भगवान
के यह कहने पर
कि चार माह के
पश्चात मेरा
परिनिर्वाण
होगा भिक्षु
अपने को रोक
नहीं सके— जार—
जार रोने लगे
भिक्षुओं के
आंसू बहने
लगे। भिक्षुओं
की तो क्या
कही जाए बात
अर्हतों के भी
धर्मसंवेग का
उदय हुआ। उनकी
आंखें तो
आंसुओ से नहीं
भरी लेकिन
हृदय उनका भी
डांवाडोल हो गया
उस
समय धम्माराम
नाम के एक
स्थविर ने यह
सोचकर कि मैं
अभी रागरहित
नहीं हुआ और
शास्ता का परिनिर्वाण
होने जा रहा
है इसलिए
शास्ता के रहते
ही मुझे
अर्हत्व
प्राप्त कर
लेना चाहिए—
ऐसा सोच एकांत
में जाकर
समग्र संकल्प
से साधना में
लग गया
धम्माराम
उस दिन से
एकांत में
रहते मौन रखते
ध्यान करते।
भिक्षुओं के कुछ
पूछने पर भी
उत्तर नहीं
देते थे
स्वभावत; भिक्षुओं
को इससे चोट
लगी।
धम्माराम
अपने को समझता
क्या है? पूछने
पर उत्तर नहीं
देता।
उपेक्षा करता
है। इस तरह
चलता है जैसे
अकेला है कोई
यहां है ही नहीं।
वहा
दस हजार
भिक्षु थे
बुद्ध के पास।
यह धम्माराम
भूल ही गया उन
दस हजार
भिक्षुओं को।
स्वभावत: अनेक
को चोटें लगीं।
अनेक को बात
जंची नहीं।
लोग जयरामजी
करते, उसका
भी उत्तर नहीं
देता था! बात
ही छोड़ दी थी यह।
जैसे संसार
मिट गया।
भिक्षुओं
ने यह शिकायत
भगवान से की
भगवान ने उन्हें
कहा. धम्माराम
को बुला लाओ।
धम्माराम
के आने पर
पूछा. भिक्षु!
तुझे क्या हुआ
है?
क्या यह
सत्य है कि तू
अन्य
भिक्षुओं से
बातें नहीं
करता है?
भंते!
सत्य है
धम्माराम ने
कहा।
भिक्षु।
तू ऐसा क्यों
कर रहा है?
तब
धम्माराम ने
अपने सारे
विचारों को कह
सुनाया उसने
कहा. आप जाते
हैं चार महीने
का समय बचा
आपके रहते अगर
मैं मुक्त
नहीं हो जाता
हूं तो फिर
मेरे लिए कोई
आशा नहीं है
आपकी मौजूदगी
में अगर मेरा
दीया नहीं जल
सका तो मैं
नहीं सोचता
हूं कि फिर कभी
जल सकेगा फिर
कहां खोला ऐसे
बुद्धपुरुष
को?
फिर जन्मों—
जन्मों भटकना
पड़ेगा। इसलिए
अब एक रत्तीभर
भी शक्ति किसी
और बात में नहीं
गंवाना चाहता
हूं। एक आंसू
भी नहीं गिराना
चाहता हूं। एक
शब्द भी नहीं
बोलना चाहता
हूं। ये चार
महीने जो भी
मेरे पास है
सब दांव पर लगा
देना है। अगर
इस बार हो जाए
तो हो जाए
इतने करीब आकर
चूक जाऊं
भगवान। तो फिर
कितना समय
लगेगा! फिर
कहां खोज
पाऊंगा? फिर
कब कोई किसी
बुद्ध से
मिलना होगा?
