दिनांक
20 मई,
1975, प्रातः,
ओशो
आश्रम, पूना
सूत्र
:
हम
तो एक एक करि
जाना,
दोई
कहै, तिनही को दोजख,
जिन नाहिन
पहचाना।
ऐकै
पवन, एक ही
पानी, एक
ज्योति
संसारा।
एक हि खाक घड़े
सब भाड़े, एक
ही
सिरजनहारा।
जैसे
बाढ़ी
काष्ठ ही काटे, अगनि न काटै कोई।
सब घटि अंतर
तू ही व्यापक, धरै सरूपे
सोई।
माया
मोहे
अर्थ देखि
करि काहे कू
गरबाना।
निर्भय
भया कछु नहीं व्यापै, कहै
कबीर
दीवाना।।
धर्म
है,
असीम की खोज,
अनादि की
खोज। जो न कभी
प्रारंभ हुआ
और न कभी समाप्त
होगा,
उस
अजस्त्र
जीवन-धारा की
खोज।
अस्तित्व
तो अखंड है।
लेकिन आदमी का
छोटा सा मन उस
अखंड को देख
नहीं पाता। और
आदमी जितना
देख पाता है
वह सदा ही खंड
होगा। अखंड को
जानने के लिए
तो हृदय शून्य
चाहिए।
देखनेवाला
बिलकुल ही मिट
जाए,
तो ही दर्शन
शुद्ध होगा।
जब तक
देखनेवाला
बना है, भीतर
कोई देखने की
दृष्टि है, तब तक
दृष्टि ही
चौखटा बन
जाएगी।
जैसे
कोई खिड़की से
झांक कर
पूर्णिमा की
रात्रि को
देखे। खिड़की
का चौखटा चांद
पर जड़ा
हुआ मालूम
पड़ता है। चांद
पर कोई चौखटा
नहीं है, कोई
फ्रेम नहीं है,
आकाश असीम
है। लेकिन
खिड़की के भीतर
से कोई खड़े
होकर देखे तो
जितनी खिड़की,
उतना ही बड़ा
आकाश दिखाई
पड़ता है।
इंद्रियों
के भीतर से
खड़े होकर जो
भी देखा गया
है,
उस पर
इंद्रियों का
चौखटा जड़ जाता
है। जितनी बड़ी
इंद्रिय है, उतना ही बड़ा
दर्शन है। फिर
दृष्टियां
हैं भीतर। हर
दृष्टि खंड
करती है, तोड़ती
है। और जो है
वह अखंड है।
इसलिए जो भी हम
इंद्रियों से
जानेंगे, वह
सत्य न होगा; और जो भी हम
मन से जानेंगे,
वह पूर्ण न
होगा। मन खुद
अपूर्ण है।
इसलिए
जिन्होंने
सोच-विचार कर
के जगत के
संबंध में कुछ
कहा है, उनके
कहने में
समग्र सत्य
नहीं समाता।
उन्होंने जो
कहा है, वह
सत्य के संबंध
में कम बताता
है, उनके
संबंध में
ज्यादा बताता
है।
इसलिए
लाओत्से जैसे
ज्ञानी ने कहा
है कि सत्य कहा
नहीं जा सकता
है। और कहते
से ही झूठ हो
जाता है।
क्योंकि शब्द
का चौखटा बड़ा
छोटा है। सत्य
का विस्तार
अनंत है।
क्षुद्र शब्द
के भीतर समाने
की कोशिश में
ही सत्य जड़ हो
जाता है। मर जाता
है।
यह ऐसे
ही है जैसे
कोई मिट्ठी
में आकाश को
भरने चले।
कैसे तुम
मुट्ठी में
आकाश को भरोगे? मुट्ठी
स्वयं आकाश
में है। तुम
मुट्ठी
में कैसे
आकाश को भरोगे?
और जितने
जोर से तुम
मुट्ठी बांधोगे,
यह सोचकर कि
कहीं आकाश हाथ
से निकल न जाए,
मुट्ठी न
खुल जाए, उतना
ही कम आकाश
तुम्हारी
मुट्ठी में रह
जाएगा। जितनी
जोर से बंधी
मुट्ठी होगी,
उतनी ही
खाली होगी।
उसमें आकाश
नहीं होगा। आकाश
को मुट्ठी में
बांधने का एक
ही ढंग हैं, कि मुट्ठी
को तुम बांधना
ही मत। खुली
मुट्ठी में
आकाश होता है।
ऐसे ही
खुले मन में
सत्य होता है।
जहां सब चौखटे
गिरा दी गई, द्वार,
दरवाजे खिड़कियां
हटा दी गई।
जहां तुम खुले
आकाश के नीचे
खड़े हो गए, वहां
तुम सत्य में
होते हो।
ध्यान रखना, इसे मैं फिर
दोहराता हूं।
सत्य को तुम
अपने में न
समा सकोगे, वह तुमसे
बड़ा है। बहुत
बड़ा है। अगर
चाहते हो कि
सत्य के साथ
संबंध बन जाए,
तो तुम्हें
ही सत्य मग
समा जाना
होगा।
इसलिए
कबीर कहते
हैं...अवधू
गगन-मंडल घर कीजे। उस
शून्य में घर
बना लो। तुम
ही आकाश में
रहने लगो। खोल
दो मुट्ठी।
आकाश
तुम्हारे
भीतर भी है, बाहर
भी है। तुम
बंद न रहो।
तुम जब
खुले हो, मुक्त
हो, वही
अवस्था ध्यान
की है। जब मन
किसी दृष्टि
से नहीं देखता,
जब मन किसी
धारणा से नहीं
देखता, जब
मन पहले से ही
लिए गए किसी
निष्कर्ष की आड़ में खड़ा
नहीं होता, जब मन और
अस्तित्व के
बीच में
शास्त्र नहीं
होते।
धर्म
तो है असीम।
और जहां-जहां
सीमा पाओ, वहां-वहां
राजनीति है।
धर्म तो जोड़ता
है। राजनीति तोड़ती है।
इसलिए धर्म का
वास्तविक
शत्रु
विज्ञान नहीं
है, धर्म
का वास्तविक
शत्रु
राजनीति है।
विज्ञान
तो आज नहीं कल
धार्मिक हो
सकता है। हो
ही जाएगा। अगर
सत्य की ही
खोज है, तो आज
नहीं कल धर्म
से कितनी देर
तक दूर रहा जा सकेगा!
और विज्ञान
रोज धर्म के निकट
आता गया है।
जैसे-जैसे
विज्ञान ने
जाना है, वैसे
वैसे उसे भी
प्रतीति हुई
है, कि
धर्म के
सत्यों में
कुछ है। और
विज्ञान चाहे
आज करीब न भी
हो, जो
महान
वैज्ञानिक
हैं, उनके
हृदय में तो
वही धुन बजने
लगी है, जो
महान संतों के
हृदय में बजी
है।
कबीर
के हृदय में जो
गूंज है, वही
आइंस्टीन के
हृदय में है।
मरते समय
आइंस्टीन ने
कहा है कि
जैसे-जैसे
मैंने जाना, वैसे वैसे
संसार का सत्य
पदार्थ में
समाप्त मालूम
नहीं होता।
परमात्मा की
छाप जगह-जगह
दिखाई पड़ती
है।
एक
दूसरे बड़े
वैज्ञानिक
एडिंगटन ने
लिखा है, कि जब
मैंने अपनी
विज्ञान की
यात्रा शुरू
की थी तो मैं
सोचता था पदार्थ
ही सब कुछ है।
और मैं सोचता
था, कि
विचार भी
पदार्थ का ही
एक रूप है।
लेकिन अब जब
मैं जीवन की
अंतिम पड़ाव
पर पहुंच रहा
हूं, तो
दृष्टि पूरी
बदल गई है। अब
मैं सोचता हूं
कि पदार्थ भी
विचार का ही
एक रूप है।
चैतन्य का ही
एक ढंग है। और
वस्तुएं मुझे
अब वस्तुएं नहीं
मालूम पड़ती।
विचार के सघन
रूप मालूम
पड़ती है।
आज
नहीं कल
विज्ञान तो
धर्म के करीब
आ जाएगा। शत्रुता
है राजनीति
से। वह कभी
धर्म के करीब
नहीं आ सकती।
क्योंकि
राजनीति का
सारा ढंग तोड़ना
है। पृथ्वी तो
एक है। कहीं
पृथ्वी पर
चिन्ह हैं, जहां
भारत समाप्त
होता हो और
पाकिस्तान
शुरू होता हो?
कहीं तुम
पृथ्वी की
जांच परख करने
उस जगह पहुंच
जाओ, जहां
तुम कह सको कि
यहां भारत
समाप्त हुआ और
पाकिस्तान
शुरू हुआ?
नहीं, पृथ्वी
की जांच परख
से पता न
चलेगा।
पृथ्वी तो
अखंड है। अगर
तुम्हें जांच
करना हो, तो
राजनीतिकों
के बनाए नक्शे
देखने
पड़ेंगे। वे
झूठे हैं। वे
आदमी-निर्मित
हैं। पृथ्वी
पाकिस्तान
में प्रवेश
किया हुआ है, पाकिस्तान
हिंदुस्तान
में प्रवेश
हुआ है। सारी
पृथ्वी
इकट्ठी है।
पृथ्वी
ही इकट्ठी है, ऐसा
नहीं है।
पृथ्वी, चांदत्तारों से जुड़ी है।
अकेला तो इस
संसार में कुछ
भी नहीं है।
सब इकट्ठा है।
दस करोड़
मील दूर है
सूरज पृथ्वी
से,
लेकिन फूल
में तुम जो
रंग देखते हो,
वह सूरज की
किरण का है।
अगर सूरज न हो,
तो पृथ्वी
से रंग खो
जाएं। पृथ्वी
में तुम जहां
भी रंग देखते
हो, जीवन
देखते हो, प्राण
देखते हो, वह
सब सूरज का
है। दस करोड़
मील दूर है।
किरण को आने
में दस मिनट
लग जाते हैं।
और
किरण की बड़ी
तीव्र गति है।
प्रति सेकेंड
एक लाख छिपायी
हजार मील चलती
है। सूरज से
आने में दस
मिनट लग जाते
हैं। बड़ा
फासला है।
लेकिन सूरज तो
बहुत करीब है।
और तारे हैं।
निकटतम तारा है, उससे
पृथ्वी तक आने
में चार वर्ष
लगते हैं किरण
को। वही
दफ्तर--एक लाख
छियासी हजार
मील प्रति
सेकेंड।
उसके
बाद तारे हैं, जिससे
सौ वर्ष लगते
हैं किरण को
पृथ्वी तक आने
में। सौ वर्ष
लगते हैं, हजार
लगते हैं दस
हजार वर्ष
लगते हैं, करोड़
वर्ष लगते हैं,
अरब वर्ष लगते
हैं।
वैज्ञानिक उन
तारों तक की
खोज कर लिए
हैं, जो
तारों से किरण
चली थी जब
पृथ्वी नहीं
बनी थी और अभी
तक पहुंची
नहीं है।
पृथ्वी को बने
चार अरब वर्ष
हो गए।
और यह
भी अंत नहीं
है। उनके पार
भी जगत है।
अस्तित्व
फैला ही है।
फैलता ही चला
गया है। इसलिए
तो हिंदुओं ने
अस्तित्व को
ब्रह्म का नाम
दिया है। ब्रह्म
शब्द का अर्थ
है,
जो फैलता ही
चला गया है।
जिसका
विस्तार होता
ही चला गया
है। जहां तुम
कभी भी ऐसी
जगह न आ सकोगे
कि दो कि
विस्तार पूरा
हुआ।
ब्रह्म
से ज्यादा
सुंदर शब्द
अस्तित्व के
लिए दुनिया की
किसी भाषा में
नहीं है।
क्योंकि
ब्रह्म का
अर्थ ही है
विस्तीर्ण...और
विस्तीर्ण...और
विस्तीर्ण।
जो विस्तीर्ण
होता ही चला
गया है। और
कहीं कोई सीमा
नहीं आती। सब
जुड़ा है, संयुक्त
है।
तुम्हें
दिखाई न पड़े, तुम
सूरज से जुड़े
हो। अगर सूरज
बुझ जाए तुम
बुझ जाओगे। ये
सब दीए, जो
तुम्हारी आंखों
में जल रहे
हैं, तत्क्षण
बुझ जाएंगे।
क्योंकि सूरज
के बिना पृथ्वी
पर जीवन नहीं
हो सकता। सूरज
के बिना पृथ्वी
पर कुछ भी
नहीं हो सकता।
सिर्फ महामृत्यु
होगी। फूल
नहीं खिलेंगे,
फल नहीं
लगेंगे, पक्षी
गीत नहीं गाएंगे,
आंखों के
दीए बुझ
जाएंगे। एक
महान मरघट
होगा।
तो
सूरज से हम एक
क्षण भी दूर
नहीं रह सकते।
उसकी रोशनी
हमें जीवन दे
रही है। वह
तुम्हारे रोएं-रोएं
से जुड़ी है।
तुम कहां
समाप्त होते
हो?
