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शनिवार, 29 नवंबर 2014

महावीर वाणी--(भाग--2) प्रवचन-19

वर्णभेद जन्म से नहीं, चर्या से—(प्रवचन—उन्नीसवां)

दिनांक 3 सितम्बर, 1973;
तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर हाल, बम्बई

ब्राह्मण—सूत्र : 3

न वि मुंडिएण समणो, ओंकारेण बंभणो
मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेणतावसो ।।
समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो
नाणेणमुणी होइ, तवेण होइ तावसो ।।
कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ
वइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ।।
एवं गुणसमाउत्ता, जे भवन्ति दिउत्तमा
ते समत्था समुद्धत्तुं,
परमप्पाणमेव चे ।।

सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, "ओम' का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, निर्जन वन में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता, और न कुशा के बने वस्त्र पहन लेने मात्र से कोई तपस्वी ही हो सकता है।
समता से मनुष्य श्रमण होता है; ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है; ज्ञान से मुनि होता है; और तप से तपस्वी बना जाता है।

मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है , कर्म से ही क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है और शूद्र भी अपने किए कर्मों से ही होता है । (अर्थात वर्ण—भेद जन्म से नहीं होता । जो जैसा अच्छा या बुरा कार्य करता है, वह वैसा ही ऊंच या नीच हो जाता है।)
इस भांति पवित्र गुणों से युक्त जो द्विजोत्तम (श्रेष्ठ ब्राह्मण) हैं, वास्तव में वे ही अपना तथा दूसरों का उद्धार कर सकने में समर्थ हैं।

त्य के अनुसंधान में अपरिसीम साहस चाहिए——प्रतिष्ठा को चुनौती देने का, स्वीकृत धारणाओं को खंडित करने का, आदृत मूर्तियों को भंजित करने का। असत्य चाहे कितना ही प्रतिष्ठित हो, उसे असत्य की तरह ही घोषित करना, असत्य की तरह ही जानना साधक के लिए अत्यंत अनिवार्य है। बहुत बार प्रतिष्ठित को हम सत्य मान लेते हैं। परंपरागत को सत्य मान लेते हैं, बहुजन के द्वारा स्वीकृत को सत्य मान लेते हैं। स्वार्थ में भी यही होता है कि व्यर्थ की उलझन में हम न पड़ें, सभी जैसा मानते हैं वैसा ही हम भी मान लें और सभी के साथ भीड़ में खड़े हो जायें। लेकिन भीड़ कभी सत्य को उपलब्ध नहीं होती, समूह तो अंधकार में ही भटकता है। भीड़ से दूर उठने की हिम्मत चाहिए।
भीड़ से दूर उठने में कठिनाई भी होगी, अड़चनें होंगी, असुविधा होगी, लेकिन वह भी सत्य की खोज——तपश्चर्या है। चाहे विज्ञान हो चाहे धर्म, इस संबंध में दोनों राजी हैं, और वह प्रतिष्ठा को, परंपरा को, भीड़ को, क्राउड का जो चित्त है, उसको चुनौती देने की बात।
महावीर शुद्ध सत्य के अन्वेषक हैं। जहां—जहां स्वार्थ ने असत्य के मंदिर खड़े कर रखे हैं, वहां—वहां चोट करना जरूरी है। वह चोट मनुष्यों पर नहीं है, मनुष्यों की भूलों पर है।
विश्व के वैज्ञानिक—वर्तुल में एक छोटी—सी बड़ी मधुर कथा प्रचलित है। आसटरीयन वैज्ञानिक वुल्फगैंग पावली 1958 में मरा। कथा है कि ईश्वर बहुत दिन से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि वह कब मरे और कब आये; क्योंकि पावली जैसे आदमी मुश्किल से कभी होते हैं। असत्य को पकड़ने की, लोग कहते हैं, ऐसी क्षमता मनुष्य जाति के इतिहास में, विज्ञान की परंपरा में दूसरे व्यक्ति के पास नहीं थी। क्षणभर में असत्य को पकड़ लेना, भूल को पकड़ लेना पावली की कुशलता थी। और चाहे कितना ही खोना पड़े, कितना ही दांव पर लगाना पड़े, भूल को अस्वीकार करना या भूल को मद्देनजर करना या छिपाना उसके लिए असंभव था।
हो सकता हो ईश्वर उसकी प्रतीक्षा करता हो, क्योंकि सत्य के खोजी की प्रतीक्षा ही ईश्वर कर सकता है।
पावली मरा, और कथा है कि ईश्वर ने पावली से कहा कि तू भी अनूठा आदमी है। छोटी—छोटी भूलों के लिए तूने अपनी न—मालूम कितनी रातें बिना सोये बिताई हैं। और निश्चित ही जीवन के बहुत से रहस्य——वह भौतिकविद था, फिजिसिस्ट था——भौतिक शास्त्र के बहुत से रहस्य तुझे अनजाने रह गये होंगे और तू प्रतीक्षा कर रहा होगा कि कब परमात्मा से मिलना हो तो उनसे पूछ सके।
तुझे कुछ पूछना तो नहीं है? मैं खुश हूं।
पावली ने कहा कि धन्यभागी, हे प्रभु, एक सवाल मुझे वर्षो से चिंतित कर रहा है, और मेरे मित्रों ने, मेरे साथियों ने जितने भी सिद्धांत खोजे वह सब गलत थे और मामला हल नहीं हो पाया। जब आप ही मौजूद हैं, जिन्होंने जगत को बनाया तो अब हल होने में कोई कठिनाई नहीं है।
उसने भौतिक—शास्त्र का एक उलझा हुआ सवाल ईश्वर से पूछा। उसने कहा कि प्रोटान और इलेक्‍ट्रान दोनों के मास में अठारह सौ गुना का फर्क है। प्रोटान का मास इलेक्‍ट्रान के मास से अठारह सौ गुना ज्यादा है। लेकिन दोनों का विद्युत चार्ज बराबर है; यह बड़ी हैरान करनेवाली बात है। ऐसा कैसे हो पाया? क्या कारण है? जरूर कोई कारण होगा।
ईश्वर ने अपनी टेबिल के ऊपर से कुछ कागजात उठाये और पावली को दिये और कहा कि यह रहा सारा सिद्धांत, इस भेद का सारा सिद्धांत, इस भेद का सारा रहस्य ! पावली गौर से पढ़ गया। फिर से दुबारा लौटकर उसने पढ़ा। तीसरी बार फिर नजर डाली और ईश्वर के हाथ में देते हुए कहा, "स्टिल रांग——अभी भी गलत है।'
कहानी कहती है कि ईश्वर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कहा कि मैंने गलत ही तुझे पकड़ाया था। मैं जानना चाहता था कि ईश्वर को भी गलत कहने की क्षमता तुझ में है या नहीं।
ईश्वर की प्रतिष्ठा से और बड़ी कोई प्रतिष्ठा नहीं हो सकती; लेकिन सत्य के खोजी की आड़ में अगर ईश्वर भी आता हो तो उसे भी हटा देना आवश्यक है। महावीर सत्य के अनुसंधान में लगे थे, और बहुत सी बातें आड़ में थीं। वेद की प्रतिष्ठा थी। और वेद ईश्वर से कम प्रतिष्ठित नहीं था इस देश में। वेद ईश्वर का वचन था। कहना चाहिए ईश्वर से भी ज्यादा प्रतिष्ठित था। अगर ईश्वर भी वापस आ जाये और वेद के खिलाफ बोले, तो ईश्वर अस्वीकृत हो जायेगा, वेद स्वीकृत रहेगा। वेद परम वचन था। महावीर ने वेद को अस्वीकार कर दिया। क्योंकि उन्होंने कहा कि अनुभूति ही परम हो सकती है, शब्द परम नहीं हो सकते। और महावीर ने जो—जो प्रतिष्ठित परंपरा थी, सब पर आघात किये। ब्राह्मण प्रतिष्ठित था। महावीर ने ब्राह्मण की पूरी व्याख्या बदल दी। उस समय कोई सोच भी नहीं सकता था कि शुद्र भी अपने कर्म से ब्राह्मण हो सकता है, ब्राह्मण भी अपने कर्म से शूद्र हो सकता है। लेकिन महावीर ने जन्म की पूरी व्यवस्था तोड़ दी और कहा कि व्यक्ति अपनी चेतना से ब्राह्मण होता है या शूद्र होता है, शरीर से नहीं।
स्वभावतः परंपरा को जब चोट पहुंचाई जाये, तो परंपरा प्रतिशोध लेती है। लेगी ही; क्योंकि न मालूम कितने स्वार्थ गिरेंगे, निहित स्वार्थों को चोट पहुंचेगी——वे बदला भी लेंगे। उन्होंने बदला लिया भी। लेकिन उससे सत्य में कोई फर्क नहीं पड़ता। सत्य प्रतिशोध की अग्नि से गुजरकर और भी निखरकर स्वर्ण हो जाता है।
इस सूत्र में प्रवेश करने के पहले एक बात प्राथमिक रूप से समझ लेनी चाहिए कि धर्म के लिए सबसे बड़ा उपद्रव सदा से एक रहा है, और वह उपद्रव है कि जो आंतरिक है उसे हम बा*हय से तौलते हैं। कारण भी साफ है, क्योंकि मनुष्य का बा*हय हमें दिखाई पड़ता है, अंतस तो दिखाई नहीं पड़ता। अंतस को तौलने का हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है। और अंतस मूल्यवान है, बा*हय तो केवल आवरण है, वस्त्रों की भांति।
