(महाबलवान हाथी का कीचड़ में फसना—(कथा—यात्रा)
कौशल— नरेश के पास बद्धरेक नाम का एक महाबलवान हाथी था। उसके बल और पराक्रम की कहानियां दूर— दूर तक फैली थीं। लोग कहते थे कि युद्ध में उस जैसा कुशल हाथी कभी देखा ही नहीं गया था। बड़े— बड़े सम्राट उस हाथी को खरीदना चाहते थे पाना चाहते थे। बड़ों की नजरें लगी थीं उस हाथी पर। वह अपूर्व योद्धा था हाथी। युद्ध से कभी किसी ने उसको भागते नहीं देखा। कितना ही भयानक संघर्ष हो कितने ही तीर उस पर बरस रहे हो और भाले फेके जा रहे हो वह अडिग चट्टान की तरह खड़ा रहता था। उसकी चिंघाड़ भी ऐसी थी कि दुश्मनों के दिल बैठ जाते थे। उसने अपने मालिक कौशल के राजा की बड़ी सेवा की थी। अनेक युद्धों में जिताया था।
लेकिन
फिर वह वृद्ध
हुआ और एक दिन
तालाब की कीचड़
में फंस गया।
बुढ़ापे ने उसे
इतना दुर्बल
कर दिया था कि
वह कीचड़ से
अपने को निकाल
न पाए।
उसने
बहुत प्रयास
किए लेकिन
कीचड़ से अपने
को न निकाल
सका सो न
निकाल सका।
राजा के
सेवकों ने भी
बहुत चेष्टा
की पर सब असफल
गया।
उस
प्रसिद्ध
हाथी की ऐसी
दुर्दशा देख
सभी दुखी हुए।
तालाब पर बड़ी
भीड़ इकट्ठी हो
गयी। वह हाथी
पूरी राजधानी
का चहेता था।
गांवभर में
उसके प्रेमी
थे बाल— वृद्ध
सभी उसे चाहते
थे। उसकी
आंखों और उसके
व्यवहार से
सदा ही
बुद्धिमानी
परिलक्षित
होती थी!
राजा
ने अनेक महावत
भेजे पर वे भी
हार गए। कोई उपाय
ही न दिखायी
देता था तब
राजा स्वयं
गया। वह भी
अपने पुराने
सेवक को इस
भांति दुख में
पड़ा देख बहुत
दुखी था। राजा
को आया देख तो
सारी राजधानी
तालाब पर
इकट्ठी हो
गयी।
फिर
राजा को
बद्धरेक के पुराने
महावत की याद
आयी। वह भी अब
वृद्ध हो गया था।
राज्य की सेवा
से निवृत्त हो
गया था और निवृत्त
होकर भगवान
बुद्ध के
उपदेशों में
डूबा रहता था।
उसके प्रति भी
राजा के मन
में बहुत सन्मान
था। सोचा शायद
वह बूढ़ा महावत
ही कुछ कर सके।
जन्म— जन्म का
जैसे इन दोनों
का साथ था—इस
हाथी का और
महावत का।
बुद्ध ने अपनी
कहानियों में
कहा भी है कि
तू इस बार ही
इस हाथी के
साथ नहीं है
पहले भी रहा
है। यहां सब
जीवन जुड़ा हुआ
है। फिर इस
जीवन तो पूरे
जीवन वह हाथी
के साथ रहा
था। हाथी उसी
के साथ बडा
हुआ था उसी के
साथ जवान हुआ
था उसी के साथ
बूढ़ा हो गया
था। हाथी को
हर हालत में
देखा था— शांति
में और युद्ध
में और हाथी
की रग— रग से परिचित
था राजा को
याद आयी शायद
वह बूढ़ा महावत
ही कुछ कर
सके।
उसे
खबर दी गयी।
वह बूढ़ा महावत
आया। उसने
अपने पुराने
अपूर्व हाथी
को कीचड़ में
फंसे देखा। वह
हंसा
खिलखिलाकर हंसा
और उसने
किनारे से
संग्राम— भेरी
बजवायी।
युद्ध के
नगाड़ों की
आवाज सुन जैसे
अचानक बूढ़ा
हाथी जवान हो
गया और कीचड़
से उठकर
किनारे पर आ
गया। वह जैसे
भूल ही गया
अपनी
वृद्धावस्था
और अपनी
कमजोरी। उसका
सोया योद्धा
जाग उठा और यह
चुनौती काम कर
गयी। फिर उसे
क्षण भी देर न
लगी।
अनेक
उपाय हार गए
थे,
लेकिन यह
संग्राम— भेरी,
ये बजते हुए
नगाड़े, उसका
सोया हुआ
शौर्य जाग
उठा। उसका
शिथिल पड़ गया
खून फिर दौड़ने
लगा। वह भूल
गया एक क्षण
को—यादें आ
गयी होंगी
पुरानी—फिर
जवान हो उठा।
क्षण
की भी देर न
लगी— सुबह से
सांझ हुई जा
रही थी सब
उपाय हार गए
थे—और वह ऐसी
मस्ती और ऐसी
सरलता और
सहजता से बाहर
आया कि जैसे न
वहां कोई कीचड़
हो और न वह कभी
फंसा ही था।
किनारे पर आकर
वह हर्षोन्माद
में ऐसे
चिंघाड़ा जैसा
कि वर्षों से लोगों
ने उसकी
चिंघाड़ सुनी
ही नहीं थी।
वह हाथी बड़ा
आत्यवान था।
वह हाथी
संकल्प का
मूर्तरूप था।
भगवान
के बहुत से
भिक्षु भी उस
बूढ़े महावत के
साथ यह देखने
तालाब के किनारे
पहुंच गए थे।
उन्होंने
सारी घटना भगवान
को आकर
सुनायी। और
जानते हैं
भगवान ने उनसे
क्या कहा?
भगवान
ने
कहा—भिक्षुओ
उस अपूर्व
हाथी से कुछ सीखो।
उसने तो कीचड़
से अपना
उद्धार कर
लिया तुम कब
तक कीचड़ में
फंसे रहोगे? और
देखते नहीं कि
मैं कब से
संग्राम— भेरी
बजा रहा हूं? भिक्षुओ
जागो और जगाओ
अपने संकल्प
को। वह हाथी
भी कर सका। वह
अति दुर्बल
बूढ़ा हाथी भी
कर सका। क्या
तुम न कर
सकोगे? मनुष्य
होकर सबल होकर
बुद्धिमान
होकर क्या तुम
न कर सकोगे? क्या तुम उस
हाथी से भी गए—
बीते हो? चुनौती
लो उस हाथी से
तुम भी
आत्यवान बनो
और एक क्षण
में ही
क्रांति घट
सकती है एक
क्षण में ही
एक पल में ही।
स्मरण आ जाए
भीतर जो सोया
है जग जाए तो न
कोई दुर्बलता
है न कोई
दीनता है। स्मरण
आ जाए तो न कोई
कीचड़ है न तुम कभी
फंसे थे ऐसे
बाहर हो
जाओगे।
भिक्षुओ अपनी शक्ति
पर श्रद्धा
चाहिए। त्वरा
चाहिए भिक्षुओ
तेजी चाहिए।
एक क्षण में
काम हो जाता
है वर्षों का
सवाल नहीं है
लेकिन सारी
शक्ति एक क्षण
में इकट्ठी लग
जाए समग्रता
से
पूर्णरूपेण।
और
बुद्ध ने फिर
कहा—और सुनते
नहीं मैं संग्राम—
भेरी कब से
बजा रहा हूं?
तभी
उन्होंने ये
गाथाएं कही
थीं।
जीवन
में जो छोटी—छोटी
बातों में
विराट के
दर्शन पा ले,
वही
बुद्धिमान
है। जो अणु
में असीम की
झलक पा ले
वहीं
बुद्धिमान
है। क्षुद्र
में जिसे क्षुद्रता
न दिखायी पड़े,
क्षुद्र
में भी उसे
देख ले जो सर्वात्मा
है, वही
बुद्धिमान
है। जीवन के
सत्य कहीं दूर
आकाश में नहीं
छिपे हैं।
जीवन के सत्य
यहीं लिखे पड़े
हैं चारों
तरफ।
पत्ते—पत्ते
पर और कण—कण पर
जीवन का वेद
लिखा है।
देखने वाली
आंख हों तो वेदों
में पढ़ने की
जरूरत ही नहीं
है, क्योंकि
महावेद
तुम्हारे
चारों तरफ
उपस्थित हुआ
है। तुम्हारे
ही जीवन की
घटनाओं में
सत्य ने
हजार—हजार
रंग—रूप लिए
हैं। किसी
अवतार के जीवन
में जाने की
जरूरत नहीं
हैं।
तुम्हारे
भीतर भी
परमात्मा
अवतरित हुआ
है।
अगर
तुम ठीक से
देखना शुरू
करो—जिसे
बुद्ध सम्यक—दृष्टि
कहते हैं, ठीक—ठीक
देखना—तो ऐसे
बूंद—बूंद
इकट्ठे
करते—करते
तुम्हारे
भीतर भी अमृत
का सागर
इकट्ठा हो
जाएगा। और
बूंद—बूंद ही
सागर भरता है।
बूंद को इनकार
मत करना, नहीं
तो सागर कभी
नहीं भरेगा।
यह सोचकर बूंद
को इनकार मत
कर देना कि
बूंद में क्या
रखा है! हम सागर
चाहते हैं, बूंद में
क्या रखा है!
