कोई संबंध
नहीं है, दूसरा
प्रतिमा से
ज्यादा नहीं
है। इसलिए अगर
आप बुद्धिमान
हों, तो जब
कोई आप पर
क्रोध निकाल
रहा हो तो
आपको परेशान
होने की कोई
जरूरत नहीं
है। आपसे उसका
कोई संबंध ही
नहीं है। आप सिर्फ
एक प्रतिमा
हैं, एक
बहाना हैं। और
आपको खुश होना
चाहिए कि आपको
दूसरे आदमी का
क्रोध
निकालने का एक
अवसर मिला।
उसका क्रोध
हलका हो गया, वह शांत हो
गया। लेकिन
इतनी हममें
समझ नहीं है।
दूसरा भी उबल
पड़ता है। और
दूसरा भी
इसलिए उबल
पड़ता है कि
उसके भी बहुत
से उबाल भीतर
भरे हैं। हर
आदमी सुलगा
हुआ है। और
इसलिए किसी भी
आदमी के साथ
रहना
सुविधापूर्ण
नहीं है।
कितना ही आपका
लगाव हो और
कितना ही प्रेम
हो, दो
व्यक्ति पास
रहते हैं तो
सिवाय कलह के
कुछ भी पैदा
नहीं होता।
कारण दूसरा नहीं
है; कारण
भीतर अपने
स्वभाव से
च्युत हो जाना
है।
"जब
संसार ताओ के
प्रतिकूल
चलता है, तब
गांव-गांव में
अश्वारोही
सेना भर जाती
है।'
जब कोई
व्यक्ति ताओ
के प्रतिकूल
चलता है तो उसके
भीतर सिवाय
घृणा, क्रोध, द्वेष औरर्
ईष्या के कुछ
भी नहीं बचता।
हर आदमी जलता
हुआ है। सब
आदमी
अपनी-अपनी राख
में छिपाए
अपनी आग को चल
रहे हैं। ऊपर
से राख दिखाई
पड़ती है तो आप सोचते
हैं, कोई
खतरा नहीं है।
सबके भीतर
अंगारा है।
जरा सी हवा का
झोंका, और
अंगारा प्रकट
हो जाता है और
लपटें निकलने
लगती हैं।
इससे
केवल एक बात
की सूचना
मिलती है कि
आपके भीतर कोई
संगीत, कोई
संतोष, कोई
सुख की धारा
नहीं बह रही
है। आपका
क्रोध केवल
लक्षण है, आपकी
घृणा लक्षण है;
बीमारी
नहीं है।
इसलिए जो
धर्मगुरु
सिखाते हैं कि
क्रोध मत करो,
घृणा मत करो,
व्यर्थ की
बातें सिखा
रहे हैं। उनकी
बातें ऐसी हैं
जैसे किसी को
बुखार चढ़ा हो
और कोई उसको
समझा रहा हो
कि गर्म मत
होओ। उसके हाथ
के बाहर है।
गरमी होना कोई
बीमारी नहीं
है। वह जो
शरीर पर
तापमान बढ़ रहा
है वह तो केवल लक्षण
है। बीमारी
कहीं भीतर है।
लाओत्से के हिसाब
से, स्वभाव
से अलग हो
जाना, या
स्वभाव के
प्रतिकूल हो
जाना बीमारी
है। फिर सब
चीजें पैदा
होंगी। इसलिए
आप लाख उपाय
करें कि क्रोध
न करें, कुछ
हल न होगा। यह
हो सकता है कि
आप क्रोध को
निकलने से रोक
लें, दबा
लें, छिपा
लें। आज नहीं
कल निकलेगा; कल नहीं
परसों
निकलेगा।
ज्यादा होकर
निकलेगा। और
आज निकलने में
शायद कोई तुक
भी होती, जब
परसों
निकलेगा तो
कोई तुक भी न
होगी। आज शायद
कोई
परिस्थिति
में संगत भी
मालूम होता, जब दबा
लेंगे उसको, पीछे असंगत
परिस्थिति
में निकल आएगा,
तब और भी
पीड़ा होगी।
जो लोग
छोटा-छोटा
क्रोध कर लेते
हैं वे बड़े अपराध
नहीं करते। जो
लोग छोटा-छोटा
क्रोध रोक
लेते हैं वे
बड़े अपराध
करते हैं। अब
तक ऐसा नहीं
हुआ है कि सहज, सामान्य
परिस्थिति
में क्रोध
करने वाले आदमियों
ने हत्याएं
की हों या आत्महत्याएं
की हों। हत्याएं
करने वाले लोग
वे ही होते
हैं जो क्रोध
को पीने और
इकट्ठा करने
की कला जानते
हैं। फिर इतना
इकट्ठा हो
जाता है कि
उसका विस्फोट
प्राण ले लेता
है।
यह
करीब-करीब ऐसा
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि चाय
में जहर है। निकोटिन
जहर है। आप
अगर दिन में
दो कप चाप
पीते हैं तो आप
बीस साल में
जितनी चाय
पीएंगे, उतना निकोटिन
अगर आप इकट्ठा
एक दिन में पी
लें तो आप अभी
मर जाएंगे, एक क्षण
में। लेकिन दो
कप चाय रोज
पीने से कोई मरता
नहीं। बीस
साल--और वह बीस
साल नहीं, आप
बीस जन्म भी
दो कप रोज
पीते रहें तो
भी नहीं मरेंगे।
क्योंकि निकोटिन
कोई इकट्ठा
नहीं हो रहा
है कि बीस साल
में इकट्ठा
होकर जान ले
लेगा। वह रोज
बहता जा रहा
है।
जो
आदमी रोज
छोटा-मोटा
क्रोध कर लेता
है,
खतरनाक
नहीं है। जो
आदमी बीस साल
तक क्रोध को रोक
ले, उसके
पास भी मत
फटकना। वह
बिलकुल
विस्फोटक है,
इनफ्लेमेबल है। वह कभी
भी किसी भी
वक्त लपट पकड़
सकता है। और
जब लपट पकड़ेगा
तो छोटी घटना
घटने वाली
नहीं है।
क्रोध को दबाने
से केवल क्रोध
इकट्ठा होगा,
घृणा को
दबाने से घृणा
इकट्ठी होगी।
और जो भी इकट्ठा
होगा, अगर
वह छोटी
मात्रा में
बुरा था तो
बड़ी मात्रा
