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शनिवार, 29 नवंबर 2014

आलवी में बुद्ध ने एक निर्धन उपासक को भोजन कराया—(कथायात्रा—049)

 आलवी में बुद्ध ने एक निर्धन उपासक को भोजन कराया—कथा—यात्रा

क समय भगवान पांच सौ भिक्षुओं के साथ आलवी नगर आए आलवी नगरवासियों ने भगवान को भोजन के लिए निमंत्रित किया उस दिन आलवी नगर का एक निर्धन उपासक भी भगवान के आगमन को सुनकर धर्म—श्रवण के लिए मन किया। किंतु प्रात: ही उस गरीब के दो बैलों में से एक कहीं चला गया सो उसे बैल को खोजने जाना पड़ा बिना कुछ खाए— पीए ही दोपहर तक वह बैल को खोजता रहा बैल के मिलते ही वह भूखा— प्यासा ही बुद्ध के दर्शन को पहुंच गया उनके चरणों में झुककर धर्म—श्रवण के लिए आतुर हो पास ही बैठ गया।


लेकिन बुद्ध ने पहले भोजन बुलाया। उसके बहुत मना करने पर भी पहले उन्होंने जिद की और उसे भोजन कराया। फिर उपदेश की दो बातें कहीं। वह उन थोड़ी सी बातों को सुनकर ही स्रोतापत्ति— फल को उपलब्ध हो गया भगवान के द्वारा किसी को भोजन कराने की यह घटना बिलकुल नयी थी ऐसा पहले कभी उन्होंने किया न था—और न फिर पीछे कभी किया तो बिजली की भांति भिक्षु— संघ में
चर्चा का विषय बन गयी अंतत: भिक्षुओं ने भगवान से जिज्ञासा की। तो उन्होंने कहा भूखे पेट धर्म नहीं। भूखे पेट धर्म समझा जा सकता नहीं भिक्षुओ भूख के समान और कोई रोग नहीं है।
और तब उन्होंने यह गाथा कही—