तुम सोचते
हो चमड़ी पर, तो तुम गलती
में हो।
क्योंकि सूरज
के बिना तो तुम
नहीं हो सकते।
अगर तुम्हें
चमड़ी ही समझनी
है, कि
तुम्हारी
कहां है, तो
कम से कम सूरज
के पास समझो।
वहां तक
तुम्हारी
चमड़ी जुड़ी है।
तुम्हारी
चमड़ी से तुम
प्रतिक्षण
श्वास ले रहे
हो। हजारों
छिद्र हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं, कि
तुम नाक से ही
श्वास नहीं ले
रहे हो, रोएं-रोएं
से श्वास ले
रहे हो। अलग
में रोए
छिद्र हैं
श्वास लेने के
लिए। अगर
तुम्हें नाक
से श्वास लेने
दिया जाए और
पूरे शरीर पर
रंग रोगन पोत
दिया जाए, कि
सब छिद्र बंद
हो जाए, तो
तुम तीन घंटे
में मर जाओगे।
नाक खुली रखी
जाए, तुम
श्वास जितनी
चाहे लेते रहो
नाक से लेकिन रोएं
श्वास न लें
तो तीन घंटे
में मौत हो
जाएगी।
कहां
है तुम्हारी
चमड़ी की सीमा? हवा
के बिना तो
तुम क्षण भर न
हर सकोगे। हवा
तो तुम्हारे
जीवन को जगाए
हुए हैं। और
हवा का विस्तार
पृथ्वी के दो
सौ मील चारों
तरफ है। अगर तुम्हें
अपनी सीमा ही
खोजनी है, तो
हवा में खोजो।
लेकिन तब तुम
पृथ्वी से बड़े
हो जाते हो।
लेकिन
वह हवा भी
प्राणवायु से
भरी है।
क्योंकि सूरज
की किरणें
प्रतिपल
प्राणवायु
पैदा कर रही
हैं। तो अगर
सीमा बनानी है, तो
सूरज को बनाओ।
लेकिन सूर्य
खुद महासूर्यों
पर निर्भर है।
उनसे अगर उसे
ज्योति न मिले
तो वह भी कभी का
बुझ जाएगा।
एक
बहुत ही
महत्वपूर्ण
बात समझ लेना
चाहिए। तीन
तरह की चेतना
की
अनुभूतियां
हैं। एक--जब आदमी
स्वतंत्र
अनुभव करता है, इण्डिपेन्डेन्ट अनुभव करता
है। और तीसरी,
जो कि
श्रेष्ठतम है,
जब आदमी
परस्पर--निर्भर,
इंटरडिपेन्डेन्ट अनुभव करता
है। वह
श्रेष्ठतम अवस्था
है।
जब तुम
परतंत्र
अनुभव करते हो, तब
तुम दूसरों के
साथ
राजनीतिज्ञ
के संबंध में
जुड़े हो।
दूसरा दुश्मन
है। जब तुम
स्वतंत्र अनुभव
करते हो, तब
तुम दूसरे के
बगावत कर दिए
हो।
स्वतंत्रता हो
गई हो, लेकिन
मैत्री नहीं
हो पाई है। और
दोनों ही अवस्थाएं
गलत हैं।
क्योंकि न तो
कोई परतंत्र
है और न कोई
स्वतंत्र है।
वास्तविकता
है--परस्परत्तंत्रता;
इंटरडिपेन्डेंस। हर चीज
एक-दूसरे पर
निर्भर है।
तुम्हारे
बिना वृक्ष न
हो सकेगा, वृक्ष
के बिना तुम न
हो सकोगे। तुम
दिन भर श्वास
लेते हो।
आक्सीजन तुम
पी जाते हो और
कार्बन-डाइआक्साइड
तुम हवा में
छोड़ देते हो।
वृक्ष कार्बन-डाइआक्साइड
पीते हैं और
आक्सीजन को
छोड़ते हैं।
इसलिए तो वृक्षों
के पास बैठ कर
तुम्हें
ताजगी मालूम पड़ती
है।
और
इसलिए तो
तुम्हारे
सीमेंट कांक्रीट
की वस्तुएं
मरघट जैसी
मालूम पड़ती
हैं,
जिनमें
वृक्ष खो गए
हैं क्योंकि
वहां कोई जीवन
देने वाला
नहीं है। वहां
परस्पर संबंध
टूट गया।
सीमेंट की सड़क
श्वास वापस
नहीं लौटाती।
सीमेंट कांक्रीट
की आकाश छूती मंजिलें, भवन, कुछ
भी नहीं
लौटाते।
मुर्दा हैं।
वृक्ष
से लेन-देन
है। इधर तुम
छोड़ते हो
श्वास, वृक्ष
पी जाता है।
तुम्हारी कार्बनसाइआक्साइड।
जो तुम्हारे
लिए विषाक्त
है, वह
वृक्ष के लिए
जीवन है। जो
वृक्ष के लिए
व्यर्थ है
आक्सीजन है, वह तुम्हारे
लिए जीवन है।
इसीलिए तो
वृक्षों के
पास बैठकर
लगता है कि
जीवन में एक
बाढ़ आ गई। पहाड़ों
पर जाकर लगता
है कि जीवन
में एक ऊर्जा आ
गई। तुम नये
हो गए, ताजे
हो गए।
हरियाली को
देखकर ही कुछ
भीतर ठंडा हो
जाता है, शीतल
हो जाता है।
तुम्हारी
आंखें
हरियाली की प्यासी
हैं। और आज
नहीं कल
विज्ञान यह भी
खोज लेगा कि
हरियाली
तुम्हारी
आंखों की
प्यासी है।
क्योंकि
अस्तित्व
परस्पर
निर्भर है। जब
तुम किसी
वृक्ष की तरफ
भरे प्यार की आंखों
से देखते हो, तो वृक्ष
में भी कुछ
कंपित होता
है।
इसकी
खोजबीन शुरू
हो गई है।
पश्चिम का एक
बहुत बड़ा
विचारक और
वैज्ञानिक
बैंकर--उसने
पौधों पर बड़े
प्रयोग किए
हैं। और वह
कहता है कि जब
पौधों के
प्रति कोई
प्रेम से भर
कर आता है, तो
पौधा तन प्राण
से नाच उठता है।
और इसकी
वैज्ञानिक
परीक्षा के
उपाय हैं।
जैसे
तुम्हारा कोई कार्डियोग्राम
लेता है
डाक्टर, तो
तार जोड़ देता
है। मशीन
ग्राफ बनाती
है कि तुम्हारा
हृदय कैसा धड़क
रहा है। ठीक धड़क रहा है,
नहीं ठीक धड़क रहा है?
स्वस्थ है,
या अस्वस्थ
है? तुम
प्रसन्न हो या
दुखी हो? तुम
जीवन से भरे
हो या मृत्यु
की तरफ डूब
रहे हो? सारी
खबर ग्राफ पर
आ जाती है।
ठीक
वैसे ही ग्राफ
बैंकर ने बनाए
हैं वृक्षों के।
वृक्षों में
तार जोड़ देता
है। फिर वृक्ष
को प्रेम करने
वाला व्यक्ति
आया और तार
खबर देने लता
है,
ग्राफ
बनाने लगता है
कि वृक्ष बहुत
प्रसन्न है।
बहुत आनंदित
है। स्वागत से
भरा है। तुम्हारी
भाषा नहीं
बोलता। अपनी
ही भाषा में स्वागत
से भरा है।
उसका
रोआं-रोआं कंप
रहा है, पुलकित
है, आनंदित
है।
और फिर
आया एक आदमी, जो
वृक्ष का
दुश्मन है। कि
खाली भी घास
पर बैठा हो, तो घास को उखाड़ता
रहेगा अकारण।
इधर
मेरे पास लोग
मिलने आते हैं, मुझे
बैठना बंद कर
देना पड़ा लान
में। क्योंकि जो
भी लोग वहां
लान पर बैठकर
जिन को मैं
मिलता था, उनको
पूरे वक्त यही
काम कि वे घास
को उखाड़
रहे है। किसलिए
उखाड़ रहे
हैं? उन्हें
होश ही नहीं
है, वे
क्या कर रहे
हैं। एक
बेचैनी है
भीतर जो किसी
भी चीज को
नष्ट करने में
उत्सुक है।
उनको रोक भी
दो, तो
थोड़ी देर में
वे फिर शुरू
कर देंगे। घास
उखाड़ने
से उन्हें
प्रयोजन भी
नहीं है।
लेकिन भीतर की
बेचैनी जीवन
को नष्ट कर
रही है। वे
सीमेंट के फर्श
पर ही बैठने
की योग्यता
रखते हैं। घास
जैसी जीवंत
जगह वे खतरनाक
है।
अगर
ऐसा आदमी
वृक्ष के पास
आता है, तो
वृक्ष के
प्राण कंप
जाते हैं कि
दुश्मन आ रहा
है। घबड़ाहट
शुरू हो जाती
है। ग्राह पर
खबर आ जाती है
कि वृक्ष बहुत
डरा हुआ है।
घबड़ा रहा है।
परेशान है कि
दुश्मन मौजूद
है आसपास। तुम
जब भरी प्रेम
की आंख से
वृक्ष को देखते
हो, तो तुम
ही हरे नहीं
हो जाते, वृक्ष
को भी तुम
हरियाली दे
रहे हो। जीवन
का दान दे रहे
हो।
सब
जुड़ा है, संयुक्त
है। कहीं कोई
अंत नहीं आता।
तुम्हारे
होने का। तुम
उतने ही बड़े
हो, जितना
यह बड़ा
अस्तित्व है।
इससे रत्ती भर
कम नहीं। इससे
रत्ती भर भी
तुमने अपने को
कम जाना, तो
तुम दुखी
रहोगे और नर्क
में रहोगे।
क्योंकि
असत्य में कोई
कैसे सुख को
उपलब्ध हो
सकता है? असत्य
दुख है, लेकिन
सारी राजनीति
तुम्हें तोड़ती
है।
लोग
मेरे पास आते
हैं। वे कहते
हैं,
मैं हिंदू।
आदमी होना
काफी था।
पर्याप्त तो नहीं
था बहुत; लेकिन
फिर भी बेहतर
था हिंदू होने
से। हिंदू तो
बीस ही करोड़
हैं। आदमी कम
से कम चार
अरब। थोड़े तो
बड़े होते! लेकिन
अगर वह आदमी
से खोजबीन करो
तो वह कहता है
कि हिंदू भी
मैं राम को माननेवाला
हूं। कृष्ण को
नहीं मानता।
राजनीति
ने और काटा।
अब वह पूरा
हिंदू भी नहीं
है। बीस करोड़
लोगों के साथ
भी उसका
तादात्म्य
नहीं है। अब दस
करोड़ के
साथ ही उसका
तादात्म्य रह
गया है। ऐसा
आदमी टूटता
जाता है। और
फिर हजार पंथ
हैं। घर-घर पंथ
हैं,
संप्रदाय
हैं। और आदमी
छोटा होता
जाता है।
कम से
कम आदमियत से जुड़ो।
आदमियत कोई
बहुत बड़ी घटना
नहीं है; क्योंकि
पृथ्वी बड़ी
छोटी है। सूरज
इससे साठ हजार
गुना बड़ा है।
और सूरज...बहुत
मध्यवर्गीय अस्तित्व
है उसका। उससे
हजारों गुने
बड़े सूरज हैं।
पृथ्वी का तो
कहीं कोई पता
नहीं है।
और
पृथ्वी पर भी
आदमी केवल चार
अरब हैं। थोड़ा
मच्छरों की
सोचो; कितने
अरब हैं। आदमी
चार अरब हैं।
फिर और
कीड़े--पतंगों
की सोचो। क्या
आदमी की
हैसियत है? तुम नहीं थे,
तब भी मच्छर
थे। तुम नहीं
रहोगे--अगर
राजनीतिज्ञों
की चली तो तुम
ज्यादा नहीं
रह पाओगे। इस सदी
के पूरे
होते--होते सब
समाप्त हो ही
जाएगा। मच्छर
फिर भी
रहेंगे। उनका
गीत गूंजता ही
रहेगा। कितने
प्राणी हैं!
