गौतम
बुद्ध का नाम
ही संकीर्ण
सांप्रदायिक
चित्त के
लोगों को
भयाक्रांत कर
देता था। उस
नाम में ही
विद्रोह था।
वह नाम आमूल
क्रांति का ही
पर्यायवाची
था ऐसे भयभीत
लोग स्वयं तो
बुद्ध से
दूर—दूर रहते
ही थे अपने
बच्चों को भी
दूर—दूर रखते
थे। बच्चों के
लिए युवकों—
युवतियों के
लिए उनका भय
स्वभावत: और
भी ज्यादा था।
ऐसे लोगों ने
अपने बच्चों
को कह रखा था
कि वे कभी
बुद्ध की हवा
में भी न
जाएं। उन्हें
उन्होंने
शपथें दिला
रखी थीं कि वे
कभी भी बुद्ध
या बुद्ध के
भिक्षुओं को
प्रणाम न
करेगे।
एक
दिन कुछ बच्चे
जेतवन के बाहर
खेल रहे थे। खेलते—खेलते
उन्हें प्यास
लगी। वे भूल
गए अपने माता—पिताओं
और
धर्मगुरुओं
को दिए वचन और
जेतवन में
पानी की तलाश
में प्रवेश कर
गए। संयोग की
बात कि भगवान
से ही उनका
मिलना हो गया।
भगवान ने
उन्हें पानी
पिलाया और
बहुत कुछ और
भी पिलाया—
प्रेम भी
पिलाया। ऊपर
की प्यास तो
मिटायी और
भीतर की प्यास
जगायी। वे
बच्चे खेल
इत्यादि
भूलकर दिनभर
भगवान के पास
ही रहे ऐसा
प्रेम तो
उन्होंने कभी
न जाना था। न
जाना था ऐसा
चुंबकीय
आकर्षण न देखा
था ऐसा सौदर्य
न देखा था ऐसा
प्रसाद ऐसी
शांति ऐसा
आनंद ऐसा
अपूर्व उत्सव; वे
भगवान में ही
डूब गए वह
अपूर्व रस वह
अलौकिक रंग उन
सरल बच्चों के
हृदयों को लग
गया। वे फिर
रोज ही आने
लगे। वे भगवान
के पास धीरे—
धीरे ध्यान
में भी बैठने
लगे उनकी सरल श्रद्धा
देखते ही बनती
थी।
फिर
उनके मां— बाप
को खबर लगी।
मां—बाप अति
क्रुद्ध हुए।
पर अब बहुत
देर हो चुकी
थी। बहुत उन्होंने
सिर मारा उनके
पंडित—पुरोहितो
ने बच्चों को
समझाया डांटा—
डपटा भय— लोभ
साम— दाम— दंड—भेद
सब का उन
छोटे—छोटे
बच्चों पर
प्रयोग किया
गया पर जो छाप
बुद्ध की पड़
गयी थी सो पड़
गयी थी। फिर तो
ये मां—बाप
बहुत रोए भी
पछताए भी।
जैसे बुद्ध ने
उनके बच्चों
को बिगाड़ दिया
हो उनकी नाराजगी
इतनी थी। और
वे कहते फिरते
थे कि इस
भ्रष्ट गौतम
ने हमारे
भोले— भाले
बच्चों को भी
भ्रष्ट कर
दिया है।
अंतत:
उनका पागलपन
ऐसा बढ़ा कि
उन्होंने उन
बच्चों को भी
त्याग देने की
ठान ली। और एक
दिन वे उन
बच्चों को सौप
देने के लिए
बुद्ध के पास
गए। पर यह
जाना उनके
जीवन में भी
ज्योति जला
गया क्योंकि
वे भी बुद्ध
के ही होकर वापस
लौटे। बुद्ध
के पास जाना
और बुद्ध के
बिना हुए लौट
आना संभव भी नहीं
है। इन लोगों
से ही बुद्ध
ने ये गाथाएं
कही थीं।
गाथाओं
के पहले इस
छोटी सी कहानी
को,
सरल सी
कहानी को ठीक
से हृदय पर
अंकित हो जाने
दें।
जब
भी कोई
धार्मिक
व्यक्ति इस
पृथ्वी पर हुआ
है,
तो स्वभावत:
विद्रोही
होता है। धर्म
विद्रोह हे।
धर्म का और
कोई रूप होता
ही नहीं। धर्म
कभी परंपरा
बनता ही नहीं।
और जो बन जाता
है परंपरा, वह धर्म
नहीं है।
परंपरा तो ऐसी
है जैसे सांप निकल
गया और रास्ते
पर सांप के
गुजरने से बन
गए चिह्न छूट
गए। परंपरा तो
ऐसी है जैसे
कि तुम तो
गुजर गए, रास्ते
पर बने हुए
तुम्हारे
जूतो के चिह्न
छूट गए।
कन्फ्यूसियस
के जीवन में
उल्लेख है कि
वह लाओत्सु से
मिलने गया था।
यह मिलन
परंपरा और
धर्म का मिलन
है। कन्फ्यूसियस
है परपरा—जो
अतीत का है, वही
श्रेष्ठ है।
जो हो चुका, वही श्रेष्ठ
है। सब
श्रेष्ठ हो
चुका है, अब
और श्रेष्ठ
होने को बचा
नहीं है। कन्फ्यूसियस
के लिए तो
अतीत का स्मरण
ही सार है धर्म
का। वह
परंपरावादी
था। वह गया
लाओत्सु को मिलने।
लाओत्सु है
धार्मिक।
अतीत तो है ही
नहीं उसके लिए
और भविष्य भी
नहीं है। जो
है, वर्तमान
है।
जब
कन्फ्यूसियस
ने अपनी
परंपरावादी
बातें
लाओत्सु को
कहीं तो
लाओत्सु बहुत
हंसा और उसने
यही शब्द कहे
थे। उसने कहा
था,
परंपरा तो
ऐसे है जैसे
आदमी तो गुजर
गया और उसके
जूते के चिह्न
रेत पर पड़े रह
गए। वे चिह्न
आदमी तो हैं
ही नहीं, आदमी
के जूते भी
नहीं हैं।
जीवित आदमी तो
है ही नहीं उन
चिह्नों में,
जीवित आदमी
की तो छोड़ो, मुर्दा जूते
भी उन चिह्नों
में नहीं हैं।
जूतो के भी
चिह्न हैं वे।
छाया की भी
छाया है।
कन्फ्यूसियस
तो बहुत डर
गया था, उसने
लौटकर अपने
शिष्यों को
कहा था, इस
आदमी के पास
भूलकर मत
जाना। इसकी
बातें खतरनाक
हैं।
पर
धर्म खतरनाक
है ही। धर्म
से ज्यादा
खतरनाक और कोई
चीज पृथ्वी पर
नहीं है। लेकिन
तुम अक्सर
देखोगे
भीरुओं को
धार्मिक बने।
कमजोरों को, नपुंसकों
को हगर्मिक
बने। घुटने
टेके, प्रार्थनाएं—स्तुति
करते हुए, भयाक्रांत,
उनका भगवान
उनके भय का ही
निचोड़ है।
तो
निश्चित ही
जिस धर्म को
ये धर्म कह
रहे हैं, वह
धर्म नहीं हो
सकता। धर्म तो
खतरनाक ढंग से
जीने का नाम
है। धर्म का
अर्थ ही है
निरंतर अभियान।
धर्म का अर्थ
ही है पुराने
और पिटे—पिटाए
से राजी न हो
जाना। नए की, मौलिक की
खोज। धर्म का
अर्थ है, अन्वेषण।
धर्म का अर्थ
है, जिज्ञासा,
मुमुक्षा।
धर्म का अर्थ
है, उधार
और बासे से
तृप्ति नहीं।
अपना अनुभव
नहीं कर लेंगे,
तब तक तृप्त
नहीं होंगे।
धर्म वेद से
राजी नहीं
होता, जब
तक अपना वेद
निर्मित न हो
जाए। धर्म
स्मृति में
नहीं है, श्रुति
में नहीं है, धर्म
अनुभूति में
है।
हिंदुओं
के कुछ ग्रंथ
कहलाते हैं, श्रुति।
सुना जिन्हें।
और कुछ ग्रंथ
कहलाते हैं, स्मृति। याद
रखा जिन्हें।
हिंदुओं के
सारे ग्रंथ दो
हिस्सों में
बांटे जा सकते
हैं—श्रुति और
स्मृति। या तो
सुना, या
याद रखा।
लेकिन धर्म तो
होता है
अनुभुति, न
श्रुति, न
स्मृति।
बुद्ध
उसी धर्म के
प्रगाढ़
प्रतीक थे। वे
कहते थे—जानो, स्वानुभव
से जानो, अप्प
दीपो भव।
स्वभावत:, परंपरावादी
घबड़ाता रहा
होगा, सांप्रदायिक
घबड़ाता रहा
होगा।
क्योंकि संप्रदाय
का असली
दुश्मन धर्म
है।
आमतौर
से तुम सोचते
हो कि हिंदू
का दुश्मन मुसलमान, मुसलमान
का दुश्मन
हिंदू तो गलत
सोचते हो, दोनों
सांप्रदायिक
हैं। लड़े
कितने ही, मगर
वास्तविक
दुश्मनी उनकी
नहीं है। एक
एक तरह की
स्मृति को
मानता है, दूसरा
दूसरी तरह की
स्मृति को
मानता है, विवाद
उनमें कितना
ही हो, लेकिन
मौलिक मतभेद
नहीं है।
दोनों स्मृति
को मानते हैं।
दोनों अतीत को
मानते हैं।
असल
विरोध होता है
धर्म का। और एक
मजे की बात है
कि धर्म का
विरोध सारे
संप्रदाय
मिलकर करते
हैं।
इसे
तुम कसौटी
समझना। जब
बुद्ध जैसा
व्यक्ति पैदा
होता है, तो
ऐसा नहीं कि
हिंदू उसका
विरोध करते
हैं और जैन
विरोध नहीं
करते, कि
जैन विरोध
करते हैं, हिंदू
विरोध नहीं
करते, कि
मुसलमान
विरोध करते
हैं, ईसाई
विरोध नहीं
करते। जब भी
बुद्ध जैसा
व्यक्ति पैदा
होगा तब तुम
एक चमत्कार
देखोगे कि सभी
सांप्रदायिक
लोग उसका
इकट्ठे होकर
विरोध करते
हैं—हिंदू हों
कि मुसलमान, कि ईसाई, कि
जैन—सभी मिलकर
उसका विरोध
करते हैं।
क्योंकि वह
संप्रदाय के
मूल पर ही चोट
कर रहा है। वह
यह कह रहा है
कि धर्म
संप्रदाय बन
ही नहीं सकता।
संप्रदाय लाश
है, मरा
हुआ धर्म है।
इस लाश से
सिर्फ
दुर्गंध निकलती
है। इससे किसी
की मुक्ति
नहीं होती। इस
लाश को ढोते
रहे तो तुम भी
धीरे— धीरे
लाश हो जाओगे।
तो यह छोटी सी
कथा शुरू होती
है—
गौतम
बुद्ध का नाम
संकीर्ण, सांप्रदायिक
चित्त के
लोगों को
भयाक्रांत कर
देता था।
उस
नाम में अंगार
था। उससे भय
पैदा हो जाता
था। और भय तभी
पैदा होता है
जब तुम जो
पकड़े हो, वह
गलत हो। नहीं
तो भय पैदा
नहीं होता।
तुमने
अगर सत्य को
ही स्वीकार
किया हो, तो
तुम निर्भय हो
जाते हो। सत्य
निर्भय करता
है। सत्य
मुक्त करता
है। असत्य को
पकड़ा हो तो
तुम सदा भयभीत
रहते हो कि
कहीं सत्य सुनायी
न पड़ जाए।
कहीं ऐसा न हो
कि कोई बात
मेरी मान्यता
को डगमगा दे।
इसलिए
सांप्रदायिक
लोग कहते हैं
कि सुनना ही
मत, दूसरे
की बात गुनना
ही मत। दूसरे
के पास जाना ही
मत।
क्यों? इतना
क्या भय है? तुम्हारे
पास सत्य है, तो तुम
घबड़ाते क्यों
हो? तुम्हारा
सत्य किसी की
बात सुनकर हिल
जाएगा? तुम्हारा
सत्य किसी की
बात सुनकर उखड़
जाएगा? तो
ऐसे दो कौड़ी
के सत्य को
क्या मूल्य दे
रहे हो! जो
किसी की बात
सुनकर उखड़
जाएगा, वह
तुम्हें जीवन
के भवसागर के
पार ले जा
सकेगा? जो
सुनने से बिखर
जाता है, वह
तुम्हारी मौत
में तुम्हारा
साथी हो सकेगा?