एक आदमी सफेद वस्त्र पहन सकता है, इससे शुभ्र हृदय का नहीं हो जाता। एक आदमी काले वस्त्र पहने हो, इससे ही काले हृदय का नहीं हो जाता। हृदय का वस्त्रों से क्या लेना—देना? वस्त्र हृदय को नहीं बदल सकते। यद्यपि उलटी बात हो सकती है कि हृदय अगर शुभ्र हो तो काला वस्त्र प्रीतिकर न लगे, और आदमी काला वस्त्र न पहनना चाहे। लेकिन, सिर्फ काला वस्त्र पहन लेने से किसी का हृदय काला नहीं हो जाता। यह हो सकता है कि हृदय काला हो और आदमी सफेद वस्त्र पहनकर उसे छिपा लेना चाहे। बहुत लोग यह करते हैं। हृदय जितना काला हो, उतना सफेद आवरण में, सफेद वस्त्रों में छिपा लेना जरूरी है। वस्त्र खादी के हों तो और भी अच्छा है। तो भीतर वह जो काला है, वह छिप जाता है।
वस्त्रों से भीतर को पहचानने का कोई उपाय नहीं है। भीतर की क्रांति तो वस्त्रों तक आ जाती है, लेकिन वस्त्रों का परिवर्तन भीतर तक नहीं जाता। लेकिन मनुष्य की कठिनाई है कि हमें बाहर से आदमी दिखाई पड़ता है, भीतर पहुंचने का कोई उपाय भी तो नहीं है। और, धर्म की घटना घटती है भीतर से, और हम देख पाते हैं केवल व्यवहार——अंतरात्मा नहीं। इसी कारण पूरे धर्म की परंपराएं रोगग्रस्त हो जाती हैं।
महावीर नग्न हुए; नग्न होकर परम—ज्ञान को उपलब्ध हो गये, ऐसा नहीं। लेकिन परम ज्ञान जैसा उनके जीवन में घटा, वे इतने निर्दोष हो गये कि नग्नता आ गयी। नग्नता पीछे आयी; निर्दोषता पहले घटी। निर्दोषता को हम नहीं देख सकते, लेकिन उनका बच्चे की तरह नग्न खड़े हो जाना हमें दिखाई पड़ा। हममें से बहुत से लोगों को भी उन्होंने प्रभावित किया। उनके जीवन की सुगंध ने, उनका प्रकाश हमें छुआ। हमारे हृदय की वीणा पर कुछ अनुगूंज हुई; कोई गीत हमारे भीतर भी जगा, कोई प्रतिध्वनि हम में भी गूंजी। हम जो कि बिलकुल जड़ हैं, वे भी थोड़े हिले। लेकिन हमें महावीर की निर्दोषता नहीं दिखाई पड़ी, नग्नता दिखाई पड़ी। तो हमने सोचा : हम भी नग्न खड़े हो जाएं तो महावीर—जैसा ज्ञान हमें भी उपलब्ध हो जाएगा। बात बिलकुल उलटी हो गयी।
हम नग्न खड़े हो सकते हैं, और नग्न खडे? होने का अभ्यास कठिन बात नहीं है। एकाध, दो दिन अड़चन होगी। जब सभी को जाहिर हो जायेगा कि आप नग्न रहते हैं तो बात समाप्त हो जायेगी। दो—चार दिन के बाद नग्नता वैसे ही सहज हो जाएगी, जैसे अभी वस्त्र हैं।
पश्चिम में बहुत से "न्यूड—क्लब' हैं। जो लोग उन नग्न क्लबों के सदस्य बनते हैं, उनको एक—दो दिन अड़चन होती है। सच तो यह है कि सिर्फ पहले दिन ही अड़चन होती है, दूसरे दिन से तो वे भूल ही जाते हैं। तीसरे दिन पता ही नहीं रहता कि कोई नग्न भी है, क्योंकि सभी नग्न हैं।
मेरे एक मित्र एक नग्न क्लब के सदस्य थे अमरीका में। उन्होंने मुझे बताया कि हम भूल ही गये थे कि कोई नग्न है। हमें याद तो तब आया, जब एक दिन एक कपड़े पहने हुए आदमी भीतर आ गया। जहां पांच सौ लोग नग्न थे, वहां एक आदमी के कपड़े पहने हुए भीतर आने से तत्काल हमें पता चला कि अरे, हम नग्न हैं। अन्यथा नग्नता का हमें कोई पता नहीं था।
मन अभ्यस्त हो जाता है। लेकिन नग्न—क्लबों में जो बैठे हैं, वे महावीर नहीं हो जायेंगे। नग्न क्लब की सदस्यता से कोई महावीर नहीं हो जाता।
तो यहां हिंदुस्तान में जैन मुनि हैं, जो नग्न हैं। वे नग्न होने से महावीर नहीं हो जायेंगे। महावीर को मरे हुए पच्चीस सौ साल हो गये। इस बीच बहुत लोग उनके पीछे नग्न हुए, एक में भी महावीर की चमक नहीं आयी। कहीं कुछ भूल हो गयी। जो घटना भीतर से बाहर की तरफ घटी थी, जो झरना सदा भीतर से बाहर की तरफ बहता है, हमने उसे बाहर से भीतर की तरफ ले जाना चाहा। फूल निकलते हैं पौधे में; वे भीतर से आते हैं, फिर खिलते हैं। हम जाकर बाजार से फूल ले आयें और पौधे की डाल पर चिपका दें, शायद किसी अजनबी को धोखा भी हो जाए, और जो नहीं जानता है फूल का अंतजवन, वह शायद चमत्कृत भी हो; कहे, "कैसा सुंदर फूल है!' लेकिन माली को धोखा नहीं दिया जा सकता। और, साधारण आदमी को भी ज्यादा देर धोखा नहीं दिया जा सकता; क्योंकि बाहर से चिपकाया फूल अलग ही मुरझाया हुआ, लटका हुआ होगा। भीतर से आते हुए फूल में जो जीवन है, जो प्रवाह है, जो गति है, वह बाहर से लटकाये हुए फूल में नहीं हो सकती।
तो महावीर की नग्नता का फूल तो भीतर से आता है, फिर महावीर के पीछे चलनेवाला नग्नता को ऊपर से आरोपित कर लेता है और सोचता है कि जब बाहर हम महावीर जैसे हो गये तो भीतर भी महावीर जैसे हो जायेंगे। यह गणित बिलकुल ठीक दिखाई पड़ता है, और बिलकुल गलत है।
यह सभी के साथ होगा, सभी परंपराओं में होगा। महावीर फूंक—फूंक कर कदम रखते हैं, कोई हिंसा न हो जाए उनके जीवन में यह उनको चारों तरफ से घेरे हवा है कि कोई हिंसा न हो जाए; किसी को दुख, किसी को पीड़ा, किसी को कष्ट न हो जाये लेकिन, इसका कारण आंतरिक है। महावीर ने जिस दिन जाना कि "मैं कौन हूं,' उसी दिन उन्हें ज्ञात हुआ कि सभी के भीतर ऐसा ही चैतन्य विराजमान है, और किसी को भी चोट पहुंचाना अतंतः अपने को ही चोट पहुंचाना है।
तो महावीर की अहिंसा उनके ज्ञान की छाया है। फिर उनके पीछे जैनों का समूह है, वह भी अहिंसक होने की कोशिश करता है। उसकी अहिंसा ज्ञान की छाया नहीं है। वह उलटी कोशिश में लगा है। वह सोचता है, जब मैं अहिंसक हो जाऊंगा तो मुझे ज्ञान उपलब्ध होगा। महावीर का आचरण आता है अंतरात्मा की क्रांति से, जैन का आचरण आता है, आचरण से, और सोचता है कि पीछे अंतरात्मा की क्रांति होगी
हम करीब—करीब बिलकुल पागलपन का काम कर रहे हैं, जो असंभव है। ईधन लगाते हैं हम भट्टी में, आग जलती है। आग पीछे आती है, ईधन पहले लगाना पड़ता है। हम आग को पहले रखकर फिर पीछे ईधन को लाने की कोशिश में लगे हैं। वह होगा नहीं, लेकिन होता हुआ दिखता है। धोखा हो जाता है। आदमी आचरण को चिपका लेता है। तब खुद को तो धोखा नहीं होता, खुद तो वह जैसा था वैसा ही होता है, लेकिन दूसरों को धोखा हो जाता है। पूजा, सम्मान, सत्कार मिल जाता है।
बाहर इंगित बड़ी दिक्कतें खड़ी कर देते हैं। दुनियाभर के धार्मिक लोगों के अगर वस्त्र अलग कर लिये जाएं धार्मिकता के, तो भीतर अधार्मिक आदमी बैठा हुआ है। लेकिन इशारे में सब छिप गया है और इशारे का अर्थ हम लगा रहे हैं बाहर से।
मैंने सुना है, मध्य युग में ऐसा हुआ कि रोम के पोप के पास कुछ लोगों ने, ईसाइयों ने अत्यंत गहरा निवेदन किया, खुशामद की, यहूदियों की बड़ी निंदा की और कहा रोम में, जो कि ईसाइयों का गढ़ है, वहां तो एक भी यहूदी का रहना ठीक नहीं है। रोम से यहूदी निकाल बाहर कर दिये जायें।
पोप, आदमी भला था; लेकिन भले आदमी भी पद पर होकर बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। पद किसी को भी बुरा कर सकता है। और, अगर पद पर रहने की थोड़ी सी भी आकांक्षा हो, तो फिर बुरे के साथ समझौता जरूरी हो जाता है।
आदमी भला था, लेकिन पद पर रहने की आकांक्षा। वह उसे लगा कि यह बात तो ज्यादती की है, लेकिन अगर ईसाई धनपति सब नाराज हो जायें तो कठिनाई होगी। तो उसने कहा, अच्छा! पर उसने कहा एक तरकीब —— हम यहूदियों को अलग कर देंगे, लेकिन पहले एक अवसर देना जरूरी है! तो उसने ये अवसर दिया कि यहूदियों में जो भी उनका प्रधान हो जो भी उनका नेतृत्व करे, वह आकर मुझ से विवाद करे। पूरा रोम इकट्ठा होगा। और अगर विवाद में वह मुझसे जीत जाए तो यहूदी रह सकते हैं रोम में, अगर वह हार जाए तो यहूदियों को रोम छोड़ना पड़ेगा। कम से कम इतना न्याययुक्त तो मालूम पड़ेगा कि हार गये। इसलिए रोम छोड़ना पड़ा।
यहूदी बड़े बेचैन हुए। उनके नेता, उनके गुरु, उनके पुरोहित इकट्ठे हुए सिनागाग में, और उन्होंने कहा कि हम तो बड़ी मुश्किल में पड़ गये। और सिनागाग का जो प्रधान पुरोहित था, उसने कहा कि इस विवाद में तो हार निश्चित है, क्योंकि निर्णायक भी पोप है। विवाद भी वही करेगा एक तरफ से, और निर्णायक भी वही है कि कौन जीता कौन हारा! हमारे जीतने का कोई उपाय नहीं है। यह चाल है।