अगर
थोड़े बड़े होना
है...और छोटे
होने से
तुम्हें पीड़ा
हो रही है फिर
भी तुम बड़े
होना चाहते। क्षुद्र
होने से
तुम्हें कष्ट
हो रहा है।
ऐसे जैसे बड़े
आदमी को छोटे
बच्चे के कपड़े
पहना दिए जाएं, ऐसी
तुम्हारी
तकलीफ हो रही
है। छोटे
बच्चे का जांघिया
पहने खड़े हो।
पीड़ा हो रही
है, बंध हो,
कसे हो, लेकिन
और छोटे होने
की आकांक्षा
बनी है।
सब
संप्रदाय
राजनीति हैं
क्योंकि
तोड़ते हैं।
हिंदू, जैन, बौद्ध, ईसाई
सब राजनीति
हैं, क्योंकि
तोड़ते हैं।
धर्म तो जोड़ता
है।
तो
पहले तो धर्म
तुम्हें जोड़ेगा
मनुष्यता से; फिर
जोड़ेगा
प्राण से।
प्राण से जुड़ो।
और फिर जोड़ेगा
अस्तित्व से।
जब तुम
अस्तित्व से
जुड़ जाओगे, तभी तुम
ब्रह्मज्ञान
को उपलब्ध
हुए। तब तुम उतने
ही बड़े हो
जाओगे जितना
बड़ा यह सारा
होना है। इससे
तुम रत्ती भर
छोटे न रहोगे।
तभी तो
उपनिषद के
ऋषियों ने कहा
है--अहं ब्रह्ममास्मि।
मैं ब्रह्म
हूं। यह कोई
अहंकार की
घोषणा नहीं है, यह
तो निरहंकार
की परम उदघोषणा
है। मैं हूं
ही हनीं
जब ऋषि ने
कहा--अहं
ब्रह्मास्मि।
उसने मैं की बात
ही नहीं की।
मजबूरी है; तुम्हारी
भाषा का उपयोग
करना पड़ता है।
इसलिए अहं
शब्द का उपयोग
किया--मैं
ब्रह्म हूं।
अन्यथा मैं तो
वह है ही
नहीं। जब तक
मैं है तब तक
तो ब्रह्म का
अनुभव हो ही
नहीं सकता। अहं
ब्रह्मास्मि
का अर्थ
है--मैं नहीं
हूं, ब्रह्म
है।
मैं तो
रहूंगा तो
छोटा ही
रहूंगा
तुम्हारी कोई
न कोई सीमा
रहेगी। तुम
कहीं न कहीं
समाप्त होओगे।
तुम्हारी कोई
न कोई परिभाषा
होगी। अब
अपरिभाष्य के
साथ,
असीम के साथ
एक हो जाना ही
परम आनंद है।
सारे ज्ञानी
एक ही इशारा
कर रहे हैं, कि तुम छोटे
से पोखरे हो
गए हो। छोटी
सी तलैया हो, सड़
रहे हो नाहक, जब कि सागर
की तरफ बह
सकते हो।
तो
पहला काम है, बहो;
और दूसरा
काम है, सागर
में डूब जाओ।
और
इसकी पीड़ा
तुम्हें भी
अनुभव होती
है। तुम समझ
पाओ,
न समझ पाओ
यह दूसरी बात
है। छोटा होना
किसे अच्छा
लगता है? छोटे-छोटे
बच्चों को भी
अच्छा नहीं
लगता। वे भी
बाप के पास
कुर्सी पर खड़े
हो जाते हैं
और जब उनका
सिर बाप के
ऊपर होता है
तो वह कहता है,
मैं तुमसे
बड़ा छोटा होना
किसे अच्छा
लगता? छोटे
होने में बड़ी
पीड़ा है। तुम
गरीब हो, अच्छा
नहीं लगता।
अमीर होना
चाहते हो।
क्या कारण है?
थोड़े
बड़े होना
चाहते हो।
थोड़ा इंकम
का ब्रेकेट
बड़ा हो जाए।
दस हजार रुपए
साल कमाते हो, दस
लाख कमाने
लगे। थोड़ा तो
बड़प्पन आए। एक
छोटे से झोपड़े
में रहते हो, बड़े महल में
रहना चाहते
हो। तुम समझ
नहीं पा रहे
हो, तुम्हारे
भीतर के प्राण
क्या कह रहे
हैं? वे यह
कह रहे है कि
थोड़ी जगह
चाहिए। थोड़ा
बड़ा स्थान
चाहिए। थोड़ा
फैलने की
सुविधा
चाहिए। वे यह
कह रहे हैं, कि छोटे
होने में
तकलीफ है।
लेकिन
तुम समझ नहीं पा
रहे हो।
क्योंकि
कितना ही धन
कमा लो, छोटे
तुम रहोगे।
कितना ही धन
पा लो, सीमा
बनी रहेगी।
सीमा छोटी हो
या बड़ी, सीमा
सीमा है। सीमा
का कष्ट है।
दस हजार की सीमा
हो या दस लाख
की, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। दस लाख
की सीमा बन
जाएगी, मन
कहेगा दस करोड़।
थोड़े बड़े हो
जाओ। थोड़ा
फैलो।
सब तरफ
तुम फैलने की
कोशिश कर रहे
हो। बिना समझे
हर आदमी
धार्मिक है।
कुछ लोग समझ
से धार्मिक
हैं,
कुछ नासमझी
से। जो नासमझी
से हैं वे
भटकते जरूर
हैं, पहुंचते
कहीं भी नहीं।
जो समझदारी से
चलते हैं, वे
भटकते नहीं, पहुंच जाते
हैं। उतनी ही
शक्ति भटकने
में लगती है, जितनी
पहुंचने में
लगती है। शायद
कम शक्ति से पहुंच
जाते हैं।
क्योंकि
व्यर्थ
रास्तों पर नहीं
जाते।
अगर
तुम अपनी
वासनाओं में
ठीक से
झांकोगे तो तुम
पाओगे कि सारी
वासनाओं का
सार एक है कि
तुम छोटे नहीं
होना चाहते।
कोई अगर
तुम्हारे पैर
पर पैर रख दे
तो तुम अकड़ कर
खड़े हो जाते
हो। रीढ़ सीधी
हो जाती है।
जब तुम अपनी
पूरी ऊंचाई को
प्राप्त कर
लेते हो, कहते
हो, जानते
हो कि मैं कौन
हूं? तुम
बता रहे हो कि
मैं इतना छोटा
नहीं, कि
हर कोई पैर पर
पैर रख कर चला
जाए।
तुम यह
बताना चाहते
हो कि
तुम--दूसरे ने
तुम्हें जरा
ज्यादा छोटा
समझ लिया।
इतने छोटे तुम
नहीं हो। तुम
कहते हो, जानते
हो मैं कौन
हूं? अकड़
कर चलते हो
तुम।
जो तुम
नहीं हो वह भी
दिखलाते हो
तुम। जितना धन
तुम्हारे पास
नहीं है उतनी
तुम अफवाह
उड़ाते हो कि
तुम्हारे पास
है। घर में मेहमान
आ जाता है, पड़ोसी
का सोफा मांग
लाते हो। जो
तुम्हारे पास नहीं
है वह तुम
दिखलाते हो, कि मेरे पास
है। घर में
रोज रूखा-सूखा
खाते हो, मेहमान
आता है तो
हलवा पूड़ी
बनाते हो। यह
कोई मेहमान के
लिए नहीं है।
मेहमान को तो
तुम गाली दे
रहे हो भीतर
कि कहां से आ गया!
जिसको तुम
गाली दे रहे
हो उसको हलुवा
पुड़ी
क्यों खिलाते
हो? नहीं, तुम दिखलाना
चाहते हो कि
बड़ी मौज चल
रही है। आनंद
में जीवन है।
बड़ा फैलाव है।
कोई कमी नहीं है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
ने घर मेहमान
आया एक। पत्नी
नाराज।
मुल्ला भी
दुखी; लेकिन
हलवा पूड़ी
तो बनाना ही
पड़ा। फिर
मेहमान को
आग्रह कर करके
खिलाना भी पड़ा
और भीतर तो
गालियां चल
रही हैं कि
दुष्ट खाता जा
रहा है। ना भी
नहीं कर रहा है।
आखिर मुल्ला
ने फिर कहा कि
एक पूड़ी
और? उस
आदमी ने कहा, अब काफी हो
गयी। अब बस।
मुल्ला ने कहा,
कहां काफी
है? और
गिनती कौन कर
रहा है? अभी
तो बारह ही तो
खाई हैं। और
गिनती कौन कर
रहा है।
मन गिन
भी रहा है। मन
दिखलाना भी
चाह रहा है, कि
कोई गिनती
नहीं कर रहा
है। चाहते हो
तुम्हारी
सारी वासनाओं
में तुम एक
बात, कि
तुम बड़े हो।
और हर जगह तुम
मुश्किल पाते
हो। बड़े हो
नहीं पाते। सब
जगह सीमा आ
जाती है।
धन की
एक सीमा है।
कितना कमाओगे
सत्तर साल में? कितना
ही कमा लो, इस
जमीन के सब से
बड़े धनी आदमी
ने मरते वक्त
जो कहा वह याद
रखना।
अमेरिका
का बहुत बड़ा
धनी आदमी हुआ, एंडरू कार्नेगी।
दस अरब नगद
रुपया छोड़कर
मरा। इतनी नगद
संपदा किसी के
पास न थी।
मरते वक्त
किसी ने
एंड्रू कार्नेगी
को पूछा कि
तुम तो
संतुष्ट मर
रहे होगे? इतनी
विराट
संपत्ति, धन
छोड़ कर जा रहे
हो। एंड्रू कार्नेगी
ने आंख खोली
और कहा, संतुष्ट?
मेरे इरादे
पूरे सौ अरब
रुपए छोड़ने के
थे। मैं एक
हारा हुआ आदमी
हूं। पराजित।
एंड्रू
कार्नेगी
गरीब घर में
पैदा हुआ।
अपनी ही
जिंदगी में उस
अकेले आदमी ने
अपनी ही मेहनत
से दस अरब
रुपए इकट्ठे
किए। लेकिन
संतोष नहीं, पीड़ा
है। क्योंकि
दस अरब भी तो
सीमा बन
जाएगी। दस
रुपए से भी
सीमा बनती है,
दस अरब से
भी सीमा बनती
है। थोड़ी बड़ी
हुई तो क्या, लेकिन जब तक
सीमा है तब तक
तुम छोटे ही
मालूम पड़ोगे।
तब तब पीड़ा
जारी रहेगी।
एक ही
घड़ी है, जब
तुम्हारी
पीड़ा बिलकुल
बिदा हो जाती
है--जिस दिन
तुम विराट के
साथ एक हो
जाते हो।
जिसकी कोई
सीमा नहीं, वही धर्म
में जागरण है।
वह ब्रह्म में
प्रवेश है।
वही खो जाना
है सरिता का
सागर में।
कबीर
उसकी तरफ ही
सब तरफ से
इशारा कर रहे
हैं।
हम तो
एक एक करि
जाना।
कबीर
कहते हैं हमने
तो एक को एक
करके जान लिया।
दुई मिटा दी।
अब हम दो नहीं
हैं। भक्त जब
तक भगवान न हो
जाए तब तक दुई
बनी रहती है।
भक्त चाहे
भगवान के
चरणों तक भी
पहुंच जाए, तो
भी तृप्ति
नहीं होती।
सच तो
यह है, अतृप्ति
और बढ़ जाती है
चरणों के पास
आकर। विरह और
गहरा हो जाता
है। संताप और
गहरा होने
लगता है, कि
इतने करीब
होकर अब और
क्या बाधा है,
कि छलांग
क्यों नहीं लग
जाती कि
परमात्मा हो जाऊं?
