भगवान
जेतवन में
विहरते थे।
उनकी देशना
में निरंतर ही
ध्यान के लिए
आमंत्रण था
सुबह दोपहर सांझ
बस एक ही बात
वे समझाते थे—
ध्यान ध्यान
ध्यान सागर
जैसे कहीं से
भी चखो खारा
है वैसे ही बुद्धों
का भी एक ही
स्वाद है—
ध्यान। ध्यान
का अर्थ है—
निर्विचार
चैतन्य। पांच
सौ भिक्षु
भगवान का
आवाहन सुन ध्यान
को तत्पर हुए।
भगवान ने
उन्हें
अरण्यवास में
भेजा। एकांत
ध्यान की
भूमिका है।
अव्यस्तता
ध्यान का
द्वार है।
प्रकृति—
सान्निध्य
अपूर्वरूप से
ध्यान में
सहयोगी है।
उन
पांच सौ
भिक्षुओं ने
बहुत सिर मारा
पर कुछ परिणाम
न हुआ। वे पुन:
भगवान के पास
आए ताकि
ध्यान— सूत्र
फिर से समझ
लें। भगवान ने
उनसे कहा— बीज
को सम्यक भूमि
चाहिए अनुकूल
ऋतु चाहिए
सूर्य की रोशनी
चाहिए ताजी
हवाएं चाहिए
जलवृष्टि चाहिए
तभी बीज
अंकुरित होता
है। और ऐसा ही
है ध्यान।
सम्यक संदर्भ
के बिना ध्यान
का जन्म नहीं
होता।
इसके
पहले कि हम
सूत्रों में
प्रवेश करें, इस
छोटे से
संदर्भ को
जितनी गहराई
से समझ लें उतना
उपयोगी होगा।
भगवान
जेतवन में
विहरते थे।
विहार
बौद्धों का
पारिभाषिक
शब्द है।
बिहार प्रांत
का नाम भी
बिहार इसीलिए
पड गया कि वहा बुद्ध
विहरे। विहार
का अर्थ होता
है,
रहते हुए न
रहना। जैसे
झील में कमल
विहरता है—होता
है झील में, फिर भी झील
का पानी उसे
छूता नहीं।
होकर भी नहीं
होना, उसका
नाम है विहार।
बुद्ध ने
विहार की
धारणा को बडा
मूल्य दिया
है। वह समाधि
की परम दशा
है।
एक
तो है संसारी, वह
संसार में
रहता है। जल में
कमलवत नहीं, कीचड़ में
फंसा। कीचड़
में ही जीता
है। कीड़े की भांति
कीचड में उलझा
है। फिर एक
दिन संसारी घबड़ा
जाता है—घबडा
ही जाएगा। इस
कीचड़ में कभी
किसी ने कुछ
सार तो पाया
नहीं। कीचड़
में कीचड़ ही हाथ
लगी है, दुर्गंध
बढ़ती ही गयी
है। इस कीचड़
से कभी किसी ने
सुख तो जाना
नहीं। हां, इस कीचड ने
सुख के
आश्वासन बहुत
दिये हैं, लेकिन
कभी कोई
आश्वासन पूरा
नहीं किया।
तो
जितना
बुद्धिमान
आदमी होगा, उतनी
जल्दी सजग हो
जाएगा। बुद्ध
होगा, दोहराता
रहेगा। लेकिन
बुद्ध भी कभी
न कभी सजग होगा—इस
जन्म में, किसी
और जन्म में, वर्षों बाद,
जन्मों
बाद। समय का
ही फर्क होगा
बुद्धिमान में
और बुद्धिहीन
में। लेकिन एक
न एक दिन यह
बात तो समझ
में आ ही
जाएगी कि इस
कीचड़ में कुछ
सार नहीं है।
सार खोजना हो,
कहीं और
खोजो।
तब
एक दूसरा खतरा
पैदा होता है।
वह खतरा है संसार
से भाग जाने
का। छोड़ दो
संसार, भगोड़े
बन जाओ। दोनों
स्थिति में
तुम कमल नहीं
बनते। या तो
कीचड़ में उलझे
होते हो तो
कमल नहीं बनते,
या फिर झील
छोड्कर ही भाग
जाते हों—फिर
भी कमल नहीं
बनते।
विहरने
का अर्थ होता
है,
झील को
छोड़ना नहीं और
फिर भी छोड़
देना, भीतर
से छोड़ देना।
बाहर से जहां
हो हर्ज नहीं,
लेकिन भीतर
से मुक्त हो
जाना। संसार
में रहते हुए
भी संसार
तुम्हारे
भीतर न हो, तो
विहार। इस
शब्द को तुमने
बहुत सुना
होगा, लेकिन
इस पर कभी
ध्यान न दिया
होगा। बुद्ध
की कथाओं में
तो बार—बार
आएगा—बुद्ध
यहां विहरते थे,
बुद्ध वहा
विहरते थे।
बुद्ध की तो
सारी कथाएं ही
इसी से शुरू
होंगी कि
भगवान कहा
विहरते थे।
इस
शब्द को खूब
ध्यान करना।
कभी—कभी
तुम्हें भी
इसका अनुभव हो
सकता है। किसी
शांत दशा में
तुम अपने घर
में बैठे हो
और अचानक तुम
पा सकते हो
किं घर
तुम्हारे
भीतर नहीं है।
तो तुम्हें विहार
का स्वाद
मिलेगा। तुम
अपनी पत्नी के
पास बैठे हो
और चौंककर
तुमने देखा कि
कौन पत्नी, कौन
पति! कौन मेरा,
कौन तेरा!
