एक
ब्राह्मण
दार्शनिक
भगवान के पास
आया और बोला
हे गौतम! आप
अपने शिष्यों
को भिक्षाटन
करने से
भिक्षु कहते
हैं। मैं भी
भिक्षाटन
करता हूं अत:
मुझे भी भिक्षु
कहिए। वह
विवाद करने को
उत्सुक था और
किसी भी बहाने
उलझने को
तैयार था।
शब्दों पर
उसकी पकड़ थी
सो उसने
भिक्षु शब्द
से ही विवाद
को उठाने की
सोची। उसे तो
बस कोई भी
निमित्त
चाहिए था।
भगवान
ने उससे कहा
ब्राह्मण भिक्षाटन
मात्र से कोई
भिक्षु नहीं
होता; लै
भिखारी चाहो
तो मान ले
सकते हो। पर
भिखारी और
भिक्षु
पर्यायवाची
नहीं हैं। मैं
भिक्षु उसे
कहता हूं
जिसने सब
संस्कार छोड़
दिए। जिसके
पास भीतर कोई
संस्कार न बचे
उसे भिक्षु
कहता हूं।
जिसको
जीसस ने पुअर
इन स्तिट कहा
है। ब्लेसेड
आर द पुअर इन
स्टिट, धन्य
हैं वे जो
भीतर से
दरिद्र हैं।
ईसाइयत के पास
इसकी ठीक
व्याख्या
नहीं है कि
क्या मतलब है
जीसस का— भीतर
से दरिद्र।
बुद्ध के इस
वचन में उसकी
व्याख्या है।
संस्काररहित।
जिसने सारी
कंडीशनिंग
छोड़ दी।
समझो, यह
बात बड़ी मूल्य
की है। हम संस्कारों
से जीते हैं।
कोई कहता, मैं
हिंदू कोई
कहता, मैं
मुसलमान; कोई
कहता, मैं
ईसाई; यह
संस्कार है।
कोई पैदा तो
नहीं होता
हिंदू की
भांति, न
कोई ईसाई की
भांति।
तुम हिंदू घर में बड़े हुए, तो एक संस्कार पड़ा। लोगों ने कहा कि तुम हिंदू हो तो तुम मानते हो कि तुम हिंदू हो। तुम हिंदू हो? कैसे? तुम्हें मुसलमान घर में रख दिया होता बचपन से और वहां तुम बड़े हुए होते तो तुम मुसलमान होते। तो यह तो संस्कार है। आए तो थे तुम बिलकुल शुद्ध दर्पण की भांति, कोरा कागज आए थे; फिर उस पर लिखावटें पड़ी। भारतीय घर में रहे, तो भारतीय भाषा सीखी। अरब में होते तो अरबी सीखते और चीन में होते तो चीनी सीखते। तो भाषा संस्कार है।
तुम हिंदू घर में बड़े हुए, तो एक संस्कार पड़ा। लोगों ने कहा कि तुम हिंदू हो तो तुम मानते हो कि तुम हिंदू हो। तुम हिंदू हो? कैसे? तुम्हें मुसलमान घर में रख दिया होता बचपन से और वहां तुम बड़े हुए होते तो तुम मुसलमान होते। तो यह तो संस्कार है। आए तो थे तुम बिलकुल शुद्ध दर्पण की भांति, कोरा कागज आए थे; फिर उस पर लिखावटें पड़ी। भारतीय घर में रहे, तो भारतीय भाषा सीखी। अरब में होते तो अरबी सीखते और चीन में होते तो चीनी सीखते। तो भाषा संस्कार है।
समझना।
भाषा लेकर तुम
आए नहीं थे, मौन
लेकर आए थे।
भाषा सीखी।
मौन स्वभाव था,
भाषा पर—
भाव है। दूसरे
ने डाला। जब
तुम आए थे, तब
तुम न बुद्ध
थे, न
विद्वान थे।
कोई बच्चा न
बुद्ध होता, न विद्वान
होता। यह तो
अभी समय लगेगा,
बुद्ध और
बुद्धिमान
होने में अभी
वक्त लगेगा।
कई काम होंगे,
कई संस्कार
पड़ेंगे, स्कूल
में
परीक्षाएं
होंगी, न—मालूम
