प्रश्नसार
:
1—जब
आप पूना आए।
तब यहां कुछ
तोते थे; लेकिन
अब एक वर्ष
में ही न जाने
कितने प्रकार
के पक्षी यहां
आ गए। क्या ये
आपके कारण आ
गए हैं? क्या
आपका उनसे भी
कोई विगत जन्म
का वादा है?
2—आपसे
प्रश्नों का
समाधान तो
मिलता है, पर
समाधि घटित
नहीं हो पा
रही है। क्या
करूं?
3—ज्ञानी
का मार्ग भक्त
के मार्ग से
क्या सर्वथा
भिन्न है? यदि
होश हो तो
प्रेम कैसे
घटेगा?
4—कबीर
किस गुरु के
प्रसाद से
आनंद विभोर
हुए जा रहे
हैं?
5—सत्य
की उपलब्धि
भीतर, फिर
बाहर समर्पण
पर इतना जोर
क्यों?
पहला
प्रश्नः
इक्कीस
मार्च को आपका
पूना में इस
जगह आगमन हुआ, तब
यहां कुछ तोते
थे; लेकिन एक
साल में न
जाने यहां
कितने प्रकार
के पक्षी आ गए
हैं और हर रोज
अपनी सुरीली
आवाज में गाए
चले जा रहे
हैं। प्रश्न
उठते हैं कि
क्या ये आपके
कारण आ गये
हैं? क्या
यहां आने से
इनकी भी कोई
आध्यात्मिक
तरक्की संभव
है? आपकी
कौन-सी
अभिव्यक्ति
इन्हें
सुहावनी लगती
है--मौन या
मुखर? क्या
हमारी तरह
आपने गत जन्म
में उन्हें भी
वायदा किया था
जो अब पूरा हो
रहा है?
जीवन
एक गहन
प्रयोजन है।
और वह प्रयोजन
मनुष्य तक ही
सीमित नहीं है, सीमित
हो भी नहीं
सकता। या तो
प्रयोजन है तो
पूरे
अस्तित्व में
है, या
प्रयोजन कहीं
भी नहीं है।
मनुष्य
अलग-थलग नहीं
है;
मनुष्य एक
है। अगर पत्थर
व्यर्थ ही हैं
तो मनुष्य भी
व्यर्थ है और
अगर मनुष्य के
जीवन में कोई
सार्थकता है,
तो पत्थरों
के जीवन में
भी सार्थकता
होनी ही चाहिए।
परमात्मा
है तो उसका
हस्ताक्षर
सभी चीजों पर है।
आदमी विशिष्ट
नहीं है; सारी
प्रकृति
विशिष्ट है।
तुम ही नहीं
कोई विकास कर
रहे हो; सारा
अस्तित्व
विकासमान है।
पौधे, पक्षी,
पत्थर-सभी
ऊंचाइयों के
शिखर को छूने
के लिए यात्रा
पर चल रहे
हैं। धीमी
होगी किसी की
गति, तेज
होगी किसी की
गति, कोई
बेहोश पड़ा
होगा, कोई
होश से चल रहा
होगा; लेकिन
मंजिल है।
मंजिल का नाम
ही परमात्मा
है। और जब तक
मंजिल न मिल
जाए, तब तक
एक बेचैनी बनी
ही रहेगी। वह
बेचैनी मनुष्य
के भीतर ही है,
ऐसा नहीं; वह सारे
अस्तित्व में
है।
कठिनाई
होती है हमें
यह सोचकर, क्योंकि
मनुष्य का
अंहकार ऐसा
मान लेता है
कि परमात्मा
सत्य, प्रेम,
बस हमारी
बपौती है। तो
हमें अड़चन
होती है।
बुद्ध
ने अपने पिछले
जीवन की
कहानियां कही
हैं। वह जमाना
था जब उस तरह
की बातें कही
जा सकती थीं; लोग
उनका लाभ ले
सकते थे। लोग
सरल थे और
मनुष्य
अहंकारी न था।
आज अगर कोई उस
तरह की अतीत
जीवन की
कहानियां
कहेगा तो
भरोसा
मुश्किल हो
जाएगा। लोग
बहुत जटिल हैं
और लोगों का
अहंकार बहुत
प्रगाढ़ है।
बुद्ध
ने कहा है, कभी
मैं जंगल में
एक हाथी था।
जंगल में आग
लग गई थी।
सारे
पशु-पक्षी
भागे जा रहे
थे।
दुःख
से कौन नहीं
बचना चाहता है? तुमने
पशु-पक्षियों
को दुःख से
बचने के लिए
भागते देखा है,
क्या उससे
तुम्हें यह
खयाल नहीं आता
कि जो दुःख से
बचना चाहते
हैं वे सुख भी
चाहते होंगे।
जो दुःख से
बचना चाहता है
और सुख चाहता
है, क्या
तुम्हें खयाल
नहीं
आता कि
कभी
अनजाने-जाने
उसके हृदय में
भी वह आकांक्षा
जगती होगी, जो
आनंद की है? पशु भी
जानते हैं सुख,
पशु भी जानते
हैं दुःख, और
उस पीड़ा को भी
जानते हैं जो
सुख-दुःख में
उलझ कर मिलती
है। कभी उनकी
चेतना में भी
वह क्षण आता
है, जब
दोनों के पार
हो जाने का
भाव उठता
होगा। निश्चित
ही वह विचार
उतना स्पष्ट
नहीं हो सकता
जितना मनुष्य
का। मनुष्य को
भी कहां बहुत
स्पष्ट है? कितने
थोड़े-से
मनुष्यों को
स्पष्ट है!
अधिक मनुष्यता
तो पशु
पक्षियों
जैसी ही जीती
है।
तो
बुद्ध ने कहा, सारे
जंगल के पशु
भागने लगे, मैं भी
भागा। थक गया
था। एक वृक्ष
के नीचे खड़ा हो
गया क्षण भर
विश्राम को।
और जैसे ही
मैंने पैर
उठाया वहां से
हटने को, एक
खरगोश भागा हुआ
आया, और जो
जगह खाली हो
गई थी मेरे
पैर के उठाने
से, उस जगह
आकर बैठ गया।
पैर उठा हुआ
ऊपर हाथी का, खरगोश नीचे
बैठ गया।
बुद्ध
ने कहा, मेरे
मन में हुआ, मैं भी भाग
रहा हूं प्राण
को बचाने को, यह खरगोश भी
भाग रहा है
प्राण को
बचाने को--प्राण
को बचाने के
संबंध में
किसी में कोई
भेद नहीं है।
मेरे पास बहुत
बड़ी देह है, इस खरगोश के
पास बड़ी छोटी
देह है। मेरे
पैर के पड़ते
ही यह विनष्ट
हो जाएगा।
लेकिन दुःख से
सभी बचना
चाहते हैं।
सुख की सभी की
आकांक्षा है।
उसमें तो कोई
भेद नहीं है, छोटे-बड़े का
कोई फर्क
नहीं। करूणा
का आविर्भाव
हुआ!
और
बुद्ध ने कहा
कि मैं खड़ा
रहा,
जब तक कि यह
खरगोश हट न
जाए, क्योंकि
मैं पैर
रखूंगा तो यह
मर जाएगा। आग
बढ़ती गई, खरगोश
भागा नहीं; वह सुरक्षित
था। शायद उसने
सोचा हो कि जब
हाथी भी नहीं
भाग रहा है तो
कोई डर नहीं
है। बड़ों के पीछे
छोटे चलते
हैं। तो वह बैठा
ही रहा
सुरक्षित। आग
भयंकर हो गई
और हाथी जल कर
मर गया।
बुद्ध
ने कहा है, उस
जन्म में ही
मैंने
मनुष्यत्व को
पाने की क्षमता
पाई--उस घड़ी
में जब मैंने
खरगोश पर
करूणा की और
मैं पैर को
रोके खड़ा रहा।
उसी क्षण मैंने
मनुष्य होने
की क्षमता
अर्जित कर ली।
आज मैं मनुष्य
हूं उसी घड़ी
के
वरदान-स्वरूप।
सारा
जगत--पौधे भी. . .
तुम्हें खयाल
में न आते हो, लेकिन
प्राण वहां
संवादित है, प्राण वहां
पुलकित है, वहां भी
धड़कन है और
वहां भी भाव
की दशाएं हैं।
अब तो
पश्चिम में
विज्ञान बड़ी
खोज कर रहा
है। और जिन
खोजों को
महावीर और
बुद्ध ने सारी
दुनिया को
दिया, लेकिन
अब तक जो
काव्य मालूम
पड़ती थी; अब
विज्ञान के
आधार से वे
तथ्य बनती जा
रही हैं।
पश्चिम
में पिछले
पांच वर्षो
में बहुत से
प्रयोग किए गए
हैं,
जिनसे यह
पता चला कि
पौधे बहुत
संवेदनशील
हैं। उनकी
संवेदना
अद्भुत है! और
न केवल
संवेदनशील है,
बल्कि
टेलीफैथिक
हैं। और
मनुष्य ने भी
वह क्षमता खो
दी है--दूसरों
के विचार को
पकड़ लेने की, दूसरे के
विचार को पढ़
लेने की; उसमें
भी पौधे सक्षम
हैं। यह भरोसे
की बात नहीं
मालूम पड़ती।
लेकिन अब तो
विज्ञान ने
बड़े प्रयोग कर
लिए हैं।
पौधा
पकड़ता है
दूसरे के
विचार को भी।
एक
वैज्ञानिक
पौधों पर काम
कर रहा था कि
उनमें
संवेदना
कितनी है। सर
जगदीशचंद्र
बसु ने जो काम
अधूरा छोड़
दिया था, उसको
वह पूरा कर
रहा था--वह
उनका एक शिष्य
है, अमरीकी
है--और चाहता
था कि
उन्होंने जो
काम छोड़ दिए
उसे आगे बढ़ाया
जाए। तो एक
पौधे के पास
बैठा था, पौधे
के साथ उसने
तार जोड़ रखे
थे विद्युत
के। जैसे कि
डाक्टर आपके
हृदय की जांच
करता है, कार्डियोग्राम
लेता है, तो
तार जोड़ देता
है और फिर
हृदय की धड़कन
कागज पर ग्राफ
बनाने लगती
है--ऐसे उसने
पौधे पर तार जोड़े
दिए थे कि
पौधे की क्या
मनोदशा है, क्या धड़कन
है उसके हृदय
की? वह
कागज पर ग्राफ
बनने लगा था।
वह
ग्राफ बन रहा
था,
तभी उसने
सोचा कि अगर
मैं छुरी को
उठाकर इस पौधे
को आधा काट
दूं तो क्या
होगा? वह
हैरान हो गया!
ग्राफ पर तो
खबर पहुंच गई।
अभी उसने काटा
नहीं है, अभी
उसने छुरी
उठाई नहीं है;
सिर्फ एक
भाव कि अगर
मैं छुरी
उठाकर आधा
इसको काट दूं
तो इसकी क्या
भाव-दशा होगी?
