दिनांक
2 सितम्बर, 1973;
तृतीय
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल,
बम्बई
ब्राह्मण-सूत्र
: 2
दिव्व-माणुसत्तेरिच्छं, जो
न सेवइ मेहुणं।
मणसा
काय-वक्केणं, तं
वयं बूम माहणं ।।भ
जहा पोम्मं
जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा।
एवं
अलित्तं कामेहिं, तं
वयं बूम माहणं ।।
आलोलुयं मुहाजीविं,
अणगारं अकिंचणं।
असंसत्तं गिहत्थेसु,
तं वयं बूम माहणं ।।
जो
देवता, मनुष्य
तथा तियच
संबंधी सभी
प्रकार के
मैथुन का मन, वाणी और
शरीर से कभी
सेवन नहीं
करता, उसे
हम ब्राह्मण
कहते हैं।
जिस
प्रकार कमल जल
में उत्पन्न
होकर भी जल से
लिप्त नहीं
होता, उसी
प्रकार जो
संसार में
रहकर भी
काम-भोगों से
सर्वथा
अलिप्त रहता
है, उसे हम
ब्राह्मण
कहते हैं।
जो
अलोलुप है, जो
अनासक्त-जीवी
है। जो अनगार
(बिना घरबार
का) है। जो
अकिंचन है, जो गृहस्थों
के साथ आने
वाले संबंधों
में अलिप्त है,
उसे हम
ब्राह्मण
कहते हैं।
इस
सदी के
प्राथमिक चरण
में सिगमंड
फ्रायड ने पश्चिम
के लिए और
आधुनिक
मनुष्य के लिए
एक बड़ी महत्वपूर्ण
खोज की। खोज
नयी नहीं है।
पूरब के मनीषी
उससे सदा से
परिचित रहे
हैं। पुनर्खोज
है;
लेकिन
आधुनिक
मनुष्य के लिए
नये की तरह ही
है।
फ्रायड
ने मनुष्य का
विश्लेषण
किया और पाया
कि कामवासना
मनुष्य के
प्राणों में
सबसे गहरी पर्त
है;
जैसे
मनुष्य का
जीवन
कामवासना के
आस-पास ही घूमता
और भटकता है।
स्वाभाविक है
कि ऐसा हो।
क्योंकि
मनुष्य का
जन्म होता है
कामवासना से।
मनुष्य के
शरीर का
प्रत्येक कण
काम-कण है।
जिन पहले
परमाणुओं से,
जीव-कोष्ठों
से मनुष्य
निर्मित होता
है, वे ही
कामवासना के
कण हैं। फिर
उन्हीं कणों
का विस्तार
मनुष्य के
पूरे शरीर को
निर्मित करता
है। इसलिए
कामवासना तो
रोएं-रोएं में
समायी
हुई है। एक-एक
कोष्ठ शरीर का
कामवासना से
ही भरा हुआ
है।
स्वाभाविक है
कि कामवासना
की प्रगाढ़
पकड़ आदमी के
जीवन में हो।
वह जो भी करे, जिस भांति
भी जीये, जो भी सोचे, स्वप्न देखे,
उन सब में
कहीं न कहीं
कामवासना
मौजूद होगी।
फ्रायड
की यह खोज तो
कीमती है।
कीमती इस
लिहाज से कि
सत्य है ; लेकिन
खतरनाक भी, क्योंकि
अधूरी है, और
अधूरे सत्य
असत्य से भी
ज्यादा
खतरनाक हो जाते
हैं।
यह
मनुष्य की
प्राथमिक
भूमिका है
कामवासना, लेकिन
यह उसका अंत
नहीं है। यह
बीज है। यह
फूल नहीं है।
यहां से
मनुष्य शुरू
होता है, लेकिन
यहां समाप्त
नहीं होता। और
जो प्राथमिक
जीवन की पर्त
पर ही नष्ट हो
जाते हैं, वे
जीवन के शिखर
को और जीवन के
गौरव को जानने
से वंचित रह
जाते हैं।
ईसाइयत
ने बड़ा विरोध
किया फ्रायड
का। वह विरोध
निकम्मा
साबित हुआ।
क्योंकि उस
विरोध में सिर्फ
भय था, सत्य
नहीं था।
ईसाइयत डरी कि
अगर लोग समझ
लें कि
कामवासना ही
जीवन का मूल
आधार है, उत्स
है, स्त्रोत
है, तो फिर
लोगों को
परमात्मा तक
ले जाना
मुश्किल हो
जायेगा।
लेकिन पूरब इस
बात से राजी
है कि कामवासना
उत्स है, स्त्रोत
है, गंगोत्री
है जहां से
धारा बहती है।
लेकिन वह अंतिम
सागर नहीं है,
जहां गंगा
गिरती है, और
हमें कभी कोई
अड़चन नहीं रही
स्वीकार करने
में कि निम्न
से परम का
जन्म हो सकता
है। क्योंकि
हमारी दृष्टि
में निम्न और
श्रेष्ठ में
बुनियादी रूप
से कोई अंतर
नहीं है।
निम्न हम उसे
ही कहते हैं, जहां
श्रेष्ठ बीज
में छिपा हुआ
है और श्रेष्ठ
हम उसे ही
कहते है जहां
निम्न
रूपांतरित
हुआ, प्रगट
हुआ, अभिव्यक्त
हुआ, परिशुद्ध
हुआ।
निम्न
और श्रेष्ठ
विरोधी नहीं
हैं,
एक ही उर्जा
के दो आयाम
हैं। जैसा
मैंने कल कहा
मिट्टी और
कमल। हम
कामवासना को
मिट्टी मानते
हैं। और इस
कामवासना में
अगर समाधि का
फूल खिल जाये,
तो उसे हम
कमल मानते
हैं। मिट्टी
और कमल में विरोध
नहीं है, गहरी
मैत्री है।
कला आनी चाहिए
मिट्टी को कमल
बनाने की।
तो
पूरब ने दो
तरह की कलाएं
विकसित कीं
मनुष्य को
कामवासना के
पार ले जाने
वाली। उनमें
एक कला है
"तंत्र' की और
एक कला है "योग'
की। तंत्र
कहता है, जहर
का उपयोग अमृत
की तरह किया
जा सकता है।
और तंत्र कहता
है, जो
विकृत है, जो
रुग्ण है, उसे
भी स्वस्थ
किया जा सकता
है। जहां जीवन
नीचा मालूम
पड़ता है, उस
नीची सीढ़ी का
उपयोग भी ऊपर चढ़ने के
लिए किया जा
सकता है।
पत्थर भी, मार्ग
के रोड़े भी, सोपान बनाये
जा सकते हैं।
तो
तंत्र निषेध
नहीं करता
कामवासना का।
और तंत्र कहता
है,
कामवासना
का इस भांति
उपयोग किया जा
सकता है कि उसके
उपयोग से ही
व्यक्ति उसके
पार चला जाये।
योग ठीक दूसरी
तरफ से खोज
करता है। योग
कहता है, कामवासना
के उपयोग की
भी कोई जरूरत
नहीं है। कामवासना
का बिना उपयोग
किये ही
कामवासना के प्रति
साक्षीभाव
साधा जा सकता
है। और जिस
मात्रा में साक्षीभाव
सधता है, उसी
मात्रा में
कामवासना से
आत्मा के
संबंध टूटते
चले जाते हैं।
ये
दोनों
परंपराएं
बिलकुल
विपरीत हैं और
बिलकुल एक ही
मंजिल पर ले
जाती हैं। और
जो ज्ञानी इस
बात को नहीं
समझ पाता, वह
कुछ भी नहीं
समझ पाया है।
विपरीत
मार्गों से भी
एक मंजिल पर
पहुंचा जा
सकता है।
तंत्र और योग
में कोई
संघर्ष नहीं
है,
साधन का
संघर्ष है,अंतिम
लय का कोई
संघर्ष नहीं
है। महावीर
महायोगी हैं।
इसलिए महावीर
तंत्र की किसी
प्रक्रिया के
समर्थन में
नहीं हैं।
महावीर कहते
हैं :
कामवासना
जैसी है, उसका
बिना उपयोग
किये छोड़ देना
जरूरी है। वे
कहते हैं; जितना
उपयोग किया
जाये, उतना
ही डर है कि
आदत प्रगाढ़
होती चली
जाये।
उनका
भय भी ठीक है।
सौ में से
निन्यानबे
आदमियों के
लिए यही ठीक
मालूम पड़ेगा
कि खतरे से
दूर रहें।
क्योंकि खतरे
की आदत भी बन
सकती है। और हम
न भी चाहें, तो
भी एक
यांत्रिक आदत
के जाल में
फंस जाते हैं।
अधिक लोग
कामवासना में
इसलिए उतरते
हैं कि वह एक
रोज की आदत हो
गयी है; कुछ
रस भी नहीं
पाते; कुछ
सुख भी नहीं
मिलता। शायद
कामवासना से
गुजर कर दुख
ही मिलता है; विषाद मिलता
है, रुग्णता
मिलती है और
ऐसा लगता है
कुछ खोया। लेकिन
फिर भी एक
बंधी हुई आदत
है और आदमी उस
आदत के पीछे दौड़ा चला
जाता है।
महावीर
कहते हैं कि
कठिन है यह
बात कि आदमी
कामवासना के
बीच कामवासना
का उपयोग करके
पार हो सके; क्योंकि
कामवासना
इतनी प्रगाढ़
है; उसका
पंजा इतना
मजबूत है। तो
उचित यही है
कि उसका उपयोग
ही न किया
जाये और उससे
साक्षी-भाव
साधा जाये।
लेकिन जैसा
तंत्र का खतरा
है कि आदत बन
जाये, वैसे
ही योग का
खतरा है कि
दमन बन जाये।
खतरे
तो हर मार्ग
पर हैं। जो
चलेगा उसके
लिये खतरा है; जो
नहीं चलता, उसके लिए
कोई खतरा नहीं
है। जो चलेगा
वह भटक सकता
है, इसलिए
भटकने से मत
डरना।
क्योंकि जो
भटकने से बहुत
डरता है, वह
चलता ही नहीं।
भटकने वाले भी
कभी न कभी पहुंच
जायेंगे, लेकिन
जो चलते ही
नहीं, वे
कभी भी नहीं
पहुंच सकते।
इसलिए भूल
करने से कभी
भयभीत मत
होना। भूल सुधारी
जा सकती है।
लेकिन भूल से
कोई इतना
भयभीत हो जाये
कि कुछ करे ही
नहीं कि कहीं
भूल न हो जाये,
तो फिर
सुधार का कोई
उपाय नहीं है।
जीवन
में एक ही असलफता
है,
और वह है
प्रयास ही न
करना। गलत
प्रयास भी कभी
न कभी सफल हो
जाता है।
लेकिन प्रयास
ही कोई न करे, तब तो सफलता
का कोई उपाय
नहीं है।
हिम्मत
से भूल करना, हिम्मत
से भटकने की तैयारी
रखना; क्योंकि
जो भटक सकता
है, वह
पहुंच भी सकता
है। भटकने में
भी पैर ही चलते
हैं, श्रम
होता है, संकल्प
होता है। एक
बात निश्चित
है कि अगर कोई
चलता ही जाये
तो कितना ही
लंबा भटकाव हो,
पार हो
जायेगा।
क्योंकि जो
चलने को तैयार
है, वह आज
नहीं कल समझने
लगेगा कि मैं
भटक रहा हूं।
जहां-जहां भटक
रहा हूं, वहां-वहां
से पैर मुड़ने
लगेंगे।
तंत्र
का खतरा है कि
हम अपने को
धोखा न दे रहे
हों कि हम
सोचें कि हम
कामवासना का
उपयोग कर रहे
हैं,
और उपयोग
कर-कर के हम
धीरे-धीरे
मुक्ति की अवस्था
में पहुंच
जायेंगे, और
यह कामवासना
हमारी आदत बन
जाय। और
निकलना तो दूर
हो, हम और
इसके गहरे जाल
में फंसते
चले जायें।
क्योंकि
जितना अभ्यास
होता चला जाता
है, उतनी
आदतें जंजीर
की तरह मजबूत
होती चली जाती
हैं।
योग का
भी खतरा है।
योग का खतरा
है कि
साक्षी-भाव के
नाम पर कहीं
हम दमन न करने
लगें, कहीं हम
वासनाओं को
दबा न लें; क्योंकि
दबी हुई
वासनाएं जहर
हो जाती हैं; और दबा हुआ
चित्त बुरी
तरह कामुक हो
जाता है।
आप
जानकर हैरान
होंगे, साधारण
मनुष्य इतना
कामुक नहीं
होता, जितना
दमित व्यक्ति
कामुक हो जाता
है और दमित व्यक्ति
को सब तरफ
कामवासना ही
दिखायी पड़ने लगती
है। क्योंकि
जो आप दबाते
हैं, उसकी
पर्त आपकी आंख
पर फैल जाती
है। वह आपका चश्मा
बन जाता है।
और कामवासना
को दबाया हुआ
आदमी
खोद-खोदकर
जगह-जगह
कामवासना
देखने लगता है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी ने
पुलिस में
रिपोर्ट की कि
मेरे मकान के
पास ही जो नदी
बहती है, वहां
कुछ युवक नग्न
स्नान कर रहे
हैं। मेरे चौके
की खिड़की से
वे मुझे
दिखायी पड़ते
हैं। यह बर्दाश्त
के बाहर है।
यह अशोभन है; अश्लील है।
पुलिस को
तत्क्षण कुछ
करना चाहिए।
पुलिस
आयी;
युवकों को
समझाया। युवक
पहले तो थोड़े
रुष्ट हुए, फिर राजी हो
गये, और आधा
मील दूर नदी
में नीचे चले
गये। लेकिन
घंटे भर बाद
फिर श्रीमती नसरुद्दीन
का फोन पुलिस
स्टेशन आया कि
पुलिस कुछ करे;
लड़के अभी भी
नदी में नहा
रहे हैं और
नग्न हैं। लेकिन
पुलिस के
अधिकारी ने
कहा कि देवी, अब वे आधा
मील दूर चले
गये हैं। अब
तुम्हारी खिड़की
से उन्हें
देखने का कोई
उपाय भी नहीं
है।
श्रीमती
नसरुद्दीन
ने कहा, "उपाय
है! विद माइ
बायनाक्यूलर्स
आइ कैन सी देम--मैं
अपनी दूरबीन
से देख सकती
हूं।
कठिनाई
नग्न लड़कों के
स्नान में
नहीं थी, कठिनाई
कहीं श्रीमती नसरुद्दीन
के मन में ही
है। दमित
व्यक्ति ऐसी
कठिनाई से भर
जाता है। वह
दूरबीन ले
लेता है और सब
तरफ वह एक ही चीज
की तलाश करता
रहता है।
होगा
ही। क्योंकि
जो दबाया है, वह
बदला लेगा।
जीवन बदला
लेगा। जिस
वासना को आपने
जोर से दबा
लिया है, वह
प्रतीक्षा कर
रही है कि कब
आप पर कब्जा
कर ले, कब
आपको जकड़ ले।
लेकिन
हमें दिखायी
नहीं पड़ता।
योग का खतरा
हमें कम
दिखायी पड़ता
है तंत्र का
खतरा ज्यादा
दिखायी पड़ता
है। इसी कारण
तंत्र
सार्वभौम
नहीं बन पाया
और योग का
काफी प्रभाव
हुआ। क्योंकि
दमन ज्यादा
सूम है और व्यक्ति
को अपने भीतर
करना होता है; और
उसकी खबर किसी
को भी नहीं
मिलती।
मैं
साधुओं से
मिलता हूं। और
जब भी साधु
मुझे एकांत
में मिलते हैं, तो
उनकी परेशानी
कामवासना
होती है। और
वे मुझे कहते
हैं, "कोई
रास्ता
बतायें।
वर्षों हो गये;
उपवास करते
हैं, सामायिक
करते हैं, शास्त्र
पढ़ते हैं, अध्ययन,
मनन, स्वाध्याय
सब करते हैं।
अपने को सब
भांति रोका है,
निग्रहीत किया है; लेकिन
वासना जाती
नहीं, बल्कि
बढ़ती चली जाती
है।
अगर
साधुओं के
स्वप्न जांचे
जायें, तो वे
सदा ही
कामवासना के
होंगे।
क्योंकि जो दिन
में दबाया है,
वह रात
चेतना को पकड़
लेता है।