वह
बिखरता
इसीलिए है कि
तुम्हारे
भीतर संदेह छिपा
है। तुम भी
जानते हो कि
सत्य तो यह
नहीं है। तुम
भी किसी तल पर
पहचानते हो कि
सत्य तो यह नहीं
है। मगर इस
बात को छिपाए
हो,
दबाए हो, अंधेरे में
सरका दिया है।
अचेतन मन में
दरवाजे बंद
करके ताला
लगाकर डाल
दिया है।
लेकिन तुम
जानते हो, ताला
तुम्हीं ने
लगाया है।
तुम्हें पता
है कि अगर
सत्य की किरण
आएगी, तो
मेरी बात झूठ
हो जाएगी।
इसलिए सत्य की
किरण से बचो।
अपने अंधेरे
को सम्हालो और
सत्य की किरण
से बचो।
सत्य
अभय करता है
और असत्य
भयभीत करता
है।
वे
घबड़ाते थे लोग, क्योंकि
एक बात तो साफ
थी कि कुछ है
बुद्ध के पास,
कुछ धार, कुछ प्रखरता,
कि बुद्ध की
मौजूदगी में
असत्य असत्य
दिखायी पड़ने
लगता है, सत्य
सत्य दिखायी
पड़ने लगता है।
कि बुद्ध की मौजूदगी
में
सम्यक—दृष्टि
पैदा होती है।
लेकिन हमने
असत्य के साथ
बहुत से
स्वार्थ जोड़
रखे हैं, हमारे
न्यस्त
स्वार्थ हैं।
उन न्यस्त
स्वार्थों को
छोडने की
हमारी तैयारी
नहीं है। तो
यही उचित है
कि सत्य सुनो
ही मत, अन्यथा
जमी—जमायी
दुनिया बिखर
जाए। एक व्यवस्था
बनाकर बैठ गए
हैं, एक
सुरक्षा है।
सब ठीक—ठाक चल
रहा है। इसे
क्यों गड़बड़
करना? इस
अज्ञात को
क्यों
निमंत्रण
देना? इस
अनजान को
क्यों बुलाना
घर में? मत
लाओ इस अतिथि
को। किसी तरह
तुमने अपने घर
को जमा लिया
है, अब नए 'को लाकर और
फिर से जमाना
पड़ेगा।
तो
जैसे—जैसे लोग
के होने लगते
हैं,
वैसे—वैसे
भय ज्यादा
पकड़ने लगता
है। अब उम्र भी
ज्यादा नहीं
रही, मौत
भी करीब आती
है.......।
मैं
अपने गांव
जाता हूं
—जाता था—तो
मेरे एक शिक्षक
हैं,
स्कूल में
मुझे पढ़ाया, उनसे मुझे
लगाव है, तो
उनके घर मैं
सदा जाता था।
एक बार गांव
गया तो
उन्होंने अपने
बेटे को भेजा
और मुझे
कहलवाया कि
मेरे घर मत
आना। मैं थोड़ा
हैरान हुआ।
मैंने उनके
बेटे को पूछा
कि बात क्या
है? तो
उन्होंने कहा
कि वे रोते थे
जब उन्होंने
यह बात
कहलवायी, दुखी
थे, लेकिन
उन्होंने
कहलवाया कि
मेरे घर मत
आना।
तो
मैंने कहा कि
तुम उनसे कहना, एक
बार और आऊंगा,
बस एक बार।
तो मैं गया
उनके घर।
मैंने पूछा कि
बात क्या है? उन्होंने
कहा, बात
अब तुम पूछते
हो तो तुमसे
कह दूं। अब
मैं का हुआ, तुम्हारी
बातें सुनकर
मेरी आस्थाएं
डगमगाती हैं।
अब यहां मौत
मेरे करीब खड़ी
है, अब
तुम्हारी बात
सुनकर मैं कोई
नयी बात शुरू
कर भी नहीं
सकता, नयी
बात शुरू करने
के लिए समय भी
मेरे पास नहीं
है। पिछली बार
तुम आए, तब
से मैं ठीक से
माला नहीं फेर
पाया; माला
फेरता हूं
तुम्हारी याद
आती है कि सब
फिजूल है।
राम—राम जपता
हूं,
तुम्हारी बात
याद आती है कि
कोका—कोला जपो
तो भी ऐसा ही
परिणाम होगा।
तुम मुझे बहुत
सता रहे हो।
मूर्ति के सामने
बैठता हूं और
मैं जानता हूं
कि मुर्ति पत्थर
है। और अब मौत
मेरी करीब आती
है। तुम देखते
हो, मेरे
हाथ—पैर कैपने
लगे, अब
मैं उठ भी
नहीं सकता, मुझे मेरे
ऊपर छोड़ दो।
मैंने
उनसे कहा, मुझे
कुछ अड़चन नहीं
है, लेकिन
जो बात होनी
शुरू हो गयी
है, अब उसे
रोका नहीं जा
सकता, जो
अंकुर फूट
चुका है, उसे
अब रोका नहीं
जा सकता। अब
तुम लाख उपाय
करो तो तुम
राम—राम अब
उसी
अंधश्रद्धा
से नहीं कह
सकते जो तुम
पहले कहते रहे
हो। और मैंने
उनसे कहा, अगर
मेरी सुनते हो
तो मैं तो
कहूंगा कि मौत
करीब आ रही है,
इसलिए
जल्दी बदल लो।
क्योंकि जो
तुम समझने लगे
हो कि व्यर्थ
है, मौत
में टूट
जाएगा। अगर एक
दिन बचा है, तो एक दिन
काफी है; अगर
एक क्षण बचा
है, तो एक
क्षण काफी है,
इस एक क्षण
में भी जीवनभर
का कचरा छोड़
दो। और पहली
बार हिम्मत
जुटाओ, पहली
बार शांत बनने
की हिम्मत
जुटाओ। और मैं
तुमसे यह नहीं
कह रहा हूं कि
कोई दूसरा नाम
जपो। मैं
तुम्हें कोई दूसरा
मंत्र नहीं दे
रहा हूं। मैं
तुमसे इतना ही
कह रहा हूं कि
जो तुम्हें
झूठा लगता है,
अब उसे मत
जपो। बिना
जपते हुए मर
जाओ, हर्जा
नहीं है। बिना
मूर्ति के
सामने बैठे मर
जाओ, हर्जा
नहीं है।
क्योंकि जो
मुर्ति झूठ हो
गयी है
तुम्हें, मैं
न आऊंगा, इससे
कुछ फर्क न
पड़ेगा। और मैं
कभी भी न आया
होता तो भी
मूर्ति झूठी
ही थी, चाहे
तुम्हें याद
आती, चाहे
न आती। झूठ से
कोई पार नहीं
होता, झूठ
की नाव नहीं
बनती। सिर्फ
सत्य की नाव
बनती है।
जैसे—जैसे
आदमी का होता
है,
और डरने
लगता है।
इसलिए
अक्सर दुनिया
में जब भी
बुद्ध जैसे
व्यक्ति पैदा
होते हैं, तो
जवान उन्हें
पहले स्वीकार
करते हैं।
युवक—युवतियां
पहले स्वीकार
करते हैं।
छोटे बच्चे भी
कभी स्वीकार
कर लेते हैं; लेकिन
बड़े—बूढ़ों को
बड़ी कठिनाई
होती है। अगर
बड़े—बूढ़े
स्वीकार भी
करते हैं तो
थोड़े से बड़े
—के, जो
शरीर से शायद
के हो गए हों, लेकिन आत्मा
से जो जवान
होते हैं, युवा
होते हैं। जो
भीतर से अभी
भी कायर नहीं
हो गए होते
हैं।
उम्र
कायर कर देती
है आदमी को।
जवानी में
आदमी सोचता है, ठीक
जो हो उस पर
चलूंगा; बुढ़ापे
में सोचने
लगता है, जिस
पर चलता रहा
हूं उसी पर
चलता रहूं अब
कहा ठीक, कहां
गैर—ठीक! अब
समय कहां? अब
फिर से निर्णय
करना महंगा पड़
सकता है। कहीं
ऐसा न हो जो
हाथ में है वह
भी छूट जाए और
जो हाथ में
नहीं है वह
मिले भी न!
