सत्संग का संगीत—(प्रवचन—बीसवां)
दिनांक
8 जून, 1975, प्रातः,
प्रश्नसार
:
1—आपकी
भक्ति साधना
में
प्रार्थना का
क्या स्थान
होगा?
2--कबीर
पर बोलते हुए
आपने सत्संग
पर बहुत जोर दिया।
आज के
परिप्रेक्ष्य
में सत्संग पर
कुछ और प्रकाश
डालेंगे?
3—समर्पण
कब होता है?
पहला
प्रश्न :
संत
कबीर पर बोलते
हुए आपने
भक्ति को
बहुत-बहुत
महिमा दी।
लेकिन कबीर की
भक्ति तो
जगह-जगह प्रार्थना
करती मालूम
होती है।
यथा--"आपै ही
बहि जाएंगे जो
नहिं पकरौ बांहि।"
और आपने
प्रार्थना को
भी ध्यान बना
दिया है। आपकी
भक्ति-साधना
में
प्रार्थना का
क्या स्थान
होगा?
ध्यान
और प्रार्थना
मार्ग की
दृष्टि से तो
बड़े भिन्न-भिन्न
हैं; विपरीत
भी। मंजिल की
दृष्टि से एक
हैं। प्रस्थान
के बिंदु पर
तो बड़ा भेद है,
लेकिन
पहुंचने की जगह
बिलकुल एक है।
ध्यान
की यात्रा
शुरू होती है
विचार को
निर्विचार
करने से। उसका
केंद्र
मस्तिष्क है, मन है।
साधारण मन की
अवस्था है, विचारों के
ऊहापोह से भरे
रहना।
विचारों की भीड़
चलती है।
रास्ता भरा है
मन का; भीड़
ही भीड़ है
विचारों की। न
सोते, न
जागते रुकती है;
चलती ही
रहती है।इस
धारा को तोड़
देने का नाम ध्यान
है। जब रास्ता
खाली हो जाता
है, कोई
ट्रैफिक नहीं,
विचार के
यात्री
आते-जाते नहीं,
सुनसान पड़
जाता है--रात, जैसे आधी
रात रास्ते पर
कोई भी न हो, ऐसी चित्त
की निर्विचार
दशा का नाम
ध्यान है।
भक्ति
का स्रोत और
प्रारंभ और
प्रस्थान-बिंदु
हृदय है। वह
मस्तिष्क से
शुरू नहीं
होती, हृदय
से शुरू होती
है। विचार से
शुरू नहीं होती,
प्रेम से
शुरू होती है।
दोनों
अलग जगह से
चलते हैं।
साधारणतः
प्रेम किसी के
प्रति होता है
: पत्नी के
प्रति, पति
के प्रति, बच्चों
के प्रति, धन
के प्रति।
प्रेम का कोई
आबजैक्ट, कोई
विषयवस्तु
होती है।
जब तक
प्रेम की कोई
विषयवस्तु है, तब तक प्रेम
का नाम है
राग। और जब
प्रेम समष्टि
के प्रति होता
है, सर्व
के प्रति होता
है, अस्तित्व
के प्रति होता
है, तब उस
प्रेम का नाम
है भक्ति।
परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं है, परमात्मा
समष्टि है।
परमात्मा का
अर्थ है, जो
है, सब
उसका जोड़। तो
जब प्रेम एक
के प्रति
प्रवाहित
नहीं होता, वरन सब के
प्रति
प्रवाहित
होता है, अशेष
भाव से बहता
है, बेशर्त
बहता है, तब
भक्ति।
जैसे
ही प्रेम अशेष
भाव से बहने
लगता है, विचार
अपने आप बंद
होने लगते हैं।
क्योंकि जहां
राग छूटा, वहां
विचार की जड़
कटनी शुरू हो
जाती है।
तुम
विचार करते हो, क्योंकि
तुम्हारा
कहीं राग है।
जहां राग है, उसी का तुम
विचार करते
हो। अगर
तुम्हारा राग
काम-वासना में
है, तो काम
के विचार आते
हैं। अगर
तुम्हारा राग
महत्त्वाकांक्षा
में है, तो महत्त्वाकांक्षा
के विचार आते
हैं। अगर तुम बहुत
बड़े धन का
संग्रह कर
लेना चाहते हो,
तो धन ही धन
के विचार आते
हैं। अगर तुम
भूखे हो, तो
भोजन ही भोजन
के विचार आते
हैं।
जहां
भी तुम्हारा
राग होता है, वहीं से
विचार का झरना
फूट पड़ता है।
और जब राग कोई
भी नहीं रह
जाता--परमात्मा
का राग, विराग
की दशा है।
क्योंकि
उसमें तुम
किसी दिशा में
जाते ही नहीं,
सभी दिशाओं
में जाते हो।
कोई चुनाव
नहीं रह जाता।
तुम सिर्फ
बहते हो, अनंत
की तरफ। और सब
रूपों में
बहते हो।
जैसे
ही प्रार्थना
बढ़नी शुरू
होती है, वैसे
ही वैसे विचार
का स्रोत कट जाता
है।
निर्विचार
अपने से सधता
है।
या, अगर तुमने
ध्यान से
यात्रा शुरू
की और विचार को
काटना शुरू
किया तो
जैसे-जैसे
विचार कटेगा,
वैसे-वैसे
राग कटेगा।
क्योंकि वे
दोनों संयुक्त
हैं। बिना राग
के विचार नहीं
होता, बिना
विचार के राग
नहीं हो सकता।
और जब राग कटेगा
तो तुम अचानक
पाओगे, धीरे-धीरे-धीरे
तुम्हारे
प्रेम की
विषयवस्तुएं
खोने लगीं।
तुम्हारा
प्रेम अब सर्व
के प्रति
प्रवाहित
होने लगा।
ध्यान
जैसे-जैसे
बढ़ता है, वैसे-वैसे
प्रार्थना
आविर्भूत
होती है। जैसे-जैसे
प्रार्थना
बढ़ती है, ध्यान
आविर्भूत
होता है। और
एक घड़ी आती है
अंत में, जहां
तय करना
मुश्किल हो
जाता है, कि
यह प्रार्थना
है या ध्यान!
विचार
शून्य हो जाते
हैं दोनों में
ही। और दोनों
में ही प्रेम
की अशेष धारा
बहने लगती है।
इसलिए अंतिम
घड़ी में मंजिल
पर भक्त और
ध्यानी मिल
जाते हैं।
यात्रा में
भेद हो सकता
है, अंतिम
पड़ाव बिलकुल
एक है।
जैसे
कोई पहाड़ के
शिखर पर चढ़ता
हो--बहुत तरफ
से चढ़ सकता है, लेकिन जब
शिखर पर
पहुंचेगा, तब
मंजिल एक ही
हो जाती है।
कहीं से भी
चढ़े, राह
कोई भी रही, कोई फर्क
नहीं पड़ता।
गंतव्य एक है।
और दो
तरह के
व्यक्ति हैं
संसार में।
जैसे स्त्रियां
हैं और पुरुष
हैं, ऐसे ही
भीतर के मनस
में भी दो तरह
के भेद हैं। ध्यानी
हैं और
प्रार्थी
हैं।
प्रार्थना
स्त्रैण-चित्त
का जोड़ है, ध्यान
पुरुष-चित्त
का।
स्त्रैण-चित्त
हृदय से ही
यात्रा शुरू
कर सकता है
क्योंकि
स्त्रैण-चित्त
हृदय में ही
वास करता है।
जहां वास है, वहीं से तो
चलोगे।
पुरुष-चित्त
हृदय में वास
नहीं करता, पुरुष-चित्त
मन में वास
करता है, मस्तिष्क
में वास करता
है। वहीं से
तुम निकलोगे।
यात्रा तो
वहीं से होगी,
जहां से तुम
हो। तुम्हारे
होने की जगह
ही तो पहला
कदम बनेगी।
मैं जब
कहता हूं
पुरुष-चित्त, स्त्री-चित्त;
तो मेरा
मतलब ऐसा नहीं
है, कि सभी
स्त्रियों के
पास
स्त्री-चित्त
है। ऐसी
स्त्रियां
हैं, जिनके
पास
पुरुष-चित्त
है। नहीं तो
मैडम क्यूरी
कैसे पैदा हो?
कैसे नोबल
प्राइज ले सके?
ऐसे
पुरुष हैं, जिनके पास
स्त्रैण-चित्त
है। नहीं तो
चैतन्य महाप्रभु
कैसे पैदा हों?
चैतन्य को
नाचते देख कर
तुम्हें
चैतन्य में और
मीरा में
रत्ती भर भी
फर्क नहीं
मालूम पड़ेगा।
देह भला पुरुष
की हो, अंतर्मन
स्त्री का है।
नीत्से
ने बुद्ध और
जीसस के विरोध
में जो कुछ बातें
कही हैं, उनमें
एक बात--उसने
तो विरोध में
कही है, लेकिन
मेरी दृष्टि
से बिलकुल ठीक
है। वह यह है, कि उसने
क्रोध में और
खंडन में और
निंदा में बुद्ध
और जीसस को
स्त्रैण कहा
है--फैमिनिन।
उसने तो
नाराजगी में
कहा है और
उसने तो खंडन
के लिए कहा
है। और उसने
तो कहा है, कि
इन दो आदमियों
ने सारी
दुनिया को
स्त्रैण बना
दिया। लेकिन
उसकी बात में
थोड़ा-सा सच है,
थोड़ी-सी
सचाई है।
पुरुष में
स्त्रियां हो
सकती हैं, स्त्रियों
में पुरुष हो
सकते हैं।
तुम्हें
अपना तय करना
पड़ेगा, कि
तुम्हारे
जीवन की धारा
अभी कहां है।
तुम मस्तिष्क
में जीते हो? सोच-विचार
में; चिंतन-मनन
में; तर्क
में, वितर्क
में; वाद-विवाद
में; शास्त्र
में; शब्द
में? अगर
तुम वहां जीते
हो, तो
वहीं से
तुम्हें चलना
पड़ेगा। हर्ज
कुछ भी नहीं
है। वहां से
भी यात्रा हो
सकती है।
अगर
तुम प्रेम में
जीते हो, संगीत
में, काव्य
में, गीत
में, नृत्य
में, तो
तुम्हारा
हृदय
संवेदनशील
है। वहां से
यात्रा होगी।
रवींद्रनाथ
स्त्रैण
चित्त के
व्यक्ति हैं।
तभी तो
गीतांजलि जैसे
महाकाव्य का
आविर्भाव हो
सका। इतना बड़ा
काव्य
मस्तिष्क से
पैदा नहीं
होता, हो ही
नहीं सकता।
मस्तिष्क बड़ा
गणित पैदा कर
सकता है, बड़ा
काव्य नहीं।
मस्तिष्क के
पास उतना रस
ही नहीं है।
रूखा-सूखा
हिसाब है।
आइंस्टीन
और रवींद्रनाथ
की मुलाकात
हुई थी। वह
पुरुष चित्त
और स्त्रैण
चित्त का मिलन
है। वह
मुलाकात बड़ी
मजेदार है।
आइंस्टीन कुछ
कहता है, रवींद्रनाथ
कुछ कहते हैं।
ये बातें
करीब-करीब
मालूम पड़ती
हैं, फिर
भी समानांतर
चलती मालूम
पड़ती हैं।
जैसे समानांतर
रेल की
पटरियां चलती
हैं; पास-पास
होती हैं, मिलती
कहीं नहीं।
रवींद्रनाथ
और आइंस्टीन की
चर्चा वैसी
है। बड़ा मधुर
वार्तालाप
है। क्योंकि
उतने बड़े दो
मनीषी मिले
हैं, तो
उसमें
माधुर्य तो
होगा। बड़ी
मित्रता है, बड़ी
आत्मीयता है,
पर बड़ा
फासला भी है।
कोई विरोध भी
नहीं है एक-दूसरे
का। लेकिन अपनी-अपनी
अभिव्यक्ति
है; वह
अभिव्यक्ति
ही भिन्न है।
आइंस्टीन
गणित का आदमी
है--शिखर गणित
का। रवींद्रनाथ
हृदय के आदमी
हैं--शिखर हैं
वे भक्ति के।
दोनों बहुत
करीब-करीब खड़े
हैं। ऐसा लगता
है कि मिलने
में देरी क्या
है इनकी? लेकिन
जैसे रेल की
पटरियां दूर
क्षितिज के
पास मिलती
मालूम पड़ती
हैं, लेकिन
फिर भी मिलती
नहीं। जब तुम
जाओगे चल कर, तब तुम
पाओगे वहां भी
नहीं मिलतीं;
और आगे
मिलती मालूम
पड़ती हैं।
ऐसी
लंबी चर्चा
चलती है।
घंटों
रवींद्रनाथ और
आइंस्टीन
साथ-साथ रहे, पर एक बिंदु
पर भी कहीं
मिलना नहीं
होता। वह मिलना
हो नहीं सकता।
उनका
प्रस्थान-बिंदु
भिन्न है। एक
हृदय की बात
कर रहा है, एक
विचार की बात
कर रहा है। अब
हृदय और विचार
में इतना ही
फासला है, जितना
जमीन और आसमान
में--प्रस्थान
बिंदु पर। अंतिम
मंजिल में कोई
फासला नहीं
है।
तो
कहां से तुम
चलते हो यह
सवाल नहीं है, असली सवाल
यह है, कहां
तुम पहुंचते
हो। और इसलिए
ठीक से निर्णय
कर लेना कि
तुम किस तरह
के व्यक्ति
हो। वहां अगर
भूल हो गई तो
तुम मंजिल पर
कभी न पहुंच
पाओगे। और
बहुत कठिन है
तय करना। कठिन
इसलिए है तय करना,
कि जो
व्यक्ति
मस्तिष्क में
जीता है, वह
मस्तिष्क से
ही प्रेम भी
करता है। वह
प्रेम नहीं
करता, वह
प्रेम का भी
विचार करता
है। जब वह
किसी के प्रेम
में पड़ जाता
है, तब भी
वह सोचता है, कि मैं
प्रेम में पड़
गया हूं। यह
भी उसका सोच-विचार
है।
और जब
हृदय से भरा
हुआ व्यक्ति
गणित भी करता
है, तब भी वह
सोचता-विचारता
नहीं। तब भी, गणित में भी
उसका हृदय ही
धड़कता है। वह
हृदय से ही सोच-विचार
भी करता है।
इसलिए
बड़ी अड़चन है
पहचान लेने
में। और अगर
संतों ने गुरु
की इतनी
महत्ता कही है, तो उसके
बहुत बिंदु
हैं गुरु की
महत्ता के; उसमें एक
प्राथमिक
बिंदु यही है,
कि तुम शायद
न पहचान पाओ
कि तुम कहां खड़े
हो; तुम
शायद ठीक से
निदान न कर
पाओ अपनी
जीवन-व्यवस्था
का। और निदान
अगर भूल हो
जाए तो औषधि
गलत हो जाएगी।
निदान आधे से
ज्यादा इलाज
है, बाकी
इलाज तो
विस्तार की
बात है। निदान
ठीक से हो जाए,
कि तुम कहां
हो, तो
तुम्हें कहां
जाना है, वह
साफ हो जाए।
शायद
गुरु ज्यादा
गौर से
तुम्हारे
भीतर देख सके।
वह मंजिल पर
खड़ा है। उसे
दोनों रास्ते
दिखाई पड़ते हैं।
वह गौरीशंकर
पर खड़ा है।
तुम पूरब से
चढ़ो कि पश्चिम
से; कि
दक्षिण से आओ
कि उत्तर से; चारों तरफ
सब उसे दिखाई
पड़ता है। उसकी
दृष्टि विहंगम
की दृष्टि है,
पक्षी की
दृष्टि है। वह
ऊपर से देख
रहा है। उसे
सब दिखाई पड़ता
है। तुम कहां
हो, उसे
दिखाई पड़ता
है। क्योंकि
उसे पूरा का
पूरा परिप्रेक्ष्य
साफ है। वह
तुम्हें ठीक
से पहचान लेगा,
तुम कहां
हो। और वहीं
से चलना है, जहां तुम
हो। अगर तुमने
जरा भी समझ
लिया कि तुम
कहीं और हो, तो भटक
जाओगे।
क्योंकि वहां
से तुम चलोगे
कैसे, जहां
तुम नहीं हो?