जिधच्छा परमा रोना संखारा परमा द्रुखा।
एतं जत्वा यकभूतं निबानं परमं सुखं ।।

'भूख सबसे बडा रोग है, संस्कार सबसे बड़े दुख हैं। ऐसा यथार्थ जो जानता है, वही जानता है कि निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।
इस बात को समझना।
भूख को सबसे बड़ा रोग कहा बुद्ध ने। क्यों. क्योंकिन्नब भूख प्रगाढ़ हो, पेट भरा न हो, तो सारी चेतना पेट के इर्द—गिर्द ही घूमती है। जब शरीर भूखा हो तो चेतना ऊंचाइयों पर उड़ ही नहीं सकती। शरीर के आसपास ही मंडराती है।
एक सत्य तुमने देखा होगा, पैर में कांटा चुभ जाए तो फिर चेतना वहीं—वहीं घूमती है न! एक दात टूट जाए तो चेतना वहीं—वहीं घूमती है न! सिर में दर्द हो तो चेतना वहीं—वहीं घूमती है न! जहां पीड़ा हो, चेतना वहीं रुक जाती है।
इसलिए हमारे पास जो शब्द है—वेदना, वह बहुत अदभुत है। वेदना के दो अर्थ होते हैं, बोध और दुख। वेदना बना है विद से, जिससे वेद बना है। इसलिए उसका एक अर्थ होता है, बोध, ज्ञान। और वेदना का दूसरा अर्थ होता है, दुख, पीड़ा। एक ही शब्द के ये दो अर्थ और बड़े अजीब से! जिनका कोई तालमेल नहीं। लेकिन तालमेल है।
जब दुख होता है, तो वहीं सारा बोध संगृहीत हो जाता है। जहा दुख है, वहीं बोध संगृहीत हो जाता है। फिर दुख से हटना मुश्किल हो जाता है। अब जो आदमी भूखा है, उसके लिए शरीर ही शरीर दिखायी पड़ता है। कहां आत्मा की बातें! हम कहते हैं न—भूखे भजन न होहि गुपाला। अब एक आदमी भूखा है, अगर भगवान की प्रार्थना भी करे, तो कुछ होगा नहीं। सारी प्रार्थना पर भूख छा जाएगी।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि दरिद्रता के कारण दुनिया में धर्म बढ़ नहीं पाता। केवल समृद्ध समाज ही धार्मिक हो सकते हैं। और बुद्ध के समय में, महावीर के समय में इस देश ने बड़ी ऊंचाई ली, क्योंकि देश बड़ा समृद्ध था।
तुम थोड़ा सोचो, महावीर चालीस हजार भिक्षुओं को अपने साथ लेकर घूमते थे। हर गांव की इतनी संभावना थी, क्षमता थी कि चालीस हजार भिक्षुओं को खिला सके। बुद्ध भी पचास हजार भिक्षुओं को लेकर घूमते थे। गांव—गाव की इतनी क्षमता थी कि पचास हजार भिक्षुओं को खिला सके। कभी तीन मास, चार मास वर्षा में एक जगह भी रुकते थे। तो पचास हजार भिक्षुओं को खिलाना, क्षमता की बात थी। आज तो पूरा गाव भी पांच भिक्षुओं को खिलाने में समर्थ नहीं रह गया है। संपन्न था देश, खूब समृद्ध था। सोने की चिड़िया ऐसे झूठे ही नहीं कहा जाता था! बुद्ध के समय में इस देश ने सबसे ऊंचा शिखर देखा समृद्धि का। उस समृद्धि के शिखर पर ही बुद्ध और महावीर प्रगट हुए। फिर दुबारा बुद्ध और महावीर के प्रगट होने का उपाय न हुआ।
इसलिए यह कुछ आश्चर्य की बात नहीं है कि आज अमरीका में धर्म के संबंध में प्रगाढ़ रस है। होगा ही। होना ही चाहिए। जहां समृद्धि है, जहा पेट पूरी तरह भर गया है, वहां आत्मा का खालीपन दिखायी पड़ने लगता है। इनमें सीढ़ी दर सीढ़ी संबंध है। जिस आदमी ने नींव भर ली मकान की वही तो दीवालें उठाएगा न 1 नींव ही नहीं भरी तो दीवाल कैसे उठेगी? और जिसने दीवाल उठा ली वह छप्पर रखेगा। दीवाल ही नहीं उठी तो छप्पर कैसे रखेगा? और छप्पर उठ गया तो फिर स्वर्ण का कलश, स्वर्ण—कलश चढ़ाएगा।
