विरोधी धर्म गुरूओं का बुद्ध पर कीचड़ उछालना—(कथा—यात्रा)
भगवान् केर कौशांबी में विहरते समय की घटना है। बुद्ध—विरोधी धर्म गुरुओं ने गुंडों—बदमाशों को रुपए—पैसे खिला—पिलाकर भगवान का तथा भिक्षुसंघ का आक्रोशन? अपमान करके भगा देने के लिए तैयार कर लिया था। वे भिक्षुओं को देखकर भद्दी गालिया देते थे। नहीं लिखी जा सकें ऐसी शास्त्र कहते हैं। जो लिखी जा सके वे ये थी—भिक्षुनिकलते तो उनसे कहते तुम मूर्ख हो पागल हो झक्की हो, चोर—उचक्के हो बैल—गधे हो पशु हो पाशविक हो नारकीय हो पतित हो विकृत हो इस तरह के शब्द भिक्षुओं से कहते।
ये
तो जो लिखी जा
सकें। न लिखी
जा सकें तुम
समझ लेना।
वे
भिक्षणिओं को
भी अपमानजनक
शब्द बोलते
थे। वे भगवान
पर तरह— तरह की
कीचड़ उछालते
थे। उन्होंने
बड़ी अनूठी—
अनूठी
कहानियां गढ़
रखी थीं और उन
कहानियों में
उस कीचड़ में
बहुत से धर्मगुरुओं
का हाथ था।
जब
बहुत लोग बात
कहते हों तो
साधारणजन मान
लेते हैं कि
ठीक ही कहते
होंगे। आखिर
इतने लोगों को
कहने की जरूरत
भी क्या है? ठीक
ही कहते
होंगे।
आनंद
स्थविर ने
भगवान के पास
जाकर वंदना
करके कहा—
भंते ये
नगरवासी हम
लोगों का
आक्रोशन करते
हैं गालियां
देते हैं इससे
अच्छा है कि
हम किसी दूसरी
जगह चलें। यह
नगर हमारे लिए
नहीं। भिक्षु
बहुत परेशान
हैं
भिक्षुणियां
बहुत परेशान
हैं। झुंड के
झुंड लोग पीछे
चलते हैं और
अपमानजनक शब्द
चीखते—
चिल्लाते
हैं। एक तमाशा
हो गया यहां
तो जीना कठिन
हो गया है।
फिर आपकी आज्ञा
है कि हम इसका
कोई उत्तर न
दें धैर्य और
शांति रखें
इससे बात और
असह्य हुई
जाती है। हमें
भी उत्तर देने
का मौका हो तो
हम भी जूझ लें
और निपट लें।
क्षत्रिय
था आनंद, पुराना
लड़ाका था। यह
भी एक झंझट
लगा दी है कि कुछ
कहना मत, कुछ
बोलना मत, उत्तर
देना मत। तो
हम बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए हैं, फांसी
लग गयी है। वे
फांसी लगा रहे
हैं और आप फांसी
लगाए हुए हैं।
आप कहते हैं? बोलो मत, चुपचाप
रहो, शांत
रहो, धैर्य
रखो। इससे बात
बहुत असह्य हो
गयी है।
और
का अर्थ लोग
क्या समझते
हैं आपको पता
है भंते? वे
समझते हैं कि
हमारे पास
जवाब नहीं है
इसलिए चुप हैं
वे सोचते हैं
कि है ही नहीं
जवाब नहीं तो
जवाब देते न!