ग्राफ में
तो घबड़ाहट आ
गई। ग्राफ में
तो कंपन आ
गया--वैसा ही
कंपन, जैसे
कोई तुम्हारी
छाती पर छुरा
लेकर खड़ा हो जाता
है, तब
जैसा कंपन
तुम्हारे
कार्डियोग्राम
में आ जाएगा, ठीक वैसा ही
कंपन पौधे पर
आ गया। लेकिन
अभी कोई छुरा
लेकर खड़ा भी न
हुआ था। अभी
किसी ने छुरा
उठाया भी न
था। अभी सिर्फ
भाव में बात
उठी थी। लेकिन
पोधे ने भाव
को पकड़ लिया।
पौधा भाव से
भयभीत हो गया।
इस
वैज्ञानिक ने
लिखा है कि
पौधे को यह
भूलने में कई
दिन लगे, क्योंकि
जब भी वह
प्रयोगशाला
के भीतर आता
पौधा घबड़ा
जाता। इस आदमी
को पहचानने
लगा कि यह आदमी
खतरनाक है, इसके मन में
एक बुरा विचार
है।
यह बात
आई-गई हो गई। न
इसने छुरा
उठाया, न
पौधे को काटा।
लेकिन जब भी
यह अंदर आता
तो पौधा थोड़ा
शंकित हो जाता,
उसके ग्राफ
में फर्क पड़
जाता। कोई बीस
दिन लगे पौधे
को यह बात भूलने
में कि यह
आदमी बुरा
नहीं है, बीस
दिन इसने काटा
नहीं है, काटने
का विचार नहीं
किया। तब कहीं
जाकर पौधा आश्वस्त
हुआ।
एक
दूसरा
वैज्ञानिक
केंचुओं पर
प्रयोग कर रहा
था और केंचुओं
को गर्म पानी
में डाल रहा
था,
और यह देख
रहा था वह कि
गर्म पानी का
क्या परिणाम
होता है
केंचुओं
पर--तड़फते हैं,
मर जाते हैं
तत्क्षण, स्वीकार
कर लेते हैं
मरने को, या
संघर्ष करते
हैं बचने का? पास में ही
एक कैक्टस का
पौधा रखा था।
उसके साथ तार
जुड़े थे, उस
पर भी प्रयोग
चल रहा था।
लेकिन यह तो
आकस्मिक घटना
घटी। जैसे ही
उसने केंचुए
को गर्म पानी
में डाला, पौधा
घबड़ा गया और
पौधे का ग्राफ
बदल गया। यह तो
आकस्मिक था।
यह किया नहीं
था प्रयोग
उसने। लेकिन
यह जानकर वह
हैरान हुआ कि
न केवल तुम
पौधों को हानि
पहुंचाओ, तब
पौधे के प्राण
में पीड़ा होती
है; तुम
किसी भी जीवित
चीज को नुकसान
पहुंचाओ, पौधा
कांपता है और
घबड़ाता है।
अब तो
बहुत काम पौधे
पर किये गए
हैं। और एक
अनूठी किताब
पश्चिम में
प्रकाशित हुई
है;
"दि
सिक्रेट लाइफ
आफ दि
प्लांट्स"।
बाइबल और कुरान
और धम्मपद की
कीमत की किताब
है। क्योंकि जो
महावीर और
बुद्ध कहे, उसे इस
किताब ने
परिपूर्ण रूप
से सिद्ध करने
की कोशिश की
है कि पौधों
का एक अज्ञात
जीवन है जिसका
हमें कोई पता
नहीं।
और अगर
पौधों का
अज्ञात जीवन
है,
तो
पक्षियों का
तो कहना ही
क्या! पक्षी
तो बहुत
विकसित
अवस्था है।
वे जो
पक्षी
तुम्हें गीत
गाते दिखाई
पड़ते हैं, वे
भी आकस्मिक
नहीं आ गए
हैं। तुम भी
आकस्मिक नहीं
आ गए हो।
आकस्मिक
कुछ
होता ही नहीं।
इस संसार में
आकस्मिक शब्द झूठा
है।
ऐक्सीडेंटल
जैसी बात कुछ
होती ही नहीं।
यहां सभी
चीजें
तारतम्य में
बंधी हैं। यहां
जो भी घटता है, उसके
आगे-पीछे बड़े
सूत्रों का
जाल है।
तुम
अगर यहां हो
तो ऐसे ही
नहीं, जन्मों-जन्मों
का हाथ होगा।
तुम्हें पता न
हो, क्योंकि
तुम्हें अपना
पता ही कहां
है! इसलिए जो
पक्षी वृक्ष
पर बैठकर गीत
गा रहा है, उसे
पता न हो कि
इसी वृक्ष को
उसने क्यों
चुन लिया है? आज की सुबह
ही गीत गाने
को क्यों चुन
लिया है? तुम्हें
भी पता नहीं, मनुष्य को
पता नहीं तो पक्षी
को तो पता
क्या होगा!
लेकिन
जगत में
आकस्मिक कुछ
भी नहीं है, अकारण
कुछ भी नहीं
है; एक
विराट
प्रयोजन
प्रवाहित है।
पत्थर से भी उस
प्रयोजन का
संबंध है, पहाड़
से भी उस
प्रयोजन का
संबंध है, पक्षियों
से भी, पौधों
से भी। एक
विराट
प्रयोजन सारे
जगत को एक बड़ी
तीर्थयात्रा
पर ले जा रहा
है।
सब खोज
रहे हैं।
अहर्निश खोज
चल रही है। उस
खोज में कोई
थोड़े आगे हैं, कोई
थोड़े पीछे
हैं। जो पीछे
हैं, वे भी
कभी आगे आ
जाएंगे; जो
आज आगे आ गए
हैं, वे भी
कभी पीछे थे।
इसलिए
तो अहिंसा का
शास्त्र
जन्मा। वह
धर्म का शिखर
था। जब धर्म
की अनुभूति
बड़ी प्रगाढ़ हो
गई,
तब अहिंसा
का शास्त्र
जन्मा; इस
बात की
प्रतीति
जन्मी कि हम
ही नहीं खोज
रहे हैं सत्य
को, सभी
खोज रहे हैं।
और सत्य की
यात्रा से
किसी को भी
वंचित करना
हिंसा है। और
सत्य की
यात्रा से
किसी की भी
जीवन-व्यवस्था
को खंडित करना
महापाप है।
तुम
किसी पक्षी को
मार डाल सकते
हो खेल
में--पत्थर
पड़ा था, गुलेल
हाथ में थी, मार दिया।
लेकिन
तुम्हें पता
नहीं है, तुमने
एक बड़े
प्रयोजन की
यात्रा को
हानि पहुंचा
दी; तुमने
एक जीवन की
छोटी-सी
धारा--जो खिल
रही थी, गीत
गा रही थी, किसी
यात्रा निकली
थी, कहीं
पहुंचने की
आकांक्षा से
भरी थी--तुमने
उसे खंडित कर
दिया, तुमने
व्यवधान खड़ा
कर दिया।
बन सके
तो सहायता
देना; न बन सके
तो कम से कम
बाधा मत देना।
तो
निश्चित ही जो
पक्षी यहां आ
गए हैं, अचानक
नहीं आ गए
हैं। अचानक
कुछ होता ही
नहीं है, इसे
तुम सिद्धांत
की तरह समझ
लेना। वे भी
तुम्हारे जैसे
ही आ गए हैं।
महावीर
की पहली
उपदेशना हुई
तो जैन
शास्त्रों
में बड़ी मीठी
कथा है कि
महावीर जब
पहली दफा बोले
तो सुनने वाला
कोई मनुष्य था
ही नहीं। पर वे
बोले। तो बाद
में उनके
शिष्य पूछने
लगे कि आप
किससे बोले? कोई
मनुष्य तो
मौजूद न था।
तो महावीर ने
कहा, जो तुम्हें
दिखाई पड़ते
हैं, तुम
सोचते हो कि
बस उनकी ही
मौजूदगी सब
कुछ है?
जैन
कथाएं कहती
हैं,
देवता
मौजूद थे।
निश्चित ही
देवताओं को
फहले खबर लगी
होगी महावीर
की। मनुष्यों
से ज्यादा उनका
चैतन्य
विकसित है, ज्यादा
जागरूक हैं, ज्यादा
दिव्य हैं।
उनको पहले खबर
लगी होगी। फिर
पशुओं को खबर
लगी होगी। फिर
पक्षियों को
खबर लगी होगी।
फिर पौधों को
खबर लगी होगी।
फिर पत्थरों
को, खनिजों
को खबर लगी
होगी। जितनी
मूर्च्छा है,
उतनी देर से
खबर लगती है।
मनुष्यों
में भी तो सभी
को एक साथ खबर
नहीं लगती।
मनुष्यों में
भी पहले जो
देवस्वरूप हैं, उनको
खबर लगेगी; फिर जो
मनुष्य-स्वरूप
हैं उनको खबर
लगेगी; फिर
जो पशु-स्वरूप
हैं उनको खबर
लगेगी; फिर
जो
पक्षी-स्वरूप
हैं उनको खबर
लगेगी। ऐसे मनुष्यों
में भी तो भेद
होंगे।
फिर
महावीर की खबर
मनुष्यों तक
पहुंची, फिर
जानवरों तक
पहुंची, फक्षियों
तक फहुंची। और
जैन-शास्त्र
कहते हैं कि
फिर महावीर की
उपदेशना में
सभी मौजूद
होते थे।
अदृश्य लोग, अदृश्य
जीवात्माएं, जो दिखाई
नहीं पड़ती हैं
वे भी; दृश्य,
जो दिखाई
पड़ते हैं वे
भी; और
दृश्य में भी
वे जो हमें
बहुत विकास
में पीछे
मालूम पड़ते
हैं, वे भी
मौजूद होने
लगे।
एक बड़ी अदभुत
घटना है कि
महावीर का एक
शिष्य था
गोशालक। बाद
में वह बगावती
हो गया और
महावीर के विरोध
में हो गया।
महावीर कहते
थे,
जीवन में
सभी कुछ नियति
से बंधा है, भाग्य है और
यहां सब जो
होने को है, वही हो रहा
है, और जो
होने को है
वही होगा।
इसलिए मनुष्य
व्यर्थ कर्ता
का भाव न ले।
भाग्य के
सिद्धांत का
सारा सार इतना
है, कि तुम
अपने अहंकार
को निर्मित मत
करो।
शिष्य गोशालक
के साथ महावीर
एक जंगल से
गुजर रहे हैं।
गोशालक को
उनकी
बातों पर शक
है। गोशालक ने
कहा कि आप कहते
हैं,
जो होना है
वही होगा। यह
पौधा लगा है, एक छोटा-सा
पौधा लगा था।
क्या कहते हैं
आफ, यह
बचेगा कि नहीं
बचेगा?महावीर
ने कहा, यह
बचेगा।
गोशालक ने उस
पौधे को
उखाड़कर फेंक दिया।
वह महावीर को
यह दिखला रहा
था कि देखें, आप कहते हैं,
बचेगा; यह
नहीं बचता।
कहां गया आपका
सिद्धांत? वह
खिलखिलाकर
हंसने लगा।
उसने कहा
महावीर से बोले,
अब कहें।
महावीर ने कहा,
थोड़ी
प्रतीक्षा!
थोड़े समय की
जरूरत है।
वे
दोनों गांव
चले गए। दुपहर
वर्षा हुई।
सांझ जब वे
वापस लौट रहे
थे,
महावीर ने
कहा, देख!
उस पौधे ने
फिर जड़ें जमा
ली थीं। वर्षा
हो गई थी, जमीन
गीली हो गई
थी। वह फिर
खड़ा हो गया
था। उसने जड़ें
जमा ली थीं।
महावीर ने कहा,
यह पौधा
बचेगा। और
कहते हैं, गोशालक
की भी हिम्मत
न पड़ी दुबारा
उसे तोड़कर फेंकने
की।
सामने
ही खड़ा था!
जो
हमें नहीं
दिखाई पड़ते
जीवन के सूत्र, वे
भी अहर्निश
संलग्न हैं।
वृक्ष भी
अकारण नहीं
हैं, पशु
भी अकारण नहीं
हैं, पक्षी
भी अकारण नहीं
हैं क्योंकि
अकारण
अस्तित्व
नहीं है।
तुम
जैसे आए हो, वैसे
ही सभी आए
हैं। तुम जहां
से आए हो, वहीं
से सभी आए
हैं। तुम जहां
जा रहे हो, वहीं
सभी जा रहे
हैं। यह सिर्फ
मनुष्य का
अहंकार है, जो सोचता है,
हम
परमात्मा को
खोज रहे हैं, कि हम धर्म
को खोज रहे
हैं। सभी की
खोज वही है।
और निश्चित ही
जिसकी खोज है
उसकी तरक्की
भी है; जिसकी
खोज है उसका
विकास भी है।
दोत्तीन
दिन पहले
तूफान आया और
एक पक्षी जो
निरंतर यहां
गीत गा रहा था
और निरंतर
प्रसन्न था और
प्रमुदित था; तूफान
में उसके पंख
भीग गए होंगे;
तूफान से
लड़ता रहा होगा,
क्षत-विक्षत
हो गया था।
सांझ जब मैं
खाना खाने बैठा;
वह आकर पैर
में गिर पड़ा
और मर गया।
विवेक मुझसे
पूछने लगी कि
क्या इसे इस
भांति मरने से
कुछ लाभ होगा?
