पविवेकं
रसं पीत्वा
रसं उपसमस्स
च।
निद्दरो
होति
निप्पापो
धम्मपीतिरसं पिवं।
तस्माहि:
धीरन्च पज्च्ज्च
बहुस्सुतं व
धोरय्हसीलं
वतवतमरियं।
न तादिसं
सपुरिसं
सुमेधं भजेथ
नक्सतपथं व चंदिमा
।।
एक
दिन वैशाली
में विहार
करते हुए
भगवान ने भिक्षुओं
से
कहा—भिक्षुओं
सावधान। मैं
आज से चार माह
बाद
परिनिवृत्त
हो जाऊंगा।
मेरी घड़ी करीब
आ रही है मेरे
विदा का क्षण
निकट आ रहा
है। इसलिए जो
करने योग्य हो
करो। देर मत
करो।
ऐसी
बात सुन
भिक्षुओं में
बड़ा भय
उत्पन्न हो गया
स्वाभाविक।
भिक्षु— संघ
महाविषाद में
डूब गया।
स्वाभाविक।
जैसे अचानक
अमावस हो गयी।
भिक्षु रोने
लगे छाती
पीटने लगे।
झुंड के झुंड
भिक्षुओं के
इकट्टे होने
लगे और सोचने
लगे और रोने
लगे और कहने
लगे अब क्या
होगा? अब
क्या करेंगे।
लेकिन
एक भिक्षु थे, तिष्यस्थविर
उनका नाम था
वे न तो रोए और
न किसी से कुछ
बात ही करते
देखे गए।
उन्होंने
सोचा शास्ता
चार माह के
बाद
परिनिवृत्त
होंगे और मैं
अभी तक
अवीतराग हू।
तो शास्ता के
रहते ही मुझे
अर्हतत्व पा
लेना कहिए। और
ऐसा सोच वे
मौन हो गए।
ध्यान में ही
समस्त शक्ति
उंडेलने लगे।
उन्हें अचानक
चुप हो गया
देख भिक्षु
उनसे पूछते आवुस, आपको क्या
हो गया है? क्या
भगवान के जाने
की बात से
इतना सदमा
पहुंचा? क्या
आपकी वाणी खो
गयी ' आप
रोते क्यों
नहीं? आप
बोलते क्यों
नहीं? भिक्षु
डरने भी लगे
कि कहीं पागल
तो नहीं हो गए
आघात
ऐसा था कि
पागल हो सकते
थे। जिनके
चरणों में
सारा जीवन
समर्पित किया
हो, उनके
जाने की घड़ी आ
गयी हो! जिनके
सहारे अब तक जीवन
की सारी आशाएं
बांधी हों, उनके विदा
का क्षण आ गया
हो! तो
स्वाभाविक
था।
लेकिन
तिष्य जो चुप
हुए सो चुप ही
हुए। वे इसका
भी जवाब न
देते। वे कुछ
लत्तर ही न
देते एकदम सन्नाटा
हो गया।
अंतत:
यह बात भगवान
के पास पहुंची
कि क्या हुआ है
तिष्यस्थविर
को? अचानक
उन्होंने
अपने को
बिलकुल बंद कर
लिया। जैसे
कछुआ समेट
लेता है।
मापने को और
अपने भीतर हो
जाता है। ऐसा
अपने को अपने
भीतर समेट
लिया है। यह
कहीं कोई
पागलपन का
लक्षण तो
नहीं। आघात
कहीं इतना तो
गहन नही पड़ा
कि उनकी
स्मृति खो गयी
है वाणी खो
गयी है?
भगवान
ने
तिष्यस्थविर
को बुलाकर
पूछा तो तिष्य
ने सब बात बतायी
अपना हदय कहा
और कहा कि
आपसे
आशीर्वाद मांगता
हूं कि मेरा
संकल्प पूरा
हो। ,,आपके
जाने के पहले
तिष्यस्थविर
विदा हो जाना चाहिए।..
मौत की नहीं
मांग कर रहे
हैं वे यह तिष्यस्थविर
नाम का जो
अहंकार है यह
विदा हो जाना
चाहिए..... मैं अपना
प्राणपण लगा
रहा हूं आपका
आशीर्वाद
चाहिए। अब न
बोलूंगा न
हिलूंगा न डोलुंगा
क्योंकि सारी
शक्ति इसी पर
लगा देनी है
चार माह!
ज्यादा समय भी
पास में नहीं।
और आपने कहा
भिक्षुको
सावधान हो जाओ
और जो करने
योग्य है करो!