जिसने बूंद को
अस्वीकारा, वह सागर से
भी वंचित रह
जाएगा, क्योंकि
सागर बनता
बूंद से है।
जीवन के
छोटे—छोटे
फूलों को
इकट्ठा करना
ही काफी नहीं
है, इन्हें
बोध के धागे
में पिरोओ कि
इनकी माला बने।
कुछ लोग
इकट्ठा भी कर
लेते हैं जीवन
के अनुभव को, लेकिन उस
अनुभव से कुछ
सीख नहीं
लेते। तो ढेर
लग जाता है
फूलों का, लेकिन
माला नहीं
बनती। जब
तुम्हारे
जीवन के बहुत
से अनुभवों को
तुम एक ही
धागे में पिरो
देते हो, जब
तुम्हारे
जीवन के बहुत
से अनुभव एक
ही दिशा में
इंगित करने
लगते हैं, तब
तुम्हारे
जीवन में
सूत्र उपलब्ध
होता है।
इसलिए
अगर हम
बुद्ध—वचनों
को सूत्र कहते
हैं,
तो उसका
कारण है। यह
अनेक अनुभवों
के भीतर छिपा
हुआ धागा है।
यह एकाध अनुभव
से निचोड़ा
नहीं गया है।
यह बहुत
अनुभवों के
फूलों को भीतर
अपने में
सम्हाले हुए
है।
और
खयाल करना, जब
माला बनती है
तो फूल दिखायी
पड़ते हैं, धागा
नहीं दिखायी
पड़ता। जो नहीं
दिखायी पड़ता
वही सम्हाले
हुए है। वह जो
अदृश्य है, उसको पकड़
लेने के कारण
इन गाथाओं को
सूत्र कहते
हैं।
फिर
माला बना लेने
से भी बहुत
कुछ नहीं
होता। दुनिया
में तीन तरह
के लोग हैं।
एक तो जो फूलों
का ढेर लगाए
जाते हैं, जो
कभी माला नहीं
बनाते। उनके
जीवन में भी
वही घटता है
जो बुद्धों के
जीवन में घटा।
बूंदें उनके
जीवन में आती
हैं, लेकिन
बूंदों में
उनको सागर
दिखायी नहीं
पड़ता। और
एक—एक बूंद
आती है, और
बूंद के कारण
वे इनकार करते
चले जाते हैं।
इसलिए सागर से
कभी मिलन नहीं
होता। दूसरे
वे हैं, जो
हर बूंद का
सत्कार करते
हैं। हर बूंद
को संगृहीत
करते हैं।
उनको अनुभव के
धागे में
जोड़ते हैं।
उनके जीवन में
बुद्धिमत्ता
पैदा होती है।
मगर
एक और इससे भी
ऊपर बोध है, जो
बुद्धिमत्ता
से भी पार है, जिसको हम
प्रज्ञा कहते
हैं। फूलों को
इकट्ठा कर लो,
ढेर लगाओ, तो भी सड़
जाएंगे। और
माला बनाओ, तो भी सड़
जाएंगे। फूल
क्षणभंगुर
हैं। इनको सम्हालने
का यह ढंग
नहीं है। इनको
बचाने का यह ढंग
नहीं है। फूल
तो समय में
खिलते हैं।
इनके भीतर से
शाश्वत को
खोजना जरूरी
है। ताकि इसके
पहले कि फूल
कुम्हला जाएं,
तुम्हारे
हाथ में ऐसा
इत्र आ जाए जो
कभी नहीं
कुम्हलाता।
फूलों
को संगृहीत
करने से कुछ
लाभ नहीं—ढेर
लगाने से तो
जरा भी लाभ
नहीं है, नुकसान
ही है, क्योंकि
जिनसे आज गंध
उठ रही है, उन्हीं
से कल दुर्गंध
उठने लगेगी।
फूल अगर इकट्ठे
किए तो
सडेंगे। यहां
हर चीज सड़ती
है।
इसलिए
बुद्धिमान
आदमी फूल
इकट्ठे नहीं
करता। इसके
पहले कि फूल
सड़ जाएं, उनकी
माला बनाता
है। लेकिन
मालाएं भी
इकट्ठी नहीं
करता, इसके
पहले कि
मालाएं सड़
जाएं, उनसे
इत्र निचोड़ता
है। इत्र
निचोड़ने का
अर्थ होता है,
असार—असार
को अलग कर
दिया, सार—सार
को सम्हाल
लिया। हजारों
फूलों से थोड़ा
सा इत्र निकलता
है। फिर फूल
कुम्हलाते
हैं, इत्र
कभी नहीं
कुम्हलाता।
फिर फूल समय
के भीतर पैदा
हुए, समय
के भीतर ही
समा जाते हैं,
इत्र
शाश्वत में
समा जाता है।
इत्र शाश्वत
है। एस धम्मो
सनंतनो।
जीवन
के छोटे—छोटे
अनुभव के फूल, इनसे
जब तुम असार
को छांट देते
हो और सार को
इकट्ठा कर
लेते हो, तो
तुम्हारे हाथ
में धर्म
उपलब्ध होता
है—शाश्वत
धर्म, सनातन
धर्म।
तुम्हारे हाथ
में जीवन का
परम नियम आ
जाता है।
का
ढेर लगाता है, बुद्धिमान
माला बनाता है,
और जिसे
बुद्धत्व की
कला आ
गयी—प्रज्ञावान—असार
को छोड देता
है, सार को
इकट्ठा कर
लेता है। दृश्य
को पकड़ता नहीं,
अदृश्य को
पकड़ लेता।
देखता, फूल
में गंध का
सूत्र क्या है,
उसी को बचा
लेता। और बहुत
कुछ है, उसका
कोई मूल्य
नहीं है।
हजारों फूल
में बूंदभर
इत्र निकलता
है, लेकिन
वही इत्र
फूलों की गंध
था। फूलों में
तो कुछ भी न था,
वही इत्र
हजारों में
फैला था तो
गंध बनी थी, उसे निचोड़
लिया। समय के
भीतर से
शाश्वत को निचोड़
लिया। यही
इत्र निर्वाण
है। यही इत्र
मुक्तिदायी
है। यही
तुम्हारे
जीवन को परम
सुगंध से भर
जाता है।
ये
जो बुद्ध की
छोटी—छोटी
कहानियां मैं
तुमसे कह रहा
हूं, इसे इस नजर
से देखना।
छोटी—छोटी
घटनाएं हैं, तुम्हारे
जीवन में भी
घटती हैं, सबके
जीवन में घटती
हैं। जीवन
घटनाओं का जोड़
है। घटनाएं ही
घटनाएं हैं, रोज घट रही
हैं। तुम भी
इन्हीं
घटनाओं के
भीतर से
गुजरते
हो—सुबह—सांझ;
दफ्तर में,
बाजार में,
घर में, खेत
में, खलिहान
में, भीड़
में, अकेले
में, यही
घटनाएं घट रही
हैं—लेकिन तुम
अभी तक इनसे
इत्र निचोड़ने
की कला नहीं
सीख पाए। या
तो तुमने
घटनाओं के ढेर
लगा लिए हैं, उनसे सिर्फ
बोझ बढ़ जाता
है। और फिर
घटनाएं सड़ जाएंगी
और दुर्गंध
देंगी। और
अतीत सड़ा हुआ
तुम्हारे
पीछे लगा रहता
है, मरा
हुआ अतीत
तुम्हारे सिर
पर सवार रहता है,
वह तुम्हें
ठीक से जीने
भी नहीं देता।
तुम जीओगे
कैसे, तुम्हारा
मरा हुआ अतीत,
जो भूत हो
गया अब, वह
तुम्हारी
छाती पर चढ़ा
हुआ है, वह
तुम्हें जीने
नहीं देता।
तो
बजाय इसके कि
तुमने अतीत से
इत्र निचोड़ा
होता, अतीत की
प्रेतात्माएं
तुम्हारे
जीवन में अड़चन
डालती हैं, उठने—बैठने
में सब तरफ से
परतंत्रता बन
जाती है।
उन्हीं
अड़चनों का नाम
संसार है।
तुम्हारा अतीत
ही तुम्हारा
संसार है। और
वही अतीत तुम्हारे
भविष्य को
उकसाता है।
मुर्दा अतीत
फिर से दोहरना
चाहता है, फिर
से पैदा होना
चाहता है, तो
जिन वासनाओं
के कारण तुम
अतीत में कुछ
घटनाओं में
गुजरे, उन्हीं
में तुम
भविष्य में भी
गुजरोगे।
तुम्हारा आने
वाला कल
करीब—करीब
तुम्हारे
बीते कल की ही
पुनरुक्ति
होगी।
फिर
जीने में कुछ
अर्थ नहीं है।
कल तो बीत चुका, उससे
कुछ पाना होता
तो पा लिया
होता, उसी
को कल फिर
दोहराओगे—न
उससे मिला कुछ,
न आगे कुछ
मिलेगा। ऐसे
खाली के खाली
आते और खाली
के खाली चले
जाते; भिक्षापात्र
तुम्हारा कभी
भरता नहीं, तुम्हारा
भिखमंगापन
कभी मिटता
नहीं।
जीवन
के वे ही
अनुभव जो तुम
बुद्ध की इन
कहानियों में
देख रहे हो, तुम्हारे
पास से गुजरते
हैं, कभी—कभी
तुम्हें भी
लगा होगा कि
ये कहानियां
कोई बहुत ऐसी
तो नहीं हैं
कि दूर आकाश
की हों, यहीं
पृथ्वी की
हैं। लेकिन
बुद्ध की कला
क्या है? वे
तत्क्षण एक छोटी
सी घटना को
पकड़ते हैं, उसमें से
इत्र निचोड़
लेते हैं। और
इत्र जब तुम
देखते हो, तब
तुम चकित हो
जाते हो।
आज
कीचड़ में फंस
गया है वह महाबलवान
हाथी। बुढ़ापे
ने उसे अति
दुर्बल कर दिया
है। उसने बहुत
प्रयास किए, लेकिन
कीचड़ से अपने
को न निकाल
सका सो न
निकाल सका।
उसकी
पीड़ा समझो। और
खयाल रखना, अगर
यह जवान होता
हाथी तो यह
कीचड से अपने
को निकाल
लेता। इसमें
एक बात और, बात
में बात छिपी
है— जब तक तुम
जवान हो, तब
तक संसार से
निकलना आसान
है। जब के हो
जाओगे, तो
कीचड़ से
निकलना
मुश्किल हो
जाएगा। आमतौर
से लोग उलटा
तर्क लिए बैठे
हैं। लोग
सोचते हैं, के जब हो
जाएंगे तब
राम—नाम जप
लेंगे, अभी
क्या जल्दी है?