क्या इस
भांति आपके
चरणों में
मरने से इसे
कुछ लाभ होगा?निश्चित ही
लाभ है, क्योंकि
वह कहीं भी मर
सकता था। और एक
क्षण नहीं लगा
उसे मरने में।
तो बड़ी चेष्टा
करके ही वहां
तक पहुंच पाया
था। उसके पंख
बिलकुल
क्षत-विक्षत
थे। तूफान
भयंकर था।
वर्षा जोर से
हो रही थी।
उसका कहीं भी
गिर पड़ना
स्वाभाविक
था। वह वहां
तक पहुंच सका
वापस और एक
क्षण भी नहीं
जिया, एक
सांस भी उसने
नहीं ली, गिरा
और मर गया।
कोई प्रबल
आकांक्षा उसे
ले आई होगी।
उसे भी पता
नहीं होगा।
निश्चित ही
उसका लाभ है।
इतनी प्रबल
आकांक्षा जब
हो तो जीवन में
एक केंद्र
निर्मित होता
है--उसी
केंद्र का नाम
तो आत्मा है।
वह पक्षी
आत्मवान होकर
मरा। वह पक्षी
संकल्पवान
होकर मरा। वह पक्षी
यूं ही नहीं
मर गया; कुछ
उपलब्ध करके
मरा। एक
चेष्टा थी। उस
चेष्टा में वह
हारा नहीं।
तूफान छोटा पड़
गया, पक्षी
बड़ा हो गया।
आंधी को हरा
दिया। आधी
मिटा न पाई
उसे; मार
डाला, मिटा
न पाई। पक्षी
जीत कर मरा है,
अपनी मर्जी
पूरी करके मरा
है और परम
शांति से मरा
है। कहें कि
पक्षी
समाधिस्थ
होकर मरा है, परम समाधान
में मरा है।
जहां आना
चाहता था, वहां
आ गया है। अब
मरने में उसे
कुछ डर नहीं
है, कोई भय
नहीं
है।निश्चित
ही उनका भी
विकास हो रहा
है।
और
पूछा है
कौन-सी
अभिव्यक्ति
उन्हें
सुहानी लगती
है--मौन या
मुखर?उन्हें
दोनों से कुछ
लेना-देना
नहीं है, क्योंकि
मौन और वाणी
दोनों ही एक ही सिक्के
के दो फहलू
हैं। मनुष्य
के लिए मौन
महत्वफूर्ण
मालूम फड़ता है,
क्योंकि
वाणी
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ती
है। पक्षी के
लिए कोई भाषा
नहीं है इसलिए
न तो पक्षी को
वाणी का कोई
मूल्य है और न
मौन का कोई मूल्य
है। क्योंकि
मौन भी वाणी
का ही हिस्सा
है। जब तुम
नहीं बोलते, तब मौन; जब
तुम बोलते हो,
तब
वाणी--दोनों
ही बोलने के
ही दो पहलू
हैं। पक्षियों,
पौधों को, उससे कुछ
लेना-देना
नहीं है। उनको
तो एक ही भाषा
समझ में आती
है, वह
उपस्थिति की
भाषा है, मौजूदगी
की भाषा हैं।
तुम मौजूद हो
तो वे समझते
हैं। तुम पास
हो, तुम्हारे
प्रेम की और
करूणा की भाषा
है--वे उसे
एहसास करते
हैं। कुछ ही
दिन पहले हम
एक सूफी कहानी
पढ़ रहे थे कि
एक युवक जब भी
समुद्र के किनारे
जाता तो
हजारों पक्षी
उसके पास आकर
खेलते, उसके
कंधों पर सवार
हो जाते, उसके
सिर पर बैठ
जाते, नाचते
और आनंदित
होते। यह
अनूठा दृश्य
था। गांव भर
के लोग भरोसा
नहीं कर पाते
थे, क्योंकि
कोई भी दूसरा
जाता तो पक्षी
भाग जाते। और
जब यह युवक
आता समुद्र के
तट पर तो बड़ी
भीड़ भर जाती, बड़ा उत्सव, एक मेला लग
जाता
पक्षियों का।
एक दिन
उस युवक के
बाप ने कहा कि
हमने सुना है
कि तुम्हारे
पास बहुत
पक्षी आते हैं, जब
तुम सागर के
तट पर जाते
हो। मैं तो
बूढ़ा हूं, चल
भी नहीं सकता,
जा भी नहीं
सकता। तुम ऐसा
करना, एक-दो
पक्षी पकड़ कर
ले आना, तो
मुझे भी भरोसा
आ जाए।
उस दिन
युवक गया, लेकिन
पक्षी नहीं
आए। उड़े दूर-दूर,
सिर के पास
मंडराए, लेकिन
कंधों पर न
बैठे। आज युवक
वही न था, जो
कल तक था; आज
बात बदल गई
थी। आज प्रेम
न था; आज
आनंद न था आज
उनके साथ
खेलने की वह
सहज वृत्ति, भाव न था। आज
एक धंधा था मन
में, आज एक
वासना थी, एक
चाह थी। आज
दुश्मनी थी।
आज कठोरता थी,
हिंसा थी मन
में।
बहुत-से
फकीरों के
जीवन में ये
कहानियां
हैं। फ्रांसिस
के जीवन में
बड़ी कहानियां
हैं कि वे जहां
जाते, पक्षी
उनके साथ
जाते। जाना ही
चाहिए। संत
फ्रांसिस
जैसा प्रेम से
भरा आदमी
मुश्किल से
हुआ है। यह
ठीक ही है कि
वे पक्षी भी
प्रेम की भाषा
समझ पाए और
संत फ्रांसिस
के निकट आ
सके।
कहते
हैं,
संत
फ्रांसिस नदी
में जाते तो
मछलियों की
भीड़ इकट्ठी हो
जाती, नदी
पार करना
मुश्किल हो
जाता।
सेंट
फ्रांसिस के
विरोध में था
पोप। क्योंकि जब
भी कोई संत
पैदा होता है, तो
जो संप्रदाय
है, चर्च
है, पुरोहित
है, वह तो
विरोध में हो
ही जाता है, क्योंकि वह
खतरा है संत।
संत की कोई
व्यवस्था तो
होती नहीं; संत तो सहज
होता है।
संप्रदाय की
व्यवस्था होती
है; संत तो
सब तोड़ दे।
तो पोप
ने फ्रांसिस
को बुलवाया।
फ्रांसिस सैकड़ों
मील पैदल चल
कर आया। जब
पोप के आंगन
में आ कर
फ्रांसिस खड़ा
हुआ तो हजारों
पक्षी आ गए।
वे फ्रांसिस
के प्रेमी थे।
पोप ने कहा, इस
आदमी को कुछ
भी कहना ठीक
नहीं। जिसकी
भाषा पक्षी भी
समझते हैं, अब उससे
विवाद भी क्या
करना? यह
जो भी कहता
होगा, ठीक
ही कहता होगा।
वह पोप
निश्चित ही
समझदार आदमी
रहा होगा। उसने
विवाद नहीं
किया। उसने
कहा,
जिसकी भाषा
पक्षी भी
समझते हैं, वह ठीक ही
कहता होगा।
क्योंकि
पक्षी कोई
तर्क तो समझते
नहीं, शास्त्र
नहीं समझते, सिर्फ हृदय
समझते हैं।
तो, न
तो उन्हें
संबंध है इस
बात से कि मैं
क्या बोल रहा
हूं, न इस
बात से कोई
संबंध है कि
मैं चुप बैठा
हूं। पक्षियों
और पौधों को क्या
लेना-देना है।
वे कोई भाषा
तो जानते
नहीं। सब भाषा
आदमी की है।
मौन भी आदमी
का है। पक्षी तो
मौन और भाषा
दोनों के पार
हैं। वहां तो
सिर्फ एक
प्रेम के
आह्लाद को
समझा जाता है,
एक
अस्तित्व को,
एक
उपस्थिति को
समझा जाता है।
और जिस
दिन तुम भी
वैसी ही
अवस्था को उपलब्ध
हो जाओगे, उस
दिन जो मैं कह
रहा हूं, वह
तो तुम समझ ही
लोगे; जो
मैं हूं, वह
भी तुम समझ
लोगे। और वही
असली बात है।
वही समझने की
बात है।
जो मैं
कह रहा हूं, अगर
तुम उसी को
समझते रहे तो
तुम मुझसे चूक
ही जाओगे।
पूरा समझ लो
जो मैं कह रहा
हूं, तो भी
तुम मुझसे चूक
जाओगे
क्योंकि वह
पूरा भी बहुत
अधूरा है।
कृष्ण
की गीता को
तुमने अगर समझ
लिया तो कृष्ण
की बांसुरी का
एक स्वर समझा, बस;
कृष्ण गीता
से बहुत बड़े
हैं। यह तो एक
स्वर है। ऐसे
करोड़ स्वर
कृष्ण से पैदा
हो सकते हैं।
तुमने अगर
गीता को ही
कृष्ण समझ
लिया तो तुम
भूल में पड़
गए। जैसे
तुमने मेरी
अंगुली को ही
मुझे समझ लिया;
अंगुली तो
एक इशारा थी।
अंगुली से मैं
बड़ा हूं। सभी
शब्द
अंगुलियां
हैं। सभी
गीताएं, सभी
कुरान
अंगुलियां
हैं। उनको
समझना। उन पर रुकना
मत। उनको तुम
पूरा भी समझ
लो तो भी बहुत सार
नहीं है। उनके
पार जाना जरूरी
है, तभी
पूरे पर पकड़
आती है। पूरा
शब्द के पार
है और पूरा
मौन के भी पार
है।
जहां
मौन और भाषा
दोनों खो जाते
हैं,
वहीं ध्यान
है।
तुम्हें
मुश्किल होगी
यह बात जानकर
क्योंकि साधारणतः
तुम्हें मैं
समझता हूं कि
मौन हो जाना
ध्यान है। वह
समझाने के लिए
है। क्योंकि
अभी तो
तुम्हें मौन
होना ही
मुश्किल है।
अभी तो तुम
आंख बंद करो, मुंह
बंद करो तो भी
भीतर वाणी
चलती है, शब्द
चलते हैं, भाषा
तैरती है, बोलना
जारी रहता है।
अभी तो मौन ही
हो जाओ तो बहुत
मुश्किल है।
मौन जब तुम हो
जाओगे, तब
मैं तुमसे
कहूंगा, अब
तुम मौन भी
छोड़ दो। तभी
ध्यान का जन्म
होगा।
भाषा
छोड़ो, तब मौन
का जन्म होता
है। लेकिन मौन
में भी मन शेष
रहता है।
इसलिए तो हम
उसे मौन कहते
हैं। मन ही
बचा बिना भाषा
का--इसलिए
मौन। फिर वह
भी छूट जाए।
सिक्का पूरा
ही फेंकना है,
एक पहलू
फेंकने से न
होगा। भाषा भी
गई, मौन भी
गया, तब जो बच
रहा, वही
ध्यान है। उस
ध्यान में
तुम्हें समझ
में आ जाएंगे
पक्षियों के
गीत भी; वृक्षों
में बहती
हवाओं का
कोलाहल भी; फूलों में
चलती गतिविधि
भी; पृथ्वी
में छिपा
रहस्य, आकाश
में छिपा
रहस्य--सभी
तुम्हें समझ
में आ जाएगा।
तुम
चुप हो जाओ
पहले और फिर
चुप्पी भी छूट
जाए,
तब तुम में
और अस्तित्व
में कोई भेद
नहीं रह जाता।
तब तुम्हारे
जीवन में भी
बड़े अनूठे फूल
खिलेंगे और
पक्षियों
जैसे अनूठे
गीतों का जन्म
होगा। तुम भी
नाच सकोगे
कबीर जैसा।
तुम भी कह
सकोगे : राम
रतन धन पाया!
दूसरा
प्रश्न :
आपसे
प्रश्नों का
समाधान तो मिलता
है,
पर
समाधानों से
समाधि घटित
क्यों नहीं हो
पा रही है? समाधानों
में मुझे क्या
जोड़ना आवश्यक
है?
समाधानों
से समाधि कभी
घटित नहीं
होती। उस भूल में
मत पड़ जाना।
तुम्हारे
प्रश्नों का
समाधान भी हो
जाए अगर, तो भी
समाधि घटित न
होगी, क्योंकि
तुम तो भीतर
वैसे के वैसे
रहोगे।
प्रश्न हल हो
गए, तुम
थोड़े ही हल हो
गए! जब तुम हल
हो जाते हो, तब समाधि
घटित होती है।
प्रश्न का
उत्तर तो समाधान
लाता है; तुम्हारा
उत्तर, तुम्हारे
पूरे जीवन को
उत्तर मिल
जाता है जिस क्षण,
उस क्षण
समाधि घटित
होती है।
तो
प्रश्नों के
उत्तर तो मैं
दे सकता हूं, क्योंकि
प्रश्न तुम
पूछ सकते हो; लेकिन
तुम्हारा
उत्तर तो
तुम्हें
खोजना पड़ेगा।
तो अगर मेरे
प्रश्न और
उनके समाधान
इतना ही कर
सकें कि
तुम्हें सजग
कर दें और
तुम्हें उस
यात्रा पर
गतिमान कर दें,
जहां समाधि
उपलब्ध होती
है, तो बस
काफी है। ये
तो मील के पत्थर
हैं, इनको
पकड़ कर मत बैठ
जाना; ये
मंजिल नहीं
हैं।
मील के
पत्थर पर तीर
बना रहता
है--और आगे
जाना है, और
आगे जाना है!
जो भी मैं
तुमसे कह रहा
हूं, हर
उत्तर पर तीर
लगा है--और आगे
जाना है, और
आगे जाना है!
