अध्याय
59
मिताचारी
बनो
मानवीय
कारबार की
व्यवस्था में मिताचारी
होने
से बढ़िया
दूसरा नियम
नहीं है।
मिताचार
पूर्व-निवारण
करना है;
पूर्व-निवारण
करना तैयार
रहने और सुदृढ़
होने जैसा है;
तैयार
रहना और सुदृढ़
होना सदाजयी
होना है;
सदाजयी
होना अशेष
क्षमता
प्राप्त करना
है;
जिसमें
अशेष क्षमता
है,
वही
किसी देश का
शासन करने
योग्य है;
और
शासक देश की
माता
(सिद्धांत)
दीर्घजीवी हो सकती
है।
यही
है ठोस आधार
प्राप्त करना, यही
है गहरा बल
पाना;
और
यही अमरता और
चिर-दृष्टि का
मार्ग है।
सूत्र
के पूर्व कुछ
बातें समझ
लें।
मनुष्य
के व्यवहार
में और मनुष्य
की व्यवस्था
में
स्वतंत्रता
सूत्र है।
जितने कम
होंगे नियम, जितनी
कम व्यवस्था
करने की
चेष्टा होगी,
उतनी ही
व्यवस्था आती
है।
जितने
ज्यादा होंगे
नियम, जितनी
चेष्टा होगी
व्यवस्था को
आरोपित करने
की, उतनी
ही अराजकता
पैदा होती है।
इसे हम ऐसा
कहें, मनुष्य
और मनुष्य के
बीच जितनी
अराजकता हो उतनी
व्यवस्था
होगी, और
जितनी
व्यवस्था हो
उतनी अराजकता
हो जाएगी।
इसका
कारण है।
क्योंकि जब भी
कोई एक
व्यक्ति दूसरे
को व्यवस्था
देता है तब
उसके अहंकार
को चोट
पहुंचती है।
छोटे से बच्चे
तक को व्यवस्था
देने में
अहंकार को चोट
पहुंचती है तो
बड़े बच्चों की
तो कहना ही
क्या! छोटे से
बच्चे को भी
तुम कहो कि
बैठ जाओ शांत
होकर! तो तुम
जो कहते हो वह
महत्वपूर्ण
नहीं मालूम
पड़ता, छोटे
बच्चे को पीड़ा
मालूम पड़ती
है। वह पीड़ा
यह है कि उसे
बिठाया जा रहा
है। उसे अपनी
असहाय अवस्था
मालूम पड़ती है
कि मेरे ऊपर
अन्याय किया
जा रहा है। आज
मैं छोटा हूं
तो मुझे दबाया
जा रहा है। यह
बच्चा बैठ भी
जाए तो भी बड़े
प्रतिशोध से
भरा हुआ
बैठेगा। और
बैठने का तो
कुछ भी मूल्य
न था, प्रतिशोध
का जहर जीवन
भर पीछा
करेगा।
इसलिए
बच्चे अपने
माता-पिता को
कभी माफ नहीं
कर पाते।
असंभव है।
नहीं माफ करने
का कारण यह है
कि इतनी
व्यवस्था दी
जाती है कि
बच्चे के अहंकार
को प्रतिपल
चोट पहुंचती
है। उसे लगता
है,
जैसे उसका
अपना कोई होना
ही नहीं; दूसरों
के इशारे सब
कुछ हैं--जहां
वे चलाएं,
चलो; जो
वे बताएं, देखो;
जो वे करने
को कहें, करो।
तुम्हारे
भीतर
स्वतंत्रता
का कोई सूत्र
वे बचने नहीं
देते हैं। एक
बोझ की भांति
मालूम होता है
यह व्यवस्था
आरोपित किया
जाना। यह बोझ
इतना हो जा
सकता है कि
फिर बच्चा
सारे ही बोझ
को तोड़ दे और
ठीक और गलत का
हिसाब भी भूल
जाए, और हर
चीज के विरोध
में खड़े होने
की प्रवृत्ति
से भर जाए।
इसीलिए
तो अक्सर
सज्जन
माता-पिता के
घर में सज्जन
बच्चे पैदा
नहीं हो पाते।
क्योंकि
सज्जन माता-पिता
बच्चे को
सज्जन बनाने
में इतनी शीघ्रता
से लग जाते
हैं,
उनकी
चेष्टा का
परिणाम दुर्जन
का जन्म होता
है। तो
कभी-कभी
जुआरी-शराबी
के घर में
अच्छा बच्चा
पैदा हो जाए, लेकिन
सज्जनों के घर
में अच्छा
बच्चा पैदा नहीं
होता। जुआरी
और शराबी के
घर में कोई
नियम तो है
नहीं।
जुआरी-शराबी
नियम बनाएगा
भी कैसे? जुआरी-शराबी
खुद ही अपने
को व्यवस्थित
नहीं कर पा
रहा है, बच्चे
को क्या
व्यवस्था
देगा?
और एक
अनूठी घटना
घटती है--और मनसविद
बड़ी चिंता में
रहे हैं कि
ऐसा क्यों
होता है--कि
बच्चा खुद
अपनी
व्यवस्था
अपने हाथ में
ले लेता है।
यह देख कर कि
कोई व्यवस्था
करने वाला नहीं
है,
यह अनुभव
करके कि मैं
अंधेरे में
खड़ा हूं, खुद
ही सम्हलने
लगता है। यह
देख कर कि
माता-पिता, परिवार गलत
रास्ते पर जा
रहा है...। इसे
देखने में
किसी बच्चे को
अड़चन नहीं
होती कि गलत
क्या है।
क्योंकि जहां
से जीवन में
दुख आता है वह
गलत है; इसके
लिए कोई अनुभव
की जरूरत नहीं
है। इस जांच
को तो हम लेकर
ही पैदा होते
हैं कि जिससे
दुख मिलता है
वह गलत है। बच्चा
रोज देखता है,
शराब दुख दे
रही है, जुआ
दुख दे रहा है;
परिवार
पीड़ा में जी
रहा है, नरक
में जी रहा है;
सचेत हो
जाता है, अपने
को सम्हालने
लगता है। जब
कोई सम्हालने
वाला नहीं
होता तो बच्चा
अपने को
सम्हालता है।
तुमने
कभी देखा हो, छोटा
बच्चा गिर जाए
तो पहले वह
चारों तरफ
देखता है
गिरने के बाद,
रोना एकदम
शुरू नहीं कर
देता। पहले वह
देखता है कि
कोई है भी? मां
है पास? तो
ही रोने में
कोई सार है।
अगर मां पास
नहीं है, चारों
तरफ देख कर, कपड़े झाड़ कर
अपने रास्ते
पर चल देता
है। गिरने के
कारण नहीं
रोता, मां
की मौजूदगी के
कारण रोता है।
जब देखता है, कोई
सम्हालने
वाला नहीं, उठाने वाला
नहीं, कोई
संवेदना
प्रकट करने
वाला नहीं, अपने पैरों
पर चुपचाप खड़ा
हो जाता है।
रोना किसके
आगे? किसकी
प्रतीक्षा
करनी? कोई
है नहीं उठाने
वाला। खुद झाड़
देता है धूल
को, उठ कर
खड़ा हो जाता
है।
यह
बच्चा प्रौढ़
हो गया। अकेला
पाकर एक प्रौढ़ता
इसमें आई कि
रोना व्यर्थ
है। लेकिन मां
पास हो तो यह
रोएगा, चीखेगा,
चिल्लाएगा। क्योंकि
संवेदना किसी
से मिल सकती
है, कोई
फिक्र करेगा,
कोई ध्यान
देगा।
इस बात
को ठीक से समझ
लेना कि जिन
बच्चों को
बहुत ध्यान
दिया जाएगा, बहुत
फिक्र की
जाएगी, वे
हमेशा निर्बल
रह जाएंगे। वे
ऐसे पौधे होंगे
जो अपने तईं
जी ही न
सकेंगे। हॉट
हाऊस प्लांट!
उनके लिए कांच
की दीवार
चाहिए। सूरज
की रोशनी भी
उन्हें मुर्झाएगी;
हवा का
झोंका भी
उन्हें मार
डालेगा; जरा
सी ज्यादा
वर्षा और उनकी
जड़ें उखड़
जाएंगी। उनके
पास कोई जड़ें
नहीं हैं। और
कारण क्या है?
कारण इतना
ही है कि उनकी
अतिशय
सुरक्षा की
गई। अतिशय
सुरक्षा
स्वयं को
सुरक्षित
करने की सारी
क्षमता का नाश
कर देती है।
तुम
बच्चों को
बचाना, लेकिन
अति सुरक्षा
मत देना।
बचाना तो भी
परोक्ष; सीधी
व्यवस्था मत
देना। तुम
बच्चों के
आस-पास एक
वातावरण की
तरह होना, जंजीरों की तरह
नहीं। एक हवा
हो तुम्हारी
उनके आस-पास जो
दीवार नहीं
बनती। लेकिन
कारागृह न हो।
अगर बच्चे को
तुम यह भी
कहना चाहो कि
मत करो इसे, तो भी इस ढंग
से कहना कि
उसके अहंकार को
चोट न पहुंचे।
रास्ते हैं, निषेध को
कहने के भी
विधायक
रास्ते हैं।
विधेय को भी
कहने के
निषेधात्मक
रास्ते हैं।
अगर बच्चा आग
के पास जा रहा
हो तो बजाय यह
कहने के कि वहां
मत जाओ, उसका
ध्यान
आकर्षित करना
कि देखो, बगीचे
में कैसा
सुंदर फूल
खिला है! तुम
यहां क्या कर
रहे हो? तुम
उसे विधेय
देना कि वह
फूल की तरफ
चला जाए। आग
की तरफ मत जाओ,
यह बात ही
खतरनाक है; क्योंकि यह
निमंत्रण बन
जाएगी। तुम जब
मौजूद न होओगे
तब बच्चा आग
के पास जाना
चाहेगा। क्योंकि
निषेध किया
गया है, और
निषेध को
तोड़ना जरूरी
है। नहीं तो
बच्चे का अपना
अहंकार कैसे
निर्मित होगा?
इसे
तुम ठीक से
समझ लो।
अहंकार
निर्मित होने
के लिए निषेध
को तोड़ना
जरूरी है; जो-जो
कहा जाए, मत
करो, वह
करना जरूरी
है। नहीं तो
बच्चा अपने
पैरों पर खड़ा
होना नहीं सीख
पाएगा।
इसीलिए तो तुम
जो-जो कहते हो
मत करो, वही-वही
बच्चे करते
हैं। और तुम
परेशान होते
हो, सिर
पीटते हो कि
क्या मामला
है! इतना समझा
रहे हैं, इतना
रोक रहे हैं।
समझाने-रोकने
के कारण ही
किया जा रहा
है। निषेध की
दीवार बनाई
तुमने कि
बगावत पैदा
होती है।
तुमने कहा, धूम्रपान
मत करना। शायद
अभी बच्चे ने
इसके पहले
सोचा भी न हो
कि धूम्रपान
करना है। कौन
बच्चा सोचता
है? या कभी
किसी को देखता
भी करते हुए
और अनुकरण कर
लेता--कोई
निषेध न
होता--तो एक ही
बार बच्चा धूम्रपान
करेगा, दुबारा
नहीं। खुद ही
अनुभव से छूट
जाएगा। क्योंकि
सिवाय आंसू
आने के, खांसी
आने के और
परेशानी के
कुछ होगा
नहीं। बुद्धिमान
पिता तो बच्चे
को सिगरेट
लाकर दे देगा।
क्योंकि आज
नहीं कल किसी
न किसी का
अनुकरण तुम
करोगे ही, तुम
खुद ही अनुभव
से जान लो।
मैं कुछ कहता
नहीं, तुम
अनुभव से जान
लो। अगर
प्रीतिकर लगे
तो आगे बढ़ना, अगर
अप्रीतिकर
लगे तो रुक
जाना। लेकिन
तुम्हीं
निर्णायक हो,
मैं निर्णायक
नहीं हूं। और
अगर पिता यह
कर सके तो बच्चे
के जीवन में
धूम्रपान का
जो पहला
आकर्षण था वह
नष्ट कर दिया।
और तब बच्चा
दूसरों को धूम्रपान
करते देख कर
सिर्फ हंसेगा
कि कैसे मूढ़
हैं!
लेकिन
तुमने कहा, मत
करना! रस पैदा
हुआ। इनकार
में बड़ा रस
है। अब बच्चे
के मन में एक
ही बात घूमेगी,
उसके सपनों
में एक ही बात घूमेगी कि
कब मौका पा
जाए, कोई
एकांत क्षण
में धूम्रपान
करके देख ले।
और तुम्हारा
जितना निषेध
होगा उतना ही
बच्चा धूम्रपान
की पीड़ा भी
झेल लेगा, लेकिन
तुम्हारे
निषेध को तोड़
कर रहेगा। तोड़
कर ही तो उसको
बल मिलेगा। तोड़
कर ही तो वह भी
अनुभव करेगा
कि मैं भी कुछ
हूं, तुम्हीं
सब कुछ नहीं
हो।
एक
संघर्ष है जो
पिता और बेटे
में चलता है।
एक संघर्ष है
जो मां और
बेटी में चलता
है। वह संघर्ष
बिलकुल
स्वाभाविक
है। उस संघर्ष
से ही तो बच्चा
बड़ा होता है।
इसे तुम ऐसा
समझो। संघर्ष बड़े
प्राथमिक
क्षण से शुरू
हो जाता है; मां
के गर्भ में
शुरू हो जाता
है। इसीलिए तो
बच्चे के जन्म
के समय इतनी
पीड़ा होती है।
क्योंकि
बच्चा इनकार
करता है बाहर
आने से। वह
जहां है सुख
में है। वह जकड़ता
है अपने को, रोकता है
अपने को। एक
संघर्ष शुरू
हो गया। एक कलह
शुरू हो गई।
यह कलह फिर
जीवन भर जारी
रहेगी।
पिता
और मां और
उनके बच्चों
के बीच या तो
समझदारी का
संगीत हो तो
कलह को
सृजनात्मक
रूप दिया जा
सकता है। अगर
यह संगीत न हो, और
ध्यान रखना, इसका जिम्मा
बच्चे पर नहीं
हो सकता, क्योंकि
बच्चा तो अभी
कुछ भी नहीं
जानता है। इसका
जिम्मा तो
बड़ों पर होगा।
और बड़ों ने
अगर छोटी, क्षुद्र
बातों के ऊपर
बड़ी सख्ती की,
तो यह बच्चा
उनके हाथ से
छूट जाएगा।
फिर वे रोएं,
चीखें-चिल्लाएं,
इससे कुछ भी
होने वाला
नहीं है।
बच्चा इसमें आनंदित
होगा कि तुम
पीड़ित हो; क्योंकि
इसका मतलब
होता है, बच्चा
शक्तिशाली हो
रहा है; तुम्हें
पीड़ित कर सकता
है। तुम ही
उसे पीड़ित नहीं
कर सकते, वह
भी पीड़ित कर
सकता है। अब
एक राजनीतिक
दांव-पेंच बाप
और बेटे के
बीच चलेगा।
जो बाप
और बेटे के
लिए सही है
वही बहुत से
आयामों में
सही है।
शिक्षक और
विद्यार्थी
के बीच भी वही
सही है। शासक
और शासित के
बीच भी वही
सही है।
जहां-जहां
किसी को चलाना
है,
कोई दिशा
देनी है, किसी
मार्ग को पकड़ाना
है, वहां-वहां
वही कठिनाई
आएगी।
लाओत्से
कहता है, कम से
कम नियम, न्यूनतम
नियम, बस
उतने ही नियम
चाहिए जिनके
बिना चल ही न
सके। जिनके
बिना चल सके
वे नियम काट
देना।
दो व्यक्तियों
के बीच का
संबंध
स्वतंत्रता
पर आधारित हो, शासन
पर नहीं। और
मजा यही है कि
तुम जितना किसी
दूसरे को
स्वतंत्र
करोगे उतना ही
वह तुमसे शासित
होने को तत्पर
और राजी हो
जाता है।
क्योंकि अब
तुम्हारा
शासन उसके
अहंकार को चोट
नहीं पहुंचाता।
अब तुम्हारा
शासन मित्र है,
अब
तुम्हारा
शासन शत्रु की
भांति नहीं
है। इसलिए जो
भी तुम किसी
को कहो वह इस
भांति कहना कि
वह सुझाव से
ज्यादा न हो; आदेश कभी न
बने। वही मिताचार
है।
लेकिन
बाप की अपनी
अकड़ है। वह
सोचता है, बेटे
को सुझाव क्या
देना, सीधा
आदेश, आज्ञा।
वहां भूल है।
सुझाव से
ज्यादा कुछ भी
नहीं किया जा
सकता। और
सुझाव भी ऐसा
होना चाहिए कि
अगर तुम ठीक
कुशल होओ तो दूसरे
को ऐसा लगेगा
कि उसके भीतर
से ही आया है।
किसी
ने अमरीका के
बहुत बड़े करोड़पति-अरबपति
एंड्रू कारनेगी
से पूछा कि
तुम्हारे
जीवन की सफलता
का राज क्या
है?