के जब हो
जाएंगे, तब
संन्यास ले
लेंगे, अभी
क्या जल्दी है?
अभी तो जवान
हैं! अभी तो
जिंदगी है!
अभी तो राग—रंग
है! अभी तो भोग
लें। जब मौत
करीब आने
लगेगी और
हाथ—पैर जर्जर
होने लगेंगे
और जरा द्वार
खटखटाने
लगेगी, तब
हो जाएंगे, संन्यस्त हो
जाएंगे।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
कि आप जवान
आदमी को
संन्यास दे देते
हैं! संन्यास
तो को के लिए
है।
किसने
तुमसे कहा? तुम्हारे
मन ने कहा
होगा। अगर मन
की सुनो तो मन
तो यह कहता है
कि संन्यास
मुर्दों के
लिए है। को के
लिए भी नहीं, मन कहता है, जब अर्थी पर
चढ़ जाओ तब ले
लेना
संन्यास।
एक
स्त्री मेरे
पास आती थी।
सामाजिक
कार्यकर्त्री
थी,
बंबई में
उसका बड़ा नाम
था। वह
संन्यास लेना
चाहती थी।
उम्र उसकी थी
कोई पैंसठ साल,
मगर वह कहती
थी, अभी? स्त्रियां
तो पैंसठ साल
में भी शायद
अपने को जवान
ही समझती हैं।
स्त्रियां
तो की होतीं
ही नहीं। हो
जाएं तो भी
नहीं होतीं।
मानती नहीं।
कोई
किसी से पूछ
रहा था अमरीका
में कि स्त्री
अमरीका की
प्रेसीडेंट
क्यों नहीं हो
सकती? तो
उन्होंने कहा,
कठिनाई है,
क्योंकि
प्रेसीडेंट
को कम से कम
चालीस साल के ऊपर
होना चाहिए।
कोई स्त्री
चालीस साल के
ऊपर होती ही
नहीं।
मैं
उस वृद्धा को
कहा कि अब और
कब?
पैंसठ साल
की तू हो गयी!
उसने कहा, हां,
हो गयी, लेकिन
अभी मैं मजबूत
हूं और कमजोर
भी नहीं हूं
आप देखते नहीं?
अभी तो
पच्चीस साल
जिंदा रहूंगी
कम से कम। मैंने
कहा, आदमी
जवानी में भी
मर जाता है, आदमी बचपन
में भी मर
जाता है, तू
पैंसठ साल के
बाद भी यह
सपना सम्हाले
हुए है?
और
संयोग की बात
कि दूसरे दिन
वह मुझे मिलने
ही आ रही थी और
एक कार से
टकरा गयी। मैं
उसके लिए राह
ही देख रहा था, वह
तो नहीं आयी, उसके बेटे
की खबर आयी
अएकताल से कि
हालत बहुत खराब
है। और चौबीस
घंटे बाद वह
मर गयी। मरते
वक्त बेटे को
कह गयी कि कुछ
भी हो, मुझे
संन्यास तो
दिलवा ही देना।
मरते वक्त!
बेटा भागा हुआ
आया, कहने
लगा, मा तो
चल बसी, लेकिन
वह कह गयी है
कि गैरिक
वस्त्र पहनवा
देना, माला
गले में डलवा
देना। मैंने
कहा, तुम्हारी
मर्जी! तो
माला यह रही, ले जाओ, अब
मरे हुए आदमी
की बात को
क्यों
इनकारना, मगर
इसका कोई
मूल्य नहीं
है!
संन्यास
मरकर लिया!
लेकिन अधिकतर
लोगों का तर्क
यही है कि जब
मरने के करीब
आ जाएंगे, तब,
तब फिकर कर
लेंगे।
इस
छोटी सी बात
में यह खयाल
रखना। अगर यह
हाथी जवान
होता और कीचड़
में फंसा होता
तो सहजता से निकल
आया होता।
क्योंकि जो
ऊर्जा संसार
में काम आती
है,
वही ऊर्जा
संन्यास में
भी काम आती
है। ऊर्जा तो
वही है।
अक्सर
लोग सोचते हैं
कि जवानी में
तो बड़ी कठिनाई
होगी, क्योंकि
वासना प्रबल
होगी। माना, जवानी में
वासना प्रबल
होती है, लेकिन
वासना से
छूटने की
शक्ति भी उतनी
ही प्रबल होती
है। बुढ़ापे
में एक बड़ी
दुर्घटना घट
जाती है।
वासना से
छूटने की
शक्ति तो
निर्बल हो
जाती है और
वासना उतनी की
उतनी प्रबल
रहती है।
वासना कभी
छोटी होती
नहीं, निर्बल
होती ही नहीं।
के से के आदमी
के भीतर वासना
वैसी ही जलती
है, जैसे
जवान आदमी के
भीतर जलती है।
उसका शरीर साथ
नहीं देता, उसकी शक्ति
साथ नहीं देती,
लेकिन भीतर
वासना वैसी ही
जलती है।
वासना में कभी
बुढ़ापा नहीं
आता। वासना की
होती ही नहीं।
ऊर्जा जवान
होती है, ऊर्जा
की होती है, वासना सदा
जवान रहती है।
तो
जब ऊर्जा भी
जवान हो, तब
चाहे वासना से
बाहर निकल आओ
तो निकल आओ।
जब ऊर्जा बूढ़ी
हो जाए और
वासना तो जवान
रहेगी ही, तब
निकलना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा।
इसलिए
बुद्ध और
महावीर ने एक
महाक्रांति
इस देश में
की।
ब्राह्मणों
की संस्कृति
में के के संन्यास
की व्यवस्था
थी—पचहत्तर
साल के बाद। एक
तो पचहत्तर
साल के बाद
कोई बचता नहीं, कोई
भूल—चूक से बच
गए, तो
संन्यस्त हो
जाएंगे।
संन्यास तब
लेने की
व्यवस्था थी
जब संसार
तुम्हें खुद
ही छोड़ दे, जब
संसार खुद ही
तैयारी करने
लगे कि
तुम्हें जाकर
कबाड़खाने में
कहीं फेंक आए,
किसी अस्पताल
में डाल दें, कि किसी
वृद्धाश्रम
में भरती करवा
दें। जब किसी
कबाड़खाने में
फेंकने की
संसार की ही
इच्छा हो जाए,
जब तुम्हारे
बेटे ही सोचने
लगें कि अब
जाओ भी, अब
बहुत हो गया, अब और न सताओ,
तब संन्यास
ले लेना।
पचहत्तर साल!
