11 मई, 1975 प्रात;
श्री
ओशो आश्रम
पूना
सूत्रसार :
जब
मैं भूला रे
भाई, मेरे सत
गुरु जुगत
लखाई।
किरिया
करम अचार मैं छाड़ा, छाड़ा तीरथ
नहाना।
सगरी
दुनिया भई
सुनायी, मैं
ही इक
बौराना।।
ना
मैं जानूं
सेवा बंदगी ना
मैं घंट बजाई।
ना
मैं मूरत धरि
सिंहासन ना
मैं पुहुप चढ़ाई।।
ना
हरि रीझै
जब तप कीन्हे
ना काया के जारे।
ना
हरि रीझै धोति छाड़े
ना पांचों के
मारे।।
दाया
रखि धरम
को पाले जगसूं
रहै
उदासी।
अपना
सा जिव
सबको जाने ताहि
मिले
अनिवासी।।
सहे
कसबद बदा
को त्यागे
छाड़े गरब गुमाना।
सत्य
नाम ताहि
को मिलि
है कहै कबीर
दिवाना।।
एक
अंधेरी रात की
भांति है
तुम्हारा
जीवन, जहां
सूरज की किरण
तो आना असंभव
है, मिट्टी
के दिए की
छोटी सी लौ भी
नहीं है। इतना
ही होता तब भी
ठीक था, निरंतर
अंधेरे में
रहने के कारण
तुमने अंधेरे
को ही प्रकाश
भी समझ लिया
है।
और जब कोई प्रकाश से दूर हो और अंधेरे को ही प्रकाश समझ ले तो सारी यात्रा अवरुद्ध हो जाती है। इतना भी होश बना रहे कि मैं अंधकार में हूं, तो आदमी खोजता है, तड़फता है प्रकाश के लिए, प्यास लेती है, टटोलता है, गिरता है, उठता है, मार्ग खोजता है, गुरु खोजता है, लेकिन जब कोई अंधकार को ही प्रकाश समझ ले तब सारी यात्रा समाप्त हो जाती है। मृत्यु को ही कोई समझ ले जीवन, तो फिर जीवन का द्वार बंद हो गया।
और जब कोई प्रकाश से दूर हो और अंधेरे को ही प्रकाश समझ ले तो सारी यात्रा अवरुद्ध हो जाती है। इतना भी होश बना रहे कि मैं अंधकार में हूं, तो आदमी खोजता है, तड़फता है प्रकाश के लिए, प्यास लेती है, टटोलता है, गिरता है, उठता है, मार्ग खोजता है, गुरु खोजता है, लेकिन जब कोई अंधकार को ही प्रकाश समझ ले तब सारी यात्रा समाप्त हो जाती है। मृत्यु को ही कोई समझ ले जीवन, तो फिर जीवन का द्वार बंद हो गया।
एक
बहुत पुरानी
यूनानी कथा
है। एक सम्राट
को ज्योतिषियों
ने कहा कि इस
वर्ष पैदा
होने वाले बच्चों
में से कोई एक
तेरे जीवन का
घाती होगा।
ऐसी
बहुत
कहानियां हैं
संसार के सभी
देशों में।
कृष्ण के साथ
भी ऐसी कहानी
जोड़ी है और
जीसस के साथ
भी है कहानी
जोड़ी है।
लेकिन यूनानी
कहानी का कोई
मुकाबला
नहीं।
सम्राट
ने जितने
बच्चे उस वर्ष
पैदा हुए, सभी को
कारागृह मग
डाल दिया, मारा
नहीं।
क्योंकि
सम्राट को लगा
कि कोई एक इनमें
से हत्या
करेगा और सभी
हत्या मैं
करूं, यह
महा-पातक हो
जाएगा।
छोटे-छोटे
बच्चे बड़ी मजबूत
जंजीरों
में जीवन भर
के लिए
कोठरियों में
डाल दिए गए। जंजीरों
में जीवन भर
के लिए
कोठरियों में
डाल दिए गए। जंजीरों
में बंधे-बंधे
हुए ही वे बड़े
हुए। उन्हें
याद भी न रही
कि कभी ऐसा भी
कोई क्षण था
जब जंजीरें
उनके हाथ में
न रही हों।
जंजीरों
को उन्होंने
जीवन के अंग
की तरह ही
पाया और जाना।
उन्हें याद भी
तो नहीं हो
सकती थी, कि
कभी वे मुक्त
थे। गुलामी ही
जीवन थी, और
इसीलिए
उन्हें कभी
गुलामी अखरी
नहीं। क्योंकि
तुलना हो तो
तकलीफ होती
है। तुलना का
कोई उपाय ही न
था। गुलाम ही
वे पैदा हुए
थे, गुलाम
ही वे बड़े हुए
थे। गुलामी ही
उनका सार-सर्वस्थ
थी। तुलना न
थी
स्वतंत्रता
की। और
दीवारों से
बंध थे वे, भयंकर
मजबूत जंजीरों
से।
और
उनकी आंखें
अंधकार की
इतनी आधीन हो
गई थी कि वे
पीछे लौटकर भी
नहीं देख सकते
थे, जहां
प्रकाश का जगत
था। प्रकाश
कष्ट देने लगा
था। अंधेरे से
इतनी राजी हो
गए थे, कि
अब प्रकाश से
राजी नहीं हो
पाती थी
आंखें। सिर्फ
अंधेरे में ही
आंख खुलती थीं,
प्रकाश में
तो बंद हो
जाती थीं।
तुमने
भी देखा होगा, कभी घर के
शांत स्थान से
भरी दुपहरी
में बाहर आ
जाओ, आंख तिलमिला जाती
है। छोटे
बच्चे पैदा
होते हैं, नौ
महीने अंधकार
में रहते हैं
मां के पेट
में। प्रकाश
की एक किरण भी
वहां नहीं
पहुंचती।
और जब
बच्चा पैदा
होता है, तब
नासमझ
डाक्टरों का
कोई अंत नहीं
है। बच्चा पैदा
होता है
अस्पताल में,
वहां से
इतना प्रकाश
रखते हैं, कि
बच्चे की
आंखें तिलमिला
जाती हैं। और
सदा के लिए
आंखों को
भयंकर चोट पहुंच
जाती है।
बच्चे को पैदा
होना चाहिए
मोमबत्ती के
प्रकाश में।
वहां
हजार-हजार
कैंडल के बल्ब
लगाने की
जरूरत नहीं
है। दुनिया
में जो इतनी
कमजोर आंखें
हैं, उनमें
से पचास
प्रतिशत के
लिए अस्पताल
का डाक्टर
जिम्मेवार
है।
उसको
सुविधा होती
है ज्यादा
प्रकाश में।
वह देख पाता
है, क्या हो
रहा है, क्या
नहीं हो रहा
है। क्या करना
है, क्या
नहीं करना।
लेकिन उसकी
सुविधा का
सवाल नहीं है,
सुविधा तो
बच्चों की है।
जो
जीवन भर रहे
हैं अंधकार
में, नौ महीने
नहीं, पूरे
जीवन, वे
पीछे लौटकर भी
नहीं देख सकते
थे। वे दीवाल की
तरफ ही देखते
थे। राह पर
चलते लोगों, खिड़की-द्वार
के पास से
गुजरते लोगों
की छायाएं
बनती थीं
सामने दीवाल
पर। वे समझते
थे, वे
छायाएं सत्य
है। यही असली
लोग हैं। उस
छाया को ही वे
जगत समझते थे।
छाया
के इस जगत को
ही हिंदुओं ने
माया कहा है।
असली तो दिखाई
नहीं पड़ता, असली का
प्रतिबिंब
दिखाई पड़ता
है। असली को
देखने के लिए
आंख
चाहिए--समर्थ
आंख, जो
प्रकाश में
खुल सके। जो
सूरज के
सामने-सामने
हो सके।
अंधेरे की आदी
आंख सत्य को
नहीं देख सकती।
सत्य ढंका हुआ
नहीं है। सत्य
तो प्रकट है, उघड़ा हुआ है।
तुम्हारी आंख
कमजोर है और
सत्य को न देख
पाएगी।
धीरे-धीरे
उन्होंने
पीछे लौट कर
देखना ही बंद कर
दिया। पीछे
लौट कर देखने
का मतलब यह था, आंख में
आंसू आ जाएं।
वह पीड़ा का
जगत था।
तुमने
भी सत्य को
देखना बंद कर
दिया है। और
जब भी कोई
तुम्हें सत्य
दिखा देता है
तो पीड़ा होती
है। आनंद
जन्मता नहीं, कष्ट होता
है। जब भी
कहीं कोई सत्य
कह देता है तो
कष्ट ही होता
है।
लेकिन
एक आदमी ने
हिम्मत की।
क्योंकि उसे
शक होने लगा।
ये छायाएं
छायाएं नहीं
हैं। क्योंकि
इनसे बोलो तो
ये उत्तर नहीं
देती। इन्हें
छुओ, तो कुछ भी
हाथ नहीं आता।
इन्हीं पकड़ो
तो कुछ पकड़
में नहीं आता।
एक आदमी को शक
होने लगा। कोई
मनीषी, कोई
बुद्ध!
उस
आदमी ने
धीरे-धीरे
पीछे देखने का
अभ्यास शुरू
किया। वर्षों
लग गए। बड़ा
कष्ट हुआ। जब
भी पीछे देखता, आंखें तिलमिला
जातीं। आंसू
गिरते। लेकिन
उसने अभ्यास
जारी रखा। वह
बड़ी
तपश्चर्या
थी। फिर
धीरे-धीरे
आंखें राजी
होने लगीं।
और तब
वह चकित हुआ, कि हम किसी कारागुह
में पड़े हैं, और हमने
छायाओं को
सत्य समझ लिया
है। वह पीछे देखने
में समर्थ हो
गया। उसकी
गर्दन मुड़ने
लगी और उसकी
आंखें देखने
लगीं बाहर के
रंग, वृक्ष
और वृक्षों में
खिले फूल, राह
से गुजरते
लोग। रंगीन थी
दुनिया काफी।
छायाएं
बिलकुल
रंगहीन थीं, उदास थीं।
बाहर उत्सव
था। छायाओं
में कोई उत्सव
पकड़ में नहीं
आता था। बच्चे
नाचते गाते
निकलते थे।
छायाएं तो
बिलकुल चुप
थीं। वह वाणी
न थी, वहां
मुखरता न
थी--बाहर।
पीछे छुपा हुआ
असली जगत था।
उस
आदमी ने
धीरे-धीरे
इसकी चर्चा
दूसरे कैदियों
से शुरू की।
बाकी कैदी
हंसने लगे, कि तुम्हारा
दिमाग खराब हो
गया है। हम तो
सदा से यही
सुनते आए हैं
कि यही सत्य
है, जो
सामने है। और
हम तो पीछे
मुड़ कर देखते
हैं तो कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता, सिवाय
अंधकार के। जब
आंख बंद हो
जाए तो सिवाय अंधकार
के कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ता।
जरूरी
नहीं है कि
अंधकार हो। हो
सकता है, सिर्फ
आंख बंद हो
जाती हो।
लेकिन दोष कोई
अपने ऊपर कभी
लेता नहीं। तो
कोई यह तो
मानता नहीं कि
मेरी आंख बंद
हो सकती है, इसलिए
अंधकार है।
लोग मानते हैं,
अंधकार है,
इसलिए
अंधकार है।
मेरी आंख और
बंद हो सकती
है? यह कभी
संभव है? हम
अपनी आंख तो
सदा खुली
मानते हैं।
अपना हृदय तो
सदा प्रेम से
भरपूर मानते
हैं। अपनी
प्रज्ञा तो
सदा
प्रज्वलित
मानते हैं।
अपनी आत्मा तो
सदा जाग्रत
मानते हैं। और
वही हमारी
भ्रांतियों
की जड़ है।
फिर
कैदियों की
संख्या बहुत
थी, वह अकेला
था। लोकतंत्र
कैदियों के
पक्ष में था।
बहुमत उनका
था। और
उन्होंने कहा
कि अगर ऐसा ही
है तो सबकी
सलाह ले ली
जाए। एक भी मत
मिला नहीं उस
आदमी को। और
लोग हंसे, खूब
मजाक की
उन्होंने।
धीरे-धीरे उस
आदमी को पागल
मानने लगे।
वही
कबीर कह रहे
हैं,
"सगरी
दुनिया भई सयानी,
मैं ही इक
बौराना।'
उस
आदमी को अगर
कबीर का पद
याद होता तो
उसने भी कहा
होता सब लोग
सयाने, सिर्फ
मैं एक पागल।
और सिर्फ वह
एक ही सयाना था।
लेकिन जहां
अंधों की भीड़
हो वहां आंखवाला
पागल हो जाता
है। जहां मूढ़ों
की भीड़ हो
वहां
बुद्धिमान
पागल हो जाता
है। जहां
बीमारी
स्वास्थ्य
समझी जाती हो,
वहां
स्वस्थ आदमी
का लोग इलाज
कर देंगे पकड़
कर।
स्वाभाविक
है। क्योंकि
लोग अपने को
मापदंड समझते
हैं। और फिर
जब बहुमत उनके
साथ हो, बहुमत
ही नहीं, सर्वमत
उनके साथ
हो...उस एक आदमी को
छोड़ कर सभी
उनके साथ थे।
तो संदेह ही
कैसे पैदा हो?
लोग हंसे, मजाक की, उसे
पागल समझा, उसका
तिरस्कार
किया, उसकी
अपेक्षा की।
धीरे-धीरे
लोगों ने उससे
बातचीत बंद कर
दी। क्योंकि
वह बेचैनी
पैदा करता था।
बेचैनी पैदा करता
था क्योंकि
कभी-कभी संदेह
उनके मन में
भी उठ आता था
कि हो न हो, कहीं यह
आदमी सच न हो।
क्योंकि अगर
यह आदमी सच है
तो उनकी पूरी
जिंदगी बेकार
गई। बड़ा दांव
है। यह आदमी
गलत होना ही
चाहिए। नहीं
तो उनकी पूरी
जिंदगी गलत
होगी।
और कोई
भी आदमी नहीं
चाहता कि उसकी
पूरी जिंदगी
गलत सिद्ध हो।
क्योंकि इसका
अर्थ हुआ
तुमने यूं ही
गंवाया।
तुमने अवसर खो
दिया। तुम मूढ़
हो, अज्ञानी
हो, मूर्च्छित
हो। अहंकार यह
मानने को
तैयार हनीं
होता। अहंकार
कहता है मुझसे
ज्ञानी और कौन?
मुझसे
समझदार और कौन?
