दिनांक
9 फरवरी, 1977,
ओशो
आश्रम, पूना।
पहला
प्रश्न :
महागीता
की इस अंतिम
प्रश्नोत्तरी
में कृपा करके
श्रवणमात्र
से होने वाली
तत्काल—संबोधि, सड़न
एनलाइटेनमेंट
का राज फिर से
कह दें। इस
महाघटना के
लिए पूर्वभूमिका
के रूप में
क्या तैयारी
जरूरी है? क्या
बिना किसी भी
प्रकार की
प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष
तैयारी के
तत्काल—संबोधि
घटना संभव है?
फिर से
पूछते हो। एक
ही बात रोज
कही जा रही
है। एक ही बात
को अनंत बार दोहराया
जा रहा है।
फिर पूछने से
न सुन पाओगे।
इतने बार दोहराकर
समझ में नहीं
आता। एक ही
बार कहे जाने
से समझ में आ
सकती है। बात
इतनी सरल है।
इसलिए प्रश्न
बात के
दोहराने का
नहीं है, प्रश्न
तुम्हारी
मूर्च्छा का
है। तुम इतने
सोए हो, कितनी
ही बार दोहराओ,
कोई अंतर न
पड़ेगा। शायद
बहुत बार
दोहराने से
तुम समझो कि
कोई लोरी गा
रहा है और तुम
और गहरी नींद
में सो जाओ।
अनेक बार
दोहराने का
परिणाम जागरण
नहीं होता।
फिर
पूछते हो कि
श्रवणमात्र
से होने वाली
तत्काल—संबोधि
का राज क्या
है?
राज
होता तो
श्रवणमात्र
से कभी संबोधि
उपलब्ध नहीं
हो सकती थी।
अगर कोई राज
होता, कोई
सीक्रेट होता,
अगर कोई बात
छुपी होती, तो खोजनी
पड़ती। चेष्टा
करनी पड़ती।
श्रवणमात्र
से जो संबोधि
घटित होती है,
उसका अर्थ
ही इतना है कि
राज कुछ भी
नहीं है।
परमात्मा
प्रगट है, छिपा
नहीं।
परमात्मा
मौजूद है, पर्दों
में नहीं।
परमात्मा आंख
के सामने खड़ा
है, परमात्मा
आंख के पीछे
खड़ा है।
परमात्मा ने
ही तुम्हें सब
ओर से घेरा है।
परमात्मा के
अतिरिक्त और
कुछ है ही
नहीं। राज
कहां है? जिन्होंने
समझा कि
परमात्मा राज
है, वे
चूके। फिर वे
परमात्मा को
खोजने में
लगेंगे। और जो
इतना मौजूद है
कि उसके
अतिरिक्त कुछ
मौजूद नहीं, उसे तुमने
खोजा कि चूके।
खोजने में ही
चूक हो गयी।
जैसे कि भर
दोपहरी में
कोई रोशनी
खोजने लगे, तो तुम क्या
कहोगे, इसको
मिलेगी रोशनी?
चारों तरफ
धूप बरस रही
है, यह धूप
में ही खड़ा है
और कहता है, मैं रोशनी
को खोजना
चाहता हूं।
रोशनी कहां है,
इस बात का
राज क्या है? इसके पूछने
में ही भ्रांति
है। इसके
पूछने में ही
चूक हुई जा
रही है।
राज तो
पंडितों ने
खड़े किये हैं, परमात्मा
बहुत प्रगट है।
पंडितों का
सारा व्यवसाय
इस बात पर
निर्भर करता
है कि उलझा
दें। नहीं तो
बात सुलझेगी
कैसे फिर? उलझी
हो बात तो
पंडित की
जरूरत है।
सुलझी ही हो, तो पंडित की
कोई जरूरत
नहीं है।
श्रवणमात्र
से उपलब्ध हो
सकता है सत्य, इसका
मतलब यही हुआ
कि किसी को
बीच में लेने
की
जरूरत नहीं है।
किसी का हाथ
पकड़ने तक की
भी जरूरत नहीं
है। किसी का
अनुसरण करने
की भी जरूरत
नहीं है।
क्योंकि कहीं
जाना नहीं है, तुम सत्य
में हो। सिर्फ
जागना है। आंख
खोलकर देखना
है, भरी
दोपहरी है और
सूरज सब तरफ
बरस रहा है।
तुम आंख बंद
किये खड़े हो, पूछते हो, सूरज के
होने का राज
क्या? रोशनी
को कहां खोजें?
इसकी कुंजी
कहां है? अब
बंद आदमी के
हाथ में अगर
कुंजी भी हो
सूरज को पाने
की, तो भी
क्या होगा? असली बात ही
चूक गये।
तुम
पूछते हो, राज क्या?
राज
होता, तो
सुननेमात्र
से सत्य
उपलब्ध नहीं
हो सकता।
अष्टावक्र की
पूरी देशना
यही है कि
सिर्फ सुननेमात्र
से। क्यों ऐसा
कहा है? इसलिए
ऐसा कहा है कि
तुमने सत्य को
खोया नहीं है।
ऐसा समझो कि
कोई सम्राट है
और सो गया और
सोते में सपना
देखता है कि
भिखारी हो गया
हूं। और कोई
उन्हें जगाकर
उठा देता है
और कहता है, जागने भर से
बात समाप्त हो
जाएगी।
सम्राट तो तुम
हो, भिखारी
का सपना देख
रहे हो। तो
घड़ी का अलार्म
काफी है।
श्रवणमात्रेण।
ही, अगर
तुम भिखारी ही
हो, तो फिर
सम्राट नहीं
हो सकते सुनने
मात्र से। लाख
कोई दोहराए कि
तुम सम्राट हो,
तुम तो
जानते हो, तुम
भिखारी हो।
तो तुम
बार—बार पूछते
हो कि कोई राज
होगा सम्राट
होने का! अष्टावक्र
कह रहे हैं, सम्राट
तुम हो।
भिखारी कैसे
हो गये हो, यह
चमत्कार है।
संपत्ति
तुम्हारे पास
है, एक
क्षण को भी
उससे
तुम्हारा
संबंध नहीं
छूटा है, छूट
जाता तो तुम
हो ही नहीं
सकते थे। ऐसा
ही समझो कि
जैसे वृक्ष
खड़ा है। अगर
जड़ों से संबंध
टूट जाए तो
वृक्ष हो ही
नहीं सकता।
भला वृक्ष को
जड़ें दिखायी न
पड़ती हों।
जड़ें तो छिपी
हैं पृथ्वी के
गहन अंधकार
में। वृक्ष तो
अगर झांककर भी
नीचे देखे तो
जड़ें दिखायी
नहीं पड़ेगी।
और वृक्ष अगर
पूछने लगे कि
मेरी जड़ों को
मैं कैसे
खोजूं र कैसे
पहचानूं कि
मेरे पास जड़ें
हैं, तो
तुम क्या
कहोगे कि जड़ें
तो हैं ही, नहीं
तो तू हो ही
नहीं सकता था।
तुम
बोलते हो तो
परमात्मा
बोलता, तुम श्वास
लेते तो
परमात्मा
श्वास लेता, तुम चलते हो
तो परमात्मा
चलता है।
तुमने प्रश्न
पूछा, यह
परमात्मा ने
ही पूछा। यह
प्रश्न
परमात्मा की
ही गहनता से आ
रहा है। यह
जागने के ही
मार्ग पर एक
इशारा है।
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर जागना
चाहता है। तुम
तरकीब खोज रहे
हो, तरकीब
खोजकर तुम
टालोगे कल पर
कि तरकीब तो
कहीं आज हल
नहीं होती।
अगर बात छिपी
है तो समय
लगेगा खोजने
में, समय
व्यतीत होगा,
कल होगी, परसों होगी,
अगले जन्म
में होगी।
अष्टावक्र
कहते हैं, अभी
हो सकती है, यहीं हो
सकती है, इसी
क्षण हो सकती
है, एक
क्षण भी
गंवाने की
जरूरत नहीं।
राज बिलकुल
नहीं है।
अष्टावक्र
की वाणी में
कोई भी राज
नहीं है। कोई
भी इजोटेरिक, कोई
गुप्त छिपाव
नहीं है। सीधी—सीधी
बात है। बात
इतनी है कि
तुम परमात्मा
हो। तुम
परमात्मा
होकर ही हो
सकते हो।
इसलिए
सुननेमात्र
से घटना घट
जाएगी।
फिर
तुम पूछते हो
कि इस महाघटना
के लिए
पूर्वभूमिका
के रूप में
क्या तैयारी
जरूरी है?
तुम
मानोगे नहीं? बिना भूमिका
तैयार किये
तुम मानोगे
नहीं? और
भूमिका की
तैयारी ही तो
कर रहे हो
जन्मों —जन्मों
से। भूमिका
तैयार कहा हो
पाती है? भूमिका
अनावश्यक है। भूमिका
को तैयार करने
में ही तुम
खोए जा रहे हो।
तुम उस बात की
तैयारी कर रहे
हो जो मौजूद
ही है। तुम उस
बात को लाने
की कोशिश कर
रहे हो, जो
आयी ही हुई है।
जिसको जीना
शुरू करना है,
उसे तुम खोज
रहे हो। जो
थाली सामने
रखी है और
भोजन शुरू
करना है, उसके
लिए तुम
बाजारों —बाजारों
में भटक रहे
हो।
पाकशास्त्रों
में खोज कर
रहे हो। भोजन
तैयार है, भोजन
सामने रखा है,
कुछ भी नहीं
करना है, लेकिन
तुम्हारा मन
मानने को राजी
नहीं होता।
कारण
क्या है? ऐसा प्रश्न
क्यूं उठता है?
पूछा है
स्वामी योग चेन्मय
ने। ऐसा
प्रश्न क्यूं
उठता है? ऐसा
प्रश्न इसलिए
उठता है कि
तुमको
श्रवणमात्र
से सत्य का
बोध नहीं होता।
तो तुम सोचते
हो मन में कि
जरूर कहीं कोई
राज होगा।
कहीं कोई
पूर्वश्रइमका
होगी जो मुझसे
नहीं हो पा
रही है। नहीं
तो मुझे
सुननेमात्र
से क्यों नहीं
हुआ? तो अब
अपने अहंकार
को बचाने के
लिए तुम
तरकीबें
खोजते हो। तुम
सोचते हो, कोई
पूर्वभूमिका
होनी चाहिए, कोई छिपी
बात होनी चाहिए।
जनक ने कुछ
तैयारी की
होगी पहले और
मैंने नहीं की,
इतना ही
फर्क है। फर्क
तैयारी का
नहीं है, फर्क
होश का है।
जनक ने
होशपूर्वक
सुना, तुम
बेहोशी में
सुन रहे हो।
जनक ने आंख
खोलकर देखा, तुम आंख बंद
करके देखने की
कोशिश कर रहे
हो। फर्क
तैयारी का
नहीं है, आंख
तुम्हारे पास
उतनी ही है
जितनी जनक के
पास। पलक उठाओ,
तैयारी की
बात मत पूछो।
तैयारी की बात
पूछी तो तुम
फिर प्रयास
में चले गये।
फिर अनायास
संबोधि न घट
सकेगी।
'इस
महाघटना के.....।’
तुम
इसको महाघटना
क्यों कहते हो? इससे
ज्यादा सीधी—साधी
घटना क्या
होगी? जो
है, उसको
जानने से सीधा—साधा
क्या होगा? इसको
महाघटना
क्यों कहते हो?
महाघटना
कहने के पीछे
कारण है।
महाघटना कहकर
तुम कहोगे, अगर अभी
नहीं घट रही
तो हमारा कोई
कसूर थोड़े ही
है, घटना
इतनी महान है!
होते —होते
होगी। करते —करते
घटेगी। श्रम
करेंगे, जनम—जनम
दौड़ेंगे—चलेंगे
तब मंजिल आएगी।
घटना ही इतनी
महान है!! इससे
तुम्हें
दोहरे लाभ हैं,
महाघटना
कहने से। एक
तो आज नहीं
होती, तो
तुम्हें पीड़ा
नहीं होती।
तुम कहते हो, आज हो ही
नहीं सकती। तो
कल तक सोने की
सुविधा मिल
जाती है। कल
होगी तब
देखेंगे। कल
भी तुम इसको
महाघटना
कहोगे, परसों
पर टाल दोगे।
महाघटना कोई
ऐसे थोडे ही
घटती है! जनम—
जनम श्रम करते
हैं तब घटती
है। जन्मों —जन्मों
के श्रम का फल
होती है। ऐसे
थोडे ही घटती
है!
महाघटना
कहकर तुमने एक
तरकीब खोज ली—ऊपर
से तो ऐसा
लगता है कि
महाघटना कहकर
तुमने बड़ी
प्रशंसा की।
लेकिन यह बात
नहीं है, प्रशंसा
नहीं है यह, यह तो इस
घटना का अपमान
हो गया। पूरा
अष्टावक्र का
सारसूत्र
इतना है कि यह
घटना बड़ी —सहज,
स्वाभाविक,
अति साधारण
है। परमात्मा
से साधारण इस
संसार में और
कुछ भी नहीं
है। क्योंकि
परमात्मा
सारे
अस्तित्व की
श्वास है। और
क्या इससे
साधारण होगा?