तो एंड्रू कारनेगी
ने कहा, मेरी
सफलता का राज
एक ही है--और अब
मैं बता सकता हूं,
क्योंकि अब
मेरी मौत करीब
है और मेरी
यात्रा पूरी
हो गई--और वह
राज यह है कि
मैं अपने से
भी बुद्धिमान
लोगों से काम
लेता हूं और
इस ढंग से काम
लेता हूं कि
उन सबको यह
प्रतीति होती
है कि उनके
सुझाव मैं मान
रहा हूं, हालांकि
वे सुझाव मेरे
ही होते हैं।
तो एंड्रू कारनेगी
अपने साथियों
को, सहयोगियों
को बुला लेता
था। उन सबसे
कहता था, कोई
समस्या है, हल करनी है, तो सब सुझाव
दें। उसका
सुझाव तो
पक्का ही है; वह पहले
अपना तय कर
चुका है कि
क्या करना है,
वह उसे रखे
बैठा है भीतर।
लेकिन सबसे
सुझाव मांगेगा।
फिर मौका देख
कर कोई सुझाव,
जो उसके
भीतर के सुझाव
के करीब पड़ता
होगा, वह
उस सुझाव की
चर्चा के
बहाने चर्चा
शुरू करेगा और
वह ऐसा प्रतीत
करवाएगा कि
तुम्हारे में से
ही किसी का
सुझाव उसने
स्वीकार कर
लिया है।
लेकिन वह कभी
यह एहसास न
होने देगा कि
मैंने कोई
सुझाव दिया जिसे
तुम्हें
मानना पड़ा है।
एंड्रू कारनेगी
के पास जिन
लोगों ने भी
काम किया उन
सबका भी वही
एहसास है कि
उसने कभी कोई
सुझाव नहीं
दिया। बहुत
कुशल आदमी
होगा। और ऐसा
ही आदमी
मानवीय जीवन
को व्यवस्था
देने में सफल
हो पाता है।
तुम
दूसरे को आदेश
भी दो तो ऐसे
देना जैसे वह
सुझाव है। और
इस भांति देना
कि मानने की
कोई मजबूरी
नहीं है। वह
मानना चाहे तो
माने, न मानना
चाहे तो न
माने। वह नहीं
मानेगा तो तुम्हें
कोई दुख होने
वाला नहीं है,
यह तुम साफ
कर देना।
क्योंकि न मान
कर तुम्हें
दुख देने की
जो वृत्ति
होती है वह
तुम खुद ही
काट देना।
छोटा बच्चा
नहीं मानना
चाहता, क्योंकि
वह जानता है, नहीं मानेगा
तो तुम
परेशान-पीड़ित
होओगे। तो वह
भी तुमको
पीड़ित कर सकता
है, यह
शक्ति अनुभव
होगी। तुम यह
पहले ही जाहिर
कर देना कि तू
नहीं मानेगा
तो कोई अड़चन
नहीं है; मैं
दोनों तरह से
राजी हूं, दोनों
में मेरी खुशी
है--माने तो, न माने तो।
तो तुमने दंश
काट दिया।
तुमने निषेध
का जो रस था वह
तोड़ दिया।
तुमने
जीवन-व्यवस्था
को विधायक बना
दिया।
सारी
जीवन-व्यवस्था
निषेधात्मक
है। यहूदियों
के,
ईसाइयों के
पास दस आज्ञाएं
हैं। तुम अगर
पश्चिम को
समझने की
कोशिश करो तो
लाओत्से का
सूत्र समझना
बहुत आसान हो
जाएगा।
पश्चिम में
बड़ी बगावत है।
हर बाप के
खिलाफ बगावत
है। नई पीढ़ी
कुछ भी मानने
को राजी नहीं
है। कुछ भी!
जीवन के छोटे-छोटे
नियम भी मानने
को राजी नहीं
है। स्नान भी
करने को राजी
नहीं है।
गंदगी को आचरण
बना लिया है।
साफ-सुथरा
दिखना बुर्जुआ,
गए-गुजरे
लोगों की आदत
है। तो हिप्पी
हैं और हिप्पियों
जैसा सारा
वर्ग है
पश्चिम में, जो स्नान
नहीं करेगा, गंदा रहेगा,
गंदे कपड़े
पहनेगा, धोएगा
नहीं। कारण
है: ईसाइयत ने
बड़ा आग्रह किया
पिछले दो हजार
साल में, ईसाइयत
ने कहा कि क्लीनलीनेस
इज़ नेक्स्ट
टु गॉड; स्वच्छता
बस परमात्मा
से नीचे है, स्वच्छता के
ऊपर बस केवल
परमात्मा है।
इसका आग्रह
इतना प्रगाढ़
हो गया कि
हिप्पी पैदा
हो गया। तो नई पीढ़ी ने
कहा कि हमारे
लिए तो
दुर्गंध और
अस्वच्छता ही
दिव्यता है।
ईसाइयत ने दस आज्ञाएं
निर्धारित की
हैं: चोरी मत
करो, पर-स्त्री
को मत देखो, धोखा मत दो...।
लेकिन सभी
नकारात्मक
हैं।
एक
ईसाई पादरी
क्रिसमस के
पहले पोस्ट
आफिस गया था।
वह कोई पार्सल
किसी को भेंट
भेज रहा था, और
उस पर लिखा
ऊपर: हैंडल
विद केयर। तो
पोस्ट मास्टर
ने पूछा कि
कुछ कांच
इत्यादि का
सामान है? उसने
कहा कि नहीं, बाइबिल भेज
रहा हूं। तो
उसने कहा कि
बाइबिल में
क्या टूटने
जैसा है? उसने
कहा, दस आज्ञाएं!
वे कांच से भी
ज्यादा नाजुक
हैं।
असल
में,
नहीं और
निषेध से
ज्यादा नाजुक
चीज जगत में
दूसरी नहीं
है। तुमने
नहीं कहा कि
तुमने आधार
बना दिया
तोड़ने का।
तुमने किसी को
भी कहा कि नहीं
कि तुमने उसको
निमंत्रण दे
दिया कि तोड़ो।
उपनिषद
में ऐसी एक भी
आज्ञा नहीं
है। इसलिए मैं
कहता हूं, उपनिषद
जिन्होंने
रचा वे बहुत
बुद्धिमान लोग
थे। उपनिषद
में एक भी
निषेधात्मक
आज्ञा नहीं
है। उपनिषद यह
नहीं कहता कि
चोरी मत करो।
उपनिषद कहता
है, दान दो,
बांटो।
उपनिषद यह
नहीं कहता कि
व्यभिचार मत करो।
उपनिषद कहता
है, ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
करो। उपनिषद
यह नहीं कहता,
यह संसार
बुरा है, छोड़ो।
उपनिषद कहता
है, परमात्मा
परम भोग है, खोजो।
बात
वही है। लेकिन
जहां विधेय
होता है वहां
तोड़ने का सवाल
नहीं उठता।
जहां विधेय है, जहां
कोई चीज पाजिटिव
है--परमात्मा
को खोजो; इसमें
क्या तोड़ना है?
तोड़ने का
कोई मजा ही
नहीं है
इसमें। तोड़ने
का तो मजा ही
तब आता है जब
कोई कहे, नहीं।
वहीं
तुम्हारे
भीतर भी
अहंकार मजबूत
हो जाता है।
वहीं तुम
तोड़ने को तत्पर
हो जाते हो।
वहीं
तुम्हारे
अहंकार पर कोई
आक्रमण कर रहा
है। "नहीं' आक्रामक
है अहंकार के
लिए, और
अहंकार उसे
बरदाश्त नहीं
करेगा; उसे
तोड़ कर दिखलाएगा।
इसे
स्मरण रखना।
मानवीय
व्यवस्था में
नहीं जितना कम
बीच में आए
उतना अच्छा।
हां को बीच में
आने दो, क्योंकि
हां जोड़ता है।
नहीं तोड़ता
है। और
तुम्हारे सब
नियम नहीं पर
आधारित होते
हैं। हां पर
करो उन्हें
आधारित, और
तब तुम पाओगे
कि पचास नहीं
पर आधारित
नियम एक हां
पर आधारित
नियम में
समाविष्ट हो
जाते हैं।
इतने नियमों
की जरूरत नहीं
है।
संत
अगस्तीन से
किसी ने पूछा
कि मुझे जीवन
अपना सुधारना
है तो मैं
कौन-कौन से
नियमों का
पालन करूं? तो
संत अगस्तीन
ने कहा, अगर
नियमों का
पालन करने गया
और यह पूछा कि
कौन-कौन से, तो नियम
हजार हैं, जिंदगी
बहुत थोड़ी है।
तो तुझे मैं
एक ही नियम बता
देता हूं कि
तू प्रेम कर।
तो उस आदमी ने
कहा, इससे
सब हो जाएगा? अगस्तीन ने
कहा, सब हो
जाएगा।
क्योंकि जो
प्रेम करेगा
वह चोरी कैसे
कर सकता है? जो प्रेम
करेगा वह
हिंसा कैसे कर
सकता है? जो
प्रेम करेगा
वह किसी का
अपमान कैसे कर
सकता है? जो
प्रेम करेगा
उसके जीवन में
जो-जो कांटे
हैं वे अपने
से झर जाएंगे।
क्योंकि प्रेम
केवल फूल को
ही खिला सकता
है; प्रेम
में कोई कांटे
नहीं हैं। जो
प्रेम करता है,
वह क्रोध और
घृणा और
वैमनस्य और
प्रतिस्पर्धा
कैसे कर सकेगा?
जो प्रेम
करता है उसे
तुमने कभी लोभ
करते देखा? उनका कोई
मेल ही नहीं
होता।
अगर
लोभ करना हो
तो प्रेम भूल
कर मत करना।
अगर लोभ करना
हो तो प्रेम
की बात में ही
मत पड़ना।
इसीलिए तो
कृपण आदमी कभी
प्रेम नहीं
करता; कर ही
नहीं सकता।
कृपणता का
प्रेम से कोई
संबंध नहीं
है। लोभी धन
इकट्ठा करता
है। और प्रेम खतरनाक
है उसके लिए।
प्रेम से
ज्यादा
खतरनाक कुछ भी
नहीं है।
क्योंकि
प्रेम का मतलब
है--बांटो।
इसलिए लोभी
प्रेम की झंझट
में कभी नहीं
पड़ता, हालांकि
वह भी
सिद्धांत खोज
लेता है। लोग
बड़े कुशल हैं।
वह कहता है, राग से मैं
दूर ही रहता
हूं। कृपण
अपने को वीतराग
समझता है।
कृपण कहता है,
क्या रखा है
संबंधों में?