तो यही मुझे
करने योग्य
लगा कि ये चार
महीने जीवन की
क्रांति के
लिए लगा
दूं—पूरा लगा
हूं। इस पार
या उस पार।
लेकिन यह कहने
को न रह जाए कि
मैने कुछ उठा
रखा था। कि मैने
कुछ छोड़ दिया
था किया नहीं
था।
बुद्ध
ने तिष्य
भिक्षु को
आशीर्वाद
दिया और भिक्षुओं
से कहा
भिक्षुओं जो
मुझ पर स्नेह
रखता है उसे
तिष्य के समान
ही होना
चाहिए। यही तो
है जो मैने
कहा था कि करो, जो करने
योग्य है करो
सावधान मैं
चार माह के बाद
परिनिवृत्त
हो जाऊंगा।
रोने— धोने से
क्या होगा।
रो— धोकर तो
जिंदगियां
बिता दीं
तुमने। चर्चा
करने से क्या
होगा! झुंड के
झुंड बनाकर विचार
करने से और
विषाद करने से
क्या होगा। तुम
मुझे तो न रोक
पाओगे मेरा
जाना निश्चित
है। रो—रो कर
तुम यह क्षण
भी गंवा दोगे
आंसू नहीं काम
आएंगे। नौका
बना लो।
तिष्यस्थविर
ने ठीक ही किया
है। इसने मौन
की नौका बना
ली। इसी मौन
की नौका से
कोई तिरता है।
इसीलिए तो हम
साधु को मुनि
कहते हैं।
मुनि का अर्थ
होता है जिसने
मौन की नौका
बना ली
तिष्यस्थविर
मुनि हो गया
है।
गंध—
माला आदि से
पूजा करने
वाले मेरी
पूजा नहीं
करते। वह
वास्तविक
पूजा नहीं है।
जो ध्यान के
फूल मेरे
चरणों में आकर
चढ़ाता है वही
मेरी पूजा
करता है। ऐसा
बुद्ध ने कहा।
धर्म के अनुसार
आचरण करने
वाला ही मेरी
पूजा करता है
ऐसा बुद्ध ने
कहा ध्यान ही
मेरे प्रति
प्रेम की
कसौटी है। रोओ
मत ध्याओ। रोओ
नहीं ध्याओ
और
तब उन्होंने
ये गाथाएं
कहीं—
पविवेकं
रसं पीत्वा
रसं उपसमस्स
च।
निद्दरो
होति
निप्पापो
धम्मपीतिरसं
पिवं।।
'एकांत का रस
पीकर तथा
शांति का रस
पीकर मनुष्य
निडर होता है और
धर्म का
प्रेमरस पीकर
निष्पाप होता
है।'
तो, एकांत का
रस पीकर—स्वात
का अर्थ होता
है, अपने
भीतर डुबकी
लो। बाहर बहुत
संबंध जोड़े, दूसरे से
बहुत नाते
बनाए, दुख
के अतिरिक्त
क्या कब पाया?
अब अपने से
नाता जोड़ो। एक
नया सेतु
बनाओ—अपने और
अपने बीच। अब
अपने में जाओ।
एकांत का अर्थ
नहीं होता है,
हिमालय चले
जाओ। एकांत का
अर्थ होता है,
जो संबंधों
में बहुत
ज्यादा जीवन
ऊर्जा लगायी
है, उसे
संबंधों से
मुक्त करो।
अपने साथ रमो।
आत्मलीन
बनी।
'एकात का रस
......।'
पविवेक रसं
पीत्वा।
और
बुद्ध उसको रस
कह रहे हैं।
प्यारा शब्द उपयोग
कर रहे हैं।
क्योंकि
जिसने एकात का
रस पी लिया, उसने
अमृत पी लिया।
जिसे तुम
संबंध में खोज
रहे हो और कभी
संबंध में पा
न सकोगे, वह
एकांत में
पाया जाता है।
वह अपने ही
स्वभाव में
छिपा पड़ा है।
वह झरना
तुम्हारा है।
वह तुम्हारी
ही गहराइयों
में दबा पड़ा
है।
'एकांत का रस
पीकर तथा
शांति
का रस पीकर
मनुष्य निडर
होता है।
अब
तुम भयभीत हो
रहे हो, बुद्ध ने
कहा, रो
रहे हो, चीख
रहे हो। मेरे
जाने के कारण
तुम भयभीत हो
रहे हो।
क्योंकि
तुमने मुझसे
तो संबंध
बनाया, अपने
से संबंध नहीं
बनाया। मैं जा
रहा हूं तो तुम
रो रहे हो।
पत्नी जाएगी
तो पति रोका।
पति जाएगा तो
पत्नी रोकी, बेटा जाएगा
तो बाप रोका, बाप जाएगा
तो बेटा रोका।
जिन्होंने
दूसरों से
संबंध बनाने
में ही सारी
ऊर्जा
नियोजित की है,
वे रोते ही
रोते जीवन
गंवा के। अपने
से संबंध
जोड़ो।
'शांति का रस
पीकर.।
रसं
उपसमस्स च।
उस
एकांत का, मौन का, शब्द श—यता
में डूबकर
अपना रस पीओ, अपने को
चखो। तो फिर
निडर हो
जाओगे। फिर
कोई भय नहीं
है, बुद्ध
रहें कि जाएं!