कितनी
प्रक्रियाओं
से गुजरेगा, तब कोई
इसमें
विद्वान हो
जाएगा, कोई
इसमें बुद्ध
हो जाएगा। आए
थे बिलकुल एक
जैसे, हो
गए अलग—अलग।
संस्कार
का अर्थ है, जो
हमने जन्म के
बाद सीखा। जो
सीखा, उसका
नाम संस्कार
है। संस्कार
स्वभाव नहीं है।
संस्कार
स्वभाव के ऊपर
पड़ गयी धूल
है। स्वभाव तो
है दर्पण जैसा
और संस्कार है
धूल जैसा। जब
धूल की बहुत
पर्तें पड़
जाती हैं
दर्पण पर, तो
फिर दर्पण में
प्रतिबिंब
नहीं बनता।
बुद्ध
कहते हैं, जिसने
यह सारी धूल
झाडू दी, उसको
मैं भिक्षु
कहता हूं। और
क्यों भिक्षु
कहता हूं? क्योंकि
न वह हिंदू
रहा—गरीब हो
गया उतना; न
ब्राह्मण
रहा—गरीब हो
गया उतना, न
चीनी रहा, न
हिंदुस्तानी
रहा—और गरीब
हो गया। ऐसे
धीरे— धीरे सब
छूटता जाता, जो —जो हमने
अर्जित किया
है, जो—जो
हमारी
संपत्ति है, वह सब छूट
जाती है।
संस्कार यानी
संपत्ति। फिर
कोरा कागज रह
गया, उस
कोरे कागज को
बुद्ध ने कहा,
भिक्षु। और
ठीक यही अर्थ
जीसस का है, पुअर इन
स्यिट, जो
आत्मा में
दरिद्र है।
आत्मा में कहीं
कोई दरिद्र
होता है!
आत्मा में तो
आदमी समृद्ध
होता है।
लेकिन
मतलब समझ
लेना—बाहर के
संस्कार जब सब
छूट जाते हैं, बाहर
की दृष्टि से
जब आत्मा
बिलकुल कोरी
हो जाती है, दरिद्र हो
जाती है, तभी
भीतर की
दृष्टि से
समृद्ध होती
है।
जीसस
का पूरा वाक्य
है : ब्लेसेड
आर द पुअर इन
स्पिट, फार
देयर्स इज द
किंगडम आफ
गाड। बड़ा
अनूठा वचन है।
धन्यभागी हैं
जो आत्मा में
दरिद्र हैं, क्योंकि
परमात्मा का
राज्य उन्हीं
का है। एक ही
वचन में दोनों
बातें कह दी
हैं। बाहर से
दरिद्र हो गए
भीतर से इतने
समृद्ध हो गए
कि परमात्मा
के राज्य के
मालिक हो गए।
यही
कारण है, दो
शब्द हमने इस
देश में चुने
हैं। हिंदुओं
ने चुना
स्वामी—
संन्यासी के
लिए—बौद्धों
ने चुना
भिक्षु।
हिंदुओं ने
भीतर का ध्यान
रखा, वह जो
घटेगा, संस्कार
के छूट जाने
पर वह जो
परमात्मा का
राज्य मिलेगा,
उसको ध्यान
में रखकर कहा :
स्वामी। और बुद्ध
ने कहा, वह
तो बाद में
घटेगा, तब
घटेगा, वह
तो देर की बात
है, पहले
तो भिक्षु
होना पड़ेगा।
हिंदुओं ने
अंत को खयाल
में रखा, बुद्ध
ने प्रारंभ को
खयाल में रखा।
और
मेरी दृष्टि
में प्रारंभ
को खयाल में
रखना ज्यादा
मूल्यवान है, क्योंकि
अंत तो आ
जाएगा; बीज
तो बोओ, फल
तो लग जाएंगे।
लेकिन कहीं
ऐसा न हो कि
पहले से ही
आदमी अकड़कर
बैठ जाए कि
मैं स्वामी
हूं तो भिक्षु
हो ही न पाए।
और जो भिक्षु
नहीं हुआ, वह
स्वामी न हो
सकेगा।
तो
भगवान ने कहा
ब्राह्मण
भिक्षामात्र
करने से कोई
भिक्षु नहीं
होता। भिखारी
चाहो तो मान ले
सकते हो।
खूब
गहरा भेद
किया।
भाषाकोश में
तो एक ही बात लिखी
है,
भिक्षु कहो
कि भिखारी, क्या फर्क
पड़ता है!