अबुद्धों
की तो भीड़ है।
एक खोजो हजार
मिलते हैं लेकिन
बुद्धों को
कहां खोजूंगा? हजारों
जन्म बीत
जाएंगे। और
शायद है— भटक
जाऊं। आपके
रहते न पहुंच
पाया तो अकेले
तो बिलकुल भटक
जाऊंगा यह
सोचकर मैने
सारी ऊर्जा को
अपने भीतर
समाहित कर लिया
है।
अब
मेरे पास तीन
ही काम हैं :
एकांत— एकांत
यानी दूसरों
को भूल जाना; मौन—
दूसरों से
संबंध न जोड़ना
वाणी का विचार
का; और
ध्यान— भीतर
विचार की तरंग
को विसर्जित
करना।
ये
तीन उपाय हैं
समाधि के।
दूसरे नहीं
हैं जैसे—ऐसे
जीना। अपने
पास कहने को
भी कुछ नहीं
है;
बोलने को भी
कुछ नहीं
है—ऐसे जीना।
और अपने भीतर
सोचने को भी
क्या है? सब
कूड़ा—करकट है।
इस कूड़ा—करकट
को क्यों
उलटते —पलटते
रहना!
ऐसा
तीन भावों से
जो भर
जाए—एकांत, मौन
और ध्यान—एक
दिन उसके जीवन
में समाधि
फलित होती है।
एक दिन सब
शून्य हो जाता
है।
खयाल
रखना एकांत
में दूसरे मिट
जाते हैं। मौन
में शब्द मिट
जाते हैं।
ध्यान में
विचार मिट जाते
हैं। और समाधि
में स्वयं का
मिटना हो जाता
है,
शून्य हो
जाता है। उसने
सारी बात
बुद्ध को कही।
उसे सुनकर
बुद्ध ने उसे
साधुवाद दिया
और कहा भिक्षुओ!
अन्य
भिक्षुओं को
भी जिन्हें
मुझ पर प्रेम
हो धम्माराम
के समान ही
होना चाहिए।
माला— गंध आदि
से मेरी पूजा
करने वाले
मेरी पूजा नहीं
करते। अपने को
धोखा देते
हैं।
प्रत्युत जो
धर्म के
अनुसार आचरण
करते हैं वे
ही मेरी पूजा
करते हैं।
आंसुओ के
बहाने से कोई
सार नहीं है।
और फिर जो
वैसा करते हैं
वे मुझे समझे
ही नहीं।
क्योकि कितनी
बार तो मैने
तुमसे कहा :
यहां सभी अथिर
है। जो जन्मा
है मरेगा। जो हुआ
है मिटेगा। इस
अथिर से मोह
मत बनाओ। और
तुमने मुझसे
मोह बना लिया!
जो मुझसे मोह
बना लिए हैं
वे मुझे समझे
नहीं। रोओ
नहीं। रोने से
कुछ होगा भी
नहीं। बहुत रो
लिए। जन्मों—
जन्मों रो
लिए। अब बंद
करो। सोओ भी
नहीं। रोना भी
जाने दो; सोना
भी जाने दो।
अब जागो।
और
फिर इस गाथा
को कहा:
धम्मारामो
धम्मरतो धम्म
अनुविचिन्तयं।
धम्मं
अनुस्सरं
भिक्खु
सद्धम्मा न
परिहायति।।
'धर्म में रमण
करने वाला, धर्म में रत,
धर्म का
चिंतन करते और
धर्म का
अनुसरण करते
भिक्षु
सद्धर्म से
च्युत नहीं
होता है।’
पहले
दृश्य को खूब
हृदयंगम कर
लें।
बुद्ध
ने एक दिन
घोषणा की कि
चार महीने और
मेरी नाव इस
तट पर रहेगी।
फिर मेरे जाने
का समय आ गया।
चार महीने और
इस देह में
मैं टिका हूं।
फिर यह पंछी