और गलत
स्थान से
यात्रा शुरू
कर ली, तो वह
मानसिक
यात्रा होगी,
वास्तविक
नहीं हो सकती।
तुम कभी भी
पहुंच न पाओगे।
जैसा
तुम चिकित्सक
के पास जाते
हो; माना कि
बीमारी
तुम्हें है, इसलिए कोई
यह भी कह सकता
है कि जिसको
बीमारी है, वही ठीक
निर्णायक हो
सकता है। माना
कि बीमारी तुम्हें
है, लेकिन
निर्णायक तुम
ठीक नहीं हो
सकते।
बड़े
मजे की बात तो
यह है कि कभी
जब चिकित्सक
भी बीमार पड़
जाता है, तो
वह भी दूसरे
चिकित्सक के
पास जाता है।
अपनी बीमारी
का निर्णय
चिकित्सक भी
नहीं कर पाता।
क्योंकि तुम
इतने करीब
होते हो अपनी
बीमारी के, फासला नहीं
होता। थोड़ा
फासला चाहिए।
देखने के लिए,
दर्शन के
लिए थोड़ी दूरी
चाहिए। और तुम
अपनी बीमारी
से इतने पीड़ित
होते हो, कि
तुम उस पीड़ा
में निरीक्षक
नहीं हो सकते।
इसलिए
बड़े से बड़ा
सर्जन भी अपना
आपरेशन नहीं
कर सकता। चाहे
आपरेशन छोटा
ही क्यों न
हो। ऐसा भी
क्यों न हो, जो किया जा
सके। समझो, कि पैर का
आपरेशन है, दोनों हाथ
मुक्त हैं, पैर का
आपरेशन खुद
किया जा सकता
है। लेकिन नहीं;
बड़े से बड़ा
सर्जन भी अपना
आपरेशन नहीं
करेगा। अपना
तो दूर, अगर
उसकी पत्नी
बीमार है तो
उसका भी
आपरेशन बड़ा
सर्जन नहीं कर
पाएगा; किसी
और से करवाना
पड़ेगा।
पत्नी
से भी इतना
लगाव है, इतना
पास है पत्नी
के, कि
निरपेक्ष
नहीं रह सकता।
दूर खड़े होकर
तटस्थ भाव से
नहीं देख
सकता। इतना
उत्सुक है ठीक
करने में, वह
उत्सुकता ही
बाधा बन
जाएगी। इतनी
आशा से भरा है
कि ठीक हो ही
जाएगी, वही
आशा हाथों को
कंपा देगी।
इतनी चाह है
भीतर, कि
पत्नी बच जाए,
वही चाह जहर
बन जाएगी।
कोई
चाहिए, जिसको
न फिक्र है
बचने की, न
मरने की। बचे
तो ठीक, न
बचे तो ठीक।
जैसे इससे कुछ
लेना-देना ही
नहीं है। जैसे
भविष्य का कोई
सवाल ही नहीं
है। जैसे इस
स्त्री में तो
कोई उत्सुकता
ही नहीं है।
जिसे सारी
उत्सुकता
अपनी कुशलता
में है, कि
वह कैसे इसका
आपरेशन करता
है; जिसके
लिए आपरेशन एक
कला है। दूसरी
तरफ कोई जीवित
व्यक्ति है, इसका भी उसे
हिसाब नहीं
है।
मैंने
सुना है, कि
एक बार एक
मरीज एक
चिकित्सक के
पास आया। मरीज
ऐसा था, कि
वैसी बीमारी
कभी करोड़ में
एक आदमी को
होती है। एक
खास ढंग का
टयूमर था उसके
पेट में। चिकित्सक
ने उसका पेट
काटा, टयूमर
निकाला और
कहते हैं, चिकित्सक
नाचने लगा।
उसने कहा, "हाउ
ब्यूटिफूल!"
वह जो
टयूमर था, वह जो रोग की
गांठ थी, उसको
निकाल कर वह
नाचा और उसने
कहा, "कैसा
सुंदर है!
क्योंकि कभी
करोड़ों में
एक--जैसा
कोहिनूर हीरा
होता है, ऐसा
वह टयूमर है।
कभी करोड़ों
में एक आदमी
होता है वैसी
बीमारी। और
कभी हजारों
में एक चिकित्सक
को मौका मिलता
है उसका
आपरेशन करने
का।
तो बड़ी
सुंदर चीज है।
बीमार से उतना
मतलब नहीं है
उसे। वह जो
टेबिल पर पड़ा
है, उस आदमी
से मतलब नहीं
है, उसे
मतलब टयूमर से
है। और
सौभाग्यशाली
है वह, कि
उसे इस टयूमर
को देखने का
सौभाग्य मिल
गया। ऐसा
कभी-कभी किसी
चिकित्सक को
मिल पाता है।
अब तुम
सोच ही नहीं
सकते, कि
टयूमर कैसे
सुंदर हो सकता
है! तुम्हारे
पास चिकित्सक
की आंख नहीं
है। टयूमर और सुंदर!
बात ही बेहूदी
लगती है।
लेकिन
चिकित्सक दूर
है। उसे
बीमारी, और
बीमारी को ठीक
करने में
ज्यादा रस है;
बीमार से
कोई प्रयोजन
नहीं है।
यह बड़ा
भारी फर्क है।
जब तुम्हारी
उत्सुकता बीमार
में है, तब
बीमार बीच में
आ जाता है; बीमारी
पीछे हो जाती
है। तुम्हारे
सामने बीमार
है, उसके
पीछे बीमारी
है। और यह
बीमार से
तुम्हारा अगर
रस बहुत है, अगर यह
तुम्हारी
प्रेयसी है और
उससे तुम्हारा
विवाह
होनेवाला है,
तो
तुम्हारे सब
हाथ-पैर, रोएं-रोएं
कंप जाएंगे।
तुम कितने ही
कुशल चिकित्सक
होओ, सब
कुशलता
मिट्टी हो
जाएगी। अगर यह
तुम्हारा ही
बेटा है, और
मरने के करीब
है, तो
बीमारी पीछे
हो जाएगी, बीमार
आगे हो जाएगा।
जब कोई
चिकित्सक
बिना किसी
संबंध के, राग के किसी
की चिकित्सा
करता है, तो
बीमार पीछे
होता है, बीमारी
सामने होती
है। बीमार से
कोई लेना-देना
नहीं होता।
बीमारी और
चिकित्सक का
सीधा साक्षात्कार
होता है। तभी
कुछ
वैज्ञानिक
घटना घट सकती
है, निदान
हो सकता है।
गुरु
की उत्सुकता
चिकित्सक की
उत्सुकता है। वह
बीमारी को
सामने रखता है, तुम को
सामने नहीं।
वह बीमारी को
मिटा देने में
उत्सुक है।
तुम पीछे हो। तुम्हारे
व्यक्तिगत
लगाव, आसक्तियों
का कोई मूल्य
नहीं है। गुरु
ठीक से देख
पाता है, कि
तुम कहां हो।
गुरु ठीक से
तुम्हें चला
पाता है। बड़ी
कठिनाइयां इस
संबंध में
पैदा हुई हैं
अतीत के
इतिहास में।
बुद्ध
ने--स्वभावतः
वे पुरुष थे; जिस पद्धति
और जिस साधना
से जीवन-दृष्टि
पाई, फिर
उसी पद्धति को
उन्होंने
समझाना शुरू
किया। हजारों
लोग, लाखों
लोग दीक्षित
हुए, ज्ञान
को उपलब्ध
होने लगे।
स्त्रियां भी
उत्सुक हुईं, लेकिन
बुद्ध
स्त्रियों को
दीक्षा नहीं
देते। वे
इनकार किए चले
जाते। उस
इनकार का कारण
है। उस इनकार
का बुनियादी
कारण यही है, कि बुद्ध की
सारी
साधना-पद्धति
पुरुष चित्त के
लिए विकसित की
गई है। और
स्त्रियों को
उस साधना-पद्धति
में डालना, साधना
पद्धति को
भ्रष्ट करना
होगा।
स्त्रियां
कहीं
पहुंचेगी यह
तो संदिग्ध है,
लेकिन
साधना-पद्धति
भ्रष्ट हो
जाएगी।
वे
स्त्रियों को
हटाते रहे। महावीर
ने--उनके
सामने भी वही
सवाल
था--दूसरे ढंग
से उसे हल
किया। लेकिन
मामला वही का
वही है।
महावीर ने
स्त्रियों को
नहीं हटाया।
जब स्त्रियों
ने मांगी
दीक्षा, तो
उन्होंने दी।
लेकिन महावीर
की जीवन पद्धति
में, उन्होंने
यह व्यवस्था
की, कि कोई
भी स्त्री, स्त्री रहते
मुक्त नहीं हो
सकेगी, मोक्ष
नहीं पा
सकेगी। पहले
उसे पुरुष की
तरह जन्म लेना
पड़ेगा। पुरुष
की पर्याय
लेनी पड़ेगी।
तो इस
जीवन की साधना
इतना ही कर
सकती है, कि
अगले जीवन में
वह पुरुष हो
जाए और फिर वह
मुक्त हो
सकेगी। इसमें
कोई
स्त्रियों की
निंदा नहीं
है। इसमें कुल
मामला इतना है
कि महावीर की
पद्धति तो बुद्ध
से भी ज्यादा
पुरुष की
पद्धति है।
बुद्ध की
पद्धति में तो
थोड़ी बहुत
गुंजाइश भी हो
सकती है
स्त्री के लिए,
महावीर की
पद्धति में तो
कोई गुंजाइश
नहीं है। वह
तो शुद्ध
पुरुष की है, वह तो
विशुद्ध
ध्यान की है।
और उस ध्यान
के कारण उस
पद्धति से जो
चलेगा, उसमें
स्त्री को
पुरुष हो कर
ही मोक्ष मिल
सकता है।
मुझसे
लोग कभी पूछते
हैं, कि क्या
यह स्त्रियों
का विरोध है? कुछ विरोध
नहीं है। यह
सिर्फ पद्धति
है। इसका यह
मतलब नहीं, कि कोई
स्त्री रह कर
मोक्ष को नहीं
पा सकता; लेकिन
महावीर की
पद्धति से न
पा सकेगा।
फिर
उसको मीरा की
राह पकड़नी पड़े, चैतन्य की
राह पकड़नी पड़े,
कृष्ण का
मार्ग पकड़ना
पड़े; लेकिन
महावीर के
मार्ग से न
पाया जा
सकेगा। महावीर
के मार्ग से
तो यही होगा, कि स्त्री
पुरुष की तरह
पैदा होगी और
फिर मुक्त
होगी।
तो जैन
इतिहास में एक
घटना है, जो
बड़ी मधुर है।
ऐसा कहते हैं,
कि एक
स्त्री
तीर्थंकर हो
गई। यह होना
तो नहीं चाहिए
था। अघट घटा।
वह स्त्री
पुरुष जैसे ही
रही होगी।
उसमें
स्त्रैण
तत्त्व नहीं
रहा होगा, इसलिए
घट गया।
मल्लीबाई
नाम की एक
स्त्री सीधे
ही मोक्ष को उपलब्ध
हो गई।
जैनियों ने उसका
नाम ही बदल
डाला। वे उसको
मल्लीनाथ
कहते हैं, मल्लीबाई ही
नहीं कहते।
क्योंकि
