अध्याय
53
लूटपाट
मुख्य
पथ (ताओ) पर चल
कर,
मैं
यदि तपःपूत
ज्ञान को
प्राप्त होता,
तो
मैं
पगडंडियों से
नहीं चलता।
मुख्य
पथ पर चलना
आसान है;
तो
भी लोग छोटी
पगडंडियां
पसंद करते
हैं।
दरबार
चाकचिक्य से
भरे हैं,
जब
कि खेत जुताई
के बिना पड़े
हैं और बखारियां
खाली हैं।
तथापि
जड़ीदार
चोगे पहने, चमचमाती
तलवारें
हाथों में लिए,
श्रेष्ठ
भोजन और पेय
से अघाए, वे
धन-संपत्ति
में सराबोर
हैं।
-- इससे
ही संसार
लूटपाट पर
उतारू होता
है।
क्या
यह ताओ का भ्रष्टाचरण
नहीं है?
सत्य
सरल है।
क्योंकि सत्य
स्वभाव है। और
स्वभाव का
मार्ग सभी जगह
है। पंखुड़ी-पंखुड़ी
पर,
तारेत्तारे में, झरनों
में, पहाड़ों
में, पशुओं
में, पक्षियों
में, आदमियों
में स्वभाव
ऐसे ही पिरोया
हुआ है जैसे
मनके पिरोए
हों धागे में।
हर मनके के
भीतर धागा है,
ऐसे ही हर
जीवन के भीतर
स्वभाव का
मार्ग है।
उसे
पाना कठिन
नहीं; क्योंकि
तुम उसे पाए
ही हुए हो।
वस्तुतः उसे खोना
ही कठिन है।
उस पर चलना भी
कठिन नहीं; चलना अति
आसान है। आसान
कहना भी ठीक
नहीं, क्योंकि
आसान से भी
ऐसा लगता है
कि कुछ कठिनाई
से संबंध
होगा। कठिनाई
से कोई संबंध
ही नहीं है।
अगर कठिन हो
तो तुम हो।
मार्ग तो सरल
है। जटिल हो
तो तुम हो।
नहीं चल पाते
तो इसलिए नहीं
कि मार्ग दूर
है; नहीं
चल पाते तो
इसलिए कि तुम
जैसे हो उस
होने में चलने
में अवरोध आता
है। ऐसा समझो
कि मार्ग तो
सपाट है, कंटकाकीर्ण
नहीं, लेकिन
तुम लंगड़े हो।
तो मार्ग के
सपाट होने से
कुछ न होगा; तुम न चल
पाओगे।
लेकिन
मन हमेशा यही
कहेगा कि
मार्ग कठिन है, इसलिए
हम नहीं चलते।
क्योंकि
अहंकार मानने
को राजी नहीं
होता कि हम
लंगड़े हैं।
अंधे को भी अंधा
कहो तो बुरा
मानता है, झगड़ने
पर उतारू हो
जाता है। अंधे
को भी सूरदास
कहो तो प्रसन्न
होता है, क्योंकि
सूरदास शब्द
से अंधे का
कुछ सीधा संबंध
नहीं जुड़ता।
या अगर और तुम
कुशल हुए तो
अंधे को तुम
कहोगे प्रज्ञाचक्षु।
तब अंधा और
प्रसन्न होता
है।
अब
शरीर की आंखों
के खोने से
कोई
प्रज्ञाचक्षु
नहीं होता, और
न ही सभी अंधे
सूरदास होते
हैं। लेकिन औपचारिकताएं
सत्य को
छिपाने के
उपाय हैं।
किसी भी
स्त्री की
शादी हो, सभी
दुलहनें, लोग
आते हैं, कहते
हैं, कैसी
सुंदर है!
तुमने कभी
किसी को कहते
सुना किसी
दुलहन को कि
सुंदर न हो।
और जब भी कोई
आदमी मर जाता
है तो सभी
कहते हैं, स्वर्गीय
हो गए। जिंदगी
में जिनको नरक
में भी जगह न
मिलती, मर
कर वे सभी
स्वर्ग जाते
हैं। सुंदर
स्त्री खोजना
कठिन है, लेकिन
सभी दुलहनें
सुंदर होती
हैं।
औपचारिकता
का जाल है। और
औपचारिकता के
जाल में तुम
सत्य को
छिपाते हो।
नहीं चल पाते
हो तो यह नहीं
सोचते कि मैं लंगड़ा हूं; नहीं
देख पाते हो
तो यह नहीं
सोचते कि मैं
अंधा हूं।
नहीं देख पाते
तो कहते हो, अंधेरा है।
नहीं चल पाते
तो कहते हो, मार्ग ऊबड़-खाबड़
है। कहावत तो
सुनी है न: नाच
न आवे
आंगन टेढ़ा।
जब नाच नहीं
आता तो लोग
कहते हैं, आंगन
टेढ़ा है, नाचें कैसे! नाच
आता हो तो
आंगन टेढ़ा
हो कि चौकोर, क्या फर्क पड़ता
है? आंगन
के टेढ़ेपन
से नाचने का
क्या
लेना-देना? लेकिन नाच
आता हो।
पहली
बात,
इसके पहले
कि हम सूत्र
में प्रवेश
करें, यह
समझ लेने की
है कि सत्य
बहुत सरल है।
सारी जटिलता
तुम्हारे मन
की है। सारा
उलझाव तुम्हारे
भीतर है। बाहर
तो सब सुलझा
पड़ा है।
रास्ता बिलकुल
खुला है। न
कोई रोक रहा
है, न कोई
द्वार बंद है।
लेकिन तुम ऐसे
जकड़े हो अपने
भीतर, तुम्हारी
जकड़न ही
तुम्हारे
पैरों को नहीं
उठने देती।
नाच तो दूर, चलना ही
मुश्किल है।
चलना भी दूर, उठना ही
मुश्किल है।
क्योंकि जहां
तुम बैठे हो, तुम सोचते
हो, वहां
खजाना गड़ा
है। वह खजाने
की आशा
तुम्हें जकड़े
हुए है। तुम
जैसे हो, तुम
सोचते हो कि
यहां कुछ
मिलने को है।
वह मिलने की
आशा तुम्हें
हटने नहीं
देती। तुम
किसी वासना से
भरे हो, इसलिए
संसार को, भ्रम
को, झूठ को
तुमने अपना घर
बना लिया है।
फिर तुम चर्चा
जरूर करते हो
मार्ग की, सत्य
की, धर्म
की, लेकिन
कभी चलते
नहीं। तुम
चर्चा से ही
हल कर लेते
हो। तुम
बैठे-बैठे
सोचते ही रहते
हो।
ऐसा
हुआ एक गांव
में,
एक धनपति के
पास एक बहुत
कीमती घोड़ा
था। वह सदा
डरा रहता था, कहीं घोड़ा
चोरी न चला
जाए, क्योंकि
हजारों की
आंखें उस घोड़े
पर थीं। तो एक
दार्शनिक को,
जो उसके पड?ोस
में ही रहता
था, उसने
पूछा कि इसको
बचाने के लिए
मैं क्या करूं?
क्योंकि
मैं रात सो भी
नहीं पाता; यही चिंता
लगी रहती है
कि घोड़ा
अस्तबल में है
या गया!
उस
दार्शनिक ने
कहा,
घबड़ाओ मत। मैं
अनिद्रा के
रोग से पीड़ित
हूं, मुझे
नींद आती ही
नहीं। तो अगर
तुम्हें कोई
पहरेदार रखना
हो तो तुम
मुझसे बेहतर
पहरेदार न पा
सकोगे। मैं
वैसे ही पहरा
देता रहता हूं
घर में
घूम-घूम कर, उठ-उठ कर, क्योंकि
नींद मुझे आती
नहीं।
इतनी
चिंताएं हैं, सोए
भी आदमी तो
कैसे सोए? और
इतने सवाल हल
करने हैं। और
जिंदगी एक
पहेली है। और
जब तक उत्तर न
मिले तब तक
विश्राम कैसा?
दार्शनिकों
की जैसी गति
होती है! ऐसा
दार्शनिक
खोजना
मुश्किल है जो
अनिद्रा से
पीड़ित न हो।
क्योंकि जब
तुम बहुत
सोचोगे, व्यर्थ
की उलझनों में
उलझोगे, तो विश्राम
असंभव हो जाता
है।
धनपति
बहुत प्रसन्न
हुआ। उसने कहा
कि तुम क्या
चाहोगे, मैं
वह तुम्हें
दूंगा
तनख्वाह। मैं
कम से कम सो
सकूं। तुम आज
ही पहरे पर आ
जाओ।
पहरे
पर आ गया
दार्शनिक, बैठ
गया आकर। ताले
पड़े हैं
अस्तबल में और
वह बाहर
सीढ़ियों के
पास बैठा है, सोच रहा है।
पहला ही दिन
है पहरेदार का,
और पहरेदार
एक दार्शनिक
है, तो धनपति
पूरा आश्वस्त
नहीं है। थोड़ा
संदिग्ध है। क्योंकि
यह आदमी कोई
कृत्य का आदमी
नहीं है, कुछ
कर सके ऐसा
आदमी नहीं है।
सोच भला सकता
हो, लेकिन
सोचने का कोई
लेना-देना
नहीं है अगर
घोड़ा चोरी चला
जाए तो। यह
कहीं
बैठा-बैठा
सोचता ही न
रहे।
तो उठा
एक बार रात, आधी
रात उठ कर गया,
जागा हुआ
देख कर
प्रसन्न हुआ;
कहा, क्या
कर रहे हो? दार्शनिक
ने कहा, एक
बड़ी उलझन आ गई
है। सोच रहा
हूं कि लोग जब
खीली ठोकते
हैं दीवार में,
तो दीवार के
जिस हिस्से
में खीली
प्रवेश करती है
वह हिस्सा चला
कहां जाता है?
बड़ी जटिल
समस्या है, और हल नहीं
मिल रहा है।
धनपति ने
कहा--खुशी से
कहा बहुत--कि
सोचते रहो, मगर जागे
रहना। और
धनपति ने सोचा
कि यह जागा ही
रहेगा; ऐसी
उलझनों वाला
आदमी सो कैसे
सकता है? अब
यह हल भी कैसे
होगी?
घड़ी भर
बाद लेकिन उसे
फिर बेचैनी
लगी;
क्योंकि
आदमी भरोसे का
नहीं है। और
जो ऐसी फिजूल
की बातें सोच
रहा है, कहीं
ऐसा न हो कि
सोचता ही रहे
और कोई घोड़ा
ले जाए। वह
फिर आया। उसने
पूछा कि क्या
कर रहे हो? जागे
हुए हो? कहा,
बिलकुल
जागा हुआ हूं,
नींद तो
मुझे आती ही
नहीं। अब सवाल
यह है कि टूथपेस्ट
को दबाते हैं
तो बाहर आ
जाता है, फिर
भीतर क्यों
नहीं डाल सकते?
धनपति ने
कहा, सोचते
रहो, मगर
जागे रहना। और
धनपति बड़ा
प्रसन्न हुआ
कि यह सोने
वाला है ही
नहीं, क्योंकि
अब जो
टूथपेस्ट को
दबा कर निकल
आता है उसको
वापस कैसे
डालना ऐसी
उलझन में पड़ा
है, यह
जिंदगी नहीं
सो पाएगा।
लेकिन
फिर सुबह चार
बजे के करीब
उसे लगा कि यह
आदमी
उलटी-सीधी
बातें सोच रहा
है,
कहीं ऐसा न
हो कि घोड़ा
चला जाए। फिर
आया। उसने पूछा
कि कहो, जाग
रहे हो? बिलकुल
जाग रहा हूं।
अब क्या सोच
रहे हो? उसने
कहा, यही
सोच रहा हूं
कि मैं यहां
बैठा हूं, ताला
भी पड़ा है; घोड़ा
चोरी कैसे चला
गया?
कुछ
लोग हैं जो
सोचते ही रहते
हैं और घोड़ा
ही चोरी नहीं
चला जाता, जिंदगी
चोरी चली जाती
है। वे
खड़े-खड़े सोचते
ही रहते हैं, भीतर सारी
आत्मा चोरी
चली जाती है।
वे खड़े-खड़े
बड़ी ऊंची
बातें विचार
करते रहते हैं,
और सब गंवा
देते हैं। मौत
के क्षण में
वे पाते हैं
कि मैं इतना
सोच-विचार
वाला, सयाना
आदमी, इतना
समझदार, कुशल,
कोई मुझे
धोखा न दे सके
एक कौड़ी
का, और मैं
बैठा रहा और
सारी संपदा
गंवा दी! घोड़ा
चोरी ही चला
गया! आत्मा ही
चोरी चली गई!