उड़ जाएगा। चार
महीने और तुम
चर्म —चक्षुओं
से मुझे देख
पाओगे। फिर तो
वे ही मुझे
देख पाएंगे, जिनके
भीतर की आंख
खुल गयी है।
चार महीने और
मैं तुम्हें
पुकारूंगा।
सुन लो, तो
ठीक। चार
महीने बाद
मेरी पुकार खो
जाएगी। हा, जो मेरी
पुकार सुन
लेंगे इन चार
महीनों में, उन्हें सदा
सुनायी पड़ती
रहेगी। चार
महीने और मेरा
उपयोग कर लो, तो कर लो। यह
औषधि ले लो, तो ले लो।
चार महीने और,
फिर मेरे
जाने की घड़ी आ
.गयी।
अब
यह बिलकुल
स्वाभाविक है
कि भिक्षु
रोने लगे।
बुद्ध जैसा
व्यक्ति हो, और
मोह पैदा न हो,
यह अस्वाभाविक
है। बुद्ध
जैसा व्यक्ति
हो, और
लोगों का राग
न लग जाए, यह
असंभव है।
बुद्ध जैसा
व्यक्ति हो, तो साधारण
भिक्षुओं की
क्या बात, जो
अर्हत्व को
उपलब्ध हो गए
हैं, जो
अरिहंत हो गए
हैं, जो
स्वयं बुद्ध
हो गए हैं, उनकी
भी राग की
रेखा शेष रह
जाती है। इतने
प्यारे
व्यक्ति को
पाकर खोने की
बात ही छाती
को तोड़ देगी।
ठीक
ऐसी ही घटना
जीसस के जीवन
में है। जिस
रात उन्होंने
अंतिम भोजन
लिया अपने
शिष्यों के साथ, उनसे
कहा कि बस, यह
आखिरी रात है।
कल सुबह मैं
जाऊंगा। घड़ी आ
गयी। सूली
लगेगी।
वे
रोने लगे।
शिष्य रोने
लगे। जीसस ने कहा
: मत रोओ।
फर्क
समझना। बुद्ध
और जीसस के
वचनों का!
जीसस
ने कहा मत
रोओ। मेरे लिए
मत रोओ। अगर
रोना है, तो
अपने लिएg रोओ।
रोना है, तो
अपने लिए।
मेरे लिए मत
रोओ। मेरे लिए
रोने से क्या
होगा! जीसस यह
कह रहे हैं कि
अब तो अपनी तरफ
देखो, अपनी
तरफ मुड़ो।
मेरे जाने की
घड़ी आ गयी।
मैं तुम्हें
पुकारता रहा
कि अपनी तरफ
देखो। अब भी
तुम मेरे लिए
रो रहे हो!
मेरे लिए मत
रोओ। जो होना
है, होकर
रहेगा। हो ही
चुका है। अब
और समय मत
गवाओ। और थोड़ी
देर तुम्हारे
पास हूं—जाग
जाओ। अपने लिए
रोओ। इतने दिन
गंवाए, इसके
लिए रोओ। इतने
जन्म गंवाए, इसके लिए
रोओ। आज की
रात मत गंवा
देना।
और
जीसस ने कहा
कि अब हम चलें, पहाड़
पर प्रार्थना
करें। वे गए।
और उन्होंने कहा
जागे रहना।
लेकिन शिष्य
सो —सो जाते
हैं! जीसस
प्रार्थना
करते हैं
घडीभर, फिर
उठते हैं और
देखते हैं, तो सब झपकी
खा रहे हैं!
आखिरी
रात आ गयी! कल
इस आदमी से
विदा हो
जाएगी! फिर
जन्मों तक मिलना
हो,
न हो। फिर
ऐसा भव्य रूप,
ऐसा दिन रूप
आंखों में आए,
न आए! फिर यह
शुभ घड़ी कब
घटेगी, कहा
नहीं जा सकता
है। लेकिन जाग
नहीं सकते! निद्रा
गहरी है।
आखिरी रात भी
सो रहे हैं!