यह तो वह
कहता है, लेकिन
तिजोड़ी
में रखता चला
जाता है। धन
ही उसका
एकमात्र
संबंध है।
और
जिसका धन से
संबंध है उसका
जीवन से कोई
संबंध नहीं रह
जाता। प्रेम
तो जीवंत
संबंध है। धन
तो मृत वस्तु
से संबंध है।
धन से ज्यादा
मरी हुई कोई
चीज है? रुपये
से ज्यादा
मुर्दा कोई
चीज तुम
दुनिया में
खोज सकते हो? पत्थर भी
पड़ा-पड़ा बढ़ता
है, पत्थर
भी फैलता है।
सारा
अस्तित्व
जीवंत है। लेकिन
रुपया तुम
बिलकुल मरा
हुआ पाओगे।
रुपये में कोई
जीवन नहीं है।
और जो आदमी
रुपये को इकट्ठा
करने में लग
जाता है उसकी
आत्मा भी मर जाती
है। और प्रेम
तो वहां खिलता
है जहां आत्मा
जीवंत होती
है।
तो जो
प्रेम करता है
वह लोभ नहीं
कर सकता। जो
प्रेम करता है
वह कृपण नहीं
हो सकता, परिग्रही
नहीं हो सकता।
एक प्रेम हजार
नहीं वाले
नियमों को
अकेला सम्हाल
लेता है। एक
हां इतना बड़ा
आकाश है कि
हजारों
नियमों के
छोटे-छोटे
पौधे उसमें
समाविष्ट हो
जाते हैं। और
बिना दंश के, बिना कांटे
के।
तो
अगस्तीन कहता
है,
प्रेम कर
सको तो काफी
है। प्रेम न
कर सको तो फिर
तुम्हें लंबी फेहरिस्त
नियमों की मैं
बताऊं।
वे उनके लिए
हैं जो प्रेम
नहीं कर सकते
हैं।
सब
धर्मशास्त्र, सब
आज्ञाएं
उनके लिए हैं
जो प्रेम नहीं
कर सकते हैं।
जो प्रेम कर
सकता है उसके
लिए बड़े से
बड़ा शास्त्र
मिल गया। अब
किसी और
शास्त्र की
कोई जरूरत
नहीं।
इसलिए
तो जीसस कहते
हैं कि प्रेम
परमात्मा है।
तुम कुछ मत
करो,
सिर्फ
प्रेम कर लो।
प्रेम का सार
सूत्र क्या है--कि
जो तुम अपने
लिए चाहते हो
वही तुम दूसरे
के लिए करने
लगो और जो तुम
अपने लिए नहीं
चाहते वह तुम
दूसरे के साथ
मत करो। प्रेम
का अर्थ यह है
कि दूसरे को
तुम अपने जैसा
देखो, आत्मवत।
एक
व्यक्ति भी
तुम्हें अपने
जैसा दिखाई
पड़ने लगे तो
तुम्हारे
जीवन में
झरोखा खुल
गया। फिर यह
झरोखा बड़ा
होता जाता है।
एक ऐसी घड़ी
आती है कि
सारे अस्तित्व
के साथ तुम
ऐसे ही
व्यवहार करते
हो जैसे तुम
अपने साथ करना
चाहोगे। और जब
तुम सारे
अस्तित्व के
साथ ऐसा
व्यवहार करते
हो जैसे
अस्तित्व
तुम्हारा ही
फैलाव है तो
सारा
अस्तित्व भी तुम्हारे
साथ वैसा ही
व्यवहार करता
है। तुम जो देते
हो वही तुम पर
लौट आता है।
तुम थोड़ा सा
प्रेम देते हो, हजार
गुना होकर तुम
पर बरस जाता
है। तुम थोड़ा सा
मुस्कुराते
हो, सारा
जगत तुम्हारे
साथ
मुस्कुराता
है। कहावत है
कि रोओ तो
अकेले रोओगे,
हंसो तो सारा
अस्तित्व
तुम्हारे साथ
हंसता है। बड़ी
ठीक कहावत है।
रोने में कोई
साथी नहीं है।
क्योंकि
अस्तित्व
रोना जानता ही
नहीं।
अस्तित्व
केवल उत्सव जानता
है। उसका कसूर
भी नहीं है।
रोओ--अकेले रोओगे।
हंसो--फूल,
पहाड़, पत्थर,
चांदत्तारे,
सभी
तुम्हारे साथ
तुम हंसते हुए
पाओगे। रोने वाला
अकेला रह जाता
है। हंसने
वाले के लिए
सभी साथी हो
जाते हैं, सारा
अस्तित्व
सम्मिलित हो
जाता है।
प्रेम
तुम्हें हंसा
देगा। प्रेम
तुम्हें एक ऐसी
मुस्कुराहट
देगा जो बनी
ही रहती है, जो
एक गहरी मिठास
की तरह
तुम्हारे
रोएं-रोएं में
फैल जाती है।
प्रेम काफी
नियम है। और
प्रेम नियम
जैसा लगता ही
नहीं।
तुम
बच्चों को
प्रेम दो, नियम
नहीं।
तुम्हारा
प्रेम उनके
जीवन में सारे
नियमों की
आधारशिला रख देगा।
तुम उन्हें
सिद्धांत मत
दो। सिद्धांत
तो कूड़ा-कर्कट
है। तुम तो
उन्हें हृदय
की छांव दो।
तुम तो उन्हें
प्रेम का भाव
दो। तुम इतना
ही बच्चों को
सिखा दो कि वे
भी तुम जैसा
प्रेम करने लगें;
तुमने सब
सिखा दिया।
फिर तुम
उन्हें छोड़ दे
सकते हो इस
विराट संसार
में; उनसे
कोई भूल न
होगी।
और तुम
सब तरह के
सिद्धांत
उन्हें दे दो, और
सब शास्त्र
उनके सिर पर
रख दो--और
उन्हें प्रेम
मत
दो--तुम्हारी
आंख बचते ही
तुम्हारे शास्त्रों
को एक तरफ
फेंक कर लात
मार कर वे
वहीं चले
जाएंगे जहां
जाने से तुमने
उन्हें रोका
था। तुम्हारे
निषेध उनके
चरित्र को
रूपांतरित न
करेंगे।
तुम्हारा
विधायक भाव!
और जो
दो
व्यक्तियों
के बीच का
संबंध है वही
समाज और शासन
का संबंध है।
शासन ऐसे है
जैसे माता-पिता, प्रजा
ऐसे है जैसे
बच्चे।
इसीलिए तो हम
राजा को पिता
कहते थे पुराने
दिनों में।
चाहे राजा की
उम्र कम भी हो
तो भी वह पिता
था। और प्रजा
उसकी संतान
थी। इसके पीछे
कारण है कहने
का। कारण यही
है कि जिसको
भी शासन देना
है उसे एक
गहरे प्रेम के
आत्मीय संबंध
में बंध जाना
जरूरी है। यह
तुम्हें खयाल
में आ जाए तो
लाओत्से का
सूत्र बड़ा
आसान हो
जाएगा। एक-एक
शब्द को समझने
की कोशिश
करें।
"मानवीय
कारबार की
व्यवस्था में,
मिताचारी होने से
बढ़िया दूसरा
नियम नहीं है।'
मिताचार का
अर्थ है बहुत
गहन,
अनेक
आयामी। एक
आयाम है मिताचार
का कि आचरण के
नियम जितने कम
हों--कम से कम
हों--उतना
अच्छा।
अंगुलियों पर
गिने जा सकें;
बहुत
ज्यादा
नियमों का जाल
न हो। अक्सर
अधिक नियमों
के जाल में ही
भटकाव पैदा हो
जाता है। बहुत
नियम चाहिए भी
नहीं। एक ऐसा
नियम चाहिए जो
सभी नियमों को
समाविष्ट कर
लेता हो। और
जीवन की
व्यवस्था बड़ी
सरल चाहिए।
अतिशय
नियम में जीवन
भी जटिल हो
जाता है; और
तुम ऐसे जीने
लगते हो जैसे
कोई सैनिक हो।
सैनिक से
आदमियत खो
जाती है, उसका
मानवीयपन
खो जाता है।
वह यंत्रवत हो
जाता
है--रोबोट। कब उठना,
नियम से
उठता है; कब
बैठना, नियम
से बैठता है; कब खाना, नियम
से खाता है।
सब व्यवस्थित
हो जाता है।
सैनिक आज्ञा
में जीता है
और नियम में
बंध कर जीता
है। सैनिक
मनुष्यता का
आखिरी पतन है।
क्योंकि उसकी
कोई स्वतंत्रता
नहीं है। वह
अपने सपने में
भी स्वतंत्र नहीं
होता। सपने तक
में नियम घुस
जाते हैं; उसकी
नींद तक
नियमों से
आविष्ट हो
जाती है। किसी
पक्के सैनिक
के पास अगर
नींद में भी तुम
खड़े होकर कह
दो, लेफ्ट टर्न! वह
नींद में भी
करवट ले लेगा
उसी वक्त। नियम
अचेतन तक चले
जाते हैं।
विलियम
जेम्स ने अपना
एक संस्मरण
लिखा है कि एक
होटल में बैठ
कर वह बातचीत
कर रहा है। एक
रिटायर्ड
सैनिक रास्ते
से गुजर रहा
है अंडों की एक
टोकरी लिए।
उसने सिर्फ मजाक
में,
अपने
मित्रों को
दिखाने के लिए
कि नियम कितने
गहन घुस जाते
हैं, जोर
से चिल्ला कर
कहा, अटेंशन! उस सैनिक को
रिटायर हुए
बीस साल हो
गए। वह अटेंशन
खड़ा हो गया।
टोकरी नीचे
गिर गई। अंडे
सब जमीन पर
फूट गए। वह
सैनिक बहुत
नाराज हुआ।
उसने कहा, यह
क्या मजाक है?
विलियम
जेम्स ने कहा
कि हमें अटेंशन
कहने का हक
नहीं? तुम
मत मानो। उसने
कहा, यह
कोई अपने बस
में है मानना
न मानना? आज्ञा
आज्ञा है!
रोबोट
का मतलब है
यंत्रवत।
यहां तुमने
बटन दबाई वहां
प्रकाश जल
गया। प्रकाश
कोई रुक कर
प्रतीक्षा
थोड़े ही करता
है,
सोचता थोड़े
ही है कि जलूं,
न जलूं।
सैनिक भी वही
है जो सोचने
से बाहर हो
गया।
सोचने
से दुनिया में
दो लोग बाहर
होते हैं, एक
संत और एक
सैनिक। संत
सोचने के पार
हो जाता है और
सैनिक सोचने
के नीचे गिर
जाता है।
दोनों पार हो
जाते हैं।
सैनिक पतित हो
जाता है सोचने
के स्थान से।
उसको सोचने की
जगह से
पदच्युत करने
के लिए ही
सारी सैनिक
व्यवस्था है।
युद्ध चले या
न चले, सैनिक
के लिए जैसे
युद्ध चलता ही
रहता है। उसके
क्रम में कोई
भेद नहीं
पड़ता।
सुबह-शाम उसे
घंटों लेफ्ट-राइट
और कवायद करनी
ही पड़ती है।
उसे जरा भी शिथिल
नहीं छोड़ा जा
सकता।
और
क्यों इतनी
कवायद करवाते
हैं?
लेफ्ट-राइट का
क्या संबंध है?
कोई
संबंध नहीं है, लेकिन
बहुत गहरी
कंडीशनिंग की
व्यवस्था है। सैनिक
को हम कहते
हैं, बाएं घूमो, वह
बाएं घूमता
है। हम कहते
हैं, दाएं घूमो, वह
दाएं घूमता
है।
धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे
यह बात इतनी प्रगाढ़ हो
जाती है, उसकी
चेतन पर्तों
से
उतरते-उतरते
अचेतन में चली
जाती है। तब
तुम्हारा
कहना बाएं घूमो
बटन दबाने की
तरह काम करता
है। सैनिक के
बस के बाहर है
कि न घूमे।
घूमना ही
पड़ेगा। यह
घूमना अब
यंत्रवत है।
और जब
एक सैनिक
यंत्रवत
घूमने लगा तब
उसका भरोसा
किया जा सकता
है। तब उससे
कहो,
चलाओ गोली!
तो वह गोली
चलाएगा, चाहे
सामने उसकी
मां ही क्यों
न खड़ी हो। तब
वह अजनबी आदमी
पर गोली चला
देगा जिससे
उसको कुछ लेना-देना
नहीं है, जिससे
कोई झगड़ा-झांसा
नहीं है; जो
उसी जैसा आदमी
है, जिसके
घर मां होगी, पत्नी होगी,
बच्चे
प्रतीक्षा कर
रहे होंगे, प्रार्थना
करते होंगे कि
कब वापस लौट
आए; और
जिसने कुछ बिगाड़ा
नहीं है।
लेकिन
सोच-विचार के
सैनिक नीचे
गिर जाता है।
उसे यंत्रवत
गोली चलानी
है। उसे बंदूक
का ही हिस्सा
हो जाना है।
सोचे-विचारे, यह
मौका राज्य
उसे नहीं दे
सकता।
क्योंकि सैनिक
अगर खुद सोचने
लगे तो
हिरोशिमा पर
बम गिराना
मुश्किल है।
क्योंकि वह
सैनिक कहेगा,
यह मैं न
करूंगा; एक
लाख आदमी राख
हो जाएंगे
क्षण भर में!
इससे तो बेहतर
तुम मुझे मार डालो। अगर
मैं अपराध कर
रहा हूं आज्ञा
के उल्लंघन का,
तुम मुझे
गोली मार दो।
लेकिन एक लाख
लोगों को अकारण
मारने मैं
नहीं जा रहा
हूं।
जिस
आदमी ने
हिरोशिमा पर
बम डाला, वह बम
फेंक कर वापस
सो गया आकर।
आठ बज कर दस
मिनट पर उसने
बम फेंका; नौ
बजे वापस आकर
वह गहरी नींद
में सो गया।
उधर एक लाख
लोग आग में
भुन गए।
छोटे-छोटे
बच्चे थे; अभी
गर्भ से बाहर
भी न आए थे, वे
भी बच्चे थे।
स्त्रियां
थीं, बूढ़े
थे, जिनका
कोई युद्ध से
लेना-देना न
था; नागरिक,
जो न युद्ध
कर रहे थे, न
जो युद्ध चला
रहे थे; बिलकुल
निहत्थे, जिनके
पास कोई बचाव
भी नहीं था।
वे आग में भुन गए।
हिरोशिमा में
एक बैंक है जो
जल गया। उसकी घड़ी
किसी तरह बच
गई है। वह ठीक
आठ बज कर दस
मिनट पर रुक
गई। उस घड़ी को
बचा लिया गया
है। वह
हिरोशिमा की
याददाश्त है।
उस दिन समय
जैसे रुक गया।
और आदमी ने
गैर-आदमी होने
की, अमानवीय
होने की आखिरी
छलांग ले ली।
यह
आदमी सो गया।
सुबह जब उठा
तो पत्रकारों
ने उससे पूछा
कि तुम रात
ठीक से सो सके? उसने
कहा कि बहुत
मजे से! ऐसी
गहरी नींद कभी
नहीं आई।
क्योंकि काम
पूरा कर दिया;
जो मुझे
आज्ञा मिली थी
वह पूरा कर
दिया। आज्ञा
पूरी हो गई; मैं विश्राम
में चला गया।
इस
आदमी के मन पर
जरा सा दंश भी
नहीं है।
तुम्हारे पैर
से चींटी भी
कुचल जाए तो
भी थोड़ा सा लगता
है कि अकारण, थोड़े
होश से चल
सकता था। एक
लाख लोग! थोड़ी
संख्या नहीं
है। और मैं एक
लाख लोगों को
मार आऊं और
रात आराम से
नींद आ जाए, यह सिर्फ
सैनिक को हो
सकता है। वह
विचार से नीचे
गिर गया। इसके
पास अब कोई
विचार-विमर्श
की क्षमता न
रही। इसका
अपना विवेक न
रहा। इसका अब
कोई होश नहीं
है। यह मशीन
है।
नियम
व्यक्ति को
मशीन बनाते
हैं। नियम
मनुष्यता की
हत्या है।
इसलिए पहला तो
खयाल ले लेना कि
जितने कम नियम
तुम्हारे अंतर्संबंधों
में हों उतना
अच्छा। न हों
तो वह परम दशा
है।
संत
तुम्हारे साथ
बिना नियम के
जीता है। प्रेम
उसका नियम कह
सकते हो। लेकिन
वह कोई नियम
नहीं है, वह
उसका स्वभाव
है। संत
तुम्हारे साथ
ऐसे जीता है
जैसे
तुम्हारे-उसके
बीच कोई भी
नियम नहीं है।
क्षण-क्षण, क्षण की
संवेदना, क्षण
का
प्रतिसंवेदन
जो ले आता है, उसी को जीता
है।
नियम
अतीत से आते
हैं। एक ढांचा
भीतर होता है।
अगर तुम मेरे
पास आओ और
इसलिए मेरे
पैर छुओ कि
परंपरागत है
कि गुरु के
पास जाओ तो
पैर छूने
चाहिए--इसलिए
अगर पैर
छुओ--तो छूना
ही मत।
क्योंकि यह
नियम से आ रहा
है।
न, अचानक
तुम मेरे पास
झुकने के भाव
से भर जाओ, वह
भाव किसी नियम
से न आए, वह
तुम्हारे
अंतस से आए, वह तुम्हारे
प्रेम का
हिस्सा हो। तब
बात और है। तब
गुण और है। तब
उस झुकने का
रस और है। तब
तुम उस झुकने
में कुछ पाओगे।
तब तुम उस
झुकने में भर
जाओगे, तब
तुम उस झुकने
में पाओगे कि
तुम्हारा घड़ा
झुका और नदी
से भर गया।
लेकिन अगर
नियम से तुम
झुके तो तुम
व्यर्थ ही झुकोगे।
वह कवायद हो
सकती है, उससे
तुम्हारे
शरीर को शायद
थोड़ा लाभ हो, लेकिन आत्मा
को कोई लाभ न
होगा। नियम से
आत्मा को कभी
कोई लाभ नहीं
होता, हानि
भला हो जाए।
तुम घर
जा रहे हो।
तुम पत्नी के
लिए बाजार से
एक फूल खरीद
लेते हो। यह
तुम नियम की
तरह खरीद रहे
हो?