समझदारी
से धर्म का
कोई संबंध
नहीं है--उस
समझदारी से
जिसे तुम
समझदारी समझे
बैठे हो। तुम्हारी
समझदारी तो
तुम्हारे
पागलपन का एक
हिस्सा है।
तुम्हारे
प्रश्न भी
तुम्हारी
विक्षिप्तता
से उठते हैं
और तुम्हारे
उत्तर भी
तुम्हारे मनगढ़ंत
होते हैं।
तुम्हारे
उत्तर हल नहीं
करते, ज्यादा
से ज्यादा
राहत देते
हैं।
तुम्हारे उत्तर
सिर्फ आशा बंधाते
हैं कि करीब आ
रहा है हल। हल
कभी करीब नहीं
आता। क्योंकि
हल तो केवल
उन्हीं को
मिलता है जो
जीवंत ऊर्जा
से उसे हल
करते हैं। हल
तो केवल
उन्हीं को
मिलता है जो
किसी गहन
प्रक्रिया से
गुजर कर अपने
को रूपांतरित
करते हैं। हल
तो उन्हीं को
मिलता है जो
मन की
पगडंडियों को हटा
कर रख देते
हैं और स्वभाव
के मार्ग पर
चल पड़ते हैं।
मन पगडंडियां
देता है। और
स्वभाव का
राजपथ
तुम्हारे
चारों तरफ
फैला हुआ है।
सब तरफ वही
है। ताओ यानी
स्वभाव।
लाओत्से उसे
ताओ कहता है, वेद ऋत, बुद्ध
धर्म।
धर्म
शब्द बड़ा
प्रीतिकर है।
उसके अनेक
अर्थ होते हैं; पर
गहरे से गहरा
अर्थ होता है
स्वभाव। जैसे
हम कहते हैं, अग्नि का
धर्म है गर्म
होना, पानी
का धर्म है
नीचे की तरफ
बहना। वह उसका
स्वभाव है। और
धर्म का एक
अर्थ बड़ा
महत्वपूर्ण है
और वह यह है कि
जो सबको धारण
किए है, जो
सभी को
सम्हाले है।
जो सभी को
सम्हाले है वह
सभी के भीतर
होगा, धागे
की तरह पिरोया
होगा हर माले
में, हर
माला के मनके
में।
जहां
भी तुम देखते
हो वहीं राजपथ
खुला है। अनंत-असीम
वह मार्ग है।
सीधा और सरल
है कि तुम उसी पर
बैठे हुए हो।
उस मार्ग को
पाने के लिए
तुम्हें
रत्ती भर चलना
नहीं है।
लेकिन मन
सुझाता है
पगडंडियां।
वे पगडंडियां
कहीं भी नहीं
जातीं, वे
वर्तुलाकार
घूमती हैं।
तुम मन का
निरीक्षण करो
और समझ जाओगे।
मन
वर्तुलाकार
घूमता है, कोल्हू
के बैल की तरह
घूमता है।
कोल्हू के बैल
को भी लगता है
कि काफी
यात्रा हो रही
है। क्योंकि
कोल्हू के बैल
को कोल्हू
चलाने वाला
बड़ी व्यवस्था
में रखता है; उसकी दोनों
आंखों पर पट्टियां
बांध देता है।
उसको आस-पास
तो दिखाई ही
नहीं पड़ता, बस सामने ही
दिखाई पड़ता
है। तो वह यह
भी अंदाज नहीं
लगा सकता कि
गोल-गोल घूम
रहा है। नहीं
तो वह भी खड़ा
हो जाए। अगर
बैल की आंख पर पट्टियां
न हों तो तुम
उसे कोल्हू
में नहीं जोत
सकते। क्योंकि
वह कहेगा, यह
क्या पागलपन
है! वह भी समझ
लेगा कि यह
क्या पागलपन
है कि मैं
गोल-गोल, यहीं-यहीं
घूमता रहूं।
वह खड़ा हो
जाएगा। आंख पर
इसीलिए पट्टी बांधते
हैं ताकि वह
किनारे न देख
सके। सामने
देखता है; उसको
दिखाता है
हमेशा कि
मार्ग सीधा है,
कहीं जा रहा
है वह। बैल को
भी भरोसा
दिलाना पड़ रहा
है कि तुम
कहीं पहुंच
रहे हो, कोई
मंजिल करीब आ
रही है, ऐसे
ही बेकार नहीं
चल रहे हो।
ऐसे ही
तुम्हारे मन
पर पट्टियां
हैं। मन भी
किनारे नहीं
देख पाता, मन
भी आगे ही
देखता है। मन
को तुम जरा
समझने की कोशिश
करना। तो ठीक
कोल्हू के बैल
जैसी हालत है।
घूमता है
चक्कर में, लेकिन सोचता
है कि कहीं
पहुंच रहे
हैं। कल भी तुमने
क्रोध किया था,
परसों भी
तुमने क्रोध
किया था।
परसों भी पछताए
थे, कल भी पछताए थे।
आज भी क्रोध
करोगे और आज
भी पछताओगे।
और अगर उस
सौभाग्य का
उदय न हुआ
जिससे तुम जाग
जाओ तो कल भी तुम
क्रोध करोगे,
कल भी
पछताओगे। और
तुम दोहराओगे
वही-वही। पुनरुक्ति
का अर्थ है कि
हम गोल-गोल
घूम रहे हैं। वहीं
से चलते हैं, वहीं पहुंच
जाते हैं। फिर
चलने लगते हैं,
फिर पहुंच
जाते हैं।
लेकिन आंख पर
कोई गहरी पट्टी
है।
और वह
पट्टी यह है
कि आंख सब
दिशाओं में एक
साथ नहीं देख
सकती। मन सब
दिशाओं में एक
साथ नहीं देख
सकता, मन एक
दिशा में ही
देख सकता है।
मन वन-डायमेंशनल
है, एक
आयामी है। और
चेतना मल्टी
डायमेंशनल है,
बहुआयामी
है। तो जब तक
तुम मन को न
हटा दोगे तब तक
तुम बहुआयामी
राजपथ को न
देख पाओगे, जो सब तरफ
खुला है। जहां
कहीं कोई
दीवार भी नहीं,
कोई बाधा भी
नहीं। बस तुम
उठो और चलो, और तुम उस पर
ही हो।
ध्यान
बहुआयामी है।
ध्यान और मन
का यही फर्क है।
मन एक तरफ
देखता रहता
है। जब क्रोध
करता है तो
क्रोध को ही
देखता है, करुणा
को नहीं देख
पाता। जब
प्रेम करता है
तो प्रेम को
ही देखता है, घृणा को
नहीं देख
पाता। जब
प्रसन्न होता
है तो
प्रसन्नता को
देखता है, अप्रसन्नता
को नहीं देख
पाता, खिन्नता
को नहीं देख
पाता। जब खुश
होता है तो खुशी
को देख पाता
है, उदासी
को नहीं देख
पाता, जो
कि किनारे ही
खड़ी है, जो
कि पास ही खड़ी
है, जो कि
खुशी का हिस्सा
है, जो कि
उसका दूसरा
पहलू है।
विपरीत को
नहीं देख पाता,
बस एक को
देख पाता है।
जैसे ही तुम
मन को हटा कर रख
देते हो और
तुम्हारी
चेतना के
बहुआयामी द्वार
खुलते हैं, तुम सब एक
साथ देख पाते
हो--युगपत।
खुशी आती है तो
उसके पीछे
छिपा हुआ दुख
भी तुम देख
पाते हो। तब
खुशी खुशी
नहीं रह जाती,
दुख दुख
नहीं रह जाता।
दुख आता है तो
उसमें छिपे
सुख को भी तुम
देख पाते हो।
रात तुम्हें
सुबह दिखाई
पड़ती है, भरी
दुपहरी में
तुम्हें रात
दिखाई पड़ती है;
क्योंकि वे
दोनों एक हैं।
तब तुम्हारे
दुख में पीड़ा
नहीं रह जाती,
तब
तुम्हारे सुख
में उत्तेजना
नहीं रह जाती;
तब तुम
जानते हो कि
सुख दुख है, दुख सुख है।
तब तुम दोनों
से दूर अलग हो
जाते हो। तब
तुम स्वभाव
में ठहर जाते
हो।
स्वभाव
न तो सुख है, न
दुख। स्वभाव
परम शांत, परम
मौन, परम
विराम, विश्राम
है, जहां
सब उत्तेजनाएं
खो
गईं--प्रीतिकर,
अप्रीतिकर।
यह स्वभाव
तुम्हारे पास
मौजूद है।
लेकिन मन
तुम्हें
पगडंडियां
सुझाता है। और
मन कहता है, यह मार्ग तो
बहुत लंबा है,
मैं
तुम्हें छोटा शार्टकट
बता देता हूं,
ऐसे चले जाओ,
जल्दी
पहुंच जाओगे। छोड़ो
रास्ते को, मैं तुम्हें
शार्टकट,
छोटा सा
सूक्ष्म
रास्ता बता
देता हूं। मन
हमेशा शार्टकट
खोज रहा है।
और ध्यान रखना,
परमात्मा
की तरफ कोई शार्टकट
नहीं है। जो
भी परमात्मा
की तरफ छोटा
रास्ता खोज
रहा है...।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
कोई ऐसी
तरकीब बता दें
कि जल्दी हो
जाए। मन हमेशा
जल्दी कर रहा
है। और तुमने
जल्दी की कि
तुम हमेशा
गलती करोगे।
धैर्य चाहिए,
जल्दी
नहीं।
तुम्हारी
जल्दी के कारण
तुम मन की
अड़चन में पड़
जाते हो, मन
की उलझन में
पड़ जाते हो।
और मन कहता है,
यह जल्दी का
रास्ता है, उस रास्ते
पर तो बहुत
वक्त लगेगा।
इतना बड़ा रास्ता
है, तुम
जल्दी न पहुंच
पाओगे। जिसके
ओर-छोर का पता
नहीं है, आदि-अंत
का कोई पता
नहीं है, इतने
विराट स्वभाव
में उतर कर
तुम खो जाओगे।
तुम कहां सागर
में अपनी नौका
उतार रहे हो!
मैं तुम्हें
छोटी सी नहर
बता देता हूं,
इसमें
यात्रा सुगम
होगी, सुरक्षित
होगी, डूबने
का डर न होगा।
मन तुम्हें
सुरक्षा का आश्वासन
देता है। उसी
आश्वासन में
तुम भटक जाते
हो। मन भरोसे
दिलाने में
बड़ा कुशल है।
और बार-बार तुम
भूल जाओ और
बार-बार भटको,
तो भी मन
भरोसे दिलाता
है, फिर भी
तुम उसकी मान
लेते हो। तो
मान लेने के तुम्हारे
भीतर एक ही
कारण है कि
तुम भी जल्दी
की इच्छा कर
रहे हो।
इसलिए मैं
साधकों को
कहता हूं कि
तुम जल्दी की
इच्छा छोड़
देना, तो ही
तुम स्वभाव के
मार्ग से चल
सकोगे। जल्दी
शैतान की।
जल्दी जिसने
की वह शैतान
के पास पहुंच
जाएगा। जो
धैर्य से चला
वही परमात्मा
तक पहुंचता है;
क्योंकि
धैर्य के खेत
में ही
परमात्मा के
बीज बोए जा
सकते हैं। और
जिसका धीरज
इतना अनंत है
कि जो किसी
जल्दी में ही
नहीं है, जो
कहता है अगर
अनंत में होना
हो तो ठीक, अगर
अनंत काल में
होता हो तो भी
हम राजी हैं।
और तब बड़ी
अनूठी घटना
घटती है कि जो
अनंत काल ठहरने
को राजी है वह
इसी क्षण भी
पहुंच जाता
है। क्योंकि
यह जो पथ है
स्वभाव का, यहां पथ और
मंजिल अलग-अलग
नहीं हैं, मार्ग
ही मंजिल है।
यहां तुम जहां
खड़े हो वहीं
परमात्मा भी
खड़ा है। फासला
जरा भी नहीं
है। तुम राजी
हुए विश्राम
के लिए, तुम
राजी हुए तनाव
छोड़ने को, तुमने
जल्दी की
आकांक्षा छोड़ी,
तुम्हारे
मन ने जल्दी
के कारण यहां-वहां
भटकना बंद
किया, तुम
अपने गृह-नीड़
में बैठ गए, जैसे सांझ
पक्षी अपने नीड़ में
आकर बैठ जाता
है ऐसे संसार
को छोड़ कर तुम
अपने भीतर के नीड़ में आ
गए और विश्राम
से बैठ गए, और
तुमने कहा, मुझे कोई
जल्दी नहीं
है--इसी क्षण
भी घटना घट सकती
है।
जिस
स्कूल में, जिस
गुरुकुल में
जीसस ने
शिक्षा पाई उस
गुरुकुल का नाम
था इसेनीस।
उस परंपरा को
मानने वाले
लोग इसेनीस
कहलाते थे। यह
शब्द बड़ा
अदभुत है। इस
शब्द का अर्थ
है: धैर्य
रखने वाले, जो धीरज रख
सकते हैं। बस
यही उनका गुण
था। लेकिन जो
धीरज रख सकता
है उसे सब मिल
जाता है। क्योंकि
धीरज रखते ही
मन की
पगडंडियों का
जो हमारे मन में
प्रलोभन है वह
छूट जाता है।
मन कहता है, मैं जल्दी
करवा दूंगा; हम कहते हैं,
जल्दी ही
नहीं है। मन
कहता है, मैं
छोटा रास्ता
बता देता हूं;
हम कहते हैं,
हमें कहीं
जाना नहीं है,
हम जहां हैं
तृप्त हैं, हम जैसे हैं
ठीक हैं। उसकी
मर्जी ही
हमारी मर्जी
है। अब हमारा
कोई मार्ग
नहीं, उसका
मार्ग ही
हमारा मार्ग
है। तब बड़ा
सरल है। तब
कुछ भी इससे
ज्यादा सरल
नहीं है।
लेकिन
सरलता कठिन हो
गई। सरलता
इसलिए कठिन हो
गई कि सरलता
में चुनौती
नहीं मालूम
होती तुम्हें।
सरलता में
चुनौती हो भी
नहीं सकती।
कठिनता में
चुनौती होती
है। तो तुम
ध्यान रखना कि
तुम अक्सर
कठिन चीजों को
चुनते हो। तुम
इसीलिए चुनते
हो कि वह कठिन
है। क्योंकि
कठिन लगने से
तुम्हें लगता
है कि जीतने का
कोई उपाय है, जीत
कर दिखा
देंगे।
अहंकार को
तृप्ति मिलती
है, अहंकार
हमेशा कठिन के
प्रति
आकर्षित होता
है। सरल के
प्रति अहंकार
को क्या
आकर्षण? क्योंकि
सरल को कर
लिया तो भी तो
कर्ता का भाव न
जगेगा। कठिन
को किया तो
कर्ता का भाव
जगेगा। अति
कठिन को किया
तो बड़ा
कर्तृत्व का
बोध पैदा
होगा। अगर महा
कठिन को कर
लिया, अगर
तुम गौरीशंकर
के शिखर पर चढ़
गए, तो
तुम्हारे
अहंकार का कोई
ओर-छोर न
रहेगा।
कठिन
में बुलावा है; सरल
में कोई
बुलावा नहीं
है। और ध्यान
रखना, कठिन
में जैसे
अहंकार की
तृप्ति है और
जीत का आकर्षण
है, ठीक
उससे उलटी दशा
सरल की है।
सरल में कोई
चुनौती नहीं
है, जीत का
कोई उपाय नहीं
है। जो हारने
को राजी है
वही सरल में
उतर सकता है।
क्योंकि सरल
में उतरना तो
समर्पण है, चुनौती
नहीं। सरल में
उतरने में कोई
संकल्प ही
नहीं है, विश्राम
है। कठिन में
कर्तृत्व है।
सरल में तो
समर्पण है।
कठिन में तुम
हो, सरल
में तुम न
रहोगे। कठिन
तैरने जैसा है,
सरल बहने
जैसा है। धारा
ले जाएगी। तो
कठिन को तुम
चुनना पसंद
करते हो। तुम
कहते कितना ही
हो कि जल्दी
कैसे हो जाए, कुछ सरल
मार्ग बता दें,
लेकिन
तुम्हारे
भीतर गहन
आकांक्षा
कठिन की है।
और तुम जब तक
कोई कठिन न
बताए तब तक
तुम कहोगे, यह इतना सरल
है, इससे
क्या होगा?