ऐसे अहंकार
रक्षा करता
अज्ञान की।
अहंकार रक्षक
है, अज्ञान
के ऊपर। उसके
रहते अज्ञान का
किला पराजित न
होगा, तोड़ा
न जा सकेगा।
धीरे-धीरे
उन्होंने
इसकी उपेक्षा
कर दी, क्योंकि
उससे बात करनी
भी बेचैनी थी।
क्योंकि वह
हमेशा रंगों
की बात करता, रंग उनमें
से किसी ने भी
देखे न थे। वह
हमेशा पीछे चलनेवाले
संगीत की बात
करता। संगीत
उनमें से किसी
ने भी सुना
था। उनकी सब
इंद्रियां
पंगु हो गई थीं।और
धीरे-धीरे वह
आदमी कहने लगा,
कि ये
जंजीरें हैं
जिनको तुम
आभूषण समझे
हुए हो। आखिर
कैदी को भी
सांत्वना तो
चाहिए। तो वह जंजीर
को आभूषण समझ
लेता है। आखिर
कैदी को भी जीना
तो है। तो
कारागृह को घर
समझ लेता है।
न केवल समझ लेता
है बल्कि भीतर
से सजा भी
लेता है, ताकि
पूरा भरोसा आ
जाए, अपना
घर है।
जंजीरों
पर कैदियों ने
फूल पत्तियां
बना ली थीं। जंजीरों
को घिस-घिस कर
वे साफ किया
करते थे।
क्योंकि जिसकी
जंजीर जितन
चमकदार होती, वह उतना
संपत्तिशाली
समझा जाता था।
जिसकी जंजीर
जितनी मजबूत
होती, वह
उतना धनी समझ
जाता था।
जिसकी जंजीर
जितनी वजनी
होती, उसकी
उतनी ही संपदा
थी स्वभावतः।
अगर जंजीर कमजोर
होने लगे तो
वे उसे सुधार
लेते थे।
क्योंकि
जंजीर ही उनका
जीवन थी। और
जंजीर को
उन्होंने
जंजीर कभी
माना न था, वह
आभूषण था। वही
तो एकमात्र थी
उनके शरीर पर।
और तो कोई
सजावट न थी।
धीरे-धीरे
इन आदमी को
समझ में आने
लगा कि ये आभूषण
नहीं, जंजीरें
हैं। क्योंकि
उसे
स्वतंत्रता
के जगत की
थोड़ी झलक
मिलनी शुरू हो
गई। एक किरण
उतर आई अंधेरे
में। सूरज का
संदेश आ गया।
अब इस अंधेरे
घर में, इस
अंधेरे
कारागृह में
रहना मुश्किल
हो गया।
धीरे-धीरे
उसने जंजीर को
तोड़ने की
व्यवस्था कर
ली।
असली
सवाल तो भीतर
की जंजीर का
टूट जाना है।
बाहर की जंजीर
बहुत कमजोर
है। अगर तुम
बंध हो, तो
भीतर की जंजीर
से बंध हो।
भीतर की जंजीर
है, जंजीर
को आभूषण
समझना। एक बार
उसे समझ में आ
गया कि आभूषण
नहीं है, आधी
तो मुक्ति हो
ही गई। उसी
दिन से उसने जंजीरों
को घिसना बंद
कर दिया, साफ
करना बंद कर
दिया, सजाना
बंद कर दिया।
लोग समझने लगे
कि जीवन से उदास
हो गया है।
जैसा
कि आम तौर से
संन्यासी के
लिए संसारी
समझते हैं।
उदास हो गया
बेचारा। उनके
भाव में एक बेचारेपन
की प्रतीति
होती है।
जिंदगी में
हार गया। शायद
पाया कि अंगूर
खट्टे हैं।
छलांग पूरी न
हो सकी। कमजोर
था। हम पहले
से ही जानते
थे कि कमजोर
है। आज नहीं
कल थक जाएगा
और संघर्ष से
अलग हो जाएगा।
कायर है।
जंजीरें, जो
कि आभूषण हैं,
इनको सजाना
बंद कर दिया।
ऐसा ही बे सजाया
रह रहा है।
आसपास की
दीवाल को साफ-सुथरा
करना भी बंद
कर दिया।अब
पागलपन
बिलकुल पूरा
हो गया है।
लेकिन
उस आदमी ने
धीरे-धीरे
जंजीरें
तोड़ने के उपाय
खोज लिए। भीतर
की जंजीरें
टूट जाए तो
बाहर का
कारागृह टूटा
ही हुआ है।
आधा तो गिर ही
गया।
बुनियादी तो
हिल ही गई। और
पीछे के जगत
का, छिपे हुए
जगत का संदेश
आ जाए...तब एक
अनंत पुकार उसे
पुकारने लगी।
एक प्यास उसके
रोएं-रोएं में
समा गई--असली
जगत में
प्रवेश करना
है।
उसने
जंजीरें
तोड़ी। जब
प्यास प्रगाढ़
हो, तो कमजोर
से कमजोर आदमी
शक्तिशाली हो
जाता है। जब
प्यास प्रगाढ़
न हो, तो
कमजोर से
कमजोर
जंजीरें भी
बड़ी मजबूत
मालूम पड़ती
हैं।
प्यास
बढ़ती चली गई।
पीछे का जगत
ज्यादा साफ होने
लगा। आंख
जितनी सिर्फ
होने लगी, उतना ही
सत्य का जगत
साफ होने लगा।
एक दिन उसने
जंजीरें तोड़
दीं और वह उस
कारागृह से
निकल भागा।
उसके आह्लाद
का अंत नहीं
था। वह नाच
रहा था। सूरज,
पक्षी, वृक्षों
में खिले फूल!
बस वास्तविक
लोग छायाएं
नहीं। संगीत!
रंग! सुगंध! वह
आह्लादित था।
वह नाच रहा
था।
लेकिन
कारागृह में
अफवाहें उड़ गई, कि हम जानते
थे आज नहीं कल,
जीवन के
संघर्ष से भाग
जाएगा--"एस्केपिस्ट,'
पलायनवादी,
भगोड़ा! संसारी
हमेशा
संन्यासी को
यही कहता रहा
है। उसने साधारण
संन्यासी को
कहा हो, ऐसा
नहीं है।
महावीर और
बुद्ध को भी भगोड़ा ही
कहा है। भाग
गए!
यह
अपने को बचाने
की तरकीब है।
यह अपने का
सांत्वना
देने की तरकीब
है कि हम कायर
नहीं। और तुम
कायर हो, इसलिए
तुम वहां हो, जहां तुम
हो। यह अपने
को समझाने की
तरकीब है। हम
कोई पलायनवादी
नहीं हैं। हम
तो जीवन के
संघर्ष में जूझेंगे।
और
तुम्हें जीवन
का अभी पता ही
नहीं। और
जिससे तुम जूझ
रहे हो वह
केवल छाया का
जगत है। असली जूझनेवाले
जीवन से जूझते
हैं। तुम
जिससे जूझ रहे
हो, और जिससे
लड़ रहे हो, वह
सपनों से
ज्यादा
मूल्यवान
नहीं है। और
उसका
अस्तित्व
तुम्हारी
नींद में है।
उसका अस्तित्व
और कहीं भी
नहीं है। वह
तुम्हारा
सपना है। वह
तुम्हारा
अंधकार है। वह
तुम्हारी गहन
निद्रा और
मूर्च्छा है।
लेकिन
अगर सब लोग
सोए हों और एक
जग जाए--भले वे
सोए लोग भयंकर
दुखद स्वप्न
देखते हों।
देखते हों, कि नर्क में सड़ाए जा
रहे हैं, गलाए जा
रहे हैं, तो
भी वे सोए हुए
लोग कहेंगे, भगोड़ा! भाग गया!
जीवन के
संघर्ष को छोड़
गया। करवट ले
लेंगे, फिर
अपने सपने में
खो जाएंगे।
थोड़े
दिन चर्चा रही
फिर लोग भूल
गए। लेकिन उस आदमी
जीवन में एक
नई बेचैनी का
प्रारंभ हुआ।
जितना उसने
बाहर की
मुक्ति व आनंद
को जाना, जितना
उसने सत्य को
अनुभव किया, उतनी ही नई
महा-करुणा, एक दुर्दम्य
करुणा पैदा
होने लगी, लौट
जाए कारागृह
में और खबर दे
दे उन सब
लोगों को थोड़े
दिन तो ऐसे
उसने समझाया
अपने को, कि
वे सुनेंगे नहीं।
और बहुमत उनका
है। वे फिर
हंसेंगे, वे
भरोसा नहीं
करेंगे।
क्योंकि
अंधकार में रहते-रहते
लोग श्रद्धा
भूल ही जाते
हैं। श्रद्धा
तो प्रकाशवान
चित्त का
लक्षण है।
अंधेरे में
रहने वाले लोग
संदेह में
निष्णात हो
जाते हैं।
संदेह अंधकार
का हिस्सा है;
श्रद्धा
प्रकाश का।
इसलिए तो
समस्त
ज्ञानियों ने
श्रद्धा को
सेतु माना है,
कि अगर
अंधकार से
प्रकाश की ओर
आना हो, तो
श्रद्धा के
सेतु से
गुजरना
पड़ेगा।
एक
भरोसा चाहिए।
भरोसे का मतलब
इतना ही है, कि जो मैंने
नहीं जाना है
वह भी हो सकता
है। अगर तुम
यह सोचते हो
कि तुमने जो
जाना है बस
उतना ही है, तब तो
यात्रा का कोई
सवाल ही नहीं
है। बा समाप्त
हो गई। बुद्ध
आकर सिर पीटें
और कहें कि
मैंने थोड़ा सा
ज्यादा जाना
है तुमसे, तो
भी तुम मानोगे
नहीं।
संदेह
का इतना ही
अर्थ है, कि
मुझ पर सत्य
समाप्त हो
गया। मैंने जो
जान लिया, वही
सत्य की भी
सीमा है। मेरा
अनुभव और सत्य
समान है। यह
संदेह है।
श्रद्धा का
अर्थ है, मेरा
अनुभव छोटा है,
सत्य बहुत
बड़ा हो सकता
है। मेरा छोटा
आंगन है। आंगन
पूरा आकाश
नहीं। बड़ा
आकाश है। मेरी
छोटी खिड़की
है। लेकिन
खिड़की की
ढांचा आकाश का
ढांचा नहीं।
माना कि मैं
खिड़की से ही
झांक कर देखता
हूं, तो भी
खिड़की आकाश
नहीं है।
इतना
जिसे खयाल आ
जाए, जिसे
संदेह पर
संदेह आ जाए, वह
श्रद्धावान
हो जाता है।
वह बड़े से बड़ा
संदेह है, ध्यान
रखना। जिसे
संदेह पर
संदेह आ जाए, जो अपने
संदेह की
प्रवृत्ति के
प्रति संदिग्ध
हो जाए, उसके
जीवन में
श्रद्धा का आविर्भाव
हो जाता है।
श्रद्धा
का अर्थ है, जानने को
बहुत कुछ शेष
है। मैंने कंकड़-पत्थर
बीन लिए हैं
समुद्र के तट
पर, लेकिन
इससे समुद्र
का तट समाप्त
नहीं हो गया। मैंने
मुट्ठी भर रेत
इकट्ठी कर ली
है, लेकिन
सागर के
किनारों पर
अनंत रेत शेष
है। मेरी
मुट्ठी की
सीमा है, सागर
की सीमा नहीं
है। मेरी
बुद्धि की
सीमा है, सत्य
की सीमा नहीं।
मैं कितना ही
पाता चला जाऊं
तो भी पाने को
सदा शेष रह
जाएगा।
यही तो
अर्थ है
परमात्मा को
अनंत कहने का।
तुम कितना ही
पाओ, वह फिर भी
पाने को शेष
रहेगा। तुम
पा-पा कर थक जाओगे,
वह नहीं चूकेगा।
तुम्हारा
पात्र भर
जाएगा, ऊपर
से बहने लगेगा,
लेकिन उसके
मेघों से
वर्षा जारी
रहेगी।
हम कण
मात्र है। जब
कण का खयाल हो
जाता है कि मैं
सब, वहीं
श्रद्धा
समाप्त हो
जाती है।
श्रद्धा अज्ञात
की तरफ पैर
उठाने के साहस
का नाम है।
अनजान में
प्रवेश, अज्ञात
में प्रवेश; जहां मैं
कभी नहीं गया,
जो मैं कभी
नहीं हुआ, वह
भी हो सकता
है।
उस
आदमी के मन
में बहुत बार
करुणा उठने
लगी, आनंद का
अनिवार्य
लक्षण है
करुणा।
जब
बुद्ध से किसी
ने पूछा कि
समाधि की
पूर्ण परिभाषा
क्या है। तो
उन्होंने कहा, कि परिभाषा
तो मुझे पता
नहीं। लेकिन
दो बातें
निश्चित हैं--महाज्ञान,
महाकरुणा।
पूछनेवाले
ने कहा, महाराज
कह देने से
क्या काफी न
होगा? बुद्ध
ने कहा, नहीं।
वह अधूरा
होगा। वह
सिक्के का एक
पहलू है।
दूसरा पहलू है,
महाकरुणा। जब भी
ज्ञान का जन्म
होता है, तभी
करुणा का जन्म
हो जाता है।
क्यों? क्योंकि
अब तक जो जीवन
ऊर्जा वासना
बन रही थी वह
कहां जाएगी? ऊर्जा नष्ट
नहीं होती।
अभी धन के
पीछे दौड़ती थी,
पद के पीछे
दौड़ती थी, महत्वाकांक्षा
थीं अनेक।
अनेक-अनेक तरह
के भोगों की
कामना थी, सारी
ऊर्जा वहां
संलग्न थी।
प्रकाश के
जलते, ज्ञान
के उदय होते
वह सार अंधकार,
वह भोग, लिप्सा,
महत्वाकांक्षा
ऐसे ही विलीन
हो जाते हैं, जैसे दीए के
जलते अंधकार।
ऊर्जा
का क्या होगा? जो ऊर्जा
काम-वासना बनी
थी, जो
ऊर्जा क्रोध
बनती थी, जो
ऊर्जार्
ईष्या बनती थी,
मत्सर बनती
थी, उस
ऊर्जा का, उस
शुद्ध शक्ति
का क्या होगा?
वह सारी
शक्ति करुणा
बन जाती है। महाकरुणा
का जन्म होता
है। और वह
करुणा
तुम्हारी
काम-वासना से
ज्यादा अदम्य
होती है।
क्योंकि तुम्हारी
काम-वासना और
बहुत सी
वासनाओं के
साथ है।
महत्वाकांक्षा
है, धन भी
पाना है। तुम
काम-वासना को
स्थगित भी कर देते
हो कि ठहर जाओ
दस वर्ष; धन
कमा लें ठीक
से, फिर
शादी करेंगे।
धन की
वासना अकेली
नहीं है। पद
की वासना भी
है। तुम पद
पाने के लिए
धन का भी
त्याग कर देते
हो। चुनाव में
लगा देते हो
सब धन, कि
किसी तरह
मंत्री हो
जाओ। लेकिन
मंत्री की कामना
भी पूरी कामना
नहीं है।
मंत्री होकर
फिर तुम
स्त्रियों के
पीछे भागने लगते
हो। मंत्री-पद
भी दांव पर लग
जाता है।
तुम्हारी
सभी कामनाएं
अधूरी-अधूरी
हैं। हजार
कामनाएं हैं
और अभी में
ऊर्जा बंटी
है। लेकिन जब
सभी कामनाएं
शून्य हो जाती
हैं, सारी
ऊर्जा मुक्त
होती है। तुम
एक अदम्य ऊर्जा
के स्रोत हो
जाते हो। एक प्रगाढ़
शक्ति! उस
शक्ति का क्या
होगा?
जब भी
आनंद का जन्म
होता है, समाधि
का जन्म होता
है, सत्य
का आकाश मिलता
है, तब तुम
तत्क्षण पाते
हो कि वे जो
पीछे रह गए, उन्हें अभी
इसी खुले आकाश
में ले आना
है। तब तुम्हारा
सारा जीवन जो
बंध हैं
उन्हें मुक्त
करने में लग
जाता है। जो
कारागृह में
हैं, उन्हें
खुला आकाश
देने में लग
जाता है।
जिनके पंख जंग
खा गए हैं, उनके
पंखों को
सुधारने में
लग जाता है कि
वे फिर से उड़
सकें। जिनके
पैर जाम हो गए
हैं, उनके
पैरों को फिर
जीवन देने में
लग जाता है। ताकि
लंगड़े चलें और
अंधे देखें और
बहरे सुन सकें।
और तुम
लंगड़े हो। तुम
चले नहीं।
यात्रा तुमने
बहुत की है
लेकिन जब तक
तीर्थयात्रा
न हो, तब तक कोई
यात्रा
यात्रा हनीं
है। तुम बहरे
हो। तुमने
सुना बहुत है,
लेकिन
वासना के
सिवाय कोई
स्वर तुमने
नहीं सुना। और
वासना भी कोई
संगीत है!
