भिक्षुओं का गृहस्थों के घर निमंत्रित होना—(एस धम्मो सनंतनो)
भिक्षु
गृहस्थों के
घर निमंत्रित
होने पर भोजनोपरांत
दानानुमोदन
करते थे।
किंतु तीर्थक
सुखं होतु आदि
कहकर ही चले
जाते थे। लोग
स्वभावत:
भिक्षुओं की
प्रशंसा करते
और तीर्थको की
निंदा करते
थे। यह जानकर
तीर्थको ने हम
लोग मुनि हैं
मौन रहते हैं
श्रमण गौतम के
शिष्य भोजन के
समय महाकथा
कहते हैं
बकवासी हैं
ऐसा कहकर
प्रतिक्रिया
में निंदा
शुरू कर दी।
बुद्ध
ने अपने
भिक्षुओं को
सदा कहा है कि
जितना लो, उससे
ज्यादा लौटा
देना। कहीं ऋण
इकट्ठा मत करना।
इसलिए बुद्ध
का भिक्षु जब
भोजन भी लेता
कहीं तो भोजन
के बाद, धन्यवाद
कै रूप में, जो उसको
मिला है उसकी
थोड़ी बात करता
था। जो आनंद
उसने पाया, जो ध्यान
उसे मिला है, जो शील की
संपदा उसे
मिली है, जो
नयी—नयी
किरणें और
नयी—नयी
उमंगों के
तूफान उसके
भीतर उठ रहे
हैं, जो
नया उत्सव
उसके भीतर जगा
है; जो नए
गीत, नए
नृत्य उसके
भीतर आ रहे
हैं, भोजन
लेता तो
धन्यवाद में
वह अपने भीतर
की कुछ खबर
देता। भोजन
लिया है, ऋणी
नहीं होना है।
स्वभावत:, जो
तुम्हारे पास
है वह दे
देना। दो रोटी
के बदले बुद्ध
का भिक्षु
बहुत कुछ
लौटाता था। वह
अपना सारा
प्राण उंडेल
देता था।
तो
भिक्षु
गृहस्थों के
घर निमंत्रित
होने पर
भोजनोपरांत
दानानुमोदन
करते थे।
किंतु तीर्थक
सुखं होतु आदि
कहकर ही चले
जाते थे।
सुखी
होओ,
इतना कहकर
चले जाते थे।
स्वभावत:, लोगों
को बुद्ध के
भिक्षु
प्रीतिकर
लगते कि कुछ
कहते तो हैं, कुछ समझाते
तो हैं, कुछ
जगाते तो
हैं—हम जगें न
जगें, यह
हमारी बात, लेकिन अपनी
तरफ से चेष्टा
तो करते हैं।
और जैनों के मुनि
केवल सुखं
होतु, सुखी
होओ, इतना
कहकर चले जाते
हैं।
स्वभावत:, जैन—मुनियों
को यह बात
अखरने लगी और
उन्होंने प्रतिक्रिया
में यह निंदा
शुरू की—हम
लोग मुनि हैं,
मौन रहते
हैं, श्रमण
गौतम के शिष्य
भोजन के समय
महाकथा कहते
हैं, बकवासी
हैं। चुप रहना
चाहिए, मुनि
को चुप होना
चाहिए, ऐसा
कहकर निंदा
शुरू की।
भिक्षुओं
ने यह बात
भगवान से कही।
शास्ता ने उन्हें
कहा भिक्षुओ
मौन रहने
मात्र से कोई
मुनि नहीं
होता।
क्योंकि भीतर
हजार विचार
चलते रह सकते
हैं
मौन का बोलने
न बोलने से
कोई वास्ता
नहीं है। मौन
तो निर्विचार
दशा का नाम है।
समझो।
चुप रहने का
नाम मौन नहीं
है। चुप तो आदमी
हजार कारणों
से रह जाता
है। चोर से
पूछो, चोरी की
है? चुप रह
जाता है। इसका
अर्थ मौन तो
नहीं। किसी से
पूछो, ईश्वर
है? चुप रह
जाता है। इसका
अर्थ मौन तो
नहीं। कोई किसी
कारण चुप रह
जाता है, कोई
किसी और कारण
चुप रह जाता
है, लेकिन