ऐसा
ही उस दिन हुआ, जब
बुद्ध ने कहा
कि चार माह के
पश्चात मेरा
परिनिर्वाण
होगा, भिक्षु
आंसू नहीं रोक
सके। रोने लगे,
जोर—जोर से
रोने लगे। एक
अर्थ में
स्वाभाविक। लेकिन
स्वभाव .के
ऊपर जाना है, तो असली
स्वभाव मिलता
है।
इस
जगत में दो
तरह के स्वभाव
हैं. एक तो
प्रकृति का, और
एक परमात्मा
का। इस जगत
में दो तल हैं
—एक पदार्थ का,
एक चेतना
का। जो पदार्थ
के लिए
स्वाभाविक है,
उससे ऊपर
जाओगे, तो
चेतना का
स्वभाव प्रगट
होता है।
यह
बिलकुल
स्वाभाविक है, मानवीय
है। बुद्ध को
इतना चाहा, बुद्ध की
चाह में सारा
संसार छोड़ा; घर—द्वार
छोड़ा; पत्नी—बच्चे
छोड़े, बुद्ध
के प्रेम में
सब दाव पर लगा
दिया है—और
बुद्ध चले! तो
आंसू बिलकुल
स्वाभाविक
हैं। लेकिन
इसके ऊपर एक और
स्वभाव है।
अगर आंसू रुक
जाएं और जागरण
घट जाए, तो
बुद्ध से फिर
कभी बिछुड़ना न
हो।
बुद्ध
से बिछुड़ना
तभी तक होता
है,
जब तक हम
शरीर से बंधे
हैं। जिस दिन
हमें पता चले
कि मैं चैतन्य
हूं उस दिन
बुद्ध से कैसा
बिछुड़ना! फिर
स्वयं
बुद्धत्व
तुम्हारे
भीतर विराजमान
हो गया। फिर
यह नाता न
टूटने वाला
है।
शिष्य
को एक न एक दिन
इस दशा में
आना चाहिए, जब
वह गुरु जैसा
हो जाए। शिष्य
जिस दिन गुरु
हो जाता है, उसी दिन
पहुंचा।
स्वभावत:
भिक्षु रोने
लगे। अर्हतों
को भी
धर्मसंवेग
हुआ। जो पहुंच
गए थे, उनको भी
संवेग हुआ।
रोमांच हो
गया। यह कभी
सोचा नहीं था
कि बुद्ध
जाएंगे। सब
जाएगा। सब बह
जाएगा। बुद्ध
जाएंगे —यह
नहीं सोचा था।
मान ही लिया
था कि बुद्ध
तो सदा
रहेंगे।
एक
क्षण को वे भी
कैप गए, जिनकी
समाधि सम्हल
गयी थी।
अब
ध्यान करना, संसार
में जो कंप
जाते हैं, वे
बहुत
प्राकृतिक
व्यक्ति हैं
—सामान्य। संसार
में जिनका
कंपन बंद हो
गया, वे
अरिहंत हैं।
उनका अब संसार
से कोई कंपन
नहीं होता है।
लेकिन अभी एक
कंपन उनमें हो
सकता है। वह
कंपन है —गुरु
का छूटना।
इससे भी पार जाना
है।
कोई
मोह न रह जाए।
अशुभ का मोह
तो जाए ही जाए, शुभ
का मोह भी
जाए। पाप तो
छूटे, पुण्य
भी छूटे।
संसार तो
छूटना ही
चाहिए, एक
दिन निर्वाण
और मोक्ष की
वासना भी छूट
जाए—तो परम
मुक्ति, तो
परिनिर्वाण।
उस
समय धम्माराम
नाम के एक
स्थविर ने ऐसा
सोचा कि मैं
तो अभी
रागरहित नहीं
हुआ और बुद्ध
के जाने का
दिन करीब आ
गया। बहुत दिन
गंवा दिए।
बहुत समय गंवा
दिया। अब
गंवाने को
क्षण भी मेरे
पास नहीं है।
और शास्ता का
परिनिर्वाण