क्षणभर को एक
अजनबी राह पर
मिलन हो गया
है, फिर
बिछुड
जाएंगे। न
पहले इसका कुछ
पता था, न
बाद में इसका
कुछ पता रह
जाएगा। यह
थोडी सी देर
के लिए
संग—साथ हो
लिया
है—नदी—नाव—सयोग—यह
जल्दी ही टूट
जाएगा। इसमें
कोई
अनिवार्यता
नहीं है, इसमें
कोई आवश्यकता
नहीं है, सांयोगिक
है; संयोगमात्र
है। ऐसा अगर
तुम्हें
स्मरण आ जाए पत्नी
के पास
बैठे—बैठे, तो तुम
पाओगे कि पास
भी बैठे
हो—शायद हाथ
हाथ में भी ले
लिया है—लेकिन
इतनी दूरी हो
गयी, तुम
कहीं और, वह
कहीं और, दोनों
के बीच अनंत
आकाश जितना
फासला हो गया,
तो विहार का
अनुभव होगा, तो विहार का
स्वाद लगेगा।
ये
शब्द ऐसे नहीं
हैं कि इनका
अर्थ तुम
शब्दकोश में
खोज लो। ये
शब्द ऐसे हैं
कि जीवन के
कोश में इनका
अर्थ खोजना
पडता है। ये
शब्द बड़े जीवंत
हैं। ये शब्द
ही नहीं हैं, ये
चित्त की
दशाएं हैं।
भोजन करने
बैठे हो, भोजन
कर रहे हो और
कभी होश सध
जाए, क्षणभर
को भी, तो
तुम्हें
दिखायी पड़ेगा—
भोजन तो शरीर
में जा रहा है,
तुममें तो
जा ही नहीं
सकता! तुममें
तो जाएगा कैसे!
तुम तो चैतन्य
हो, चैतन्य
में भोजन कैसे
जाएगा! भोजन
तो देह में जा
रहा है। और
भोजन देह की
ही जरूरत है, तुम्हारी
जरूरत भी
नहीं। देह में
जाएगा, देह
बनाएगा, तुम
तो दूर खड़े
देख रहे। अगर
भोजन करते समय
ऐसी प्रतीति
तुम्हें हो
जाए, तो
विहार। तो
विहर गये। तो
उसी क्षण में
तुम बुद्धत्व
के पास पहुंच
गये। संसार
में रहे और संसार
में न रहे, कमलवत
हो गये। ऐसा
यह अदभुत और
अनूठा शब्द
है। इसका अर्थ
है, जल से
गुजरो, लेकिन
जल तुम्हें
छुए नहीं।
एक
झेन गुरु अपने
शिष्यों को
कहता था
बार—बार, जल से
गुजरो और जल
तुम्हें छुए
नहीं।
शिष्य—जैसे
शिष्य होते
हैं—सोचते थे,
यह बात हो
नहीं सकती।
प्रतीक्षा
में थे कि कभी
मौका लग जाए
और गुरु को
नदी में से
गुजरते देख
लें। ऐसा मौका
भी आ गया। तीर्थयात्रा
पर गये थे और
एक नदी पार
करनी पड़ी। तो
सारे शिष्य
बड़े ध्यान से
देख रहे थे कि
गुरु के पैर
को पानी छूता
या नहीं?
पानी
तो छुएगा ही।
पैर तो पैर
हैं,
पानी पानी
है, कोई
पानी किसी के
लिए नियम थोड़े
ही छोड़ देगा। पानी
छुआ तो
.शिष्यों ने
गुरु को घेर
लिया, उन्होंने
कहा, आप
बार—बार कहते
हैं जल से
निकलना और
पानी छुए नहीं।
हमने बहुत
निकलकर देखा,
छूता था, तो हमने
सोचा, हमसे
नहीं सधता .है,
आप तो साध
लिये होंगे।
आप भी निकल
रहे हैं और जल
छू रहा है! वह
गुरु हंसा, उसने कहा, कहा? मुझे
जल नहीं छू
रहा है। और
जिसे छू रहा
है, वह मैं
नहीं हूं।
पता
नहीं समझे
शिष्य या नहीं
समझे!
भोजन
जब तुम कर रहे
हो,
तो जो भोजन
कर रहा है, वह
तुम नहीं हो।
वस्त्र जब तुम
पहन रहे हो, तो जो
वस्त्र पहन
रहा है, जिस
पर वस्त्र
पहनाए जा रहे
हैं, वह
तुम नहीं हो।
जब तुम धनी हो
गये, तब
तुम धनी नहीं
हुए हो; और
जब तुम गरीब
हो गये, तब
तुम गरीब नहीं
हुए हो; जब
तुम्हें पद पर
बिठा दिया है,
तो तुम पद
पर नहीं बैठे।
तुम तो सदा
साक्षी हो।
तुम तो
द्रष्टा
मात्र हो। तुम
कभी कर्ता बनते
ही नहीं। तुम
कभी भोक्ता भी
नहीं बनते।
तुम तो दूर
खड़े देखते ही
रहते हो।
तुमने अपने उस
द्रष्टा के तल
को कभी छोड़ा
नहीं। एक क्षण
को तुम वहां
से डिगे नहीं
हो। वही
तुम्हारी
भगवत्ता है।
जिसको विहार आ
गया, वही
भगवान हो गया।
भगवान
जेतवन में
विहरते थे।
उनकी देशना
में निरंतर ही
ध्यान के लिए
आमंत्रण था।
देशना
का अर्थ होता
है,
कहना, समझाना,
फुसलाना, लेकिन आदेश
न देना। देशना
का अर्थ होता
है, राजी
करना, लेकिन
नियंत्रित न
करना। देशना
का अर्थ होता है,
तुम्हारी
बात के प्रभाव
में, तुम्हारी
बात की गंध
में कोई चल
पड़े, तो
ठीक, लेकिन
किसी तरह का
लोभ न देना, किसी तरह के
दंड की बात न
करना।
क्योंकि जो लोग
लोभ के कारण
चल पड़ते हैं, वे चलेंगे
ही नहीं। जो
दंड के कारण
चल पड़ते हैं, वे भी नहीं
चलेंगे।
तुमने
अगर चोरी
इसलिए नहीं की
कि तुम्हें
नर्क का भय है, तो
तुम यह मत
सोचना कि तुम
अचोर हो, तुम
हो तो चोर ही।
चोरी भला न की
हो, फिर भी
तुम चोर हो।
अगर नर्क का
भय न होता तो
तुम जरूर
करते। अगर आज
तुम्हें पता
चल जाए कि नर्क
इत्यादि नहीं
होते, तो
तुम आज ही
करोगे। अगर
तुमने कुछ
पुण्य किया
स्वर्ग के लोभ
में, तो
तुमने किया ही
नहीं। तुमने
कुछ दान दिया
स्वर्ग के लोभ
में, तो
तुमने दिया ही
नहीं। दान का
लोभ से कैसे
संबंध होगा!