झरने में
झरना है, वृक्ष
में वृक्ष है,
पक्षी में
पक्षी है
मनुष्य में
मनुष्य है—स्त्री
में स्त्री, पुरुष में
पुरुष, बच्चे
में बच्चा, के में बूढ़ा—परमात्मा
तो सब पर फैला
हुआ स्वाद है।
पापी में
परमात्मा
पापी है और
पुण्यात्मा
में परमात्मा
पुण्यात्मा
है। नर्क में परमात्मा
नारकीय और
स्वर्ग में
स्वर्गीय है।
और क्या
साधारण बात
होगी? छुद्रतम
में वही
विराजमान है
और विराटतम
में वही
विराजमान है।
अणु से अणु
में भी वही और
अनंत से अनंत
में भी वही।
परमात्मा से
ज्यादा
साधारण और
क्या बात होगी,
क्योंकि
परमात्मा
सार्वभौम है।
निर्विशेष है।
यही तो
अष्टावक्र ने
कल कहा—निर्विशेष,
कोई विशेषण
नहीं है। कोई
विशिष्टता
नहीं है।
लेकिन
हम परमात्मा
को ऊपर रखना
चाहते हैं—सबसे
ऊंची चीज। उसी
दुनिया की
श्रृंखला में जहां
धन, पद, प्रतिष्ठा,
इन सबके बाद,
सबके ऊपर
परमात्मा है।
इस तरह हम
सोचते हैं हम
परमात्मा का
बड़ा आदर कर
रहे हैं। हम
परमात्मा के
साथ धोखा कर
रहे हैं।
महाघटना
मत कहो! यह
घटना बड़ी
साधारण है। और
यह घटना ऐसी
है कि घटने
वाली नहीं है, घट चुकी
है। तुम चाहे
जागो और चाहे
तुम न जागो, परमात्मा
तुम्हारे
भीतर
विराजमान है।
तुम चाहे मानो,
चाहे न मानो,
अंगीकार
करो, न
अंगीकार करो,
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर मौजूद है।
तुम्हारी
मौजूदगी उसकी
ही मौजूदगी की
छाया है।
परछाईं। वही
है, तुम तो
केवल परछाईं
हो। जैसे आदमी
धूप में चलता
है तो छाया
बनती। ऐसे
परमात्मा के
चलने से अनेक—
अनेक रूप बनते।
रूप तो परछाईं
है। अरूप की परछाईं
है रूप।
निराकार की
परछाईं है
आकार। शून्य
की परछाईं है
शब्द। शांति
की परछाईं है
संगीत। मूल
दिखायी नहीं
पड़ रहा है, तुम
छाया में उलझ
गये हो। जरा
जागकर, चौंककर,
हिलकर देखो,
तुम पाओगे
तुम मूल हो।
तो
महाघटना तो
कहो मत।
महाघटना कहने
में ही तुमने
तरकीब बना ली—फिर
तैयारी करनी
पड़ेगी, महाघटना कोई
ऐसे थोड़े ही
घट जाएगी। यम,
नियम, आसन,
प्राणायाम .,
प्रत्याहार
और हजार—हजार
तरह के
व्यायाम, फिर
धारणा, ध्यान,
फिर समाधि,
ऐसा अष्टाग
योग साधते —साधते
जनम —जनम
बीतेंगे। यही
तो फर्क है
पतंजलि और
अष्टावक्र का।
पतंजलि में कम
है—साधो, धीरे
— धीरे। इसलिए
तो पतंजलि का
खूब प्रभाव
पडा। सभी को
बात जंची।
अष्टावक्र का
कोई बहुत
प्रभाव नहीं
पडा। बात इतनी
सरल थी कि
अहकारियों को
नहीं जंच सकती
थी। समझना।
अष्टावक्र
की बात
अहंकारी को
नहीं जंच सकती।
क्योंकि
अहंकारी कहता
है, सरल
है! तो सरल में
तो उसका रस ही
नहीं होता।
गौरीशंकर पर
चढ़ने में उसको
रस होता है।
अब कोई पूना
की टेकरी पर
चढ़ने में क्या
रस है! तुम
पूना की टेकरी
पर पढ़ जाओ और
झंडा लगा आओ
और कहो अखबार
वालों से कि
छापो मेरी खबर,
पूना की
टेकरी पर मैं
चढ़ गया और
झंडा भी मैं
लगा आया, हिलेरी
चढ़ गया
गौरीशंकर पर
तो क्यों खबर
छापी, मैंने
भी वही किया!
तो लोग
हंसेंगे, लोग
कहेंगे, इस
टेकरी पर कोई
भी चढ़ जाता, टेकरी पर
चढ़ने में कुछ
रखा नहीं!
गौरीशंकर पर चढ़ी
तो कुछ बात है।
वह महाघटना है।
यह तो कोई
घटना ही नहीं
है। यह तो
बच्चे चढ जाते
हैं। इसमें
क्या सार है?
तो
आदमी नयी—नयी
तरकीबें
खोजता है।
हिलेरी जिस
रास्ते से चढ़ा
था, उस
रास्ते से भी
कोई कभी
पहुंचा नहीं
था गौरीशंकर
तक, वह
पहुंच गया, जिस दिन वह
पहुंच गया, उसी दिन से
पहाड़
चढनेवालों ने
दूसरा रास्ता
खोजना शुरू कर
दिया, जो
उससे भी कठिन
है। अब
उन्होंने
चढ़ाई कर ली।
अब वे पहुंच
गये कठिन
रास्ते से, जिससे
हिएलेरी भी
नहीं पहुंचा
था। पहुंचे
वहीं, लेकिन
अब उनकी बड़ी
प्रशंसा हो
रही है।
क्योंकि
उन्होंने और
भी कठिन मार्ग
चुना जिससे
कोई कभी नहीं
पहुंचा—हिलेरी
भी रहीं
पहुंचा।
जल्दी ही कोई
और तीसरा
मार्ग खोज
लेगा। फिर
हिलेरी चढु—चढकर
पहुंचा था, कोई पागल हो
सकता है घसिट—घसिट
कर गौरीशंकर
पर चढ़ जाए।
क्योंकि घसिट
कर कोई भी
नहीं चढ़ा। या
हो सकता है
कोई योगी
शीर्षासन कर
ले और चढ़ने
लगे सिर के बल।
अहंकार को
हमेशा कठिन
में रस है।
जितना कठिन हो,
उतना रस है।
परमात्मा
सरल है, तो अहंकारियों
को तो रस ही न
रह जाएगा।
परमात्मा
कठिन है, तो
अहंकारी
उत्सुक है।
कठिन में बड़ा
आकर्षण है, चुंबक है।
इसलिए मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम
मंदिर —मस्जिदों
में, गुरुद्वारों
में, तीर्थों
में जिन साधु —संन्यासियों
को पाओगे, जरा
गौर से देखना,
उनमें सौ
में से तुम
निन्यानबे को
महाअहंकारी
पाओगे।
क्योंकि वे
परमात्मा को
खोजने चले हैं।
तुम्हारी तरफ
वे देखते हैं
कि तुम कीड़े —मकोड़े।
क्या कर रहे
हो पर
दुकानदारी कर
रहे हो, नौकरी
कर रहे दफ्तर
में, खेती —बाड़ी
कर रहे—कीड़े —मकोड़े!
परमात्मा को
खोजो, देखो
हमारी तरफ, हम कुछ कर
रहे हैं! तुम
क्या कर रहे
हो? तुम तो
पशु हो, तुम
तो मनुष्य भी
नहीं। क्यों?
क्योंकि
तुम सरल को
खोज रहे हो।
वे कठिन को
खोज रहे हैं।
और मैं तुमसे
कहता हूं,
सरल को खोजने
में जो लग गया,
वही
संन्यासी है।
जिसने कठिन को
खोजने का मोह
छोड़ दिया। यही
त्याग है।
कठिन का त्याग
त्याग है, क्योंकि
कठिन के त्याग
के साथ ही
अहंकार गिर जाता
है। उसकी लाश
हो जाती है।
बिना कठिन के
अहंकार जी ही
नहीं सकता।
कठिन की
बैसाखी लेकर
ही अहंकार
चलता है।
सरल के
साथ अहंकार की
कोई गति नहीं
है। इतना सरल
है परमात्मा
कि कुछ करने
का उपाय नहीं, हुआ ही
हुआ है। इसीलिए
तो अष्टावक्र
कहते हैं, कर्ता
होने से नहीं
पाओगे। सिर्फ
साक्षी होने
से। मौजूद है,
तुम जरा
बैठकर, शात
भाव से, आंख
खोलकर देख तो
लो। कहां दौड़े
चले जाते हो? किस आप। — धापी
में लगे हो?'
महाघटना
मत कहो।
महाघटना कहकर
तुमने पूर्वभूमिका
बना ली, पूर्वभूमिकाओं
के लिए इस
महाघटना के
लिए पूर्वभूमिका
के रूप में
क्या तैयारी
जरूरी है?'
अगर
तैयारी जरूरी
है, तो
अष्टावक्र
गलत हो गये।
अगर पूर्वभूमिका
जरूरी है, तो
अष्टावक्र
गलत हो गये।
भूमिका की कोई
आवश्यकता ही
नहीं है। तुम
वहीं खड़े हो, सीढ़ी लगानी
नहीं है। तुम
वहीं खड़े हो।
तुम जहां खड़े
हो, वहीं
परमात्मा है।
यह इतना क्रांतिकारी
उदघोष है कि
परमात्मा सरल
है, सुगम
है, मिला
ही हुआ है।
मगर
तुम्हारी
अड़चन भी मैं
समझता। जब तुम
यह बात सुनते
हो तो तुम
कहते हो कि
होगा, मगर
हमें मिल
क्यों नहीं
रहा है? हमें
नहीं मिल रहा
है तो जरूर कोई
तरकीब होगी जो
छिपायी जा रही
है, बतायी
नहीं जा रही।
कोई तरकीब
होगी, कोई
कुंजी होगी, कोई सीढ़ी
होगी जो हम
नहीं लगा रहे
हैं, नहीं
तो हमको मिल
क्यों नहीं
रहा।
तुम एक
बात नहीं
देखना चाहते
कि तुम आंख
बंद किये बैठे
हो। तुम अंधे
बने बैठे हो।
तुम सोए हो।
तुम मूर्च्छित
हो। यह बात
तुम स्वीकार
नहीं करना
चाहते। तुम यह
बात स्वीकार
करो कि मैं
मूर्च्छित
हूं तो अहंकार
को पीड़ा होती
है। कोई सीढ़ी
होगी, जो
मुझे नहीं
मिली है, होगी
कहीं, खोज
लूंगा—मुझमें
कोई कमी नहीं
है, सीढ़ी
की कमी है।
मैं तो ठीक ही
हूं। कुछ
लोगों को सीढ़ी
मिल गयी, मुझे
नहीं मिली है,
बस इतना ही
फर्क है। जनक
में और तुममें
सीडी का फर्क
है, तुम
सोचते हो।
सीढ़ी तो बाहर
की बात हुई।
परिस्थिति का
फर्क है, तुम
सोचते हो।
तुम
अगर गरीब के
घर में पैदा
हुए हो और अगर
अमीर के घर
में कोई पैदा
होकर
ज्ञानवान हो
जाए तो तुम
कहोगे, क्या करें, हम गरीब के
घर में पैदा
हुए, इसलिए
ज्ञानवान
होने की
सुविधा नहीं
मिली; वैसे
तो हम भी
ज्ञानवान हो
सकते थे, मगर
यह सुविधा
नहीं मिली।
तुमने सुविधा
पर बात टाल दी।
तुमने सीधी
बात न ली कि
मुझमें कोई
कमी हो सकती
है। सभी
धनियों के घर
में तो
ज्ञानवान पैदा
नहीं होते! और
सभी गरीब भी
ज्ञानहीन
नहीं रह जाते।
लेकिन तुमने
बात टाल दी।
तुमने देखा, जब भी कोई
आदमी सफल हो
जाता है, तुम
कोई—न—कोई
बहाने खोजते
हो कि सफल
क्यों हो गया।
तुम पता लगाते
हो कि रिश्वत
दे दी होगी।
कि रिश्तेदार
मिनिस्ट्री
में होंगे। जब
तुम सफल होते
हो, तब तुम
कभी यह बात
नहीं पता
लगाते कि
मैंने किसको
रिश्वत दी और
कौन मेरा
रिश्तेदार
मिनिस्ट्री
में है! जब तुम
सफल होते हो
तब तुम सफल
होते हो। जब
दूसरा सफल
होता है, तो
सब भाई — भतीजा
बाद है। जब
दूसरा सफल
होता है, तो
रिश्वत खिला
दी।
एक
महिला मेरे
पास आयी, उसका बेटा
तीसरी बार फेल
हो गया
परीक्षा में।
तो वह कहने
लगी कि आप कुछ
करिये। क्या
करना है? कहने
लगी कि ये सब
शिक्षक इसके
पीछे पड़े हैं।
शिक्षक इसके
पीछे पड़े हैं!
वे इसको पास
ही नहीं होने
देते। और भाई—
भतीजावाद चल
रहा है। अपने
अपनों को पास
कर रहे हैं।
और रिश्वतखोरी
चल रही है और
हमारे पास तो
देने को कुछ
है नहीं। वह
स्त्री मुझसे
कहने लगी कि
प्रतिभा का तो
कोई मूल्य ही
नहीं है। वह
बेटा मैं
जानता हूं कि
उनकी प्रतिभा
कैसी है! मगर
तीन—चार साल
धक्के खाते —खाते
आखिर वह भी
मैट्रिक पास
हो गया। जब वह
पास हो गया, तो मैंने
उससे पूछा, कहो, किसको
रिश्वत
खिलायी? कौन
भाई— भतीजावाद
का माननेवाला
मिल गया? उसने
कहा, कैसी
बातें कर रहे
आप, वह
लड़का तो
प्रतिभाशाली
है ही, चार—पांच
साल उसको
भटकाया इन
लोगों ने। वह
तो कभी का पास
हो जाता। अब
नहीं कोई भाई —
भतीजावाद है!
अब कोई शिक्षक
किसी तरह की
रिश्वत नहीं
ले रहा है!
तुम
खयाल करना।
जनक को हो गया
सुनकर, तुम्हें
नहीं हो रहा
सुनकर, तो
एक ही बात हो
सकती है, जरूर
कोई तरकीब
होगी। या तो
जनक ने पहले
कुछ तैयारी की
है, कुछ
इंतजाम कर
लिया है कि
सुनते से ही
जाग गये।
हममें और जनक
में फर्क क्या
है? हम क्यों
नहीं जाग रहे?
फर्क इतना
ही है कि तुम
सुन ही नहीं
रहे। जनक ने
सुना और जाग
गये। तुम सुन
ही नहीं रहे।
शायद कारण यह
होगा कि तुम
जागने के लिए
इतने उत्सुक
हो कि तुम सुन
ही नहीं रहे।
जब मैं तुमसे
बोल रहा हूं
तब भी तुम
अपना गणित बिठाते
रहते हो—इसमें
क्या—क्या करने
जैसा है? तुम
सोचते रहते
भीतर— भीतर कि
ही, यह बात
ठीक है, नोट
कर लो, याद
करके रख लो, इसको करके
देखेंगे। तुम
जब सुन रहे हो
तब सुन नहीं
रहे, तब भी
तुम गणित बिठा
रहे हो। तभी
तुम चूकते चले
जा रहे हो।
जनक ने
सिर्फ सुना।
उसने कोई गणित
न बिठाया।
उसने ऐसे सुना
जैसे कोई
पक्षियों के
गीत को सुनता
है। उसने ऐसे
सुना जैसे कोई
संगीत को
सुनता है। तुम
जब संगीत को
सुनते हो तब
तुम क्या
सुनते हो? न तो कोई
अर्थ लगाते, न व्याख्या
करते, न
कहते कि ही, इससे मैं
राजी हूं इससे
मैं राजी नहीं
हूं; यह
मेरे मन के
अनुकूल, यह
मेरे मन के
अनुकूल नहीं;
यह मेरे
शास्त्र के
अनुसार, यह
मेरे शास्त्र
के अनुसार
नहीं, संगीत
सुनते वक्त
तुम लवलीन हो'
जाते हो।
तुम यह सोचते
नहीं। संगीत
कोई सिद्धात
तो नहीं है।
संगीत तो एक
तरंग है, एक
रस की धार है।
जनक ने
ऐसे सुना जैसे
कोई संगीत को
सुनता है। तुम
ऐसे सुनते हो
जैसे कोई
विज्ञान को
सुन रहा हो।
तो हिसाब
लगाते रहते हो।
तुम्हारे
सुनने में भर
भूल है। कोई
पूर्वभूमिका
की तैयारी
नहीं है। न
कोई जरूरत है।
तुम्हारे
सुनने में भूल
है, तुम
सुन नहीं रहे।
सुनते वक्त
तुम्हारे मन
में हजार—हजार
विचार
चल रहे हैं, योजनाएं
चल रही हैं।
तुम कहीं
पहुंचने को
आतुर हो। तुम
कुछ होने के
लिए उत्सुक हो।
तो जो आदमी भी
कुछ बनने के
लिए, होने
के लिए आतुर
है, वह
अष्टावक्र की
बात न सुन
पाएगा।
क्योंकि
अष्टावक्र कह
रहे हैं, कुछ
होने को नहीं
है, कुछ
जाने को नहीं
है, कहीं
पहुंचना नहीं
है। कोई मंजिल
नहीं है। तुम
जहां हो, बस
यही जगह है।
कहीं और कोई
जगह नहीं है।
इसी क्षण में
शात, मौन
जाग जाओ, तृप्ति
बरस उठेगी।
'क्या
बिना किसी भी
प्रकार की
प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष
तैयारी के
तत्काल—संबोधि
घटना संभव है?'