इसलिए साधु
रात सोने तक
से डरने लगते
हैं, भयभीत
हो जाते हैं।
जीवन
इतनी आसान बात
नहीं है। जीवन
जटिल है, और
उसके साथ
अत्यंत
कलात्मक
व्यवहार करने
की जरूरत है।
दमन कोई कला
नहीं है, बिलकुल
ग्रामीण, असंस्कृत,
अज्ञान से
भरी हुई
प्रक्रिया
है।
किसी
चीज को आप
दबाते हैं; जब
आप दबाते हैं
तो आप क्या कर
रहे हैं? उसे
और भीतर सरका
रहे हैं। वह
जितने भीतर
चली जायेगी, आप पर उसकी
शक्ति उतनी ही
ज्यादा हो
जायेगी। इसिलए
यह अकसर हो
जाता है कि जो
लोग कामवासना
में ही जीते
रहते हैं, वे
धीरे-धीरे
कामवासना से
ऊब जाते हैं।
उनका रस चला
जाता है।
लेकिन जो लोग
कामवासना से
लड़ते रहते हैं,
मरते दम तक
उनका रस नहीं
जाता है।
साधारण
गृहस्थ, जीवन
की साधारण
धारा में
बहते-बहते एक
दिन ऊब जाता
है, लेकिन
साधु नहीं ऊब
पाता; क्योंकि
ऊबने का उसे
मौका नहीं
मिला। उसकी वासना
ताजी और जवान
बनी रहती है।
मरते दम तक
वासना उसका
पीछा करती है।
और कठिनाई यह
है कि जितना
उसका पीछा
करती है, उतना
ही वह दबाता
है। जितना वह
दबाता है
वासना उतने ही
नये रूप धरती
है, और ये
नये रूप विकृत
होते चले जाते
हैं। ये नये
रूप स्वस्थ भी
नहीं रह जाते,
प्राकृतिक
भी नहीं रह
जाते; अप्राकृतिक
और एबनार्मल
हो जाते हैं।
महावीर
ब्राह्मण की
परिभाषा में
कह रहे हैं : "जो
देवता, मनुष्य
तथा तियच
संबंधी सभी
प्रकार के
मैथुन का मन, वाणी और
शरीर से कभी
सेवन नहीं
करता, उसे
हम ब्राह्मण
कहते हैं।'
सुनकर
थोड़ी हैरानी
होगी कि
महावीर कहते
हैं,
जो देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी
किन्हीं का भी
मन, वाणी
और काया से
मैथुन का सेवन
नहीं करता, उसे हम
ब्राह्मण
कहते हैं। तो
ब्राह्मण एक
उपलब्धि है; एक चित्त की
दशा है जहां
वासना बिलकुल
तिरोहित हो
गयी है, जहां
वासना किसी भी
रूप में नहीं पकड़ती।
अगर आप
मनुष्य के साथ
अपने संबंधों
को विकृत करेंगे, तो
आपकी वासना
पशुओं के साथ जुड़नी
शुरू हो
जायेगी।
पश्चिम
में बड़ा खतरा
पैदा हुआ है।
और पश्चिम में
जगह-जगह ऐसी
समितियां
निर्मित हुई
हैं,
जो पशुओं को
आदमी की
कामवासना से
बचाने का उपाय
कर रही हैं।
क्योंकि
मनुष्य मनुष्य
के साथ ही
कामवासना के
संबंध जोड़ रहा
हो ऐसा नहीं
है, पशुओं
से भी जोड़ रहा
है। और एक
पूरा
रोग--पशुओं के
साथ मनुष्य की
कामवासना के
संबंधों
का--विकसित होता
जा रहा है।
महावीर
का वचन सुनकर
लगता है कि
महावीर मनुष्य
के बहुत गहरे
तक देख रहे
हैं। अगर आदमी
को रोका जाये, जबरदस्ती
रोका जाये तो
उसकी वासना
नीचे गिर सकती
है। वह पशुओं
के साथ संबंध
जोड़ना शुरू कर
सकता है। एक सुविधा
है; क्योंकि
मनुष्य के साथ
जब कामवासना
के संबंध जोड़े
जाते हैं, तो
उत्तरदायित्व
भी जुड़ता
है। अगर किसी
स्त्री को आप
प्रेम करते
हैं, तो आप
जिम्मेवारी
भी अनुभव करते
हैं। वह स्त्री
कल गर्भिणी हो
जाये, उस
स्त्री का
जीवन आपके लिए
मूल्यवान हो
गया। उस
स्त्री को
दुख-पीड़ा न हो,
वह सारी
जिम्मेवारी
आपके ऊपर है।
लेकिन पशु के
साथ अगर आप
कोई काम-संबंध
निर्मित कर
लेते हैं, तो
कोई
जिम्मेदार
नहीं है। और
पशु अबोध है।
और पशु निषेध
भी नहीं कर
सकता। और पशु
लड़ भी नहीं सकता।
पश्चिम
में कुत्तों
के साथ इतने
ज्यादा काम-संबंध
निर्मित हो
रहे हैं कि
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
मनोवैज्ञानिक
बहुत चिंतित
हैं कि यह
क्या हो रहा है!
आदमी कैसे
नीचे गिर रहा
है! गिरने का
कारण है।
क्योंकि
मनुष्य और
मनुष्य के बीच
इतनी जटिलता
हो गयी है
पश्चिम में, स्त्री
और पुरुष के
बीच संबंध
इतना भारी
मालूम पड़ता है,
और उसमें
इतना कलह और
इतना उपद्रव
है कि उस तरफ
से आदमी हटा
रहा है अपने
को।
पशुओं
तक भी बात
नहीं है। अभी
डेनमार्क में
एक सेक्स फेयर
था,
एक
कामवासना का
मेला लगा था, जिसमें
स्त्री और
पुरुषों के
गुड्डे पूरे
शरीर की माप
के बेचे गये।
इन गुड्डों
में पूरी कामवासना
का इंतजाम है,
और विद्युत
का उपयोग किया
गया है।
स्त्री गुड्डे
से पुरुष
संभोग कर सकता
है, और जब
उस गुड्डे के
स्तन को आप छुयेंगे
तो वह गुड्डीयां
अपनी आंख बंद
कर लेगी जैसी
स्त्री अपनी
आंख बंद कर
लेती है। उसके
स्तन में उभार
आयेगा और जननेंद्रिय
में विद्युत
की व्यवस्था
की गयी है कि
वह आपके वीर्य
को शोषित कर
लेगी। ठीक ऐसे
ही पुरुषों के
गुड्डे भी
तैयार किये
गये हैं।
पशुओं
के साथ ही
नहीं, महावीर
को खयाल भी
नहीं। महावीर
ने तीन की गिनती
गिनायी
है, लेकिन
उन्होंने यह
नहीं कहा है, वस्तुओं के
साथ भी मनुष्य
काम-संबंध
निर्मित कर
सकता है।
मनुष्य का
मैथुन इतनी प्रगाढ़
बात है कि उसे
एक तरफ से हटाओ
वह दूसरी तरफ
से प्रगट होना
शुरू हो जाता
है।
देवताओं
के साथ भी
मनुष्य की
कामना होती
है। वह हमें
जरा कठिन
लगेगा। पशुओं
का भी समझ में
आ सकता है, क्योंकि
पशु हमारे
चारों तरफ
मौजूद हैं।
वस्तुओं का भी
समझ में आ
सकता है, क्योंकि
वस्तुएं हम
निर्मित कर
सकते हैं, यंत्र
भी निर्मित कर
सकते हैं।
लेकिन जिस तरह
हमें आज पशु
और यंत्र निकट
मालूम पड़ते
हैं, महावीर
के वक्त में
देवताओं की
उपस्थिति भी उतनी
ही निकट थी।
आज भी उतनी ही
निकट है, हमारी
संवेदनशीलता
क्षीण हो गयी
है।
आप
जानकर हैरान
होंगे कि
मनुष्य के
आस-पास अशरीरी
आत्माएं हैं।
बुरी आत्माओं
को हम प्रेत कहते
हैं,
अच्छी
आत्माओं को
देवता कहा
जाता है। पर
मनुष्य के
आस-पास अशरीरी
आत्माएं
मौजूद हैं। और
कोई व्यक्ति
अगर बहुत प्रगाढ़
मन से मैथुन
की आकांक्षा
करे तो उन
अशरीरी
आत्माओं को
आकर्षित कर
सकता है और मैथुन
हो सकता है।
कई बार जब आप
स्वप्न में
मैथुन कर लेते
हैं, तो
जरूरी नहीं कि
वह स्वप्न ही
हो। इसकी बहुत
संभावना है कि
कोई अशरीरी
आत्मा
संबंधित हो। इस
संबंध में
बहुत खोजबीन
की जरूरत है।
मनुष्य की
कामना आकर्षण
का बिंदु बन
जाती है। और
जहां भी वासना
हो, वहां
से खिंचाव
शुरू हो जाता
है।
एक
घटना जो पिछले
सौ वर्षों से
निरंतर
अध्ययन की जा
रही है, मनसशास्त्री अध्ययन में
लगे हैं, वह
मैं आपको कहना
चाहूंगा तो
खयाल में आ
सके। बहुत बार
ऐसा होता है, आपको भी
शायद अनुभव हो,
सुना हो या
किसी के घर
में हुआ हो, बहुत बार
ऐसा हो जाता
है कि घर में
अचानक चीजें
हिलने-डुलने
लगती हैं, और
कोई प्रगट
कारण नहीं
मालूम होता।
आपने किताब
टेबल पर रखी
है, वह
गिरकर नीचे आ
जाती है। आपने
बर्तन बीच में
टेबल पर रखे
हैं, वह
सरक कर किनारे
पर आ जाते
हैं। आपने खूंटी
पर कोट टांगा
है, वह एक
खूंटी से उतर
कर दूसरी
खूंटी पर चला
जाता है। लोग
कहते हैं कि
घर में
प्रेत-बाधा हो
गयी है। मनसविद
सौ साल से
इसका अध्ययन
कर रहे हैं कि
हो क्या रहा
है! और हर बार
यह पाया गया
कि ऐसी घटना
जब भी किसी घर
में घटती है, तो उस घर में
कोई जवान
युवती होती है,
जिसका मेंनसीज
शुरू होने के
करीब होता है
या शुरू हो
रहा होता है।
हमेशा! जब भी
ऐसी घटना किसी
घर में घटती है
तो कोई युवती
होती है जो
अभी कामवासना
की दृष्टि से
प्रौढ़ हो रही
है, और
उसकी प्रौढ़ता
इतनी प्रबल है
कि उस प्रबलता
के कारण
प्रेतात्माएं
आकर्षित हो
जाती हैं। अब
इस पर
वैज्ञानिक
अध्ययन काफी
निर्णय ले
चुका है। उस
स्त्री को, उस युवती को
घर से हटा
दिया जाये, यह उपद्रव
बंद हो जाता
है। वह जिस घर
में जायेगी, वहां उपद्रव
शुरू हो
जायेगा। यह भी
पाया गया है
कि कुछ घरों
में अचानक
कपड़ों में आग
लग जाती है।
कोई कारण नहीं
मालूम पड़ता।
और जितने अब
तक अध्ययन
किये गये हैं
इस तरह के
मामलों में, पाया गया है
कि घर में कोई
युवक हस्थमैथुन
करता होता है।
इस हस्तमैथुन
करने वाले
युवक को हटा
दिया जाये, तो घर में आग
लगने की घटना
बंद हो जाती
है।
हस्तमैथुन
की स्थिति में
प्रेतात्माएं
सक्रिय हो
सकती हैं। जब
भी व्यक्ति
कामवासना से
बहुत ज्यादा
भरा होता है
तो अदेही
आत्माएं भी
संलग्न हो
जाती हैं, और
सक्रिय हो
जाती हैं, और
उनकी
सक्रियता
बहुत तरह की
घटनाओं का
कारण बन सकती
है।
प्रेतात्माएं
भी अकसर
उन्हीं लोगों
में प्रवेश कर
पाती हैं, जो
कामवासना को
इतना दबा लिये
हैं कि जीवन
के सहज
शारीरिक
संबंध
स्थापित नहीं
कर पाते; तो
फिर उनके
देहरहित
आत्माओं से
वासना के संबंध
स्थापित होने
शुरू हो जाते
हैं।
फ्रायड
ने
हिस्टीरिया
का अध्ययन
किया पूरे चालीस
वर्ष और उसने
पाया की सभी
हिस्टीरिया और
हिस्टीरिया
की बीमारी
सारी दुनिया
में फ्रायड के
पहले प्रेतात्माओं
की बाधा समझी
जाती थी। अगर
किसी स्त्री
को अचानक
चक्कर आने
लगते हैं, बेहोश
हो जाती है, मुंह से फसूकर
आ जाता है, चीखने
चिल्लाने
लगती हैऔर
स्त्रियों को
ज्यादा
मात्रा में
हिस्टीरिया
होता है
पुरुषों को
नहीं।
क्योंकि
स्त्रियां
ज्यादा
कामवासना का दमन
करती हैं बजाय
पुरुषों के।
पुरुष बातें
कुछ भी करें, ब्रह्मचर्य
की कितनी ही
चर्चा करें
लेकिन वे उपाय
खोज लेते हैं
अपनी
कामवासना को
तृप्त करने
के।
स्त्रियां
बातें ही नहीं
करतीं, बातों
पर ही बड़े ही
मन से भरोसा
कर लेती हैं
और भरोसा करके
संयम साधने की
कोशिश में लग
जाती हैं। उस
संयम में कोई
साक्षी-भाव तो
होता नहीं, दमन ही होता
है। इसलिए
स्त्रियां ही
हिस्टीरिया
की बीमारी से
परेशान होती
रहीं।
फ्रायड
बहुत हैरान
हुआ जब उसने
हिस्टीरिया का
अध्ययन शुरू
किया। उसने
इनकार ही कर
दिया; कि
उसमें
प्रेतात्माओं
का कोई हाथ
नहीं है। क्योंकि
जिन
स्त्रियों पर
भी
हिस्टीरिया
पाया गया, वे
वही
स्त्रियां
थीं
जिन्होंने
अपनी कामवासना
को किसी कारण
दबाया था। पति
नपुंसक था, या स्त्री
विधवा थी; पति
मर चुका था, या पति
बीमार था; संभोग
की कोई
संभावना न थी,
या स्त्री
को बचपन से इस
तरह की
धार्मिक
शिक्षा दी गयी
थी कि
कामवासना में
उतरना उसके
लिए असंभव हो
गया था। खास
कर ईसाई नन्स,
ईसाई साध्वियां
हिस्टीरिया
से भयंकर रूप
से परेशान
थीं। और मध्ययुग
में तो पूरे
यूरोप में नन्स
के ऊपर
प्रेतात्माओं
का उतरना
बिलकुल रोज की
घटना थी।
फ्रायड
ने इनकार कर
दिया। उसने
कहा कि कामवासना
के दमन के
कारण यह घटना
घट रही है; इसमें
प्रेतात्माओं
का कोई संबंध
नहीं है। फ्रायड
की बात आधी ही
ठीक है। वह
ठीक कह रहा है,
कामवासना
के रिप्रेशन
से ही घटना घट
रही है। लेकिन
रिप्रेशन,
दमन केवल
अवसर बनता है।
उस अवसर में
मन इतना
ज्यादा वासना पूरित
हो जाता है, और इतने जोर
से पुकारता है,
और पूरा
शरीर इतने जोर
से खींचने
लगता है कि आस-पास
की अदेही
आत्माएं भी उस
प्रचंड
झंझावात में
खिंच के पास आ
सकती हैं और
प्रेतात्माओं
का प्रवेश हो
सकता है।
तो
महावीर कहते
हैं कि जो
देवता, मनुष्य,
तिर्यंच संबंधी सभी
प्रकार के
मैथुन का मन, वाणी और
शरीर से कभी
सेवन नहीं
करता, उसे
हम ब्राह्मण
कहते हैं।
तब तो
ब्राह्मण
खोजना बहुत
मुश्किल हो
जायेगा। और
जिन्हें हम
ब्राह्मण
कहते हैं, उन्हें
ब्राह्मण
कहने का कोई
अर्थ न रह
जायेगा। आदमी
इतने गहन में
डूबा है
कामवासना के
साथ, कि
कोई उपाय नहीं
दिखता, कि
वह कैसे
ब्राह्मण हो
सके!