बातें सच हैं
जो आपके खिलाफ
प्रचारित की
जा रही हैं
इसीलिए तो
बुद्ध चुप हैं
और बुद्ध के
भिक्षु चुप
हैं। देखो
कैसे चुपचाप
पूंछ दबाकर
निकल जाते
हैं! शांति का
मतलब वे लोग
ले रहे हैं कि
पूछ दबाकर
निकल जाते हैं
कुछ बोलते
नहीं सत्य
होता इनके पास
तो मैदान में
आते जवाब
देते।
भगवान
हंसे और
बोले—आनंद फिर
कहां चलें? आनंद
ने कहा— भंते
इसमें क्या
अड़चन है दूसरे
नगर को चलें।
और वहां के
मनुष्यों
द्वारा आक्रोशन
करने पर कहां
जाएंगे? भगवान
ने कहा। भंते
वहां से भी
दूसरे नगर को
चले चलेने
नगरों की कोई
कमी है आनंद
बोला। पागल
आनंद लेकिन
ऐसा सभी जगह
हो सकता है।
सभी जगह होगा।
अंधेरा सभी
जगह हमसे
नाराज होगा
बीमारियां
सभी जगह हमसे
रुष्ट होंगी
धर्मगुरु सभी
जगह ऐसे ही
हैं। और उनके
स्वार्थ पर
चोट पड़ती है
आनंद तो वे जैसा
यहां कर रहे
हैं वैसा वहां
भी करेंगे। और
हम उनके
स्वार्थ पर
चोट करना बंद
भी तो नहीं कर सकते
आनंद। कसूर तो
हमारा ही है
भगवान ने कहा।
हम उनके
स्वार्थ पर
चोट करते हैं
वे प्रतिशोध
करते
हैं।
हम चोट करने
से रुक नहीं सकते।
क्योकि अगर हम
चोट न करें तो
सत्य की कोई
हवा नहीं
फैलायी जा
सकती। और
जिन्होंने
असत्य को पकड़
रखा है वे तुम
सोचते हो चुप
ही बैठे रहेंगे।
उनके स्वार्थ
मरते उनके
निहित स्वार्थ
जलते टूटते
फूटते वे बदला
लेंगे
कोई
मठाधीश है कोई
महामंडलेश्वर
है कोई शंकराचार्य
है कोई कुछ है
कोई कुछ है
उनके सबके
स्वार्थ हैं।
यह कोई सत्य—
असत्य की ही
थोड़ी सीधी
लड़ाई है असत्य
के साथ बहुत
स्वार्थ जुड़ा
है। अगर हम सही
हैं तो उनके
पास कल कोई भी
न जाएगा। और
वे उन्हीं पर
जीते हैं आने
वालों पर जीते
हैं। तो उनकी
लाख चेष्टा तो
होगी ही कि वे
हमें गलत
सिद्ध करें।
फिर
उनके पास कोई
सीधा उपाय भी
नहीं है।
क्योंकि वे यह
तो सिद्ध नहीं
कर सकते कि जो
वे कहते हैं
सत्य है। सत्य
का तो उन्हें
कुछ पता नहीं
है। इसलिए वे
उलटा उपाय
करते है— गाली—
गलौज पर उतर
आते हैं
अपमान—
आक्रोशन पर
उतर आते है; यह
उनकी कमजोरी
का लक्षण है।
गाली— गलौज की
कोई जरूरत
नहीं है। हम
अपना सत्य
निवेदन करते
हैं वे अपना
सत्य निवेदन
कर दें लोग
निर्णय कर
लेगे लोग सोच
लेंगे। हमने
अपनी तस्वीर
रख दी है वे
अपनी तस्वीर
रख दें।
मगर
वे अपनी
तस्वीर रखते
नहीं उनके पास
कोई तस्वीर
नहीं है। उनका
एक ही काम है
कि हमारी
तस्वीर पर
कीचड़ फेंकें।
यही एक उनके
पास उपाय है।
तू उनकी तकलीफ
भी समझ आनंद
बुद्ध ने कहा।
उनकी अड़चन
देख। अपने ही
दुख में मत
उलझ। हमारा
दुख क्या खाक
दुख है। गाली दे
दी दे दी।
गाली लगती कहा
लगती किस को।
तू मत पकड़ तो
लगेगा नहीं।
बुद्ध
यह हमेशा कहते
थे कि गाली तब
तक नहीं लगती
जब तक तुम लो न।
तुम लेते हो, तो
लगती है। किसी
ने कहा—गधा।
तुमने ले ली, तुम खड़े हो
गए कि तुमने
मुझे गधा
क्यों कहा? तुम लो ही
मत। आया हवा
का झोंका, चला
गया हवा का
झोंका। झगड़ा
क्या है! उसने
कहा, उसकी
मौज!
