अध्याय
54
व्यक्ति
और राज्य
जो दृढ़ता से
स्थापित है, उसे
आसानी से डिगाया
नहीं जा सकता।
जिसकी
पकड़ पक्की है, वह
आसानी से
छोड़ता नहीं
है।
पीढ़ी दर पीढ़ी उसके
पूर्वजों के
त्याग अबाध
रूप से जारी
रहेंगे।
व्यक्ति
में उसके पालन
से, चरित्र
प्रामाणिक
होगा;
परिवार
में उसके पालन
से, चरित्र
अतिशय होगा;
गांव
में उसके पालन
से, चरित्र
बहुगुणित
होगा;
राज्य
में उसके पालन
से, चरित्र
समृद्ध होगा;
संसार
में उसके पालन
से, चरित्र
सार्वभौम
बनेगा।
इसलिए:
व्यक्ति के
चरित्र के अनुसार, व्यक्ति
को परखो;
परिवार
के चरित्र के
अनुसार, परिवार
को परखो;
गांव
के चरित्र के
अनुसार, गांव
को परखो;
राज्य
के चरित्र के
अनुसार, राज्य
को परखो;
संसार
के चरित्र के
अनुसार, संसार
को परखो।
मैं
कैसे जानता
हूं कि संसार
ऐसा है?
चरित्र
के दो आयाम
हैं। एक तो
चरित्र है जो
बाहर-बाहर से
आरोपित है।
ऐसे चरित्र की
कोई दृढ़ता
नहीं। ऐसा
चरित्र कितना
ही मजबूत
दिखाई पड़े, मजबूती
धोखा है। ऐसा
चरित्र किसी
भी क्षण टूट सकता
है। ऐसा
चरित्र टूटा
ही हुआ है।
क्योंकि ऐसे
चरित्र के
पीछे उसका
विरोधी, बड़ी
शक्ति से मौजूद
है। ऐसा
चरित्र एकरस
नहीं है। उसका
तोड़ने वाला
तत्व दबाया
गया है। उसका
तोड़ने वाला
तत्व रूपांतरित
नहीं हुआ है।
दूसरा
चरित्र है जो
भीतर से
आविर्भूत
होता है, और
बाहर की तरफ
फैलता है।
जिसे ऊपर से
रंग-रोगन की
तरह नहीं पोता
जाता, बल्कि
जो भीतर की
गरिमा की तरह,
भीतर की
अग्नि की
भांति बाहर की
तरफ दौड़ता
है; जिसका
जन्म
तुम्हारे
अंतःकरण में
होता है, जिसका
जन्म
तुम्हारे
हृदय में होता
है। जिसकी
जड़ें स्वभाव
में छिपी हैं;
जो
तुम्हारी
आत्मा से आता
है।
एक है
चरित्र जो
आरोपित है, और
एक है चरित्र
जो अंतस से
जाग्रत है। जो
अंतस से
जाग्रत है वह
दृढ़ है; उसे
तोड़ा नहीं जा
सकता। उसके
तोड़ने का उपाय
ही नहीं बचा।
उसके भीतर
विरोधी तत्व
मौजूद नहीं है।
तुम उसे डिगा
भी नहीं सकते।
क्योंकि कोई दूसरा
थोड़े ही किसी
को डिगाता है।
जब तुम डिगते
हो तब डिगने
का कारण
तुम्हारे
भीतर ही होता
है। तुम्हें
कोई डिगाता
नहीं; तुम
डिगने को
तैयार होते हो,
इसीलिए कोई
डिगाता है।
एक
स्त्री ने एक
पुलिस दफ्तर
में जाकर कहा
कि मेरे साथ
बलात्कार
किया गया है, और
जिसने किया है
वह महामूर्ख
है। चकित हुआ
जो आफीसर
डयूटी पर था!
और उसने कहा, यह तो मैं
समझ सकता हूं,
बलात्कार
की रोज ही
घटनाएं घटती
हैं; लेकिन
दूसरी बात
मेरी समझ में
नहीं आती कि
यह तुझे कैसे
पता चला कि वह महामूर्ख
था। उस स्त्री
ने कहा, निश्चित
महामूर्ख
था, क्योंकि
बलात्कार
कैसे करना यह
भी मुझे ही बताना
पड़ा।
कोई
तुम्हें
डिगाता नहीं।
बलात्कार भी
कोई नहीं कर
सकता है, अगर
तुम्हारे
भीतर ही स्वर
न छिपा हो।
बलात्कार में
भी तुम्हारे
साथ की जरूरत
पड़ेगी। अन्यथा
बलात्कार भी
संभव नहीं है।
यह
थोड़ा कठिन
लगेगा।
क्योंकि तुम
सोचोगे, बलात्कार
तो जबरदस्ती
की गई घटना
है।
लेकिन
जबरदस्ती को
भी तुम
आमंत्रित
करते हो। मनसविद
कहते हैं कि कुछ
स्त्रियां
हैं जो
बलात्कार को
आमंत्रित करती
हैं;
कुछ
स्त्रियां
हैं, जब तक
उनके ऊपर
बलात्कार न हो
तब तक उनको
तृप्ति नहीं।
वे सब तरह का
आयोजन करती
हैं कि उन पर बलात्कार
हो। और
बलात्कार में
भी सहयोग की
तो जरूरत है
ही, क्योंकि
अगर स्त्री का
बिलकुल
असहयोग हो तो
वह मुर्दे की,
लाश की
भांति हो
जाएगी; उससे
बलात्कार
नहीं किया जा
सकता। अगर
उसका पूर्ण
असहयोग हो तो
ठीक बलात्कार
के क्षण में ही
शरीर से प्राण
अलग हो
जाएंगे।
भारत
के पुराने
शास्त्रों
में कहा है, सती
के साथ
बलात्कार
नहीं किया जा
सकता, सती
का सतीत्व
भ्रष्ट नहीं
किया जा सकता।
ऊपर से
देखने पर बात
अजीब लगती है।
क्योंकि कोई
जबरदस्ती दस
आदमी इकट्ठे
होकर स्त्री
का सतीत्व
क्यों नष्ट
नहीं कर सकते? लेकिन
सतीत्व अगर सच
में ही सतीत्व
है तो स्त्री
के
प्राण-पखेरू
उड़ जाएंगे, लेकिन
बलात्कार
नहीं हो
सकेगा। सहयोग
से ही होगा।
सहयोग में ऊपर
कितना ही
विरोध हो, भीतर
गहरी
आकांक्षा
होगी।
तुम
डिगा नहीं
सकते, अगर
चरित्र की
जड़ें स्वभाव
में हैं। तुम
कैसे किसी को
लोभ में डाल
सकोगे, अगर
भीतर लोभ न
बचा हो?
हर
आदमी की लोभ
की सीमा अलग
हो सकती है।
कोई तुम्हें
पांच रुपया
रिश्वत दे तो
तुम हो सकता
है,
कह दो, नहीं
लूंगा। क्या
समझा है तुमने
मुझे? मैं
कोई
भ्रष्टाचारी
नहीं हूं।
लेकिन पांच हजार
दे तो इतनी
आसानी से न कह
पाओगे। और अगर
पांच लाख दे
तो बड़ी
मुश्किल हो
जाएगी। और अगर
पांच करोड़
दे तो
तुम्हारे मन
में खयाल ही न
उठेगा कि यह भ्रष्टाचार
है।
इससे क्या
फर्क पड़ता है
कि पांच रुपए
लिए कि पांच करोड़ लिए? यह
भेद तो संख्या
का है। इससे
एक ही बात पता
चलती है कि
तुम्हारे लोभ
की जो सीमा है
वह पांच रुपए
के बाद शुरू
होती है। बस
पांच रुपए तक
तुम अलोभ में
हो। उतना गहरा
तुम्हारा
चरित्र है। पांच
रुपए की गहराई
तुम्हारा
चरित्र है।
पांच करोड़
की गहराई पर
तुम्हारा
चरित्र नहीं
है। वहां तुम
डगमगा जाते
हो।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला नसरुद्दीन
की लड़की के
साथ गांव के
सम्राट ने
अनैतिक संबंध
स्थापित कर
लिया और वह
गर्भवती हो
गई। मुल्ला
बहुत नाराज
हुआ;
बहुत
चीखा-चिल्लाया।
उठाई तलवार और
चला गांव के
सम्राट की
तरफ। आगबबूला
हो रहा था, क्रोध
से जला जा रहा
था। और उसने
कहा कि तुमने क्या
किया? जीवन
से मूल्य
चुकाना
पड़ेगा। तुमने
मुझे समझा
क्या है? लेकिन
गांव का जो
राजा था, उसने
कहा, बैठो
शांति से, पहले
मेरी बात
सुनो। क्या
मामला क्या है?
नसरुद्दीन ने कहा, मेरी
लड़की को
तुम्हीं ने
गर्भ दिया, तुम्हीं ने
उसे भ्रष्ट
किया; यह
मैं बरदाश्त
नहीं कर सकता।
राजा ने कहा, चिंता मत
करो! क्योंकि
अगर सच में ही
तुम्हारी
लड़की गर्भवती
है तो पचास
हजार रुपया तो
मैं तुम्हें
दूंगा, ताकि
तुम बच्चे को
पाल-पोस सको; और पांच लाख
रुपए मैंने
जमा कर रखे
हैं बच्चे के
भविष्य के लिए,
वे बैंक में
हैं। नसरुद्दीन
एकदम हलका हो
गया। क्रोध खो
गया। और उसने
कहा कि और अगर
इस बार बच्चा
पैदा न हुआ, कुछ भूल-चूक
हो गई, मुर्दा
पैदा हुआ, समय
के पहले पैदा
हो गया, मर
गया, या
कुछ हो गया, तो आप एक और
अवसर देंगे या
नहीं? मैं
यही पूछने आया
हूं कि मेरी
लड़की को एक और
अवसर देंगे या
नहीं?
सीमा
है। कोई
तुम्हें कुछ
कहे,
तुम
क्रोधित न होओ,
फिर कोई
तुम्हें और
बड़ी गाली दे
तो तुम क्रोधित
हो जाओ, तो
यह मत समझना
कि तुम अक्रोध
को उपलब्ध हुए
हो। इतना ही
समझना कि क्रोध
की और
तुम्हारे
अक्रोध की
पर्त की एक
व्यवस्था है।
एक सीमा तक
तुम क्रोधित
नहीं होते, वहां तक
तुम्हारा
आचरण है। उसके
भीतर क्रोध उबल
रहा है, वही
तुम्हारी
असली स्थिति
है। जब तक तुम डिगाने के
बाहर न हो जाओ
तब तक
तुम्हारा
चरित्र चमड़ी के
जैसा है, ऊपर-ऊपर
है। जरा सा
कांटा चुभे
और उखड़ जाएगा।
जिस दिन तुम डिग ही न
सको, आसान
न रह जाए यह
बात, आसान
क्या असंभव ही
हो जाए।
तो ये
दो हैं चरित्र
के आयाम। एक
आयाम है ऊपर से
आरोपित करना।
वह
व्यवहार-कुशलता
है,
चरित्र
नहीं है।
लोगों के साथ
व्यवहार करने
के लिए
तुम्हें थोड़ा
शिष्टाचार
सीखना पड़ता
है। हर जगह, हर स्थिति
में क्रोधित
होना मंहगा
है। तुम चालाक
हो। तो तुम
जानते हो, कहां
क्रोधित होना,
कहां नहीं
होना, किस
पर होना, किस
पर नहीं होना।
क्रोध में भी
तुम मुस्कुराते
रहते हो, अगर
जिस पर क्रोध
करने का मौका
आया है वह बली
है, शक्तिशाली
है। अगर यही
बात कमजोर ने
कही होती, तुम
गर्दन दबा
देते। तो यह
तुम्हारी
चालाकी हो
सकती है; चरित्र
नहीं है। समाज
में जीना है
तो कुशलता चाहिए।
अकेले तुम
नहीं हो; चारों
तरफ हजारों
लोग हैं। उनके
साथ चलना है, उठना है, बैठना
है, व्यवहार
करना है। तो
तुम्हें एक
गणित सीखना
पड़ेगा। तुम
अपने
मनोवेगों को
स्वतंत्रता
नहीं दे सकते
हो; अन्यथा
जीना मुश्किल
हो जाएगा। और
तुम चौबीस घंटे
अड़चन में
रहोगे।
इस
गणित को तुम
चरित्र मत समझ
लेना। यह गणित
तो ऊपर-ऊपर
है। इसीलिए तो
निरंतर यह
होता है कि जब
भी तुम थोड़े
ज्यादा
शक्तिशाली हो
जाते हो, यह
गणित बदलने
लगता है।
क्योंकि यह
गणित तभी तक
काम देता है
जब तक तुम
कमजोर थे।
जैसे ही तुम्हारी
शक्ति बढ़ती है,
थोड़ा धन
बढ़ता है, थोड़ा
पद बढ़ता है, तो सारी
स्थिति बदल
जाती है। जो
कल ताकतवर थे वे
कमजोर हो जाते
हैं। अब तुम
उन पर क्रोध
कर सकते हो।
कल जो कमजोर थे
वे और कमजोर
हो जाते हैं; अब तुम उनके
सिर पर पैर रख
कर सीढ़ियां
बना सकते हो।
जो
लार्ड एक्टन
ने कहा है, पावर
करप्ट्स,
एंड करप्ट्स
एब्सोल्यूटली,
कि शक्ति
लोगों को
भ्रष्ट करती
है और परिपूर्ण
रूप से भ्रष्ट
करती है, वह
एक अर्थ में
सही है और एक
अर्थ में सही
नहीं। ऐसा
होता है, यह
निश्चित है।
तो लार्ड एक्टन
जो कह रहा है
वह ठीक कह रहा
है। उसका
निरीक्षण सही
है कि जो भी
व्यक्ति
शक्ति में
पहुंचता है
वही भ्रष्ट हो
जाता है।
लेकिन फिर भी
यह सही नहीं
है। क्योंकि
शक्ति किसी को
भ्रष्ट नहीं करती।
वह व्यक्ति
भ्रष्ट तो था
ही। कमजोर था,
इसलिए
भ्रष्टता को
प्रकट नहीं कर
सकता था। शक्ति
ने, जो
छिपा था, उसे
प्रकट करने का
मौका दिया। यह
करना तो वह सदा
से चाहता था, लेकिन करने
की सुविधा
नहीं जुटा
पाता था। अब उसके
पास सुविधा
है।
तुम
देखते हो, भारत
में ऐसा हुआ।
आजादी के पहले
जो राजनीतिज्ञ
सेवक थे वे ही
आजादी के बाद
शोषक हो गए।
आजादी के पहले
जो बड़े त्यागी
मालूम होते थे
वे ही आजादी
के बाद बड़े
भोगी हो गए।
उनका त्याग
ऊपर से थोपा
हुआ आचरण था, जो
परिस्थिति की
मजबूरी थी, जो वास्तविक
नहीं थी। उनकी
अहिंसा
ऊपर-ऊपर थी।
यह जान कर तुम
हैरान होओगे
कि इन पच्चीस
वर्षों में
इन्हीं
राजनीतिज्ञों
ने, जो
अहिंसा का
दिन-रात उदघोष
करते रहते हैं,
जितनी
हत्या की है
इतनी
अंग्रेजों ने
भारत में कभी
भी न की थी।
इसे कोई सोचता
भी नहीं। जितनी
गोली
इन्होंने
चलाई है उतनी
एक विजातीय, एक परदेशी
सत्ता ने भी न
चलाई थी। अगर
अंग्रेज इतनी
ही गोली चलाने
को राजी होते
तो तुम कभी
स्वतंत्र ही न
हो पाते।
जितने लोगों
को तुमने जेल
में डाला है
इतनों को अगर
अंग्रेज
डालने को
