एक
भिक्षु थे—
हत्थक। वे स्वयं
को सत्य का
अथक खोजी
मानते थे।
स्वभावत:, जो
अपने को सत्य
का अथक खोजी
माने, वह
शास्त्रों
में उलझ जाता
है। जैसे कि
शास्त्रों
में सत्य हो।
निकले सत्य की
खोज को, खो
जाते हैं
शास्त्रों के
अरण्य में।
चाहते तो थे
गहरे में जान
लें कि जीवन
क्या है, चाहते
तो थे कि जान
लें यह विराट
अस्तित्व
क्या है, लेकिन
आंखें अटक
जाती हैं
शास्त्रों
में। तो हत्थक
बड़े शास्त्री
बन गए। सत्य
की खोज मन ने
झुठला दी। मन
ने कहा, सत्य
चाहिए, शास्त्र
में झांको।
सत्य चाहिए, तो सारे
सिद्धातों
में झांको।
सत्य
के खोजी अक्सर
पंडित बन जाते
हैं। वह मन ने
धोखा दे दिया।
सत्य की खोज
का शास्त्र से
क्या
लेना—देना!
शास्त्र से
बडी तो सत्य
के मार्ग में
कोई और बाधा
नहीं है! हां, तुम
सत्य को जान
लो तो शायद
तुम शास्त्र
में भी सत्य
को पा सको, लेकिन
इससे उलटा
नहीं हो सकता
कि तुम सत्य
को बिना जाने
और शास्त्र
में पा सको।
यह असंभव है।
सत्य को जान
लो, फिर
शास्त्र को
देखो तो शायद
तुम्हें
गवाहियां मिल
जाएं कि हां, ठीक, जो
मैंने जाना
वही औरों ने
भी जाना है।
लेकिन तुम्हारा
जानना
प्राथमिक है।
दूसरों का जानना
दोयम, नंबर
दो की बात है।
तुमने न जाना
हो तो दूसरों ने
कितना ही जाना
हो, इससे
कुछ फर्क न
पड़ेगा। और
दूसरे जो
कहेंगे, उसे
तुम समझोगे
कैसे?
कृष्ण
की गीता पढ़ोगे, समझोगे
तो अपनी ही
गीता। अर्थ तो
तुम अपने डालोगे।
अर्थ तो कृष्ण
के नहीं हो
सकते। कृष्ण
का अर्थ जानने
के लिए तो
तुम्हें
कृष्णमयी
चेतना में
उतरना होगा।
कृष्ण का अर्थ
कहां से आता
है? शब्दकोश
से थोड़े ही
आता है। काश, शब्दकोश से
आता तो बात
कितनी आसान हो
जाती! कृष्ण
का अर्थ आता
है कृष्ण के
चैतन्य से।
तुम्हारा
अर्थ आएगा
तुम्हारे
चैतन्य से।
पढोगे कृष्ण
की गीता, लेकिन
पढ़ोगे अपनी ही
गीता। ऊपर—ऊपर
दिखेगा कृष्ण
के शब्द पढ़
रहे हैं, अर्थ
कौन डालेगा? उन शब्दों
पर रंग कौन
चढ़ाका? उन
शब्दों की
व्याख्या कौन
करेगा? उन
शब्दों की
व्याख्या तो
तुम करोगे।
कृष्ण
के शब्द और
व्याख्या
तुम्हारी!
आकाश को घसीटकर
तुम अपने आगन
में ले आओगे।
कोई उपाय नहीं
है कृष्ण के
शब्द से जाने
का,
न क्राइस्ट
के शब्द से, न बुद्ध के
शब्द से। अगर
सत्य तक जाना
हो, तो
निःशब्द से
मार्ग है।
एक
भिक्षु थे—
हत्थक। वे
स्वयं को सत्य
का खोजी मानते
थे। स्वभावत:
शास्त्रों
में उलझ गए। विवाद
उनका जीवन बन
गया।
शास्त्रार्थ
उनकी चर्या हो
गयी।
सुबह
से सांझ तक
उठते— बैठते
तर्क और तर्क
संन्यस्त
होने के पहले
बड़े झगडैल थे।
संन्यस्त होने
के बाद झगड़ा
तो बंद हो गया
लेकिन झगड़े ने
नया रूप ले
लिया। मन बड़ा
चालबाज है। अब
गाली— गलौज तो
नहीं करते थे
अब गाली— गलौज
बड़ी तार्किक हो
गयी थी। अब
झगड़ा किसी का
सिर फोड़कर
नहीं करते थे
लेकिन किसी का
सिद्धांत
छोड्कर।
वह
भी सिर फोड़ना
ही है।
अब
दूसरे को नीचा
दिखाते थे—
शारीरिक बल से
नहीं मानसिक
बल से— लेकिन
दूसरे को नीचा
दिखाना जारी
था।
मन
से जागना, मन
बड़ा होशियार
है। एक तरफ से
हटो, दूसरी
तरफ उलझा देता
है। पहले
झगडैल थे, अदालतों
में खड़े रहते
थे। फिर ऊब गए
अदालतों से, ऊब गए झगड़ों
से, संन्यस्त
हो गए। तब नए
विवाद खड़े हो
गए। नए झगड़े
के ढंग सीख
लिए। अब झगड़ा
और भी सभ्य और
सुसंगत हो
गया। अब अदालत
में जाने की
जरूरत भी न रही।
अब उठते—बैठते
झगड़े की
तैयारी थी।
बोलो कि झगड़ा
हो जाए। तुम
जो बोले, उसी
पर वह विवाद
करने को तत्पर
थे।
ऐसे
विवाद उनकी
श्वास— श्वास
में भर गया।
शास्त्रार्थ
उनकी चर्या हो
गयी। तर्क में
कुशल थे पर
ध्यान से
अपरिचित।
तर्क
में अगर तुम
कुशल हो और
ध्यान से
अपरिचित, तो
तुम अपनी
आत्महत्या कर
लोगे। तर्क
खतरनाक है, छोटे बच्चे
के हाथ में
तलवार है। कि
छोटे बच्चे के
हाथ में जहर
की प्याली है।
हा, कुशल
हाथों में
तर्क हो, तो
जैसे वैद्य के
हाथ में जहर
की प्याली हो
तो औषधि बन
जाए। हां, कुशल
हाथों में
तलवार हो तो
जीवन का रक्षण
बन सकती है।
लेकिन छोटे
बच्चे को दे