इसलिए
हिंदू धर्म
जिन ऊंचाइयों
को छूता है, उन
ऊंचाइयों को
इस्लाम, ईसाइयत,
यहूदी धर्म
नहीं छू पाते।
एक कदम पीछे
रह जाते।
ईसाइयत या
इस्लाम
परमात्मा के
चरणों तक तो लाते
हैं। लेकिन
आखिरी छलांग
की हिम्मत
नहीं हो पाती।
आखिरी छलांग
की हिम्मत है,
परमात्मा
हो जाना। उससे
कम में राजी
मत होना। उससे
कम में राजी
रहोगे, दुखी
रहोगे।
परमात्मा के
चरणों में
रहोगे, लेकिन
नर्क में
रहोगे।
क्योंकि सीमा
बनी रहेगी। जब
तक तुम
परमात्मा ही न
हो जाओगे तब
तक पीड़ा की
रेखा बनी
रहेगी।
हम तो
एक एक करि
जाना।
कबीर
कहते हैं कि
हमने तो एक को
एक कर के जान
लिया। अब कोई
दुई न बची। अब
हम कोई अलग
नहीं हैं। अब
तू कोई अलग
नहीं है।
सूफियों
की बड़ी पुरानी
कथा है। उस
कथा में मैंने
थोड़ा सा जोड़ा
है। कथा है कि
जलालुद्दीन
रूमी एक गीत
में,
कि प्रेमी
ने प्रेयसी के
द्वारा पर
दस्तक दी आधी
रात।
प्रेयसी
ने भीतर से
पूछा कौन है?
प्रेमी
ने कहा, मैं
हूं तेरा
प्रेमी। मेरी
पगध्वनि नहीं
पहचानी? मेरी
आवाज नहीं
पहचानी?
भीतर
सन्नाटा हो
गया। कोई
उत्तर न आया।
प्रेमी बेचैन
हुआ। उसने कहा, क्या
कारण है? द्वार
क्यों नहीं
खुलते?
प्रेयसी
ने कहा, इस घर
में दो के
लायक जगह नहीं
है। या तो मैं,
या तू।
प्रेम के घर
में दो के लिए
जगह नहीं है। यह
द्वार बंद ही
रहेगा। जब तक
तुम एक होकर न
आओ।
प्रेमी
वापस चला गया।
दिवस आए गए, ऋतुएं
आई गईं, वर्ष
बीते। बड़ी
साधना की
उसने। बड़ा
अपने को निखारा।
शुद्ध किया, आग से
गुजरा। कंचन
हो गया, फिर
एक रात
पूर्णिमा की
उसने द्वार पर
दस्तक दी।
वही
सवाल, कौन हो?
प्रेमी
ने कहा, तू ही
है।
रूमी
कहता है, द्वार
खुल गए। हिंदू
राजी न होंगे।
इस्लाम राजी
है। यहां तक
कहानी जाती है,
ठीक है।
इस्लाम
कहता है, भक्त
कह दे
परमात्मा से,
कि बस तू ही
है, मैं
नहीं हूं।
यात्रा पूरी
हो गई।
लेकिन
अगर थोड़ा गौर
से देखोगे
तो जब तक तू का
भाव है, तब तक
मैं का भाव
मिट नहीं
सकता।
क्योंकि तू का
अर्थ ही क्या
है अगर मैं
नहीं? तू
में सारा अर्थ
ही मैं के
कारण है। तू
के पहले मैं
है। और जब
प्रेमी ने कहा
तू ही है, तब
कौन कह रहा है?
और तब भीतर
तो वह जानता
है कि मैं कह
रहा हूं। मैं
ही तो तू
कहेगा। मैं न
होगा, तो
तू भी कौन
कहेगा?
इसलिए
रूमी की तो
कविता पूरी हो
जाती है, कि
द्वार खुल गए।
लेकिन मैं
थोड़ी दूर
द्वार और बंद
रखना
चाहूंगा। अगर
रूमी मिल जाए
तो मैं कहूंगा,
कविता को
थोड़ा और चलने
दो। कहलाओ
प्रेयसी से कि
जब तक तू है, तब तक मैं भी
मौजूद है। और
दो के लिए
द्वार न खुल
सकेंगे और
प्रेमी तो
लौटा दो। अभी
कचरा जब गया, कंचन बचा; अब कंचन को
भी मिट जाने
दो। अशुद्धि
गई, शुद्धि
बची; अब
शुद्धि को भी
जाने दो। पाप
गया, पुण्य
बचा; अब
पुण्य को भी
जाने दो।
और तब
मैं कहता हूं, प्रेमी
को आने की
जरूरत नहीं, प्रेयसी ही
आएगी। तब उसे
वापस दोबारा
लाने की जरूरत
नहीं दरवाजा
के खटखटाने के
लिए। दो दफा काफी
खटखटा चुका।
अब प्रेमी न
लौटेगा। तब
प्रेमी जहां
होगा, मगन
होगा। अब
प्रेयसी ही
उसे खोजती हुई
आएगी। प्रेयसी
ही उसे आकर
आलिंगन कर
लेगी।
जिस
दिन भक्त
बिलकुल मिट
जाता है, भगवान
आता है। और
मैं तुमसे
कहता हूं, कि
भक्त कैसे
भगवान तक
पहुंच सकता है?
न तो
तुम्हें पता
है उसका मालूम,
न ठिकाना
मालूम। पाती
भी लिखोगे
तो कहां? जाओगे
तो कहां? तुम
उसे खोजोगे
कैसे? वह
मिल भी जाए, तो
प्रत्यभिज्ञा
जैसे होगी? रिकग्नीशन
कैसे होगा कि
यही है? क्योंकि
पहले तो कभी
जाना नहीं।
नहीं, तुम
न जा सकोगे।
तुम मिट जाओ, वह आता है।
वह तुम्हारे
हृदय के द्वार
पर खुद ही
दस्तक देता
है। वह खुद ही
आता है। जिस
दिन भक्त
तैयार है, उस
दिन भगवान उसे
खोजता चला आता
है। क्योंकि
भगवान तो सदा
मौजूद ही था। तुम्हारे
आसपास ही था।
तुम्हें घेरे
था। तुम्हारा
परिवेश था।
तुम्हारी
श्वास था।
तुम्हारा
प्राण था। तुम
भरे थे अपने
से इतने
ज्यादा, कि
भीतर कोई जगह
न थी। अवधू
गगन मंडल घर कीजै।
जब तुम
शून्य हो
जाओगे, वह
उतर आता है। शून्यता
में पूर्णता
ऐसी ही उतर
आती है, जैसे
बूंद सागर में
खो जाए। तुम
शून्य हुए कि पूर्ण
होने के
अधिकारी हुए।
तुम मिटे, कि
परमात्मा
हुआ।
प्रेयसी
खुद ही खोजती
हुई पहुंची
होगी। किसी वृक्ष
के नीचे बैठा
देखा होगा
प्रेमी को।
नाची होगी
उसके चारों
तरफ। आलिंगन
किया होगा।
कहा होगा कि
मैं आ गई। अब
तो तुम बिलकुल
मिट गए। न तू
बचा,
न मैं बची।
दोनों साथ
बचती हैं, साथ
जाती हैं।
क्योंकि
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। तू
का क्या अर्थ
है, अगर
मैं नहीं? मैं
का क्या अर्थ
है,अगर तू
नहीं?
कबीर
कहते हैं,
हम तो
एक एक करि
जाना।
न वहां
कोई मैं है, न
वहां कोई तू
है। हमने तो
एक को बस, एक
ही तरह जाना।
दोई
कहै,
तिनही को दोजख
जिन्होंने
दो कहा, वे
नर्क में।
दोई
कहै,
तिनही को दोजख...
वह
नर्क में है।
दो यानी नर्क, एक
यानी स्वर्ग।
...जिन नाहिन
पहचाना।
वे ही
दो कहते हैं
जिन्होंने
पहचाना नहीं।
और जो दो कहते
हैं,
वे गहन नर्क
में पड़े रहते
हैं।
सीमा
नर्क है। बंधे
हुए अनुभव
होना पीड़ा है।
सब तरफ से दबे
होना दुख है।
कुछ बचा है
पाने को। नर्क
है,
जब तक सभी न
पा लिया गया
हो। कुछ भी न
बचे बाहर। तुम
ऐसे फैल जाओ
कि आकाश जैसे
ढाक लो सारे
अस्तित्व को।
कि फूल तुममें
खिलें, चांदत्तारे तुममें
चलें।
स्वामी
राम कहा करते
थे कि मैंने
ही चांदत्तारे
बनाए। वह मैं
ही था। जिसने चांदत्तारों
को पहले छुआ
उंगली से और
जीवन दिया और
गति दी। और चांदत्तारे
मुझमें ही
घूमते हैं। तो
लोग समझते थे
कि पागल हैं।
ज्ञानियों को
सदा लोगों ने
पागल समझा है।
बात ही पागलपन
की लगती है।
जब
स्वामी राम
अमेरिका गए और
उन्होंने ये
ही बातें वहां
कहीं--तो
हिंदुस्तान
तो पागलों से
बहुत परिचित
है। यहां चल
जाती हैं
बातें।
हजारों साल से
पागलों को
सुनते-सुनते
जो पागल नहीं
हैं,
वे भी कम से
कम उनकी भाषा
से परिचित हो
गए। मानते हैं
कि सधुक्कड़ी
भाषा है। अपनी
नहीं; साधुओं
की है। कुछ
दिमाग फिरे
लोगों की है।
तभी तो कबीर
को कहना पड़ता
है, कहै
कबीर दीवाना।
दीवानों की है
पागलों की है,
मस्तों की है। मगर
हमने इतने
दिनों से सुनी
है और हमने
इतने मस्त
पुरुष देखे
हैं कि हम
नासमझी में भी
चाहे स्वीकार
न करें, लेकिन
अस्वीकार भी
नहीं करते।
पर
अमेरिका की तो
हालत बड़ी और
है। जब वहां
लोगों ने
स्वामी राम को
कहने सुना, कि
मैंने ही चांद
तारे चलाए तो
लोगों ने समझा
यह आदमी बिलकुल
पागल है। तो
लोग पूछने लगे,
आपने? और
आपमें ही चांद
तारे घूम रहे
हैं? तो इस
तरह के लोगों
को तो पश्चिम
में लोग मनोवैज्ञानिक
के पास भेज
देते हैं
चिकित्सा के
लिए।
कल ही
सांझ एक
इटालियन
साधिका मुझसे
कह रही थी, कि
जब से उसने
ध्यान शुरू
किया है, शरीर
में एक ऊर्जा
प्रवाहित हो
रही है। और जब भी
कोई ध्यान की
बात उठती है, या परमात्मा
की चर्चा उठती
है, या जब
भी कभी वह
मुझे मिलने
आती है, या
किसी ऐसे आदमी
से मिलना हो
जाता है जिसके
भीतर जीवन के
फूल कुछ खिलने
शुरू हुए हैं
या खिल रहे
हैं, तो
उसका सारा
शरीर एक झटके
से भर जाता है,
जैसे बिजली
की कौंध दौड़
गई। उसने कहा,
यहां तो सब
ठीक था। लोग
समझते थे, कुंडलिनी
का जागरण हो
रहा है। इटली
में क्या करूंगी?
अगर वहां यह
हुआ तो वे
मुझे
मनोचिकित्सक
के पास भेज
देंगे। वे
मेरा इलाज
करवा देंगे।
हो सकता है, बिजली का
शाक दिलवा
दें। दवा तो
वे करवाएंगे
ही, कि कुछ गड़गड़ हो
गया।
यहां
हम परिचित हैं, अमेरिका
तो बहुत नया
है। बच्चों
जैसा देश है। राम
ने जब ये
बातें कहीं तो
लोगों ने समझा
कि यह पागल
है। और जब राम
कहते, तो
वे हमेशा अपने
लिए बादशाह
शब्द का उपयोग
करते थे। वे
कभी और तरह
नहीं बोलते
थे। वे कहते
थे, बादशाह
राम।
उन्होंने
किताब लिखी तो
उन्होंने उस
किताब को नाम
दिया बादशाह
राम के छह हुक्मनामे।
सिक्स आर्डर्स
फ्राम एम्परर
राम। हुकमनामे।
बादशाह।
खुद
अमेरिका का प्रेसिडेंट, बादशाह
राम से मिलने
आया था और
उसने कहा, और
सब तो ठीक है, अगर आप यह
बादशाह क्यों
कहते हैं? आपके
पास दिखाई कुछ
भी नहीं पड़ता।
राम ने कहा, पहचान लिया
बिलकुल।
इसीलिए अपने
को बादशाह कहता
हूं मेरे पास
कोई सीमा नहीं,
कुछ भी
नहीं। असीम! चांदत्तारे
मुझ में घूमते
हैं। क्योंकि
मैं कहीं
समाप्त ही
नहीं होता।
यही मेरी
बादशाहत है।
बिलकुल ठीक
पहचाना।
अमरीका
प्रेसिडेंट
कह रहा था, बादशाह
वह अपने आपको
कहे, जिसके
पास कुछ हो।
हमारी
परिभाषा अलग
है। हम कहते
हैं जिसके पास
कुछ नहीं, उसके
पास सब है।
जिसने छोड़ा
आंगन, आकाश
उसका हुआ।
जिसने छोड़ा एक
घर, सब घर
उसके हुए। जिसने
यहां गिराई
अपनी अस्मिता,
सब के भीतर
सब के प्राण
के ही प्राण
हो गए।
रामकृष्ण
परमहंस को
मरने के पहले
गले का कैंसर
हो गया। तो
बड़ा कष्ट था।
और बड़ा कष्ट
था भोजन करने
में,
पानी भी
पीना मुश्किल
हो गया था।
गले से कोई भी
चीज ले जाना
कष्ट था। घाव
था।
तो
विवेकानंद ने
एक दिन
रामकृष्ण को
कहा,
कि इतनी
पीड़ा शरीर को
हो रही है। आप
जरा मां को क्यों
नहीं कह देते?