में तो और भी
बुरा होगा।
लाओत्से
दमन के पक्ष
में नहीं है।
लाओत्से कहता
है,
ये तो केवल
संकेत हैं कि
तुम्हें
क्रोध उठता है,
घृणा उठती
है,र् ईष्या उठती
है, द्वेष
उठता है। ये
सूचनाएं हैं
कि तुम स्वभाव
से हट गए हो।
इनकी फिक्र छोड़ो।
स्वभाव के साथ
एक होने की
फिक्र करो।
जैसे ही तुम
स्वभाव से एक
हो जाओगे, ये
घटनाएं बंद हो
जाएंगी, ये
घटनाएं
तिरोहित हो
जाएंगी।
क्रोध को दबाना
नहीं पड़ेगा, क्रोध तुम
अचानक पाओगे
कि होना बंद
हो गया। तुम्हारी
चेतना की
स्थिति बदलनी
चाहिए तो तुम्हारे
मन के रोग
बदलेंगे।
चेतना की
स्थिति पुरानी
ही रहे और तुम
मन को बदल लो, ऐसा न कभी हुआ
है, न हो
सकता है।
चेतना बदलनी
चाहिए। चेतना
के तल हैं।
जैसे-जैसे
चेतना गहरी
होने लगती है
वैसे-वैसे जिन
तलों से चेतना
हट जाती है उन
तलों की बीमारियां
विसर्जित हो
जाती हैं। और
जब कोई चेतना
ठीक स्वभाव
में ठहर जाती
है, या
स्वभाव के साथ
एक हो जाती है,
तो सारी
बीमारियां
तिरोहित हो
जाती हैं।
बुद्ध
को क्रोध नहीं
होता, ऐसा
कहना गलत है।
बुद्ध क्रोध
नहीं करते, ऐसा कहना भी
गलत है। बुद्ध
क्रोध पर संयम
रखते हैं, ऐसा
कहना भी गलत
है। बुद्ध
जहां हैं वहां
से क्रोध से
कोई संबंध
नहीं रहा।
जहां क्रोध हो
सकता था वहां
बुद्ध अब नहीं
हैं। जिस मन
की सतह पर
क्रोध जलता था
वहां बुद्ध अब
नहीं हैं।
बुद्ध अब उस
केंद्र पर हैं
जहां से क्रोध
और उसके बीच
अनंत आकाश हो
गया; जहां
से कोई संबंध
नहीं जुड़ता।
स्वभाव के साथ
एकता समस्त
बीमारियों का
विसर्जन बन
जाती है।
"संतोष
के अभाव से
बड़ा कोई
अभिशाप नहीं
है; स्वामित्व
की इच्छा से
बड़ा कोई पाप
नहीं है। इसलिए
जो संतोष से
संतुष्ट है वह
सदा भरा-पूरा रहेगा।'
"संतोष
के अभाव से
बड़ा कोई
अभिशाप नहीं
है।'
अब हम
समझ सकते हैं।
क्योंकि
संतोष को
सूत्र मानता
है लाओत्से, स्वभाव
के साथ एक
होने का।
असंतुष्ट का
अर्थ है: मैं
कुछ और होना
चाहता हूं जो
मैं हूं उससे।
संतोष का अर्थ
है: जो भी मैं
हूं, प्रकृति
ने मुझे जो
बनाया, मैं
उससे राजी
हूं। न मेरा
कोई आदर्श है
जिसे पूरा
करना है, न
कोई लक्ष्य है
जहां तक मुझे
पहुंचना है, न कोई
उद्देश्य है।
प्रकृति ने जो
मुझे बनाया वही
मेरी नियति
है। मैं उससे
राजी हूं।
गुलाब गुलाब
होने से राजी
है; घास का
फूल घास होने
से राजी है।
घास के फूल को आकांक्षा
नहीं है कि
गुलाब हो जाए।
न गुलाब को
फिक्र है कमल
हो जाने की।
अगर उनको
फिक्र हो जाए
तो हमें गुलाब
के पौधों को
भी पागलखाने
में भर्ती
करना पड़े, उनको
चिकित्सा
करवानी पड़े।
उनको रात नींद
न आए, उनका
मन
ज्वरग्रस्त
हो जाए, उन्हें
भी हार्ट-अटैक
होने लगे।
असंतोष का
अर्थ है, प्रकृति
ने जो मुझे
बनाया उससे
भिन्न होने की
मेरी
आकांक्षा है।
और यह मैं कभी
हो न पाऊंगा।
क्योंकि जो
मैं नहीं हूं
वह मैं नहीं
हो सकता हूं।
इसका कोई उपाय
नहीं है। मैं
जो हूं बस वही
हो सकता हूं।
"संतोष
के अभाव से
बड़ा कोई
अभिशाप नहीं
है।'
इसलिए
लाओत्से इसे
बड़े से बड़ा
अभिशाप कहता
है--कि यह बड़े
से बड़ा, जीवन
में बड़ी से
बड़ी भूल कोई
भी अगर संभव
है तो वह यह है
कि मैं कुछ और
होने की कोशिश
में लग जाऊं, जो मैं हूं
उससे अन्यथा
होने की दौड़
मुझे पकड़ ले।
यह अभिशाप है।
जो मैं हूं
वही होने को
मैं राजी हो
जाऊं, यह
वरदान है।
थोड़ा सोचें।
आप जो हैं अगर
वही होने से
राजी हैं, एक
क्षण को भी
आपको यह झलक आ
जाए कि जो मैं
हूं, ठीक
हूं। सारे
अभिशाप हट गए,
सारे बादल
हट गए, और
आकाश खुला हो
गया।
लेकिन
हजार--एक दिशा
में ही आप
बदलना चाहते
हों,
ऐसा
नहीं--हजार
दिशाओं में
दौड़ है।
बुद्धिमान नहीं
हैं तो
बुद्धिमान
होना चाहते
हैं; गरीब
हैं तो अमीर
होना चाहते
हैं; सुंदर
नहीं हैं तो
सुंदर होना
चाहते हैं। और
किसी को पता
नहीं है कि
सुंदर होने का
क्या अर्थ है।
और कोई नहीं
व्याख्या कर
सकता कि सुंदर
कौन है। न कोई
मापदंड है। सब
अंधेरे में
टटोलना है। आप
कुछ भी हो
जाएं, वहां
भी आपको कुछ
भरोसा मिलने
वाला नहीं है।
क्योंकि
कितने धन से
आपको तृप्ति
मिलेगी?