तुम्हारा
मन कैसे—कैसे
गणित बिठाए
चला जाता है।
'क्या
बिना किसी भी
प्रकार की
कोई—न—कोई
तो तरकीब होगी, जो तुमसे
छिपायी जा रही
है। जिसके
कारण तुम
ज्ञान को
उपलब्ध नहीं
हो रहे हो।
'क्या
बिना किसी भी
प्रकार की
इन्हीं
बातों के कारण
तुम्हें उन
लोगों की बातें
ठीक लगती हैं
जो तुम्हें
तैयारी बताते
हैं। वह कहते
हैं, देखो,
पहले आचरण
सुधारो। बात
जंचती है कि
आचरण न
सुधारेंगे तो
भगवान कैसे
मिलेगा? जैसे
भगवान के
मिलने से आचरण
के सुधारने का
कोई भी संबंध
हो सकता है! यह
तो ऐसे ही हुआ
कि तुम संगीत
सुनने जाओ और
तुम्हें
संगीत में रस
न आए तो कोई
कहे, पहले
आचरण सुधारो।
पहले जाकर
आचरण ठीक करके
आओ, तब
संगीत समझ में
आएगा। जैसे कि
आचरण से संगीत
के समझने का
कोई भी संबंध
हो, कोई भी
लेन—देन हो!
यह बात
जरूर सच है कि
परमात्मा को
जानने से आचरण
सुधर जाता है, लेकिन
आचरण सुधरने
से परमात्मा
के मिलने का कोई
संबंध नहीं है।
यह बात जरूर
सच है कि अगर
कोई व्यक्ति
संगीत में
रसपूर्ण हो
जाए, तो
उसके जीवन में
क्रांति घटित
होती है, सब
बदलता है, क्योंकि
संगीत इतनी
बड़ी महाक्रांति
है। अगर तुम
संगीत को
सुनने—समझने
में समर्थ हो
गये, तो
तुम्हारे
जीवन में
रूपांतरण
होने शुरू होंगे।
तुम्हारा
क्रोध
तिरोहित होने
लगेगा।
क्योंकि जो
संगीत में डूबा,
अब क्रोध
में न डूब
सकेगा, क्योंकि
क्रोध तो
विसंगीत है।
जो संगीत में डूबा,
अब धन में
इसे बहुत रस न
आएगा।
क्योंकि धन तो
शोरगुल की
दुनिया की चीज
है। जो संगीत
में डूबा, अब
इसे शांति में
रस आएगा।
क्योंकि
संगीत करता ही
क्या है? जब
तुम संगीत को
सुनते हो तब
तुम्हारी
विचार की तरंगें
सो जाती हैं
और भीतर एक
शात आकाश—जरा
भी
मेघाच्छन्न
नहीं, सब
मेघ, सब
बादल चले गये —एक
शून्य
नीलाकाश फैल
जाता है।
जब
तुम्हें शांति
का रस संगीत
से मिलेगा, तो तुम
धीरे — धीरे
पाओगे कि शांति
और संगीत में
एक अनिवार्य
संबंध है। जब
तुम शात हो
जाओगे, तभी
संगीत बहने
लगेगा। फिर तो
जरूरत भी नहीं
है कि किसी
वीणावादक को खोजो।
जहां —शात हुए,
वहीं वीणा
भीतर की बजने
लगेगी। सच तो
यही है कि
बाहर की वीणा
में असली
संगीत नहीं है,
बाहर की
वीणा सुनते —सुनते
तुम्हें भीतर
की वीणा सुनायी
पड़ जाती है, संगीत वहीं
है। बाहर की
वीणा तो केवल
निमित्तमात्र
है।
'क्या
बिना किसी
प्रकार की
फिर मन
वकालत करता है, न होगा
प्रत्यक्ष, तो कोई
अप्रत्यक्ष
तैयारी होगी।
सीधी—सीधी ऊपर
से न
दिखायी पड़ती
होगी तो छिपी—छिपी
कोई तैयारी
होगी। मगर कोई
प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष
तैयारी के
बिना क्या
तत्काल—संबोधि
घटना संभव है? वही तो
अष्टावक्र का
पूरा—का—पूरा
उपदेश है।
संभव नहीं है,
बस वही केवल
संभव है। और
किसी तरह
संबोधि घटती
ही नहीं। जो
हजारों तरह के
उपाय करने के
बाद भी किसी
दिन संबोधि को
पहुंचते हैं,
उस दिन पाते
हैं कि यह तो
कभी भी घट
सकती थी अगर
सुन लिया होता।
सुना नहीं, तो नहीं घटी।
मैंने
तुम्हें बार—बार
कहा है कि
बुद्ध कहते
हैं, एक
तो ऐसा घोडा
होता है कि
मारो —मारो तो
मुश्किल से
चलता है।
दूसरा ऐसा
घोड़ा होता है
कि कोड़ा
फटकासे —मारने
की जरूरत नहीं
पड़ती—और चलता
है। और तीसरा
ऐसा घोड़ा होता
है कि कोड़ा
फटकारने की भी
जरूरत नहीं
होती, सिर्फ
कोड़े की
मौजूदगी हो तो
चलता है। और
चौथा ऐसा भी
घोड़ा होता है
कि मौजूदगी भी
उसके लिए
अपमानजनक हो
जाएगी, कोड़े
की छाया काफी
है। संभावना
काफी है।
मैं एक
पागल के संबंध
में पढ रहा था।
वह आदमी एक
लेखक था। बड़ा
लेखक था और
पागल हो गया।
पागलखाने में
बंद रहा, कोई तीन साल
इलाज चला, लेकिन
कोई आसार न
दिखायी पड़ते
थे। तीन साल
के बाद अचानक
उसने कहा कि
कागज—कलम लाओ,
मेरे मन में
लिखने का भाव
हो रहा है। तो
उसके
चिकित्सक
बहुत प्रसन्न
हुए।
उन्होंने
सोचा कि कुछ होश
इसे वापिस आ
रहा है। यह
लौट रहा है।
अब इसको अगर
इतना भी खयाल
आ गया कि मैं
लेखक हूं और
मुझे कुछ
लिखना है, तो
अब इसके
स्वस्थ होने
की संभावना है।
वह तो लेकर
कागज—कलम बैठ
गया।
चिकित्सक तो
बड़े प्रसन्न
हुए क्योंकि
अब उसने सब जो
पागलपन था सब
छोड़ दिया।
शोरगुल मचाता
था, नाचता —कूदता
था, चीखता—चिल्लाता
था, सब बंद
हो गया। वह तो
बस सुबह से
उठे तो अपने
कागज —कमल
लेकर लिखने
में लग जाए।
उसने पांच सौ
पेज लिख डाले।
और इन दिनों
में —महीनों
तक यह काम
जारी रहा—वह
बिलकुल शात हो
गया।
चिकित्सकों
ने तो समझा कि
यह आदमी अब
ठीक हो गया, इसका कोई
पागलपन शेष
नहीं रहा।
जब
किताब पूरी हो
गयी तो उस
पागल ने अपने
प्रमुख
चिकित्सक को
कहा कि आप
मेरा उपन्यास
पढ़ना चाहेंगे? जरूर, उसने
कहा। वह देखना
भी चाहता था
कि क्या लिखा
है। शुरू किया
उसने पढ़ना।
पहली लकीर थी
कि एक सेनापति
छलांग लगाकर
अपने घोडे पर
चढ़ा और बोला—चल
बेटा, चल
बेटा, चल
बेटा! और फिर
पांच सौ पेज
तक यही था—चल
बेटा, चल
बेटा! वह तो
घबड़ा गया, पन्ने
उल्टे, मगर
चल बेटा! पांच
सौ पेज! वह
भागा हुआ आया,
उसने कहा कि
यह मामला क्या
है, यह किस
प्रकार का
उपन्यास है? उसने कहा, क्या कहो, घोड़ा जिद्दी,
करो क्या!
घोड़ा चले ही
नहीं।
सेनापति कहता
रहा—चल बेटा।
आखिर मैं भी
थक गया तो
मैंने फिर
उपन्यास समाप्त
कर दिया।
तो कुछ
ऐसे घोड़े भी
हैं कि पांच
सौ पेज तक भी
अगर तुम चल
बेटा, चल
बेटा कहो, न
चलें। न तो
कोई
प्रत्यक्ष
तैयारी की
जरूरत है, न
कोई
अप्रत्यक्ष
तैयारी की जरूरत
है। सिर्फ बोध,
सिर्फ समझ
मात्र काफी है।
और जिन्होंने
बहुत श्रम से
पाया है, उन्होंने
भी पाने के
बाद पाया कि
यह तो बिना श्रम
के मिल सकता
था, हमने
श्रम व्यर्थ
ही किया। इसका
कोई संबंध
श्रम से है ही
नहीं।
बुद्ध
को जब मिला और
जब लोगों ने
पूछा कि आपको कैसे
मिला, तो
बुद्ध ने कहा,
मत पूछो।
क्योंकि
जो मैंने किया, उससे
मिला ही नहीं।
यह तो मुझे
बिना किये भी
मिल सकता था।
लेकिन चूक
होती रही, क्योंकि
मैं खोजता रहा।
खोजने की वजह
से चूकता रहा।
जिस दिन मैंने
खोज छोड़ दी और
बोधि तले, बोधिवृक्ष
के नीचे बैठ
गया, सब
खोज छोड़कर, उसी क्षण हो
गया।
जब
बुद्ध वापिस
अपने घर आए
बारह वर्ष के
बाद तो उनकी
पत्नी ने पूछा
कि मैं एक ही
प्रश्न पूछना
चाहती हूं और
आप सचाई से
जवाब दे देना।
जो आपको महल
के बाहर जाकर
मिला जंगल में, क्या
यहीं नहीं मिल
सकता था अगर
आप यहीं रहे होते
तो? अगर घर
में ही बने
रहते तो मिल
सकता था या
नहीं? बुद्ध
ने कहा, मिल
सकता था।
यह
समझने की बात
है कि बुद्ध
ने कहा, यहां भी
मिलू सकता था।
जाना
अनिवार्य
नहीं था। गया,
यह दूसरी
बात है। गया, वह मेरी भूल
थी। क्योंकि
परमात्मा अगर
कहीं मिल सकता
है तो यहां भी
मिल सकता है।
कोई खास
वटवृक्ष के
नीचे ही थोडे
परमात्मा
बसता है।
झोपडे में ही
थोडे बसता है,
जंगल में ही
थोड़े बसता है।
ऐसी कोई जगह
कहां है जहां
परमात्मा न हो?
ऐसी कोई जगह
है, जहां
परमात्मा न हो
गुम तो फिर
सभी जगह मिल
सकता हैं। ऐसा
समझो कि मिला
ही हुआ है।
अष्टावक्र
का सार यही है
कि परमात्मा
तुम्हारा
स्वभाव है।
तुम्हारे
स्वयं का छंद, तुम्हारे
भीतर उठने
वाला गीत, तुम्हारी
सुगंध।
सूफियों
में एक कहानी
है, एक
फकीर ने
स्वप्न में
देखा कि
परमात्मा
उसके सामने
खड़ा है और
उससे कह रहा
है कि तेरी
प्रार्थनाएं
पहुंच गयीं, तेरी
अर्चनाएं
पहुंच गयीं, तेरी
उपासनाएं
पहुंच गयीं, तू मांग ले
क्या मांगना
है। ले यह
तलवार लेता है?
उस फकीर ने
कहा, तलवार
का मैं क्या
करूंगा प्रभु?
पर
परमात्मा ने
कहा, यह
तलवार ऐसी
तलवार है कि
तू सारे संसार
को जीत सकता
है। इस तलवार
का गुण यह है
कि जीत
सुनिश्चित है।
सोच ले। वह फकीर
कहने लगा, मेरे
पास ज्यादा
नहीं है, थोडा
है, लेकिन
वह काफी तकलीफ
दे रहा है, आप
क्यों मेरे
पीछे पड़े हैं?
ऐसे ही परेशान
हूं, और
सारी दुनिया
का उपद्रव मैं
क्यों लूं? तलवार आप
अपनी खुद ही
रखो, मुझे
नहीं चाहिए।
तो परमात्मा
ने अपनी
अंगूठी उसे
निकाल कर दी और
कहा कि देख, यह हीरा
देखता है, यह
संसार का सबसे
बडा हीरा है, यह तेरे पास
होगा तो तू
सबसे बड़ा धनी
हो जाएगा, यह
ले ले। उसने
कहा, यह
मैं क्या
करूंगा न:
हीरे को
खाऊंगा कि
पीयूंगा कि
पहनूंगा, कि
क्या करूंगा?
पत्थर देकर
मुझे आप उलझाए
मत। किसको
धोखा देने चले
हैं? मैं
कोई बच्चा
नहीं हूं। उमर
ऐसे ही नहीं
गंवायी है, यह बाल ऐसे
ही धूप में
सफेद नहीं हुए
हैं, किसको
धोखा देने चले
हैं?
तो
परमात्मा ने
कहा, क्या
तुझे फिर
चाहिए? यह
मेरे पीछे
अप्सरा खड़ी है,
स्वर्ण की
इसकी देह है
और यह सदा
युवा रहेगी, कभी की न
होगी, इसे
ले ले। उसने
कहा, जिनकी
देह स्वर्ण की
नहीं है और जो
आज नहीं कल की
हो जाएंगी और
मर जाएंगी, जो
क्षणभंगुर
हैं, उनसे
ही काफी पीड़ा
मिलती है, यह
सदा के लिए
उपद्रव हो
जाएगा।
क्षणभंगुर से
तो छुटकारा भी
हो जाता है कि
चलो, कभी
तो अंत आ
जाएगा, इसका
तो अंत ही न
आएगा। आप कहते
हैं, मेरी
प्रार्थनाएं
पहुंच गयीं, आप मुझ पर
नाराज हैं या
क्या बात है, मुझे क्यों
झंझट में
डालना चाहते
हैं? मुझ
गरीब आदमी को
छोड़ो। इससे तो
बेहतर कि अगर
यही
प्रार्थनाओं
का फल होता हो
तो मैं
प्रार्थनाएं
करना बंद कर
दूं।
तो
परमात्मा ने
कहा, फिर
तू क्या चाहता
है? कुछ भी
मांग ले, क्योंकि
बिना मांगे तो
तुझे न जाने दूंगा।
तो परमात्मा
के पास एक
छोटा—सा पौधा
गुलाब का रखा
था, उसने
कहा, यह
मुझे दे दें।
तो परमात्मा
ने कहा, इसे
तू क्या करेगा?