मैं
अभी एक, कल ही
एक छोटी सी
कहानी पढ़ रहा
था। अमरीका
में प्रेसीडेंट
का चुनाव पीछे
हुआ, कार्टर
और फोर्ड के
बीच। एक होटल
में—कहीं टेक्सास
में — कुछ लोग
बैठे गपशप कर
रहे थे और एक
आदमी ने कहा, यह फोर्ड तो
बिलकुल गधा
है। फिर उसे
लगा कि गधा
जरा जरूरत से
ज्यादा हो गया,
तो उसने कहा,
गधा नहीं तो
कम से कम घोड़ा
तो है ही। एक
आदमी कोई साढ़े
छह फीट लंबा
एकदम उठकर खडा
हो गया और दो
—तीन घूंसे उस
आदमी को जड़
दिए। वह आदमी
बहुत घबड़ाया,
उसने कहा कि
भई, आप
क्या फोर्ड के
बड़े प्रेमी
हैं? उसने
कहा कि नहीं, हम घोड़ों का
अपमान नहीं सह
सकते।
अब
तुमसे कोई गधा
कह रहा है, अब
कौन जाने गधे
का अपमान हो
रहा है कि
तुम्हारा हो
रहा है। फिर
गधे भी इतने
गधे नहीं हैं
कि गधे कहो तो
नाराज हों।
तुम क्यों
नाराज हुए जा
रहे हो? और
वह जो कह रहा
है, वह
अपनी दृष्टि
निवेदन कर रहा
है। गधों को
गधे के
अतिरिक्त कुछ
और दिखायी भी
नहीं पड़ता।
उसे हो सकता
है तुममें गधा
दिखायी पड़ रहा
हो। उसको गधे
से ज्यादा कुछ
दिखायी ही न
पड़ता हो
दुनिया में।
उसकी अड़चन है,
उसकी
समस्या है।
तुम इसमें
परेशान क्यों
हो? बुद्ध
कहते थे, तुम
लो मत, गाली
को पकड़ो मत, गाली आए, आने
दो, जाए, जाने दो, तुम
बीच में अटकाओ
मत। तुम न
लोगे, तो
तुम्हें गाली
मिलेगी नहीं।
तुम शांत रही।
आनंद
ने कहा यह तो
बड़ी मुश्किल
है! तो हम क्या
करें? बुद्ध
ने कहा क्या
करें? संधर्ष
हमारा जीवन है
और कहीं और
जाने से कुछ
भी हल न होगा।
फिर भी आनंद
ने कहा तो हम
करें क्या? आनंद हम सहे
बुद्ध ने कहा
हम शांति से
सहे सत्य के
लिए यह कीमत
चुकानी ही
पड़ती है जैसे
संग्राम भूमि
में गया हाथी
चारों दिशाओं
से आए हुए
बाणों को सहता
है ऐसे ही
अपमानों और
गालियों को सह
लेना हमारा
कर्तव्य है। इसमें
ही तुम्हारा
कल्याण है इसे
अवसर समझो और निराश
न होओ। उन
गालियां देने
वालों का बड़ा
उपकार है।
यह
बुद्ध की सदा
की दृष्टि है।
यह बुद्धों की
सदा की दृष्टि
है। इसमें भी
हमारा उपकार
है। न वे गाली
देते, न हमें
शांति रखने का
ऐसा अवसर
मिलता। न वे
हमारा अपमान
करते, न
हमारे पास
कसौटी होती कि
हम अपमान को
अभी जीत सके
या नहीं? वे
खड़ा करें
तूफान हमारे
चारों तरफ और
हम निर्विध्न,
निश्चित और
अकंप बने
रहें। तो उनका
उपकार मानो।
वे परीक्षा के
मौके दे रहे
हैं। इन्हीं
परीक्षाओं से
गुजरकर
निखरोगे तुम।
इन्हीं परीक्षाओं
से गुजरकर
मजबूत होंगे।
अगर वे ये
मौके न दें, तो तुम्हें
कभी मौका ही
नहीं मिलेगा
कि तुम कैसे
जानो कि
तुम्हारे
भीतर कुछ
सचमुच ही घटा
है, या
नहीं घटा है!