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि क्या
होगा? शांत ही
बैठने से क्या
हो जाएगा? न
वे कभी बैठे
हैं, न कभी
उन्होंने
स्वाद चखा। वे
कहते हैं, ऐसा
खाली आंख बंद
करके बैठने से
क्या होगा? क्या
परमात्मा
इससे मिल
जाएगा? क्या
नाचने-कूदने,
नृत्य, इससे
परमात्मा मिल
जाएगा? तब
तो नाचने
वालों को ही
मिल जाता।
उन्हें
पता नहीं कि
नाचने वाला
परमात्मा से मिलने
के लिए नाच ही
नहीं रहा है; नाचने
वाला पैसे के
लिए नाच रहा
है। ध्यानी किसी
और बात के लिए
नाचता है। ऊपर
से दोनों नाचते
हुए दिखाई
पड़ते हैं।
मीरा भी नाचती
दिखाई पड़ती
है। एक फिल्म
अभिनेत्री भी
नाचती दिखाई
पड़ती है। और
हो सकता है, फिल्म
अभिनेत्री
ज्यादा
कुशलता से नाच
रही हो। मीरा
का नाच तो अनगढ़
होगा; किसी
विद्यापीठ
में सीखा तो
नहीं। यह नाच
तो मौज का है।
यह नाच किसी
को दिखाने को
थोड़े ही है।
और मीरा
तुम्हारे
सामने थोड़े ही
नाच रही है, मीरा अपने
परमात्मा के
सामने नाच रही
है। वहां कला
नहीं पहचानी
जाती, वहां
हृदय की पहचान
है। और मीरा
का नाच एक प्रार्थना
है, एक
पूजा है।
लेकिन ऊपर से
तो एक जैसा
है।
तो लोग
मुझसे कहते
हैं,
नाचने से
क्या होगा? कहीं नाचने
से मिलता होता
तो नाचने
वालों को मिल
जाता। ये लोग क्या
कह रहे हैं? ये यह कह रहे
हैं कि ये
इतनी सरल
बातें हैं कि
इनसे नहीं हो
सकता। कोई
उलटी बात
बताएं, कोई
कठिन बात
बताएं, जिसमें
चुनौती हो।
इन नासमझों
की वजह से
दुनिया में
ऐसी
पद्धतियां भी
विकसित हो गई
हैं जिनका
आकर्षण कुल
इतना है कि वे
बहुत कठिन हैं, दुर्गम
हैं। उनसे कोई
कभी नहीं
पहुंचता कहीं,
लेकिन उनकी
दुर्गमता के
कारण आकर्षण
है। क्योंकि
अहंकारी उनकी
तरफ आंदोलित
हो जाते हैं। इसे
बहुत ठीक से
समझ लेना।
अहंकार चाहता
है चुनौती, संघर्ष का
मौका, लड़ने
का उपाय, जीत
की सुविधा, कि वह बता दे
कि मैं जीत
गया। तब छोटे बच्चे
से थोड़े ही
तुम कुश्ती लड़ोगे! अगर
एक छोटा बच्चा
और गामा को
चुनौती दे दे
कि आओ, लड़ो! तो गामा
चुपचाप वहां
से चला जाएगा।
इससे लड़ कर
फायदा क्या? इसको अगर
जीत भी लिया
तो लोग
हंसेंगे कि
इसमें जीतने
का कोई सवाल न
था। और अगर
हार गए तो
मारे गए।
मुस्कुरा कर
बच्चे की पीठ थपथपा कर
गामा चला
जाएगा। वह
चुनौती नहीं
है।
अहंकार
के लिए समर्पण
तो बच्चे जैसा
है। उससे चुनौती
नहीं मिलती, उससे
लड़ कर कोई सार
नहीं है। कोई
कठिन बात बताओ!
कोई बात जो
बड़ी दुर्गम
हो। कोई बात
जो विरले ही
कर सकें। कोई
बात जो तलवार
की धार पर
चलने जैसी हो।
तब! तब
तुम्हें
लगेगा कि हां,
करने जैसा
है।
और यही
करने जैसा
नहीं है। करने
जैसा तो वही है
जहां कोई
चुनौती नहीं
है,
जहां
कानों-कान
किसी को खबर
भी न पड़ेगी कि
तुम कुछ किए, जो अक्रिया
जैसी है। जो
विश्राम है, जहां समर्पण
है, और
बहने की
तैयारी है, और नदी को कहना
है कि अब तू
जहां ले जाए, तेरी जो
मर्जी! तब सरल
है।
अब हम
लाओत्से के
सूत्र समझने
की कोशिश
करें।
"मुख्य
पथ (ताओ) पर चल
कर मैं यदि तपःपूत
ज्ञान को
प्राप्त होता,
तो मैं
पगडंडियों से
नहीं चलता।'
जब
ज्ञान उपलब्ध
हो रहा हो और
जीवन तैयार हो
बांटने को, देने
को, तब भी
तुम
पगडंडियां
चुनते हो। ताओ
है धर्म। ताओ
है स्वभाव।
संप्रदाय हैं
पगडंडियां।
अगर मैं
तुम्हें धर्म
दूं, तुम
लेने को राजी
नहीं। तुम
हिंदू धर्म
चाहते हो। तुम
इसलाम धर्म
चाहते हो। तुम
बौद्ध धर्म चाहते
हो। मैं नानक
पर बोल रहा था
कुछ दिन पहले
तो कुछ सिक्ख
दिखाई पड़ते
थे। वे पहले
भी कभी दिखाई
नहीं पड़े थे, उसके बाद
फिर नदारद हो
गए, फिर
दिखाई नहीं
पड़ते। मैं
महावीर पर
बोलता हूं तो
जैनी शक्लें
मुझे दिखाई
पड़ने लगती
हैं। महावीर
पर नहीं बोलता
हूं, वे
विलीन हो जाते
हैं, वे
फिर नहीं
दिखाई पड़ते।
लोगों को धर्म
से कोई प्रयोजन
नहीं है, पगडंडियों
से प्रयोजन
है। मार्ग से
कोई प्रयोजन
नहीं है, मार्गों
से प्रयोजन
है। धर्म तो
एक है; संप्रदाय
अनेक हैं। एक
से कोई नाता
नहीं है, अनेक
की आकांक्षा
है।
लोग
जानना चाहते
हैं कि जैन
धर्म क्या है? हिंदू
धर्म क्या है?
इसलाम धर्म
क्या है?
धर्म
भी कहीं हिंदू, मुसलमान
और इसलाम होता
है? धर्म
का भी कोई
विशेषण है? नाम है? लेकिन
ये जो
संप्रदाय हैं
ये मन को
लुभाते हैं।
और सभी
संप्रदाय
कठिन हैं।
धर्म बिलकुल
सरल है। धर्म
ऐसा सरल है कि
जैसे घर के
सामने से गंगा
बह रही हो और
तुम प्यासे
खड़े हो।
संप्रदाय
बहुत कठिन है।
कठिन होने का
कारण है।
क्योंकि धर्म
तो स्वभाव है
अस्तित्व का,
संप्रदाय
मनुष्य-निर्मित
है। धर्म
मनुष्य-निर्मित
नहीं है, धर्म
ने ही मनुष्य
को निर्मित
किया है। धर्म
से ही मनुष्य
आया है। वह
उसका मूल
स्रोत और उदगम
है। लेकिन
संप्रदाय
मनुष्य-निर्मित
हैं। वे
मनुष्य ने
बनाए हैं। और
जो मनुष्य ने बनाया
है, वह
सत्य तक न ले
जा सकेगा।
मनुष्य के
बनाए को तो
छोड़ना है।
मनुष्य के
बनाए से तो
पार उठना है।
मनुष्य के
बनाए से तो
हटना है।
लेकिन
जो भी मनुष्य
ने बनाया है
वह हमें आकर्षित
करता है।
क्योंकि वह
हमारे मन के अनुकूल
बैठता है। वह
हमने ही बनाया
है;
वह हमारा ही
खिलौना है।
मंदिरों में
जो भगवान की
मूर्तियां
हैं वे आदमी
की बनाई हैं।
उनके सामने हम
झुक सकते हैं।
क्योंकि हमें
पता है कि हम
झुक किसी के
भी सामने नहीं
रहे हैं; अपनी
ही बनाई हुई
मूर्ति है।
झुकना झूठा
है। समर्पण
भ्रांति है।
क्योंकि इस
मूर्ति को हम
ही खरीद लाए
थे और हम ही ने
प्रतिष्ठित
किया है। और जिस
दिन चाहें
इसको उठा कर
फेंक दे सकते
हैं। यह
समर्पण खेल है;
यह
वास्तविक
नहीं है। और
मंदिर की
मूर्ति कुछ भी
न कह सकेगी।
अगर हम इसे
उठा कर मंदिर
के बाहर फेंक
दें तो क्या
करेगी मंदिर
की मूर्ति?
लेकिन
इसके सामने हम
झुकते हैं। और
अस्तित्व का
परमात्मा
चारों तरफ है; वहां
हम कभी नहीं
झुकते।
क्योंकि वहां
जो झुका वह
फिर कभी उठ न
सकेगा। वहां
जो झुका वह
गया। वहां जो
झुका वह खोया।
वहां से वापस
आने की कोई
घड़ी नहीं है।
उस मंदिर में
प्रवेश हुआ कि
लौटना नहीं
होता। उस
मंदिर में
प्रवेश ही तब
होता है जब जो
चीज लौट सकती
थी उसे तुम
मंदिर के बाहर
छोड़ जाते हो।
वह अहंकार है
जो वापस लौट
सकता था।
लेकिन
पत्थर की
मूर्तियां
कहीं
तुम्हारे अहंकार
को मिटा
सकेंगी? पत्थर
की मूर्तियों
की सामर्थ्य
क्या है? तुमने
ही गढ़ी
हैं। और आदमी
बड़ा चालबाज
है। अपनी ही गढ़ी
मूर्तियों के
सामने घुटने
टेक कर खड़ा
होता है। यह
प्रार्थना
नहीं है, प्रार्थना
का अभिनय है।
धोखा किसको दे
रहे हो तुम? सारा
अस्तित्व तुम
पर हंसता है।
छोटे बच्चों को
तो तुम
मुस्कुराते
हो अगर वे
अपने गुड्डा-गुड्डी
का विवाह रचा
रहे हों। तो
तुम हंसते हो,
कहते हो, क्या कर रहे
पागलपन! सोचते
हो मन में कि
बच्चे हैं।
लेकिन तब, जब
तुम रामलीला
खेलते हो और
एक लड़के को
राम बना लेते
हो और एक लड़की
को सीता बना
देते हो और तुम
इन अभिनेताओं
के चरणों में
सिर रखते हो
और जुलूस निकालते
हो, शोभा-यात्रा,
बारात जा
रही है राम की
और तुम बड़े
उत्तेजित हो
उठते हो; तुम
छोटे बच्चों
से कुछ भिन्न
कर रहे हो? कुछ
भेद है? तुम्हारी
इस
शोभा-यात्रा
में और छोटे
बच्चों की
बारात में कुछ
फर्क है? खेल-खिलौने
हैं। तुम बूढ़े
हो गए, फिर
भी बचपना न
गया।
मंदिरों
में तुम झुकते
हो,
वह बचपना
है। अस्तित्व
के सामने
झुको। वहां तुम
अकड़े खड़े रहते
हो। वहां तुम
अपनी चलाने की
कोशिश करते
हो। और तुम
जानते हो कि
वहां अगर तुम
झुके तो तुम
गए। क्योंकि
वहां झुकना
वास्तविक ही
हो सकता है।
वास्तविक
परमात्मा के
सामने झुकना
भी वास्तविक
होगा। वहां
असली सिक्के
ही स्वीकार किए
जाते हैं।
नकली
परमात्मा के
सामने झुकोगे,
वहां नकली
सिक्के ही
चलते हैं, वहां
असली का कोई
सवाल ही नहीं
है। तुम्हारे
मंदिर, तुम्हारी
मस्जिद, तुम्हारे
गुरुद्वारे
तुम्हारे
बनाए हुए हैं।
और
परमात्मा का
मंदिर तो
मौजूद ही है।
तुम नहीं थे
तब भी था; तुम
नहीं रहोगे तब
भी रहेगा। यह
आकाश ही उसका गुंबज
है। यह पृथ्वी
ही उसकी
आधारशिला है।
उसे बनाने की
कोई जरूरत
नहीं है। वह
बना ही हुआ है।
वह तुमसे
ज्यादा
प्राचीन है।
वह तुमसे ज्यादा
सनातन है। तुम
उससे ही आए
हो। तुम उसी
में वापस जाओगे।
लेकिन वहां
सचाई का
सिक्का ही चल
सकता है।
तुम
धार्मिक होना
नहीं चाहते, इसलिए
तुमने मंदिर
बनाए हैं। वह
तुम्हारी तरकीब
है बचने की।
तुम जो हो
वैसे ही रहना
चाहते हो।
उसमें ही
तुमने एक कोना
निकाल कर
मंदिर भी बना
दिया है।
लेकिन वह
तुम्हारे
होने का ही हिस्सा
है। वह
तुम्हारी
बेईमानी और
तुम्हारे
धोखे का ही
हिस्सा है।
तुम अपने को
समझा रहे हो।
और तुमने खूब
गहरा धोखा दे
लिया है।
मंदिर जाकर तुम
समझ लेते हो, बात पूरी हो
गई, हो गए
तुम धार्मिक।
कभी एक
व्रत-उपवास कर
लिया। कभी चार
पैसे मंदिर
में चढ़ा दिए।
वह भी तुम चार चढ़ाते हो
चार हजार
मिलने की आशा
में।
तुम्हारी
दुकान बंद
नहीं होती, वह तुम्हारे
मंदिर में भी
खुली है। और
तुम्हारा
दुकानदार
वहां भी अपने
काम में लगा
है। इस धोखे
को ठीक से पहचानो।
ये पगडंडियां
हैं जिनसे तुम
भटके हो।
सत्य
को जानना हो
तो किसी भी
शास्त्र की
कोई जरूरत
नहीं है।
क्योंकि
शास्त्र तो
शब्द ही देगा।
शब्दों से
कैसे स्वाद
आएगा? शब्दों
में कोई स्वाद
नहीं। शब्दों
से कैसे गंध
आएगी? शब्दों
में कोई गंध
नहीं। शब्दों
से ज्यादा निर्जीव
कोई चीज जगत
में तुमने
देखी है? कोई
शब्द जिंदा
नहीं होता, सभी शब्द
मरे हुए हैं।
हवा में पैदा
हुई लकीरें खो
जाती हैं।
बबूले हैं पानी
में बने, वे
भी शब्दों से
ज्यादा
वास्तविक
हैं। शब्द तो
हवा में बने
बबूले हैं।
पानी के बबूले
में तो कम से
कम पानी की एक
बड़ी झीनी और
पारदर्शी दीवार
होती है, शब्द
में उतनी भी
दीवार नहीं
है। वह हवा का
ही बबूला है; हवा में उठी
लहर है, खो
जाएगी। सभी
शास्त्र शब्द
हैं।
शास्त्रों को
तुम पकड़ कर
बैठे हो। सत्य
की तुम्हें
कोई आकांक्षा