चुप रहने से
मौन का कोई
संबंध नहीं
है। भीतर तो
हजार विचार
चलते ही रहते
हैं। भीतर विचार
न चलें। जब तक
मन है, तब
तक मौन नहीं।
मन की मृत्यु
का नाम मौन
है। मन मर जाए
तो मौन। भीतर
विचार न चलें,
तरंगें न
उठें, तो
मौन।
तो
बुद्ध ने कहा
भिक्षुओ मौन
रहने मात्र से
कोई मुनि नहीं
होता क्योंकि
भीतर हजार
विचार चलते रह
सकते हैं।
तुमने
भी देखा होगा, कभी
घडीभर को बैठ
जाते हो चुप
होकर, कहा
चुप हो पाते
हो? सच तो
यह है, और
ज्यादा
विचारों से भर
जाते हो, जितने
पहले भी नहीं
भरे थे। दुकान
पर रहते हो, काम— धाम में
लगे रहते हो, इतने
विचारों का
पता नहीं
चलता—वें चलते
रहते भीतर, मगर तुम
दूसरे काम में
उलझे रहते हो,
तुम्हें
पता नहीं
चलता। बैठे
कभी घडीभर को
आंख बंद करके
तो विचारों का
एकदम उत्पात
शुरू होता है,
तूफान उठते
हैं, अंधड़
उठते हैं।
न—मालूम
कहा—कहा के
विचार! जिनकी
कोई संगति
नहीं, कोई
तुक नहीं
तुम्हारे
जीवन से, तुम
सोच ही नहीं
पाते कि यह भी
क्या मामला
है! यह क्यों
चल रहा है? उठते
हैं, बेतुके,
असंगत, और
एक के पीछे एक,
कतार बंध
जाती है। और
चलते ही चले
जाते हैं, उनका
कोई अंत नहीं
मालूम होता।
तुम्हें थका
डालते हैं। तो
चुप रहना तो
मौन नहीं है।
बुद्ध
ने कहा मौन का
बोलने न बोलने
से कोई वास्ता
नहीं है। मौन
का वास्ता तो
है निर्विचार
दशा से। और वह
अंतर्दशा
बोलने से भी
भंग नहीं होती।
यह
बात बड़ी गहरी
है।
और
वह अंतर्दशा
बोलने से भी
भंग नहीं
होती।
यह
मैं तुम्हें
अपने अनुभव से
भी कहता हूं।
मौन बोलने से
भंग होता ही
नहीं। मौन
इतनी गहरी घटना
है कि एक दफा
घट जाए, तुम्हारे
भीतर सघन हो
जाए मौन, फिर
तुम बोलते रहो,
बोलना
ऊपर—ऊपर होता
है, भीतर
मौन की धारा
बहती रहती है।
अभी तुम जानते
न, ऊपर से
चुप हो जाओ, ऊपर चुप्पी
होती है, भीतर
विचार की धारा
होती है। ठीक
इससे उलटा भी
होता है। बाहर
विचार की धारा
चलती रहे और
भीतर मौन का
गहन प्रभाव
होता है।
तो
बुद्ध ने कहा, और
वह अंतर्दशा
बोलने से भी
भंग नहीं होती
है।
बोलने
से जो भंग हो
जाए,
वह भी कोई
मौन है! वह तो
कोई मौन न
हुआ। वह तो
केवल मौन का
धोखा हुआ। वह
तो केवल मौन
का ऊपरी, औपचारिक
आयोजन हुआ।
फिर
कुछ इसलिए चुप
रहते हैं कि
जानते नहीं
बोलें भी तो
क्या बोलें! न
बोलने से कम
से कम अज्ञान
तो छिपा रहता
है। और कुछ
जानते हुए भी
नहीं बोल पाते
हैं क्योंकि
बोलने की
दक्षता नहीं
है।
गीत
तो सबके भीतर
उठते हैं, गा
बहुत कम लोग
पाते
हैं—क्योंकि
गीत गाने की दक्षता!
नाच तो सभी के
भीतर उठता है,
लेकिन नाच
बहुत कम लोग
पाते हैं
—क्योंकि नाचने
की दक्षता!