उनकी
कठिनाइयों को
कठिनाइयां मत
समझो, परीक्षाएं
समझो। और तब
उनका भी उपकार
है।
और
जाने से कुछ
भी न होगा, बुद्ध
ने कहा। इस
गांव को
छोड़ोगे, दूसरे
गांव में यही
होगा। दूसरा
गांव छोडोगे,
तीसरे गांव
में यही होगा।
हर जगह यही
होगा। हर जगह
धर्मगुरु हैं,
हर जगह
गुंडे हैं। और
हर जगह
धर्मगुरुओं
और गुंडों के
बीच सांठ
—गांठ है। वह
पुरानी
सांठ—गांठ है।
राजनीतिज्ञ
और धर्मगुरु
के बीच बड़ी पुरानी
साठ—गांठ है।
राजनीतिज्ञ
का अर्थ होता
है —स्वीकृत
गुंडे, सम्मानित
गुंडे, जो
बड़ी व्यवस्था
और कानून के
ढंग से अपनी
गुडागिरी
चलाते हैं।
इनके साथ भी
पीछे
अस्वीकृत गुंडों
का हाथ होता
है। वे भी
पीछे खड़े हैं।
हर
कोई जानता है
कि तुम्हारा
राजनेता
जिनके बल पर
खड़ा होता है, वह
गुंडों की एक
कतार है।
तुम्हारा
राजनेता कुशल
डाकू है। और
डाकू उसके
सहारे के लिए
खड़े हैं। और
धर्मगुरु, इन
दोनों की
साठ—गांठ है।
धर्मगुरु सदा
से कहता रहा
है कि राजा
भगवान का
अवतार है। और
राजा आकर
धर्मगुरु के
चरण छूता है।
जनता खूब भुलावे
में रहती है।
जनता देखती है
कि धर्मगुरु
सच्चा होना
चाहिए, क्योंकि
राजा पैर छुए!
और जब
धर्मगुरु
कहता है कि
राजा भगवान का
अवतार है तो
ठीक ही कहता
होगा। जब
धर्मगुरु
कहता है तो ठीक
ही कहता होगा।
यह षड्यंत्र
है। यह पुराना
षड्यंत्र है।
यह पृथ्वी पर
सदा से चलता
रहा है।
धर्मगुरु
सहायता देता
रहा है
राजनेताओं को और
राजनेता
सहायता देते
रहे
धर्मगुरुओं
को। दोनों के
बीच में आदमी
कसा रहा है।
दोनों ने आदमी
को चूसा है।
बुद्ध
दोनों के
विपरीत एक
बगावत खड़ी कर
रहे हैं। तो
कहते हैं, हर
गांव में यही
होगा। हर गांव
में यही होना
है। गांव—गांव
में यही होना
है। क्योंकि
हर गांव। तो
कहानी यही है,
व्यवस्था
यही है। हम जहां
जाएंगे, वहीं
अंधेरा हमसे
नाराज दे। गा।
हम जहां जाएंगे,
वहीं लोग
हमसे रुष्ट
होंगे। हम
जहां जाएंगे,
वहीं हमें
गालियां
मिलेंगी, अपमान
मिलेंगे। तुम
इनके लिए
तैयार रहो।
यही हमारा
सम्मान और
सत्य की यही
कसौटी है।
आनंद
को ये बातें
कहकर बुद्ध ने
ये सूत्र कहे थे, ये
गाथाएं—
अहं
नागोव संगामे
चापतो पतितं
सरं।
अतिवाक्यं
तितिक्खिस्सं
दुस्सीलो हि
वहुज्जनौ ।।
दंते