यह फूल सुबह
खिलेगा, सांझ
मुरझा जाएगा।
तो उसने कहा, इससे मुझे
जीवन की खबर
मिलती रहेगी,
कि सुबह
खिला, सांझ
मुरझा गया। और
इसकी सुगंध
मुझे याद
दिलाती रहेगी
कि ऐसी ही
सुगंध मैं भी
अपने भीतर
छिपाए हूं,
हे प्रभु, कब
प्रगट होगी? इसके
सौंदर्य से
मुझे एक खयाल
आता रहेगा कि
जब फूल इतना
सुंदर है, तो
मनुष्य की
आत्मा कितनी
सुंदर न होगी!
कब मुझे उसका
दर्शन होगा?
परमात्मा
तुम्हारी
सुगंध है, जैसे
गुलाब की
सुगंध।
परमात्मा कोई
वस्तु नहीं है
जिसे तुम
खोजने जाते हो,
परमात्मा
तुम्हारी
सुगंध है। जब
तुम शात होकर
अपने
नासापुटों को
उसकी तरफ उन्मुख
करते हो, जब
तुम अपनी आंखें
भीतर मोड़ते हो,
जब तुम अपने
हाथ भीतर
फैलाते हो, तब तुम
अचानक पाते हो
कि मिल गया, मिल गया। और
तब तुम ऐसा
नहीं पाते कि
तुम्हें जो
मिला है उससे
तुम अलग हो, तब तुम ऐसा
ही पाते हो कि
अपने से मिलन
हो गया—आत्म—मिलन।
नहीं, कोई
तैयारी नहीं
है। न
प्रत्यक्ष, न
अप्रत्यक्ष।
दूसरा
प्रश्न :
अष्टावक्र
की पूरी
संहिता में
कहीं भी प्रेम
का जिक्र नहीं
है। लेकिन
आपकी महागीता
में साक्षी के
साथ सदा प्रेम
की धारा बहती
मिलेगी। ऐसा
क्यों? क्या साक्षी
और प्रेम के
बीच कोई आंतरिक
संबंध है?
निश्चित
ही। प्रेम है
साक्षी का
संगीत। प्रेम
है साक्षी की
सुवास। जब कोई
साक्षी हो जाता
है तो ही
प्रेम झरता है।
निश्चित ही
अष्टावक्र ने
इस प्रेम की
कोई बात नहीं
की— जानकर। यह
जानकर कि तुम
जिसे प्रेम
कहते हो, कहीं तुम
भूल से उसी को
न समझ लो।
इसलिए
अष्टावक्र ने
साक्षी की बात
कही, प्रेम
की बात छोड़ दी।
बीज की बात
कही, वृक्ष
की बात कही, फल की बात
छोड़ दी—फल तो
आएगा। तुम बीज
बोओ, वृक्ष
संभालो, पानी
दो, बागवानी
करते रहो, फल
तो आएगा। जब
आएगा तब आ
जाएगा, उसकी
क्या बात करनी
है।
इसलिए
जानकर
अष्टावक्र ने
प्रेम की बात
छोड़ दी।
क्योंकि
प्रेम की बात
करने का एक
खतरा सदा से है
और वह खतरा यह
है कि तुम भी
प्रेम करते हो, ऐसा तुम
मानते हो।
तुमने भी एक
तरह का प्रेम
जाना है, प्रेम
शब्द से कहीं
तुम यह न समझ
लो कि तुम्हारा
प्रेम और
अष्टावक्र का
प्रेम एक ही
है। इस खतरे
से बचने के
लिए
अष्टावक्र ने
प्रेम की बात
नहीं की।
जानकर छोड़ दी।
मैं
जानकर नहीं
छोड़ रहा हूं।
क्यों? क्योंकि एक
दूसरा खतरा हो
गया है। वह
खतरा यह हुआ
कि चूंकि
अष्टावक्र ने
प्रेम की बात
नहीं की, न
मालूम कितने
लोग खड़े हो
गये
जिन्होंने
समझा कि प्रेम
पाप है। न—मालूम
कितने लोग खड़े
हो गये
जिन्होंने
कहा कि जिसको
साक्षी होना
है, उसको
तो प्रेम को जड़मूल
से काट डालना
होगा। यह
दूसरी
भ्रांति हो
गयी।
अष्टावक्र
ने एक भ्रांति
बचायी थी कि
कहीं तुम
तुम्हारे
कामवासना से
भरे हुए प्रेम
को प्रेम न
समझ लो, तो दूसरी
भांति हो गयी।
आदमी कुछ ऐसा
है कि कुएं से
बचाओ तो खाई
में गिरेगा।
मगर गिरेगा।
बिना गिरे न
रहेगा। एक
भांति से बचाओ
दूसरी
भ्रांति बना
लेगा।
क्योंकि बिना
भ्रांति के
आदमी रहना ही
नहीं चाहता।
भ्रांति में
उसे सुख है।
तो संसारी
कहीं भटक न
जाए, वह यह
न समझ ले कि
मेरा प्रेम ही
वह प्रेम है
जिसकी
अष्टावक्र
बात कर रहे
हैं, ऐसी
भ्रांति न हो,
अष्टावक्र
प्रेम के
संबंध में
नहीं बोले।
लेकिन
अष्टावक्र को
यह खयाल न रहा
कि इस संसार
में संन्यासी
भी हैं, जो
अनुकरण करने
में लगे हैं।
जो नकलची हैं,
कार्बन
कापी हैं।
उन्होंने
देखा कि
साक्षी में तो
प्रेम की बात
ही नहीं, तो
प्रेम को
जडुमूल से काट
दो। प्रेमशून्य
हो जाओ तब
साक्षी हो
सकोगे। यह और भी
खतरनाक
भ्रांति है, इसलिए मैं
जानकर प्रेम
को जोड़ रहा
हूं।
मेरे
देखे पहला
खतरा इतना
बुरा नहीं है।
क्योंकि तुम
जिसे प्रेम
कहते हो, माना कि वह
पूरा—पूरा
प्रेम नहीं है,
लेकिन कुछ
झलक उसमें उस
प्रेम की भी
है जिसकी साक्षी
की स्थिति में
अंतिम रूप से
प्रस्फुटना होती
है। जो विकसित
होता है आखिरी
क्षण में उसकी
कुछ झलक
तुम्हारे
प्रेम में भी
है। माना कि
मिट्टी और कमल
में क्या जोड़
है, लेकिन
जब कमल खिलता
है तो मिट्टी
के रस से ही खिलता
है। ऐसे कमल
और मिट्टी को,
दोनों को
रखकर देखो तो
कुछ भी समझ
में नहीं आता
कि इनमें क्या
संबंध हो सकता
है! लेकिन सब
कमल मिट्टी से
ही खिलते हैं,
बिना
मिट्टी के न
खिल सकेंगे।
फिर भी मिट्टी
कमल नहीं है।
और ध्यान रहे
कि मिट्टी में
कमल छिपा पड़ा
है।
प्रच्छन्न है।
गुप्त है।
प्रगट होगा।
तुम जिसे
कामवासना
कहते हो, उसमें
परमात्मा का
कमल छिपा पड़ा
है। मिट्टी है,
कीचड़ है
तुम्हारी
कामवासना, बिलकुल
कीचड़ है, बदबू
उठ रही उससे, लेकिन मैं
जानता हूं कि
उसी से कमल भी
खिलेगा।
तो
अष्टावक्र ने
एक भूल से
बचाना चाहा कि
कहीं तुम कीचड़
को ही कमल न
समझ कर पूजा
करने लगो—बड़ी
उनकी अनुकंपा
थी—लेकिन तब
कुछ लोग पैदा
हुए, उन्होंने
कहा कि कीचड़
तो कमल है ही
नहीं इसलिए
कीचड़ से छुटकारा
कर लो। कीचड़
से छुटकारा कर
लिया, कमल
नहीं खिला, क्योंकि
कीचड़ के बिना
कमल खिलता
नहीं। वह
दूसरी गलती हो
गयी जो बड़ी
गलती है। पहली
गलती से
ज्यादा बड़ी
गलती है।
क्योंकि पहली
गलती वाला तो
शायद कभी न
कभी कमल तक पहुंच
जाता—कीचड़ तो
थी, संभावना
तो थी, कीचड़
में छिपा हुआ
कमल का रूप तो
था; प्रगट
नहीं था, अप्रगट
था, धुंधला—
धुंधला था, था तो; खोज
लेता, टटोल
लेता—लेकिन
जिस व्यक्ति
ने प्रेम की
धारा सुखा दी,
कीचड़ से
छुटकारा पा
लिया, उसके
जीवन में तो
कमल की कोई
संभावना न रही।
पहले के जीवन
में संभावना
थी, दूसरे
के जीवन में
संभावना न रही।
साक्षी
का फल प्रेम
है। मैं
तुम्हें
दोनों को साथ —साथ
देना चाहता
हूं। मैं
तुम्हें याद
दिलाना चाहता हूं
कि तुम्हारा
प्रेम, प्रेम नहीं
है, और अभी
प्रेम को
यात्रा लेनी
है। तुम्हारे
प्रेम को अभी
और विकास लेना
है, तुम्हारे
प्रेम से अभी
और— और फूल
खिलने हैं, तुम अपने
प्रेम पर रुक
मत जाना।
लेकिन तुमसे
मैं यह भी
कहना चाहता
हूं कि तुम्हारे
प्रेम को काट
भी मत डालना, क्योंकि वह
जो होनेवाला
है, इसमें
ही छिपा है।
वह वृक्ष इसी
बीज में छिपा
है।
बीज
में वृक्ष के
दर्शन किसको
होते हैं? तुम्हें
भी नहीं होते
अपने प्रेम
में परमात्मा
के दर्शन।
लेकिन जब
तुम्हें
परमात्मा के
दर्शन होंगे,
तब तुम
पहचान लोगे कि
अरे, जिसको
मैं प्रेम
कहता था उसमें
भी धुंधली—
धुंधली छाया
यही थी। जब
तुमने अपनी
पत्नी को
प्रेम किया है,
या अपने
बेटे को, या
अपने पति को, या अपने
मित्र को, तब
तुमने एक
धुंधली छाया
परमात्मा की
देखी। बड़ी
धुंधली है
छाया, बहुत
धुंआ है और
बीच की ज्योति
दिखायी नहीं
पड़ती, खोयी—खोयी
सी है। लेकिन
कितना ही धुंआ
हों—लेकिन
पुराने
तर्कशास्त्र
के ग्रंथ कहते
हैं, जहां —जहां
धुंआ वहां —वहां
अता—तो कितना
ही धुंआ हो, धुएं से एक
तो पक्की बात
होती है सबूत
कि आग होगी।
बिना आग के धुंआ
तो नहीं हो
सकता। यह
तुमने खयाल
किया, आग
हो सकती है
बिना धुएं के—इतना
प्रज्वलित
अंगारा हो
सकता है कि धुंआ
न हों—अता हो
सकती है बिना
धुएं के, धुंआ
नहीं हो सकता
बिना आग के।
तो जहां —जहां धुंआ
वहा—वहां आग।
जहां —जहां
काम वहां —वहा
राम।
तुम्हारे
जीवन में बड़ा धुंआ
है, माना।
लेकिन इसी.
धुएं में कहीं
आग छिपी पडी
है। इस धुएं
को इशारा समझो।
इस धुएं को
इंगित समझो।
इस धुएं का
सहारा पकड़कर
आग को खोज लो।
इसलिए मैं
साक्षी की बात
करता हूं और
प्रेम की। मैं
दोनों की साथ —साथ
बात करता हूं।
तुम्हें
दोनों ही
बातों के
प्रति सजग
रहना है —साक्षी
को जगाना है
और प्रेम को
बचाना है। अगर
प्रेम को खोकर
साक्षी बचा
लिया तो तुम
रूखे —सूखे
मुर्दा हो
जाओगे।
तुम्हारी शांति
मरघट की होगी,
जीवंत न
होगी। और
तुम्हारा
जीवन का सत्य
बड़ा मुर्दा, सूखा —साखा
होगा। उसमें
रसधार न बहेगी।
तुम्हारा
जीवन का सत्य
मरुस्थल जैसा
होगा। उसमें
कोई फूल न
खिलेंगे।
तुम्हारी
वीणा टूट
जाएगी। भला
तुम शात हो
जाओ, लेकिन
तुम्हारी शांति
में कोई संगीत
का अवतरण न
होगा। यह पाना
न हुआ, चूकना
हो गया। संसार
में चूके, अब
संन्यास में
चूके। तुम
चूकते ही रहे।
इसलिए
मैं कहता हूं, तुम
दोनों को
संभाल लेना।
प्रेम को खोना
मत और साक्षी
को संभालना।
साक्षी और
प्रेम साथ —साथ
संतुलित होते
चले जाएं तो
तुम्हारे
जीवन में
समाधि फलेगी
और ऐसी समाधि
जो मरुस्थल की
न होगी, जिसमें
हजारों कमल
खिलेंगे। ऐसी शांति
जो मरघट की न
होगी, जीवंत,
पुलकित, आनंदित।
एक ऐसा शून्य
जो पूर्ण से
भरा होगा।
फिर
चाहे तुम
साक्षी के
मार्ग से चलो—साक्षी
का मार्ग यानी
ध्यानी का
मार्ग, प्रेम का
मार्ग यानी
भक्ति का
मार्ग—चाहे
तुम किसी भी
मार्ग से चलो,
दूसरे को
बिलकुल छोड़ मत
देना, भूल
मत जाना।
प्रेम के
मार्ग पर
साक्षी को
छाया की तरह
मौजूद रहने
देना। ध्यान
के मार्ग पर
प्रेम को छाया
की तरह मौजूद
रहने देना।
मसलक जो
अलग — अलग नजर
आते हैं
यह
देखकर राहगीर
घबराते हैं
रास्ते
का फकत फेर है
राहरौ आखिर
मंजिल
पे पहुंचते
हैं तो मिल
जाते हैं
रास्ते
के ही फर्क
हैं। जब
यात्री मंजिल
पर पहुंचते
हैं तो सब
रास्ते मिल
जाते हैं।
रास्ते
का फकत फेर है
राहरौ आखिर
मंजिल
पे पहुंचते
हैं तो मिल
जाते हैं
मसलक जो
अलग— अलग नजर
आते हैं
यह
देखकर राहगीर
घबराते हैं
तुम घबड़ाओ
मत। अब तक ऐसा
ही हुआ है।
जिन्होंने
भक्ति की बात
की, उन्होंने
ध्यान की बात
न की। वे डरे
कि कहीं ध्यान
के कारण भक्ति
में बाधा न पड़ जाए।
जिन्होंने
ध्यान की बात
की उन्होंने
भक्ति की बात
न की, वे डरे
कि कहीं भक्ति
के कारण ध्यान
में बाधा न पड़
जाए। मैं तुमसे
जो कह रहा हूं
इससे ज्यादा
साहसपूर्ण
वक्तव्य पहले
नहीं दिया गया
है। सभी
वक्तव्य
अधूरे थे। मैं
तुम्हें पूरी—पूरी
बात कह रहा
हूं। निश्चित
पूरी बात कहने
का मतलब होता
है, दोनों
विरोधी बातों
को साथ—साथ
कहना होगा।
किसी ने दिन
की बात की थी, किसी ने रात
की बात की थी, मैं दिन और
रात की इकट्ठी
बात कर रहा
हूं। क्योंकि
मेरे लिए
दोनों
संयुक्त हैं।
किसी ने नाचने
की बात की थी, किसी ने शात
बैठ जाने की
बात की थी, मैं
कहता हूं,
तुम्हारा नाच
ही क्या अगर
उसमें शांति न
हो और
तुम्हारी शांति
क्या खाक अगर
नाच न सके।
किसी ने संसार
की बात की, किसी
ने संन्यास की,
मैं तुमसे
कहता हूं,
संसार में
रहते
संन्यासी हो
जाना और
संन्यासी
होकर घबड़ाना
मत, संन्यासी
क्या डरेगा
संसार से!