दी तलवार, तो
या तो किसी को
काटेगा—और
किसी को
काटेगा वह तो
ठीक है, आज
नहीं कल अपने
को भी कांट
लेगा। जहर
औषधि बन सकती
है कुशल हाथों
में और अमृत
भी जहर बन
सकता है अकुशल
हाथों में।
जिसने
ध्यान को जाना
है,
उसके हाथ
में तर्क तो
बड़ी कुशल बात
हो जाती है।
क्योंकि वह
लोगों को तर्क
के सहारे
ध्यान की तरफ
उठाने लगता
है। जिसने
ध्यान को नहीं
जाना, उसके
हाथ में तर्क
बड़ी खतरनाक
चीज है, वह
ध्यान की तरफ
जाते लोगों को
खींच—खींचकर
मन में वापस
ले आता है।
तर्क
में कुशल थे
और ध्यान से
अपरिचित।
छुद्र
से कुशल, छुद्र
में कुशल।
सूक्ष्म में,
विराट में
उनकी अकुशलता
थी। हर बात पर
विवाद कर सकते
थे, और हर
बात पर लोगों
को हरा सकते
थे। हर उपाय
से हरा सकते
थे। लेकिन अभी
खुद की जीत
भीतर हुई न
थी। अभी आत्मविजेता
न बने थे।
इसे
समझना। तुम
तभी तक दूसरों
को जीतने में
उत्सुक होते
हो,
जब तक तुमने
स्वयं को नहीं
जीता। असल में
स्वयं को न
जीतने की बात
इतनी पीड़ा
देती है, स्वयं
को न जीतने की
बात इतना घाव
बन जाती है कि
इस घाव को
किसी तरह
दूसरों पर जीत
बनाकर तुम
भुला लेना
चाहते हो।
पर—विजय पर
वही जाता है
जो भीतर
पराजित है। जो
जानता है, अपने
पर तो विजय हो
नहीं सकी—किसी
तरह दूसरों के
सिरों पर झंडे
गाड़ दूं।
दूसरों
को हराना आसान
है। अपने को
हराना कठिन
है। क्योंकि
तुम जो भीतर हो, छोटे
नहीं हो। तुम
तो बड़े हो, बहुत
बड़े हो, बड़े
आयाम हैं
तुम्हारे।
तुम्हें अपने
पूरे होने का
पता ही नहीं
है। तुम्हारी
बड़ी गहराइयां
हैं, गहराइयों
पर गहराइयां
हैं, ऊंचाइयों
पर ऊंचाइयां
हैं। तुम
चढ़ोगे तो गौरीशंकर
छोटा पड़ जाएगा
तुमसे। तुम
गहरे उतरोगे
तो प्रज्ञात
सागर उथला हो
जाएगा तुमसे।
तुमने अपने को
जाना नहीं।
तुम तो
द्वार—दरवाजे
पर खड़े हो, तुम
अपने महल में
प्रविष्ट ही
नहीं हुए।
जितनी बड़ी
दुनिया बाहर
है, उतनी
बड़ी दुनिया
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
भीतर लिए चल
रहा है। और
बाहर जो
दुनिया है, इससे ज्यादा
गहरी और
ज्यादा
मूल्यवान
दुनिया भीतर
लेकर चल रहा
है।
बाहर
के साम्राज्य
को पाने के
लिए वही
उत्सुक होता
है,
जो भीतर
दरिद्र है, जिसको भीतर
के साम्राज्य
का कोई पता
नहीं है। जो
अपना सम्राट
नहीं है, वह
दूसरों का
सम्राट बनने
को उत्सुक
होता है।
इसलिए
मैं बार—बार
कहता हूं कि
राजनीति और
धर्म का मेल
नहीं होता। ये
विपरीत आयाम
हैं। राजनीति
का अर्थ है, दूसरे
पर ताकत। धर्म
का अर्थ है, अपने पर
ताकत।
राजनीतिज्ञ
अधार्मिक
होगा ही।
राजनीतिज्ञ
और धार्मिक हो,
यह असंभव
है। और
धार्मिक
राजनीतिज्ञ
हो, यह भी
असंभव है। अगर
तुम धार्मिक
को राजनीतिज्ञ
पाओ, तो
समझ लेना कि
धार्मिक नहीं
है। और अगर
तुम राजनीतिज्ञ
को धर्म की
बातें करते
पाओ, तो
समझ लेना कि
यह भी राजनीति
का एक उपाय
है। ये दोनों
एक साथ हो
नहीं सकते, यह असंभव
है। जैसे कि
तुम ऊपर—नीचे
एक साथ नहीं
जा सकते। जैसे
कि तुम
बाएं—दाएं एक
साथ नहीं जा
सकते। जैसे कि
उत्तर—दक्षिण
एक साथ नहीं
जा सकते। ऐसे
ही कोई
व्यक्ति
राजनीति और
धर्म में एक साथ
नहीं जा सकता।
राजनीति का
अर्थ है, दूसरे
पर कब्जा करने
की चेष्टा।
राजनीति हिंसा
है। और धर्म
का अर्थ है, अपने पर
विजय की यात्रा।
धर्म अहिंसा
है।
फिर
तुम कैसे
दूसरों पर
विजय पाने की
कोशिश करते हो, यह—
बात गौण है।
कोई तलवार से
करता है, कोई
धन से करता है,
कोई
पद—प्रतिष्ठा
से करता है, कोई तर्क से
करता है, कोई
ज्ञान से करता
है। कोई त्याग
से भी करता है,
खयाल रखना।
त्याग से भी
वही हो जाता
है।
तुमने
गांव में सबसे
ज्यादा त्याग
कर दिया, तो
तुमने सारे
गाव पर विजय
पा ली। तुमने
सारे गांव को
हरा दिया। कौन
तुम जैसा दानी
है! तुमने एक
बड़ा उपवास कर
लिया, इक्कीस
दिन का उपवास
कर लिया, सारे
गांव को मात
दे दी। कौन
तुमसे बड़ा
उपवासी! कि
तुम नग्न खडे हो
गए, कि
धूप—बरसात, सर्दी—गर्मी
में तुम नग्न
खड़े रहने लगे,
तुमने सारे
गांव को मात
दे दी कि कौन
मुझ जैसा त्यागी!