नयंति समितिं
दंतं
राजभिरूहति।
दंतो
संट्ठो मनुस्सेसु
योति वाक्यं
तितिक्खति
।।
नहि
एतेहि यानेहि
गच्छेय अगतं
दिसं।
यथात्तना
सुदंतेन दंतो
दंतेन गच्छंति
।।
इदं
पुरे चित्तमचरि
चारिकं।
येनिच्छकं
यत्थ कामं
यथासुखं।
तदत्तहं
निग्गहेस्समि
योनिसो।
हथिप्पभिन्नं
विय अंकुसग्गहो
।।
'जैसे युद्ध
में हाथी गिरे
हुए बाण को
सहन करता है, वैसे ही मैं
कटु वाक्य को
सहन करूंगा, क्योंकि
बहुजन तो
दुःशील ही
हैं।'
बहुजन
तो दुष्ट
प्रकृति के
हैं ही। इसे
मानकर चलो।
सभी जगह यह
बहुजन
मिलेंगे। फिर
जैसे युद्ध में
हाथी गिरे हुए
बाण को सहन
करता है, चारों
दिशाओं से आते
बाणों को सहन
करो। यह स्वीकार
करके कि
दुनिया में
अधिक लोग
दुष्ट हैं, बुरे हैं।
उनका कोई कसूर
भी नहीं, वे
बुरे हैं, इसलिए
बुरा करते
हैं। वे दुष्ट
हैं, इसलिए
दुष्टता करते
हैं। यह उनका
स्वभाव है। बिच्छू
काटता है, सांप
फुफकारता है।
बिच्छू काटता
है तो जहर चढ़ जाता
है। अब इसमें
बिच्छू का कोई
कसूर थोडे ही
है। ऐसा
बिच्छू का
स्वभाव है।
अधिक लोग
मूर्च्छित
हैं, मूर्च्छा
में जो भी
करते हैं वह
गलत होगा ही।
उनके दीए जले
नहीं हैं, अंधेरे
में टटोलते
हैं, टकराते
हैं, संघर्ष
करते हैं।
'दान्त—प्रशिक्षित—हाथी
को युद्ध में
ले जाते हैं, दान्त पर
राजा चढ़ता है।
मनुष्यों में
भी दान्त
श्रेष्ठ है जो
दूसरों के कटु
वाक्यों को
सहन करता है।’
राजा
हर हाथी पर
नहीं चढ़ता।
राजा दान्त
हाथी पर चढ़ता
है। दान्त का
मतलब—जो ठीक
से
प्रशिक्षित
है। कितने ही
बाण गिरे, तो
भी हाथी टस से
मस न होगा, राजा
उस पर सवारी
करता है।
भगवान भी उसी
पर सवारी करते
हैं, जो
दान्त है। उस
पर जीवन का
परम शिखर रखा
जाता है।
'दान्त—प्रशिक्षित—हाथी
को युद्ध में
ले जाते हैं, दान्त पर
राजा चढ़ता है।
मनुष्यों में
भी दान्त
श्रेष्ठ
है.........।'
जिसने
अपने को
प्रशिक्षित
कर लिया है।
और ये सारे
लोग अवसर जुटा
रहे हैं
तुम्हें
प्रशिक्षित
करने का, ये
फेंक रहे हैं
बाण तुम्हारे
ऊपर, तुम
अकंप खड़े रहो
इनकी गालियों
की वर्षा के
बीच; हिलो
नहीं; डुलो
नहीं; जीवन
रहे कि जाए, लेकिन कंपो
नहीं; तो
राजा तुम पर
सवार होगा।
राजा यानी
चेतना की
अंतिम दशा।
समाधि तुम पर
उतरेगी, भगवान