तो मत
खरीदो। ये
पैसे व्यर्थ
जा रहे हैं।
या कि तुम एक
प्रेम, एक
अनुग्रह के
भाव से खरीदते
हो--कि पत्नी
दिन भर
प्रतीक्षा
करती रही होगी,
कि न मालूम
कितना काम
उसने किया
होगा, खाना
बनाया होगा, सब्जी तैयार
की होगी, वह
राह देखती
होगी, और
ऐसे ही मैं
खाली हाथ चला
जाऊं! और फूल
तुम्हें दिख
जाता है, तो
तुम फूल ले
लेते हो एक
भाव-प्रवण दशा
में--पत्नी
तुम्हें इतना
दे रही है, तुम
उसे कुछ भी
नहीं दे पा
रहे! तब
तुम्हारा फूल
एक मूल्य रखता
है। वह मूल्य
बाजार का
मूल्य नहीं
है। तब चाहे
तुमने यह फूल
दो पैसे में
खरीदा हो, यह
बहुमूल्य हो
गया। और
कोहिनूर भी
फीका है इसके
सामने, क्योंकि
अब तुम्हारे
हृदय का संवेग
लेकर जा रहा
है। अब इस फूल
का काव्य ही
अनूठा है। अब
यह फूल साधारण
इस पृथ्वी का
फूल न रहा।
तुमने इसमें
कुछ डाल दिया,
यह
पारलौकिक हो
गया।
लेकिन
तुम नियम से
खरीद सकते हो।
तुमने किताब पढ़ी
हो,
मैरिज मैनुअल्स
में लिखा हुआ
है कि जब घर
जाओ तो
आइसक्रीम, फूल
या कुछ खरीद
कर ले जाओ।
क्योंकि
पत्नी वहां
बैठी है
खतरनाक, उसे
थोड़ा संतुष्ट
करना है। जैसे
देवी पर कोई चढ़ोत्तरी चढ़ाते हैं,
ऐसा वह देवी
घर में बैठी
है, पता
नहीं क्रुद्ध
हो, नाराज
हो, तुम्हारे
फूल के ले
जाने से थोड़ा
सा समझौता
होगा--एक
रिश्वत की
भांति। तब यह
फूल कुरूप हो
गया। यह दो
पैसे का भी न
रहा। तब यह
फूल गंदा हो
गया। क्योंकि
फूल तो वही है जो
तुम्हारे
भीतर से तुम
उसमें डालते
हो।
पति
लाते हैं। जिस
दिन वे अपराधी
अनुभव करते हैं
उस दिन जरूर
कुछ खरीद कर
लाते हैं।
आइसक्रीम
खरीद लाते
हैं। और पत्नियां
भी जानती हैं
कि आज जरूर
किसी और
स्त्री की तरफ
गौर से देखा
है। नहीं तो
आइसक्रीम की
क्या जरूरत है? आज
पति कुछ
गिल्टी है, कुछ अपराधी
है, कहीं
भीतर कोई दंश
है। तो
आइसक्रीम
खरीद कर लाया
है। नहीं तो
नहीं। अगर हार
ही खरीद लाया
हो तो पक्का
ही है यह किसी
दूसरी स्त्री
के प्रेम में
पड़ गया है। वह
जितनी बड़ी
भेंट लाता है उतने
ही बड़े अपराध
की खबर लाता
है।
दो
व्यक्तियों
के बीच जब
नियम होता है
तो प्रेम नहीं
होता। नियम का
अर्थ ही यह
होता है कि तुम
बाजार में चल
रहो हो, बुद्धि
से चल रहे हो।
हृदय के कोई
नियम हैं, कोई
अनुशासन हैं?
न कोई नियम
है, न कोई
अनुशासन है।
फिर भी हृदय
का एक अनुशासन
है जो बड़ा
अनूठा है; जो
बिना लाए आता
है, जो
बिना आरोपित
किए मौजूद हो
जाता है। जो
खिलता है
क्षण-क्षण, जो अतीत से
नहीं आता, जो
वर्तमान में
जन्मता है।
तुमने
पत्नी को देखा
घर जाकर और
तुमने उसे
हृदय से लगा लिया।
यह तुम नियम
से भी कर सकते
हो। करना चाहिए।
डेल कारनेगी
जैसे लोग
किताबें
लिखते हैं, और
वे किताबें
लाखों में
बिकती हैं।
बाइबिल के बाद
डेल कारनेगी
की किताबें
बिकी हैं
दुनिया में।
और सब कचरा हैं।
और सब आदमी को
झूठा और
पाखंडी बनाती
हैं। तो डेल कारनेगी
कहता है, चाहे
तुम्हें लगता
हो चाहे न
लगता हो, लेकिन
पत्नी से दिन
में कम से कम
दो-चार बार कहना
जरूरी है कि
मैं तुझे
प्रेम करता
हूं, तेरी
जैसी सुंदर
कोई स्त्री
नहीं है। लगे
चाहे न लगे, यह सवाल
नहीं है, यह
कहना जरूरी है।
इसको तोते की
तरह दोहरा
देना जरूरी
है। डेल कारनेगी
कहता है, इससे
संबंध सुमधुर
बने रहते हैं।
कैसी झूठी दुनिया
है! जहां न
लगता हो तब
दोहराना, तो
जिंदगी एक
पाखंड हो जाती
है।
जीवन
एक कला है, पाखंड
नहीं। और कला
का यह अर्थ
नहीं है कि
तुम किसी
स्कूल में उस
कला को सीख
सकते हो। जीकर
ही तुम सीखते
हो। जैसे कोई
पानी में उतर
कर तैरना
सीखता है, ऐसे
ही जी-जीकर
तुम जीवन की
कला सीखते हो।
एक ही सूत्र
खयाल में रखना
जरूरी है कि
तुम होशपूर्वक
जीओ और
देखो कि जीवन
कैसा है। और
पाखंड से बचो।
पाखंड धोखा ही
बनाएगा। यह भी
हो सकता है कि
दो
व्यक्तियों
के संबंध
पाखंड के कारण
थोड़े से
सुविधापूर्ण
हों। लेकिन
कभी भी
आनंदपूर्ण न
होंगे।
सुविधा सस्ती
चीज है।
सुविधा को ले
लेना और आनंद
को गंवा देना
मंहगा सौदा
है।
लाओत्से
कहता है, मिताचारी। मिताचारी
का पहला आयाम
है: कम से कम
आचरण के नियम
हों।
"इन
मैनेजिंग
ह्यूमन अफेयर्स,
देयर इज़
नो बेटर
रूल दैन टु बी स्पेयरिंग।'
जब
नियम कम होते
हैं तो तुम
दूसरे
व्यक्ति को मौका
देते हो उसके
स्वयं होने
का। यह बड़े से
बड़ा प्रेम है
इस जगत में कि
तुम दूसरे को
वही होने दो
जो वह होना
चाहता है; तुम
दूसरे को वही
होने दो जो वह
होने को पैदा
हुआ है। तुम
दूसरे की
नियति में
बाधा मत बनो।
प्रेम
सहारा देता है; तुम
जो भी होने को
बने हो वही
होने में
सहयोगी होता
है। प्रेम
तुम्हें
काट-छांट कर
अपनी मर्जी के
अनुसार नहीं
बनाना चाहता।
क्योंकि मैं कौन
हूं जो
तुम्हें काटूं-छांटूं?
मैं कौन हूं
जो तुम्हें
तुम्हारे
रास्ते से
च्युत करूं और
कहीं और ले
जाऊं? मैं
कौन हूं जो
तुम्हारा
नियंता बनूं?
प्रेम
नियंता नहीं
है। प्रेम की
कोई मालकियत नहीं
है। प्रेम
तुम्हें
स्वतंत्रता
देता है वही
होने की जो
तुम होना
चाहते हो।
प्रेम तुम्हें
खुला आकाश
देता है।
प्रेम
तुम्हें छोटे
से आंगन में
बंद नहीं
करता। और प्रेमी
प्रसन्न होता
है, तुम
जितने मुक्त
आकाश में
विचरण करते
हो। तुम जितने
दूर निकल जाते
हो बादलों के
पार उड़ते हुए
कि प्रेमी को
दिखाई भी नहीं
पड़ता कि तुम
कहां चले गए
हो, उतना
ही प्रसन्न
होता है।
क्योंकि तुम
जितने स्वतंत्र
हो उतनी ही
तुम्हारी
गरिमा प्रकट होगी।
तुम जितने
स्वतंत्र हो
उतनी ही
तुम्हारी
आत्मा सुदृढ़
होगी। तुम
जितने
स्वतंत्र हो
उतने ही
तुम्हारे
जीवन में
प्रेम का झरना
बढ़ेगा और
बहेगा।
परतंत्र
व्यक्ति
प्रेम नहीं दे
सकता। इसलिए जब
तक स्त्रियां
परतंत्र हैं, मैं
निरंतर
कहूंगा, कहे
जाऊंगा
कि दुनिया में
प्रेम नहीं हो
सकता।
स्त्रियां
परतंत्र हैं
तो प्रेम
असंभव है।
क्योंकि दो स्वतंत्र
व्यक्ति ही
प्रेम का
आदान-प्रदान कर
सकते हैं। जिस
स्त्री को तुम
दहेज देकर ले
आए हो, जिस
स्त्री को
तुमने कभी
देखा भी नहीं
था और तुम्हारे
मां-बाप ने तय
कर दिया है और
कोई
पंडे-पुरोहितों
ने
जन्मकुंडली
देख कर निर्णय
लिया है; जिसका
निर्णय
तुम्हारे
हृदय से नहीं
आया; जिसका
निर्णय उधार,
बासा, दूसरों
का है, ऐसी
स्त्री को तुम
घर ले आए हो।
इसमें सुविधा तो
बहुत है, इसमें
झंझट कम है; इसमें
घर-गृहस्थी ठीक
से चलेगी।
लेकिन एक बात
खयाल रखना, तुम्हारे
जीवन में
नृत्य का क्षण
कभी भी न आ पाएगा;
तुम्हारा
प्रेम कभी
समाधिस्थ न हो
सकेगा। तुम इस
प्रेम के
मार्ग से
परमात्मा को न
जान सकोगे।
एक
स्वतंत्र
व्यक्ति ही
प्रेम दे सकता
है। गुलाम
सेवा कर सकता
है,
प्रेम नहीं
दे सकता।
मालिक
सहानुभूति दे
सकता है, प्रेम
नहीं दे सकता।
पति अगर मालिक
है तो ज्यादा
से ज्यादा दया
कर सकता है।
दया प्रेम है?
कोई स्त्री
दया नहीं
चाहती। तुम
जरा थोड़े हैरान
होओगे, जहां
प्रेम का सवाल
हो वहां दया
बड़ी बेहूदी और
कुरूप है। कौन
दया चाहता है?
क्योंकि दया
का अर्थ ही
होता है कि
मैं कीड़ा-मकोड़ा
हूं और तुम
आकाश के
देवदूत हो।
दया का अर्थ
ही यह होता है
कि मैं दयनीय
हूं; तुम
देने वाले हो,
दाता हो, मैं भिखारी
हूं। प्रेमी
कभी दया से
तृप्त नहीं
होता। लेकिन
मालिक दया दे
सकता है, प्रेम
कैसे देगा? और गुलाम
सेवा कर सकता
है, लेकिन
सेवा प्रेम
नहीं है। सेवा
कर्तव्य है; करना चाहिए
इसलिए करते
हैं। पत्नी
पति के पैर दबा
रही है, क्योंकि
पति परमात्मा
है, पैर
दबाने चाहिए;
ऐसा
शास्त्रों
में कहा है।
वह पैर दबा
रही है शास्त्रों
के कारण, अपने
कारण नहीं। और
जो पैर
शास्त्रों के
कारण दबाए जा
रहे हैं वे न
दबाए जाएं तो
बेहतर। क्योंकि
इन पैरों से
कोई लगाव नहीं
है, इन
पैरों में कोई
आस्था नहीं है,
कोई
श्रद्धा नहीं
है, कोई
प्रेम नहीं
है। यह एक
गुलामी का
संबंध है। इन
पैरों के साथ
जंजीरें बंधी
हैं। ये आकाश
में उड़ते दो
मुक्त पक्षी
नहीं हैं; एक
कारागृह में
बंद हैं।
यहूदियों
में कहावत है
कि शैतान एक
बूढ़ा और मूर्ख
सम्राट है। एक
यहूदी फकीर
हुआ झुसिया।
वह बड़ा चिंतित
था कि यह समझ
में नहीं आता, यह
कहावत समझ में
नहीं आती।
बूढ़ा समझ में
आता है, क्योंकि
आदमी से
पुराना शैतान
है; आदमियत
नहीं थी तब भी
शैतान था। अदम
को भड़काया।
तो बूढ़ा तो
समझ में आता
है। सम्राट भी
समझ में आता
है, क्योंकि
सारी दुनिया
का मालिक वही
मालूम पड़ता
है। लोग भला
चर्चों में
प्रार्थना
करते हों परमात्मा
की, लेकिन
हृदय में
प्रार्थना
शैतान की करते
हैं। शैतान की
ही चीजों की
तो मांग करते
हैं परमात्मा
से भी। तो
असली मालिक तो
वही है। तो
सम्राट भी समझ
में आता है।
लेकिन मूर्ख,
मूढ़ क्यों? यह
समझ में नहीं
आता।
फिर झुसिया
ने कहा कि
मुझे सजा हो
गई,
जेल में डाल
दिया गया; वहां
मेरी समझ में
रहस्य आ गया।
जेल में हथकड़ी
बंधी हैं और झुसिया ने
देखा कि शैतान
पास में बैठा
है। तो उसने
शैतान से कहा,
अब समझ गए
कहावत का
अर्थ। बूढ़े तो
तुम हो, यह
पहले से ही हम
समझ गए थे, क्योंकि
आदमी से
पुराने हो।
सम्राट भी तुम
हो, क्योंकि
सारे आदमी
तुम्हारी ही
प्रार्थना कर
रहे हैं और
तुम जो दे
सकते हो वही
मांग रहे हैं,
यह भी हम
समझते थे। लेकिन
मूर्ख हो, यह
हम पहली दफा
समझे। शैतान
ने पूछा, क्या
मतलब? तो
उसने कहा, यहां
कारागृह में,
जहां मेरे
हाथ में हथकड़ियां
बंधी हैं, जहां
मैं भला तो कर
ही नहीं सकता,
वहां तुम
मेरे पास बैठे
क्या कर रहे
हो? यहां
तो कुछ करने
का उपाय ही
नहीं है। कोई
दूसरा विकल्प
ही नहीं है
तुम्हारे
सिवाय; तुम
यहां बैठे
क्या कर रहे
हो? यहां
तो प्रार्थना
भी नहीं कर
सकता हूं। शुभ
का तो कोई
उपाय ही नहीं
है। इसलिए समझ
गया कि तुम महामूढ़
हो। कहावत ठीक
है। तुम अकारण
यहां बैठे हो,
क्योंकि
यहां तो
तुम्हारे
राज्य में
बिलकुल बंधा
हूं। इसके बाहर
जाने का कोई
उपाय ही नहीं
है। इसकी
दीवारें बड़ी
हैं; हाथ
में जंजीरें
पड़ी हैं।
जब मैं झुसिया की
आत्मकथा पढ़
रहा था तब
मुझे लगा कि जंजीरों
में तुम्हारे
पास तुम जिसे
पाओगे वह
परमात्मा
नहीं हो सकता, वह
शैतान ही
होगा।
क्योंकि
परमात्मा की
संभावना ही
स्वतंत्रता
में है।
इसीलिए तो हम
परमात्मा को
मोक्ष कहते
हैं।
और
हमने ऐसे लोग
भी पैदा किए
इस मुल्क में
जिन्होंने
परमात्मा की
भी फिक्र नहीं
की,
मोक्ष की ही
फिक्र की।
क्योंकि
उन्होंने कहा,
जहां मोक्ष
मिल गया, परमात्मा
मिल ही गया।
महावीर
परमात्मा की
बात नहीं
करते। बुद्ध
परमात्मा की
बात नहीं करते।
वे कहते हैं, मुक्ति काफी
है। जिस दिन
तुम परम
स्वतंत्र हो गए
उस दिन
परमात्मा मिल
ही गया। उसकी
बात क्या करनी
है!