जगत जननी के
जरा कह दो।
तुम्हारा वह
सदा से सुनती
रही है। इतना
ही कह दो, कि
गले को इतना
कष्ट क्यों दे
रही हो? फिर
भोजन की
असुविधा हो गई
है।
रामकृष्ण
ने कहा, तू
कहता है तो कह
दूंगा। मुझे
खयाल ही न
आया।
घड़ी भर
बाद आंख खोली
और खूब हंसने
लगे और मां ने
कहा,
पागल! कब तक
इसी कंठ से
बंधा रहेगा? सभी कंठों
से भोजन कर।
बात समझ में आ
गई। रामकृष्ण
ने कहा, यह
कंठ अवरुद्ध
ही इसलिए हुआ
था कि सभी कंठ
मेरे हो जाए।
अब मैं
तुम्हारे कंठों
से भोजन
करूंगा।
एक कंठ
अवरुद्ध होता
है,
सभी कंठों
के द्वार खुल
जाते हैं।
यहां एक अस्मिता
बुझती है और
सार अस्तित्व
की अस्मिता, सारे
अस्तित्व का
मैं भाव--वही
तो परमात्मा
है। वही
अस्तित्व
अस्मिता तो
कृष्ण से बोली
है, सर्वधर्मान परित्यज्य
मामेकं शरणं
व्रज। सब धर्म
छोड़ कर तू
मेरी शरण आ।
यह कौन बोला
है? यह कौन
है मेरी शरण? यह कोई
कृष्ण नहीं
हैं, जो
सामने खड़े
हैं। यह सारे
अस्तित्व की
अस्मिता, यह
सारे
अस्तित्व का
मैं बोला है।
तुम्हारा मैं
बाधा है
क्योंकि उसके
कारण तुम सारे
अस्तित्व के
मैं के साथ
एकता न साध
पाओगे।
रवींद्रनाथ
ने अपना एक
संस्मरण लिखा
है,
जो मुझे बड़ा
ही प्रीतिकर
रहा है। ऐसी
पूर्णिमा की
रात थी एक, रवींद्रनाथ
बजरे में
थे नदी में।
एक छोटा सा
दीया जला दिया
था। और किताब
पढ़ रहे थे।
बड़ी
टिमटिमाती
रोशनी थी। छोटा
सा दीया था।
और बाहर पूरा
चांद खिला था
पूर्णिमा का
रोशनी रोशनी
थी। लेकिन
कमरे के भीतर
दीया
टिमटिमाता
था। उसकी गंदी
सी रोशनी सारे
कक्ष को गंदा
कर रही थी।
आधी रात तक
पढ़ते रहे। थक
गए। दीये को
फूंक मार कर
बुझा कर किताब
बंद की।
चौंक
गए। खड़े हो
गए। नाचने
लगे। अनूठा
घटा। सोचा भी
न था,
ऐसा घटा। अब
तक पीला सा
प्रकाश भरा था
कमरे में।
दीये के
बुझाते ही द्वार
से, खिड़कियों से, रंध्र-रंध्र
से बजरे
की, चांद
भीतर आ गया और
नाचने लगा।
रवींद्रनाथ
नाच उठे।
उस रात
उन्होंने
अपनी डायरी
में लिखा, मैं
भी कैसा पागल!
पूरा चांद
बाहर खड़ा था।
अनूठी सुंदर
रात बाहर
प्रतीक्षा कर
रही है। चांद
द्वार पर खड़ा
है, खिड़की
पर खड़ा है, रंध्र-रंध्र
के पास खड़ा है,
रह देखता है
कब बुझाओगे
भीतर का दीया,
कि मैं भीतर
आ जाऊं। और
छोटा सा दीया
बाधा बना है
और उसकी वजह
से भीतर गंदा
प्रकाश भरा है
जिसमें आंखें
थकती हैं, शीतल
नहीं होतीं।
दीए के बुझते
ही सब तरफ से
रोशनी दौड़
पड़ी। भीतर जगह
खाली हो गई।
शून्य हो गई।
चांद आ गया
नाचता हुआ।
रवींद्रनाथ
ने कहा, उस
दिन मेरे मन
में एक द्वार
खुल गया, कि
जब तक मेरे
भीतर अहंकार
का दीया जल
रहा है, तब
तक परमात्मा
की रोशनी बाहर
ही खड़ी रहेगी।
जिस दिन यह
दीया मैं फूंक
मार कर बुझा
दूंगा, उसी
दिन वह नाचता
भीतर आ जाएगा।
फिर नाच ही नाच
है। फिर उत्सव
ही उत्सव है।
फिर इस उत्सव
का कोई अंत
नहीं आता।
हम तो
एक एक करि
जाना।
दोई
कहे तिनहीं
को दोजख, जिन्ह नाहिन
पहिचाना।
जिन्होंने
दो कहा, वे
नर्क में है।
कबीर का यह
वचन पश्चिम का
आधुनिक
विचारक ज्या
पाल सार्त्र
अगर पढ़े
तो राजी होगा।
ज्या पाल
सार्त्र का एक
बहुत प्रसिद्ध
वचन है, जिसमें
उसने कहा है--द
अदर द हेल।
दूसरा नर्क है।
उसके प्रयोजन
हैं। लेकिन
बात तो उसने
भी पकड़ ली।
दूसरा नर्क
है। दूसरे की
मौजूदगी नर्क
है।
तो
क्या करें? क्या
अकेले में भाग
जाएं? एकांत
में हो जाए, जहां दूसरा
न हो? न
पत्नी हो, न
पति हो, न
बेटा हो।
बहुतों ने यह
प्रयोग किया
है। भागे हैं
हिमालय की
कंदराओं में
ताकि अकेले हो
जाए। क्योंकि
दूसरा नर्क
है। लेकिन तुम
भाग कर भी
अकेले न हो
पाओगे।
क्योंकि
तुम्हारा मैं
तो तुम्हारे
साथ ही चला
जाएगा। तू
यहां छोड़
जाओगे, मैं
तो साथ चला
जाएगा। और
ध्यान रखो, जहां मैं
हूं, वहां
तू है। वह
सिक्का
इकट्ठा है।
तुम आधा-आधा
छोड़ नहीं
सकते। अगर मैं
तुम्हारे साथ
गया तो तू
तुम्हारे साथ
गया। जल्दी ही
तुम अपने को
ही दो हिस्सों
में बांट कर
चर्चा करने
लगोगे।
अकेले
में लोग अपने
से ही बात
करने लगते
हैं। मैं और तू
दोनों हो गए।
अकेले में लोग
ताश खेलने
लगते हैं। खुद
ही दोनों तरफ
से बाजी बिछा
देते हैं। उस
तरफ से भी
चलते हैं, इस
तरफ से भी
चलते हैं।
इतना ही नहीं,
उस तरफ से
भी धोखा देते
हैं, इस
तरफ से भी
धोखा देते
हैं। किसको
धोखा दे रहे
हो?
अकेले
में लोग
कल्पना की
मूर्तियों
में जीने लगते
हैं। उनसे
चर्चा करते
हैं,
बात करते
हैं, तू
मौजूद हो जाता
है।
भीड़
तुम्हारे हाथ
ही आ जाएगी
अगर मैं
तुम्हारे साथ
गया। क्योंकि
मैं तो केंद्र
है सारी भीड़
का। भीड़ तो
परिधि है। तुम
जहां पाओगे, तुम
भीड़ में
रहोगे। तुम
अकेले नहीं हो
सकते। हिमालय
का एकांत
शून्य न
बनेगा।
अकेलापन
रहेगा ही। और
अकेलापन और
एकांत में बड़ा
फर्क है।
अकेलेपन का
अर्थ है, लोनलीनेस और एकांत का
अर्थ है अलोननेस।
अकेलेपन का
अर्थ है, कि
दूसरे की चाह
मौजूद है।
इसलिए तो तुम
अकेलापन
अनुभव कर रहे
हो कि मैं
अकेला...मैं
अकेला। दूसरे
की चाह मौजूद
है। दूसरे की
वासना मौजूद
है। तुम चाहते
हो कोई आ जाए।
तुम
अपनी हिमालय
की गुफा के
बाहर बैठकर भी
रास्ते पर नजर
लगाए रखोगे कि
शायद कोई
यात्री मानसरोवर
जाता गुजर
जाए। शायद कोई
मनुष्य थोड़ी खबर
ले आए नीचे के
मैदानों की, कि
क्या हुआ? जयप्रकाश
नारायण की
पूर्ण
क्रांति हो
पाई कि नहीं? शायद कोई
अखबार का एक
टुकड़ा ही ले
आए और तुम वेद
वचनों की तरफ
अखबार को पढ़
लो। मन
तुम्हारा नीचे
ही भटकता
रहेगा
मैदानों में,
जहां भीड़
है।
रामकृष्ण
कहते थे, एक
बार बैठे थे
मंदिर के बाहर
दक्षिणेश्वर
में, तो
देखा कि एक
चील मरे हुए
चूहे को ले उड़ी
है। अब चील
कितने ही ऊपर उड़े, नजर
तो उसकी नीचे
कचरे-घर में
लगी रहती है
जहां मरे चूहे
पड़े हों, मांस
का टुकड़ा पड़ा
हो, फेंकी
गई मछली पड़ी
हो। उड़ती है
आकाश में, नजर
तो घूरे पर
लगी रहती है।
तुम हिमालय पर
बैठ जाओ। कोई
फर्क न पड़ेगा।
नजर घूरे पर
लगी रहेगी
दिल्ली में।
नजर मरे चूहों
पर लगी रहेगी।
तुम अपने को
तो साथ ही ले
जाओगे। तुम ही
तो तुम्हारे
होने का ढंग
हो।
रामकृष्ण
ने देखा कि वह
चील उड़ रही है
चूहे को लेकर।
और बहुत सी
चीलें उस पर
झपट्टा मार
रही हैं। कौवे
दौड़ गए हैं।
बड़ा उत्पात मच
गया है आकाश
में। वह चील
बचने की कोशिश
कर रही है।
लेकिन और
गिद्ध आ गए
हैं। और सब
तरफ से उसको टोचे जा
रहे हैं। वह
भागती है, बचना
चाहती है।
उसके पैरों पर
लहू आ गया है।
तब क्रोध की
अवस्था में वह
भी किसी गिद्ध
पर झपटी और
मुंह से चूहा
छूट गया। चूहे
के छूटते ही
सारा उपद्रव
बंद हो गया।
कोई वे चील के
पीछे पड़ने ही
थे। बाकी
गिद्ध और
चीलें और
कौवे...वे चूहे
के पीछे पड़े
थे। जैसे ही
चूहा छूटा, वे सब चले
गए। वे चूहे
की तरफ चले
गए। अब वह थकी चील
वृक्ष पर बैठ
गई। रामकृष्ण
कहते हैं कि
मुझे लगा, शायद
थोड़ी उसे समझ
आई होगी। चूहा
सारी भीड़ को
ले आया था।
तुम्हारा
मैं...तुम
हिमालय चले
जाओ,
कोई फर्क न
पड़ेगा। सब भीड़
आ जाएगी।
तुम्हारा मैं
भीड़ को खींचता
है। तुम मैं
को छोड़ दो।
बाजार में
बैठे रहो, वहीं
हिमालय हो
जाएगा।
तुम्हारी
दुकान तुम्हारी
गुफा हो जाएगी
तुम्हारा
दफ्तर
तुम्हारा
मंदिर हो
जाएगा। मैं का
चूहा भर छूट
जाए। फिर कोई
चील हमला नहीं
करती। फिर कोई
सिद्ध तुम पर
आकर हमला नहीं
करता। तुमसे किसी
का कुछ
लेना-देना
नहीं है। वह
तुम्हारा मैं
ही तुम्हारे
उपद्रव का
कारण है।