तैयार होते और
इस बुरी तरह
दमन करने को
राजी होते तो
गुलामी कभी
टूट नहीं सकती
थी।
गोली
चलाना खेल हो
गया है। रोज
कहीं न कहीं
भारत में गोली
चलती है।
दो-चार, पांच
आदमियों के
मरने की कोई
बात ही खास
नहीं रही है।
लाठी तो रोज
पड़ती है।
जेलों में
बहुत बुरी दशा
है। और ये सब
अहिंसक हाथों
से हो रहा है।
हिंसा के करने
वाले लोग अगर
ऐसा करें तो संगति
है। लेकिन
अहिंसक
दावेदार, जो
गांधी की छाया
में बड़े हुए
और जो दिन-रात
गांधी का
गुणगान करते
रहते हैं, उनके
हाथ तले यह सब
हो रहा हो, तो
एक बात समझ
लेनी चाहिए कि
गांधी इस देश
को चरित्र
नहीं दे सके।
गांधी ने इस
देश को कुशलता
दी, चालाकी
दी। ऊपर-ऊपर
रही बात, भीतर
गहरे में न
गई। और उनके
सारे अनुयायी
भ्रष्ट साबित
हुए।
लेकिन
भ्रष्टता का
पता सैंतालीस
के पहले नहीं
चला। चल नहीं
सकता था। ताकत
ही हाथ में न
थी तो भ्रष्ट
कैसे होंगे? तब
वे बड़े शुद्ध
मालूम पड़ते
थे। शुभ्र
खादी के
वस्त्रों में
उन जैसे साधु
खोजना कठिन
थे। वस्त्र अब
भी वही हैं।
शुभ्रता और भी
बढ़ गई है। लेकिन
भीतर का
कालापन पूरी
तरह प्रकट हो
गया है।
एक
आचरण है जो
आदमी सामाजिक
व्यवहार की
तरह सीखता
है--कैसे
बोलना, कैसे
उठना, कैसे
चलना--ताकि
तुम व्यर्थ ही
किसी के विरोध
में न पड़ जाओ, व्यर्थ ही
शत्रु न बना
लो, कुशलता
से काम लो, ताकि
जो लक्ष्य
तुम्हारे
जीवन की महत्वाकांक्षा
है, वह
पूरी हो सके।
राजनीतिज्ञ
जब चुनाव के
समय तुम्हारे
पास आता है तो
कैसे हाथ जोड़
कर मुस्कुरा
कर खड़ा हो जाता
है! इनकी
मुस्कुराहट
और हाथ जुड़े
देख कर बुद्ध
और महावीर की
विनम्रता भी
छोटी मालूम
पड़ेगी। एकदम
विनम्र हो
जाता है, पानी-पानी
मालूम होता
है। ऐसा लगता
है कि
तुम्हारे
चरणों में सिर
रख देने को
लालायित है।
फिर पद पर
पहुंच जाने पर
यह तुम्हें
पहचानेगा
नहीं। यह यह
बात भी नहीं
मानेगा कि कभी
यह तुम्हारे
द्वार गया था।
तुम भूल कर
इसके पास मत
चले जाना कि
आप हमारे
द्वार आए थे
और हमने आपको
मत दिया था, और आप हाथ
जोड़ कर खड़े
हुए थे। सच तो
यह है कि चूंकि
इसे हाथ जोड़ना
पड़ा, यह
तुमसे बदला
लेकर रहेगा, यह तुम्हें
नीचा दिखा कर
रहेगा।
क्योंकि परिस्थिति
ऐसी थी, हाथ
जोड़ने
पड़े, तुम्हें
भुला नहीं
सकता; यह
तुम्हारा
अपमान करके
रहेगा।
तो यह
एक आचरण है।
ऐसा आचरण ऊपर
आचरण भीतर गहन
पाखंड है।
जीसस निरंतर
अपने वचनों में
कहते हैं, अरे
ओ पाखंडियो!
अपने शिष्यों
को कहते हैं
कि तुम
पाखंडियों जैसे
आचरण से मत भर
जाना, उससे
तो दुराचरण भी
ठीक है। कम से
कम ईमानदार तो
है; कम से
कम सच्चा तो
है। जीसस अपने
शिष्यों को कहते
हैं कि ध्यान
रखना, दुराचारी
पहले पहुंच
जाएंगे
तुम्हारे सदाचारियों
से। क्योंकि
दुराचारी कम
से कम
सीधे-साफ हैं,
चालाक नहीं
हैं। ये
तुम्हारे
सदाचारी
बिलकुल चालाक
हैं और पाखंडी
हैं। और
जिस-जिस को ये
दिखा रहे हैं
कि इनमें नहीं
है, वही-वही
इनमें छिपा
है।
अगर
तुम्हारे
साधुओं के सिर
में एक खिड़की
बनाई जा सके
और तुम उसके
भीतर झांक सको
तो तुम बहुत
हैरान होओगे।
वहां तुम महान
अपराध को होते
देखोगे; यद्यपि
वे आचरण से
नहीं करते ऐसा
अपराध, यह
उनके विचार
में ही चलता
है। पर विचार
और आचरण का
कोई फर्क नहीं
है धर्म के
लिए। तुमने सोचा
कि हो गया; तुमने
किया या नहीं,
यह सवाल
नहीं है।
क्योंकि धर्म
का इससे कुछ
लेना-देना
नहीं है कि
तुमने क्या
किया। धर्म का
इससे ही संबंध
है कि तुमने
क्या करना
चाहा, तुम्हारे
भीतर क्या
करने का विचार
उठा। अगर तुमने
व्यभिचार
सोचा तो
व्यभिचार हो
गया। कानून
तुम्हें न पकड़
पाएगा, लेकिन
परमात्मा के
कानून से तुम
बच न सकोगे। इस
जमीन का कानून
तुम्हें न पकड़
पाएगा। तुम
अपने मन में
बैठ कर किसी
की भी हत्या
करते रहो, कोई
अदालत तुम पर
मुकदमा नहीं
चला सकती। कम
से कम सपने की
स्वतंत्रता
है। तुम
स्वप्न देख सकते
हो हत्या के, कोई कुछ
नहीं कह सकता।
जब तक तुम
कृत्य न करो
तब तक तुम
गिरफ्त में नहीं
आते। क्योंकि
संसार कृत्य
से जीता, कृत्य
से सोचता है।
संसार का
सिक्का कृत्य
है। लेकिन
परमात्मा का
सिक्का और।
वहां सोच-विचार...आखिरी
हिसाब इसका
नहीं है कि
तुमने क्या किया,
आखिरी
हिसाब इसका है
कि तुम क्या
करना चाहते
थे।
तब तुम
पापियों में
और
पुण्यात्माओं
में बहुत फर्क
न पाओगे। तब
तुम अपने
पुण्यात्माओं
को पापियों से
भी बड़ा पापी
पाओगे।
क्योंकि पापी तो
गुजर जाता है, कर
लेता है, निपट
जाता है; पुण्यात्मा
सोचता ही रहता
है, सोचता
ही रहता है।
वही-वही
पुनरुक्त
होता रहता है।
उसकी आत्मा एक
गर्त में पड़ती
जाती है। उसकी
आत्मा के
चारों तरफ एक
ही धुआं घूमने
लगता है; वह
पाप का धुआं
है।
ऐसा
आचरण
बेबुनियाद
है। और ऐसा
आचरण रेत पर
बनाए गए भवन
की तरह है जो
गिरेगा ही
देर-अबेर। संयोग
है कि थोड़ी
देर टिक जाए।
कागज की नाव
है,
इससे तुम यात्रा
न कर सकोगे।
यह तुम्हें डुबाएगी।
इससे तो बेहतर
है तुम बिना
नाव के ही
यात्रा कर लो।
क्योंकि बिना
नाव के जो
यात्रा करता
है वह तैरने
का इंतजाम
करके चलता है।
कागज की नाव
में जो चलता
है वह सोचता
है, नाव
पास है; तैरने
की जरूरत क्या?
तैरना
सीखने का
प्रयोजन क्या?
लेकिन कागज
की नावें पार
नहीं जातीं, बीच में डूब
जाती हैं।
और फिर
यह जो ऊपर-ऊपर
से साधा गया
आचरण है, यह
तुम्हें बड़ी
भीतरी कलह में
डाल देगा। एक कांफ्लिक्ट,
एक द्वंद्व
तुम्हारे
भीतर चलता ही
रहेगा। क्योंकि
जो भी तुम
करना चाहोगे,
करोगे नहीं;
और जो भी
तुम करोगे वह
तुम करना न
चाहोगे। मुस्कुराओगे
ऊपर, भीतर
क्रोध से भरे
रहोगे।
तुम्हारा
जीवन नरक बन
जाएगा। तुम
दोनों दिशाओं
में तने
रहोगे।
अशांति
और क्या है? पाखंड
के बीज अशांति
लाते हैं।
संताप और क्या
है? कि तुम
इस तरह खिंचे
हो दो चीजों
में कि न इस
तरफ हो पाते
हो, न उस
तरफ हो पाते
हो। ऊपर से
तुम्हें लगता
है कि क्रोध
बुरा है, क्रोध
करना नहीं; और भीतर
क्रोध उबलता
है। तब तुम एक
मुखौटा ओढ़े
लेते हो, मुंह
छिपा लेते हो,
झूठे चेहरे
मुंह पर ढांक
लेते हो। पर
तुम किसको
धोखा दे रहे
हो? दूसरे
को चाहे तुम
देने में सफल
भी हो जाओ, अपनी
ही अंतरात्मा
के समक्ष तो
तुम नग्न ही
रहोगे। वहां
तो कोई मुखौटे
काम न देंगे।
और वहां तो
तुम जानोगे
ही कि असलियत
क्या है। सत्य
इस तरह के
मुखौटों से
कभी उपलब्ध
नहीं हो सकता।
और इनको जरा
में हिलाया जा
सकता है।
लाओत्से
कहता है कि एक
ऐसा चरित्र भी
है जिसे हिलाना
आसान नहीं। उस
चरित्र की
बुनियाद
तुम्हारे
स्वभाव में है; चालाकी
में नहीं, तुम्हारी
प्रज्ञा में
है; गणित
में नहीं, तुम्हारी
अंतस चेतना
में है।
होशियारी में
नहीं; होशियारी
को बहुत
होशियारी मत
समझना। होशियारी
अंत में बड़ी
नासमझी सिद्ध
होती है।
होशियारी में
नहीं, होश
में असली
चरित्र की
बुनियाद रखी
जाती है। फर्क
को समझ लो।
फिर हमें इस
सूत्र को
समझना आसान हो
जाएगा।
क्रोध
तुम्हारे
जीवन में
है--एक तथ्य।
इस क्रोध के
दो उपाय हो
सकते हैं। एक
तो है कि तुम
इसे दबा दो, छिपा
दो अपने ही
भीतर। लेकिन
जो तुम्हारे
भीतर छिपा है
वह मिट नहीं
गया है। और जो
तुम्हारे
भीतर छिपा है
उसे रोज-रोज
छिपाना पड़ेगा;
क्योंकि वह
रोज-रोज बाहर
आना चाहेगा।
और जिसे तुम
भरते ही जाओगे
भीतर वह
धीरे-धीरे
तुम्हारे ऊपर
से बहने
लगेगा।
क्योंकि भरने
की भी एक सीमा
है। जगह भी
सीमित है
तुम्हारे
भीतर।
इसलिए
एक बहुत अनूठी
बात समझ लेना।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जो लोग
रोज-रोज क्रोध
कर लेते हैं
और उसे दबाते
नहीं, इनमें
से कभी शायद
ही कोई आदमी
हत्या करता
है। शायद ही।
असंभव है।
लेकिन जो लोग
क्रोध को दबाते
रहते हैं
इनमें से अधिक
लोग हत्या
करते हैं।
क्योंकि इतना
क्रोध इकट्ठा
हो जाता है कि
फिर छोटी-मोटी
घटना से तृप्त
नहीं होता, फिर हत्या
ही चाहिए। जब
तक तुम किसी
की गर्दन ही न
तोड़ दोगे, सिर
ही न फोड़
दोगे, लहूलुहान
ही न कर दोगे, जब तक तुम
जीवन को सामने
ही अपने तड़पते
हुए, मिटते
हुए न देख
लोगे, तब
तक तुम्हारी
आत्मा को शांति
न मिलेगी।
अगर
कोई मुझसे
पूछे कि क्रोध
करना ही हो और
बचने का कोई
उपाय ही न हो
तो क्या करना, तो
मैं उससे
कहूंगा, जब
भी करना हो कर
लेना, उसे
इकट्ठा मत
करना। छोटे
बच्चों जैसा
करना; क्रोध
आए जब, पूरा
निकाल लेना।
इसलिए छोटे
बच्चे घड़ी भर
बाद हंस रहे
हैं; जिस
बच्चे से घड़ी
भर पहले लड़े
थे और कहा था
कि अब जिंदगी
भर बोलेंगे
नहीं, खत्म
हो गई बात, अब
तुम्हारी
शक्ल न
देखेंगे, घड़ी
भर बाद फिर
दोनों पास
बैठे हैं और
गपशप कर रहे
हैं। जैसे वह
बात आई और गई, जैसे उससे
कोई जीवन का
लेना-देना
नहीं है। एक झोंका
था हवा का, आया
और गया। और
झोंका साफ कर
गया, धूल-धवांस झाड़
गया।
अगर
क्रोध करना ही
हो तो बच्चों
जैसा करना--कर लेना
और इकट्ठा मत
करना।
क्योंकि
इकट्ठा करने
वाला ही
मुसीबत में
पड़ेगा। वह
हत्या करेगा। वह
कोई भयानक
अपराध करेगा।
जब क्रोध
ज्यादा हो
जाएगा तो
छोटे-मोटे
कृत्य से
तृप्त न होगा; अकारण
बहेगा। जो
आदमी रोज-रोज
क्रोध कर लेता
है, जब
जरूरत होती है
तब क्रोध कर
लेता है, वह
आदमी क्रोधी
नहीं है। उसका
कोई कृत्य
क्रोध का होता
है, लेकिन
बस कृत्य ही
होता है।
चौबीस घंटे वह
आदमी
हलका-फुलका
होता है। और
जो आदमी क्रोध
नहीं करता, इकट्ठा करता
है, उसके
कृत्य में
क्रोध नहीं
होता, उसके
व्यक्तित्व
में क्रोध हो
जाता है। जहर
सबमें फैल
जाता है; वह
चौबीस घंटे
क्रोधी होता
है। उसके
चौबीस घंटे
में क्रोध की
छाया पड़ती
रहती है। वह
सामान भी
रखेगा तो जोर
से रखेगा; दरवाजा
खोलेगा तो जोर
से खोलेगा।
जूते उतारेगा
तो ऐसे कि
जैसे दुश्मन
को फेंक रहा
हो। वह बात
करेगा तो उसकी
बात में जहर
होगा। वह
देखेगा तो उसकी
आंखों में
कांटे होंगे।
वह प्रेम भी
करेगा तो उसके
प्रेम में भी
हिंसा होगी।
वात्स्यायन
ने,
जिसने सबसे
पहले जगत में
कामशास्त्र
पर विचार किया,
उसने लिखा
है कि प्रेम
तब तक अधूरा
है जब तक
प्रेमी
एक-दूसरे को
काटें न, लोचें
न। तो प्रेम
की अनेक बातों
में नखदंश
और प्रेम की
अनेक बातों
में दांतों के
चिह्न प्रेमी
पर न छूट जाएं
तब तक प्रेम
अधूरा है। लेकिन
प्रेम में तुम
काटना चाहोगे?