उन्होंने कहा,
कि यह बात
ही फिजूल है
यह कहना, कि
यह स्त्री है।
क्योंकि इसने
तो सिद्ध ही
कर दिया; इस
की मुक्त दशा
ने सिद्ध कर
दिया कि यह
पुरुष है।
इसके शरीर की
हम फिक्र नहीं
करते। इसलिए
उन्होंने
उसको
मल्लीबाई कहा
ही नहीं। उसका
नाम ही
मल्लीनाथ कर
दिया। वह भी
चौबीस तीर्थंकरों
में पुरुष की
ही तरह
स्वीकृत हो गई,
स्त्री की
तरह स्वीकृत
नहीं रही। वह
अपवाद था, लेकिन
यह हो सकता
है। अब पश्चिम
में विज्ञान जानता
है कि कभी-कभी
किसी स्त्री
का शरीर पुरुष
के शरीर में
रूपांतरित हो
जाता है; हार्मोन
बदल जाते हैं।
कभी-कभी
हार्मोन की मात्रा
बिलकुल करीब
होती है।
जैसे
समझो, कि
इक्यावन
प्रतिशत
हार्मोन
पुरुष के हैं
और उनचास
प्रतिशत
हार्मोन
स्त्री के हैं,
तो इस
व्यक्ति में
स्त्री और
पुरुष के बीच
बस, जरा-सा
ही फासला है।
किसी बीमारी
में हार्मोन
बदल जाएं, या
इंजेक्शन और
दवाओं से
हार्मोन बदल
जाएं और स्त्रीत्तत्त्व
की मात्रा बढ़
जाए तो यह
पुरुष स्त्री
हो जाए, या
स्त्री पुरुष
हो जाए। बहुत
से रूपांतरण
हुए हैं।
मुझे
लगता है
मल्लीबाई इसी
तरह की घटना
रही होगी।
उसके भीतर
करीब-करीब
पचास-पचास
प्रतिशत
पुरुष-स्त्री
तत्त्व समतुल
रहे होंगे। और
वह पुरुष के
मार्ग से
मोक्ष को
उपलब्ध हो गई।
ठीक ही किया
जैनों ने, कि उसका नाम
बदल दिया।
क्योंकि उससे
व्यर्थ अपवाद
के कारण अड़चन
आती।
जैन
विचार-पद्धति
में स्त्री का
सीधा मोक्ष नहीं
हो सकता, यह
मैं भी कहता
हूं। मैं यह
नहीं कहता कि
स्त्री का
सीधा मोक्ष हो
ही नहीं सकता;
जैन पद्धति
में नहीं हो
सकता। वह सारी
की सारी
पद्धति ध्यान
की है।
प्रार्थना की
उसमें कोई जगह
नहीं है।
प्रार्थना का
वहां कोई अर्थ
नहीं है।
महावीर
कहते हैं, किससे
प्रार्थना
करते हो? किसकी
प्रार्थना
करते हो? प्रार्थना
से कुछ न होगा,
ध्यान में
उतरो। चुप होओ,
मौन बनो, भीतर जाओ।
ये हाथ किसके
लिए जोड़े हुए
हैं? वहां
कोई भी नहीं
है, जिसके
लिए तुम हाथ
जोड़ रहे हो।
अत्यंत
एकांत! अत्यंत
शांत! इसलिए
महावीर ने अपनी
परम-ज्ञान की
अवस्था को
कैवल्य कहा है, जहां केवल
तुम रह गए; जहां
बस तुम्हारी
चेतना बची। वह
समाधि की आखिरी
अवस्था है।
लेकिन
मीरा है, चैतन्य
है, वे भी
पहुंच जाते
हैं। वे नाचते
हुए पहुंचते हैं,
गीत गाते
हुए पहुंचते
हैं, परमात्मा
के रंग में
डूबे हुए
पहुंचते हैं।
इनका पहुंचने
का ढंग दूसरा
है। ये प्रेम
से पहुंचते
हैं, ध्यान
से नहीं।
ये
इतनी
प्रार्थना
करते हैं--इसे
थोड़ा समझना; बारीक है।
ये इतनी
प्रार्थना
करते हैं, इतनी
प्रार्थना
करते हैं कि
प्रार्थना
करने वाला मिट
जाता है। बस, प्रार्थना
सुनने वाला ही
रह जाता है।
ध्यानी में
परमात्मा मिट
जाता है, आत्मा
रह जाती है।
प्रेमी में
आत्मा मिट
जाती है, परमात्मा
रह जाता है।
दोनों में एक
बचता है। "एक"
उपलब्धि है।
अद्वैत बचता
है।
लेकिन
ध्यानी "तू"
को काट देता
है। प्रेमी "मैं"
को काट देता
है। ध्यानी की
सारी चेष्टा
है, कि "मैं"
अलग, पृथक,
भिन्न कैसे
हो जाउं। इसलिए
महावीर के
शास्त्र का एक
नाम है
भेद-विज्ञान
कि कैसे तुम
भिन्न हो जाओ।
वही तो सारा
धर्म है : अलग
हो जाओ सब से।
बस, तुम ही
बचो; वहां
कोई भी न बचे।
तुम्हारे उस
परम एकांत में
ही खिलेगा फूल
चैतन्य का।
तुम मुक्त हो
जाओगे।
भक्त
कहते हैं, ऐसी घड़ी, जहां
हम न बचे, तू
ही बचे। जहां
हम बिलकुल पुछ
जाएं। हमारा
कोई होना न हो,
खोज खबर न
मिले। हमारा
कोई पता ही न
चले। हम ऐसे
हो जाएं, जैसे
कभी थे ही
न--शून्यवत! बस,
तू ही हो।
जहां
मैं कट जाता
है पूरा, और
परमात्मा ही
शेष रह जाता
है, वहां
भी मोक्ष हो
जाता है।
मोक्ष होता है
एक के बचने
से। न तो मैं
का सवाल है, न तू का सवाल
है। ये तो दो
ढंग हैं।
मोक्ष मिलता
है अद्वैत के
बचने से। कौन
बचता है, उसको
तुम मैं का
नाम देते हो
या तू का, यह
तो सिर्फ भाषा
की बात है।
तुम उसे आत्मा
कहते हो या
परमात्मा, यह
तो सिर्फ भाषा
की बात है।
तुम उसे बाहर
देखते हो कि
भीतर, यह
तो सिर्फ
देखने की बात
है। क्योंकि
भीतर भी वही
है, बाहर
भी वही है।
प्रार्थना
है भावदशा, ध्यान है
चित्तदशा।
समाधि में
दोनों एक हो
जाते हैं।
लेकिन
थोड़ा सा फर्क
अभिव्यक्ति
में तब भी बाकी
रहेगा। जो
व्यक्ति
ध्यान से गया
है, वह जब
समाधिस्थ हो
जाएगा, जब
उसे यह भी
अनुभव हो
जाएगा, कि
प्रेमी भी
यहीं पहुंच गए;
तब भी उसमें
एक थोड़ा-सा
फर्क रहेगा।
वह शांत ही
रहेगा। तुम
उसे बुद्ध की
तरह वृक्ष के
नीचे शांत
बैठा देखोगे
तुम उसे
महावीर की तरह
जंगलों में
शांत खड़ा हुआ
पाओगे।
क्योंकि
जीवन की उसने
जो पद्धति अपनाई
थी, जो ढंग
अपनाया था, वह उसका
व्यक्तित्व
बन गया है।
भीतर वह जानता
है कि प्रेमी
भी पहुंच जाते
हैं, क्योंकि
प्रेमी भी
पहुंच रहे
हैं। लेकिन अब
अपने ढंग को
नहीं बदला जा
सकता। जिस
रास्ते से तुम
गुजरते हो, वह रास्ता
तुम्हें भी
बनाता है।
जिस
रास्ते से तुम
गुजरते
हो--जैसे समझो, कि तुम एक
मार्ग से
गुजरे, जिस
पर लाल मिट्टी
थी और उसने
तुम्हें लाल
कर दिया। जब
तुम मंजिल पर
पहुंचे तो तुम
लाल ढंग से
रंगे हुए
पहुंचे। एक
दूसरा आदमी
ऐसे रास्ते से
गुजरा, जहां
लाल मिट्टी
नहीं थी। वह
अपने सफेद
कपड़ों को बचा
कर पहुंच गया।
तुम
दोनों मंजिल
पर पहुंच गए, लेकिन बाहर
का ढंग रास्ते
ने तय कर
दिया। जीवन की
शैली रास्ता
बनाता है।
जीवन की आखिरी
अनुभूति तो
भीतर होती है,
लेकिन जीवन
का ढंग और
शैली रास्ते
से बनती है।
अब बुद्ध जहां
से पहुंचे हैं
चल कर, वह
खोल बन गई है
उनके
व्यक्तित्व
की। अगर बुद्ध
नाचना भी
चाहें आज
अचानक, तो
पैर न उठेंगे।
आज गीत गाना
चाहें, तो
कंठ में स्वर
न फूटेगा। आज
हाथ में
बांसुरी भी आ
जाए, तो वे
उलट-पुलट कर
देखेंगे; समझ
न पाएंगे, इसका
क्या करना।
उत्सव न मना
सकेंगे। उनका
उत्सव भी मौन
होगा, शांत
होगा।
जो
नाचते ही
पहुंचा है, गीत गाते ही
पहुंचा है, पैर में
घूंघर बांध कर
पहुंचा है, तो परमात्मा
की पूजा और
प्रार्थना
करते पहुंचा
है, वह भी
जान लेगा
पहुंच कर, कि
जो चुपचाप आए
हैं, वे भी
पहुंच गए हैं।
लेकिन अब जीवन
की शैली निर्णीत
हो गई।
तुम
मीरा को वृक्ष
के नीचे बुद्ध
की तरह शांत न बिठा
सकोगे। वह बात
जमेगी ही न।
वह जीवन की पद्धति
बन गई।
पहुंचते-पहुंचते-पहुंचते, साधन
करते-करते अब
नाचना ही
सोहता है।
बहुत
कठिन है, जो
कहीं भी नहीं
पहुंचे हैं, उनके लिए
जानना, कि
नाचती हुई
मीरा के भीतर
वैसी ही शांति
है, जैसी
बुद्ध के
भीतर। शांत
बैठे बुद्ध के
भीतर वैसा ही
नृत्य है, जैसा
मीरा के भीतर।
लेकिन दोनों
का बाहर का रूप
अलग-अलग होगा।
और इस कारण
दुनिया के
धर्मो में बड़ा
विवाद चलता
है। व्यर्थ है
विवाद जो चलाते
हैं उन्हें
कोई अनुभव
नहीं है, उन्हें
स्वाद नहीं
है।
जिन्होंने
जाना है, उन्होंने
दूसरे में भी
सत्य को देख
लिया। लेकिन
दूसरे में
सत्य को देख लेना
ही काफी नहीं
है। फिर भी हो
सकता है बुद्ध
यही कहे चले
जाएं, कि
ध्यान से ही
पहुंचोगे।
क्योंकि
बुद्ध को वह
रास्ता
जाना-माना है,
पहचाना हुआ
है। और अगर वे
कहें कि
प्रार्थना से
भी पहुंच सकते
हो, तो
उन्हें लगेगा,
कहीं आदमी
भटक न जाए।
तुम जिस
रास्ते से आते
हो उसी से
मार्गदर्शन
दूसरे को दे
सकते हो।
इसलिए
अगर कोई बुद्ध
से पूछेगा भी
कि "प्रार्थना?"