जैसे—जैसे
बुढापा आता है,
वैसे—वैसे
आदमी भीरु
होने लगता है।
बुद्ध
जैसे
व्यक्तियों
के पास नब्बे
प्रतिशत तो
युवा जाते हैं, दस
प्रतिशत
वृद्ध जाते
हैं। वे वृद्ध
भी गरिमा हैं
इस पृथ्वी की,
वे वृद्ध ही
गरिमा हैं इस
पृथ्वी की।
क्योंकि वे
अभी भी जवान
हैं। वे मौत
के आखिरी क्षण
तक भी अगर
उन्हें पता चल
जाए कि सत्य
क्या है, तो
सत्य के साथ
खड़े होने की
तैयारी रखते
हैं, असत्य
को छोड़ देंगे,
चाहे असत्य
के प्रति पूरा
जीवन ही क्यों
न समर्पित रहा
हो। इतनी
हिम्मत, इतना
साहस जिसमें न
हो, वह
धार्मिक हो भी
नहीं पाता। और
इसीलिए धर्मगुरु
बहुत डरे रहते
हैं कि छोटे
बच्चे इस तरह
के खतरनाक
लोगों के पास
न जाएं।
इधर
रोज ऐसी घटना
घटती है। यह
कहानी कुछ उसी
दिन होकर चुक
गयी,
ऐसा नहीं, आज भी घटती
है। आज भी
वैसी ही घट
रही है। मैं
ग्वालियर
में ग्वालियर
की महारानी का
मेहमान था।
उन्होंने मुझे
सुना, उनके
बेटे ने भी
सुना। दूसरे
दिन वे मुझे
मिलने आयीं और
उन्होंने
मुझसे कहा, मेरा बेटा
भी आना चाहता
था, लेकिन
मैं उसे साथ
लायी नहीं, क्योंकि
मुझे आपकी
बातें खतरनाक
मालूम होती हैं।
हम तो बड़े —के
हैं, हम तो
समझ लेते हैं,
लेकिन छोटे
बच्चे हैं, वे तो इन
बातो में पड़कर
भ्रष्ट हो
सकते हैं।
मैंने
कहा,
मेरी बात
सही है या गलत,
इसकी हम
फिकर करें, छोटे—बड़ों
की बात पीछे
कर लेंगे।
संस्कारशील महिला
हैं, कहा
कि नहीं, गलत
तो मैं नहीं
कह सकती, सही
ही होगी, मगर
बड़ी दूर की
है। हमारे काम
की नहीं।
मैंने कहा, सत्य कितने
ही दूर का हो, सदा काम का
है। और असत्य
कितना ही पास
हो, कभी
काम का नहीं।
इसलिए असली
सवाल दूरी और
पास का नहीं
है, असली
सवाल तो सच और
झूठ का है।
उन्होंने कहा,
जो भी हो, लेकिन मैं
अपने बेटे को
नहीं लायी हूं
क्योंकि मुझे
डर लगा कि वह
बिगड़ सकता है।
मैंने
कहा,
तुम क्यों आ
गयी हो? तुम्हें
डर नहीं है
बिगड़ने का? इसका मतलब
यह हुआ कि
क्या तुम मर
चुकी हो, जीवित
नहीं हो अब? तुम्हें
सत्य की आवाज
सुनकर हृदय
में कोई स्पंदन
नहीं होता? इसलिए तुम
चली आयी हो, क्योंकि अब
तुम कायर हो
गयी हो। अब
तुमने जिंदगी
से बहुत
समझौता कर
लिया। अभी
तुम्हारा बेटा
समझौते नहीं
किया है। अभी
तुम्हारे
बेटे का जीवन
शेष है। अभी
तुम्हारे
बेटे के भीतर
प्राण हैं।
इससे तुम डर
रही हो।
यह
सदा होता रहा
है। मैं कई
बस्तियों में
रहा हूं; जहां
रहा हूं वहीं
यह घटना रोज
घटती रही है।
लोग अपने
बच्चों को
मेरे पास आने
से रोकते हैं।
खुद चाहे कभी
आ भी जाएं, मगर
बच्चों को आने
से रोकते हैं।
क्योंकि खुद
पर तो उन्हें
भरोसा है।
भरोसा इस बात
का है कि हम तो गए,
भरोसा इस
बात का है कि
हमने तो
समझौता गहरा
कर लिया है, भरोसा इस
बात का है कि
हम तो असत्य
में रच—पच गए हैं,
उन्हें कोई
डर नहीं है।
लेकिन बच्चे?
अभी बच्चे
सरल हैं, साफ—सुथरे
हैं, अभी
बच्चों का कोई
पक्षपात नहीं
है, अभी
बच्चों ने
धारणाएं नहीं
बनायीं, अभी
उनके हृदय
सत्य को
सुनेंगे तो
झंकृत हो सकते
हैं।
तुम्हारे
हृदय तो टूट
चुके, तुमने
अपना तार उखाड़
दिया है।
तुमने झूठ के
साथ इतना
संग—साथ किया
है कि झूठ ने
सब तरफ दीवाल खड़ी
कर दी है।
सत्य पुकारता
भी रहे तो झूठ
का शोरगुल
तुम्हारे
भीतर इतना है
कि सत्य की
पुकार नहीं
पहुंचती।
लेकिन बच्चे
सरल हैं, सीधे
हैं; अभी
उनके बीच और
सत्य के बीच
दीवाल नहीं है,
अभी बच्चे
नए का आवाहन
सुन सकते हैं,
नए की
चुनौती सुन
सकते हैं।
तो
डरते होंगे
लोग कि बुद्ध
के पास उनके
बच्चे न जाएं।
ऐसे भयभीत लोग
स्वयं तो
बुद्ध से
दूर—दूर रहते
ही थे, अपने
बच्चों को भी
दूर—दूर रखते
थे। बच्चों के
लिए, युवक—युवतियों
के लिए उनका
भय स्वभावत:
और भी ज्यादा
था।
क्यों? क्योंकि
बच्चे की
स्लेट अभी
खाली है। इस
पर बुद्ध के
हस्ताक्षर
उभर आएं तो
इसका जीवन कुछ
और हो जाएगा।
डर है कि कहीं
यह बुद्ध की
बात सुन न ले।
क्योंकि यह
सुन सकता है
अभी, अभी
इसके कान बहरे
नहीं हुए हैं।
और अभी आंखें
इसकी अंधी
नहीं हुई हैं।
अभी इसके मन
के दर्पण पर
बहुत ज्यादा
धूल नहीं जमी
है। अभी यह
बुद्ध के पास
जाएगा तो उनकी
छवि इसमें
अंकित हो सकती
है। जिन्होंने
अपने दर्पण
बिगाड़ लिए हैं,
जिनके
दर्पणों पर
बहुत धूल जम
गयी है, वे
चले भी जाते
हैं बुद्ध के
पास तो कोई
छवि नहीं
बनती। खाली
जाते हैं, खाली
लौट आते हैं।
इसलिए
सारी दुनिया
के तथाकथित
धार्मिक लोग अपने
बच्चों को बड़े
जल्दी से अपने
ही धर्म में
दीक्षित करने
में लग जाते
हैं। न उनके
पास धर्म है, न
उनके पास समझ
है, न बूझ
है, न उनके
पास सत्य है, लेकिन जो भी
असत्य का
कूड़ा—करकट
उनके मां—बाप
उन्हें दे गए
थे, वे
अपने बच्चों
को दे देते
हैं। बडी
जल्दी करते
हैं। छोटे
—छोटे बच्चों
को मंदिर
भेजने लगते
हैं, मस्जिद
भेजने लगते
हैं, गुरुद्वारा
भेजने लगते
हैं।
छोटे—छोटे
बच्चों के मन
में वही
कूड़ा—करकट जो
खुद ढो रहे
हैं, डालने
लगते हैं। न
उन्हें उस
कूड़े—करकट से
कोई सोना मिला
है, न
उन्हें आशा है
कि इन्हें
मिलेगा। मगर
एक ही आशा
बांधकर चलते हैं
कि हम जिस
दुनिया में
रहे, हमारे
बच्चे भी उसी
में रहें। यह
प्रेम है?
खलील
जिब्रान ने
कहा है, प्रेम
का तो लक्षण
यह होता है कि
मां—बाप यह प्रार्थना
करेंगे
परमात्मा से
कि हमारे
बच्चे हमसे
आगे जाएं; जहां
तक हम नहीं जा
सके, वहा
जाएं; जिन
पर्वत—शिखरों
को हमने नहीं
छुआ, हमारे
बच्चे छुए; जिन आकाश की
ऊंचाइयों में
हम नहीं उड़े, हमारे बच्चे
उड़े। हमारे
बच्चे हमारी
ही सीमा में
समाप्त न हो
जाएं, यह
होगा प्रेम का
लक्षण। लेकिन
प्रेम है कहा!
जिस
बेटे को तुम
सोचते हो मैं
प्रेम करता
हूं उसको भी
तुम प्रेम
नहीं करते।
अगर तुम प्रेम
करते होते, तो
तुम्हारा
व्यवहार
दूसरा होता।
अगर तुम प्रेम
करते होते तो
तुम अपने बेटे
को कहते कि
बेटा,
हिंदू मत होना, क्योंकि
मैं हिंदू रहा
और मैंने कुछ भी
न पाया, मुसलमान
मत होना, क्योंकि
मैं मुसलमान
रहा और मैं
सिर्फ लड़ा और झगड़ा
और मैंने कुछ
नहीं पाया।
तुम अपने बेटे
से कहोगे अगर
तुम उसे प्रेम
करते हो कि जो
भूलें मैंने
कीं, तू मत
दोहराना।
कहीं ऐसा न हो
कि जैसा मेरा
जीवन व्यर्थ
की बातो में
उलझा और
रेगिस्तान
में खो गया, उत्सव हाथ न
लगा, रस की
कोई धार न बही,
कोई गीत न
फूटा, कोई
फूल न खिले, ऐसा तेरे
साथ न हो जाए
मेरे बेटे, तू ध्यान
रखना, तू
मंदिर—मस्जिद
से सावधान
रहना, मैं
इन्हीं में
उलझ गया। दृ
मंदिर—मस्जिद
से अपना आंचल
बचाकर निकल
जाना, तू
सत्य की खोज
करना। मैं
नहीं कर पाया,
मैं कायर था,
मैंने अपने
बड़े—बूढ़ों की
बात मान ली थी
और मैंने खुद
कभी खोज नहीं
की। तू मेरी
बात मत मानना,
किन्हीं
कमजोर क्षणों
में अगर मैं
आग्रह भी करूं
कि मेरी बात
मान ले, तो
भी मत मानना, तू हिम्मत
रखना, तू
साहस रखना और
अपना ही सत्य
खोजना।
क्योंकि निजी
सत्य ही केवल
सत्य है। जो
स्वयं की खोज
से मिलता है, वही मुक्त
करता है।'
लेकिन
इतना प्रेम
कहां है!
प्रेम ही होता
तो पृथ्वी और
ढंग की होती!
यहां हिंदू न
होते, मुसलमान
न होते, यहां
हिंदुस्तानी
और
पाकिस्तानी न
होते, यहां
गोरे और काले
में भेद न
होता, यहां
स्त्री और
पुरुष के बीच
इतनी असमानता
न होती; यहां
ब्राह्मण और
शूद्र न होते।
अगर दुनिया में
प्रेम होता, तो ये
मूढ़ताएं न
होतीं। मगर ये
मूढ़ताएं धर्म
की आडू में
छिपी बैठी
हैं। धर्म की
मिठास में खूब
जहर छिपा बैठा
है। डरते
होंगे लोग कि
हमारे बच्चे
बुद्ध के पास
न चले जाएं।
सोचते वे यही होंगे
कि बच्चों के
प्रेम के कारण
हम ऐसा कर रहे
हैं।
तुम्हारे
सोचने से क्या
होता है? तुम
लाख सोचो, तुम
जो करते हो, उसका परिणाम
बताएगा कि
क्या सच है!
बुद्ध
आए हों गांव
में,
कौन ऐसा बाप
होगा जो अपने
बेटे से न कहे
कि सब छोड़, लाख
काम छोड़, जा
बुद्ध को सुन!
हम तो चूके, हम तो जीवन
में न सुन पाए,
हम अभागे थे,
तू जा। हम
भी आएंगे, शायद
तेरे जीवन में
जलती किरण
देखकर हमारे
जीवन में भी
फिर जोश आ
जाए। तू अभी
युवा है, तू
शायद जल्दी
समझ ले।
लेकिन
के सोचते हैं
कि हम ज्यादा
समझदार हैं। जैसे
समझदारी का
तुम्हारे
जिंदगी के
व्यर्थ के
अनुभव से कोई
संबंध है!
क्योंकि तुम
चालीस साल एक
ही दफ्तर सुबह
गए,
शाम घर लौटे,
तो तुम बड़े
अनुभवी हो! कि
तुम गड्डा
खोदते रहे सड़क
पर चालीस साल
तक तो तुम बड़े
अनुभवी हो! कि
तुम्हें बड़ा
ज्ञान हो गया!
कि दुकान पर
कपड़े बेचते
रहे तो तुम
बड़े अनुभवी
हो! तुम्हारा
अनुभव क्या है?