भिक्षाटन जो
करता वह भिखारी
और भिक्षाटन
जो करता
—भिक्षु।
इसलिए बुद्धों
के वचन समझने
हों तो
भाषाकोश का
सहारा नहीं (नैना
चाहिए। उनके
प्रत्येक
शब्द का अर्थ
उनसे ही पूछना
चाहिए। वे
बोलते तो भाषा
हैं, लेकिन
भाषा में कुछ
ऐसा बोलते हैं
जो भाषा से बहुत
पार का है।
भिखारी
और भिक्षु
पर्यायवाची
नहीं हैं। भाषाकोश
में तो हैं, लेकिन
जीवन के अनुभव
में, जीवन
के कोश में
नहीं हैं।
मैं
उसे भिक्षु
कहता हूं
जिसने सब
संस्कार छोड़
दिए।
जिसने
सारी
कंडीशनिंग
छोड़ दी, जो
अनकडीशड हो
गया। जो
संस्कार—शून्य
हो गया। जो
सहज निर्मल हो
गया। जैसा आया
था जन्म के क्षण
वैसा फिर हो
गया, बीच
में जो —जो
लिखावट बनी, सब पोंछ
डाली। उसको
भिक्षु कहता
हूं। और उसे भिक्षु
कहता हूं जो
भीतर एक शून्य
मात्र हो गया
है, वह शून्य
ही असली
भिक्षापात्र
है। जिसके
भीतर एक शून्य
पैदा हो गया, जिसको इतना
भी भाव नहीं
रहा कि मैं
हूं।
इसलिए
बुद्ध ने
आत्मा शब्द का
उपयोग नहीं
किया, क्योंकि
आत्मा शब्द
में मैं हूं
की भनक है। बुद्ध
ने शब्द
प्रयोग किया,
अनात्मा।
बड़े अनूठे
व्यक्ति थे
बुद्ध उन्होंने
शब्द प्रयोग
किया, अनत्ता।
अत्ता का अर्थ
होता है—मैं, अनत्ता का
अर्थ तोता है
—न—मैं। आत्मा
का अर्थ होता
है—मैं, अनात्मा
का अर्थ होता
है—न—मैं।
भारत की
हजारों वर्ष
की परंपरा थी
आत्मा शब्द को
बड़ा बहुमूल्य
मानने की, बुद्ध
ने वह परंपरा
भी तोड दी।
उन्होंने कहा,
यह आत्मा
शब्द अज्ञान
से भरा है।
इसमें मैं का
भाव बचा रहता
है। मैं का
भाव तो जाना
चाहिए। मैं तो
संस्कारों का
ही नाम है। सब
संस्कारों के
जोड़ से मैं
बनता है। जब
सारे संस्कार
चले गए तो
कैसा मैं? कोरा
आकाश रह जाता
है। बदलिया तो
गयीं, बादल
तो गए, निरभ्र
आकाश रह गया।
उस आकाश को
बुद्ध कहते
हैं, वही
असली
भिक्षापात्र
है। और जिसने
उस भीतर के
भिक्षापात्र
को पा लिया, उसे मैं
भिक्षु कहता
हूं।
और
तब उन्होंने
ये गाथाएं
कहीं—
योध
पुज्जज्च
पापज्च
वाहित्वा
ब्रह्मचरिय
वा।
संखाय
लोके चरति स
वे भिक्खूति
वुच्चति ।।
'जो
पुण्य और पाप,
दोनों को
त्यागकर
ब्रह्मचर्य
से रहता है, ज्ञानपूर्वक
लोक में विचरण
करता है, वह
भिक्षु। उसे
मैं भिक्षु
कहता हूं। '
समझना
इस सूत्र को
'जो पुण्य और
पाप, दोनों
को त्यागकर। '
साधारणत:
हमसे कहा जाता
है,
पाप
त्यागो।
बुद्ध कहते
हैं, पाप
तो त्यागो ही,
र्लोकेन
पुण्य को मत
पकड़ लेना।
नहीं तो कुएं
से बचे, खाई
में गिरे।
लोहे की
जंजीरें टूटी,
सोने की
जंजीरें डाल
लीं। पाप तो
बांधता ही है,
पुण्य भी
बांधता है।
देखते
नहीं, पुण्यात्मा
भी कैसा अकड़
जाता है, कैसे
मैं से भर
जाता है कि
मैंने पुण्य
किया, कि
मैं
पुण्यधर्मा
हूं कि दानी
हूं कि ऐसा
हूं कि वैसा
हूं। देखते
हैं समाज—सेवक