दान तो लोभ के
विपरीत है।
तुमने दिया भी
इसीलिए कि पा
सको।
पंडित—पुरोहित
लोगों को
समझाते हैं, यहां
एक दो, वहां
एक लाख गुना
मिलेगा। यह
दान हुआ! यह तो
बड़ा मजेदार
सौदा हुआ। बड़ा
अदभुत सौदा
हुआ, ऐसा
सौदा यहां तो
होता ही नहीं
कि तुम एक दो
और एक लाख
गुना मिलेगा।
यह तो लाटरी
हुई! और यह तो बिलकुल
पक्का है कि
मिलने ही वाला
है, और
इसीलिए तुमने
एक दे भी
दिया—एक पैसा
दे दिया, एक
लाख पैसे
मिलेंगे, एक
रुपया दे दिया,
एक लाख
रुपये
मिलेंगे। यह
तो लोभ से दान
निकला। और लोभ
से दान कैसे निकल
सकता है!
दान
तो निकलता है
जब चित्त अलोभ
में होता है। और
भय से नीति
नहीं निकलती।
नीति तो तभी
निकलती है जब
चित्त अभय में
प्रतिष्ठित
होता है।
तो
बुद्ध न तो भय
देते हैं, न
लोभ। देशना का
अर्थ होता है,
सिर्फ
निवेदन कर
देना, ऐसा
है। बस, ऐसा
है, वैज्ञानिक
ढंग से कह
देना।
इसको
ठीक से समझो।
जैसे
वैज्ञानिक
अगर तुमसे कहेगा
कि आग जलाती
है,
तो वह यह
नहीं कह रहा
है कि आग को
छुओ मत। वह
कहता है, तुम्हारी
मौज। छूना हो
छुओ। आग जलाती
है। वह यह भी
नहीं कुह रहा
है कि आग तुम न
छुओगे तो बड़ा
पुण्य होगा।
वह इतना ही कह
रहा है, न
छुओगे तो जलने
से बच जाओगे।
तो जल जाओगे।
जलना हो तो छू
लो, न जलना
हो तो मत छुओ।
छुओगे
लेकिन जब
वैज्ञानिक
कहता है, आग
जलाती है, तो
वह केवल तथ्य
की सूचना दे
रहा है। वह
इतना ही कह
रहा है कि यह
आग का गुणधर्म
है कि वह
जलाती है। तुम्हें
करना हो, करो,
न करना हो, न करो, तुम्हारे
लिए कोई आदेश
नहीं है।
देशना
का अर्थ होता
है,
आदेश—रहित
उपदेश। सिर्फ
तथ्य का
निवेदन।
तो
बुद्ध निरंतर
ही ध्यान के
लिए देशना
देते थे। सुबह, दोपहर,
सांझ, बस
एक ही बात
समझाते
थे—ध्यान, ध्यान,
ध्यान।
एक
और झेन फकीर के
संबंध में
मैंने सुना
है। एक
विश्वविद्यालय
का अध्यापक
उसे मिलने
गया। उस
अध्यापक ने कहा, मुझे
ज्यादा
समझाने की
जरूरत नहीं है,
मैं
पढ़ा—लिखा आदमी
हूं शास्त्र
से परिचित हूं
बौद्ध
शास्त्रों का
ही अध्ययन
किया है, उसी
में मैं
पारंगत हूं
इसलिए आप मुझे
संक्षिप्त भी
कहेंगे तो मैं
समझ जाऊंगा।
इसलिए लंबे
प्रवचन की
जरूरत नहीं है,
आप मुझे सार
की बात कह
दें। आपने जो
पाया है, उसको
संक्षिप्त
में कह दें।
मैं कोई मूढ़
नहीं हूं कि
मुझे आप
समझाएं। आप बस
इशारा कर दें,
मैं समझ
जाऊंगा।
बुद्धिमान को
इशारा काफी होता
है। ऐसा उसने
कहा।
वह
फकीर चुप ही
बैठा रहा, कुछ
भी न बोला। एक
शब्द न बोला।
थोड़ी देर चुप्पी
रही, फिर
उस अध्यापक ने
पूछा, आप
कुछ कहते नहीं?
उस फकीर ने
कहा, मैंने
कहा। मौन ही
सार है। तुम
समझे नहीं, चूक गये।
तुम्हें
भ्रांति है कि
तुम बुद्धिमान
हो। मैं चुप
रहा, मेरी
चुप्पी से ज्यादा
और क्या कहूं?