वासना तो एक
शोरगुल है
जिसमें संगीत
बिलकुल ही
नहीं है।
वासना तो एक विसंगीत
है, जिससे
तुम तनते हो, चिंतित होते
हो, बेचैन-परेशान
होते हो।
संगीत तो वह
है जो तुम्हें
भर दे उस अनंत
आनंद में से, जहां सब
बेचैनी खो
जाती है, जहां
चैन की
बांसुरी बजती
है। और ऐसी
बांसुरी, कि
उसका फिर कभी
अंत नहीं आता।
तुम
अंधे हो। तुमने
बहुत कुछ देखा
है लेकिन जो
देखा है वह सब
ऊपर की
रूपरेखा है।
भीतर का सत्य
तुम नहीं देख पाते।
शरीर दिखता है, आत्मा नहीं
दिखती।
पदार्थ दिखता
है, परमात्मा
नहीं दिखता।
दृश्य दिखाई
पड़ता है, अदृश्य
नहीं दिखाई
पड़ता। और
अदृश्य ही
आधार है दृश्य
का। परमात्मा
ही आधार है
पदार्थ का। और
आत्मा के बिना
क्षणभर
भी तो शरीर
जीता नहीं।
इधर उड़ गया
पंछी, उधर
शरीर जलाने को
लोग ले चलें।
फिर भी तुमने सिर्फ
शरीर देखा है
और आत्मा नहीं
देखी। अंधे हो
तुम, पंगु
हो तुम।
जिसके
जीवन में
समाधि खिलती
है वह भागता
है उनको जगाने, जो सोए हैं। लेकिन
उसे भी कठिनाई
खड़ी होती है।
कुछ
दिन तो उसने
आपको रोका।
क्योंकि वह
जानता है कि
वे लोग
हंसेंगे।
क्योंकि वह
जानता है कि
वे सुनेंगे
नहीं।
क्योंकि वह
जानता है, कि जो सदा से
हुआ है, वही
फिर होगा।
पत्थर और
कांटों से
स्वागत होगा,
फूलमालाएं मिलने को
नहीं। लेकिन
अदम्य है
करुणा। उसे
रोका नहीं जा
सकता।
कथा है, कि बुद्ध को
जब ज्ञान हुआ,
तो सात दिन
तक वे चुप
बैठे रहे। बड़ी
मीठी कथा है।
क्या करते रहे
चुप बैठ कर? बहुत बार
अदम्य वेग से
उठी करुणा, कि जाए।
बहुत लोग
भटकते हैं।
सारे लोग
भटकते हैं। जो
मुझे मिल गया
है वह बांट
दूं। लेकिन
कोई चीज रोकती
रही...कोई चीज
रोकती रही।
बुद्ध
जैसा व्यक्ति
भी हिम्मत न
जुटा सका। तुम्हारे
सामने बुद्ध
भी हारे हुए
हैं। बुद्ध को
भी डर लगा।
जिसको अब कोई
डर नहीं बचा
है, जिसको
मृत्यु का भय
नहीं। वह भी
तुमसे डरता है।
जो यम से नहीं
डरता, वह
तुमसे डरता
है।
सात
दिन तक बुद्ध
ने प्रतिरोध
किया अपना ही।
सब तरह से
रोका, कि
नहीं। अपने को
समझाया, कि
जो जागनेवाले
हैं वे मेरे
बिना भी जाग
जाएंगे। और जो
नहीं जागनेवाले
हैं, मैं
लाख सिर पटकूं,
वे सुनेंगे
नहीं। फिर
क्यों व्यर्थ
मेहनत करूं?
कथा है, कि आकाश के
देवता चिंतत
हो गए। बड़ी
बेचैनी फैल गई
आकाश के
देवताओं में!
बेचैनी यह, कि कभी करोड़-करोड़
वर्षों में
कभी कोई एक
व्यक्ति
बुद्धत्व को उपलब्ध
होता है। और
वह भी अगर चुप
रह गया, तो
जो भटकते हैं
मार्ग पर उनका
क्या होगा? जतो
अंधेरे में
प्रतीक्षा
करते हैं, अनजानी
प्रतीक्षा, उन्हें पता
भी नहीं है।
किसी का, जो
मार्ग
बताएगा। बतानेवाले
का पत्थर से
ही वे स्वागत
करेंगे।
लेकिन फिर अनंत-अनंत
काल से खोजते
तो हैं ही।
भीतर कहीं कोई
गहरे में छिपा
हुआ बीज तो
पड़ा ही है। न
फूट जाता हो, ठीक भूमि न
मिली हो, सूरज
का प्रकाश न
मिला हो, कोई
पानी
देनेवाला न
मिला हो, कोई
साज-संभाल
करनेवाला न
मिला हो।
लेकिन बीज तो
पड़ा ही है; उनका
क्या होगा?
कथा है
कि आकाश के
देवता उतरे।
बुद्ध के
चरणों में
उन्होंने सिर
रखा और कहा, कि नहीं अब
चुप न बैठें,
उठें। बहुत देर
अब वैसे ही हो
गई।
देवता
का अर्थ है, ऐसी चेतनाएं
जो अत्यंत
शुभ-परिणाम
हैं। ऐसी
चेतनाएं जिनके
जीवन से अशुभ
खो गया है, सिर्फ
शुभ बचा है।
अभी वे पूर्ण
मुक्त नहीं हैं।
क्योंकि जब
शुभ भी खो
जाएगा तभी
पूर्ण मुक्ति
होगी। देवता
का अर्थ है
शुद्धतम
चेतनाएं, मुक्ततम नहीं। पहले
अशुद्धि से
दबी हुई
चेतनाएं हैं,
जिनको हम
राक्षस कहें,
असुर कहें।
नारकीय योनि
में पड़े हुए
लोग कहें४ और
फिर शुद्ध
चेतनाएं हैं
जो स्वर्ग में
हैं, शांत
हैं, शुभ-परिणाम
हैं। किसी का
बुरा नहीं
चाहतीं, भला
चाहती हैं; लेकिन चाह
बाकी है। नरक
में जो पड़े
हैं उनके हाथ
में जो
जंजीरें हैं
वह लोहे की हैं।
स्वर्ग में जो
पड़े हैं उनके
हाथ में जो
जंजीरें हैं
वह सोने की
हैं। हीरे
माणिक से जड़ी
हैं, पर
जंजीरें हैं।
मुक्त
वह है जिसमें
न शुभ रहा, न अशुभ रहा।
जिसकी लोहे की
जंजीरें सोने
की जंजीरें सब
टूट गई। मुक्त
वह है, जिसका
द्वंद्व
समाप्त हो
गया। जिसे
भीतर दो न
रहे। शुभ-अशुभ,
अच्छा-बुरा,
रात-दिन, स्वर्ग-नर्क,
सुख-दुख सब
खो गए।
देवता
का अर्थ है, शुद्ध, सुखी
चेतनाएं।
निश्चित ही
स्वभावतः
उनके ही हृदय
में कंपन पैदा
होगा क्योंकि
वे निकटतम हैं
मुक्त
पुरुषों के।
नर्क में पड़े
लोगों को पता
भी न चला, कि
कोई बुद्ध हो
गया है।
पृथ्वी
पर जो लोग हैं
वे दोनों के
बीच में हैं।
न तो नर्क में
हैं और न
स्वर्ग में।
वे त्रिशंकु
की भांति हैं।
शुभ-अशुभ
दोनों में
डोलते रहते
हैं। सुबह
देवता, घंटे
भर बाद शैतान।
घंटे भर बाद
फिर देखो मुस्कुरा
रहे हैं, अच्छे
भले आदमी
मालूम पड़ते
हैं। और थोड़ी
देर बाद किसी
की गर्दन काट
सकते हैं।
पृथ्वी पर जो
हैं, मध्य
लोक जिसको
ज्ञानियों ने
कहा है, वे
स्वर्ग और
नर्क के बीच
डोलते रहते
हैं। एक पैर
नर्क में और
एक पैर स्वर्ग
में। कहीं भी
नहीं हैं वे।
उनका होना
नहीं है।
इसलिए तो तुम्हें
पता नहीं चलता
कि तुम कौन हो?
नर्क में
ठीक पता चलता
है लोगों को, कि कौन हैं।
स्वर्ग में भी
ठीक पता चलता
है। कि कौन
हैं। क्योंकि
एक ही नाव पर
सवार हैं।
जो शुभ
की नाव पर
सवार हैं उनको
लगा, उनके
प्राण कंप गए,
कि बुद्ध
चुप हैं। कहीं
ऐसा न हो कि वे
चुप ही रह
जाएं।
देवताओं
ने पैर में
सिर रखा। स्वयं
ब्रह्मा ने
कहा कि नहीं, आप बोलें।
और देर हो
जाएगी तो वाणी
खो जाएगी। आप
भीतर मत डूबते
चले जाएं।
आपने पा लिया
लेकिन
जिन्होंने
नहीं पाया है,
उन पर करुणा
करें।
कहते
हैं, बुद्ध ने
कहा, कि जो
पाने को हैं, जो पाने की
चेष्टा में रत
हैं वे पा ही
लेंगे। मैंने पा
लिया, वे
भी पा लेंगे।
वे भी मेरे
जैसे हैं।
थोड़ी देर-अबेर
होगी पर इस
अनंत काल में
क्या देर क्या
अबेर! घड़ी भर
पहले, कि
घड़ी भर बाद।
एक जन्म पहले,
कि एक जन्म
बाद। क्या
फर्क पड़ता है?
मुझे क्यों
परेशानी में
डालते हो?
और जो
नहीं पाने को
हैं--मेरे
पहले बहुत बुद्ध
पुरुष हो चुके
हैं, उन सब ने
उनके द्वार पर
दस्तक दी है।
उन्होंने
द्वार भी
खोला। नहीं कि
उन्होंने
द्वार नहीं खोला,
वे नाराज भी
हो गए, कि
क्यों हमारी
नींद तोड़ते हो?
क्यों
हमारी शांति
में दखल देते
हो? हम
जैसे, ठीक
हैं। क्यों
हमें बेचैन
करते हो? ये
किस लोक की
खबरें लोटे
हो। यही लोक
सब कुछ है।
कोई और लोक
नहीं है।
उन्होंने
श्रद्धा नहीं
की। वे नहीं
सुनेंगे।
हजारों बुद्ध
हार चुके हैं।
मैं भी हार जाऊंगा।
तुम मुझे
क्यों परेशान
करते हो?
देवताओं
ने चिंतन किया, विचार किया
कि कुछ तर्क
निकालना ही
पड़ेगा, कि
बुद्ध को उनके
बाहर ले आया।
जाए। फिर वे
सब विचार करके
आए और उन्होंने
कहा कि आप ठीक
कहते हैं। कुछ
हैं, जो
आपके बिना भी
पा लेंगे और
कुछ हैं, जो
आपके सहयोग से
भी नहीं
पाएंगे।
लेकिन दोनों
में मध्यम में
भी कुछ हैं, जो आपके
बिना न पा
सकेंगे और
आपके साथ पा
लेंगे। उनकी
संख्या बहुत
न्यून होगी।
समझ लो, कि
एक ही आदमी पा
सकेगा, तो
भी...तो भी उपाय
करने योग्य
है। क्योंकि
एक व्यक्ति का
भी बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
जाना इतनी
महान घटना है
कि आप बैठे मत
रहे।
बुद्ध
के झुकना पड़ा।
देवताओं के
तर्क से नहीं; देवताओं के
तर्क ने तो जो
प्रतिरोध था,
उसको भर
तोड़ा। भीतर तो
करुणा बहने को
तैयार थी।
उस
आदमी को भी
तकलीफ हुई।
बेचैनी होने
लगी। कारागृह
में जिनको छोड़
आया था उनकी
याद आने लगी।
वे ऐसे ही
बंधे-बंधे
समाप्त हो
जाएंगे? उनका
जीवन ऐसे ही
अंधकार में
पैदा हुआ, अंधकार
में ही खो
जाएगा? कभी
उनकी आंखें
प्रकाश न देख
सकेंगी? वे
छायाएं ही
देखते रहेंगे
दीवाल पर? वे
जंजीरों
को ही आभूषण
मानते रहेंगे?
उन्हें
मुक्ति के पंख
कभी भी न
मिलेंगे?
नहीं।
भारी होने लगा
उसका मन। जैसे
मेघ जब भर जाते
हैं तो बरसते
हैं, ऐसे भारी
होने लगा उसका
प्राण। बरसने
को तत्पर होने
लगा। जैसे फूल
जब भरा जात है
गंध से, तो
खुल जाता है
और गंध फेंक
देता है, चारों
लोक-लोकांतर
में। ऐसे उसके
प्राण भी खिलने
को तत्पर होने
लगे। कोई अवश
प्रेरणा उसे
खींचने लगी
वापिस।
जानते
हुए, वहां
स्वागत नहीं
होने का है, वह वापिस
लौट आया
कारागृह में।
लोग हंसने लगे।
उन्होंने कहा,
हमने पहले
ही कहा था कि
वहां कुछ भी
नहीं है। सिर्फ
छायाएं हैं, जहां तुम जा
रहे हो। आ गए
वापिस? आ
गई बुद्धि? रास्ते पर आ
गई बुद्धि? और उल्टा
हमें समझा रहे
थे, कि हम
भी तुम्हारे
साथ चलें।
हमें भी मूढ़
बनाने की सोची
थी? और अब
तो समझ आ गई? आ जाओ वापिस सम्हाल
लो अपने
आभूषणों को।
यही एकमात्र
जगत है। और
दीवाल पर बनती
छायाएं ही
सत्य हैं।
ये सब
सपने हैं रंगीनियों
के, प्रकाश
के। ये
कल्पनाएं
हैं। और तुम
अकेले नहीं
हों। हममें से
भी बहुतों ने
ऐसे सपने देखे
हैं। और ऐसी
कल्पनाएं की
हैं। वे सब
कविताएं हैं
और लोकों
की, सत्यों
के लोकों
की, मुक्त
आत्माओं की, सिद्धों की।
सब कल्पनाएं
हैं। सब बकवास
हैं। ये चालबाजों
ने मूढ़ों
को चूसने के, शोषण करने
के उपाय बना
रखे हैं।
धक से
रह गया होगा
वह आदमी!
द्वार बंद है।
इन्हें मुक्त
करने आया है।
लेकिन ये अपने
कारागृह को
अपना जीवन समझ
बैठे हैं। फिर
भी उसने कोशिश
की। जो सदा
हुआ है, वही
हुआ। लोग उसके
विरोध में
होते गए।
जितनी ही वह
चेष्टा करने
लगा, उतना
ही वे नाराज
होते गए।
क्योंकि
उनकी नाराजगी
भी स्वाभाविक
मालूम होती
है। तुम उनके
जीवन भर के
दांव को
मिट्टी पर
करने में लगे
हों। तुम यह
कह रहे हो कि
साठ साल तुम
व्यर्थ ही
जीए। तुम यह
कह रहे हो, कि तुम इतने
बुद्धिहीन हो
कि साठ साल
तुम व्यर्थ ही
जीए। तुम यह
कह रहे हो, कि
तुम इतने
बुद्धिहीन हो
कि साठ साल
अंधेरे में
रहे, फिर
भी तुम्हें
खयाल न आया कि
यह अंधकार है?
जंजीरों में बंधे सड़ते
रहे और तुम्हें
इतना भी बोध न
उठा, कि ये
जंजीरें हैं?
मूढ़! और तुम
इन्हें आभूषण
समझते रहे? दीवाल पर
बनी छायाओं को
देखा और समझा
कि यही सत्य
है?