--जब तक
तुम न हल हो
जाओ! तुम एक
उलझन हो।
तुम्हारे प्रश्न
तो तुम्हारी
उलझन से पैदा
हो रहे हैं। प्रश्नों
के कारण थोड़े
ही तुम उलझे
हुए हो; तुम्हारी
उलझन के कारण
प्रश्न पैदा
हो रहे हैं।
प्रश्न तो
केवल ऊपर के
सिंपटम्स
हैं। जैसे किसी
आदमी को बुखार
चढ़ा, शरीर
गरम है--अब
शरीर गरम होना
थोड़ी बीमारी
है! वह तो केवल
लक्षण है। तुम
बर्फ ले कर
ठंडा मत करने
लगना उसके शरीर
को। ठंडा कर
भी दो तो हो
सकता है कि
मरीज बिलकुल
ठंडा ही हो
जाए। यह शरीर
का गरम होना
बीमारी नहीं
है; शरीर
के भीतर कोई
बहुत उपद्रव
मचा है, कोई
गृह-युद्ध चल
रहा है, उसकी
वजह से सारा
शरीर उत्तप्त
हो गया है। उस गृह-युद्ध
को मिटाना है।
उसके लिए औषधि
खोजनी होगी।
तुम्हारे
प्रश्न
तुम्हारी
भीतर की
आंतरिक उलझन
से पैदा होते
हैं। मैं एक
प्रश्न हल कर
दूंगा; तुम्हारी
आंतरिक उलझन
हजार नए
प्रश्न खड़े करती
जाएगी। यह
बीमारी सदा चल
सकती है। इसका
कोई अंत नहीं
है।
मनुष्य
ने करोड़ों प्रश्न
पूछे हैं, करोड़ों
उत्तर दिए गए
हैं। ऐसा कोई
प्रश्न नहीं
है, जिसका
उत्तर न दिया
गया हो; लेकिन
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
उत्तर
किताबों में
बंद रहते हैं,
आदमी अपनी
मुसीबत में।
उत्तर
से कोई उत्तर
नहीं मिलता।
उत्तर से तुम्हें
इतना ही दिखाई
पड़ जाए कि
तुम्हारे
भीतर
तुम्हारी
आत्मा ही
रुग्ण है और
वहां कुछ करना
जरूरी है . . .।
इसलिए तो मेरा
सारा जोर ज्ञान
पर नहीं है, सारा
जोर ध्यान पर
है। ध्यान का
अर्थ है : भीतर
की आत्मिक
उलझन को
सुलझाना है और
ज्ञान का अर्थ
है : तुम्हारे
प्रश्नों के
उत्तर समझ लो।
तुम
पूछोगे आज, मैं
तुम्हें
समझाऊंगा, समझ
में भी आ
जाएगा : तुम
यहां से जा भी
न पाओगे, रास्ते
पर भी न पहुंच
पाओगे कि हजार
प्रश्न खड़े हो
जाएंगे। और
अगर तुम बहुत
कुशल हो, ज्यादा
बीमार हो, क्रानिक
हो तो यहीं
बैठे-बैठे जब
मैं तुम्हें उत्तर
दे रहा हूं, तभी तुम्हें
पच्चीस
प्रश्न खड़े
होते रहेंगे।
उत्तर
से कोई प्रश्न
हल नहीं होने
वाला। तुममें
प्रश्न ऐसे ही
लगते हैं जैसे
वृक्षों में पत्ते
लगते हैं। अब
पत्तों को काट
दो,
इससे क्या
होता है? एक
पत्ता काटो तो
तीन पत्ते
लगते हैं।
वृक्ष समझता
है, तुम
कलम कर रहे
हो। जड़ तो तब
कटेगी, जब
तुम ध्यान से
जुड़ोगे।
ज्ञान से
जुड़ने से
थोड़ी-बहुत
राहत मिल सकती
है।
इसलिए
कबीर ने कहा
है कि ज्ञान
गुड़,
ध्यान महुआ
और जीवन के
अनुभव की
भट्टी में बनती
है शराब; और
वह शराब ही
समाधि है।
जीवन की भट्टी
में, जीवन
के अनुभव से!
इसलिए कच्चे
जो भागना
चाहते हैं; जो जीवन के
अनुभव से बचना
चाहते हैं; जो कहते हैं,
हमें
बचाओ--उनको
नहीं बचाया जा
सकता।
तुम्हें अनुभव
से तो गुजरना
ही पड़ेगा।
सस्ते
समाधि नहीं
मिलती। उसकी
कीमत तो चुकानी
ही पड़ेगी।
तुम्हें जीवन
के अनेक-अनेक
रास्तों पर
भटकना ही
पड़ेगा। बहुत
द्वार
खटखटाने पड़ेंगे।
कूड़ा-कर्कट
बटोरना
पड़ेगा। बड़ी
व्यर्थता को
जीना पड़ेगा। दुःख
और विषाद को
झेलना पड़ेगा।
उस सबसे तुम
पकोगे। वही तो
जीवन की भट्टी
है। लेकिन
ध्यान का महुआ
अगर न हो तो
भट्टी तो जलती
रहेगी, शराब
तैयार न होगी।
तो
ध्यान का महुआ
लेकर जीवन की
भट्टी से
भागना मत।
बहुत से लोग
भाग जाते हैं।
ध्यान का महुआ
हाथ लगा कि वे
चले हिमालय।
वे भट्टी को
छोड़कर ही भाग
रहे हैं, महुए
को ही लेकर
क्या करोगे? बिना भट्टी
के शराब न
बनेगी। महुए
से थोड़े ही नशा
आता है! महुए
को आग से
गुजरना जरूरी
है।
और
कबीर बड़ी सीधी
बात कहते हैं।
वे कहते हैं, ज्ञान
ज्यादा से
ज्यादा गुड़।
अगर महुए की
शराब बना ली
तो थोड़ी तिक्त
होगी अगर गुड़
पास न हो, बस।
नशा तो चढ़
जाएगा।
तो
बिना ज्ञान के
भी समाधि
उपलब्ध हो
सकती है, लेकिन
ज्ञान मात्र
से समाधि
उपलब्ध नहीं
होती। कबीर
कोई बहुत बड़े
ज्ञानी थोड़े
ही हैं। जो प्रश्न
तुम मुझसे पूछ
रहे हो, वही
अगर तुम कबीर
से पूछते तो
तुम उत्तर की
आशा नहीं कर
सकते थे। कबीर
तो बेपढ़े-लिखे
आदमी हैं।
कबीर तो
बिलकुल गंवार
हैं। तुम उनसे
शास्त्रों की
पूछो, उन्हें
कुछ पता नहीं।
हां, सत्य
की पूछो तो
उन्हें फता
है। शब्दों की
पूछो, उन्हें
कुछ पता नहीं।
निःशब्द की
पूछो तो वे
इशारा कर
देंगे।
कबीर
तो बेपढ़े-लिखे
हैं,
न
सुसंस्कृत
हैं, न
शास्त्री हैं,
न किसी
विश्वविद्यालय
में कोई
शिक्षा पायी है;
बस जीवन की
भट्टी में जल
कर ही जो पाया
है, वही
पाया है।
हां, बुद्ध
से पूछो तो
तुम्हें
उत्तर दे
सकेंगे वे सभी--राजपुत्र
हैं, सुशिक्षित
हैं; जीवन
की भट्टी में
भी जले हैं, ज्ञान का
गुड़ भी हाथ
है। तो कबीर
की शराब तो जिसको
गांव में लोग
ठर्रा कहते
हैं--बिलकुल
घरु, देसी,
शुद्ध! वह
कोई फ्रांस से
आई हुई
शैम्पेन नहीं है।
हां, बुद्ध
शैम्पेन दे
सकते हैं।
परिष्कृत है!
लेकिन जिसको
समाधि चाहिए,
क्या लेना-देना
कि शराब घरु
थी कि फ्रांस
में बनी थी? कोई
लेना-देना
नहीं है। जिसे
मस्त हो कर
नाचना है, उसके
लिए ठर्रा भी
काफी है।
तो
कबीर कहते हैं, ज्ञान
ज्यादा से
ज्यादा गुड़!
पकड़ ली
उन्होंने बात
कि थोड़ा मिला
दोगे तो थोड़ी
स्वादिष्ट
होगी, बस
इतनी बात है।
वैसे स्वाद कितनी
देर रहता है?--जरा-सा! जब
मुंह में गई
और कंठ तक
पहुंची, तब
तक; फिर जब
नीचे उतर गई, आकंठ डूब गए
उसमें, फिर
कहां स्वाद!
किसको स्वाद!
सब खो जाता
है।
समाधि
को कबीर शराब
कहते
हैं--जीवन के
अनुभव से
मिलेगी, ध्यान
के महुए से
मिलेगी।
ज्ञान का थोड़ा
गुड़ रहा पास तो
अच्छा।तो
मेरे
प्रश्न-उत्तरों
से, मेरे
बोलने से अगर
तुम थोड़ा-सा
गुड़ जमा कर लो,
बस उतना
काफी है।
लेकिन अगर गुड़
ही गुड़ इकट्ठा
कर लो, महुआ
पास न हो, जीवन
का अनुभव पास
न हो तो वह गुड़
मिठास तो न देगा,
बड़ी सड़ांध
पैदा करेगा।
पंडित
सड़ जाता है।
उसके पास गुड़
ही गुड़ है।
उससे दुर्गंध
उठने लगती है; उससे
मिठास नहीं
उठती। वह गुड़
का ही धंधा
करने लगता है।
तुम गुड़ के
व्यवसाय में
मत पड़ जाना। थोड़ा-सा
गुड़ पास रहे, अच्छा।
इसलिए मैंने
कहा कि सोने
में थोड़ी सुगंध
आ जाती है।
अन्यथा सोना
तो ऐसे ही
सोना है, कोई
सुगंध की
जरूरत नहीं
है। लेकिन
समाधि में
थोड़ी सुगंध आ
जाती है।
मेरे
प्रश्नों से, मेरे
उत्तरों से
कोई समाधान तो
मिल सकता है, समाधि नहीं
मिल सकती। और
जब तक समाधि न
मिले, तब
तक समाधान भी
क्या समाधान
है?समाधि
ही समाधान है।
उसके बाद फिर
कोई प्रश्न नहीं
उठते। नहीं कि
तुम्हें सब
प्रश्नों के
उत्तर मिल
जाते हैं; समाधि
का अर्थ है, वहां प्रश्न
उठने बंद हो
जाते हैं, उत्तर
की कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
तुम निष्प्रश्न
हो जाते हो--तब
समाधि की दशा।
तब तुम नाचोगे,
गाओगे; पूछोगे
नहीं। तब
तुम्हारे
जीवन में
शब्दों का जो
बहुत बड़ा
व्यापार चलता
था, वह बंद
ही हो जाएगा।
तब तुम पहली
दफा अस्तित्व
के साथ
सीधे-सीधे
मिलोगे, साक्षात्कार
होगा।मुझे
सुनो! उस
सुनने से बस एक
बात सीख लो कि
महुए खोजने
हैं, महुए
बीनने हैं।
झाड़ मैं
तुम्हें बताए
देता हूं, बीनने
तुम्हें ही
होंगे। कोई
दूसरा
तुम्हारे लिए
नहीं बीन
सकता।
यह तो
जीवन की शराब
है,
यह उधार
नहीं मिल
सकती। यह
तुम्हें ही
निचोड़नी होगी
और तभी इसका
महारस
तुम्हारे ऊपर
बरसेगा।
ध्यान
में जाओ!
ध्यान में
डूबो। ध्यान
में मिटो!
ध्यान में
मरो! ध्यान
बचे,
तुम न बचो।
वहीं समाधि
है। वहीं
समाधान है।
तीसरा
प्रश्न :
ज्ञानी
का मार्ग भक्त
के मार्ग से
क्या सर्वथा
भिन्न है? जिस
होश की आप
चर्चा करते
हैं, वह
प्रेमी का
मार्ग है या
ज्ञानी का? यदि होश हो
तो प्रेम कैसे
घटेगा?
तीन
संभावनाएं
हैं। एक, कि
कोई व्यक्ति
ज्ञान के
मार्ग से
खोजे। जो व्यक्ति
ज्ञान के
मार्ग से
खोजेगा, ध्यान
उसकी विधि होगी,
ध्यान उसका
रास्ता होगा।
जिस दिन
उपलब्धि होगी,
समाधि
फलेगी, जीवन
में चैतन्य का
फूल लगेगा, उस दिन वह
अचानक पाएगा
कि करता तो
जीवन भर ध्यान
रहा और समाधि
मिली; लेकिन
अब समाधि के
साथ अचानक
प्रेम का
आविर्भाव हुआ
है। प्रेम फल
की भांति आता
है ध्यानी को।
ध्यान साधन
बनता है और
प्रेम फल की
भांति आता है।
परिणाम बनता
है।
दूसरा
मार्ग है, कि
तुम भक्ति के
मार्ग से चलो।
भक्ति के
मार्ग पर
प्रेम साधन
है। और जब
मंजिल आती है
और भक्त मंदिर
पर पहुंचता है
तो अचानक चकित
हो जाता है कि
ध्यान की
लवलीनता
उपलब्ध हो गई
है। वह परिणाम
है।तो, जो
ध्यान के
मार्ग से चलते
हैं, वे
प्रेम को पाते
हैं अंत में; जो प्रेम के
मार्ग से चलते
हैं, वे
ध्यान को पाते
हैं अंत में।
ज्ञानी भक्त
हो जाते हैं, भक्त ज्ञानी
हो जाते हैं।
और एक
तीसरा मार्ग
है कि तुम
दोनों पर एक
साथ चल सकते
हो। तुम प्रेम
को भी साथ साध
सकते हो। तुम
ध्यान को भी
साथ साध सकते
हो। तब तुम
प्रेमी-भक्त, ज्ञानी-भक्त
या
भक्त-ज्ञानी
हो।
मेरी
पूरी चेष्टा
यही है कि तुम
दोनों साथ-साथ
साध लो। क्यों
इतनी देर भी
प्रतीक्षा
करनी! ध्यान
के साथ ही
प्रेम साधा जा
सकता है। और
जब ध्यान के
साथ प्रेम को
साधोगे तो
तुम्हारे
ध्यान में एक
रससिक्तता
होगी जो खाली
ध्यान साधने
वाले में नहीं
होती। उसमें प्रेम
तो होता नहीं।
इसलिए
खाली ध्यानी
रूखा, मरुस्थल
जैसा हो जाता
है, उसमें
मरुद्यान
नहीं होते।
उसमें तुम
कहीं वृक्षों
की छाया न
पाओगे। वह
रूखा हो जाएगा,
कठोर हो
जाएगा। तुम
उसको पाओगे कि
जीवन के प्रति
उसके मन में एक
उपेक्षा है, एक गहरी
उदासी है। वह
जीवन की तरफ
पीठ कर लेगा, भगोड़ा हो
जाएगा।
अगर
तुम ध्यान ही
ध्यान साधोगे
तो प्रेम फलेगा
अंत में, लेकिन
पूरे रास्ते
वह जो प्रेम
की वर्षा
साथ-साथ हो
सकती थी, उससे
तुम वंचित रह
जाओगे। मैं
कहता हूं, क्यों
वंचित रहना?