तुम्हारे
अनुभव से सत्य
का संबंध क्या
है? सत्य
के जानने के
लिए सरलता
ज्यादा
उपयोगी
है,
बजाय
तुम्हारा
तथाकथित
अनुभव।
अनुभव
ने तुम्हें
विकृत कर दिया
है,
बहुत
लकीरें खींच
दी हैं
तुम्हारे मन
पर। इन लकीरों
के कारण, अब
अगर बुद्ध
हस्ताक्षर भी
करें, तो
उनका पता भी न
चलेगा। तुम
बहरे हो गए हो,
तुम अंधे हो
गए हो। अपने बच्चों
को भेजना, क्योंकि
उनकी
तेजस्विता
अभी कायम है।
अपने बच्चों
को भेजना, क्योंकि
अभी वे हरे
हैं, ताजे
हैं, वे
जल्दी बुद्ध
को पहचान
लेंगे। उनका
तालमेल तत्क्षण बैठ
जाएगा।. अभी
वे बहुत दूर
नहीं गए हैं
संसार में, अभी संन्यास
के बहुत करीब
हैं।
हर
बच्चा संन्यासी
की तरह पैदा
होता है। और
बहुत थोडे
भाग्यशाली
लोग हैं, जो
संन्यासी की
तरह मरते हैं।
सौ बच्चों में
से सौ बच्चे
संन्यासी की
तरह पैदा होते
हैं, फिर
निन्यानबे
संसारी हो
जाते हैं।
इसके
पहले कि बच्चा
संसारी हो जाए, इसके
पहले कि
क्षुद्र
बातों को
ज्यादा मूल्य देने
लगे विराट के
मुकाबले, इसके
पहले कि रुपया
ज्यादा
मूल्यवान हो
जाए सत्य की
तुलना में, इसके पहले
कि
पद—प्रतिष्ठा
ज्यादा
मूल्यवान हो
जाए प्रेम की
तुलना में, भेजना
बुद्धों के
पास, करवाना
सत्संग।
क्योंकि
जल्दी ही
बच्चा भी विकृत
हो जाएगा, जैसे
तुम विकृत हो
गए हो। जल्दी
ही विकृत हो
जाएगा, क्योंकि
तुम्हारा यह
पूरा समाज
रुग्ण है। और सभी
यहां बीमार
हैं, इन
बीमारों के
बीच पलेगा तो
बीमार हो ही
जाएगा। यहां
मां—बाप बीमार
हैं, शिक्षक
बीमार हैं, धर्मगुरु
बीमार हैं, राजनेता
बीमार हैं, यह दुनिया
बीमारों की है,
यह बड़ा
अएकताल है, यहां सब
अपनी— अपनी
बीमारी झेल
रहे हैं, यहां
थोड़ी—बहुत देर
शायद बच्चा
अपने को बचा
ले, ज्यादा
देर न बचा
सकेगा, जल्दी
ही बीमार हो
जाएगा।
इसके
पहले कि
बीमारी उसे भी
पकड़ ले, इसके
पहले कि उसकी
भी आंखें
धुंधली होने
लगें और इसके
पहले कि उसके
हृदय का स्वर
भी दबने लगे
शोरगुल में, इसके पहले
कि वह प्रेम
के मुकाबले धन
को ज्यादा
मूल्य देने
लगे, आनंद
के मुकाबले
प्रतिष्ठा को
ज्यादा मूल्य देने
लगे, शांति
के मुकाबले
सम्मान को
ज्यादा मूल्य
देने लगे, सत्य
के मुकाबले जो
संसार की
क्षुद्र
चीजों को
खरीदने निकल
पड़े—आत्मा
बेचने लगे—और
दिल्ली
पहुंचने में
लग जाए; इसके
पहले कि वह
दिल्ली की
यात्रा पर
निकले, उसे
भेजना
बुद्धों के
पास! तुम नहीं
गए, कोई
हर्ज नहीं।
तुम्हारा अगर
प्रेम है तो
तुम जरूर
भेजोगे।
लेकिन
नहीं, ऐसा
होता नहीं।
मां—बाप यही
सोचते हैं कि
वे प्रेम के
कारण रोक रहे
हैं। हम बड़े
धोखेबाज हैं।
हम गलत काम भी
ठीक शब्दों की
आडू में करते
हैं। हम बड़े
कुशल हैं।
हमारी बेईमानी
बड़ी दक्ष है।
ऐसे
लोगों ने अपने
बच्चों को कह
रखा था कि वे कभी
बुद्ध की हवा
में भी न
जाएं।
बुद्ध
की हवा में
जाना भी खतरे
से खाली नहीं
है। उस हवा
में भी कुछ
है। वह हवा भी
छूती है और
झकझोरती है।
उस हवा में भी तुम्हारे
पत्तों पर जमी
हुई धूल झड़ जा
सकती है। उस
हवा में
तुम्हारे
भीतर जमी हुई
गंदी हवा बाहर
निकल सकती है।
उस हवा के
झोंके में
तुम्हारे
भीतर नयी
ताजगी और नए
अनुभव का स्वर
गज सकता है।
उस हवा के साथ
तुम्हारे
जीवन में नयी
यात्रा की
शुरुआत हो
सकती है।
क्योंकि
जिसने बुद्ध
को देखा, वह
बुद्ध जैसा न
होना चाहे, यह असंभव
है। जो बुद्ध
के पास बैठा, उसके भीतर
एक
महत्वाकांक्षा
न जग जाए कि
कभी ऐसी शांति
मेरी भी हो, ऐसा असंभव
है। जागेगी ही
ऐसी
आकांक्षा।
जिसने बुद्ध
का प्रसाद देखा,
सौंदर्य
देखा, वह
वैसा ही सुंदर
होना चाहेगा।
जिसने बुद्ध को
नहीं देखा वह
अभागा है, क्योंकि
उसने अपने
भविष्य को
नहीं देखा।
बुद्ध
में हम अपने
भविष्य को
देखते हैं।
जिन में, क्राइस्ट
में, कृष्ण
में हम अपने
भविष्य को
देखते हैं। ये
पूरे हो गए
मनुष्य हैं।
ये पूरे खिल
गए फूल हैं।
ये हजार
पंखुडियों
वाला कमल पूरा
का पूरा खिल
गया है। इसे
खिला हुआ देखकर
हमें याद आती
है कि हम अभी
बंद हैं, हम
अभी कली हैं, हम भी खिल
सकते हैं। यह
स्मरण ही जीवन
में क्रांति
का सूत्रपात
हो जाता है।
तो
बुद्ध का पता
ही न चले, बुद्ध
जैसे व्यक्ति
भी होते हैं, इसकी भनक न
पड़े, तो
मां —बाप ने
कहा था अपने
बच्चों को कि
बुद्ध की हवा
में भी न
जाना।
उन्होंने
उन्हें शपथें दिला
रखी थीं।
क्योंकि
बच्चों का
क्या भरोसा! बच्चे
सीधे —साधे, भोले — भाले, अभी कह दें
है, घडीभर
बाद चले जहां_!
और बच्चों
का यह भी डर है
कि तुम जिस
बात से उन्हें
रोको कि वहा न
जाएं, शायद
वहां इसीलिए
चले जाएं कि
मां —बाप ने
रोका, जरूर
कुछ होगा।
बच्चे बच्चे
हैं। बच्चों
का अलग गणित
है। इनकार के
कारण ही जा
सकते हैं।
तो
उनको शपथ दिला
रखी थी। उनको
कसमें दिलायी
थीं। कहा होगा
कि हम पर
जाएंगे अगर
तुम बुद्ध के
पास गए, खाओ
कसम अपनी मां
की, खाओ
कसम अपने पिता
की, उन्होंने
कसमें भी खा
ली थीं। छोटे
बच्चे हैं, उनसे तुम जो
करवाओ, करेंगे।
तुम्हारे ऊपर
निर्भर हैं।
तुम उनकी हत्या
करो तो भी
गर्दन
तुम्हारे
सामने रख देंगे।
कर भी क्या
सकते हैं!
तुम्हारे हाथ
में उनका
जीवन—मरण है।
मनुष्य
जाति ने बच्चों
पर जितना
अनाचार किया
है उतना किसी
और पर नहीं।
जब सारी
दुनिया में सब
अनाचार मिट
जाएंगे, तब
शायद अंतिम
अनाचार जो
मिटेगा वह
होगा मां—बाप
के द्वारा
किया गया
बच्चों के
प्रति अनाचार।
और वह अनाचार
दिखायी नहीं
पड़ता, क्योंकि
प्रेम की बड़ी
हमने बकवास
उठा रखी है।
कि हम सब प्रेम
के कारण कर
रहे हैं। तुम
बच्चे को मारो,
तो प्रेम के
कारण, पीटो,
तो प्रेम के
कारण; सिखाओ
कुछ, तो
प्रेम के कारण,
तो बच्चा
इनकार भी नहीं
कर सकता, विद्रोह
भी नहीं कर
सकता।
सबसे
पहले विद्रोह
किया गरीबों
ने अमीरों के
खिलाफ, तब
किसी ने सोचा
भी नहीं था कि
एक दिन
स्त्रियां
पुरुषों के
खिलाफ बगावत
कर देंगी। अब
स्त्रियों ने
बगावत की है
पुरुषों के
खिलाफ। अभी कोई
सोच भी नहीं
सकता है कि एक
दिन बेटे, बच्चे
मां —बाप के
खिलाफ बगावत
करेंगे। मैं
तुमसे कहता
हूं आगाह रहना, वह दिन
जल्दी ही
आएगा। करना ही
पड़ेगा। जिस
दिन बच्चे
मां—बाप के
खिलाफ बगांवत
करेंगे, उस
दिन साफ होगी
बात कि
मनुष्य—जाति
ने अनंतकाल से
कितना अनाचार
बच्चों के साथ
किया है
मगर
अनाचार कि
भोले— भाले
बच्चे उसकी
बगांवत में
विद्रोह भी
नहीं कर सकते।
उनको पता भी
नहीं कि क्या
सही है, क्या
गलत है। तुम
पर भरोसा इतना
है, उनकी
श्रद्धा इतनी
सरल है कि तुम
जो चाहो उन पर
थोप दो। हिंदू
बना लो, मुसलमान
बना लो, ईसाई
बना लो, तुम्हें
जो बनाना हो
बना लो, क्योंकि
बच्चा सरल है।
बच्चा अभी
इतना नरम है कि
जैसा ढालों, ढाल लो। फिर
एक दफा ढल गया,
ढांचे में
पड़ गया, फिर
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
ढांचा जब
मजबूत हो जाता