परम
स्वतंत्रता
में तुम्हारे
जो साथ है वह
परमात्मा हो
जाता है। और
परम
परतंत्रता
में तुम्हारे
साथ जो रह
जाता है वह
केवल शैतान
है। तुम जिसको
गुलाम बनाते
हो उसको शैतान
बनाते हो। और
तुम जिसके मालिक
बनते हो, तुम
मालिक बनने
में भी शैतान
बनते हो।
क्योंकि
गुलामी में
सिर्फ शैतानी
का ही फूल खिल
सकता है।
गुलामी की
भूमि में शैतानी
के अतिरिक्त
और कोई पौधा
नहीं पनप सकता।
मिताचार का
अर्थ है, नियम
को कम करते
जाओ--यह पहला
आयाम--और
धीरे-धीरे
हार्दिकता को
बढ़ाते जाओ। एक
ऐसी घड़ी आ जाए
कि कोई नियम न
रह जाए, सिर्फ
हृदय ही नियम
हो। और ध्यान
रखना, एक
को जो साध
लेता है अनेक
सध जाते हैं।
और जो अनेक को
साधने में
लगता है वह एक
से भी वंचित
रह जाता है।
वह एक है
प्रेम। अनेक
नियमों को साधने
की जरूरत नहीं
है। प्रेम मिताचार
है।
दूसरा
आयाम है मिताचार
का: कि
तुम्हारे
जीवन में
न्यून से राजी
होने की
क्षमता बढ़नी
चाहिए।
ज्यादा की
मांग अंततः विक्षिप्तता
लाती है।
तुम्हें
न्यून से राजी
होना चाहिए।
तुम जितने
न्यून से राजी
हो जाओगे उतने
ही तुम विराट
होने लगोगे।
और यह न्यून
से राजी होना
सभी दिशाओं
में लागू है।
चाहे धन हो, चाहे
पद हो, चाहे
यश हो, चाहे
त्याग हो, चाहे
व्रत हो, न्यून
से राजी हो
जाना।
यहां
थोड़ी कठिनाई
है। क्योंकि
अगर कोई आदमी
धन इकट्ठा
करता चला जाता
है तो हम कहते
हैं यह पागल
है। हमारे सब
साधु-संन्यासी
कहते हैं, यह
पागल है।
और-और-और की
मांग किए चला
जा रहा है।
रुको! यह दौड़
का कहां अंत
होगा? हमें
भी दिखता है।
लेकिन त्यागी?
वह भी और की
मांग किए चला
जाता है। वह
हमें नहीं
दिखाई पड़ता।
पिछले साल
उसने बीस दिन
का उपवास किया
था, इस साल
वह पच्चीस दिन
का करने वाला
है। अगले साल
वह तीस दिन का
करेगा। यह भी
और की मांग
है। बीस लाख
रुपये थे, पच्चीस
लाख रुपये
चाहिए। बीस
दिन का उपवास
कर सकते थे, अब पच्चीस
दिन का कर
सकते हैं, तीस
की आकांक्षा
है। फर्क क्या
है? अनुपात
वही है। बीस
की जगह पच्चीस
चाहिए, पच्चीस
की जगह तीस
चाहिए। धन के
ही सिक्के लोग
इकट्ठे नहीं
करते, त्याग
के भी सिक्के
इकट्ठे करते
हैं। और दौड़ वही
की वही जारी
रहती है।
तो मिताचार
का दूसरा आयाम
है कि तुम
व्रत, त्याग, उसमें भी
थोड़े से राजी
हो जाना; आचरण
में भी थोड़े
से राजी हो
जाना। आचरण
में भी तुमको
बहुत बड़ा
महात्मा होना
चाहिए, इस
पागलपन में मत
पड़ना।
क्योंकि वह
पागलपन तो एक
ही जैसा है।
क्योंकि उसका
सूत्र एक ही
है: और चाहिए, और चाहिए, और चाहिए।
जब तक सारी
दुनिया तुमको
महात्मा न कहे
तब तक तुम
कैसे राजी हो
सकते हो? वहां
भी तुम थोड़े
से राजी हो
जाना।
असल
में,
थोड़े से
राजी हो जाना
ही महात्मापन
है। इसलिए तुम
महात्मापन
की अगर तलाश
करते रहे तो
मुश्किल में पड़ोगे। तब
दौड़ वही की
वही रहेगी।
दिशा बदल गई, लेकिन दिशा
का स्वभाव
नहीं बदला।
गुण वही का
वही है। तुम
त्याग की भी
ज्यादा
आकांक्षा मत
करना। जो
सुखपूर्वक
तुम कर सको, जो तुम
सहजता से कर
सको, बस
उतने पर राजी
हो जाना।
असहजता की तरफ
मत जाना।
एक
साधु मेरे पास
आए;
कहने लगे, बहुत अड़चन
है। एक ही
अड़चन है, उसकी
वजह से आया
हूं। वह अड़चन
यह है कि नींद
बहुत सताती
है। और
शास्त्रों
में कहा है कि
जो नींद में
ज्यादा लिप्त
है वह तामसी है।
तो मैंने पूछा
कि कितना सोते
हो? तो
उन्होंने कहा
कि रात तीन
बजे उठता हूं
और कोई ग्यारह
बजे सोने जाता
हूं। तो चार
ही घंटे सोते
हैं। और
उन्होंने कहा,
शास्त्रों
में कहा है कि
योगी को दो
घंटा काफी है।
मैंने कहा, शास्त्रों
में तो यह भी
कहा है कि जब
सब सोते हैं
तब भी योगी
जागता है। तुम
बड़ी मुश्किल
में हो।
वे
कहते हैं, दिन
भर नींद आती
है। आएगी ही।
तीन बजे उठोगे
तो इसमें कसूर
किसका है? तो
वे कहते हैं, प्रार्थना
भी करता हूं
तो झपकी आती
है। आएगी ही।
ध्यान लगता ही
नहीं; क्योंकि
ध्यान के पहले
नींद लग जाती
है। आएगी ही।
बिलकुल
सीधा-साफ है।
इसमें कुछ
अड़चन नहीं है।
शरीर की जरूरत
है। अतिशय मत
खींचो। पागल हो
जाओगे। और अगर
नींद जैसी सरल
चीज के प्रति
भी अपराध का
भाव आ
गया--नींद
जैसी सरल चीज,
इससे
ज्यादा सरल और
क्या होगा? कुछ भी तो
नहीं करना है,
सिर्फ सो
जाना है। और
नींद में कम
से कम तुम महात्मा
होते हो। कुछ
उपद्रव नहीं
करते, कोई
की हत्या नहीं
करते, कोई
की चोरी नहीं,
कोई जेब
नहीं काटते।
इतनी सरल सी
चीज से ऐसा क्या
विरोध बना रखा
है?
वे
थोड़े चौंके।
उन्होंने कहा, क्या
आपका मतलब है
ज्यादा सोना
शुरू करूं? तो वह तो
तामस हो
जाएगा।
क्या
होगा कि नहीं
होगा, यह मुझे
मतलब नहीं है।
जो जरूरत है!
तो उसका अर्थ
हुआ कि तामस
की जरूरत है।
क्योंकि शरीर
तामस का
हिस्सा है। जब
तक तुम शरीर
में हो तब तक
शरीर थकता है;
थकता है तो
विश्राम
चाहिए। और अगर
तामस की जरूरत
ही न होती तो
परमात्मा
तामस को बनाता
ही क्यों? दो
ही गुणों से
काम चला लेता।
तीन गुण की
क्या जरूरत है?
परमात्मा
भी बिना तामस
के नहीं बना
सकता अस्तित्व
को। तुम कोशिश
में लगे हो
परमात्मा से
आगे जाने की।
प्रतिस्पर्धा
बड़ी है।
परमात्मा
भी सत्व और रज
से अस्तित्व
को नहीं बना
सकता।
क्योंकि तमस
की बड़ी खूबी
है। उसका अपना
रहस्य है। तमस
के बिना कोई
चीज थिर ही
नहीं होती। रज
में बड़ी गति
है। लेकिन
अकेली गति से थोड़े
ही संसार बनता
है! कोई चीज
ठहराने वाली चाहिए।
तुम दौड़ते ही
रहोगे, दौड़ते
ही रहोगे, तो
मुश्किल में पड़ोगे।
कहीं तो रुकना
पड़ेगा। रुकोगे,
वहीं तमस
शुरू होगा।
तमस तो एक
सिद्धांत है।
लेकिन लोगों
ने तमस शब्द
का बड़ा
अपमानजनक
उपयोग शुरू कर
दिया। तमस का
तो इतना ही
मतलब है: रुकने
का सिद्धांत,
विश्राम का
सिद्धांत।
परमात्मा
को भी विश्राम
करना पड़ता है।
इसलिए तो हम
कहते हैं कि
ब्रह्मा का
दिन सृष्टि
है। फिर
ब्रह्मा की रात
आती है तो
प्रलय हो जाता
है। सारा
अस्तित्व
सिकुड़ कर शांत
हो जाता है, नींद
में चला जाता
है। तो अगर हम
पूरे अस्तित्व
को बारह घंटा
मान लें, दिन,
तो फिर बारह
घंटा, इतनी
ही बड़ी रात है
जब सब सो जाता
है। खुद
परमात्मा सो
जाता है। तो
तुम परमात्मा
से किसलिए
होड़ में
लगे हो? तुम
शांति से सो
जाओ।
और तब
तुमने क्या
अड़चन कर ली! अब
तुमसे ध्यान भी
नहीं हो सकता।
ध्यान नहीं हो
सकता तो वे
समझते क्या
हैं?
ये मन के
गणित बड़े अजीब
हैं। वे समझते
हैं कि तमस की
वजह से ध्यान
नहीं लग रहा।
और कम सोओ, तमस
को काटो।
जितना तमस
काटोगे उतनी
तमस की जरूरत
बढ़ती जाएगी।
क्योंकि कहीं
न कहीं से
जरूरत पूरी
होगी। इसलिए
तुम मंदिरों
में जाओ, वहां
लोगों को तुम
झपकी लेते
पाओगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मस्जिद जाता
है तो सोने के
लिए ही। जो
पुरोहित वहां
व्याख्यान
करता है, वह
थोड़ा परेशान
हुआ, क्योंकि
वह सिर्फ सोता
ही नहीं, वह
घुर्राता भी
है। और
बुजुर्ग आदमी
है, पंचायत
का प्रमुख है,
तो आगे ही
बैठता है। और
आगे ही
घुर्राता है।
उससे पुरोहित
को बड़ी अड़चन
होती है; बोलने
में भी अड़चन
होती है। और
अभद्र भी
मालूम पड़ता है,
इससे वह कुछ
कह भी नहीं
सकता। उसके
लड़के का लड़का,
नाती भी साथ
आता है। तो
पुरोहित ने
तरकीब निकाली।
और पुरोहित तो
तरकीब
निकालने वाले
लोग हैं, उनसे
ज्यादा चालाक
आदमी नहीं।
क्योंकि उनका धंधा
ही चालाकी का
है। बड़ा
सूक्ष्म धंधा
है, उसमें
चालाकी होगी
ही। तो उसने
बगल में, सभा
के बाद, लड़के
को बुलाया और
कहा, देख, तुझे मैं
चार आने दूंगा;
जब भी तेरे
दादा को नींद
लग जाए तो तू
जरा हिला कर
जगा दिया कर।
लड़के ने कहा, ठीक।
दोत्तीन
सप्ताह तो सब
ठीक चला। चौथे
सप्ताह लड़का
बिलकुल शांत
बैठा रहा और
बूढ़ा घुर्राने
लगा। फिर
पुरोहित ने
उसे बुलाया कि
क्यों भाई, तुझे
मैं चार आने
देता हूं!
उसने कहा, वह
आप देते हैं, लेकिन मेरे
दादा मुझे आठ
आने देने का
कहे हैं; कि
अगर बीच में
बाधा नहीं
देगा तो आठ
आने दूंगा, वे कहते
हैं। अब मैं
क्या कर सकता
हूं?