कि लोंचना
चाहोगे? यद्यपि
प्रेमी यह
करते हैं।
निश्चित
ही,
यह जहर कहीं
और से आ रहा
है। अन्यथा
प्रेम में तो
आदमी अति कोमल
होगा। काटने
की बात ही
बेहूदी है।
पशु भी नहीं
करते प्रेम
में काटना या लोंचना तो
आदमी क्यों
करेगा?
लेकिन
आदमी करता है।
और ऐसी घटनाएं
घटी हैं कि
कभी-कभी
प्रेमियों ने
एक-दूसरे की
हत्या कर दी--प्रेम
में। ऐसे कुछ
मुकदमे
दुनिया में
चले हैं जब कि
पहली ही
सुहागरात, पति
ने गर्दन दबा
दी पत्नी की।
और वह बड़े
प्रेम में था।
और वह खुद भी
भरोसा न कर
सका कि क्या हो
गया। और अदालत
में वह कहता
है तो कोई
उसकी मानता
नहीं! वह कहता
है कि मैं तो
इतना प्रेम
करता था, जार-जार
रोता हूं कि
मुझसे क्या हो
गया। यह किस
प्रेत ने मुझे
पकड़ लिया! किस
शैतान ने मुझे
पकड़ लिया! मैं
आविष्ट हो गया;
मैं मैं
नहीं था। यह
मुझसे हो नहीं
सकता, क्योंकि
अपनी प्रेयसी
को मैं क्यों मारूंगा? और कोई कारण
नहीं मारने
का। और अभी तो
पहली ही रात
थी। और कितने
दिन से आशा संजोई
थी।
लेकिन
अगर तुम क्रोध
को इकट्ठा
करते जाओ तो
वह किसी भी
क्षण बह सकता
है। और प्रेम
का क्षण बड़े
खुलने का क्षण
है। क्योंकि
प्रेम के क्षण
में तुम सब
खिड़की-दरवाजे
खोल देते हो।
अगर क्रोध
बहुत भरा हो
तो बह जाएगा।
तुम करोगे
क्या? घड़े में जो भरा
है वह बाहर आ
जाएगा, अगर
सब खुल जाए।
तो प्रेम में
तुम अपने को
सम्हाले नहीं
रख सकते, नहीं
तो प्रेम न कर
पाओगे। और
सम्हालना
छोड़ा कि जो
तुम्हारे
भीतर भरा है
वही बाहर आ
जाएगा।
तो
क्रोध के साथ
एक तो रास्ता
है कि तुम उसे
दबाओ, भीतर-भीतर
सरकाते जाओ; तुम्हारे
अचेतन में
लबालब क्रोध
हो जाए। तब
तुम क्रोधी
व्यक्ति हो
जाओगे। भला
तुम्हारा
क्रोध का कृत्य
हो या न हो, तुम्हारे
व्यक्तित्व
में क्रोध का
जहर होगा।
तुम्हारे
साधु-संन्यासियों
में तुम ऐसे
आदमियों को
पाओगे।
दुर्वासा
तुम्हें सब
जगह मिल
जाएंगे।
दुर्वासा ऋषि
बड़े रिप्रेजेंटेटिव,
प्रतिनिधि
ऋषि हैं। उन
जैसे ऋषि
तुम्हें जगह-जगह
मिलेंगे।
छोटी सी बात
उन्हें
आगबबूला कर देगी।
बात का बतंगड़
हो जाएगा।
बहुत क्षुद्र
सी बात उन्हें
क्रोध से भर
देगी। वे
विनाश को
उतारू हो
जाएंगे, अभिशाप
उनसे बहने
लगेगा। क्रोध
को अगर दबाया तो
तुम्हारा
अचेतन जहरीला
हो जाएगा।
और यही
पहले तरह का
चरित्र करता
है;
क्रोध को, काम को, लोभ
को, मोह को
दबाता है।
कचरा भीतर
भरता है। और
जितना यह कचरा
भीतर भरता
जाता है, तुम्हारी
आत्मा तुमसे
उतनी ही दूर
होती चली जाती
है। फिर तुम
भीतर जाने में
भी डरने
लगोगे।
क्योंकि भीतर
गए तो यही
कचरा पहले
मिलेगा। तब
तुम बाहर ही
बाहर रहोगे, घर के बाहर
ही घूमोगे,
पोर्च में
ही विश्राम
करोगे। उससे
भीतर जाने की
तुम्हारी
हिम्मत टूट
जाएगी।
आखिर
इतना तुम
सुनते हो, सारी
दुनिया के
बुद्ध पुरुष
कहते हैं, भीतर
जाओ, जानो
अपने को, आत्मज्ञान,
अपनी पहचान;
तुम जाते
नहीं। तुम सुन
लेते हो। कहते
हो, ठीक है,
जाएंगे कभी;
लेकिन जाते
नहीं। तुम
जानते हो कि
भीतर गए तो ब्रह्म
से मिलने की
तो कोई
संभावना नहीं
दिखाई पड़ती, मिलेगा यह
कचरा जो तुमने
दबाया है। और
जब भी कभी तुम
भीतर गए हो
थोड़े तो यही
कचरा मिला है।
इसीलिए तो तुम
अकेले तक रहने
में डरते हो।
कोई दूसरा रहे
तो मुखौटा लगा
रहता है।
दूसरे को दिखाने
के लिए तुम
अभिनय करते
रहते हो। जब
तुम बिलकुल
अकेले रहते हो,
मुखौटा उतर
जाता है। जब
दूसरा है ही
नहीं तो दिखाना
किसको? तब
अपने से संबंध
होने शुरू हो
जाते हैं। और
अपने से तुम
बड़े भयभीत हो।
तुम जानते हो,
कुछ उपद्रव
हो जाएगा।
बहुत
से प्रयोग किए
गए हैं
वैज्ञानिक
ढंग से, कि
लोगों को तीन
सप्ताह के लिए
एकांत में रख
दिया गया, बिलकुल
एकांत, गहन
अंधेरी कोठरी
में। सब
सुविधा जुटा
दी गई है, कोई
कमी नहीं है।
तीन सप्ताह
में लोग पागल
हो जाते हैं।
क्या हो जाता
है? पागल? और यह आदमी
स्वस्थ था, ठीक था, सब
तरह से साधारण
था। अचानक
पागल क्यों हो
गया?
तीन
सप्ताह बहुत
ज्यादा है
अपने साथ
रहना। और तीन
सप्ताह
अंधेरे में
अपने को ही
देखना, अपने
से ही मिलना, तो सब कचरा
दिखाई पड़ने
लगता है। सब
घाव फिर से
हरे हो जाते
हैं, मवाद
ही मवाद मालूम
होती है। घबड़ाहट
हो जाती है।
उस घबड़ाहट
में आदमी पागल
हो जाता है।
कोई
अपने साथ रहना
नहीं चाहता।
अकेलेपन से तुम
बचते हो।
मैंने ट्रेन
में बहुत
वर्षों तक सफर
की,
तो मैं देख
कर हैरान हुआ
कि लोग एक ही
अखबार को चार-चार
दफे पढ़ते हैं,
लेकिन खाली
नहीं बैठ
सकते। उस
अखबार को पहले
पढ़ लेते हैं।
ठीक शुरू से, जहां लिपटन
की चाय का
विज्ञापन
कोने में है, आखिर तक कि
कौन संपादक है,
कौन
प्रकाशक है, वहां तक पढ़
गए। फिर से
शुरू कर देते
हैं; थोड़ी
देर रख देते
हैं साइड में,
फिर से शुरू
कर देते हैं; उलझाए रखते हैं
अपने को।
खोलते हैं
खिड़की, फिर
बंद कर देते
हैं; फिर
थोड़ी देर में
खोलते हैं।
फिर सूटकेस
खोलते हैं; फिर कुछ
इधर-उधर सामान
जमा कर फिर
बंद कर देते हैं।
लंबी
यात्रा में
अगर तुम
चुपचाप किसी
आदमी को देखते
रहो तो तुम
बहुत हैरान
होओगे कि यह
कर क्या रहा
है! क्यों कर
रहा है! उसे भी
पता हो जाए तो
वह भी हैरान
होगा। लेकिन
करने का वह सब
उपाय कर रहा
है अपने से
बचने के लिए
इस अकेलेपन
में। इसलिए
अजनबी से लोग
बातचीत शुरू
कर देते हैं; व्यर्थ
की बातचीत
शुरू कर देते
हैं। मौसम की
चर्चा शुरू कर
देते हैं। अब
दोनों को
दिखाई पड़ रहा
है कि बाहर
पानी गिर रहा
है; इसमें
कुछ कहने का
नहीं है।
लेकिन कुछ भी
बात चाहिए।
अजनबियों
से लोग मौसम
की ही चर्चा
शुरू करते हैं
पहले कि कैसी
सुंदर रात है।
क्योंकि
दूसरी कोई भी
चर्चा खतरनाक
हो सकती है।
अभी पक्का पता
नहीं है कि
अजनबी
कम्युनिस्ट
है,
कि हिंदू है,
कि मुसलमान
है। मौसम
बिलकुल
निष्पक्ष बात
है। इसमें कोई
ज्यादा मत का
सवाल नहीं है,
झगड़े का कोई
उपाय नहीं है।
क्योंकि जब
चांद निकला है
तो यह भी
कहेगा कि हां,
सुंदर है, इसमें एकमत
हो जाएगा। और
कोई दूसरी बात
उठाना खतरे से
खाली नहीं है;
कहीं विरोध
हो जाए। और यह
मौका विरोध
करने का नहीं
है; यहां
साथ चाहिए।
मुल्ला
नसरुद्दीन
से उसके लड़के
ने एक दिन
पूछा कि जब भी
आप बाल बनवाने
नाई के यहां
जाते हैं तो
आप हमेशा
मौसम-मौसम की
चर्चा क्यों
करते हैं नाई
से?