और प्रधान पुरोहित ने कहा कि मैं विवाद में जाने को राजी नहीं; क्योंकि इसका कोई अर्थ ही नहीं है। और अगर मैं हार गया, जो कि निश्चित है, तो मेरे मन में सदा के लिए एक पाप का भाव रह जाएगा कि मेरे हार जाने के कारण सारे यहूदियों को रोम छोड़ना पड़ा। इसलिए मैं नहीं जाता। हम बिना हारे रोम छोड़ दें, वह उचित है।
लेकिन इतनी जल्दी छोड़ने को यहूदी राजी न थे; तो पुरोहितों से पूछा, लेकिन कोई राजी न हुआ। सिनागाग में जो आदमी बुहारी लगाता था, वह बड़ी देर से सुन रहा था, सफाई भी कर रहा था। उसने कहा, अच्छा तो मैं चला जाऊंगा! लोगों ने कहा, तू पागल है, तू समझता क्या है? तू सिर्फ बुहारी लगाता रहा है। उसने कहा, थोड़ा—बहुत जो भी समझ गया हूं जब कोई जाने को राजी ही नहीं है, तो किसी का जाना जरूरी है — तो मैं जाता हूं।
कोई उपाय न देख कर बुहारी लगानेवाले उस बूढ़े को यहूदी विवाद में भेजने के लिए राजी हो गये। सारे रोम के यहूदी और ईसाई बीच चौक में रोम के इकट्ठे हुए। पोप भी थोड़ा चिन्तित हुआ यह देखकर कि एक बुहारी लगाने वाला बूढ़ा यहूदी विवाद करने आया है। लेकिन कोई उपाय नहीं था, क्योंकि यहूदियों ने उसे अपना नेता चुना था। पोप ने विवाद शुरु किया उसने आकाश की तरफ हाथ उठाकर यहूदी को आकाश दिखाया। जब पोप ने आकाश की तरफ इस तरह हाथ करके दिखाया तो यहूदी ने अपना हाथ मीन की तरफ करके दिखाया। पोप बड़ा प्रसन्न हुआ कि ग ब का आदमी है, जभी तो चुना होगा इसको। फिर पोप ने एक उंगुली ठीक उस यहूदी के सामने कर दी। उस यहूदी ने तीन उंगुलियां पोप के सिर के सामने कर दी।
पोप को पसीना आ गया कि यह आदमी तो जीत जायेगा ! कोई उपाय न देखकर पोप ने अपने खीसे से एक सेव निकाला और उस सेव को यहूदी के सामने किया। उसने भी झट अपनी कमर में बंधे हुए एक बैग में से एक रोटी निकाली और पोप के सामने कर दी।
पोप ने कहा कि दिस मैन इज़ डिक्लेयर्ड विक्टोरियस ऐन्ड ज्यूज़ कैन रिमेन इन रोम — यह आदमी जीत गया। यहूदी रह सकते हैं रोम में।
सारे ईसाई पादरी चकित हुए। वो पास आये। जैसे ही यहूदियों का झुंड चला गया अपने नेता को लेकर, उन्होंने पोप से पूछा, ""इतनी जल्दी लेन—देन हुआ आप दोनों के बीच, और इतने चमत्कारी ढंग से कि हम तो कुछ समझ ही नहीं पाये कि हो क्या रहा है! और वह जीत भी गया! मामला क्या था, हमें समाझाइये''
पोप ने कहा कि मैंने उस बूढ़े को इशारा किया कि सारे जगत में एक ही परमात्मा का राज्य है। यहूदी बड़ा होशियार था — ही वाज़ ए मास्टर ऑफ डिबेट्स। उसने कहा, ""और नीचे शैतान का भी राज्य है, मीन के नीचे पाताल। उसको मत भूल जाओ।''
बात सच्ची थी। मैंने उसके सामने फिर भी कहा, लेकिन परमात्मा एक ही है, दो कैसे हो सकता है? तो मैंने एक अंगुली उसके सामने की। उसने तीन अंगुली मेरे मुंह के सामने करके मुझको ही हरा दिया। ट्रिनिटि — तीन का सिद्धान्त : कि परमात्मा तीन है, एक नहीं है।
ईसाई मानते हैं कि परमात्मा तीन है, जैसा कि हिंन्दु मानते हैं त्रिमूर्ति। ईसाई मानते हैं, परमात्मा, होली घोस्ट और उसका पुत्र।
तो कोई उपाय ही नहीं था। मेरी ही चीज़ मेरे ही सिर पर मार दी उसने तीन बताकर। तो मैंने सोचा कि सिद्धान्तों में इसको उलझाना मुश्किल है। कोई और सरल—सा उपाय निकालूं, शायद उसमें हार जाए। तो मैंने अपने खीसे से एक सेव निकाला, कि कुछ नासमझ कहते हैं कि जमीन गोल है सेव की तरह। उस समय विज्ञान की नयी खोजें चल रही थीं; और विज्ञान सिद्ध कर रहा था कि जमीन वर्तुलाकार है, चपटी नहीं।
यहूदी भी गज़ब का था; रोटी के साथ लेकर आया था। उसने रोटी दिखा दी; कहा कि कोई कुछ भी कहे, लेकिन जैसा बाइबिल में कहा है कि ज़मीन रोटी की तरह सपाट और चपटी है। हारने के सिवा कोई उपाय नही था।
सिनागाग भागा हुआ उस यहूदी के पास पहुंचा। उन्होंने उस बुहारी लगाने वाले से कहा कि तूने हद कर दी! क्या गज़ब का आदमी है! हुआ क्या? उसने कहा, ""एवरीथिंग वाज़ जस्ट नॉनसेन्स। दैट मैन इज़ मैड। और अगर चौथा सवाल पूछता तो मैं उसको झपट्टा मार देता। बहुत गुस्सा मुझे आ रहा था।''
"फिर भी हुआ क्या? तू जीत तो गया!'
उसने कहा कि वह तो मेरी समझ में भी नहीं आता। जब पोप ने ऐसा हाथ किया तो मैने समझा कि वह कह रहा है कि निकलो यहूदियो रोम से। मैंने कहा कि दुनिया की कोई ताकत हमें इस जगह से नहीं हटा सकती। हम यहीं रहेंगे। उस आदमी ने मेरी आंख के सामने एक अंगुली की; और कहा कि ड्राप डेड——मर जाओ। तो मैंने तीन अंगुली की और कहा कि यू ड्राप डेड थ्राइस। और तब मैंने देखा——देन आइ सा दैट ही इज ब्रिंगिंग आउट हिज लंच, सो आइ ब्राट आउट माइन——वह अपना भोजन निकाल रहा है। तो मैं भी अपना भोजन तो साथ रोज रखता ही हूं। गरीब आदमी हूं, रोज दोपहर घर जाना आसान नहीं होता। जब तुम अपना भोजन निकाल रहे हो, हम भी निकालते हैं। और वह जो चौथा उसने नहीं पूछा, सो ठीक ही किया।
बाहरी प्रतीक कुछ भी खबर नहीं देते, और उनसे भीतर का अंदाज आप जो लगाते हैं, वह अनुमान है। लेकिन हम यही कर रहे हैं। एक आदमी मंदिर जा रहा है, तो हम समझते हैं, धार्मिक है। मंदिर जाना बाहरी प्रतीक है। पता नहीं, वह किसलिए जा रहा है, किस कारण से जा रहा है? कि मंदिर में स्त्रियां इकट्ठी हैं, इसलिए जा रहा है, कि मंदिर में गांव के सब लोग, भले लोग इकट्ठे हैं, वे देख लें कि मैं भी भला आदमी हूं, इसीलिए जा रहा है। वह मंदिर किसलिए जा रहा है, इतने से कुछ पता नहीं चलता कि वह धार्मिक है।
एक आदमी उपवास कर रहा है, पूजा—प्रार्थना कर रहा है, इससे कुछ पता नहीं चलता कि वह धार्मिक है। ये तो बाहर के प्रतीक हैं; हम अनुमान लगाते हैं। और एक आदमी चुप बैठा है; मंदिर नहीं जा रहा है, तो हम सोचते हैं, अधार्मिक है। लेकिन कुछ आवश्यक नहीं, जो मंदिर जा रहा है, वह धार्मिक न हो। जिंदगी जटिल है। और जो एकांत में चुप बैठा हो, वह धार्मिक हो। कहना मुश्किल है। लेकिन, हम बाहर से देखते हैं और इसलिए दुनिया में पाखंड फैलता चला जाता है, हिपोक्रेसी फैलती जाती है। हमारे बीच जो चालाक हैं, वे बाहर का इंतजाम कर लेते हैं और हमारे बीच जो चालाक नहीं हैं, वे उलझ जाते हैं, फंस जाते हैं।
जो अपराधी फंस जाते हैं, वे सब छोटे अपराधी हैं। बड़े अपराधी फंस नहीं पाते। बड़े अपराधी तो अधिकार में, पद में प्रतिष्ठा में होते हैं; उन्हें फंसाना मुश्किल है। वे काफी होशियार हैं। वे बाहर का इंतजाम कर रखते हैं।
ऐसा कहा जाता है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मंदिर के पुरोहितों को कभी भरोसा नहीं होता कि "ईश्वर है।' यह उनका धंधा होता है——यह प्रोफेशनल सीक्रेट है। ईश्वर में उन्हें कभी भरोसा नहीं होता, हो भी नहीं सकता। मंदिर के पुरोहित को क्या खाक भरोसा होगा, क्योंकि जो नौकरी कर रहा है पूजा के लिए, नौकरी कर रहा है प्रार्थना के लिए; प्रार्थना जैसे निजी संबंध को जिसने व्यवसाय बना लिया है, उसे परमात्मा का कोई अनुभव नहीं हो सकता।
मंदिर का पुरोहित जानता है कि भगवान वगैरह कुछ भी नहीं है, लेकिन निरंतर घोषणा करता रहता है अपने सारे आचरण से, कि है, क्योंकि उसका सारा जीवन, सारा व्यवसाय, सारा धंधा भगवान के होने पर निर्भर है। इसलिए जब कोई कहता है कि भगवान नहीं है, तो पुरोहित की नाराजगी यह नहीं है कि आप असत्य बोल रहे हैं, पुरोहित की नाराजगी यह है कि सत्य बोलकर आप उसका पूरा धंधा खराब किये दे रहे हैं। पुरोहितों को कभी भरोसा नहीं होता। हो नहीं सकता; लेकिन पाखंड का जाल उनके चारों तरफ होता है, जिससे दूसरों को भरोसा मिलता रहता है कि वे भरोसा करते हैं।