सौ साल का हिसाब
बांधकर रखा
था।
सौ
साल कोई भी
कभी जीता
नहीं। उन
दिनों में भी नहीं
जीते थे लोग।
वह सिर्फ आशा
है। कभी—कभी, कभी—कभार
कोई आदमी सौ
साल जीआ है।
आज भी नहीं
जीता, उन
दिनों का तो
सवाल ही नहीं
है। उन दिनो
की जितनी
खोजबीन की गयी
है—किताबो को
छोड़ दो—जो अस्थि—पंजर
मिले हैं सारी
दुनिया पर, वह इस बात के
सबूत हैं कि
चालीस साल से
ज्यादा, पचास
साल से ज्यादा
उन दिनों आदमी
जीआ ही नहीं।
वह शतायु होने
की तो कामना
थी। आशीर्वाद
था कि सौ वर्ष
जीओ। वह कुछ
होता नहीं था।
लेकिन उस
कामना पर यह
सारा का सारा
शास्त्र
निर्मित हुआ
था। पच्चीस
साल तक ब्रह्मचर्य,
पचास साल तक
गृहस्थ, पचहत्तर
साल तक
वानप्रस्थ, फिर पचहत्तर
साल से सौ साल
तक संन्यास।
वह संन्यास
घटता नहीं था।
या कभी—कभी
घटता था, कुछ
लोग जो शतजीवी
होते थे।
इसलिए
बुद्ध और
महावीर ने तो
एक
महाक्रांति का
सूत्रपात
किया।
उन्होंने इस
पूरे गणित को
बदला।
उन्होंने कहा, संन्यास
तो जवान की
बात है। जब
ऊर्जा प्रखर
है, जब
ऊर्जा जलती है
लपट के साथ, वासना भी
तेज है, जीवन
की ऊर्जा भी
तेज है, फंसने
का डर भी है, निकलने की
शक्ति भी है, तभी निकल
जाना।
क्योंकि पीछे
शक्ति तो कम
होती जाएगी और
कीचड़ वैसी की
वैसी रहेगी।
इस
तालाब में
कीचड़ तब भी थी, जब
यह हाथी जवान
था। अब हाथी
तो का हो गया, तालाब की
कीचड़ अब भी
वैसी की वैसी
है। कीचड़ में
कोई फर्क नहीं
पड़ रहा है।
वासना की कीचड़
सदा वैसी की
वैसी रहती है।
शायद कभी
जवानी में इस
तालाब पर
स्नान करने
आया भी हो—आया
ही होगा, नहीं
तो बुढ़ापे में
क्यों आता? हम उसी
तालाब पर तो
जाते हैं, जिसमें
जवानी में भी
गए हों। जहा
जवानी में गए
हैं, वहीं
तो हम बुढ़ापे
में भी जाते हैं—आदत,
पुराने
संस्कार! इसी
तालाब पर
नहाता रहा
होगा।
हालांकि कोई
कहानी नहीं है
इसके फंसने की,
क्योंकि तब
जवान था, निकल—निकल
गया होगा। अब
का हो गया है, कीचड़ तो
वैसी की वैसी
है, लेकिन
अब निकलने की
शक्ति क्षीण
हो गयी है।
इसके
पहले कि
बुढ़ापा
तुम्हें
दीन—दुर्बल कर
जाए,
अपनी ऊर्जा
को ध्यान में
उंडेल देना।
इसके पहले कि
मौत तुम्हारी
छाती पर बैठने
लगे, तुम
समाधि को
निमंत्रण दे
देना। इसके
पहले कि संसार
तुम्हें
फेंकने लगे, तुम संन्यास
की दुनिया में
प्रवेश कर
जाना। यह
अपमानजनक है
कि संसार
तुम्हें
फेंके, यह
सम्मानजनक है
कि तुम संसार
को कहो कि
मैंने हाथ अलग
कर लिए। इसमें
बड़ा सम्मान
है।
इसीलिए
हमने
संन्यासी को
इतना सम्मान
दिया। सम्मान
का कारण क्या
है,
कोई पूछे!
कारण यही है
कि जिसको हम
मरते दम तक नहीं
छोड़ पाते, उसे
संन्यासी ने
जीते जी, जीवन
की परम शक्ति
के क्षणों में
भी छोड़ दिया।
जिसमें हम
फंसे ही रहते
हैं, उससे
संन्यासी ने
मुंह मोड़
लिया।
वासना
की कीचड़ से
तभी अलग हो
जाना, जब
तुम्हारे पास
धमनियों में
रक्त बहता हो,
हृदय में बल
हो, बुद्धि
में प्रखरता
हो। जवानी का
उपयोग कर लेना।
परमात्मा तक
जाना हो तो
जवानी का
उपयोग कर
लेना। क्योंकि
उसके मंदिर
में भी नाचते
हुए जाना पड़ता
है, उत्सव
से भरे जाना
पड़ता है। वहां
मुर्दे और लाशों
की तरह मत
पहुंचना।
स्ट्रेचर पर
पड़े हुए मत
पहुंचना।
नहीं तो वे
मंदिर के
द्वार भी तुम्हारे
लिए नहीं
खुलेंगे।
भगवान का
मंदिर कोई अस्पताल
नहीं है! वह
महोत्सव है।
जो
तुमने
जीवन—ऊर्जा
वासना की
बलिवेदी पर
चढ़ायी है, वही
वासना की वेदी
पर चढायी गयी
ऊर्जा जिस दिन
तुम
प्रार्थना की
वेदी पर चढ़ाते
हो, उसी
दिन धार्मिक
हो पाते हो।
ऊर्जा वही है,
वेदियां
बदल जाती हैं।
संसार का
देवता है, फिर
भगवान है, ऊर्जा
वही है।
इसलिए
तुम अक्सर
पाओगे कि जैसे
कोई मजनू लैला
के लिए दीवाना
होता है, वैसा
ही कोई चैतन्य
कृष्ण के लिए
दीवाना हो जाता
है। दीवानगी
वही है। जैसे
कोई शीरीं
फरहाद के लिए
पागल होती है,
वैसे ही कोई
मीरा कृष्ण के
लिए पागल हो
जाती है।
पागलपन वही
है। अगर तुम
मनोवैज्ञानिक
को पूछो—खासकर
फ्रायडियन
मनोवैज्ञानिक
को—तो वह तो
कहेगा कि यह
वासना का ही
प्रक्षेपण
है। इसमें कुछ
बहुत भेद नहीं
है। क्योंकि
मीरा कृष्ण से
वही तो बातें
कर रही है जो
आमतौर से
स्त्रियां
अपने प्रेमी
से चाहती
है—कि मैंने
सेज सजायी है,
देखो कितने
फूल सेज पर
बिछाए हैं और
तुम अभी तक
नहीं आए! यह
भाषा तो कामना
की है, वासना
की है।
सच, प्रार्थना
की भाषा भी
कामना की ही
भाषा है, सिर्फ
मंदिर का
देवता बदल गया
है।
प्रार्थना उतनी
ही प्रज्वलित
होती है, जितनी
वासना। यह वही
तेल है, जो
वासना में
जलता है और
वासना के दीए
में जलता है, यह वही तेल
है जो
प्रार्थना के
दीए में भी
जलता है।
इसलिए
अगर मीरा कहती
है कि सेज
मैंने सजायी
है,
फूल बिछाए
हैं, आंखें
बिछाए
तुम्हारे
रास्ते पर
बैठी हूं और तुम
अभी तक नहीं
आए! और मैं
तुम्हें
पुकार रही हूं
मेरे
प्राण—प्यारे,
तुम आओ! मैं
तुम्हारे लिए
नाच रही हूं।
आओ हम संग—संग
खेलें, संग—संग
नाचे! आओ हम
रास रचाएं! यह
भाषा तो वासना
की ही है। कोई
विरहिणी जैसे
अपने पति के
लिए पुकारती
हो, या
अपने प्रेमी
के लिए
पुकारती हो।
इस भाषा में
और उस भाषा
में कोई भेद
नहीं है।
परमात्मा है
भी हमारा
प्रेमी, हम
हैं उसके
प्रेमी। सत्य
को जब कोई
उतनी ही त्वरा
से पुकारता है
जितनी त्वरा
से उसने अपनी
कामना के
विषयों को
पुकारा था, तभी सत्य तक
पुकार
पहुंचती है।
तुम्हारी
प्रार्थना
अगर तुम्हारी
वासना से कमजोर
है,
तो कभी सफल
नहीं होगी।
तुम्हारी
प्रार्थना ऐसी
होनी चाहिए कि
तुम्हारी
सारी वासनाओं
की जीवन—ऊर्जा
उसमें
प्रविष्ट हो
जाए। सारी
वासनाएं
इकट्ठी होकर
जब
प्रार्थनारत
होती हैं, तभी
कोई पहुंचता
है।
यह
का हाथी फंसा
बड़ा कीचड़ में।
कीचड़
तुम्हारे भी
चारों तरफ है।
तुम कीचड़ के
ही भरे तालाब
में बार—बार
स्नान करने
जाते हो। आशा
यही रखते हो
कि शायद कीचड़
में स्नान
करने से
स्वच्छ हो
जाओगे। कीचड़
में स्नान करने
से कोई स्वच्छ
नहीं होता। और
हाथी तो बड़े आदमियों
जैसे ही नासमझ
होते हैं।
शायद इसीलिए आदमी
हाथियों को
समझदार भी
कहता है, क्योंकि
दोनों की
समझदारी
मिलती—जुलती
होती है, एक
सी होती है।
समझदार कहो या
नासमझ, मगर
दोनों में कुछ
बात एक सी
होती है।
हाथी
को कभी नहाते
देखा! जब वह
नहा लेता है
तालाब में और
बाहर निकलता
है तो अपनी
सूंड से धूल को
अपने ऊपर
फेंककर घर आ
जाता है। बड़ा
आदमी जैसा है।
नहा भी लिए
किसी भूल—चूक
से,
तो उनका
चित्त नहीं
मानता। बाहर
निकलता है तालाब
से, सूंड
में भर लेता
है धूल, अपने
सारे शरीर पर
फेंक लेता है।