संसार में
रहना और संसार
में रहना भी
मत, यही
मेरी
संन्यासी की
परिभाषा है।
मैं सारे
विरोधों को
जोड़ देना
चाहता हूं।
फिर, तुम्हारे
जीवन की जो
असली ऊर्जा है,
वह ऊर्जा
प्रेम की है।
जैसे कोई दीये
को जलाता है, तो ज्योति।
ज्योति तो
साक्षी की है।
लेकिन तेल
भरते हैं न, तेल को
इसीलिए हम
स्नेह कहते
हैं —स्नेह
यानी प्रेम।
कहते हैं, दीया
जलता है, लेकिन
दीये को कभी
जलता देखा है?
जलता प्रेम
है, जलता
तेल है, जलता
स्नेह है।
कहते तो हो
दीया जलता है,
लेकिन दीया
कभी जलता है!
जलता तो प्रेम
है। प्रेम ही
जलकर ज्योति
बनता है।
प्रेम की
ऊर्जा ही
साक्षी बनती
है। प्रेम ही
जब प्रज्वलित
हो जाता है तो
साक्षी की तरह
प्रगट होता है।
दीप
नहीं, स्नेह
सदा जलता है
मिट्टी
के सीस साज
सौरभ
आलोक छत्र
गूंथ
हृदय हार मध्य
किरन
कुसुम ज्योति
पत्र
वृक्ष
नहीं, बीज
फलता है
दीप
नहीं, स्नेह
सदा जलता है
जन्म —मरण
दो डग धर
नाप सकल
भुवन लोक
पथ का
पाथेय लिये
नयन
द्वय हर्ष —शोक
रूप
नहीं, रे
अरूप चलता है
दीप नहीं, स्नेह
सदा जलता है
प्रेम
की इतनी बात
कहता हूं
क्योंकि
प्रेम ही वह
ऊर्जा है जो
साक्षी बनेगी।
साक्षी की
इतनी बात करता
हूं क्योंकि
साक्षी की
ज्योति
तुम्हारे
जीवन को
आलोकित करेगी।
तुम्हारा
जीवन उस दिन
परिपूर्ण
होगा, समग्र
होगा, जिस
दिन भीतर
साक्षी का
दीया जलता
होगा और जीवन
से रस की, प्रेम
की धार बहती
होगी। तुम टूट
न जाओ अन्यों
से, प्रेम
तुम्हें
बांधे रहे
हजार —हजार
संबंधों में,
और तुम इतने
संबंधों में न
खो जाओ कि
अपने से टूट
जाओ, साक्षी
तुम्हें जगाए
रहे स्वयं की
ज्योति में —साक्षी
तुम्हें
स्वयं बनाए
रखे और प्रेम
तुम्हें
दूसरों से
जोड़े रखे, तो
तुमने जीवन का
संतुलन पा
लिया। तो
तुमने संयम पा
लिया। संयम
मेरे लिए अर्थ
रखता है
संतुलन का।
भोगी
को मैं संयमी
नहीं कहता और
त्यागी को भी संयमी
नहीं कहता।
भोगी एक तरह
का असंयम कर
रहा है— भोग की
तरफ अतिशय झुक
गया है। और
त्यागी दूसरे
तरह का असंयम
कर रहा है—त्याग
की तरफ अतिशय
से झुक गया है।
त्याग और भोग
के मध्य में, जहां
विरोधों का
मिलन होता है,
जहां दिवस—रात्रि
मिलते हैं, वहीं संयम
है।
निश्चित
ही जब मैं
प्रेम की बात
करता हूं तो तुम्हारे
प्रेम की बात
नहीं कर रहा हूं, मेरे
प्रेम की बात
कर रहा हूं।
उसे याद रखना,
वह भूल न
जाए।
तुम्हारे
प्रेम में तो
सिवाय काटो के
तुमने कुछ भी
पाया नहीं है।
ईर्ष्या, जलन
और घृणा और
द्वेष, स्पर्धा,
संघर्ष, कलह।
तुम्हारे
प्रेम का
स्वाद तो बड़ा
कडुवा है।
तुम्हारे
प्रेम की बात
नहीं कर रहा
हूं। और
तुम्हारे प्रेम
में तो एक
अनिवार्य बात
है कि
मूर्च्छा।
तुम्हारा
प्रेम तो बिना
मूर्च्छित
हुए हो ही नहीं
सकता।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
अब हम क्या
करें? अगर
हम ध्यान में
बहुत डूबते
हैं, तो
हमारा प्रेम
टूटता है। जो
प्रेम ध्यान
में डूबने से
टूट जाता हो, वह प्रेम
नहीं है, वह
मूर्च्छा थी।
जो प्रेम
ध्यान में डूबने
से बढ़ता हो, वही प्रेम
है। वह प्रेम
की कसौटी है—जो
ध्यान की
कसौटी पर कस जाए।
ध्यान जिसे
तोड़ न पाए, वही
प्रेम है, बढ़ाए,
वही प्रेम
है।
क्या
कभी तुम जान
पाए जीत क्या
है हार क्या
है
इस जरा—सी
जिंदगी में जिंदगी
का सार क्या
है
मिल गये
जीवन डगर पर
मनचले अनजान
साथी
दे दिया
अंतर उन्हीं
को बन गये वे
पूज्य पाथी
प्रीति
कर ली पर न
जाना प्रीति
का आधार क्या
है
क्या
कभी तुम जान
पाए जीत क्या
है हार क्या
है
भूल निज
मंजिल गये तुम
पग उन्हीं के
संग बढ़ाए
और उनकी
अर्चना में
रात—दिन तूने
लगाए
स्नेह
की सौगात सारी
उन सभी ने लूट
खायी
प्यार
का देकर
भुलावा राह भी
तेरी भुलायी
स्वप्न
तक में यह न
सोचा शांति का
आगार क्या है
क्या
कभी तुम जान
पाए जीत क्या
है हार क्या
है
प्रीति
कर ली पर न
जाना प्रीति
का आधार क्या
है
प्रीति
का आधार है, होश।
बिना होश के
प्रीति हो तो
भटकाकी। बंधन
बन जाएगी। होश
के साथ प्रीति
हो तो मुक्ति
बन जाएगी।
पहुंचाएगी।
लेकिन
साधारणत: तुम
पाओगे, जब
होश साधोगे तो
प्रीति टूटी,
प्रीति
साधोगे तो होश
टूटा। तो न तो
तुम्हारा होश
सच्चा है, न
तुम्हारी
प्रीति सच्ची।
प्रीति सच्ची
हो, तो होश
के विपरीत
नहीं होती।
प्रीति सच्ची
हो तो होश को
बढ़ाती है। होश
सच्चा हो तो
प्रीति से
कैसे टूट सकता
है? मजबूत
होता है, सघन
होता है।
लेकिन
हम बड़े कच्चे
घड़े हैं। जरा—सी
वर्षा होती है, मिट्टी
बह जाती है।
होश की वर्षा
हो गयी, प्रीति
का घड़ा टूट
गया। प्रीति
की वर्षा हो
गयी, होश
का घड़ा टूट
गया। हम बड़े
कच्चे हैं। इस
कच्चेपन का
आधार एक ही
बात है—सोया—सोयापन।
कर तो रहे हैं
बहुत कुछ, लेकिन
पक्का कुछ साफ
नहीं क्यों।
कर तो रहे हैं,
यह भी पक्का
पता नहीं कि
भीतर कौन करने
वाला, करने
के पीछे कौन
बैठा है? कर
तो बहुत रहे
हैं, हो तो
रहा बहुत
व्यवसाय, जीवन
में जाल चल
रहा है, लेकिन
कभी क्षणभर
रुक कर भी
नहीं सोचा, क्यों? किसलिए?
अभी अपने से
कोई पहचान
नहीं हुई।
अपने से पहचान
हो जाए तो तुम
पाओगे कि
प्रेम और
साक्षी, ध्यान
और प्रेम, भक्ति
और ज्ञान एक
ही ऊर्जा के
दो पहलू हैं।
एक—साथ दोनों
आते हैं। अगर
तुम प्रेम को
साधो, तो
यह समझना कि
प्रेम अगर
पक्का और असली
हो तो साक्षी
अपने— आप आएगा।
आना ही पड़ेगा।
अगर तुम
साक्षी को
साधो और
तुम्हारा होश
असली हो तो
प्रेम आएगा।
आना ही पडेगा।
तो इसे
ऐसा समझो —साक्षी
की साधना करते
समय अगर प्रेम
न आता हो तो
समझना कि कहीं
भूल हो रही है
साक्षी की
साधना में।
नहीं तो प्रेम
आना ही चाहिए, वह
परिणाम है। यह
भी क्या हुआ, फसल तो बोयी
और फल आए ही
नहीं! फल तो
आने ही चाहिए।
और अगर तुम
प्रेम करो और
साक्षी न आए, तो समझ लेना
कि कहीं फिर
चूक हो रही है।
इन दोनों को
ख्याल में
रखना। और
दोनों का अगर
धीरे — धीरे
संयम संतुलित
हो जाए तो
तुम्हारे
जीवन में वह
अपूर्व घटना
घटेगी, जिसको
मोक्ष कहो, निर्वाण कहो,
तुरीय कहो,
या जो भी
नाम तुम्हें
प्रीतिकर
लगता हो वही
दे दो।
तीसरा
प्रश्न :
संन्यास
जब से लिया है, भीतर शांति
है पर बाहर
बड़ी उथल—पुथल
मच गयी
है।
मैं तो चैन
में हूं? पर दूसरे
बडे बेचैन हो
रहे हैं। मैं
क्या करूं?
ऐसा
स्वाभाविक है।
जब एक व्यक्ति
संन्यास लेता
है, तो
उससे जुड़े हुए
जो सैकड़ों
व्यक्ति थे, उनके जीवन
में उथल—पुथल
मचेगी।
तुम्हारे
संन्यास का
अर्थ यह हुआ
कि तुम बदले।
तो उन सब ने
तुमसे अब तक
जो संबंध बनाए
थे, वह सभी
संबंध उन्हें
बदलने पड़ेंगे।
और कोई झंझट
नहीं लेना
चाहता बदलने
की।
एक
महिला ने
मुझसे आकर
पूछा कि अगर
मैं ध्यान करने
लगू तो मेरे
और मेरे पति
के बीच कोई
झंझट तो नहीं
होगी? इसके
पहले कि मैं
कोई उत्तर दूं
र उसने खुद ही
कहा कि यह
प्रश्न बड़ा
मूढ़तापूर्ण
है, क्योंकि
ध्यान से
क्यों कोई
झंझट होगी?
मैंने
उससे कहा, तू गलत है,
तेरा
प्रश्न तो ठीक
है, तेरा
जो दूसरा जो
तूने खुद
उत्तर दे दिया
है, वह गलत
है। ध्यान से
झंझट होगी। वह
कहने लगी, कैसे? आखिर ध्यान
से तो मैं और
शात हो जाऊंगी,
तो झंझट
कैसे होगी।
मैंने कहा, सवाल शात और
अशांत होने का
नहीं है। तेरे
पति तेरे साथ
बीस वर्ष से
रह रहे हैं, एक ढंग से
दोनों के बीच
एक तरह का
समझौता हो गया
है —बीस साल
में हो चुके
सब कलह, उपद्रव,
झगड़े —झांसे,
क्रोध
इत्यादि, एक
तरह का सामंजस्य
बैठ गया। एक
समझौता हो गया।
अब तू ध्यान
करेगी, इसका
मतलब हुआ कि
तेरे भीतर अब
परिवर्तन
होंगे, इसका
मतलब हुआ कि
पति को फिर से
अ, ब, स
से शुरू करना
पड़ेगा। इसका
तो ठीक—ठीक
मतलब यह हुआ
कि जैसे पति
ने फिर से
दुबारा शादी
की और दूसरी
औरत से काम—संबंध
बनाया। अब तो
ये सब फिर
बदलना पड़ेगा।
फिर भी उसकी
समझ में नहीं
आया।
मैंने
उससे कहा, ऐसा समझ,
तू एक सात
दिन के लिए
प्रयोग कर ले।
यह झूठा ही
रहेगा प्रयोग,
लेकिन तुझे
अकल आ जाएगी।
उसने कहा, मैं
क्या करूं? मैंने उससे
कहा, पति
नाराज हों तो
तू
मुस्कुराते
रहना। झूठ ही
होगा यह
मुस्कुराना
अभी, क्योंकि
भीतर से वह
तेरे
मुस्कुराहट न
आएगी, लेकिन
ध्यानी को तो
आती। अभी झूठ
ही होगा, लेकिन
प्रयोग करके
देख ले। सात
दिन बाद उसने
कहा कि आप ठीक
कहते हैं, पति
तो एकदम पागल
हुए जा रहे
हैं। वे नाराज
होते हैं, मैं
मुस्कुराती
हूं तो वे
कहते हैं, तुझे
हो क्या गया
है, तेरा
दिमाग ठीक है?
वह कहते हैं,
इससे बेहतर
था कि तू कलह
करती थी।
तुम्हारी
पत्नी जब तुम
गाली दो और
हंसे, तो
तुम्हें
ज्यादा चोट
लगेगी। हां, गाली दे दे
तो क्या चोट
लगती है? पत्नियां
गाली देती हैं।
हंसे, तो
उसका मतलब हुआ
कि तुम बड़े
छुद्र हो गये।
गाली दे तो
तुम्हारे
समतुल है।
तुमने गाली दी
उसने गाली दी,
निपटारा हो
गया, दोनों
संगी —साथी
हैं। हंसे, तो वह तो ऊपर
बैठ गयी, कहीं
आकाश में, और
तुम नीचे कीड़े
—मकोड़े की तरह
सरकने लगे। यह
बर्दाश्त के
बाहर है। पति
परमात्मा है
और यह देखे, नहीं हो
सकता!
तो
ध्यान, मैंने उससे
कहा, अब तू
सोच ले, ध्यान—अभी
तो यह झूठी
मुस्कुराहट
थी—ध्यान के
बाद कोई नाराज
होगा तो असली
मुस्कुराहट
आएगी, यह
देखकर कि यह
व्यर्थ की बात,
यह
बचकानापन!