जो
व्यक्ति
प्रेम को
साधेगा, उसके
जीवन में
प्रेम तो
रहेगा, रस
रहेगा, माधुर्य
रहेगा; लेकिन
ध्यान से जो
शांति फलित
होती है, वह
जो परम
शून्यता फलित
होती है, वह
फलित नहीं
होगी। उसके
जीवन में रंग
तो होगा, प्रसन्नता
भी होगी; लेकिन
प्रसन्नता के
भीतर शून्यता
की शांति नहीं
होगी। तो
कभी-कभी तुम
पाओगे कि उसका
परमात्मा भी
एक रागरंग है,
उसकी भक्ति
भी एक रागरंग
है।
ये
दोनों ही थोड़े
अपंग
होंगे--एक-एक
पैर से चलने
की कोशिश कर
रहे हैं। और
ये दोनों
एक-दूसरे के
विपरीत होंगे,
क्योंकि
मार्ग पर ध्यानी
को पता नहीं
है कि अंत में
प्रेम भी आ जाता
है; और
मार्ग में
प्रेमी को भी
पता नहीं है
कि अंत में
ध्यान भी आ
जाता है। तो
ध्यानी कहेगा,
क्या
व्यर्थ ही
पूजा-प्रार्थना
में लगे हो, किसके लिए
हाथ जोड़ रहे
हो? वहां
कोई भी नहीं
है। आंख बंद
करो, परमात्मा
भीतर है।
गिराओ
मंदिरों को, हटाओ
मस्जिदों
को--इनसे क्या
सार है?
ज्ञानी
ब्रह्मज्ञान
की बात करेगा।
और भक्त? भक्त
कहेगा, क्या
आंख बंद करके
बैठे हो? सब
तरफ परमात्मा
की लीला हो
रही है। देखो,
आंख खोलो।
ऐसा
हुआ,
एक सूफी
फकीर औरत
हुई--राबिया।
वह ध्यानी थी।
एक भक्त हसन
नाम का फकीर, उसके घर में
मेहमान था।
सुबह सूरज उगा
और हसन बाहर
नाचने लगा।
क्योंकि, भक्त
को तो सभी
इशारे उसी के
हैं--सूरज उगे
तो वही उगा; फूल खिले तो
वही खिला; पक्षी
गाए तो वही
गाया। वही
दिखायी पड़ता
है। बाकी तो
सब रूप रह
जाते हैं, भीतर
वही दिखाई
पड़ता है। तो
हसन नाचने लगा
और हसन ने जोर
से आवाज दी कि
राबिया, क्या
भीतर बैठी है
अंधेरे में? बाहर आ, देख
कैसा सूरज
निकला है! देख,
परमात्मा
कैसे प्रकट
हुए हैं!
राबिया
ने भीतर से ही
कहा : हसन! मैं
आंख बंद किए
हूं और मैं
निश्चित ही भीतर
हूं। और मैं
तुमसे कहती
हूं,
तुम भी भीतर
आ जाओ। बाहर
के सूरज को
देखने से क्या
होगा? हम
भीतर उसी को
देख रहे हैं
जिसने सूरज को
बनाया।
यह
प्रेमी और
भक्त का विरोध
है। मगर दोनों
अधूरे हैं।
दोनों अधूरे
हैं,
एकांगी है।
दोनों पहुंच
जाते हैं।
इसलिए किसी को
अगर एकांगी ही
हो कर चलना
हो--कुछ लोग
शौकीन होते
हैं, एक
टांग से ही
उनको यात्रा
करनी है, क्या
करोगे?--तो
ठीक है, मौज
है, स्वतंत्रता
है, ऐसे ही
चलो। किसी ने
यह ही तय कर
लिया कि एक
टांग से ही
परमात्मा के
मंदिर तक
पहुंचना है, पहुंचो।
लेकिन तुम
अचानक मंदिर
के द्वार पर पाओगे
कि परमात्मा
दोनों ही
टांगें पसंद
करता है, नहीं
तो वह दो देता
ही नहीं। उसने
दो दी हैं, उसका
प्रयोजन है।
उसने दो पंख
दिए हैं कि
उड़ो संतुलन
से। उसने दो
पैर दिए हैं
कि चलो संतुलन
से। जीवन में
एक संतुलन हो।
संतुलन यानी
संयम।
तो, कभी-कभी
भक्ति भी अति
हो जाती है, वह भी असंयम
है; और
ध्यान भी अति
हो जाता है, वह भी असंयम
है। ध्यान अगर
ऐसा हो जाए कि
तुम सब बाहर
को बिलकुल भूल
ही जाओ तो
बाहर भी परमात्मा
था, तुम्हारा
परमात्मा
अधूरा हो गया।
और भक्ति ऐसी
अगर हो जाए कि
तुम मंदिर में
बैठे
प्रार्थना
करते रहो, कभी
भीतर आंख बंद
ही न करो, देखते
रहो कि कृष्ण का
कैसा सुंदर
रूप है, कैसे
मोर-मुकुट, कैसी पैर
में
पैंजनियां, और उसी रूप
को निहारते
रहो, और
उसी में डूबे
रहो--तो भीतर
भी परमात्मा
था, उससे
तुम वंचित रह
गए।
अंत
में तो
तुम्हें पूरा
हो जाना
पड़ेगा। परमात्मा
के पास
पहुंचकर तो
तुम्हें पूरा
हो जाना पड़ेगा
इसलिए भक्त
ज्ञानी हो
जाता है, ध्यानी
हो जाता है; ध्यानी भक्त
हो जाता है।
लेकिन जो अंत
में हो जाना
है, मैं
कहता हूं, पहले
से ही क्यों न
हो जाओ? मंजिल
पर ही जा कर
क्यों पूरे को
उपलब्ध करो; यात्रा को
भी क्यों न
मंजिल बना लो?
हर कदम
क्यों न मंजिल
हो जाए? राह
भी क्यों न
मंजिल हो जाए?
साधना भी
क्यों न साध्य
हो जाए?
तो, मेरी
सारी चेष्टा
यह है कि तुम
ध्यान भी करो,
तुम नाचो
भी। तुम प्रेम
भी करो, तुम
भक्ति भी करो;
तुम
शून्यता में
भी जाओ और तुम
पूर्णता के
गीत भी गाओ।
और जिस दिन
तुम दोनों को
साध लोगे, उस
दिन तुम पाओगे
कि अद्वैत
सधा। नहीं तो
ज्ञानी
भक्तों के
खिलाफ हैं, भक्त
ज्ञानियों के
खिलाफ
हैं--संप्रदाय
खड़े होते हैं,
विरोध खड़ा
होता है, द्वैत
खड़ा होता है।
विभाजन
करो ही मत।
तुम्हें
परमात्मा ने
हृदय भी दिया
है,
उसे भक्ति
में
डूबने दो; तुम्हें
परमात्मा ने
प्रज्ञा दी है, बुद्धि दी
है, उसे
ध्यान में
डूबने दो। ये
तुम्हारे दो
पंख--दोनों ही
उड़ें।
परमात्मा का
खुला आकाश, बड़ा आकाश!
तुम क्यों
लंगड़ाने को
उत्सुक हो?
लेकिन
मैं जानता हूं, कारण
है। लंगड़ाने
की उत्सुकता
में राज है।
राज यह है कि
एक को चुनने
में सरलता
लगती है, जटिलता
नहीं लगती; सीधा-सीधा
मामला लगता है;
दो और दो
चार, ऐसा
मालूम पड़ता
है। दोनों को
चुनने में
विरोधाभास हो
जाता है।
अगर
तुम ध्यान को
और भक्ति को
एक साथ चुनोगे
तो तुम पाओगे
कि ये दोनों
बड़ी विरोधी
चीजें हैं।
कहां प्रेम!
उसमें तो
दूसरे से
जुड़ना है, परमात्मा
के चरण खोजने
हैं। और कहां
ध्यान! उसमें
तो सब दूसरे
को छोड़ देना
है, अकेले
रह जाना है।
दोनों विपरीत
लगते हैं। और मैं
तुमसे कहता
हूं कि अगर
तुम दो विपरीत
के बीच एकता
को न देख पाए
तो तुम अंधे
ही हो।
जैसे
दिन है और रात
है,
और श्रम है
और विश्राम है,
और जन्म है
और मृत्यु
है--ऐसे ही
भक्ति है और
ध्यान है। तुम
जन्मे, तुम
मरोगे भी। तुम
यह नहीं कह
सकते कि जन्मे,
अब मर कैसे
सकते हैं? क्योंकि
जन्म और
मृत्यु में तो
बड़ा विरोध मालूम
पड़ता है--एक
में तो आते
हैं, दूसरे
में जाते हैं।
तुम यह
नहीं कहते कि
दिन में तो
सूरज उगता है, प्रकाश
ही प्रकाश; रात में
अंधकार हो
जाता है--यह
विरोध
बरदाश्त के
बाहर है।
जीवन
विरोध से बना
है,
जीवन
विरोधाभासी
है, पैराडाक्सिकल
है। जीवन का
रस और मजा ही
यही है कि
यहां पुरुष ही
पुरुष नहीं
हैं, स्त्रियां
भी हैं। विरोध
है। नदी के दो
किनारे हैं और
तभी तो सेतु
बन पाता है, नहीं तो
सेतु बने ही
न। एक ही
किनारे पर
कैसे तुम सेतु
बनाओगे? यहां
अंधकार भी है,
उजाला भी
है। यहां भीतर
की तरफ यात्रा
भी हो सकती है
और बाहर की
तरफ भी यात्रा
हो सकती है। और
अगर तुम दोनों
को साथ-साथ
सम्हाल
लो--कभी भीतर
डुबकी ले लो, कभी बाहर भी
डुबकी लो; बाहर
भी वही है, और
भीतर भी वही
है।
यह
फर्क ही
तुम्हारी
नासमझी का है
कि तुम बाहर
और भीतर को दो
कर रहे हो। एक
ही है। जो
आकाश तुम्हारे
घर के बाहर है, वही
तुम्हारे
आंगन में भी
है। आंगन के
आकाश का
गुणधर्म नहीं
बदलता और
तुम्हारी
दीवारों के भीतर
जो कमरा घिरा
है, उसमें
जो आकाश है, उसका भी
गुणधर्म नहीं
बदलता; वह
भी वही है।
तुम्हारी
अंतरात्मा और
बाहर फैला हुआ
परमात्मा एक
ही है।
अगर इस
एक को तुम
शुरू से ही
साधो तो
तुम्हारे जीवन
में बड़ा अदभुत
अर्थ प्रकट
होगा, जो
साधारण
ध्यानी के
जीवन में
प्रकट नहीं
होता।
जैसे
मैं तुम्हें
कहूं, जैन
धर्म, बौद्ध
धर्म ध्यान पर
खड़े हैं। वे
दोनों अंतर्मुखी
धर्म हैं। तो
तुम उनके
साधुओं के
जीवन में किसी
तरह की रसधार
न देखोगे; सूखे-सूखे,
मरे-मरे!
जितना मरा हुआ
साधु हो, जैनी
कहते हैं, उतना
ही पहुंचा हुआ
कि देखो, बिलकुल
मरा हुआ है; देखो कैसा
तप चल रहा है!
शरीर बिलकुल
पीला पड़ जाए
तो वे कहते हैं,
स्वर्ण
जैसी काया!