धर्म तो स्वर्ण—कलश है। धर्म तो आखिरी ऊंचाई है। उसके पार तो फिर कुछ भी नहीं है। जिसने नीचाइयों की सुविधाएं अभी नहीं जुटायी, वह ऊंचाइयों के सपने भला देखे, लेकिन सत्य में उन्हें उपलब्ध न हो सकेगा।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि कोई गरीब व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता 1 गरीब व्यक्ति चेष्टा करके अपवाद हो सकता है। लेकिन गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता है। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि समृद्ध समाज अनिवार्य रूप से धार्मिक हो जाएगा, लेकिन समृद्ध समाज की धार्मिक होने की संभावना है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हर समृद्ध व्यक्ति धार्मिक हो जाएगा। लेकिन समृद्ध व्यक्ति की धर्म की तरफ उत्सुकता बढ़ने की ज्यादा संभावना है बजाय असमृद्ध व्यक्ति के।
हमारे भीतर तीन तल हैं—शरीर की जरूरतें हैं, फिर मन की जरूरतें हैं, फिर आत्मा की जरूरतें हैं। शरीर की जरूरतें हैं—रोटी, रोजी, कपड़ा, मकान। फिर मन की जरूरतें हैं—संगीत, साहित्य, कला। अब जिसका भूख से भरा पेट है, वह शेक्सपियर पढ़ेगा? कैसे पढ़ेगा! कालिदास को समझेगा? कैसे समझेगा! शास्त्रीय संगीत सुन पाएगा? इधर पेट में भूख कचोटती होगी, शास्त्रीय संगीत नहीं समझ पाएगा, न सुन पाएगा। मन की जरूरतें। जब मन की जरूरतें भी भर जाती हैं, शास्त्रीय संगीत में भी अब कुछ नहीं दिखायी पड़ता, वह संगीत भी चुक गया, अब किसी और बड़े संगीत की खोज शुरू होती है, तब ध्यान। एक ऐसे संगीत की खोज शुरू होती है जहां वाद्य की भी जरूरत नहीं रह जाती। एक ऐसे संगीत की खोज शुरू होती है जो भीतर बज ही रहा है, जिसको बजाना नहीं पड़ता—अनाहत नाद—जो अपने से बज रहा है—ओंकार—तब आत्मा की जरूरतें शुरू होती हैं।
तो बुद्ध ने ठीक कहा कि ' भूख सबसे बड़ा रोग है। संस्कार सबसे बड़े दुख हैं। ऐसा यथार्थ जो जानता है वही जानता है कि निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।
उन्होंने उस भूखे आदमी को भोजन कराया। लेकिन यह बात एक ही दफा घटी है, यह भी खयाल रखने जैसी बात है। ऐसा बुद्ध ने बार—बार नहीं किया। क्योंकि यह भूखा आदमी सिर्फ भूखा आदमी ही नहीं था, इस भूखे आदमी के भीतर बड़ी मुमुक्षा थी। यह बड़ी प्रगाढ़ता से आकांक्षा कर रहा था परमात्मा के खोज की, सत्य के खोज की—या जो भी नाम दो। यह सिर्फ भूखा होता तो बुद्ध को इसमें कोई विशेष उत्सुकता नहीं थी। उत्सुकता इसलिए थी कि इसके भीतर एक और बड़ी भूख थी जो इस छोटी भूख के कारण दबी पड़ी थी। इसके भीतर एक बड़ी भूख का अंकुर फूट रहा था, जो नहीं फूट पा रहा था, क्योंकि यह छोटी भूख इसे खाए जा रही थी।
यह सुबह ही से बुद्ध का ही स्मरण करता घूम रहा था। खोज रहा था बैल को, स्मरण कर रहा था बुद्ध का। इतनी जल्दी थी इसे कि घर से बिना खाए—पीए निकल पड़ा था कि जल्दी—जल्दी बैल को खोजकर बुद्ध के पास पहुंच जाऊं। फिर इतनी जल्दी थी, इतनी आतुरता थी कि बैल मिल गया तो उसे किसी तरह बांध—बूंधकर खेत—खलिहान में, भागा! घर नहीं गया कि दो रोटी खा ले। भागा! कि पहले बुद्ध को सुन लूं। इसकी धर्म की प्यास निश्चित प्रगाढ़ रही होगी।