यह
बरदाश्त के
बाहर है।
क्योंकि अगर
यह आदमी सच है
तो उस कारागृह
के सभी आदमी
गलत है।
भीड़
गलत है, अगर
बुद्ध सच हैं।
अगर मैं सच हूं,तो तुम गलत
हो। तुम्हारे
सही होने का
एक ही उपाय है,
कि मैं गलत
हूं। और तुम
आसानी से यह
उपाय कर सकते
हो। भीड़
तुम्हारी है,
संख्या
तुम्हारी है।
वह
आदमी अकेला था, अजनबी।
अपरिचित
लोगों के बीच।
उसकी भाषा और
हो गई थी।
उनकी भाषा और
थी। उनके बीच,
उन दोनों के
बीच अब कोई
संवाद होना तक
मुश्किल था।
उसने लाख समझाने
की कोशिश की, लेकिन कोई
समझने को राजी
न था। फिर
उसका समझाना
भी लोगों के
सिर पर भारी
होने लगा। और
जो सदा हुआ है
वही हुआ।
उन्होंने
पत्थरों से और
जंजीरों
की चोटों से
उस आदमी को
मार डाला।
तुमने
जीसस के साथ
वही किया।
तुमने सुकरात
के साथ वही
किया। तुमने
मंसूर के साथ
वही किया।
यह
कहानी बड़ी
प्राचीन है, और बड़ी नई
भी। पुरानी से
पुरानी, नई
से नई। यह
अतीत में भी
होती रही है, और आज भी हो
रही है; भविष्य
में भी होती
रहेगी। यह
चिर-नूतन और
चिर-पुरातन
कथा है। यूनान
के बहुत बड़े मनीषी
अफलातून
ने इस कथा का
एक अंश अपने
किताबों में
उल्लेख किया
है। लेकिन यह
कथा अफलातून
से भी पुरानी
है। यह उतनी
ही पुरानी है
जितना आदमी
पुराना है। और
यह तब तक
रहेगी, जब
तक एक भी आदमी
जमीन पर बंधा
हुआ है।
अब हम
कबीर के इस
सूत्र को
समझने की
कोशिश करें।
तब तुम
समझ पाओगे
क्यों कबीर
कहता है, कहै
कबीर दिवाना!
नहीं तो तुम न
समझ पाओगे, क्यों कबीर
अपने को खुद
पागल कहता है?
कैसी बेबूझ
दुनिया है!
प्रज्ञावान
पागल समझे जाते
हैं, मूढ़ ज्ञानी।
जिन्हें कुछ
भी पता नहीं
है, जिन्होंने
शब्दों का
कचरा इकट्ठा
कर लिया है।
या खोपड़ी से
शास्त्र भर
लिए हैं, वे
ज्ञानी हैं, वे पंडित
हैं।
कबीर
काशी में रहे
जीवन भर।
पंडितों की
दुनिया!
स्वभावतः उन
सभी पंडितों
ने कहा होगा
पागल है।
काशी...! वहां तो
सबसे ज्यादा
बड़े अंधों की
भीड़ है। वहां
तो सब तरह के मूढ़
प्रतिष्ठित
हैं, जिनके
पास शब्दों का
जाल है। वेद, उपनिषद है, गीता, पुराण
है। जिन्हें
गीता पुराण, वेद, उपनिषद
कंठस्थ हैं।
शब्दों के
अतिरिक्त जिन्होंने
कुछ भी नहीं
जाना।
दीवालों पर
बनी छायाओं को
जिन्होंने
इकट्ठा किया
है--बड़ी मेहनत
से, बड़े
श्रम से, बड़ी
कुशलता से। वे
बड़े निष्णात
हैं तर्क में।
क्योंकि शब्द
तो छाया है
सत्य की। और
तर्क तो सिर्फ
सांत्वना है।
इसलिए
कबीर अपने को
खुद कहते हैं:
कहै कबीर दिवाना।
एक-एक
शब्द को सुनने
की, समझने की
कोशिश करो।
क्योंकि कबीर
जैसे दीवाने
मुश्किल से
कभी होते हैं।
उंगलियों पर
गिने जा सकते
हैं। और उनकी
दीवानगी ऐसी है,
कि तम अपना
अहोभाग्य
समझना अगर
उनकी सुराही की
शराब से एक
बूंद भी
तुम्हारे कंठ
में उतर जाए।
अगर उनका
पागलपन
तुम्हें थोड़ा
सा भी छू ले तो
तुम स्वस्थ हो
जाओगे। उनका
पागलपन थोड़ा
सा भी तुम्हें
पकड़ लें, तुम
कभी कबीर जैसा
नाच उठो और गा
उठो, तो
उससे बड़ा कोई धन्यभाग
नहीं। वही परम
सौभाग्य है।
सौभाग्यशालियों
को ही उपलब्ध
होता है।
जब मैं
भूला रे भाई, मेरे सतगुरु
जुगत लखाई।
करिया
करम अचार मैं छाड़ा, छाड़ा तीरथ
नहाना।
सगरी
दुनिया भई सयानी, मैं ही इक
बौराना।।
जब मैं
भूला रे
भाई--क्या भूल
है? क्या तुम
भूल गए हो? तुम
स्वयं को भूल
गए हो, सब
तुम्हें याद
है। वेद
कंठस्थ है
सिद्धांत, शास्त्र
याद। सिर्फ एक
को तुम भूल गए
हो, वह तुम
स्वयं हो। और
उसे जाने बिना
सब ज्ञान व्यर्थ
है। और जिसने
उस एक को जान
लिया, उसने
सब जान लिया।
उस एक के
जानने में सब
जान लिए जाते;
सब वेद, कुरान,
बाइबिल। उस
एक को चूकने
में सब चूक
जाता है।
क्योंकि
वही एक
तुम्हारे
भीतर चैतन्य
को स्रोत है।
उस एक से ही
तुम परमात्मा
से जुड़े हो। वह
एक तुम्हारे
भीतर आया हुआ
परमात्मा है।
जैसे
तुम्हारी
खिड़की में से
आ गया आकाश
तुम्हारे घर
को भरे; ऐसा
तुम्हारे उस
एक में से आ
गया आकाश--परमात्मा--तुमको
भरे। उस एक को
भर तुम भूल गए
हो।
उसकी
तरफ पीठ, सारी
संसार की तरफ
आंख है। भागे
फिरते हो, ज्ञान
का संग्रह
करते चले जाते
हो। धन का
संग्रह करते
चले जाते हो।
एक बात भूल ही
जाते हो वह कौन
है, जिसके
लिए तुम
संग्रह कर रहे
हो? वह कौन
है, जो संग्रह
कर रहा है? वह
कौन है जो
शास्त्र पढ़
रहा है? शास्त्र
तो याद रह
जाता है, वह
कौन है, जो
शास्त्र पढ़
रहा है? वह
कौन है, जो
सबके प्रति
साक्षी है? वह कैन है
चैतन्य का
स्रोत
तुम्हारे
भीतर?
जब मैं
भूला रे भाई, मेरे सतगुरु
जुगत लखाई।
कबीर
कहते हैं, जब मैं भूल गया--विस्मरण,
अज्ञान है।
इसलिए तुम
ज्ञान से
अज्ञान को न
मिटा सकोगे; स्मरण से
मिटा सकोगे।
इसे ठीक से
समझ लो। विस्मरण
अज्ञान है।
तुम भूल गए हो,
कि तुम कौन
हो? इसकी पुनर्याद,
पुनर्स्मरण चाहिए।
ज्ञान से यह न
होगा।
क्योंकि
ऐसा नहीं है
कि तुम्हें
कुछ जानकारी की
कमी है, तो
जानकारी बढ़
जाएगी, तो
ज्ञान हो
जाएगा।
तुम्हारे मन
में अभी हजार जानकारियां
हैं, दस
हजार हो
जाएंगी। इससे
तुम्हारा
अज्ञान न टूटेगा।
तुम महापंडित
हो जाओगे, लेकिन
तुम्हारी मूढ़ता
बरकरार
रहेगी।
क्योंकि मूढ़ता
का पांडित्य
के होने से और
टूटने का कोई
संबंध नहीं
है। मूढ़ता
है भूलना; विस्मरण।
इसलिए स्मरण
से तुम्हें
अपनी याद आ जाएगी,
मैं कौन
हूं।
इसलिए
कबीर दो
शब्दों में
समझे जा सकते
हैं--विस्मरण
और स्मरण; जिसको कबीर
ने सुमिरन कहा
है, सुरति
कहा है। सुरति
संस्कृति के
स्मृति शब्द
का अपभ्रंश
है। स्मृति आ
जाए, सुरति
आ जाए, सुमिरन
आ जाए। लेकिन
लोग बड़े अजीब
हैं। कबीर के माननेवालों
को भी मैं
जानता हूं। वे
माला फेरते
हैं। उनसे
पूछो क्या कर
रहे हो? वे
कहते हैं
सुमिरन कर रहे
हैं। सुमिरन
को उन्होंने
जाप बना लिया।
सुमिरन
का अर्थ है
स्मरण जिसको
गुरजिएफ ने सेल्फ-रिमेंबरिंग
कहा है--आत्मस्मृति।
जिसको बुद्ध
ने
सम्यक-स्मृति
कहा है--राइट माइंडफुलनेस।
जिसको महावीर
ने विवेक कहा
है--याद।
लेकिन
कैसे तुम्हें
याद आएगी? तुम तो भूल
गए हो।
तुम्हें कोई
याद दिलाए, तो ही आएगी।
तुम्हें खुद
कैसे याद आएगी?
रात
तुम सोते हो।
सुबह पांच बजे
उठते हो, ट्रेन
पकड़नी है,
क्या करते
हो? कोई
जुगत चाहिए।
अलार्म भर
देते हो।
अलार्म जुगत
है। तुम न जाग
सकोगे पांच
बजे। कोई
तुम्हें
जगाए। घड़ी भी
जगा सकती है।
यंत्र है
सिर्फ। लेकिन
तुम स्वयं न
जाग सकोगे। या
किसी को कह देते
हो पड़ोस में, कि जगा
देना।
कोई
जागा हुआ जगा
सकता है। किसी
सोए आदमी से
मत कह देना, कि जगा
देना। वो पहले
ही घुर्रा
रहे हैं और
तुम उनसे जाकर
कहो, कि
भाई सुनो।
पांच बजे जगा
देना। उससे
कुछ हल न
होगा।
उन्होंने
सुना ही नहीं।
उनको खुद ही कोई
जगानेवाले
की जरूरत थी।
कोई जागा हुआ
चाहिए।
और
समस्त योग का
अर्थ है, जुगत।
जुगत शब्द बड़ा
प्यारा है।
अंग्रेजी
में उसके लिए
शब्द है--डिवाईस, तरकीब।
हजारों तरह की
तरकीबें
उपयोग की गई
हैं आदमी को
जगाने के लिए।
लेकिन अगर तुम
खुद ही करोगे,
तो खतरा है।
मैंने
सुना है, कि
अमेरिका का
बहुत बड़ा
वैज्ञानिक
एडीसन भुलक्कड़
था। भूल जाता था।
अक्सर जो लोग
बहुत सोचते
हैं वे
भुलक्कड़ हो
जाता हैं।
सोचना इतना
ज्यादा हो
जाता है, कि
सबकी याद रखनी
मुश्किल हो
जाती है। तो
वह हर चीज को, जब भुलक्कड़
हो गया...और
उसने एक हजार
आविष्कार किए
हैं। इसलिए
बड़ी पैनी
बुद्धि का
आदमी था। कभी
वह कोई चीज
आधी पूरी करके...पूरी
न कर पाया है।
आधी की है, आधा
कोई आविष्कार
कर लिया है।
फिर भूल जाएं
वर्षों तक; तो बड़ा
नुकसान होने
लगा।
तो
किसी ने उसे
सुझाव दिया कि
तुम ऐसा क्यों
नहीं करते, कि हर चीज को
लिख लिया, ताकि
याद बनी रहे।
उसने लिखना
शुरू कर दिया।
तो अलग-अलग
कागजों पर लिख
कर रखता जाता;
वे कागज खो
जाते, कि
कहां रख दिया?
किसी ने कहा,
तुम भी पागल
हो। अलग-अलग
कागजों पर
क्यों लिखते
हो? डायरी
क्यों नहीं
बना लेते? उसने
डायरी बना ली।
डायरी खो गई।
आदमी भूलनेवाला
हो, तो इससे
क्या फर्क
पड़ता है? तुम
चाहे कागज पर
लिखो चाहे तुम
डायरी पर लिखो।
इससे फर्क ही
क्या पड़ता है?
क्योंकि वह
आदमी तो
बुनियादी वही
है। वह डायरी
भूल गया एक
दिन। उसने कहा
इससे तो कागज
ही बेहतर थे।
एक भूलता था, तो बाकी तो
बचते थे। यह
पूरा गया।
डायरी में सब
लिखा था। अब
डायरी कहां है?
आदमी
अपने से ही
कोशिश करेगा
तो उसका जो बुनियादी
गुण है, उसके
पार नहीं जा
सकता। इसलिए
आध्यात्मिक
जीवन में गुरु
की
अनिवार्यता
है। गुरु का
केवल इतना ही
अर्थ है, कोई
जो जाग गया।
कोई जो
तुम्हें
भूलने न देगा।
कोई जो
तुम्हें कोड़े
लगाता रहेगा।
कोई जो
तुम्हें
हिलाता
रहेगा। कोई जो
तुम्हें करवट
ले कर फिर सपने
में न खो जाने
देगा।
तुम्हारा
सारा अतीत
नींद की
तैयारी है।
गुरु के रहते
भी तुम जाग
जाओगे, यह
पक्का नहीं
है। लेकिन
गुरु के बिना
तो बिलकुल
पक्का है, तुम
जाग न सकोगे।
हां, यह हो
सकता है कि
तुम नींद में
ही सपना देखने
लगो, कि
जाग गए। यह भी
होता है।
तुमने कभी
नींद में भी
ऐसा सपना देखा
होगा कि जब
तुम जाग गए।
इसलिए
अलार्म भी
बहुत काम नहीं
दे सकता। अलार्म
बज रहा है।
तुम सो रहे
हो। तुम एक
सपना पैदा कर
लेते हो कि
मंदिर में
प्रार्थना चल
रही है। घंटी
बज रही है।
तुमने खतम कर
दी घड़ी। तुमने
तरकीब निकाल
दी। नींद ने
रास्ता बना
लिया।
क्योंकि अगर
अलार्म हो तो
जागना पड़ेगा।
तो नींद ने एक
सपना पैदा
किया। नींद ने
कहा कि अहा!