सुना
है मैंने, इंगलैंड
का राजा जार्ज
द्वितीय बहुत
बुद्धिमान
नहीं था। और
सारा काम, सारे
राज्य की
व्यवस्था
उसकी पत्नी कैरोलीन
ही संभालती
थी। लेकिन
इतना
बुद्धिमान वह
था कि कैरोलीन
की बात मान
लेता था सदा। कैरोलीन
सुंदर थी, योग्य
थी, प्रतिभाशाली
थी, लेकिन
असमय में उसका
निधन हो गया।
कोई संघातक बीमारी
थी, इलाज
नहीं हो सका।
मरते क्षण कैरोलीन
ने सम्राट से
कहा--आगे की
व्यवस्था भी
उसी को करनी
थी, उसने
कहा कि तुम
मेरे मरने के
बाद शीघ्र ही
विवाह कर
लेना। एक तो
तुम बिना
विवाह के रह न
सकोगे, दूसरे
तुम्हें एक
योग्य
सलाहकार की भी
जरूरत है और
तीसरे यह
विवाह उपयोगी
होगा अतंर्राषटरीय
संबंध
निर्धारित
करने में। तो
तुम कहां विवाह
करना, कौन-कौन
सी राजकुमारियां
योग्य हैं, और किससे
संबंध बनाना
राजनीतिक
अर्थों में
कीमती है।
लेकिन
जार्ज
द्वितीय, जार-जार
आंसू गिराने
लगा और उसने
कहा कि नहीं, बिलकुल
नहीं! जीवन
में अपनी
पत्नी को उसने
पहली बार
"नहीं' कहा
था। उसने कहा
कि "नो, नेवर!
आफटर यू
नो वाईव्स!'
पत्नी बड़ी
प्रसन्न हुई।
उसने आंख खोली,
लेकिन
प्रसन्नता क्षणभर
में खो गयी
क्योंकि
जार्ज आंसू
बहा रहा था, छाती पर हाथ
रखे था और कह
रहा था, "नहीं,
कभी
नहीं--नो मोर वाइव्स आफटर यू,
ओनली मिसटरेसेस--कोई
पत्नी नहीं, सिर्फ
रखैल
स्त्रियां!'
वासना
बड़ी गहरी है, और
उसकी गहराई को
बिना समझे जो
उसके साथ कुछ
भी करने में
लग जाता है, वह झंझट में
पड़ेगा। सब
सिद्धांत ऊपर
रह जाते हैं।
सब शास्त्र
ऊपर रह जाते
हैं।
कामवासना बड़े
केंद्र पर है
वहां तक कोई
शास्त्र
पहुंच नहीं
पाता, कोई
सिद्धांत
नहीं पहुंच
पाता। आप ऊपर
से प्रभावित
होकर निर्णय
और संकल्प ले
सकते हैं। वे निर्णय
ऊपर कागज के
लेबल की तरह
चिपके रह
जायेंगे और आप
झूठे आदमी हो
जायेंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन निकल
रहा है अपने
घोड़े पर बैठ
कर। एक मकान
से रोने की
आवाज सुनायी
पड़ती है। कोई
रात के बारह
बजे हैं। तो
रुक जाता है दयावश; भीतर
जाता है। एक
नग्न स्त्री
बिस्तर पर
बांध दी गयी
है। किसी ने
बुरी तरह उसे
सताया है।
शरीर पर चोट
के निशान हैं,
और वह
स्त्री रो रही
है। वह नसरुद्दीन
को देख कर
कहती है कि
बड़ी कृपा की, आप आ गये।
मुझे मुक्त
करें। डाकुओं
ने हमला किया।
उन्होंने
मेरे पति को
बेहोश कर दिया
है। मेरे साथ
व्यभिचार
किया है, और
मेरे पति को
बेहोश हालत
में घसीट करके
घर के बाहर ले
गये हैं। पास-पड़ोस
में कोई भी
नहीं है। लोग
किसी निकट के
मेले में चले
गये हैं। हम
अकेले हैं।
मुझे बचाओ, बड़ी कृपा कि
तुम आ गये।
नसरुद्दीन को
आंसू आ जाते
हैं दया से।
उसे बड़ी पीड़ा
होती है।
लेकिन बजाय
स्त्री के
बंधन खोलने के, वह
अपने कपड़े
उतारना शुरू
कर देता है।
वह स्त्री
कहती है, "यह
आप क्या कर
रहे हैं?' नसरुद्दीन कहता है कि
"माफ करें--एक्सक्यूज
मी, लेडी!
बट दिस डे इज
नाट लकी
फार यू--आज का
दिन तुम्हारे
लिये सौभाग्यपूर्ण
नहीं है। मैं
तुम्हें
बचाना चाहता
हूं, लेकिन
बचा नहीं सकता
हूं!'
सारी
दया,
सारे
ब्रह्मचर्य, सारे
शास्त्र, सारे
उपदेश ऊपर रह
जाते हैं।
अवसर मिले
आपको, तो
आप सबको अलग
रखकर अपनी
वासना को पूरा
कर लेंगे।
अवसर न मिले
तो आप
सिद्धांतों
की बातें करते
रह सकते हैं।
सोचें, एक
सुंदर युवती
नग्न पड़ी हो, आस-पास कोई
भी नहीं, कोई
खतरा नहीं, पति को डाकू
उठा कर ले गये
हैं बहुत कठिन
हो जायेगा!
शायद
आपने सुना हो
कि मिश्र की
खूबसूरत
महारानी क्योपैट्रा
जब मर गयी, तो
उसकी कब्र से
उसकी लाश चुरा
ली गयी और तीन
दिन बाद लाश
मिली। और
चिकित्सकों
ने कहा कि मुर्दा
लाश के साथ
अनेक लोगों ने
संभोग किया
है।
मरी
हुई लाश के
साथ! और
निश्चित ही ये
कोई साधारण जन
नहीं हो सकते
थे जिन्होंने क्योपैट्रा
की लाश चुरायी
होगी।
क्योंकि क्योपैट्रा
की लाश पर
भयंकर पहरा
था। ये जरूर
मंत्री, वजीर,
राजा के
निकट के लोग, राजा के
मित्र, शाही
महल से
संबंधित लोग,
सेनापति
इसी तरह के
लोग थे।
क्योंकि क्योपैट्रा
की लाश तक भी
पहुंचना
साधारण आदमी
के लिए आसान
नहीं था। और
चिकित्सकों
ने कहा कि
अनेक लोगों ने
संभोग किया
है। तीन दिन
के बाद लाश
वापस मिली।
आदमी
की वासना कहां
तक जा सकती है, कहना
बहुत मुश्किल
है। एकदम कठिन
है। और महावीर
कहते हैं, ब्राह्मण
वही है, जो
कामवासना के
ऊपर उठ गया
हो। जिसे किसी
तरह की वासना
न पकड़ती
हो। क्या यह
संभव है? असंभव
जैसा दिखता है,
लेकिन संभव
है। असंभव
इसलिए दिखता
है कि हमें ब्रह्मचर्य
के आनंद का
कोई भी अनुभव
नहीं है। हमें
सिर्फ
कामवासना से
मिलने वाला जो
क्षण भर का
सुख हैसुख
भी कहना शायद
ठीक नहीं, क्षणभर
की जो राहत है,
क्षणभर के
लिए हमारे
शरीर से जैसे
बोझ उतर जाता
है।
बायोलाजिस्ट
कहते हैं कि
काम संभोग
छींक से
ज्यादा
मूल्यवान
नहीं है। जैसे
छींक बेचैन
करती है और
नासापुट
परेशान होने लगते
हैं,
और लगता है
किसी तरह छींक
निकल जाये; तो हल्कापन
आ जाता है।
ठीक करीब-करीब
साधारण कामवासना
छींक से
ज्यादा राहत
नहीं देती है।
बायोलाजिस्ट
कहते हैं
जननेंद्रिय
की
छींक--शक्ति
इकट्ठी हो
जाती है भोजन
से, श्रम
से; उससे
हल्के हो जाना
जरूरी है।
इसलिए वे कहते
हैं, कोई
सुख तो उसमें
नहीं है, लेकिन
एक बोझ उतर
जाता है। जैसे
सिर पर किसी ने
बोझ रख दिया
हो और फिर
उतारकर
आपको अच्छा
लगता है।
कितनी देर
अच्छा लगता है? जितनी
देर तक बोझ की
याद रहती है।
बोझ भूल जाता
है, अच्छा
लगना भी भूल
जाता है।
यह जो
कामवासना
जिसका हम बोझ
उतारने के लिए
उपयोग करते
रहे हैं और
हमने इसके
अतिरिक्त कोई
आनंद नहीं जाना
है,
छोड़ना
मुश्किल
मालूम पड़ती
है। क्योंकि
जब बोझ घना
होगा, तब
हम क्या
करेंगे? और
आज की सदी में
तो और भी
मुश्किल
मालूम पड़ती है,
क्योंकि
पूरी सदी के
वैज्ञानिक यह
समझा रहे हैं
लोगों को कि
छोड़ने का न तो
कोई उपाय है कामवासना,
न छोड़ने की
कोई जरूरत है।
न केवल यह
समझा रहे हैं,
बल्कि यह भी
समझा रहे हैं
कि जो छोड़ता
है वह नासमझ
है, रुग्ण
हो जायेगा; जो नहीं
छोड़ता, वह
स्वस्थ है।
शायद
आप आधुनिक
साहित्य से
जरा भी परिचित
नहीं होंगे।
क्योंकि भारत
करीब-करीब दोत्तीन
सौ साल पीछे
की हालतों
में मन से भी
जीता है।
लेकिन अभी सौ
वर्षों में
पश्चिम में
ऐसा साहित्य
निर्मित हुआ
है जिसका
वैज्ञानिक
समर्थन है। जो
कहता है कि
नियमित
कामवासना में
जाना आदमी के
स्वस्थ होने
के लिए जरूरी
है। जो आदमी
नहीं जायेगा
नियमित कामवासना
में,
वह अस्वस्थ
हो जायेगा।
वैज्ञानिकों
की खोजें समझा
रही हैं आदमी
को कि
कामवासना
मनुष्य का चरम
अर्थ है; उसके
आगे न कोई
अर्थ है, न
कोई प्रयोजन
है, न कोई
आनंद है। धर्म
की बातचीत सब
बकवास है। आदमी
एक पशु है और
पशु से ज्यादा
होने की कामना
ही सिर्फ भ्रम
है, एक
सपना है।
और बड़े
बेहूदे प्रयोग
भी विज्ञान के
नाम पर चल रहे
हैं। अमरीका में
सेक्स लैब
बनाये गये हैं, जहां
मनुष्य की
कामवासना का
वैज्ञानिक
अध्ययन हो रहा
है; जो कि
बड़ा अजीब और
बड़ा अमानवीय
है; जिसको
हम सोच भी
नहीं सकते। एक
प्रयोगशाला
में सात सौ
स्त्री-पुरुषों
ने
वैज्ञानिकों
के सामने, कैमरों
के प्रकाश के
सामने फिल्में
ली जा रही हैं,
चित्र
उतारे जा रहे
हैं, थर्मामीटर
जांच कर रहे
हैं, पुरुष
की इंद्रिय
में क्या
घटनाएं घट रही
हैं, उनका
रिकार्ड लिया
जा रहा है, स्त्री
की योनि में
भीतर क्या
शारीरिक
घटनाएं घट रही
हैं, उनका
रिकार्ड लिया
जा रहा है।
पच्चीसों
यंत्र लगे हुए
हैं, पच्चीसों
लोग खड़े हुए
हैं।
सात सौ
लोगों ने इस
समूह के सामने
संभोग करके दिखाया
ताकि अध्ययन
किया जा सके।
अध्ययन हुआ भी
और कीमती
नतीजे भी हाथ
आये। लेकिन
मेरा मानना है
कि जो दो
व्यक्ति पचास
लोगों के
सामने मंच पर
संभोग कर सकते
हैं इतने
यांत्रिक और
आयोजन के बीच
उनका संभोग
यांत्रिक
होगा, उसमें
से मनुष्य तो
विदा हो गया।
वह सिर्फ दो शरीरों
का संभोग होगा,
और वह भी
एकदम
यांत्रिक। और
वे मनुष्य भी
ऐसे होने
चाहिए, जिनकी
चेतना
करीब-करीब मर
चुकी है।
अन्यथा, सहज
ही आदमी प्रेम
में प्राइवेसी
खोजता है; एकांत
खोजता है; क्योंकि
प्रेम इतनी
एकांत की घटना
है, दो
व्यक्तियों
के बीच का
इतना निजी
संबंध है कि
कोई तीसरा उसे
न देखे। लेकिन
जब आदमी रुग्ण
हो जाता है, तो वह चाहता
है कि कोई
तीसरा देखे।
ये जो
सात सौ लोग जो
स्वेच्छा से वालनटिअर
किये और
जिन्होंने
संभोग करके
दिखाया
प्रयोगशाला
में,
ये जरूर
रुग्ण रहे
होंगे। और ये
ही रुग्ण रहे हों
ऐसा नहीं, जो
लोग चित्र
लेने को खड़े
हैं, जांचने को खड़े हैं, उनके मन का
भी ठीक से परिक्षण
किया जाये तो
ये भी रुग्ण
हैं अन्यथा
दूसरे को कामसंभोग
में देखने की
वासना, देखने
की इच्छा, देखने
के लिए बहाना
खोजना स्वस्थ
मन का लक्षण
नहीं हो सकता।
और जो
परिणाम आये, वे
स्वाभाविक
रूप से भौतिक
हैं। तो यंत्र
की तरह सारी
बात तय कर दी
गयी कि
क्या-क्या
घटना घटती है
शरीर में।
आत्मा का कोई
संबंध नहीं
है। कामवासना
का कोई संबंध
मनुष्य से
नहीं है, दो
शरीरों के बीच
शक्तियों का
आदान-प्रदान
है, और वह
भी राहत के
लिए है। और यह
राहत
वैज्ञानिक
समझा रहे हैं
कि बिलकुल
जरूरी है। और
जो व्यक्ति इस
राहत से अपने
को रोकेगा, वह रुग्ण हो
जायेगा।
उनकी
बात में थोड़ी
सच्चाई है।
अगर कोई सिर्फ
रोकेगा, तो
रुग्ण हो
जायेगा। उनकी
बात में झूठ
भी है। कोई
अगर सिर्फ
भोगता ही चला
जायेगा, तो
भी नष्ट हो
जायेगा।
पूरब
की दृष्टि न
तो भोग और न
दमन,
वरन दोनों
के ऊपर उठने
की है ताकि
चेतना शरीर को
अपने नीचे पा
सके। शरीर की
जो पकड़ चेतना
के ऊपर है, गर्दन
पर है चेतना
के, वह छूट
जाये। मालिक
हो सके चेतना,
और शरीर
उसकी छाया रह
जाये।
कामवासना
में जब भी आप
डूबते हैं, तब
शरीर मालिक हो
जाता है और
आत्मा उसकी
छाया रह जाती
है, उसके
पीछे सरकती
है। बहुत बार
तो आप नहीं भी
चाहते तो भी
कामवासना में
डूबते हैं। तब
आपकी आत्मा का
कोई मूल्य
नहीं रह जाता।
तब उसकी कोई सुनवाई
नहीं रह जाती।
तब शरीर इतना प्रगाढ़ हो
जाता है कि
आत्मा को दबा
देता है; उसकी
छाती पर बैठ
जाता है।
महावीर
कहते हैं--हम
उसे ब्राह्मण
कहते हैं, जो
मैथुन की
समस्त कामना
के पार और ऊपर
हो गया है। यह
हुआ जा सकता
है; दमन से
नहीं। लेकिन
महावीर के
साधु भी दमन
ही कर रहे
हैं। क्योंकि
दमन आसान है; सुगम है।
साक्षी-भाव
बहुत कठिन है,
बहुत
दुर्गम है।
वासना
जब उठे, तब
उससे दूर खड़े
रहना और तादातम्य
को तोड़ लेना।
वासना को उठने
देना। न तो
उसे बाहर किसी
पर प्रगट करने
जाना, और न
उसे भीतर
दबाना।
निष्पक्ष खड़े
रहना भीतर और