दूसरी बात
क्यों नहीं
करते? घर
पर तो आप और कई
बातें करते
हैं। नसरुद्दीन
ने कहा, तू
समझता नहीं।
जब एक आदमी के
हाथ में
उस्तरा हो तो
कोई भी ऐसी
बात करना, जिसमें
विरोध हो जाए,
उचित नहीं
है। मौसम
बिलकुल ठीक
है। राजनीति में
भेद हो सकता
है, धर्म
में विरोध हो
सकता है, दर्शन-शास्त्र
में अलग मत हो
सकता है। और
उस आदमी के
हाथ में छुरा
है! अपनी
गर्दन कटवानी
है? गुस्से
में आ जाए, क्रोध
हो जाए। ऐसी
बात करनी उचित
है जो बिलकुल
तटस्थ है, जिसमें
कोई झगड़े का
उपाय नहीं।
आदमी
अपने से भयभीत
है। और भय का
कारण है कि सब जो
बुरा है भीतर
दबा लिया।
ऐसे
चरित्र की
कितनी जड़ें हो
सकती हैं? कोई
जड़ ही नहीं है,
बिना जड़ का
चरित्र है।
इसे हिलाने
में कोई कठिनाई
है? इसे
कोई भी हिला
दे सकता है।
तुम बिलकुल
अपनी पत्नी से
मात्र प्रेम
करते हो। अगर
ऐसा ही प्रेम
है तो कोई भी
सुंदर स्त्री
सड़क से निकलती
हुई इसे हिला
दे सकती है।
हिलाने की
जरूरत भी नहीं
है। उस स्त्री
को पता भी
नहीं होगा कि
आप हिल गए, कि
आपके मन में
विचार चल पड़ा,
कि
कामवासना जग
गई। कोई भी
छोटी सी घटना
आंदोलित कर
देगी।
दूसरा
चरित्र है जो
दमन से पैदा
नहीं होता, जो
जागरण से पैदा
होता है।
क्रोध को
दबाना नहीं है,
क्रोध को
समझना है। लोभ
को दबाना नहीं
है, लोभ को
समझना है। लोभ
क्या है? उसके
पक्ष-विपक्ष
में होने की
आवश्यकता
नहीं है, उसकी
निंदा भी नहीं
करनी है, क्योंकि
परमात्मा ने
जो भी दिया है
कोई प्रयोजन
होगा।
अस्तित्व में
निष्प्रयोजन
तो कुछ भी
नहीं है। अगर
क्रोध दिया है
तो कोई आधार
होगा। क्रोध
दिया है तो
कारण होगा।
क्रोध दिया है
तो कोई
सदुपयोग होगा।
क्रोध दिया है
तो इस ऊर्जा
से कुछ निर्मित
हो सकता होगा।
तुम्हें पता न
हो आज कि क्या करें।
तुम्हें
पता न हो कि घर
में सितार रखा
है,
यह संगीत
इससे पैदा
होता है। और
तुमने कभी संगीत
इससे पैदा
होते देखा भी
नहीं। कभी कोई
चूहा धक्का
मार देता है
तो रात में नींद
टूट जाती है।
कभी कोई बच्चा
आकर तार छेड़
देता है तो घर
में सिर्फ
शोरगुल मच
जाता है। इससे
तुमने संगीत
पैदा होते
देखा नहीं; क्योंकि
संगीतज्ञ के
हाथों ने इसे
छुआ नहीं। तुम
अपरिचित हो।
सितार भी
शोरगुल पैदा
करेगा, अगर
तुम जानते
नहीं कि कैसे
बजाएं। ऐसा ही
शोरगुल
तुम्हारे
व्यक्तित्व
में हो रहा
है। तुम जानते
नहीं कि कैसे
जीवन को बजाएं,
जीवन की
बांसुरी से
कैसे सौंदर्य
उठे, संगीत
उठे। इससे
क्रोध उठ रहा
है, इससे
लोभ उठ रहा
है। लोभ और
क्रोध तो
सिर्फ अभाव
हैं। वे तो यह
बताते हैं कि
तुम्हें
बजाना न आया।
वे तो यह
बताते हैं कि
तुम राग को
सम्हाल न पाए।
वे तो यह
बताते हैं कि
जो तुम्हें
मिला था, उसका
तुम संयोजन न
बिठा पाए।
तुम्हारी
दशा वैसी है
कि आटा रखा हो, पानी
रखा हो, घी
रखा हो, सिगड़ी जल रही हो--और
तुम भूखे बैठे
हो, क्योंकि
रोटी बनाने का
तुम्हें कुछ
पता नहीं है।
सब मौजूद है, सिर्फ
मिलाना है ठीक
अनुपात में, अंगीठी पर चढ़ाना है; ठीक समय
देना है। जब
भूख है तो पास
ही कहीं भोजन
छिपा होगा; क्योंकि भूख
अकारण नहीं हो
सकती। और भोजन
न हो तो भूख
नहीं दी जा
सकती। और फिर
हमने उनको भी
देखा है जो
तृप्त हो गए।
हमने बुद्ध को
देखा है, जिनकी
भूख जा चुकी।
उन्होंने
भोजन बना लिया
है; उन्होंने
रोटी तैयार कर
ली है। आटा
अकेला नहीं
खाया जा सकता।
खाओगे, पेट
में दर्द होगा,
तकलीफ
होगी। आटे के
दुश्मन हो
जाओगे। पानी
अकेला पीओगे,
भूख नहीं
मिटेगी। थोड़ी
देर पेट भर जाएगा,
फिर खाली हो
जाएगा। और जोर
से भूख लगेगी।
आग से सेंकते
रहोगे हाथ, पसीना बहेगा,
भूख न
मिटेगी। तत्व
सब मौजूद हैं;
रोटी बनानी
है। सितार
तैयार है; सिर्फ
अंगुलियां
साधनी हैं।
जिसे
तुम क्रोध कह
रहे हो, वही
करुणा बनेगा।
वही ऊर्जा
जिसे तुम लोभ
कह रहे हो, वही
दान बनेगा।
वही
ऊर्जा--जिस
दिन तुम
संगीतज्ञ हो
जाओगे, जिस
दिन तुम बजाना
सीख
लोगे--जिसे
तुम काम कह रहे
हो, वही
ब्रह्मचर्य
बनेगा। वही
ऊर्जा! एक ही
ऊर्जा है; जब
तुम उसे
भ्रष्ट होने
देते हो तो
क्रोध हो जाती
है, जब तुम
उसे सम्हाल
लेते हो, रूपांतरित
कर लेते हो, करुणा हो
जाती है। एक
ही ऊर्जा है।
जब तुम छिद्रों
से बहने देते
हो तो
कामवासना हो
जाती है, जब
तुम अछिद्र हो
जाते हो और
उसे संयम में
साध लेते
हो--संयम यानी
संगीत--वही
ऊर्जा
ब्रह्मचर्य
हो जाती है।
जो भी
तुम्हारे पास
है,
सभी सार्थक
है। तुम बड़े
धनी हो। यह
अस्तित्व
इतना समृद्ध
है कि यहां
गरीब पैदा
होते ही नहीं।
और अगर गरीब
हो, अपने
कारण हो। अगर
रो रहे हो, अपने
कारण। यह सारा
जगत हंसता हुआ
है। यहां रोने
में तुम्हारी
कोई भूल हो
रही है। और उस
भूल में तुम
ऐसा मत करना
कि यह आटा गलत
है, फेंक
दो; कि यह
आग गलत है, बुझा
दो; कि
पानी भूख नहीं
मिटाता, उलटा
दो। फिर तो
तुम भूख को
कभी भी न बुझा
पाओगे; क्योंकि
तुमने साधन ही
नष्ट कर दिए।
तो मैं
तुमसे नहीं
कहता कि तुम
क्रोध को फेंक
दो। वह आटा
है। मैं तुमसे
नहीं कहता कि
तुम कामवासना
को बुझा दो।
वह आग है। मैं
तुमसे नहीं कहता
कि तुम लोभ के
दुश्मन हो
जाओ। क्योंकि
वह जल है। उन
सबसे मिल कर
तुम्हारी भूख
मिटेगी।
उन्हें समझो, उन्हें
पहचानो, उनका सम्यक
अनुपात खोजो।
उनके प्रति
बोध।
बोध
आने में बाधा
पड़ रही है, क्योंकि
तुम पहले ही
से दुश्मनी
लिए बैठे हो। अब
जिस आदमी ने
पहले ही से
आटे से
दुश्मनी बांध
ली, वह आकर
बैठेगा तो पीठ
करके बैठेगा
आटे की तरफ।
दुश्मन को
क्या देखना? तुमने जीवन
में जो भी ऊर्जाएं
हैं उनके साथ
दुश्मनी समझ
ली है। छोड़ो
दुश्मनी। समझ
को पकड़ो।
पहले पहचानो,
निंदा मत
करो। क्योंकि
निंदा जो
करेगा वह पहचान
न पाएगा। कहीं
हम अपने शत्रु
को पहचान सकते
हैं? जिसका
हमारे मन में
विरोध है उसे
हम पहचानना ही
नहीं चाहते; उसे हम
चाहते हैं कि
वह हो ही न।
पहचान का क्या
सवाल है? वह
रास्ते पर मिल
जाए तो हम
आंखें नीचे
झुका कर गुजर
जाते हैं। वह
हाथ बढ़ाए
तो हम पीठ फेर
लेते हैं।
नहीं, तुम
जीवन की
ऊर्जाओं से
शत्रुता मत
बांधना।
क्योंकि जीवन
की ऊर्जाएं
जीवन की ऊर्जाएं
हैं। कुछ भी
निरर्थक नहीं
है। इस
अस्तित्व में
एक छोटा सा
तिनका भी
निरर्थक नहीं
है। सार्थकता
तुम्हें पता न
हो, यह बात
तुम्हारी
रही। समझ बढ़ाओ,
सार्थकता
का पता चलेगा।
लड़ो मत, जागो।
जैसे-जैसे
तुम जागोगे
वैसे-वैसे तुम
चकित होओगे।
इधर तुम जागते
हो,
इधर क्रोध
क्षीण होने
लगता है--बिना
कुछ किए, बिना
छुए। इधर
तुम्हारा
जागरण बढ़ता है,
इधर तुम
पाते हो, क्रोध
असंभव होने
लगा। क्योंकि
जो ऊर्जा तुम्हें
जगा रही है वह
ऊर्जा भी तो
क्रोध से ही
ली जाएगी, वह
ऊर्जा लोभ से
ली जाएगी। जो
व्यक्ति
ध्यान करने
लगता है, धन
की तरफ जाने
की उसकी दौड़
अपने आप कम हो
जाती है।
क्योंकि अब
बड़ा धन उपलब्ध
होने लगा, छोटी
दौड़ छूटने
लगी। जब हीरे
मिलते हों तो कंकड़-पत्थर
कौन इकट्ठे
करता है? तुम
छोटे से मत लड़ो,
तुम बड़े को
जगाओ। छुद्र
से लड़े कि भटक
जाओगे। विराट
से जुड़ो; छोटा अपने
आप विराट में
लीन हो जाएगा।
और विराट में
लीन होकर छोटा
भी विराट हो
जाता है।
बुद्ध
में भी क्रोध
था,
जैसा
तुममें है; विराट में
लीन होकर
क्रोध करुणा
बन गया। क्रोध
का अर्थ है:
दूसरे को
विनष्ट करने
की आकांक्षा।
करुणा का अर्थ
है: दूसरा फले-फूले,
ऐसी
आकांक्षा।
बात वही है।
दूसरा मिटे; दूसरा बने।
वही ऊर्जा है,
यात्रा बदल
गई। लोभ का
अर्थ है छीनना,
और दान का
अर्थ है देना।
बात वही है।
वे ही हाथ छीनते
हैं, वे ही
हाथ देते हैं।
दूसरों से
छीना जाता है,
दूसरों को
दिया जाता है।
वे ही चीजें छीनी जाती
हैं, वे ही
चीजें दी जाती
हैं। कुछ भी
फर्क नहीं है।
यात्रा वही
है। सीढ़ी वही
है, जिससे
तुम नीचे आते
हो और जिससे
तुम ऊपर जाते हो।
स्वर्ग और नरक
तुम्हारी
दिशाएं हैं; सीढ़ी तो एक
ही लगी है।
जितनी
तुम्हारी समझ
होगी जीवन की
ऊर्जाओं की, वैसे-वैसे
तुम धन्यभाग
अपना समझोगे।
वैसे-वैसे तुम
परमात्मा के
अनुगृहीत होओगे
कि कितना दिया
है! और कैसा
संगीत संभव
था! घर में ही
वाद्य रखा था;
तुम बजाना न
जान पाए। तुम
नाच न सके; आकाश
था, फूल
खिले थे, पक्षी
गीत गा रहे
थे। तुम्हारे
पैर नाच न पाए,
तुम इस पूरी
धुन को समझ न
पाए कि क्या
हो रहा है।
अस्तित्व एक
उत्सव है।
जैसे-जैसे
तुम्हारा बोध
बढ़ेगा
वैसे-वैसे
तुम्हें
चारों तरफ उत्सव
दिखाई पड़ेगा।
अस्तित्व
दरिद्र नहीं
है, बड़ा
समृद्ध है।
उसकी समृद्धि
का कोई अंत
नहीं है। फूल चुकते
नहीं हैं, कितने-कितने
अरबों वर्ष से
खिलते हैं। चांदत्तारे
चुकते
नहीं, कितने-कितने
अरबों वर्ष से
रोशनी बांटते
हैं। जीवन का
न कोई आदि है, न कोई अंत।
उसी से तुम
जुड़े हो।
इतने
विराट से जुड़े
हो। लेकिन
तुम्हारी नजर
क्षुद्र पर
लगी है।
नजर को लौटाओ।
चलो
उलटे--गंगोत्री
की तरफ, स्रोत
की तरफ, भीतर
की तरफ। करो
प्रतिक्रमण।
और तब तुम स्वभाव
में
प्रतिष्ठित
हो जाओगे। और
ऐसा चरित्र उपलब्ध
होता है जो
फिर डिगाया
नहीं जा सकता।
जिसका क्रोध
करुणा बन गया,
तुम उसे
क्रोधित कैसे
करोगे? क्रोध
वहां बचा
नहीं। और
जिसने करुणा
जान ली, जिसने
क्रोध का इतना
परम संगीत जान
लिया, तुम
उसे गाली दोगे
तो वह
मुस्कुराएगा।
क्योंकि
जिसने अपनी
क्रोध की
ऊर्जा से करुणा
की संपदा पा
ली, अब उस
ऊर्जा को वह
क्रोध में
व्यय न करेगा।
बुद्ध
को कोई गाली
देता है तो वे
कहते हैं, तुम
जरा देर से आए;
थोड़े पहले
आना था। अब तो
मुश्किल हो
गई। अब तुम
मुझे क्रोधित
न कर पाओगे।
और तुम पर
मुझे बड़ी दया
आती है, क्योंकि
तुम खाली हाथ
लौटोगे। और
तुम कितनी धारणाएं
लेकर आए होगे
कि अपमान
करूंगा, गाली
दूंगा, नीचा
दिखाऊंगा, और
तुम असफल
लौटोगे। और
मैं कुछ भी
तुम्हें सहायता
नहीं कर सकता;
तुम जरा देर
से आए, दस
साल पहले आना
था। तब मैं भी
क्रोधित होता;
तुमने गाली
दी, इससे
वजनी गाली मैं
तुम्हें
देता। तब मैं
नासमझ था। तब
जीवन-ऊर्जा को
मैं ऐसे ही
फेंक रहा था।
ठीक-ठीक पता
नहीं था कि
इससे क्या
खरीदा जा सकता
है।
जिस
जीवन से तुम
परमात्मा
खरीद सकते हो
उस जीवन से
तुम क्या खरीद
रहे हो? उसे
तुम क्षुद्र
के साथ व्यर्थ
ही खो रहे हो। तुम
गंवा रहे हो, कमा नहीं
रहे हो। और
बड़ी उलटी
दुनिया है।
संसारी जो
गंवाते हैं, लोग उन्हें
समझते हैं, कमा रहे हैं;
संन्यासी
जो कमाते हैं,
लोग समझते
हैं, गंवा
रहे हैं। एक
ही कमाई है कि
तुम्हारा
जीवन उस परम
संगीत से भर
जाए जिसका
सारा
साज-सामान
तुम्हारे
भीतर मौजूद है,
जिसे तुम
जन्म के साथ
लेकर आए हो।
वह गीत तुम गाकर
जाना--एक ही
कमाई है। वह
संगीत तुम बजा
कर जाना--एक ही
कमाई है। तब
तुम हंसते हुए
जाओगे। तब तुम
कहते हुए
जाओगे कबीर के
साथ कि जिस
मरने से जग
डरे मेरो
मन आनंद; कब
मरिहों
कब भेंटिहों
पूरन
परमानंद। तब
मृत्यु का
स्वागत भी तुम
नृत्य से
करोगे। अभी
तुमने जीवन का
स्वागत भी क्रोध
से किया है, लोभ से किया
है, क्षुद्रताओं से किया है, बीमारियों
से किया है।
ये दो आयाम
हैं।
"जो दृढ़ता से
स्थापित है, आसानी से डिगाया
नहीं जा सकता।'
तुम डिग
जाते हो।
दूसरे को कसूर
मत देना; इतना
ही समझना कि
तुम दृढ़ता
से स्थापित
नहीं हो। जब
कोई गाली दे
और तुम क्रोध
से भर जाओ तब
यह मत समझना
कि दूसरे ने
तुम्हें कोई
नुकसान
पहुंचाया; इतना
ही जानना कि
तुम्हारा
चरित्र दृढ़ता
से स्थापित
नहीं है। और
इस आदमी को
धन्यवाद देना
कि तेरी बड़ी
कृपा है कि
तूने बता दिया
कि कितना गहरा
हमारा चरित्र
है। हमें पता
ही न चलता
अकेले रहते
तो। अकेले
रहते तो हमें
कैसे पता चलता
कि हम दृढ़ता
से स्थापित
नहीं हैं।
अक्सर
ऐसा होता है
कि जो लोग
घर-द्वार छोड़
कर हिमालय चले
जाते हैं वे
वहां समझने
लगते हैं कि
उनको चरित्र
उपलब्ध हो गया।
क्योंकि वहां
कोई हिलाने
वाला नहीं है।
और जब वापस
लौटते हैं, तत्क्षण
हिल जाता है।
फिर डरने लगते
हैं तुम्हारे
पास आने से, क्योंकि वे
समझते हैं कि
तुम उनके पतन
का कारण हो।
तुम उनके पतन
का कारण नहीं,
तुम केवल
परीक्षा हो।
तुम्हारे पास
आकर कसौटी मिल
जाती है, पहचान
हो जाती है कि
कितना गहरा
है।
एक
संन्यासी तीस
वर्षों तक
हिमालय में
रहा। आश्वस्त
हो गया कि सब
ठीक है। न
क्रोध, न लोभ,
न मोह, न
काम, शांत
हो गया हूं।
अब क्या डर
रहा? तो
कुंभ का मेला
था, नीचे
उतरा कि अब तो
कोई भय नहीं
संसार से।
मेले में आया।
किसी आदमी का
पैर पर पैर पड़
गया। भीड़ थी, धक्कम-धुक्का
था, पैर पर
पैर पड़ गया।
एक क्षण में
तीस साल हिमालय
के खो गए। एक
क्षण न लगा, तीस साल ऐसे पुछ गए
जैसे पानी पर
खिंची लकीर
मिट जाती है।
उचक कर गर्दन
पकड़ ली उस
आदमी की और
कहा कि तुमने
समझा क्या है?