कभी
सोचें। सिर्फ
सोचें, अभी
धन मिल भी नहीं
गया है; सिर्फ
सोचें। दस
हजार? मन
कहेगा, इतने
से क्या होने
वाला है! दस
लाख? मन
कहेगा, जब
सिर्फ सोचने
पर ही निर्भर
है तो इतने
सस्ते में
क्यों राजी
होते हो! जहां
तक आपको
संख्या आती
होगी मन कम से
कम वहां तक तो
ले ही जाएगा।
और तब भी भीतर
कुछ अड़चन बनी
ही रहेगी कि
इससे ज्यादा
भी हो सकता
था। कितना
सौंदर्य आपको
तृप्त करेगा?
कितना
स्वास्थ्य
आपको तृप्त
करेगा? कितनी
उम्र चाहिए?
ययाति
की कथा है। सौ
वर्ष का हुआ, मरने
को है, मौत
आई। तो ययाति
ने कहा कि
मुझे कुछ दिन
और छोड़ दो, क्योंकि
अभी तो मैं
जीवन को भोग
भी नहीं पाया।
सौ
वर्ष काफी
होने चाहिए।
लेकिन आप भी
सौ वर्ष के हो
जाएं और मौत
आपको सोचने का
मौका दे तो जो ययाति
ने कहा वही आप
कहेंगे।
इसलिए कहानी
सत्य है। घटी
हो कभी, न घटी
हो; मनुष्य
के मन का गहरा
तथ्य है।
ययाति
ने अपने बेटों
को कहा--उसके
सौ बेटे थे--उसने
कहा कि तुममें
से कोई मुझे
अपनी उम्र दे
दो। मौत ने
कहा,
अगर कोई
बेटा राजी हो
तो मैं उसको
ले जाऊं; किसी
को तो ले जाना
ही पड़ेगा।
निन्यानबे
बेटे एक-दूसरे
की तरफ देखने
लगे। वे सब
बुद्धिमान थे।
सबकी उम्र
काफी थी।
उनमें से कई
तो खुद भी बूढ़े
हो गए थे।
छोटा बेटा जो
अभी बिलकुल
ताजा था और
जिसको अभी कोई
अनुभव न था, वह पिता के
पास आया और
उसने कहा कि
आप मेरी उम्र
ले लें। मौत
को भी दया आ गई,
क्योंकि यह
बेटा तो अभी
बिलकुल ताजा
था, अभी
इसने जिंदगी
का कोई अनुभव
न लिया था।
उसने कहा कि
तू क्यों ऐसा
कर रहा है? उसने
कहा कि जब
मेरे पिता सौ वर्ष
में तृप्त न
हो सके तो मैं
भी क्या तृप्त
हो पाऊंगा! और
जब उन्हें अभी
भी उम्र की
जरूरत है और
सौ वर्ष के
बाद भी मरने
को राजी नहीं
हैं तो सौ
वर्ष व्यर्थ
परेशान होने
में कोई सार
नहीं। मरना तो
पड़ेगा, और
अतृप्त ही
मरना पड़ेगा।
फिर भी ययाति
को बोध न हुआ।
बेटा मर गया।
ययाति सौ वर्ष
और जीया। फिर
मौत आ गई। तब
तक उसके सौ और
बेटे पैदा हो
गए थे। उसने
कहा, यह तो
बहुत जल्दी
है। ये सौ
वर्ष ऐसे बीत
गए, पता न
चला। अभी तो
कुछ भी तृप्त
नहीं हुआ।
ऐसे
कहानी चलती है, और
हर बार एक
बेटा अपनी
उम्र देकर
ययाति को जिंदा
रखता है। हजार
साल ययाति
जिंदा रहा। और
जब हजारवें
साल मौत आई तब
भी वह वहीं था
जहां पहली बार
मौत आई थी।
उसने फिर वही
कहा कि इतने
जल्दी क्यों आना
हो जाता है? और अभी कुछ
पूरा नहीं
हुआ। मौत ने
कहा कि तुम्हें
कब दिखाई
पड़ेगा कि यह
कभी पूरा नहीं
होगा। यह पूरी
होने वाली बात
ही नहीं है।
वासना की कोई
सीमा नहीं है;
वह कहीं
पूरी नहीं
होती।
इसलिए
अतृप्ति
अभिशाप है बड़े
से बड़ा, क्योंकि
वह कभी भी
किसी भी क्षण
में मनुष्य को
सुख से न जुड़ने
देगी। कोई और
अभिशाप देने
की जरूरत
नहीं। भारत
में ऋषि-मुनि
अभिशाप देने
के आदी रहे।
पता नहीं फिर
भी लोग उनको
क्यों
ऋषि-मुनि कहे
चले जाते हैं!