होने जा रहा
है! इसलिए
शास्ता के
रहते ही मुझे
अर्हत्व
प्राप्त कर ही
लेना है। अब
कुछ बचाऊंगा
नहीं। अब
पूरा—पूरा
ड़बूंगा। अब
कोई और किसी
तरह के संकल्प
—विकल्प में
समय न
गंवाऊंगा। अब
शक्ति की एक
छोटी सी किरण
भी मुझसे बाहर
न जाने दूंगा; सब
समाहित कर
लूंगा।
एकांत
में जाकर
उन्होंने
संकल्पपूर्वक
गहन साधना
शुरू कर दी।
बुद्ध
परंपरा में
संकल्प का
अर्थ होता है
कि अब या तो
बुद्ध होकर
रहूंगा, या
मौत आए। अब दो
के बीच कोई और
विकल्प नहीं
है। जीवन गया।
या तो मौत को
चुनूंगा, या
बुद्धत्व को।
मरने को राजी
हूं; अब
जीने में मेरा
कोई रस नहीं।
संकल्प का
अर्थ है कि अब
यह जो मैंने
पाना चाहा है,
यह पाकर
रहूंगा, या
मर जाऊंगा।
मृत्यु वरण
होगी अब मुझे,
लेकिन
बुद्धत्व के
बिना जीवन वरण
नहीं होगा। यह
संकल्प का
अर्थ है।
ऐसे
संकल्प को
लेकर
धम्माराम
एकांत में
जाकर मौन रखते, ध्यान
करते।
भिक्षुओं के
कुछ पूछने पर
उत्तर नहीं
देते थे।
भिक्षुओं को
अड़चन हुई—यह
भी स्वाभाविक
है। पहली तो
अड़चन यह हुई
कि धम्माराम
की आंख से
आंसू न गिरा।
और जिस दिन से
बुद्ध ने कहा
कि अब बस, चार
महीने और—उस
दिन से
धम्माराम कुछ
और ही हो गया।
पत्थर की
मूर्ति हो गए।
हिले नहीं, डूले नहीं।
सारी बातों
में रस छोड़
दिया।
गपशप
चलती होगी।
भिक्षु जहां
दस हजार
इकट्ठे हों, गपशप
होती होगी।
निंदा
—प्रशंसा होती
होगी। कोन गलत
कर रहा है, कोन
ठीक कर रहा है,
कोन क्या कर
रहा है!
भिक्षु और
करेंगे क्या!
सब तरह के
विवाद चलते
होंगे कोन
श्रेष्ठ? कोन
अश्रेष्ठ? कोन
ऊपर? कोन
नीचे? सब
तरह की
राजनीति चलती
होगी। और
भिक्षु करेंगे
क्या!
इसीलिए
तो धम्माराम विशिष्ट
है। अब कई
सोचने लगे
होंगे कि
बुद्ध तो अब
जाने ही वाले
हैं,
अब शायद मैं
कब्जा कर लूं
संघ पर। मैं
मालिक हो
जाऊं। अब
बुद्ध तो चले।
लोग अपने
दाव—पेंच बिठाने
में लग गए
होंगे।
बुद्ध
के बाद कोन? अब
कोन बुद्ध की
गद्दी पर
बैठेगा? अब
कोन शास्ता
होगा? राजनीति
चलने लगी
होगी।
कूटनीति चलने
लगी होगी।
एक—दूसरे को
गिराने —उठाने
के उपाय चलने
लगे होंगे।
भिक्षु मत—बल
इकट्ठा करने
लगे होंगे —कि
मेरे पास
ज्यादा लोग
इकट्ठे हो
जाएं; ज्यादा
मत मेरे पास
हों, तो कल
कब्जा मेरा हो
जाएगा।
बुद्ध
तो अब जाते ही
हैं,
तो अब ठीक
है। जो जाता
है, उसको
रोका तो जा
नहीं सकता। रो
भी लिए होंगे
और: फिर इन सब
उपद्रवों में
भी लग गए
होंगे!