फिर हो गए जैसे
के तैसे।
यही
तो तुम मंदिर
में जाकर करते
हो। किसी तरह प्रार्थना
कर भी ली, तो
बाहर निकल भी
नहीं पाते कि
धूल फिर
फेंकने लगते
हो। अक्सर तो
ऐसा होता है
कि प्रार्थना
कर रहे होते
हो, तभी
धूल फेंकने लगते
हो। मंदिर में
हाथ जोड़े खड़े
थे, परमात्मा
की तरफ आंखें
उठायी थीं, एक सुंदर
स्त्री आ गयी,
भूल गए
परमात्मा—वरमात्मा
को! प्रार्थना
तो कहते रहे
परमात्मा की,
लेकिन मन
किसी और ही
बात से भर
गया। और अक्सर
ऐसा हो जाएगा
कि इस स्त्री
की मौजूदगी के
कारण तुम और
जोर—जोर से
प्रार्थना
करने लगोगे, और
हिलने—डुलने
लगोगे—अब इसको
प्रभावित भी
करना है।
परमात्मा तो
प्रभावित हों
या न हों, किसको
पता है! मगर यह
स्त्री को कम
से कम खयाल आ जाए
कि बड़े
धार्मिक हैं,
सत्पुरुष
हैं, संत
हैं। कीचड़
वहीं डाल लेते
हैं हम। हमारी
प्रार्थना
में ही कहीं
वासना आ जाती
है।
हम
प्रार्थना भी
करते हैं तो
कुछ मांगते
हैं परमात्मा
से। परमात्मा
को छोड्कर हम
सब मांगते
हैं—धन मिल
जाए पद मिल
जाए,
प्रतिष्ठा
मिल जाए, कुछ
मिल जाए कि
लाटरी का टिकट
लग जाए। हम
परमात्मा से
क्षुद्र
मांगते हैं, व्यर्थ
मांगते हैं, असार मांगते
हैं।
परमात्मा से
तो सार वही
मांगता है जो
परमात्मा के
सिवाय और कुछ
भी नहीं
मांगता। जो
कहता है कि सब
मेरा खो जाए, लेकिन मैं
जान लूं कि
तुम कौन हो! सब
मेरा मिट जाए,
दाव पर लग
जाए, लेकिन
एक पहचान की
किरण उतर आए, एक दफा झलक
मिल जाए कि
क्या है यह
जीवन! मैं कौन
हूं! और यह
क्या है! इस
रहस्य का
पर्दा उठ जाए।
उस
के हाथी ने
बड़े प्रयास
किए लेकिन
कीचड़ से अपने
को न निकाल
सका सो न
निकाल सका।
राजा के सेवकों
ने भी बहुत
चेष्टा की, सब
असफल हुआ।
महावत भेजे
गए। नए महावत
होंगे। हाथी
तो बूढ़ा था, महावत नए
होंगे।
उन्होंने सब नयी—नयी
विधिया उपयोग
में लायी
होंगी, लेकिन
उस हाथी से
उनका कोई
संपर्क नहीं
था, पहचान
न थी। उस हाथी
का उन्हें कोई
अनुभव न था।
उस हाथी के
भीतर की
जीवन—ऊर्जा
किस ढंग से काम
करती है, इसका
उन्हें पता
नहीं था।
इसलिए
अक्सर ऐसा हो
जाता है, अगर
तुम ऐसे आदमी
से सलाह लिए
जिसे जीवन का
ठीक—ठीक अनुभव
न हो, ऐसे
आदमी से सलाह
लिए जो
तुम्हारे
जीवन के अनुभव
से परिचित न
हो, तो भूल
हो जाएगी, तो
चूक हो जाएगी।
थोड़ी
तो दया करो!
थोड़ी तो
मनुष्यता
दिखलाओ! आदमी
वैसे ही नरक
में पड़ा है।
और कहा नरक है!
और इससे बदतर
क्या नरक
होगा! और आप आ
गए कि कहते
हैं कि अगर
नहीं निकले
इससे तो और बड़े
नरक में भेज
दिए जाओगे।
इसी से निकलने
का उपाय नहीं
सूझ रहा है और
तुम और बड़े
नरक में भेजने
का इंतजाम कर
रहे हो!
लोग
सोचते हैं, शायद
भय से लोगों
के जीवन बदले
जा सकें! उन नए
महावतो ने भय
दिया होगा।
सताया होगा। यही
तो महावत
जानते हैं।
मारे होंगे
बरछे, उकसाया
होगा कि शायद
भय में, पीड़ा
में, निकल
आए बाहर।
लेकिन पीड़ा से
कोई बाहर नहीं
निकलता। पीड़ा
मुक्तिदायी
नहीं है। पीड़ा
तो हमने वैसे
ही बहुत झेल
ली! तुम क्या
सोचते हो, उस
के महाबलवान
हाथी को, जिसका
सुंदर अतीत था,
कीचड़ में
फंसे देखकर
पीड़ा नहीं हो
रही होगी! वह
मरा जा रहा
होगा। वह गड़ा
जा रहा होगा।
वह प्रार्थना
कर रहा होगा
कि हे प्रभु, पृथ्वी फट
जाए तो मैं
इसमें समा
जाऊं, मेरी
मौत हो जाए, यह दिन
देखने को बदा
था! कि इस
साधारण सी
तलैया की कीचड़
में उलझ
जाऊंगा और
निकल न
सकूंगा! यह
कमजोरी! यह
दुर्बलता! यह
दिन देखने को
बदा था! और
पीड़ा क्या
होगी? तुम्हारे
बरछे और क्या
चुभेंगे? उसका
सारा अहंकार
चुभा पड़ा है, उसकी सारी
अस्मिता चुभी
पड़ी है, और
तुम उसे
मारोगे, पीटोगे!
या
शायद महावतो
ने प्रलोभन
दिया हो।
सुंदर—सुंदर
भोजन सामने
रखे हों कि शायद
भोजन को देखकर
बाहर निकल आए।
लेकिन जो कीचड़
में फंसा है, वह
भोजन को देखकर
भी बाहर निकल
नहीं सकता।
लोभ
और भय काम न
करेंगे। और
यही दो बातें
काम में लायी
जाती रही
हैं—स्वर्ग का
लोभ,
नरक का भय।
सदियां बीत
गयी हैं, तुम्हारे
पंडित—पुरोहित
तुम्हारे
किनारे खड़े हैं
तालाब के और
चिल्ला रहे
हैं कि अगर
कीचड़ में
ज्यादा देर
रहे तो नरक; अगर जल्दी
निकल आओ तो
स्वर्ग, अगर
अभी निकल आओ
तो अच्छा
इंतजाम कर
देंगे स्वर्ग
में। मगर न
लोभ का कोई
परिणाम होता
है, न भय का कोई
परिणाम होता
है। और
सुनते—सुनते
तुम इन बातों
के आदी हो गए
हो। अब न
तुम्हें
स्वर्ग की
चिंता है, न
तुम्हें नर्क
का कोई भय है।
अब तुम कहते
हो, जब
होगा तब होगा,
अब हम जानते
हैं कि हमसे
तो निकलते
नहीं बनता इस
कीचड़ से, तुम्हारे
भय और
तुम्हारे लोभ
तुम समझो!
लेकिन
पुराना महावत
आया। उसने कुछ
और किया। उसने
बड़ी अदभुत बात
की। यह छोटी
सी घटना है, मैं
चाहता हूं
ताकि तुम समझ
सको कि
छोटी—छोटी घटना
से खूब निचोड़ा
जा सकता है।
राजा
ने पुराने
महावत को
बुलाया। सोचा
शायद वही काम
आ सके।
पुराना
महावत वैसा ही
वृद्ध हो गया
है जैसा हाथी।
दोनों साथ—साथ
बड़े हुए, साथ—साथ
के हो गए हैं।
दोनों के जीवन
का संग—साथ का
अनुभव है।
एक—दूसरे से
पहचान है।
एक—दूसरे को
जानते हैं।
एक—दूसरे से
बहुत गहरी
मैत्री है।
एक—दूसरे की
चेतना से
संबंध है।
जानता है बूढ़ा
महावत कि इस
हाथी पर कौन
सी बात काम
करेगी! इसने
देखा है उसको
युद्धों के मैदानों
में! इसने कई
बार वे क्षण
भी देखे होंगे
जब हाथी कमजोर
पड़ा जाता था, लहूलुहान हो
गया था, और
बजा नगाड़ा और
हाथी भूल गया
लहूलुहान
होना और फिर
दौड़ पड़ा, फिर
जूझ गया! इसे
याद होंगे वे
दिन। यह जानता
है इस हाथी को
कि एक ही बात
इसको बाहर
निकाल सकती है
कि इसका
योद्धा जाग
जाए, इसका
संकल्प
प्रज्वलित हो
जाए। एक ही
बात इसे बाहर
ला सकती है कि
यह भूल जाए कि
मैं यह
जीर्ण—जर्जर
देह हूं इसे
याद आ जाए कि
मैं आत्मवान
हूं।
और
यह बूढ़ा महावत
जब से अवकाश
प्राप्त हुआ, राजा
की नौकरी से
छूटा, तब
से बुद्ध के
सत्संग में
रहा था, वह
सत्संग भी
शायद उसे यह
बोध दे गया हो।
यह कहानी जुड़ी
है। शायद बूढ़े
महावत ने
बुद्ध से सीखा
हो और फिर
बुद्ध ने बूढ़े
महावत को हाथ में
लेकर अपने और
भिक्षुओं को
भी जगाने की
कोशिश की।
बूढ़ा महावत
बुद्ध के पास
जाता है, सुनता
है, बैठता
है। उसे शायद
याद आया हो, बुद्ध किस
तरह जगाते
हैं! कीचड़ में
ही तो फंसे
हैं लोग! किस
तरह पुकारते
हैं! किस तरह
बजाते हैं
नगाड़े युद्ध
के! किस तरह
फुसलाते हैं तुम्हारे
भीतर की आत्मा
को! किस तरह
तुम्हें स्मरण
दिलाते हैं कि
तुम कौन हो? अमृतस्य
पुत्र:! कि तुम
अमृत के पुत्र,
तुम मृत्यु
की कीचड़ में
दबे पड़े हो!