है, तुम
कहते हो, बेटे,
अब तुम्हें
जहां जाना हो
जा सकते हो।
क्योंकि अब इस
ढांचे को
तोड़ना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। छोटा
पौधा होता है,
तब जहा
झुकाना चाहो
झुक जाता है।
फिर बड़ा वृक्ष
हो गया, फिर
झुकना बहुत
मुश्किल हो
जाता है। मौर
गलत भी ढांचे
में पड़ गया तो
फिर वही उसके
जीवन की कथा हो
जाती है।
तो
उन्होंने
कसमें दिला
रखी थीं कि
जाना तो दूर, अगर
रास्ते पर
बुद्ध मिल
जाएं, सयोगवशांत
कभी भिक्षा
मांगते, तो
प्रणाम भी न
करना। बुद्ध
की तो बात दूर,
बुद्ध के
भिक्षुओं को
भी प्रणाम मत
करना।
क्योंकि कुछ न
कुछ बुद्ध का
बुद्ध के
भिक्षुओं में
भी तो होगा
ही। और बुद्ध
घूम रहे थे
गांव—गांव, उनके भिक्षु
भी घूम रहे थे
गांव—गांव, डर
स्वाभाविक
होगा।
एक
दिन कुछ बच्चे
जेतवन के बाहर
खेल रहे थे।
जेतवन
में बुद्ध
ठहरे हुए थे।
बच्चे बाहर
खेल रहे थे, अपने
खेल में मगन
होंगे, दुपहरी
आ गयी होगी, धूप तेज हुई
होगी, प्यास
लगी होगी—घर
दूर, गांव
के बाहर—जहां
यह जेतवन था
उसके बाहर
खेलते—खेलते
उन्हें प्यास
लग गयी, वे
भूल गए अपने
माता—पिताओं
और
धर्मगुरुओं
को दिए गए वचन
और जेतवन में
पानी की तलाश
में प्रवेश कर
गए कि शायद
यहां पानी मिल
जाए। बुद्ध
ठहरे हैं, बुद्ध
के भिक्षु
ठहरे हैं, पानी
जरूर होगा।
संयोग
की बात कि
भगवान से ही
उनका मिलना हो
गया। सामने ही
मिल गए बुद्ध।
बैठे होंगे
अपने वृक्ष के
तले। भगवान ने
उन्हें पानी
पिलाया और बहुत
कुछ और भी पिलाया।
बुद्ध
अगर पानी भी
पिलाएं तो साथ
ही कुछ और भी पिला
ही देते हैं।
पिला देते हैं, ऐसा
चेष्टा से
नहीं होता, बुद्ध के
हाथ में छुआ
पानी भी
बुद्धत्व की
थोड़ी खबर ले
आता है। बुद्ध
की आंख भी तुम
पर पड़े तो भी
कुछ तुम्हारे
भीतर उमगने
लगता है।
बुद्ध तुम्हारी
आंख में आंख
डालकर भी देख
लें, तो
तुम्हारे
भीतर बीज
फूटने लगता
है।
बुद्ध
ने बहुत कुछ
और भी
पिलाया—प्रेम
भी पिलाया।
बुद्ध
का
व्यक्तित्व
ही प्रेम है।
बुद्ध ने कहा
है,
ध्यान की
परिसमाप्ति
करुणा में है।
ध्यान जब परिपूर्ण
हो जाता है, तो करुणा की
ज्योति फैलती
है। ध्यान का
दीया और करुणा
का प्रकाश।
ध्यान की
कसौटी कहा है
कि जब करुणा
फैले, प्रेम
फैले। ये छोटे
—छोटे बच्चे
प्यासे होकर आ
गए हैं, इन्हें
पानी पिलाया,
इन्हें और
कुछ भी
पिलाया—इन्हें
बुद्धत्व पिलाया।
बुद्धों
के पास जाओ तो
बुद्धत्व के
अलावा और उनके
पास देने को
कुछ है भी
नहीं।
छोटी—मोटी
चीजें उनके
पास देने को
हैं भी नहीं, बड़ी
से बड़ी चीज ही
बस उनके पास
देने को है।
वही दे सकते
हैं जो वे
हैं।
प्रेम
भी पिलाया।
ऊपर की प्यास
तो मिटायी और
भीतर की प्यास
जगायी। जीसस
के जीवन में
एक ऐसा ही
उल्लेख है।
जीसस जा रहे
हैं अपने गांव, राजधानी
से लौट रहे
हैं। बीच में
एक कुएं पर ठहरे
हैं, उन्हें
प्यास लगी है।
कुएं पर पानी
भरती स्त्री
से उन्होंने
कहा, मुझे
पानी पिला दे,
मैं प्यासा
हूं। उस
स्त्री ने
उन्हें देखा,
उसने कहा, लेकिन आप
खयाल रखें, मैं हीन
जाति की हूं; आप मेरे हाथ
का पानी
पिएंगे? जीसस
ने कहा, कौन
हीन, कौन
श्रेष्ठ! तू
मुझे पिला, मैं तुझे
पिलाऊंगा। उस
स्त्री ने कहा,
मैं समझी
नहीं आप क्या
कहते हैं? आप
यह क्या कहते
हैं कि तू
मुझे पिला, मैं तुझे
पिलाऊंगा? जीसस
ने कहा, ही,
तू जो पानी
पिलाती है, उससे तो
थोड़ी देर को
प्यास बुझेगी,
मैं तुझे जो
पानी
पिलाऊंगा
उससे सदा—सदा
के लिए प्यास
बुझ जाती है।
बुद्ध
या जीसस
तुम्हारे
भीतर एक नयी
प्यास को जगाते
हैं। फिर उस
नयी प्यास को
बुझाने का उपाय
भी बताते हैं।
नयी प्यास
है—कैसे हम उस
जीवन को जानें
जो शाश्वत हो? कैसे
हम इस
क्षणभंगुर से
मुक्त हों? कैसे इस समय
में बंधे हुए
से हमारा
छुटकारा हो? कैसे हम
क्षुद्र के
पार हों और
विराट में
हमारे पंख
खुले? तो
पहले तो प्यास
जगाते हैं।
प्यास जगे तो
यात्रा शुरू
होती है।
प्यास हो तो
पानी की तलाश
शुरू होती है।
और एक बार
पानी की तलाश
शुरू हो जाए, तो पानी सदा
से है। और
बहुत ही करीब
है, सरोवर
भरा है।
तुममें प्यास
ही नहीं थी
इसलिए तुम
सरोवर से
चूकते रहे।
तो
बुद्ध ने ऊपर
की प्यास तो
मिटायी और
भीतर की प्यास
जगायी। वे
बच्चे खेल
इत्यादि
भूलकर दिनभर
भगवान के साथ
ही रहे।
छोटे
बच्चे थे, सरल
थे, जो
उनके मां —बाप
के लिए संभव
नहीं था, वह
उन्हें संभव
था। वे पहचान
गए। इस आदमी
का जो स्वर था,
उन्हें
सुनायी पड़ा।
शायद कोई उनसे
पूछता तो वे
कुछ जवाब भी न
दे सकते—जवाब
देने योग्य
उम्र उनकी थी
भी नहीं—लेकिन
गुपचुप बात
समझ में पड़ गयी।
ऐसा आदमी
उन्होंने
पहले देखा
नहीं था। यह
आदमी कुछ और
ही किस्म का आदमी
था। इन और ही
किस्म के
आदमियों को
आदमियों से
अलग करने के
लिए तो हमने
कभी उनको
बुद्ध कहा,
कभी
जिन कहा, कभी
भगवान कहा, कभी अवतार
कहा, कभी
पैगंबर कहा, कभी
ईश्वर—पुत्र
कहा, सिर्फ
इतनी सी बात
को अलग करने
के लिए कि यह
आदमी कुछ और
ढंग का था। यह
और आदमियों
जैसा आदमी
नहीं था। इसे
सिर्फ आदमी
कहना न्यायसंगत
नहीं होगा। ये
बच्चे समझा भी
नहीं सकते थे,
मगर समझ गए।
खयाल
रखना, समझा
सकने से और
समझने का कोई
अनिवार्य
संबंध नहीं
है। अक्सर तो
ऐसा होता है
कि जो समझा
सकते हैं, समझ
नहीं पाते। और
जो समझ पाते
हैं, समझा
नहीं पाते हैं।
ग्ते का गुड़।
छोटे —छोटे
बच्चे थे, स्वाद
तो आ गया, शब्द
उनके पास शायद
थे भी नहीं कि
वे कह सकें, क्या हुआ? लेकिन भूल
गए खेल
इत्यादि। वे
सब खेल छोटे
हो गए।
जीसस
ने कहा है, जो
छोटे बच्चों
की भांति
होंगे, वे
ही मेरे प्रभु
के राज्य में
प्रवेश कर
सकेंगे।
शायद
जीसस ऐसे ही
बच्चों की बात
कर रहे थे।
छोटे बच्चों
की भांति
होंगे। भगवान
को समझने के
लिए छोटे
बच्चे की
भांति होना
जरूरी है। जो
बड़े हो गए हैं, उनको
फिर लौटना
पड़ता है, फिर
छोटे बच्चे की
भांति होना
पड़ता है।
इसलिए
तो संत की
अंतिम अवस्था
में संत
बिलकुल छोटे
बच्चों जैसा
हो जाता है।
जो परमहंस की
दशा है, वह
छोटे बच्चे की
दशा है। फिर
से जन्म हो
गया। इसलिए
हमने इस देश
में ज्ञानी को
द्विज कहा है,
दुबारा
पैदा हुआ। एक
तो वह जन्म था
जो मां —बाप से
मिला था, और
अब एक जन्म
उसने स्वयं को
दिया है। वह
फिर से बच्चा
हो गया। फिर वैसा
ही सरल, फिर
वैसा ही सहज।
ये
छोटे —छोटे
सरल बच्चे, जो
बड़े—बड़े
पंडितो को
होना कठिन
होता है, इन
छोटे —छोटे
बच्चों को
हुआ। वे भूल
गए अपना खेल।
तुम तो बुद्ध
के पास भी जाओ
तो तुम्हारा खेल
तुम्हें नहीं
भूलता। बुद्ध
के पास बैठे
रहते हो, सोचते
हो अपनी दुकान
की। बुद्ध के
पास बैठे रहते
हो, सोचते
हो अपने घर
की। बुद्ध के
पास बैठे रहते
हो, सोचते
हो हजार और
बातें। ये
छोटे बच्चे तो
भूल ही गए
इनका सारा
खेल। पड़े रह
गए होंगे रेत
में इन्होंने
जो घर बनाए थे!