जो हो रहा है, उसे देखते
रहना, और
होने देना
भीतर जो हो
रहा है। लेकिन
दूर खड़े होकर
देखने की
क्षमता
विकसित करना।
जितना डिस्टेन्स,
जितना
फासला आप में
और आपकी वासना
के धुएं में
हो जाये, उतने
आप मालिक होते
जायेंगे। और
जैसे-जैसे दूरी
बढ़ेगी, वैसे-वैसे
आप चकित होंगे
कि एक नये
आनंद की धुन
बजने लगी, जिससे
आप अपरिचित
हैं।
यह आप
ठीक संभोग
करते क्षण में
भी दूरी रख
सकते हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं। एक महिला
ने मुझे आकर कहा
कि साक्षी-भाव
मैं रखना
चाहती हूं, लेकिन
पति हैं। और
अगर मैं संभोग
में नहीं उतरती
हूं,तो पति
दुखी और
परेशान और पीड़ित
होते हैं, चिड़चिड़े हो जाते हैं;
झगड़ा करते हैं, उपद्रव खड़ा
करते हैं। तो
मुझे संभोग
में उतरना तो
मेरा कर्तव्य
है।
मैंने
कहा,
"तू संभोग
में उतर, लेकिन
संभोग के क्षण
में भी दूरी
बनाये रखना, जैसे संभोग
तुझसे नहीं हो
रहा है, सिर्फ
शरीर से हो
रहा है और तू
पार होकर दूर
रहना। जितनी
तू शांत रहेगी,
शांति के
लक्षण साफ हो
जायेंगे, तेरी
श्वास में
फर्क नहीं
होगा। पति
संभोग करता
रहेगा, उसकी
श्वास में
फर्क हो
जायेगा।
श्वास तेज चलने
लगेगी। श्वास
सीमा के बाहर
हो जायेगी।
लेकिन तेरी
श्वास शांत
बनी रहेगी।
"श्वास
पर ध्यान रखना
और अपने को
दूर रखना, और
देखना कि पति
जैसे किसी और
के साथ संभोग
कर रहा है।'
तो ठीक
संभोग के क्षण
में भी
साक्षी-भाव
साधा जा सकता
है। और एक बार
इसका खयाल आ
जाये कि मैं शरीर
से दूर हूं, शरीर
के साथ क्या
हो रहा है वह
मेरे साथ नहीं
हो रहा है, शरीर
में क्या हो रहा
है वह मुझमें
नहीं हो रहा
है, ऐसी
प्रतीति सघन
होने लगे, तो
एक नयी धुन
बजनी शुरू हो
जाती है।
क्योंकि जैसे
ही हम शरीर से
दूर हटते हैं,
वैसे ही हम
आत्मा के करीब
आते हैं।
आनंद
का अर्थ है
आत्मा के करीब
आने से जो
सुवास मिलती
है,
जो हल्का
शीतल हवा का
झोंका आता है,
वह जो गंध
आती है अनूठी,
जिसे कभी
हमने जाना
नहीं। और एक
दफा उसका हमें
स्वाद पकड़ ले,
तो हम शरीर
की तरफ पीठ
करके उसकी तरफ
दौड़ने लगते
हैं।
बड़ा
आनंद छोटे
आनंद से
निश्चित ही
मुक्ति दिला
देता है। और
कोई उपाय भी
नहीं है। और
जब तक आपको
बड़े आनंद का
पता नहीं है, तब
तक छोटे, क्षुद्र
आनंद से छूटने
में आप व्यर्थ
ही परेशान
होंगे। कुछ
होगा नहीं।
बड़े आनंद को
जन्मा लें, छोटे आनंद
से हाथ छूटने
लगता है। आप
पीछे हटने
लगते हैं।
ठीक
गृहस्थ रहकर
भी। जरूरी
नहीं है कि आप
भाग कर जंगल
में जायें।
जंगल में
भागना तो तभी
जरूरी मालूम पड़ता
है,
जब दमन करना
हो आपको।
सिर्फ
साक्षी-भाव
जगाना हो, तो
घर में रहकर
भी हो सकता
है। पति-पत्नी
के बीच भी हो
सकता है। कोई
अड़चन नहीं है।
एक बार ठीक से
कला आ जानी
चाहिए। और कला
ऐसी है कि आप
प्रयोग करें
तो आ जाती है।
जैसे कोई आपसे
पूछे कि साइकिल
चलाना है, क्या
करें ? तो
आप कहेंगे
चलाना शुरू
करो ! गिरोगे
दो-चार बार।
कोई
बताने का उपाय
नहीं है।
साइकिल जो
चलाना जानता
है,
वह भी नहीं
बता सकता है
कि कैसे। वह
भी लिखकर नहीं
दे सकता कि
यह-यह नियम है;
इस-इस तरह
करोगे तो
साइकिल चल
जायेगी। वह भी
इतना ही कह
सकता है कि
तुम साइकिल
चलाओ।
क्योंकि
सच्चाई यह है
कि साइकिल चलाने
में सीखना
साइकिल चलाना
नहीं होता; साइकिल
चलाने में
सीखना होता है
बैलेंस, संतुलन।
वह भीतरी घटना
है। साइकिल से
उसका कोई
लेना-देना
नहीं है।
साइकिल तो
सिर्फ बहाना है।
उसके ऊपर आप
संतुलित होना
सीखते हैं। वह
संतुलित होना
तो आप प्रयोग
करेंगे, गिरेंगे, अनुभव
करेंगे कि
बायें ज्यादा
झुक जाता हूं
तो गिर जाता
हूं, दायें
ज्यादा झुक
जाता हूं तो
गिर जाता हूं;
अनुभव
करेंगे कि अगर
पैडल की गति
थोड़ी धीमी हो
जाती है तो
साइकिल गिर
जाती है, अगर
बहुत ज्यादा
हो जाती है तो
गिरने का डर
है।
तो
धीरे-धीरे
प्रयोग से आप
अनुभव कर
लेंगे दो-चार
दिन में कि वह
बिन्दु कहां
है,
जहां
साइकिल सधी
रहती है और
गिरती नहीं वह
आपका भीतरी
अनुभव आप
दूसरे को भी
बता नहीं
सकेंगे। आप
निकाल कर कह
नहीं सकते कि
बस, यह
सूत्र है; तुम
भी ऐसा करो।
साक्षी-भाव
एक आंतरिक संतुलन
है। शरीर से
दूर हटना एक
भीतरी घटना है।
उसे आप प्रयोग
करेंगे तो वह
आ जायेगा। वह
करीब-करीब
तैरने की तरह
है। जो तैरना
सिखाते हैं, वे
भलीभांति
जानते हैं कि
कुछ करना नहीं
होता।
मुल्ला
नसरुद्दीन
पूछने गया है
किसी से कि एक
युवती को मुझे
तैरना सिखाना
है। तो जो
तैराक था, जो
तैरना सिखाने
वाला मास्टर
था, गुरु
था, उसने
बताया कि किस
तरह उसके कमर
में हाथ डालना,
किस तरह उसे
पानी में
उतारना संभाल
कर। तभी नसरुद्दीन
ने कहा कि
इतने विस्तार
में मत जाओ, वह मेरी बहन
है। तो उस ने
कहा कि फिर
हाथ-वाथ
डालने की कोई
जरूरत नहीं, सीधा पानी
में उठाकर उसे
फेंक देना!
असली बात तो
पानी में
फेंकना है।
अपने आप तड़फड़ायेगी।
जीवन अपने
बचने की कोशिश
करेगा। वह जो तड़फड़ाना
है, वही
तैरना हो
जायेगा दो-चार
दिन के अभ्यास
से। बस, तुम
इतना ही खयाल
रखना कि कहीं
वह डूबकर
खतम ही न हो
जाये। बस, बचाने
का खयाल रखना,
सिखाने की
कोई जरूरत
नहीं है।
जीवन
खुद ही तड़प
रहा है बचने
के लिए; हाथ-पैर
फेंकना शुरू
करता है।
तैरने वाले
में गैरत्तैरने
वाले में
ज्यादा फर्क
नहीं है।
दोनों हाथ-पैर
फेंकते हैं।
एक व्यवस्था
से फेंकता है,
दूसरा
गैर-व्यवस्था
से फेंकता है।
बस, और कोई अंतर
नहीं है। एक
निर्भय होकर
फेंकता है, एक भयभीत
होकर फेंकता
है। भय के
कारण परेशानी होती
है। इसलिए ठीक
तैराक तो बिना
हाथ-पैर चलाये
भी नदी में
पड़ा रह सकता
है क्योंकि
निर्भय हो गया
है। वह जानता
है कि तैर
सकता हूं, कोई
डर नहीं है।
बिना हाथ-पैर
चलाये भी वह
नदी में तैर
जाता है।
आपको
पता है कि
जिंदा आदमी
डूब जाता है, मुर्दा
आदमी कभी नहीं
डूबता। जिंदा
मर जाता है
पानी में डूब
कर, मुर्दा
ऊपर आकर तैरने
लगता है।
मुर्दा को कोई
कला आती है, जो जिंदे
को भी नहीं
आती। मुर्दा
कोई सूत्र
जानता है। वह
सूत्र है अभय।
भय का कोई कारण
नहीं है। जो
होना था हो
चुका। वह ऊपर
तैरता रहता
है। मुद को
कोई पानी डुबा
नहीं पाता।
तैरने वाला
उतनी ही कला
सीख रहा है, जो मुर्दा
सीख लेता है
अपने आप।
तैरने
या साइकिल
चलाने जैसा है
साक्षी-भाव। घटना
घटने दें और
आप देखने वाले
हो जायें, करने
वाले न रहें।
यह मूल सूत्र
है।
कर्ता
न रहें, द्रष्टा
हो जायें। इसे
थोड़ा उपयोग
करें। जरूरी
नहीं कि सीधा
संभोग से ही
शुरू करें।
इसे कहीं भी
उपयोग करें।
भोजन करते
वक्त कर्ता न
बनें, साक्षी
हो जायें।
रास्ते पर
चलते वक्त
चलने वाले न
बनें, शरीर
चल रहा है, आप
देख रहे हैं।
इसे जीवन के
सब पहलुओं पर फैलायें, और
धीरे-धीरे
साक्षी को संभालें।
जैसे-जैसे
साक्षी भीतर संभलता है,
एक नये जीवन
का उदय होता
है। आपके शरीर
में पंख लग
जाते हैं। अब
आप आकाश में
उड़ सकते हैं।
अब परमात्मा
दूर नहीं है।
और जैसे-जैसे
दूरी बढ़ती है
शरीर से, वैसे-वैसे
नये सुख के
स्रोत टूटते
हैं, बुद्ध
ने कहा है महासुख।
और जैसे ही इस
स्रोत के झरने
टूटने लगते
हैं, फिर
शरीर के सुखों
में कोई अर्थ
नहीं रह जाता है;
मूढ़ता हो जाती है।
ध्यान
रहे,
जब तक
कामवासना में
अर्थ है, तब
तक आप छुटकारा
नहीं पा
सकेंगे, तब
तक ब्राह्मण
का जन्म नहीं
होगा। जिस दिन
कामवासना में
अर्थ ही नहीं
रह जाता है, कामवासना से
भी बड़े आनंद
का झरना फूट
पड़ता है और
कामवासना
सिर्फ मूढ़ता
रह जाती है, नासमझी रह
जाती है; ठीक
वैसे ही जैसे
आपके हाथ में
हीरा है, और
कोई आपको गाली
दे दे, तो
आप हीरा उठाकर
पत्थर की तरह
फेंक नहीं देंगे।
आप कहेंगे, पागलपन है।
हीरा बहुत
कीमती है, इस
आदमी को मारने
की बजाय।
लेकिन आपको
अगर पता न हो
और आप समझें
कि यह पत्थर
है, तो
बराबर मार
देंगे; हीरा
है, तो
नहीं फेंककर
मारेंगे।
कामवासना
में जिस शक्ति
को आप फेंक
रहे हैं अपने
बाहर, आपको
पता नहीं है
वह क्या है।
वह जीवन की
धारा है। वह
जीवन का परम गुहय
रहस्य है। एक
बार आपको पता
चल जाये कि यह
धारा भीतर की
तरफ बह सकती
है और सुखों
के महल खुल जाते
हैं, और
नये द्वार
खुलते ही चले
जाते हैं। फूल
खिलते ही चले
जाते हैं।
वीणा का संगीत
बढ़ता ही चला जाता
है।
लेकिन
यह आपको अपने
अनुभव से जब
आये! महावीर
के कहने से
कुछ भी न होगा।
मेरे कहने से
कुछ भी न
होगा। किसी के
कहने से कुछ
नहीं हो सकता।
इतना ही हो
सकता है कि स्मरण
आ जाये कि यह
भी एक संभावना
है,
बस। लेकिन
जब आप प्रयोग
करें!
प्रयोग
बहुत से लोग
करते हैं, लेकिन
उनको ठीक
प्रक्रिया का
खयाल न होने
से दमन में
उलझ जाते हैं;
शरीर से
लड़ने लगते
हैं। शरीर से
लड़ना नहीं है,
शरीर से दूर
होना है; क्योंकि
लड़ने में भी
आप शरीर के
करीब ही होते
हैं। भोगने
में भी करीब
होते हैं, लड़ने
में भी करीब
होते हैं।
भोगने में भी
शरीर से जुड़े
होते हैं, लड़ने
में भी शरीर
से जुड़े होते
हैं। और दोनों
हालत में शरीर
का मूल्य आप
से ज्यादा
होता है। उस
मूल्य को कम
करना है। जो
शरीर से लड़
रहा है उसके
शरीर का मूल्य
कम नहीं होता
है। देखें
साधुओं को! उनके
शरीर का मूल्य
और बढ़ जाता
है--कोई छू न ले,
वे किसी को
छू न लें। घबड़ाहट
बढ़ जाती है।
शरीर से इतनी घबड़ाहट का
मतलब है कि और
करीब हो गये
शरीर के।
मेरे
पास कुछ मित्र
आते हैं। वे
कहते हैं कि कुछ
जैन साधु यहां
आश्रम में आना
चाहते हैं, बैठने
का अलग इंतजाम
करना पड़ेगा।
क्या जरूरत है
अलग इंतजाम
करने की? मैंने
कहा कि मंच पर
बैठ जायेंगे।
पर वे कहते
हैं वहां कई
स्त्रियां
बैठती हैं। अब
स्त्रियों से
साधुओं को
क्या
लेना-देना? जब
स्त्रियां
नहीं डर रही
हैं साधुओं से,
तो साधु
क्यों डर रहे
हैं
स्त्रियों से?
ये साधु तो
स्त्रियों से
भी कमजोर और
स्त्रैण मालूम
पड़ते हैं।
इतनी कमजोरी
का मतलब है कि
शरीर के और
करीब आ गये--कि
दूर गये? अगर
दूर जायें तो
स्त्री और
पुरुष के शरीर
में फर्क कम
हो जाना चाहिए;
बढ़ना नहीं
चाहिए। तब
शरीर ही हैं
दोनों, फर्क
क्या है? स्त्री
और पुरुष के
शरीर में साधु
को क्या फर्क
है? क्यों
होना चाहिए
फर्क? फर्क
पैदा होता है
वासना से।
एक
अजायबघर में
एक हिपोपोटेमस
पानी में तैर
रहा है। दूसरा
हिपोपोटेमस
भी उसी के पास
विश्राम कर
रहा है।
मुल्ला नसरुद्दीन
गया है देखने।
तो अजायबघर के
आदमी से पूछता
है कि इसमें
कौन स्त्री है
और कौन पुरुष? हिपोपोटेमस,
इसमें कौन
स्त्री और कौन
पुरुष? वह
अजायबघर का
आदमी कहता है
कि हमने कभी
फिक्र नहीं
की। यह तो हिपोपोटेमस
को पता लगाने
की बात है।
अपने को करना
भी क्या है? तुम पहले
आदमी हो, जो
इस चिंता में
पड़े हो!