अंधा है? देख कर नहीं
चलता! तब होश
आया कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं। पर वह
संन्यासी
ईमानदार आदमी
रहा होगा। वह
वापस हिमालय न
गया। उसने कहा,
इस हिमालय
का क्या मूल्य
है? भीड़
में ही रहूंगा
अब, अब
यहीं साधना है;
क्योंकि
हिमालय में
तीस साल साधा और
भ्रांति पैदा
हो गई कि सध
गया। और इधर
भीड़ ने एक
क्षण में मिटा
दिया।
भीड़ का
कोई कसूर नहीं
है। कोई दृढ़ता
के आधार न थे।
समाज में ही
साधना, भीड़
में ही साधना,
संसार में
ही रहते हुए
साधना।
क्योंकि जहां
निरंतर कसौटी
हो रही है
वहीं तुम जांच
पाओगे कि दृढ़ता
गहरी हो रही
है या नहीं, जड़ें उपलब्ध
हो रही हैं या
नहीं। मत
छोड़ना पत्नी
को, मत
छोड़ना बच्चों
को, मत
छोड़ना
दुकान-बाजार
को। जहां हो
वहीं रहना और
होश को
सम्हालना। तब
तुम बड़े चकित
होओगे कि ये
सारे मित्र, प्रियजन, परिजन, दुश्मन,
भीड़, बाजार,
कोई भी
तुम्हारे
विरोधी नहीं हैं;
सब तुम्हें
सहारा दे रहे
हैं। क्योंकि
सभी तुम्हारी
परीक्षा हैं;
और सभी
तुम्हारी
कसौटी हैं। तब
मरते वक्त तुम
मित्रों को ही
धन्यवाद न
दोगे, तुम
अपने शत्रुओं
को भी धन्यवाद
दोगे। क्योंकि
उनके बिना भी
तुम पा न सकते
थे।
"जिसकी
पकड़ पक्की है,
वह आसानी से
छोड़ता नहीं
है।'
तुम्हारी
पकड़ तो
छूट-छूट जाती
है। वह है ही
नहीं।
"पीढ़ी दर पीढ़ी
उसके
पूर्वजों के
त्याग अबाध
रूप से जारी
रहेंगे।'
दो तरह
की पूर्वजों
की यात्रा है।
एक: तुम्हारे
पिता, तुम्हारे
पिता के पिता;
तुम्हारी
शरीर की
परंपरा। और
एक: तुम्हारा
यह जन्म, और
तुम्हारा
पिछला जन्म, और तुम्हारा
पिछला जन्म; तुम्हारी
आत्मा की
परंपरा। तुम
दो तरह की वसीयत
लेकर पैदा हुए
हो। दोनों
वसीयत सनातन
हैं। क्योंकि
तुम सदा से
हो। तुम्हारा
शरीर सदा से है।
शरीर भी अपनी
संपदा को
संगृहीत करके
चलता है, और
आत्मा भी अपनी
संपदा को
संगृहीत करके
चलती है। जो
तुमने किया है
अतीत जन्मों
में, उसकी
हवा तुम्हारे
साथ आज भी है।
क्योंकि तुम्हारा
सारा अतीत
सिमट आया है
इस वर्तमान के
क्षण में। ऐसा
मत सोचना कि
अतीत नष्ट हो
गया; कुछ
भी नष्ट नहीं
होता। इस
वर्तमान में
तुम्हारा
सारा अतीत
समाया हुआ है।
इसलिए
तो हिंदू कर्म
की बहुत-बहुत
धारणा और
विचारणा करते
हैं। क्योंकि
कर्म का अर्थ
है,
तुमने जो
किया है कभी
भी वह सब
समाया हुआ है
आज। तुम आज ही
पैदा नहीं हुए
हो, तुम्हारा
सारा अतीत आज
के भीतर छिपा
है। न केवल
तुम्हारा
अकेला। इस
संबंध में
लाओत्से हिंदुओं
से बड़ा भिन्न
है, और
ज्यादा सही
है। हिंदू तो
सिर्फ
तुम्हारे अतीत
की बात करते
हैं। लाओत्से
कहता है कि
तुम्हारा
अतीत तो समाया
हुआ ही है, तुम्हारे
पूर्वजों का
अतीत भी समाया
हुआ है। क्योंकि
तुम जिनसे
पैदा हुए हो, जिनका कण
तुम्हारे
जीवन का आधार
बना है, जिनकी
वीर्य-ऊर्जा
ने तुम्हारे
शरीर और मन को
ढांचा दिया है,
वे भी
तुममें छिपे
हैं, वे भी
तुम्हारे
भीतर छिपे
हैं। और
तुम्हारे चरित्र
में उन सबका
प्रकटन होता
है। अगर तुम्हारी
परंपरा पाखंड
की ही रही हो
तो वह पाखंड
प्रकट होगा।
इसलिए
तुम अकेले
नहीं हो। और
तुम सिर्फ
अपने लिए ही
मत सोचना। सारा
अस्तित्व
तुम्हारे
पीछे गुंथा
है। ताने-बाने
हैं जीवन के; कोई
व्यक्ति
अकेला नहीं
है। और तुम जो
भी कर रहे हो
वह सिर्फ
तुम्हारे लिए
ही नहीं है।
तुम्हारा
कृत्य
तुम्हारे
पूरे अतीत की
कथा भी कहेगा।
हिंदू
कहते हैं कि
प्रत्येक
व्यक्ति एक ऋण
लेकर चल रहा
है--पिता का ऋण, माता
का ऋण, गुरु
का ऋण। क्या
है वह ऋण? वह
ऋण यह है कि
अगर तुम खिल
गए
वास्तविकता
से तो
तुम्हारे
माता और पिता
और तुम्हारी
अनंत काल की
परंपरा
तुममें खिल कर
प्रफुल्लित
होगी। तुम जब
तक न खिलोगे,
वे भी पूरी
तरह न खिल
पाएंगे।
क्योंकि वे
तुममें
समाविष्ट हैं।
उनका खिलना भी
अधूरा-अधूरा
रहेगा।
इससे
तुम कुछ बातें
समझ पाओ; क्योंकि
प्रत्येक बात
बहुत सी बातों
से जुड़ी है।
अधिकतम
बुद्ध पुरुष
अविवाहित रहे
हैं। और रहने
का एक कारण यह
है कि अगर
तुम्हें
परिपूर्ण बुद्धत्व
पाना हो तो
तुम्हारे
बच्चे भी जब
तक बुद्धत्व
को प्राप्त न
हो जाएं, तुम्हारी
शृंखला अधूरी
रहेगी।
क्योंकि जो मुझसे
पैदा हो रहा
है, जब तक
वह भी न पा
लेगा तब तक
मैं अधूरा
रहूंगा। क्योंकि
वह मेरी ही
यात्रा है।
अधिक बुद्ध पुरुष
अविवाहित रहे
हैं। रहने के
कारण बहुत हैं।
उनमें एक
बुनियादी
कारण यह है--प्रसंगवशात
तुमसे कहता
हूं। तुम जब
तक मुक्त न हो
जाओगे, तुम्हारे
पिता और पिता
के पिता और
पिता के पिता
बंधे हैं।
तुम्हारी
मुक्ति उनकी
मुक्ति भी बनेगी।
व्यक्ति
अकेला नहीं है,
बंटा हुआ
नहीं है, कटा
हुआ नहीं है।
हम सब एक बड़े
ताने-बाने के
धागे हैं।
बुद्ध
ने तो इस बात
को उसकी आखिरी, चरम
तार्किक
निष्पत्ति तक
पहुंचा दिया
है। कथा है कि
बुद्ध जब
स्वर्ग के, मोक्ष के
द्वार पर
पहुंचे, द्वार
खुला स्वागत
के लिए तैयार,
लेकिन
बुद्ध पीठ
करके खड़े हो
गए। द्वारपाल
ने कहा, आप
भीतर आएं।
बुद्ध ने कहा,
यह संभव
नहीं है। जब
तक अंतिम
व्यक्ति मुक्त
न हो जाए तब तक
मैं द्वार पर
ही रुकूंगा।
यह तो
कथा है, लेकिन
बहुत गहरे
अर्थों में
सही है।
क्योंकि अगर
अस्तित्व
इकट्ठा है तो
एक व्यक्ति
कैसे बुद्धत्व
को प्राप्त
होगा? अगर
हम सब जुड़े
हैं और द्वीप
की तरह
अलग-अलग नहीं
हैं, महाद्वीप
की तरह हैं, तो कैसे एक
व्यक्ति
मुक्त होगा? एक की
मुक्ति सबकी
मुक्ति होगी।
एक अलग होता तो
अलग मुक्त हो
सकता था।
लाओत्से
कहता है कि
तुम जिस दिन खिलोगे और
तुम जिस दिन
आधारित हो
जाओगे, केंद्र
को पा लोगे, तुम्हारी
जड़ें पहुंच
जाएंगी
स्वभाव में, उस दिन
तुम्हीं नहीं,
तुम्हारी पीढ़ी दर पीढ़ी से चल
रही अबाध
त्यागों की
परंपरा अपनी
पूर्णाहुति
पर आएगी। और
तुम्हारे
आधार पर आने
वाला भविष्य
एक नई सीढ़ी को
पार कर लेगा।
"व्यक्ति
में उसके पालन
से चरित्र
प्रामाणिक होगा।'
ताने-बाने
की पूरी कथा
लाओत्से कहता
है।
"कल्टीवेटेड इन दि इंडिविजुअल,
कैरेक्टर
विल बिकम जिन्यून।'
जब कोई
एक व्यक्ति
अपने भीतर
गहरा उतरता है
और अपनी जड़ों
से संबंध जोड़
लेता है और
अपने स्वभाव
के साथ एकरस
हो जाता है, जब
किसी व्यक्ति
का चरित्र
उसके अंतस से
जगता है, तो
चरित्र
प्रामाणिक
होता है, आथेंटिक होता है।
नहीं तो पाखंड
होता है। अगर
एक व्यक्ति भी
प्रामाणिक
चरित्र को
उपलब्ध हो
जाता है, तो
उसके आधार पर
उसका परिवार
प्रामाणिक
क्षेत्र की
तरफ बढ़ सकता
है। क्योंकि
हम अलग-अलग नहीं
हैं। इससे
विपरीत भी सही
है। अगर
परिवार चरित्र
को उपलब्ध हुआ
हो तो उसके
भीतर पैदा हुआ
व्यक्ति
दुश्चरित्रता
की तरफ जाने
में बड़ी
कठिनाइयां
पाएगा, और
चरित्र की तरफ
जाने में बड़ी
सुगमता
पाएगा।
इस
सत्य को अब
पश्चिम में
मनोवैज्ञानिकों
ने स्वीकार
किया है, एक
दूसरी दिशा
से। पहले जब
कोई आदमी पागल,
विक्षिप्त,
मानसिक
रोग-ग्रस्त हो
जाता था तो हम
उसका इलाज
करते थे। फिर
धीरे-धीरे
मनोवैज्ञानिकों
को समझ में
आना शुरू हुआ
कि इस व्यक्ति
के इलाज से
कुछ भी न होगा
जब तक इसका
परिवार न बदले।
क्योंकि यह
अनुभव में आया
कि व्यक्ति को
अगर अस्पताल
में रखो, वह
ठीक हो जाता
है। घर भेज दो,
फिर महीने,
दो महीने
में वापस
बीमारी शुरू
हो जाती है।
तो निरंतर
अध्ययन करने
से पता चला कि
व्यक्ति तो एक
हिस्सा है
परिवार का, और जब तक
पूरे परिवार
में कोई गहरा
रोग न हो मानसिक
तब तक यह
व्यक्ति
रुग्ण नहीं हो
सकता। लेकिन
पूरा परिवार
सामान्य
मालूम पड़ता है;
कोई पागल
नहीं है दूसरा
आदमी।
तब इस
बात की खोज की
गई कि यह कारण
क्या है? तो पता
चला कि जैसे
परिवार में
अगर दस आदमी
हैं तो जो
सबसे ज्यादा
कमजोर है वह
सबसे पहले
पूरे परिवार
के पागलपन को
प्रकट करने का
आधार बन जाएगा--जो
सबसे ज्यादा
कमजोर है।
जैसे यह मकान
गिरे तो इसमें
सबसे पहले वह
खंभा गिरेगा
जो सबसे ज्यादा
कमजोर है।
परिवार
इकट्ठा है; उसमें एक
व्यक्ति
गिरेगा जो
सबसे ज्यादा
कमजोर है।
इसलिए
अक्सर छोटे
बच्चे पागल हो
जाएंगे, या
पैदाइश से ही
विक्षिप्त
होंगे। या
पैदाइश से ही
उनके मन में
कुछ गड़बड़ होगी,
व्यक्तित्व
में कुछ गड़बड़
होगी।
क्योंकि वे कमजोर
हैं। या
स्त्रियों पर
निकलेगा; स्त्रियां
पागल होंगी।
क्योंकि वे
कमजोर हैं।
पुरुषों पर
आते-आते देर
लगती है। पहले
बच्चे पागल
होते हैं। अगर
बच्चे न हों
तो स्त्रियां
पागल होती
हैं। तब
पुरुषों तक
बात आती है।
क्योंकि जो
जितना कमजोर
है, उतना
ही संभव है कि
रोग उससे
प्रकट हो।
तो अगर
घर में एक
आदमी पागल
होता है, पागल
तो पूरा घर है,
वह एक आदमी
तो सिर्फ
शिकार है
कमजोर होने के
कारण। वह सबसे
कमजोर कड़ी है
जो टूट जाती
है। और हम सब
उसको
जिम्मेवार
ठहराते हैं।
और तुम्हें
पता नहीं कि
वह सिर्फ
तुम्हारा
निकास है। अगर
उस व्यक्ति को
हटा लिया जाए
तुम्हारे घर
से सदा के लिए
तो दूसरा
व्यक्ति पागल
होगा। अब जो