अक्सर
तुम्हें ऐसा
लगा होगा—किसी
और का गीत सुनकर
तुम्हें नहीं
लगा है — अरे, ऐसा
ही मैं भी
गाना चाहता
था। और किसी
और की बात
सुनकर तुम्हें
नहीं लगा है
बहुत बार कि
मेरी बात छीन
ली! ऐसा ही मैं
कहना चाहता
था।
सच
तो यह है, जब भी
तुम्हें किसी
की बात हृदय
के बहुत अनुकूल
पड़ती है, तो
इसीलिए पड़ती
है—तुम भी उसे
कहना चाहते थे
वर्षों से, नहीं कह पाए,
तुम दक्ष न
थे, किसी
और ने कह दी, क्तका
तुम्हारे
भीतर उतर गयी।
तू_म्हारे
भीतर तैयार ही
थी, लेकिन
एकष्ट नहीं हो
रही थी, अप्रगट
थी, छिपी—छिपी
थी, धुंधली—
धुंधली थी, किसी ने
साफ—साफ कह
दी।
सदगुरु
तुम्हें सत्य
देता थोड़े ही
है,
जो सत्य
तुम्हारे
भीतर धुंधला—
धुंधला है, उसके सत्य
के साथ—साथ
एकष्ट होने
लगता है। सदगुरु
के सत्य के
साथ—साथ
तम्हारे भीतर
का सत्य तुम्हें
एकष्ट होने
लगता है। सत्य
दिया नहीं जाता,
सत्य लिया
नहीं जाता, सत्य कोई
हस्तांतरण
होने वाली
संपदा नहीं है।
मैं तुम्हें
कुछ दे नहीं
सकता, तुम
जो बोलना
चाहते हो, तुम
जो कहना चाहते
हो, तुम जो
जानना चाहते
हो, उसे
मैं अपने ढंग
से कह देता
हूं शायद
तुम्हारे
भीतर संगति
बैठ जाए उससे,
तार जुड़
जाएं और तुम
भी आंदोलित हो
उठो।
संगीतज्ञ
कहते हैं, अगर
एक शांत, शून्य
कमरे में एक
कोने में वीणा
रखी हो और कोई
कुशल वादक
दूसरे कोने में
बैठकर वीणा
बजाए, तो
वह जो खाली
रखी वीणा है, उसके तार
कैपने लगते
हैं। उनसे भी
धीमी— धीमी ध्वनि
उठने लगती है।
बस ऐसा ही
होता है।
सदगुरु
के पास शिष्य
मौन बैठा होता
है,
शांत बैठा
होता है, स्वीकार
करने के भाव
में, श्रद्धा
में डूबा बैठा
होता है, टकटकी
लगाए। इधर
गुरु की वीणा
बजती, रत्रत्:।
शिष्य के भीतर
के
वर्षों—वर्षों,
जन्मों—जन्मों
से सूने पड़े
तार हिलने
लगते हैं।
इसके
लिए ठीक—ठीक
शब्द का ने
खोजा है। वह
शब्द है—सिक्रानिसिटी।
यहां कुछ होता
है,
ठीक वैसा ही
दूसरे हृदय
में होने लगता
है अगर हृदय
खुलने को
तैयार हो—ठीक
वैसा ही। न
यहां से वहां
कुछ जाता, न
वहां से यहां
कुछ आता, समानांतर
घटना घटने
लगती है।
तुमने
नहीं देखा, कभी
कोई तबला
बजाता और
तुम्हारे पैर
थिरकने लगते
हैं! कभी किसी
नर्तक को
देखकर तुम भी
ताल देने
लगते। क्या हो
जाता है? सिंक्रानिसिटी।
वहां कुछ घट
रहा है, तुम्हारे
भीतर भी कोई
सोया हुआ पड़ा
है, यहां
भी कुछ घटने
लगता है। आखिर
तुम भी तो हो नर्तक!