लेकिन
धम्माराम ठीक
दिशा पकड़ा। यह
बुद्ध के जाने
की बात इतना
बड़ा घातक
प्रहार हो गयी
उसके हृदय पर, जैसे
छाती में छुरा
चुभ गया। अब
कोई जीवन नहीं
हो सकता। अब
तो बुद्ध के
रहते ही
बुद्धत्व पा
लेना है। अब
यह अवसर नहीं
खोना है। अब
चौबीस घंटे
सोते—जागते एक
ही धुन उसके
भीतर बजने लगी,
और एक ही
स्वर गूंजने
लगा।
तो
एकांत, मौन
और
ध्यान—समाधि
के उपाय हैं।
ये तीन चरण हैं।
अपने
को अकेला
जानो। अकेले
आए हो, अकेले
जाओगे, अकेले
हो। संग—साथ
सब झूठ है।
संग—साथ सब
खेल है।
संग—साथ सब मान्यता
है, मानी
हुई बात है।
कोन किसका है?
न पत्नी, न पति; न
भाई, न बहन,
न मित्र।
कोन किसका है?
अकेले आए, अकेले जाओगे,
अकेले हो।
इस भाव को गहन
कर लेने का
नाम एकांत है।
मैं
अकेला हूं; मैं
अकेला हूं
—ऐसा श्वास—श्वास
मैं रम जाए।
मैं अकेला हूं
—ऐसा हृदय की
धड़कनों में बस
जाए। मैं
अकेला हूं—यह
बात इतनी प्रगाढ़
होकर बैठ जाए
कि कभी भूले न,
क्षणभर को न
भूले। यही
संसार से
मुक्ति है।
यह
नहीं कि तुम
पत्नी को
छोड़कर जाओ।
यह जानना कि
मैं अकेला
हूं। पत्नी है, तो
रहे। बेटे हैं,
तो रहें। घर
है, तो
रहे। लेकिन
मैं अकेला
हूं। भरे घर
में तुम अकेले
हो जाओ। भरी
भीड़ में तुम
अकेले हो जाओ।
यह सारा संसार
चल रहा है और
मैं अकेला हूं
—यह एकांत की
भाव— भंगिमा
है।
और
जब अकेला हूं
तो बोलना क्या
है! किससे
बोलना है? क्या
बोलना है? तो
एक चुप्पी अपने
आप उतरने लगे।
और
जब चुप ही
होने लगे, तो
भीतर भी क्या
सोचना? आदमी
को बोलना होता
है, तो
सोचता है।
बोलना तभी
होता है, जब
सोचता है कि
दूसरे हैं। ये
सब जुड़ी हैं
बातें। इन
सबकी
श्रृंखला है।
आदमी
सोचता है, क्योंकि
बोलना है।
बोलता है, क्योंकि
दूसरों से
जुड़ना है। जब
दूसरों से
जुड़े ही नहीं
हैं हम, और
जुड़ सकते ही
नहीं हैं हम, तो बोलना
क्या? फिर
सोचना क्या!
और
ये तीन बातें
पूरी हो
जाए——ख्यात, मौन
.और ध्यान—तों
फिर जो शेष रह
जाती है दशा, समाधि। तब
सम हो गए।
शून्य प्रगट
हुआ।
इस
शून्य की खोज
में लग गया
धम्माराम।
भिक्षुओं ने
शिकायत भगवान
से की।
भिक्षुओं के
अहंकार को चोट
लगी होगी।
उनकी जयरामजी
का भी जवाब
नहीं देता!
अकड़ गया!
जो
जैसे होते हैं, उनको
वैसा ही
दिखायी पड़ता
है। यह बड़ी
मुश्किल है।
जो अहंकारी
हैं, उनको
हर एक में
अहंकार
दिखायी पड़ता
है। जो चोर
हैं, उनको
हर एक में चोर दिखायी
पड़ता है।
अब
यह आदमी ठीक
दिशा में चल
पड़ा,
तो उन गलत
दिशा में चलते
हुए भिक्षुओं
को यह आदमी
अड़चन मालूम
होने लगा।
शिकायत
भगवान से की।
भगवान ने
धम्माराम को
बुलाया। पूछा
तुझे क्या हुआ? क्या
सत्य है यह कि
तू भिक्षुओं
से बोलता नहीं?