तुम्हें
कभी किसी ने
धक्का मारा? नहीं
तुम्हारे मैं
को धक्के मारे
गए हैं। किसी
ने तुम्हें कभी
नीचा दिखाया
नहीं।
तुम्हारे मैं
को नीचा दिखाया
गया है? किसी
ने कभी
तुम्हें गाली
दी? नहीं।
तुम्हारे मैं
को गाली दी गई
है। किसी ने
कभी तुम्हारी
स्तुति की? नहीं।
तुम्हारे मैं
की स्तुति की
गई।
जैसे
ही मैं गया, सारी
भीड़ गिर जाती
है नींद को की,
स्तुति
करनेवालों की,
मित्रों की,
शत्रुओं की,
अपनों की, परायों की।
द अदर इज
हेल। सार्त्र
कह रहा
है--दूसरा
नर्क है। लेकिन
अगर बहुत गौर
से सोचो और
थोड़ा गहरे जाओ
तो दूसरा
इसीलिए है, कि तुम हो। द इगो इज
द हेल। गहरे
पर विश्लेषण
करने पर तो
पता चलेगा कि
दूसरा तो
तुम्हारे
कारण है।
इसलिए दूसरे
को क्या नर्क
कहना। वह नर्क
मालूम पड़ता
है। वस्तुतः
मैं ही नर्क
है। अहंकार ही
नर्क है।
दो कहै तिनही को दोजख, जिन नाहिन
पहिचाना।
एक पवन, एक
ही पानी, एक
ज्योति
संसारा।
एक ही
पवन है; चाहे
कैलाश में, चाहे काबा
में। एक ही
पानी है; चाहे
गंगा में, चाहे
तुम्हारे घर
रखे गंगोदक
में।
एक पवन
एक ही पानी, एक
ज्योति
संसारा।
और
चाहे छोटे से
मिट्टी के दीए
मग और चाहे महासूर्यों
में;
एक ही
ज्योति है। इस
एक को पहचानो।
इस एक को जीओ।
इस एक में
रमो। एक को ही गुनो। इस
एक को साधो।
इस एक को ही
ध्यान बनाओ।
एक पवन, एक
ही पानी, एक
ज्योति
संसारा।
एक ही
खाक घड़े
सब भांड़े, एक
ही
सिरजनहारा।
और एक
ही मिट्टी है; जिससे
सब तरफ के घड़े
गढ़े गए
हैं। कुम्हार
चक्के पर रखता
जाता है वही मिट्ठी।
अलग-अलग रूप
देता चला जाता
है। रूप का भेद
है। नाम का
भेद है। मूल
का तो जरा भी
भेद नहीं है।
अस्तित्व का
तो जरा भी भेद
नहीं है। कोई
स्त्री है, कोई पुरुष
है। भीतर सब
एक है। कोई
गोरा है, कोई
काला। भीतर सब
एक है। कोई
हिंदू है, कोई
तुर्क है।
भीतर सब एक
है।
एकहि
खाक घड़े
सब भांडे।
और एक
ही
सिरजनहारा।
और एक ही है जो
सृज रहा है, एक
ही रच रहा है।
जैसे बाढ़ी
काष्ठे ही
काटे, अगिनी न काटें
कोई।
यह बड़ा
महत्वपूर्ण
सूत्र है। उन
दिनों, कबीर
के दिनों तक
भी लकड़ी को
रगड़ कर अग्नि
पैदा की जाती
थी। वही एक
उपाय था। लकड़ी
में अग्नि छिपी
है। काष्ठ में
अग्नि छिपी
है। जब बढ़ई काटता
है लकड़ी को, तो लकड़ी ही
कटती है, अग्नि
नहीं कटती।
कबीर
यह कह रहे हैं, ऐसे
ही तुममें वह
एक छिपा है।
जब मौत
तुम्हें मारती
है, तो
लकड़ी ही कटती
है, अग्नि
नहीं कटती। जब
बीमारी
तुम्हें पकड़ती
है, तो
लकड़ी को ही पकड़ती
है, अग्नि
नहीं कटती। जब
बीमारी
तुम्हें पकड़ती
है, तो
लकड़ी का ही पकड़ती
है, अग्नि
को नहीं पकड़ती।
जब जवान बूढ़ा
होता है तो
लकड़ी ही बूढ़ी
होती है, अग्नि
बूढ़ी नहीं
होती।
वह जो
तुममें छिपा
है,
चाहे
तुम्हें पता न
हो। क्योंकि
तुमने रगड़ा
ही नहीं कभी
अपने को कि
पता हो जाए।
जिन्होंने रगड़ा, उन्होंने
जाना। रगड़ने
का अर्थ है, जिन्होंने
थोड़ा साधा, उन्होंने
जाना।
जिन्होंने
भीतर के रूप
को बाहर प्रकट
कर के देखा, उन्होंने
जाना।
उन्होंने
भीतर की अग्नि
को पहचान लिया
और तब वे
जानते हैं, कि सभी लकड़ियों
में एक ही
अग्नि छिपी
है। लकड़ी के
रूप अलग-अलग, अनेक होंगे।
आग का रंग-ढंग एक।
आग का स्वभाव
गुण एक। जिसने
ऊपर-ऊपर से भांडों
को पहचाना वह
शायद सोचता हो,
सब अलग-अलग
हैं। जिसने
भीतर से
पहचाना, ये
एक ही मिट्टी
के बने हैं।
और
मिट्टी के
भीतर छिपा हुआ
जो घड़ा है, वह
थोड़ा समझने
जैसा है।
लाओत्से ने
उसकी बहुत चर्चा
की है।
लाओत्से कहता
है, घड़ा
क्या है? मिट्टी
की दीवाल घड़ा
है, या
मिट्टी की
दीवाल के भीतर
छिपा हुआ
शून्य घड़ा है;
घड़ा क्या है?
मिट्टी की
दीवाल तो घड़ा
नहीं है
क्योंकि मिट्टी
की दीवाल में
तुम क्या भरोगे!
वहां तो पहले
से ही भरा हुआ
है। घड़े
की उपादेयता
तो उसके भीतर
छिपे शून्य
में है।
लाओत्से
कहता है, मकान
पर दरवाजा लगा
है। दीवाल
मकान है या
दीवाल के भीतर
जो खाली जगह
है, वह
मकान है।
क्योंकि
दीवाल में तो
कैसे रहोगे!
रहता तो आदमी
खाली जगह में
है, भीतर
की रिक्तता
में है। दीवाल
तो केवल रिक्तता
के चारों तरफ
खड़ी है
सुरक्षा की
तरह।
रहता
तो आदमी आकाश
में है; चाहे
बाहर रहे, चाहे
भीतर रहे।
आकाश एक ही
है। बाहर भी
वही, भीतर
भी वही। क्या
तुम्हारे घर
के आकाश का
रूप बदल गया, क्योंकि
तुम्हारे घर
के ढांचे में
समा गया? क्या
झोपड़ी का
आकाश गरीब
होता है और
महल का आकाश
अमीर? क्या
झोपड़ी के
आकाश और महल
के आकाश में
गुणधर्म में
कोई भेद होता
है? हां, भेद दीवाल
का है। यहां
घास-फूस की
दीवाल हैं, वहां पत्थर
की दीवाल है
महलों में।
दीवाल का फर्क
होगा, लेकिन
भीतर के शून्य
का तो फर्क
नहीं। भीतर का
शून्य तो एक
है।
तुम्हारी
नजर अगर रूप
पर लगी है तो
फर्क दिखाई
पड़ेगा। तब तक तुम
राजनीति में
जीओगे और
राजनीति में
मरोगे। अगर
तुम्हारी नजर
भीतर गई तो
अरूप दिखाई
पड़ेगा।
मैं
अमेरिका के एक
नीग्रो
विचारक की
पुस्तक पढ़ रहा
था। बड़ा हैरान
हुआ मैं।
बीसवीं सदी
में ऐसी
घटनाएं घटती
हैं। यह
नीग्रो
विचारक जेल में
बंद पड़े
रहना...पड़े
रहना। और फिर राजनीतिज्ञ
था। कोई संत
तो था नहीं कि
ध्यान करे।
अन्यथा जेल
मंदिर हो
जाता।
राजनीतिज्ञ था।
अकेला पड़ा पड़ा
बेचैन हो गया।
मन में वासनाएं
उठतीं।
तो किसी दूसरे
कैदी ने एक
फिल्म
अभिनेत्री का
चित्र दे
दिया। उसने
अपनी दीवाल पर
चिपका लिया।
ऐसा कभी-कभी
उसे देखता।
सुंदर स्त्री
का चित्र। ऐसा
सभी कैदी लगाए
रखते हैं।
कैदियों
को हम छोड़ दे, लोग
अपने घरों में
लगाए हुए हैं।
जिनको हम सज्जन
कहें, वे
भी फिल्म
अभिनेत्री-अभिनेताओं
के चित्र घर
में लगाए हुए
हैं: सज्जन, तो दुर्जन
का तो कहना ही
क्या!
लेकिन
कठिनाई तो आई
तब,
जब पहरेदार ने,
संतरी ने
आकर उसका
दरवाजा ठोका
और कहा कि हटाओ
यह चित्र। यह
दीवाल पर नहीं
लगा सकते। वह
हैरान हुआ।
उसने कहा, लेकिन
क्यों? क्योंकि
सभी कैदी लगाए
हुए हैं किसी
के दीवाल पर
से नहीं हटाया
जा रहा है। उस
सैनिक ने कहा,
यह सवाल
नहीं है। अगर
तुम लगाना
चाहो, तो
किसी नीग्रो
अभिनेत्री का
चित्र लगा
सकते हो, गोरी
औरत का चित्र
नहीं लगा
सकते।
चित्र
गोरी और का
अलग,
काली औरत का
अलग! काले हो
कर और गोरी
औरत का चित्र
लगाए हो? अलग
कर उसको। यह
गोरे लोगों का
अपमान है।
तुम्हें अलग
लगाना है, तो
किसी काली औरत
का चित्र लगा
लो। चित्र में
भी फर्क है।
कागज का
टुकड़ा। थोड़ी
सी स्याही उस
पर पड़ी है।
कोई गोरी
स्त्री बन गई,
कोई काली
स्त्री बन गई
है। चित्र में
भी भेद है। मूढ़ता
की सीमा नहीं
है। मूढ़ता
भी बड़ी असीम
है। जगत में
दो ही चीजें
असीम मालूम
पड़ती हैं; एक
परमात्मा का
विस्तार और एक
मूढ़ता का
विस्तार।
अगर
तुम रूप देखोगे
तो कोई गोरा
है,
कोई काला है,
कोई सुंदर
है, तो कोई
कुरूप है, कोई
जवान है, कोई
बूढ़ा है।
लेकिन अगर तुम
अरूप देखोगे
तो वह तो एक ही
है।
जैसे बाढ़ी
काष्ठ हि
काटे, अगनि न काटे कोई।
जैसे
बढ़ाई लकड़ी को
तो काट सकता
है ऐसे ही मौत
तुम्हें भी काट
सकती है, तुम्हारे
रूप को; तुम्हारे
अरूप को नहीं।
सब घटि
अंतर तू ही
व्यापक, धरे सरूपे
सोई।
और सभी घड़ों के
भीतर, सभी
घंटों के भीतर
तू ही व्यापक
है। शून्य आकाश
की तरह तू ही
छाया हुआ है।
तूने ही सब
रूप घेरे। सब
तेरी लीला है।
कितने ढंग की
लहरें उठती है
सागर में। कभी
हिसाब लगाया?
छोटी, बड़ी,
विराट, उत्तुंग,
कितने ढंग,
कितने रूप!