उनको अगर
लाओत्से का
पता होता तो
वे इस तरह के
अभिशाप न देते
जैसे
उन्होंने
दिए।
दुर्वासा को पता
होता तो वह
यही कहता कि
जा, तू सदा
असंतुष्ट रह!
इतना काफी था।
यह बड़े से बड़ा
अभिशाप है।
लेकिन आपको
किसी
दुर्वासा की जरूरत
नहीं, आप
खुद ही अपने
को अभिशाप दे
रहे हैं। आपने
इसको जीवन का
ढंग बना रखा
है--असंतुष्ट!
"संतोष
के अभाव से
बड़ा कोई
अभिशाप नहीं;
स्वामित्व
की इच्छा से
बड़ा कोई पाप
नहीं।'
लाओत्से
अनूठा है, और
जितनी सूत्र
में उसने
बातें कह दी
हैं, बड़े
से बड़े पूरे
शास्त्र भी
उतनी बातें
विस्तार में
भी नहीं कह
पाते।
स्वामित्व से
बड़ा कोई पाप
नहीं। लोग
कहते हैं, पंच
पाप गिनाते
हैं--कि हिंसा
पाप है, कि
चोरी पाप है, कि लोभ पाप
है, कि कोई
और गिनाता है,
कि वासना, काम।
लाओत्से कहता
है, स्वामित्व
की आकांक्षा।
और मैं मानता
हूं कि वह ठीक
है। बाकी सब
पाप
स्वामित्व की
आकांक्षा से
पैदा होते
हैं। बाकी सब
पाप गौण हैं, वे मूल नहीं
हैं। किसी के
मालिक होने की
आकांक्षा, मालकियत
का भाव, फिर
चाहे वह धन की
मालकियत हो, चाहे किसी
व्यक्ति की
मालकियत हो, किसी भी
दिशा में
स्वामित्व
होने की जो
दौड़ है, लाओत्से
कहता है, वह
बड़े से बड़ा
पाप है, वह
महापाप है।
क्यों? समझ
में आता है कि
संतोष न हो तो
अभिशाप है। स्वामित्व
की दौड़ हो तो
पाप क्यों है?
पहली
बात,
जो व्यक्ति
भी स्वामित्व
की दौड़ में
पड़ा है वह कभी
इस तथ्य से
परिचित न हो
पाएगा कि
स्वामी भीतर
छिपा है, मालिक
भीतर है। वह
मालकियत की
तलाश बाहर
करेगा; वह
किसी का मालिक
होना चाहेगा।
और बाहर कोई
मालकियत हो
नहीं सकती। वह
वस्तुओं का
स्वभाव नहीं
है। आप एक
मकान बना सकते
हैं। आप सोचते
होंगे, आप
मालिक हैं। तो
आप गलती में
हैं।
इब्राहिम
एक सूफी फकीर
हो गया। वह
फकीर हुआ इसलिए
कि एक रात
सोया था और
अचानक उसने
अपने ऊपर
छप्पर पर किसी
के चलने की
आवाज सुनी।
उसने पूछा, कौन
है? छप्पर
पर चलने वाले
आदमी ने कहा
कि मेरा ऊंट खो
गया है, उसे
मैं खोजता
हूं।
इब्राहिम
समझा कि यह
आदमी पागल
होना चाहिए।
मकानों के
छप्परों पर
कहीं ऊंट खोते
हैं?
दूसरे
दिन सुबह उठ
कर उसने कहा
कि उस आदमी को
खोजो। या तो वह
पागल है और या
फिर ज्ञानी
है। क्योंकि
मकानों के
छप्परों पर
कौन रात को
ऊंट खोजने
निकलता है? और
मकानों के
छप्परों पर
ऊंट जाएंगे
कहां खोने को?
तो या तो वह
विक्षिप्त है,
और या फिर
उसने कुछ
इशारा किया है
जो मैं समझ
नहीं पाया।
बहुत
खोज की गई, लेकिन
कुछ पता न
चला। लेकिन
भरी दोपहर, जब इब्राहिम
का दरबार भरा
था, तो एक
फकीर ने आकर
दरवाजे पर
शोरगुल
मचाया। वह
फकीर यह कह
रहा था कि मैं
इस धर्मशाला
में कुछ दिन
रुकना चाहता
हूं। और दरबान
कह रहा था कि तू
पागल है! यह
धर्मशाला नहीं
है, यह
सम्राट का महल
है, उनका
निवास-स्थान
है। और वह
आदमी कह रहा
था, अगर यह
सच है कि कोई
आदमी इसका
दावेदार है तो
मैं उसको
देखना चाहता
हूं। अंततः
उसे लाना पड़ा।
इब्राहिम
सिंहासन पर
बैठा था। उस
आदमी ने पूछा
कि मैं कहता
हूं यह
धर्मशाला है, लेकिन
दरबान कहता है
कि यह आपका
निवास-स्थान
है; क्या
आप भी यही
सोचते हैं? इब्राहिम ने
कहा, इसमें
सोचने का क्या
सवाल है? यह
मेरा मकान है,
और मैं इसका
मालिक हूं। और
बंद करो यह
बातचीत, यह
कोई सराय नहीं
है। पर उस
फकीर ने कहा, मैं बड़ी
उलझन में पड़
गया। मैं इसके
पहले भी आया
था, तब एक
दूसरा आदमी इस
सिंहासन पर
बैठा था, और
उसने भी यही
कहा था कि यह
मेरा मकान है।
वह आदमी अब
कहां है? तब
इब्राहिम
थोड़ा डरा और
उसने कहा कि
वे मेरे पिता
थे। लेकिन वे
स्वर्गीय हो
गए। उस फकीर
ने कहा, मैं
उनके पहले भी
आया था, लेकिन
तब एक तीसरा
आदमी इसी मकान
का मालिक था।
अब तुम हो।
क्या तुम
पक्का भरोसा
दिलवाते हो कि
जब मैं चौथी
बार आऊंगा,
तब भी तुम
यहां रहोगे इस
मकान के मालिक?