मंदिरों
में,
मस्जिदों में, चर्चों
में लोग सो
रहे हैं।
ध्यान
रखना कि अगर
नींद पूरी न
होगी तो ध्यान
तुम कर ही न
सकोगे। नींद
एक जरूरत है।
नींद कोई पाप
नहीं है। नींद
कुछ बुराई
नहीं है, कोई
अपराध नहीं
है। पूरी नींद
कर लोगे, तभी
तुम ध्यान कर
पाओगे।
क्योंकि
ध्यान भी बड़ी
विश्राम की
अवस्था है।
अगर तुम नींद
ही में पूरे न
गए तो जैसे ही
तुम शांत
बैठोगे वैसे
ही नींद लग
जाएगी।
क्योंकि
जरूरत शरीर की
पहले पूरी
होती है। इसे
ध्यान रखना:
शरीर की जरूरत
पहले है, आत्मा
की जरूरत बाद
में है। और
शरीर की जरूरत
जिसने पूरी
नहीं की उसकी
आत्मा की
जरूरत कभी भी
वह पूरी नहीं
कर पाएगा।
इसलिए तो हम
कहते हैं, भूखे
भजन न होंहि
गुपाला।
भूख लगी हो तो
भजन कैसे
करोगे? भूख
ही भजन में गूंजती
रहेगी। पेट
भरा हो तो ही
भजन हो सकता
है।
इसका
यह मतलब भी
नहीं है कि
पेट बहुत भरा
हो। बहुत भरा
हो तो भी भजन
नहीं हो सकता।
एक सम्यक
अवस्था चाहिए
शरीर की। न तो
बहुत भोजन, न
बहुत कम। न
बहुत ज्यादा
नींद, न
बहुत कम। न
बहुत ज्यादा
श्रम, न
बहुत कम। और
हर व्यक्ति को
अपना सूत्र
खुद ही खोजना
पड़ता है।
क्योंकि हर
व्यक्ति
दूसरे व्यक्ति
से अलग है।
इसलिए दुनिया
में कोई तुम्हारे
लिए नियम नहीं
बना सकता।
लेकिन अक्सर
यह भ्रांति
होती है। यह
भी तुम समझ
लेना कि मिताचारी
होने का यह भी
अर्थ है कि
तुम दूसरे के
लिए नियम
बनाने की
कोशिश मत
करना।
क्योंकि जो
तुम्हारे लिए
नियम है वह
दूसरे के लिए
घातक फंदा हो
सकता है।
शास्त्र
अक्सर, हिंदू
शास्त्र, बूढ़ों
ने लिखे हैं।
बूढ़ों की नींद
कम हो जाती
है। शरीर की
जरूरत खतम हो
जाती है। तो
बूढ़े अक्सर, चाहे वे
ज्ञानी न भी
हों, तो भी
तीन बजे के
करीब जग जाते
हैं। पड़े रहें,
बात अलग। जब
बूढ़े शास्त्र बनाएंगे
तो वे लिखेंगे
कि तीन बजे
उठना नियम है।
लेकिन यह
शास्त्र
बच्चों के काम
में नहीं लाया
जा सकता।
क्योंकि मां
के पेट में
बच्चा चौबीस
घंटे सोता है।
उसकी जरूरत
उतनी है। जब
शरीर में इतना
काम हो रहा है,
सृजन हो रहा
है, हर चीज
बन रही है, तो
बच्चे के
जागने से बाधा
पड़ जाएगी। वह
सोया रहता है;
शरीर में
सृजन का काम
चल रहा है।
बच्चे को बीच में
आने की जरूरत
नहीं है। वह
चौबीस घंटे
सोता है मां
के पेट में।
फिर पैदा होने
के बाद अठारह
घंटे सोता है।
फिर सोलह घंटे
सोता है। फिर
धीरे-धीरे
जरूरत कम होती
जाती है।
जैसे-जैसे
बच्चे का शरीर
पूरा हो जाता
है, सृजन
का काम बंद हो
जाता है, आठ
घंटे के करीब,
सात-आठ घंटे
के करीब ठहर
जाती है बात।
फिर पैंतीस
साल के बाद
शरीर में
दूसरी क्रिया
शुरू होती है,
टूटने की।
जब टूटने की
क्रिया शुरू
होती है तो
नींद कम होने
लगती है।
क्योंकि जब
नींद कम होगी
तभी शरीर टूट
सकता है, नहीं
तो टूट नहीं
सकता। जैसे कि
बच्चे के शरीर
के बनने में
नींद की जरूरत
है बूढ़े के
शरीर के टूटने
में नींद की
बिलकुल जरूरत
नहीं है। नहीं
तो बूढ़ा मरेगा
ही नहीं। तो
नींद कम होने
लगेगी। नींद
के कम होने का
मतलब यह है कि
शरीर में अब
बनने का काम बंद
हो गया।
हिंदुओं
के शास्त्र
बूढ़ों ने
लिखे। तो बूढ़े
अपने हिसाब से
लिखते हैं।
अगर दो माह का
बच्चा
शास्त्र लिख
सके तो वह लिखेगा
कि बीस घंटे
सोना नियम है।
जवान अगर लिखेगा
तो सात-आठ
घंटे सोना
नियम है। बूढ़ा
अगर लिखेगा तो
तीन-चार घंटे
काफी हैं।
फिर
एक-एक व्यक्ति
में भेद है।
तुम भोजन
अलग-अलग ढंग
का करते हो।
अब जो
मांसाहारी है
वह थोड़ा ज्यादा
सोएगा। जो
शाकाहारी है
वह थोड़ा कम
सोएगा।
क्योंकि मांस
को पचाने के
लिए शरीर को
ज्यादा श्रम
करना पड़ता है।
शाक-सब्जी को
पचाने के लिए
उस तरह का
श्रम नहीं
करना पड़ता।
इसलिए शाकाहारी
कम सोएगा।
जो
मजदूर है वह
ज्यादा
सोएगा।
क्योंकि दिन
में इतना श्रम
किया है कि शरीर
के बहुत से
सेल टूट गए; उनको
पूरा करने के
लिए उसे गहरी
नींद जरूरी है।
जो करोड़पति
है उसको सोने
के लिए ट्रैंक्वेलाइजर
लेना पड़ेगा।
क्योंकि उसने
कोई श्रम किया
नहीं, कुछ
टूटा नहीं। जब
कुछ टूटा नहीं
तो बनने का सवाल
नहीं है।
इसलिए नींद की
कोई जरूरत
नहीं है उसकी।
तो रात करवटें
बदलेगा।
करवटें बदलना,
असल में, शरीर की
तरकीब है नींद
में श्रम करने
की। करवट
बदलने का इतना
ही मतलब है कि
कुछ भी नहीं
किया तो कम से
कम करवट तो बदलो,
तो थोड़ा
श्रम हो जाए।
थोड़ा श्रम हो
जाए तो थोड़ी
नींद लग जाए।
अगर तुमने
बौद्धिक श्रम
किया है दिन
में तो नींद
कठिन हो जाएगी;
अगर
शारीरिक श्रम
किया है तो
नींद बड़ी सुगम
होगी।
फिर हर
आदमी पर
अपनी-अपनी...।
इसलिए किसी
शास्त्र के
नियम में मत पड़ना।
क्योंकि
जिसने नियम
बनाया था वह
तुम नहीं हो।
जिसने नियम
बनाया था वह
अपने लिए होगा; उसके
लिए ठीक रहा
होगा। दुनिया
में हजारों अड़चनें कम
हो जाएं अगर
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
जीवन की सहजता
को खोज कर
नियम बनाने
लगे।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
पुरुष अगर
पांच बजे उठ
जाएं तो कोई
हर्जा नहीं
है। उनकी नींद
पांच बजे पूरी
हो जाती है।
लेकिन
स्त्रियों की
नींद कोई साढ़े
छह बजे पूरी
होती है, या
सात बजे पूरी
होती है।
लेकिन नियम यह
है कि पत्नी
को पहले उठना
चाहिए, नहीं
तो पति नाराज
होगा।
वैज्ञानिकों
ने बहुत खोज
की है नींद
पर। चौबीस
घंटे में दो
घंटे शरीर का
तापमान नीचे
गिरता है। वे
ही दो घंटे
गहरी नींद के
घंटे हैं। पुरुषों
का तापमान
गिरता है कोई
तीन और पांच
के बीच में; स्त्रियों
का तापमान
गिरता है कोई
छह और आठ के
बीच में। वे
गहरे से गहरे
नींद के क्षण
हैं। अगर वे
दो घंटे तुमने
सो लिए तो तुम
ताजा अनुभव करोगे।
अगर उन दो
घंटों में
व्याघात पड़
गया तो तुम
दिन भर परेशान
अनुभव करोगे।
तो अगर
हम वैज्ञानिक
की सलाह मानें
तो सुबह की
चाय पति को
बनानी चाहिए, पत्नी
को बिलकुल
नहीं। उसे सोए
रहना चाहिए बिस्तर
पर; पति को
लाना चाहिए
चाय बना कर; अगर
वैज्ञानिक की
हम बात सुनें।
क्योंकि स्त्रियों
के शरीर का
ढंग और है, पुरुष
के शरीर का
ढंग और है।
उनके हारमोन
अलग हैं। उनके
शरीर की भीतरी
बनावट और है।
और उसके अनुसार
सारी
जीवन-व्यवस्था
होनी चाहिए।
मिताचार का
अर्थ है कि
तुम थोड़े से
नियम बनाना, और
नियम भी उधार
मत लेना। और
कठिन नहीं है,
अगर तुम
थोड़े से
प्रयोग करो।
कितना कठिन है?
अगर तुम एक
तीन सप्ताह
प्रयोग करके
देख लो, सब
तरह से उठ
कर--तीन बजे उठ
कर देख लो दो
दिन, चार
बजे उठ कर देख
लो दो दिन, पांच
बजे उठ कर देख
लो, छह बजे,
सात बजे, आठ बजे--एक
तीन सप्ताह
प्रयोग करके
देख लो। जो घड़ी
तुम्हें सबसे
ज्यादा जम जाए,
जिसमें तुम
रम जाओ, जिसमें
चौबीस घंटे
तुम ताजा
मालूम पड़ो,
वही
तुम्हारे लिए
नियम है।
कुछ
लोग हैं जो
रात में बारह
बजे सोएं
तो ही सुबह
उनको ताजगी
रहेगी। कुछ
हैं जो नौ बजे सोएं तो ही
सुबह ताजगी
रहेगी। और कोई
किसी के लिए नियम
नहीं बना
सकता।
प्रत्येक
व्यक्ति
अनूठा और
अलग-अलग है।
अपना नियम
खोजना। और
अपने नियम को
ठीक से, समझ
के अनुसार
चलने पर तुम
पाओगे, तुम्हारे
जीवन में बड़ी
सहजता और
स्वाभाविकता
आ जाती है।
अड़चन कम हो
जाती है।
दूसरे का नियम
हमेशा अड़चन
देगा।
जैसे
विनोबा के
आश्रम में, विनोबा
तीन बजे उठते
हैं, तो
सबको तीन बजे
उठना चाहिए।
अब यह अड़चन की
बात है।
विनोबा बूढ़े
आदमी हैं।
उनकी जरूरत
होगी तो वे नौ
बजे सो जाते
हैं। लेकिन नौ
बजे दूसरों को
नींद ही नहीं
आती, वे
पड़े हैं।
लेकिन नौ बजे
नियम है आश्रम
का तो नौ बजे
सो जाना है, तीन बजे उठ
आना है। फिर
दिन भर बेचैनी
है; फिर
बेचैनी से इररिटेशन
है; फिर
बेचैनी से हर
छोटी-छोटी बात
में क्रोध है।
इसलिए
तुम
साधु-संतों को
बड़ा क्रोधी
पाओगे। उनके
भीतर
जीवन-ऊर्जा
सम्यक नहीं
है। इसलिए हर
छोटी चीज
परेशान करेगी, हर
छोटी चीज पर
नाराजगी
आएगी।
नाराजगी का
कारण भीतर है
कि तुम बेचैन
हो। न ठीक
भोजन कर रहे हो,
न ठीक सो
रहे हो; न
ठीक श्रम कर
रहे हो।
तुम्हारी
अड़चन स्वाभाविक
है।
अपना
नियम खोज
लेना। आने
देना अनुशासन
को भीतर से।
इसलिए मैं
तुम्हें
सिर्फ विवेक
सिखाता हूं कि
तुम
होशपूर्वक
अपने को समझने
की कोशिश करो।
दुनिया में
कोई तुम्हारा
मालिक नहीं है।
और किसी ने
तुम्हारे लिए
आखिरी नियम
नहीं लिख दिए
हैं।
तुम्हारा
धर्मशास्त्र
तुम्हारे
शरीर और
तुम्हारे मन
में छिपा है।
तुम उसे पढ़ना
सीखो। और वहीं
से अगर तुमने
आदेश लिया तो
तुम पाओगे कि
तुम शांत होते
चले जाते हो।
जितने तुम
शांत होते हो
उतने आनंद की
क्षमता बढ़ती
है। और तब तुम
यह भी पाओगे
कि बहुत नियम
की जरूरत नहीं
है। बड़े छोटे
से नियम, जिनको
नियम कहना भी
ठीक नहीं है, तुम्हारे
जीवन को
रूपांतरित कर
देंगे।
"मानवीय
कारबार की
व्यवस्था में,
मिताचारी होने से
बढ़िया दूसरा
नियम नहीं है।'
अगर
लाओत्से से
तुम पूछो कि
तुम्हारे
जीवन का नियम
क्या है? तो
लाओत्से कहता
है, जब
मुझे नींद आती
है मैं सो
जाता हूं; जब
मुझे भूख लगती
है तब मैं
भोजन कर लेता
हूं; जब
नींद खुल जाती
है तब जाग
जाता हूं। बस
ऐसे नियम हैं,
और कोई नियम
नहीं है। और
लाओत्से परम
अवस्था को
उपलब्ध हुआ।
फिर
नियम भी सख्त
नहीं हो सकते, लोचपूर्ण होंगे।
क्योंकि
तुम्हारी
जरूरत रोज
बदलेगी। जो नियम
तुमने जवानी
में बनाया, वह बुढ़ापे
में काम न
आएगा। जो आज
बनाया, कल
काम न आएगा।
इसलिए तुम
नियम को भी
सख्त मत बना
लेना। अपना भी
बनाया हुआ
नियम सख्त
नहीं होना
चाहिए। अगर
सख्त हुआ तो
तुम जाल में
पड़ जाओगे।
क्योंकि
तुम्हारी
शरीर की जरूरत
रोज बदलेगी।
आवश्यकता के
अनुसार तुम
जागते हुए
बदलते जाना।
नियम लोचपूर्ण
चाहिए। तुम
नियम के लिए
नहीं हो, नियम
तुम्हारे लिए
हैं। नियम
तुम्हें
व्यवस्था
देने के लिए
हैं। तुम यहां
इसलिए नहीं हो
कि कुछ नियमों
को तुम अपने
में व्यवस्था
दो।
"मिताचार
पूर्व-निवारण
करना है।'
और जिस
व्यक्ति के
जीवन में लोचपूर्ण, कम
से कम, अपरिहार्य
नियम होंगे, अपने ही खोजे
हुए, वह
व्यक्ति
पूर्व-निवारण
कर लेता है।
उसकी हजारों
मुसीबतें आती
ही नहीं। पहले
तो मुसीबत को
बुलाना और फिर
निवारण करना
नासमझी है।
मुसीबत तो
पहले ही रोकी
जा सकती है।
मुसीबत का तो
पूर्व-निवारण
हो सकता है।
लेकिन बड़ा होश
चाहिए तब। बड़ी
सजगता चाहिए।
तुमने
भी कई बार
अनुभव किया है
कि क्रोध तुम
करते हो, पीछे
पछताते हो, दुखी होते
हो, निर्णय
लेते हो--नहीं
करूंगा
क्रोध। लेकिन
फिर क्रोध हो
जाता है। क्या
कारण होगा? तुम
पूर्व-निवारण
नहीं कर पा
रहे हो। बीमारी
जब आ जाती है
तब तुम उसे
हटाते हो। तब
तक तो बीमारी
ने जड़ें जमा
लीं। क्रोध
कोई अकेली
घटना नहीं है,
मल्टी कॉजल
है; उसके
बहुत कारण
हैं।
एक
आदमी ने
तुम्हें गाली
दी। तुम यह मत
समझना कि बस
यही कारण है
क्रोध का। तुम
अगर ठीक से न सोए
तो वह भी कारण
बनेगा क्रोध का।
तुम्हें अगर
ठीक से भोजन न
मिला तो वह भी
कारण बनेगा
क्रोध का।
तुम्हारे
जीवन में अगर
प्रेम की धारा
न बही तो तुम
हर घड़ी राजी
हो क्रोधित
होने के लिए।
यह आदमी का
गाली देना तो
सिर्फ बहाना
है। ये सब
चीजें
तुम्हारे
भीतर तैयार हैं।
बारूद तैयार
है,
यह आदमी तो
सिर्फ एक
अधजली सिगरेट
फेंक देता है;
विस्फोट हो
जाता है। तुम
समझते हो, यह
आदमी बम फेंक
दिया। इस आदमी
ने कुछ भी
नहीं किया है।
इस आदमी का
कोई संबंध ही
नहीं है। तुम
अगर भीतर शांत
हो तो यह
सिगरेट उस
शांति के जल
में जाकर बुझ
जाती, पता
भी न चलता।
तुम भीतर
अशांत थे, बारूद
मौजूद थी।
सूखी बारूद
लिए घूम रहे
हो, और तुम
सोचते हो कोई
दूसरा
तुम्हें
क्रोधित करवा
रहा है।
फिर
तुम कसमें
खाते हो, व्रत-नियम
लेते हो कि
मैं क्रोध न
करूंगा। तुम
और दूसरा
पागलपन कर रहे
हो। क्योंकि
जब बारूद भीतर
मौजूद है, तुम
कैसे क्रोध न
करोगे? वैसे
ही झंझट थी, अब दुगुनी
हो गई। अब तुम
इस बारूद को
दबाए फिर रहे
हो। अब यह
विस्फोट
भयंकर होगा।
जिस दिन फूटेगा
उस दिन तुम
बचोगे ही
नहीं। तुम
किसी की हत्या
करोगे या
आत्महत्या
करोगे।
पुरुष
ज्यादा आत्महत्याएं
करते हैं। इसे
तुम्हें जान
कर हैरानी
होगी। स्त्रियां
कोशिश करती
हैं ज्यादा, लेकिन
सफल नहीं
होतीं।
स्त्रियों का
काम-धंधा ही
ऐसा है। सौ
स्त्रियां
आत्महत्या की
कोशिश करती
हैं तो
मुश्किल से
बीस सफल होती
हैं। उनकी
कोशिश भी
अधूरी-अधूरी
है। उस कोशिश
के कारण दूसरे
हैं। वे ठीक
मरना नहीं
चाहतीं। अगर
सौ पुरुष
आत्महत्या की
कोशिश करते
हैं तो पचास
सफल होते हैं।
स्त्रियां
कोशिश ज्यादा
करती हैं, इसलिए
तुम्हें यह
भ्रांति होगी
कि स्त्रियां
बहुत
आत्महत्या
करती हैं।
नहीं, आत्महत्या
पुरुष ज्यादा
करते हैं--दो
गुनी ज्यादा।
स्त्रियों से
दुगुनी
आत्महत्या
करते हैं। और
कारण क्या है?