कौन क्हा
आता—जाता है!
सब जहां हैं, वहीं हैं। न
कोई आता, न
कोई जाता, सिर्फ
हमारे गबंध
टूटते और
बनते। तुम अगर
असंग हो जाओ, तो फिर कोई
जीवन में पीड़ा
नहीं, दुख
नहीं।
'धर्म का
प्रेमरस पीकर
निष्पाप हो
जाओ।’
धर्म
कहां है? धर्म का
अर्थ होता है,
स्वभाव।
धर्म का अर्थ
होता है, तुम्हारी।
नयति। तुम जो
वस्तुत: हो, वही धर्म।
'इसलिए:
जैसे चंद्रमा
नक्षत्र—पथ का
अनुसरण करता
है, वैसे
ही धीर, प्राज्ञ,
बहुश्रुत, शीलवान, व्रतसंपन्न,
आर्य तथा
बुद्धिमान
पुरुष का
अनुगमन करना
चाहिए।
'तो बुद्ध ने
कहा, इस
तिष्य को देखो,
यह धीर है, प्रात है, बहुश्रुत है,
शीलवान है,
व्रतसंपन्न
है, आर्य
है, बुद्धिमान
है, इसका
अनुगमन करो।
रोओ—धोओ मत।
तस्माहि:
धीरन्च पज्चज्च
बहुत्सुतं व
धोरय्हसीलं
वतवतमरियं।
इसके
पीछे जाओ।
इससे सीखो। जो
इसे हुआ है, वही
तुम्हें भी
होने दो। यह
जो
तिष्यस्थविर
कर रहा है।
क्या कर रहा
है?
कोलाहल
से काल की
निद्रा नहीं
टूटती,
न
धक्के मारने
से समय का
द्वार खुलता
है
रचनात्मक
समाधि के
व्यूह में जाओ
नीरवता
और शांति को
सिद्ध करो
रात, अंधकार
और अकेलापन
शक्ति
के असली उत्स
हैं
रोशनी
से बचो
और
लक्ष्य को
अंधेरे में
विद्ध करो
बाहर
बहुत रोशनी है, इसलिए हम
आंखें खोले
बैठे रहते
हैं। बाहर बहुत
रूप है, इसलिए
हम आंखें खोले
बैठे रहते
हैं। आंख बंद
करते हैं तो
भीतर अंधेरा
है।
रात, अंधकार
और अकेलापन
शक्ति
के असली उत्स
हैं
रोशनी
से बचो
और
लक्ष्य को
अंधेरे में
विद्ध करो
जब
कोई मौन हो
जाता है, ध्यान में
डूबता, तो
अपने ही गहन
अंधेरे में
डूबता है।
तुमने देखा, वृक्ष की
असली ऊर्जा
आती जड़ों से, जो अंधेरे
में दबी हैं।
शक्ति के असली
उत्स, स्रोत
अंधेरे में
हैं। मां के
गर्भ में
अंधेरे में
पड़ा हुआ बच्चा
बढ़ता है, जीवन
को पाता है।
बीज भूमि में
दब जाता है, अंधेरे में
फूटता है। तुम
थक जाते दिन
में, रात
के अंधेरे में
सो जाते, सुबह
फिर
पुनरुज्जीवित
होते हो—नया
जीवन, नयी
ऊर्जा लेकर
आते हो।
जिसे
अपने भीतर
जाने का रहस्य
समझ में आ गया, उसके
जीवन में परम
ऊर्जा प्रगट
होने लगती है।
वह एक ऐसे
उत्स पर पहुंच
जाता है, एक
ऐसे स्रोत पर
कि जितना भी
खर्च करो, करो,
कुछ खर्च
नहीं होता। वह
अविनाशी
स्रोत को उपलब्ध
हो जाता है।
बुद्ध
ने अनेक—अनेक
रूपों में
लोगों को
जागने की ही
शिक्षा दी है।
कोई ज्यादा
भोजन कर रहा है, तो उसे
जगाया। कोई
भूखा है—तो
कैसे जाग
पाएगा—तो भोजन
दिया। कोई
रागाग्नि में
डूबा है, तो
उसे झकझोरा, जगाया। कोई
शब्दों में, रोने—धोने
में, संबंधों
में डूबा है, तो उसे
हिलाया।
तोड़कर
पुराने आभूषण
नहीं
बनाया कोई नया
आभरण
नकारकर
स्थापित
मूल्य