निश्चित
ही,
आदमी को
क्या मतलब है
कि कौन स्त्री
है और कौन पुरुष
है; कौन
मादा है, कौन
नर है। मादा
और नर की
उत्सुकता तो
वासना से पैदा
होती है।
इसलिए आप
दुनिया भर की
मादाओं को
देखते रहें, कोई रस नहीं
मालूम पड़ता, लेकिन
मनुष्य की
मादा में रस
मालूम पड़ता
है।
आप यह
मत सोचना कि
ऐसा ही दुनिया
के जानवर मनुष्य
की मादाओं में
रस लेते हैं।
उन्हें कोई मतलब
नहीं है। एक
हाथी चला जा
रहा है, कितनी
ही सुंदर
स्त्री हो, क्या मतलब
है? क्या
प्रयोजन? प्रयोजन
और अर्थ तो
आता है भीतर
की वासना से, और भीतर की
वासना हो
जितनी प्रगाढ़,
उतना ही
विपरीत यौन का
व्यक्ति
मूल्यवान होता
चला जाता है।
जिनकी
कामवासना प्रगाढ़
है, अगर वे
पुरुष हैं, तो स्त्री
के अतिरिक्त
उनका कोई
परमात्मा
नहीं; अगर
वे स्त्री हैं
तो पुरुष के
अतिरिक्त
उनका कोई
परमात्मा
नहीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने मित्र
पंडित रामचरणदास
के साथ बैठा
हुआ है। चर्चा
चल रही है।
दोनों शराब पी
रहे हैं। जब
नशा थोड़ा गहरा
हो गया, तो
पंडित रामचरणदास
ने कहा कि "नसरुद्दीन,
अगर
तुम्हें एक
एकांत निर्जन
द्वीप पर
महीने भर अटक
जाना पड़े, नाव
डूब जाये, कोई
कारण हो जाये,
या तुम्हें
भेज दिया जाये,
तो तुम अपने
साथ क्या ले
जाना पसंद
करोगे? श्रेष्ठतम
चीज कौन-सी है,
जिसे तुम
अपने साथ ले
जाना पसंद
करोगे? व्हाट
डू यू कनसीडर
दि बेस्ट? नसरुद्दीन ने कहा "साफ
है कि मैं
पूरी मधुशाला,
पूरे गांव
की मधुशाला
अपने साथ ले
जाना पसंद करूंगा।'
"और
पंडितजी, आप
अगर ऐसी हालत
में उलझ जायें',
नसरुद्दीन ने पूछा, "तो आप क्या
करेंगे? आप
क्या ले जाना
पसंद करेंगे?'
पंडित रामचरणदास
ने थोड़ा
झिझकते हुए
कहा, "हेमामालिनी!'
वे
इतना ही कह
पाये थे कि नसरुद्दीन
ने जोर से
घूंसा मारा
टेबल पर; टेबल
उलट दी और कहा
कि "गलत! स्टिक
टु दि टर्म्स।
यू सेड दि
बेस्ट, नॉट
दि वेरी
बेस्ट। शर्त
पर बंधे रहो।
तुमने कहा था
श्रेष्ठ, सबसे
श्रेष्ठ नहीं,
नहीं तो हम
ही
हेमामालिनी
को न ले जाते!'
आदमी
का मन
कामवासना से
भरा हो, तो
स्त्री
परमात्मा है,
पुरुष
परमात्मा है।
सारा धर्म
वहीं समाप्त हो
जाता है।
कामवासना
गहरी हो, तो
कामवासना के
अतिरिक्त कोई
धर्म नहीं है।
बाकी सब धर्म
बहाना है, झूठ
है। धर्म का
जन्म तो तभी
शुरू होता है,
जब हम
विपरीत की
वासना से हटना
शुरू होते
हैं। और यह
हटाव
ब्राह्मणत्व है।
साक्षी-भाव
से,
शरीर से
फासला बढ़ने से
जैसे ही, जितने
ही आप अपने
शरीर से दूर
होंगे, उतने
ही आप दूसरे
के शरीर से
दूर हो
जायेंगे। इसे
आप गणित समझें
भीतर का।
जितना आपको
दूसरे का शरीर
आकर्षक मालूम
होता है, उसका
अर्थ है कि
अपने शरीर से
उतने ही जुड़े
हैं; क्योंकि
आपके शरीर को
ही दूसरे का
शरीर आकर्षक
मालूम होता है,
आत्मा को
नहीं। आत्मा
को शरीर से
कोई संबंध नहीं
है। जैसे-जैसे
आप पीछे हटते
हैं अपने शरीर
से, वैसे-वैसे
दूसरे के शरीर
भी खोने लगते
हैं। इस
कामवासना के
धुएं के खो
जाने पर जो
प्रकाश
जन्मता है, इस अंधेरे
से हटकर, शरीर
के अंधेपन और
अंधेरे से
हटकर जो रोशनी
उपलब्ध होती
है, महावीर
कहते हैं, वही
ब्राह्मण है।
"जिस
प्रकार कमल जल
में उत्पन्न
होकर भी जल से लिप्त
नहीं होता, उसी प्रकार
जो संसार में
रहकर भी
काम-भोगों से
सर्वथा अलिप्त
रहता है, उसे
हम ब्राह्मण
कहते हैं।
इसमें
कई बातें
समझने-जैसी
हैं। "जिस
प्रकार कमल जल
में उत्पन्न
होकर भी जल से
लिप्त नहीं होता!' आदमी
पैदा तो वासना
में ही हुआ
है। कामवासना
स्त्रोत है
जीवन का। उसकी
निंदा की भी
कोई जरूरत
नहीं है।
निंदा वे ही
करते हैं, जो
उससे परेशान
हैं। उससे
लड़ना पागलपन
है, क्योंकि
जिससे आप पैदा
हुए हैं, उससे
लड़ नहीं सकते।
उससे लड़कर
क्या हाथ
लगेगा? और
अतीत से लड़ने
की जरूरत क्या
है? भविष्य
की चिंता करनी
चाहिए। जो
पीछे छूट गया है,
उससे लड़ने
की जरूरत क्या
है? जो आगे
हो सकता है, उसके होने
का उपाय
जुटाना
चाहिए।
महावीर कहते
हैं, जैसे
कमल जल में ही
पैदा होता है,
फिर भी जल
उसे छूता
नहीं। ऐसे ही
चेतना शरीर में
है, शरीर
में ही रहती
है, लेकिन
शरीर उसे छूता
नहीं।
चेतना
का जन्म वासना
में हुआ है।
उसके चारों तरफ
वासना का जल
है। लेकिन कमल
की तरह चेतना
अलग हो जाती
है,
उसे हम
ब्राह्मण
कहते हैं। यह
जो कमल की तरह
अलग हो जाना
है, यह कई
तरह से
सोचने-जैसा है,
क्योंकि
महावीर कहते
हैं, उसी
प्रकार जो
संसार में
रहकर भी
काम-भोगों से
सर्वथा
अलिप्त रहता
है, उसे हम
ब्राह्मण
कहते हैं।
संसार से
भागने की सलाह
नहीं है, संसार
में रहकर भी, क्योंकि
संसार से
भागने का तो
मतलब हुआ कि
कमल पानी से
डरकर दूर हट
जाये। डर ही
बताता है कि कमल
को भय था कि
पानी छू सकता
था। भय खबर
देता है।
लेकिन कमल
निर्भय है। वह
जानता है कि
पानी छू नहीं
सकता, तो
पानी में रहे
कि पानी के
बाहर रहे, कोई
भेद नहीं है।
संसार
को छोड़कर
भागने का मतलब
एक ही हो सकता
है सौ में
निन्यानबे
मौके पर। एक
मौके को मैं छोड़
देता हूं।
उसकी मैं पीछे
बात करूंगा।
उस एक मौके पर
महावीर, बुद्ध
और शंकर आते
हैं। सौ में
निन्यानबे
मौके पर संसार
से भागने का
एक ही अर्थ है
कि हम इतने
डरे हुए हैं
कि संसार में
रहकर तो हमारा
कमल पानी को छूयेगा
ही। कोई उपाय
हमें दिखायी
नहीं पड़ता।
वहां तो हम
उलझ ही
जायेंगे। तो
अवसर ही न
रहने दें, बाहर
की परिस्थिति
ही बदल दें; ऐसी जगह चले
जायें, जहां
कोई मौका ही न
हो।
लेकिन
ध्यान रहे, मौका
बाहर से नहीं
पैदा होता। बाहर
तो खूंटियां
हैं। वासना
भीतर है। आप
जंगल में चले
जायेंगे, दो
पक्षियों को
संभोग करते
देखेंगे; कठिनाई
शुरू हो
जायेगी। आप
कहां भागेंगे,
ऐसी जगह चले
जायेंगे, जहां
पक्षी नहीं, वृक्ष नहीं,
पौधे नहीं;
क्योंकि सब
में वासना है।
फूल खिल रहा
है कामवासना
से; तितलियां
उड़ रही हैं
कामवासना से;
हवाओं में
सुगंध चल रही
है फूलों की
कामवासना से;
क्योंकि उस
सुगंध के साथ बीजकण जा
रहे हैं। सारा
जगत कामवासना
है। भाग कर जायेंगे
कहां? फिर
भी, समझ
लें कि भाग
गये; एक
गुहा में छिप
गये, पर
अपने से भागकर
कहां जायेंगे?
वह जो भीतर
कामवासना है,
वह तो साथ
है; तो आटोइरोटिक
हो जायेंगे, खुद के ही
साथ वासना
जगने लगेगी।
मनोवैज्ञानिकों
को शक है इस
बात का कि
जहां-जहां हम
पुरुषों को
स्त्रियों से
दूर करते हैं, वहां-वहां
मस्टरबेशन
शुरू हो जाता
है, हस्तमैथुन
शुरू हो जाता
है। ऐसी घटना
बहुत जगह घटी
है। पहली दफा
जब अफ्रीका के
एक कबीले में
ईसाई मिशनरी
पहुंचे, और
ईसाई मिनशरी
जहां पहुंचे
हैं, वहां
उपद्रव
पहुंचा है; क्योंकि
उनकी धारणाएं
अत्यंत कुंद
हैं, और
अत्यंत उथली
हैं। जब उस
कबीले में
ईसाई मिशनरी
पहुंचे, तो
उन्होंने
तत्काल। कुछ
लोग हैं जो
दूसरों को
सुधारने में
ही लगे रहते
हैं बिना इसकी
फिक्र किये कि
वे दूसरे
सुधारने की
अवस्था में
हैं या हम सुधरने
की अवस्था में
हैं।
उस
गांव में
लड़के-लड़कियां
सब साथ खेलते
थे,
कूंदते थे।
ग्रामीण
आदिवासी
कबीला था, और
बहुत से
आदिवासी
कबीलों में, गांव के बीच
में, एक
भवन होता है जो
युवकों का भवन
होता है, "यूथ
हाल'। वहां
लड़के और लड़कियां
जब जवान हो
जाते हैं, तब
वे सब वहीं
सोते हैं, सब
साथ। उस कबीले
को मस्टरबेशन
का, हस्तमैथुन
का पता ही
नहीं था कि
कोई आदमी हस्तमैथुन
भी कहीं करता
है, या
स्त्रियां
करती हैं।
लेकिन जाकर
ईसाई पादरियों
ने कहा कि यह
तो अनाचार हो
रहा है, लड़के
और लड़कियां
साथ! यह
अनाचार बंद
करना पड़ेगा!