शरीर पीला पड़
गया उपवास कर-करके,
मगर वे कहते
हैं, देखो
कैसी
तपश्चर्या कि
कुंदन जैसा
चेहरा दिखाई
पड़ रहा है।
यही पता हो
उनको कि यह
आदमी संन्यासी
नहीं है तो वे
पूछेंगे : "भाई,
कौन-सी
बीमारी हो गई
है? पीलिया
हो गया है, क्या
हो गया है? अस्पताल
में भरती हो
जाओ!" लेकिन ये
मुनि महाराज
हैं, तो
उनके चरण छू
रहे हैं, गुणगान
गा रहे हैं, क्योंकि
उनको पीलापन
नहीं दिखाई
पड़ता, स्वर्ण
दिखाई पड़ता
है।
अपनी
धारणा है। तो
जैन साधु, बौद्ध
भिक्षु
धीरे-धीरे सूख
गए हैं, रस
नहीं है। तुम
उन्हें हंसते
हुए न पाओगे।
अगर जैन मुनि
हंस दे तो
भक्तों को शक
हो जाएगा कि यह
कैसा मुनि, हंस रहा है, खिलखिला रहा
है? यह
कहीं साधु का
लक्षण है? अगर
वह छोटी-छोटी
बातों में रस
ले तो अनुयायी
छोड़ देंगे
उसे। उसे तो
रस लेना ही
नहीं है। उसे
तो ऐसा डरा
हुआ, दूर
अपने को
सिकोड़े हुए
खड़ा रहना है।
तो एक भ्रांति
पैदा हुई है।
फिर
दूसरी तरफ
हिंदू हैं।
उनके
साधु-संन्यासी
हैं।
भक्ति-संप्रदाय
हैं-- रामानुज
का,
वल्लभ का।
तुम उनको
पाओगे, कि
वे सिर्फ
खा-पी रहे हैं
और मोटे हो
रहे हैं, और
कुछ नहीं।
खीर-पूड़ी। वह उनके
जीवन की कुल
साधना है।
क्योंकि वही
भोग भगवान को
लगाते हैं, भगवान तो
बहाना है, वही
भोग खुद को
लगाते हैं।
तुम उनको
मोर-मुकुट
पहने हुए
देखोगे। वे
तुम्हें
विदूषक मालूम
पड़ेंगे। किसी
सर्कस में
होते, नाटक
में होते, जंचते;
यहां क्या
कर रहे हैं? उनका
व्यक्तित्व
तुम्हें भोगी
का मालूम
पड़ेगा; योगी
का नहीं मालूम
पड़ेगा। लेकिन
भक्त कहेंगे
कि यह तो
भक्ति का रस
है।
ये
दोनों ही
बातें अधूरी
हो गई हैं और
दोनों ने
नुकसान
पहुंचाया। तो
मैं तो तुमसे
कहता हूं, दोनों
को साथ ही
लेना और दोनों
के बीच एक
रिदम, एक
छंदबद्धता
पैदा कर लेना :
कभी बाहर रस
से भरे नाचते
हुए; कभी
भीतर शांत, शून्य--दोनों
ही। और अगर
तुम दोनों ही
किनारों को छू
कर बह सको तो
तुम्हारी
जीवन-सरिता
सागर तक
निश्चित ही
पहुंच जाएगी।
और तब तुम
परमात्मा को
पा कर ऐसा न
पाओगे कि कुछ
नया पा रहे हो;
तुम ऐसा
पाओगे कि यह
तो पाया ही
हुआ था, प्रतिपल
पाया हुआ था।
थोड़ा बड़ा हो
गया, बड़ा
हो गया, अब
विराट हो गया;
लेकिन ऐसा
नहीं था कि
कभी ऐसा भी था
कि न पाया हो--थोड़ा
था, हर कदम
पर था।
इसको
मैं कदम-कदम
को मंजिल बना
लेना कहता
हूं।
लेकिन
ऐसा व्यक्ति
विरोधाभासी
होगा। कभी तुम
उसे नाचते
पाओगे, कभी
उसे तुम शांत
ध्यान करते
पाओगे। कभी
तुम उसे भोजन
का आनंद लेते
हुए भी पाओगे
क्योंकि वह
कहेगा, अन्नम्
ब्रह्म--कि
अन्न ब्रह्म
है। कभी तुम
उसे उपवास
करते हुए भी
पाओगे, क्योंकि
वह भीतर इतना
डूब गया कि
भोजन की याद ही
न रही।
ऐसा
व्यक्ति ही
मेरे लिए जीवन
का काव्य है।
ऐसा व्यक्ति
मेरे लिए
परिपूर्ण है।
अंत
में तो यह
घटना सभी को
घटती है; लेकिन
शुरू से घट
जाए तो
सौभाग्य।
इसलिए मैं तीन
विभाजन करता
हूं।
एक :
ज्ञानी, ध्यानी--वह
लंगड़ा है।
पहुंच जाता है
लंगड़ाते; लंगड़े
भी पहुंच जाते
हैं।
फिर
भक्त--रस से
भरा;
लेकिन
अधूरा है, उसे
भीतर का कोई
अनुभव नहीं है,
शून्य की
कोई प्रतीति
नहीं है। वह
परमात्मा की
स्तुति तो गा
सकता है, लेकिन
चुप और मौन
नहीं हो सकता;
प्रार्थना
कर सकता है, लेकिन ध्यान
नहीं कर सकता।
ध्यान और
प्रार्थना का
यही फर्क है।
प्रार्थना है
भक्त का अंग--जोर-जोर
से बोलता है, भगवान की
स्तुति करता
है, सुनता
ही नहीं किसी
की।
मैंने
पढ़ा है, एक
बहुत बड़ा
मूर्तिकार और
चित्रकार
हुआ--माइकल
ऐंजिलो। उसके
जीवन को मैं
पढ़ता था। तो
एक बढ़ा चर्च
बन रहा
था--सिसटाइन
चैपल। और उसकी
सीलिंग पर
उसने वर्षो तक
चित्र खोदे
हैं, माइकल
ऐंजिलो ने।
बड़ा कठिन काम
था, क्योंकि
चौबीस घंटे
पड़ा रहता, सीलिंग
पर खोदता रहता,
पीठ पर
पड़े-पड़े खोदना
पड़ता।
एक दिन
उसने देखा--थक
गया था, तो
हाथ थोड़े रुक
गए थे--नीचे
देखा कि कोई
भी नहीं है, सिर्फ एक
औरत जो सदा
आती है और सदा
प्रार्थना करती
है बड़े
जोर-जोर से।
वह परमात्मा
से बातें कर
रही है, बड़े
जोर-जोर से।
उसे ऐसा मजाक
सूझा--थका-मांदा
था, थोड़ी
हंसी हो जाएगी,
थोड़ा
मन-बहलाव हो
जाएगा--उसे
मजाक सूझा। तो
उसने जोर से
कहा कि देखो, मैं जीसस
क्राइस्ट हूं,
और जो तुझे
मांगना हो
मांग ले। ऊपर
चढ़े हुए अपनी
सीढ़ी से, वहीं
से वह
चिल्लाया। उस
औरत ने ऊपर भी
न देखा, उसने
कहा, "चुप
रहो, बकवास
बंद करो। मैं
तुम्हारे बाप
से बात कर रही
हूं।
भक्त
कहीं किसी की
सुनता है! वह
अपनी धुन में
है। "मैं परम
पिता
परमात्मा से, तुम्हारे
बाप से बात कर
रही हूं। तुम
बीच में न
बोलो"--उसने
कहा।
माइकल
ऐंजिलो ने
लिखा है, कि
मैं भी चौंक
गया! मैं तो
सोचता था, कि
यह मजाक
समझेगी। बाकी
वह अपने में
लगी थी इतना
कि उसको यह भी
पता नहीं चला
कि मैंने क्या
कहा, क्या
मामला था।
भक्त
अपनी लगाए हुए
है स्तुति।
चुप होना वह
जानता ही
नहीं। वह भी
अधूरापन है।
वे भी पहुंच जाते
हैं। लेकिन
द्वार पर
दोनों एक हो
जाते हैं।
मैं
तुमसे कहता
हूं,
तुम अभी से
एक हो जाओ।
मेरा मार्ग
तीसरा है और उसमें
प्रेम और
ध्यान
संयुक्त हैं।
जितने तुम
शांत हो सको, जितने मौन
हो सको, उतने
मौन हो जाओ; और जितना
तुम प्रेम दे
सको, उतना
तुम प्रेम दे
दो। एक ऐसी
घड़ी तुम्हारे
जीवन में आ
जाए कि शरीर
तो नाचे और
तुम ध्यान में
संलग्न; भीतर
सब चुप, बाहर
गीत चलता रहे;
भीतर ध्यान,
बाहर
प्रार्थना
होती रहे। वह
मेरे लिए
परिपूर्ण
पुरुष का
लक्षण है। और
जिस दिन
दुनिया में
वैसा धर्म
होगा, उस
दिन दुनिया
में अधिकतम
लोगों के लिए
धर्म के द्वार
खुल जाएंगे।
क्योंकि, लंगड़े-लंगड़े
जाना बहुत
थोड़े लोगों के
लिए संभव है; दोनों पैर
से जाना बहुत
लोगों के लिए
संभव हो सकता
है।
चौथा
प्रश्न :
कबीर
किस गुरु के
प्रसाद को
पाकर बार-बार
आनंद-विभोर
हुए जा रहे
हैं?
कबीर
गुरु का नाम
तो लेते ही
नहीं। गुरु का
कोई नाम होता
भी नहीं। गुरु
चेतना की एक
दशा है। नाम जानना
चाहो तो कबीर
के गुरु
रामानंद थे।
लेकिन कबीर
उसका नाम भी
कभी लेते नहीं
हैं। सिर्फ एकाध
जगह कहा हैः
"रामानंद
चेताये।"
बाकी साधारणतः
वे नाम भी
नहीं लेते कि
कौन गुरु हैं।
प्रश्न है ही
नहीं कि कौन
गुरु हैं।
गुरु तो
एक पद है, एक
चैतन्य की दशा
है, एक
अवस्था है, और गुरु तो
एक संबंध है, शिष्य का एक
भाव है और
शिष्य की एक
आंतरिक निकटता
है, सामीप्य
है।
गुरु
शिष्य का एक
अनुभव है।
तो वे
जो कहते हैं
बार-बार, गुरु
के प्रसाद से
मिला, गुरु
के प्रसाद से
मिला--वे यह कह
रहे हैं कि
मेरे प्रयास
से नहीं मिला।
इसमें किस
गुरु के
प्रसाद से
मिला, यह
गौण है। गुरु
के प्रसाद से
मिला, "प्रसाद"
से मिला, यह
महत्त्वपूर्ण
है। सारी
एम्फेसिस, सारा
जोर प्रसाद पर
है। किस गुरु
के प्रसाद से
मिला, यह
फिजूल की बात
है। किस नदी
में तुमने
पानी पीया और
प्यास बुझायी,
यह कोई अर्थ
की बात है? किस
कुएं पर पानी
पीया, उसका
नाम याद रखने
की क्या जरूरत
है? लेकिन
एक बात पक्की
है कि कुएं से
प्यास बुझी।
बस उतना कहना
जरूरी है।
इसलिए
कबीर कहते हैं
: गुरु-प्रसाद
से सब हुआ।
जोर इस बात का
है कि अपनी
चेष्टा से जो
न हो पाया, वह
उसकी कृपा से
हुआ। और गुरु
तो एक ही है।
अब इसे थोड़ा
समझना
मुश्किल
होगा।
समझो, बुद्ध
हैं और उनका
एक शिष्य है
सारिपुत्र।
सारिपुत्र
समर्पित हो
गया, शिष्य
हो गया। जैसे
ही सारिपुत्र
शिष्य हुआ, सारिपुत्र
मिट गया, शिष्य
रह गया। शिष्य
का मतलब होता
है, जो
सीखने को
तैयार हो। और
सीखने को वही
तैयार हो सकता
है जो
सारिपुत्र न
रह गया हो।
क्योंकि
सारिपुत्र का
तो मतलब होता
है अतीत, कल,
तो कुछ जाना,
समझा, बूझा,
जो-जो सिर
पर बोझ लेकर
आया, वही
सारिपुत्र।
वह तो मिट गया,
शिष्य रह
गया, खाली
रह गया, एक
शून्य, एक
कोरा कागज--कि
लिखो, जो
लिखना हो लिख
दो; अब
मेरी तरफ से
कोई लिखावट न
बची।
और जब
शिष्य इतना
खाली हो जाता
है नाम-रूप से, तो
उसे बुद्ध में
भी नाम-रूप
थोड़ी दिखाई
पड़ती है फिर!
तुम्हें अपना
नाम मालूम
होता है तो गुरु
का भी नाम
दिखाई पड़ता
है। तुम्हें
अपना रूप
दिखाई पड़ता है
तो गुरु का भी
रूप दिखाई
पड़ता है। जिस
दिन तुमने अपना
नाम-रूप छोड़
दिया उस दिन
तुम्हें गुरु
में वह अखंड
ज्योति दिखाई
पड़ती है, जिसका
कोई नाम-रूप
नहीं है। वह
तो ऊपर की खोल
है बुद्ध अब।
वह जो गौतम
सिद्धार्थ है,
वह जो ऊपर
की खोल है।
उसके लिए थोड़े
ही समर्पण किया
है। समर्पण तो
भीतर की
ज्योति के लिए
किया है, जिसका
कोई नाम नहीं
है। वह है
गुरु।
और जब
यह प्रसाद
बटेगा, जब इस
ज्योति का
तुम्हारी
भीतर की
ज्योति से मिलन
होगा। कबीर
कहते हैं :
ज्योति में
ज्योति
समानी--वह
ज्योति
ज्योति में
समाएगी, जब
तुम्हारा
बुझा दीया
अचानक जल
उठेगा। एक
लपक--और गुरु
की ज्योति
तुममें समा
जाएगी, और
तुम शिष्य न
रह जाओगे, तुम
स्वयं भी गुरु
जैसे हो गए, गुरु हो
गए--उस घड़ी में
तुम क्या
कहोगे--बुद्ध
की कृपा से? वह ठीक न
होगा, क्योंकि
वह तो गुरु का
एक नाम हो गया
गुरु की कृपा
से!