नहीं
रचा कोई नया
प्रतिमान
केवल
दी
मूर्च्छा—विमुक्त
दृष्टि
सत्य
को मुक्ति।
केवल
दी
मूर्च्छा—विमुक्त
दृष्टि
बुद्ध
का दान इतना
ही
है—मूर्च्छा—विमुक्त
दृष्टि। तुम
सोए—सोए न
जीओ। जागकर
जीओ। होश से जीओ।
बुद्ध ने कोई
प्रार्थना
नहीं सिखायी
किसी आकाश में
बैठे
परमात्मा के
प्रति। न
बुद्ध ने कहा
भिखारी बनकर
मांगो। न
बुद्ध ने कहा
याचक बनो, हाथ
फैलाओ किसी
परमात्मा के
सामने। बुद्ध
ने तो कहा, अपने
भीतर जाओ और
परमात्मा मिल
जाएगा, तुम
परमात्मा हो।
नहीं
किसी याचक की
प्रार्थना
कि
देवता पूरी
करें कामना
नहीं
किसी
संत्रस्त की
गुहार
कि
इंद्र करें
रिपु का हनन
केवल
नमन उनको
जो
अरिहंत, जो संत,
भले
ही उनका कोई
धर्म कोई पंथ
मात्र
समर्पण की
वर्णमाला
एकमात्र
मंत्र
एकमात्र
मंत्र
सिखाया—समर्पण
की वर्णमाला। कैसे
तुम अपने
अंतस्तल के
केंद्र पर
अपनी परिधि को
समर्पित कर
दो। कैसे तुम
व्यर्थ को
सार्थक पर
समर्पित कर
दो। कैसे तुम
बाहर को भीतर
पर समर्पित कर
दो।
मात्र
समर्पण की
वर्णमाला
एकमात्र
मंत्र
और
कोई मंत्र
नहीं सिखाया
बुद्ध ने।
नहीं
किसी याचक की
प्रार्थना
कि
देवता पूरी
करें कामना
नहीं
किसी
संत्रस्त की
गुहार
कि
इंद्र करें
रिपु का हनन
केवल
नमन उनको
जो
अरिहंत, जो संत
भले
ही उनका कोई
धर्म कोई पंथ
मात्र
समर्पण की
वर्णमाला
एकमात्र
मंत्र
अरिहंत
शब्द बौद्धों
का बहुमूल्य
शब्द है। उसका
अर्थ होता है, जिसने
अपने शत्रुओं
पर विजय पा
ली। और शत्रुओं
का जो प्रधान
है, उसको
बुद्ध ने प्रमाद
कहा है, मूर्च्छा।
जो जाग गया, वह अरिहंत।
जो जाग गया, वही संत।
फिर उसका क्या
धर्म और क्या
पंथ, इसका
कुछ हिसाब
रखने की जरूरत
नहीं। जहा
तुम्हें कोई
अरिहंत मिल
जाए, कोई
संत मिल जाए, उसके पीछे
चलो।
'जैसे
चंद्रमा
नक्षत्र—पथ का
अनुसरण करता
है, वैसे
ही धीर, प्रात,
बहुश्रुत, शीलवान, व्रतसंपन्न,
आर्य तथा
बुद्धिमान
पुरुष का
अनुगमन करना
चाहिए।
जहां
संत मिल जाएं, उनकी
छाया में
उठो—बैठो। जहा
संत मिल जाएं,
उनकी
तरंगों में
डूबो। उनका रस
पीओ। उनकी धारा
में बहो, स्रोतापन्न
बनो।
ये
छोटी—छोटी
कथाएं और इन
कथाओं के मध्य
में आए
छोटे—छोटे
सूत्र
तुम्हारे
समग्र जीवन को
रूपातरित कर
सकते हैं।
लेकिन मात्र
सुनने से नहीं, गुनो, करो।
जैसे बुद्ध ने
कहा न, कि
भिक्षुओ, मैं
आज से चार माह
बाद
परिनिवृत्त
हो जाऊंगा, इसलिए जो
करने योग्य है,
करो। फिर
बुद्ध चार माह
रहें
तुम्हारे साथ,
कि चार साल रहें,
कि चालीस
साल, क्या
फर्क पड़ता है।
जो करने योह
है, करो।
सावधान!
आज
इतना ही।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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