बाहर भूल गए
तो भूल ही गए।
भीतर गए तो
फिर बाहर आए
ही नहीं। फिर
बुद्ध के पास
ही बैठे रहे।
वे
दिनभर भगवान
के पास रहे।
शायद
संध्या हुए
भगवान ने
स्वयं कहा
होगा कि बच्चो, अब
घर वापस जाओ।
ऐसा प्रेम तो
उन्होंने कभी
जाना न था।
प्रेम
प्रेम में बड़ा
फर्क है। जिसे
तुम संसार में
प्रेम कहते हो, वह
प्रेम नहीं
है। वह प्रेम
का झूठा सिक्का
है। प्रेम के
नाम पर कुछ और
चल रहा है।
अहंकार चल रहा
है प्रेम के
नाम पर। प्रेम
का लबादा ओढ़े
हिंसा चल रही
है, वैमनस्य
चल रहा है।
प्रेम के
आभूषणों में
सजा हुआ न
मालूम
क्या—क्या—परिग्रह,
दूसरे पर
मालकियत करने
की राजनीति चल
रही है। प्रेम
की ओट में
अप्रेम चल रहा
है। अप्रेमने
भी खूब अच्छा
रास्ता चुन
लिया है—प्रेम
की ओट में चल
रहा है।
खलील
जिब्रान की एक
छोटी कहानी
है। पृथ्वी बनी
थी नयी—नयी, और
परमात्मा ने
सौंदर्य और
कुरूपता की
देवी को
पृथ्वी पर
भेजा। वे
दोनों
देवियां उतरी,
स्वर्ग से
पृथ्वी तक
आते—आते धूल—
धवांस से भर
गयी थीं, तो
उन्होंने कहा
स्नान कर लें
इसके पहले कि
गांव में
चलें।
वे
दोनों झील में
उतरी, वस्त्र
उन्होंने
उतार दिए, नग्न
होकर झील में
उतरी।
सौंदर्य की
देवी तैरती
हुई दूर झील
में चल गयी।
जब सौंदर्य की
देवी दूर चली
गयी, तो
कुरूपता की
देवी झटपट
बाहर आयी और
उसने सौंदर्य
के वस्त्र
पहने और भाग
गयी। जब तक
कुरूपता की
देवी भाग गयी
तब कहीं होश
आया सौंदर्य
की देवी को।
वह भागी आयी
तट पर, उसने
देखा उसके
कपड़े जा चुके
हैं, और अब
तो सुबह हुई
जा रही थी, लोग
चलने—फिरने
लगे थे, अब
कोई और उपाय न
था, तो
उसने कुरूपता
के वस्त्र पहन
लिए।
खलील
जिब्रान की
कहानी कहती है, तब
से सौंदर्य
कुरूपता के
वस्त्र पहने
हुए है और
कुरूपता
सौंदर्य के
वस्त्र पहने
हुए है। तब से
सौंदर्य
चेष्टा कर रहा
है कुरूपता को
पकड़ लेने की
कि अपने
वस्त्र वापस
ले ले, लेकिन
कुरूपता हाथ
नहीं आती। इस
दुनिया में कुरूप
सुंदर बनकर चल
रहा है, इस
दुनिया में
अप्रेम प्रेम
बनकर चल रहा
है। असत्य ने
सत्य के
वस्त्र पहन
रखे हैं।
इसलिए
तुमने ख्याल
किया, जितना
असत्यवादी हो,
उतनी ही
चेष्टा करता
है कि जो मैं
कह रहा हूं बिलकुल
सत्य है, बिलकुल
सत्य है। हजार
दलीलें
जुटाता है, कसमें खाता
है कि यह
बिलकुल सत्य
है। असत्य को
चलाने के लिए
सत्य सिद्ध
करना ही पड़ता
है। सत्य को
चलाने के लिए
कुछ भी सिद्ध
नहीं करना
पड़ता है। सत्य
अपने पैर से
चलता है।
असत्य को सत्य
के उधार पैर
चाहिए।
वे
तो भूल ही गए
खेल अपना। वे
तो भूल ही गए
किसलिए आए थे
और क्या होने
लगा। वे तो रम
गए।
ऐसा
चुंबकीय
आकर्षण
उन्होंने कभी
जाना न था। न
देखा था ऐसा
सौंदर्य। यह
कुछ और ही बात
थी। यह कुछ
देह की बात न
थी। यह कुछ
देहातीत था।
यह कुछ पार की
किरणें बुद्ध
की देह से झलक
रही थीं।
बड़े—बूढ़ों को
शायद दिखायी
भी न पड़ती। ये
बच्चे तो सरल
थे,
इनकी आंखें
ताजी थीं, इसलिए
दिखायी पड
गया। बुद्धों
को जानने के
लिए पहचानने
के लिए बच्चों
के जैसी सरलता
ही चाहिए।
न
देखा था ऐसा
प्रसाद, ऐसी
शांति, ऐसा
आनंद, ऐसा
अपूर्व उत्सव;
वे भगवान
में ही डूब
गए। वह अपूर्व
रस, वह
अलौकिक रंग उन
सरल—हृदय
बच्चों को लग
गया। फिर वे
रोज आने लगे।
फिर वे हर
बहाने से आने
लगे। फिर कोई
भी मौका मिलता
तो भागे और
जेतवन पहुंचे।
वे
भगवान के पास
आते—आते धीरे—
धीरे ध्यान
में भी बैठने
लगे।
और
तो होगा भी
क्या! भगवान
के पास जाओगे
तो ध्यान में
बैठना ही
पड़ेगा। पहले
खेलने—खेलने
में आए होंगे, पहले
यह आदमी
प्यारा लगा था,
इसलिए आए
होंगे, पहले
इस आदमी के
पास बैठकर
अच्छा लगा था,
इसलिए आए
होंगे, इसकी
छाया मधुर लगी
थी, इसलिए
आए होंगे। पर
धीरे— धीरे इस
आदमी के पास ध्यान
की जो वर्षा
हो रही है, धीरे—
धीरे पूछने
लगे होंगे, उत्सुक होने
लगे होंगे, पूछा होगा, हम आप जैसे
कैसे हो जाएं?
छोटे बच्चे
अक्सर पूछ
लेते हैं कि
हम आप जैसे कैसे
हो जाएं? ऐसा
सौंदर्य हमें
कैसे मिले? आंखों में
ऐसी सुंदर झील
हमारे कब हो? कैसे हो? चलें,
उठें, बैठें,
तो ऐसा
प्रसाद हमसे
कैसे झलके? आपने यह
कहां पाया? कैसे पाया? जिज्ञासा की
होगी, फिर
ध्यान में भी
बैठने लगे।
उनकी
सरल श्रद्धा
देखते ही बनती
थी।
श्रद्धा
दो तरह की
होती है। एक
होती है सरल
श्रद्धा। सरल
श्रद्धा का
अर्थ होता
है—संदेह था ही
नहीं पहले से, हटाना
कुछ भी नहीं
पड़ा, श्रद्धा
का झरना बह ही
रहा था। और एक
होती है जटिल
श्रद्धा।
संदेह का रोग
पैदा हो गया
है, अब
संदेह को
हटाना पडेगा;
चेष्टा
करनी पड़ेगी, तब श्रद्धा
पैदा होगी।
छोटे बच्चे
अक्सर सरल श्रद्धा
में उतर जाते
हैं, बड़ों
के लिए
श्रद्धा जटिल
काम है। संदेह
जग गया है, वे
करें भी तो
क्या करें। अब
पहले तो संदेह
से लड़ना पड़ेगा,
पहले तो
संदेह को तोड़ना
पड़ेगा, पहले
तो संदेह को
उखाड़ फेंकना
पड़ेगा। यह
घास—पात जो
संदेह की ऊग
गयी है, यह
न हटे तो
श्रद्धा के
गुलाब लगें भी
न। तो पहले
उन्हें संदेह
को उखाड़ना
पड़ेगा। उनकी
अधिक शक्ति
संदेह से लड़ने
में लग जाती
है। तब कहीं श्रद्धा
पैदा हो पाती
है। जटिल है।
छोटे बच्चों
को तो सरल है।
मगर
छोटे बच्चों
को हम बिगाड़
देते हैं। अगर
दुनिया में
मां—बाप थोड़े
ज्यादा
समझदार हों, तो
हम बच्चों को
कुछ भी ऐसा न
करेंगे जिससे
उनकी सरल
श्रद्धा बिगड़
जाए। हम
कहेंगे कि तुम
अपनी सरल
श्रद्धा को
बचाए रखो, कभी
कोई मिलेगा
आदमी, कभी
कोई मिलेगी घड़ी,
जब
तुम्हारा
तालमेल बैठ
जाएगा किसी से,
उसी सरल
श्रद्धा के
आधार पर तुम
किसी बुद्ध को,
किसी जिन को,
किसी कृष्ण
को, किसी
क्राइस्ट को
पहचान लोगे।
हम तुम्हारी श्रद्धा
खराब न
करेंगे।
लेकिन
हम बच्चों की
गर्दन पकड़
लेते हैं।
इसके पहले कि
उनकी सरल
श्रद्धा
उन्हें जगत के
विस्तार में
ले जाए और वे
कहीं किसी बुद्ध
के चरणों में
शरण में बैठें, हम
उन्हें पहले
ही झूठी
श्रद्धा थोप
देते हैं।
झूठी श्रद्धा
थोप देने के
कारण संदेह
पैदा होता है।
इस गणित को
ठीक से समझ
लेना।
संदेह
पैदा क्यों
होता है
दुनिया मे? संदेह
पैदा होता है
झूठी श्रद्धा
थोप देने के
कारण। छोटा
—बच्चा है, तुम
कहते, मंदिर
चलो। छोटा
बच्चा पूछता
है, किसलिए?
अभी मैं खेल
रहा हूं,
मैं मजे में
हूं। तुम कहते
हो, मंदिर
में और भी
ज्यादा आनंद
आएगा। और छोटे
बच्चे को
बिलकुल नहीं
आता। तुम तो
श्रद्धा सिखा रहे
हो और बच्चा
संदेह सीख रहा
है। बच्चा
सोचता है, कैसा
आनंद! यहां
बड़े—बूढ़े बैठे
हैं उदास, यहां
दौड़ भी नहीं
सकता, खेल
भी नहीं सकता,
नाच भी नहीं
सकता, चीख
—पुकार भी
नहीं कर सकता,
यहां कैसा
आनंद! और बाप
कहता था यहां
आनंद मिलेगा!
फिर
बाप कहता है, झुको,
यह भगवान की
मूर्ति है। और
बच्चा कहता है,
भगवान! यह
तो पत्थर है!
यह तो पत्थर
को कपड़े—लत्ते
पहनाकर आपने
खड़ा कर दिया
है। तुम कहते
हो, झुको
जी, बड़े
होओगे तब
समझोगे। अभी
तुम छोटे हो, अभी
तुम्हारी यह
बात समझ में
नहीं आ सकती
है। बड़ी जटिल
बात है, बड़ी
कठिन बात है।
बड़े होओगे, तब समझोगे।
तुम
जबर्दस्ती
बच्चे की
गर्दन पकड़कर
झुका देते हो।
तुम उसमें
संदेह पैदा कर
रहे हो। ध्यान
रखना, तुम सोच
रहे हो कि
श्रद्धा पैदा
कर रहे हो! वह बच्चा
सिर तो झुका
लेता है, लेकिन
वह जानता है
कि है तो यह
पत्थर की
मूर्ति।
उसे
न केवल इस
मूर्ति पर
संदेह आ रहा
है,
अब तुम पर
भी संदेह आ
रहा है, तुम्हारी
बुद्धि पर भी
संदेह आ रहा
है। अब वह सोच
रहा है कि यह
बाप भी कुछ
मूढ़ मालूम
होता है। कह
नहीं सकता।
कहेगा, जब
तुम के हो
जाओगे और वह
जवान हो जाएगा
और उसके हाथ
में ताकत होगी,
जब
तुम्हारी
गर्दन दबाने
लगेगा वह, तब
कहेगा कि तूम
मूढ़ हो।
मां—बाप
पीछे परेशान
होते हैं, वे
कहते हैं कि
क्या मामला है,
बच्चे हम
में श्रद्धा
क्यों नहीं
रखते! तुम्हीं
ने नष्ट करवा
दी श्रद्धा।
तुमने ऐसे—ऐसे
काम बच्चों से
करवाए, तुमने
ऐसी—ऐसी बातें
बच्चों पर
थोपी, कि
बच्चों का सरल
हृदय तो टूट
ही गया और तुम
जो झूठी श्रद्धा
थोपना चाहते
थे वह कभी
छुपी नहीं।
उसके पीछे
संदेह पैदा
हुआ। झूठी
श्रद्धा कभी
संदेह से
मुक्त होती ही
नहीं, संदेह
की
जन्मदात्री
है। झूठी
श्रद्धा के पीछे
आता है संदेह।
बच्चे की आंख
तो ताजी होती
है, उसे तो
चीजें साफ
दिखायी पड़ती
हैं कि
क्या—क्या है।
अब
तुम कहते हो, यह
गऊ माता है।
और बच्चा कहता
है, गऊ
माता! तो
बच्चा कहता है,
यह जो बैल
है, क्या
यह पिता है? यह सीधी बात
है, गणित
की बात है।
तुम कहते हो, नहीं, बैल
पिता नहीं है,
बस गऊ माता
है। अब बच्चे
को तुम पर
संदेह होना शुरू
हुआ कि बात
क्या है? अगर
गऊ माता है, तो बैल पिता
होना चाहिए।
और अगर बैल
पिता नहीं है,
तो गऊ माता
कैसे है?