न नाचे होओ
कभी, यह
दूसरी बात है।
लेकिन मीरा
तुम्हारे
भीतर भी सोयी
तो पड़ी है।
मीरा कभी
नाचती हो
बाहर—संयोग
मिल जाए—और
तुम डरे—डरे
आदमी न होओ, भयभीत आदमी
न होओ, तर्क
में छिपे आदमी
न होओ, तुम
हृदय को खोल
सको, द्वार—दरवाजे
खोल सको और
मीरा का झोंका
तुम्हारे
भीतर से गुजर
जाए, तो
तुम्हारी
मीरा भी जग
उठेगी! बस ऐसा
ही होता है।
तो
बुद्ध ने कहा
कुछ जानते हुए
भी नहीं बोल
पाते हैं
क्योंकि
बोलने की
दक्षता नहीं
है। और कुछ
कृपणता के
कारण नहीं
बोलते हैं
क्योंकि जो
उन्होंने जाना
है कहीं उसे
दूसरे न जान
लें। उसको
संपत्ति की
तरह पकड़कर
रखते हैं।
पहले तो जानना
कठिन फिर जाने
हुए को जनाना
और भी कठिन
शून्य में जाने
हुए को शब्द
तक लाने के
लिए महाकरुणा
अनिवार्य है।
इसलिए
बुद्ध ने अपने
भिक्षुओं से
कहा,
इसकी चिंता
मत करो कि
दूसरे क्या
कहते हैं; तुमने
जो जाना है, उसे जनाओ।
तुम्हें जो
मिला है, उसे
बाटो। कहने दो,
दूसरे क्या
कहते हैं, इसकी
चिंता मत लो।
पहले
तो जानना कठिन
और फिर जाने
हुए को जनाना और
भी कठिन।
दुनिया
में सत्य को
बहुत लोग
उपलब्ध नहीं
होते, लेकिन
फिर भी काफी
लोग उपलब्ध
होते हैं। मगर
जो लोग सत्य
को उपलब्ध
होते हैं, उनमें
सभी लोग
सदगुरु नहीं
हो पाते।
सदगुरु तो वही
हो पाता है, जिसने जाना
और जनाया भी।
सत्य को तो
उपलब्ध हो
जाते हैं बहुत
लोग।
ऐसा
बुद्ध के जीवन
में हुआ। उनके
पास एक सम्राट
मिलने आया, अजातशत्रु।
और उसने बुद्ध
से पूछा कि
आपके दस हजार
भिक्षु हैं, इनमें से
कितने लोग
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए हैं?
तो बुद्धु
ने कहा, इनमें
से बहुत लोग
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गए
हैं। उसने कहा,
मुझे बात
जंचती नहीं।
क्योंकि आपके
अतिरिक्त
इनमें से कोई
भी प्रसिद्ध क्यों
नहीं है? तो
बुद्ध ने कहा,
यह जरा
दूसरी बात है।
बुद्धत्व को
उपलब्ध होना
एक बात, जानना
एक बात, जनाना
बिलकुल दूसरी
बात।
इन्होंने जान
तो लिया है, मगर अब कैसे
जनाएं? ही,
इनमें से
कुछ धीरे—
धीरे दक्ष हो
रहे हैं जनाने
में भी। धीरे—
धीरे। जैसे
आदमी सत्य को
जानने में
वर्षों लगाता
है, ऐसे
फिर सत्य को
जनाने में
वर्षों लगाने
पड़ते हैं। और
बहुत से लोग
तो इस चिंता
में पड़ते ही नहीं,
वे कहते हैं,
अब झंझट में
क्या पड़ना!
अपना हीरा मिल
गया, सम्हालकर
रखा, अब
कौन फिकर में
पड़े! अब किसको
बताना है!
क्या बताना
है!
बुद्ध
ने ज्ञानी की
दो अवस्थाएं
कही हैं। एक
को कहा—अर्हत, और
एक को
कहा—बोधिसत्व।
अर्हत का अर्थ
है, जिसने
सत्य को जान
लिया। और
बोधिसत्व का
अर्थ है, जिसने
सत्य को जाना
ही नहीं, दूसरों
की तरफ बहाया
भी। अर्हत के
मार्ग का नाम
बन गया है, हीनयान।
छोटी—छोटी
डोंगी। अपनी
डोंगी में बैठ
गए और चल पड़े, भवसागर पार
कर लिया। और
बोधिसत्व के
मार्ग का नाम
पड़ा, महायान।
बड़ा यान, जिसमें
हजारों लोगों
को बिठा लिया।
कहा कि आओ, जिनको
भी आना है आ
जाओ, बैठो,
भवसागर के
पार जा रहे
हैं। जो अकेला
पार न हुआ, जिसने
दूसरों को भी
पार करवाया।
जो स्वयं तो तरा,
जिसने तारा
भी। जो
तरण—तारण है।
और
तभी उन्होंने
ये गाथाएं
कहीं—
न
मोनेन मुनि
होति मूल्हरूपो
अविछसू ।
यो
च तुलं व पग्गय्ह
वरमादाय
पंडितो ।।
पापानि
परिवज्जोति
स मुनि तेन सो
मुनी।
यो
मुनाति उभो
लोके मुनी तेन
पवुच्चति ।।
'मौन
धारण करने
मात्र से कोई
अविद्वान मूढ़
मुनि नहीं
होता। जो
पंडित मानो श्रेष्ठ
तुला लेकर
दोनों लोक को
तौलता है और
पापों को छोड़
देता है, वह
इस कारण मुनि
है और इसी
कारण मुनि
कहलाता है।
'
जिसने
दोनों लोकों
को तौल लिया
अपनी चेतना में—जैसे
सूक्ष्म
तराजू लेकर—न
यहां कुछ पाने
योग्य पाया, न
वहां कुछ पाने
योग्य पाया।
जिसने दोनों
लोक तौल लिए।
न संसार में
कुछ पाया कि
संसार में कुछ
पाने योग्य है,
पाप में कुछ
भी नहीं, जिसने
मोक्ष में भी
कुछ नहीं पाया
कि पुण्य में
भी कुछ भी
नहीं, जिसने
दोनों में कुछ
नहीं पाया; ऐसी दशा में
चित्त बिलकुल
ही शांत हो
जाता है। जब
पाने को ही
कुछ नहीं, तो
अशांति कहा से
हो! अशांति तो
पाने की दौड़
से होती है—यह
पा लूं? यह
पा लूं तो मन
अशांत होता
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं,
मन शांत
करना है। मैं
उनसे कहता हूं
लेकिन मन को
शांत करने की
व्यवस्था पता
है!