कारण
यह है कि
स्त्रियां
अपने क्रोध को
निकाल लेती हैं।
बर्तन तोड़
देंगी, प्लेट
पटक देंगी, बच्चे की
पिटाई कर
देंगी। निकाल
लेती हैं। रो लेंगी,
चीख-चिल्ला
लेंगी, कपड़े
फाड़
लेंगी, सिर
के बाल खींच
लेंगी।
आत्महत्या के
लायक क्रोध
इकट्ठा नहीं
हो पाता। और
पुरुष अकड़ा
हुआ रहता है।
रो कैसे सकता
है! मर्द कहीं
रोता है?
अब
मर्द नहीं
रोता तो भगवान
ने मर्द की
आंखों में
आंसू की
ग्रंथि क्यों
बनाई? तो
भगवान ने कुछ
गलती की। उतनी
ही बड़ी ग्रंथि
आदमी की आंखों
में है जितनी
स्त्री की।
उसमें उतने ही
आंसू भरे हैं।
वे निकलने
चाहिए। लेकिन
मर्द रो नहीं
सकता।
छोटे-छोटे
बच्चों को हम
सिखलाते हैं
कि क्या रो
रहा है!
लड़कियों जैसा
व्यवहार कर
रहा है!
आंख
में लड़के और
लड़की के कोई
फर्क नहीं है।
और रोना एक
निकास है। और
जो रो नहीं
सकता वह ठीक से
हंस भी नहीं
सकता।
क्योंकि हंसी
में भी आंसू
निकल आते हैं।
रोना और हंसी
दोनों तरफ से
एक ही दिशा
में यात्रा
करते हैं।
तो
पुरुष न तो
हंसता है ठीक
से,
न रोता है
ठीक से, न
क्रोध करता
है। अकड़ में
बना रहता है।
तो इतना
इकट्ठा हो
जाता है मवाद
कि जब फूटता
है तो या तो
हत्या करता है
या आत्महत्या
करता है। अगर
दुर्जन हुआ तो
हत्या करता है,
सज्जन हुआ
तो आत्महत्या
करता है। बस
इतना ही फर्क
है। दोनों ही
हत्या करते
हैं। दुर्जन
दूसरे को
मिटाता है, सज्जन अपने
को मिटाता है।
लेकिन मिटाने
में दोनों एक
जैसे हैं।
जो
व्यक्ति
क्रोध से
पीड़ित हो उसको
पूर्व-निवारण
करना चाहिए।
और अपनी पूरी
जीवन-स्थिति को
समझना चाहिए
कि यह मैं
बारूद कैसे
इकट्ठी कर रहा
हूं! और बारूद
को सूखा रखा
हुआ हूं। मैं
खतरा लेकर घूम
रहा हूं। जैसे
पेट्रोल की
टंकी पर लिखा
रहता है: एनफ्लेमेबल।
ऐसे ही सबकी
खोपड़ी पर लिखा
रहना चाहिए: एनफ्लेमेबल।
जरा कोई ने
माचिस जलाई कि
झंझट खड़ी हो
जाएगी।
लाओत्से
कहता है, जिसने
जीवन को समझने
की कोशिश की
और जीवन के छोटे-छोटे
नियम, जो
सहजता से आने
चाहिए, शास्त्रों
से नहीं, वह
पूर्व-निवारण
कर लेता है।
"मिताचार
पूर्व-निवारण
करना है। टु
बी स्पेयरिंग
इज़ टु फोरस्टाल।'
पहले
से ही तुम काट
देते हो वे
जड़ें। ठीक से सोओ; सम्यक
निद्रा जरूरी
है। ठीक से
भोजन करो; सम्यक
भोजन जरूरी
है।
होशपूर्वक
उठो, बैठो,
चलो; होश
जरूरी है।
स्वाभाविक
बनो; अस्वाभाविक
की आकांक्षा
मत करो।
जरूरतों को पूरा
करो; वासनाओं
की उपेक्षा
करो। व्यर्थ
की दौड़ में मत
लगो; सार्थक
को ही बस पा
लेना काफी है।
शक्ति को बचाओ;
अकारण खर्च
मत करो। जितनी
शक्ति
तुम्हारे पास
संगृहीत होगी,
जितने तुम
शक्तिशाली
होओगे, उतना
ही कम क्रोध
होगा। जितने
तुम
शक्तिशाली होओगे
उतना ही दूसरे
लोग तुम्हें
कम उत्तेजित
कर सकेंगे।
तुम्हारी
ऊर्जा ही
तुम्हारा कवच
है।
"पूर्व-निवारण
करना तैयार
रहने और सुदृढ़
होने जैसा है;
तैयार रहना
और सुदृढ़
होना सदाजयी
होना है।'
और जो
आदमी
पूर्व-निवारण
कर लेता है
अपनी बीमारियों
का,
जो अपने
भीतर एक शांति
का स्थल बना
लेता है, एक
छोटा सा मंदिर
बना लेता है
जहां सब शांत
और मौन है, जहां
बड़ी गहन
तृप्ति है, परितोष है, उसे तुम
उद्वेलित
नहीं कर सकते,
उसे तुम
पराजित नहीं
कर सकते। तुम
उसे हराओगे
कैसे? क्योंकि
वह जीत की
आकांक्षा ही
नहीं करता। तुम
उसे मिटाओगे
कैसे? क्योंकि
उसने खुद ही
अपने को मिटा
दिया है। उसके
जीवन में कोई
असफलता नहीं
हो सकती, क्योंकि
सफलता की
कामना और वासना
को उसने
उपेक्षा कर दी
है। सफलता को
खाओगे या पीओगे
या पहनोगे?
जीवन
तो बहुत
छोटी-छोटी
चीजों से भर
जाता है। रोटी
चाहिए, कपड़ा चाहिए, प्रेम
चाहिए, एक
छप्पर चाहिए।
जीवन किसी
बहुत बड़ी-बड़ी
आकांक्षा के
कारण सुखी
नहीं होता।
नहीं तो पक्षी
कभी सुखी नहीं
हो सकते थे, पौधे कभी
फूल नहीं दे
सकते थे।
क्योंकि पौधे
राष्ट्रपति
कैसे बनेंगे?
पक्षी
प्रधान
मंत्री कैसे
बनेंगे?
सारा
अस्तित्व
प्रसन्न है, क्योंकि
थोड़े से राजी
है, जरूरत
से राजी है।
सिर्फ आदमी
बेचैन है।
अकेला आदमी
पागल है।
अकेला आदमी
भटक गया है।
जरूरत की तो
फिक्र ही नहीं
है, गैर-जरूरत
की फिक्र है।
पेट भरे न भरे,
गले में
सोने का हार
चाहिए। नींद
मिले या न मिले,
सिर पर ताज
चाहिए। प्यास
बुझे न बुझे, वासना!
व्यर्थ की दौड़
का नाम वासना
है कि जिसको
पा भी लोगे तो
कुछ पाया
नहीं। न पाए
तो परेशान हुए,
पा लिए तो
पाया कि हाथ
खाली हैं।
वासना दुष्पूर
है। उसको कभी
कोई नहीं भर
पाता। दौड़ना
बहुत होता है
उसमें, पहुंचना
कभी भी नहीं
होता।
तो
लाओत्से कहता
है,
जिसने
पूर्व-निवारण
कर लिया, जो
अपनी
छोटी-छोटी
जरूरतों में
राजी हो गया...।
और तुम
सोच भी नहीं
सकते, क्योंकि
इतनी वासनाएं
मन को पकड़े
हैं, अन्यथा
तुम इतने
अनुगृहीत हो
जाओगे
परमात्मा के!
श्वास भी
तुम्हारी
इतनी शांत और
आनंदपूर्ण हो
जाएगी।
उठने-बैठने
में एक नृत्य
भीतर चलने
लगेगा। बोलने
में, चुप
रहने में एक
संगीत बजने
लगेगा।
जो
पक्षियों को
उपलब्ध है वह
तुम्हें
उपलब्ध नहीं
हो पाता, यह
हैरानी की बात
है। तुम
पक्षियों से
श्रेष्ठ हो, तुम पौधों
से बहुत आगे
जा चुके हो, तुम शिखर हो
इस पूरे
अस्तित्व के।
और तुमसे ज्यादा
दीन कोई नहीं
दिखाई पड़ता।
तुम्हारे जीवन
में कभी फूल
लगते ही नहीं;
संगीत कभी
लगता ही नहीं;
कभी तुम
नाचने की घड़ी
में आ ही नहीं
पाते। तुम कभी
मदमस्त नहीं
हो पाते, जब
कि पूरी
मधुशाला खुली
है अस्तित्व
की, कि तुम
पी लो पूरी
मधुशाला।
कबीर
कहते हैं, सुरत
कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन
तोले।
कबीर
कहते हैं कि
मैं तो अब
बिना तौले
सारी मधुशाला
ही को पी गया।
तौलना भी क्या? अनंत
उपलब्ध है।
तौल कर भी
क्या करोगे? बिना तौले
पी जाओ।
लेकिन
नहीं पी
पाओगे।
क्योंकि तुम
जरूरत को तो
काट रहे हो और
गैर-जरूरत को
सिर पर रखे ढो
रहे हो। हम
अपनी जरूरतों
को
महत्वाकांक्षा
के लिए काटते
चले जाते हैं।
हम कहते हैं, कल
महत्वाकांक्षा
पूरी हो जाएगी
तब सब ठीक हो जाएगा।
तुमने एक दुकानदार
को भोजन करते
देखा है? भागा-भागा
भोजन करता है।
उसकी हालत
देखो तुम, भागा-भागा
किसी तरह भोजन
कर रहा है।
दुकान पर पहुंच
ही चुका है
असली में; शरीर
ही यहां है, आत्मा तो
दुकान पर है।
स्वाद का
रहस्य इसे पता
ही न चल
पाएगा।
हिंदुओं
ने अन्न को
ब्रह्म कहा
है। जिन्होंने
अन्न को
ब्रह्म कहा है
उन्होंने जरूर
स्वाद लिया
होगा।
उन्होंने तुम
जैसे ही भोजन
न किया होगा।
वे बड़े
होशियार लोग
रहे होंगे, बड़े
कुशल रहे
होंगे। कोई
गहरी कला
उन्हें आती थी
कि रोटी में
उन्होंने
ब्रह्म को देख
लिया। दुनिया
में किसी ने
भी नहीं कहा
है अन्नं
ब्रह्म। कैसे
लोग थे! रोटी
में ब्रह्म!
जरूर उन्होंने
रोटी कुछ और
ढंग से खाई
होगी। उन्होंने
भोजन को ध्यान
बना लिया
होगा। वे
भागे-भागे
नहीं थे। वे
जब भोजन कर
रहे थे तो
भोजन ही कर रहे
थे। उनकी पूरी
प्राण-ऊर्जा
भोजन में लीन
थी। और तब
जरूर रूखी
रोटी में भी
वह रस है
जिसको ब्रह्म
कहा है।
तुम्हें भोजन
करना आना
चाहिए।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि जब अन्न
में ब्रह्म है
तो निद्रा में
भी है। उसे
लेना आना
चाहिए। तुम
अगर ठीक से
सोना जान जाओ, जहां
सपने खो जाएं।
क्योंकि सपने
का अर्थ है, तुम्हें
सोना नहीं
आता। तुम
आधे-आधे सो
रहे हो। सपने
का अर्थ है, कुछ जागे हो,
कुछ सोए हो।
इसीलिए तो
बेचैनी है। जब
सपना रहित
नींद हो जाती
है तब नींद
में भी ब्रह्म
है। तब तुम
पाओगे कि
श्वास-श्वास
में उसी का
वास है। तब
तुम पाओगे, वही श्वास
से भीतर आता, वही श्वास
से बाहर जाता।
तब हर तरफ
तुम्हें उसकी
ही झलक
मिलेगी।
घट-घट
मेरा साईयां, सब
सांसों की
सांस में।
कोई
परमात्मा दूर
नहीं है; तुम
जरा पास आ जाओ
अपने। तुम
बहुत दूर भागे
हुए फिर रहे
हो। इसको
लाओत्से कहता
है कि जैसे ही
कोई मिताचार
को उपलब्ध
होता, पूर्व-निवारण
करता, तैयार
हो जाता, सुदृढ़
हो जाता, सदाजयी
हो जाता। उसकी
विजय शाश्वत
है। फिर उसे
कोई हरा नहीं
सकता। उसने
ब्रह्म को पा
लिया, अब
उसकी कोई हार
संभव नहीं है।
हार तो
वहां होती
है--तुमने कोई
ऐसी चीज पा ली
जो संसार की
है,
तो तुम
हारोगे; क्योंकि
वह तुमसे छीनी
जाएगी। आज
नहीं कल तुम
उसे खोओगे।
कुछ ऐसी चीज खोज
लो जिसे चोर
चुरा न पाएं, जिसे आग
जलाए नहीं, जिसे मृत्यु
छीन न सके।
फिर तुम
सदाजयी हो।
"सदाजयी
होना अशेष
क्षमता
प्राप्त करना
है।'
और जो
सदाजयी हो
जाता है, ऐसे सदाजयियों
को हमने जिन
कहा है, महावीर
कहा है। जीत
लिया
जिन्होंने।
क्या जीत लिया
उन्होंने? स्वयं
को जीत लिया।
दो तरह
की जय है। एक
तो दूसरों को
जीतना। उसे मैं
राजनीति कहता
हूं। लाओत्से
भी राजनीति कहता
है। और एक
स्वयं को
जीतना। उसे
धर्म कहते हैं।
जब तक तुम
दूसरों को
जीतने में लगे
हो तब तक तुम
विक्षिप्त ही
रहोगे। जिस
दिन तुम अपने
को जीतने में
लगोगे उसी दिन
तुम यात्रा पर, ठीक
यात्रा शुरू
हुई, यात्रा-पथ
पर आए।
जो
व्यक्ति अपने
को जीत लेता
है वह अशेष
क्षमता को
प्राप्त होता
है। यह समझ
लेने जैसा है।
उसकी क्षमता
कभी भी चुकती
नहीं। उसके
जीवन की क्षमता
अशेष है।
कितना ही जीए, क्षमता
कायम रहती है।
जैसा उपनिषद
कहते हैं, निकाल
लो पूर्ण को
पूर्ण से, तो
भी पीछे पूर्ण
शेष रह जाता
है। ऐसी उसकी
क्षमता होती
है। वह कितना
ही जीए, चुकता
नहीं। जितना
जीता है उतना
ही पाता है कि
जीने के लिए
और तत्पर हो
गया।
तुम
चाहते तो हो
कि तुम्हें और
जीवन मिले, लेकिन
तुमने कभी ठीक
से सोचा नहीं
कि तुम और
जीवन लेकर
करोगे भी क्या?