तुमने
बच्चे के गले
में एक धागा
पहना दिया और तुम
कहते हो कि यह
बडा पवित्र
है। और बच्चा
देखता है कि
मां इसको बना
रही थी। यह
पवित्र हो कैसे
गया?
यह पवित्र
हो कब गया? इसकी
पवित्रता
क्या है?
तुम
जो भी बच्चे
को सिखा रहे
हो,
बच्चा भीतर
से देख रहा है
कि यह बात झूठ
मालूम पड़ती
है। कहता नहीं,
इससे तुम यह
मत सोच लेना
कि तुम जीत
गए।
कहेगा, जब
उसके पास ताकत
होगी।
क्योंकि अभी
तो कहेगा तो
पिटेगा।
मुझे
जब पहली दफा
मंदिर ले जाया
गया और मुझे कहा
गया कि झुको, तो
मैंने कहा, मुझे झुका
दो। मेरी
गर्दन पकड़कर
झुका दो। क्योंकि
मुझे कुछ
झुकने योग्य
दिखता नहीं
यहां! क्योंकि
जिस मंदिर में
मुझे ले जाया
गया था, वह
मूर्ति पूजकों
का मंदिर नहीं
है, वहां
सिर्फ ग्रंथ
होते हैं
मंदिर में।
मैं जिस
परिवार में
पैदा हुआ, वह
मूर्तिपूजक
नहीं है, वह
सिर्फ ग्रंथ
को पूजता है।
तो वहां वेदी
पर किताब रखी
थी। मैंने कहा,
मैं किताब
को क्यों
झुकूं? किताब
में क्या हो
सकता है? कागज
हैं और स्याही
है, इससे
ज्यादा तो कुछ
भी नहीं हो
सकता। फिर अगर
आपकी मर्जी है,
तो झुका दो,
आपके हाथ
में ताकत है, मैं छोटा
हूं अभी तो
कुछ कर नहीं
सकता, लेकिन
बदला लूंगा
इसका।
पर
मैं कहूंगा कि
मुझे अच्छे
बड़े—बूढ़े
मिले, मुझे
झुकाया नहीं
गया।
उन्होंने कहा,
तब ठीक है, जब तेरा मन
हो तब झुकना।
जब तेरी समझ
में आए तब झुकना।
फिर मुझे
मंदिर नहीं ले
जाया गया। और
उसके कारण अब
भी मेरे मन
में अपने बड़े
—को के प्रति
श्रद्धा है।
अगर मुझे
झुकाया होता,
मेरे साथ
जबर्दस्ती की
होती, तो
उस किताब के
प्रति तो मेरी
श्रद्धा पैदा
हो ही नहीं
सकती थी, इनके
प्रति भी
अश्रद्धा
पैदा हो जाती।
मुझे लगता कि
ये हिंसक लोग
हैं और अहिंसा
परमो धर्म: इनके
मंदिर पर लिखा
है। और ये
हिंसक लोग हैं,
एक छोटे
बच्चे के साथ
हिंसा कर रहे
हैं, उसे
जबर्दस्ती
झुका रहे हैं,
और दीवाल पर
लिखा है—अहिसा
परमो धर्म:, उरहिंसा परम
धर्म है, यह
कैसी अहिंसा!
मुझे हजार
संदेह खड़े
होते। उन्होंने
नहीं झुकाया,
संदेह भी
खड़े नहीं हुए!
खयाल
रखना, किसी पर
जबर्दस्ती
थोपना मत।
थोपने का ही
प्रतिकार है
संदेह। फिर एक
दफा संदेह उठ
गया तो बड़ी अड़चन
हो जाती है।
जब संदेह
मजबूत हो जाता
है, तो फिर
तुम बुद्ध के
पास भी चले
जाओ, तो भी
संदेह उठेगा।
जिसका अपने
मां—बाप पर
भरोसा खो गया,
उसका
अस्तित्व पर
भरोसा खो जाता
है। फिर वह
किसी पर भरोसा
नहीं कर सकता।
वह कहता है, जब अपने
मां—बाप धोखा
दे गए…...।
अगर
मां—बाप सिर्फ
उतना ही कहें
जितना जानते
हैं,
.और एक शब्द
ज्यादा न कहें,
और बच्चों
को मुक्त रखें,
और उनकी सरल
श्रद्धा नष्ट
न करें, तो
यह सारी
दुनिया
धार्मिक .हो
सकती है। यह दुनिया
अधार्मिक
नास्तिकों के
कारण नहीं है,
स्मरण रखना,
यह
तुम्हारे
थोथे
आस्तिकों के
कारण अधार्मिक
है।
भगवान
ने न तो
उन्हें कुछ
कहा,
न उन्हें
कुछ सिद्धांत सिखाए.........।
फर्क
समझो।
उन्होंने यह
भी नहीं कहा
कि दुनिया को
भगवान ने
बनाया है, और
तुम्हारे
भीतर आत्मा है,
और
इत्यादि—इत्यादि।
उन्होंने तो
अपनी जीवन ऊर्जा
उन बच्चों पर
बरसायी। जो
उनके पास था, बच्चों को
पिलाया।
ध्यान दिया।
( ध्यान
देना,
सिद्धात मत
देना। यह मत
कहना कि भगवान
है। यह कहना
कि शांत बैठने
से धीरे — धीरे
तुम्हें पता
चलेगा, क्या
है और क्या
नहीं है।
निर्विचार
होने से पता
चलेगा कि सत्य
क्या है।
विचार मत देना,
निर्विचार
देना। ध्यान
देना, सिद्धात
मत देना।
ध्यान दिया तो
धर्म दिया और सिद्धात
दिया तो तुमने
अधर्म दे दिए।
शास्त्र मत
देना, शब्द
मत देना, निःशब्द
होने की
क्षमता देना।
प्रेम देना।
ध्यान
और प्रेम अगर
दो चीजें तुम
दे सको किसी
बच्चे को, तो
तुमने अपना
कर्तव्य पूरा
कर दिया।
तुमने इस
बच्चे की
आधारशिला रख
दी। इस बच्चे
के जीवन में
मंदिर बनेगा,
बड़ा मंदिर
बनेगा। इस
बच्चे के जीवन
के शिखर आकाश
में उठेंगे और
इसके
स्वर्ण—शिखर
सूरज की रोशनी
में चमकेंगे
और चाँद--तारोंसे
बात करेंगें।
उनकी
सरल श्रद्धा
देखते ही बनती
थी। फिर उनके मा—बाप
को खबर लगी।
मां —बाप अति
क्रुद्ध हुए, पर
अब देर हो
चुकी थी।
बुद्ध का
स्वाद लग चुका
था। बहुत
उन्होंने सिर
मारा, उनके
पंडित—पुरोहितो
ने बच्चों को
समझाया; डांटा—डपटा,
भय—लोभ, साम—दाम,
दंड— भेद, सबका उन
छोटे—छोटे
बच्चों पर
प्रयोग किया
गया, पर जो
छाप बुद्ध की
पड़ गयी थी सो
पड़ गयी थी।
उन्होंने
एक अनूठा आदमी
देख लिया था, अब
ये पंडित सब
फीके—फीके
मालूम पड़ते
थे। उन्होंने
एक जीवंत
ज्योति देख ली
थी। अब ये
पुरोहित
बिलकुल राख
थे। अब धोखा
नहीं दिया जा
सकता था।
उन्होंने
अनुभव कर लिया
था इस आदमी के
पास एक नयी
ऊर्जा का, अब
यह मां —बाप की
बकवास और
बातचीत कुछ
अर्थ न रखती
थी। जब तक
अनुभव नहीं
किया था तब तक
कसम खाने को
राजी हो गए थे
कि न जाएंगे।
जिसको देखा न था,
उसके पास न
जाने की कसम
खाने में अड़चन
न थी। अब देख
लिया था, अब
देर हो गयी
थी।
फिर
तो वे मां—बाप
इतने पगला गए, इतने
विक्षिप्त हो
गए कि अंततः
उन्होंने यही तय
कर लिया कि
ऐसे बच्चों को
घर में न
रखेंगे। इनको
बुद्ध को ही
दे देंगे।
सम्हालो
इन्हें तुम ही,
ये हमारे
नहीं रहे, इनसे
हम संबंध
विच्छिन्न कर
लेते हैं। ऐसा
सोचकर इन
बच्चों को
त्याग देने के
लिए ही वे
बुद्ध के पास
गए, पर यह
जाना उनके
जीवन में
ज्योति जला
गया।
कभी—कभी
ऐसा हो जाता
है,
तुम गलत
कारण से
बुद्धों के
पास जाते हो, फिर भी ठीक
घट जाता है।
तुम ठीक
कारणों से भी
पुरोहितो के
पास जाओ, तो
भी ठीक नहीं
घटता। और तुम
गलत कारणों से
भी बुद्धों के
पास चले जाओ
तो कभी—कभी
ठीक घट जाता
है। कभी
अनायास झरोखा
खुल जाता है।
आखिर
इन मां—बाप को
भी इतना तो
विचार उठा ही
होगा कि हमने
पैदा किया इन
बच्चों को, हमने
बड़ा किया इन
बच्चों को, हमने
पाला—पोसा, हमारी नहीं
सुनते हैं!
आखिर इस बुद्ध
ने क्या दे
दिया होगा!
आखिर इस आदमी
के पास क्या
होगा! हमारे
पंडित की नहीं
सुनते हैं जो
कि शास्त्रों
का जाता है, वेद जिसे
कंठस्थ हैं।
हमारे
धर्मगुरु की
नहीं सुनते
हैं जो कि
इतना अच्छा
वक्ता है, इतना
अच्छा समझाता
है, जिसकी
सलाह, इससे
और अच्छी सलाह
क्या हो सकती
है! आखिर इस
बुद्ध में ऐसा
क्या होगा! और
फिर हमने
इन्हें मारा,
पीटा, लोभ
दिया, कुछ
भी असर नहीं
होता। हो न हो
कुछ बात हो भी
सकती है। उनके
भीतर भी एक
खाकी तो उठी
होगी। असंभव
है कि न उठी
हो। एक विचार
तो मन में
कौंधा होगा
बिजली की तरह
कि हो न हो हम ही
गलत हों! कौन
जाने! फिर
एकाध बच्चे की
बात न थी, बहुत
बच्चों की बात
थी, ये कई
बच्चे पड़ोस के
खेलते चले गए
थे। फिर ये सब
टिके थे। ये
सब कष्ट सहने
को तैयार थे, लेकिन बुद्ध
के पास नहीं
जाएंगे, ऐसी
कसम खाने को
अब तैयार न
थे।
गए
तो होंगे
क्रोध में ही, गए
तो होंगे
नाराज, गए
तो थे इन
बच्चों को छोड़
आने, लेकिन
भीतर एक बात
तो जग ही गयी
थी कि क्या
होगा! पता
नहीं, इस
आदमी में कुछ
हो!
इधर
रोज ऐसा घटता
है। लोग रोकते
हैं किसी को आने
से कि वहा मत
जाना, सम्मोहित
हो जाओगे। वहा
सम्मोहन का
प्रयोग चल रहा
है। एक पति का
मुझे पत्र
मिला—तीन—चार
पत्र मिल चुके
हैं महीने भर
के भीतर—बड़े
पत्र लिखते
हैं कि मेरी
पत्नी ने आपसे
संन्यास ले
लिया, मैं
बरबाद हो गया।
मेरा सब नष्ट—
भ्रष्ट हो गया।
आपने
सम्मोहित कर
लिया। आप कृपा
करके मेरी पत्नी
पर से सम्मोहन
हटा लें। आप
उसे मुक्त कर
दें।
अब
मेरा संन्यास
न तो किसी को
तोड़ता घर से, न
पत्नी को
तोड़ता पति से,
न पति को
तोड़ता पत्नी
से, न
पत्नी बच्चे
से टूट रही
है। मगर बस, पति को भारी
अड़चन हो गयी
है! अड़चन क्या
है?