मगर ध्यान
रखना, अगर
तुम्हारी नजर
दूसरों पर लगी
है, अगर
इसमें कहीं भी
प्रतियोगिता
है, किसी
भी तल पर
प्रतियोगिता
का स्वर है, तो यह
राजनीति है।
धर्म
अप्रतियोगी
है,
नान—कापिटीटिव
है। धर्म का
कोई संबंध
दूसरे से
नहीं। और तब
ऐसा भी हो
सकता है कि
जिन लोगों को
तुम साधारणत:
धार्मिक नहीं
कहते, उनमें
भी धार्मिक
लोग हों।
अप्रतियोगी
आदमी धार्मिक
है।
समझो
कि एक आदमी
गीत गा रहा है, और
गीत गाते क्षण
में उसके मन में
कोई
प्रतिएकर्धा
नहीं है, वह
किसी को हराने
के लिए गीत
नहीं गा रहा
है, किसी
को पराजित
करने के लिए
गीत नहीं गा
रहा है, उसके
भीतर गीत उठा
है, वह गीत
गा रहा है, तो
यह व्यक्ति
धार्मिक है।
इस गीत गाते
क्षण में
धार्मिक है।
एक
व्यक्ति बैठा
बांसुरी बजा
रहा है, किसी
से कुछ
लेना—देना
नहीं है। कहीं
भी, मन के
किसी भी तल पर
इस बांसुरी के
बजाने की किसी
और से कोई
तुलना नहीं चल
रही है कि मैं
दूसरे से
अच्छा बजाऊं,
तो यह कृत्य
धार्मिक है।
एक
व्यक्ति
चित्र बना रहा
है। न पिकासो
को हराना है, न
डाली को हराना
है, न किसी
को हराना है।
किसी का कोई
लेना—देना
नहीं है। अपने
आनंद से, स्वांत:
सुखाय, अपने
सुख से चित्र
बना रहा है, रंग रहा है, रंगने में
बड़ा आनंदित हो
रहा है। जैसे
अकेला ही हो
इस पृथ्वी पर,
कोई और है
ही नहीं। इस
एकांत में जो
स्वात: सुखाय
रसधारा बहती
है, वही
धर्म है।
और
तुम अगर मंदिर
गए,
और तुम
प्रार्थना कर
रहे हो, और
तुम चारों तरफ
देखने लगे कि
लोग भी देख
रहे हैं कि
मैं
प्रार्थना कर
रहा हूं या
नहीं, तो
अधर्म हो गया।
और अगर तुमने
यह देखा कि आज
कोई भी मंदिर
में नहीं है, तो तुमने
जल्दी—जल्दी
प्रार्थना की
कि क्या मतलब
है, कोई
देखने वाला तो
है नहीं, और
भगवान तो हैं
कहा, पत्थर
की मूर्ति खड़ी
है, जल्दी
करो कि देर
करो, कि
तुम कुछ—कुछ
बीच की
पंक्तियां
छोड़ भी गए, कौन
देखने वाला है,
जल्दी से
पूजा कर ली और
निकल आए। और
अगर लोग देखने
वाले हुए तो
तुमने बड़ी
गंभीरता
दिखलायी और
बड़े डोले और
बड़ी आरती
चलायी, और
काफी देर
लगायी, जो
दो मिनट में
हो जाता काम
उसमें बीस
मिनट लगाए—इतने
लोग देखने
वाले थे! और
अगर एक
फोटोग्राफर
भी खडा हो और
अखबार में खबर
छपने वाली हो,
तो तुम एकदम
तल्लीन हो गए,
एकदम महत
तल्लीनता में
पहुंच गए, मीरा
को मात कर दो, ऐसे डोलने
लगे, आंसू बहाने
लगे—अगर
तुम्हारे
भीतर ऐसा कुछ
चल रहा हो तो
प्रार्थना भी
अधार्मिक हो
जाती है।
कोई
कृत्य अपने
में धार्मिक
नहीं होता और
कोई कृत्य
अपने में
अधार्मिक
नहीं होता।
तुम्हारी
भावदशा उसे
धार्मिक या
अधार्मिक
करती है।
यह
भिक्षु हत्थक
तर्क में कुशल
और ध्यान से अपरिचित
शब्द के धनी
थे और मौन में
दरिद्र।
अक्सर
ऐसा हो जाता
है। और जब तक
शब्द मौन से न
आए,
तब तक
व्यर्थ होता
है। जब तक
शब्द
तुम्हारे भीतर
के शून्य में
फट्ट हुआ न आए,
तब तक उसमें
कुछ भी नहीं
होता, बेजान
होता है। जब
तुम्हारे
भीतर की रसधार
में पगकर आता
है, जब
तुम्हारे
शून्य के गर्भ
से उठता है
शब्द, तब
उस शब्द में
सार होता है।
शब्द में तो
सार होता ही
नहीं, सार
तो शून्य में
होता है।
लेकिन जब
शून्य से शब्द
उठता है तो
शब्द के आसपास
लिपटा हुआ
थोड़ा सा शून्य
भी चला आता
है।
जैसे
कि तुम बगीचे
से निकले, तुम्हें
याद हो या न हो
याद, घर
जाकर तुम
पाओगे—वस्त्रों
में थोड़ी गंध
है। फूलों की
गंध वस्त्रों
को पकड़ गयी।
ऐसे ही शब्द
जब किसी शून्य
हृदय में उठता
है, तो
शून्य की गंध
शब्द को पकड
जाती है। वैसे
शब्द में कुछ
सार होता है।
अर्थात जब मौन
से शब्द
निकलता है, तभी सार्थक
होता है। और
जब मौन से
शब्द नहीं
निकलता, शब्दों
से ही शब्द
निकलते हैं, बात में से
बात निकलती है,
शब्दों के
साहचर्य से
शब्द निकल आते
हैं, तो
समझना कि तुम
अपना भी समय
व्यर्थ कर रहे
हो र दूसरों
का भी समय
व्यर्थ कर रहे
हो। तुम अपना
कूड़ा—करकट
दूसरों में
डाल रहे हो।
लोग
नासमझ हैं।
किसी के घर
में जाकर तुम
कूड़ा—करकट डालो
तो झगड़ा हो
जाए। लेकिन
किसी की खोपड़ी
में कितना ही
कूड़ा—करकट
डालो, कोई
झगड़ा नहीं
होता। वह बड़े
प्रेम से
सुनता है, वह
कहता है कि और
सुनाइए! और
गपशप क्या
गांव में चल
रहा है!