नहीं है।
शास्त्र
पगडंडियां
हैं। सत्य ताओ
का राजपथ है।
वह खुला है।
सत्य को जानना
हो तो ठीक
उलटे चलना
पड़ेगा उस चाल
से, जो तुम
शास्त्र को
जानने के लिए
चलते हो।
शास्त्र
को जानना हो
तो कुशल
स्मृति चाहिए, याददाश्त
चाहिए, तर्क-बुद्धि
चाहिए, विचार
की क्षमता
चाहिए, मनन-चिंतन
चाहिए, गणितत्तर्क चाहिए।
सत्य को जानना
हो तो ये कुछ
भी नहीं चाहिए--न
मनन, न
चिंतन, न
तर्क, न
बुद्धि। सत्य
को जानना हो
तो शून्यता
चाहिए। सत्य
को जानना हो
तो तुम दर्पण
की भांति हो
रहो, ताकि
सत्य का
प्रतिफलन बन
सके।
तुम्हारा भराव
नहीं चाहिए, तुम्हारा
खालीपन
चाहिए। इसलिए
तो लाओत्से कहता
है कि जो
सीखने से मिल
जाए वह ज्ञान
नहीं। और संत
सिखाते नहीं,
संत भुलाते
हैं। संत
तुम्हें एक ही
बात सिखाता है
कि कैसे तुम
सब सीखे
हुए को हटा
दो। संत
तुम्हारे मन
को हटाता है, ताकि
तुम्हारी आंख
पर बंधी हुई
कोल्हू के बैल
जैसी जो पट्टियां
हैं वे हट
जाएं; तुम
सब तरफ खुले
होकर देख सको।
हिंदू
गीता को पढ़
सकता है, लेकिन
कुरान को
नहीं। यह
कोल्हू का बैल
है, एकतरफा
है। गीता तो
पढ़ सकता है, क्योंकि
उतनी आंख
हिंदुओं ने
इसकी खुली छोड़ी
है; बाकी
दोनों तरफ पट्टियां
बंधी हैं। उन
पट्टियों में
फिर मुसलमान,
ईसाई, जैन,
बौद्ध, सब
छिप गए हैं।
मुसलमान
कुरान पढ़ सकता
है,
गीता नहीं।
इसका यह मतलब
नहीं है कि
नहीं पढ़ सकता।
पढ़ सकता है, मुसलमान
गीता पढ़ सकता
है, क्योंकि
वह भी भाषा पढ़
सकता है। भाषा
में क्या अड़चन
है? गीता
उर्दू में
लिखी है, अरबी
में लिखी है, पढ़ सकता है।
लेकिन हृदय पर
कहीं कोई चोट
न पड़ेगी। हां,
अनेक बार
गीता में
भूलें दिखाई
पड़ेंगी। अनेक बार,
जगह-जगह, जगह-जगह
गीता में
भूलें दिखाई
पड़ेंगी। जब
कृष्ण कहेंगे,
सर्वधर्मान परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज,
सब छोड़ कर
मेरी शरण आ, मुसलमान
हंसेगा।
अहंकार हो
गया। यह आदमी
कुफ्र बोल रहा
है। पापी है।
ऐसे मंसूर को
ही तो मारा
मुसलमानों
ने। वह ऐसी ही
बकवास कर रहा
था, कृष्ण
जैसी। कह रहा
था: अनलहक,
अहं ब्रह्मास्मि।
हिंदू की भाषा
बोल रहा था।
मुसलमान को
नहीं जंचा। यह
बात ही गलत
है। तुम खुदा
के चरणों तक
पहुंच सकते हो,
खुदा कभी
नहीं हो सकते।
यह मुसलमान की
आंख है।
हिंदू
कहते हैं कि
अगर चरणों तक
ही पहुंच पाए और
खुदा न हो पाए
तो पहुंच ही न
पाए। बात
अधूरी रह गई।
यात्रा पूरी न
हुई। तो जब तक
अहं
ब्रह्मास्मि
का उदघोष
न हो जाए, जब तक
तुम्हारा
पूरा तन-प्राण
न कह दे कि मैं
ब्रह्म हूं, तब तक अधूरी
है बात। जब
हिंदू कुरान
को पढ़ता है तो
वह
मुस्कुराता
है। वह कहता
है, ठीक है,
कामचलाऊ है,
कुछ बड़ी
गहरी बात नहीं
है। क्योंकि
मोहम्मद कहते
हैं, मैं
उसका केवल
पैगंबर हूं, उसका
संदेशवाहक
हूं, उसका
दूत हूं।
हिंदू का मन
कहता है कि
दूत की क्या
सुनना? कृष्ण
की ही क्यों न
सुनें जो कहते
हैं, अहं
ब्रह्मास्मि,
मैं स्वयं
वही हूं। दूत
से गलती हो
सकती है। मध्यस्थों
को क्यों बीच
में लें? दलालों
की क्या जरूरत?
और जिनकी
इतनी ही
हिम्मत नहीं
है कहने की कि
मैं वही हूं
इनकी बात का
भरोसा क्या? इनकी अथारिटी
क्या?
मुसलमान
जब कृष्ण को
पढ़ता है तो वह
सोचता है, यह
दावेदार, यह
अहंकार है।
क्योंकि
ज्ञानी कहीं
दावा करता है!
ज्ञानी तो
विनम्र होता
है। वह तो
कहता है, मैं
कुछ भी नहीं
हूं। जैसा
मोहम्मद कहते
हैं कि मैं तो
कुछ भी नहीं
हूं, उसका
एक दूत हूं--एक
खबर लाने वाला,
एक डाकिया।
उसकी चिट्ठी
तुम तक पहुंचा
दी, बात
खत्म हो गई।
इससे ज्यादा
मेरा कोई
अधिकार नहीं
है। यह विनम्र
आदमी का लक्षण
है। यह संतत्व
की बात है। यह
कृष्ण, यह
तो दंभी मालूम
पड़ता है। यह
तो हद, आखिरी
दंभ है। ये
उपनिषद, ये
तो
अहंकारियों
की घोषणाएं
मालूम पड़ते
हैं।
जैन
हिंदुओं को पढ़े, नहीं
पढ़ पाता। यह
सब पागलपन
दिखाई पड़ता
है। जैन जब
गीता को पढ़ता
है तो सिवाय
महा हिंसा के
कुछ भी नहीं
दिखाई पड़ती।
और यह आदमी
कृष्ण जो हिंसा
करवाने की
सहायता कर रहा
है। अर्जुन
जैनी मालूम
पड़ता है कि कह
रहा है कि
क्यों मारूं?
क्यों
हत्या करूं? पहला गांधीवादी।
वह यही तो कह
रहा है कि मैं
हिंसा करने से
बचना चाहता
हूं, क्यों
मारूं? और अपने ही
हैं लोग। और
वह भी धन के
लिए मारूं?
पद के लिए? प्रतिष्ठा
के लिए? राज्य
के लिए? राज्य
किस काम आएगा?
वह बड़ी
ज्ञान की
बातें बोल रहा
है।
तो
जैनी अगर पढ़े
या गांधीवादी
अगर पढ़े, खुद
गांधी पढ़ते थे
तो भी वह
अर्जुन ही
उनको जंचता
है, कि बात
तो अर्जुन ही
ठीक कह रहा
है। गांधी संकोच
के वश कह नहीं
पाते, लेकिन
तरकीब
निकालते हैं।
कह नहीं पाते,
जंचती तो बात
अर्जुन की ही
है। मगर अब
हिंदू हैं गांधी,
इसलिए
गांधी की
मुसीबत है।
गांधी की
नब्बे परसेंट
बुद्धि तो जैन
की है।
क्योंकि वे
गुजरात में पैदा
हुए। गुजरात
में हिंदू भी
जैन हैं। गुजरात
की हवा जैन की
है। तो यह कह
भी नहीं सकते
कि कृष्ण गलत
हैं। हिंदुओं
को चोट पहुंचेगी।
जैनियों
ने तो कहा कि
कृष्ण गलत हैं, क्योंकि
उनको कोई
लेना-देना
नहीं।
उन्होंने नरक
में डाला हुआ
है; कृष्ण
मर कर नरक में
गए हैं। अभी
भी पड़े हैं--जैनियों
के शास्त्रों
में। और इस
कल्प के आखिर
तक पड़े
रहेंगे।
क्योंकि
अर्जुन तो भाग
रहा था हिंसा
से, महा
हिंसा से, महा
पातक से। और
इस आदमी ने सब
तरफ से
समझा-बुझा
कर...। कितनी
कोशिश की
अर्जुन ने
निकलने की इसके
जाल के बाहर!
तब तो अठारह
अध्याय पैदा
हुए! वह पूछता
ही गया, वह
हर तरफ से
कहता गया, मुझे
बचाओ, मुझे
जाने दो। मगर
कृष्ण हिंसा के
बड़े से बड़े
सेल्समैन
मालूम होते
हैं। आखिर उसको
समझा-बुझा कर
पट्टी पढ़ा दी।
और वह आदमी इस आदमी
के चक्कर में
आ गया। और
आखिर घबड़ा कर
या परेशान
होकर उसने कहा
कि ठीक, मेरे
भ्रम सब दूर
हो गए, अब
मैं लड़ता हूं।
जैन कैसे पढ़
सकता है हिंदू
की गीता को?
गांधी
कहते हैं कि
यह गीता तो
सिर्फ कहानी
है;
यह युद्ध
असली में हुआ
नहीं।
क्योंकि अगर
युद्ध हुआ है
तब तो फिर
कृष्ण ने
हिंसा करवाई।
असली में
युद्ध हुआ ही
नहीं; यह
तो एक पुराण
कल्पना है। और
युद्ध असली
में कौरव-पांडव
के बीच नहीं
है, युद्ध
तो बुराई और
भलाई के बीच
है। बस, तब रास्ता
गांधी ने
निकाल लिया।
अब कोई हिंसा
नहीं। बुराई
को मारने में
कोई हिंसा है?
यह सत और असत
के बीच युद्ध
है। इस युद्ध
में वास्तविक
खून नहीं गिरा
है। इसलिए
कृष्ण जोर दे
रहे हैं कि तू
काट! यह असलियों
को काटने के
लिए जोर नहीं
दे रहे हैं।
यह तो सिर्फ असत को, बुराई
को! तो
पुराण-कथा कह
कर रास्ता
निकाल लिया।
महाभारत एक
सत्य है जो
हुआ; उस
सत्य को भी
झुठला दिया।
कोई एक
पंथ को मानने
वाला दूसरे
पंथ को नहीं पढ़
सकता है।
हिंदुओं ने
जैन तीर्थंकरों
का उल्लेख ही
नहीं किया, सिर्फ
एक पहले को
छोड़ कर। और
पहले का भी
उल्लेख इसीलिए
किया है कि
पहला
करीब-करीब
हिंदू रहा
होगा।
क्योंकि वह
हिंदू घर में
पैदा हुआ था।
अभी जैन पैदा
नहीं हुए थे।
तो पहले का
उल्लेख है, ऋषभदेव का वेदों
में। फिर इसके
बाद किसी का
उल्लेख नहीं
करते वे। तेईस
तीर्थंकर, जो
जैनों के लिए महिमापुरुष
हैं, जिनसे
ऊंचा कुछ हो
नहीं सकता, इसी पृथ्वी
पर, इसी
पृथ्वी खंड पर
होते हैं, लेकिन
हिंदुओं ने
अपनी किताबों
में उल्लेख भी
नहीं किया।
भयंकर
उपेक्षा की।
बात ही नहीं उठाई।
इस योग्य भी
नहीं माना कि
विरोध करें।
जिसका हम
विरोध करते
हैं, उसको
भी हम स्वीकार
तो करते हैं
कि कोई योग्यता
है उसकी।
जिसकी हम
उपेक्षा करते
हैं उसको हम
इस योग्य भी
नहीं मानते कि
क्या
तुम्हारा
विरोध करना!
बकवास है सब, इतना भी
नहीं कहते हम।
हिंदू ऐसे
निकल गए हैं तेईस
तीर्थंकरों
के पास से कि
जैसे वे तेईस
तीर्थंकर हुए
ही नहीं। अगर
हिंदू
शास्त्रों
में देखें तो
कोई उल्लेख
नहीं आता; कहीं
कोई उल्लेख
नहीं आता।
आश्चर्यजनक
है!
मगर
अगर हम मनुष्य
के मन को
समझें तो सब
आश्चर्य समझ
में आ जाता
है। सबकी
आंखों पर पट्टियां
हैं। हिंदू
पट्टी बांधे
हुए निकल गए; तीर्थंकर
रास्ते पर
पड़ते नहीं
पट्टी के। फोकस
है, बाकी
सब अंधकार है।
उस फोकस में
राम और कृष्ण
पड़ते हैं, जैनों
के पहले
तीर्थंकर ऋषभदेव
पड़ जाते हैं, क्योंकि वे
हिंदू थे। ऋषभ
के मरने के
बाद धीरे-धीरे
जैन धर्म
संगठित हुआ और
अलग धारा बनी।
जैसे कि जीसस
का उल्लेख तो
यहूदियों में
मिल जाएगा, लेकिन फिर
जीसस के बाद
जो जीसस के
मानने वाले संत
हुए उनका कोई
उल्लेख नहीं
मिलेगा।
क्योंकि उनसे
कोई संबंध ही
न रहा। वह अलग
धारा हो गई।
पगडंडियों
की तलाश होती
है जब कि
राजपथ द्वार से
फैला हुआ है।
गंगा बह रही
है,
तब भी तुम
नल की टोंटियां
खोले बैठे हो,
जिनसे
बूंद-बूंद
पानी भी शायद
ही कभी टपकता
है। गंगा
द्वार से बह
रही है, तुम
अपने नल के
पास बैठे
प्रार्थना कर
रहे हो कि हे
नल, पानी
दे! कभी
बूंद-बूंद
टपकता है।
संप्रदाय से
बूंद-बूंद
पानी भी टपक
जाए तो काफी
है। क्योंकि
उतना पानी भी
संप्रदाय में
नहीं है।
ऐसा
हुआ कि एक
यहूदी फकीर के
संबंध में बड़ी
ख्याति थी कि
वह जब बोलता
था तो लोगों
के मनोभाव को
इस तरह छू
देता था, उनकी हृदयत्तंत्री
ऐसी बज उठती
थी कि कोई
रोता, कोई
हंसता; भावावेश
पैदा हो जाता
था। गांव के
एक अमीर आदमी
की मृत्यु
हुई। जैसा कि
अमीर आदमियों
के साथ होता
है, सारा
गांव जी-हजूरी
करता था, लेकिन
मन ही मन तोर्
ईष्या से भरा
था। तो ऊपर से
तो लोगों ने
कहा बड़ा बुरा
हुआ, लेकिन
भीतर से
प्रसन्न भी
हुए कि अच्छा
हुआ मरा यह
दुष्ट, झंझट
मिटी। अमीर
आदमी मरा था
तो घर के
लोगों ने इस
सूफी फकीर को
बोलने के लिए
बुलाया उसकी मृत्यु
पर। वह बोला
जैसा कि वह
सदा बोलता था।
उसने बड़ी
महिमा का
गुणगान किया,
लेकिन एक भी
आंख गीली न
हुई। परायों
की तो छोड़ दो, घर के लोगों
की भी आंख से
आंसू न गिरा।
लोग
बड़े चकित हुए।
जब फकीर बोल
चुका तो एक
आदमी ने उससे
पूछा कि क्या
मामला हुआ आज? सदा
तुम
भाव-उन्माद से
भर देते हो!