मैं इतने
मालिक देख
चुका हूं कि
मुझे लगता है यह
धर्मशाला है।
इसमें कई लोग
ठहरे और गए।
और मैं सिर्फ
रात भर के लिए
निवास चाहता
हूं।
इब्राहिम
ने कहा कि पकड़
लो इस आदमी को; यही
वह आदमी होना
चाहिए जो रात
छप्पर पर ऊंट
खोजता था।
क्या तुम वही
आदमी हो?
उस
फकीर ने कहा, मैं
वही हूं। और
मैं तुमसे
कहता हूं कि
तुम भी छप्पर
पर ऊंट खोज
रहे हो; लेकिन
तुमको कुछ होश
नहीं है।
छप्पर पर ऊंट
खोजने का इतना
ही मतलब है कि
जो चीज जहां
नहीं मिलती
वहां खोजना।
जहां मिल नहीं
सकती वहां
खोजना। और हर
आदमी छप्पर पर
ऊंट खोज रहा
है, जहां
होने का कोई
उपाय ही नहीं
है।
कहते
हैं,
इब्राहिम
ने यह सुन कर
उस आदमी से
कहा कि तू इस सराय
में ठहर और अब
मैं जाता हूं।
क्योंकि इसको
मैं महल समझता
था, इसलिए
रुका था। जब
यह सराय ही हो
गई, और जब
इसे छोड़ ही
देना होगा, तो अब रुकने
का कोई अर्थ
नहीं। अब तक
मैं सोचता था,
मैं मालिक
हूं।
मालकियत
की जो दौड़ है
वह आदमी को
बाहर भटकाए रखती
है। और जब तक
आदमी बाहर
भटकता है तब
तक वह छप्परों
पर ऊंट खोज
रहा है। मिल
सकता है वह जो
चाहिए हमें, वह
भीतर है, और
जहां हम खोजते
हैं वहां वह
नहीं मिल
सकता। क्योंकि
वहां वह है
नहीं। मालिक
हमारे पास है।
इसलिए इस
मुल्क में
हिंदुओं ने
अपने संन्यासी
को स्वामी का
नाम दिया।
उनका प्रयोजन
था। स्वामी का
मतलब है वह
आदमी जिसने
बाहर मालकियत खोजना
छोड़ दी, जिसने
बाहर की
स्वामित्व की
दौड़ छोड़ दी; जो कहता है, अब बाहर
मेरा कुछ भी
नहीं है इसलिए
संन्यास; जो
कहता है, अब
मेरा मालिक
मेरे भीतर है।
स्वामी
भीतर है। वह
हमारा स्वभाव
है। लेकिन उस
तरफ हमारी नजर
तभी जाएगी जब
वस्तुओं से
हमारी नजर हट
जाए। जब तक
वस्तुओं में
हम उलझे हैं
तब तक सुविधा
नहीं है, जगह
नहीं है, खाली
स्थान नहीं है,
जहां से हम
भीतर की तरफ
देख सकें।
वस्तुओं से पूरा
मन भर गया है
परिग्रह, स्वामित्व
को लाओत्से
महापाप इसलिए
कह रहा है कि
उस दौड़ के
कारण ही तुम
अपने को पाने
से वंचित हो।
और जब तक वह
दौड़ न छूट जाए
तब तक तुम
वंचित ही
रहोगे। और एक
ही बात पाप है
कि मुझे मेरा
पता नहीं। और
क्या पाप हो
सकता है? एक
ही पाप है कि
मैं हूं, और
मुझे मेरा
अपना अनुभव
नहीं। एक ही
पाप है कि मैं
उत्तर नहीं दे
सकता कि मैं
कौन हूं। और जब
भी आप उत्तर
देते हैं तब
आप कुछ मालकियत
की खबर देते
हैं। आप कहते
हैं, मैं
इस मकान का
मालिक हूं; कि आप कहते
हैं, यह
दुकान मेरी है;
कि आप कहते
हैं कि ये पद-पदवियां
मेरी हैं; कि
ये उपाधियां,
यह ज्ञान
मेरा है। जब
भी आपसे कोई
पूछता है आप कौन
हैं तो आप कुछ
बताते हो
जिसके आप
मालिक हो। आप
कभी नहीं बताते
कि आप कौन हो।
उसका आपको पता
भी नहीं है।
वह कौन
है जो मालकियत
की दौड़ में
दौड़ रहा है? वह
कौन है जो
संग्रह करना
चाहता है और
सारी पृथ्वी
पर साम्राज्य
निर्मित करना
चाहता है? वह
कौन है पीछे
छिपा हुआ? उसका
अनुभव ही
पुण्य है। और
जो चीजें उसके
अनुभव से
रोकती हैं वही
पाप हैं। जो
दूसरे का
मालिक होना
चाहता है वह
अपना मालिक
नहीं हो
पाएगा। और
जिसे अपना
मालिक होना है
उसे दूसरों की
सारी मालकियत छोड़
देनी चाहिए।
उसे सब दावे
छोड़ देने
चाहिए। वह
दावे से शून्य
हो जाना
चाहिए। अगर
ठीक से समझें
तो घर छोड़ने
का, गृहस्थी
छोड़ने का, पत्नी,
पति या
बच्चे या धन
छोड़ने का
वास्तविक
प्रयोजन घर, पत्नी और
बच्चा छोड़ना
नहीं है, मालकियत
का भाव छोड़ना
है। कोई पत्नी
को छोड़ कर
पहाड़ पर भाग
जाए, इससे
कुछ हल नहीं
होता। घर में
पत्नी के पास
रहे या पहाड़
पर रहे, इससे
कुछ बहुत फर्क
नहीं पड़ता।
मालकियत का भाव!