वे
कहेंगे, "छोड़ो।
ध्यान से ही
कोई पहुंचता
है।" जानते हुए,
कि
प्रार्थना से
भी लोग पहुंच
गए हैं। लेकिन
बुद्ध को वह
रास्ता अपरिचित
है।
मार्गदर्शन
तो उसी का
दिया जा सकता
है, जिस पर वे
चले हों। ऐसे
बहुत थोड़े लोग
संसार में हुए
हैं, जो
दोनों
रास्तों से
चले हैं। जो
दोनों से चले
हैं, वे
दोनों पर
मार्गदर्शन
दे सकते हैं।
अन्यथा गुरु
एक मार्ग से
चलकर पहुंच
जाता है; फिर
जरूरत भी नहीं
रहती कि दूसरे
मार्ग पर चल
कर देखे।
रामकृष्ण
ने एक अनूठा
प्रयोग इस सदी
के प्रारंभ
में
किया--पिछली
सदी के अंत
में; कि
पहुंचने के
बाद उन्होंने
दूसरे मार्गो
पर भी चल कर
देखा, कि
वहां से भी
कोई पहुंचता
है कि नहीं? समाधिस्थ हो
जाने के बाद।
यह पहली ही
घटना है मनुष्य-जाति
के इतिहास
में। इसलिए
रामकृष्ण बड़े
अनूठे हैं।
उनका अनूठापन
इसमें है।
यह बात
ही व्यर्थ
लगती है : जब
तुम स्टेशन
पहुंच गए, तब लौट कर
गांव में जाना
और यह देखना
कि दूसरे रास्ते
से भी पहुंच
सकते हैं कि
नहीं। बात ही फिजूल
लगती है।
स्टेशन आ गया,
बात खत्म हो
गई। प्यास लगी
थी, नदी आई,
पानी पी लो।
अब इसमें क्या
पड़ी है कि तुम
गांव में फिर
जाओ और देखो, कि दूसरे
रास्तों से भी
पहुंचना होता
है कि नहीं?
रामकृष्ण
ने पहली दफा
प्रयोग किए।
रामकृष्ण सर्वधर्म
समभाव के पहले
प्रतीक हैं।
और सभी धर्म
पहुंचा देते
हैं, इसका
पहला प्रयोग
है। अनुभव हो
जाने के बाद
उन्होंने दूसरी
साधनाएं कीं।
इस्लाम की
साधना की, ईसाइयत
की साधना की, तंत्र की
साधना
की--जानने के
लिए, कि
क्या पहुंचना
हो जाता है?
निश्चित
ही जो पहुंच
चुका है एक
दफा, उसे देर
नहीं लगती है
फिर दूसरे
मार्ग से भी पहुंचने
में। उसे पता
तो है ही
मंजिल का। अब
यह तो खेल हो
जाता है। जो
एक सीढ़ी से चढ़
गया मंजिल पर,
चढ़ने की
कठिनाई तो
समाप्त हो गई,
चढ़ना तो उसे
आ ही गया। अब
तुम सीढ़ी
दूसरी रख दो, इससे कोई
बहुत अड़चन
थोड़े ही पड़ती
है! चढ़ना तो उसे
आता ही है।
रंग
अलग होगा सीढ़ी
का, पायदान
थोड़े बड़े-छोटे
होंगे, किसी
और कारखाने
में ढली होगी,
लोहे की
होगी, लकड़ी
की होगी, प्लास्टिक
की होगी--कुछ
हजार फर्क
होंगे, लेकिन
जो चढ़ना जानता
है और एक दफा
चढ़ गया शिखर तक,
वह घड़ी भर
में दूसरी से
भी चढ़ जाएगा।
रामकृष्ण
ने जब इस्लाम
की साधना की
तो वे तीन दिन
में वहीं पहुंच
गए, जहां
पहुंचने में
जनम-जनम लगे
थे उनको पहली
यात्रा से। जब
उन्होंने
ध्यान की
साधना की बुद्ध
के मार्ग पर, तो वे छह
महीने में
वहीं पहुंच
गए।
अब यह
थोड़ा सोचने
जैसा है, कि
बुद्ध के
मार्ग पर उनको
छह महीने लगे,
इस्लाम के
मार्ग पर तीन
दिन लगे; मामला
क्या है?
मामला
यह है, कि
रामकृष्ण की
जो पहुंचने की
व्यवस्था थी,
वह स्त्रैण
थी; वह
प्रार्थना का
मार्ग था।
इस्लाम का भी
मार्ग
प्रार्थना का
है। इसलिए
हिंदू धर्म
में, इस्लाम
धर्म में उतना
फासला नहीं है,
जितना
हिंदू धर्म और
बौद्ध धर्म
में फासला है।
हिंदू धर्म और
इस्लाम तो एक
से हैं। उनमें
गुणधर्म का
कोई फासला ही
नहीं है।
मंदिर, मसजिद
बिलकुल करीब
हैं। क्योंकि
दोनों ही प्रार्थना
पर आधारित
धर्म हैं। अब
यह जान कर तुम्हें
हैरानी होगी।
साधारणतः हम
सोचते हैं, कि जैन, बौद्ध
और हिंदू
ज्यादा करीब
हैं क्योंकि
हिंदुओं से ही
तीनों पैदा
हुए हैं। वह
बात गलत है।
ईसाई ज्यादा
करीब हैं
हिंदुओं के।
मुसलमान
ज्यादा करीब
हैं। जैन और
बौद्ध बहुत
फासले पर हैं।
क्योंकि ये सब
मार्ग हृदय के
हैं। जैन और
बौद्ध मार्ग
ध्यान के हैं,
प्रेम के
नहीं हैं।
तो
रामकृष्ण को
छह महीने लगे
ध्यान से
पहुंचने में। प्रार्थना
से तो वह
पहुंच चुके
थे। यह सीढ़ी
जरा बड़ी
टेड़ी-मेढ़ी थी
उनके लिए। बड़ी
रस शून्य थी।
यह रास्ता बड़ा
सूखा था, निर्जन
था। वे नाचते
हुए पहुंचे थे,
गीत गाते
हुए पहुंचे
थे। यहां
चुपचाप
पहुंचना था।
वह बिलकुल
उलटा था
मामला। पहले
जब पहुंचे थे,
तब अपने को
मिटा कर
पहुंचे थे, परमात्मा को
बना कर पहुंचे
थे। अब अपने
को बनाना था
और परमात्मा
को मिटाना था।
यह बड़ा कष्टपूर्ण
था।
जिस
सिद्ध के नीचे
वे सीखते थे, बड़ी
कठिनाइयां
आईं। क्योंकि
वह जो काली थी,
जो मां थी, जिसको अनुभव
किया था
उन्होंने
अपने को मिटा
कर, वह
बाधा बनने लगी।
यह बिलकुल
विपरीत मार्ग
था। यह
पूरब-पश्चिम
जैसा मामला
था। तो जिस
तांत्रिक के
नीचे वे ध्यान
सीख रहे थे, उस तांत्रिक
ने एक दिन कहा,
कि मैंने
तुमसे ज्यादा
अपात्र शिष्य
नहीं पाया। और
हालांकि मैं
जानता हूं, कि तुम
सिद्ध पुरुष
हो। और जहां
तक तुम्हारी प्रार्थना
से पहुंचने का
संबंध है, मैं
तुम्हारे पैर
छूता हूं। मगर
तुमसे ज्यादा
अपात्र मैंने
शिष्य नहीं
पाया। और अगर
आज तुम न कर
पाए ध्यान तो
मैं छोड़ कर
चला जाऊंगा।
मेरे छह महीने
खराब कर दिए।
क्या लगा रखा
है यह काली-काली-काली!
आंख बंद करो
और फेंको इसको,
अलग करो।
हटाओ इस काली
को।
यह बात
ही भक्त को
बड़ी बेहूदी
लगती है। और
वह जाने को
तैयार हो गया
और वह बड़ा
सिद्ध पुरुष
था। और अगर
इसके पास
साधना न हो
पाई तो
रामकृष्ण जानते
हैं, ऐसा आदमी
खोजना बहुत
मुश्किल
होगा। वे
जानते हैं, कि यह आदमी
ठीक कह रहा
है। यह भी समझ
में आता है, कि बात ठीक
है, इस
रास्ते पर यह
काली बीच-बीच
में आती है।
पर वे करें
क्या? वे
आंख बंद करें
और काली खड़ी!