तुम बोलते क्या
हो, हृदय
तक छिद जाते
हैं तीर, लोग
रोते हैं। आज
एक आंख गीली
नहीं हुई! उस
फकीर ने कहा, हम क्या
करें? हमारा
काम टोंटी खोल
देना है। अब
पानी हो ही न।
टोंटी हमने
खोल दी, पानी
हो ही न तो हम
क्या करें? उसमें हमारा
कोई जिम्मा
नहीं है।
संप्रदाय
की टोंटी खोले
तुम बैठे रहो; पानी
वहां है नहीं।
और वहां
संप्रदाय की
टोंटी के
सामने तुम
कितनी ही पूजा
करो, कुछ
पाओगे न।
क्योंकि
संप्रदाय
आदमी निर्मित
है। महावीर तो
धर्म के महान
पथ पर हैं, महावीर
के पीछे चलने
वाला महावीर
की पीठ पर फोकस
लगा कर चल रहा
है। वह पथ का
उसे पता नहीं
है। वही
संप्रदाय और
धर्म का फर्क
है। महावीर तो
धर्म में चल
रहे हैं।
सांप्रदायिक
वह है जो महावीर
की पीठ देख कर
चल रहा है कि
वे कहां जा
रहे हैं। उसकी
नजर पीठ पर
लगी है।
अनुयायी पीठ
देख रहा है, वह राजपथ
नहीं जिस पर
महावीर चल रहे
हैं। बड़ा फर्क
है। महावीर की
पीठ देख कर
तुम यह मत
सोचना कि तुम
पहुंच जाओगे
कभी। क्योंकि
महावीर को भी
जो ले जा रहा
है वही तुम्हें
ले जाएगा; लेकिन
वह पथ तुम्हें
दिखाई नहीं पड़
रहा। और तुम्हारी
आंखें अगर
बहुत ही
ज्यादा जड़ हो
गईं महावीर की
पीठ पर
लगी-लगी, तो
फिर तुम्हें
वह पथ कभी भी
दिखाई न पड़ेगा।
तुम इतने
सांप्रदायिक
हो जा सकते हो
कि धर्म को
देखने की
सुविधा ही
समाप्त हो
जाए।
जितना
ज्यादा
सांप्रदायिक
आदमी उतना ही
कम धर्म की
संभावना रह
जाती है। आकाश
तो खुला रहता
है,
लेकिन उसकी
आंखें जड़ हो
गई होती हैं।
अब महावीर खो
गए हैं, वह
अभी भी उन्हीं
की पीठ पर आंख
लगाए हुए है।
अब वह पीठ भी
नहीं है। अब वह
चला जा रहा है
अंधेरे में।
अब अपनी ही
कल्पना है।
तुमने
कभी खयाल किया, तुम
एक खिड़की को
देखते रहो, फिर आंख बंद
कर लो, तो
खिड़की का
निगेटिव बनता
है आंख में।
बस संप्रदाय
वैसा ही है।
महावीर कभी थे
एक महिमावान
पुरुष। कभी
बुद्ध थे, कभी
राम थे, कृष्ण
थे, मोहम्मद
थे, जिन्होंने
जाना। फिर
उनके पीछे
चलने वाला उनकी
पीठ पर आंख
लगाए हुए है।
फिर
धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे
महावीर तो
अनंत में खो
गए। अब तुम्हारी
आंख में
निगेटिव रह
गया है। अब भी
तुम आंख बंद
करते हो तो
पीठ दिखाई
पड़ती है। और
तुम इस पीठ का
पीछा कर रहे
हो। अब तुम पागलपन
में उतरोगे।
अब तुम कहीं
भी नहीं जा
सकते, क्योंकि
यह पीठ कहीं
है ही नहीं, सिर्फ
तुम्हारी आंख
में बनी हुई
प्रतिमा है। वह
भी नकारात्मक
प्रतिमा है। पाजिटिव
तो खो गया, निगेटिव
को तुम लिए
बैठे हो। वह
तुम्हारे मन
में है।
संप्रदाय
तुम्हारी
व्याख्या, तुम्हारा
शास्त्र।
संप्रदाय
यानी तुम। महावीर
के नाम से
तुम्हीं बैठे
हो अब। बुद्ध
के नाम से
तुम्हीं बैठे
हो। बुद्ध को
गए बहुत वक्त
हो गया।
महावीर को गए
बहुत वक्त हो
गया। जीसस को
खोए अनंत में
बहुत समय हो
चुका। तुम
पूजा किए जा
रहे हो। तुम
उन मेघों की
पूजा कर रहे
हो जो बरस
चुके। अब खाली
आकाश में धुआं
रह गया है। जैसे
जेट निकलता है
कभी आकाश से, जेट तो जा
चुका होता है,
एक धुएं की
लकीर छूट जाती
है। ऐसे ही जब
भी महावीर, बुद्ध या
कृष्ण जैसे
पुरुष गुजरते
हैं आकाश से, तो वे तो
तीव्रता से
गुजर जाते हैं,
देर नहीं
लगती, धुएं
की लकीर छूट
जाती है; उनके
पीछे उनके
पदचिह्न छूट
जाते हैं। उन
पदचिह्नों की
पूजा चलती है।
तुम उनका
अनुसरण करते
रहते हो। वही
संप्रदाय है।
महावीर
जैसे होने का
ढंग महावीर के
पीछे चलना नहीं
है। बुद्ध
जैसे होने का
ढंग बुद्ध के
पीछे चलना
नहीं है।
क्योंकि
बुद्ध किसी
बुद्ध के पीछे
नहीं चल रहे
थे। अगर तुम
बुद्ध ही हो
जाना चाहते हो
तो तुम्हें
अपने ही तरह अपने
ही मार्ग से
स्वभाव को खोज
लेना पड़ेगा। जिस
दिन तुम
स्वभाव को
पहुंच जाओगे
उस दिन तुम वहीं
पहुंच जाओगे
जहां कोई भी
कभी पहुंचा
है। सब बुद्ध
जहां पहुंचे, सब
जिन जहां
पहुंचे, जहां
सब
अवतार-पैगंबर
पहुंचे, वहां
तुम भी पहुंच
जाओगे। लेकिन
पहुंचने का ढंग
होगा: उस पथ को
खोज लेना जो
चारों तरफ
मौजूद है।
तुम्हारा
ध्यान ही
तुम्हें ले
जाएगा। तुम्हारी
समाधि ही
तुम्हें जोड़ेगी।
अनुसरण से कुछ
भी न होगा।
"मुख्य
पथ (ताओ) पर चल
कर मैं यदि तपःपूत
ज्ञान को
प्राप्त होता,
तो मैं
पगडंडियों से
नहीं चलता।
मुख्य पथ पर चलना
आसान है; तो
भी लोग छोटी
पगडंडियां
पसंद करते
हैं।'
क्यों
पसंद करते हैं
लोग छोटी
पगडंडियां? छोटी
पगडंडियां
सुविधापूर्ण
मालूम होती हैं।
क्योंकि तुम
उनसे बड़े होते
हो। उन
पगडंडियों पर
चल कर तुम बड़े
मालूम पड़ते
हो। और लगता
है पगडंडी
तुम्हारी
कब्जे में है;
जहां ले
जाना चाहो
वहीं जाएगी।
तुम मालिक रहते
हो। सच तो यह
है कि पगडंडी
पर तुम नहीं
चलते, पगडंडी
तुम्हारे
पीछे चलती है।
क्योंकि पगडंडी
मनुष्य की
बनाई हुई है।
तुम अपने
हिसाब से
व्याख्या
करते जाते हो।
पगडंडी
तुम्हारे
पीछे चलती है।
कृष्ण
के पीछे तुम
चलते हो, ऐसा
मत सोचना तुम।
तुम पहले
कृष्ण की
व्याख्या
करते
हो--व्याख्या
तुम्हारी
है--फिर अपनी
व्याख्या के
पीछे तुम चलते
हो। इसलिए तो
कृष्ण को
मानने वाले
बहुत हैं, लेकिन
सब अलग-अलग
ढंग से चलते
हैं। क्योंकि
सबकी
व्याख्या अलग
है।
निम्बार्क, वल्लभ, रामानुज,
वे भक्ति से
चलते हैं, और
कृष्ण को
मानते हैं।
गीता से भक्ति
निकाल लेते
हैं। शब्दों
का जाल जमाते
हैं; गीता
में से भक्ति
निकल आती है।
फिर वे भक्ति को
चलते हैं। वे
कहते हैं, कृष्ण
के पीछे चल
रहे हैं।
पगडंडी उनका
पीछा कर रही
है, क्योंकि
पगडंडी वे
अपनी निकाल
लेते हैं। शंकर
और दूसरे अद्वैतवादी
कृष्ण से
ज्ञान निकाल
लेते हैं, ज्ञान
का मार्ग
निकाल लेते
हैं; उसके
पीछे चलते
हैं।
लोकमान्य
तिलक ने गीता
से कर्म निकाल
लिया और फिर
वे कर्म के
पीछे चलने
लगे। फिर लोकमान्य
के पीछे गांधी
और विनोबा की
कतार लगी। वे
सब फिर कर्म
को मान लिए।
कृष्ण से किसी
को मतलब है? तुम अपनी
व्याख्या के
पीछे चलते हो।
और तुम अपने
को समझाते हो
कि हम कृष्ण
के पीछे चल
रहे हैं। धोखा
किससे कहें?
तुम
मुझे सुनते
हो। तुम इस
खयाल में मत
रहना कि तुम
वही सुनते हो
जो मैं कहता
हूं। उस
भ्रांति में पड़ना मत।
क्योंकि वह
बहुत आसान है।
लेकिन तुम वह
करोगे न। तुम
जो करोगे वह
आसान नहीं है, कठिन
है। न केवल
कठिन है, भ्रांत
है, गलत
है। लेकिन
करोगे तुम
वहीं। तुम
पहले, मैं
जो कहूंगा, उसकी
व्याख्या
करोगे; व्याख्या
करके तुम उसे
अपने अनुकूल
बना लोगे; फिर
तुम उसके पीछे
चलोगे।
पगडंडी
का अर्थ है, जो
तुम्हारा
पीछा करती हो।
वह जो विराट
पथ है ताओ का
वह तुम्हारा
पीछा नहीं
करेगा; तुम्हें
उसमें डूबना
होगा। तुम उसे
अपने पीछे आने
वाली छाया नहीं
बना सकते।
महावीर ने तो
एक ही बात कही,
लेकिन
दिगंबर एक
व्याख्या
करता है, श्वेतांबर
दूसरी
व्याख्या
करता है। फिर दिगंबरों
में भी
छोटे-छोटे पंथ
हैं जो
अलग-अलग
व्याख्या
करते हैं।
श्वेतांबरों
में भी
छोटे-छोटे पंथ
हैं जो
अलग-अलग
व्याख्या
करते हैं। और
अगर तुम गौर
से देखो तो हर
आदमी का अपना
ही पंथ है; वह
अपनी
व्याख्या
करता है। धर्म
के अनुसार तुम
अपने को
निर्मित नहीं
करते, तुम
धर्म को अपने
अनुसार
निर्मित करते
हो।
और
दुनिया में दो
ही तरह के लोग
हैं। एक जो
सत्य के पीछे
चलते हैं, और
दूसरे वे जो
सत्य को अपने
पीछे चलाने की
कोशिश करते
हैं। सुगम
मालूम पड़ेगा
तुम्हें सत्य
को अपने पीछे
चलाना।
क्योंकि सत्य का
दावा भी हो
गया और सत्य
होने की जो
झंझट है उससे
भी बच गए।
धार्मिक बिना
हुए धार्मिक
होने का मजा
लोग ले रहे
हैं।
व्याख्या
मत करना। तुम
व्याख्या कर
भी कैसे सकोगे? सत्य
की कोई
व्याख्या
नहीं हो सकती,
सत्य का
अनुभव होता
है। अनुभव को
कोई व्याख्या
की जरूरत
नहीं। और जब
तुम व्याख्या
करोगे अपनी
अज्ञान की दशा
से, तुम जो
भी व्याख्या
करोगे वह गलत
होगी, वह
भ्रांत होगी।
फिर उसी
व्याख्या को
मान कर तुम
चलते रहोगे।
कहीं न
पहुंचोगे।
मेरे पास
लोग आते हैं।
वे कहते हैं
कि हम आपको दस
साल से सुन
रहे हैं और
आपकी मान कर
चलते हैं, लेकिन
कहीं पहुंचे
नहीं। मैं
उनसे कहता हूं,
तुम मेरी
मान कर कभी
चले नहीं। वे
मुझसे विवाद
करते हैं कि
नहीं, हम
मान कर चलते
हैं। मैं कहता
हूं, देखो,
अभी भी मैं
कह रहा हूं उसको
भी तुम नहीं
मान रहे! मैं
कह रहा हूं कि
तुम मेरी मान
कर नहीं चले, उसमें भी
तुम कह रहे हो
कि नहीं, हम
मान कर ही
चलते हैं। तुम
अपनी जिद्द
कायम रखते हो।
तुम्हारी
जिद्द ही
तुम्हारा
अहंकार है।
तुम अपनी
व्याख्या के
अनुसार चल रहे
हो। अगर पहुंच
गए तो तुम
कहोगे, अपनी
व्याख्या से
पहुंचे; अगर
न पहुंचे तो
गुरु गलत था।
तुम्हारा
गणित बिलकुल
साफ है। अगर
पहुंच गए तो
तुम अपनी पीठ थपथपाओगे;
अगर नहीं
पहुंचे तो तुम
कहोगे कि
तुम्हारे पीछे
दस साल से चल
रहे हैं और
भटक रहे हैं।
पहुंच गए तो
तुम कहोगे, कैसे कुशल
हम! ठीक
बिलकुल व्याख्या
कर ली और
पहुंच गए। तब
तुम धन्यवाद
देने भी न
आओगे।
"मुख्य
पथ पर चलना
आसान है, तो
भी लोग छोटी
पगडंडियां
पसंद करते
हैं।'
छोटी, तुमसे
भी छोटी। तुम
वही पगडंडी
पसंद करोगे जो
तुमसे छोटी
है। लोग अपने
से छोटी चीजें
पसंद करते
हैं। क्योंकि
उन छोटी चीजों
के कारण वे
बड़े मालूम
पड़ते हैं। लोग
अपने से छोटे
लोगों का
संग-साथ करते
हैं। क्योंकि
उनके बीच वे
बड़े मालूम
पड़ते हैं।
हमेशा लोग
अपने से छोटे की
तलाश करते
हैं। उस छोटे
के पास खड़े
होकर वे बड़े महिमावान
मालूम पड़ने
लगते हैं।
इससे
ठीक उलटा
मार्ग है धर्म