तुम वैसे ही
थक गए हो! कभी
विचार करके
सोचना कि और
जीवन लेकर
करोगे क्या? एक ही जीवन
काफी थका देता
है। क्षमता
कुछ बचती ही
नहीं। खोखले
हो जाते हो
दौड़-दौड़ कर
वासना के
पीछे।
जैसे
ही व्यक्ति
दौड़ बंद कर
देता है, अपने
में ठहरता है,
ऊर्जा नष्ट
नहीं होती, सब छिद्र
बंद हो जाते
हैं, सब
द्वार बंद हो
जाते हैं, ऊर्जा
की एक विराट
लपट उसके भीतर
उठती है। उसके
पास अनंत
ऊर्जा होती
है। महावीर ने
कहा है, वह
अनंत वीर्य हो
जाता है। उसकी
क्षमता अशेष है।
वह जीता जाता
है, बांटता
जाता है, देता
जाता है, कभी
चुकता नहीं।
वह जितना देता
है उतना ही और पाता
है। वह जितना
उलीचता है
उतना ही पाता
है कि और भर
गया है।
और जब
तक तुम ऐसी
अशेष क्षमता
के धनी न हो
जाओ तब तक तुम
दीन ही रहोगे।
जब तुम ऐसी
अशेष क्षमता
के धनी हो
जाओगे तभी तुम
सम्राट हुए।
इसीलिए हमने फकीरों को सम्राट
कहा है। हमने
ऐसे सम्राट
जाने जो फकीर थे, भिखारी
थे--बुद्ध, महावीर।
और हमारे
सम्राट
निश्चित ही
फकीर हैं, भिखमंगे हैं।
सम्राट
मांगते चले
जाते हैं, मांग
का कोई अंत
नहीं। फकीर
देते चले जाते
हैं, देने
का कोई अंत
नहीं। सम्राट
की आत्मा
भिखारी की
आत्मा है।
फकीर की आत्मा
सम्राट की
आत्मा है।
चूंकि जब तुम
मांगते हो तब
तुम भिखमंगे
हो। जब तुम
देते हो तभी
पहली बार
तुम्हारे सुर
परमात्मा से
बंधे।
तुम्हारा
झरना उसके अनंत
झरने से जुड़
गया। अब कोई
चुका न सकेगा।
लाओत्से
कहता है, "जिसमें
अशेष क्षमता
है, वही
किसी देश का शासन
करने के योग्य
है।'
तो जो
लोग शासन करते
हैं देशों में
उनमें से तो
कोई भी योग्य
नहीं हो सकता।
लाओत्से कहता
है कि सिर्फ
संत ही शासन
करने के योग्य
है। वही व्यक्ति
शासन करने के
योग्य है जो
शासन करना ही
नहीं चाहता।
जिसकी शासन
करने की कोई
आकांक्षा
नहीं है वही
योग्य है। जो
शासन करना
चाहता है उसकी
करने की चाह
में ही
अयोग्यता
छिपी है।
मनसविद भी
राजी हैं
लाओत्से से।
वे कहते हैं, जो
व्यक्ति शासन
करना चाहता है
वह हीनता की
ग्रंथि से
पीड़ित है, उसके
भीतर हीन भाव
है। पद पर खड़े
होकर वह दुनिया
को बताना
चाहता है कि
मैं हीन नहीं
हूं, देखो
कैसे सिंहासन
पर खड़ा हूं।
इसलिए लंगड़े-लूले,
अंधे-काने
सब दिल्ली की
तरफ जाते हैं।
जाएंगे ही।
क्योंकि उनके
पास और कोई
उपाय नहीं है
घोषणा करने
का। तुम
राजनीतिक को
कभी साबित न
पाओगे। कहीं न
कहीं कानापन,
कहीं न कहीं
तिरछापन, कहीं
न कहीं कोई
कमी, कोई
भीतरी अभाव
होगा, कोई
हीनता की
ग्रंथि होगी।
उस हीनता की
ग्रंथि को
दिखाने के लिए
कि वह नहीं है
वह बड़े आयोजन रचता
है। लेकिन
कितना ही
आयोजन करो
हीनता की ग्रंथि
मिटती नहीं।
हीनता की
ग्रंथि का
मिटने का यह
उपाय नहीं है।
हीनता की
ग्रंथि तो तभी
मिटती है जब
तुम अशेष
क्षमता के धनी
हो जाते हो।
"जिसमें
अशेष क्षमता
है, वही
किसी देश का
शासन करने के
योग्य है।'
और ऐसा
जब कोई शासक
उपलब्ध हो जाए
किसी देश को तो
उस देश की जो
मातृत्व की
क्षमता है, उस
देश की जो
प्रेम की
क्षमता है, प्रेम जो कि
जीवन का गहरे
से गहरा
सिद्धांत है,
आधार है, उसमें फूल
आने शुरू होते
हैं। वह
विकसित होता है,
वह
सुरक्षित
होता है।
"और
शासक देश की
माता
(सिद्धांत)
दीर्घजीवी हो सकती
है।'
तभी
वस्तुतः एक
परिवार बनता
है समाज का
प्रेम के आधार
पर। अन्यथा
समाज एक भीड़
है। और उस भीड़ को
किसी तरह
व्यवस्थित
रखने की ही
कोशिश में
शासन व्यस्त
रहता है--किसी
तरह व्यवस्थित
करने की कोशिश
में--कि भीड़
कोई उपद्रव न
करे। बस भीड़
को किसी तरह
शांत रखा जा
सके,
इतनी ही
शासन की कुल
चेष्टा बनी
रहती है। लेकिन
जब कभी कोई
संत शासक हो
जाए...।
कभी-कभी
वैसा हुआ है।
और अगर बड़े
पैमाने पर नहीं
हुआ तो छोटे
पैमाने पर तो
बहुत बार हुआ
है। बुद्ध या
महावीर या
लाओत्से एक
दूसरा ही छोटा
समाज समाज
के भीतर
निर्मित कर
लेते हैं।
बुद्ध के दस
हजार भिक्षु
हैं। बुद्ध ने
एक छोटा सा
समाज निर्मित
कर लिया इनका।
इस समाज की
हवा और है।
अजातशत्रु
बड़ा शासक था
बुद्ध के समय
में। उसके आमात्यों
ने कहा कि
बुद्ध का आगमन
हुआ है, आप भी
चलें। आमात्यों
को, प्रजा
को प्रसन्न
करने के लिए
वह गया। जाने
की कोई इच्छा
न थी, लेकिन
लोग समझेंगे,
अच्छा राजा
है, साधु
का सम्मान
किया, तो
वह गया।
जब वे
करीब पहुंचे
उस आम्रवन के
जहां बुद्ध ठहरे
थे तो वह ठिठक
कर खड़ा हो गया
और उसने अपनी
तलवार म्यान
से निकाल ली।
और उसने अपने
मंत्रियों को
कहा कि क्या
तुम मुझे कुछ
षडयंत्र में
डाल रहे हो? तुम
कहते थे, दस
हजार भिक्षु
बुद्ध के साथ
हैं। जहां दस
हजार आदमी हों
वहां बाजार मच
जाता है, और
यहां तो
सन्नाटा है।
यहां तो ऐसा
नहीं है कि एक
भी आदमी हो इस
आम्रवन के
भीतर। तुम
चाहते क्या हो?
तुम मुझे
कहीं धोखे में
ले जाकर कोई
खतरा करना
चाहते हो? वे
आमात्य हंसने
लगे।
उन्होंने कहा,
आप बुद्ध के
परिवार को
जानते नहीं; आप तलवार
भीतर रख लें
और निःशंक हो
जाएं। जल्दी
ही इन झाड़ों
के पार आपको
खुद ही दिखाई
पड़ जाएगा।
जैसे
ही उन झाड़ों
की पंक्ति को
अजातशत्रु
पार हुआ, वह
चकित हुआ!
वहां दस हजार
लोग थे। उसने
बुद्ध से पूछा
कि यह मेरी
समझ में नहीं
आता, ये
किस तरह के
लोग हैं? क्योंकि
दस हजार आदमी
जहां हों वहां
तो उपद्रव
होना ही है।
वहां तो हमें
पुलिस का और
इसका इंतजाम
करना पड़ता है
सब कि कैसे
लोग शांत
रहें। और ये
दस हजार लोग
बिना किसी
व्यवस्था के
और बिना किसी
शासन के क्यों
शांत हैं? इनको
क्या हो गया
है?
बुद्ध
ने कहा, यह और
ही तरह का
परिवार है; इससे तुम
अपरिचित हो।
तो
कभी-कभी
बुद्धों के
करीब छोटे-छोटे
समाज निर्मित
हुए हैं। वे
समाज इस पृथ्वी
पर किसी दूसरे
ही लोक के
प्रतिनिधि
हैं। बुद्ध का
शासन है उन
पर--जो शासन
नहीं करना
चाहता। और वे
शासित नहीं
हैं जो उनके
आस-पास इकट्ठे
हैं। क्योंकि
उन्होंने खुद
ही समर्पण
किया है; वे हराए नहीं
गए हैं, वे
हारे हैं। जब
तुम किसी को
हराते हो तब
घृणा पैदा
होती है और जब
तुम खुद ही
हार जाते हो
तो प्रेम का
जन्म होता है।
वे समर्पित
हैं।
उन्होंने खुद
ही अपने को
बुद्ध के
चरणों में डाल
दिया है। एक
दूसरे ही तरह
की गंध वहां
है--शांति की, आनंद की।
ऐसे
छोटे-छोटे
परिवार
दुनिया में बने
हैं। कभी यह
भी हो सकता है
कि सारी
दुनिया का ऐसा
पूरा परिवार
बने। क्योंकि
जो दस हजार के
लिए संभव है
वह दस लाख के
लिए संभव है।
जो दस लाख के
लिए संभव है
वह दस करोड़
के लिए भी
संभव हो सकता
है। लाओत्से
उसी सपने को
तुम्हें दे
रहा है।
लाओत्से कह
रहा है, यह
पृथ्वी तभी
शांत होगी जब
हम यहां एक
गुणात्मक रूप
से भिन्न तरह
का परिवार बना
सकेंगे; जिसमें
कम से कम नियम
होगा, अधिक
से अधिक प्रेम
होगा। जिसमें
ज्यादा से ज्यादा
स्वतंत्रता
होगी, न के
बराबर
परतंत्रता
होगी। जिसमें
निषेध न होंगे,
विधेय
होंगे।
जिसमें लोगों
पर कुछ थोपा न
जाएगा, लोग
अपनी ही
अंतःप्रज्ञा
से संचालित
होंगे। जहां
उनकी
जीवन-व्यवस्था
उनके बोध से
आएगी; किसी
के दबाव, किसी
के आरोपण से
नहीं। जहां
उनका जीवन
उनके अंतस से
बहेगा। जहां
उनका आचरण
उनकी अपनी ही
सजगता का
हिस्सा होगा।
"यही
है ठोस आधार
प्राप्त करना,
यही है गहरा
बल पाना; और
यही अमरता और
चिर-दृष्टि का
मार्ग है। दिस
इज़ टु बी फर्मली रूटेड, टु
हैव डीप स्ट्रेंग्थ,
दि रोड टु इम्मारटेलटी
एंड एंडयोरिंग
विजन।'
ऐसे
तुम हो जाओ।
इसकी फिक्र मत
करो,
समाज कब
होगा। इसकी
फिक्र मत करो,
क्योंकि
समाज तो सदा
रहेगा। तुम
सदा नहीं रहोगे।
तुम आज हो, कल
डेरा कूच करना
पड़े। कुछ कहना
मुश्किल है, कब बांध
चलेगा
बनजारा। किसी
भी घड़ी! तुम
फिक्र मत करो
इसकी कि यह
दुनिया कब
बदलेगी। यह
कोई क्रांति
का चिंतन नहीं
है। यह
आत्म-रूपांतरण
का चिंतन है।
तुम अपने को
बदल लो। तुम
चाहो तो अभी
उस परिवार के
हिस्से बन
सकते हो जो इस
पृथ्वी का
नहीं है। और तुम
चाहो तो उस
खुले आकाश में
जी सकते हो
जिसकी लाओत्से
बात कर रहा
है।
इधर
मैं हूं
तुम्हें केवल
उतना खुला
आकाश देने को।
तुम चाहो तो
उड़ सकते हो उस
खुले आकाश में।
इसलिए मेरे
पास न कोई
नियम है, न कोई
तुमसे व्रत
लेता हूं, न
तुम्हें कोई
कसमें दिलाता
हूं। तुम्हें
किसी
परतंत्रता
में बांधने का
कोई आयोजन
नहीं है।
तुम्हारी सब
जंजीरें कैसे
गिर जाएं और
तुम्हारे पंख
फिर कैसे सबल
हो जाएं कि उड़
सकें। खुला
आकाश ही काफी
नहीं है।
क्योंकि पिंजड़े
में अगर बहुत
दिन बंद रह गए
तो पंखों की उड़ने की
क्षमता चली
जाती है। खुला
आकाश चाहिए
तुम्हें, और
तुम्हारे
पंखों को फिर
से सबल बनाने
की जरूरत है।
तो तुम्हें
कोई नियम नहीं
देता, ताकि
तुम्हें खुला
आकाश मिल जाए।
और तुम्हें ध्यान
देता हूं, ताकि
तुम्हारे पंख
सबल हो जाएं
और तुम उड़
सको।
तुम्हें
भरोसा एक बार
आ जाए कि तुम
उड़ सकते हो
दूर आकाश की
नीलिमा में, एक
बार उड़ कर
तुम्हें
स्वाद आ जाए, तो तुम इसी
पृथ्वी पर, इन्हीं साधारणजनों
के बीच में, अचानक
असाधारण हो
जाते हो। और
मजा यह है कि
यह असाधारणता
आती है तब जब
तुम बिलकुल
साधारण होने
को राजी होते
हो। साधारण होने
को राजी हो
जाना इस जगत
में अति
असाधारण घटना
है।
आज
इतना ही।
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