पुकारते हैं
कि देख तू कौन
है! भगवान
स्वयं तू है, और इस छोटी
सी बात से
नहीं छूट पा
रहा है!
इस
भेद को समझना।
बुद्ध न तो भय
देते हैं, न
लोभ देते हैं।
बुद्ध तो
सिर्फ
तुम्हें स्मृति
देते हैं।
इसलिए बुद्ध
की भाषा में
सबसे महत्वपूर्ण
जो शब्द है, वह है
सम्यक—स्मृति।
तुम्हें
स्मरण आ जाए
कि तुम कौन
हो।
न
तुम जवान हो, न
तुम के हो; न
तुम दीन हो, न दरिद्र हो,
न अमीर हो, न तुम गोरे
हो, न काले
हो, तुम
निराकार, निर्गुण।
इस
बूढ़े महावत ने
शायद बुद्ध से
ही यह बात सीखी
होगी—निश्चित
बुद्ध से ही
सीखी होगी। इस
हाथी को भी
जानता था, फिर
बुद्ध की चर्चाओं
में सूत्र पकड़
आ गया होगा।
आया का महावत,
उसने अपने
पुराने
अपूर्व हाथी
को कीचड़ में
फंसे देखा।
ऐसी दुर्दशा
उसने कभी देखी
नहीं थी। सोचा
भी नहीं था, सपने में
नहीं सोचा था,
कि यह
अपूर्व
शक्तिशाली
हाथी इतना
दुर्बल हो जाएगा
कि कीचड़ से न
निकल सके—कीचड़
से न निकल सके!
जो किसी भी
युद्ध—व्यूह
से बाहर निकल
आया था, उसे
एक दिन कीचड़
के साथ मात
खानी होगी!
वह
हंसा। क्यों
हंसा? हंसा
होगा देखकर
जगत की
स्थिति। ऐसे
सबल दुर्बल हो
जाते हैं! ऐसे
धनवान दरिद्र
हो जाते हैं! ऐसे
सम्राट
भिखारी हो
जाते हैं! ऐसे
जवान थे, अर्थियों
पर लद जाते
हैं! हंसा
देखकर यह भी
कि यह भूल
कैसे गया? अपना
स्मरण इसे
नहीं रहा कि
मैं कौन हूं!
कैसे यह
विस्मृति हुई?
बड़े
युद्धों का
विजेता, हाथियों
में सम्राटों
जैसा सम्राट,
यह
हस्तिराज, इसे
भूल कैसे हो
गयी? यह आज
कीचड़ से नहीं
निकल पा रहा
है! इसे अपनी
स्मृति बिलकुल
ही चली गयी!
इसलिए हंसा
होगा।
और
उसने किनारे
से संग्राम—
भेरी बजवायी।
बुद्ध के पास
यही सीखा
होगा।
युद्ध—बाजे
बजवाए। जानता
था इस हाथी को
कि शायद वह
संगीत सुनकर
इसे याद आ
जाए।
इसीलिए
तो सत्संग का
मूल्य है।
सत्संग का अर्थ
होता है, शायद
किसी
बुद्धपुरुष
के पास बैठकर
तुम्हें अपने
बुद्धत्व की
याद आ जाए। शायद
किसी सदगुरु
के पास
बैठे—बैठे
तुम्हें याद आ
जाए कि जो इस
व्यक्ति के
भीतर है, वही
मेरे भीतर भी
तो है। मैं
नाहक परेशान
हो रहा। मैं
नाहक चिंतित,
उदास हो
रहा। मैं नाहक
हताश हो रहा।
शायद किसी
खिले हुए फूल
को देखकर बंद
कली को भी
खिलने
का
सपना पैदा हो
जाए। शायद
किसी जले दीए
को देखकर बुझे
दीए को भी
स्मरण आ जाए
कि मैं भी जल
सकता हूं—तेल
है,
बाती है, सब है, कमी
क्या है?
इस
के महावत ने
बड़ी कला की।
बड़ा होशियार
रहा होगा। बड़ा
बुद्धिमान
रहा होगा।
बैड—बाजे बजवा
दिए। उन बैंड—बाजों
की चोट—हाथी
भूल ही गया
होगा, कैसी
कीचड़! कैसा
तालाब! एक
क्षण को जैसे
सारी बात
विस्मृत हो
गयी। भविष्य,
अतीत, सब
विस्मृत हो
गया। उन
बैंड—बाजों की
चोट में वर्तमान
में आ गया
होगा। देह को
भूल गया, जाग
गयी भीतर की
स्मृति कि मैं
कौन हूं —महा
बलशाली हो
गया।
युद्ध
के नगाड़ों की
आवाज सुन जैसे
अचानक का हाथी
फिर जवान हो
गया और कीचड़
से उठकर
किनारे पर आ गया।
बुद्ध
का बड़ा
प्रसिद्ध वचन
है,
तुम वही हो
जाते हो जो
तुम सोचते हो
कि तुम हो! पुरानी
बाइबिल कहती
है, एज ए
मैन थिकेथ, जैसा आदमी
सोचता वैसा ही
हो जाता।
तुम्हारा विचार
ही तुम्हारी
नियति है।
तुम्हारा
विचार ही तुम्हारा
भाग्य—निर्माता
है। सोचता था
कमजोर हो गया,
का हो गया, तो का था। अब
इस नगाड़े की
आवाज में भूल
गया और याद आ
गयी पुरानी और
सोचा कि मैं
महा बलशाली, मैं
हस्तिराज, मैंने
इतने युद्ध
देखे, इतने
युद्ध जीता, भूल ही गया, कीचड़
इत्यादि कैसे
छूट गयी पता
ही नहीं चला, छूटने की
चेष्टा भी
नहीं करनी
पड़ी। उस स्मरण
में ही मुक्ति
हो गयी।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं,
सम्यक—स्मृति
मुक्ति है।
तुम्हें याद आ
जाए कि तुम
कौन हो। तुम
परमात्म—स्वरूप
हो। अहं ब्रह्मास्मि,
जैसा
उपनिषद कहते
हैं कि मैं
ब्रह्म हूं; कि
अलहिल्लाज
मैसूर कहता है,
अनलहक, कि
मैं सत्य हूं;
कि महावीर
कहते हैं, अम्मा
सो परमप्पा, जो आत्मा है
वह परमात्मा
है।
वह
उठकर किनारे आ
गया। इतनी सरल
बात,
ऐसे चला आया
जैसे कीचड़
इत्यादि थी ही
नहीं। वह जैसे
भूल गया अपनी
वृद्धावस्था,
अपनी
कमजोरी। उसका
सोया योद्धा
जाग उठा और यह
चुनौती काम कर
गयी।
चुनौती
काम करती है।
बुद्धपुरुष
तुम्हें चुनौती
देते हैं।
बुद्धपुरुष
तुम्हें
भयभीत नहीं
करते। जो
भयभीत करे, समझ
लेना वह
बुद्धपुरुष
नहीं है। जो
तुम्हें डराए,
धमकाए, वह
तो
राजनीतिज्ञ
है। जो कहे कि
नरक भेज देंगे,
वह तो बड़ी
राजनीति चल
रहा है। जो
कहता है स्वर्ग
में बिठा
देंगे, वह
तो बड़ी
राजनीति चल
रहा है। लोभ
और भय तो राजनैतिक
दाव—पेंच हैं।
बुद्धपुरुष
चुनौती देते
हैं।
बुद्धपुरुष
पुकारते, बुद्धपुरुष
संगीत पैदा
करते
तुम्हारे
चारों तरफ, परलोक का
संगीत, कि
उस संगीत की
चोट में
तुम्हारे
भीतर कुछ जग
जाए।
नगाड़े, बैड—बाजे
काम कर गए।
हाथी उस भाषा
को समझ गया। समझा
उसने युद्ध
में हूं। क्षण
भी देर न लगी। ऐसा
भी नहीं कि
सोचा—विचारा
कि अब क्या
करूं, क्या
न करूं? अब
युद्ध में
कहीं
सोच—विचार का
मौका होता है! युद्ध
में तो वही
जीतता है जो
सोच—विचार में
नहीं पड़ता, जो सीधा जूझ
जाता है।
युद्ध में तो
वही जीतता है
जो क्षण को भी
सोच—विचार में
नहीं खोता, क्योंकि
क्षण गया कि
तुम पिछड़ गए, दूसरा हाथ
मार लेगा।
वहां तो
प्रतिपल जीना
पड़ता है।
पुराना
योद्धा था, पुराना
सिपाही था वह
हाथी, उसे
क्षण देर न
लगी।
वह
तो ऐसी मस्ती
और ऐसी सरलता
और सहजता से
बाहर आया जैसे
कि वहां कोई
कीचड़ थी ही
नहीं, और जैसे
कि वह कभी
फंसा ही न था।
जब
बुद्ध को
ज्ञान हुआ और
किसी ने पूछा
कि आपको क्या
मिला? तो वह
हंसे, उन्होंने
कहा, मिला
कुछ भी नहीं, क्योंकि
मैंने कभी कुछ
खोया ही नहीं
था। मिला कुछ
भी नहीं, क्योंकि
जो मेरे पास
था बस उसका
मुझे पता चला;
मिला कुछ भी
नहीं।
वह
हाथी ऐसे बाहर
आ गया जैसे
फंसा ही न हो, जैसे
वहा कोई कीचड़
हो ही न, ऐसी
सरलता और
सहजता से।
ऐसी
सरलता और
सहजता से ही
मिलती है
समाधि। संसार
से आदमी ऐसे
ही निकल आता
है। सिर्फ
स्मरण आ जाए, आत्म—स्मरण
आ जाए।
इसलिए
मैं भी
तुम्हें
संसार छोड़ने
को नहीं कहता, क्योंकि
मैं कहता हूं
पकड़ ही नहीं
सकते, पहली
तो बात, छोड़ोगे
कैसे? छोड़ना
तो नंबर दो
होगा, पहले
तो पकड़ना होना
चाहिए। इसलिए
मैं तुमसे भागने
को भी नहीं
कहता। भागोगे
कहां? जागने
को कहता हूं।
यह हाथी जाग
गया। यह
बैंड—बाजे की
चुनौती इसे
जगा गयी। बस
जागो।
आकर
किनारे पर ऐसा
चिंघाड़ा जैसा
वर्षों से लोगों
ने उसकी
चिंघाड न सुनी
थी। वे पुराने
युद्ध फिर
जैसे जीवंत हो
उठे।
चेतना
तो कभी न बूढ़ी
होती, न
दुर्बल होती।
चेतना तो न
कभी जन्मती और
न मरती। चेतना
तो शाश्वत है।
और चेतना तो
सदा एक जैसी
है। एकरस है।
वह
हाथी बड़ा
आत्मवान था।
इतने जल्दी
याद आ गयी।
लोग भी इतने
आत्मवान नहीं
हैं। बड़ा
संकल्पवान
था। इतनी
चुनौती में
संकल्प जग
गया! घोषणा हो
गयी। बड़े
जल्दी जागा।
भगवान
के भिक्षुओं
ने जब यह बात
भगवान को कही, तो
उन्होंने कहा
: भिक्षुओ, उस
अपूर्व हाथी
से कुछ सीखो।
उसने तो कीचड़
से अपना
उद्धार कर
लिया, तुम
कब तक कीचड़
में पडे रहोगे?