का--जब तुम
अपने से बड़े
की तलाश करते
हो। बड़ी पीड़ा
होगी। क्योंकि
तुम छोटे
मालूम पड़ोगे।
जितने बड़े के
पास तुम जाओगे
उतने छोटे
मालूम पड़ोगे।
कहते हैं, ऊंट
हिमालय के पास
जाना पसंद
नहीं करते, रेगिस्तान
में रहते हैं
इसीलिए जहां
पहाड़ वगैरह से
मिलना ही न
हो। रेत की
छोटी-मोटी पहाड़ियां
भी मिल जाएं
उनसे कुछ डर
नहीं। ऊंट की
ऊंचाई कायम
रहती है। और
जब ऊंट पहाड़
के पास आता है
तो बड़ी दीनता
अनुभव करता
है। ऐसे ही
शिष्य जब गुरु
के पास आता है,
आने की
चेष्टा में ही
एक क्रांति
शुरू हो जाती
है। आना ही
क्रांति है।
क्योंकि
तुमने यह अनुभव
कर लिया कि
अपने से छोटे
को खोज कर तुम
छोटे होते
जाओगे। अपने
से बड़े को खोज
कर ही
तुम्हारे बड़े
होने का उपाय
है। यद्यपि
बड़े होने में
पहले तुम्हें
छोटे होने की
बड़ी गहरी पीड़ा
होगी। उस पीड़ा
से गुजरना
होगा।
छोटे
लोगों का साथ
खोज कर
तुम्हें बड़ा
सुख मिलेगा, लेकिन
वह सुख दो कौड़ी
का है।
क्योंकि उस
सुख के कारण
तुम्हें और भी
पीड़ाओं
में उतरना
पड़ेगा।
तुम्हें रोज
छोटे, और
छोटे को खोजना
पड़ेगा।
क्योंकि तुम
छोटे होते
जाओगे। जिनके
साथ तुम रहोगे,
वैसे ही हो
जाओगे। संग का
बड़ा परिणाम है;
क्योंकि
चेतना की आदत
है सम्मिलित
हो जाने की।
अगर तुम क्षुद्र
लोगों के साथ
रहे तो तुम
थोड़े दिन में
सम्मिलित हो
जाओगे।
तुम
खयाल न किए हो, अगर
दो-चार आदमी
बड़े प्रसन्न
मिल जाएं
तुम्हें--हंस
रहे हों, गपशप
कर रहे
हों--तुम उदास
भी हो तो तुम
भूल जाते हो
कि उदास हो, तुम भी
हंसने लगते
हो। संक्रामक
है हंसी। कोई उदास
बैठे हों
दो-चार सज्जन
और तुम उनके
पास बैठ जाओ
थोड़ी देर, तुम
उदास हो
जाओगे।
तुम्हारे मन
में विचार उठने
लगेंगे कि
कैसे उदासीन
संप्रदाय में
सम्मिलित हो
जाएं! वैराग्य
का भाव उदय
होने लगेगा कि
सब संसार असार
है, तो
जीवन व्यर्थ
है।
आत्महत्या मन
में उठने लगेगी।
चेतना
तुम्हारे
शरीर में
सीमित नहीं
है। चेतना तुम्हारे
चारों तरफ
बहती है और
मिलती है। सदा
पहाड़ को खोजना,
सदा अपने से
ऊंचे को
खोजना। तो
तुम्हारी
ऊंचाई बढ़ेगी
और गहराई बढ़ेगी।
तुम जिनके साथ
रहोगे, वैसे
होते जाओगे।
इसीलिए
तो सत्संग की
इतनी महिमा
है। सत्संग का
अर्थ है, सदा
अपने से
श्रेष्ठ को
खोजते रहना, उसकी हवा
में जीने की
कोशिश, उसकी
आभा को पीना, उसकी चेतना
को बहने देना
अपने भीतर।
गुरु का अर्थ
यही है कि
जिसके पास तुम
रहो तो वह
तुम्हें उठाए,
तुम उसे न
गिरा सको। अगर
तुम उसे गिरा
लो तो वह गुरु
नहीं।
क्योंकि एक
घटना साफ है।
जब तुम एक
गुरु के पास
जाते हो तो दो
तरफ से सोचो।
तुम गुरु के
पास जा रहे हो,
तुम अपने से
बड़े के पास जा
रहे हो। लेकिन
गुरु तुम्हें
आज्ञा दे रहा
है पास आने की,
वह अपने से
छोटे को आज्ञा
दे रहा है। तो
गुरु की कसौटी
यही है कि
जिसे तुम अपने
तल पर न उतार सको।
हालांकि तुम
पूरी कोशिश
करोगे अपने तल
पर उतार लेने
की।
पगडंडियों और
संप्रदायों
में तुम पाओगे,
अनुयायी
अपने साधुओं
को चला रहा
है। जैनियों की
पंचायत होती
है, वह
साधु पर नजर
रखती है कि वह
कहीं आचरण से
भ्रष्ट तो
नहीं हो रहा।
तुम
कैसे तय करोगे
कि वह आचरण से
भ्रष्ट हो रहा
है कि नहीं? और
वह भी राजी है
तुमसे कि तुम
उसके नियंता
हो। तुम
मर्यादा तय
करते हो, वह
अनुसरण करता
है। फिर तुम
उसे गुरु
मानते हो!
पहले तुम उसे
उतार लेते हो
अपने तल पर, अपने से भी
नीचे, तभी
तुम उसे गुरु
मानते हो।
गुरु
वही है जो
तुम्हारी न
सुने, जो तुम्हारे
तल पर उतरने
को राजी न हो; जिसे तुम
कुछ भी करो तो
अपने तल पर न
उतार सको; जिसकी
चेतना संगठित
हो गई हो एक
ऊंचाई के तल पर
जहां से कि
बिखर न सके।
वही उसकी
गुरुता है, वही उसका
घनत्व है कि
वह तुमसे इतना
घना है कि तुम
उसे बिखरा न
सकोगे। तुम
उसके पास
जाओगे तो
तुम्हें ही
ऊपर उठना
पड़ेगा।
हालांकि तुम हर
उपाय करोगे।
यह कोई
जानकारी से
करोगे, ऐसा
भी नहीं है।
यह सब अचेतन
प्रक्रिया
है। तुम हर
उपाय करोगे कि
वह तुम्हारे
तल पर आ जाए।
मेरे
पास अनेक
मित्र आते
हैं। वे मुझसे
कहते हैं कि
आपकी बातें
ठीक लगती हैं, लेकिन
क्या यह नहीं
हो सकता कि हम
आपके प्रति
मित्र-भाव रखें
और शिष्य-भाव
न रखें। तो
क्रांति नहीं
होगी?
कुछ
बुरी बात नहीं
कह रहे हैं; बिलकुल
ठीक बात कह
रहे हैं। कौन
उनकी बात को गलत
कहेगा? और
अगर मैं कहूं
कि नहीं, मित्र-भाव
से काम न
चलेगा; तो
स्वभावतः
उनके मन में
खयाल उठेगा, यह आदमी बड़ा
अहंकारी है, यह गुरु
बनना चाहता
है। और अगर
मैं कहूं कि
ठीक, बिलकुल
मित्र-भाव रखो
तो वे मुझे
अपने तल पर लाने
की कोशिश में
लगे हैं। आज
वे कहेंगे
मित्र-भाव, कल वे मेरे
कंधे पर हाथ
रख कर
हंसी-मजाक
करना चाहेंगे।
शिष्य
जब गुरु के
पास आता है तब
भी उसकी अचेतन
बीमारियां
लेकर आता है।
उसका कोई कसूर
नहीं है। वह
जैसा है वैसा
ही आएगा, बदल
कर नहीं आ
सकता। बदलने
आया है। बीमार
है, इसीलिए
आया है। लेकिन
वह अपनी
बीमारी भी
लाया है। और
गुरु अगर उसके
तल पर जरा भी
उतर जाए तो उसे
बदल न पाएगा।
बिना उतरे भी
अगर वह उसको
सहमति दे दे
इतनी भी कि
ठीक है, मित्र
रहो--मित्रता
बड़ी कीमती बात
है, और
गुरु की तरफ
से कोई अड़चन
नहीं है, गुरु
की तरफ से
वस्तुतः तुम
मित्र ही
हो--लेकिन
स्वीकृति भी
दे दे, तो
तुम्हें उठा
नहीं सकेगा।
कृष्णमूर्ति
चालीस साल की
निरंतर मेहनत
के बाद किसी
को भी उठा
नहीं सके, क्योंकि
एक भ्रांति की
स्वीकृति
उन्होंने दे
दी, जो
उनकी तरफ से
बिलकुल ठीक
थी। उन्होंने
कहा, मैं
तुम्हारा
गुरु नहीं हूं,
ज्यादा से
ज्यादा एक
मित्र।
कृष्णमूर्ति
की तरफ से बात
बिलकुल ठीक है;
गुरु की तरफ
से मित्रता ही
है। लेकिन
सुनने वाले का
अहंकार
परिपुष्ट
हुआ। जो शिष्य
होने आए थे वे
मित्र होकर
वापस लौट गए।
बात ही खतम हो
गई। अब क्रांति
का कोई उपाय न
रहा। क्योंकि
क्रांति का उपाय
तभी है जब तुम
किसी को ऊपर
देख सको--इतनी
ऊंचाई पर कि
तुम्हारा सिर
झुक जाए तो भी
तुम उसे पूरा
न देख पाओ, उसका
अंतिम शिखर दूर
आकाश में खोया
हो--तभी तुम चढ़ोगे,
तभी तुम
उठोगे, तभी
तुम यात्रा पर
निकलोगे।
छोटी
पगडंडियां
लोग पसंद करते
हैं। इसलिए छोटे-छोटे
गुरु लोग पसंद
करते हैं।
जिनको तुम मैनेज
कर सको, जिनको
तुम व्यवस्था
दे सको, जो
तुम्हारी
आज्ञा से
इधर-उधर न
जाएं। अगर कबीर
होते तो वे
कहते, एक
अचंभा मैंने
देखा कि शिष्य
गुरु को ज्ञान
बताए। पर ऐसा
हो रहा है।
शिष्य गुरुओं
को चला रहे
हैं।
संप्रदाय
धर्म बन बैठे
हैं। पगडंडियां
राजपथ होने का
दावा कर रही
हैं। और
तुम्हें सुखद
लगता है।
क्योंकि तुम
उन पगडंडियों
से बड़े बने
रहते हो। तुम
अपने गुरु से
भी बड़े बने
रहते हो।
मेरे
पास जैन साधु
आकर कई बार कह
कर गए हैं कि बड़ी
मुश्किल है, समाज
आने नहीं देता
आपके पास; अनुयायी
कहते हैं कि
वहां मत जाना।
और अनुयायियों
की उन्हें
माननी पड़ती
है। मुझसे
चोरी से भी
मिलने जैन
साधु आए हैं, क्योंकि वे
प्रकट नहीं आ
सकते। किसी को
पता न हो।
किसी को पता
चल जाए तो वे
कहेंगे, तुम
वहां क्यों गए?
इसको
मैं कह रहा
हूं कि जिसको
तुम मैनेज कर
सको। अब इस
गुरु से तुम
क्या पाओगे? यह
तुम्हारी
कठपुतली है।
यह तुमसे डरा
हुआ है; यह
तुमसे भयभीत
है। जो तुमसे
भयभीत है उसका
परमात्मा से
क्या संबंध? जो तुमसे
डरा है वह
तुमसे
गया-बीता है।
तुम्हारे
गुरु तुमसे
गए-बीते हैं।
लेकिन
पगडंडियों पर
यही तो चलने
का मजा है कि
तुम गुरुओं को
भी चला पाते
हो।
"दरबार
चाकचिक्य से
भरे हैं, जब
कि खेत जुताई
के बिना पड़े
हैं और बखारियां
खाली हैं।'
लाओत्से
कहता है कि
मनुष्य
स्वभाव से इस
बुरी तरह छूट
गया है कि उसे
खयाल में नहीं
रहा है कि
जीवन को उसने
कितने असार से
भर लिया
स्वभाव से छूट
कर। और असार
इतना सारपूर्ण
मालूम होने
लगा है कि तुम
बिलकुल अंधे
ही होओगे, तुम्हें
बिलकुल बोध की
एक किरण भी न
होगी, तभी
ऐसा हो सकता
है।
थोड़ा सोचो।
लोग सोने को
इकट्ठा करने
के पीछे पागल
हैं। न खा
सकते हो सोने
को,
न पी सकते
हो, न ओढ़
सकते हो। और
जीवन का
बहुमूल्य
अवसर उसे इकट्ठा
करने में
गंवाया जा रहा
है। रोटी
जरूरी है, मगर
लोग रोटी चाहे
न खाएं, सोना जरूर
चाहिए। भूखे
सो जाएं, लेकिन
सोना जरूर
चाहिए। क्या
कारण होगा कि
लोग अपनी
वास्तविक
जरूरतों को
छोड़ कर भी
गैर-जरूरी
जरूरतों को
भरने की पहले
कोशिश करते
हैं? क्या
कारण है? क्योंकि
जरूरतें तो
साधारण हैं; उनको तुम
पूरा भी कर लो
तो भी तुम
असाधारण की तरह
दिखाई न पड़ोगे।
भूख तुमने भर
भी ली तो
जानवर भी भर
लेते हैं, पशु-पक्षी
भी भर लेते
हैं; उसमें
क्या खूबी? सोना अगर
तुमने ढेर लगा
लिया तो कोई
पशु-पक्षी ऐसा
नहीं करता।
पशु-पक्षी
इतने नासमझ
नहीं हैं।
और
सोना न्यून है, और
अहंकार न्यून
से ही भरता
है। जो जितना
कम है उतना
मूल्यवान है।
बड़ी हैरानी की
बात है! उसकी
उपयोगिता के
कारण कोई चीज
मूल्यवान
नहीं है; उसकी
कमी के कारण।
सोने का क्या
उपयोग है? एक
ही उपयोग है
कि वह न्यून
है; इतना
कम है कि सभी
लोग उसको नहीं
पा सकते। कुछ थोड़े
से लोग ही ढेर
लगा सकते हैं।
उस ढेर के कारण
वे विशिष्ट हो
जाएंगे, खास
हो जाएंगे, असाधारण हो
जाएंगे। सोना
न्यून है, इसलिए
उसकी कीमत है।
व्हाइट गोल्ड
और भी कम है तो
उसकी दुगुनी
कीमत है। फिर
प्लेटिनम और
भी कम है तो
उसकी और भी
ज्यादा कीमत
है। जो चीज जितनी
न्यून है, उसके
आधार पर उसका
मूल्य हो रहा
है। इसकी कोई चिंता
ही नहीं कि
उसका कोई
उपयोग है?