एक जैन
मुनि के संबंध
में मैं पढ़ता
था। वे बड़े ख्यातिलब्ध
थे। बहुत उनके
भक्त थे।
अभी-अभी कुछ
वर्षों पहले
उनकी मृत्यु
हुई। उनकी
जीवन-कथा में
लेखक ने, जिसने
उनका जीवन
लिखा है, बड़ी
प्रशंसा और
स्तुति के भाव
से एक घटना दी
है। घटना है
कि घर छोड़ कर, पत्नी को छोड़
कर--बीस वर्ष
बाद--वे काशी
में थे। पत्नी
की मृत्यु
हुई। पत्नी को
छोड़े बीस वर्ष
हो चुके हैं।
पत्नी की
मृत्यु हुई, घर से तार
गया। तो उन
मुनि ने तार
देख कर कहा कि चलो,
झंझट मिटी।
मैं
थोड़ा हैरान
हुआ,
जब मैंने
जीवनी में यह
पढ़ा। बीस साल
बाद पत्नी का
मरना और मुनि
का यह कहना कि
कि चलो, झंझट
मिटी। साफ है
कि झंझट जारी
थी। यह कोई सोचा-विचारा
हुआ वक्तव्य
नहीं है, यह
तो सहज निकला
तार के देखते
ही। इसका मतलब
है कि बीस साल
भीतर झंझट
जारी थी।
अन्यथा पत्नी
को बीस साल
पहले छोड़ चुके;
अब उसके
मरने से झंझट
मिटने का क्या
संबंध?
नहीं, पत्नी
इतनी आसानी से
नहीं छूटती।
और जब उसके मरने
पर ऐसा भाव
पैदा होता है
कि झंझट मिटी,
तो जरूर
उसको मार
डालने की
कामना कहीं न
कहीं छिपी रही
होगी।
पति
अक्सर
पत्नियों को
मार डालने का
सोचते हैं। पत्नियां
अक्सर पतियों
को मार डालने
का सोचती हैं।
नहीं मारते यह
दूसरी बात है, लेकिन
उपाय मन में
चलता है अनेक
ढंग से। अनेक पत्नियां
डरती हैं, पति
बाहर गया तो
भयभीत होती
हैं कि कहीं
एक्सीडेंट न
हो जाए, कहीं
कार न टकरा
जाए।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, इस
भय का भी कारण
यही है कि
उनके मन में
कहीं पति को
मारने का कोई
रस छिपा हुआ
है, कि पति
मर जाए तो
छुटकारा हो
जाए। और
स्वाभाविक है
कि जैसे पति
और पत्नियां
हैं, इसमें
मरने में
छुटकारा
दिखाई पड़ता
हो।
पर बीस
साल पहले
पत्नी को छोड़
कर चला गया
संन्यासी, उसको
लगता है झंझट
मिटी, तो
लगता है
मालकियत कायम
थी। और ध्यान
रहे, जिसकी
हम मालकियत
करते हैं वह
भी हम पर
मालकियत करता
है। यह जो पजेशन
है, स्वामित्व
है, यह
एकतरफा कभी
नहीं होता।
पति कितना ही
सोचता हो कि
वह स्वामी है,
और
स्त्रियां
बहुत होशियार
हैं, वे
सदा से कहती
रही हैं कि
स्वामी
तुम्हीं हो, लेकिन सभी
जानते हैं कि
सौ में
निन्यानबे मौकों पर
स्त्रियां
मालिक होती
हैं, पति
केवल नाम
मात्र के
स्वामी होते
हैं।
एक बड़ी
मीठी, बड़ी
पुरानी
प्रसिद्ध कथा
है। एक सम्राट
के दरबार में
ऐसा दरबारियों
में विवाद उठ
गया है, और
बात चल पड़ी है
कि कितने
दरबारी अपनी
पत्नियों से
डरते हैं, कितने
दरबारी अपनी
पत्नियों के
गुलाम हैं।
कोई भी इसको
स्वीकार करने
को राजी नहीं
है। लेकिन
सम्राट ने कहा
कि मैं जानता
हूं, अपने
अनुभव से भी
जानता हूं कि
यह संभव नहीं
है कि यहां
जितने लोग हैं,
ये सभी कह
रहे हैं कि
कोई भी अपनी
पत्नी से नहीं
डरते। ध्यान
रहे, अगर
कोई भी झूठ
बोला तो गर्दन
उतरवा दूंगा।
और कल सब अपनी
पत्नियों
सहित आ जाएं।
जब पत्नियां
भी दरबार में
आ गईं तो
मुश्किल खड़ी
हो गई। और सम्राट
ने कहा कि
कतार लगा लो; जो
लोग अपनी
पत्नियों से
डरते हैं, एक
तरफ, बाईं
तरफ, और जो
अपनी
पत्नियों से
नहीं डरते वे
दाईं तरफ खड़े
हो जाएं। सारे
दरबारी बाईं
तरफ खड़े हो गए,
सिर्फ एक
आदमी को छोड़
कर। वह एक
आदमी खड़ा था
अकेला उस
पंक्ति में
जहां पत्नी से
नहीं डरने वाले
खड़े हैं।
सम्राट
ने कहा, फिर
भी धन्यभाग,
कम से कम एक
दरबारी तो ऐसा
है। तुम क्यों
यहां खड़े हो?