महावीर का यह सूत्र सारे पाखंड की जड़ काट देने का सूत्र है। महावीर कहते हैं, "सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता।'
जैसे "ब्राह्मण' शब्द बहुमूल्य है, वैसे ही महावीर के लिए "श्रमण' शब्द महत्वपूर्ण है। और भारत में दो संस्कृतियों की धारा है। एक ब्राह्मण संस्कृति की धारा है और एक श्रमण संस्कृति की धारा है। श्रमण संस्कृति में बुद्ध और महावीर आते हैं और शेष सारे विचारक ब्राह्मण संस्कृति में आते हैं। ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति का मौलिक भेद समझ लेना चाहिए।
ब्राह्मण समर्पण की संस्कृति है, सरेंडर की। ब्राह्मण संस्कृति का मौलिक आधार है कि जब तक कोई व्यक्ति अपने अहंकार को परमात्मा के चरणों में न छोड़ दे, तब तक ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती। ब्रह्म उपलब्ध होगा, जब अहंकार समर्पित हो जायेगा।
तो समर्पण, श्रद्धा ब्राह्मण संस्कृति का सूत्र है। श्रमण संस्कृति बिलकुल भिन्न है। श्रमण शब्द बना है श्रम से। श्रमण संस्कृति का आग्रह है कि समर्पण से परमात्मा नहीं मिलेगा; श्रम से मिलेगा——प्रयास से, साधना से। सिर्फ "असहाय हूं और पतितपावन, मुझे बचाओ' इन प्रार्थनाओं से नहीं मिलेगा। जीवन को बदलना होगा। मेहनत करनी होगी। एक—एक इंच जीवन को रूपांतरित करना होगा। कोई प्रार्थना सफल नहीं हो सकती, साधना सफल होगी।
अहंकार मिटाना है। लेकिन श्रमण धारा कहती है कि अहंकार समर्पण करने से नहीं मिट सकता। क्योंकि पहली तो बात यह है कि जो है, उसी का समर्पण किया जा सकता है; जो है ही नहीं, उसका समर्पण कैसे होगा? श्रमण धारा कहती है कि "अहंकार नहीं है', इस सत्य को जानने की साधना करनी पड़ेगी। समर्पण से क्या होगा? छोड़ेंगे कहां जो है ही नहीं, होता कुछ, तो छोड़ देते।
और फिर श्रमण संस्कृति कहती है कि अगर दूसरे के चरणों में छोड़ेंगे तो अहंकार यहां से हटा, लेकिन वहां मौजूद होगा जहां छोडेंगे। और इसलिए भक्त का अहंकार अपने भीतर से हटकर भगवान के साथ जुड़ जाता है। भक्त को आप गाली दें, वह नाराज नहीं होगा; उसके भगवान को गाली दें, वह लड़ने को तैयार हो जायेगा।
तो अहंकार शिफ्ट हुआ। कल तक अपने साथ था कि मैं महान हूं। अब मैं महान हूं, यह छोड़ दिया, लेकिन मेरा भगवान, मेरा कृष्ण, मेरा राम, मेरा जीसस, मेरा महावीर महान है। अहंकार दूसरी तरफ हट गया, लेकिन सूक्ष्‍म रूप से अब भी आपका ही अहंकार है; क्योंकि न वहां राम है, न वहां कृष्ण है, न महावीर है उसको झेलने को। आप अपने ही हाथ में संभाले हुए हैं। भगवान भी आपका, अहंकार भी आपका। वे दोनों आपके भीतर ही छिपे हैं।
श्रमण संस्कृति है——अहंकार मिटाना है, समर्पण करने का कोई उपाय नहीं है। और मिटाने का अर्थ है कि इतना श्रम करना है कि स्वयं दिखाई पड़ जाए कि अहंकार है ही नहीं। वह श्रम से ही तिरोहित हो जाए। जैसे सुबह की ओस की बूंद सूरज के उगने पर तिरोहित हो जाती है, ऐसे ही जीवन की धारा जब संगृहित होती है, इन्टिग्रेट होती है, समग्र होती है, तो अहंकार का कुहासा समर्पित नहीं होता है, विसर्जित हो जाता है। श्रमण संस्कृति "स्वयं' पर भरोसा रखती है; ब्राह्मण संस्कृति "ब्रह्म' पर भरोसा रखती है। श्रमण संस्कृति "व्यक्तिवादी' है; ब्राह्मण संस्कृति "अद्वैतवादी' है। ब्राह्मण संस्कृति में एक ब्रह्म है, और श्रमण संस्कृति में उतने ही ब्रह्म हैं जितनी चेतनाएं हैं। और हर व्यक्ति ब्रह्म होने का अधिकारी है। ये दो धाराएं हैं।
महावीर कहते हैं, "सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता।' जैन साधु हो जाते हैं लोग। उनका सिर मुंडा दिया, वस्त्र बदल दिये, हाथ में उपकरण दे दिये साधु के; साधु हो गये! कल तक यह आदमी साधु नहीं था; एक क्षण वस्त्र बदल लेने से, सिर मुंडा लेने से एक क्षण में साधु हो गया! कल तक इसके चरण कोई छूता नहीं, शायद यह चरण छूता तो लोग अपने चरण को हटा लेते; अब लोग इसके चरणों पर सिर रखते हैं! इसलिए महावीर कहते हैं, "सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं हो जाता।'
बा*हय आचरण पूरा भी कर लिया जाए, तो भी भीतर के श्रमण का जन्म नहीं होता। हां, भीतर के श्रमण का जन्म हो, तो बाहर का आचरण भी पीछे आ सकता है, लेकिन बड़े फर्क हैं। बुनियादी फर्क यह है कि अगर कोई भीतर से श्रमण की स्थिति को उपलब्ध हो जाए, तो बाहर का आचरण बदलेगा जरूर, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति का अलग बदलेगा। इसे जरा समझ लें, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का ढंग भिन्न है, बेजोड़ है। तो महावीर नग्न खड़े हो जायेंगे। बुद्ध भी श्रमण को उपलब्ध हुए, लेकिन नग्न खड़े नहीं हुए। महावीर नग्न खड़े हुए। यह उनका निजी ढंग है। जो घटना घटी है, उस घटना को अभिव्यक्त करने का उनका निजी ढंग है। बुद्ध को यह निजी ढंग नहीं जमा; यह खयाल में भी नहीं आया। जब कोई व्यक्ति भीतर की क्रांति को उपलब्ध होता है तो बाहर को व्यवस्था नहीं देता; बाहर जैसा भी घटित होने लगता है उस चेतना के प्रकाश में, वैसा घटित होने देता है। तो दुनिया के सारे ज्ञानी एक जैसा व्यवहार करते नहीं दिखाई पड़ते।
यह बात बड़े मजे की और समझ लेने जैसी बात है कि अगर ज्ञान भीतर हो, तो दो ज्ञानियों का व्यवहार एक जैसा नहीं होगा, लेकिन अगर आचरण थोपा जाए तो हजारों ज्ञानियों का व्यवहार एक जैसा होगा। मगर वे ज्ञानी नहीं हैं।
पांच सौ जैन साधुओं को खड़ा कर दें, अगर वे तेरापंथी हैं तो सब मुंह पर पट्टी बांधे हुए खड़े हैं; जैसा कि सैनिक या सिपाही खड़े हों। सैनिक और सिपाही का एक जैसा, एक युनिफार्म में खड़े हो जाना समझ में आता है; एक ढंग से खड़े हो जाना समझ में आता है; उसका कारण है, क्योंकि सैनिक के व्यक्तित्व को मिटाने की पूरी कोशिश की जाती है; ताकि उसमें कोई आत्मा न रह जाए; आत्मा रहे, तो युद्ध में वह कुशल नहीं हो पायेगा। वह जड़ मशीन की तरह हो जाए, उसका सारा काम यांत्रिक हो जाए।
तो आप पांच सौ सैनिकों को खड़ा करके देखें, आपको पांच सौ लोग दिखाई पड़ेंगे, लेकिन व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ेंगे। सब चेहरे एक जैसे मालूम होंगे। एक सा कपड़ा, एक सी बंदूक, एक सी टोपी, एक से बाल कटे, सब एक जैसे मालूम होंगे। व्यक्तित्व खो जाता है, भीड़ रह जाती है। इसलिए, मिलिट्री में हम नंबर दे देते हैं, नाम हटा देते हैं, क्योंकि नाम से थोड़ा व्यक्तित्व का पता चलता है। अगर एक आदमी मर जाता है, तो तख्ती पर खबर लग जाती है कि ग्यारह नंबर गिर गया। ग्यारह नंबर गिरने से कुछ नंबर भी पता नहीं चलता, कौन गिर गया? वह कवि था, वैज्ञानिक था, साधु था, असाधु था; उसके बच्चे हैं, पत्नी है?कुछ पता नहीं चलता। ग्यारह नंबर का न कोई परिवार होता है, न कोई बच्चे होते हैं, न पत्नी होती है। ग्यारह नंबर के क्या बच्चे होंगे? ग्यारह नंबर नंबर गिर जाता है, तख्ती पर लोग पढ़ लेते हैं। बात खतम हो गयी। ग्यारह नंबर की जगह दूसरा आदमी ग्यारह नंबर हो जाता है।
ध्यान रहे, नंबर रिप्लेस किये जा सकते हैं, व्यक्ति रिप्लेस नहीं किये जा सकते। कोई उपाय नहीं है। आपमें से एक व्यक्ति हट जाए, कोई उपाय नहीं है जगत में कि उसकी जगह दूसरा व्यक्ति रखा जा सके। क्योंकि उसकी पत्नी कहेगी कि कितना ही दूसरा व्यक्ति प्यारा हो, मेरा पति नहीं है। उसके बेटे कहेंगे कि कितना ही अच्छा आदमी हो, लेकिन मेरा पिता नहीं है; उसके मित्र कहेंगे कि सब ठीक है, लेकिन वह मित्रता कहां? उसकी मां कहेगी कि सब ठीक है, लेकिन मेरा बेटा जिसे मैंने जन्मा था!