अहंकार
को उपयोग से
मतलब ही नहीं
है। अहंकार को
सिर्फ एक घोषणा
करनी है जगत
में कि मैं
असाधारण हूं।
पेट भूखा रह
जाए,
कंठ प्यासा
हो, कोई
फिक्र नहीं; शरीर गहनों
से सजा हो।
जीवन की गहरी
से गहरी जरूरतें
खाली रह जाएं,
प्रेम से
तुम वंचित रह
जाओ, कोई
फिक्र नहीं; हीरे-जवाहरात
चाहिए।
अन्यथा
जीवन की तो
जरूरतें बड़ी
थोड़ी हैं। अगर
अहंकार बीच
में न आए तो
पृथ्वी पर बड़ा
संतोष हो।
असंतोष का
स्वर अहंकार
से आता है।
क्या है जरूरत
तुम्हारी? कि
पेट भरा हो!
जीसस
अपने शिष्यों
से कहे हैं।
कई बार लगता
है कि जीसस
इतनी सी छोटी
सी बात क्यों
प्रार्थना में
जोड़े हैं!
जीसस ने अपने
शिष्यों को
कहा है कि तुम
यह प्रार्थना
रोज करना; उसमें
एक पंक्ति है:
हे प्रभु, मुझे
मेरी रोज की
रोटी दे, गिव मी माइ डेली
ब्रेड। समझ
में नहीं आता
कि इसको
मांगने की
क्या जरूरत है?
रोटी! पर
जीसस रोटी
शब्द को
प्रतीक की तरह
चुन रहे हैं।
वे यह कह रहे
हैं कि जीवन
की मेरी जो
छोटी-छोटी जरूरतें
हैं--प्यास है
तो पानी चाहिए,
भूख है तो
रोटी चाहिए, जीवन है तो
प्रेम
चाहिए--यह
मेरी छोटी सी
रोटी है, दि
डेली ब्रेड, पानी, रोटी,
प्रेम, छप्पर।
इतना ही चाहिए
जीवन के लिए
और जीवन परम
महिमा को
उपलब्ध हो जाता
है, उस
कुलीनता को, जिसकी चर्चा
लाओत्से करता
है कि बाहर
कुछ भी न हो, भीतर एक ऐसी
संपदा हो जाती
है; बाहर
फटे कपड़े हों
तो भी भीतर का
सम्राट जगमगाता
है।
नहीं, लेकिन
दुनिया उलटे
रास्ते चलती
है। भीतर कुछ भी
न हो, भीतर
भिखारी हो, भिखारी का
पात्र हो, खंडहर
आत्मा हो, बाहर
चाकचिक्य हो,
बाहर सब हो।
क्योंकि भीतर
की आत्मा तो
किसको दिखाई
पड़ेगी? बाहर
की चीजें
लोगों को
दिखाई पड़ती
हैं। आत्मा को
गंवाओ। बदल लो
आत्मा को
धन-दौलत में, तिजोड़ी भर लो, खुद
खाली हो जाओ।
लाओत्से
कह रहा है, इसलिए
लोग स्वभाव से
टूट गए हैं।
क्योंकि स्वभाव
में होने के
लिए इतनी तो
समझ होनी ही
चाहिए कि जो
जरूरी है वही
जरूरी है; जो
गैर-जरूरी है
वह जरूरी नहीं
है।
और जो
एक दफा
गैर-जरूरी की
दौड़ पर निकल
गया वह माया
में जा रहा
है। अब उसका
कोई अंत नहीं
है। तुम कुछ
भी पा लो तो भी
बहुत कुछ पाने
को शेष रहेगा।
वह घड़ी कभी न
आएगी जब तुम
कह सको कि
मैंने सब पा
लिया। सिकंदर
को नहीं आई तो
तुम्हें कैसे
आएगी? आज तक
दुनिया में
बड़े से बड़े
धनपति को नहीं
आई तो तुम्हें
कैसे आएगी? कुबेर भी रो
रहा है।
सोलोमन भी
मरते वक्त
परेशान है। सब
नहीं हो पाया;
सब नहीं मिल
पाया।
जीसस
ने कहा है अपने
शिष्यों को कि
देखो खेत में
खिले हुए लिली
के फूल! देखो
इनकी शान!
सोलोमन, सम्राट
सोलोमन, अपनी
पूरी सफलता के
क्षणों में भी
इतना सुंदर नहीं
था।
लिली
के फूल के पास
है भी क्या? साधारण
जंगली फूल है।
लेकिन क्या
कमी है? तुमने
कभी लिली के
फूल को कोई
शिकायत करते देखा
कि उसने कहा
हो कुछ कम है? जल मिलता है
पृथ्वी से, प्यास तृप्त
हो जाती है।
सूरज की
किरणें मिलती
हैं, जीवन
प्रफुल्लित
हो जाता है, सुवास आ
जाती है। और
चाहिए क्या?
लाओत्से
कहता है, जीवन
की जो साधारण
जरूरतें हैं
जो उनसे ही
राजी हो गया
वह उस महा पथ
को उपलब्ध हो
जाएगा।
क्योंकि उसकी
जीवन-ऊर्जा
व्यर्थ की दौड़
में नहीं
पड़ेगी। वह
जीवन-ऊर्जा बच
रहेगी। वह
जीवन-ऊर्जा
उसे ऐसा
संपन्न बना
देगी, भीतर
की गरिमा से
ऐसा भर देगी
जैसा हर फूल
भरा है। उसके
भीतर का दीया
जल जाएगा।
"दरबार
चाकचिक्य से
भरे हैं, जब
कि खेत जुताई
के बिना पड़े
हैं और बखारियां
खाली हैं।'
खेत की
किसी को चिंता
नहीं। खलिहान
खाली पड़े हैं।
बखारियां
रिक्त हैं।
जीवन की मूल
जरूरतें लोग
चूक गए हैं।
और व्यर्थ की
बातें, दरबार,
दिल्लियां,
बड़ी
महत्वपूर्ण
हो गई हैं। सब
दिल्ली की तरफ
भाग रहे हैं।
राजनीतिज्ञ
भाग रहे हैं; जो सोचते
हैं कि
राजनीतिज्ञ
नहीं हैं वे
भी भाग रहे
हैं।
साधु-संन्यासी
भाग रहे हैं।
क्या है दरबार
में? दरबार
प्रतीक है
लाओत्से के
लिए व्यर्थता
का, असार
का। क्या है
राजधानियों
में? वे
आदमी की मूढ़ता
के स्तंभ हैं।
वे आदमी की
नासमझी के
प्रतीक हैं।
लेकिन सभी भाग
रहे हैं। मन
में एक ही दौड़
लगी है कि
कैसे दरबार में
पहुंच जाएं।
दरबार में
पहुंच कर क्या
होगा? खाली
पेट, खाली
आत्मा। तुम
बाहर स्वर्ण
से थोप भी दिए
जाओगे तो क्या
होगा?
"तथापि
जड़ीदार
चोगे पहने, चमचमाती
तलवारें
हाथों में लिए,
श्रेष्ठ
भोजन और पेय
से अघाए, वे
धन-संपत्ति
में सरोबोर
हैं। इससे ही
संसार लूटपाट
पर उतारू होता
है। क्या यह
ताओ का भ्रष्टाचरण
नहीं है?'
ताओ का
एक ही भ्रष्टाचरण
है,
ताओ से
वंचित हो जाने
का एक ही ढंग
है--कि तुम गैर-जरूरी
को जरूरी समझ
लो। फिर सब
भ्रष्ट हो जाएगा।
हर समाज
भ्रष्टाचार
से मुक्त होना
चाहता है, लेकिन
हो नहीं सकता।
इधर
भारत में बड़ी
चर्चा चलती
है:
भ्रष्टाचार है, इससे
मुक्त होना
है।
भ्रष्टाचार
सदा से है। और
सदा से लोग
मुक्त होने की
कोशिश कर रहे
हैं। और बिना
लाओत्से की
आवाज सुने
कोशिश कर रहे
हैं।
भ्रष्टाचार
मिट नहीं सकता,
जब तक असार
सार मालूम
पड़ता है।
इसलिए
भ्रष्टाचार
मिटाने का कोई
ढंग कानून
बनाना नहीं है
पार्लियामेंट
में और न ही
कोई जयप्रकाश
की तरह आंदोलन
चलाने से भ्रष्टाचार
मिटता है।
क्योंकि वह
आंदोलन भी कानून
को ही बदलने
का जोर करेगा।
और क्या करेगा?
और आंदोलन
चलाने वाले भी
उतने ही
भ्रष्टाचारी
हैं जितने कि
जो पद में
बैठे हैं। कोई
फर्क नहीं है।
क्योंकि
भ्रष्टाचार
का मूल तो दोनों
के भीतर एक
है। और वह मूल
यह है कि जो
व्यर्थ है वह
सार्थक मालूम
होता है।
तो
भ्रष्टाचार
तो तभी मिट
सकता है जब
लोग ताओ से
जुड़ जाएं, लोग
धार्मिक हों;
उसके पहले
नहीं मिट
सकता। जब तक
हीरा
मूल्यवान
मालूम होता है,
स्वर्ण
मूल्यवान
मालूम होता है,
पद
मूल्यवान
मालूम होता है,
प्रतिष्ठा
मूल्यवान
मालूम होती है,
राजनीति
मूल्यवान
मालूम होती है,
दरबार, राजधानियां मूल्यवान
मालूम होती
हैं, सिंहासन
का जब तक कोई
भी मूल्य है, तब तक
भ्रष्टाचार
नहीं मिट
सकता।
क्योंकि
भ्रष्टाचार
का एक ही अर्थ
है कि तुम
अपने स्वभाव
से च्युत हो गए।
कौन सी जगह से
तुम च्युत हुए
हो? कहां
तुम्हारी
पहली भूल है?
वह
पहली भूल यह
है कि तुमने
जीवन में
साधारण होने
का राजीपन
न दिखाया। तुम
असाधारण होना
चाहते हो। और
आदमी का मन
बड़ा अजीब है।
तुम साधुता से
असाधारण होने
की कोशिश करो
तो भी तुम
भ्रष्टाचारी
हो। कोई नहीं
पहचान पाएगा
तुम्हारे
भ्रष्टाचार
को। लोग
कहेंगे कि इस
आदमी के पास
तो कुछ भी
नहीं है, नंगा
खड़ा है; इसको
कैसे
भ्रष्टाचारी
कहते हो? यह
तो कोई
राजधानी में
भी नहीं गया, राजनीति में
भी नहीं है, धन-दौलत भी
इकट्ठी नहीं
की, कोई
लाइसेंस का
घोटाला भी
नहीं करता, कुछ भी नहीं
है; यह तो
बेचारा अपना
नंगा खड़ा है; भगवान का
भजन करता है।
यह भी
भ्रष्टाचारी
है,
अगर यह
विशिष्ट होना
चाहता है। अगर
यह भगवान का
भजन भी बीच
बाजार में
करता है ताकि
लोग सुन लें, अगर यह
भगवान का भजन
भी जोर-जोर से
करने लगता है
अगर लोग पास
हों तो यह
भ्रष्टाचारी
है। क्योंकि
मूल स्रोत
भ्रष्टाचार
का एक ही है और
वह यह, कि
तुम असाधारण
होने की कोशिश
करो।
लाओत्से
कहता है कि इस
जगत में
साधारण हो
जाना ही कला
है। और जो
साधारण हो गया--सब
अर्थों में
साधारण--जिसका
कोई दावा ही नहीं
है,
जो किसी पद,
इस जगत में
या परलोक में,
कोई फिक्र
नहीं कर रहा
है, जिसने
व्यर्थता समझ
ली इस बात की, जो जीवन की
बहुत छोटी
चीजों से
प्रसन्न है, कि रोटी मिल
गई, कि
पानी मिल गया,
कि श्वास
मिल गई, कि
प्रेम मिला, कि
प्रार्थना
मिल गई, बस
काफी है; जो
इतने ना-कुछ
से राजी है, वही राजी हो
पाएगा, और
उसके जीवन में
ही असाधारण का
जन्म होता है।
जो साधारण
होने को राजी
है, उससे
ज्यादा
असाधारण
पुरुष कोई भी
नहीं।
नहीं
तो
भ्रष्टाचार
है। और जब तक
हम भ्रष्टाचार
के इस मूल को न
समझें तब तक
हम ऊपर-ऊपर सब
कुछ करते रहें, कुछ
भी न होगा। जो
पद में होते
हैं वे
भ्रष्टाचारी
मालूम होते
हैं। जब वे पद
में नहीं थे
तब वे भी
क्रांतिकारी
थे। फिर दूसरे
खड़े हो जाते हैं
जो पद पर नहीं
हैं, वे
क्रांति की
चर्चा करते
हैं। वे
भ्रष्टाचार
के विरोध में
हैं; लेकिन
उनको पद दो, वे भी
भ्रष्टाचारी
हो जाते हैं।
अब तक सभी क्रांतियां
असफल हो गई
हैं। आदमी की
आशा अदभुत है!
कोई क्रांति
कभी सफल नहीं
हुई, फिर
भी आदमी सोचता
है क्रांति से
सब ठीक हो जाएगा।
क्रांति करने
वाले भी छिपे
भ्रष्टाचारी
हैं जो अपने
समय की
प्रतीक्षा कर रहे
हैं। वे आज
भ्रष्टाचार
के खिलाफ हैं,
क्योंकि
जनता
भ्रष्टाचार
से परेशान है,
लोग पीड़ित
हैं, जनता
का साथ
मिलेगा। कल वे
सत्ता में
पहुंचे कि सब
वही का वही हो
जाएगा।
क्योंकि उनको
भी मौलिक भूल
का कोई पता
नहीं है।
मौलिक भूल
विशिष्ट होने
की भूल है।
फिर विशिष्ट होने
के हजार ढंग
हैं। तुम
विशिष्ट हो
सकते हो धन से,
पद से, ज्ञान
से, त्याग
से, लेकिन
विशिष्ट
होना।
लाओत्से
कहता है, एक
बात ही
भ्रष्टाचार
है स्वभाव का।
जहां तुमने
विशिष्ट होना
चाहा, तुम
भ्रष्ट हुए, और तुमने
भ्रष्टाचार
की हवा पैदा
की। साधारण हो
रहो! भूख लगे, खा लो; प्यास
लगे, पी लो;
प्रार्थना
लगे, कर
लो। किसी को
दिखाना क्या?