यही सार है
सारे अनुभव
का। मैं शांत
रहा, तुम्हारे
पास आंखें
होतीं तो तुम
देख लेते यह प्रज्वलित
शांति, यह
जलता हुआ भीतर
का दीया। मैं
चुप रहा, तुमने
ही कहा था कि
ज्यादा मत
कहना। शब्द
मेँ तो ज्यादा
हो जाएगा।
मैंने उतना ही
कहा जितना कहना
जरूरी था; मैं
सिर्फ मौजूद
था, लेकिन
तुम चूक गये।
अध्यापक
ने कहा, ठीक
है, आप ठीक
कहते हैं, इतनी
गहरी मेरी समझ
नहीं है।
एकाध—दो
शब्दों का
उपयोग करेंगे
तो चलेगा, फिर
से कहें। तो
उसने कुछ बोला
नहीं, रेत
पर बैठा था, अंगुली से
रेत पर लिख
दिया—ध्यान।
अध्यापक ने कहा,
इतने से भी
काम नहीं
चलेगा, कुछ
थोड़ा और कहें।
फिर बोलते
क्यों नहीं
हैं? रेत
पर लिखने की
क्या जरूरत है?
उस फकीर ने
कहा, बोलने
से यहां की
शांति भंग
होगी। ध्यान
शब्द तो बोल
दूंगा, लेकिन
ध्यान की यहां
जो अवस्था बनी
है वह भंग होगी।
लिखने सें भंग
नहीं होती, इसलिए रेत
पर लिख दिया
है। उस
अध्याााक ने
कहा, थोड़ा
और कहें, इतने
से काम न
चलेगा। तो
उसने दुबारा
ध्यान लिख
दिया।
अध्यापक ने और
जोर मारा तो
उसने तीसरी
बार ध्यान लिख
दिया।
अध्यापक तो
पगला गया, उसने
कहा, आप
होश में हैं? आप वही—वही
शब्द दोहराए
जा रहे हैं।
झेन
फकीर हंसने
लगा,
उसने कहा, सारे
बुद्धों ने बस
एक ही शब्द
दोहराया है, सारे जीवन
एक ही शब्द
दोहराया है
—कितने ही शब्दों
का उपयोग किया
हो, लेकिन
दोहराया एक ही
शब्द है—ध्यान,
ध्यान, ध्यान।
भाषा बदली हो,
.शैली बदली
हो, कथा
बदली हो, प्रसंग
बदला हो, .लेकिन
एक ही बात कही
है—ध्यान, ध्यान,
ध्यान।
सुबह, दोपहर,
सांझ, बस
एक ही बात
समझाते
थे—ध्यान।
सागर जैसे
कहीं से भी
चखो खारा है, वैसे ही
बुद्धों का भी
एक ही स्वाद
है—ध्यान।
बुद्धों
को भी कहीं से
भी चखो, ध्यान
का ही स्वाद
आएगा। फिर
बुद्ध चाहे
महावीर हों, चाहे
मोहम्मद हों,
चाहे कृष्ण
हों, चाहे
क्राइस्ट हों,
इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। जहां
बुद्धत्व हुआ है,
वहा से बस
एक ही खबर आती
है, एक ही
निमंत्रण आता
है, एक ही
बुलावा आता
है— ध्यान।
बुद्ध
बार—बार ऐसा
कहते थे कि
जैसा सागर को
कहीं से भी
चखो,
खारा ही है।
इस घाट चखो, उस घाट चखो, दिन में चखो,
रात में चखो;
चुल्ल से
चखो कि
प्यालियों
में भरकर चखो,
सागर खारा
ही है। ऐसे ही
बुद्धों से
दिन में सुनो
कि रात, कि
इस कोने से आओ
कि उस कोने से,
कि यह
प्रश्न पूछो
कि वह, इस
बुद्ध से पूछो
कि उस बुद्ध
से, जो भी
जाग गये हैं
उनका स्वाद एक
ही है—ध्यान।
स्वभावत:, जागे
हुए का एक ही
स्वाद
होगा—जागरण।
और सोए हुए का
एक ही स्वाद
होता
है—निद्रा।
सोए हुए आदमी
कितने ही
भिन्न हों, उनकी नींद
एक जैसी है, उनकी तंद्रा
एक जैसी है।
तुम
सब यहां सो
जाओ आज रात, तो
जब तक जागे हो
तब तक
थोड़ा—बहुत
शायद भेद भी हो,
सोते ही तो
सब भेद मिट
जाएंगे। एक सी
निद्रा सब पर
छा जाएगी। फिर
कोई आकर
अलग—अलग
चेहरों का
निरीक्षण
करने लगे, तो
एक ही तो
स्वाद पाएगा,
निद्रा का।
कितना ही
खोजबीन
करे—स्त्रियां
सोयी होंगी, पुरुष सोए
होंगे; बच्चे
सोए होंगे, के सोए
होंगे, स्वस्थ
सोया होगा, अस्वस्थ
सोया होगा; कुरूप और
सुंदर सोए
होंगे, गरीब
और धनी सोए
होंगे, संसारी
और संन्यासी
सोए
होंगे—लेकिन
नींद एक सी
होगी। नींद का
स्वाद एक सा
है। बेहोशी
नींद का स्वाद
है।
ऐसी
ही घटना परम
जागरण में भी
घटती है। जो
भी जागे, उनका
स्वाद एक है।
निश्चित ही
उनके शब्द अलग
हैं —कृष्ण
संस्कृत में
बोले, बुद्ध
पाली में बोले,
महावीर
प्राकृत में
बोले, जीसस
अरेमैक में
बोले, मोहम्मद
अरबी में बोले,
भाषाओं के
भेद हैं, अलग—
अलग घाट, अलग—
अलग रंग—ढंग
की प्यालियां,
अगा—अलग देश,
अलग—अलग काल
में बने हुए