कमजोर होगा वह
पागल होगा।
ये
तथ्य बड़े
वैज्ञानिक
अध्ययन से
जाहिर हुए तो
पश्चिम में एक
नई
मनोचिकित्सा
शुरू हुई। वह है
परिवार की
चिकित्सा।
अकेले एक आदमी
की चिकित्सा
से कुछ न
होगा। लेकिन
यह बड़ी
मुश्किल बात
है। जब और
थोड़ी खोज-बीन
की तो पता चला
कि परिवार तो
पूरे गांव का
एक हिस्सा है आर्गेनिक।
जैसे व्यक्ति
एक परिवार का
हिस्सा है ऐसा
परिवार गांव
का हिस्सा है।
तब तो झंझट बढ़
गई। वह पूरे
गांव में जो
पागलपन है, सबसे
कमजोर परिवार
से प्रकट हो
रहा है। तो
ग्रुप थेरेपी
पैदा हुई:
समूह की
चिकित्सा करो।
लेकिन
वह सफलता की
तरफ जा नहीं
सकते, क्योंकि
गांव पूरे
राष्ट्र से
जुड़ा है, राष्ट्र
पूरे संसार से
जुड़ा है, संसार
पूरे विश्व से
जुड़ा है। इसका
तो अर्थ यह
हुआ कि जब तक
पूरी विश्वसत्ता
शुद्ध न हो, स्वस्थ न हो,
तब तक हम
आशा नहीं बांध
सकते। एक-एक
व्यक्ति को ठीक
करके भी कुछ
होगा न, कहीं
और से बीमारी
निकलने
लगेगी। समग्र
स्वस्थ होना
चाहिए। इस
समग्र की
स्वस्थता की
खोज ही धर्म
है। एक-एक की
चिकित्सा से
हल नहीं होने वाला।
अगर हम
अलग-अलग होते
तो हल हो
जाता।
इसलिए
तुम जब रास्ते
पर किसी को
पागल देखो तो यह
मत सोचना कि
तुम
सौभाग्यशाली
हो,
यह
दुर्भाग्यशाली
है। तुम उसे
धन्यवाद देना,
क्योंकि
तुम्हारा
पागलपन वह
प्रकट कर रहा
है। हर गांव
में एकाध-दो
पागलों की
जरूरत है--छोटे
से छोटे गांव
में भी। हर
गांव का पागल
होता है। और
वह पागल पूरे
गांव के
पागलपन का
निकास-द्वार
है, जैसे
घर में एक
नाली होती है
जिससे कचरा-कूड़ा सब
निकल जाता है।
ठीक ऐसे ही वह
पागल तुम्हें स्वस्थ
रख रहा है।
तुम उसको
धन्यवाद
देना। और तुम
उसके
अनुगृहीत
रहना।
क्योंकि अगर
वह पागल मर
जाए तो दूसरे
आदमी को पागल
होना पड़ेगा। एक
नाली टूट जाए
तो दूसरी
बनानी पड़ेगी।
क्योंकि घर का
कचरा तो बहना
ही है। कचरा
है।
समग्र
का स्वास्थ्य!
तो
लाओत्से कहता
है,
"चरित्र जब
व्यक्ति में
पालन किया
जाता है--वास्तविक
चरित्र जो
स्वभाव से
उठता है--तो
चरित्र
प्रामाणिक
होता है।
परिवार में
उसके पालन से चरित्र
अतिशय होता है,
एबनडेंट।'
क्योंकि
एक व्यक्ति अगर
चरित्र का
पालन भी करे
और घर भर के
लोग पाखंडी
हों,
तो एक तो
उसे चरित्र के
पालन में बड़ी
कठिनाई होगी,
क्योंकि
सारा घर उसके
विरोध में
होगा। ऊपर-ऊपर
भला प्रशंसा
करे, लेकिन
भीतर विरोध
में होगा।
इसलिए तुम जान
कर हैरान
होओगे कि
ज्ञानियों के
घरों में
ज्ञानियों का
बड़ा विरोध रहा
है।
जीसस
ने कहा है कि
पैगंबर को
उसके गांव में
कोई पूजा नहीं
मिलती।ऐसा
हुआ कि जीसस
ने बड़े
चमत्कार किए।
जहां वे गए चमत्कार
हुए।
व्यक्तित्व
उनका वैसा था।
लेकिन जब वे
अपने गांव आए
तो कुछ भी न कर
सके। तो बाइबिल
में इस बात का
उल्लेख है कि
उनके शिष्य
बड़े चकित हुए
कि आप दूर-दूर
इतना चमत्कार
किए हैं, हजारों
लोग प्रभावित
हुए हैं, गांव
में कोई भी
प्रभावित
नहीं हो रहा
आपसे? तो
उन्होंने कहा,
गांव में
पैगंबर की
पूजा नहीं
होती। और गांव
में लोग समझते
हैं कि यह
जीसस! वह जोसेफ
बढ़ई का लड़का
है, इसका
दिमाग कुछ
खराब है, अनाप-शनाप
बातें करता
है। किसी को
गांव में आस्था
नहीं है।
आस्था नहीं तो
चमत्कार
असंभव है।
क्योंकि
चमत्कार
पैगंबर से
नहीं होता, आस्था से
होता है। फिर
जीसस दुबारा
उस गांव नहीं
गए, क्योंकि
उस गांव का
परिणाम उनके
शिष्यों पर भी
बुरा पड़ता था,
यह देख कर कि
अपने ही गांव
में...।
क्योंकि
शिष्य बड़ी अपेक्षा
रखते थे।
पैगंबर
अपने ही गांव
में बड़ी
मुश्किल में
पड़ता है। और
अपने ही
परिवार में तो
और भी मुश्किल
में पड़ जाता
है। पूरा
परिवार कितनी
ही बातें करे, लेकिन
भीतर एक विरोध
होता है।
क्योंकि यह
परिवार भरोसा
ही नहीं कर
सकता कि हमारे
बीच और ऐसा
आदमी पैदा हो
जाए! और हम
इतने छोटे रह
जाएं और यह
आदमी इतना आगे
चला जाए! वे
अनजाने
मार्गों से
उसे नीचे खींच
कर अपनी सतह
पर लाना चाहते
हैं।
इसलिए
जब कोई एक
व्यक्ति
चरित्र की तरफ
जाता है और
परिवार नहीं
जाता तो वह
धारा के
विपरीत उसे बहना
पड़ता है।
उसमें उसकी
शक्ति बड़ी
व्यय होती है।
और चरित्र
उसका हो भी
जाए तो भी
अतिशय न होगा।
वह एक ऐसा
वृक्ष होगा जो
बामुश्किल
जिंदा है, किसी
तरह पानी
प्राप्त कर
रहा है। फूल
खिलेंगे भी तो
अधखिले होंगे,
क्योंकि सब
तरफ विरोध है।
हवाओं में
विरोध है, सूरज
की किरणों में
विरोध है, जमीन
में विरोध है।
लाओत्से
कहता है, "परिवार
में उसका पालन
हो तो चरित्र
अतिशय होगा।'
तब प्रगाढ़ता
से होगा; बड़ी
समृद्धि
होगी। और तब
उस धारा में
कोई भी बह
सकेगा।
"गांव
में उसके पालन
से चरित्र
बहुगुणित
होगा।'
और अगर
पूरा गांव
पाखंडी न हो
और लोग स्वभाव
में थिर हों
तो हजार-हजार
गुना हो जाएगा।
जरा सा करो और
बहुत हो
जाएगा। एक कदम
चलो और हजार
कदम हो
जाएंगे। शुभ
भी भूमि चाहता
है,
सत्य भी
भूमि चाहता
है।
"राज्य
में उसके पालन
से चरित्र
महान समृद्धि को
उपलब्ध होगा।
संसार में
उसके पालन से
चरित्र
सार्वभौम
होगा।'
इसीलिए
तो यह होता है
कि कभी-कभी एक प्रगाढ़
धारा उठती है
और एक
शृंखलाबद्ध
ज्ञानियों का जन्म
होता है; जैसा
बुद्ध के समय
में हुआ।
क्योंकि एक
ज्ञानी दूसरे
ज्ञानी के लिए
सहारा बन जाता
है। दूसरा
ज्ञानी तीसरे
के लिए सहारा
बन जाता है।
हवा भर जाती
है एक नई
उत्तेजना और
गरिमा से, और
उस गरिमा में
लोग सहजता से
बह जाते हैं।
बुद्ध हुए, उसी वक्त
जरथुस्त्र
हुआ, उसी
वक्त
हेराक्लाइटस
हुआ, उसी
वक्त लाओत्से
हुआ। उसी वक्त
महावीर हुए, उसी वक्त च्वांगत्से
हुआ। सारे जगत
में एक प्रगाढ़
लहर उठी और उस
लहर में
हजारों लोग
पार हो गए। ये
लोग और किसी
समय में शायद
पार न हो पाते।
इसलिए
जब हिंदू कहते
हैं कि पंचम
काल में या कलियुग
में बुद्धत्व
को उपलब्ध
होना कठिन है, तो
उसका कारण है।
कठिन इसीलिए
है कि परिवार
झूठा, गांव
झूठा, राज्य
झूठा, समाज
झूठा, सारी
दुनिया ही
झूठी है। इस
पाखंड के बीच
जब कोई
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो तो
उसे बड़ी धारा
के विपरीत
बहना पड़ेगा।
उसकी सारी
शक्ति तो धारा
के विपरीत
बहने में लग
जाएगी। इसलिए
कठिन है। और
समय में कोई
कठिनाई नहीं
है।
लेकिन
ठीक फिर वह
घड़ी आ रही है।
जैसा मैं
बार-बार तुमसे
कहा हूं कि हर
पच्चीस सौ
वर्ष में मनुष्य-जाति
का इतिहास एक
वर्तुल पूरा
करता है। बुद्ध
के पच्चीस सौ
वर्ष पहले
कृष्ण, पतंजलि।
बुद्ध के समय
में बड़े
ज्ञानियों की
शृंखला। फिर
पच्चीस सौ
वर्ष पूरे
होने के करीब आ
गए हैं। इन
आने वाले
बीस-पच्चीस
वर्षों में दुनिया
में बड़ा प्रगाढ़
वेग उठेगा और
तुम उस वेग को
चूक मत जाना।
क्योंकि वह
चूक जाने पर
फिर बहुत
कठिनाई है।
फिर शायद तुम
पच्चीस सौ साल
प्रतीक्षा
करोगे, तब
दुबारा उस वेग
की घड़ी आएगी।
ऐसे ही जैसे
कि जब हवा बह
रही हो पूरब
की दिशा में, तुम नाव को
खोल दो तो
बिना पतवार
उठाए नाव पूरब
की तरफ बहने
लगती है। और
जब हवा पश्चिम
की तरफ बह रही
हो तब तुम्हें
पूरब जाना हो
तो तुम्हें
बड़ा श्रम
उठाना पड़ता
है। पहुंच भी
जाओ तो बिलकुल
थके हुए
पहुंचोगे।
फिर एक
घड़ी आ रही है।
उत्तुंग लहर
उठ रही है सारी
दुनिया में, बड़ी
नई चहल-पहल है
अंतःकरण में;
लोग सत्य के
संबंध में, परमात्मा के
संबंध में
पुनर्विचार
कर रहे हैं।
जैसे रात करीब
है टूटने के
और सुबह होने
के पास आ रही
है। इस क्षण
को तुम मत खो
देना। इस क्षण
का अगर तुम ठीक
उपयोग कर लोगे
तो तुम्हें
सिर्फ बह जाना
है, लहर ले
जाएगी। यह
क्षण खो गया
तो फिर
तुम्हें तैरना
होगा। फिर लहर
न ले जाएगी।
इसलिए
जब भी यह क्षण
आता है तब ऐसे
ज्ञानी पैदा
होते हैं जो
कहते हैं: लेट
गो,
छोड़ दो। जब
यह लहर नहीं
होती, बीच
के पच्चीस सौ
वर्षों में
ऐसे ज्ञानी
आते हैं जो
कहते हैं: बड़ा
श्रम करना
पड़ेगा। अगर
तुम बीच के
पच्चीस सौ
वर्षों में पड़
जाओ तो पतंजलि
रास्ता है; अगर तुम
पच्चीस सौ
वर्ष के
किनारे पड़ जाओ
तो लाओत्से
रास्ता है।
इसलिए मैं
तुमसे निरंतर
कह रहा हूं कि
प्रयास का बड़ा
सवाल नहीं है,
समर्पण की
बात है।
संकल्प की कोई
जरूरत नहीं है।
तुम छोड़ दो।
अभी तैयार हो
रही है लहर, और जल्दी ही
यह किनारा छोड़
देगी लहर। तुम
अगर छोड़ने को
तैयार हो गए
तो बह जाओगे।
सुगम है अभी।
इसलिए
दो धाराएं हैं
धर्मों की। एक
धारा है जो
मध्य के काल
में पैदा होती
है,
पच्चीस सौ
वर्ष के बीच
में। वह धारा
सदा जोर देती
है: श्रम, संकल्प,
योग, हठ।
दूसरी धारा है
धर्म की जो
पच्चीस सौ साल
पूरे होने पर
पैदा होती है:
झेन, लाओत्से।
छोड़ दो; तुम्हें
कुछ करना नहीं
है। तुम्हें
कोई श्रम नहीं
करना है।
तुम्हें
सिर्फ बह जाना
है। ऐसी घड़ियों
में सारा
अस्तित्व
तुम्हें साथ
देता है। एक वर्तुल
पूरा होने के
करीब होता है।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि आप इतने
लोगों को संन्यासी
बना रहे हैं!