तुम पर
विराजेगा, तुम
मंदिर बन
जाओगे। तुम
सिंहासन
बनोगे प्रभु
के। दान्त पर
राजा चढता है,
ऐसे ही तुम
पर भी जीवन का
अंतिम शिखर
रखा जाएगा।
'इन यानों
में से कोई
निर्वाण को
नहीं जा सकता।'
यह
जो धर्मगुरु
और पंडित और
जमाने भर के
पुरोहित कह
रहे हैं, इन
मार्गों से
कोई कभी
निर्वाण को
नहीं जा सकता।
'अपने को
जिसने दमन कर
लिया है, वही
सुदान्त वहां
पहुंच सकता
है।'
सिर्फ
एक ही व्यक्ति
वहां पहुंचता
है,
एक ही भांति
के व्यक्ति
वहां पहुंचते
हैं, जिन्होंने
अपनी
सहनशीलता
अपरिसीम कर ली
है। जो ऐसे
दान्त हो गए
.हैं कि मौत भी
आए तो उन्हें कंपाती
नहीं। जो
कंपते ही
नहीं। ऐसी
निष्कंप दशा
को कृष्ण ने
कहा—स्थितिप्रज्ञ।
जिसकी प्रशा
स्थिर हो गयी
है।
'यह चित्त
पहले यथेच्छ,
यथाकाम और
यथासुख आचरण
करता रहा। जिस
तरह भड्के हुए
हाथी को महावत
काबू में लाता
है, उसी
तरह मैं अपने
चित्त को आज
बस में लाऊंगा।’
जब
भी कोई गाली
दे,
तुम एक ही
बात खयाल करना,
जब भी कोई
अपमान करे, एक ही स्मरण
करना, एक
ही दीया जलाना
भीतर—
'यह चित्त
पहले यथेच्छ,
यथाकाम, यथासुख
आचरण करता
रहा। जिस तरह
भड्के हुए हाथी
को महावत काबू
में लाता है, उसी तरह मैं
अपने चित्त को
आज बस में
लाऊंगा।'
हर
अपमान को
चित्त को बस
में लाने का
कारण बनाओ। हर
गाली को उपयोग
कर लो। हर
पत्थर को सीढ़ी
बनाओ। इस जीवन
में जो भी
तुम्हें
मिलता है, उस
सभी का सम्यक
उपयोग हो सकता
है। गालियां
भी मंदिर की
सीढ़ियां बन
सकती हैं। और
ऐसे तो प्रार्थनाएं
भी मंदिर की
सीढ़ियां नहीं
बन पातीं। सब
तुम पर निर्भर
है। तुम्हारे
पास एक सृजनात्मक
बुद्धि होनी
चाहिए।
बुद्ध
का सारा जोर, समस्त
बुद्धों का
सदा से जोर इस
बात पर रहा है—जो
जीवन दे, उसका
सम्यक उपयोग
कर लो। जो भी
जीवन दे, उसमें
यह फिकर मत
करो —अच्छा था,
बुरा था, देना था कि
नहीं देना था।
जो दे दे।
गाली
आए हाथ में तो
गाली का उपयोग
करने की सोचो
कि कैसा उसका
उपयोग करूं कि
मेरे निर्वाण
के मार्ग पर
सहयोगी हो जाए? कैसे
मैं इसे अपने
भगवान के
मंदिर की सीढ़ी
में
रूपांतरित कर
लूं? और हर
चीज
रूपांतरित हो
जाती है।
ओशो
एस
धम्मो
सनंतनो
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