और देखते
नहीं कि मैं
कब से
संग्राम— भेरी
बजा रहा हूं!
भिक्षुओं, जागो,
और जगाओ
अपने संकल्प
को। वह हाथी
भी कर सका, क्या
तुम न कर सकोगे?
क्या तुम उस
हाथी से भी
गए—बीते हो? चुनौती तो
लो उस हाथी से!
कुछ तो शरमाओ,
कुछ तो
संकोच करो, कुछ तो लजाओ,
तुम भी
आत्मवान बनो!
और एक क्षण
में ही क्रांति
घट सकती है।
एक
क्षण में
क्रांति घट
सकती है, ऐसा
महासूत्र
बुद्ध ने दिया
है। जन्म—जन्म
का अंधेरा एक
क्षण में कट
सकता है। जिस
घर में रात ही
रात रही है
जन्मों से, सदियों से
जहा अंधेरा ही
अंधेरा रहा है,
एक दीया जले,
छोटा सा
दीया जले, अंधेरा
कट जाता है।
अंधेरा यह
थोड़े ही कहता
है कि मैं
सदियों
पुराना हूं
अभी नए—नए दीए
से कैसे
कटूंगा? अंधेरे
की कोई उम्र
थोड़े ही होती
है। हजार साल
पुराना
अंधेरा हो कि
एक रात पुराना
अंधेरा हो, कुछ फर्क
नहीं पड़ता, जब दीया
जलता है तो
दोनों मिट
जाते हैं।
अंधेरे की कोई
शक्ति होती
नहीं, अंधेरा
नपुंसक है।
संसार नपुंसक
है।
जिस
दिन आत्मा का
दीया जलता है, कोई
शक्ति नहीं
रोकती। इसलिए
बुद्ध ने यह
नहीं कहा है
कि
क्रमिक—विकास
होता है; क्रमिक
होता है इसलिए
कि तुम
आत्मवान नहीं
हो। तुम
हिम्मत ही
नहीं लेते, तो
सीढ़ी—सीढ़ी चढ़ी,
इंच—इंच
सरको। जिनमें
हिम्मत है, वे छलांग
लगा जाते हैं।
एक क्षण में
घट जाता है।
अक्रमिक। एक
क्षण में, बिना
समय को खोए
घटना घट सकती
है, तुम्हारी
त्वरा पर
निर्भर है।
इसलिए
बुद्ध ने
कहा—एक क्षण
में क्रांति
घट सकती है।
त्वरा चाहिए, भिक्षुओ।
तीव्रता
चाहिए। ऐसी
तीव्रता कि तुम्हारा
संपूर्ण
प्राण—मन
उसमें संलग्न
हो जाए। अपनी
शक्ति पर
श्रद्धा
चाहिए, भिक्षुओ।
बुद्ध
कहते हैं, अपनी
शक्ति पर श्रद्धा।
बुद्ध यह भी
नहीं कहते कि
बुद्ध की शक्ति
पर श्रद्धा।
क्योंकि
बुद्ध की
शक्ति पर श्रद्धा
तो फिर किसी
तरह का
परालंबन बन
जाएगी। फिर
तुम परतंत्र
हो जाओगे। और
परतंत्रता
संसार है।
इसलिए बुद्ध
कहते हैं, अप्प
दीपो भव! अपने
दीए खुद बनो।
अपने पर श्रद्धा
करो। बुद्ध
कहते हैं, मैं
तुम्हारी
श्रद्धा
तुममें जगा
दूं मेरा काम
पूरा हो गया।
मैं फिर बीच
से हट जाऊं।
और देखो मैं
कब से
संग्राम— भेरी
बजा रहा हूं
सुनो। तभी
उन्होंने ये
गाथाएं कही
थीं—
अप्पमादरता
होथ स—चित्तमनुरक्खथ।
दुग्गा
उद्धरथत्तानं
पंके सत्तोव
कुंचरो ।।
सचे
लभेथ निपकं
सिद्धिं चरं
साधुविहारिधीरं
।
अभिभुय्य
सब्बानि
परिस्सयानि
चरेय्य तेनत्तमनो
सतीमा ।।
नौ
चे लभथ निपकं
सहांय चरं
साधुविहारिधीरं।
राजाव
रट्ठं विजिंत
पहाय एको चरे
मातंगरज्जेव
नागो ।।
एकस्स
चरियं सेय्यो
नित्थ बाले
सहायता।
एको
चरे न च
पापानि
कयिरा।
अप्पोस्सुक्को
मातंगरज्जेव
नागो ।।
सुखं
याव जरा सीलं
सुखा सद्धा
पतिट्ठिता।
सुखो
पज्जाय पटिलाभो
पापानं अकरणं
सुखं ।।
'अप्रमाद
में रत होओ।'
जागो।
अप्रमाद यानी
सोओ मत। बहुत
सो लिए!
'अप्रमाद में
रत होओ, अपने
चित्त की
रक्षा करो।'
अपने
चैतन्य की रक्षा
करो। जड़ मत
बनो। चैतन्य
को स्मरण रखो।
चैतन्य को
सुलगाओ।
चैतन्य को
निखारो।
जिस—जिस भांति
ज्यादा चेतना
पैदा हो, उस—उस
भांति सब उपाय
करो। जिस
भांति
मूर्च्छा होती
हो, वे
उपाय छोड़ो।
जिन कारणों से
जड़ता पैदा
होती हो, वे
कारण छोड़ो।
'अप्रमाद में
रत होओ, अपने
चित्त की
रक्षा करो, दलदल में
फंसे हाथी की
तरह तुम भी
अपना उद्धार
कर सकोगे।'
'यदि साथ
चलने वाला कोई
बुद्धिमान
अनुभवी मिल जाए,
तो सभी विध्नों
को दूर कर उसी
के साथ
स्मृतिवान और
प्रसन्न होकर
धीरपुरुष
चले।'
बुद्ध
कहते हैं, अगर
कोई सदगुरु न
मिले, तो
अकेला ही
विचरण करे।
असदगुरु से तो
बचे। उससे तो
अकेला ठीक। कोई
मित्र मिल जाए
तो ठीक, कोई
कल्याण—मित्र—बुद्ध
ने जो ठीक
उपयोग किया है
शब्द गुरु के
लिए, वह है
कल्याण—मित्र।
दोनों
शब्द बड़े
प्यारे हैं।
एक तो मित्र
वे कहते हैं, क्योंकि
गुरु मित्र
है। उससे बड़ा
और कौन मित्र!