वे आंख बंद
करें और भूल
ही जाएं उस
सिद्ध को, जो
सामने बैठा
है। काली बीच
में खड़ी है।
वे मगन हो गए।
धुन बन गई
भीतर। नशा छा
गया, डोलने
लगे।
और वह
कह रहा है, कि डोलना
नहीं है।
डोलना ही तो
छोड़ना है।
रोआं न कंपे।
वह एक कांच का
टुकड़ा ले आया
एक बोतल तोड़ कर
और उसने कहा, कि देखो, तुमसे
नहीं होता, मुझे ही
करना पड़ेगा।
आज तुम आंख
बंद करो, या
तो मैं, या
तुम्हारी
काली--दो में
से तुम चुन
लो। आंख बंद
करो, और जब
काली खड़ी हो
जाए तुम्हारे
भीतर, उसी
वक्त मैं
तुम्हारे
माथे को इस
कांच के टुकड़े
से काट दूंगा।
जब मैं
तुम्हारा
माथा काटूं और
लहू बहने लगे
और दर्द हो, उसी वक्त
हिम्मत करके
तुम भी एक
तलवार उठा कर काली
को दो टुकड़ों
में काट देना।
रामकृष्ण
के रोएं-रोएं
कंप गए।
उन्होंने कहा, यह तो बहुत
ज्यादा हो
जाएगा; यह
तो मत करवाएं।
और यह वे
जानते हैं कि
वह नहीं करवा
रहा, खुद
ही करने को
उत्सुक हैं।
इस प्रयोग को
करके देखना
है।
तो
उसने कहा, मैंने कभी
तुम्हें कहा
नहीं। तुम
उत्सुक हो। जरूरत
भी मुझे मालूम
नहीं होती, कि कोई
जरूरत भी है, लेकिन यह तुम
चाहते हो, तो
करना पड़ेगा।
तो फिर पूरा
करना पड़ेगा।
यह काली को
साथ नहीं लिया
जा सकता। एक
साधन के जगत में
जो सहयोगी है,
वही चीज
दूसरे साधन के
जगत में बाधा
हो जाती है।
इसे तुम्हें
छोड़ना ही
होगा। और यह
आज आखिरी है
उपाय।
हिम्मत
करके
रामकृष्ण ने
आंख बंद की। आंख
से आंसू बह
रहे हैं।
क्योंकि काली
को काटना
पड़ेगा, तलवार
उठानी पड़ेगी।
उस काली को, जिसके लिए
अपने को
मिटाया
था--उसको
काटना है! बड़ा
कठिन है।
तुम
सोच सकते हो, अगर तुमने
कभी किसी को
प्रेम किया हो,
उसको काटना
है। फिर भी
तुम पूरा न
सोच पाओगे, क्योंकि
जैसा रामकृष्ण
ने काली को
प्रेम किया है,
ऐसा तुमने
किसी को भी न
किया होगा।
क्योंकि उतना
प्रेम तुम
किसी को भी कर
लो, तो
परमात्मा
उपलब्ध हो
जाता है।
आंख से
आंसू बह रहे
हैं, हृदय
जार-जार रो
रहा है। लेकिन
वह
सिद्ध-पुरुष
कठोर है। वह
मार्ग अलग है।
वहां यह सब
बात फिजूल है।
वहां यह काली
सिर्फ कल्पना
है। उस मार्ग
पर यह सब मन का
ही जाल है, यह
सब विचार है, प्रक्षेपण
है।
उसने
कांच को उठाया
और रामकृष्ण
के माथे को बहुत
गहरा काट
दिया। जिंदगी
भर वह निशान
बना रहा फिर।
लहूलुहान हो
गए। उन्होंने
भी भीतर एक दफा
हिम्मत की; क्योंकि
करना तो है, नहीं तो यह
सिद्ध-पुरुष
छोड़ कर चला
जाएगा। फिर
ध्यान की
संभावना न रह
जाएगी। उठाई
तलवार, काट
दी। काली दो
टुकड़े हो कर
भीतर गिर गई, ध्यान
उपलब्ध हो
गया।
लेकिन
छह महीने लगे
इस घड़ी को आने
में। ध्यान उपलब्ध
हुआ, तब जाना
कि यह तो वही
की वही बात
है। वही बच
रहता है। एक
ही बच रहता है,
उसके नाम भर
अलग हैं। कहो
आत्मा, अगर
महावीर के
मार्ग पर चले
तो उसका नाम
आत्मा; अगर
मीरा के मार्ग
पर चले तो
उसका नाम
कृष्ण, परमात्मा;
लेकिन वह एक
ही बात है।
और
जैसे ही "मैं"
मिटता है, "तू" भी मिट
जाता है। "तू"
मिटता है, "मैं"
भी मिट जाता
है। बस, एक
ही बच रहता
है। वह एक
विराट है।
रामकृष्ण
ने अनूठे
प्रयोग किए।
इस सदी के लिए जरूरत
थी। बड़ी जरूरत
थी, कि कोई
सारे धर्मो के
सार को निचोड़
कर के रख दे।
जो रामकृष्ण
ने किया वह
अधूरा है। वह
पूर्वार्ध
है। और मैं जो
कर रहा हूं, वह
उत्तरार्ध
है।
रामकृष्ण
ने खुद तो
अनुभव कर लिए
और कह भी दिया
कि सभी मार्ग
वहीं पहुंचा
देते हैं।
लेकिन
रामकृष्ण बिलकुल
बेपढ़े-लिखे
आदमी थे।
शब्दों से, सिद्धांतो
से, शास्त्रों
से उनकी कोई
भी संगति न
थी। अपढ़ संत
थे। दूसरी
कक्षा तक
मुश्किल से
पढ़े थे।
संसार
में तीन सौ
धर्म हैं। तीन
सौ धर्मो के
तीन सौ
धर्मशास्त्र
हैं। बड़े
अनूठे धर्मशास्त्र
हैं। एक-एक
धर्मशास्त्र
अपने आपमें
अदभुत है।
इतना कह देना
काफी नहीं है, कि मैंने
अनुभव किया, सब पहुंचा
देते हैं।
इसको बड़े
विस्तार से, इसको बड़े
वैज्ञानिक
ढंग से
प्रस्तावित
करना जरूरी
है। अनुभव तो
भीतर होता है।
मैंने अनुभव
कर लिया, इससे
क्या हल होता
है? मेरा
अनुभव इतनी
प्रगाढ़ता से
उपस्थित किया
जाना चाहिए, कि वह
हजारों लोगों
के मन की
आकांक्षा
बनने लगे।
रामकृष्ण
के पास बुद्ध
जैसी क्षमता न
थी, कि
करोड़ों लोग
रूपांतरित हो
जाएं। न ही
महावीर जैसी
प्रतिभा थी कि
वे जो कहें, वह उनके
कहने के कारण
सत्य मालूम
होने लगे। ग्रामीण
संत थे, लेकिन
बड़ा अनूठा
प्रयोग किया,
पायोनियर
थे। उस दिशा
में उन्होंने
पहला कदम उठाया।
उस
दिशा में और
कदम उठाए जाने
जरूरी हैं।
इसलिए मैं सभी
साधना-पद्धतियों
पर बोल रहा
हूं। और तुम
बड़ी मुश्किल
में भी पड़
जाते हो।
क्योंकि आज
मैं कहता हूं
यह ठीक है, कल कहता हूं
वह ठीक है।
वस्तुतः
दोनों ठीक हैं।
तुम्हारी
अड़चन यह हो
जाती है, कि
तब तुम क्या
करो, कहां
चलो, कैसे
चलो।
तुम्हारे
अड़चन के कारण
ही तो संप्रदाय
पैदा हो गए
हैं। इसलिए
बुद्ध ने कहा,
कि यही ठीक
है--तुम्हारी
अड़चन को बचाने
के लिए।
तुम्हारी अड़चन
तो बची। लेकिन
सारी दुनिया
संप्रदायों
में विभाजित
हो गई। अब वह
बड़ी अड़चन हो
गई। अब मैं तुम
से कहूंगा कि
सभी ठीक हैं, तब तुम्हें
एक खयाल रखना
होगा, तुम्हें
सभी मार्गो पर
नहीं चलना है,
तुम्हें
अपना
व्यक्तित्व
समझ लेना है।
मैं सभी
मार्गो पर
बोलता
रहूंगा।
केमिस्ट
की दुकान में
तुम जाते हो, वहां हजारों
बीमारियों की
दवाइयां रखी
हुई हैं। इससे
तुम्हें
प्रयोजन नहीं
है। तुम्हारे
पास तो डाक्टर
का
प्रिस्क्रिप्शन
है। तुम अपने
प्रिस्क्रिप्शन
की दवा ले कर
लौट जाते हो।
तुम यह नहीं पूछते,
कि इतनी
सारी दवाएं!
मैं तो
मर जाऊंगा ले
ले कर। इतनी
सारी दवाएं तुम्हें
लेना भी नहीं
है।मैं तो
केमिस्ट हूं। तुम्हें
इतनी सब दवाएं
लेने की जरूरत
नहीं है। इतनी
सब दवाएं तो
तुम्हें मार
ही डालेंगी। तुम
तो अपनी
बीमारी पकड़
लो। तुम अपनी
बीमारी पहचान
लो। वह भी मैं
तुम्हें
पहचनवा देने
को तैयार हूं।
और तुम अपने
योग्य दवा
चुनलो। सारी
दुकान को तुम
भूल जाओ।
तुम्हारे लिए
तो एक ही विधि
पहुंचा देगी।
न तुम्हें
रामकृष्ण
होने की जरूरत
है, कि तुम
सारी सीढ़ियों
से चढ़ कर
देखो। न
तुम्हें मुझ
जैसा होने की
जरूरत है, कि
तुम सारी
सीढ़ियों की
चर्चा करो; कि सारी
सीढ़ियां सही
हैं, ऐसा
सिद्ध करो। इस
सब प्रयोजन
में तुम्हें
कुछ सार नहीं
है। वह
तुम्हारी
नियति नहीं
है।
तुम्हारे
लिए तो इतना
जरूरी है कि
तुम अपनी प्यास
पहचान लो, अपना घाट
पहचान लो, अपनी
प्यास बुझा
लो। अपनी नाव
पहचान लो, अपनी
नाव पर सवार
हो जाओ और पार
हो जाओ।
दूसरा
प्रश्न :
कबीर
पर बोलते हुए
आपने सत्संग
का या
साधु-संगत पर
बहुत जोर
दिया। आज के
परिप्रेक्ष्य
में सत्संग पर
क्या कुछ और
प्रकाश
डालेंगे?
सत्संग
और साधु-संगत
दोनों अलग
बातें हैं। एक
ही बात के दो
नाम नहीं हैं।
साधु-संगत
पहला चरण है, सत्संग
दूसरा चरण है।
साधु-संगत
का अर्थ है, साधुओं के
साथ होना। अभी
तुमने गुरु
नहीं चुना।
अभी तुम्हें
जहां खबर मिल
जाती है कि
कोई साधु
पुरुष है, कोई
सत्पुरुष है,
तुम वहीं
जाते हो।
साधु-संगत का
अर्थ है, जहां
से भी रोशनी
मालूम होती है,
खबर मिलती
है, वहां
जाते हो।
बैठते हो
साधुओं के
पास। रमते हो
उनके साथ।
थोड़ी डुबकी
लेते हो उनके
रस में।
जब ऐसी
डुबकी
लेते-लेते, साधु-संगत
करते-करते कोई
एक साधु
तुम्हारे लिए
विशिष्ट हो
जाता है; तुम
किसी साधु के
प्रेम में पड़
जाते हो; तब
सत्संग शुरू
हुआ।
बहुत साधु
हैं; गुरु तो
एक ही होगा।
साधुओं के पास
रमते-रमते, साधुओं के
निकट
होते-होते
किसी दिन तुम
पहचान लोगे, कौन
तुम्हारा
गुरु है। कौन
साधु
तुम्हारे लिए
है। किससे
तुम्हारा
तालमेल बैठ
गया। किसकी चाबी
तुम्हारे
ताले से मिल
जाती है। कौन
है, जिससे
तुम्हारे
हृदय के स्वर
छिड़ते हैं।
कौन है, जिसके
पास जाते ही
तुम रोमांचित
हो जाते हो। कौन
है, जो
तुम्हें
अहोभाव से भर
देता है।
किसके पास, सिर्फ पास
होने से स्नान
हो जाता है।
यह तो
तुम साधुओं की
संगत
करते-करते
पहचानोगे। तो
साधु- संगत
पहला चरण है।
उससे रस लगेगा, समझ बढ़ेगी, स्वाद
थोड़ा-थोड़ा
आएगा, लेकिन
वह काफी नहीं
है। दूसरा चरण
सत्संग है। सत्संग
का अर्थ है, कि अब तुमने
चुन लिया। अब
तुम यूं ही
नहीं तलाश रहे
हो। अब तुमने
एक की बांह
पकड़ ली। अब
सत्संग शुरू
हुआ।
साधु-संगत
में तो थोड़ा
सा संदेह बना
रहेगा, विचार
बना रहेगा।
क्योंकि संदेह
न होगा, विचार
न होगा तो
चुनोगे कैसे?
खोजोगे
कैसे? तो
साधु-संगत तो
संदेह का और
विचार का ही
अंग है। लेकिन
जैसे ही तुमने
चुना--हां, चुनने
के पहले जितना
संदेह कर लेना
हो, कर
लेना। चुनने
के पहले जितना
विचार करना हो,
कर लेना।
वर्षो रुकना
हो, रुक
जाना। साधु-संगत
पूरी तरह कर
लेना।
लेकिन
जब चुनो, तो
चुनाव का अर्थ
होता है, कि
अब संदेह छोड़
देना; नहीं
तो चुनाव हुआ
ही नहीं।
साधु-संगत
जारी रही, सत्संग
शुरू न हुआ।
सत्संग
क्रांति है।
साधु-संगत से
छलांग है। अब
तुमने किसी को
चुन लिया। अब
तुम अंधे होते
हो। अब तुम
अपनी आंख बंद
करते हो। अब
तुम कहते हो, हम किसी और
की आंख से
चलेंगे। अपनी
आंख से इतना
काम ले लिया, कि उसको
पहचान लिया
जिसकी आंख से
चलना है। अपने
संदेह का
उपयोग कर
लिया। उसके
हाथ पकड़ लिए, जिसके हाथ
में भरोसा
छोड़ा जा सकता
है।
सत्संग
का अर्थ है, श्रद्धा।
साधु-संगत का
अर्थ है, विचार।
बहुत साधुओं
में घूमोगे, खोजोगे, पहचानोगे,
समझोगे; लेकिन
जब मिल जाए
कोई, तब
विचार मत करते
खड़े रहना। तब
डूब लेना
श्रद्धा में।
तब हाथ पकड़
लेना और तब
कहना, अब
जहां ले चलो।
इसके
पहले जितना
विचार करना है, उचित है।
इसके बाद
विचार करना
अनुचित है। क्योंकि
अगर इसके बाद
भी विचार जारी
रखा तो सत्संग
शुरू ही नहीं
हुआ। क्योंकि
सत्संग तो एक
बड़ा भीतरी
रसायन है।
सत्संग का
अर्थ है, किसी
के पास इतनी
परम श्रद्धा
से होना, कि
अगर वह दिन को
रात कहे तो भी
संदेह न उठे।
मन में यही
खयाल हो, कि
जरूर कोई कारण
होगा। वह ठीक
ही कहता होगा।
सत्संग
तो प्रेम जैसा
है, अंधा है।
सारी दुनिया
कहेगी, तुम्हारी
प्रेयसी
कुरूप है, सुंदर
नहीं है; इससे
क्या फर्क
पड़ता है? तुम
तो अंधे हो।
तुम्हारी
आंखों में तो
वह सुंदर ही
दिखाई पड़ती
है।
श्रद्धा
एक अर्थ में
परम दृष्टि है
और एक अर्थ
में परम अंधापन।
तुम अपने
विचार को
उपयोग कर लिए, अब तुम उसे
हटा कर रख
देते हो। अब
तुम कहते हो, अब और नहीं
सोचना है।
सोच-सोच कर पा
लिया, अब
ये चरण मिल गए;
अब बस, श्रद्धा
से पकड़ लेना
है।
सत्संग
का अर्थ है, किसी के पास
अनन्य
श्रद्धा के
साथ होना।
धीरे-धीरे, जब इतनी अनन्य
श्रद्धा होती
है तो अपने आप
विचार क्षीण
होते जाते हैं,
शून्य होते
जाते हैं।
सत्संग ध्यान
बन जाता है।
सत्संग
करनेवाले को
ध्यान करने की
अलग से जरूरत
ही नहीं पड़ती।
वह तो गुरु के
पास होते-होते,
होते-होते-होते
गुरु जैसा हो
जाता है। समान
तुम्हारे
भीतर, अपने
समान को ही
पैदा कर देता
है। अगर
प्रकाश
श्रद्धा कर ले,
तुम्हारे
भीतर छिपा हुआ
प्रकाश अगर
श्रद्धा कर ले
बाहर के प्रकट
प्रकाश में तो
वह भी प्रकट
हो जाएगा। तुम
जिसमें
श्रद्धा करते
हो, धीरे-धीरे
वैसे ही हो
जाते हो।
श्रद्धा
एक रसायन है, एक अल्केमी
है, गुरु
के पास होने
का ढंग है। अब
तुम हो, बस!