पात्र हैं, लेकिन स्वाद
एक है। और जो
इस स्वाद को पहचान
लेता है, वही
धार्मिक है।
फिर वह हिंदू
नहीं रह जाता,
मुसलमान
नहीं रह जाता,
ईसाई नहीं
रह जाता, सिर्फ
धार्मिक रह
जाता है। और
धार्मिक होना
परम
स्वतंत्रता
है। तब फिर
कहीं से भी
खबर आती है, वह पहचान
लेता है कि वह
संदेश भगवान
का ही है।
ध्यान
का अर्थ
है—निर्विचार
चैतन्य।
थाटलेस
काशसनेस।
निर्विचार
चैतन्य को
खयाल में लो।
दो बातें हैं, एक
तो निर्विचार,
कटेंटलेस, कोई
विषय—वस्तु न
रह जाए चेतना
मैं। कोई चीज
बचे न जिसके
संबंध में तुम
सोच रहे हो, कोई
सोच—विचार न
बचे। जैसे कि
दीया जले, लेकिन
दीये के आसपास
कोई भी चीज न हो
जिस पर प्रकाश
पड़े। ऐसी
चैतन्य की दशा
हो कि आसपास
कुछ भी .न हो
जिस पर चेतना
पड़े, जिसके
प्रति तुम
चेतन होओ, कुछ
भी चेतन होने
को न बचे, सिर्फ
चेतना बचे, शुद्ध चेतना
बचे।
तो
पहली तो बात
है,
विचार शांत
हो जाएं, शून्य
हो जाएं, विदा
हो जाएं। आकाश
से बदलिया चली
जाएं, कोरा
आकाश बचे।
और
दूसरी बात है, यह
आकाश जागा हुआ
हो, चैतन्यपूर्ण
हो। अक्सर ऐसा
नींद में हो
जाता है, गहरी
निद्रा में
विचार तो चले
जाते हैं, स्वम्न
भी चले जाते
हैं, लेकिन
साथ ही साथ
तुम भी चले
जाते हो।
इसलिए पतंजलि
ने सुषुप्ति
को ध्यान के
बहुत करीब कहा
है, जरा सा
भेद बताया है।
वह जरा सा भेद
बड़ा है, छोटा
नहीं। पतंजलि
ने कहा है, सुषुप्ति
और समाधि एक
जैसे हैं, जरा
सा भेद है।
सुषुप्ति में
निद्रा होती
है, समाधि
में जागरण
होता है, इतना
सा भेद है, अन्यथा
दोनों एक जैसे
हैं, क्योंकि
दोनों में
विचार नहीं
होते। सुषुप्ति
भी निर्विचार
होती है और
समाधि भी निर्विचार
होती है। मगर
समाधि में
भीतर का आदमी
जागा होता है।
ऐसा
समझो कि एक
आदमी को
क्लोरोफार्म
दे दिया और
उसको
स्ट्रेचर पर
रखकर ले आए और
इस बगीचे में
घुमाया। जरूर
उसके नासापुट
फूलों की गंध
से परिचित
होंगे, लेकिन
उसे होश नहीं।
ठंडी हवाएं
उसके मुख को
छुएंगी, शीतलता
उसके आसपास
बहेगी, लेकिन
उसे पता नहीं।
पक्षी गीत
गाएंगे, लेकिन
उसे पता नहीं;
सुंदर फूल
खिलेंगे, लेकिन
उसे पता नहीं।
फिर तुम उसे
बगीचे में घुमाकर
ले गये, जब
उसे होश आएगा
तो वह कुछ भी न
कह सकेगा कहा
गया था। गया
तो था बगीचे
में, लेकिन
वह खुद कुछ भी
न कह सकेगा।
वह होश में नहीं
था, बगीचे
में तो गया था,
लेकिन होश
में नहीं था।
फिर
उसी आदमी को
होश में
लाओ—बगीचा वही
है,
पक्षी वही
हैं, उनकी
गुनगुनाहट
वही है, गंध
वही है, हवाएं
वही हैं, लेकिन
अब यह आदमी
जागा हुआ है।
सुषुप्ति
में हम रोज ही
उस बगीचे में
जाते हैं जिसका
नाम परमात्मा
है,
लेकिन हम
जाते हैं
बेहोश—क्लोरोफार्म
की दशा में।
रोज—रोज हम
उसके पास
पहुंचते हैं।
इसीलिए जिस
दिन तुम ठीक
से नहीं सो
पाते, उस
दिन बड़ी
बेचैनी लगती
है। उस दिन
परमात्मा से
संबंध न हो
पाया।
मूर्च्छित ही
सही, —लेकिन
अपने घर लौट
जाते हो गहरी
नींद में—ऊर्जा
मिलती, जीवन
मिलता, ताजगी
मिलती। जिस
दिन गहरी नींद
आ गयी, उस
दिन सुबह तुम
उठकर अपने को
ताजा पाते हो,
नया जीवन
पाते हो। जिस
दिन गहरी नींद
न आयी, उस
दिन तुम
थके—मांदे
होते हो सुबह,
अपने
मूलस्रोत से
संबंध न जुड़ा।
सुषुप्ति
में भी संबंध
जुड़ता है, लेकिन
संबंध
मूर्च्छा का
है। समाधि में
संबंध जुड़ता
है होशपूर्वक,
जागे हुए
तुम परमात्मा
में प्रवेश
करते हो, जागे
हुए लौटते हो।
और अगर जागकर
गये और जागकर
लौटे, तो
फिर लौटते ही
कहा! फिर तो
वहीं स्थित हो
जाते हो। फिर
आना—जाना सब
चलता रहता है
और तुम बने
वहीं रहते हो,
वहीं, ठीक
अपने अंतस्तल
के केंद्र पर'।
निर्विचार
चैतन्य ध्यान
का अर्थ है।
पांच
सौ भिक्षु
भगवान का
आवाहन सुन
ध्यान को तत्पर
हुए। भगवान ने