लेकिन एक ही
सागर सब रूप
धरता है। लहरों
को देखकर
भ्रांति पैदा
होती
तुम्हें। एक
ही सागर छोटी
लहर में, बड़ी
लहर में। एक
ही परमात्मा
गरीब में, अमीर
में। एक ही
परमात्मा
सुंदर में
कुरूप में। एक
ही परमात्मा
छोटे में, बड़े
में। एक ही
परमात्मा
बुद्धिमान
में, बुद्धू
में। एक ही
परमात्मा
पुण्यात्मा
में, पापी
में...धरे स्वरूपे
सोई।
माया मोहे अर्थ देखि करि, काहे
कू गरवाना।
माया
का अर्थ है, असीम
को सीमित
जानना। सत्य
को बंधा हुआ
जानना, सत्य
को सिद्धांत
की तरह जानना।
अरूप को रूप
की तरह जानना,
बाहर की
परिधि को भीतर
के केंद्र की
तरह जानना, माया है।
माया का अर्थ
है, लहरों
को सागर समझ
लेना।
माया
मोह अर्थ देखि
करि,
काहे कू
गरवाना।
और फिर
तुम इतने अकड़े
फिर रहे हो, इतने
फूले-फूले फिर
रहे हो, कुछ
हाथ नहीं सिवाय
राख के। अकड़ने
योग्य कुछ भी
नहीं है। पास
कुछ भी नहीं।
भिखारी हो
बिलकुल।
लेकिन भिखारी
के पात्र में
भी पड़े
दस-पांच पैसे
बजते रहते
हैं। उन पर ही
वह अकड़ता है।
वह भी समझता
है, मैं
कुछ हूं।
क्या
है तुम्हारे
पास?
अगर तुम रूप
से ही बंधकर
जीओगे और नाम
से ही बंधकर
जीओगे, तुम्हारा
सब गर्व
व्यर्थ है।
गर्व-योग्य
कुछ भी नहीं।
अब यह
बड़े मजे की
बात है।
तुम्हारे पास
गर्व-योग्य
कुछ भी नहीं
है और तुम
भयंकर गर्व से
भरे हो। जिनके
पास
गर्व-योग्य
कुछ है, जो
परमात्मा को
पा लेते हैं, वे बिलकुल
ही गर्व-शून्य
हो जाते हैं।
यह बड़ा विरोधाभास
है। जिनके पास
कुछ नहीं है, वे अकड़े
फिर रहे हैं
और जिनके पास
सब कुछ है, वे
विनम्र हो
जाते हैं। मगर
इस विरोधाभास
का भी विज्ञान
है। और वह
विज्ञान समझ
लेने जैसा है।
यह विरोधाभास
बड़ा
महत्वपूर्ण
है। जिनके पास
कुछ नहीं, वे
क्यों गर्व से
अकड़े
फिरते हैं! इस
गर्व में ही
वे अपनी दीनता
को छिपाते
हैं। इस अकड़
में ही वे
अपने को रमाते
हैं, भुलाते हैं कि है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मेरे साथ एक
यात्रा पर था।
अचानक वह चौंककर
खड़ा हो गया और
उसने कहा, मालूम
होता है मेरा
टिकट खो गया।
और न केवल टिकट
खो गया है
मेरा, पैसे
जिसमें मैंने
रख छोड़े थे, वह मनीबेग
भी खो गया।
टिकट और पैसे
सब साथ ही साथ
था। मैंने कहा
कि पहले ठीक
से तुम अपन
कपड़ों में देख
लो।
उसने
बहुत खीसे बना
रखे हैं
भिन्न-भिन्न
तरह की चीजें
रखने के लिए।
सब खीसे देख
डाले एक दफा दो
दफा। लेकिन
मैंने गौर
किया, कि एक
खीसा जो उसके
कोट के ऊपर
छाती पर है, वह उसको छोड़
रहा है। वह उस
तरफ जाता ही
नहीं। दूसरे
खीसे दो-दो
तीन बार! तो
मैंने कहा, नसरुद्दीन,
तुम इसे
क्यों भूल जा
रहे हो!
उसने
कहा,
कि इसकी बात
ही मत उठाओ।
भूल नहीं रहा
हूं। भली तरह
याद है। तो
मैंने कहा, उसको क्यों
नहीं देख लेते!
उसने कहा, उसी
का तो सहारा
है। एक आशा!
अगर उसको भी
देखा और न
पाया... मारे गए!
उसको सम्हाले
हूं। उसको मैं
न देख सकूंगा।
उसमें हिम्मत
नहीं पड़ती
देखने की। उसी
में आशा का एक
सेतु बचा है।
एक खयाल-शायद
उसमें हो। अगर
पक्का हो गया
कि उसमें भी
नहीं है तो गए!
यह ठीक
कह रहा है।
यही मनुष्य का
मनोविज्ञान
है। तुम्हारे
पास है नहीं।
गर्व में तुम
छिपाये हो।
इसे बात को
तुम सूत्र समझ
लोग,
कि आदमी जिस
बात का गर्व
करता हो, उसी
बात में हीन।
होगा। वही
उसकी हीनता की
ग्रंथि है, वही उसकी इन्फीरियारिटी
है। अगर एक
आदमी अकड़ कर
चलता है कि
उसके पास बड़ी
सुंदर देह है।
तो तुम पक्का
समझ लेना उसको
शक है। और
उसको भीतर भय
है, कि
उसके पास
सुंदर देह है
नहीं। और इसके
पहले कि कोई
कहे, वह
घोषणा कर देना
चाहता है।
इसके पहले कि
कोई घाव छू दे,
वह पहले ही
घोषणा कर देना
चाहता है, कि
मैं एक सुंदर
आदमी हूं।
जिसके
पास डर है कि
बुद्धि नहीं
है,
अपनी वह
बुद्धि को
दिखाता फिरता
है। कंठस्थ कर
लेता है कुछ
बातें। उनको
दुहरा देता है
चार आदमियों
के सामने रोब
बन जाए, कि
कुछ जानता है।
उसको जानने
में शक है।
उसका ज्ञान
सुनिश्चित
नहीं। उसने
जाना नहीं
हैं। वह केवल
जानने को ढोंग
कर रहा है।
कुरूप
स्त्रियां
ज्यादा गहने
पहने हुए मिलेंगी।
सुंदर स्त्री
को गहने की
कोई जरूरत
नहीं। कुरूप
स्त्री अपनी
कुरूपता को ढांक रही
है गहनों से।
कुरूप
स्त्रियां
वस्त्रों में
ढकी हुई
मिलेंगी।
हीरे-जवाहरात
में ही ढांकर
वे अपने को
किसी तरह
सुंदर होने की
भ्रांति दिला
पाती हैं।
सुंदर स्त्री
को कोई जरूरत
नहीं है।
सुंदर स्त्री
को पता ही नहीं
होता, कि
सौंदर्य की
घोषणा करनी
है। घोषणा तो
गरीब करता है।
जिसके पास है,
वह तो चुप
रहता है। जो
जानते हैं, वे जान
लेंगे। जो
नहीं जानते, वे घोषणा से
भी नहीं
जानेंगे। घोषणा
करनी है? ज्ञानी
विनम्र हो
जाता है।
पंडित गरूर
से भर जाता
है। धनी सादगी
से जीने लगता
है। गरीब
सादगी से नहीं
जी सकता।
सिर्फ धनी
सादगी से जी
सकता है।
मैंने
सुना है हेनरी
फोर्ड इंग्लैन्ड
आया। तो उसके
आने के पहले
अखबारों में
फोटो छपे थे।
तो हर कोई उसे
जानता था। जगत
विख्यात आदमी
था। उसने आकर
एअरपोर्ट के
इनक्वायरी
दफ्तर में
पूछा, कि यहां
सस्ते से
सस्ता होटल
कौन सा है? उस
आदमी ने गौर
से देखा कि
आदमी तो वही
मालूम पड़ता
हैं। सुबह ही
तो अखबार में
फोटो देखी है,
हेनरी
फोर्ड की।
उसने कहा, माफ
करिए। क्या आप
हेनरी फोर्ड
हैं! सुबह
आपका अखबार
में फोटो
देखा। उसने कहा
कि जी! उस आदमी
ने कहा, कि
हेनरी फोर्ड
हो कर आप
सस्ता होटल
खोज रहे हैं!
तो उसने कहा, क्योंकि मैं
हेनरी फोर्ड
हूं, सस्ते
में रहूं कि
महंगे में, कोई फर्क
नहीं पड़ता।
हेनरी फोर्ड
हेनरी फोर्ड
है। सारी
दुनिया जानती है।
उस
आदमी ने का कि
आपके लड़के आते
हैं। वे हमेशा
ऊंचा होटल
खोजते हैं।
उसने कहा, उनको
भी भरोसा नहीं
है। मैं
आश्वस्त हूं।
उनको कभी भी
भरोसा नहीं।
कमाया मैंने
है। वे तो मुफ्तखोर
हैं। आश्वस्त
हो भी कैसे
सकते हैं? कमाई
बाम की है।
कमाई जिसकी है,
उसका बल है।
तो वे दिखलाना
चाहते हैं।
बड़े से बड़ा
होटल! अमीर आदमी
सादगी से रहने
लगता है।
मैंने
सुना है कि
ऐसा हुआ, कि
हेनरी फोर्ड
और फायर स्टोन
कंपनी का
प्रथम मालिक
फायर स्टोन, दोनों; और
एक कवि हेनरी
वैलेस तीनों
एक पुरानी
हेनरी फोर्ड
की पुरानी कार
में एक यात्रा
पर गए थे। बीच
में एक गांव
पर पेट्रोल भरवाने के
लिए रुके। तो
हेनरी फोर्ड
खुद ही गाड़ी
चला रहा था।
पीछे फायर
स्टोन बैठा था
वालेस
बैठा था, जो
कवि था। तीनों
की बड़ी दाढ़ी
और तीनों बड़े
संभ्रात
व्यक्ति।
हेनरी
फोर्ड ने ऐसे
ही बात की बात
में,
जो आदमी
पेट्रोल भरने
आया उससे कहा,
कि तुम सोच
भी नहीं सकते
कि तुम किसकी
गाड़ी में
पेट्रोल भर
रहे हो? मैं
हेनरी फोर्ड
हूं। हेनरी
फोर्ड यानी
सारी दुनिया
की मोटरों का
मालिक।
उस
आदमी ने ऐसे
ही गौर से
देखा और कहा
हूं। उसको
भरोसा नहीं
आया,
कि हेनरी
फोर्ड यहां
क्या मरने
आएंगे, इस
छोटे गांव में?
और अगर
हेनरी फोर्ड
ही है, तो
बताने की क्या
जरूरत? वह
अपना पेट्रोल
भरता रहा।
हेनरी हुई, कि उसने कुछ
भी नहीं कहा।
उसने कहा, शायद
तुम्हें पता न
हो कि मेरे
पीछे जो बैठे
हैं वे फायर
स्टोन
हैं--फायर
स्टोन टायरों
के मालिक। उस
आदमी ने पीछे
भी गौर से
देखा और जोर
से कहा हूं! और
जैसे ही हेनरी
फोर्ड ने कहा
कि तुम्हें
शायद कल्पना
भी नहीं हो
सकती कि तीसरा
आदमी कौन है।
इस
आदमी ने नीचे
पड़ा लोहे का
डंडा उठाया और
कहा कि तुम
मुझसे यह मत
कहना, कि ये ही
परमात्मा है
जिन्होंने
दुनिया बनाई।
सिर खोल
दूंगा। सभी
मौजूद हैं! एक
परमात्मा ही
भर मौजूद नहीं
है समझो।
हेनरी
फोर्ड करना
सादा आदमी था, कि
उसके कपड़े देख
कर कोई पहचान
नहीं सकता था
कि हेनरी
फोर्ड हैं; न उसकी का
देखकर।
क्योंकि वह
पहला माडल--टी
माडल; जो
उसने बनाया था,
उसीमें
यात्रा करता
रहा जिंदगी
भर। अच्छे माडल
बने, अच्छी
कारें आई
लेकिन हेनरी
फोर्ड अपने टी
माडल में चलता
रहा।
और
साधु जैसा
गलता था।
इसलिए तो
भरोसा नहीं आया
कि हेनरी
फोर्ड इस गांव
में क्या
करेंगे? और
फिर यह
वेशभूषा। सांताक्लाज
हो सकते हैं
लेकिन हेनरी
फोर्ड?