लेकिन पति यह
बर्दाश्त न कर
सकेंगे कि तू
उनसे ज्यादा
प्रौढ़ हो जाए।
आज तो तू कामातुर
होती है, प्रेम
बढ़ेगा जरूर
ध्यान के बाद,
लेकिन काम
कम होगा—अभी
प्रेम तो
बिलकुल नहीं
है, काम है —सारा
संतुलन
टूटेगा।
ध्यान के बाद
प्रेम तो
बढ़ेगा लेकिन
काम कम होगा, और पति
नाराज होंगे।
क्योंकि पति
तुझे पत्नी
बनाए ही
इसीलिए थे कि
तू उनकी काम
की तृप्ति करते
रहना। अचानक
सब संतुलन बिगड़
जाएगा। पति की
कामवासना
तुझे व्यर्थ
मालूम होने
लगेगी और उनको
यह देखकर कि
अब तू उनकी
कामवासना में
बहुत सहयोगी
नहीं है, अत्यंत
क्रोध आने
लगेगा। तू सोच
ले।
संन्यास
तुम सोचते हो
तुमने लिया।
लेकिन तुम
जुड़े हो बहुत
लोगों से, उन सब को
बदलाहट करनी
पड़ेगी। उस
बदलाहट में
उनको परेशानी
होगी—संन्यास
तो तुमने लिया
और बदलाहट
उनको करना पड़े!
यह झंझट! अगर
इतनी हिम्मत
उनमें होती तो
वे ही संन्यास
न ले लेते? बदलने
की ही तो
हिम्मत नहीं
है लोगों में,
नहीं तो खुद
ही संन्यास ले
लेते।
तुम्हारे लिए
क्यों बैठे
रहते कि तुम
संन्यास लो!
वे तुमसे पहले
ले लेते।
बदलना नहीं
चाहते। बदलने
में अड़चन है।
आदमी ने एक
ढांचा बना
लिया होता है,
उस ढांचे
में गाड़ी चलती
है, एक लीक
होती है, चलता
रहता है—लकीर
का फकीर। सब
व्यवस्थित हो
गया, एक
तरह की चैन
मालूम होती है।
तुम
चकित होओगे यह
जानकर कि आदमी
अपने दुखों से
भी धीरे — धीरे
समझौता कर
लेता है। उनको
भी बदलना नहीं
चाहता। उनको
बदलने से भी
झंझट आती है।
क्योंकि जब भी
बदलाहट करो तो
फिर से सब
जीवन की
संरचना करनी
होती है। इतनी
हिम्मत बहुत
कम लोगों में
होती है। अब
कौन फिर से अ, ब, स
से शुरू करे!
इसीलिए
तो जैसे —जैसे
उम्र बढ़ती
जाती है, लोगों की
सीखने की
क्षमता कम
होती जाती है।
छोटे बच्चे
बड़ी जल्दी
सीखते हैं।
अभी उन्होंने
कुछ व्यवस्था
जमायी नहीं है,
सीखने में
कुछ हर्जा
नहीं। छोटे
बच्चे किसी भी
नयी भाषा को
जल्दी सीख लेते
हैं। लेकिन
जैसे तुमने एक
भाषा सीख ली, फिर दूसरी
भाषा सीखना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
क्योंकि वह
पहली सीखी हुई
भाषा बीच—बीच
में बाधा
डालती है। जब
तुमने एक काम
सीख लिया तो
फिर दूसरा काम
सीखने की
हिम्मत नहीं
रह जाती। फिर
ऐसा लगता है
कि पता नहीं
दूसरे काम में
सफल हुए, न
हुए।
तो तुमने
संन्यास लिया, तुम्हारे
भीतर शांति
आयी, बाहर
उथल—पुथल हो
रही है, यह
बिलकुल
स्वाभाविक है।
लेकिन इसमें
तुम चिंतित मत
होओ। यह उनकी
समस्या है। यह
तुम्हारी
समस्या नहीं
है। अब अगर
तुम यह सोचो
कि तुम तभी
संन्यास लोगे
जब किसी के
जीवन में
तुम्हारे
कारण कोई उथल—पुथल
न आएगी, तो
तुम कभी
संन्यास न
लोगे। तब तो
तुम कभी बदल
ही न सकोगे।
तब तो तुम ऐसे
ही सड़ते रहोगे।
यह उनकी
समस्या है, इसमें तुम
चिंता न लो।
तुम तो देखकर
और चकित होओ, हैरान होओ
कि आश्चर्य, संन्यास
मैंने लिया है,
परेशान
दूसरे लोग हो
रहे हैं। उनके
भी तुमने तार
झनझना दिये।
फिर और
भी कारण हैं।
समझौता
ही नहीं टूटता, समस्या
नयी व्यवस्था
के कारण ही
नहीं आती, तुम्हारे
संन्यास के
कारण चोट भी
लगती है। उनके
अहंकार को भी
चोट लगती है
कि अरे, हम
पीछे रह गये, तुम आगे
निकल गये! यह
तुमने हिम्मत
कैसे की? तुमने
अपने — आपको
समझा क्या है?
वे सिद्ध
करना चाहते
हैं कि तुम अज्ञानी
हो, पागल
हो—इसलिए नहीं
कि तुम पागल
हो, बल्कि
इसलिए कि इसी
तरह वे अपने
को बचा सकते हैं।
यह सुरक्षा का
उपाय है।
सिद्ध अगर हो
जाए कि तुम
पागल हो गये, तो उनका मन
तृप्त हो
जाएगा कि हम
पागल नहीं हैं,
यह आदमी
पागल हो गया।
और स्वभावत:
वे सिद्ध कर
सकते हैं, क्योंकि
भीड़ उनकी है, तुम अकेले
हो। तुम
ज्यादा नहीं
हो, वे
ज्यादा हैं।
और इस दुनिया
में तो जो
ज्यादा है, वही सच है।
सचाई का और तो
यहां कोई उपाय
नहीं है। भीड़
जो कह दे, वही
सच है। और भीड़
को सच से क्या
लेना—देना है!
भीड़ को ही सच
पता होता तो
फिर बुद्ध को,
महावीर को
जंगल नहीं
भागना पड़ता।
तुम
जरा सोचना, बुद्ध और
महावीर जंगल
क्यों भागे? अधिकतर लोग
सोचते हैं, जंगल की शांति
के लिए भागे।
गलत, भीड़
के उपद्रव के
कारण भागे।
तुम सोचते हो,
जंगल की शांति
के लिए भागे, तो तुम बिलकुल
गलत सोचते हो।
भागे भीड़ की अशांति
के कारण, उपद्रव
के कारण।
क्योंकि
इन्हीं के बीच
रहकर और बदलना,
ये ज्यादा
झंझटें खडी
करेंगे। इससे
जंगल बेहतर है,
कोई झंझट तो
नहीं डालेगा।
मैंने
अपने
संन्यासी को
ज्यादा
चुनौती का उपाय
दिया है। मैं
कहता हूं, जंगल मत
भागों। यह बड़ी
सस्ती बात हुई,
जंगल भाग
गये। सहीं
घटने दो घटना।
सारी
मुसीबतें
यहीं झेलो। ये
सारी
चुनौतियों को
यहीं स्वीकार
करो।
फिर, तुम मेरे
प्रेम में पड़
गये, यही
संन्यास है।
निश्चित
तुम्हारी
पत्नी इससे
प्रसन्न नहीं होगी,
तुम्हारे
पति इससे
प्रसन्न नहीं
होंगे।
एक महिला
मेरे पास आती
है, वह
कहती है कि
मैं संन्यास
लेना चाहती हूं, लेकिन मेरे
पति कहते हैं,
आत्महत्या
कर लेंगे अगर
उसने संन्यास
लिया।
आत्महत्या!
मैंने कहा, क्यों? वह
कहती है कि
मेरे पति कहते
हैं, मैं
तेरा पति हूं
तो तुझे जो भी
पूछना है मुझसे
पूछ। कौन—सी
चीज है जो मैं
नहीं जानता
हूं? और वह
पत्नी कहती है
कि अब यह बडे
मजे की बात है! वह
मेरी किताब
नहीं रखने
देते घर में, किताब फेंक
देते हैं। वह
कहते हैं, जो
भी पूछना है..
मैं तेरा पति
हूं कि कोई और
तेरा पति है? तो संन्यास,
तो वह कहते
हैं, मैं
आत्महत्या कर
लूंगा, वह
तो मेरा बड़ा
अपमान हो
जाएगा कि मेरी
पत्नी और किसी
और से दीक्षा
ले! जैसे कि
पति से दीक्षा
लेने का कोई
नियम हो, कोई
शास्त्रीय
नियम हो!
लेकिन पति सब
तरह की मालकियत
चाहता है।
पत्नी
नाराज हो जाती
है। पत्नियां
मेरे पास आती
हैं कि जब से
आप हमारे पति
के जीवन में आए
बड़ी खलल हो
गयी। हम तो
बातें कर रहे
हैं, वह
आपका टेप
लगाये सुन रहे
हैं। ऐसा जी
होता है कि
टेप तोड़कर
फेंक दें। हम
तो कुछ कहना
चाहते हैं, सुख —दुख
रोना चाहते
हैं, वह
किताब पढ़ रहे
हैं! ये
किताबें
शत्रु मालूम पड़ने
लगेंगी।
तुमने
देखा होगा न, पत्नियां
किताबें छीन
लेती हैं—अखबार
छीन लेती हैं,
किताबों की
तो छोड़ो। तुम
अखबार पढ़ रहे
हो बैठे और
पत्नी आकर
झपट्टा मार
देती है अखबार
पर। क्योंकि
अखबार से भी
ईर्ष्या होने
लगती है कि
मैं मौजूद और
मेरे रहते तुम
अखबार देख रहे,
मुझको देखो।
जरा—जरा
सी, छोटी—छोटी
चीजों में प्रतिस्पर्धा
और ईर्ष्या का
जन्म होने
लगता है।
तो यह
बड़ी घटना है, तुमने सब
दाव पर लगा
दिया, मेरे
साथ हो लिये।
निश्चित ही
तुम्हारे घर
में थोड़ी
अड़चनें आएगी,
पत्नी
नाराज होगी, पति नाराज
होगा। बेटे
चिंतित होंगे
कि डैडी को
क्या हो गया? बच्चे स्कूल
में जाएंगे, दूसरे बच्चे
उन्हें
पूछेंगे, तुम्हारे
डैडी को क्या
हो गया? दिमाग
खराब हो गया? गेरुवे कपडे
क्यों पहन
लिये, यह
माला क्यों
लटका ली? इलाज
क्यों नहीं
करवाते? मनोचिकित्सक
को क्यों नहीं
दिखलाते? यह
होगा। यह
बिलकुल
स्वाभाविक है।
जबसे
तुमसे प्यार
हुआ है
दुश्मन
सब संसार हुआ
है
गली—गली
देती है गाली
हर
वातायन
व्यंग्य
सुनाता
हर कोई
अब पथ पर चलते
अंगुली
से मुझको
दिखलाता
मुझको
अपराधी
ठहराया
प्रीति—रतन
का चोर बताया
मेरे
अपनों का भी
मुझसे
बदला—सा
व्यवहार हुआ
है
जबसे
तुमसे प्यार
हुआ है
दुश्मन
सब संसार हुआ
है
ऐसी खबर
सुनी है जबसे
सारा
मधुबन रूठ गया
है
मुंह
बोले का नाता
था कुछ
अब तो वह
भी टूट गया है
डाली—डाली
मुझे चिढ़ाती
क्यारी —क्यारी
धूल उडाती
कली—कली
काटा बन बैठी
फूल —फूल
अंगार हुआ है
मेरे
अपनों का भी
मुझसे
बदला—सा
व्यवहार हुआ
है
जबसे
तुमसे प्यार
हुआ है
दुश्मन
सब संसार हुआ
है
ऐसा
होगा। ऐसा
स्वाभाविक है।
इसे स्वीकार
करो। यह साधना
के मार्ग की
अनिवार्य कड़ी
है। ऐसा न हो
तो आश्चर्य
है! ऐसा होता
है तो क्या आश्चर्य? ठीक ही हो
रहा है। तुम
इससे
उद्विग्न मत होना,
न परेशान
होना, न
इसके कारण
किसी तरह की
चिंता लेना और
न उपाय करना
कि इन सब
लोगों का मन
शात हो जाए।
उपाय ही मत
करना, अन्यथा
वे और अशात
होते जाएंगे।
तुम जितना
उपाय करोगे, वे उतनी
चेष्टा
करेंगे
तुम्हारे
उपाय तोड़ देने
के। तुम तो
उपेक्षा रखना।
ज्यादा देर न
चलेगा यह
उपद्रव।
जल्दी ही लोग
तुम्हें भूल
जाएंगे। वे
कहेंगे, ठीक
है, अब कोई
गया तो गया।
आदमी मर जाता
है तो उसे भूल
जाते हैं। तुम
तो सिर्फ
संन्यासी हुए
हो। लोग भूल
जाएंगे, वे
कहेंगे कि ठीक
है..।
मेरे
बचपन में मुझे
कोई रस न था कि
बाजार जाऊं, कि किसी
के घर जाऊं, कि किसी के
भोज में जाऊं,
कि किसी के
घर शादी में
जाऊं। मेरे घर
के लोग
स्वभावत: परेशान
होते थे। वे
मुझे ले जाना
चाहते। वे
मुझे घसीटते।
मैं कहता, ठीक
है, घसीटते
हो तो चलता
हूं। लेकिन
वहां जाकर खडा
हो जाता। लोग
पूछने लगते, क्या बात है?
फिर घर के
लोग मेरे समझ
गये कि इसको
ले जाना ठीक
नहीं, और
उल्टी झंझट
खड़ी होती है।
यह वहा खड़ा हो
जाता है, या
बैठ जाता है, तो लोग
पूछने लगते
हैं, इसको
क्या हो गया
है, क्या
गड़बड़ है? वे
मुझे ले जाना
छोड़ दिये।
पहले मुझे
भेजते थे इसी
ख्याल से, दयावश,
कि बाजार
जाए, कुछ
सब्जी खरीद
लाए, कुछ
सामान चाहिए
तो ले आए, नहीं
तो यह जिंदगी
सीखेगा कब और
कैसे?
मेरी
मुसीबत थी कि
मैं अगर बाजार
जाऊं और उन्होंने
कहा मुझसे कि
जाओ, अजवाइन
खरीद लाना, तो मुझे
अजवाइन भूल
जाए। भेजा
अजवाइन
खरीदने, खरीद
कर ले आऊं
इलायची। वे
लोग सिर ठोंक
लें! याद करते
हुए जाऊं
रास्ते भर कि
अजवाइन, अजवाइन,
अजवाइन. अब
कोई आदमी
रास्ते में
मिल गया, उन्होंने
कहा, कहां
जा रहे हो, उतने
में वह अजवाइन
गड़बड़ हो जाए!