और वह
कल्याण—मित्र
है। मित्र तो
और भी होते
हैं बहुत, लेकिन
अक्सर
अकल्याण के
मित्र होते
हैं। शराब
पीने जा रहे
हो तो बहुत
मित्र बन जाते
हैं। मांस खा
रहे हो तो
बहुत मित्र आ
जाते हैं।
धन—पैसा है तो
बहुत साथी हो
जाते हैं।
धन—पैसा गया तो
साथी भी गए।
अकल्याण में
तो बहुत मित्र
हो जाते
हैं—जुआघर की
दोस्ती। कल्याण—मित्र,
जो
तुम्हारी
शांति में, तुम्हारी
समाधि में, तुम्हारे
ध्यान में
मित्रता
बांधे। जिसके
सहारे तुम आगे
बढ़ने लगो। जो
तुम्हें धीरे—
धीरे
तुम्हारे पैक
से खींचे।
वह
जो बूढ़ा महावत
है,
वह
कल्याण—मित्र।
उसने आकर बैंड—बाजा
बजा दिया, हाथी
जाग पड़ा। उसने
कुछ भी तो
नहीं किया।
हाथी को न
मारा, न
पीटा, न
हाथी को
पुकारा, न
कुछ किया, सिर्फ
एक स्थिति
पैदा कर दी।
कल्याण—मित्र
का अर्थ होता
है, जो
तुम्हारे लिए
एक परिस्थिति
पैदा कर दे
जिसमें तुम
जाग सको।’नहीं
तो अकेला
विचरण करे।'
'अकेला रहना
श्रेष्ठ है, मूर्ख के
साथ मित्रता
अच्छी नहीं।
अकेला विचरे,
पाप न करे।
हस्तिराज की
तरह अनुत्सुक
होकर रहे।'
या
तो मित्रता
करना तो
कल्याण—मित्रता
करना, या
मित्रता करना
ही मत, फिर
एकल रहे, अकेला
रहे, फिर
ऐसे ही चले
जैसे अकेला
हाथी विचरता
है। और अनुत्सुक
रहे। जैसे
हाथी रास्ते
पर चलता है, कुत्ते
भौंकते हैं, फिकर नहीं
करता, देखता
ही नहीं लौटकर,
अपना चलता
चला जाता है।
'फिर अकेला
ही विचरे।'
सिर्फ
एक ही खयाल
रहे अकेले
में—क्योंकि
अकेले में पाप
घेरेगा—इसलिए
पाप न करे। बस
इतना ही स्मरण
रखे कि पाप
नहीं करना है।
किसी को हानि
पहुंचे, ऐसा
कुछ भी नहीं
करना है। अपना
लाभ भी होता
हो दूसरे को
हानि पहुंचने
से, तो भी
दूसरे को हानि
नहीं
पहुंचानी, अपना
लाभ भी छोड़
देना है। बस, दूसरे को
हानि न पहुंचे,
ऐसे
कृत्यों से
बचता रहे और
अकेला विचरता
रहे, तो
धीरे— धीरे
यात्रा हो
जाएगी। अगर
संगी—साथी मिल
जाए कोई, कल्याण—साथी,
तो काफी
अच्छा है।
जल्दी यात्रा
होगी। सुगम हो
जाएगा मार्ग।
'वृद्धावस्था
तक शील का
पालन सुख है।
स्थिर श्रद्धा
का होना सुख
है। ज्ञान का
लाभ होना सुख है।
पापों का न
करना सुख है।’
और
बुद्ध ने कहा, सुख
एक ही है, श्रद्धा
का होना सुख
है। स्वयं में
श्रद्धा का
होना सुख है।
सोचो, वह
का हाथी जब
बाहर निकला
होगा कीचड़ से
तो कैसे
महासुख को न
उपलब्ध हो गया
होगा! कीचड़ से
निकलने का ही
सुख नहीं था
वह, उससे
भी बड़ी बात
घटी थी—शायद
भीड़ में किसी
को भी न
दिखायी पड़ी हो;
भीड़ ने तो
यही देखा होगा
कि हाथी कितना
मस्त, कीचड़
से निकल आया
इसलिए मस्त हो
रहा है।
बुद्ध
कहते हैं, अगर
गौर से देखो
तो कीचड़ से
निकलना तो गौण
था, हाथी
को अपने पर
श्रद्धा आ गयी,
इसलिए सुखी
हो रहा है।
उसे बात
दिखायी पड़ गयी
कि अरे, मेरा
ही विचार था
जो मुझे कमजोर
बनाए था। मैं बूढ़ा
मान रहा था तो
का था और
बैंड—बाजे में
मैं जवान हो
गया तो जवान
हो गया। तो
मेरा विचार ही
मेरी नियति
है। मैं जो
चाहूं, वही
हो सकता हूं।
मैं जो हो गया
हूं मेरे ही
विचारने से हो
गया हूं। तो
मेरा विचार
मेरा बल है।
श्रद्धा लौट
आयी। स्वयं पर
श्रद्धा सुख
है।
'शील का पालन
सुख है।'
शील
का अर्थ होता
है,
दूसरे को
सुख मिले, ऐसा
व्यवहार
करना। पाप और
शील में वही
फर्क है जो
नकारात्मक
नीति और
विधायक नीति
में होता है।
पाप का अर्थ
होता है, दूसरे
को दुख न
मिले। यह
नकारात्मक, यह पहला कदम,
कि मुझसे
दूसरे को दुख
न मिले। इतना
सध जाए तो फिर
दूसरा कदम शील
है, कि
मुझसे दूसरे
को सुख मिले।
जब
तुम दूसरों को
दुख न दोगे, तो
दूसरे
तुम्हें दुख न
देंगे। यह आधी
यात्रा है। जब
तुम दूसरों को
सुख देने
लगोगे, सब
तरफ से सुख की
धाराएं
तुम्हारे ऊपर
बरसने लगेंगी,
महासुख
होगा।
तो
पाप से बचे, शील
में संलग्न हो,
श्रद्धा को
जगाए, वही
श्रद्धा अंत
में ज्ञान बन
जाती है। यही
महासुख है।
बुद्ध कहते
हैं, स्वयं
में
प्रतिष्ठित
हो जाना सुख
है।
सुखं
याव जरा सीलं
सुखा सद्धा
पतिट्ठिता।
स्वयं
में
प्रतिष्ठित
हो जाना।
सुखो
पज्जाय पटिलाभो
पापानं अकरणं
सुखं ।।
स्वर्ग
कहीं और नहीं
है,
नर्क भी
कहीं और नहीं
है। स्वर्ग है
अपनी श्रद्धा
में
प्रतिष्ठित
हो जाना, और
नर्क है अपने
ऊपर श्रद्धा
खो देना।
स्वर्ग है इस
ढंग से जीना
कि तुम्हारे
तरफ सुख की
धाराएं
अपने—माप बहे।
इस
जगत में
प्रतिध्वनिया
होती हैं। तुम
जो कहते हो, वही
तुम पर लौट
आता है। तुम
गाली दो, गालियां
लौट आती हैं।
तुम प्रेम
बांटो, प्रेम
लौट आता है।
इस जगत में तो
प्रतिध्वनि होती
है। तुम दुख
बांटो, दुख
घना हो जाएगा।
तुम सुख बांटो,
सुख घना हो
जाएगा। जो
दोगे, अंततः
वही पा लोगे।
तुम जो बोओगे,
वही
काटोगे। यह
छोटा सा सूत्र
है, लेकिन
कितना बड़ा!
इस
छोटे से सूत्र
पर जीवन
महाक्रांति
से गुजर जाता
है। स्वर्ग
तुम्हारे हाथ
में है और
नर्क भी
तुम्हारे हाथ
में है—तुम
निर्माता हो।
अगर तुमने अरब
तक दुख पाया
है,
तो स्मरण
करना, अपने
ही कारण पाया
है। दूसरे पर
दोष मत देना। दूसरे
पर जो दोष
देता है, वही
अधार्मिक। जो
यह स्वीकार कर
लेता है कि मैं
दुख पा रहा
हूं तो जरूर
मैंने ही बोया
होगा, वही
धार्मिक। और
धार्मिक के
जीवन में
विकास होता है,
अधार्मिक
के जीवन में
विकास नहीं
होता। क्योंकि
अधार्मिक सदा
कहता रहता है,
दूसरे मुझे
दुख दे रहे
हैं। इसमें
कैसे विकास
होगा?
पहली
तो बात, दूसरे
तुम्हें दुख
दे नहीं रहे।
दूसरी बात, दूसरे दुख
दे रहे हैं तो अब तुम क्या
करोगे? जब
तक वे देना
बंद न करें, तब तक
तुम्हारे हाथ
में तो कुछ
नहीं रहा, तुम
तो परतंत्र हो
गए। और दूसरे बहुत
हैं। इतने बहुत
है कि जब सब तुम्हें
दुःख देना बद करेंगे
तब तुम शायद स्वंतत्र
हो पाओ, ऐसी
घड़ी कभी आएगी,
इसका भरोसा
करना मुश्किल
है।
बुद्ध
कहते हैं, तुम्हीं
अपने दुख के
कारण हो। जब
तुम दूसरों को
दुख देते हो, तो तुम दुख
को निमंत्रण
दे रहे हो। और
तुम्हीं अपने
सुख के कारण
हो। जब तुम
दूसरों को सुख
देते हो, तो
तुम सुख को
बुलावा देते
हो। सुख चाहते
हो, सुख
दो। दुख चाहते
हो, दुख
दो। गणित बहुत
सीधा—साफ है।
और
हर जीवन के अनुभव
को माला बनाओ।
जाग कर जीवन के
एक—एक फूल को
पिरोओ, ताकि
तुम्हारे पास
जीवन—सूत्र
हाथ में आ
जाए। और फिर, अंतिम रूपेण,
जीवन के
सारे फूलों को
निचोड़ लो, सार—सार
निचोड़ लो, असार
को छोड़ दो, वही
सार बुद्धत्व
है। वही सार
बोधि है।
और
जैसे हाथी
कीचड़ से निकल
आया,
तुम भी निकल
आओगे। चुनौती
स्वीकार करो।
धन्यभागी हैं
वे, जो
बुद्धों की
चुनौती को
स्वीकार कर
लेते हैं।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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