उन्हें
अरण्यवास में
भेजा। एकांत
ध्यान की
भूमिका है।
ध्यान
के प्राथमिक
चरण में स्वात
गहरा साथ देता
है। एकांत का
इतना ही अर्थ
नहीं' है कि
तुम अकेले
होओ। एकांत का
यही उरर्थ है
कि तुम्हारे
भीतर भीड़ न
हो। तो बाहर
की भीड़ भी अगर
छोड़ दो तो
थोड़ा सहयोग
मिलता है, लेकिन
थोड़ा। उस पर
ही निर्भर मत
हो जाना। क्योंकि
कोई जंगल में
भी बैठकर औरों
का विचार कर
सकता है। पहाड़
की गुफा में
बैठकर भी घर
की सोच सकता
है, दुकान
की सोच सकता
है—सोचने पर
कोई नियंत्रण
नहीं है। तो
भीड़ तो फिर
भीतर बनी
रहेगी। न
भीड़
बाहर हो, न भीड
भीतर हो।
दूसरे की
मौजूदगी भीड़
है—वस्तुत .या
विचारत।
दूसरे की
अनुपस्थिति
एकांत है।
अगर
तुम बाजार में, भीड़
में बैठे हुए
एकांत साध पाओ,
तो इससे
सुंदर कुछ भी
नहीं। अगर यह
कठिन हो शुरू—शुरू
में, तो
कभी—कभी समय
निकालकर पहाड़
पर चले जाओ, जंगल में
चले जाओ—वर्ष
में कुछ दिन
अकेले में बिताओ,
जहां
बिलकुल भूल
जाओ कि कोई
दूसरा है भी।
जहॉ तूम
एकमात्र बचो। जहां
कोई बोलने को
न हो, जहां
कोई विचारने
को न हो, जहां
दूसरा
तुम्हारी
सीमा न बनाता
हो, वहां
तुम असीम हो
जाओगे।
एकांत
ध्यान की
भूमिका है।
प्राथमिक
भूइमका है।
शुरू—शुरू में
सभी को सहयोग
मिलता है।
लेकिन इस
एकांत से जो
ग्रसित हो
जाते हैं, उन्होंने
भूमिका का उपयोग
न किया, भूमिका
उनके लिए फासी
बन गयी। कुछ
लोग जंगल जाते,
फिर लौटने
में डरने लगते
हैं।
एकांत
में जाना जरूर, लेकिन
स्वात लक्ष्य
नहीं है।
स्वात तो केवल
प्राथमिक
भूमिका है।
आना तो लौटकर
यहीं है। परीक्षा
तो यहीं होगी।
अगर एकांत में
जाकर अच्छा
लगा और तुम उस
अच्छे लगने के
कारण वहीं बस
रहे और तुम
डरने लगे कि
अब भीड़ में
जाएंगे तो
ध्यान टूट
जाएगा, तो
ध्यान
तुम्हारा लगा
ही नहीं। जो
भीड में जाने
से टूट जाए, वह ध्यान
नहीं है।
ध्यान
का तो अर्थ ही
यही है कि अब
तुम इतने सबल हो
गये कि अब अगर
तुम भीड़ में
भी आओगे, तो भी
कोई अंतर न
पड़ेगा। भीड़ हो
या न हो, तुम्हारे
भीतर अब भीड़
नहीं हो सकती,
तुम इतने तो
जाग गये।
ही, शुरू—शुरू
में उपयोगी हो
सकता है। हम
पौधे को लगाते
हैं, तो
शुरू—शुरू में
उसके पास
बागुडू लगा
देते हैं। अभी
कमजोर है, अभी
कोमल है, अभी
जरा सी चीज से
टूट जाएगा—हवा
का बड़ा झोंका
आ जाए, कि
कोई जानवर आ
जाए, कि
कोई बच्चा
उखाड़ ले।
जल्दी ही पौधा
बड़ा हो जाएगा,
पौधा
बागुडू के ऊपर
निकल जाएगा, फिर बागुडू
हम हटा
देंगे—अब कोई
हर्जा नहीं है,
अब पौधे की
अपनी जड़ें फैल
गयी हैं जमीन
में, अब वह
अपने पैरों
खड़ा हो गया, अब आकाश से
होड़ लेगा, बड़ी
हवाओं से
टक्कर लेगा, अब आए जिसे
आना हो, अब
कोई अंतर नहीं
पड़ेगा। ऐसा ही
ध्यान है। S)रू में कोमल
तंतु होते
ध्यान के, तब
एकांत उपयोगी
है।
इसलिए
बुद्ध ने
स्वात में
भेजा, अरण्य
में भेजा, कहा—जंगल
चले जाओ।
अव्यस्तता
ध्यान का
द्वार है।
और
जंगल में
अव्यस्त हो
जाना आसान
होगा, करने को
कुछ बचेगा
नहीं। भीड़—
भाड़ में तो अब
करने को हजार
बातें हैं, करना ही
करना, सुबह
से सांझ तक
करना ही करना,
हम उसमें
डूब ही जाते
हैं। करने की
बाढ़ है, मौका
ही नहीं मिलता
कि कभी थोड़ी
देर को न—करने का
मजा भी लें।
और करने वालों
ने इस बुरी तरह
हमारे मन को
आच्छादित
किया है कि
अगर तुम खाली
बैठे हो, तो
लोग कहेंगे, आलसी हो।
अगर तुम खाली
बैठे हो, तो
लोग कहेंगे, खाली मत
बैठो, खाली
मन शैतान का
घर हो जाता
है। अगर तुम
थोड़ी देर को
आंख बंद करके
बैठे हो, तो
लोग कहेंगे, क्या आलस्य
कर रहे हो, अरे
कुछ करो! कर्मठ
बनो! आंख बंद
करके तुम
बैठते हो तो
तुम देख लेते
हो, कोई
देख तो नहीं
रहा है! नहीं
तो लोग
समझेंगे कि
क्या कर रहे
हो!