भंते!
सत्य है। उसने
कहा।
ऐसा
क्यों कर रहा
है?
तो
धम्माराम ने
अपनी सारी
मनोदशा कही।
उसे सुनकर
भगवान ने उसे
धन्यवाद
दिया। और कहा? तू
ठीक कर रहा
है। तू ही ठीक
कर रहा है
धम्माराम। तू
ही कर रहा है
वह, जो
करने योग्य है,
जो करना
चाहिए। अन्य
भिक्षुओं को
भी, जिन्हें
मुझ पर प्रेम
हो, धम्माराम
के समान ही
होना चाहिए।
क्योंकि
बुद्धों से
प्रेम करना हो,
तो यह
साधारण ढंग का
प्रेम नहीं
है। इस प्रेम की
अपनी शैली है।
इस प्रेम की
अपनी भंगिमा
है। इस प्रेम
की अपनी मुद्रा
है।
बुद्धों
से प्रेम करना
हो,
तो एक ढंग
है।
सांसारिकों
से प्रेम करना
हो, तो एक
और ढंग है।
सांसारिक से
प्रेम करो, तो संसार की
भेंटें उसके
पास लाओ
हीरे—जवाहरात
लाओ, गहने
लाओ, साड़ी
लाओ; सुंदर
वस्त्र लाओ।
सांसारिक से
प्रेम करो, तो संसार की
भेंट लाओ।
बुद्धों से
प्रेम करो र
तो बुद्धत्व
की भेंट लाओ।
और कोई चीज
काम नहीं
पड़ेगी।
बुद्धों से
प्रेम करो, तो एक दिन
बुद्ध हो जाओ।
एक दिन उनके
चरणों में आकर
अपने सिर को
रखो, ताकि
वे तुम्हारे
शून्य को देख
सकें। ताकि वे
कह सकें—कि
ठीक, तू
धन्यभागी। तू
पहुंच गया। एक
दिन अपना शून्य
उनके चरणों
में चढ़ाओ।
तो
बुद्ध ने कहा.
माला—गंध आदि
से पूजा करने
वाले मेरी
पूजा नहीं
करते, पूजा
करने का ढोंग
कर लेते हैं।
सस्ती
पूजा
है—माला—गंध—फूल।
अपने को नहीं
चढ़ाते।
कूड़ा—करकट
चढ़ाकर सोचते
हैं,
काम पूरा
हां गया!
पूजा
तो वही कर रहा
है,
जो धर्म के
अनुसार चल रहा
है। जो मैंने
कहा है, उसके
अनुसार चल रहा
है। चाहे कभी
मेरे चरणों में
न आए। लेकिन
जो मेरे
अनुसार चल रहा
है, जिसने
मेरी बात समझी
और पकड़ी, वही
मेरी पूजा
करता है।
आंसुओ
के बहाने से
भी कोई सार
नहीं है। मत
रोओ। समय मत
गंवाओ। और ऐसा
करोगे, तो
मुझे समझे ही
नहीं। यही तो
समझा रहा हूं
जीवनभर से कि
यहां सब
क्षणभंगुर
है। यहां कुछ
भी शाश्वत नहीं
है। इसलिए
किसी से मोह न
बांधो। मुझसे
भी नहीं। कम
से कम मुझसे
तो बिलकुल
नहीं।
रोओ
नहीं; सोओ
नहीं—जागो।
तब
उन्होंने इस
गाथा को कहा।
धम्माराम
का नाम भी
प्यारा है। और
यह गाथा शुरू
होती है:
धम्मारामो
धम्मरतो धम्मं
अनुविचिन्तयं
।
धम्मं
अनुस्सरं
भिक्खु
सद्धम्मा न
परिहायति ।
धर्म
में रमण करने
वाला—धम्माराम।
धर्म में रत—
धम्माराम।