अड़चन
यही है कि अब
तक वे पत्नी
के परमात्मा
बने बैठे थे, अब
वह बात न रही।
अड़चन यह है कि
उनका प्रभुत्व
एकदम से क्षीण
हो गया। अड़चन
यह है कि आज अगर
उनकी पत्नी से
मैं कुछ कहूं
तो वह मेरी
मानेगी, उनकी
नहीं मानेगी,
यह अड़चन—अभी
मैंने कुछ कहा
भी नहीं है, मैं कभी
कहूंगा भी
नहीं—बस लेकिन
अड़चन, संभावना
की अड़चन। यह
बात पीड़ा दे
रही है। पुरुष
के अहंकार को
बड़ा कष्ट होता
है।
वह
मुझे पत्र में
लिखते हैं कि
मुझमें क्या
कमी है, जो
मेरी पत्नी
आपके पास जाती
है? यह तो
तुम अपनी
पत्नी से
पूछो।
प्रोफेसर हैं
किसी
विश्वविद्यालय
में, लिखते
हैं कि मैं
दर्शनशास्त्र
का प्रोफेसर हूं।
हर बात जो
प्रश्न उठता
हो, हर एक
का उत्तर मेरे
पास है, विद्यार्थियों
को पढ़ाता हूं, मेरी पत्नी
को क्या पूछना
है जो आपके
पास जाए? मैं
सब बात का
उत्तर देने को
तैयार हूं।
आप
सब बात का
उत्तर देने को
तैयार हैं, लेकिन
अगर पत्नी
आपके उत्तरों
में आस्था रखने
को तैयार नहीं,
तो मैं क्या
करूं? मैंने
पत्नी को
बुलाकर समझा
भी दिया कि
देवी, तू
जा! मगर जितना
मैं उसे
समझाता हूं कि
तू जा, उतना
वह जाने को
राजी नहीं है।
ऐसा
निरंतर होता
रहा है। ऐसे
होने का कारण
है। कोई किसी
को यहां
सम्मोहित
नहीं कर रहा
है। लेकिन
सत्य सम्मोहक
है,
यह बात सच
है। कोई
सम्मोहन नहीं
कर रहा है, लेकिन
सत्य सम्मोहक
है। सत्य की
एक किरण भी
तुम्हारे खयाल
में आ जाए, तो
बस, तुम्हारी
भावर पड़नी
शुरू हो जाती
है। अनजाने यह
हो जाता है।
गए थे वे
मां—बाप बड़ी
नाराजगी में,
लेकिन
बुद्ध के पास
गए तो उनके
जीवन में भी
एक ज्योति
जली। जो—जो
उनके
पंडित—पुजारियों
ने अब तक कहा
था बुद्ध के
संबंध में, वैसा तो कुछ
भी न था।
पंडित—पुजारी
तो ऐसा बता रहे
थे कि इससे
बड़ा शैतान कोई
नहीं है। यह
आदमी भ्रष्ट
कर रहा है।
आखिर
कितने ही अंधे
रहे हों और
दर्पण पर
कितनी ही धूल
जमी हो, दर्पण
फिर भी तो
कहीं
कोने—कातर से
झलक दे ही देगा।
थोड़ा—बहुत तो
दर्पण बचा
होगा। देखा
होगा इस आदमी
को, यह
आदमी तो ऐसा
कुछ शैतान
नहीं मालूम
होता, देखे
होंगे भिक्षु,
ये भिक्षु
कुछ ऐसे तो
पाशविक नहीं
मालूम होते।
जैसा
पंडित—पुजारी
कह रहे थे, ऐसा
कुछ धूर्त
नहीं मालूम
होता। इसकी
बातें सुनी
होंगी, इनमें
कुछ धूर्तता
नहीं मालूम
होती, सीधी—साफ
बातें हैं, दो—टूक
बातें हैं।
शायद दो—टूक
हैं इसीलिए
अखरती हैं
पंडित—पुरोहितो
को। तुलना उठी
होगी।
उनके
जीवन में भी
एक ज्योति
जली। बुद्ध के
पास जाना और
बुद्ध के बिना
हुए लौट आना
संभव भी नहीं
है। इन्हीं
लोगों से
बुद्ध ने ये
गाथाएं कही
थीं—
अवज्जे
वज्जमतिनो वज्जे
च
वज्जदस्सिनो।
मिच्छादिद्विसमादाना
सत्ता गच्छति
दुग्गतिं ।।
वज्जन्च
वज्जतो णत्वा
अवज्जण्ज
अवज्जतो।
समादिट्ठिसमादाना
सत्ता गच्छंति
सुग्गति ।।
'जो अदोष में
दोष—बुद्धि
रखने वाले और
दोष में अदोष—दृष्टि
रखने वाले हैं,
वे लोग
मिथ्या—दृष्टि
को ग्रहण करने
के कारण
दुर्गति को
प्राप्त होते
हैं।’
'दोष को दोष, अदोष को
अदोष जानकर
लोग
सम्यक—दृष्टि
को धारण करके
सुगति को
प्राप्त होते
हैं।'
दो
छोटी सी बातें, दो
छोटे से सूत्र
उन्होंने उन
लोगों को दिए।
उनको कहा कि
जो जैसा है
उसे वैसा ही
देखने से सम्यक—दृष्टि
पैदा होती है।
और जो जैसा
नहीं है, उससे
अन्यथा देखने
से
मिथ्या—दृष्टि
पैदा होती है।
जो जैसा है, उसे बिना
पक्षपात के
वैसा ही देखना
चाहिए; तो
तुम सुगति में
जाओगे। जो
जैसा नहीं है
वैसा उसे
देखोगे, जो
जैसा है वैसा
उसे नहीं
देखोगे, तो
किसी और की
हानि नहीं है,
तुम्हीं
धीरे— धीरे
विकृति में
घिरते जाओगे।
'जो अदोष में
दोष—बूद्धि
रखने वाले
हैं।'
और
बुद्ध ने कहा
कि मैं यहां
बैठा हूं,
मुझे देखो, पक्षपात
लेकर मत आओ; दूसरे क्या
कहते हैं, इसे
बाहर रख आओ, मेरे पास आओ,
मुझे देखो।
मुझे देखो
निष्पक्ष भाव
से, ताकि
तुम निर्णय कर
सको कि क्या
ठीक है और
क्या गलत है।
फिर तुम्हीं
निर्णायक
बनो। मगर तुम
पहले ही तय कर
लो, तुम
पहले ही मान
लो, आने के
पहले ही
निर्णय कर लो,
आओ ही न, अपने
निर्णय को ही
मानकर बैठ जाओ
आंख बंद करके,
फिर
तुम्हारी
मर्जी! लेकिन
तब ध्यान रखना,
दुर्गति
में पड़ोगे।
दुर्गति में
पड़ ही गए, क्योंकि
तुम अंधे हो
गए, जगह—जगह
टकराओगे और
जीवन—सत्य
तुम्हें कभी
भी न मिलेगा।
और जीवन—सत्य
ही मिल जाए, तो सुगति, तो स्वर्ग।
और जीवन—सत्य
हीं खो जाए, तो दुर्गति।
दोष
को दोष देखो, अदोष
को अदोष जानो,
तो
सम्यक—दृष्टि
उत्पन्न होती
है। ठीक—ठीक
दृष्टि, ठीक—ठीक
आंखें। और
बुद्ध का सारा
जोर इस बात पर
है कि
तुम्हारी आंख
ठीक
हो—बेपर्दा हो,
नग्न हो, पक्षपात
मुक्त हो, खाली
हो, ताकि
खाली आंख से
तुम देख सको, जो जैसा है
वैसा ही देख
सको।
अब
जो लोग बुद्ध
के पास आकर भी
चूक जाते
होंगे देखने
से,
एक ही अर्थ
है इस बात का
कि उनकी आंखें
इतनी भरी होंगी,
इतनी भरी
होंगी कि वे
कुछ का कुछ
देख लेते होंगे।
तुमने
अक्सर पाया
होगा, अगर
तुम्हारी कोई
दृष्टि हो तो
तुम कुछ का
कुछ देख लेते
हो। सूफी
कहानी है—
एक
फकीर की अपनी
बगिया में काम
करते वक्त
खुरपी खो गयी।
वह कुछ पानी
पीने भीतर गया
झोपड़े में, लौटकर
आया, खुरपी
नदारद! पास से
एक पड़ोस का
छोकरा जा रहा
था। उसने उसको
देखा, उसने
कहा कि यही है
चोर, इसकी
चाल से साफ
मालूम हो रहा
है कि चोर है।
इसका ढंग देखो,
आंख बचाकर
जा रहा है, उधर
देख रहा है, इसके पैर की
आहट बता रही
है कि चोर है, यही है। मगर
अब एकदम से
उसको पकड़ना
ठीक भी नहीं।
वह जांच रखने
लगा। तीन दिन
तक देखता रहा,
जब भी यह
लड़का निकले, इधर—उधर जाए
तो वह देखे और
उसे बिलकुल
पक्का होता
गया कि है चोर
यही, हर
चीज ने प्रमाण
दिया उसको कि
यह चोर है। एक
तो आंख से आंख
नहीं मिलाता,
कहीं—कहीं
देखता है, चलता
है तो डरा—डरा
चलता है, चौंका—चौंका
सा मालूम पड़ता
है, खुरपी
इसी ने चुरायी
है।
फिर
चौथे दिन
खोदते वक्त
खुरपी उसको
मिल गयी झाड़ी
में। वह लड़का
फिर निकल रहा
था,
उसने देखा,
अरे, कितना
भला लड़का है!
जरा भी चोर
नहीं मालूम
होता! अब भी वह
वैसे ही चल
रहा है, मगर
अब दृष्टि बदल
गयी।
तुम
जरा खयाल करना, एक
आदमी के प्रति
तुम एक धारणा
बना लो, फिर
उस धारणा से
देखो, तो
तुम पाओगे उसी
धारणा का
समर्थन करने
के लिए
तुम्हें बहुत
कुछ मिल
जाएगा। फिर
तुम्हारी धारणा
बदल दो, तुम
अचानक पाओगे
कि वह आदमी
बदल गया।
क्योंकि अब
तुम्हारी नयी
धारणा के
अनुकूल तुम जो
पाना चाहोगे
वह मिल जाएगा।
बुद्ध
कहते हैं, सम्यक—दृष्टि
उसको कहते हैं
जो निर्धारणा
है। जिसकी कोई
निर्धारणा
नहीं। अच्छी
नहीं, बुरी
नहीं।
समदृष्टि। न
इस तरफ सोचता
है, न उस
तरफ। तराजू
ठीक बीच में
काटा अटका है,
न यह पलड़ा भारी
है, न वह
पलड़ा भारी है।
ऐसी समतुल
स्थिति का नाम
समदृष्टि।
जिसने मान ही
लिया, बिना
खोजे, बिना
सोचे। बिना
विचारे, बिना
अनुभव किए, वह
असम्यक—दृष्टि
या
मिथ्या—दृष्टि।
बुद्ध ने उनसे
इतना ही कहा
कि तुम देखना
सीखो, अपनी
आंख को जरा
साफ करो, अन्यथा
तुम्हीं भटकोगे,
तुम्हीं
दुख पाओगे।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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