संन्यासी
बनना तो बड़ा
कठिन है।
वे ठीक
कहते हैं। ऐसी
घड़ियां होती
हैं जब संन्यासी
बनना अति कठिन
है। एक ऐसी
घड़ी करीब आ
रही है जब
संन्यासी
बनना अति सरल
है और संसारी
बनना अति कठिन
है। बस तुम
राजी भर होओ
कि घटना घट सकती
है। यह ऐसे है
जैसे सुबह तुम
आंख खोलो, और
सब तरफ रोशनी
है, सब
दिखाई पड़ता
है। और आधी
रात में आंख खोलो, आंख
भी खोलो
तो क्या होता
है, अंधेरा
है। रात के
क्षण होते हैं,
और दिन के
क्षण होते
हैं। पच्चीस
सौ साल रात चलती
है। बीच में
थोड़े से समय
के लिए
अस्तित्व शिथिल
होता है, चीजें
विश्राम को
उपलब्ध होती
हैं। उस क्षण
का जो उपयोग
जान लेता है
वह द्वार से
प्रवेश कर
गया। अन्यथा
फिर दीवार में
सेंध मारनी
पड़ती है।
उसमें बड़ा
श्रम है।
"इसलिए:
व्यक्ति के
चरित्र के
अनुसार
व्यक्ति को
परखो।'
लाओत्से
कहता है कि
धारणाओं से
नहीं, पहले से
पूर्व-निर्धारित
विचारों से
नहीं, व्यक्ति
के चरित्र के
अनुसार
व्यक्ति को
परखो।
तुम
इससे ठीक उलटा
करते हो। किसी
ने कहा कि यह आदमी
मुसलमान है और
तुम हिंदू हो, तुमने
बस मुसलमान
सुनते ही से
मान लिया कि
आदमी बुरा है।
मुसलमान और
अच्छा हो सकता
है? तुम
व्यक्ति का
चरित्र नहीं
परखते।
तुम्हारी
पूर्व-धारणा
है, उस
पूर्व-धारणा
से तुम तय
करके चलते हो।
यह गलत
है। एक-एक
व्यक्ति को
सीधा-सीधा
परखो। हिंदू, मुसलमान,
जैन, ईसाई
में मत बांटो।
व्यक्ति को
सीधा देखो। क्योंकि
जब तुम
व्यक्ति को
सीधा देखोगे
तब तुम अपने
को भी सीधा
देखने में
समर्थ हो पाओगे।
और
पूर्व-निर्धारित
धारणाओं में
किसी को मत ढालो।
क्योंकि कल जो
आदमी बेईमान
था, आज
ईमानदार हो
गया होगा। तुम
कल की धारणा
मत खींचो। कल
जो तुम्हें
गाली दे गया
था वह आज फिर आ
रहा है। तुम
देख कर लकड़ी
लेकर खड़े मत
हो जाओ, क्योंकि
हो सकता है, वह क्षमा
मांगने आ रहा
हो।
तुम कल
को जाने दो; तुम
आज ही देखो
सीधा। सब
बदलता है, तो
आदमी की चेतना
क्यों न
बदलेगी? पापी
पुण्यात्मा
हो जाते हैं।
असाधु साधु हो
जाते हैं। जो
दूर थे वे पास
आ जाते हैं, जो पास थे वे
दूर हो जाते
हैं। यह
बदलाहट रोज होती
है। इसलिए तुम
पूर्व-धारणाओं
को मत बनाओ। तुम
सदा तथ्य को
सीधा देखो। आज
जो हो उसे
देखो। कल को
बीच में मत
लाओ।
"व्यक्ति
के चरित्र के
अनुसार
व्यक्ति को
परखो। परिवार
के चरित्र के
अनुसार
परिवार को परखो।
गांव के
चरित्र के
अनुसार गांव
को परखो।'
क्योंकि
होता क्या है, परिवार
की भी धारणा
होती है। खयाल
होता है कि फलां
परिवार कुलीन
है; तो
उसमें जो पैदा
होगा वह कुलीन
होगा। फलां परिवार
बुरा है।
यहूदी जीसस को
स्वीकार न कर
पाए, क्योंकि
जीसस का जो
गांव था, बेथलहम,
ऐसी धारणा
थी वहां कि
बेथलहम में
कभी कोई ज्ञानी
हुआ है? हुआ
भी नहीं था
पहले। तो लोग
जीसस से सवाल
पूछते थे कि
बेथलहम में
कभी कोई
ज्ञानी हुआ है
जो तुम हो गए?
बेथलहम
की वैसी ही
दशा थी जैसी
हिंदुस्तान
में भी कुछ
गांव हैं; जैसे
पंजाब में
होशियारपुर
है।
होशियारपुर में
लोगों की
धारणा है कि
सिर्फ गधे
रहते हैं। और
इसीलिए
उन्होंने नाम
होशियारपुर
रख लिया है
छिपाने के
लिए। अगर कोई
आदमी
होशियारपुर
रहता है और
तुम उससे पूछो,
कहां रहते
हो? तो वह
झगड़े पर उतारू
हो जाता है।
वह कहता है, क्या मतलब
है आपका पूछने
से? क्या
चाहते हैं? आपको क्या
जरूरत? कहीं
रहते हों। वह
सीधा नहीं
बताता कि
होशियारपुर
रहता है।
क्योंकि जैसे
ही उसने कहा
कि होशियारपुर
रहता है कि
आपने धारणा
बना ली कि...।
ऐसी
कथा है कि
अकबर के जमाने
में
होशियारपुर के
लोगों ने
प्रार्थना की
अकबर को कि हम
नाहक बदनाम
हैं और हम बड़े
लज्जित होते
हैं कि हम जहां
भी...बता नहीं
सकते कि कहां
रहते हैं।
क्योंकि
जिसको हमने
बताया
होशियारपुर
रहते हैं कि
बस वह
मुस्कुराने
लगता है। तो
आप जांच-पड़ताल
करवाएं और यह
भ्रांति तुड़वाएं।
अकबर
ने कहा कि बात
ठीक है, सुना
तो मैंने भी
है। वह भी सुन
कर
होशियारपुर
मुस्कुराने
लगा। उसने एक
कमीशन, एक
आयोग बिठाया।
सात आदमी भेजे,
विचारशील
आदमी, कि
तुम जाकर पता
लगाओ, कुछ
दिन रहो वहां,
जांच-पड़ताल
करो कि यह बात
कहां तक सच
है।
होशियारपुर
के लोगों ने
बड़ी तैयारी की, क्योंकि
तैयारी करनी
जरूरी थी। यह
कमीशन का आखिरी
फैसला है। एक
दफा अकबर कह
दे तो मामला
ठीक हो जाए।
तो उन्होंने
रत्ती भर
भूल-चूक न की। ऐसा
स्वागत किया
कि वे लोग भी
दंग हो गए।
बहुत ज्यादा
जब कोई
सावधानी से
करे, जब
कोई अतिशय
सावधानी से
करे, तो
अतिशय
सावधानी भी
चिंता बन जाती
है। सब ठीक
गया, सब
ठीक गुजर गया।
तीसरे दिन
आयोग बड़ा
प्रसन्न और
विचार करके कि
नहीं, यह
बात गलत है, लोग नाहक
इनको बदनाम
करते हैं, वापस
लौटा। गांव के
बाहर दूर तक
होशियारपुर
के लोग
पहुंचाने आए।
जब
कमीशन विदा हो
गया बड़ा तृप्त, सब
लोग गांव वापस
लौटे। और
उन्होंने कहा,
भाई, कोई
भूल-चूक तो
नहीं हुई? अभी
कुछ नहीं बिगड़ा
है, अभी
कमीशन पास ही
है; अगर
कोई भूल-चूक
हुई हो तो
माफी मांग
लें। तब रसोइए
ने बताया कि
मैं जीरा डालना
भूल गया सब्जी
में। कहीं ऐसा
न हो कि वे समझें
कि ये गधे
जीरा ही खाना
नहीं जानते।
क्योंकि लोग
कहते हैं न, बंदर क्या
जाने अदरक का
स्वाद! तो
उन्होंने कहा,
यह तो भारी
भूल हो गई, जीरा
भूल गया। अब
क्या करना? गांव भर से, जितना जीरा
था, गाड़ियों में भर कर, घोड़ों पर लाद कर
भागे एकदम।
जाकर बीच में
बड़ी चीख-पुकार
मचाई कि रुको,
रुको, रुको!
आप यह मत
समझना कि हमें
जीरे का स्वाद
नहीं है। कतारें
गाड़ियों
की बंधी हैं, घोड़ों पर, गधों
पर जीरा लदा
है, कि आप
देख लो।
वह
कमीशन बिलकुल
तय कर लिया था
कि ठीक है।
उसने कहा, नहीं,
गड़बड़ ही
हैं। ये हैं
ही गधे, इसमें
किसी का कोई
कसूर नहीं है।
अब ये जीरा लाने
की इतनी क्या
जरूरत थी?
अतिशय
कभी भूल हो
जाती है। ऐसा
बेथलहम के
संबंध में
खयाल था लोगों
का कि बेथलहम
में कभी कोई ज्ञानी
हुआ?
तो जीसस से
जगह-जगह लोग
पूछते, अच्छा
आप बेथलहम में
पैदा हुए। बेथलहम
में कभी कोई
ज्ञानी पैदा
हुआ जो आप हो
गए?