कैसी सुंदर
आरती उतर रही
है। सवाल न
रहा। नींद में
तुम अलार्म भी
बंद कर सकते हो।
करवट ले सकते
हो। घड़ी
मुर्दा है।
इसलिए
विधियां
अकेली काम न
देंगी। गुरु
चाहिए।
विधियां तो
उपलब्ध हैं।
पतंजलि का योगशास्त्र, योगसूत्र,
उपलब्ध है।
सब विधियां
लिखी हैं।
लेकिन अगर किताब
पढ़ कर तुमने
काम किया तो
विधियां घड़ी
की तरह
होंगी--यंत्रवत।
तुम कर भी
लोगे, लेकिन
करेगी तो
तुम्हीं--सोया
हुआ आदमी।
कबीर कहेंगे,
स्मरण करो।
तुम सुमिरन कर
लोगे, माला
फेर लोगे।
जीवित
गुरु चाहिए।
सभी धर्म मर
जाते हैं। जिस
दिन उनका
जीवित गुरु मर
जाता है, उसी
दिन मर जाते
हैं।
सिक्ख
धर्म जिंदा था, जब तक दस
गुरु जिंदा
रहे। जिस दिन
गुरु गोविंदसिंह
ने तय किया कि
अब गुरु-ग्रंथ
ही गुरु होगा,
अब कोई
जीवित गुरु
नहीं होगा, उसी दिन मर
गया। तो दस
गुरुओं के
जीते जी जो खूबी
थी सिक्ख धर्म
में, वह
बात ही और थी।
तब यंत्र नहीं
था। जीवित आदमी
था।
जैनों
के चौबीस
तीर्थंकर जब
तक थे तब तक एक
जीवित धारा
थी। फिर
जैनियों ने तय
किया, कि अब
चौबीस से
ज्यादा
तीर्थंकर
नहीं। महावीर
के बाद दरवाजा
उन्होंने बंद
कर दिया। मर
गया। तब से
जैन धर्म एक
लाश है।
मोहम्मद के
साथ इस्लाम
जिंदा था।
कुरान के साथ
मुर्दा है।
हालांकि
कुरान
मोहम्मद की
किताब है।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
मैं
खड़ा हूं एक
डंडा लिए, तुम सो रहे
हो। मैं डंडे
से तुम्हें
उठाता हूं।
डंडा नहीं
उठाता, मैं
उठाता हूं।
तुम्हारी आंख
खुल जाती है।
मैं तो
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता। डंडा
तुम्हें छूता
दिखाई पड़ता
है। तुम डंडे
को पकड़ लेते
हो अहोभाव से,
कि बड़ी
कृपा! कि मुझे
जगा दिया।
अब तुम
अपने बच्चों को
डंडा दे जाओगे
कि सम्हाल कर
रखना। यह
जगाता है।
जुगत मर गई।
डंडा नहीं जग
रहा था, डंडे
के पीछे कोई
जीवित हाथ थे।
डंडा क्या जाएगा?
डंडा अकेला
क्या करेगा? अलार्म घड़ी
रह जाती है
आखिर में। फिर
उसे तुम सम्हाले
रहो। अलार्म
भी बजता रहेगा
और तुम सोते
भी रहोगे।
सभी
शास्त्र डंडे
हो जाते हैं।
तुम उनकी पूजा
करते हो, याद
करते हो। और
यह भी नहीं है,
कि कभी उनसे
लोग न जगे
थे--जगे
थे। लेकिन कोई
जीवित हाथ
पीछे था। कोई
नानक पीछे था।
वह कंवन
जो डंडे में
था, डंडे
का नहीं था।
वह उस जीवित
हाथ का था। वह
डंडे में जो
जीवन
प्रवाहित हो
रहा था, वह
नानक का था।
अब तुम चले
जाओ। पांचों
कार्य पूरे
करते रहो। केश
बांधो, कंधा लगाओ, कटार रखो, कंछा पहनो, जो
तुम्हें करना
है करो, मगर
ये सब डंडे
हैं। अब इनसे
कुछ होनेवाला
नहीं है।
जुगत
जीवित होती है, जब कोई हाथ
जागा हुआ पीछे
होता है। मैं
अभी हूं, तब
तुम मेरे डंडे
का उपयोग कर
लोग। मेरे मर
जाने के बाद
तुम सक्रिय
ध्यान, कुछ
भी न होगा। और
तुम करोगे
मरने के बाद।
यह मुझे पक्का
है। इससे कोई
शक नहीं।
क्योंकि तुम्हारी
पुरानी आदत
है।
क्यों
ऐसा होता है? ऐसा इसलिए
होता है, विधियों
से तुम्हें
कोई डर नहीं, तुम्हारी
नींद को कोई
डर नहीं। तो
विधियां तो
तुम करने को
राजी हो, लेकिन
गुरु से डर
है। खतरा है।
क्योंकि
जीवित आदमी के
पास कितनी देर
तुम सोए रहोगे?
नींद
तुम्हें छोड़नी
पड़ेगी। वह
तुम्हें छुड़ाएगा।
जागा
हुआ आदमी
कितनी देर तक
तुम्हारी
नींद की दशा
देख सकेगा? तुम्हारा उदास
चेहरा
तुम्हारी
कीचड़ से भरी
आंखें, तुम्हारे
मुंह से टपकती
लार! तुम
मुर्दे की भांति
पड़े हो।
अनर्गल
तुम्हारी
नींद में
बकवास! कभी
भयभीत होते हो,
कांपते हो।
कभी सुखी
मालूम होते
हो। मुस्कुराहट
फैल जाती है
चेहरे पर, लेकिन
सब नींद में
होता, सब
सपने में हो
रहा है। सब
झूठ हो रहा
है। तुम्हारी
नींद तोड़नी
जरूरी है।
जब मैं
भूला रे भाई, मेरे सतगुरु
जुगत लखाई।
तो
मेरे गुरु ने
मुझे जगाया।
मुझे जुगत दी, कोई विधि
दी। और जो
विधि दी...
जब कोई
जीवित गुरु
विधि देता है
तो सारी पुरानी
विधियां
व्यर्थ हो
जाती हैं
स्वभावतः।
क्योंकि
पुरानी
विधियों का
क्या प्रयोजन? तुम पुराना
सब साज-सामान
फेंक देते हो।
अगर अब तक तुम
बैठ कर अपने
घर में एक
कोठरी बना कर
और शंकरजी
की पूजा कर
रहे थे, अब
तम इनको लपेट
कर सागर में डुबा आते
हो। अब कोई
जरूरत न रही।
अभी तक तुम
मंदिर में
जाकर रोज घंटी
बजाते थे। अब
यह बंद हो
जाता है खेल।
क्या जरूरत
जागे हुए आदमी
को, कि वह
अलार्म घड़ी
रखे। बैठा रहे
और उसकी पूजा करे?
वह किसी और
को दे देता
है। बांट आता,
या नदी में
फेंक आता है।
जब मैं
भूला रे भाई, मेरे सतगुरु
जुगत लखाई।
वह जगत
क्या है? जिसके
कारण--किरिया
करम अचार मैं छाड़ा। सब
क्रियाएं छोड़
दी। सब कर्म
छोड़ दिए। सब
आचरण छोड़ दिए।
छाड़ा
तीरथ नहाना।
और
तीर्थ में
जाकर नहाना
छोड़ दिया।
गंगा साधारण
नहीं हो गई।
अब कोई तीर्थ
न रहा।
क्रिया-कांड
का अर्थ है, वे जुगतें,
जिनका
जीवित हाथ
विदा हो गया।
वे सब
क्रिया-कांड
हो जाती हैं।
तुम मेरे
साथ ध्यान करो, यह एक बात
है। तुम मेरे
बिना ध्यान
करोगे, यह क्रियाकांड
हो जाएगा। तुम
कर लोगे
पुरा-पूरा।
ठीक श्वास लोगे,
ठीक उछलोगे,
कूदोगे,
लेकिन सब
नाटक होगा।
तुम उसके भी
अभ्यासी हो जाओगे।
वह व्यायाम
होगा। थोड़ा
बहुत लाभ जो
शरीर को हो
सकता है वह
होगा लेकिन
तुम जाग न
सकोगे।
किरिया
करम अचार मैं छाड़ा।
और अब
आचरण छोड़ दिया
जो कि साधु को
करना चाहिए।
कि रात्रि
भोजन करे, कि पानी छान
कर पीए, कि
ये न खाए, कि
वह न पीए, ये
कपड़े पहने, वे न पहने, कि नग्न रहे,
कपड़ा न पहने, कि
शरीर पर भभूत
लगाए, कि
धूप में बैठे,
कि आग जला
कर शरीर को
गर्मी में और तपाए, जलाए और
गलाए, कि
कांटे बिछा कर
लेटे। नहीं। किरियां
करम आचार मैं छाड़ा, छाड़ा
तीरथ नहाना।
सब छोड़ दिया।
छूट ही जाता
है। छोड़ना
पड़ता नहीं।
जब
सतगुरु मिल
जाए, सब छुट
जाता है।
इसलिए सभी
धर्म सतगुरुओं
के विपरीत
होंगे।
क्योंकि सभी
धर्म पुराने क्रियाकांड,
पुरानी
विधि, पुराना
तीर्थ, पुराना
मंदिर, पूजा
पाठ--उस पर
आरूढ़ हैं। जब
भी कोई सतगुरु
पैदा होगा
तत्क्षण सारे
धर्म उसके
विपरीत हो जाएंगे।
क्योंकि
जो जो उसे
सतगुरु के साथ
चलेंगे, उनके
क्रियाकांड
छूटने लगेंगे।
वे तीर्थ जाना
बंद कर देंगे।
एक नया तीर्थ पैदा
हो गया और
जीवित तीर्थ
पैदा हो गया, अब कौन
मुर्दा
तीर्थों में
जाता है? अब
एक नई विधि
मिल गई, जीवित
विधि मिल गई, जिसमें अभी
भी आग है, अंगार
है; राख
नहीं हो गई।
तो अब
कौन पुरानी
विधियों को
खोजता है, जिनकी अंगार
कभी की बुझा
गई? कभी
थी। अब नहीं
है। अब सिर्फ
राख के ढर्रे
रहे गए। राख
के ढेर में भी
गर्मी तक नहीं
रह गई, बिलकुल
ठंडे हो गए।
कोई प्राण
नहीं बचा। अब
उनको तुम छोड़
ही दोगे।
छोड़ना पड़ता
नहीं, वे
छूट जाते हैं।
इसलिए
एक बात खयाल
में रखना कि
जब भी कोई
सतगुरु पैदा
होता है, तभी
सारे धर्म
उसके विपरीत
ही जाते हैं।
होना उल्टा
चाहिए, कि
सारे धर्म
उसके पक्ष में
हो जाएं
क्योंकि वह
वही कर रहा है,
जो धन
धर्मों ने कभी
किया था।
लेकिन ऐसा
प्रतीत होता
है कि वह
दुश्मन है।
नानक
पैदा होगा, तो सिक्ख
धर्म पैदा हो
जाएगा अलग। हिंदू
राजी न होंगे
इसे स्वीकार
करने को
मुसलमान राजी
न होंगे, स्वीकार
करने को, जैन
राजी न होंगे
स्वीकार करने
को। क्योंकि नानक
की मान कर कोई
जैन नग्न साधु
कपड़े पहन लेगा।
छोड़ देगा
नग्नता। नानक
की मान कर कोई
हज यात्रा आधी
यात्रा से
वापस लौट
आएगा। नानक की
मान कर कोई
माला को फेंक
देगा। कोई
पूजा, अर्चना
को बंद कर
देगा। सभी
दुश्मन हो
जाएंगे--मस्जिद
भी, मंदिर
भी।
लेकिन
वही अब होगा।
अब नानक का
धर्म भी उतना
ही मर्दा
है, जितना
नानक के समय
हिंदू, मुसलमान
और जैन मुर्दा
थे। अब अगर
कोई सदगुरु
पैदा होगा तो
नानक के माननेवाले
उसके खिलाफ
खड़े हो जाएंगे
क्योंकि उसकी
सुनकर कोई
गुरुद्वारा
जाना बंद कर
दोगे। कोई
गुरु ग्रंथ को
बंद करके रख
देगा कि अब
क्षमा करो। सदगुरु
सदा ही
संप्रदायों
को दुश्मन की
तरह मालूम होगा।
धर्म का वह
दुश्मन नहीं
है, धर्म
को तो वह पुनर्स्थापक
है, स्थापन
कर रहा है, लेकिन
संप्रदाय का
वह दुश्मन है।
संप्रदाय
का अर्थ है, मरा हुआ
धर्म।
संप्रदाय का
अर्थ है, तुम्हारे
पिता बड़े
प्यारे थे, जिंदा थे, तुम उनकी
सेवा करते थे,
वे मर गए।
अब क्या करो? संप्रदाय का
अर्थ है, पिता
की लाश को घर
में रख लोग और
पूजा करो। समझदार
आदमी यह नहीं
करता। माना कि
पिता बड़े
प्यारे थे।
रोता है, जार-जार
रोता है। छाती
पीटता है।
महीनों तक घाव
न भरेगा।
लेकिन सब ठीक।
अर्थी सजाता
है। पिता को
लेकर रोता हुआ
मरघट जाता है।
प्यारे थे, संबंध गहरा
था। लेकिन मर
गए, बात
खतम हो गई।
जिस
दिन दुनिया
में वस्तुतः
लोग थोड़ी गहरी
समझ के होंगे, उस दिन धर्म
जिस दिन मरेगा,
संप्रदाय
बनेगा, उसी
दिन अर्थी सजा
कर मरघट ले जा
कर बिदा कर देंगे।
ताकि जब भी
नया सदगुरु
पैदा हो, तो
लोग उसके लिए
उपलब्ध हो
सकें। लोग
पुराने संबंध
हों, उपलब्ध
नहीं हो पाते।
पुराने से
ग्रस्त हों उपलब्ध
नहीं हो पाते।
जब मैं
भूला रे
भाई--कबीर
कहते हैं--
मेरे
सतगुरु जुगत
लखाई।
किरिया
करम आचार मैं
छोड़ा, छाड़ा तीरथ
नहाना।
सगरी
दुनिया भई सयानी, मैं ही इक
बौराना।।
और सदगुरु
की मान कर
हालत ऐसी बनी
कि सारी
दुनिया तो समझदार
मालूम होने
लगी, एक मैं ही
पागल हो गया।
निरंतर
ऐसा होगा।
मेरे संन्यास
को पागल होना
ही पड़ेगा।
जहां जाएगा, लोग देख कर
हंसेंगे। हो
गया दिमाग
खराब? पड़
गए तुम भी
चक्कर में? तुम जैसे
बुद्धिमान
आदमी?