को कि कैसा
अकड़कर चलने
लगता है कि
मैं समाज की
सेवा कर रहा
हूं। यह अकडू
तो फिर अहंकार
ही बन जाएगी।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं,
मैं भिक्षु
उसे कहता हूँ
र जिसने पाप
तो छोड़ा ही, पुण्य भी
छोड़ा। जिसने
सब छोड़ा, जिसने
पकड़ना छोड़ा।
जिसने कर्ता
का भाव छोड़ा। जिसने
सिर्फ एक भाव
भीतर गहरा
लिया—शून्य है,
शून्य है, और कुछ भी
नहीं है।
इसलिए बुद्ध
का दर्शन शून्यवाद
कहलाया।
'और जो
ज्ञानपूर्वक
लोक में विचरण
करता है। '
ज्ञानपूर्वक
शब्द का ठीक
अर्थ समझ
लेना। बुद्ध की
बड़ी विशिष्ट
परिभाषा है।
ज्ञानपूर्वक
का यह अर्थ
नहीं कि जो
शास्त्रों को
सिर पर रखे हुए
जगत में विचरण
करता है।
ज्ञानपूर्वक
का अर्थ होता
है,
बोधपूर्वक,
स्मृतिपृर्व्क,
होशपूर्वक,
अवेयरनेस
के साथ जो जगत
में विचरण
करता है। एक—एक
कदम जो
होशपूर्वक
उठाता है, श्वास
भी जो
होशपूर्वक
लेता है, जो
अपने जीवन में
कुछ भी बेहोशी
में नहीं करता,
उसे मैं
भिक्षु कहता
हूं।
' और जो
पाप ओर पुण्य
दोनों को
त्यागकर
ब्रह्मचर्य
से रहता है।'
ब्रह्मचर्य
शब्द का अर्थ
उतना नहीं है, जैसा
तुमने मान रखा
है, उससे
बहुत बड़ा है।
ब्रह्मचर्य
का ठीक अर्थ
होता है, ब्रह्म
की चर्या।
ईश्वरीय
चर्या।
ब्रह्मचर्य
का इतना ही
अर्थ नहीं
होता जितना
अर्थ अंग्रेजी
के सेलिबेसी
का होता है।
ब्रह्मचर्य
का इतना ही
मतलब नहीं
होता कि जो
कामवासना में
नहा उतरता। वह
तो बड़ा छोटा
अर्थ है। वह
तो है ही, लेकिन
वह बड़ा छोटा
अर्थ है, उतने
पर बात समाप्त
नहीं होती।
ब्रह्मचर्य की
पूरी बात तो
तब होती है, जब कोई
व्यक्ति
ईश्वरीय
चर्या में
जीता है। ऐसे
जीता है जैसे
ईश्वर जीता
है। इससे कम
में ब्रह्मचर्य
नहीं।
तो
बुद्ध नै कहा, मैं
भिक्षु उसको
कहता हूं
जिसकी चर्या
ईश्वर जैसी
है। इतनी
शुद्ध, इतनी
निर्मल, इतनी
पवित्र। इतनी
पवित्र कि
पुण्य भी उसने
त्याग दिया।
और इतनी शांत
और इतनी मौन
कि वहां सदा
स्मृति का
दीया जलता
रहता है। उठता
है भिक्षु, बैठता है
भिक्षु, चलता
है भिक्षु, भोजन करता, पानी पीता, लेकिन हर
वक्त स्मृति
का दीया जलता
रहता है—जागरूक।
जिसको
गुरजिएफ ने
सेल्फ
रिमेंबरिंग
कहा है। आत्मसाराग
से भरा रहता
है।
बुद्ध
का शब्द है, सम्यक—स्मृति।
ठीक—ठीक जानता
रहता है कि
मैं क्या कर
रहा हूं।
जिसके जीवन
में अनजाने
कुछ भी नहीं
होता। इसका
अर्थ यह हुआ
कि अंततः
जिसका अचेतन
मन विसर्जित
हो जाएगा।
क्योंकि जब अनजाने
कुछ भी नहीं
होता तो धीरे—
धीरे भीतर रोशनी
बढती जाएगी, अचेतन
समाप्त हो
जाएगा, चैतन्य
ही रह जाएगा।
पूरा घर
देदीप्यमान
हो जाएगा।
उसको मैं
भिक्षु कहता
हूं।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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