सीधा
आदमी था। धनी
आदमी सादगी से
भर जाता है। कुछ
आश्चर्य नहीं, कि
महावीर, बुद्ध
राजपुत्र हो
कर भिखारी हो
गए। सिर्फ राजपुत्र
ही भिखारी हो
सकते हैं।
भिखारी तो राजपुत्र
होना चाहता
है। जो तुम
नहीं हो, वह
तुम होना
चाहते हो। जो
तुम हो, वह
होने की
आकांक्षा चली
जाती है। आदमी
इसीलिए तो इतना
गर्वाया
फिरता है; कि
जो-जो उसमें
नहीं है, वह
उसी कह खबर
देता है। और
उसके भीतर घाव
छिपे हैं गर्व
के।
जिस
चीज में आदमी
गर्व करे, तुम
समझ लेना कि
वही उसकी
हीनता की
ग्रंथि है।
उसको तुम जरा
छुओ तुम पाओगे,
भीतर से घाव
निकल आया, मवाद
बहने लगी। वह
क्रोधित हो
जाएगा। पंडित
के ज्ञान पर
शक मत करना; अन्यथा वह
झगड़ने को
तैयार हो
जाएगा, विवाद
पर उतारू हो
जाएगा। गरीब
आदमी के धनी
होने पर संदेह
मत उठाना, मान
लेना।
शिष्टाचार
वही है।
चुपचाप कह
देना, कि
निश्चित। आप
जैसा धनी और
कौन?
जो
तुम्हारे पास
है,
तुम उसकी
घोषणा नहीं
करते। माया मोहे अर्थ देखि करि काहै कू
गरवाना।
भयभीत आदमी
बहादुरी की
बातें करता
है। भयभीत
आदमी हमेशा
दावेदारी
करता है कि
मैं बड़ा वीर
पुरुष हूं।
मुल्ला नसरुद्दीन
बहुत भयभीत
आदमी है।
अंधेरे में
जाने में डरता
है। अंधेरे
में भी जाए तो
पत्नी को
लालटेन लेकर
आगे कर लेता
है। घर में
उसके चोरी
हुई। तो चोर
की शिनाख्त
करनी थी। तो
अदालत में
मजिस्ट्रेट
ने पूछा कि नसरुद्दीन, तुम
जाग गए थे जब
चोरी हुई? तो
उसने कहा कि
बिलकुल जाग
गया था।
तुम सीढ़ियां
से नीचे उतर
कर देखने आए
थे कि नीचे
चोर क्या कर
रहा है?
बिलकुल
आया था।
तुम
उसको चेहरा
पहचान सकते हो?
नसरुद्दीन ने
कहा,
बिलकुल
नहीं।
तुमने
उसको देखा था?
नसरुद्दीन ने
कहा,
कि देख नहीं
पाया।
तुम
जागे तुम नीचे
आए;
उस वक्त यह
आदमी मौजूद था?
था।
तो मजिस्ट्रेट
ने कहा, यह तो
बड़ा तुम पहले
बात रहे हो।
तुम
देख क्यों
नहीं पाए? लालटेन
पास थी।
लालटेन भी थी।
तो उसने कहा, लालटेन मेरी
पत्नी के हाथ
में थी। मैं
पत्नी के पीछे
था इसलिए देख
नहीं पाया।
यह डरा
हुआ आदमी है।
एक होटल में
लोग बैठकर गपशप
कर रहे थे। और
एक सिपाही, जो
अभी-अभी युद्ध
से लौटा था, वह कह रहा था
कि मैंने इस
युद्ध में न
मालूम कितने
अनगिनत आदमी
मार डाले।
मैंने गाजर
मूली की तरह
गरदन काटी। नसरुद्दीन
ने कहा, ठहरो,
ऐसा एक समय
मेरे जीवन में
भी आया था। आज
से बीस साल
पहले जब मैं
जवान था, मैं
भी युद्ध में
गया था और एक
दिन गिनती मैं
भी नहीं बता
सकता, न
मालूम कितने
लोगों के पैर
मैंने काट दिए
बिलकुल
घासपात की
तरह।
उस
सैनिक को वैसे
ही क्रोध आया
था। बीच में
उसने टोका
और अपनी
बहादुरी
बताने लगा
उसने कहा कि
पैर?
हमने बहुत
बहादुरी के
किस्से सुने
हैं। मगर लोग
सिर काटते हैं,
पैर नहीं। नसरुद्दीन
ने कहा, सिर
तो पहले ही
कोई काट चुका
था। जो मिला, हमने गाजर
मूली की तरह
काट दिया।
लेकिन
भयभीत आदमी
हिम्मत की
बातें करता
रहता है। यह
हिम्मत वह
अपने को दिला
रहा है। तुम
भ्रांति में
मत पड़ना।
वह तुम्हें
कुछ नहीं कर
रहा है। वह
सिर्फ अपने को
छिपा रहा है।
वह अपनी
नग्नता को ढांक
रहा है। वह
अपनी नग्नता
पर वस्त्र रख
रहा है। वह
अपने घावों को
छिपा रहा है।
इसलिए तो जो
तुम्हारे पास
नहीं उसका तुम
गर्व करते हो।
और जिसके पास
अब है, उसका
गर्व खो जाता
है। घोषणा
क्या करनी है?
किसकी
घोषणा करनी है?
और जो है, वह इतना बड़ा
है कि सब
घोषणाओं से
छोटा पड़ेगा। परमात्मा
को पानेवाला
गर्व करे, समझ
में आता है।
लेकिन वैसा
आदमी बिलकुल
विनम्र हो
जाता है। और
जिसके पास कुछ
नहीं, जो
भिखारी हैं
उनके गर्व की
कोई सीमा
नहीं।
निर्भय
भया कुछ नहीं व्यापै, कहै
कबीर दिवाना।
और जिसने
एक को एक करके
जान लिया वह
निर्भय हो
जाता है। उसे
फिर कोई चीज
नहीं व्यापती।
मौत भी उसके
द्वार पर खड़ी
रहे,
तो अंतर
नहीं पड़ता।
सारे संसार की
संपदा उसे लुभाये
तो लोभ पैदा
नहीं होता।
मौत खड़ी हो, भय पैदा
नहीं होता।
सारा संसार
निंदा करे, अपमान करे
तो क्रोध पैदा
नहीं होता। और
सारा जगत
स्तुतियों से
भर जाए, आरती
उतारे तो भी
उसमें गर्व की
धारणा पैदा नहीं
होती। अहंकार
निर्मित नहीं
होता।
निर्भय
भया कुछ नहीं व्यापै, कहै
कबीर
दिवाना।।
और
कबीर पागल
कहता है कि हम
तो एक एक करि
जाना। और उसको
जान कर हम
निर्भय हो गए।
सारा भय मिट
गया।
भय
क्या है? अगर
भय के भू में
उतरो तो एक ही
भय है कि
तुम्हें
मिटना पड़ेगा।
और तो कोई भय
नहीं है।
दूसरे भय भी
इसी भय की
छायाएं हैं।
दिवाला
निकल जाए, तो
भय लगता है दिवाले
के साथ तुम
मिटोगे।
पत्नी छोड़कर
चली जाएगी तो
भय लाता है
क्योंकि
पत्नी
तुम्हारा आधा
जीवन हो गई।
तुम टुट जाओगे
आधे। लड़का मर
जाएगा। तो भय
लगता है
क्योंकि उसके
सहारे तो भविष्य
की
महत्वाकांक्षा
खड़ी है। लड़का
मर जाएगा तो
भविष्य मिट
जाएगा
तुम्हारा।
वही तुम्हारा
सेतु है। आगे
यात्रा तुम
उसी के कंधों
पर करनेवाले
हो। भयभीत हो।
लेकिन
सारा भय एक ही
भा का विस्तार
है। अलग-अलग छबिया हैं
लेकिन एक ही
का विस्तार
है। वह भय है
मृत्यु का।
तुम मरोगे, मिटोगे।
मृत्यु एक
मात्र भय है।
जिसने
एक को जान
लिया उसकी
मृत्यु
समाप्त हो गई।
क्योंकि वह एक
कभी मिटता ही
नहीं। लहरें
मिटती है।
सागर कभी
मिटता नहीं। नदियां खो
जाती हैं, सागर
कभी खोता
नहीं। वृक्ष
आते हैं, पशु-पक्षी
पैदा होते हैं,
मनुष्य
निर्मित होता
है; सब
होता है। जो
आते है। जो
आते हैं विदा
हो जाते हैं।
लेकिन जीवन की
धारा अखंड
अजस्र बही जाती
है।
तुम
मिटोगे, जीवन
कभी नहीं
मिटता। तुम
मरोगे, जीवन
कभी नहीं
मरता। अगर तुमने
अपने को इतना
ही समझा जितना
तुम दिखाई पड़ते
हो दर्पण में,
तो तुम डरोगे।
क्योंकि यह तो
मिटेगा, जो
दर्पण में
दिखता है। यह
तो बढ़ाई काट
देगा। यह कष्ट
है। दर्पण में
आग तो दिखाई
नहीं पड़ती जो
काष्ठ में
छिपी है। उससे
तो तुम रगड़ोगे
ध्यान में, समाधि में, तो प्रकट
होगी। और जिस
दिन तुम्हें
भीतर की लपट
दिख जाएगी, तब तुम
कहोगे चलाओ
कितने ही आरे,
लकड़ी कटेगी,
मैं नहीं कटूंगा।
इसलिए
तो कृष्ण
अर्जुन से
कहते हैं, ना
हन्यते हन्यमाने
शरीरे। शरीर
कटेगा। फिर भी
वह नहीं कटता।
नैनं छिंदति
शस्त्राणि
नैनं दहति
पावकः। न
तो मुझे शस्त्र
छेद सकते है
और न मुझे आग
जला सकती है।
शरीर ही कटेगा,
मैं नहीं
कटता हूं।
अर्जुन, तू
भी नहीं कटता
है। शरीर ही
कटेगा। ये जो
युद्ध के
मैदान में आकर
खड़े हो गए लोग
हैं, इनकी
काष्ठ की देह कटेगी; अग्नि
नहीं कटती।
जैसे बाढ़ी
काष्ठ ही काटे
अगनि न
काटे कोई।
सब घट
अंतर ही
व्यापक, धरे सरूपे
सोई।
निर्भय
भया कुछ नहीं व्यापै, कहै
कबीर दिवाना।
और जब
तुम्हें यह
दिख गया कि
भीतर ज्योति
अखंड है, भीतर
के प्राण
शाश्वत सनातन
हैं। दीया मिट
जाएगा, ज्योति
नहीं मिटेगी।
शरीर गिरेगा,
अशरीरी सदा
रहेगा।
तुम्हारी
सीमा खो जाएगी,
लहर की सीमा
खोयेगी
ही लेकिन लहर
में छिपा सागर
सदा है...सदा
है...सदा है।
जिसने
इसे पहचान
लिया, जिसे
थोड़ी भी भनक
मिल गई इस
भीतर की छिपी
अग्नि की, उसका
भय मिट गया।
मौत को आलिंगन
कर लेगा खुद ही।
वह मौत को
बुला लाएगा घर
कि आ जाओ।
क्योंकि कष्ट
ही कटेगा, शरीर
ही मिटेगा; मेरा अब कोई
मिटना नहीं
है। मौत जब
उसका आलिंगन
करेगी तब भी
वह अमृत ही
अनुभव करेगा।
मौत की घड़ी
में भी अमृत
की रसधार
बरसती रहेगी।
उसके अमृत को
नहीं छीना जा
सकता।
जीवन
अजस्र अखंड
गंगा है। वह
बहती ही रहती
है। घाट बदल
जाते हैं, तीर्थयात्री
बदल जाते हैं,
मंदिर बनते
हैं तट पर, गिर
जाते हैं; खंडहर
शेष रह जाते
हैं। कितने
लोग आए और गए, गंगा बहती
रहती है। जीवन,
गंगा की
धारा है। तुम
को अलग करके
जानोगे, भयभीत
रहोगे। तुम
उसे एक के साथ
अपने को एक जान
लोगे, अभय
फलित हो
जाएगा।
ब्रह्मानुभव की
छाया है अभय।
और ब्रह्म के
अनुभव के बिना
अभय कभी पैदा
नहीं होता तुम
कितनी ही
घोषणा करो
अपने निर्भय
होने की, तुम
डरे हुए हो।
कायर की तरह
तुम भीतर कंप
रहे हो। तुम
कितने ही खड्ग,
कृपाण हाथ
में रखो, तुम्हारे
भय ने ही
उन्हें
संभाला है।
जैसे
ही तुम जान
लोगे मृत्यु
मिटाती नहीं; कुछ
मिटाता ही नहीं।
जीवन मिट कैसे
सकता है? जो
है, वह है।
वह नहीं कैसे
हो सकता है? रूप मिटते
हैं। आप रूप
आते जाते हैं।
नाम बदल जाते
हैं। सत्ता
बनी रहती है।
हम तो
एक एक करि
जाना।
निर्भय
भया कछु नहीं व्यापै, कहै
कबीर
दिवाना।।
आज
इतना ही।
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