स्वाभाविक
है। यह बचाव
है। यह रक्षण
है दूसरे व्यक्ति
का। यह उसका सिफेन्स
है। वह यह कह
रहा है, हम
इतने बुद्धू नहीं।
वह यह कह रहा
है, हम
काफी समझदार
हैं। ऐसे
जल्दी चक्कर
में नहीं
पड़ते।
सम्मोहित हो
गए हो मालूम
होता है। हिप्नोटाइज
कर लिया किसी
ने। हमें कोई
सम्मोहित
नहीं कर सकता।
वह
अपनी रक्षा कर
रहा है। वह
तुम पर नहीं
हंस रहा है।
कहीं अपने पर
उसे रोना न
पड़े, इसलिए वह
तुम पर हंस
रहा है। उसकी
हंसी में वह
अपने रोने की
संभावना को
दबा रहा है।
कहीं उसे अपने
पर पछताना न
पड़े इसलिए वह
तुम्हारा
व्यंग कर रहा है।
भीतर
वह जानता है
कि जिंदगी
छूटी जा रही
है हाथ से।
भीतर वह जानता
है, क्रियाकांड पूरा कर रहा
हूं, आचरण
का पूरा पालन
कर रहा हूं।
कुछ भी नहीं
हो रहा है।
कोई दीया नहीं
जल रहा। कोई
बांसुरी नहीं
बज रही, कोई
नृत्य पैदा
नहीं हो रहा।
वह जानता है
कि मंदिर नियम
से जाता हूं, पाठ रोज
गीता का करता
हूं लेकिन गीत
पैदा नहीं हो
रहा। गीता रोज
पढ़ता हूं
लेकिन गीत
पैदा नहीं हो
रहा है। वह
धुन नहीं आ
रही। वह
महक--जो नचा
दे, उत्सव
से भर दे। कि
जीवन एक परम
आशीष मालूम होने
लगे परमात्मा
की--एक
आशीर्वाद, वह
नहीं हो रहा
है। वह जानता
है। उसे पता
है।
क्यों
पता न होगा? उसे पता है
कि उसकी
जिंदगी एक
रेगिस्तान
है। और उसमें
कोई मरूद्यान
नहीं है। सब
वह तुम्हारे
जीवन में
मुस्कुराहट
देखेगा और
थोड़े से मरूद्यान
का जन्म
देखेगा, वह
तुमसे कहेगा,
अरे! तुम भी
पागल हो गए? ऐसा कह कर वह
यह कह रहा है, तुम्हारा
मरूद्यान
झूठा है।
क्योंकि अगर
तुम्हारा
मरूद्यान सही
है, अगर
तुम्हें सच
में ही मिल
गया शीतल स्रोतजल
का, कि तुम
हरे होने लगे
हो, कि
तुममें फूल की
संभावना आई जा
रही है तो फिर मेरा
क्या होगा? वह तुम्हें
पोंछ कर मिटा
देना चाहता है
ताकि तुम उसके
भीतर पीड़ा का
एक बीज
अंकुरित न का
दो। वह तुम पर
हंसेगा, व्यंग
करेगा
तुम्हारी
उपेक्षा
करेगा, अपमान
करेगा, तिरस्कार
करेगा।और
अगर तुम अपनी
जिद में कायम
रहे, अगर
तुम अपनी
दीवानगी में
कायम रहे और
तुमने फिकर
नहीं की और
तुम चिंतित न
हुए तो
धीरे-धीरे वह
फिर तुम्हें
भूलने की
कोशिश करेगा
कि तुम हो भी।
वह तुम्हारे
अस्तित्व को
इंकार करेगा,
कि तम जैसे
हो ही नहीं।
वह तुम्हें
समाज बहिष्कृत
कर देगा। वह
तुम्हें
देखकर निकल
जाएगा, नमस्कार
न करेगा। वह
तुम्हारे पास
न आएगा। तुम
अछूत हो
जाओगे।
पर यह
होगा।
क्योंकि ये सब
उसकी रक्षा के
उपाय हैं। वह
अपनी दीनता को
दबा रहा है, छिपा रहा
है। अपनी मूढ़ता
को आवृत्त कर
रहा है। अपने
जीवन के
मरुस्थल को
तुम्हारे
मरूद्यान को
गलत सिद्ध
करके यह
सांत्वना दे
रहा है कि मरुस्थल
तो सभी के
भीतर है, मरूद्यान
होता ही नहीं।
इसलिए मेरे
जीवन में मरूद्यान
नहीं तो कोई
खास बात नहीं,
सभी के भीतर
ऐसा है। तुम
हंसते हुए उसे
स्वीकार नहीं
हो सकते। वह
कहेगा कि तुम
पागल हो। या तुम
कल्पना कर रहे
हो। यह बड़े
मजे की बात
है।
एक
युवक ने
संन्यास
लिया। उस युवक
के पिता उसे
लेकर मेरे पास
आए। पहले
उन्होंने सब
उपाय कर लिए।
लेकिन युवक सच
में ही युवक
था। वह हंसता ही
रहा। वह न तो
नाराज हुआ, न लड़ा, झगड़ा, न उसने कोई
प्रतिशोध
किया, न
कोई प्रतिशोध
लेने की कोई
कोशिश की। वह
जैसा था वैसा
ही रहा। हंसता
रहा, प्रसन्न
रहा। न उसने
क्रोध किया।
बेचैनी
बढ़ गई पिता
की। जरूर
लड़के
के दिमाग में
कुछ बड़बड़ हो
गई। क्योंकि
पहले अगर पिता
कुछ कहता था
तो वह लड़ने को
तैयार हो जाता
था। वह ठीक था, नेचरल मालूम होता
था--स्वाभाविक।
गाली दो, अपमान
करो, तो वह
भी गाली और
अपमान करने को
तैयार था। लेकिन
अब कोई गादी
दे तो वह
हंसता है।
जरूर कुछ गड़बड़
हो गई।
अस्वाभाविक!
इसके दिमाग
में कोई खराबी
तो नहीं हो गई?
आखिर पिता
लेकर मेरे पास
आए। कहने लगे,
कि मुझे शक
है, इसके
दिमाग में कुछ
गड़बड़ हो गई।
यह जो ध्यान वगैरह
कर रहा है, यह
ठीक नहीं।
क्योंकि हम
अगर नाराज भी
हों तो यह
मुस्कुराता
है। या तो हम
पागल हैं या
यह पागल है।
दोनों में से
कोई एक को
पागल होना ही
चाहिए यह
मुस्कुराहट
किस तरह की? और इसकी
मुस्कुराहट
देखकर बड़ी
हैरानी होती है।
इससे तो बेहतर
था नाराज हो
पड़े, टूट
पड़े, झगड़ा कर ले--समझ
में आता है।
वह भाषा
पहचानी हुई
है। इसको कुछ
हो गया है।
पिता निश्चित
दुखी थे। कहने
लगे, कुछ
भी करें, इसको
ठीक करें।
बेचैनी
कहां है? क्या
तुम नहीं
चाहते कि
तुम्हारा
लड़का हंसे? क्या तुम
नहीं चाहोगे
कि तुम्हारा
बेटा अपमान
में भी हंसे? यही तो जीवन
की कला है।
नहीं, लेकिन
बाप चाहेगा
बेहतर है वह झगड़ा कर ले,
बेहतर है वह
लड़ पड़े। गाली
दे।
लेकिन
स्वाभाविक--तुमने
अपने अंधेपन
को, अपने रोग
को स्वाभाविक
समझ लिया? तुम
अपने अंधेरे
को स्वभाव समझ
रहे हो? बाप
लेकर बेटे को
आया है, कि
इसे सुधार
दें। इसको वापस
रह जैसा था
वैसा ही हो
जाना चाहिए।
मैंने
उनको कहा, कि बेहतर हो
कि आप इसके
जैसे हो जाएं।
उन्होंने का
कि अब सत्तर
साल की उम्र...!
सत्तर
साल का इंवेस्टमेंट
है। सत्तर साल
जिंदगी लगाई
है एक धंधे
में। और अब
अचानक पता चले
कि वह धंधा
बिलकुल ही
बेकार था।
उसमें कोई सार
ही नहीं था
जिस बैंक में
तुम रुपया जमा
कर रहे थे, वह बैंक है
ही नहीं। अब
सत्तर साल में
इसका पता
चलेगा चैक-बुक
नकली है, तो
बड़ी पीड़ा होती
है। आदमी
चाहता है अब
जैसा भी भ्रम
था, जो भी
था, शांति
से मर जाएं।
वे
कहने लगे, इस उम्र में
सत्तर साल की
उम्र में अब
बदलाहट न हो
सकेगी। अब तो
मैं जी लिया।
तो
मैंने कहा, कि कृपा
करके इसको जी
लेने दें नए
ढंग से। तुमने
कुछ पाया, जो
तुम सोचते हो
कि तुम्हारे
ढंग से यह
लड़का भी जीएगा
तो कुछ पा
लेगा? तुम्हारे
बाप भी ऐसे ही
जीए। उनके बाप भी
ऐसे ही जीए।
तुम भी ऐसे ही
जीए।-- इस लड़के
ने थोड़ी
हिम्मत की है
बंधी लकीर से
हट जाने की।
तुम क्यों
बेचैन हो रहे
हो?
बेचैनी
है, क्योंकि
इसका मतलब वे
भी गलत, उनके
बाप भी गलत
उनके बाप के
बाप भी गलत।
और यह लड़का--कभी
उम्र केवल तीस
साल, और यह
ठीक? कठिन
है। अहंकार
नहीं मान
पाता।
इसलिए
कबीर कहते हैं, जैसे ही
क्रिया--कर्म
छोड़ा--
सगरी
दुनिया भई सयानी, मैं ही इक
बौराना।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है, कि बुद्ध ने
छह वर्ष तक
बड़ी गहन
तपश्चर्या
की। जो जो
सूत्र दिए जिस
जिस ने पाले, जो जो
अनुशासन
बताया गुरुओं
ने, पूरा
किया। ऐसी हालातें
आ गई, कि
गुरु थक जाते थे।
क्योंकि उनको
सब, जितना
बता सकते थे, बता दिया।
और बुद्ध उसको
इतनी निष्णात
स्थिति से
करते थे, इतनी
तत्परता और
लगन से करते, कि गुरु के
पास यह भी
बहाना नहीं
बचता कहने का,
कि तुमने
ठीक से नहीं
किया, इसलिए
हो रहा है।
गुरुओं
के पास वह
तरकीब
है--गुरु जो कि
सचमुच में
गुरु नहीं
हैं--क्योंकि
वे जो बनाते हैं
तुम कभी पूरा
कर नहीं पाते, इसलिए सच
जांच कभी हो
नहीं पाती कि
वे जो बताते
हैं, वह
सार का भी है, कि निस्सार
है? कोई
गुरु कहता है
कि अगर तुमने
नब्बे दिन का
उपवास किया तो
आत्मज्ञान हो
जाएगा। अब बड़ी
मुश्किल है।
नब्बे दिन का
उपवास न तुम
करोगे, न
आत्मज्ञान
होगा। और अगर
तुमने एक दिन
पहले ही तोड़
दिया, गुरु
कहेगा कि
अधूरा रह गया।
इसलिए तो
तुम्हें कभी
जांच का मौका
भी नहीं
मिलता।
गुरुओं
की ठीक
परीक्षा तभी
होती है, जब
उन्हें ठीक
शिष्य मिल
जाते हैं।
बुद्ध
ऐसा ही शिष्य
था। उसने अनेक
गुरुओं का
पानी उतार
दिया। वे जिस
गुरु के पास
गए, गुरु ने
जो कहा--गुरु
ने कहा पंद्रह
दिन का उपवास
तो उन्होंने
पैंतालीस दिन
का करके
बताया। गुरु
को यह कहने की
जगह न रही, कि
तुमने किया
नहीं। आखिर
गुरु हाथ जोड़
लेते थे। हम
जो बता सकते
थे, बता
दिया। इसके
आगे हमें भी
पता नहीं है।
तुम कहीं और
जाओ। क्योंकि
उनकी वजह से
दूसरे
शिष्यों में
शक पैदा होने
लगता, कि
जब इतना करके
इस आदमी को
कुछ न हुआ, तो
हमको क्या
होगा? बुद्ध
की वजह से
शिष्य भागने
लगते दूसरे।
बुद्ध
ने सारे
गुरुओं को
टटोल डाला। और
जैसा कि अक्सर
होता है, गुरु
तो मुश्किल से
कोई होता है।
सौ में कभी एक।
निन्यानबे तो
केवल धोखे के
गुरु होते
हैं। जैसे कि
तुमने खेतों
में खड़े आदमी
देखे हैं, धोखे
के। हंडी लगी
है, कपड़ा लगा है, डंडे
पर खड़े हैं।
पक्षियों को
भगाने के लिए
ठीक। ऐसे गुरु
हैं
तुम्हारे। नासमझों
के लिए ठीक, कमजोरों के लिए ठीक, नपुंसकों के
लिए ठीक। जो
कुछ नहीं करना
चाहते, जो
सिर्फ सिर
हिलाते हैं कि
ठीक है, कभी
करेंगे; उनके
लिए ठीक।
लेकिन कोई
करने वाला आ
जाए तो कठिनाई
हो जाती है।
बुद्ध
ने मुश्किल
खड़ी कर दी। सब
किया। ऐसी हालत
हो गई कि लोग
बुद्ध के पीछे
चलने लगे।
बुद्ध ने इतना
किया और बुद्ध
कहे जा रहे हैं
कि मुझे कोई
ज्ञान नहीं
हुआ है। यह सब
करना फिजूल
गया है, लेकिन
फिर भी मानने
वाले पैदा हो
गए।
एक
गुरु--आखिरी
गुरु--अलार कालाम
को जब
उन्होंने
छोड़ा तो उसके
पांच शिष्य
बुद्ध के
शिष्य हो गए।
उन्होंने कहा
कि इस गुरु से
तो यह बुद्ध
बेहतर। उन
दिनों बुद्ध
केवल एक दाना
चावल रोज लेते
थे भोजन में।
कृशकाय हो गए
थे। सिर्फ एक
मूर्ति उसको
चित्रित
करनेवाली
उपलब्ध है।
शायद उसका
चित्र तुमने
कभी देखा हो।
उसमें बुद्ध
की पीठ और पेट
एक हो गए हैं। शरीर
सिर्फ
हड्डियां का
अस्थि-पंजर रह
गया है। एक-एक
हड्डी तुम गिन
सकते हो! सब
चर्बी खो गई
है। खून सूख
गया है। सिर्फ
आंखें भर जीवित
मालूम पड़ती
हैं। सारा
मुंह घंस
गया है। सिर्फ
चमड़ी और
हड्डियां
बाकी रह गई।
ऐसे
बुद्ध एक तृण
मात्र खा कर
जीते थे। इतने
कमजोर हो गए, कि निरंजना
नदी को पार
करते वक्त बुद्ध
गया के पास, पार न कर
सके। कमजोरी
ऐसी थी। और
नदी बड़ी छिछली
है। कोई बुद्ध
पार किए, कई
बार जा कर देख
लिया हूं।
उसमें टी. बी.
का मरीज भी
पार होगा।
उसमें कैंसर
का मरीज भी
पार हो सकता
है। बुद्ध पार
न हो सके।
हालत बड़ी
कमजोर रही
होगी, बड़ी
दयनीय रही
होगी। और नदी
बलवान मालूम
पड़ती थी। घाट
चढ़ न सकते थे।
तो एक वृक्ष
की शाखा को
पकड़ कर लटक
गए।
उस
क्षण में
उन्हें होश
आया, कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं। शरीर को
नष्ट कर रहा
हूं। इससे
आत्मा कैसे
मिलेगी? आत्मा
के मिलने का
शरीर को नष्ट
करने से कौन सा
संबंध है? कौन
वसा तर्क है, कौन सा गणित
है? और
कमजोर में
इतना हो गया
कि निरंजना--साधारण
सी नदी पार
नहीं कर पाता,
और भवसागर
पार करने की
सोच रहा हूं।
यह नहीं होगा।
और उस
क्षण निरंजना
नदी में पड़े
हुए, वृक्ष की
जड़ को पकड़े
हुए उन्हें
लगा कि सब
करता व्यर्थ
गया। कोई क्रिया-कांड
कहीं न ले जा
सका। पहले
मैंने संसार
छोड़ दिया था।
अब मैं यह
त्याग
तपश्चर्या भी
छोड़ देता हूं।
उस दिन त्याग
पूरा हुआ। उस
दिन कुछ भी न
बचा पकड़ने
को। सब छूट
गया। मुट्ठी
खुल गई।
बुद्ध
किसी तरह बाहर
निकले। जिस
वृक्ष के नीचे
उनको बोध हुआ
उस वृक्ष के
नीचे बैठे।
किसी युवती ने
गांव की, जिसका
नाम सुजाता है;
ऐसा उस
वृक्ष के
देवता के लिए
कुछ चढ़ौती
मानी होगी, कि कोई उसकी
इच्छा पूरी हो
जाएगी तो वह
खीर से भरा
हुआ थाल वृक्ष
को चढ़ाएगी।
पूर्णिमा की
रात थी। उस
रात वह खीर चढ़ाने
आई। उसकी
इच्छा पूरी हो
गई थी।
पूर्णिमा
की उस निर्जन
रात में, निरंजना के एकांत तट
पर वृक्ष के
नीचे उसने
बुद्ध को देखा--दुर्बलकाय,
पीत हो गए।
समझा--भोली
युवती रही
होगी, श्रद्धावान--समझा
कि वृक्ष का
देवता स्वयं
खीर लेने को
उपस्थित हुआ
है। कोई और
दिन होता, तो
बुद्ध ने खीर
न ली होती
क्योंकि वे
केवल एक तृण
ही लेते थे। कोई
और दिन होता
तो बुद्ध ने
रात में कुछ
भी न लिया
होता एक तृण
भी, क्योंकि
रात वे लेते
थे। कोई और
दिन होता तो जात-पात
पूछी होती कि
स्त्री कौन है?