किसी को
बताना क्या? ऐसे जीओ
जैसे तुम हो
ही नहीं।
चुपचाप जी लो
कि तुम्हारी
कोई रेखा भी न
छूटे।
लेकिन
मन कहता है, इतिहास
में नाम रह
जाए। अगर
इतिहास में
नाम रखना है
तो तुम फिर
भ्रष्टाचार
से मुक्त नहीं
हो सकते।
क्योंकि
इतिहास तो
सिर्फ भ्रष्टाचारियों
का है। इतिहास
में तो जो
जितना भ्रष्ट
है उतना ही
ज्यादा नाम
आएगा।
क्योंकि वह
उतने ही उपद्रव
करता है, उतनी
ही घटनाएं
पैदा होती
हैं। अच्छे
आदमी का कोई
इतिहास होता
है? वह कुछ
करता ही नहीं
जिससे इतिहास
बने। या वह जो
कुछ भी करता
है वह अखबारों
में छापने
योग्य नहीं
होता, सुर्खियां उससे नहीं बनतीं।
तुम
ध्यान कर रहे
हो। कोई अखबार
उसको पहले पेज
पर छापेगा कि
फलां-फलां
सज्जन ध्यान
में बैठे हैं? कोई
नहीं छापेगा।
तुम जाओ और
किसी की छाती
में छुरा भोंक
दो; तुम
सुर्खी में आ
गए। दुनिया
में छुरा
भोंकना
ज्यादा मूल्यवान
मालूम पड़ता है
ध्यान करने की
बजाय। तुम
उपद्रव करो
कुछ, तुम
कुछ मिटाओ
तो तुम
सुर्खियों
में आ जाओगे
अखबार की। तुम
कुछ बनाओ; कौन
पूछता है? तुम्हारे
होने का कोई
मूल्य नहीं
है। तुम कुछ व्याघात
पैदा करो, तुम
चारों तरफ कुछ
हलचल पैदा करो;
तब तुम पूछे
जाते हो।
अगर
तुम्हें
इतिहास में
रहना है तो
तुम्हें आत्मा
खोनी पड़ेगी।
क्योंकि
आत्मा की कोई
पूछ इतिहास
में नहीं है।
अगर तुम्हें
इतिहास में रहना
है तो तुम्हें
ताओ खोना
पड़ेगा।
क्योंकि ताओ
का कोई उल्लेख
इतिहास में
नहीं है। अगर
तुम्हें
इतिहास में
रहना है तो
तुम्हें दुख
और पीड़ा और
अशांति में और
नरक में जीना
पड़ेगा।
क्योंकि नरक
का ही केवल
इतिहास लिखा
जाता है।
स्वर्ग का
क्या इतिहास? स्वर्ग
में कहीं
अखबार छपते
हैं? नरक
में छपते हैं।
वहां कुछ घटता
ही नहीं; घटना
ही नहीं घटती
तो अखबार क्या
छपेगा?
नहीं, अगर
दुनिया शांत
और आनंदित हो
तो इतिहास
धीरे-धीरे खो
जाएगा। अगर
लोग सिर्फ जीएं,
और लोग
सिर्फ
प्रसन्न हों
अपने न होने
में, और
कोई दौड़ न हो
किसी से आगे
निकलने की, लोग
अपनी-अपनी जगह
राजी
हों--इतिहास
खो जाएगा।
इसीलिए तो
पूरब के देशों
के पास इतिहास
नहीं है। हमने
लिखना न चाहा।
हमने लिखने
योग्य न माना।
क्योंकि जो भी
लिखने योग्य लगता
था वह कचरा
था। जो लिखने
योग्य था उसकी
लहर ही न बनती
थी, वह
लिखा नहीं जा
सकता था।
इसलिए
हमने पुराण
लिखे; इतिहास
नहीं लिखा।
पुराण बड़ी अलग
बात है। पुराण
सार की बात
है। पुराण का
मतलब यह है कि
हम एक बुद्ध
के संबंध में
नहीं लिखे, दूसरे बुद्ध
के संबंध में
नहीं लिखे, हमने
बुद्धत्व के
संबंध में
लिखा। एक
कहानी गढ़
ली जिसमें
बुद्धत्व की
कथा समा जाए, सार आ जाए।
इसीलिए तो
पश्चिम के लोग
कहते हैं कि
तुम्हारे
बुद्ध
संदिग्ध
हैं--हुए या
नहीं!
तुम्हारे
तीर्थंकर
संदिग्ध हैं।
इनका इतिहास
में कोई
उल्लेख नहीं
है। किस पत्थर
पर इनका नाम
लिखा है? न,
हमने
अलग-अलग तीर्थंकरों
की फिक्र न
की।
तुम
जाओ जैन मंदिर
में,
चौबीस तीर्थंकरों
की प्रतिमा
हैं। तुम कुछ
फर्क न कर
पाओगे कि कौन कौन है।
शक्लें एक सी,
बैठे एक से
पालथी मारे, एक ही ध्यान
में लीन। यह
भी हमें पक्का
पता नहीं कि
इनकी शक्लें
तो निश्चित
अलग-अलग रही
होंगी। चौबीस
आदमी थे, शक्ल
अलग थी, एक
ही शक्ल के
कैसे हो सकते
हैं? लेकिन
अब बिलकुल एक
शक्ल के हैं; कोई फर्क
नहीं है। भेद
करने के लिए
जैनियों को हर
प्रतिमा के
नीचे एक चिह्न
बनाना पड़ता
है। तो उन्होंने
चिह्न बना दिए
हैं। किसी के
नीचे सिंह, किसी के
नीचे कमल, किसी
के नीचे सांप;
वे चिह्न
बनाने पड़े हैं,
ताकि पता
चले कि यह
प्रतिमा है
किसकी। नहीं
तो वे चौबीस
ही एक जैसे
हैं।
पश्चिम
कहता है कि ये
गैर-ऐतिहासिक
हैं,
क्योंकि
चौबीस आदमी एक
जैसी शक्ल के,
एक जैसी
ऊंचाई के, एक
जैसे शरीर के
कैसे हो सकते
हैं? और
अनंत काल में?
यह बात कथा
मालूम होती
है।
यह है
भी कथा। हमने
फिक्र नहीं की
एक-एक तीर्थंकर
की। क्योंकि
तीर्थंकर का
क्या प्रयोजन
है?
एक-एक का
क्या अर्थ है?
वह भीतर जो
उसने पाया है
वह इतना एक
जैसा है, वह
इतना सारभूत
है, वह कथा
इतनी एक जैसी
है कि हमने एक
ही कथा गढ़
ली और एक ही
प्रतिमा बना
ली। हमने सब
बुद्धों को एक
घटना में समा
लिया, और
हमने सब
अवतारों को एक
अवतार में समा
लिया। सार को
हमने
सिद्धांत बना
लिया। इतिहास
की चिंता छोड़
दी, क्योंकि
इतिहास
घटनाओं की
फिक्र करता
है। हमने उसकी
फिक्र की जो
भीतर है; जो
घटता नहीं, जो है ही; जो
कोई घटना नहीं
है, जो
अस्तित्व है।
इसलिए
पुराण हमने
रचा। पुराण
बड़ी अनूठी बात
है। पुराण
उनका है जिनकी
कोई लकीर
पार्थिव जगत में
नहीं छूटती; हमने
उनकी
सार-सुगंध
इकट्ठी कर ली।
अब हर गुलाब
की क्या कथा
लिखनी? हमने
गुलाब का इत्र
निचोड़
लिया। वह
पुराण है।
क्योंकि हर
गुलाब की कथा एक
है। बार-बार
दुहराने का
सार भी क्या
है? गैर-जरूरी
बातें भिन्न
होंगी कि कोई
इस बाप से
पैदा हुआ, कोई
उस बाप से
पैदा हुआ।
इसका क्या लेना-देना
है कि कोई इस
मां की कोख
में आया, कोई
उस मां की कोख
में आया। कोख
एक है; जन्म
की घटना एक
है। कोई इधर
मरा, कोई
उधर मरा, इस
गांव में या
उस गांव में; इससे क्या
फर्क पड़ता है।
यह सांयोगिक
है। मृत्यु
घटी; जन्म
हुआ, मृत्यु
घटी। कोई इस
दुख से ऊबा और
ध्यान में गया,
कोई उस दुख
से ऊबा और
ध्यान में गया;
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
लोग दुख से
ऊबे और
दुख-निरोध की
तरफ ध्यान में
गए। हमने निचोड़
लिया सार। सब
गुलाबों की
अलग-अलग कथा
लिखना नासमझी
है; हमने
तो निकाल लिया
इत्र, सुवास
पकड़ ली, उस
सुवास को लिख
लिया।
इसलिए
पुराण शाश्वत
है। पुराण का
मतलब यह नहीं
कि जो पहले हुआ।
पुराण का
मतलब: जो पहले
हुआ,
अभी भी हो
रहा है, आगे
भी होगा।
इतिहास का
मतलब: जो हुआ
और चुक गया; अभी नहीं हो
रहा वैसा, कुछ
अन्य हो रहा
है; आगे
कुछ अन्य
होगा। इतिहास
गैर-जरूरी
विस्तार है।
पुराण आत्मा
है, सार
है।
लाओत्से
कहता है, इस
संसार में
लूटपाट चल रही
है, शोषण
चल रहा है, हिंसा
है, घृणा
है, प्रतिस्पर्धा
है। और कारण
क्या है? कारण
इतना है कि
कोई भी साधारण
होने को राजी
नहीं।
इसे
तुम ठीक से
समझ लो। जो
साधारण हो गया
वह संन्यासी
है। जो
असाधारण होने
की दौड़ में
लगा है वह
संसारी है।
अगर तुम
संन्यास से भी
असाधारण होने
की दौड़ में
लगे हो, तुम
संसारी हो।
एक
युवक ने दो
दिन पहले मुझे
आकर कहा कि वह
लंदन वापस
जाता है तो मन
नहीं लगता, यहां
आने की इच्छा
बनी रहती है।
मैंने पूछा कि
तू ठीक से सोच,
क्या कारण
होगा? क्योंकि
लंदन और यहां
में क्या है
फर्क? ध्यान
यहां करना है,
ध्यान तुझे
वहां करना; जीना यहां, श्वास यहां
लेनी, श्वास
वहां लेनी है।
उसने कहा, यह
बात नहीं है।
वहां मैं एक
साधारण सा
मजदूर हूं; यहां मैं एक
विशिष्ट
संन्यासी
हूं। तो वहां
जाता हूं, एक
साधारण आदमी
हूं, एक
मजदूर; यहां
आता हूं तो हर
आदमी देखता है
कि पश्चिम से
आया हुआ एक
विशेष
संन्यासी!
यहां एक
विशिष्टता
है।
अगर
ऐसे कारण से
कोई संन्यासी
है,
संसारी है।
क्योंकि
संन्यास का
अर्थ ही इतना है:
साधारण हो
जाना; ऐसे
हो जाना कि
तुम जैसे हो
ही नहीं; जैसे
तुम न होते तो
कोई फर्क न
पड़ता; जैसे
तुम्हारे
जाने से कोई
कमी न होगी।
जब कोई मर
जाता है तो हम
कहते हैं, यह
कमी कभी न
भरेगी, यह
पूर्ति असंभव
है अब इसको
करना, यह
जगह सदा खाली
रहेगी। ये संसारियों
के लक्षण हैं।
तुम इस तरह
जीना कि जब
तुम हट जाओ तो
किसी को पता
ही न चले; जब
तुम विदा हो
जाओ, तुम्हारी
कोई कमी किसी
को मालूम न
पड़े। क्योंकि जब
तुम थे तब
तुम्हारी
मौजूदगी ही
पता न चली तो
अब तुम्हारी
गैर-मौजूदगी
कैसे पता
चलेगी? न, तुम्हें कोई
उल्लेख न करे,
कोई
तुम्हारी
चर्चा न करे।
कोई तुम्हारी
बात न उठाए।
तुम ऐसे भूल
जाओ जैसे थे
ही नहीं। तुम ऐसे
खो जाओ जैसे
भाप खो जाती
है आकाश में; कहीं कोई
पता नहीं
चलता। ऐसे
साधारण हो
जाने का नाम
संन्यास है।
और जब
तक संसार
संन्यास न बन
जाए तब तक
भ्रष्टाचार
जारी रहेगा।
अभी तो जिनको
हम संन्यासी कहते
हैं वे भी
संसारी हैं।
वे चाहे कितनी
ही बात करते
हों
भ्रष्टाचार
मिटाने की, इसकी
उसकी, वे
भी संसारी
हैं। उनकी भी
दौड़ वही है, जो संसारी
की है। वे भी
कुछ होने के
पीछे पड़े हैं।
होने
की कुछ जरूरत
ही नहीं।
क्योंकि तुम
जो हो सकते थे
वह तुम हो।
तुम्हारी
महिमा में एक
कण भी जोड़ना
आवश्यक नहीं
है;
क्योंकि
तुम्हारी
महिमा अनंत
है। तुम्हारी ज्योति
में अब और ज्योतियां
जोड़ने का
कोई प्रयोजन
नहीं है; क्योंकि
तुम महा
ज्योति हो, तुम
परमात्मा हो।
यही अर्थ है
अहं
ब्रह्मास्मि
का। यह उदघोष
यह कह रहा है
कि अब तुम्हें
कुछ करना नहीं
है। कभी कुछ
करना नहीं था।
तुम परम पहले
से ही हो। तुम
आखिरी हो।
तुमसे ऊपर जाने
का कोई उपाय
भी नहीं है।
जब कोई
साधारण हो
जाता है तब
श्वास-श्वास
ऐसे आनंद से
भर जाती है; संघर्ष
खो जाता है, समर्पण फलित
होता है, तब
सारा जीवन एक
ऐसे संतोष, एक ऐसी
तृप्ति, एक
ऐसी दीप्ति से
भर जाता है कि
उसी दीप्ति और
तृप्ति में
तुम पहचान
पाते हो अपने
भीतर के
स्वभाव को, ताओ को।
अन्यथा
तुम
भ्रष्टाचार
में ही जीओगे।
और उस भ्रष्टाचार
में तुम कुछ
पाओगे न, सिर्फ
अपने को खोओगे।
खोने का
रास्ता है
पाने की दौड़; पाने का
रास्ता है
खोने की
तैयारी।
आज
इतना ही।
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