फिर
रामानंद के
पास कबीर बैठा
है। फिर कबीर
समर्पित हो
गया। अब
रामानंद भी रामानंद
न रहे; वही
अखंड ज्योति
भीतर जलने लगी,
जो
सारिपुत्र को
गौतम बुद्ध
में दिखाई
पड़ी। वही कबीर
को रामानंद
में दिखाई
पड़ी। वही
अनंत-अनंत काल
में अनंत-अनंत
शिष्यों को
अनंत-अनंत गुरुओं
में दिखाई
पड़ी। वह
ज्योति एक है;
वह जैसे ही
शिष्य खोता है,
वह अनुभव
में आ जाती है,
दिखाई पड़ने
लगती है, प्रतीत
होने लगती है।
हजारों
शिष्य हुए, हजारों
गुरु हुए; लेकिन
घटना तो एक ही
है--वह शिष्य
और गुरु के बीच
समान घटती है।
उसका कोई भेद
ही नहीं पड़ता।
हजारों कंठ, हजारों
प्यासे कंठ, हजारों कुएं--और
जब पानी गले
में कंठ से
मिलता है तो
प्यास बुझती
है, जो
तृप्ति होती
है, वह तो
एक ही है।
उसका क्या कोई
नाम है?तुम्हारे
कंठ में जब
प्यास लगती है
और पानी की
बूंद जाती है
तो तुम सोचते
हो, कोई
अलग तरह की
तृप्ति होती
है जैसा किसी
दूसरे को नहीं
होती? वही
तृप्ति है।
कंठ होंगे
अलग-अलग, प्यास
तो एक है। जल
के घाट होंगे
अलग-अलग, जलधार
तो एक है, जल
का स्वभाव तो
एक है। और जब
जल और प्यास
का मिलन होता
है तो जो
तृप्ति होती
है, उसका
स्वभाव कैसे
भिन्न हो सकता
है?
तो, जो
सारिपुत्र को
अनुभव हुआ
बुद्ध के पास,
जो गौतम को
अनुभव हुआ
महावीर के पास,
जो ल्यूक को
मैथ्यू को
अनुभव हुआ
जीसस के पास, जो अली को
अनुभव हुआ
मुहम्मद के
पास, वही
कबीर को अनुभव
हुआ रामानंद
के पास।
नामरूप
की बात तो सब
व्यर्थ है।
इसलिए क्या कहना, किससे
हुआ? गुरु
से हुआ। जिसने
जाना था हमसे
पहले, उससे
हुआ। जो जाना
ही हुआ था, जागा
ही हुआ था, उससे
हुआ। हम थे
सोए, किसी
जागे हुए आदमी
ने जगाया। हम
थे बुझे, किसी
जलते ने
जलाया। हम थे
खोए, किसी
पहुंचे हुए ने
हाथ का सहारा
दिया।
इसलिए
कबीर कोई नाम
नहीं लेते; बार-बार
कहते हैं, बस
गुरु की कृपा
से हुआ। जोर
इस बात पर है
कि उसकी
अनुकंपा से हो
रहा है, मेरी
चेष्टा और
प्रयास से
नहीं। वह
निरहंकार अवस्था
की बात है, जब
तुम्हें लगता
है कि
तुम्हारी
चेष्टा से कुछ
भी नहीं हो
रहा।
तुम्हारी
चेष्टा से कभी
कुछ हुआ ही
नहीं; बाधा
भला पड़ी हो, उपद्रव हुआ
हो, अड़चन
आई हो, तुम्हारी
चेष्टा पत्थर
बन गई हो राह
की, लेकिन
सीढ़ी कभी नहीं
बनी।
तुम्हारे
अहंकार ने
तुम्हें कहां
पहुंचाया? भटकाया
होगा।
पहुंचते ही
अनुभव होता है
कि मैं ही
भटकने का
सूत्र था।
तो जब
गुरु की वर्षा
होती है तब
तुम्हें
अनुभव होता है
कि मेरे मिटने
से ही
हुआ--मेरे
मिटने से हुआ, गुरु
की अनुकंपा से
हुआ। मेरे
होने से तो
नहीं हो सकता
था; मैं
मिटूं तो ही
हो सकता है।
क्योंकि जब तक
मैं हूं, तब
तक गुरु की
अनुकंपा
प्रवेश नहीं
कर सकती, मैं
बाधा डालता
हूं। और ये
बाधाएं बड़ी
सूक्ष्म हैं।
महावीर
का शिष्य हुआ
गौतम । गौतम
महावीर का सर्वाधिक
ज्ञानी शिष्य
था,
बड़े से बड़ा
पंडित था। वही
उनका प्रथम
गणधर हुआ, उसीने
उनके शास्त्र
संभाले।
लेकिन उसके
पहले बहुत
दूसरे शिष्य
ज्ञान को
उपलब्ध हो गए,
वह सबसे
आखिर में हुआ;
आखिर में भी
नहीं हुआ, महावीर
के मरने पर
हुआ। महावीर
उसे बहुत दफा
कहे--कि गौतम, तू होश
संभाल!
लेकिन
वह बड़ा पंडित
था। वह ज्ञानी
था। अगर ज्ञान
की ही बात की
जाए तो शायद
वह महावीर से
भी विवाद में
जीत सकता था।
वह बड़ा कुशल
पंडित था।
उसके खुद के हजारों
शिष्य थे, जब
वह महावीर का
शिष्य हुआ था।
लेकिन एक बात
महावीर की पकड़
गई उसको--जो
उसने सुना था
और शास्त्र
में पढ़ा था, वह इस आदमी
में देखा।
बिलकुल अंधा
नहीं था। पंडित
भी रहा होगा, तो भी अभी
थोड़ा बोध था
उसमें, पांडित्य
ने बिलकुल
नहीं मार डाला
था। इस आदमी
में अभी कुछ
दिखाई पड़ा।
इससे विवाद
करने जैसा न
लगा। वह इसका
शिष्य हो गया
लेकिन शिष्य
होने पर भी
क्या फर्क
पड़ता है?वह
बड़ा पंडित था,
तत्क्षण वह
प्रमुख शिष्य
हो गया।
पट्टशिष्य हो
गया, क्योंकि
सभी उससे
कमजोर थे
बातचीत में, विवाद करने
में, शास्त्रार्थ
में। कौन उससे
जीतता। वह
महावीर से तो
विवाद नहीं
करता, लेकिन
शिष्यों को तो
वह हरा ही
सकता था। वह
अटका रहा।
अनेक जो पीछे
से आए--वे भी ज्ञान
को उपलब्ध हो
गए। उसकी पीड़ा
बढ़ती गयी।
महावीर
ने मरने के
दिन उसे संदेश
भेजा। वह गांव
के बाहर गया
था,
कहीं उपदेश
करने गया था।
वह लौट कर आता
था, राहगीरों
ने रास्ते में
कहा कि महावीर
ने प्राण छोड़
दिए शरीर छोड़
दिया। तो वह
रोने लगा कि मेरा
क्या होगा अब?
मैं उनके
जीते-जी ज्ञान
को उपलब्ध न
हो सका, अब
तो मेरी कोई
संभावना न
रही। मेरे लिए
कोई संदेश छोड़
गए हैं वे?तो
यात्रियों ने
कहा : "हां!
मरने के पहले
उन्होंने
तुम्हारी ही
याद की थी और
कहा है, गौतम
को इतना कह
देना कि तू
पूरी नदी पार
कर गया, अब
किनारे को पकड़
कर क्यों रुका
है?"जरा-सी
पकड़! तुमने
नदी तैर ली, अब किनारे
को पकड़ लिया; लेकिन बाहर
कैसे निकलोगे
अगर किनारे को
पकड़े हो? नदी
तैरने से तो
कोई बाहर नहीं
निकल जाता; किनारे को
भी छोड़ना पड़ता
है। जैसे
तुमने नाव में
बैठकर नदी पार
कर ली, अब
नाव को पकड़कर
बैठ गए, ऐसा
वह किनारे को
पकड़कर बैठा।
यह
महावीर का वचन
सुनते ही, कहते
हैं, गौतम
ज्ञान को
उपलब्ध हो
गया। जो
महावीर के जीवन
में घटा, वह
महावीर की
मृत्यु में
घटा!
क्या
पकड़े हुए था, वह
कौन-सा किनारा
था? जरा-सी
रेखा रह गयी
थी अपने ज्ञान
की, अहंकार
की। वह शिष्य
नहीं हो पाया
था; पट्टशिष्य
हो पाया था; शिष्य नहीं
हो फाया था।
शिष्यों में
प्रमुख हो गया
हो लेकिन गुरु
के चरणों में
समर्पित नहीं
हो पाया। वह
समर्पण के
घटते ही घटना
घट जाती है।
इधर तुम मिटे,
उधर प्रकाश
प्रवाहित
हुआ।
तब तुम
कैसे कहोगे, अपने
से हुआ? तब
तो इतना ही रह
जाएगा कहने को
: "गुरु
प्रसादी . . .।"
तो कबीर वही
कहते हैं कि "गुरु
प्रसादी" से
हुआ, गुरु
प्रसाद से
हुआ।
प्रसाद
शब्द बड़ा
महत्त्वपूर्ण
है,
अंग्रेजी
में जिसे
ग्रेस कहते
हैं। प्रसाद का
अर्थ है, जो
बिना मांगे
दिया गया हो।
मांग कर
मिले--भीख; छीन
कर ले लिया
जाए--चोरी; खरीद
कर ले लिया
जाए--प्रसाद
नहीं। प्रसाद
का मतलब है
खरीद कर न
मिले, खरीदना
चाहो खरीद न
सको, बिकता
न हो। प्रसाद
का कोई बाजार
नहीं है, कोई
दुकान नहीं है,
चोरी न कर
सकते हो
जिसकी। कैसे
करोगे प्रसाद
की चोरी? क्योंकि
वह केवल
निरहंकार को
मिलता है।
निरहंकारी
चोरी नहीं कर
सकता। कैसे
खरीदोगे
प्रसाद को? क्योंकि
उसके कोई
सिक्के नहीं
हैं, सिर्फ
अहंकार को
छोड़ने से ही
खरीदा जा सकता
है। और अहंकार
को छोड़ते ही
खरीदने वाला
मर जाता है।
उसको तुम मांग
नहीं सकते, क्योंकि
प्रसाद इतना
महिमापूर्ण
है कि उसे भीख
की तरह नहीं
दिया जा सकता।
तुम्हारा
मांगने से
नहीं दिया जा
सकता, तुम्हारी
तैयारी से
दिया जाता है।
तुम जिस दिन
तैयार होते हो,
जिस दिन
तुम्हारा
भीतर अंतरतम
तैयार होता है,
जब तुम
बिलकुल खाली
होते हो, शून्य
होते हो, तब
अचानक सब तरफ
से वर्षा हो
जाती है।
आखिरी
प्रश्न :
सभी
संतों ने, बुद्ध
पुरुषों ने
सत्य को अपने
अंदर ही पाया,
फिर कहीं भी
बाहर समर्पण
पर इतना जारे
क्यों दिया
गया है? अपने
स्वभावानुसार
या भटक कर
शायद कभी कहीं
और सत्य की
झलक मिल भी
जाए, पर
बाहर तो अंधे
गुरु भी मौजूद
हैं जो रात को
दिन और दिन को
रात
कहेंगे . . .?