व्यक्ति को स्थान पर रखा नहीं जा सकता, बदला नहीं जा सकता; नंबर बदले जा सकते हैं। एक फिएट कार की जगह दूसरी फिएट कार रखें, तीसरी रखें, कोई फर्क नहीं पड़ता। यंत्र बदले जा सकते हैं। तो मिलिट्री पूरी कोशिश करती है कि व्यक्ति मिट जाए और यंत्र रह जाए। और उस व्यक्ति को पूरी ऐसी चेष्टा करवायी जाती है कि धीरे—धीरे आज्ञा उसके लिए मैकेनिकल हो जाए, सोच—विचार समाप्त हो जाए। तो इसलिए उसको लेफट—राइट करवाते रहते हैं वर्षो तक। लेफट—राइट की कोई जरूरत नहीं है कि बायें घूमो, दायें घूमो, आगे चलो, पीछे जाओ——उसको करवाते रहते हैं। नया—नया सैनिक भी हैरान होता है कि इतना यह करवाने से क्या मतलब है, और वर्षो तक! लेकिन इसका उपयोग है। धीरे—धीरे "बायें घूमो' यह सुनते ही उसे सोचना नहीं पड़ता, वह बायें घूमता है। सोचने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जिस दिन बिना सोचे शरीर बायें—दायें घूमने लगता है, उस दिन यह आदमी अब सैनिक हो गया; इसकी आत्मा खो गयी। अब इससे कहो, गोली चलाओ, तो इसका हाथ सीधा बंदूक के घोड़े पर जायेगा; गोली चलेगी। अब वह सोचेगा नहीं कि मैं किसको मार रहा हूं? क्यों मार रहा हूं? मारने का क्या अर्थ है, क्या प्रयोजन है? , अब वह यंत्रवत हो गया।
तो सैनिक के लिए तो पोंछ मिटा देना तो शायद उचित हो, लेकिन साधु के लिए पोंछकर मिटा देना बिलकुल गलत है। लेकिन पांच सौ तेरापंथी साधु खड़े कर दें, कि स्थानकवासी साधु खड़े कर दें, कि दिगंबर साधु खड़े कर दें, वे सब बिलकुल एक जैसे लकीर के फकीर होकर चल रहे हैं। इससे लगता है कि भीतर कोई अपनी चेतना नहीं है जो मार्ग खोज सके। शास्त्र ने जो मार्ग दिया है उसको नाप—नापकर चल रहे हैं, अपना कोई बोध नहीं है जो आचरण बन सके। आचरण शास्त्र से पकड़ा है; उसको थोपते चले जा रहे हैं। इससे एक बड़ी अशोभन घटना घटती है कि आत्मा खो जाती है साधु की भी। औपचारिक व्यवस्था रह जाती है, आत्मा खो जाती है।
महावीर कहते हैं कि यह होगा ही, अगर कोई बाहय को ज्यादा मूल्य देगा आंतरिक से, और पहले बा*हय को बदलने की कोशिश करेगा, और सोचेगा, पीछे भीतर को बदल लूंगा।
सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता। हालांकि यह हो सकता है कि जो श्रमण हो गया है, वह सिर मुंडा ले। यह दूसरी बात हो सकती है, जरूरी नहीं है कि हो। और ध्यान रखना कि जो सिर न मुंडाये तो ऐसा मत समझ लेना कि वह श्रमण नहीं हुआ। लेकिन यह घटना भी घट सकती है कि कोई श्रमण होकर सिर मुंडा ले।
बालों का एक सौंदर्य है। बालों का एक आकर्षण है। बाल बहुत कामुक हैं, खींच सकते हैं; इसलिए हम सिर मुंडाने में भयभीत होते हैं। कोई आपका सिर मुंडा दे तो आप घर से निकलना पसंद नहीं करेंगे कि लोग क्या कहेंगे! हम तो तब सिर मुंडाते हैं आदमी का, जब वह मर जाता है। तब उसका सिर सफा कर देते हैं, न अब कोई देखने की दिक्कत है, न कोई डर है, न अब किसी को आकर्षित करना है।
बालों का एक कामुक आकर्षण है। इसलिए पुरुष तो सिर मुंडा भी ले, स्त्री सिर मुंडाने को बिलकुल राजी नहीं हो सकतीं। और स्त्री सिर मुंडी हुई बिलकुल पुरुष जैसी मालूम होने लगती है; स्त्री जैसी मालूम नहीं होती। स्त्री का बहुत—सा सौंदर्य उसके बालों में छिपा है।
तो महावीर कहते हैं, श्रमण होकर कोई सिर मुंडा सकता है, क्योंकि अब उसे कोई प्रयोजन नहीं रहा दूसरे को आकर्षित करने में। अब अपनी सुविधा की बात है। और श्रमण को बाल दिक्कत दे सकते हैं। महावीर कहते हैं कि बाल अगर रखना हो तो दूसरों पर बालों को कटवाने के लिए निर्भर होना पड़ता है। अकारण निर्भरता बढ़ती है। या साथ में साधन रखो, रेजर रखो, उस्तरा रखो कि बालों को साफ करो। अगर न साफ करो तो गंदगी बढ़ती है। अगर बालों को बढ़ने दो तो उनकी सफाई का ध्यान रखना पड़ता है। अगर सफाई न करो तो जुएं पड़ जाएं और दूसरा मल इकट्ठा हो जाए। वह सब कष्टपूर्ण है। तो महावीर कहते हैं कि जो व्यक्ति श्रमण हो गया है, वह हो सकता है कि बालों को साफ कर दे। बालों को साफ कर देना एक गौण घटना है; क्योंकि अब उसे कोई उत्सुकता नहीं है कि उसके शरीर को कोई सुंदर माने। और उसके स्वास्थ्य के लिए हितकर होगा, स्वच्छता में सहायक होगा और व्यर्थ की व्यवस्था उसे नहीं जुटानी पड़ेगी।
महावीर कहते हैं कि साधक को व्यवस्था न जुटानी पड़े, ऐसे जीना चाहिए। कुछ भी उसे ढोना न पड़े। तो बाल अकारण है, लेकिन इससे उलटा सही नहीं है कि आप बाल घुटा लें तो आप श्रमण हो गये। बालों को घुटाने के पीछे और भी कारण हैं। जो लोग महावीर की साधना में उतरेंगे और भीतर की साधना में प्रवेश करेंगे, वे चाहेंगे कि बाल न घोंट ले।
आपको शायद खयाल में नहीं है, बाल भी अकारण नहीं हैं और कुछ कर रहे हैं। शायद आपको खयाल हो, कि मनुष्य अतीत में, कोई दस लाख साल पहले, मनुष्य के पूरे शरीर पर बाल थे, क्योंकि पूरे शरीर को रक्षा की जरूरत थी। जैसे—जैसे आदमी की रक्षा की व्यवस्था बदलती गयी और शरीर को रक्षा की जरूरत न रही, शरीर से बाल तिरोहित होने लगे। अब सिर्फ उन जगहों पर बाल रह गये हैं, जहां अभी भी रक्षा की जरूरत है। कुछ ग्लैंड्स भीतर छिपे हैं जिनको रक्षा की जरूरत है।
महावीर की साधना का एक हिस्सा है कि भीतर का जो ताप है, भीतर की जो ऊर्जा है, गम है, उस गम को, उस ऊर्जा को, उस अग्नि को काम—केंद्र से उठाकर सहस्रार तक लाना है। बाल उस गम को बिखरने में बाधा देंगे, उस गम को मस्तिष्क में रोक लेंगे। वह गम आकाश में तिरोहित हो जानी जाहिए, अन्यथा मस्तिष्क भारी और रुग्ण हो जायेगा। तो सहस्त्रार के स्थान पर बाल नहीं होने चाहिए ताकि ऊर्जा सीधी आकाश में लीन हो जाए।
ध्यान रहे, शरीर में ऊर्जा पैदा हो रही है। उसको विसर्जित करने के दो उपाय हैं। एक तो संभोग के द्वारा, तो वह निम्नतम केंद्र से जगत में चली जाती है, प्रकृति में चली जाती है, और दूसरा उपाय है सहस्रार के मार्ग से, श्रेष्ठतम केंद्र से।
ये दो छोर हैं। और जैसे विद्युत केवल छोर से ही विसर्जित हो सकती है, ऐसे ही इन दो छोरों से जीवन—ऊर्जा विसर्जित होती है। जो व्यक्ति सहस्रार से अपनी जीवन—ऊर्जा को आकाश में छोड़ने में समर्थ हो जाता है, महावीर उसको ही श्रमण कहते हैं। वह कामवासना से बिलकुल जितनी दूर संभव हो सकता है, उतनी दूर चला गया है, और उसकी ऊर्जा ने नयी दिशा और नया आयाम ले लिया। यह गुणात्मक अंतर है, इसलिए श्रमण चाहेगा कि बालों को घोट दे।
आप जानकर हैरान होंगे कि जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु बाल घोटते रहे हैं और हिंदू ऋषि—मुनि बाल बढ़ाते रहे हैं, घोटते नहीं रहे हैं। शंकराचार्य ने जरूर हिंदू संन्यासियों के लिए बाल घुटवाने शुरू किये, क्योंकि शंकराचार्य ने अपनी साधना का अधिकतम हिस्सा बौद्धौं से उधार लिया। लेकिन हिंदू ऋषि—मुनि, अगर आप उपनिषदों और वेदों के ऋषि—मुनियों को देखें, तो वे सब दाढ़ी और बालों को पूरी तरह बढ़ाते रहे हैं। उनकी साधना—प्रक्रिया बिलकुल भिन्न है। उस प्रक्रिया में बाल सहयोगी हो जाते हैं।
जैन साधना में ऊर्जा को विसर्जित करना है। अनंत ब्रह्मांड में ऊर्जा खो जाए, क्योंकि वह ऊर्जा शरीर की ही है, आत्मा की नहीं है। हिंदू साधना में——विशेषकर पतंजलि की साधना में उस ऊर्जा को विसर्जित नहीं करना है, उस ऊर्जा को सहस्रार पर इकट्ठा करना है। दोनों रास्ते अलग हैं। हिंदू साधना में उस ऊर्जा को इकट्ठा करना है एक खास सीमा तक, और जब वह एक खास सीमा तक इकट्ठी हो जाए तभी परमात्मा को समर्पित करनी है।
तो बाल उस ऊर्जा को रोकने में सहयोगी हैं। हिंदू संन्यासियों का बाल का घोटना, सिर को मुंडाना शंकराचार्य के बाद प्रारंभ हुआ और गति पकड़ गया लेकिन वह बौद्ध परंपरा से आयी हुई धारणा है। साधकों ने जो भी चुना है, उसके पीछे कुछ कारण हैं। और, अगर कारण खयाल में न हों और अंधों की भांति लोग चलते जाएं, तो उससे कोई लाभ नहीं होता, कभी नुकसान भी हो सकता है।
महावीर और बुद्ध शीर्षासन के पक्ष में नहीं और उन्होंने योगासनों को कोई मूल्य नहीं दिया। पतंजलि, हिंदू योग का मूल आधार जिसने रखा, वह शीर्षासन के बहुत पक्ष में है। जो आदमी शीर्षासन करता है उसके लिए बालों का होना बिलकुल जरूरी है, नहीं तो खतरा होगा, नुकसान होगा। क्योंकि जब आप शीर्षासन में खड़े होते हैं तो जीवन—धारा पूरी की पूरी सिर की तरफ बहती है। अगर उसको रोकने का कोई उपाय न हो तो शीर्षासन के बाद आप अपने को बिलकुल निस्सत्व और कमजोर पायेंगे। उसे रोकना चाहिए। इसलिए हिंदू मुनि जटाएं बढ़ाता था, जितनी बड़ी कर सकता था। कभी नहीं कटाता था, उनको बढ़ाते चला जाता था। उनकी वह पगड़ी बना लेता था, और उस पगड़ी पर शीर्षासन करता था। वह पगड़ी सिर और पृथ्वी के बीच अंतराल का काम करती थी, नहीं तो पृथ्वी झटके से ऊर्जा को खींच लेती। और वह झटके से ऊर्जा का खींचना बड़ा खतरनाक हो सकता है। वह शरीर को कई तरह के नुकसान पहुंचा सकता है। कई दफा जिंदगी में बड़ी उलझनें हो जाती हैं। शंकराचार्य ने मुंडा तो कर दिया हिंदू संन्यासियों को, लेकिन शीर्षासन करने से नहीं रोका।
अकारण कुछ भी नहीं है। छोटा—सा नियम भी जब ज्ञानियों ने चुना है, तो उसके पीछे उनके अपने कारण हैं। महावीर किसी और प्रक्रिया पर काम कर रहे हैं, तो वे कहते हैं कि यह हो सकता है कि श्रमण होकर कोई सिर मुंडा ले, लेकिन सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता। और अच्छा है उन्होंने यह कह दिया। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि चार हजार साल के बाद बच्चे मुंडे ही पैदा होंगे। जैन साधु को बड़ी तकलीफ होगी तब।
आपको पता है, सिर से बाल कम होते जा रहे हैं। जैसे—जैसे आदमी की बुद्धि विकसित होती जाती है, वैसे—वैसे सिर से बाल कम होते जाते हैं। पुरुषों के सिर से बाल ज्यादा गिरते हैं, स्त्रियों के कम गिरते हैं; क्योंकि उन्होंने बुद्धि का उतना उपयोग किया नहीं है। तो वह सबूत है इस बात का कि बुद्धि की प्रक्रिया पर उन्होंने काम नहीं किया; इतनी ऊर्जा उनके सिर में इकट्ठी नहीं होती कि बाल गिर जाएं। इसलिए स्त्रियां गंजी नहीं हो पातीं, पुरुष गंजे हो जाते हैं। और जितनी ज्यादा प्रतिभा का उपयोग किया जाए, उतने ही जल्दी गंजे हो जाते हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं, चार हजार साल में आदमी बुद्धि का इतना उपयोग कर रहा होगा कि बच्चा जन्म से ही गंजा पैदा होगा। गंजे होने का डर नहीं रह जायेगा। अच्छा कहा महावीर ने कि सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, नहीं तो चार हजार साल बाद सभी श्रमण पैदा होते।
"और ओम का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता।'
ब्राह्मण होने से ओम का जाप पैदा होता है। जब कोई व्यक्ति सब भांति समर्पित कर देता है अपने को अनंत शक्ति में, अपने मस्तिष्क को सब भांति छोड़ देता है "उसके' हाथों में, अपने विचार को, अपनी चिंतना को, अपने मनन को; सभी को "उसके' चरणों में उतारकर रख देता है; वह चरण सही हो या झूठ, यह सवाल नहीं है, उतारकर रख देता है, अपनी तरफ से निर्भार हो जाता है, तब उसके भीतर एक परम ध्वनि गूंजने लगती है। उस ध्वनि का नाम "ओंकार' है। उसके भीतर ओम का सहज आवर्तन होने लगता है, उसे करना नहीं पड़ता।
लेकिन हम तो हमेशा उल्टा चलते हैं। हम बैठकर ओम का जाप करते हैं। ओम का जाप हमारा व्यर्थ है; क्योंकि ओम का जाप भी हम बुद्धि से ही करते हैं; और बुद्धि ही बाधा है। ओम का जाप भी हमारे लिए एक विचार का पुनरावर्तन होगा; और विचार ही तो अवरोध हैं।
महावीर कहते हैं कि ओंकार का जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता यद्यपि कोई ब्राह्मण हो जाए तो ओंकार का जाप प्रगट होता है; उसके भीतर ओम की ध्वनि गूंजने लगती है; उसके रोएंरोएं से ओंकार गूंजने लगता है।
ओंकार मनुष्य के द्वारा पैदा की गयी ध्वनि नहीं है, बल्कि प्रकृति की स्वाभाविक ध्वनि—व्यवस्था है। अगर सब शून्य हो जाए जगत में, तो ओंकार का नाद शेष रह जायेगा। वह नाद इस जगत का मौलिक ध्वनि—स्वर है। उसे पैदा नहीं करना होता।
इसलिए ओंकार को हिंदुओं ने "अनाहत' कहा है।
दो तरह के नाद हैं। एक तो "आहत' नाद है। मैं ताली को बजाऊं, तो यह "आहत नाद' है; क्योंकि दो चीजें टकरायीं, आहत हुइ*। उनके परस्पर चोट से ध्वनि पैदा हुई। ओंकार "अनाहत नाद' है। वह दो चीजों के टकराने से पैदा नहीं होता। जब सब टकराव भीतर बंद हो जाता है, तब जो शेष रह जाता है; जब भीतर बुद्धि की सारी कलह बंद हो जाती है, संघर्ष बंद हो जाता है, सब विचार खो जाते हैं, सब शून्य हो जाता है; उस शून्य में जो ध्वनि अनुभव होने लगती है, वह ध्वनि व्यक्ति नहीं करता, वह ध्वनि ब्रह्मांड का स्वरूप है।
तो महावीर कहते हैं, "ओम का जाप कर लेने से कोई ब्राह्मण नहीं होता।'
"निर्जन वन में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता।'
आप अकेले में जाकर रह सकते हैं, लेकिन आप अकेले नहीं हो सकते। क्योंकि भीड़ तो आपकी खोपड़ी में भरी है, वह आपके साथ चली जायेगी, एक दुकानदार को उठाकर ले जाएं जंगल में। वहां बैठकर वह दुकान का ही विचार करेगा, ग्राहकों से बातें करेगा, सामान लेगा—देगा, सौदा पटायेगा; वह करेगा क्या!