हम
एक—दूसरे के
सिर में कचरा
डालते रहते
हैं। हम
एक—दूसरे के
सिर का उपयोग
कचरे की टोकरी
की तरह करते
हैं।
शब्द
के धनी थे यह
हत्थक और मौन
में थे दरिद्र।
और
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि
भीतर मौन की
दरिद्रता हो
तो आदमी बड़ा
बकवासी हो
जाता है। फिर
छिपाए भी
कैसे! अपनी
नग्नता को
छिपाए भी
कैसे! शब्दों
के वस्त्र ओढू
लेता है।
शब्दों के
आधार पर भूले
रहता है कि
मैंने मौन
नहीं जाना। और
मौन में है
सौंदर्य, और
मौन में है
आनंद। और मौन
में ही सत्य
की झलक है।
तो
जिनके पास मौन
न हो और केवल
शब्द हों, उनसे
सावधान होना।
और अपने भीतर
भी देखना। वही
बोलना, जो
तुम्हारे मौन
में जन्मा हो।
तो तुम पाओगे,
तुम्हारे
शब्दों में एक
बल आ गया।
तुम्हारे शब्दों
में एक प्रगाढ़
शक्ति का जन्म
हो जाएगा। तुम्हारे
शब्द शक्ति के
वाहक बन
जाएंगे। तुम्हारा
एक—एक शब्द
तीर हो जाएगा।
जिस हृदय पर लग
जाएगा, उस
हृदय में नयी
स्फुरणा कर
जाएगा। और
तुम्हारे शब्दों
में एक काव्य
आ जाएगा। तुम
चाहे कविता
जानते हो या न
जानते हो,
तुम्हारे
शब्दों में एक
गुनगुनाहट आ
जाएगी। और
तुम्हारे
शब्दों में एक
सौंदर्य होगा, जो
इस जगत का
नहीं है।
लेकिन
शून्य से आए
शब्द तो ही।
पंडित का शब्द
तो गंदा होता
है,
बासा होता
है। ज्ञानी का
शब्द! और
ज्ञानी का
अर्थ यही है
कि जिसने अपने
भीतर निःशब्द
होने की कला
सीख ली। पहले
चुप हो जाओ।
पहले ऐसे चुप
हो जाओ कि
चुप्पी सनातन
जैसी मालूम
होने लगे, शाश्वत
मालूम होने
लगे। फिर उस
चुप्पी में जो
अनुभव हो, उसे
बांधना शब्द
में। तब
तुम्हारे पास
बांधने को कुछ
है। नहीं तो
अभी तो कोरे
शब्द हैं, जिनके
भीतर कुछ भी
नहीं है—खाली
डिब्बे हैं।
यह
जो हत्थक थे
शब्द के धनी
थे और मौन में
दरिद्र थे
लेकिन
स्वभावत: बड़े
अहंकारी थे।
शब्द
का धनी हो
आदमी तो
अहंकारी हो
जाता है। आदमी
भाषा का गुलाम
है। तुमने यह
बात देखी? कि
समाज में वे
लोग बहुत
महत्वपूर्ण
हो जाते हैं, जो शब्द के
धनी हैं। नेता
बन जाएं, गुरु
बन जाएं। जो
शब्द का धनी
है, वह सब
जगह प्रथम हो
जाता है।
क्यों? वह
बोलने में
कुशल है। उसके
पास एक दक्षता
है। बोलते सभी
हैं, लेकिन
कोई जो बोलने
में कुशल हो
जाता है, वह
दूसरों को
पीछे डाल देता
है, वह आगे
निकल जाता है।
अगर तुम बोलने
में कुशल नहीं
हो तो एक बात
पक्की है कि
तुम जिंदगी
में कहीं भी
किसी
प्रतिएकर्धा
में आगे खड़े न
हो सकोगे।
मनुष्य का
सारा समाज
भाषा से बना
है। और भाषा
में जो जितना
कुशल होता है,
वह उतना आगे
हो जाए तो
आश्चर्य नहीं
है।
इसलिए
जो लोग बोलने
में कुशल होते
हैं,
स्वभावत:
भीतर एक
अहंकार का
जन्म हो जाता
है कि मैं कुछ
हूं। अगर
शून्य से शब्द
आएं, तो यह
अहंकार पैदा
नहीं होता। तब
तो एक उलटी बात
घटती है। समझ
लेना इसे ठीक
से। अगर शून्य
से शब्द आएं
तो ऐसा लगता
है हर बार
बोलकर कि जो
कहना था, वह
कह नहीं पाया।
अहंकार की तो
बात दूर, एक
बडी विनम्रता
पैदा होती है
कि जो कहना था,
कह नहीं
पाया।
क्योंकि जो
जाना जाता है
भीतर, वह
इतना बड़ा है
कि शब्दों में
अंटता नहीं, समाता नहीं।
शब्द
छोटे—छोटे पड़
जाते हैं।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि आप रोज
कैसे बोलते
हैं?
रोज इसीलिए
बोल पाता हूं, कल बोला, देखा
कि नहीं कह
पाया, फिर
आज बोलता हूं;
चलो, एक
और कोशिश करें,
शायद अब हो
जाए। फिर कल
बोलूंगा।
क्योंकि मुझे
पक्का पता है
कि यह होने
वाला नहीं है।
यह कुछ बात
ऐसी है कि कही
जाती है, लेकिन
कही नहीं जा
सकती।
तो
जो अनुभव किया
है,
उसे शब्द से
अहंकार नहीं
बढ़ता। लेकिन
जिसने अनुभव
नहीं किया है,
उसे शब्द
बोल—बोलकर बड़ा
अहंकार बढ़ता
है।
तो
हत्थक बड़े
अहंकारी थे।
फिर तर्क में
सच— झूठ भी न देखते
थे।
तर्क
में सच—झूठ
होता भी नहीं।
जब विजय ही
लक्ष्य हो, तो
क्या सच, क्या
झूठ? विजय
जब लक्ष्य हो
और झूठ से
विजय मिलती हो,
तो झूठ ही
सच मालूम होता
है। खयाल रखना,
कहते तो वह
थे कि मैं
सत्य का खोजी
हूं लेकिन मूलतः
विजय के खोजी
थे। तुम भी जब
किसी से विवाद
करते हो तो
सत्य की खोज
में करते हो? कि सिर्फ एक
आकांक्षा जीत
लेने की?
दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं। एक
वे,
जो सत्य को
अपने पीछे
चलाना चाहते
हैं, और एक
वे, जो
सत्य के पीछे
चलना चाहते
हैं। जो सत्य
के पीछे चलना
चाहता है, उसकी
विजय की कोई
आकांक्षा
नहीं होती, वह तो सत्य
से हारने को
तत्पर है। जो
सत्य को अपने
पीछे चलाना
चाहता है, उसकी
विजय की
आकांक्षा
होती है। वह
सत्य को भी
अपने अनुकूल
चाहता है। वह
सत्य को भी
कांट—पीट देता
है। वह सत्य
को भी ऐसा
रंग—ढंग देता
है कि जिससे
विजय हो सके।
विवादी
सत्य का खोजी
नहीं होता।
लेकिन हत्थक
को यही
भ्रांति थी कि
वह सत्य का
खोजी है। विवादी
विजय का खोजी
होता है, इसे
खयाल रखना। और
तुम अपने भीतर
खूब गौर कर
लेना कि तुम
विजय की खोज
में लगे हो कि
सत्य की खोज
में। क्योंकि
दोनों
यात्रा—पथ
बिलकुल अलग
हैं। विजय की
जो यात्रा है,
वह राजनीति
है। और सत्य
की जो यात्रा
है, वह
धर्म है। और
विजय की
यात्रा में
दूसरे की छाती
पर चढ़ने की
आयोजना है। और
सत्य की
यात्रा में, सत्य के
चरणों में सिर
झुका देने की,
सत्य के
सामने
समर्पित हो
जाने की।
जब
तुम विवाद
करते हो तो
क्या तुम यह
कहते हो कि यह
विवाद मैं
सत्य की खोज
के लिए कर रहा
हूं?