उसने
कहा,
जब मैं चलने
लगा घर से, पत्नी
ने कहा कि
भीड़-भाड़ में
खड़े मत होना।
उधर बहुत भीड़
है।
लेकिन
स्त्रियों की
मालकियत और
ढंग की है, क्योंकि
स्त्रियों की
मनस-व्यवस्था
और ढंग की है।
उनकी मालकियत पैसिव है, आक्रामक
नहीं है। उनकी
मालकियत
ज्यादा जटिल और
सूक्ष्म है।
पति की
मालकियत
सिर्फ दिखावा है,
और एक तरह का
गहरा समझौता
है भीतर कि जब
बाहर रहो घर
के तो तुम अकड़
कर चलना, और
बाहर यह बात
स्वीकार की
जाएगी कि तुम
मालिक हो और
जैसे ही घर के
भीतर प्रवेश
करो तुम अपनी अकड़
बाहर रख आना।
निश्चित
ही,
जब भी हम
किसी के मालिक
बनते हैं तो
हम गुलाम भी
हो जाते हैं।
क्योंकि
दूसरा भी हमसे
इसीलिए जुड़ा
है कि वह भी
मालिक बनना चाहता
है। मालिक
बनने के ढंग
अलग-अलग हैं।
पति की
मालकियत धमकी,
मार-पीट सब
पर निर्भर है।
पत्नी की
मालकियत रोने
पर, चीखने
पर, चिल्लाने
पर, परेशान
होने पर
निर्भर है। वह
खुद को इतना
दुखी कर लेगी
कि हरा देगी।
पति उसको चोट
पहुंचा कर
मालकियत करता
है; वह
अपने को चोट
पहुंचा कर भी
मालकियत करती
है। पत्नी का
मालकियत का
ढंग
अहिंसावादी
है; उपवास
कर लेगी, रोएगी।
पति का हिंसक
है। पर फर्क
नहीं है। और दोनों
की तलाश
स्वामित्व की
तलाश है।
जब तक
हम स्वामित्व
की खोज कर रहे
हैं तब तक हम
गुलाम भी
रहेंगे। और
जैसे ही कोई
यह खोज छोड़ देता
है,
उसकी
गुलामी भी मिट
जाती है। न वह
किसी का गुलाम
रह जाता है और
न किसी को
गुलाम बनाता
है। तब अचानक
भीतर के
स्वामित्व का
पता चलता है।
तब भीतर का
स्वामी सारी
धुंध के बाहर
आ जाता है; कोहरा
छंट जाता है।
वह दौड़ जो
महत्वाकांक्षा
की थी, उसके
हटते ही धुआं
हट जाता है, और लपट
स्वामित्व की
प्रकट हो जाती
है। वही पुण्य
है; स्वयं
की मालकियत को
उपलब्ध हो
जाना पुण्य है।
और दूसरे की
मालकियत की
कोशिश पाप है।
"स्वामित्व
की इच्छा से
बड़ा कोई पाप
नहीं। इसलिए
जो संतोष से
संतुष्ट है, वह सदा
भरा-पूरा
रहेगा।'
और जो
असंतोष से भरा
है वह सदा
खाली है; उसे
भरा नहीं जा
सकता। उसे हम
सारा संसार भी
दे दें, तो
भी उसका
भिक्षा-पात्र
खाली रहेगा।
वह कहेगा, बस
इतना ही! और
कुछ नहीं? वह
यही पूछेगा कि
बस हो गया
समाप्त संसार?
इससे
ज्यादा पाने
को कुछ भी
नहीं? वह
उसके मन की
आदत है। जब भी
उसे कुछ मिलता
है तब वह यही
पूछता रहा है।
उसे सब मिल
जाए, उसे
परमात्मा भी
मिल जाए, तो
वह परमात्मा
के सामने उदास
खड़ा हो जाएगा
और वह कहेगा, बस इतना ही? वह मन जो है, असंतोष से
भरा हुआ है।
उसमें कोई
पेंदी नहीं है।
उसे आप कितना
ही भरते चले
जाएं उस बर्तन
को, उसमें
नीचे कोई
पेंदी नहीं है
कि बर्तन भर
जाए। पानी सब
बहता चला जाता
है। और वह जो
संतोष से भरा
हुआ मन है वह
बर्तन नहीं है,
सिर्फ
पेंदी है। उसे
एक बूंद भी भर
देती है।
इसे
फिर से दोहरा
दूं: वह जो
असंतुष्ट मन
है वह पेंदी
से रहित बर्तन
है;
उसमें हम
पानी डालते
जाएं, वह
खाली होता
जाता है। इधर
हम डालते हैं,
उधर वह खाली
होता है।
कितना ही
डालें, वह
खाली रहेगा।
सारे महासागर
हम उसमें डाल
दें तो भी वह
खाली रहेगा।
क्षण भर को
भरा हुआ दिख सकता
है, जब
पानी गिर रहा
है। और वह जो
संतुष्ट मन है
वह सिर्फ
पेंदी है, उसमें
कोई बर्तन
नहीं है। वह
खाली भी हो तो
भरा हुआ है।
उसमें एक बूंद
भी काफी है।
"जो
संतोष से
संतुष्ट है, वह सदा
भरा-पूरा
रहेगा।'
पहचानें
अपने को। आपको
कभी भी ऐसा
लगता है, आप
भरे-पूरे हैं?
कभी भी ऐसा
लगता है कि
धन्यवाद दे
सकें आप परमात्मा
को कि तूने
बहुत दिया? कभी भी ऐसा
लगता है कि सब
कुछ पा लिया, कुछ पाने को
नहीं है? ऐसा
कभी नहीं
लगता। शिकायत
बनी रहती है।
हमारी
प्रार्थनाएं,
पूजाएं,
सब हमारी
शिकायतें
हैं। जब कि
वास्तविक
प्रार्थना
केवल धन्यवाद
हो सकती है, शिकायत
नहीं। लोग
मंदिरों में
जाकर कह रहे
हैं कि क्यों
मुझे इस गरीबी
में डाल रखा है?