फिर घर लौटकर आना
पड़े। धीरे —
धीरे
उन्होंने
मुझे भेजना
बंद कर दिया।
या
मुझे लेने
सामान भेजें—तो
मुझे कोई रस
ही नहीं था उस
बात में, मैं उस झंझट
में पड़ना भी
नहीं चाहता था।
जैसे वे मुझे
भेजें, जाओ
केले खरीद लाओ।
तो मैं जाऊं, केले के
दूकानदार से
पूछूं —सबसे
कीमती और
अच्छे केले
कौन—से हैं? अब वे
दूकानदार सब
जानते थे मुझे
कि यह.. वे रही से
रही सडे —गले
केले मुझे
पकड़ा दें कि
ये सबसे
ज्यादा कीमती,
मैं कहूं, बस ठीक है।
मैं एक दफा
केले खरीदकर
घर लाया, मेरी
बुआ ने मुझे
भेजा था कि
केले खरीद लाओ।
तो केले खरीद
लाया, उससे
मैंने पूछा कि
सबसे अच्छे जो
हों और सबसे
ज्यादा
दामवाले, तो
उसने बिलकुल
सड़े —गले केले
और सबसे
ज्यादा
दामवाले दे
दिये। मैं घर
लाया तो मेरी
बुआ ने सिर पर
हाथ मार लिया
और कहा कि
इनको जाकर
पड़ोस में एक
भिखारिन है
उसको दे आओ।
ठीक है, मैं
गया भिखारिन
को, भिखारिन
मुझसे बोली—फेंक
दो कूड़े में।
इधर कभी इस
तरह की चीज मत
लाना। मैंने
कहा, ठीक
है। मैं कूड़े
में फेंक आया।
धीरे — धीरे घर
के लोग समझ
गये कि यह.. और
मुझे पहले ही
से पक्का पता
था कि आखिर
में मुझे क्या
करना है—कुछ
नहीं करना है—तो
अभ्यास भी
क्यों करना? न—करने ही का
अभ्यास कर रहा
था।
फिर तो
ऐसी बात आ गयी
कि मैं घर में
बैठा रहता—मेरी
मां मेरे
सामने बैठी है
और वह कहे, यहां कोई
दिखायी नहीं पड़ता,
किसी को
सब्जी लेने
भेजना है। और
मैं सामने
बैठा हूं! वह
कहें—यहां कोई
दिखायी नहीं
पड़ता। मैं कहूं, दिखायी तो
मुझे भी कोई
नहीं पड़ रहा
है। घर में
कुत्ता घुस
जाए,
मैं
बैठा हूं, और मेरी
मां कहे कि घर
में कोई है ही
नहीं, वो
कुत्ता घुस
गया है। और
मैं सामने
बैठा हूं!
धीरे — धीरे
लोग स्वीकार
कर लिये। क्या
करेंगे? एक
सीमा होती है,
थोड़े दिन तक
खींचातानी की।
इधर ले गये, उधर ले गये, भेजा, एक
सीमा होती है।
तुम
संन्यस्त हो
गये, अब
तुम अपने भाव
में रमो। लोग
ऐसा कहेंगे, वैसा कहेंगे,
यहां
खींचेंगे, वहां
खींचेंगे, कोई
झगड़ा —झांसा
भी मत खड़ा
करना और
उन्हें
समझाने की कोई
चेष्टा भी मत
करना।
तुम्हारे
समझाने से वे
समझेंगे भी
नहीं। जो
तुम्हारे
भीतर हुआ है, तुम उस रस
में ड़बो। तुम
अपनी मस्ती
में मस्त रहो।
जल्दी ही तुम
पाओगे कि जो
व्यंग कसते थे,
वे तुममें
उत्सुक होने
लगे हैं। जो
कल हंसते थे, वे भी
तुम्हारे पास
आकर बैठने लगे
हैं। जो कल
कहते थे
तुम्हारा
दिमाग खराब हो
गया, वे भी
तुमसे सलाह
लेने लगेंगे।
वे कहेंगे कि
तुम बड़े शात
हो गये। कैसे
हुए पू क्या
हुआ? पुरानी
तरह की
चिंताएं
तुम्हारे
चेहरे पर नहीं
दिखायी पड़ती। आंखों
में बड़ी शांति
की झलक आ गयी, एक प्रसाद
पैदा हुआ, क्या
हुआ? लेकिन
तुम समझाने की
कोशिश मत करना।
तुम अपनी
मस्ती में जीओ।
अब अगर उनको
चिंता लेनी है
तुम्हारी
मस्ती से, तो
यह उनका
निर्णय है।
कोई किसी को
चिंता लेने से
नहीं रोक सकता।
ही, अगर तुम
उनकी चिंता के
कारण चिंतित
हो गये, तो
तुम्हें वे
नुकसान
पहुंचा देंगे।
अगर उन्हें
ऐसा लगा कि तुम
उनको राजी
करने में
उत्सुक हो —कि
नहीं, तुमने
जो किया वह
ठीक है और वे
गलत है—तो तुम
व्यर्थ के
विवाद में
पड़ोगे। और
ध्यान रखना, कुछ बातें
ऐसी हैं जो
विवाद से
सिद्ध नहीं
होतीं।
संन्यास ऐसी
ही बात है।
तुम तो यही कह
देना कि यही
समझो कि मैं
पागल हो गया
हूं। इसे
स्वीकार ही कर
लेना। उनको
कहने के लिए
भी क्यों
छोड़ते हो, खुद
ही कह देना कि
मेरा सब गया, पागल हो गया
हूं। लेकिन
मस्त हूं अपनी
मस्ती में और
पागलपन मुझे
रास आ रहा है
और मुझे सुख
मिल रहा है, मुझे क्षमा
कर दो। तुम
अपनी समझदारी
में ठीक, मैं
अपनी
नासमझदारी
में ठीक। धीरे—
धीरे वे तुमसे
राजी हो
जाएंगे। और
धीरे — धीरे
तुम पाओगे, तुम्हारी शांति
का, तुम्हारे
मौन का,
तुम्हारी
मस्ती का
परिणाम होने
लगा है। उनमें
उलझो मत।
अगर
अकेला होता
मैं तो
शायद
कुछ पहले आ
जाता
लेकिन
पीछे लगा हुआ
था
संबंधों
का लंबा तांता
कुछ तो थी
जंजीर पांव की
कुछ थी
कठिन चढ़ाई मग
की
कुछ
रोके था तन का
रिश्ता
कुछ
टोके था मन का
नाता
इसीलिए
हो गयी देर
कर देना
माफ विवशता
मेरी
धरती
सारी मर जाएगी
अगर
क्षमा
निष्काम हो
गयी
मैंने
तो सोचा था
अपनी
सारी
उमर तुझे दे
दूंगा
इतनी
दूर मगर थी
मंजिल
चलते
चलते शाम हो
गयी
ऐसा न
हो कि
परमात्मा के
सामने
तुम्हें
करुणा की भीख
मांगनी पड़े।
ऐसा न हो कि
तुम्हें कहना
पड़े कि रुक
गया, क्योंकि
इतने
रिश्तेदार थे,
रुक गया, क्योंकि
पत्नी—बच्चे
थे, रुक
गया, क्योंकि
इतनी उलझनें
थीं। ऐसा न हो
कि कहना पड़े
कि क्षमा करो,
करुणा
बरसाओ।
नहीं, परमात्मा
के द्वार पर
करुणा की भीख
मांगते मत जाना।
आनंद—उल्लास
से जाना, उत्सव
से जाना।
क्षमा—याचना मांगते
मत जाना, धन्यवाद
देते जाना। और
इसका एक ही
उपाय है कि इस
जगत में इतने
जो संबंधों का
नाता है, इस
सब संबंधों के
नाते को जो —जो
कर्तव्य है
पूरा करो; पत्नी
है, कर्तव्य
है, पूरा
करो, बेटे
हैं, उनका
कर्तव्य पूरा
करो, नाता—रिश्ता
है, उनका
कर्तव्य है, पूरा करो, बस कर्तव्य
भर पूरा कर दो—इसमें
ज्यादा उलझो
मत। जितना
जरूरी है उतना
कर दो और बाहर
रहे आओ। जरूरत
से ज्यादा
अपने को
उद्विग्न मत
कर लो। रहो
बाजार में और
रहो बाजार के
बाहर। रहो भीड़
में और रहो
भीड़ के बाहर।
धीरे — धीरे
तुम पाओगे, जिस भीड़ ने
तुम्हारा
अपमान किया, वही भीड़
तुम्हारा
सम्मान करने
लगी।
मगर
मैं इसलिए
नहीं कह रहा
हूं यह कि भीड़
तुम्हारा
सम्मान करे, ऐसी
तुम्हारे मन
की चाह होनी
चाहिए। नहीं,
तब तो चूक
हो गयी। भीड़
से क्या लेना—देना,
अपमान करे
कि सम्मान करे,
सब बराबर है।
दूसरे से क्या
लेना—देना!
अपनी खोज पर
जिसे जाना है,
उसे दूसरे
से थोड़ा तो
शिथिल होना ही
पडेगा। अपनी
खोज पर जिसे
जाना है, उसे
बाहर से थोड़ी आंख
तो मोड़नी ही
पड़ेगी। भीतर
जिसे चलना है,
उसे बाहर के
रास्तों की
भाग—दौड़ तो
क्षीण करनी ही
पडेगी।
क्योंकि वही
ऊर्जा तो भीतर
जाएगी जो बाहर
दौड़ रही थी।
जब मैं कहता
हूं कि जो
तुम्हारा
अपमान करते हैं,
एक दिन
सम्मान
करेंगे, तो
मैं यह सिर्फ
तथ्य की बात
कह रहा हूं _ ऐसा होता है।
यह नहीं कह
रहा हूं कि
तुम इसीलिए
कुछ करो ताकि
लोग तुम्हारा
सम्मान करें।
तब तो तुम कभी
उस अवस्था में
न पहुंचोगे
जहां सम्मान
सहज घटता है।
जिसने
तुम्हारा
अपमान किया है, वह उसकी
मौज है। उसे
जो ठीक लगा, उसने किया।
जिसने
तुम्हारा
सम्मान किया
है, उसकी
मौज। उसे जो
ठीक लगा उसने
किया। जो उसके
पास था, उसने
दिया। तुम
अपमान और
सम्मान दोनों
को एक ही
धन्यवाद के
भाव से
स्वीकार कर
लेना, दोनों
का आभार प्रगट
कर देना और आंख
मूंदकर भीतर
डुबकी लगा
लेना।
आखिरी
प्रश्न :
दुख ही
दुख है, सुख के स्वप्न
में भी दर्शन
नहीं, फिर
भी जाग नहीं
आती है, जागरण
का कोई अनुभव
नहीं होता है।
दूख ही दुख है, ऐसा
तुम्हारा
अनुभव है, या
तुमने किसी की
बात सुनकर पकड़
ली? जरा भी
सुख नहीं है, ऐसा
तुम्हारा
अनुभव है, या
तुमने
बुद्धपुरुषों
के वचन कंठस्थ
कर लिये? मुझे
लगता है, तुमने
बुद्धपुरुषों
के वचन कंठस्थ
कर लिये हैं।
क्योंकि
.तुम्हारा ही
अनुभव हो तो
जागरण आना ही
चाहिए।
अनिवार्य है।
अगर पैर में
काटा गड़ा है, तो पीड़ा
होगी ही। अगर
दुख है ऐसा
तुम्हारा
अनुभव है, तो
जागरण आएगा ही।
दुख जगाता है,
दुख मांजता
है, निखारता
है। दुख का
मूल्य ही यही
है।
लोग
मुझसे पूछते
हैं, संसार
में परमात्मा
ने इतना दुख
क्यों दिया है?
मैं उनसे
कहता हूं,
थोड़ा सोचो, इतना दुख है
फिर भी तुम
नहीं जागते, अगर दुख न
होता तब तो
फिर कोई आशा
ही नहीं थी।
इतने दुख के
बावजूद नहीं
जागते!
दुख
जगाने का उपाय
है। इतनी पीड़ा
है फिर भी तुम
सोए चले जाते
हो। सुख की
आशा नहीं
टूटती। ऐसा
लगता है आज
नहीं है सुख, कल होगा।
अभी नहीं हुआ,
अभी होगा।
आज तक हारे, सदा थोडे ही
हारते रहेंगे।
और मन तो कहे
चला जाता है, और, थोड़ा
और रुक जाओ, थोड़ा और देख
लो, कौन
जाने करीब ही
आती हो खदान
सुख की। अब तक
खोदा और कहीं
दो —चार
कुदाली और
चलाने की देर
थी कि पहुंच
जाते खदान पर,
थोड़ा और खोद
लो। और, और,
मन कहे चला जाता
है।’और' है मंत्र मन
का।
भौंहों
पर खिंचने दो
रतनारे बान
अभी और
अभी और।
सुर— धन
को सरसा ओ आंचल
के देश
सपनों
को बरसा ओ नभ
के परिवेश
संयम से
मत बांधो
दर्शन के
प्राण
अभी
चलने दो दौर!
अभी और
अभी और।
कन—कन
को महका ओ
माटी के गीत
जीवन को
दहका ओं
सुमनों के मीत
अधरों
को करने दो छक
कर मधुपान
कहीं
सौरभ के ठौर!
अभी और
अभी और।
तन—मन को
पुकार उगे
रागों के छोर
प्रीति
कलश ढुलका ओ
वंशी के पोर
कुंजों
में छिड़ने दो
भ्रमरों की
तान
धरो
स्वर के सिर
मौर!
अभी और
अभी और!
भौंहों पर
खिंचने दो
रतनारे बान
अभी और
अभी और!
मन कहे
चला जाता—अभी
और, जरा
और। एक प्याली
और पी लें, एक
आलिंगन और कर
लें, एक
चुंबन और, थोड़ा
समय है, कौन
जाने जो अब तक
नहीं मिला मिल
जाए। ऐसे आशा
के सहारे आदमी
खिंचता चला
जाता है।
उमर
खैयाम का एक
गीत है, जिसमें वह
कहता है मैंने
पंडितों से
पूछा, मौलवियों
से पूछा, ज्ञानियों
से पूछा, बड़े
—बड़े आचार्यों
से पूछा कि
आदमी इतने दुख
के बावजूद भी
जीए कैसे जाता
है? लेकिन
उनमें से किसी
ने कोई उत्तर
न दिया। और
मैं जिस द्वार
से भीतर गया, उसी द्वार
से बाहर आया—खाली
का खाली, वैसा
का वैसा। फिर
घबड़ाकर मैंने
एक दिन आकाश
से पूछा कि हे
आकाश! तूने तो
सब देखा, अरबों
— अरबों लोगों
का जीवन, अरबों—
अरबों लोगों
की आशाएं, सपने,
उनका टूटना,
उनका
कब्रों में
गिरना; इच्छाओं
के इंद्रधनुष,
उनका टूटना,
धूल में
रुंध जाना, तूने तो सब
देखा, तू
तो सब देख रहा
है अनंतकाल से,
तू मुझे कह
दे —इतना दुख
है, आदमी
जीए कैसे जाता
है? और
आकाश ने कहा
आशा के सहारे।
आशा! मनुष्य
के जीवन की
सारी
मूर्च्छा का
सूत्र है, आशा।
अभी और, थोड़ा
और, जरा और।
तुम
कहते हो कि
जीवन में दुख
है। तुम्हें
नहीं दिखायी
पड़ा। और तुम
कहते हो, यह सुख तो
कभी मिला नहीं
सपने में भी।
माना। किसको
मिला! किसी को
भी नहीं मिला,
लेकिन अभी
भी तुम सपना
देख रहे हो कि
शायद कल मिले।
सपने में भी
सुख नहीं
मिलता, लेकिन
सुख का सपना
हम देखे चले
जाते हैं। जब
तुम्हारा सुख
का भ्रम टूट
जाएगा—सुख मिल
ही नहीं सकता,
सुख का कोई
संबंध ही नहीं
है बाहर के
जगत से, सुख
मिलता है
उन्हें जो
भीतर जाते हैं,
सुख मिलता
है उन्हें जो
स्वयं में आते
हैं, सुख
मिलता है
उन्हें जो
साक्षी हो
जाते है—तो
उसी क्षण घटना
घट जाएगी।
तुम
पूछते हो, जागरण
क्यों नहीं
आता? क्योंकि
तुमने दुख के
वाण को ठीक से
छिदने नहीं
दिया। तुमने
बहुत तरकीबें
बना ली हैं
दुख के वाण को झेलने
के लिए। कोई
आदमी दुखी
होता है, वह
कहता है, पिछले
जन्मों के
कर्मों के
कारण दुखी हो
रहा हूं —खूब
तरकीब निकाल
ली सांत्वना
की। पिछले
जन्मों के
कारण दुखी हो
रहा हूं। अब
कुछ किया नहीं
जा सकता, बात
खतम हो गयी, अब तो होना
ही पड़ेगा।
तुमने एक
तरकीब निकाल
ली। कोई आदमी
कहता है, इसलिए
दुखी हो रहा
हूं कि अभी
मेरे पास धन
नहीं है, जब
होगा तब सुखी
हो जाऊंगा।
कोई कहता है, अभी इसलिए
सुखी नहीं हूं
कि सुंदर
पत्नी नहीं है,
होगी तो हो
जाऊंगा। कि
बेटा नहीं है,
होगा तो सुखी
हो जाऊंगा।
तुम देखते
नहीं कि
हजारों लोगों
के पास बेटे हैं
और वे सुखी
नहीं हैं! तुम
कैसे भ्रम
पालते हो? हजारों
लोगं के पास
धन है और वे
सुखी नहीं और
तुम कहते हो, मेरे पास
होगा तो मैं
हो जाऊंगा।
हजारों लोग पद
पर हैं और
सुखी नहीं, फिर भी तुम
देखते नहीं।
तुम कहते हो, मैं होऊंगा
तो सुखी हो
जाऊंगा, हमें
हजारों से
क्या लेना—देना!