कहते सभी
विवादी यही
हैं, लेकिन
असली खोज यह
होती है कि
मैं सही, तुम
गलत। और
कभी—कभी तुमने
यह भी पाया
होगा कि कल तुम
किसी से विवाद
किए थे और
तुमने जो बात
कही थी कि सही
है, आज
किसी और से
विवाद करते
तुम उसी बात
को गलत भी कह
दिए, क्योंकि
आज इसी से
जीतने में
सुगमता होती
थी।
तर्क
में सच—झूठ
नहीं होता, तर्क
तो वकील है।
वकील के पास
सच—झूठ नहीं
होता। वकील तो
कहता है, तुम
जैसे भी हो, जिताऊंगा।
तुम जैसे हो, उसी के पक्ष
में सत्य को
लाकर खड़ा
करूंगा। सत्य
को बदल देंगे,
तुम्हें
बदलने की
जरूरत नहीं।
कानून से
कांट—छांट
करेंगे, सत्य
को ऐसा ढंग
देंगे कि वह
भी तुम्हारा
गवाह बन जाए।
इसलिए
वकील एक तरह
का झूठ का
व्यवसाय करता
है। वकालत एक
तरह की
वेश्यागिरी
है। वेश्या
अपने शरीर को
दूसरे के
उपयोग के लिए
दे देती है, वकील
अपने मन को
दूसरे के
उपयोग के लिए
दे देता है।
यह वेश्या से
भी पतित कृत्य
है। वकील का कोई
सत्य नहीं
होता।
यूनान
में सोफिस्ट
हुए। सुकरात
उनके खिलाफ
लडा। सोफिस्ट
ऐसे लोग थे कि
वे कहते थे कि
सच और झूठ
होता ही नहीं।
वे कहते थे, जिसको
तर्क की कला
आती है, वह
जिस चीज को
चाहे सच कर ले
और जिस चीज को
चाहे झूठ कर
ले। सोफिस्ट
कहते थे, सत्य
और झूठ जैसी
कोई चीज नहीं
होती, तर्क
की कुशलता
सत्य बन जाती है
और तर्क की
अकुशलता झूठ
बन जाती है।
और वे लोगों
को यही सिखाते
थे। और
उन्होंने
बड़ी—बड़ी पाठशालाएं
खोल रखी थीं, जिनमें
लोगों को
शिक्षण दिया
जाता था सच को
झूठ करने का, झूठ को सच
करने का। और
वे बड़े कुशल
तार्किक थे।
ऐसे
कुशल तार्किक
सारी दुनिया
में हुए हैं।
उनकी कोई
निष्ठा नहीं
होती। उनका
कोई समर्पण नहीं
होता, उनकी
कोई आस्था
नहीं होती। वे
तो केवल तर्क
का खेल खेलना
जानते हैं।
तर्क उनका
व्यवसाय होता
है। जैसे
तुमने
व्यवसायी
खिलाड़ी देखे
न! कोई फुटबाल
का व्यवसायी
खिलाड़ी है, कि क्रिकेट
का व्यवसायी
खिलाड़ी है, उसे कोई मतलब
नहीं, जो
पैसा दे दे वह
उसके साथ हो
जाता है। ऐसे
सोफिस्ट थे, जो पैसा दे
दे उसके साथ
हो जाते। वकील
एक तरह का
सोफिस्ट है।
यह
जो आदमी था
हत्थक, एक
तरह का
सोफिस्ट रहा
होगा। उसे
विजय की आकांक्षा
थी।
येन—केन—प्रकारेण,
कैसे भी हो,
विजय होनी
चाहिए।
ईमानदारी से
हो, बेईमानी
से हो, अच्छे
रास्ते से हो,
बुरे
रास्ते से हो,
उसे साधन की
शुद्धि का कोई
खयाल न था।
साध्य उसका एक
था कि विजय
मिलनी चाहिए।
और
तुम यही जीवन
में भी पाओगे।
जिन लोगों के
जीवन में विजय
की ही
आकांक्षा सब
कुछ है, वे
सभी तरह से
विजय पाने की
कोशिश करते हैं।
धोखाधड़ी से हो,
जालसाजी से
हो, पाखंड
से हो, विजय
मिलनी चाहिए।
विजय पर ही
सारा ध्यान
होता है।
इसलिए विजय का
आकांक्षी कभी
धार्मिक नहीं
हो सकता। अगर
अधर्म से विजय
मिलती होगी तो
वह क्या
करेगा! जब
विजय की ही
आकांक्षा है
तो फिर अधर्म
से मिले तो
अधर्म ही सही,
अधर्म का ही
साधन बना
लेंगे।
धार्मिक
व्यक्ति के
जीवन का
लक्ष्य विजग
नहीं होता।
विजय लक्ष्य
हुई कि फिर
जीवन धार्मिक
नहीं रह जाता।
एक
दिन वह
तीर्थको को
चुनौती दे
आया।
तीर्थक
उन दिनों के
जैन,
जैनों का यह
नाम है बौद्ध
शास्त्रों
में, तीर्थंकर
को मानने
वाले—तीर्थक।
वह
एक दिन
तीर्थको को
चुनौती दे आया
और कह आया अमुक—
अमुक स्थान पर
मिलो अमुक—
अमुक समय पर
वहीं
शास्त्रार्थ
होगा और
तुम्हारी हार
निश्चित है।
और फिर समय के
पूर्व ही जाकर
लोगों से बोला
देखो तीर्थक
भाग गए यही
उनकी हार है
समय
दिया, स्थान
बताया और समय
के पहले वहा
पहुंचकर
लोगों से कह
दिया कि देखो
भाग खड़े हुए
वे लोग। यह
उनकी हार है।
भगवान
को यह शांत
हुआ तो
उन्होंने
हत्थक को बुलाकर
कहा क्या
भिक्षु तू
सचमुच ऐसा
करता है! यह तो
हइ हो गयी
यह
तो झूठ की
हद्द हो गयी।
यह कोई जीतना
जीतना हुआ।
पहले तो विवाद
व्यर्थ, पहले
तो विजय की
आकांक्षा
व्यर्थ, और
फिर ऐसे उपाय!
कि उनको एक
समय दिया, उसके
पहले पहुंच
गया, अभी
वे आए ही नहीं
थे, कि
तूने बता दिया,
त्नोगों को
खबर कर दी कि
वे भाग खडे
हुए हैं। यह
भी कोई विजय
हुई!