क्यों मुझे
बीमारी में
डाल रखा है? क्यों मुझे
इतनी असफलता
मिल रही है? मंदिर
शिकायतों से
भरे हैं, प्रार्थनाएं
शिकायतों के
आस-पास
निर्मित होती
हैं; जब कि
वास्तविक
प्रार्थना
केवल धन्यवाद
हो सकती है, केवल आभार
हो सकती है, एक अहोभाव
हो सकती है।
जिस
दिन आप मंदिर
जाकर कह
सकेंगे कि
धन्य है मेरा
भाग्य कि तूने
इतना दिया, जरूरत
से ज्यादा
दिया, पात्रता
से ज्यादा
दिया, जो
मेरे पास है
उससे मैं
तृप्त हूं! उस
दिन आपकी
प्रार्थना
वास्तविक हो
जाएगी, प्रामाणिक
हो जाएगी। उस
दिन आपकी
प्रार्थना
सुन ली जाएगी।
उस दिन कोई
अंतराल आप में
और परमात्मा
के बीच नहीं
रह जाता। शिकायत
अंतराल है।
अहोभाव बीच की
खाली जगह का
मिट जाना है।
जीसस
मरते क्षण में, आखिरी
क्षण में, एक
शिकायत से भर
गए कि हे
परमात्मा, यह
क्या दिखला
रहा है! सूली
पर हाथ में खीले
ठोंके जा
रहे हैं और एक
क्षण को उनके
मुंह से निकल
गया कि हे
परमात्मा, यह
क्या दिखला
रहा है! यह हम
सब मनुष्यों
का प्रतीक है।
शिकायत बड़ी
गहरी है। जीसस
जैसे व्यक्तित्व
में भी शिकायत
आ गई। लेकिन
जीसस ने होश
सम्हाल लिया
और दूसरा वचन
उन्होंने कहा
कि मुझे क्षमा
कर, तेरी
ही मर्जी पूरी
हो।
मेरे
अपने जानने
में,
इन दो
वाक्यों के
बीच ही संसार
और मोक्ष का
फासला है। इस
एक क्षण पहले
तक जीसस संसार
के हिस्से थे।
जब तक शिकायत
थी तब तक
असंतोष था। जब
तक असंतोष था
तब तक
प्रार्थना
नहीं हो सकती
थी, परमात्मा
से कोई मिलन
नहीं हो सकता
था। जरा सा
फासला बाकी
था--यह मुझे
क्यों दिखला
रहा है? इसका
मतलब यह है कि
तू कुछ गलत कर
रहा है। इसका मतलब
है कि बेहतर
था इससे, वह
मैं जानता हूं
कि क्या होना
चाहिए था।
इसमें सलाह है,
मशविरा है,
प्रार्थना
है, आकांक्षा
है, कोई
इच्छा है, कोई
असंतोष है।
लेकिन जीसस को
दिख गया होगा,
उतने
संवेदनशील
व्यक्ति को, जिसकी चेतना
संवेदना के
आखिरी कगार पर
पहुंच गई थी, इस आखिरी
क्षण में दिख
गया होगा कि
भूल हो गई। तत्क्षण
उन्होंने कहा,
मुझे माफ कर;
तेरी मर्जी
पूरी हो। जैसे
ही उन्होंने
कहा, तेरी
मर्जी पूरी हो,
जीसस खो गए
और क्राइस्ट
का जन्म हो
गया। इस एक
वचन के फासले
में संसार और
मोक्ष का
फासला है। जरा
सी शिकायत, और आप संसार
में हैं।
शिकायत का खो
जाना, और
आप मोक्ष में
हैं।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
"जो संतोष
से संतुष्ट है,
वह सदा
भरा-पूरा
रहेगा।'
सदा!
थोड़ा संतोष को
साधें।
और जब मैं
कहता हूं
संतोष को साधें, तो
ध्यान रखें, सांत्वना की
बात नहीं कर
रहा हूं।
संतोष को साधें,
तो मेरा
मतलब है, जो
है उसको
अहोभाव से जीएं,
जो है उसको
आनंद-भाव से
स्वीकार करें,
जो है उसको
उत्सव बना
लें। रूखी
रोटी भी अहोभाव
से खाई जा सके,
तो उससे
ज्यादा
स्वादिष्ट, उससे ज्यादा
परम भोग दूसरा
नहीं हो सकता।
नहीं तो आपके
सामने परम भोग
रखा हो, शिकायत
से भरा हुआ मन
हो तो कचरा
रखा है। उसका कोई
प्रयोजन नहीं
है।
थोड़ा
शिकायत को हटाएं।
और चौबीस घंटे
स्मरण रखें कि
शिकायत बीच
में न आए। और
जहां भी
शिकायत बीच
में आए उसे
हटा दें। जैसा
बार-बार जीसस
कहते हैं, शैतान,
मेरे सामने
से हट जा!
शैतान सिवाय
शिकायत के और
कोई भी नहीं
है। जब भी
शिकायत आए तो
उससे कहें कि
मेरे सामने से
हट जा! और
कोशिश करें
देखने की उस
तत्व को जिससे
संतोष पैदा
हो। गलत को देखना
छोड़ें।
कांटों को
गिनना बंद
करें। फूलों
पर थोड़ी नजर
लाएं।
जैसे-जैसे
फूल ज्यादा
दिखाई पड़ने
लगेंगे वैसे-वैसे
कांटे खो
जाएंगे। और एक
घड़ी ऐसी भी
आती है संतोष
की जब कांटा
भी फूल दिखाई
पड़ने लगता है।
उस क्षण
रूपांतरण है।
उस क्षण उसकी
मर्जी पूरी
होने लगती है।
असंतोष
का अर्थ है, मेरी
मर्जी तेरे
ऊपर। संतोष का
अर्थ है, मेरी
कोई मर्जी
नहीं; बस
तेरी मर्जी ही
मेरा जीवन है।
आज
इतना ही।
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