उन्होंने हास्टल
अलग-अलग बना
दिये; लड़के
और लड़कियों को
अलग-अलग
छांटकर रख
दिया; बीच
में दीवाल खड़ी
कर दी।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, जिस
दिन दीवाल खड़ी
की गयी, उसी
दिन
हस्तमैथुन उस
कबीले में
प्रविष्ट
हुआ।
आटोइरोटिक हो
जाता है आदमी।
तो आप भागकर
जायेंगे कहां? आप
अपनी वासना को
अपने हाथों ही
पूरा करने लगेंगे।
और अगर आपने
अपने हाथ भी
बांध लिये, तो भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता; क्योंकि
स्वप्न में
आपकी वासना
आपको पकड़ेगी।
स्वप्न में
स्खलन हो
जायेगा। भाग नहीं
सकते संसार से,
क्योंकि
संसार भीतर
है। हां, भीतर
से संसार
विसर्जित कर
दिया जाये तो
संसार में
रहकर भी आदमी
संन्यस्त हो
जाता है।
महावीर
विरोध में
नहीं हैं कि
कोई संसार न
छोड़े। वे कहते
हैं,
संसार छोड़े
लेकिन तभी
छोड़े, जब
संसार छूट
चुका हो। इसे
थोड़ा समझ लें।
कच्चा न छोड़े,
क्योंकि
कच्चा आदमी
दिक्कत में
पड़ेगा। वह भागकर
जायेगा, मुसीबत
खड़ी करेगा।
नये रोग, नयी
विकृतियां, परवर्शन्स खड़े हो
जायेंगे।
संसार छोड़े
तभी, जब
पक्का अनुभव
हो जाये कि
संसार भीतर से
छूट चुका है।
अब यहां रहने
की कोई जरूरत
नहीं। यह परीक्षा
पूरी हो गयी।
इस विद्यालय
की शिक्षा
पूर्ण हो
चुकी।
तो एक
तो वे हैं, जो
विद्यालय से
भाग खड़े होते
हैं कि
परीक्षा न
देनी पड़े, निन्यानबे
प्रतिशत, और
एक वे हैं, जो
विद्यालय की
सब परीक्षाएं
पास कर जाते
हैं, और
विद्यालय
उनसे कहता है
कि अब आप कृपा
करके जाइये; अब यहां
होने की कोई
आवश्यकता
नहीं है।
महावीर
और बुद्ध इस
संसार के
विद्यालय को
पास करके
छोड़ते हैं। यह
व्यर्थ हो
जाता है इसलिए
छोड़ते हैं।
जैसे सूखा
पत्ता वृक्ष
से गिरता है, कच्चा
पत्ता उस शान
से नहीं गिर
सकता, क्योंकि
कच्चा पत्ता
गिरेगा तो
पीड़ा होगी; पत्ते को भी
होगी, वृक्ष
को भी होगी, घाव भी छूट
जायेगा। सूखा
पत्ता टूटता
है; न
पत्ते को पता
चलता है, न
वृक्ष को खबर
होती है कि कब
छूट गया, न
कोई घाव होता
है।
महावीर
कहते हैं :
ब्राह्मण वह
है जो संसार
में रहकर
कामवासना से
ऐसे अलिप्त हो
गया,
जैसे कमल का
पत्ता पानी से
अलग है। ऐसा
ब्राह्मण
संन्यस्त हो
तो संन्यास
में गरिमा
होती है, गौरव
होता है; संन्यास
में एक
स्वास्थ्य
होता है। ऐसे
संन्यास में
संसार का
विरोध नहीं
होता, संसार
का अतिक्रमण
होता है, ट्रांसेंडेन्स होता है। यह
आदमी संसार से
भयभीत होकर
नहीं गया है।
यह आदमी संसार
को पार करके
ऊपर उठ गया
है। यह बियांड
हो गया है। यह
संसार से जरा
भी भयभीत नहीं
है। संसार में
होने में अब
कोई अर्थ नहीं
रहा, इसलिए
गया है।
जो भय
से भागता है, उसे
अर्थ अभी है।
इसलिए जब भी
संन्यासी को
आप संसार से
भयभीत देखें
तो समझ लेना
कि अभी यह आदमी
जल्दी में चला
गया, कच्चा
पत्ता था, इसे
अभी रुकना था।
बेहतर था, अभी
यह संसार में
और जी लेता।
एक साठ वर्ष
के बूढ़े साधु
ने मुझे कहा
कि मैं नौ
वर्ष का था, तब मेरे
पिता ने मुझे
दीक्षा दी।
पिता भी साधु
थे। और अकसर पिताओं की
इच्छा होती है
कि जो वे हैं, वही उनके
बेटे भी हो
जायें! लेकिन
पिता ने
संन्यास लिया
भी पैंतालिस
साल की उम्र
में; बेटे
को संन्यास दे
दिया नौ साल
की उम्र में। यह
बेटा अब साठ
साल का हो गया,
लेकिन इसकी
बुद्धि नौ साल
से आगे नहीं
बढ़ी।
बढ़
नहीं सकती।
क्योंकि इसको
बढ़ने का कोई
मौका ही नहीं
है,
अवसर ही
नहीं है।
साठ
साल का बूढ़ा, लेकिन
बुद्धि अटक कर
रह गयी नौ साल
पर। अभी हालत
इसकी वही है
कि अगर इसको कुलफी
बेचनेवाला
दिखायी पड़
जाये तो कुलफी
खाने का मन
होता है।
सिनेमा घर के
सामने क्यू लगा
होता है, तो
इसका मन होता
है कि भीतर
पता नहीं क्या
हो रहा है; मैं
भी देख लूं।
स्त्री देखकर उसे
बड़ी कठिनाई
होती है, क्योंकि
इस स्त्री में
क्या छिपा है,
जो इतना
आकर्षित करती
है; अपरिचित
है। इसकी सारी
साधना सिर्फ
संघर्ष है, और अतिक्रम
कुछ भी नहीं
हो रहा है। हो
नहीं सकता।
अनुभव
अतिक्रम लाता
है।
जीवन
से सस्ते
छूटने का कोई
उपाय नहीं है, और
जो सस्ता छूटना
चाहता है, वह
भटकेगा बहुत
बार। जीवन में
शार्टकट
होते ही नहीं।
कोई उपाय
नहीं। यहां
कोई अपवाद
नहीं है।
महावीर भी
जन्मों-जन्मों
के अनुभव के
बाद संन्यस्त
होते हैं।
बुद्ध भी
जन्मों-जन्मों
के अनुभव के
बाद संन्यस्त
होते हैं। आप
को तो पिछले
जन्मों की कोई
याद ही नहीं
है। आपका कोई
अनुभव ही नहीं
बना है। अनुभव
बनता
तो याद होती।
आपने पिछले
जन्मों में
कुछ सार निचोड़ा
होता जीवन से, तो
वह आपके साथ
होता। वह दीये
की तरह आपको
रोशनी करता।
वह तो है
नहीं। कुछ
अनुभव तो
इकट्ठा किया
नहीं है।
फूलों के साथ
आप रहे हैं, लेकिन इत्र
बिलकुल नहीं
निकाल पाये।
इत्र साथ जाता
है, फूल
साथ नहीं ले
जाये जा सकते।
जब एक आदमी
मरता है तो उस
जीवन में जो
उसने इत्र
निकाल लिया है,
ऐसेन्स,
वह उसके साथ
हो जाता है।
फूल ही फूल के
साथ खेलता रहा
है, फूल तो
पीछे छूट जाते
हैं। शरीर पर
थोड़ी-बहुत सुगंध
जो रहती है, वह भी शरीर
के साथ छूट
जाती है। नये
जन्म में फिर
से इकट्ठा
करना पड़ता है।
और हर जन्म
में हम इकट्ठा
करते हैं और
खोते हैं। जब
तक आप परिपक्व
न हो जायें, मैच्युरिटी न आ जाये, तब
तक महावीर
कहते हैं, संसार
में ही अलिप्त
होकर रहना
ब्राह्मण होना
है।
अलिप्तता
ब्राह्मणत्व
है।
"जो
अलोलुप है, जो
अनासक्त-जीवी
है, जो अनगार,
बिना घर-बार
का है, जो
अकिंचन है, जो गृहस्थों
के साथ
आनेवाले संबंधो
में अलिप्त है,
उसे हम
ब्राह्मण
कहते हैं।'
एक-एक
शब्द को गौर
से समझें , क्योंकि
हर शब्द के
साथ खतरा है
कि आप गलत समझ लेंगे
और गलत समझने
की संभावना
सदा ज्यादा है
ठीक समझने की
बजाय; क्योंकि
हम गलत हैं।
हमें एकदम से
गलत चीज एकदम
से समझ में
आती है। वह
हमारे लिए
स्वाभाविक है,
वह हमें
ज्यादा
प्राकृतिक है
कि गलत हमको
एकदम से समझ
में आ जाये।
महावीर
कहते हैं, जो
अलोलुप है, जिसका लोभ
चला गया है। हमें
क्या समझ में
आता है? हमें
समझ में आता
है कि धन छोड़
दो तो लोभ चला
गया! धन छोड़ने
से लोभ नहीं
जाता है। धन
पकड़ा जाता है
लोभ के कारण।
धन के पहले भी
लोभ मौजूद
रहता है, नहीं
तो धन को कोई पकड़ेगा
क्यों। धन
आदमी इकट्ठा
करता है लोभ
के कारण। तो
एक बात तो
पक्की है कि
धन के पहले
लोभ था, नहीं
तो धन को कोई पकड़ता
क्यों। तो जो
पहले था, वह
धन को छोड़ने
से मिट नहीं
सकता। वह पीछे
छिपा मौजूद रह
जायेगा। धन
पीछे आया है, तो धन छोड़ दो,
कोई फर्क
नहीं पड़ता।
लोभ मौजूद
रहेगा।
महावीर
कहते हैं, जो
अलोलुप है, और हम समझते
हैं कि जो
निर्धन है। तो
हम समझते हैं
कि असाधु धन
छोड़ दे तो बस
साधु हो गया।
धन छोड़ने से
लोभ जाता होता,
तो बड़ी आसान
बात हो जाती।
इसका तो मतलब
हुआ कि वस्तुओं
को छोड़ने से
आत्मा बदलती
है। तब तो आत्मा
कमजोर है; वस्तुयें
ज्यादा सबल
हैं।
नहीं, वस्तुओं
को छोड़ने से
कुछ भी नहीं
बदलता; हां,
धोखा हो
जाता है। अगर
धन न हो, तो
ऐसा लगता है
कि अब मेरा
कोई लोभ न
रहा। और किसी
को दिखायी भी
नहीं पड़ता।
क्योंकि जब धन
नहीं है तो
किसी को
दिखायी भी
कैसे पड़ेगा!
दिखायी धन
पड़ता है, लोभ
तो दिखायी
नहीं पड़ता।
लोभ तो खुद को
ही देखना पड़ता
है। धन दूसरों
को दिखायी
पड़ता है। जो
दूसरों को
दिखायी पड़ता
है, उसे
छोड़ना बहुत
आसान है। जो
दूसरों को
दिखायी नहीं
पड़ता, मेरे
भीतर छिपा है,
असली सवाल
वही है।
तो
महावीर नहीं
कहते कि
निर्धन
ब्राह्मण है। महावीर
कहते हैं
अलोलुप। ये
दोनों बड़े
भिन्न हैं। तब
यह भी हो सकता
है कि कोई आदमी
धन के बीच भी
अलोलुप हो, और
यह भी हो सकता
है कि कोई
आदमी निर्धन
होकर भी लोलुप
हो। लोलुपता
मन की एक
वृत्ति है, चीजों को पकड़ने
की। लोलुपता
मन की एक तरंग
है। वस्तुओं
से उसका संबंध
नहीं है।
वस्तुओं के
सहारे वह
फैलती है बाहर,
लेकिन छिपी
भीतर है।
वस्तुएं हटा
दें; वह
भीतर जाकर
सिकुड़ जाती है,
लेकिन
मौजूद रहती
है। वह नयी
चीजों से जुड़ने
लगती है।
तो
देखें, एक
लंगोटी वाला
संन्यासी
जिसके पास
सिर्फ लंगोटी
है, वह
लंगोटी के
प्रति भी
लोलुप हो सकता
है।
सुना
है मैंने कि
ऐसा हुआ कि एक
संन्यासी बड़ी यात्रा
करता था; जगह-जगह
गुरुओं के पास
जाता था, लेकिन
कहीं उसे
ज्ञान न हुआ।
तो उसके अंतिम
गुरु ने कहा,
"हम तुझे
ज्ञान न दे
सकेंगे। तू
बेहतर हो, जनक
के पास चला
जा।' उसने
कहा, "जनक
मुझे क्या
ज्ञान देगा, जब बड़े-बड़े
त्यागी, महात्यागी
ज्ञान नहीं दे
सके, तो यह
भोगी मुझे
क्या ज्ञान
देगा!' लेकिन
उसके गुरु ने
कहा, "हम
हार गये। अब
वही तुझसे जीत
सकता है। तू
वहीं चला जा।'
वह गया; जाकर
देखा तो बड़ा
हैरान हुआ, क्योंकि जनक
जमे थे, उनकी
बैठक जमी थी।
वहां पीना चल
रहा था, भोजन
चल रहा था, रास-रंग,
नृत्य हो
रहा था। उस
संन्यासी ने
कहा कि मैं भी
कहां आ गया!
भोगियों और
पापियों के
बीच! इस नर्क
में मुझे किसलिए
भेज दिया मेरे
गुरु ने? लेकिन
अब आ ही गया
हूं, तो
रात तो रुकना
ही पड़ेगा। तो
उसने सम्राट
से कहा कि रात
रुक जाऊं? आ
तो गया। गलती
तो हो गयी।
पूछने कुछ आया
था। अब नहीं पूछूंगा।
सुबह विदा हो जाऊंगा।
सम्राट ने कहा
कि कोई हर्ज
नहीं, इतनी
जल्दी निर्णय
मत लो।
सुबह
सम्राट उसे
लेकर नदी पर
स्नान करने
गया,
और जब वे
दोनों नदी में
स्नान कर रहे
थे, तो
सम्राट के महल
में आग लग
गयी। भयंकर
लपटें उठने
लगीं। सारे
गांव में
कोलाहल मच
गया। तो उस
फकीर ने कहा
कि, "जनक, क्या देख
रहे हो, मकान
से आग की
लपटें निकल
रही हैं, मकान
जल रहा है!' और
वह यह कहकर
संन्यासी
भागा वहां से।
सम्राट ने कहा
कि, "तू
कहां जा रहा
है?' उसने
कहा, "मैं
अपनी लंगोटी
घाट पर छोड़
आया हूं। अगर
आग बढ़ती आ गयी
तो लंगोटी साफ
हो जायेगी।'
जनक ने
कहा,
"महल जल रहा
है; मैं नहीं
जल रहा हूं, और अभी तेरी
लंगोटी नहीं
जल रही है, लेकिन
तूने जलना
शुरू कर दिया!
अभी आग बहुत
दूर है। जब
पूरे गांव को
पार करेगी, तब घाट तक
आयेगी, लेकिन
तू जल उठा और
रखा क्या है? वहां एक
लंगोटी रख आया
है किनारे पर!'
लोलुपता
का संबंध नहीं
है कि किस चीज
से जुड़े; किसी
भी चीज से जुड़
सकती है। और
अकसर ऐसा होता
है कि धनी की
लोलुपता तो
फैली रहती है
बहुत सी चीजों
में; धन को
छोड़कर जो भाग
जाते हैं, उनकी
लोलुपता इंटेन्स
हो जाती है।
थोड़ी-सी चीजें
रहती हैं, सारी
लोलुपता
उन्हीं
थोड़ी-सी चीजों
पर लग जाती
है।
तो
संन्यासी का
मोह नष्ट नहीं
होता, सिकुड़कर थोड़ी-सी
चीजों पर लग
जाता है।
लेकिन वह मोह
वहीं खड़ा है।
धन छोड़ना शर्त
नहीं है, धन
को पकड़ने
का जो आग्रह
है भीतर, उसका
छूट जाना! यह
कब होगा? यह
कैसे होगा? धन को हम पकड़ना
ही क्यों
चाहते हैं? जब तक उसकी
जड़ खयाल में न
आये तब तक कटेगी
भी नहीं।
धन को
हम इसलिए पकड़ना
चाहते हैं, क्योंकि
हम अपने प्रति
आश्वस्त नहीं
हैं। हमें भय
है, कल का
भरोसा नहीं; बीमारी है, स्वास्थ्य
है, मृत्यु
है, आज
मित्र हैं, कल मित्र न
हों; आज घर
है, कल घर न
हो। और जिंदगी
जीनी है
तो आदमी धन पर
भरोसा करता
है। धन
सुरक्षा है, सिक्युरिटी है। और जब तक
आप असुरक्षित
रहने को राजी
नहीं हैं, तब
तक आप लोलुपता
के बाहर नहीं
जा सकते।
असुरक्षित, इनसिक्युरिटी में रहने को
जो राजी है; जो कहता है, जो कल होगा, वह हम कल
देखेंगे; जो
आज हो रहा है, वह आज के लिए
काफी है। यह
क्षण
पर्याप्त है।
मैं किसी और
क्षण की चिंता
नहीं करूंगा।
जो क्षण-जीवी
है और जो कल
चाहे मुसीबत
हो, तो वह
उसे झेलेगा,
लेकिन कल ही
झेलेगा; आज से
तैयारी नहीं
करेगा। ऐसा
व्यक्ति
अलोलुप हो
सकता है और
ऐसा व्यक्ति
ही संन्यस्त
हो सकता है।
जो
अलोलुप है!
आप
अपनी लोलुपता
को खोजें कहां
है। भय में
छिपी है, और
मजा यह है कि
आप कितना ही
धन इकट्ठा कर
लें, भय तो
मिटता नहीं, बढ़ता ही चला
जाता है।
कितना ही
इंतजाम कर लें,
मृत्यु तो
आयेगी ही, और
कितनी ही
व्यवस्था
जुटा लें, रोग
तो पकड़ेगा
ही। मित्र खोयेंगे
ही, पत्नी
मरेगी, पति
विदा होगा, दुख आयेगा।
इस पृथ्वी पर
कोई भी कभी
सुरक्षित
नहीं रहा।
सुरक्षा इस
पृथ्वी का
नियम नहीं है,
मगर हर आदमी
अपने को अपवाद
मान लेता है, और फिर उसी
कोशिश में लग
जाता है, जिसमें
सिकंदर, नेपोलियन,
चंगेज डूब
जाते हैं; फिर
उसी कोशिश में
लग जाता है कि
मैं अपने को सुरक्षित
कर लूं, मुझ
पर कोई खतरा न
रहे।
और हम
जिंदगी भर
खतरे से बचने
में जिंदगी को
गंवा देते हैं; जिंदगी
का रस ही नहीं
ले पाते और न
ही जिंदगी का
उपयोग कर पाते
हैं। महावीर
इसलिए
अलोलुपता को
ब्राह्मणत्व
का आधार बनाते
हैं, क्योंकि
जो आदमी
अलोलुप है, वह जीवन का
ठीक उपयोग कर
पायेगा। जो
लोलुप है, वह
डरा हुआ, भयभीत,
इंतजाम
करने में ही
लगा रहेगा। और
जो यहीं इंतजाम
करने में लगा
है, उसका
ब्रह्म से
क्या संबंध
स्थापित होगा!