हत्थक
सकुचाए।
लेकिन झूठ
बोलने में अति
कुशल होते हुए
भी भगवान के
समक्ष झूठ न
बोल सके।
सदगुरु
का यह बहुत से
उपयोगों में
एक उपयोग है
कि तुम उसके
सामने झूठ न
बोल सकोगे।
सदगुरु का
बहुत उपयोग है
साधक के जीवन
में,
उनमें एक
महत्वपूर्ण
उपयोग यह भी
है। तुम और सब
जगह तो झूठ
बोल सकोगे, और जगह झूठ
बोलने में
अडूचन न आएगी,
याद ही न
पड़ेगा कि तुम
झूठ बोल रहे
हो; जहां
जिस बात से
सुगमता
मिलेगी, वही
चला लोगे।
लेकिन कहीं एक
जगह ऐसी होनी
चाहिए, जहां
तुम झूठ न बोल
सको, वहीं
तुम्हें अपने
से साक्षात
करने का मौका
मिलेगा। कोई
तो चरण ऐसे
होने चाहिए
जहां जाकर तुम्हें
सच होना पड़े।
जहां तुम चाहो
भी तो भी झूठ न
हो पाओ। कोई
तो आंखें ऐसी
होनी चाहिए जिनमें
तुम झांको और
अपनी सचाई को
झलकता हुआ पाओ।
सदगुरु
दर्पण है।
उसके सामने जब
शिष्य खड़ा होता
है,
तो झूठ नहीं
बोल पाता।
जिसके सामने
तुम झूठ न बोल
पाओ वही
तुम्हारा
गुरु है, यह
गुरु की
परिभाषा
समझो। अगर तुम
उसके सामने
झूठ बोल पाओ, तो वह
तुम्हारा
गुरु नहीं है।
इसे
खयाल में लेना, यह
तुम्हारे काम
की बात है।
अगर तुम जिसके
सामने झूठ
बोलने में सफल
हो अभी, तो
समझना कि
तुमने उसे
गुरु— भाव से
स्वीकार नहीं
किया। तुमने
उसे गुरु नहीं
माना। गुरु का
अर्थ ही यह
होता है, जिससे
अब तुम कुछ भी
न छिपाओगे, जैसा है
वैसा प्रगट कर
दोगे। जिसके
सामने तुम नग्न
होने में
समर्थ होओगे,
तुम सारे
वस्त्र छोड़
निर्वस्त्र
हो सकोगे। तुम
कह सकोगे कि
मैं ऐसा हूं
बुरा— भला
जैसा हूं। यह
एक जगह तो ऐसी
है जहां मैं
छिपावट न
करूंगा। जहां
मैं मुखौटे न
लगाऊंगा, जहां
मैं और चेहरे
न बनाऊंगा, जहां मैं
जैसा हूं,
वैसा ही।
हत्थक
सकुचाए।
लेकिन झूठ
बोलने में अति
कुशल होते हुए
भी भगवान के
समक्ष झूठ न
बोल सके। बोले—
खं भंते!
भगवान ने कहा
विजय
मूल्यवान
नहीं है
हत्थक! फिर
सत्य को
छोड्कर जो
विजय मिले वह तो
हार से भी
बदतर है। सत्य
ही एकमात्र
मूल्य है। और
जहां सत्य है
वहीं असली
विजय है सत्य
के साथ हार
जाना भी विजय
और सौभाग्य है; और
झूठ के साथ
जीत जाना भी
दुर्भाग्य
है। भिक्षु
ऐसा करके तू
श्रमण नहीं
होगा।
क्योंकि जिसने
सभी
महत्वाकांक्षाओं
को शमित कर
दिया है उसे
ही मैं श्रमण
कहता हूं।
यह
श्रमण की
अनूठी
परिभाषा की
उन्होंने—कि
जिसने समस्त
महत्वाकांक्षाओं
को शमित कर
दिया है, उसे
ही मैं श्रमण
कहता हूं।
समझना।
मैंने कहा, सदगुरु
वही जिसके
सामने
तुम्हें सच
होना ही पड़े।
जिसके सामने
तुम्हारे
जीवनभर के
पाखंड और
जीवनभर के झूठ
और जीवनभर की
कुशलताएं, कम
से कम एक पल के
लिए सही, तुमसे
गिर जाएं। एक
पल के लिए सही,
बिजली की
तरह जो
तुम्हारे
जीवन में कौंध
जाए और जो
तुम्हें दिखा
दे तुम कहा हो,
कैसे हो। यह
एक बात शिष्य
के परीक्षा के
लिए, उसके
अंतर्परीक्षा
के लिए कि वह
जिसके सामने इस
तरह नग्न हो
सके, वही
सदगुरु उसका।
उसने उसी को
गुरु— भाव से
स्वीकार किया
है।
किसी
के चरणों में
सिर रखने से
कुछ भी नहीं
होता। और इधर
इस देश में तो
चरणों में सिर
रखने की आदत
इतनी पड़ गयी
है कि औपचारिक
रूप से लोग रख देते
हैं। लेकिन
सिर चरणों में
रखने का यह
मौलिक अर्थ है
कि यहां अब
मैं जैसा हूं
वैसा ही प्रगट
करूंगा। अब
जरा भी लगाव—छिपाव
नहीं, अब जरा
भी तोड़—मरोड़
नहीं, अब
जरा भी तर्क
का सहारा न
लूंगा, झूठ
का सहारा न
लूंगा। यह तो
गुरु तुमने
चुना किसी को,
इसकी
तुम्हें खबर
मिलेगी, इस
भाव से। और सच
में ही तुमने
कोई सदगुरु पा
लिया या नहीं,
यह इस बात
से पता चलेगा
कि तुम जब
नग्न अपने
सारे झूठों को
भी स्वीकार कर
लो, तब भी
निंदा न हो, तो समझो कि
तुमने सदगुरु
पाया।
क्योंकि
तुमने चुन
लिया गुरु, इससे
ही थोड़े
सदगुरु मिल
जाता है। तुम
तो गलत गुरु
भी चुन सकते
हो। तुम तो
किसी पाखंडी
को भी गुरु
चुन सकते हो, किसी
अज्ञानी को भी
गुरु चुन सकते
हो। तुम्हारे
पास कसौटी
क्या है? तुम
कैसे कसोगे कि
तुमने जिसे पा
लिया है, वह
सदगुरु है।
कैसे मापोगे?
कैसे आकोगे?