इसे
समझना जरूरी
है।
समर्पण
बाहर होता ही
नहीं, समर्पण
भीतर की घटना
है। गुरु बाहर
हो; समर्पण
भीतर की घटना
है।
समझो, तुम
किसी के प्रेम
में पड़ गए तो
प्रेमी तो बाहर
होता है; लेकिन
प्रेम तो
तुम्हारे
भीतर की घटना
है, वह तो
तुम्हारे
हृदय में जलता
है। प्रेमी मर
भी जाए तो भी
प्रेम जारी रह
सकता है; जारी
रहेगा ही, अगर
था। प्रेमी की
राख भी न बचे
तो भी प्रेम
अहर्निश
गूंजता
रहेगा।
धड़कन-धड़कन में
श्वास-श्वास
में बहता
रहेगा।
प्रेम-पात्र
तो बाहर होता
है,
प्रेम भीतर
होता है।
समर्पण का
पात्र तो बाहर
होता है, गुरु
बाहर होता है,
लेकिन समर्पण
तो भीतर होता
है। वह घटना
बाहर की नहीं है।
और गुरु भी
तभी तक बाहर
दिखाई पड़ता है,
जब तक हमने
समर्पण नहीं
किया। जिस दिन
तुमने समर्पण
किया, गुरु
भी भीतर है।
बाहर-भीतर का
भेद ही गिर
गया, सीमा
ही टूट गई।
समर्पण करते
ही, जैसे
ही तुमने अपनी
सुरक्षा की
दीवाल तोड़ दी,
सब तरह से
गुरु
तुम्हारे
भीतर बह आता
है।
इसलिए
तो हमने गुरु
को परमात्मा
कहा है और भीतर
छुपी आत्मा को
परम गुरु कहा
है। इससे बड़ी
पहेलियां
पैदा हो जाती
हैं। पश्चिम
के बहुत-से लोग
जब भारत के
शास्त्रों का
अध्ययन करते
हैं तो उनको
लगता है कि ये
तो बिलकुल पहेलियां
हैं। इनमें
कोई व्यवस्था
नहीं है, कोई
तर्कबद्धता
नहीं है। कहीं
कहते हो गुरु
बाहर, कहीं
कहते हो गुरु
भीतर! लेकिन
ये सभी बातें
सच हैं। भारत
की भी मजबूरी
है, क्योंकि
भारत सत्य को
ही कहना चाहता
है, वह
जैसा है। उलझन
भी भला खड़ी हो
जाती हो, लेकिन
हम सत्य को
वैसा ही कहना
चाहते हैं, जैसा है।
जब तक
शिष्य
समर्पित नहीं
है तब तक गुरु
बाहर है।
वस्तुतः तब तक
गुरु गुरु ही
नहीं है, इसलिए
बाहर है। तुम
क्या सोचते हो,
तुम्हारे
समर्पण के
पहले कोई गुरु
हो सकता है?एक स्त्री
रास्ते से जा
रही है। क्या
तुम्हें प्रेम
न हुआ हो इसके
प्रति तो क्या
तुम इसे
प्रेयसी कह
सकते हो, कि
यह मेरी
प्रेयसी है, अभी हालांकि
मेरा प्रेम
नहीं हुआ? तो
लोग तुम्हें
पागल कहेंगे।
जिसके प्रति
समर्पण नहीं
हुआ, क्या
तुम उसे गुरु
कह सकते हो? वह किसी और
का गुरु होगा,
वह किसी और
की प्रेयसी
होगी; लेकिन
तुम्हारा
इससे क्या
लेना-देना? तुम्हारा तो
गुरु तभी घटता
है, जब
तुम्हारा
समर्पण होता
है।
और यह
बड़े मजे की
बात है कि अगर
तुम सच में ही
समर्पण कर दो
तो तुम्हें
कोई गुरु भटका
नहीं सकता।
वस्तुतः सचाई
तो यह है कि
अगर समर्पण
करनेवाला
शिष्य मिल जाए
तो भटका हुआ
गुरु भी रास्ते
पर आ जाएगा।
समर्पण इतनी
बड़ी घटना है! जब
तुम्हें
रास्ते पर ला
सकता है, समर्पण,
तो गुरु को
भी ला सकता
है।
लेकिन
कठिनाई ऐसी है
कि सदगुरु को
भी शिष्य नहीं
मिलते, असदगुरु
को शिष्य
मिलना तो बहुत
मुश्किल है। अनुयायियों
की बात नहीं
कर रहा हूं, शिष्य की
बात कर रहा
हूं--जिसको
नानक ने सिक्ख
कहा है। सिक्ख
शिष्य का
अपभ्रंश है।
लेकिन
सिक्खों की
बात नहीं कर
रहा हूं--नानक
के सिक्ख! वह
बात ही और है!
जब
तुम्हारे
भीतर
शिष्यत्व का
भाव जन्मता है, तब
कोई तुम्हारे
लिए गुरु होता
है। और अगर
तुम्हारा
समर्पण पूरा
हो तो तुम
बिलकुल फिक्र
ही छोड़ दो कि
गुरु कुगुरु
है, कि
सदगुरु है, कि क्या है।
तुम चिंता ही
छोड़ो। समर्पण
इतनी बड़ी घटना
है कि वह
तुम्हें तो
बदलेगी ही, उस गुरु को
भी बदल
डालेगी।
समर्पण
का मतलब है
अटूट
श्रद्धा।
समर्पण का अर्थ
है बेशर्त
आस्था।
समर्पण का
अर्थ है, गुरु
कहे, मरो
तो मरने की
तैयारी; जीओ
तो जीने की
तैयारी।क्या
तुमने इतना
बुरा आदमी
दुनिया में
देखा है, जो
अटूट श्रद्धा
को धोखा दे
सके? अखंड
श्रद्धा को
धोखा देने
वाला आदमी कभी
पृथ्वी पर हुआ
ही नहीं। हां,
अगर
तुम्हें कोई
धोखा दे पाता
है तो इसलिए, कि तुम्हारी
श्रद्धा अखंड नहीं।
तुम भी बेईमान,
गुरु भी
बेईमान। तुम
भी
रत्ती-रत्ती
देते हो, वह
भी समझता है
कि तुम कैसे
दे रहे हो; वह
भी छीनने की
कोशिश करता
है। और तुम
सोचते हो कि
यह गुरु
बेईमान है, ठीक गुरु
नहीं है, भटका
देगा; अगर
समर्पण किया
तो भटक
जाएंगे।
तुम
समर्पण नहीं
करना चाहते; तुम
हजार बहाने
खोजते हो। तुम
डरे हो। और तब
तुम पक्का
समझो कि
तुम्हें
सदगुरु तो
मिलनेवाला ही
नहीं है; तुम्हें
कोई चालबाज ही
मिलेगा।
तुम्हारे भीतर
का यह जो
संदेह है, यह
तुम्हें किसी
असदगुरु से ही
मिला सकता है।
संदेह का और
असदगुरु का
मिलना हो सकता
है। श्रद्धा
और असदगुरु का
मिलना होता ही
नहीं। या तो
गुरु भाग खड़ा
होगा
श्रद्धावान
शिष्य को पाकर
और--या बदल
जाएगा।
तुम
कभी किसी पर
श्रद्धा करके
तो देखो।
श्रद्धा बड़ी
क्रांतिकारी
कीमिया है।
जिस पर तुम श्रद्धा
करोगे उसे तुम
बदलना शुरू कर
दोगे। छोटे
बच्चे घर में
पैदा होते हैं, मां-बाप
को बदल देते
हैं। छोटे
बच्चे पर
ध्यान रखना
पड़ता है तो
बाप को सिगरेट
नहीं पीनी, शराब नहीं
पीनी, कहीं
यह छोटा बच्चा
बिगड़ न जाए।
छोटा
बच्चा भी इतना
छोटा नहीं है
जितना श्रद्धा
से भरा हुआ
शिष्य होता
है। उसकी
सरलता का तो
मुकाबला ही
नहीं है। वह
इतना सरल होता
है कि गुरु भी
डरने लगेगा कि
इतनी सरलता को
धोखा देना? इतनी
सरलता को धोखा
देनेवाला कोई
शैतान पैदा ही
कभी नहीं हुआ।
तुम उस
भय को छोड़ो।
तुम यह चिंता
ही मत करो। तुम
सिर्फ समर्पण
की फिक्र करो।
अगर तुम
समर्पण कर
सकते हो तो
मैं तुमसे
कहता हूं कि
तुम पत्थर के
प्रति भी
समर्पण कर दो, तो
भी क्रांति
घटेगी। आदमी
की तो बात और, पत्थर के
प्रति भी--और
क्रांति हो
जाएगी। क्रांति
समर्पण से
होती है।
अब इस
बात को भी समझ
लो। गुरु थोड़ी
क्रांति करता
है! शिष्य को
लगता है, गुरु
ने की--यह उसका
निरहंकार भाव
है। अगर तुम गुरु
से पूछो तो
गुरु ऊपर
इशारा करेगा,
कहेगा :
उसने की!
क्योंकि वह भी
जानता है, गुरु
ने नहीं की, परमात्मा ने
की।
जीसस
एक गांव से
गुजरते हैं।
एक बाजार में
बड़ी भीड़ है और
एक स्त्री आती
है। उसे कोढ़
हो गया है। वह
बीमार है। उसे
गांव के बाहर
फेंक दिया गया
है। वह डरती
है जीसस के
सामने आने में
भी। लेकिन उसे
पक्की
श्रद्धा है कि
अगर वह जीसस
का स्पर्श कर
ले तो वह ठीक
हो जाएगी।
लेकिन उसे डर
है कि वह भीड़ गांव
में उसे अंदर
भी आने देगी? तो
वह किसी तरह
छिपी भीड़ के
अंदर प्रवेश
कर जाती है।
वह जीसस के
सामने जाने
में डरती है।
वह उनसे
प्रार्थना
करने में डरती
है। यह भी कोई
बात है कहने
की? इस काम
में भी उनको
लगाना क्या
उचित है? वह
सिर्फ किनारे
से, भीड़ से
आकर जीसस का
कपड़े का एक
कोना छू लेती
है। जीसस चौंक
कर खड़े हो
जाते हैं।
उन्होंने कहा :
"किसने मुझे
इतनी श्रद्धा
से छुआ?" और
उस स्त्री का
सर्वांग बदल
गया है। उसी
स्त्री ने
अपने शरीर को
देखा होगा
भरोसा न कर
सकी। उसने
कहाः "लेकिन
मैं बदल गई!"
जीसस
ने कहा : "तू
अपनी श्रद्धा
के कारण बदली
है,
मेरा इसमें
कुछ हाथ नहीं।
धन्यवाद देना
हो तो परमात्मा
को धन्यवाद
देना।
करनेवाला सभी
वही है।
यही तो
कबीर कहते हैं
कि
गुरु-प्रसाद
से हुआ। गुरु
से पूछें, तो
रामानंद यह न
कहेंगे।
रामानंद राम
की तरफ बताएंगे,
राम की कृपा
से हुआ। राम
की कृपा से
कहने का मतलब
यह है कि कोई
भी नहीं कर
रहा है; समर्पण
के भीतर ही
घटना घटती है।
कोई करनेवाला
नहीं है।
तुम इस
चिंता में मत
पड़ो,
कि समर्पण
बाहर है।
समर्पण भीतर
है। और इस चिंता
में भी मत पड़ो,
कि जब तक
हमें पक्का न
हो जाए, जब
तक अदालत
सर्टिफिकेट न
दे दे कि यह
आदमी ईमानदार
है, कि
सच्चा गुरु
है। कौन अदालत
देगी? किस
अदालत के बस
के भीतर है? कौन
सर्टिफिकेट
देगा? कौन
प्रमाणित
करेगा? और तुम
अपनी बुद्धि
से कैसे खोज
कर पाओगे? तुममें
इतनी ही
बुद्धि होती
तो गुरु की
जरूरत ही क्या
थी? तुम
कैसे
पहचानोगे, कौन
सदगुरु है, कौन नहीं है?
तुम इस उलझन
में ही मत
पड़ो। तुम
पत्थर को भी
पकड़ लो; पत्थर
के स्पर्श से
भी तुम्हारा
रोग चला जाएगा।
असली सवाल
हृदय का है।
असली सवाल
समर्पण का है।
असली सवाल
आस्था का है।
तो, मैं
तुमसे कहता
हूं, न तो
गुरु करता है,
न शिष्य
करता है; श्रद्धा
करवाती है।
श्रद्धा से
होता है; समर्पण
में होता है।
गुरु भी बहाना
है। वह बहाना
है ताकि तुम
श्रद्धा कर
सको, अन्यथा
तुम्हें
मुश्किल
होगा। बिना
बहाने के
श्रद्धा करनी
मुश्किल
होगी। तुम्हें
कोई सहारा
चाहिए, कोई
निमित्त
चाहिए, अन्यथा
तुम कैसे
श्रद्धा
करोगे?अगर
तुम बिना किसी
में श्रद्धा
किए भी श्रद्धा
कर सको, मात्र
श्रद्धा कर
सको तो भी
घटना घट
जाएगी। लेकिन
तब मुश्किल
होता जाएगा।
वह ऐसे ही
होगा कि बिना
प्रेयसी के और
प्रेम, बिना
प्रेमी के
प्रेम; बस
प्रेम! कोई है
ही नहीं जिसको
प्रेम करना है,
मगर प्रेम
का भाव। कठिन
होगा। होता तो
है। हो सकता
है। प्रेम
तुम्हारी
भाव-दशा बन
सकती है। इसलिए
तो बुद्ध जैसे
लोग कहते हैं,
कोई जरूरत
नहीं है; तुम
सिर्फ प्रेम
से भर जाओ, घटना
घट जाएगी।
प्रेम
अग्नि है।
श्रद्धा महा
अग्नि है, क्योंकि
श्रद्धा
प्रेम का
निखरे से
निखरा रूप है,
नवनीत है।
आज
इतना ही।
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