तुम तो छोटे—छोटे कारणों से चूक जाओ। कभी ध्यान नहीं करते, क्योंकि कहते हो कि आज जरा शरीर स्वस्थ नहीं है। कभी कहते हो, आज ध्यान कैसे करें, घर में मेहमान आए हैं। कभी कहते हो, आज ध्यान कैसे करें, आज जरा दफ्तर में थक गए। आज कैसे ध्यान करें, आज कैसे ध्यान करें, तुम बहाने खोजते रहते हो।
इस आदमी ने बहाना नहीं खोजा। इसके पास बहाने काफी थे—बैल खो गया, अब कहां बुद्ध के पास जाएं! बैल खोजें कि बुद्ध को खोजें! बात छोड़ देता। तुम होते तो बात ही छोड़ दिए होते। फिर बैल भी मिल गया होता तो कहता, अब दोपहरी भर थका—माँदा हूं घर थोड़ा भोजन करूं, विश्राम करूं, फिर देख लेंगे, ऐसी जल्दी क्या है! और बुद्ध कोई भागे थोड़े ही जाते हैं!
इसकी बड़ी प्रगाढ़ आकांक्षा रही होगी कि भूखा ही आ गया। इसका कुम्हलाया हुआ चेहरा, इसका भूखा पेट, यह थका—मादा जब बुद्ध के चरणों में झुका होगा तो उन्होंने देखा होगा—इसका शरीर ही भूखा नहीं है, इसकी आत्मा भी भूखी है। यह सच में ही. तो उन्होंने बड़ी जिद्द की कि तू पहले भोजन कर। उन्होंने खुद भोजन बुलाया। अब बुद्ध के पास कहां भोजन! किसी को दौड़ाया कि जल्दी गांव से भोजन लेकर आओ ' भिक्षुओं में चर्चा की बात उठ ही गयी होगी कि यह कौन विशिष्ट आदमी आ गया, एक गंवार सा किसान है! बुद्ध इसमें क्या देख रहे हैं?
जो कभी—कभी तुम्हें नहीं दिखायी पड़ता, वह बुद्धों को दिखायी पड़ता है। क्योंकि तुम्हें तो हीरे तभी दिखायी पड़ते हैं, जब जौहरी उन्हें साफ—सुथरा करके, निखारकर, पालिश करके रख देते हैं, तब दिखायी पड़ते हैं। बुद्धों को तो हीरे तब दिखायी पड़ जाते हैं जब वे पत्थर की तरह पड़े हैं। जब उनमें कोई चमक नहीं है। यह एक अनगढ़ हीरा था। यह चमक सकता था। यह पत्थर नहीं था।
बुद्ध ने उसे भोजन कराया पहले, फिर उसे दो शब्द कहे, ज्यादा नहीं, और कथा कहती है कि उन दो शब्दों को, उन थोड़ी सी बातों को सुनकर ही वह स्रोतापत्ति—फल को उपलब्ध हो गया।
स्रोतापत्ति—फल का अर्थ होता है, जो व्यक्ति बुद्ध की धारा में प्रविष्ट हो गया। स्रोतापन्न हो गया। जो बुद्ध की चेतना में प्रविष्ट हो गया। जो नदी में उतर गया। किनारे पर खड़ा था, उसने कहा, ठीक, अब मैं आता हूं, अब चलता हूं सागर की तरफ। स्रोतापत्ति। यह बुद्ध की साधना पद्धति में सबसे महत्वपूर्ण फल है। क्योंकि फिर शेष सब इसके बाद ही होगा। जो धारा में ही नहीं उतरा है वह तो सागर कब—कैसे पहुंचेगा? उसके तो पहुंचने का कोई उपाय नहीं है।
वहां ऐसे लोग थे जो वर्षों से बुद्ध को सुन रहे थे और अभी स्रोतापत्ति—फल को उपलब्ध नहीं हुए थे। अभी किनारे ही पर खड़े सोच—विचारकर रहे थे, दुविधा में पड़े थे—करें कि न करें? जंचती भी है बात कुछ, नहीं भी जंचती है बात कुछ। इसने कुछ सोच—विचार न किया। इसने तो बुद्ध के दो शब्द सुने और इसने कहा, बस काफी है। डूब गया। स्रोतापत्ति—फल का अर्थ होता है, डूब गया, डुबकी ले ली। बुद्धमय हो गया।
भिक्षुओं ने भगवान से जिज्ञासा की कि बात क्या है? ऐसा सम्मान आपने कभी किसी को दिया नहीं। भोजन करवाने की आपने कभी किसी को चेष्टा नहीं की। अक्सर तो ऐसा होता है कि लोगों को आप समझाते हैं, उपवास करो। इस आदमी को उलटा भोजन करवाया।
उपवास का सूत्र भी आगे आता है।
ओशो
एस धम्‍मो सनंतनो

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