न—करने
के संबंध में
इतना विरोध है, शांत
बैठने के
संबंध में
इतना विरोध है
कि आदमी बैठता
भी है तो
द्वार—दरवाजे
लगाकर, खिड़की
बंद करके
बैठता है, कि
कोई देखे न।
क्योंकि लोग
कहते हैं, कुछ
कर रहे हो तब
तो ठीक, कुछ
नहीं कर रहे
तो फिर क्या
कर रहे हो! समय
क्यों गंवाते
हो? सुनते
हो न, लोग
कहते हैं, समय
धन है, टाइम
इज मनी। पागल
हैं ये लोग।
कहते हैं, समय
को निचोड़ लो, कुछ कर
गुजरो, कुछ
थोडा धन और
बढा लो, एक
पद पर और चढ़
जाओ, तिजोड़ी
थोड़ी और बड़ी
कर लो, मकान
थोड़ा और बड़ा
बना लो, कुछ
कर गुजरो!
थोड़ा समय हाथ
में है, अभी
तो मौत आएगी, सब पड़ा रह
जाएगा, मगर
इसकी उन्हें
याद भी नहीं।
वह कहते हैं, समय का
उपयोग कर लो।
करने
—करने की बड़ी
आपाधापी है।
और जो भी जीवन
का परम सत्य
है,
न—करने में
उपलब्ध होता
है। कर्म से
नहीं, अकर्ता
के भाव से
उपलब्ध होता
है। शांत और
शून्य दशा में
उपलब्ध होता
है। करने से
संसार मिलता
है, न—करने
से परमात्मा
मिलता है।
किये —किये
मिट्टी से
ज्यादा कुछ
हाथ नहीं
लगता। सोना तो
बरसता है जब
तुम न—करने की
दशा में आते
हो।
तो
भेजा उन्हें
एकांत में
ताकि अव्यस्त
हो सकें।
अनआकूपाइड।
छोटे —मोटे
जीवन के
रोजमर्रा के
काम न रह
जाएं। घड़िया
खाली हों।
शांत वृक्षों
के नीचे बैठ
सकें।
पक्षियों के
गीत सुन सकें।
जल—प्रपात का
नाद सुन सकें।
सरिता की कलकल
सुन सकें।
हवाओं की मरमर
वृक्षों से
निकलती हुई
सुन सकें।
आकाश के चांद—तारे
देख सकें।
प्रकृति—सान्निध्य
अपूर्व रूप से
सहयोगी है।
मनुष्य
ने एक दुनिया
बना ली
है—प्रकृति के
विपरीत
मनुष्य ने
अपनी दुनिया
बना ली है।
सीमेंट के
रास्ते, सीमेंट
के मकान, सीमेंट
के जंगल आदमी
ने बना लिये
हैं, उनमें
कहीं खबर ही
नहीं मिलती कि
परमात्मा भी है।
बड़े नगर में
परमात्मा
करीब—करीब मर
चुका है।
क्योंकि
परमात्मा की
खबर वहां
मिलती है जहां
चीजें बढ़ती
हैं। पौधा बड़ा
होता है तो
खबर देता है
जीवंत है। अब
कोई मकान बडा
तो होता नहीं,
जैसा है
वैसा ही होता
है। रास्ता
सीमेंट का कोई
बढ़ता तो नहीं,
जैसा है
वैसा ही रहता
है—मुर्दा है।
जीवन
का लक्षण क्या
है?