तुम उसके पास
बैठते हो। वह
बोलता है,
सुनते हो। वह
चुप होता है, तो उसकी
चुप्पी सुनते
हो। वह नहीं
बोलता तो उसका
न बोलना सुनते
हो; उसका
मौन सुनते हो।
वह उठता है, चलता है, बैठता
है, तुम
उसके साथ ऐसे
डोलते हो जैसे
तुम वही हो। तुम
उसकी छाया बन
गए होते हो।
धीरे-धीरे, जैसे-जैसे
तुम मिटते हो,
गुरु
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
करता है। तुम
जगह खाली करते
हो, वह जगह
को भरता जाता
है। एक ऐसी
घड़ी आती है, शिष्य विलीन
हो जाता है, गुरु ही शेष
रह जाता है।
सत्संग
अगर आ जाए, तो कुछ और
चाहिए नहीं।
अगर तुम प्रेमी
हो, तो
सत्संग
प्रार्थना बन
जाएगा। अगर
तुम ध्यानी हो,
सत्संग
ध्यान बन
जाएगा।
सत्संग
कोई मार्ग
नहीं है।
सत्संग तो सभी
मार्गो का
सार-निचोड़ है।
सत्संग न तो
हिंदू है, न मुसलमान
है, न
ईसाई। सत्संग
न तो
स्त्रैण-चित्त
है, न
पुरुष-चित्त।
सत्संग तो
दोनों के लिए
समान है। मैं
फर्क देखता
हूं--सत्संगी
में फर्क
होगा। अगर
स्त्रैण-चित्त
व्यक्ति मेरे
पास आता है, या
स्त्रियां
मेरे पास आती
हैं, तो
मैंने अनुभव
किया, कि
उनका लगाव
मुझसे पहले
होता है। फिर
मुझसे लगाव है,
इसलिए जो भी
मैं कहता हूं,
वह उन्हें
ठीक मालूम
होता है।
अगर
पुरुष-चित्त
का व्यक्ति या
पुरुष मेरे पास
आते हैं, तो
मैं जो कहता
हूं, वह
ठीक है, यह
उन्हें पहले
अनुभव में आता
है। फिर इस
कारण मुझसे
लगाव पैदा
होता है।
स्त्रियां
पहले मेरे
प्रेम में पड़
जाती
हैं--स्त्रैण
चित्त मेरा
मतलब; उन्हें
मुझसे लगाव हो
जाता है सीधा,
फिर मैं जो
भी कहता हूं, वह उन्हें
ठीक लगता है।
पुरुष पहले जो
मैं कहता हूं
वह उन्हें ठीक
लगने लगता है,
तब वे मेरे
प्रेम में पड़
जाते हैं।
सत्संग
तो दोनों के
लिए खुला है, हालांकि
दोनों के ढंग
में इतना फर्क
होगा। प्रार्थना
वाला चित्त
पहले प्रेम
में पड़ेगा, फिर जो भी
कहा जा रहा है,
वह ठीक लगने
लगेगा, उसका
अनुसरण
करेगा। ध्यान
वाला चित्त
पहले विचार को
उपलब्ध होगा,
फिर जो भी
विचार में ठीक
मालूम पड़ा है,
उसका प्रेम
जन्मेगा।
इतना
सा फर्क होगा, लेकिन
सत्संग में
दोनों मिल
जाते हैं।
सत्संग संगम
है। वहां सब
मिल जाते हैं।
इसलिए ऐसा कोई
धर्म नहीं
दुनिया में, जिसने
सत्संग की
महिमा न गाई
हो। ईश्वर को
माननेवाले
धर्म हैं, न
माननेवाले
धर्म हैं, आत्मा
को माननेवाले
धर्म हैं, न
माननेवाले
धर्म हैं; पुनर्जन्म
को माननेवाले
धर्म हैं, न
माननेवाले
धर्म हैं; लेकिन
ऐसा कोई धर्म
नहीं, जो
सत्संग को न
मानता हो।
साधु-संगत और
सत्संग तो सभी
धर्मो का सार
है।
पहले
साधुओं के पास
उन्मुख होना; जो भले लोग
हैं, उनके
पास रहना, ताकि
भले का
थोड़ा-सा रोग
तुम्हें भी लग
जाए। भलों के
साथ रहोगे तो
भलाई का
थोड़ा-सा रंग
लग ही जाएगा।
अब काजल की
कोठरी से कोई
गुजरेगा तो
थोड़ी कालिख लग
ही जाएगी।
साधु-संगत
का इतना ही
मतलब है, कि
तुम उनके साथ
रहना जिनको
परमात्मा का
रंग लग गया है,
तो तुम्हें
भी थोड़ा-बहुत
रंग लग जाएगा।
उस रंग से
यात्रा शुरू
होगी। उससे
पहले दफा
अभीप्सा का
जन्म होगा, कि मैं भी
खोजूं, मैं
भी पाऊं।
फिर
साधु-संगत से
धीरे-धीरे तुम
साधुओं के बीच
एक को चुनना। क्योंकि
सभी साधु
तुम्हें न ले
जा सकेंगे। सभी
साधु
तुम्हारे लिए
नहीं हैं।
तुम्हारे लिए तो
कोई एक है।
उससे मिलते ही
तुम्हारे
भीतर कुछ
सांधा बैठ
जाता है। एकदम
से सांधा बैठ
जाता है। उसके
पास आते ही
तुम्हारे
भीतर कोई चीज
टूट जाती है, बदल जाती
है। फिर तुम
कभी वही आदमी
नहीं हो सकते,
जो तुम पहले
थे। तुम उसे
छोड़कर न जा
सकोगे। तुम
उससे भाग न
सकोगे। भागने
के तुम उपाय
भी करो, तो
भी उपाय काम न
आएंगे।
जब ऐसी
घड़ी आ जाए, तब सत्संग।
तब भागने की, संदेह की, विचार की सब
यात्राओं को बंद
कर देना और
बैठे रहना
गुरु के पास।
तब बैठे-बैठे
ही सब मिल
जाएगा। तब न
तो कुछ पूछने
को है, न
कुछ जानने को
है। पूछना, जानना
साधु-संगत में
चलेगा।
मेरे
पास दोनों तरह
के लोग हैं।
कुछ, जो
साधु-संगत कर
रहे हैं; कुछ,
जिनका
सत्संग शुरू
हो गया। जो
साधु-संगत कर
रहे हैं, वे
मेरे मेहमान
हैं। कभी आते
हैं, जाते
हैं। अभी उनको
और साधुओं की
संगत भी करनी
है। अभी उनका
चुनाव नहीं
हुआ है।
कुछ
हैं, जिनका
सत्संग शुरू
हो गया; जिन्होंने
छलांग ले ली।
जिन्होंने
छलांग ले ली
है, अब
उन्हें कहीं
नहीं जाना है।
उनकी मंजिल आ
गई। जिसे खोजना
था, उसे
उन्होंने खोज
लिया। अब
सिर्फ उसके
पास होना है।
जिस
दिन सत्संग
शुरू होता है, उसी दिन बड़ी
तृप्ति मालूम
होने लगती है।
साधु-संगत में
तो एक बेचैनी
रहेगी। खोजना
है, पाना
है, जांच-पड़ताल
करनी है। बड़ा
बाजार है
साधुओं का भी।
भिन्न-भिन्न
तरह के साधु
हैं, भिन्न-भिन्न
तरह के संत
हैं। उनके ढंग
अलग, उनकी
शैलियां अलग।
बहुत बार वे
बड़े विरोध में
भी मालूम पड़ते
हैं--वह भी
उनका ढंग है।
एक-दूसरे का
खंडन भी करते
हैं--वह भी
उनका ढंग है।
तुम
उनके खंडन से
परेशान मत
होना। तुम इस
चिंता में ही
मत पड़ना कि वे
क्या कहते
हैं। क्यों
किसी का खंडन
करते हैं, क्यों किसी
का विरोध करते
हैं? तुम
तो इसी की
फिक्र करना, कि इस कौन से
तुम्हारा राग
मिल जाता है।
कौन से
तुम्हारा
संगीत मिल
जाता है।
किसके हृदय के
पास तुम्हारा
हृदय एक सी ही
धड़कन से धड़कने
लगता है।
किसके हृदय के
साथ तुम्हारी
धड़कन की गति
और छंद बैठ
जाता है।
बस, वह तुम्हारे
लिए है। मंजिल
आ गई। सत्संग
शुरू हुआ। अब
सिर्फ साथ
होना काफी है,
पास होना
काफी है। अब
सिर्फ गुरु की
मौजूदगी काफी
है, उपस्थिति
काफी है। और
उसकी
उपस्थिति एक
अग्नि है।
जैसे ही तुम
सत्संग में
प्रविष्ट हुए,
तुम्हारे
भीतर कचरा
जलना शुरू हो
जाएगा और
स्वर्ण
निखरने लगेगा।
कबीर
ने, नानक ने
साधु-संगत और
सत्संग के बड़े
गीत गाए हैं।
लेकिन मैं
समझता हूं, किसी ने कभी
ठीक से साफ
नहीं किया है
कि साधु-संगत
और सत्संग
अलग-अलग बातें
हैं। एक ही
प्रक्रिया है,
लेकिन बड़ी
भिन्न है।
कुछ
लोग साधु-संगत
करते-करते ही
मर जाते हैं।
सत्संग का
मौका ही नहीं
आ पाता।
कभी-कभी
साधु-संगत
करना ही एक रोग
हो जाता है, कि आज इसको
सुना, कल
उसको सुना, परसों वहां
गए। जा रहे
हैं इस आश्रम
उस आश्रम।
धीरे-धीरे यह
जाना-आना ही
रोग हो जाता
है। चुनने का
खयाल ही भूल
गया। तो तुम एक
ऐसे आदमी हो
गए, जैसे
कुछ लोग बाजार
जाते हैं, उन्हें
खरीदना कुछ भी
नहीं है। वे
सिर्फ इस दुकान
में झांक कर
देखते हैं, उस दुकान
में झांक कर
देखते हैं।
कभी-कभी अंदर
जाकर चीजों के
दाम-भाव भी
पूछते हैं, कभी मोल-भाव
भी करते हैं।
लेकिन उन्हें
कुछ खरीदना
नहीं है। वे
सिर्फ समय
गुजारने चले
आए।
साधु-संगत
समय गुजारना
भी हो सकता
है। तब उसमें
कभी सत्संग का
फल न लगेगा।
तब वह व्यर्थ
है। उसका कोई
अर्थ नहीं है।
किसी न किसी
दिन निर्णय
लेना पड़ेगा।
निर्णय का
मतलब है, कमिटमेंट।
निर्णय का
अर्थ है, कि
अब तुमने एक
को चुना और
तुम उसके पीछे
जाने को राजी
हुए।
खतरे
हैं। लेकिन
किसी न किसी
दिन खतरा तो
लेना ही पड़ता
है। जोखिम
उठानी ही पड़ती
है। बिना जोखिम
के संसार में
कोई भी विकास
नहीं है। और
बिना खतरे के
कोई क्रांति
घटित नहीं
होती। दांव पर
तो लगाना ही
पड़ेगा। यह तो
बड़ा जुआ है।
इससे बड़ा कोई जुआ
नहीं है।
पश्चिम
से लोग आते
हैं। पश्चिम
में लोग
कमिटमेंट के
बहुत ज्यादा
खिलाफ हैं, प्रतिबद्धता
के खिलाफ हैं।
वे कहते हैं, किसी से
क्यों बंधना?