मुल्ला नसरुद्दीन कपड़ा बेचता था। एक दिन आधी रात में उठा और एकदम से उसने अपनी चादर फाड़ दी। उसकी पत्नी ने पूछा, "नसरुद्दीन, यह क्या कर रहे हो?' उसने कहा, "तू कम से कम दुकान में दखल न दे, ग्राहक कपड़ा खरीदने आया है।'
वह सपने में कपड़ा फाड़कर ग्राहक को दे रहा है। सपने में भी ग्राहक! सपने में भी दुकान! सपने में भी वही चलेगा न, जो दिन में चला है!
आप कहां भागकर जायेंगे अपने से? तो एकांत निर्जन में आप जा सकते हैं, लेकिन आप अकेले नहीं हो सकते। अकेले होने की कला दूसरी है। जो आदमी अकेले होने की कला जान लेता है, वह भीड़ में भी अकेला है। उसके लिए भीड़ में भी एकांत है। महावीर को आप बाजार में ला ही नहीं सकते। इसका मतलब यह नहीं है कि उनको आप बाजार में नहीं निकाल सकते। बिलकुल निकाल सकते हैं। लेकिन महावीर को बाजार में नहीं लाया जा सकता। बाजार में से भी वह ऐसे ही गुजर जायेंगे, जैसे कि एकांत से गुजर रहे हों। क्योंकि उनके भीतर कोई भीड़ नहीं है।
भीड़ में अकेले होने की कला। और हम तो एक ही कला जानते हैं, अकेले में भी भीड़ में होने की कला। अकेले भी बैठे हैं, तो भी भीतर कुछ चलता रहता है।
निर्जन वन में रहने से कोई मुनि नहीं होता, हालांकि कोई मुनि हो जाये तो निर्जन उसे उपलब्ध हो जाता है।
"और न कुशा के वस्त्र पहन लेने मात्र से कोई तपस्वी होता है।'
अपने को कष्ट देने से कोई तपस्वी नहीं हो जाता, यद्यपि कोई तपस्वी हो तो कष्टों को झेलने की क्षमता आ जाती है।
इस फर्क को समझ लें। ये दोनों बातें बड़ी बुनियादी और भिन्न हैं।
एक आदमी अपने को कष्ट दे रहा है; कांटे बिछाकर लेटा हुआ है; आग जला लिया है और उसके पास बैठकर तप रहा है; धुनी लगा ली है, पसीना—पसीना हो रहा है; सद है, बर्फ पड़ रही है और वह बाहर खड़ा कंप रहा है; यह आदमी आयोजन करके, इंतजाम करके अपने को कष्ट दे रहा है। इस आदमी के चित्त में कहीं न कहीं रोग है। यह आदमी खुद को कष्ट देने में रस ले रहा है। यह अपने को सताने में प्रसन्न है। यह आदमी बीमार है।
और, इस आदमी में और आप में फर्क नहीं है। आप सुख का आयोजन कर रहे हैं, यह दुख का आयोजन कर रहा है। यह आपसे उल्टा चला गया आदमी है; पर यह है आप ही जैसा। इंतजाम करना यह भी नहीं छोड़ रहा है। आप चाहते थे सुख मिले, यह चाहता है दुख मिले। यह भी हो सकता है कि सुख पाने की इसने बहुत कोशिश की और नहीं पा सका, तो अब ये अंगूर खट्टे हैं, ऐसा मानकर दुख पाने की कोशिश कर रहा है। इसका अहंकार हार गया; सुख न जुटा पाया। अब इसका अहंकार कम से कम इतना तो जीत ही सकता है कि दुख जुटा सकता है।
यह आदमी अहंकार से जी रहा है और रुग्ण है। बहुत लोग हैं जो अपने को कष्ट देने में रस पाते हैं; और वे अपने आस—पास इस तरह के लोग इकट्ठे कर लेते हैं जो उन्हें कष्ट दें। और फिर रोते हैं और चिल्लाते हैं कि यह आदमी मुझे कष्ट दे रहा है। लेकिन आपको पता नहीं है कि आप ने ही उस आदमी को अपने पास इकट्ठा कर लिया है; और आप चाहते हैं कि वह आपको कष्ट दे। और अगर वह चला जाए, तो आपको खालीपन लगेगा और जल्दी ही आप किसी दूसरे आदमी से जगह भर लेंगे। कोई चाहिए जो आपको कष्ट दे।
महावीर कहते हैं, अपने को कष्ट देने मात्र से कोई तपस्वी नहीं होता, यद्यपि कोई तपस्वी हो जाये तो कष्ट को झेलने की क्षमता आ जाती है। वह बिलकुल दूसरी बात है। कांटे बिछाकर लेटना एक बात है और जीवन में कांटे आ जायें तो उनके बीच से साक्षीभाव से गुजर जाना बिलकुल दूसरी बात है। जीवन में कांटे आयेंगे, दुख आयेंगे।
तपस्वी वह है जो न सुख की आकांक्षा करता है, न दुख की; जो आ जाता है उसके जीवन में उससे बिना चिंता के अपने को गुजारता है। जो भी हो, वह हर हालत में अपने को अनुद्विग्न रखता है। न तो सुख से रस बांधता है, न दुख से।
दुख आयेंगे, क्योंकि हमारे बहुत—से जन्मों की शृंखला है, हमारे कर्मों का गहन संस्कार है। और हम आज एकदम नये नहीं हो सकते हैं। हमारा कल हमारा पीछा कर रहा है। कल हमने किसी को गाली दी थी, वह आज गाली देने आयेगा। दुख आयेगा।
तो, तपस्वी चाहता नहीं कि कोई आकर उसे गाली दे, ऐसी उसकी कामना नहीं है, लेकिन कोई गाली दे, तो वह साक्षीभाव से सहेगा। इसको महावीर ने "परिशय' कहा है, दुख को साक्षीभाव से सहने की कला; कोई प्रतिक्रिया न करते हुए जो भी हो उसे चुपचाप सह लेना, उसके प्रति कोई भी धारणा न बनाना——यह कि बुरा है, नहीं होना था, ऐसा नहीं होना था, ऐसा क्यों हुआ, परमात्मा ने ऐसा मुझे क्यों दिखाया, कौन से कर्मों का पाप है——कुछ भी प्रतिक्रिया न करना, सिर्फ ऐसा भाव रखना कि एक लेन—देन था पुराना, वह निपट गया; संबंध समाप्त हुआ, एक कड़ी जुड़ी थी, वह टूट गयी।
दुख आये तो उसे सह लेना तपश्चर्या है। दुख की खोज रोग है। लेकिन आप देखें, जब भी आप साधना में उत्सुक होते हैं तो आप दुख की तलाश करते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, अगर मैं उन्हें सीधा—सीधा उपाय बताता हूं तो वे कहते हैं कि यह इतना सीधा है कि इससे क्या होगा? कुछ उपद्रव उनको न बताया जाए तो जमता नहीं। उपद्रव की इच्छा है।
अगर मैं उनको कहूं कि पहले पूरी रात सद में खड़े रहो, फिर दिनभर उपवास करो, फिर कुछ उठक—बैठक, कवायद, कुछ आसन करो, फिर ध्यान पर बैठना, तो जंचेगा। तब वे कहेंगे कि हां, इससे कुछ हो सकता है, क्योंकि कुछ करने जैसा दिखता है।
खुद को कष्ट देने में विजय मालूम पड़ती है कि मैं मालिक हो रहा हूं। दुनिया में धर्मों के नाम पर स्वयं को जो इतना कष्ट दिया जाता है, जो इतनी सेल्फ—टार्चरिंग चलती है, वह इसलिए चलती है कि लोग अपने को कष्ट देना चाहते हैं। बहाने कोई भी खोज लेते हैं, फिर अपने को कष्ट देते हैं। यह जो कष्ट देना है, यह स्वस्थ मन का सबूत नहीं है। और महावीर कहते हैं, तपस्वी का इससे कोई लेना—देना नहीं है।
"समता से मनुष्य श्रमण होता है।'
भीतर के समत्व से, भीतर के संतुलन से, भीतर के सयुंक्त से, व्यक्ति श्रमण होता है।
"ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है।'
और जिसका आचरण ब्रह्म—जैसा होने लगता है।
ब्रह्मचर्य का मतलब केवल वीर्य—रक्षण नहीं है। वह क्षुद्रतम अर्थ है। ब्रह्मचर्य का ठीक—ठीक अर्थ है : ब्रह्म जैसी चर्या जैसा आचरण। अगर ईश्वर ही पृथ्वी पर उतर आये, तो वह कैसे चलेगा, वह कैसे उठेगा—बैठेगा, वह कैसे बोलेगा, कैसे व्यवहार करेगा? "उस' जैसा आचरण जिसका हो जाए, वह ब्राह्मण है।
और भीतर जो इतना संतुलित हो जाए कि बाहर की कोई भी चीज उसे हिला न सके; डिगा न सके; कोई तूफान जिसकी चेतना की लौ को जरा भी कंपित न कर सके; जो भीतर अंकप हो जाए, वह श्रमण है; और जो ब्रह्म जैसे आचरण को उपलब्ध हो जाए वह ब्राह्मण है।
"ज्ञान से मुनि होता है; और तप से तपस्वी बन जाता है।'
ज्ञान, वह जो हमें शास्त्र से मिल जाए, वह नहीं है। वह तो किसी को भी मिल सकता है। उससे आदमी पंडित होता है; शास्त्रीय होता है; शब्द—जाल फैल जाता है और वैसे पंडित दूसरों को भी पंडित बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं। वह खुद भटके हैं और दूसरों को भटकाये चले जाते हैं।
दूसरों को भटकाने का भी एक मजा है। और जब खुद भटका हुआ आदमी दो—चार आदमियों को भटका देता है, तो उसे अपनी भटकन कम मालूम पड़ती है कि हम कोई अकेले थोड़े ही भटक रहे हैं। और उसकी बात को मानकर अगर बहुत—से लोग भटकने लगते हैं तो वह भूल ही जाता है कि मैं भटक रहा हूं। क्योंकि तब उसे लगता है कि मैं इतने लोगों का नेता हूं, इतने लोग मेरे पीछे चल रहे हैं, मेरे भटकने का सवाल ही नहीं है। नेता को अपने पीछे चलते अनुयायियों को देखकर भरोसा आता है कि मैं ठीक चल रहा हूं, अन्यथा इतने लोग मेरे पीछे क्यों चलते।
पंडितों के कारण——थोथा और उधार ज्ञान जिन्होंने इकट्ठा कर लिया है——ऐसे गुरुओं के कारण आपको रास्ता मिल भी सकता तो नहीं मिल पाता।