उसका परम से
कोई संबंध
स्थापित नहीं
हो सकता। वह क्षुद्र
में ही व्यतीत
हो जायेगा।
"जो
अलोलुप है, जो
अनासक्त-जीवी
है।'
हम भी
जीते हैं, ब्राह्मण
भी जीता है, लेकिन
महावीर कहते
हैं, ब्राह्मण
जीता है
अनासक्त; इसलिए
जीता है कि
जीवन है; इसलिए
नहीं जीता कि
जीवन से कल एक
बड़ा मकान बनाना
है, एक बड़ी
जमीन खरीदनी
है, एक बड़ा
बगीचा लगाना
है, खेती-बाड़ी
करनी है, धन
इकट्ठा करना
है; कल कुछ
करना है जीवन
से, कोई
वासना पूरी
करनी है, ऐसी
किसी आसक्ति
से नहीं जीता।
जीवन है; जब
तक है, तब
तक जीयेगा; जिस दिन
श्वास छूट
जायेगी, इतनी
भी प्रार्थना
नहीं करेगा कि
एक श्वास और मुझे
मिल जाये।
मृत्यु, तो
मृत्यु
स्वीकार; जीवन,
तो जीवन
स्वीकार। जो
भी घटित हो, वह उसे
स्वीकार है।
उसमें कोई
अस्वीकार
नहीं है।
अनासक्त
का अर्थ है कि
मैं जीवन पर
अपनी कोई धारणा
नहीं थोपता।
जीवन जहां ले
जाये, जीवन जो
करे, मैं
सहज भाव से
उसे स्वीकार
करता हूं।
हमारी कठिनाई
है, हम
जीवन पर धारणा
थोपते हैं। हम
जीवन को स्वीकार
नहीं करते। हम
जीवन को चाहते
हैं वासना के
अनुकूल। उमर खय्याम ने
कहा है कि अगर
परमात्मा
मुझे मौका दे,
तो मैं सारी
दुनिया को मिटाकर
फिर से बनाऊं।
तभी शायद मुझे
तृप्ति हो
सके।
लेकिन
तब भी शायद ही
तृप्ति हो
सके। तब भी
शायद ही
तृप्ति हो सके, क्योंकि
मन का नियम यह
है कि जो भी आप
बना पाते हैं
उसकी अतृप्ति
आगे बढ़ जाती
है। एक मकान
आप बनाते हैं;
सोचते हैं
तृप्त हो जाऊंगा;
बनते ही सब
समाप्त हो
जाता है। नयी
कल्पनाएं, नये
स्वप्न जग
जाते हैं।
जैसे वृक्षों
में पत्ते
लगते हैं, ऐसे
मन में
वासनाएं लगती
हैं। पुराने
गिर नहीं पाते
कि नये लग
जाते हैं। मन
तो नयी अतृप्तियां
खोजता चला
जाता है।
ब्राह्मण
वही है, जो
अनासक्त-जीवी
है; जो
जीवन में ऐसे
जी रहा है
जैसे कल है ही
नहीं, जैसे
भविष्य होगा
ही नहीं। हम
लेकिन, गलत
समझ लेते हैं।
जीसस ने अपने
शिष्यों को कहा
कि कल नहीं
है। बस, आज
ही है। और
दुनिया का
समझो कि जैसे
कल अंत
होनेवाला है।
इस भांति जीयो
कि जैसे कल
मृत्यु
होनेवाली है,
कल सब
समाप्त हो
जायेगा, महाप्रलय
हो जायेगी।
बड़ा
मजा है! आदमी
का मन कैसी
गलती करता है!
शिष्यों ने
समझा कि ऐसा
मामला है, ऐसा
खतरा आ रहा है
कि जल्दी
दुनिया का अंत
हो जानेवाला
है, तो
बजाय आज शांति
से जीने के, वे कल की
चिंता में लग
गये कि अंत हो
जायेगा, तो
क्या करें! और
जीसस से वे
बार-बार पूछते
हैं, जब कल
आ जाता है, कि
अभी अंत नहीं
हुआ, प्रलय
कब होगी? जीसस
कहते हैं, "बहुत
निकट है, दि
लास्ट डे इज
वेरी क्लोज।'
और दो हजार
साल हो गये, लेकिन अभी भी
ईसाई समाज में
कभी न कभी कोई
संप्रदाय खड़ा हो
जाता है, जो
कहता है, बस,
१९७५
आखिरी। फिर
१९७५ की
तैयारी चलने
लगती है कि
आखिरी दिन आ
रहा है, तो
थोड़ा अच्छा
काम कर लो।
फिर १९७५ आ
जाता है, वह
आखिरी दिन
नहीं आता। फिर
कोई दूसरा
संप्रदाय
पैदा होता है।
इन दो
हजार सालों
में ईसाइयों
में हजार दफा
ऐसी तारीखें तय
हो चुकी हैं, जब
कि अखिरी
प्रलय होने
वाली है। किस
तरह हम जीसस
को, महावीर
और बुद्ध को
गलत समझते
हैं! जीसस का
कुल प्रयोजन
इतना है कि कल
जैसे सब नष्ट
हो जायेगा, इस बात को
समझकर
आज जीओ।
लेकिन हम आज
तो जी ही नहीं
सकते। हम तो
सदा कल में ही
जीते हैं। कल!
और वह कल हमारे
पूरे जीवन को
चूस लेता है; कभी
आता नहीं।
अनासक्त-जीवी
का अर्थ है :
वर्तमान में जीनेवाला।
ध्यान
रहे,
वासनाओं के
लिए भविष्य
चाहिए, जीवन
के लिए भविष्य
की कोई भी
जरूरत नहीं।
जीवन के लिए
यही क्षण काफी
है। अभी मैं
जीवित हूं
पूरा। आप पूरे
जीवित हैं।
जीने के लिए
कल की क्या
जरूरत है? लेकिन
वासना के लिए
कल की जरूरत
है, क्योंकि
वासनाएं बड़ी
हैं; आज
कैसे पूरी
होंगी? कल
चाहिए।
वासनाएं
भविष्य
निर्मित करती
हैं।
वासनाएं
ही समय का
निर्माण हैं।
"जो
अनासक्त-जीवी
है, जो अनगार
है, बिना
घर-बार का है।'
अब यह
भी बड़ा
मुश्किल हो
गया। "अनगार' का
सीधा अर्थ ले
लिया गया कि
जो घर-बार छोड़
दे। जो घर-बार
में न रहे, वह
अनगार
है।
लेकिन
बड़े मजे की
बात है कि जैन
साधु को भी
रहना पड़े तो
किसी के घर
में ही रहना
पड़ता है!
कितना ही
इंतजाम करो, घर
तो बनाना ही
पड़ता है; कोई
छाया, छप्पर
डालना पड़ता
है। धर्मशाला
में ठहरो कि स्थानक
में ठहरो, ठहरना
कहीं होगा, घर तो होगा
ही।
घर-बार
न हो जिसका, अनगार
है जो, तो
जरूर महावीर
कुछ चेतना की
स्थिति की बात
कर रहे हैं।
महावीर यह कह
रहे हैं कि
जिसकी चेतना
के आस-पास
किसी तरह की
दीवाल नहीं, किसी तरह का
घर, किसी
तरह का
कारागृह, कुछ
भी नहीं है।
जिसकी चेतना
खुले आकाश की
तरह है, जो अनगार है।
फिर ऐसा अनगार
व्यक्ति
छप्पर के नीचे
भी सोये तो वह
छप्पर उसके
भीतर के आकाश
को छोटा नहीं
कर पाता। और
आप--जिसकी
आत्मा घर-घूलों
में बंधी है, दीवालों से
घिरी है--आप
खुले आकाश के
भी नीचे सोयें
तो कोई फर्क
नहीं पड़ता। आप
अपने घर में
ही सो रहे
हैं।
खुला
आकाश क्या
करेगा, जिसके
भीतर का आकाश
बंद है? खुला
आकाश भीतर
होना चाहिए।
तब बाहर भी सब
खुला हुआ है।
लेकिन शब्द
दिक्कत में
डाल देते हैं;
क्योंकि
हमारे पास शब्द
आते हैं, शब्द
की आत्मा तो
नहीं आती।
मार्क ट्वेन
अमरीका का एक
बहुत
विचारशील
लेखक हुआ, एक
हंसोड़
व्यक्तित्व।
और कभी-कभी हंसोड़
व्यक्तित्व
बड़े गहरे, बड़ी
गहरी चोटें कर
जाते हैं; बड़े
गहरे सत्य कह
जाते हैं। असल
में सत्य कहना
हो तो हंसी के
बिना कहा ही
नहीं जा सकता।
जिंदगी वैसे
ही काफी उदास
है। और उदास
सत्य
डाल-डालकर
आदमी को मारने
का कोई अर्थ
भी नहीं है।
मार्क ट्वेन को
आदत थी भयंकर
रूप से
गालियां देने
की। जरा-सी
बात हो जाये, तो
वह गालियां
देना शुरू कर
दे, और ऐसा
नहीं कि
आदमियों को ही
दे, चीजों
को भी दे।
दरवाजा न खुल
रहा हो, तो
वह गाली देने
लगे। उसकी
पत्नी इस बात
से बड़ी परेशान
थी। और वह
इतना नामी, अंतर्राषटरीय ख्याति का
आदमी था कि
उसकी पत्नी
कहती थी कि कोई
सुन ले कि तुम
इस तरह की
गालियां बकते
हो, तो
क्या लोग
कहेंगे! लेकिन
कोई उपाय नहीं
था। गालियां
उसके लिए
अनिवार्य
थीं। एक दिन
सुबह-ही-सुबह,
ब्रह्ममुहूर्त
में, कहीं
जाने को वह
निकला; कमीज
पहनी, बटन
टूटा है--बस, उसने गाली
देना शुरू की,
पत्नी भी
परेशान हो
गयी। वह
दरवाजे पर खड़ी
सुनती रही
एक-एक गाली
उसकी। वह इतने
रस से दे रहा था,
जैसे संगीत
का मजा ले रहा
हो! बड़ी भद्दी
गालियां दे
रहा था, जिनको
स्त्रियां
उपयोग भी नहीं
कर सकतीं। पर उसकी
पत्नी ने कहा
यह भी करके
देख लेना
चाहिए। तो
जैसे ही उसने
देना बन्द
किया, उसकी
पत्नी ने, जो-जो
गालियां उसने
दी थीं, उतनी
ही जोर से
उनको
दोहराया।
उसने सोचा, शायद इससे
घबड़ा जायेगा,
सोचेगा कि
पड़ोसी क्या
कहेंगे? कि
मार्क ट्वेन
की पत्नी ऐसी
भद्दी
गालियां बकती
है! मार्क ट्वेन
गौर से सुनता
रहा, और
उसने कहा कि,
"राइट, यू
हैव कॉट द वटर्ड्स, बट यू हैव मिस्ड
द
स्पिरिट--शब्द
तो पकड़ लिये, शब्द में
क्या रखा है? आत्मा! वह
गाली देने में
जो मैं आत्मा
डाल रहा था, वही नहीं है!'
सभी
सत्यों के साथ
करीब-करीब यही
दिक्कत है, कि
शब्द पकड़ में
आ जाते हैं और
आत्मा खो जाती
है। शब्द झंझट
की बात है। और
शब्द के
अनुसार फिर हम
चलना शुरू कर
देते हैं। और
शब्द का अर्थ
भाषा-कोश में
लिखा है, महावीर
से पूछने की
जरूरत नहीं
है। अनगार
यानी जिसका
कोई घर
नहीं--बात
खत्म हो गयी।
और अगर घर है
तो आप
ब्राह्मण
नहीं हैं; घर
छोड़ दें तो
ब्राह्मण हो
गये! आसान हो
गयी बात; सरल
हो गयी।
घर
छोड़ने से कोई
ब्राह्मण
नहीं होता। घर
में रहने से
कोई अब्राह्मण
नहीं होता। अनगार एक
चेतना की
अवस्था है, ऐसी
भाव-दशा, जहां
मैं अपनी तरफ
कोई सीमाएं
खड़ी नहीं करता,
जहां मैं
बंधा हुआ नहीं
हूं।
घर का
अर्थ है, बंधन।
जगत से आप
भयभीत हैं, चारों तरफ
से घर की
दीवाल खड़ी कर
रखी है। उसके भीतर
आप सुरक्षित
हैं। घर के
बाहर खुले आशा
के नीचे
असुरक्षा
शुरू हो जाती
है। तो महावीर
कहते हैं : जो असुरक्षित
जीता है, जो
कोई दीवाल खड़ी
नहीं करता; और जो दूसरे
से अपने को
फासला नहीं
करता, किसी
सीमा को बनाकर
कि तुम अलग
हो।
समझें, अगर
आप कहते हैं, मैं जैन
हूं--आपने एक
घर बना लिया।
हिंदू से आपका
घर अलग हो
गया। आप दोनों
के आंगन अलग
हो गये।
मुसलमान से
आपका घर अलग
हो गया। ईसाई
से आपका घर
अलग हो गया।
इन्हीं घरों
के अलग होने
के कारण तो
हमें मंदिर, मस्जिद और
चर्च बनाने
पड़े। हमारे घर
ही अलग नहीं
हो गये, हमें
भगवान के घर
भी अलग कर
देने पड़े।
महावीर
कहते हैं कि
तुम उस दिन
ब्राह्मण
होओगे, जिस
दिन तुम्हारा
कोई घर न रह जाये
चेतना पर, और
हमने तो
ब्रह्म को भी
घरों में बांध
दिया है। हम
बड़े होशियार
लोग हैं!
महावीर आपको
मुक्त करना
चाहते हैं कि
ब्रह्म हो
जायें, हमने
ब्रह्म को भी
बांधकर नीचे
खड़ा कर दिया
है!
लोगों
के अपने-अपने
ब्रह्म हैं।
चर्च के सामने
आपका दिल हाथ
झुकाने को
नहीं होता।
जीसस को सूली
पर लटके देखकर
आपके मन में
कोई भाव नहीं
उठता। महावीर
को अपने
सिद्धासन में
बैठे देखकर
आपका सिर झुक
जाता है।
लेकिन जीसस का
अनुयायी
निकलता है, उसे
कोई भाव नहीं
होता। उसे
सिर्फ इतना
दिखायी पड़ता
है कि आदमी
नग्न बैठा है।
आपको जीसस को देखकर
लगता है कि
क्या है इसमें,
सूली पर
लटका है! किसी
पाप का फल भोग
रहा होगा; किया
होगा कर्म, तो भोगेगा।
कि कहीं र्तीथकर
कहीं सूली पर
लटकते हैं? र्तीथकर को तो कांटा
भी नहीं चुभता,
सूली तो
बहुत दूर की
बात है! र्तीथकर
तो चलता है, तो कांटा
अगर सीधा पड़ा
हो, तो
जल्दी से उलटा
हो जाता है; क्योंकि र्तीथकर
ने कोई पाप तो
किया नहीं जो
कांटा चुभे।
तो जीसस को
सूली लगी है, जरूर किसी
महापाप का फल
है।
जैनी
के मन में यह
भाव आयेगा
जीसस को
देखकर। हाथ
नहीं जुड़ेगा।
जीसस के
अनुयायी को
महावीर को
देखकर खयाल आयेगा
कि परम स्वास्थ
मालूम पड़ता है।
दुनिया इतने
कष्ट में पड़ी
है और तुम
सिद्धासन
लगाये बैठे
हो! सारा
संसार जल रहा
है,
तुम आंखें
बंद किये हो!
हमारा जीसस
सबके लिए सूली
पर लटका, और
तुम अपने लिए
बैठे हो! जीसस
जगत का कल्याण
करने आये और
तुम--तुम
सिर्फ अपने ही
घेरे में बंद
हो! उसके हाथ
नहीं जुड़ेंगे।
जीसस
और महावीर तो
दूर हैं। इधर
पास भी देखें, महावीर
और राम तो
बहुत दूर नहीं
हैं! दोनों क्षत्रिय
हैं, एक ही
धारा के
हिस्से हैं।
लेकिन जैनी के
हाथ राम को
देखकर नहीं
जुड़ सकते! वह
सीता मईया
जो पास खड़ी
हैं, वह
उपद्रव है।
भगवान होकर और
पत्नी! यह
कल्पना ही के
बाहर है! और
धनुष-बाण किसलिए
लिये हो? किसी
से लड़ना है? र्तीथकर,
और धनुष-बाण
लिये हो! सोच
भी नहीं सकते!
और पत्नी खड़ी
है। सब गड़बड़
हो गया। अभी
कामवासना में
ही पड़े हो!