महत्वाकांक्षा
छोड़नी पड़ती
है। वे कहते
हैं, यह तो
जरा मुश्किल
है। सच तो यह
है, वे
कहते हैं, कि
हम आए ही
इसलिए थे कि
मन शांत हो
जाए तो महत्वाकांक्षा की दौड़
में ठीक से
दौड़ लें।
एक
राज्य के
मंत्री मेरी
पास आते थे।
वह कहते कि
मैं आज बीस
साल से मंत्री
ही बना हुआ
हूं। मेरे
पीछे जो लोग
आए,
वे
मुख्यमंत्री
हो गए। असल
में मुझ से
ज्यादा दौड़—
धूप नहीं
होती। मैं
आपके पास आया
कि मुझे जरा
ध्यान सिखा
दें, कि
जरा शांति
मुझे आ जाए और
बल आ जाए, तो
मैं भी कुछ कर
दिखाऊं!
मैंने
उनसे कहा, तुम
भी अजीब बात
कर रहे हो!
ध्यान की पहली
शर्त यह है कि
महत्वाकांक्षा जाए और
तुम ध्यान को
भी महत्वाकांक्षा
की सेवा में' लगाना चाहते
हो! तुम ध्यान
को भी दासी
बनाना चाहते
महत्वाकांक्षा
की! तुम कहीं
और जाओ! यह न हो
सकेगा! यह
असंभव है।
अक्सर
आदमी धन की
दौड़ में थक
जाता है तो
कहता है, चलो
जरा ध्यान सीख
लें। तो शायद
थकान थोड़ी कम
होगी तो और
ठीक से दौड़
सकेंगे। आदमी
बड़ा अजीब है।
आदमी को पता
ही नहीं वह
क्या मांगने
लगता है! और
फिर उसे देने
वाले भी मिल
जाते हैं!
महर्षि
महेश योगी
लोगों को यही
कह रहे हैं कि धन
भी मिलेगा
ध्यान से, पद
भी मिलेगा
ध्यान से, स्वास्थ्य
भी मिलेगा
ध्यान से, ध्यान
से सब कुछ
मिलेगा।
पदोन्नति भी
होगी ध्यान
से! अगर तुमने
ठीक से ध्यान
किया तो पदोन्नति
भी होगी।
स्वभावत:, अगर
अमरीका में
उनका प्रभाव
पड़ रहा है तो
कुछ आश्चर्य
नहीं। लोग
महत्वाकाक्षी
हैं, लोग
यही चाहते
हैं।
जिन
मंत्री की
मैंने बात कही, उन्होंने
भी मुझसे यही
कहा कि आप यह
कहते हैं कि
कहीं और जाओ, मैं महर्षि
महेश योगी के
पास गया था तो
उन्होंने तो
कहा कि होगा, ध्यान करो।
उन्होंने
मंत्र दे दिया,
मैं कर भी
रहा हूं सालभर
से, अभी तक
कुछ हुआ नहीं,
इसलिए आपके
पास आया हूं।
होगा ही नहीं।
महत्वाकांक्षा
के साथ ध्यान का
संबंध ही नहीं
जुड़ता।
उसको
मुनि कहता हूं
बुद्ध ने कहा, जिसकी
कोई
महत्वाकांक्षा
नहीं—न इस लोक
की, न
परलोक की।
संसार तो
चाहता ही नहीं,
मोक्ष की भी
चाह छोड दी है
जिसने, वही
चुप होता है, वही मौन
होता है, वही
मुनि है।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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