निश्चित
ही स्त्री
शूद्र रही
होगी। नाम
सुजाता बताता
है, कि शूद्र
रही होगी।
क्योंकि जो
अच्छी बात में
पैदा हुआ हो वह
सुजाता नाम न
रखेगा। जरूरत
नहीं। इसलिए
अक्सर कुरूप
स्त्रियों का
नाम तुम पाओगे
सुंदरबाई।
सुंदर स्त्री
को कोई सुंदरबाई
नाम देता? जंचती
नहीं बात, बैठती
नहीं बात।
निश्चित लड़की
शूद्र रही होगी।
और शूद्र ही
तो वृक्षों
इत्यादि को
पूजते हैं।
ब्राह्मणों
के तो मंदिर
हैं। जैनों के
बड़े विशाल
मंदिर हैं।
उनको कोई
वृक्षों की
पूजा करने
नहीं जाना
पड़ता। जो मंदिर
बना नहीं सकते,
देवता
प्रतिष्ठापित
नहीं कर सकते,
दीन-दरिद्र
हैं, वे ही
तो वृक्षों को
पूजते हैं।
शूद्र ही रही होगी।
लेकिन
उस रात बुद्ध
ने पूछा।
पूछने की बात
ही न रही। उस
दिन सब छोड़
दिया। जो हो, हो। अब यह हो
रहा है, कि
यह लड़की अचानक
इस रात में
बिना मांगे
खीर लेकर आ गई,
तो
उन्होंने
स्वीकार कर
लिया। यह खबर
उनके पांच
शिष्यों को
मिली जो दूसरे
वृक्षों के
नीचे ध्यान कर
रहे थे। पांच
शिष्य, जो
बुद्ध की
तपश्चर्या
देखकर इनके
पीछे हो गए
थे। उन्होंने
कहा कि अब यह
भ्रष्ट हो गया
है। शूद्र
लड़की रात का
समय और अब तक
एक तृण लेता
था। यह गौतम
भ्रष्ट हो
गया।
उन्होंने तत्क्षण
गौतम को छोड़
दिया, त्याग
कर दिया।
वैसी
ही दशा कबीर
की हो होगी।
किरिया
करम अचार मैं छाड़ा, छाड़ा तीरथ
नहाना।
सगरी
दुनिया भई सयानी, मैं ही इक
बौराना।।
बुद्ध
के अपने पांच
शिष्य भी
छोड़कर चले गए
कि भ्रष्ट हो
गया यह आदमी।
क्योंकि
तुम्हारे लिए
धर्म का अर्थ क्रियाकांड
है। तुमने
धर्म को तो
जाना नहीं।
तुमने तो धर्म
के नाम पर
मुर्दा
विधियों को
जाना है। अब तक
यह बुद्ध
ज्ञानी था, मानने योग्य
था, पूज्य
था। अब यह
भ्रष्ट हो
गया। खीर खाने
से आदमी
भ्रष्ट हो
गया। रात भोजन
लेने से
भ्रष्ट हो
गया।
मैं एक
घर में मेहमान
था, जैन घर।
गांव के सबसे
प्रतिष्ठित
वृद्ध जैन मुझे
मिलने आए थे, उन्होंने
मेरी किताब
साधना पंथ पढ़ी
और बहुत प्रभावित
हुए थे। और
मेरी बड़ी
तारीफ कर रहे
थे। ऐसे, जैसे
मैं पच्चीस
तीर्थंकर
हूं। और तभी
घर की गृहिणी
ने आकर मुझे
कहा, कि अब
आप चलें। रात
हुई जाती है, भोजन कर
लें। जैन तो
रात भोजन नहीं
करते। और वृद्ध
उतने भाव में
थे कि मैंने
कहा कि थोड़ी
देर हो जाएगी
तो हर्जा
नहीं। पहले
मैं उनसे बात
कर लूं।
फिर
रात हो गई।
फिर गृहिणी आई, उसने कहा, अब देर हुई
जाती है। अब
उसको भी
बेचैनी शुरू हो
गई। क्या रात
में मैं भोजन
करूंगा? और
मैंने कहा कि
बस, मैं
स्नान कर लूं
और आया। तो
वृद्ध जो मेरा
पैर पकड़े
बैठे थे, तत्क्षण
मेरा पैर छोड़
दिया और कहा, क्या? क्या
आप रात्रि
भोजन करेंगे।
मैंने
कहा, भूख न तो
दिन जानती है
और न रात। और
महावीर के जमाने
में बिजली
नहीं थी।
अंधेरे
में--नब्बे प्रतिशत
लोग अंधेरे
में भोजन करते
थे। दस प्रतिशत,
जिनके पास
सुविधा थी, वे भी
मिट्टी के दीए
जलाते थे। उन
दीयों में भी
बहुत रोशनी न
थी। उल्टे उन
दीयों के कारण
कीट-पतंग आते
थे। अब इस एयर
कंडीशंड घर
में कीड़े
पतंगों के आने
का उपाय नहीं।
दिन हो कि रात,
सूरज सदा
बटन से बुझता
और जलता है, उगता है, डूबता
है। क्या
इसमें पंचायत
की बात है? कोई
हर्जा नहीं
है। ज्यादा
उचित यह है कि,
आप की बात
पूरी हो जाए।
वृद्ध हैं, इतनी दूर चल
कर आए हैं।
उन्होंने
कहा, तब फिर
मुझे आपको एक
बात कहनी
पड़ेगी। मैं
कुछ सीखने आया
था। लेकिन मैं
गलत आदमी के
पास आ गया। और
बजाय सीखने के
मैं आपको इतना
सिखाना चाहूंगा--मैं
वृद्ध हूं, पचहत्तर
वर्ष की मेरी
उम्र है--इतनी
शिक्षा आपको
जरूर दूंगा, कि जिसको
अभी इतना भी
ज्ञान नहीं कि
रात्रि भोजन
वर्जित है, उसका सब
ज्ञान वृथा
है। इसमें कोई
सार नहीं। स्वभावतः--सारी
दुनिया भई सयानी,
मैं ही
बौराना।
क्रियाकांड
जब छोड़ दिया
होगा कबीर ने, लोगों ने
कहा होगा, कि
हो गया
भ्रष्ट।
बुद्ध
ने जब ज्ञान
उत्पन्न हो
गया उस रात, जब शिष्य
छोड़कर चले गए,
उस वृक्ष के
नीचे सोए पहली
दफा निश्चित।
न चिंता रही
संसार की, बाजार
की, राज्यों
की, साम्राज्य
की। न चिंता
रही मोक्ष की,
स्वर्ग की,
परमात्मा
की। उस रात
बिलकुल
निश्चित सोए।
चिंता ही नहीं
रही। पाने को
कुछ न बचा। सब
व्यर्थ है। सब
व्यर्थ इतना
समग्र रूपेण
हो गया, कि
चिंता न रही।
कोई सपना न
आया। कोई मन
में उद्विग्नता
न उठी। नींद
थी, सो गए।
सुबह पांच बजे
आंख खुली।
वैसी शुद्ध आंख,
कुंआरी आंख
जब भी खुलती
है, तभी
सत्य उपलब्ध
हो जाता है।
कोई विचार
नहीं, कोई
चिंता नहीं, कोई धारणा
नहीं। क्या
ठीक, गलत; क्या करना, क्या नहीं
करना; कोई
ऊहापोह नहीं।
सीधी-सादी
कुंआरी आंख!
आखिरी तारा
डुबता था। और
बुद्ध को परमज्ञान
उपलब्ध हुआ उस
डूबते तारे के
साथ ही पुराना
आदमी समाप्त
हो गया। नए का
जन्म हुआ।
चेतना पुरानी
लीन हो गई, नई चेतना
जनम गई।
उस
क्षण बुद्ध ने
जाना, कि
सत्य कुछ करने
से नहीं मिलता,
सिर्फ आंख
खोलने की बात
है। सिर्फ होश,
स्मरण, जागृति।
पहला स्मरण
आया उन पांच
शिष्यों का, जो छोड़ कर
चले गए। इतने
दिन साथ थे
बेचारे। असमय
में साथ रहे।
जब कुछ देने
को न था तब
पीछे चले। जब
कुछ मेरे पास
ही न था, तब
मुझे गुरु
माना और अब जब
मेरे पास देने
को है, तब
मुझे छोड़ कर
चले गए हैं।
तो
बुद्ध उन्हें
खोजने निकले।
उनको जाकर पकड़
पाए सारनाथ
में। जब
उन्होंने
देखा बुद्ध को
आते हुए, दूर
से एक टीले पर
बैठे हुए तो
उन पांचों ने
तय किया, यह
भ्रष्ट गौतम आ
रहा है। हम न
तो इसको उठ कर
आदर दें और न
नमस्कार
करें। न इतना,
हम उसकी तरफ
पीठ कर लें।
अगर इसको आना
हो खुद आ जाए।
बैठना हो, खुद
बैठ जाए। हम
यह गौतम
भ्रष्ट है।
इसने नियम छोड़
दिए, तप
छोड़ दी, चर्या
छोड़ दी। आचरण
भ्रष्ट! इसके
लिए अब कोई समादर
नहीं है।
लेकिन
जैसे-जैसे
बुद्ध पास आने
लगे, उनको बड़ी
बेचैनी होने
लगी। जैसे ही
बुद्ध पास आए
निकट आए, पहले
एक उठकर खड़ा
हुआ, चरणों
में गिरा। फिर
दूसरा, फिर
तीसरा, फिर
वे पांचों। और
बुद्ध ने कहा
कि तुमने निर्णय
कुछ और किया
था। निर्णय
बदल क्यों
दिया? निर्णय
पर आदमी को
टिकना चाहिए।
उन्होंने
कहा, हमने
बदला ऐसा कहना
ठीक न होगा।
तुम्हारी
सन्निधि, तुम्हारा
पास होना--और
हमने आदर दिया,
ऐसा कहना भी
ठीक न होगा।
क्योंकि हमने
तो निर्णय
किया था न
देने का। आदर
हुआ तुम्हारी
मौजूदगी में,
जैसे कि कोई
एक चुंबक खींच
ले।
जिनके
भीतर भी थोड़ी
सी क्षमता है, सदगुरुओं के पास वे खिंचे चले
जाते हैं
चुंबक की
भांति। किसी क्रियाकांड
के कारण नहीं,
किसी योग
तपश्चर्या के
कारण नहीं
किसी संप्रदाय,
सिद्धांत, शास्त्रों
के कारण नहीं।
जिनके भीतर
थोड़ी सी भी
संभावना है
आत्मा की, वे
सदगुरु
के पास खिंचे
चले जाते हैं।
चाहे दुनिया
विरोध में हो।
चाहे सारी
दुनिया कहे कि
तुम पागल हो।
वह पागल होना
दांव लगाने
जैसा लगता है।
वह पागल होना
शुभ मालूम
होता है।
ना मैं
जानूं सेवा
बंदगी, ना
मैं घंट
बजाईं।
ना मैं
मूरत धरि
सिंहासन, ना
मैं पुहुप चढ़ाई।
सब छूट
गया। फूल चढ़ाना
पत्थरों
पर--क्योंकि
जो अपनी आत्मा
के खिले हुए
फूल को
परमात्मा में चढ़ाने में
समर्थ हो गया, अब वह फूलों
को तोड़ कर
पत्थरों पर चढ़ाने
जाएगा? और
वृक्ष के लिए
हुए फूल तो
जिंदा हैं।
तुम उन्हें
मार डालोगे
तोड़ कर। और
तुम पत्थरों
पर चढ़ा दोगे।
वृक्ष में
क्या कम चढ़े थे
परमात्मा को?
वृक्ष में
भले चढ़े थे, पूरी तरह
चढ़े थे, जीवित
चढ़े थे। तुमने
मार कर चढ़ाया।
असल मग
संप्रदाय
मुर्दा है और
मुर्दा चीजें
ही करवाता है।
फूल जिंदा था।
चढ़ा ही हुआ था
परमात्मा को।
क्योंकि
परमात्मा के
अतिरिक्त और किसको
चढ़ेगा? वह परमात्मा
की ही सुगंध थी
जो बिखर रही
थी उससे। वे
परमात्मा के
ही रंग थे, जो
खिले थे। वे
परमात्मा की
ही पंखुडियां
थीं। वह
परमात्मा का
ही रूप था। वह
उसका ही गीत
था, तुम
उसे तोड़ डाले
और पत्थर पर
चढ़ा आए।
तुमने
उसे अपने
परमात्मा पर
चढ़ा दिया।
तुम्हारा
परमात्मा
झूठा है। वह
तुम्हारा ही बनाया
गया परमात्मा
है। वह मूर्ति
तुम्हारे हाथ
से गढ़ी
हुई है। अपने
हाथ से गढ़ी
मूर्ति, जिसे
बाजार से खरीद
लाए हो और कुछ
पंडित पुजारी,
जिनको भी
तुम बाजार से
खरीद लाए थे, उन्होंने
शोर गुल मचाकर,
घंटे बजाकर
आवाज करके, धुआं पैदा
करके उसको
असली
परमात्मा की
तरह प्रतिष्ठित
कर दिया है।
तुम भी जानते
हो, वे भी
जानते हैं। और
फूल नाहक
बेचारा बलि
दिया जा रहा
है। उसका कोई
कसूर नहीं है।
उसका कोई हाथ
नहीं है इस
उपद्रव में।
मैं
जबलपुर में था, तो मैंने एक
बड़ा बगीचा
अपने चारों
तरफ लगा रखा
था। मैं बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया।
क्योंकि
धार्मिक
लोग--पास ही
मंदिर थे--वे
सुबह सुबह वहां
से निकलते, वे बगीचे
में घुस जाते।
अधार्मिक को
तो डर भी हो
धार्मिक को डर
ही नहीं। उसको
पूछने की भी
जरूरत नहीं, कि फूल हम
तोड़ सकते हैं
कि नहीं? क्योंकि
वह पूजा के
लिए तोड़ रहा
है। अब पूजा के
लिए कोई मना
करता है?
आखिर
मुझे एक तख्ती
लगा देनी पड़ी, कि पूजा के
लिए भर तोड़ना
मना है। और
किसी के लिए
तोड़ो, चलेगा।
क्योंकि पूजा
का फूल तोड़ने
से क्या लेना-देना?
और वे इतनी अकड? से
घुस आते, राम-राम
जपते, कि
उनका अधिकार
है। वे तो
पूजा के लिए
तोड़ रहे हैं।
वे मुझसे कहते
हैं, कोई अपने
लिए थोड़े ही
तोड़ रहे हैं।
फूल
भले ही सोह
रहे हैं
वृक्षों पर, क्यों उनको तोड़कर
पत्थरों पर
चढ़ा रहे हो? अगर बहुत ही
ज्यादा इच्छा
होती हो, पत्थरों
को लाकर फूलों
पर चढ़ा दो। कम
से कम मुर्दा
को जिंदगी पर
चढ़ा दो। मगर
संप्रदाय
उलटा ही
सिखाते हैं।
जिस
दिन कबीर ने
बंद कर दिया--
नाम
मैं जानूं
सेवा बंदगी, ना मैं घंटा बजाई
ना मैं
मूरत धरि
सिंहासन, ना
मैं पुहुप चढ़ाई
ना हरि
रीझै जपत्तप
कीन्हें
ना काया के जारे।
न तो
परमात्मा को
कोई रटन लगाकर
राम-राम मी पा सकता
है, रिझा
सकता है। रिझाएगा,
क्या! उल्टा
उसको उबाता
होगा।
मैंने
सुना है, एक
आदमी मरा और
उसने जाकर
स्वर्ग में जब
देखा, तो
वह बहुत नाराज
हुआ। एक पापी
जो उसके घर के
सामने ही रहता
था वह
परमात्मा के
पास बैठा हुआ है।
उसे नर्क में
होना चाहिए।
उसने
कहा, यह
अन्याय है। यह
क्या मैं अपनी
आंख से देख रहा
हूं! तो यह भी
रिश्वत चल रही
है, कि
भाई-भतीजावाद
चल रहा है।
क्या मामला है?