ज्ञानी
का न तो गांव
से कुछ लेना
है,
न परिवार से
कुछ लेना है।
जैनों
की कथा है, और
कथा का कारण
है। क्योंकि
जैनों के तेईस
तीर्थंकर
क्षत्रियों
के घर में
पैदा हुए तो
जैनियों की
धारणा है कि
तीर्थंकर
क्षत्रिय के
घर में ही
पैदा होता है।
तो बड़ी मीठी
कथा है, नासमझी
की भी है, मीठी
भी है, और
आदमी के मन को
समझने के लिए
उपयोगी है।
महावीर एक
ब्राह्मणी की
कोख में आए।
तो कहते हैं, बड़ी मुश्किल,
बड़ा तहलका
मच गया
देवताओं में
कि यह तो सब
गड़बड़ हो
जाएगा। कहीं
कोई तीर्थंकर
ब्राह्मण के घर
में कभी पैदा
हुआ है? और
जैनी तो
ब्राह्मण के
विरोधी हैं।
और ब्राह्मण
के घर में
तीर्थंकर
पैदा हो जाए
तो सब गड़बड़ हो
जाएगा।
क्षत्रिय के
घर में पैदा
होता है तीर्थंकर।
सदा से ऐसा
हुआ है। तो
कहानी है कि देवता
बड़े बेचैन
हुए। फिर कोई
उपाय न देख कर
उन्होंने एक
बड़ी सर्जरी
की। गर्भ को
ब्राह्मणी की
कोख से निकाला
और राजा की
पत्नी की कोख
में जाकर रखा,
और उसकी कोख
में जो लड़की
थी उसको
निकाला और उसको
जाकर
ब्राह्मणी के
गर्भ में रखा।
फिर तृप्ति, शांति हुई।
क्योंकि फिर
महावीर
क्षत्रिय के घर
पैदा हो सके।
अब यह
कहानी
जिन्होंने गढ़ी है वह
ब्राह्मणों
के अपमान के
लिए गढ़ी
है--कि कहीं
ब्राह्मणों
के घर में कोई
तीर्थंकर हुआ? ब्राह्मण
यानी भिखमंगे।
इनके घर में
कभी कोई
तीर्थंकर हुआ
है? कोई
ज्ञानी कभी
हुआ है इनके
घर में? पंडित-पुरोहित,
भीख मांगने
वाले लोग, इनका
क्या बल है कि
तीर्थंकर को पैदा
करें! भूल-चूक
हो गई तो उसे
ठीक कर लेना
जरूरी हो गया।
न तो
कुल से कुछ
लेना-देना है, न
गांव से कुछ
लेना-देना है।
इस तरह मत
सोचना, सीधा
देखना।
व्यक्ति को
सीधा देखना, परिवार को
सीधा देखना, गांव को
सीधा देखना।
पूर्व-धारणाएं
मत रखना।
"राज्य
के चरित्र के
अनुसार राज्य
को परखो।'
मगर
कोई परखता
नहीं। हम
परखते अपनी
धारणाओं के
अनुसार हैं।
तुमने कभी
खयाल किया? हिंदुस्तान
और चीन की
दोस्ती थी तो
हिंदी-चीनी
भाई-भाई चाऊ
एन लाई और
नेहरू दोनों
दोहराते थे।
और सारा बड़ा
सब ठीक था।
फिर दुश्मनी
हो गई। फिर
चीन राक्षसों
का देश हो
गया। फिर
हिंदुस्तानी
नेता
चिल्लाने लगे
कि ये तो
राक्षस हैं, ये तो दानव
हैं, ये तो
बड़े भ्रष्ट
हैं। एक घड़ी
पहले भाई-भाई
थे। और चीनी
नेता वहां
चिल्लाने लगे
कि भारतीयों
को तो नष्ट
करना ही पड़ेगा,
ये ही तो
पूंजीवाद की
जड़ हैं एशिया
में। इनको मिटाना
पड़ेगा, ये
महारोग हैं।
एक क्षण में
सब बदल जाता
है। और सारा
मुल्क
दोहराने लगता
है। और कभी
तुम सोचते भी
नहीं कि पूरे
मुल्क को दानव
कहना नासमझी
है। दोस्ती-झगड़ा एक
बात है; बनती
बिगड़ती
है। लेकिन यह
अतिशय पैदा हो
जाता है
तत्क्षण।
जो
आदमी कल तक
मित्र था, उससे
अच्छा आदमी
नहीं था, आज
वह शत्रु हो
गया, उससे
बुरा आदमी
नहीं है। एक
दिन में यह हो
कैसे गया? जो
स्त्री कल तक
बड़ी सुंदर
मालूम पड़ती थी,
आज बनाव
बिगड़ गया, बस
वह कुरूप हो
गई। अब उससे
ज्यादा डायन
इस दुनिया में
कोई है ही
नहीं। पूरे
समूह, पूरे
राष्ट्र इस
तरह जीते हैं।
और पूरे राष्ट्र
को तुम छापा
लगा देते हो
कि यह बुरा या
अच्छा।
सीधे-सीधे
देखना। यह
धारणाओं का
जाल उचित नहीं
है। इससे
तुम्हारी
आंखें धुएं से
भर जाएंगी, और
तुम कभी सीधे
देखने में
समर्थ न हो
पाओगे। दुश्मन
भी अच्छा हो
सकता है।
जरूरी
नहीं है कि
रावण राक्षस
रहा हो। वह
राम के मानने
वालों की
धारणा है। और
अब अगर
उन्होंने राम
के पुतले जला
दिए दक्षिण
में तो बड़ी
बेचैनी फैलती
है। और तुम
पुतले जलाते
रहे रावण के
और अभी भी
जलाओगे और जरा
भी बेचैनी
नहीं फैलती।
रावण राक्षस
रहा हो, ऐसा
जरूरी नहीं
है। राक्षस
कोई भी नहीं
है। दुश्मन
हमेशा राक्षस
मालूम होता है;
मित्र
अच्छे मालूम
पड़ते हैं, शत्रु
राक्षस मालूम
होता है। तो
तुम फिर विकराल
मूर्तियां
रावण की बनाते
हो। जरूरी
नहीं है कि
विकराल रहा
हो। संभावना
तो बहुत है कि
बहुत सुंदर
आदमी रहा
होगा।
क्योंकि डर
ऐसा है, और
शक्तिशाली
आदमी था, डर
ऐसा था राम के
भक्तों को, मित्रों को
कि अगर रावण
स्वयंवर में
मौजूद रहा तो
वह शिव का
धनुष तोड़
देगा। वह शिव
का भक्त भी
था। और भक्ति
उसकी अपरिसीम
थी। कथा है कि
अपनी गर्दन
चढ़ा देता था।
वही तो भक्ति
है जब तुम अपना
सिर रख दो। तो
डर था कि वह
शिव का भक्त
है, और
धनुष भी शिव का
है; तोड़ दे
सकता है। और
बलशाली था। और
सुंदर था। समृद्धशाली
था। प्रतापी
था। बड़ा राज्य
था। स्वर्ण की
उसकी लंका थी।
डर था। इसलिए
एक षडयंत्र
रचा गया। और
ऐन वक्त पर जब
स्वयंवर रचा
था तब उसको
झूठी खबर दी
गई कि लंका
में आग लग गई
है। वह खबर
झूठी थी।
लेकिन लंका में
आग लग गई है, इसलिए वह
भागा हुआ लंका
गया। इस बीच
स्वयंवर हो
गया। राम ने
धनुष तोड़
दिया। सीता
ब्याह कर चली
गई।
यहीं
सारी उपद्रव
की बात शुरू
हुई। सीता का
चुराना सिर्फ
प्रत्युत्तर
है। और रावण
बुरा आदमी
नहीं था।
क्योंकि सीता
को ले जाकर भी
कोई दुराचरण
नहीं किया; सीता
को सुरक्षित
रखा। सीता के
ऊपर कोई जबरदस्ती
नहीं की। राम
ने जितनी
जबरदस्ती
सीता पर की
उतनी रावण ने
नहीं की है।
क्योंकि कथा
बड़ी अजीब है।
जब रावण हार
गया और सीता
को राम वापस ले
आए, तो
वाल्मीकि में
जो शब्द हैं
वे बड़े दुखद
हैं। क्योंकि
राम ने सीता
से कहा कि तू
यह मत समझना
कि यह युद्ध
हमने तेरे लिए
किया। यह
युद्ध तो
परंपरा के लिए,
वंश की
प्रतिष्ठा के
लिए। ये शब्द
अभद्र हैं। और
फिर एक धोबी
के कहने पर
सीता को जंगल
में फेंक दिया;
गर्भिणी को
जंगल में छोड़
दिया बिना
चिंता किए।
फिर भी
राम के भक्त
को यह कुछ भी
दिखाई न
पड़ेगा। रावण
की सब बुराई
दिखाई पड़ेगी; राम
की सब भलाई
दिखाई पड़ेगी।
अब दक्षिण में
रावण के भक्त
पैदा हो रहे
हैं। उनको
रावण की सब भलाई
दिखाई पड़ती है;
राम की सब
बुराई दिखाई
पड़ती है।
आंख
साफ होनी
चाहिए और सीधा
देखना चाहिए।
भलाई राम में
भी है; और
बुराई रावण में
भी है। बुराई
राम में भी है;
भलाई रावण
में भी है।
असल में, इस
पृथ्वी पर कोई
पूर्ण नहीं हो
सकता। जो पूर्ण
हो जाते हैं
वे तिरोहित हो
जाते हैं। इस
पृथ्वी पर कोई
आदमी इतना कर
सकता है कि
निन्यानबे
प्रतिशत भला
हो जाए। लेकिन
एक प्रतिशत
बुराई बची ही
रहेगी। नहीं तो
इस जमीन से
संबंध ही टूट
जाता है।
बुराई ही तो बांधती
है। और इस
दुनिया में
कोई आदमी चाहे
तो निन्यानबे
प्रतिशत बुरा
हो सकता है।
लेकिन एक प्रतिशत
भलाई बची
रहेगी। न तो
सौ प्रतिशत
बुरा आदमी
मिलता है कहीं,
न सौ
प्रतिशत भला
आदमी मिलता है
कहीं। पुण्यात्मा
में छोटा सा
पापी छिपा
रहता है; पापी
में छोटा सा
पुण्यात्मा
छिपा रहता है।
तभी तो वह
बदलाहट की
संभावना है, नहीं तो
बदलाहट की
संभावना भी खो
जाएगी। न तो कोई
रावण और न कोई
देव है। सब
मिश्रित है।
और तुम
सीधा देखना।
और अपनी धारणा
को बना कर मत
देखना। जैसे
ही तुमने
धारणा बना ली
वैसे ही
तुम्हारी
आंखें अंधी हो
गईं। धारणा
अंधापन है।
"संसार
के चरित्र के
अनुसार संसार
को परखो। मैं
कैसे जानता
हूं कि संसार
ऐसा है?'
इस परख
के द्वारा कि
मैं सीधे
देखता हूं।
मेरा कोई लगाव
नहीं। मेरा
कोई
पक्ष-विपक्ष
नहीं।
ध्यान
रखना, पक्ष-विपक्ष
बुद्धि के खेल
हैं।
निष्पक्ष जब
तुम देखोगे
तभी तुम्हारा
हृदय देखने
में समर्थ हो
पाएगा। तुम
पक्ष-विपक्ष
में खड़े ही मत
होना। तुम सीधे-सीधे
देखना। तुम
आंख को दर्पण
बना कर देखना।
तुम्हारी आंख
देखने में कुछ
भी न जोड़े। जो
तुम्हारे
सामने हो उसी
को देखना। अगर
तुम्हें राम
में भी बुराई
दिखाई पड़े तो
देखना। अगर
रावण में भी
भलाई दिखाई
पड़े तो देखना।
तुम यह मत कहना
कि यह रावण है,
इसमें भलाई
कैसे हो सकती
है! यह तुम मत
कहना कि ये
राम हैं, इनमें
बुराई कैसे हो
सकती है! अगर
तुमने ऐसी धारणाएं
रखीं तो तुम
अंधे हो। तब
तुम न तो चरित्र
को देख पाओगे
और न चरित्र
को उपलब्ध कर
पाओगे।
निष्पक्ष
होकर देखना।
मुश्किल
है निष्पक्ष
आदमी खोजना, क्योंकि
निष्पक्ष
आदमी अगर हो
तो कोई भी
उसके पक्ष में
न होगा। वह
इतना सीधा
देखेगा कि न
तो वह
तुम्हारे राम
को राम कहेगा
और न तुम्हारे
रावण को रावण
कहेगा। रावण के
मानने वाले उस
पर नाराज
होंगे कि तुम
रावण में कुछ
बुराई देखते
हो? राम के
मानने वाले
नाराज होंगे
कि तुम राम
में कुछ बुराई
देखते हो? सब
अंधे उससे
नाराज होंगे।
आंख वाला
अंधों के बीच
में पड़ जाए तो
सभी नाराज
होंगे। और
अंधे पूरी
कोशिश करेंगे
कि तुम्हारी
आंखों में कुछ
गड़बड़ है।
क्योंकि हम सब
जैसा देखते
हैं, तुम
क्यों नहीं
देखते? अंधे
कोशिश करेंगे
कि तुम्हारी
आंखों का आपरेशन
कर दिया जाए।
तब तुम बिलकुल
ठीक हो जाओगे।
एक
गांव में ऐसा
हुआ। एक
जादूगर ने एक
कुएं में
मंत्र फेंक
दिया और कहा
कि अब जो भी
इसका पानी पीएगा, पागल
हो जाएगा।
सारे गांव ने
पानी पीया।
एक ही कुआं था
गांव में। एक
और कुआं था, लेकिन वह
राजा के महल
में था। राजा
बड़ा प्रसन्न
हुआ, और
वजीर बड़े
प्रसन्न हुए
कि कम से कम
हमारा अलग
कुआं है। तो
वजीर और राजा
तो पागल नहीं
हुए, पूरा
गांव पागल हो
गया।
लेकिन
शाम तक बड़ा तनाव
फैलने लगा।
क्योंकि राजा
के पहरेदार, सिपाही,
सैनिक सब
पागल हो गए।
और गांव में
एक अफवाह उड़ने
लगी कि मालूम
होता है, राजा
पागल हो गया
है। शाम
होते-होते
गांव में आंदोलन
तैयार हो गया।
लोग भीड़ लगा
कर राजमहल के
चारों तरफ
इकट्ठा हो गए
और उन सबने
चिल्ला कर कहा
कि यह राजा
पागल हो गया
है, हम
राजा को बदलना
चाहते हैं!
राजा
छत पर आया; उसने
वजीर से पूछा,
अब क्या
करना? उसने
कहा, एक ही
रास्ता है कि
हम भी उसी
कुएं का पानी
पी लें। अब ये
सब पागल हो गए
हैं, मगर
अब इनको कौन
समझाए? और
ये सभी हैं
सहमत, अब
हम इन्हें
पागल दिखाई पड़
रहे हैं।
हालांकि हमें
पता है कि हम
पागल नहीं हैं,
लेकिन इससे
अब कुछ होगा
नहीं। अब देर
न करें। वजीर
ने राजा से
कहा कि आप
लोगों को समझा
कर रोकें, थोड़ी
देर में मैं
पानी लेकर आता
हूं भागा हुआ।
वह गया और
कुएं से पानी
भर लाया।
दोनों ने पानी
पीया, दोनों
पागल हो गए।
गांव उस रात
भर उत्सव
मनाता रहा कि
हमारे राजा और
वजीर की
बुद्धि ठीक हो
गई; धन्यवाद
परमात्मा का!
तुम
जिस बस्ती में
हो वह पागलों
की है, पाखंडियों
की है। तुम
जिनके बीच हो
उनके बीच शुद्ध
आंख को पैदा
करने में बड़ी
कठिनाई होगी।
लेकिन वह
कठिनाई
गुजरने जैसी
है। शुद्ध आंख
पैदा कर लो।
क्योंकि उसके
बिना परमात्मा
को देखने का
कोई उपाय
नहीं। सत्य को
निष्पक्ष आंख
ही देख सकती
है। पक्षपात
सभी असत्य हैं।
आज
इतना ही।
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