लेकिन, राम
के माननेवाले
को महावीर को
देखकर भी कोई
भाव नहीं उठता,
क्योंकि
महावीर उसे
पलायनवादी
मालूम होते
हैं कि जहां
जीवन संघर्ष
है, वहां
तुम भगोड़े
हो! जहां
जरूरत थी कि
लड़ते और
दुनिया को
बदलते, वहां
तुम जंगल में
जाकर आंख बंद
किये बैठे हो।
राम को देखो!
धनुष-बाण लिये
युद्ध में, संघर्ष में
खड़े हैं। और
जब परमात्मा
ने ही स्त्री-पुरुष
को बनाया, तो
तुम छोड़ने
वाले कौन हो!
और जब
परमात्मा ने
ही चाहा कि वे
दोनों साथ हों,
तो
परमात्मा की
मज के खिलाफ
जो जा रहा है
वह नास्तिक
है।
हम
अपनी धारणाओं
के घर बनाये
हैं। उनको हम
मंदिर कहते
हैं। हमने
अपनी धारणाओं
के भगवान बनाये
हैं। वे हमारी
धारणाओं के प्रोजेक्शन
हैं,
प्रक्षेप
हैं। महावीर
कहते हैं, अनगार
चेतना
चाहिए--जिसका
कोई घर नहीं, जिसका कोई
मंदिर नहीं, जिसका कोई
संप्रदाय
नहीं, जिसका
कोई धर्म नहीं,
जिसकी कोई
सीमा नहीं; जो शुद्ध
"होने' में
ही जीता है। न
जो ईसाई है, न जैन है, न
बौद्ध है, न
हिंदू है, न
मुसलमान है। न
जो कहता है
मैं भारतीय
हूं, न जो
कहता है कि
मैं चीनी हूं,
जो किसी तरह
के घेरे नहीं
बनाता। जो न
कहता है कि
मैं धनी हूं, न कहता है
निर्धन हूं। न
जो कहता है
मैं शूद्र हूं,
न जो कहता
है कि मैं
ब्राह्मण
हूं। जो न
कहता है मैं
ऊंचा हूं, न
नीचा हूं। जो
न कहता है मैं
पुरुष हूं, स्त्री हूं।
जो कुछ भी
नहीं कहता। जो
अपनी तरफ कोई
भी विशेषण
नहीं लगाता।
विशेषण-शून्य
व्यक्ति अनगार
है। उसने सब
घर गिरा दिये।
वह खुले आकाश
के नीचे आ
गया। आकाश ही
अब उसका घर
है। यह इतना
विस्तार, यह
विराट ही उसका
अब घर है। ऐसे
व्यक्ति को महावीर
कहते हैं, मैं
ब्राह्मण
कहता हूं, जो
अनगार
है।
"जो
अकिंचन है।'
"अकिंचन'
शब्द भी बड़ा
मूल्यवान है।
अकिंचन का
अर्थ नहीं
होता कि
निर्धन है, दीन है।
नहीं, अकिंचन
का अर्थ होता
है : जो अपने को
"कुछ भी हूं,' ऐसा नहीं
मानता।
सम-बॉडी, कुछ
होने का खयाल
जिसे नहीं है।
एक नो-बॉडीनेस,
एक न-कुछ
होने का भाव
कि मैं कुछ भी
नहीं हूं। यह
"कुछ भी नहीं
हूं'--यह भी
विधायक रूप से
न पकड़ ले कि
"मैं कुछ भी नहीं
हूं,' नहीं
तो यह भी अकड़
बन जाये। बस, होने का भाव
न हो।
बोकोजू
अपने गुरु के
पास गया--एक
झेन फकीर। और उसने
अपने गुरु से
जाकर कहा कि
तुमने कहा था :
ना-कुछ हो जाओ बिकम ए
नो-बॉडी। नाऊ
आई हैव बिकम
ए नो-बॉडी--अब
मैं ना-कुछ हो
गया। उसके
गुरु ने डंडा
उठाया और कहा :
"दरवाजे के
बाहर हो जा, इस
नो-बॉडी को
बाहर छोड़कर आ।
यह जो "ना-कुछ'
को तू भीतर
ला रहा है, नालायक!
यह वही है, "कुछ' हूं।
इसमें कोई
फर्क नहीं
हुआ। अब
दोबारा यहां
मत आना, जब
तक तू कुछ है।'
फिर
बोकोजू की
हिम्मत नहीं
पड़ी आने की।
क्योंकि, असल
में दावा करना
ही जब हो, तो
कुछ का ही
दावा हो सकता
है। "ना-कुछ' का कहीं कोई
दावा होता है?
"ना-कुछ' के
दावे का मतलब
ही खो गया, बात
ही उलटी हो
गयी।
तो फिर
बोकोजू नहीं
आया। वर्ष
बीतते चले
गये। तीन साल बाद
गुरु गया
खोजने कि
बोकोजू कहां
है। शिष्यों
ने कहा कि वह
उस झाड़ के
नीचे बैठा
रहता है। गुरु
उसके पास गया।
बोकोजू उठकर
खड़ा भी नहीं
हुआ! क्योंकि
उठना था, वह
औपचारिक था।
गुरु आये तो
शिष्य को उठना
था; लेकिन
जब कुछ भी न
रहा, तो
शिष्य कौन, गुरु कौन? कहते हैं, गुरु ने
उसके चरणों
में सिर
झुकाया और कहा
कि तू अकिंचन
हो गया। अब
कोई भाव नहीं
रहा कि तू कौन
है। अब ना-कुछ
का भी भाव
नहीं है।
अकिंचन
का अर्थ है : जब
मुझे भाव ही न
रह जाये कि
मैं क्या हूं; सिर्फ
होना रह जाये
अपनी परिशुद्धता
में।
महावीर
कहते हैं :
अकिंचन होना, ब्राह्मण
होना है।
ब्राह्मण की
ऐसी महिमापूर्ण
व्याख्या
महावीर के
अतिरिक्त और
किसी ने भी
नहीं की है।
महावीर
चाहते थे, पूरी
पृथ्वी
ब्राह्मण हो
जाये। ऊपर से
देखने पर लगता
है कि महावीर
ने तोड़ दिये
सारे समाज के
सारे नियम, वर्ण की
व्यवस्था, लेकिन
महावीर की
कल्पना थी कि
सारी पृथ्वी
ब्राह्मण हो
जाये। और जब
तक सारी
पृथ्वी
ब्राह्मण
नहीं हो जाती,
तब तक
धार्मिक होने
का कोई उपाय
नहीं है, पृथ्वी
धार्मिक भी
नहीं हो सकती।
पृथ्वी ब्राह्मण
हो सकती है।
लेकिन, कोई
तिलक-टीकाधारी
ब्राह्मण, चोटी
धारी
ब्राह्मण, यज्ञोपवीत
वाला
ब्राह्मण अगर
कोशिश करे कि
सारी दुनिया
यज्ञोपवीत
पहन ले, चोटी
रख ले, तिलक
लगा ले और
ब्राह्मण हो,
तो पृथ्वी
ब्राह्मण
नहीं हो सकती।
और इस तरह का
ब्राह्मणत्व
फैल भी जाये
तो दो कौड़ी
का है। उसका
कोई मूल्य
नहीं है।
ब्राह्मण
के लक्षणों को
शरीर से हटाकर
महावीर आत्मा
पर ले जा रहे
हैं। हमारी
व्याख्या
ब्राह्मण की जो
महावीर के
पहले थी, वह
शरीर पर थी कि
ब्राह्मण-कुल
में जो पैदा
हुआ, ब्राह्मण
घर में बड़ा
हुआ, ब्राह्मण-जाति
के नियम मानता
है--शास्त्र
पढ़ता है, शास्त्र
पढ़ाता है,
गुरु है--वह
ब्राह्मण है।
महावीर ने
शरीर से सारी
व्याख्या हटा
दी।
"जो
अकिंचन है।'
ध्यान
रहे,
जिसको हम
ब्राह्मण
कहते हैं, वह
अकिंचन कभी
नहीं होता
चाहे उसके पास
कौड़ी भी न
हो। और जब भी
आप उसके सामने
खड़े होते , तो
वह देखता है
कि छुओ पैर!
अकिंचन कभी
नहीं होता।
अगर आप उसके
पैरों में सिर
न रखें तो
अभिशाप देने
को जरूर तैयार
रहता है।
अकिंचन वह कभी
नहीं होता, महान अहंकार
से पीड़ित होता
है।
ब्राह्मण
के चेहरे पर
देखें एक अकड़जो
कि उन सभी
लोगों में आ
जाती है, जो
बहुत समय तक
अभिजात्य
रहते हैं; ऊपर
रहते हैं, छाती
पर रहते हैं
समाज की। उन
सभी में आ
जाती है। जैसे
कि अंग्रेज
चलता था
हिन्दुस्तान
में, जब
उसकी मालकियत
थी, उसकी
चाल, उसकी
आंखें।
ब्राह्मण
हजारों साल से
ऊपर हैं, और
ऊपर होने का
कुल आधार शरीर
है। इसलिए
ब्राह्मणों
को रुचिकर
नहीं लगा
महावीर का यह
कहना कि
ब्राह्मण
होना आत्मा की
गुणवत्ता है।
क्योंकि उनको
लगा कि इससे
तो हमारा सारा
ब्राह्मणत्व,
जो कि शरीर
पर निर्भर है,
बिखरता है।
इसलिए
ब्राह्मणों
ने महावीर का
गहन विरोध
किया। महावीर
की विचारधारा
को मुल्क में
न जमने दिया
जाये, इसकी
पूरी चेष्टा
की। महावीर
घोर नास्तिक
हैं और लोगों
को अधार्मिक
बना रहे
हैं--ऐसा
प्रचार किया।
महावीर कोई ज्ञानी
पुरुष नहीं
हैं, इसकी
पूरी धारणा
फैलायी।
यह
जानकर आपको
हैरानी होगी
कि
महावीर-जैसे
आस्तिक
व्यक्ति के
विचार को
ब्राह्मणों
ने--जाति, जन्म
से बंधे
ब्राह्मणों
ने--नास्तिकता
सिद्ध करने की
चेष्टा की, और उन्होंने
इतने जोर से
प्रचार किया
है महावीर के
नास्तिक होने
का कि भारत के
परंपरागत
दर्शन
शास्त्र के
ग्रंथों में
महावीर का नाम
हमेशा
नास्तिक परंपरा
में गिना जाता
है।
यह बड़ी
चमत्कारपूर्ण
घटना है कि
महावीर और बुद्ध-जैसे
परम आस्तिक, नास्तिक
व्यक्ति
क्यों मालूम
पड़े उन्होंने
जो कहा था
उसके कारण
नहीं ; बल्कि
उन्होंने
जातिगत
स्वार्थों को
जो नुकसान
पहुंचाया
उसका बदला
लेना जरूरी
था। और एक बार
किसी के
नास्तिक होने
की घोषणा कर
दो, तो लोग
अंधे हो जाते
हैं, फिर
लोग सुनना बंद
कर देते हैं।
किसी के भी संबंध
में कह दो कि
वह नास्तिक है,
लोग डर जाते
हैं।
जैसे
आज,
आज किसी
आदमी के बारे
में कह दो कि
वह कम्युनिस्ट
है, फिर
लोग सोच लेते
हैं कि इसकी
बात सुनने की
जरूरत नहीं।
जैसे आज किसी
को
कम्युनिस्ट
कह देना काफी
है निंदा के
लिए।
कम्युनिस्ट
भी अपने को
कम्युनिस्ट
बताने में दो
दफा सोचता है
कि बताना कि
नहीं। ठीक आज
से ढाई हजार
साल पहले
"नास्तिक' इससे
भी ज्यादा
खतरनाक सत्य
था। और चारवाक
के साथ महावीर
को गिनना एकदम
बेहूदी बात
है। क्योंकि
कहां चारवाक,
जो सिर्फ
खाने, पीने
और मौज उड़ाने
की शिक्षा दे
रहा है। जो
कहता है कि न
कोई परमात्मा
है, न कोई
आत्मा है, न
कोई परम जीवन
है--सिवाय
पदार्थ के और
कुछ भी नहीं।
उसके साथ
महावीर को
गिनना या
बुद्ध को गिनना
ज्यादती है।
लेकिन, ब्राह्मणों
ने यह ज्यादती
की। करने का
कारण यह नहीं
था कि महावीर
नास्तिक थे।
करने का कारण
यह था कि
महावीर ने
ब्राह्मण की
व्याख्या को इतना
महान बना दिया
कि सभी
ब्राह्मणों
को साफ हो गया
कि उनमें से
कोई भी
ब्राह्मण
नहीं है। यह
व्याख्या
गिरनी चाहिए।
उनका
ब्राह्मणत्व
छीन लिया। इतनी
बड़ी लकीर खींच
दी ब्राह्मण
की, कि
उसके नीचे
ब्राह्मण
एकदम क्षुद्र
मालूम होने
लगा कि इस
आदमी का वचन
नहीं सुनना
चाहिए।
ऐसा उल्लेख
है शास्त्रों
में कि अगर
कोई ब्राह्मण
निकलता हो
रास्ते से और
सामने पागल
हाथी आ जाये, और
जैन-मंदिर
करीब हो, तो
पागल हाथी के
पैर के नीचे
दबकर मर जाना
बेहतर, जैन-मंदिर
में शरण नहीं
लेनी चाहिए।
क्योंकि पता
नहीं वहां कोई
नास्तिक वचन
कान में पड़
जाए।
मगर आप
ऐसा मत सोचना
कि ऐसा
हिंदुओं ने ही
किया। जैनों
ने भी ठीक यही
किया पीछे।
उन्होंने भी
लिखा है अपने
शास्त्रों
में कि कोई
जैन अगर
हिंदू-मंदिर
के पास पागल
हाथी के सामने
पड़ जाये, तो
बेहतर है मर
जाना पागल
हाथी के पैर
के नीचे दबकर,
हिंदू-मंदिर
में शरण मत
लेना। क्योंकि
वहां कुदैव
की पूजा हो
रही है, कुशास्त्र पढ़ा जा रहा
है।
बड़े
मजे की बात है, महावीर
ने कहा कि कोई
ब्राह्मण
जन्म से नहीं
होता लेकिन सब
जैन जन्म से
जैन हैं!
महावीर ने जैन
की कोई
व्याख्या
नहीं की, क्योंकि
उस दिन कोई
जैन था नहीं। ब्राह्मण
की व्याख्या
की। अब जरूरत
है कि कोई र्तीथकर
जैन की
व्याख्या करे,
कौन है "जैन'?
"जैन' शब्द
"ब्राह्मण' शब्द से
ज्यादा कीमती
है, कम
कीमती नहीं
है।
ब्राह्मण
बनता है
"ब्रह्म' से; कि जो
ब्रह्म को
उपलब्ध होने
लगा। और जैन
बनता है "जिन'
से; जो
स्वयं का
स्वामी होने
लगा, जीतने
लगा अपने को।
जिसने अपने को
पूरी तरह जीत
लिया वह "जिन'
है। और जो
जीतने के
मार्ग पर चल
पड़ा वह "जैन' है। लेकिन
जैन घर में
पैदा होने से
कोई जीतने के
मार्ग पर चलता
है?
लेकिन, जैसा
उस दिन
ब्राह्मण मूढ़
था, और सोच
रहा था
ब्राह्मण कुल
में पैदा होकर
मैं ब्राह्मण
हो गया। वैसा
ही जैन आज मूढ़
है। वह सोचता
है जैनकुल
में पैदा होकर
मैंने सब पा
लिया, संपदा
मिल गयी।
जन्म
से कुछ भी
नहीं
मिलता--हड्डी, मांस-मज्जा
मिलती है।
उसका धर्म से
कोई लेना-देना
नहीं है। धर्म
तो उपलब्ध
करना होता है,
चाहे
ब्राह्मण बनो
और चाहे जैन।
अथक साधना, जन्मों-जन्मों
की चेष्टा का
फल है। जिनत्व
या
ब्राह्मणत्व
उपलब्धि है।
जन्म के साथ
नहीं मिलती, खुद पानी
होती है।
आज
इतना ही।
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