यह आदमी
यहां कैसे
बैठा है? यह
पापी है। और
मैं सदा
तुम्हारा
गुणगान गाता रहा।
और सिवाय कष्ट
के मुझे
जिंदगी में
कुछ न मिला और
अब यह कष्ट
तुम दे रहे हो,
कि इस पापी
को यहां देखना
पड़ेगा स्वर्ग
में? तो
मतलब हमारे
पुण्य का क्या
है!
परमात्मा
ने कहा, कि
तुम इसमें ही
खैर समझो, कि
तुम स्वर्ग
में हो। इरादा
तो तुम्हें
नर्क में
भेजने का था।
उस
आदमी ने कहा
क्या? और
मैं राम-राम
जपता रहा--दिन
में नहीं, रात
में तक। सोते,
जागते, राम
की धुन लगाए
रहा।
परमात्मा
ने कहा, उसी
की वजह से तो।
तुमने मुझे तक
नहीं सोने
दिया। तुम
खोपड़ी खा गए।
एक रात चैन न
लेने दिया।
तुम काफी सौभाग्य
समझो, कि
तुम यहां
प्रवेश किए जा
रहे हो। और यह
आदमी यहां है,
क्योंकि
इसने मुझे कभी
सताया नहीं।
इसने न तो कभी
कोई
प्रार्थना की,
न कभी पूजा
की, न यह
कभी मंदिर
गया। दुनिया
इसे पापी
समझती थी।
क्योंकि
दुनिया जिसे पुण्य
समझती है वह
पुण्य ही नहीं
है। मंदिर जाने
में क्या
पुण्य है?
लेकिन
इस आदमी ने
चुपचाप दिनों
की सेवा की
है। इधर दुकान
पर कमाया, उधर गरीबों
को बांट दिया।
बांटा भी इसने
शोरगुल करके
नहीं। अखबार
वालों को बुला
कर नहीं
बांटा।
फोटोग्राफर
तैयार नहीं
रखे। चुपचाप
लोगों के घरों
में डाल आया।
उनको भी पता
नहीं है। वह
धन्यवाद देने
का भी मौका
इसने नहीं दिया।
वह मंदिर नहीं
गया, यह सच
है। इसने पूजा
नहीं की, यह
सच है। लेकिन
यह मेरा
प्यारा है।
ना मैं
मूरत धरि
सिंहासन, ना
मैं पुहुप चढ़ाई
ना हरि
रीझै जप
तक कीन्हें, ना काया के जारे।
और तुम
शरीर को तपाओ, जलाओ, इससे
तुम सोचते हो,
परमात्मा
प्रसन्न होगा?
आत्मा तक
प्रसन्न नहीं
होती, परमात्मा
क्या प्रसन्न
होगा! भीतर की
आत्मा से
पूछो। वह
परमात्मा का प्रतिनिधि
है तुम्हारे
भीतर। पीड़ा
पाती है। पीड़ा
कभी पूजा नहीं
हो सकती।
उत्सव ही केवल
पूजा हो सकती
है।
तुम जब
प्रफुल्लित
हो, जब
तुम्हारा
सारा शरीर
खिला है और
स्वस्थ है, जब तुम्हारे
सारे शरीर के
रंग-रंग, रोएं-रोए में जीवन की
धारा बह रही
है, जब तुम
नाच सकते हो, तभी
तुम्हारी
आत्मा
प्रसन्न है।
और जिस बात में
आत्मा
प्रसन्न है, वही
परमात्मा की
पूजा है। तुम
अपनी आत्मा की
सुनो, तुमने
परमात्मा की
सुनी। तुमने
अपनी आत्मा की
न सुनी, तुम
परमात्मा के
दुश्मन हो।
गुरजिएफ
कहा करता था, कि दुनिया
के सारे धर्म
परमात्मा
दुश्मन हैं।
और वह ठीक
कहता था।
क्यों? वे
सब तुम्हें
तुम्हारी
आत्मा की
सुनने को नहीं
सिखाते। उनके
पास बंधे हुए
अनुशासन हैं,
उनको पूरा
करो। अगर
तुम्हारी
आत्मा इनके
विपरीत है, तो दबाओ।
अपने को मारो।
अपना ही गला घोंटो। वे
सब आत्मघाती
हैं।
ना हरि रीझै धोति
छाड़े...
और
नग्न हो जाने
से कोई हरि को
रिझा लोगे?
ना
पांचों के
मार...
और
पांचों
इंद्रियों को
भी मार डालो।
फोड़ लो
आंखें अपनी।
कान में सीखचें
डाल लो, ताकि
न सुनाई पड़ेगा
संगीत, न
वासना पैदा
होगी। न दिखाई
पड़ेगा रूप, न वासना
पैदा होगी।
मार डालो,
काट डालो
पांचों
इंद्रियों
को। वही तो
तुम्हारे
साधु
संन्यासी कर
रहे हैं।
परमात्मा
बनाता है, तुम मिटाते
हो। तुम कैसे
उसके मित्र हो
सकते हो? परमात्मा
आंखें बनाता
है, तुम
फोड़ते हो।
परमात्मा कान
देता है, तुम
बहरे बनना
चाहते हो। जो
परमात्मा ने
दिया है, उसे
मिटाओ मत,
उसे संभालो।
उसे सुसंस्कृत
करो, उसे
संवेदनशील
बनाओ।
आंख
ऐसी
संवेदनशील हो
जाए, कि रूप
दिखाई पड़े ही,
रूप के भीतर
छिपा अरूप भी
दिखाई पड़ने
लगे। कान ऐसे
श्रवण की
गहनता को
उपलब्ध हो
जाएं, कि
संगीत तो
सुनाई पड़े ही,
सब संगीत
में जो शून्य
छिपा है, वह
भी सुनाई पड़ने
लगे। स्वर तो
है ही संगीत
में, शून्य
भी है। स्वर
ऊपर का आवरण
है। शून्य
भीतर का प्राण
है। रूप तो है
ही फूल में, अरूप भी है।
रूप तो है ही
एक सुंदर
स्त्री में, सुंदर पुरुष
में; अरूप
भी है। आकार
तो दिखाई पड़े
ठीक, निराकार
भी दिखाई पड़े।
आंख चाहिए
ऐसी।
तुम
आंख फोड़
रहे हो, कि
रूप से डर गए
हो कि कहीं
रूप न दिखाई
पड़ जाए, नहीं
तो वासना पैदा
होती है। ठीक
है। रूप दिखाई
पड़ने से वासना
पैदा होती है।
आंख फोड़
लेने से रूप
दिखाई न
पड़ेगा। इस
भ्रांति में मत
रहना। अंधे
में भी वासना
होती है भयंकर
वासना होती
है। और तुम तो
कुछ भी कर
सकते हो। वह
बेचारा कुछ कर
नहीं पाता।
इसलिए बड़ी
असहाय वासना
होती है। बड़ी
विकृत, पर्वर्टेड।
सच है।
रूप दिखाई
पड़ने से वासना
पैदा होती है।
इसका अर्थ है
कि थोड़ा और
गहरे देखो:
अरूप दिखाई
पड़ने के करुणा
पैदा होती है।
रूप दिखाई
पड़ने से काम
पैदा होता है।
अरूप दिखाई
पड़ने से प्रेम
पैदा होता है।
आंख को बढ़ाओ, स्वाद को बढ़ाओ।
स्वाद को मिटाओ
मत। जीभ को
जला लेना बहुत
आसान है। क्या
कठिनाई है? स्वाद से घबड़ाओ
मत। स्वाद में
परम स्वाद भी
छिपा है।
अस्वाद को
उपलब्ध नहीं
होना है, परम
स्वाद को
उपलब्ध होना
है। तब तुम
परमात्मा की
धारा में बह
रहे हो। तब तुम्हें
कुछ करना न
पड़ेगा। तुम
ऐसे ही बहते
हुए पहुंच
जाओगे। धारा
जा रही है
सागर की तरफ।
तुम बस, धारा
के साथ एक हो
जाओ।
दाया रखि धरम को
पाले, जगसूं रहे उदासी
अपना
सा जिव
सबको जाने ताहि
मिले अविनासी।
दो
शब्द दया, करुणा।
जिसमें करुणा
जग गई, सब
जग गया।
धर्म-धर्म
से तुम अर्थ
मत लेना, हिंदू
धर्म, मुसलमान
धर्म, ईसाई
धर्म; नहीं।
क्योंकि वे सब
तो क्रियाकांड
हैं। धर्म से
मूल अर्थ है, स्वभाव; स्वयं
को साध ले। हम
कहते हैं आग
का धर्म--ताप; पानी का
धर्म--शीतलता।
क्या है धर्म
तुम्हारा--मनुष्य
का? क्या
है गुण
तुम्हारा, तुम्हारी
निजता का? चैतन्य,
होश
बुद्धत्व। जो
प्रज्ञा को
साध ले और
करुणा को; जो
जाग जाए और करुणावान
हो जाए...।
दाया रखि धरम को
पाले, जगसूं रहे उदासी।
वह
अपने आप इस
अपने के प्रति, जो चारों
तरफ चल रहा है,
उदास हो
जाता है। पर
यह उदासी घृणा
की नहीं है।
क्योंकि घृणा
कभी उदास नहीं
होती।
दुनिया
में तीन तरह
के लोग हैं।
एक जो दुनिया के
राग में पड़े
हैं, वे उदास
नहीं हैं।
दूसरे--जो
दुनिया के
प्रति विरागी
हो गए हैं, वे
भी उदास नहीं
है। प्रेम
घृणा में बदल
गया। मित्रता
शत्रुता बन
गई। जिस तरफ
देखते थे, वहां
पीठ कर ली।
लेकिन उदासी
नहीं है।
उदास
तो वह है, जो
दोनों से
मुक्त हो
गया--राग से, विराग से।
जिसको महावीर
ने वीतराग कहा
है। जो उदास
है। उदास का
अर्थ
तुम्हारी
उदासी नहीं कि
पत्नी नाराज
है, तुम
उदास बैठे हो।
कि धंधा ठीक
नहीं चल रहा
है, तुम
उदास बैठ हो।
यह तो राग है, यह उदासी नहीं
है। यह तो राग
असफल हो रहा
है, इसलिए
तुम उदास हो।
तुम्हारा
आनंद भी झूठा
है। कि आज
धंधा खूब चला, कि तुमने
ग्राहकों को
खूब लूटा, कि
तुम बड़े
प्रसन्न घर
चले जा रहे
हो। पैर पड़ते
नहीं जमीन पर,
आकाश में
उड़ते हैं। यह
आनंद भी आनंद
नहीं है। यह
भी राग है।
राग और विराग
दोनों जब छूट
जाएं। न तो
संसार के प्रतिराग
रहे और न
घृणा। न द्वेष
रहे, न राग;
तब उदास।
उदासी
परम अनुभव है।
उदासी से बड़ा
इस जगत में कुछ
भी नहीं है।
उदासी सुख भी
नहीं है ध्यान
रखना, जैसे तुम्हारे
शब्द कोषों
में लिखा है।
उदासी परम आनंद
है। संसार के
प्रति उदासी
तब ही आती है जब
अपने प्रति
परमानंद आ
जाता है। जब
परमात्मा में
नृत्य चलने
लगते हैं तब
संसार के
प्रति उदासी आ
जाती है।
जैसे
छोटा बच्चा है, वह बड़ा हो
गया। अब
खिलौने पड़े
हैं कोने में,
वह निकल भी
जाता है, देखता
भी नहीं कमरे
से। कभी
बिलकुल पागल
था। कभी इतना
पागल था, कि
रात भी खिलौने
को साथ लेकर
सोता था। बिना
खिलौने के
नींद भी नहीं
आती थी। कोई
दूसरा मांगता
खिलौना तो
लड़ने को तैयार
हो जाता था।
अब बड़ा हो गया,
समझ आ गई, खिलौने पड़े
हैं।
धीरे-धीरे
कचरे में फेंक
दिए जाएंगे।
जिस
दिन तुम्हें
बड़ा आनंद मिल
जाता है, छोटे
आनंद अपने आप
पड़े रह जाते
हैं, खिलौने
हो जाते हैं।
जिस दिन
परमात्मा
मिलता है, संसार
के प्रति
उदासी हो जाती
है। तुम संसार
के प्रति उदास
होने की कोशिश
मत करना।
अन्यथा उदासी
गलत होगी। वह
उदासी विराग
की होगी। तुम
तो परमात्मा
को पाने की
कोशिश करो। तब
एक अनूठी
उदासी आती है,
जिसका
स्वभाव आनंद
का है। जो बड़ी
विरोधाभासी है।
संसार के
प्रति कोई
अच्छा न बुरा
भाव रह जाता।
सब खो जाता
है। अपने में
कोई लीन है।
इतना आनंदित
है कि कुछ और
चाह न रही। सब
मिल गया। कुछ
पाने को न
बचा। संसार की
तरफ जो उदासी
है, वही
परमात्मा की
तरफ आनंद है।
वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू है।
दाया रखि धरम को
पाले, जगसूं रहै
उदासी
अपना
सा जिव
सबको ताहि
मिले अविनासी।
और
जैसे ही ये दो
घटनाएं घटती
हैं, दया और
धर्म; करुणा
और प्रज्ञा; वैसे ही दिखाई
पड़ता है कि जो
ज्योति मुझे
जल रही है, वही
सबमें जल रही
है।
अहिंसा
अपने आप पैदा
हो जाती है।
चींटी में भी
वही है। हाथी
में भी वही
है। वृक्ष में
भी वही है।
छोटे में, बड़े में, विराट
में, सबमें
वही है। और वह
मैं ही हूं। तत्वमसि
श्वेतकेतु।
वह मैं हूं।
वह श्वेतकेतु
तुम्हें हो।
एक ही का
विस्तार है अनेक
में।
सहे कुसबद बाद
को त्यागे
छाड़े गरब गुमाना
तब सब
गर्व और गुमान, सब अहंकार
और अस्मिता
छूट जाती है।
तब सब कुशब्द,
कोई गाली दे
रहा है, अपमान
कर रहा है, कुछ
सालता नहीं।जो
उदास हो गया
संसार के
प्रति। कोई
गाली दे तो
बराबर, कोई
स्तुति करे तो
बराबर।
सहे कुसबद, बाद को त्यागे--
और जब
उसको कोई वाद
नहीं है।
ईश्वरवादी
का कोई वाद
नहीं है।
ईश्वर को जाननेवाले
का कोई
सिद्धांत
नहीं है।
सिद्ध का कोई सिद्धांत
नहीं है, वह
स्वयं ईश्वर
है। वह समझाता
नहीं सत्य के
संबंध में; वह सत्य ही
समझाता है। वह
बोलता नहीं
सत्य के संबंध
में, सत्य
ही उससे बोलता
है।
सहे कुसबद बाद
को त्यागे, छाड़
गरब गुमाना
सत्य
नाम ताहि
को मिलि
है, कहै कबीर
दिवाना।
पागल
कबीर कहता है, कि जिसने
ऐसा कर लिया, मुर्दा
क्रिया-कांड
छोड़ दिया, जीवित
अंतधर्म
में जागा, वासना
की ऊर्जा को
करुणा बना
लिया, कोई
वाद, कोई
शास्त्र
जिसमें न रहा,
जो
शास्त्र-शून्य
और वाद-शून्य
हो गया। और
जिसने सबके
भीतर एक ही
अखंड ज्योति
को जलता देखा,
वह उस
अविनाशी को पा
सकता है। वही
पाता है।
कहै
कबीर दिवाना।
आज
इतना ही।
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