मेरा तो होना
पक्का है। मैं
अपवाद हूं,
ऐसी तुम्हारी
भ्रांति है।
नहीं
कोई अपवाद है।
जीवन में बाहर
से सुख मिला
नहीं किसी को, दुख ही
मिला है। बाहर
जो भी मिलता
है दुख है।
बाहर से जो
मिलता है, उसी
का नाम दुख है।
और भीतर से जो
बहता है, उसी
का नाम सुख है।
इसलिए
जाग नहीं हो
रही। तुम
दुखों को
समझाए जाते हो
और तुम सुख की
आशा बांधे चले
जाते हो। तुम
कहते हो, होगा। कभी न
कभी होगा।
किसी न किसी
तरह उपाय कर
लेंगे। छीना—झपटी,
चोरी करनी
पड़ेगी चोरी कर
लेंगे, लेकिन
कर लेंगे, होगा।
तुम रेत से
तेल निचोड़ने
की चेष्टा में
लगे हो। तुम
यह देख ही
नहीं रहे कि
आज तक संसार
में कोई भी
रेत से तेल
नहीं निचोड़
पाया है। आज
तक संसार में
कोई भी बाहर
से सुखी नहीं
हो पाया—सिकंदर
हों, कि
नेपोलियन हो,
कि बड़े
धनपति हों, सब खाली हाथ
आते और खाली
हाथ जाते।
हां, कुछ लोग
जीवन में
महाआनंद को
उपलब्ध हुए
हैं —कोई
अष्टावक्र, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई
क्राइस्ट, कोई
मुहम्मद। कुछ
थोड़े —से इने —गिने
लोग, जरा
उनकी तरफ देखो।
उन सबका एक ही
कारण है सुख
का कि वे सब
भीतर की तरफ
मुड़ गये।
सुख
चाहते हो? कुछ बुरी
बात नहीं
चाहते। गलत
दिशा में चाह
रहे हो, इसीलिए
भटक रहे हो।
दुख मिल रहा
है? नियम
से मिल रहा है।
दीवाल से
निकलना
चाहोगे, सिर
टकराएगा, खोपड़ी
फूटेगी, दुख
मिलेगा।
दरवाजे से
निकलो। और
दरवाजा भीतर
की तरफ है, दीवाल
बाहर की तरफ।
मैंने
सुना है, यूनान में
एक बहुत अदभुत
संन्यासी हुआ
डायोजनीज। वह
नंगा ही रहता
था, और बड़ा
मस्त आदमी था।
सिकंदर को भी
उससे ईर्ष्या
हो गयी थी।
सिकंदर उससे
मिलने भी गया
था। और जब
उसने
डायोजनीज को
देखा था तो
उसका दिल धड़ककर
रह गया था।
उसने
डायौजनीज से
कहा था, अगर
दुबारा मुझे
जन्म लेना पड़ा
तो परमात्मा
से कहूंगा, अब की बार
सिकंदर मत
बनाओ, डायोजनीज
बना दो।
आश्चर्य, तुम्हारे
पास कुछ भी
नहीं है, तुम
इतने मस्त!
डायोजनीज ने
कहा, इसीलिए
कि कुछ नहीं
है, इसीलिए
मस्त। चिंता
नहीं, फिकिर
नहीं। एक चीज
थी मेरे पास, तब तक थोड़ी
चिंता थी।
सिकंदर ने पूछा,
वह क्या चीज
थी? उसने
कहा कि मैं सब
तो छोड़ दिया
था, कपड़े —लत्ते
भी छोड़ दिये, नंगा हो गया
था, लेकिन
एक पात्र अपने
हाथ में रखता
था जल इत्यादि
पीने को। फिर
एक दिन मैं
नदी पर गया
पानी पीने को,
मुझसे पीछे
एक कुत्ता
पहुंचा भागा
हुआ और मुझसे
पहले पानी
पीकर चल पडा।
मैंने कहा, हद्द हो गयी!
मैं अपना वह
पात्र ही
घिसता रहा।
पात्र सफाई
करूं, फिर
पानी भरूं, फिर पीऊं।
मैंने कहा, भाड़ में जाए
यह पात्र, यह
कुत्ता मुझसे
बड़ा संन्यासी
है। मैंने वह
पात्र भी छोड़
दिया और
कुत्ते को गुरु
बना लिया। अगर
तुम उस कुत्ते
से मिलना चाहो,
डायोजनीज
ने कहा, वह
पास ही रहता
है। दोनों साथ
ही रहते थे।
एक कचराघर
जहां लोग कचरा
फेंकते हैं, उसका टीन का
पोंगरा
जिसमें कचरा
फेंकते हैं, उसको उठा
लाया था वह, उस पोंगरे
को नदी के
किनारे रख
लिया था, उसी
में कुत्ता
रहता, उसी
में वह भी
रहता। वह कहता,
मेरा गुरु
है। क्योंकि
इसने ही मुझे
सिखाया कि अरे,
यह पात्र
काहे के लिए
ढो रहा हूं।
सिकंदर
से उसने कहा, एक चीज थी,
उसकी वजह से
मुझे चिंता
होती थी, कभी—कभी
रात में भी
हाथ से टटोलकर
देख लेता कि
पात्र कोई ले
तो नहीं गया।
जब से वह गया, सब चिंता
गयी। तब से तो
मैं सम्राट हो
गया हूं। तब
से मस्त ही
मस्त हूं!
सिकंदर
ने उससे कहा, मैं खुश
हुआ मिलकर।
मैं तुम्हारे
लिए कुछ कर
सकूं? मुझे
कहो तो मुझे
खुशी होगी।
उसने कहा, आप
जरा हटकर खड़े
हो जाएं, क्योंकि
धूप रोक रहे
हैं—सुबह का
वक्त और वह
धूप ले रहा था—बस
इतना, और
तो आपसे क्या चाहिए!
और आपके पास
है क्या जो
तुम मुझे दे
सकते हो? और
याद रखना, किसी
की धूप रोककर
खड़े मत होना।
अगर इतना ही
तुम कर सको तो
काफी है।
तुमसे खतरा है,
तुम कई
लोगों की धूप
छीन लोगे। यह
फौज—फाटा लेकर
जा कहां रहे
हो? किसकी
धूप छीनने का
इरादा है? मुझ
गरीब की धूप, मैं मजा कर
रहा था अपना यहां,
नदी के
किनारे रेत
में लेटा था, सुबह की धूप
ले रहा था, तुम
आकर खड़े हो
गये। और मुझसे
कह रहे, क्या
चाहिए!
सिकंदर
ने कहा कि जा
रहा हूं विश्व
की विजय के लिए।
लेकिन अंतिम
लक्ष्य मेरा
भी यही है जो
तुम्हारा है—शात
होना, विश्राम
करना। डायोजनीज
खूब
खिलखिलाकर
हंसने लगा।
उसने कहा तो
फिर इतनी
यात्रा की
क्या जरूरत है,
मुझे देखते
नहीं? शात
हूं और
विश्राम कर
रहा हूं। तुम
भी करो
विश्राम, यह
नदी का किनारा
काफी बड़ा है, हम दोनों के
लिए काफी है।
और भी कोई लोग
आएं, उनके
लिए भी काफी
है। यहां कुछ
अड़चन नहीं है।
सिकंदर ने कहा,
अभी न कर
सकूंगा। तो
डायोजनीज ने
कहा, फिर
कभी न कर
सकोगे, जो
अभी कर सकता
है वही कर
सकता है।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं कि
जो हो सकता है
अभी हो सकता
है—श्रवणमात्रेण—कल
पर छोड़ा, छूटा। न
करना हो मत
करो, मगर
यह तो मत कहो
कि कल करेंगे।
न करना हो तो
यही कहो कि
नहीं करना है।
नहीं करना है,
नहीं करने
की इच्छा है, तो कम से कम
ईमानदारी तो
होगी। यह
बेईमानी मत
करो कि कल
करेंगे, क्योंकि
कल कौन कर
पाया? न
करने की यह
तरकीब है—कल
करेंगे, कल
करेंगे। कल पर
टालना न करने
की व्यवस्था
है। जो होना
है, आज हो
सकता है, अभी
हो सकता है, यहीं हो
सकता है। तुम
जैसे हो, जहां
हो, वहीं
वैसे ही अपने
भीतर डुबकी ले
लो। उस डुबकी
में ही
परमात्मा का
मिलन है।
कूल बैठ
नद समीप
बटोर मत
शंख—सीप
तुमने
खूब शंख—सीप
बटोर लिये हैं।
अब जरा बैठो।
कूल बैठ
अब
किनारे बैठ
जाओ।
नद समीप
यह जो
संसार की बहती
हुई धारा है, इसके
किनारे बैठ
रहो। बटोर मत
शंख—सीप
अब बहुत
बटोर लिए शंख—सीप, अब जरा किनारे
बैठ रहो—कूटस्थ
हो जाओ। साक्षी
बनो।
योग
आत्म—संभोग।
भोग
देह—संभोग।
अब थोड़ा
अपना भोग करो।
अब थोड़ा अपना
स्वाद लो। दूसरों
का स्वाद लेते
खूब भटके तिक्त
हुआ मुंह, कडुवाहट से
भर गया। अब थोड़ी
रसधार बहने दो।
अपने प्राणों के
गीत को गूंजने
दो, उठने दो
यह स्वयं का छंद।
थोड़ा—सा अगर तुम
भीतर की तरफ चल
पड़ो, एक किरण
पकड़ लो होश की
तो सूरज तक पहुंच
जाओ।
माटी
बीज उगाती
परिपाटी
दोहराती
माटी बीज
बनाती।
प्रभु का
पद पा जाती।
बसदो
ही तरह के लोग है, दूनिया में।एक
परिपाटी दोहराने
वाले।
माटी
बीज
उगाती
परिपाटी
दोहराती
माटी
बीज
बनाती
प्रभु
का पर पा जाती।
तुम
कब तक दोहराते
रहोगे यह जड़ यंत्रवत
जीवन? कुछ
बनाओ, कुछ सृजन
करो। और एक ही चीज
सबसे पहले सृजन
करने की है और वह
है स्वयं के सृजन
की। और वहां सृजन
जैसा भी क्या
है, पर्दा हटाना।
आत्म–सृजन
का अर्थ इतना ही
होता है—आत्म—आविष्कार।
अपने को उघाड़
लेना है।
और
तुम थोड़े भीतर
चलो तो तुम अचानक
पाओगे कि परमात्मा
हजार—हजार कदमों
से तुम्हारी तरफ
चल पडा। तुम एक
कदम उठाओ, वह हजार कदम
उठाता है। तुम्हें
थोड़े उसे खोजना
है। वह भी तुम्हें
खोज रहा है।
मेरा
तो जीवन मरूथल
है
जब
तुम आओ तो सावन
है
ऐसा
रूठा मधुमास
कि फिर
आने का
नाम नहीं लेता
ऐसा
भटका है
प्यासा मन
क्षण भर
विश्राम नहीं
लेता
मेरा तो
लक्ष्य अदेखा
है
तुम साथ
चलो तो दर्शन
हो
अब तुम
न तुम्हारी
आहट कुछ
शकुनों
की घड़ियां बीत
चलीं
त्यौहार
प्रणय का सूना
है
फुलझड़ियां
हैं सब रीत
चली
मेरा तो
यज्ञ अधूरा है
तुम साथ
रहो तो पूजन
हो
उलझी
अलकें भीगी
पलकें
हो बैठा
है परिचय मेरा
शंका से
देख रहा है जग
क्षण —
क्षण जीवन
अभिनय
मेरा
मेरी तो साधें
शापित हैं
जब तुम
छू दो तो पावन
हो
जब तुम
वीणा के तार
कसो
यह गायक
मन गंधर्व बने
तुम ही
यदि साथ रहो
तो फिर
हर पल
जीवन का पर्व
बने
हर आह
मधुरतम गायन
हो
हर आंसू
फिर मधु का कण
हो
दो हाथ
में हाथ
परमात्मा के, वह
तुम्हारे
भीतर तैयार है।
अपनी वीणा
उसको सौंप दो।
यही
अष्टावक्र का
समग्र संदेश
है। साक्षी बन
रहो, कर्ता
नहीं, भोक्ता
नहीं। और जो
परमात्मा
करना चाहता है,
तुम
निमित्तमात्र
हो जाओ। होने
दो, तुम
हवा के झोंके
हो जाओ, कि
सूखे पत्ते, जहां ले जाए,
चल पड़ो।
जब तुम
वीणा के तार
कसो
यह गायक
मन गंधर्व बने
तुम ही
यदि साथ रहो
तो फिर
हर पल
जीवन का पर्व
बने
हर आह
मधुरतम गायन
हो
हर आंसू
फिर मधु का कण
हो
मेरी तो
साधें शापित
हैं
जब तुम
छू दो तो पावन
हो
मेरा तो
यज्ञ अधूरा है
तुम साथ
रहो तो पूजन
हो
मेरा तो
लक्ष्य अदेखा
है
तुम साथ
चलो तो दर्शन
हो
मेरा तो
जीवन मरुथल है
जब तुम
आओ तो सावन हो
यह हो
सकता है। यह
अभी हो सकता
है।
श्रवणमात्रेण।
हरि ओंम
तत्सत्!
आज इतना
ही।
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