क्या उपाय
है? यह है
उपाय, कि
तुम जब अपनी
सारी नग्नता
को भी उसके
सामने रख दो, तब भी उसके
मन में
तुम्हारे
प्रति कोई
निंदा का भाव
न हो। सिर्फ
करुणा हो। वह
तुम्हें समझे,
समझाए, लेकिन
निंदा का कोई
स्वर न हो।
जहां निंदा का
स्वर है, वहां
समझ लेना कि
जिस आदमी के
सामने तुम
झुके हो, वह
तुमसे बेहतर
नहीं है।
यह
बात बहुत काम
की है।
तुम्हारे सौ
महात्माओं
में से
निन्यानबे
महात्मा
निंदा से भरे
हुए लोग हैं।
निंदा तभी तक
रहती है भीतर, जब
तक तुम भी
उन्हीं चीजों
से उलझे हो
जिनमें लोग
उलझे हैं।
फर्क
समझना।
सदगुरु के पास
तुम्हारे
अतीत की कोई
निंदा नहीं
है। ही, तुम्हारे
भविष्य का
जरूर वह द्वार
खोलता है। वह
कहता है कि
देखो, यह
हो सकता है।
ये
स्वर्ण—शिखर
तुम्हारे
जीवन में उठ
सकते हैं। मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं कि
सदगुरु के पास
नर्क की धारणा
ही नहीं होती,
सिर्फ तुम
जिस स्वर्ग से
चूक रहे हो, उसकी तरफ
इशारा होता
है। नर्क की
धारणा ही नहीं
होती।
नर्क
की धारणा
असदगुरु का
लक्षण है।
दुष्ट आदमी का
लक्षण है, हिंसा
जिसके भीतर
पड़ी है अभी।
वह एकदम तुम
पर टूट पड़ता
है। और टूट
पड़ने के कारण
बड़े मनोवैज्ञानिक
हैं। वह खुद
भी अभी डरता
है कि ये काम
उसके भीतर भी
पड़े हैं। अगर
वह इन बातों
को स्वीकार
करे, तो
बडी अड़चन खड़ी
हो जाएगी।
समझो
कि तुमने कहा
कि मैं शराब
पीता हूं; अगर
वह कहे, कोई
हर्जा नहीं, तो इसमें एक
खतरा है। अभी
शराब पीने की
वासना उसमें
भी पड़ी है।
अगर वह कहे, इसमें कोई
हर्जा नहीं, तुमसे यह
कहे कि इसमें
कोई हर्जा
नहीं, तो
खुद भी तो सुन
रहा है कि
इसमें कोई
हर्जा नहीं।
खतरा है! अगर
यह बात
बार—बार कहनी
पड़े कि इसमें
कोई हर्जा
नहीं, तो
खुद के भीतर
जो वासना पड़ी
है शराब पीने
की, वह फिर
कहेगी, तो
फिर तुम क्यों
नहीं पीते, फिर हर्जा
नहीं है तो
क्यों बैठे हो,
क्यों
व्यर्थ समय
गंवा रहे हो?
तुमने
जाकर कहा कि
मुझे किसी की
स्त्री से
प्रेम हो गया
है,
मैं क्या
करूं? क्या
हो? वह टूट
पड़ेगा एकदम।
वह तुम पर
नहीं टूट रहा
है, वह
अपनी ही रक्षा
कर रहा है, खयाल
रखना। तुम
मनोवैज्ञानिकों
से पूछो कि वह
क्या कर रहा
है? वह
सेल्फ डिफेंस
में है। वह
आत्मरक्षा कर
रहा है। वह
तुम पर टूट
पड़ा एकदम कि
यह बिलकुल पाप
है, महापाप
है, नर्क
में जाओगे! यह
वह तुमसे
इसलिए कह रहा
है कि
पास—पड़ोस की
स्त्रियों
में उसे भी रस
है। और यही
समझा—बुझाकर
वह अपने को
रोक रहा है, कि नर्क
जाना पड़ेगा, महापाप हो
जाएगा, भूलकर
यह मत करना।
भूलकर ऐसी बात
में मत पड़ना।
जब वह तुम पर
टूटता है तो
वह खबर दे रहा
है कि वह डरा
है अपने भीतर।
वह तुम्हें
कैसे
स्वीकृति दे?
तुम्हें
स्वीकृति
देने में तो
स्वयं को भी
स्वीकृति मिल
जाएगी। इसलिए
वह स्वीकार
नहीं कर सकता।
और
भय पैदा करता
है,
भय के कारण
तुम उसके
सामने नग्न
नहीं हो पाते।
इसलिए न तो
गुरु गुरु है,
न शिष्य
शिष्य है।
दोनों के बीच
एक औपचारिक संबंध
है, थोथा, ऊपर—ऊपर का, सांसारिक।
आध्यात्मिक
संबंध वहां
पैदा होता है
जहां तुम
जानते हो, गुरु
समझेगा। गुरु
न समझेगा तो
कौन समझेगा? जहां वह
स्वीकार
करेगा। जहां
तुम जैसे हो
वैसा ही
अंगीकार
करेगा।
तुम्हारे
अतीत के प्रति
कोई निंदा का
भाव नहीं
होगा।
तुम्हें उसके
सामने नीचा
नहीं देखना
पड़ेगा। और साथ
ही साथ वह
तुम्हारे
भविष्य का
द्वार जरूर
खोलेगा। वह
कहेगा, यह
हो सकता है।
जब
मेरे पास कोई
आता है कि
शराब मैं पीता
हूं?
मैं कहता
हूं तू शराब
की फिकर मत कर,
ध्यान कर।
वह कहता है, लेकिन शराब
पीने वाला
ध्यान कर सकता
है! मैं उससे
कहता हूं,
अगर शराब पीने
वाला ध्यान न
कर सके, तब
तो फिर शराब
पीने वाला
शराब से कभी
मुक्त ही न हो
सकेगा। मैं
उससे कहता हूं
कि तू तो ऐसी बात
पूछ रहा है
जैसे कि कोई
मरीज डाक्टर
से पूछे कि
क्या बीमार
दवाई ले सकता
है? बीमार
दवाई न लेगा
तो कौन दवाई
लेगा? और
जब तुम डाक्टर
के पास जाते
हो और तुम कहो
कि मुझे टी बी
हो गयी और वह
एकदम
तुम्हारी
गर्दन पर सवार
हो जाए और कहे
कि नर्क में
सडोगे, तो
तुम भी हैरान
होओगे कि यह
तो बडी
मुश्किल हो
गयी! एक तो टी
बी और अब नर्क
में सडुना
पड़ेगा! औषधि
की तो बात ही न
करे वह!
चिकित्सक
औषधि की बात
करता है। वह
कहता है, यह
औषधि है, कोई
फिकर न करो।
इस औषधि से
ठीक हो जाएगी।
शराबी को मैं
कहता हूं,
ध्यान करो; क्योंकि मैं
कहता हूं कि
ध्यान में और
भी ऊंची शराब
के पीने का
सौभाग्य
मिलता है।
अंगूरों की
शराब पी है, अब जरा
आत्मा की शराब
पीओ। और जब तुम्हें
बेहतर शराब
मिलने लगेगी
तो कौन उर्स पीता
है! जब
तुम्हें भीतर
की शराब मिलने
लगेगी तो कौन
बाहर की शराब
पीता है! जब
तुम्हें परमात्मा
की शराब मिलने
लगेगी तो फिर
कौन छुद्र बातों
में उलझता है!