मुल्ला नसरुद्दीन का एक रुपया गिर गया है। वह सड़क पर खोज रहा है। आधे घंटे में पसीना—पसीना हो गया खोजते—खोजते। उसकी पत्नी भी उसका साथ दे रही है। आखिर पत्नी ने पूछा, "नसरुद्दीन, मिला?' नसरुद्दीन ने कहा, "मिल सकता था, अगर तूने इतनी सहायता न की होती।'
उसको डर है कि यह स्त्री पा गयी। वह कह रहा है कि मिल सकता था, अगर तूने खोजने में इतनी सहायता न की होती।
बहुत—से गुरु आपको खोजने में इतनी सहायता कर रहे हैं कि जो मिल सकता था वह भी मिल नहीं पा रहा है। लेकिन उधार ज्ञान का दंभ करे, यह भी स्वाभाविक है, क्योंकि दंभ करे तो ही ज्ञान जैसा मालूम पड़ सकता है।
महावीर कहते हैं, ऐसे ज्ञान से कोई मुनि नहीं होता। जो ज्ञान बाहर से आ सकता है, वह आपकी बुद्धि को भरेगा। लेकिन जो ज्ञान भीतर से जन्मता है, जो स्वयं की अनुभूति से आता है, वही आपको मौन कर जायेगा। जो ज्ञान बाहर से आता है, वह आपको मुखर करेगा; बुद्धि और बेचैन होकर चलने लगेगी। जो ज्ञान भीतर से आता है, वह आपको मौन कर जायेगा; बुद्धि को चलने की जरूरत न रह जायेगी। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। ज्ञानी की बुद्धि चलती नहीं। जरूरत नहीं है। अज्ञानी की बुद्धि चलती है। और जितना ज्यादा अज्ञानी हो, उतना बुद्धि को चलाना पड़ता है, क्योंकि उतनी ज्यादा जरूरत होती है।
अगर आंखवाला आदमी इस हाल के बाहर जायेगा, तो वह टटोलेगा नहीं। क्या जरूरत है टटोलने की? आंखें हैं, सोचेगा भी नहीं कि दरवाजा कहां है। सोचने की भी क्या जरूरत है? दरवाजा दिखाई पड़ता है। बस, वह दरवाजे से निकल जायेगा। अगर आप उससे बाद में पूछें कि तुम्हें पता है कि दरवाजा कहां है, तो वह कहेगा कि मैंने खयाल नहीं किया, किस दिशा में है, मुझे कुछ खयाल नहीं। दरवाजा था——मैं तो बस निकल आया, मैंने सोचा भी नहीं। लेकिन अंधा आदमी अगर इस हाल के बाहर जाना चाहे, तो पहला सवाल उसके सामने यह उठेगा कि दरवाजा कहां है? फिर अंधा लकड़ी से टटोलेगा, फिर अंधा किसी से पूछेगा कि दरवाजा कहां है? अगर आप अंधे से पूछें तो जितनी व्यवस्था से वह जवाब देगा कि दरवाजा कहां है, आंखवाला कभी नहीं दे सकता।
यह बड़े मजे की बात है। अंधे से अगर आप बाद में मिलें, तो वह आपको पूरा ब्यौरा बता देगा कि दरवाजा कहां है। कितनी कुर्सियों के बाद उसको दरवाजा मिला। कितनी जगह उसने टटोला। कितनी खिड़कियां बीच में पड़ीं। बायें है कि दायें है, कि कहां है——अंधा जितना ठीक जवाब देगा, आंखवाला नहीं देगा। क्यों?
क्योंकि अंधे को सोचना पड़ा; आंखवाला निकल गया।
जैसे—जैसे भीतर का ज्ञान जन्मेगा, बुद्धि की जरूरत न रहेगी, क्योंकि बुद्धि सब्सिट*टयूट है। वह भीतर का ज्ञान नहीं है, इसलिए हमें बुद्धि का उपयोग करना पड़ता है। जब भीतर का ज्ञान आना शुरू होता है, बुद्धि का उपयोग बंद हो जाता है। बुद्धि जहां शांत होती है, वहां मुनि का जन्म होता है।
तप से मनुष्य तपस्वी बन जाता है; लेकिन तप की जो मैंने बात कही, वह खयाल में रखना। भीतर की अग्नि को जगाकर——जो चेतना के स्वर्ण को उसमें निखार लेता है, उस निखरी हुई चेतना को——जो जीवन—जगत के संघर्ष में——जो कसौटी पर कस लेता है, उसे महावीर तपस्वी कहते हैं।
"मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है और शूद्र भी अपने किये गये कर्मों से ही होता है। अर्थात जन्म से कोई वर्ण—भेद नहीं है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही हो जाता है।'
ऊंच या नीच चेतना की अवस्थाएं हैं, शरीर की नहीं।
"इस भांति पवित्र गुणों से युक्त जो द्विजोत्तम (श्रेष्ठ ब्राह्मण) हैं, वास्तव में वे ही अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं।'
तीन बातें खयाल में ले लें——
एक, कहां आप पैदा हुए हैं, किस घर में पैदा हुए हैं, किस कुल में पैदा हुए हैं, यह बात बिलकुल गौण है। इसे बहुत मूल्य मत दें। यह मूल्य महंगा पड़ सकता है। ब्राह्मण घर में पैदा होकर अगर आपने समझ लिया कि मैं ब्राह्मण हो गया, तो ब्राह्मण होने की आपकी जो संभावना थी, वह बंद हो गयी।
महावीर द्वार को खोलते हैं। वे कहते हैं, जन्म के साथ तुम समाप्त नहीं हो गये, जन्म के साथ सिर्फ तुम शुरू हुए हो। मौत के साथ अध्याय बंद होगा। लेकिन जो कहता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण हूं, उसने अध्याय बंद कर लिया। अब करने को कुछ नहीं बचा; आखिरी बात पा ली गयी। महावीर कहते हैं, जन्म शुरुआत है संभावनाओं की। उनको अंत मत करो, बंद मत करो। सबकी संभावनाएं खुली हैं। द्वार खुला है। यात्रा करनी जरूरी है। और यात्रा पर निर्भर होगा कि आप क्या हैं।
बर्नार्ड शा से किसी ने पूछा, अस्सी वर्ष की उम्र थी उसकी तब, कि क्या तुम अपने संबंध में अब कोई सत्य कह सकते हो? बर्नार्ड शा ने कहा कि जब तक मैं मर न जाऊं, तब तक संभावनाएं खुली हैं। जिस दिन मैं मर जाऊं, उसी दिन अध्याय बंद होगा। उसी दिन कोई निर्णय लिया जा सकता है। तब तक कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता।
जीवन एक खुलाव है। उसमें सब खुला है। बंद थी भारत में व्यक्तित्व की संभावना। शूद्र शूद्र था; और कुछ होने का उपाय नहीं था उसे । उसकी जिंदगी बस झाड़—बुहारी लगाने में, मल—मूत्र साफ करने में, जूते—चमड़े का सामान बनाने में व्यतीत होनेवाली थी। करोड़ों—करोड़ों लोगों का जीवन एकदम बंद था। वहां से इंचभर हटने का कोई उपाय नहीं था। हिलने—डुलने की कोई सुविधा नहीं थी। समाज स्टैटिक था, अवरुद्ध था, जैसे तालाब का पानी जम गया हो। नदी की धारा नहीं थी। महावीर ने तालाब के पानी को तोड़ा, धारा बनायी——शूद्र भी ब्राह्मण हो सकता है, और ब्राह्मण को भी कहा कि तू आश्वस्त मत रह, क्योंकि ब्राह्मण होना भी एक अर्जन है। तूने कुछ न किया तो तू भी शूद्र हो जायेगा; तू भी शूद्र रह जायेगा।
महावीर ने ब्राह्मण की आस्था तोड़ दी ताकि वह भी खुले और बह सके; और शूद्र का बंधन तोड़ दिया ताकि वह भी खुले और बह सके। लेकिन जैन महावीर के पीछे चल नहीं पाये।
जैनों में यद्यपि कोई वर्ण नहीं है; जैनों के भीतर कोई जैन ब्राह्मण, जैन क्षत्रिय, जैन वैश्य या जैन शूद्र नहीं हैं, लेकिन जैन अपने को वैश्य मानते हैं; और घर में अगर पूजा करवानी हो, विवाह करवाना हो तो ब्राह्मण को निमंत्रित करते हैं; और घर का अगर पाखाना साफ करवाना हो तो शूद्र को खोजते हैं।
जैन भी महावीर को मान नहीं सके। जैनों के लिए तो कोई शूद्र नहीं होना चाहिए। कैसी दुर्घटना इतिहास में घटती है कि जब यहां हिंदुस्तान में आंदोलन शुरू हुआ कुछ वर्षों पहले कि शूद्र—हरिजन मंदिरों में प्रवेश करें, तो जैनों को तो सबसे पहले अपने मंदिर खोल देने थे! क्योंकि महावीर ने कहा है कि कोई जन्म से शूद्र नहीं है। लेकिन जैनों ने सबसे पहले अपने मंदिर बंद कर लिये। उन्होंने कहा कि हम तो हिंदू हैं ही नहीं, इसलिए हमारे मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश का तो कोई सवाल ही नहीं है। शूद्र हिंदू हैं; वे हिंदुओं के मंदिर में जाएं, हिंदुओं से लड़ें—झगड़ें। जैन मंदिर तो जैनों का है।
लेकिन जैनों ने ब्राह्मणों को कभी नहीं रोका जैन मंदिरों में जाने से। अगर उन्होंने ब्राह्मणों को भी रोका होता, तो तर्क समझ में आता था। लेकिन ब्राह्मण तो सदा जाते रहे, शूद्र को उन्होंने रोक दिया कि जैन मंदिर में वह नहीं आ सकता, क्योंकि जैन धर्म तो धर्म ही अलग है। और महावीर कहते हैं कि जन्म से कोई शूद्र नहीं है; जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं है; जन्म से कोई कुछ नहीं है। जैन का मंदिर तो बिलकुल खुला होना चाहिए था, लेकिन शूद्र तो बहुत दूर, दिगम्बर का मंदिर श्वेताम्बर के लिए खुला हुआ नहीं है; श्वेताम्बर का मंदिर दिगम्बर के लिए खुला हुआ नहीं है। और श्वेताम्बर और दिगम्बर तो दोनों जैन हैं, न कोई शूद्र है, न कोई ब्राह्मण; वे एक—दूसरे का सिर खोलते हैं, अदालतों में लड़ते रहते हैं। आश्चर्यजनक है!