धर्म का चिंतन
करने वाला—
हग्म्माराम।
धर्म का
अनुसरण करने
वाला—धम्माराम।
और ऐसा जो
धम्माराम है, वही
भिक्षु
सद्धर्म को
उपलब्ध
होगा—चूकेगा नहीं,
ष्णुत नहीं
होगा। मैं
जाता हूं इसकी
फिक्र न करो।
मैं तो
जाऊंगा। मैं
आया, जाऊंगा।
धर्म सदा रहता
है। तुम
धम्माराम हो जाओ।
तुम मुझसे
अपने को मत
जोड़ो, धर्म
से अपने को
जोड़ो। मुझसे
जोड़ोगे, तो
रोओगे, पछताओगे;
क्योंकि
मैं तो
जाऊंगा। धर्म
से जोड़ोगे, तो कभी नहीं
जाता। धर्म
मात्र शाश्वत
है।
धर्म
का अर्थ, बौद्ध
धर्म, हिंदू
धर्म नहीं है।
धर्म का अर्थ
है वह शाश्वत
नियम, जो
इस प्रकृति को
चला रहा है।
धर्म का वही
अर्थ है बुद्ध
के वचनों में,
जो गीता में
भगवान का अर्थ
है, परमात्मा
का अर्थ है।
धर्म का वही
अर्थ है बुद्ध
के वचनों में,
जो लाओत्सू
के वचनों में ताओ
का अर्थ है।
और
बुद्ध की बात
आधुनिक वितान
को भी बहुत
जमती है, क्योंकि
बुद्ध
व्यक्ति की
बात नहीं करते
हैं, नियम
की बात करते
हैं। धर्म
यानी नियम।
वितान को भी
जंचती है बात।
यह तो वितान
को भी मानना पड़ेगा
कि कोई नियम
अनुस्यूत है,
नहीं तो
प्रकृति कैसे
डोलती। चांद
—तारे कैसे
चलते? चलाने
वाला कोई नहीं
है, लेकिन
चलने की
प्रक्रिया के
पीछे कोई नियम
है। जैसे
गुरुत्वाकर्षण
का नियम चीजों
को अपनी तरफ
खींच लेता है,
ऐसा कोई
नियम है।
एक
महानियम इस
सारे जगत को
व्याप्त किए
है। बुद्ध ने
उसे धर्म कहा
है।
धम्मारामो
धम्मरतो धम्मं
अनुविचिन्तयं
।
धर्म
में ही ड़बो।
धर्म की ही
सोचो। धर्म को
हीखाओ। धर्म
को ही पीयो।
धर्म की ही
श्वास लो।
धर्ममय हो
जाओ।
धम्माराम हो
जाओ।
धम्मं
अनुस्सरं
भिक्खु
सद्धम्मा न
परिहायति ।
फिर मैं
रहूं न रहूं,
तुम कभी
गिरोगे नहीं।
मैं उस धर्म
की ही एक
भंगिमा हूं।
मैं उस धर्म
की ही एक
अभिव्यक्ति
हूं।
अभिव्यक्ति
तो खो जाएगी, लेकिन जिसकी
अभिव्यक्ति
है, वह सदा
है।
बुद्ध
यह कह रहे है
कि
बुद्धपुरुष
धर्म की ही एक
लहर हैं। धर्म
है सागर जैसा, बुद्धपुरुष
हैं लहर जैसे।
लहरें उठती
हैं, खो
जाती हैं, सागर
सदा है।
यह
धम्माराम ने
ठीक किया
भिक्षुओ। ऐसा
ही तुम भी
करो। ऐसा ही
तुम्हारा
जीवन भी हो
जाए—एकांत, मौन,
ध्यान—ताकि
किसी दिन
समाधि का फूल
खिले।
ओशो
एस
धम्मों
सनंतनो।
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