वे अपने से
छूट जाती हैं।
बुद्ध
ने उसकी निंदा
नहीं की, लेकिन
उसके लिए
द्वार खोला।
बुद्ध
ने कहा विजय
मूल्यवान
नहीं है फिर
सत्य को
छोड्कर जो
विजय मिले भी
वह हार से भी
बदतर है हत्थक!
उसका
सार क्या!
प्रयोजन क्या!
सत्य ही
एकमात्र
मूल्य है। और
जहां सत्य है, वहीं
असली विजय है।
अगर तू जीतना
ही चाहता है तो
सत्य के साथ
ही जीत।
सत्यमेव
जयते। सत्य
जीतता है, हम
थोड़े ही जीतते
हैं, बुद्ध
ने कहा। हम
सत्य के साथ
हो जाते हैं
तो हम भी जीत
जाते हैं।
असत्य हारता
है। असत्य के साथ
हो जाते हैं, हम भी हार
जाते हैं। और
असत्य से जो
जीत मिलती है,
वह सिर्फ
धोखा है। वह क्षणभर
का धोखा है।
वह ज्यादा देर
न टिकेगा, वह
बबूले की तरह
टूट जाएगा।
सत्य के साथ
हार जाना भी
विजय और
सौभाग्य है।
धन्यभागी हैं
वे, जो
सत्य की
यात्रा में
हार जाएं। और
अभागे हैं वे,
जो असत्य की
यात्रा में
जीत जाएं।
भिक्षु
ऐसा करके तो
तू श्रमण नहीं
होगा।
उससे
कहा कि देख, तू
संन्यस्त हुआ,
तूने श्रमण
होने की
आकांक्षा की
है, तू
साधु हुआ, ऐसे
तो तू श्रमण न
हो सकेगा।
क्योंकि
जिसने सभी
महत्वाकांक्षाओं
को शमित कर
लिया वही
श्रमण है। और
यह तो बड़ी
विक्षिप्त
महत्वाकांक्षा
है,
विजय की
महत्वाकांक्षा
। और ऐसे झूठे
उपाय कर रहा
है! तभी
उन्होंने ये
सूत्र कहे—
न
मुंडकेन समणो
अब्बतो
अलिणं भणं।
इच्छालाभ
समापन्नो
समणो किं
भविस्सति ।।
यो
च समेति पापनि
अणु थूलानि
सब्बनि।
समितत्ता
हि पापानं
समाणोति
पवुच्चति ।।
'जो
व्रतरहित और
मिथ्याभाषी
है, वह
मुडित मात्र
हुआ होने से
श्रमण नहीं
होता। इच्छालाभ
से भरा हुआ
पुरुष क्या
श्रमण होगा?'
'जो छोटे —बड़े
पापों का
सर्वथा शमन
करने वाला है,
वह पापों के
शमन के कारण
ही श्रमण
कहलाता है।
'
जरा
खयाल करना, व्यक्तिगत
रूप से उससे
कुछ भी नहीं
कह रहे हैं।
निवैंयक्तिक
सत्य कह रहे
हैं। ऐसा नहीं
कहा कि तू
पापी है। ऐसा
नहीं कहा कि
तू संन्यासी
नहीं है। भेद
समझना। उससे
तो कुछ कहा ही
नहीं
सीधा—सीधा।
सिर्फ एक
सार्वलौकिक
सत्य की
उदघोषणा की।
उसको तो जैसे
प्रसंग में ही
न लिया। जैसे
वह तो केवल एक
निमित्त था, उस निमित्त
एक धार्मिक
उदघोषणा की।
'जो व्रतरहित
और
मिथ्याभाषी
है, वह
मुडित मात्र
होने से श्रमण
नहीं होता। ' उससे नहीं
कहा कि तू
श्रमण नहीं
है। वह तो निंदा
हो जाती। उससे
नहीं कहा कुछ
भी कि तू पापी
है, कि तू
साधु नहीं है,
कि तू असाधु
है, उससे
तो कुछ बात ही
नहीं कही।
सदगुरु
सार्वभौम
सत्य बोलते
हैं।
व्यक्तियों
से भी बोलते
हैं तो भी
व्यक्तियों को
सीधा संबोधित
नहीं करते।
क्योंकि
व्यक्ति को
सीधा संबोधित
करने में
व्यक्ति को
झिझक होगी, संकोच
होगा, ग्लानि
होगी। फिर वह
झूठ बोलने
लगेगा। फिर वह
गुरु के सामने
भी सीधा—सीधा
प्रगट न हो
सकेगा। कोई तो
शरण चाहिए
जहां सब हम
अपने मन का
भार उतारकर रख
सकें। और जहां
हमें एक भरोसा
हो कि निंदा न
मिलेगी, अपमान
न मिलेगा।
'जो
व्रतरहित और
मिथ्याभाषी
है, वह
मुंडित मात्र
होने से
संन्यस्त
नहीं होता। और
इच्छालाभ से
भरा हुआ पुरुष
तो कैसे संन्यासी
होगा?'
इच्छालाभ!
प्रतिएकर्धा।
विजय की
आकांक्षा। महत्वाकांक्षा।
एंबिशन।
'जो छोटे—बड़े
पापों का
सर्वथा शमन
करने वाला है…....। '
कहा—छोटे—बड़े
पापों का।
क्योंकि पाप
वस्तुत: न
छोटे होते, न
बड़े। पाप तो
बस पाप है।
ऐसा थोड़े ही
है कि तुमने
दो लाख की
चोरी की तो
बड़ी चोरी की
और दो पैसे चुराए
तो छोटी चोरी
की। चोरी तो
चोरी है। दो पैसे
की उतनी ही है,
जितनी दो
लाख की है।
क्योंकि चोरी
का कोई संबंध
तुमने कितना
चुराया है, उससे नहीं
है, तुमने
चुराया बस
इससे है।
अब
इस भिक्षु हत्थक
ने कोई बड़ा
पाप नहीं किया
था। किसी की
हत्या नहीं की, किसी
की पत्नी नहीं
ले भागा, कहीं
जुआ नहीं खेला,
कोई शराब
नहीं पी ली थी,
जरा सा झूठ।
और वह भी इस
आकांक्षा में
कि बुद्ध का वचन
विपरीत
संप्रदायों
के मुकाबले
विजयी घोषित
हो। कोई बड़ा
पाप नहीं किया
था। लेकिन
छोटा ही सही!
मगर छोटा कहीं
पाप होता? पाप
तो पाप ही है।
झूठ तो झूठ ही
है। छोटा झूठ,
बड़ा झूठ, सब बराबर
होते। उनकी
मात्राओं में
कभी कोई भेद
नहीं होता।
छोटी चोरी, बड़ी चोरी, सब बराबर
होती है।
आशो
एस धम्मो
सनंतनो
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