मेरे
पास वे आते
हैं, वे कहते
हैं कि हम
आपको सुनना
चाहते हैं, ध्यान भी
करना चाहते
हैं, लेकिन
बंधना नहीं
चाहते। किसी
से क्यों
बंधना? मैं
उनको कहता हूं,
"तुम्हारी
मर्जी। तुम
खुले रहो।"
लेकिन
तुम्हें पता
नहीं है, कि
जब तक तुम
किसी के साथ
इस भांति नहीं
बंध जाते, कि
तुम्हारी और
यात्रा बंद हो
गई, तब तक
तुम्हारी
ऊर्जा न तो
संग्रहीत
होगी, और न
तुम्हारी
ऊर्जा में कोई
रूपांतरण
होगा।
आज तुम
मेरे पास हो, कल तुम श्री
अरविंद आश्रम
में हो, परसों
तुम अरुणाचल
आश्रम में हो,
नरसों तुम
कहीं और
हो--तुम जाते
रहोगे। तुम घर
के न घाट के हो
जाओगे। तुम
भटकते रहोगे।
धीरे-धीरे यह
भटकन कहीं
तुम्हारी
जिंदगी हो गई,
तो मैं कहता
हूं, भटकन
से तुम्हारी
प्रतिबद्धता
हो गई, तुम्हारा
कमिटमेंट हो
गया। अब तुम
भटकने से बंध
गए। अब तुम
ऐसे हो गए
जैसे कि नदी
में बहता हुआ
पत्थर होता
है। उस पर कोई
काई नहीं जम
जाती, क्योंकि
वह बहता ही
चला जाता है।
साधु-संगत भटकन
न हो। कहीं
तुम नदी में
बहते पत्थर न
हो जाओ।
बहुत
तीर्थ आएंगे
मार्ग में; लेकिन
तुम्हें बहने
की आदत पड़ गई, तो तुम कोई
काई जमा न कर
पाओगे। काई तो
तभी जमा होती
है, जब
पत्थर किसी
घाट पर रुक
जाता है, किसी
तीर्थ को घर
बना लेता है।
वह
प्रतिबद्धता
है, कमिटमेंट
है। लेकिन जब
तुम
प्रतिबद्धता
में उतरते हो,
जब तुम कहते
हो, ठीक! अब
मैं छोड़ता हूं
अपने को और
राजी होता हूं
एक यात्रा के
लिए--उसी क्षण
तुम्हारा
अहंकार
समाप्त हो
जाता है। वह
अहंकार ही
बाधा डालता है
प्रतिबद्धता
में। वह कहता
है, बंधो
मत। सार ले लो,
जितना लेना
है; बंधते
क्यों हो?
लेकिन
जो बहुत भीतर
का राज है, वह तो केवल
उन्हीं को
बांटा जा सकता
है, जिनका
अहंकार गिर
गया है। तो
तुम थोड़ा सा
उच्छिष्ट
प्राप्त कर
लोगे, लेकिन
तुम कभी भीतर
के मंदिर में
प्रवेश न कर पाओगे।
साधु-संगत
जरूरी है, काफी नहीं।
उससे गुजरना,
उसमें ही
ठहर मत जाना।
वह एक पड़ाव है,
रुकाव
नहीं। वह घर
नहीं है। घर
तो सत्संग है।
तीसरा
प्रश्न :
क्या
समर्पण सारे
अस्तित्व के
प्रति हो तो
समर्पण होता
है अथवा केवल
गुरु के प्रति
हो, तो
समर्पण होता
है?
सारे
अस्तित्व के
प्रति समर्पण
तो तुम्हें
बिलकुल असंभव
है। वह तो ऐसे
ही है, जैसे
आदमी प्रेम
करना ही न
जानता हो, किसी
एक आदमी को भी
प्रेम न किया
हो और कहे, कि
मैं सारी
मनुष्यता को
प्रेम करना
चाहता हूं।वह
तो तरकीब है
तुम्हारी एक
से बचने की।
अक्सर मैंने
ऐसे लोग देखे
हैं, जो एक
को प्रेम करने
में असमर्थ
हैं। क्योंकि एक
को प्रेम करना
बड़ा कठिन काम
है। बड़ी दूभर
यात्रा है, बड़ा संघर्ष
है। प्रतिपल
एक चुनौती है।
मनुष्यता
को प्रेम करने
में कोई
चुनौती नहीं है, कोई संघर्ष
नहीं है।
मनुष्यता कोई
है थोड़ी! एक
स्त्री
तुम्हें
ठिकाने लगा दे,
एक पुरुष
तुम्हें
ठिकाने लगा
दे। पूरी
मनुष्यता
तुम्हें
ठिकाने नहीं
लगा सकती।
मनुष्यता को
प्रेम मजे से करो।
मनुष्यता
कहीं है ही
नहीं। वह तो
एब्स्ट्रेक्शन
है। मनुष्यता
को कहां
मिलोगे प्रेम करने
को? कहां
आलिंगन करोगे?
मनुष्यता
तो सिर्फ कोरा
शब्द है।
मनुष्य है, मनुष्यता तो
कहीं भी नहीं
है। इसलिए जो
लोग प्रेम
करने में
असमर्थ हैं, वे अक्सर
मनुष्यता को
प्रेम करते
हैं। एक
स्त्री को
प्रेम नहीं कर
सकते, क्योंकि
वहां कठिनाई
खड़ी हो जाती
है। वहां अहंकार
को झुकना पड़ता
है। वहां कुछ
तालमेल बिठाना
पड़ता है। कुछ
समझौते करने
पड़ते हैं।
वहां कुछ
सीखना पड़ता है,
कुछ काटना
पड़ना है, कुछ
बदलना पड़ता है;
वह कठिन है।
पूरी
मनुष्यता को
प्रेम करते
हैं! मेरे पास
ऐसे लोग आ
जाते हैं; सर्वोदयी
हैं, समाज-सुधारक
हैं, वे
पूरी
मनुष्यता को
प्रेम करते
हैं! उनकी शकल
पर प्रेम का
कोई चिन्ह
नहीं मालूम
पड़ता। वे बचाव
कर रहे हैं।
न तो
कोई पूरी
मनुष्यता को
प्रेम करने की
जरूरत ही है।
तुम एक मनुष्य
को प्रेम करो।
क्योंकि उससे
ही तुम
सीखोगे। वही
सिखावन अगर
इतनी गहरी हो
जाए, कि तुम एक
मनुष्य के
भीतर इतने
गहरे उतर जाओ
प्रेम में, कि उसका
शरीर तुम्हें
भूल जाए, तो
तुमने
मनुष्यता के
सार को पकड़
लिया। भीतर जो
छिपा है अरूप,
निराकर, उसे
पकड़ लिया। तो
फिर तुम सभी
को प्रेम कर
सकते हो। अभी
तो तुम्हारा
सभी को प्रेम
झूठ होगा, तरकीब
होगी, धोखा
होगा।
गुरु
के प्रति
समर्पण किए
बिना तुम
समस्त के प्रति
समर्पण न कर
पाओगे। कहां
है "समस्त"? सर्व कहां
है? तुम
किसी एक में
उसकी थोड़ी झलक
देखो। आकार
में तुम पहले
निराकार को
खोजो, तभी
तुम्हें निराकार
से मिलन हो
पाएगा।
तो
गुरु के प्रति
समर्पण कोई
अंतिम बात
नहीं है। वह
तो सिर्फ
द्वार है।
नानक ने अपने
मंदिरों को
गुरुद्वारा
कहा है; वह
बिलकुल ठीक
कहा
है--गुरुद्वार।
वह शब्द बड़ा
कीमती है।
उसका मतलब
इतना ही है, कि गुरु तो
सिर्फ द्वार
है। उससे तो
जाना है, गुजर
जाना है।
लेकिन तुम अगर
द्वार से ही
गुजरने को
राजी नहीं हो,
तो तुम
मंदिर में न
पहुंच पाओगे।
गुरु
मंदिर नहीं है, गुरु तो
सिर्फ द्वार
है। तुम कहते
हो, ऐसा
नहीं हो सकता,
हम मंदिर
में ही पहुंच
जाएं और द्वार
से न गुजरना
पड़े?तुम
जरा असंभव बात
पूछ रहे हो। कोई
उपाय नहीं है
मंदिर में
पहुंचने का; द्वार से
गुजरना ही
पड़ेगा।
क्योंकि
द्वार पर तुम
झुकोगे, झुकना
सीखोगे।
पुराने
मंदिरों के
द्वार बड़े
छोटे होते थे, वह ठीक था।
वे प्रतीक थे,
कि वहां झुक
कर जाना
पड़ेगा। अब तो
हम जो मंदिर बनाते
हैं, बड़ा
द्वार बनाते
हैं। और उसमें
कोई घोड़े-हाथी
पर भी बैठ कर
जाए तो जा सकता
है। बात ही
भूल गए हम।
बिलकुल छोटे
ही द्वार होने
चाहिए, जिसमें
झुक कर ही
जाना पड़े; जिसमें
सिर को झुकाना
ही पड़े। मंदिर
का द्वार बड़ा
नहीं हो सकता।
मंदिर का
द्वार छोटा
होगा।
वह
छोटा सा द्वार
गुरु है। वह
परमात्मा का
द्वार है।
उससे अगर तुम
झुके और
समर्पण किया, तो तुम उससे
प्रवेश कर
जाओगे।
समर्पण करते
ही गुरु मिट
जाता है। तुम
मिटे, कि
गुरु मिटा।
गुरु तो मिटा
ही हुआ है।
तुम्हारे
अहंकार की वजह
से दिखाई पड़ता
है। तुम मिटे,
कि तुम्हें
दिखाई पड़ता है
गुरु तो था ही
नहीं। वह तो
सिर्फ द्वार
है, खाली
जगह है, जिसमें
से गुजर जाना
है।
जिन्होंने
गुरु के प्रति
समर्पण किया
उन्होंने तो
पाया, गुरु
नहीं, परमात्मा
है। इसलिए अगर
हिंदुओं ने
कहा, कि
गुरु विष्णु,
गुरु महेश।
अगर हिंदुओं
ने कहा, कि
गुरु
परमात्मा है,
तो उसका
क्या अर्थ है?
उसका अर्थ
है, जिन्होंने
समर्पण किया,
उन्होंने
पाया, गुरु
तो था ही
नहीं। वह
हमारे अहंकार
की वजह से
दिखाई पड़ता
था। जैसे ही
हम झुके, पाया
कि मंदिर खुल
गया, द्वार
खुल गया।
परमात्मा
विराजमान है।
गुरु
में परमात्मा
को देख लेना
है अर्थ समर्पण
का। और अगर
तुम्हें गुरु
में नहीं
दिखाई पड़ सकता
तो तुम्हें
पौधों में, वृक्षों में,
पत्थरों
में, फहाड़ों
में बहुत
मुश्किल है
दिखाई पड़ना।
गुरु का अर्थ
है, जिसके
भीतर
परमात्मा
सर्वाधिक
सजगता से जी रहा
है; और तो
कोई अर्थ नहीं
है। चट्टान के
भीतर ही परमात्मा
है लेकिन
बिलकुल सोया
हुआ। तुम्हारे
भीतर भी
परमात्मा है
लेकिन शराब
पीया हुआ। चोर
के भीतर भी
परमात्मा है,
लेकिन चोर।
हत्यारे के
भीतर भी
परमात्मा है,
लेकिन
हत्यारा।
गुरु
का क्या मतलब
है? गुरु का
इतना ही मतलब
है, जिसके
भीतर
परमात्मा
अपने शुद्धतम
रूप में प्रकट
है। जिसमें
अग्नि
शुद्धतम रूप
में जल रही है,
जिसमें
धुआं बिलकुल
नहीं है।
निर्धूम
अग्नि--गुरु
का अर्थ है।
अगर
तुम्हें वहां
नहीं दिखाई
पड़ती अग्नि, तो तुम्हें
कहां दिखाई
पड़ेगी? जहां
धुआं ही धुआं
है, वहां
दिखाई पड़ेगी?
जब निर्धूम
अग्नि नहीं
दिखाई पड़ती, तो जहां
धुआं ही धुआं
है, वहां
तुम्हें कैसे
दिखाई पड़ेगी?