आदमी इतना मूढ़ है कि महावीर कितना ही हिलायें, वह जा भी नहीं पाते हैं कि उनकी पत्थर की शिला फिर अपनी जगह पर वापस बैठ जाती है ; वे जहां के तहां पाये जाते हैं। तीथकर छोड़ गया था——वह वहीं फिर आसन लगाये बैठा है। कोई अंतर नहीं पड़ता। क्योंकि अंतर डालने के लिए सिद्धांत काफी नहीं हैं, शब्द काफी नहीं हैं। अंतर डालने के लिए स्वार्थ भी छोड़ना पड़ेगा; अंतर डालने में खुद के निहित स्वार्थों को हानि भी पहुचेगी, और अंतर डालने के लिए खुद को बदलना पड़ेगा।
शूद्र जन्म से शूद्र नहीं है, यह कहना, यह बातचीत काफी नहीं है। अगर शूद्र जन्म से शूद्र नहीं है, तो आपकी लड़की अगर एक शूद्र के प्रेम में पड़ जाए और आप जैन हों, तो आप को इनकार नहीं करना चाहिए। देखना इतना चाहिए कि शूद्र के पास चरित्र है, आचरण है, जीवन है? और अगर उसका आचरण ठीक न हो, वह शराबी हो, जुआरी हो, तो ही इनकार करना चाहिए।
लेकिन तब अड़चनें होंगी; और अड़चनें उठाने से हम बचना चाहते हैं। हम सिर्फ कनवीनियन्स खोज रहे हैं——शांति से मर जाएं; कोई झंझट न हो।
मुल्ला नसरुद्दीन को सूली की सजा सुनायी गयी। उसका साथी और वह दोनों सूली पर लटकाये जाने के करीब हैं। दोनों ने हत्या की है। आखिरी क्षण में सूली देनेवाले ने नियमानुसार दोनों से पूछा, "कोई आखिरी इच्छा हो तो बताओ, सिगरेट तो नहीं पीना चाहते हो; तो मैं ला दूं?'
तो मुल्ला ने कहा, "हत्यारे! सिगरेट अपने पास रख। झंझट खड़ी मत कर।'
नसरुद्दीन ने कहा कि——आखिरी समय में झंझट से डर रहा है——झंझट खड़ी मत कर। अब झंझट खड़ी करने से भी क्या होनेवाला है! लेकिन यह कह रहा है उससे कि अब शांत रह, आखिरी समय में झंझट खड़ी मत कर।
हम जिंदगीभर इसी कोशिश में रहते हैं, कहीं कोई झंझट न हो जाए। झंझट से बचाते—बचाते पूरी जिंदगी हमारी असत्य हो जाती है। क्योंकि जहां—जहां हम समझौता करते हैं, झंझट से बचते हैं, वहां—वहां सुविधा के कारण असत्य को स्वीकार कर लेते हैं।
कौन है शूद्र, कौन है ब्राह्मण, अगर महावीर की बात मानें तो हर बार सोचना पड़ेगा। जो आदमी आपके घर में बुहारी लगाता है वह ब्राह्मण हो सकता है, और जो आदमी आपके घर पूजा करता है, वह शूद्र हो सकता है। तब बड़ी झंझट खड़ी होगी; क्योंकि तब रोज—रोज यह सोचना पड़ेगा कि यह आदमी शूद्र है कि ब्राह्मण; किसके पैर पड़ो और किसको घर में मत आने दो, रोज—रोज सोचने से यह बड़ी कठिनाई होगी। इसलिये हमने लेबलिंग कर रखी है कि यह आदमी शूद्र के घर में पैदा हुआ है, इसलिए शूद्र है; और यह आदमी ब्राह्मण के घर में पैदा हुआ है, इसलिए ब्राह्मण है। लेबल लगा देने से सुविधा हो जाती है; जैसे कि दुकानों में लोग डब्बों पर लेबल लगा देते हैं कि इसमें यह—यह चीजें हैं।
आदमी डब्बा नहीं है, उस पर लेबल लगाया नहीं जा सकता कि इसमें मिर्च रखी है, इसमें नमक रखा है; ऐसा कुछ उसमें रखने का कुछ उपाय नहीं है। आदमी एक प्रवाह है। लेकिन महावीर से राजी होने के लिए सतत प्रवाह की असुविधा, संकट और संघर्ष झेलना जरूरी है।
द्विज वही है, महावीर कहते हैं, जो पवित्र गुणों से युक्त है; जिसने धीरे—धीरे अपनी चेतना में परमात्मा की क्षमता को प्रगट करना शुरू किया है; जो ट्रान्सपैरन्ट हो गया है, पारदर्शी हो गया है; जिसने अपनी सारी अशुद्धि छोड़ दी; और भीतर का प्रकाश जिससे बाहर आने लगा है।
"द्विज' शब्द समझने जैसा है। द्विज का अर्थ है : दुबारा जिसका जन्म हो गया——ट्वाइस बार्न। एक जन्म तो मां के पेट से होता है। वह असली जन्म नहीं है। उससे तो सभी शूद्र पैदा होते हैं। दूसरा जन्म है जो व्यक्ति अपनी आत्मा को स्वयं के श्रम से देता है। उस श्रम से जब आप स्वयं ही अपने माता—पिता बनते हैं और एक नयी आत्मा को जन्माते हैं, आप द्विज होते हैं।
द्विज का अर्थ है, जिसने दूसरा जन्म भी इसी जन्म में पा लिया; जिसने नया जन्म पा लिया। इस नये जन्म पा लिये व्यक्ति से आशा की जा सकती है कि वह अपना और दूसरों का उद्धार कर सकेगा। लेकिन अपना उद्धार पहले है; क्योंकि जिसका अपना दिया बुझा हो, वह दूसरों के दीये नहीं जला सकता। जिसका अपना दीया जला हो, उससे दूसरों की ज्योति भी जल सकती है। जिनके खुद के दीये बुझे हैं वे दूसरों के दिये जलाना तो दूर, डर यह है कि किसी का जलता हुआ दिया बुझा न दें।
अंधे तो गङ्ढों में गिरते ही हैं, उनके पीछे जो चलते हैं, वे भी गङ्ढों में गिर जाते हैं। आंखवाले की तलाश गुरु की तलाश है। आंखवाले की खोज द्विज की खोज है जिसका दूसरा जन्म हो चुका है इसी जन्म में; जो शरीर ही नहीं रहा अब, बल्कि शरीर के पार कुछ और भी जिसके भीतर घटित होना शुरू हो गया है; जो अब कह सकता है कि मैं वही नहीं हूं, जो मां—बाप ने मुझे पैदा किया था मैं कुछ और भी हूं।
बुद्ध लौटे बारह वर्ष बाद। सारा गांव बुद्ध को घेरकर इकट्ठा खड़ा हो गया। ऐसी रोशनी देखी नहीं गयी थी। ऐसे संगीत का अनुभव पहले किसी व्यक्ति के करीब नहीं हुआ था। लेकिन बुद्ध के पिता को कुछ नहीं दिखाई पड़ा। बुद्ध के पिता नाराज थे। वे द्वार पर खड़े थे राजमहल के। उन्होंने गौतम सिद्धार्थ से कहा, "सिद्धार्थ, मेरे पास बाप का हृदय है, मैं तुझे अभी भी क्षमा कर सकता हूं। तू वापस आजा।'
बुद्ध ने निवेदन किया कि आप शायद मुझे देख नहीं पा रहे हैं कि मैं बिलकुल बदलकर आया हूं। जो बेटा घर से गया था, वही लौटकर नहीं आया है। मैं बिलकुल नया होकर आया हूं; जो गया था उसकी रेखा भी नहीं छूटी है। यह जो आया है; बिलकुल नया है, आप जरा गौर से देखें।
पिता नाराज हो गये। पिता, जैसा अकसरनाराज हो ही जायेंगे। पिता ने कहा कि मैंने तुझे पैदा किया और मैं तुझे पहचान नहीं पा रहा हूं? मेरा खून, मांस, हड्डी तेरे भीतर है और मुझे तुझे पहचानना पड़ेगा? मैं तेरा बाप हूं; मैंने तुझे जन्माया है; मेरा खून है तू; मैं तुझे भलीभांति जानता हूं। तुझे देखने की क्या जरूरत है?
बुद्ध ने कहा, "आप ठीक कहते हैं। जो आपको दिखाई पड़ रहा है, उसके आप पिता हैं। लेकिन अब मैं कुछ और भी लेकर आया हूं, जो आपसे नहीं जन्मा है। अब मैं द्विज होकर आया हूं; नया जन्म हुआ है।'
जीसस से निकोडैमस ने पूछा है कि कैसे मैं प्रभु के राज्य को पा सकूंगा? तो जीसस ने कहा, "जब तक तेरा नया जन्म न हो जाए; जब तक तू द्विज न हो जाए।'
द्विज जो है, वह अपना और दूसरे का उद्धार करने में समर्थ है।

पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें और फिर जायें।

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