वहां तो
धुएं के कारण
तुम्हारी
आंखें बिलकुल बंद
हो जाएंगी।
गुरु
के पास
तुम्हारी आंख
नहीं खुलती तो
तुम्हारी आंख
पत्थरों के
पास कैसे
खुलेगी? गुरु
तो केवल
प्रतीक है।
अर्थ है, जिसने
जान लिया। अगर
तुम उसके पास
झुको, तो
तुम भी उसकी
आंखों से देख सकते
हो। और तुम भी
उसके हृदय से
धड़क सकते हो। और
तुम भी उसके
हाथों से
परमात्मा को
छू सकते हो।
एक बार
तुम्हारी
पहचान करवा
देगा वह, फिर
तो बीच से हट
जाता है। फिर
बीच में कोई
जरूरत नहीं
है। पर एक बार
तुम्हारी
पहचान करवा देना
जरूरी है।
गुरु का इतना
ही मतलब है, कि परमात्मा
तुम्हें
अपरिचित है, उसे परिचित
है। तुम भी
उसे परिचित हो,
परमात्मा
भी उसे परिचित
है। वह बीच की
कड़ी बन सकता
है। वह
तुम्हारी
मुलाकात करवा
दे सकता है।
वह थोड़ा परिचय
बनवा दे सकता
है। वह तुम
दोनों को पास
ला दे सकता
है। एक दफा
पहचान हो गई, फिर वह हट जाता
है। उसकी कोई
जरूरत नहीं है
फिर।
लेकिन
यह मत सोचो, कि तुम
समर्पण
अस्तित्व के
प्रति कर सकते
हो। कर सको, तो बहुत
अच्छा। वही तो
है सारी
शिक्षा सभी
गुरुओं की, कि तुम
समर्पित हो
जाओ अस्तित्व
के प्रति। लेकिन
धोखा मत देना
अपने को। कहीं
यह न हो, कि
गुरु से बचने
के लिए तुम
कहो, हम तो
अस्तित्व के
प्रति
समर्पित हैं।
अस्तित्व
क्या है? वृक्ष
के सामने
झुकोगे? पत्थर
के सामने
झुकोगे? कहां
झुकोगे? झुकने
की कला अगर
तुम्हें आ जाए,
तो गुरु तो
केवल एक
प्रशिक्षण
है। वह
तुम्हें झुकना
सिखा देगा।
तिब्बत
में जब शिष्य
दीक्षित होता
है, तो दिन
में जितनी बार
गुरु मिल जाए
उतनी बार उससे
साष्टांग
दंडवत करना
पड़ता है।
कभी-कभी हजार
बार। क्योंकि
जितनी बार
गुरु . . . आश्रम
में शिष्य
रहता है; गुरु
गुजरा, फिर
शिष्य मिल
गया। पानी
लेने जा रहे
थे, बीच
में गुरु मिल
गया; भोजन
करने गए, गुरु
मिल गया। जब
मिल जाए तभी
साष्टांग
दंडवत। पूरे
जमीन पर लेट
कर पहला काम
साष्टांग
दंडवत।
एक
युवक एक
तिब्बती
मानेस्ट्री
में रह कर मेरे
पास आया।
मैंने उससे
पूछा, तूने
वहां क्या
सीखा? क्योंकि
वह जर्मन था
और दो साल
वहां रह कर
आया था। उसने
कहा, कि
पहले तो मैं
बहुत हैरान था,
कि यह क्या
पागलपन है!
लेकिन मैंने
सोचा, कुछ
देर करके देख
लें।
फिर तो
इतना मजा आने
लगा। गुरु की
आज्ञा थी, कि जहां भी
वह मिले उसको
झुकूं, फिर
धीरे-धीरे जो
भी आश्रम में
थे, जो भी
मिल जाते!
साष्टांग
दंडवत में
इतना मजा आने
लगा, कि
फिर मैंने
फिक्र ही छोड़
दी कि क्या
गुरु के लिए
झुकना! जो भी
मौजूद है।
फिर तो
मजा इतना बढ़
गया, कि लेट
जाना पृथ्वी
पर सब छोड़ कर।
ऐसी शांति उतरने
लगी, कि
कोई भी न होता
तो भी मैं लेट
जाता।
साष्टांग
दंडवत करने
लगा वृक्षों
को, पहाड़ों
को। झुकने का
रस लग गया।
तब
गुरु ने एक
दिन बुला कर
मुझे कहा, वह युवक
मुझसे बोला, अब तुझे
मेरी चिंता
करने की जरूरत
नहीं। अब तो
तुझे झुकने
में ही रस आने
लगा। हम तो
बहाना थे, कि
तुझे झुकने
में रस आ जाए।
अब तो तू किसी
के भी सामने
झुकने लगा है।
और अब तो ऐसी
भी खबर मिली
है, कि तू
कभी-कभी कोई
भी नहीं होता
और तू साष्टांग
दंडवत करता
है। कोई है ही
नहीं और तू
दंडवत कर रहा
है।
उस
युवक ने मुझे
कहा, कि बस, झुकने में
ऐसा मजा आने
लगा।
जर्मन
अहंकार संसार
में प्रगाढ़ से
प्रगाढ़ अहंकार
है। समस्त
जातियों में
जर्मन जाति के
पास जैसा
प्रगाढ़
अहंकार है, वैसा किसी
के पास नहीं
है। इसलिए दो
महायुद्ध वे
लड़े हैं। और
कोई नहीं
जानता, कि
कभी भी वे
युद्ध के लिए
तैयार हो
जाएं।
यह
जर्मन युवक
झुकने को भी
तैयार नहीं
था। यह बात ही
फिजूल लगती थी, लेकिन फंस
गया। लेकिन जब
झुका, तो
रस आ गया।
एक दफा
झुकने का रस आ
जाए, एक दफा
तुम्हें यह
मजा आने लगे, कि नाकुछ
होने में मजा
है, मिटने
में मजा है, खोने में
मजा है, तो
गुरु हट जाता
है। गुरु बुला
कर तुम्हें कह
देता है, बात
खतम हो गई। अब
तुम मुझे
परेशान न करो।
क्योंकि
तुम्हारे
दंडवत करने से
तुमको ही
परेशानी होती
है, तुम
समझ रहे हो।
तुमसे ज्यादा
गुरु को
परेशानी होती
है। क्योंकि
तुम्हारे लिए
तो एक गुरु है,
गुरु के लिए
हजार शिष्य
हैं। हजार का
झुकना, और
हजार के नमन
को हजार बार
स्वीकार
करना--गुरु की
भी तकलीफ है।
जैसे
ही तुम तैयार
हो जाते हो, कि झुकना
सीख गए; गुरु
कहता है, अब
भीतर चले जाओ,
अब दरवाजे
पर मत अटको।
अब मुझे छोड़ो।
एक दिन गुरु
कहता है, मुझे
पकड़ लो
अनन्यभाव से।
अगर तुमने पकड़
लिया तो एक
दिन गुरु कहता
है, अब
मुझे तुम
बिलकुल छोड़ दो,
क्योंकि अब
परमात्मा पास
है, अब तुम
मुझे मत पकड़े
रहो।
कबीर
ने कहा है,
"गुरु,
गोविंद दोऊ
खड़े काके
लागूं पांव।"
बलिहारी
गुरु आपकी
दियो गोविंद
बताय।।"
दोनों
खड़े हैं
सामने। ऐसी
घड़ी आती है
भक्त को एक
दिन, जब गुरु
के पास झुका
बैठा है भक्त
और परमात्मा
भी सामने आ
जाता है। तब
सवाल उठता है,
किसके चरण
छूऊं?
"बलिहारी
गुरु आपकी"—
तो
कबीर कहते हैं
गुरु ने इशारा
कर दिया, कि परमात्मा
के चरण छू और
मुझे छोड़।
बहुत मेरे चरण
पकड़े, अब
बस बात खतम हो
गई। यह तो
सिर्फ एक
अभ्यास था।
जैसे तैरने का
अभ्यास किसी
को कराते हैं,
तो उथले
पानी में
कराते हैं।
कहीं तुम डूब
न जाओ। गुरु
यानी उथला
पानी। फिर जब
तैरना आ गया तो
गुरु कहता है,
जब जरा
गहराइयों में
जाओ। गुरु
यानी अभ्यास
का स्थल।
नहीं, समस्त के
प्रति तुम अभी
न झुक पाओगे।
और मन बहुत
बेईमान है। और
मन ऐसी
तरकीबें समझा
देता है, कि
एक के प्रति
क्या झुकना!
सभी के
प्रति झुक
जाएंगे। यह न
झुकने की
तरकीब है। झुक
सको, बड़ी कृपा!
झुक पाओ, धन्यभाग!
मगर कहीं
यह तरकीब बचने
की न हो। सौ
में
निन्यानबे मौके
बचने की तरकीब
के हैं। मन
धोखेबाज है।
मन प्रवंचक
है। इससे
सावधान रहना।
गुरु
सदा के लिए
तुमसे नहीं
कहेगा, कि
तुम उसे पकड़े
रहो। लेकिन
जिन्होंने
पकड़ा है, वे
ही छोड़ने में
समर्थ हो
पाएंगे।
जिन्होंने पकड़ा
ही नहीं, उनसे
गुरु कैसे
कहेगा छोड़ो?
नीत्से
ने बड़ी अदभुत
किताब लिखी
है--"दस स्पेक जरथुस्त्र।"
दुननिया की
पांच-सात
श्रेष्ठतम
किताबों में
एक है। उसमें
अंतिम वचन
जरथुस्त्र
अपने शिष्यों
को कहता है, और वह यह
है--सारी
शिक्षाओं के
बाद जब
जरथुस्त्र
पहाड़ की तरफ
जाने लगा, अपने
शिष्यों से
विदा लेने लगा,
उस की घड़ी आ
गई विदा की . . .और
घड़ी एक दिन
गुरु की आएगी
ही। और यह
उसकी आखिरी
घड़ी है। इसके
बाद वह वापिस
नहीं लौट
सकेगा। इस
शरीर में उसका
होना आखिरी
है।
जिन्होंने ले
लिया लाभ, ले
लिया। यह
द्वार सदा
नहीं रहता। वह
तो मिट ही
जाएगा।
तो जरथुस्त्र
ने कहा, मैं
जा रहा हूं, तुम्हें मैं
अपना आखिरी
संदेश दे दूं।
और वह आखिरी
संदेश उसने
कहा, "बीवेअर
आफ
जरथुस्त्र" :
अब तुम मुझसे
सावधान रहना।
शिष्य
तो हैरान हुए।
उन्होंने कहा, तुमसे और
सावधान? तुमने
ही तो सिखाया
समर्पण और
श्रद्धा; अब
तुमसे सावधान?
तुमने ही तो
सिखाया सब तुम
पर छोड़ देना, अब तुमसे
सावधान?यह
वचन बड़ा कीमती
है--जरथुस्त्र
से सावधान। लेकिन
जरथुस्त्र यह
बात उनसे ही
कहेगा, जिन्होंने
समग्र भाव से
समर्पण कर
दिया हो। तब
वह कहेगा, बस!
बहुत हुआ। तैर
लिए मुझमें, अब आगे बढ़ो।
अब मुझे मत
पकड़ कर रुक जाना।
क्योंकि
बहुत बार यह
भी हो सकता
है। पहले तो तुम
सीढ़ी चढ़ने में
डरते हो। फिर
तुम चढ़ जाते
हो सीढ़ी, तो
सीढ़ी को पकड़
लेते हो। पहले
सीढ़ी पर चढ़ना
जरूरी है, फिर
सीढ़ी को छोड़
देना जरूरी
है।
सब
साधन पकड़ने
जरूरी हैं और
सब साधन छोड़
देने जरूरी
हैं। राह पर
उतरना जरूरी है, राह पर चलना
जरूरी है, फिर
राह को छोड़
देना जरूरी
है। नहीं तो
मंजिल कैसे
आएगी? जिसने
साधन को पकड़
लिया, वह
फिर साध्य से
वंचित रह जाता
है।
दो तरह
के वंचित लोग
हैं; एक तो वे,
जिन्होंने
साधन कभी पकड़ा
ही नहीं। एक
वे, जिन्होंने
साधन जोर से
पकड़ लिया। एक
वे हैं, जो
गुरु के पास
कभी आए ही
नहीं। और एक
वे हैं, जो
गुरु के पास
आए और गुरु को
छोड़ने में
असमर्थ हो गए।
गुरु
तुम्हें
तैयार करता है
पहले झुकने को, फिर खड़ा
होने को। पहले
मिटने को फिर
होने को।
एक ही
बात खयाल रखना, मन धोखा न
देता हो; फिर
ठीक है। अगर
तुम समस्त के
प्रति समर्पण
करने में सफल
हो, इससे
सुंदर और कुछ
भी नहीं हो
सकता। लेकिन
अगर धोखा हो, तो
साधु-संगत करो,
फिर सत्संग
करो, किसी
गुरु के चरण
पकड़ो। वह गुरु
ही तुम्हें फिर
किसी दिन
तैयार कर देगा
चरण छोड़ देने
को। वह तो तभी
तक अभ्यास है,
जब तक कि
प्रभु के चरण
पास नहीं आ
जाते।
आज
इतना ही।
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