बढ़ाव, वृद्धि।
वर्द्धमान
होना जीवन का
लक्षण है। हमने
एक मुर्दा
दुनिया बना ली
है—मशीने बढ़ती
नहीं, मकान
बढ़ते नहीं, सीमेंट के
रास्ते बढ़ते
नहीं, सब
मुर्दा है। सब
ठहरा हुआ है।
इस ठहरे हुए
में हम जी रहे
हैं, हम भी
ठहर गये हैं।
जिनके साथ हम
रहते हैं, वैसे
ही हम हो जाते
हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जो आदमी
मशीनों के साथ
काम करता है, धीरे—
धीरे मशीन ही
हो जाता है।
हो ही जाता
है। यह बिलकुल
स्वाभाविक
है। हमारा
कृत्य धीरे— धीरे,
धीरे— धीरे
हमारी आदतें
बना देता है।
वही हमें घेर
लेता है। आदमी
ने जो एक लोहे
और सीमेंट की
दुनिया बनायी
है, वह बडी
खतरनाक है।
वहा आदमी के
हस्ताक्षर तो
मिलते हैं, लेकिन
परमात्मा की
कोई खबर नहीं
मिलती।
परमात्मा
को खोजने के
लिए,
परमात्मा
की थोड़ी झलक
के लिए
प्रकृति के करीब
जाना उपयोगी
है। क्योंकि
वहां सब कुछ
नाचता हुआ है,
अभी भी
जीवित है। अभी
भी वृक्ष बढते
हैं, अभी
भी फूल खिलते
हैं।
शहरों
में तो आकाश
दिखायी ही
नहीं पड़ता।
महानगरों में
तो चांद—तारे
ऊगते कि नहीं, पता
ही नहीं चलता।
महानगरों में
सूरज अब भी आता
है कि जाता है,
कब आता है, कब जाता है, किसी को खबर
नहीं होती।
जीवन का जो भी
श्रेष्ठ है, सुंदर है, उसकी तरफ
आंखें बंद हो
गयी हैं। अपनी
आंखें गड़ाए हम
भागे जाते हैं,
घर से दफ्तर,
दफ्तर से
घर। एक मकान
से दूसरे मकान
में भागते
रहते हैं।
चारों तरफ भीड़
है, आदमी
ही आदमी हैं, चारों तरफ
पागलपन है, चारों तरफ
उपद्रव है, दंगे—फसाद
हैं और चारों
तरफ आदमी की
बनायी हुई
झूठी, कृत्रिम
दुनिया है। इस
झूठ में अगर
परमात्मा मर
गया हो या
परमात्मा का
पता न चलता हो
तो कुछ आश्चर्य
तो नहीं।
इस
सदी में अगर
परमात्मा
सबसे कम मौजूद
है,
तो उसका कुल
कारण इतना है
कि आदमी बहुत
मौजूद हो गया
है। और आदमी ने
सब तरफ अपना
इंतजाम कर
लिया है। सब
तरफ से परमात्मा
को खदेड़कर
बाहर कर दिया
है। परमात्मा
का निष्कासन
कर दिया गया
है। उसे दूर
फेंक दिया गया
है, रहे
कहीं हिमालय
में, रहे
कहीं पहाड़ों
में, रहे
कहीं जंगलों
में।
बुद्ध
अपने
भिक्षुओं को
भेजते थे
अरण्य में कि
चले जाओ। और
उन दिनों तो
आदमी इतना
मजबूत नहीं था
जितना आज है, और
उन दिनों तो
नगर इतने
विकृत न हुए
थे जितने आज
हैं, फिर
भी बुद्ध
भेजते थे
जंगलों में।
उन्होंने भी
वृक्षों और
नदियों के
किनारे बैठकर
उसकी झलक पायी
थी। तो उन्होंने
भेजा।
प्रकृति—सान्निध्य
अपूर्व रूप से
सहयोगी है।
मंदिर
भी तुम्हारे
उतनी खबर नहीं
देते परमात्मा
की,
न तुम्हारी
मस्जिद, न
तुम्हारे
गुरुद्वारे, जितनी खबर
एक वृक्ष देता
है। जीवंतता,
बढ़ाव, फैलाव।
वृक्ष
को देखते हो? अपूर्व
है। इतना
रहस्यमय है!
एक गहरा जगत
अपने भीतर
छिपाए हुए है।
उसके भी बड़े
सपने हैं आकाश
को छूने के।
उसकी भी बड़ी
महत्वाकांक्षा
है। वह भी
अपने जीवन के
लिए संघर्ष
करता है और
टिकता है।
उसके भीतर भी
कोई प्राण
छिपा है, कोई
आत्मा है।
पशु—पक्षियों
को गौर से
देखते हैं? उनकी
आंख में
झांकते हैं? प्रकृति सदा
से ध्यान के
करीब लाने का
एक अपूर्व उपाय
रही है।
उन
पांच सौ
भिक्षुओं ने
बहुत सिर
मारा।
गये
जंगल, बहुत
सिर मारा, मगर
कुछ परिणाम न
हुआ। जंगल गये
होंगे, जंगल
गये नहीं।
पहुंच तो गये
होंगे
वृक्षों के
पास, झरनों
के पास, लेकिन
अपने ही मन
में घिरे रहे
होंगे। वे
आदमी के मन
में ही उलझे
रहे होंगे।
बात समझे
नहीं। जंगल
जाने से ही
थोड़े कुछ हो
जाएगा। जंगल
के प्रति
संवेदनशील
होना चाहिए।
जंगल जाने का
अर्थ है, आदमी
और आदमी की
सभ्यता पीछे
छोड़ जानी
चाहिए। अगर उस
सभ्यता को तुम
अपने मन में
ले गये—जिनका
नाम संस्कार
है—अगर उन
संस्कारों को
तुम अपने साथ
ले गये, तो
तुम वहा भी
उन्हीं
संस्कारों
में घिरे बैठे
रहोगे। तो ऊपर
से तो दिखायी
पड़ता है कि
तुम जंगल आ
गये, लेकिन
भीतर से तुम
कहीं भी आए न
कहीं गये। तुम
वहीं के वहीं
हो, जहां
थे।
उन्होंने
बहुत सिर मारा, मगर
परिणाम कुछ न
हुआ।
और
शायद बुद्ध की
बात सुनकर वे
लोभ में पड़
गये। ध्यान की
महिमा सुनी
होगी, ध्यान
का गुणगान
सुना होगा, ध्यान का
अपूर्व आनंद
सुना होगा, सच्चिदानंद
की बातें सुनी
होंगी, समाधि
के सुख का
बुद्ध का वचन
मन में लोभ को
जगाया होगा।
मन में वासना
उठी होगी कि
ऐसी समाधि
हमें भी मिले।
गये थे, लेकिन
बिना समझे चले
गये। गये थे, लेकिन ठीक
से समझकर न
गये कि ध्यान
कैसी परिस्थिति
में पैदा होता
है, कैसी
मनःस्थिति
में पैदा होता
है। तो बहुत
सिर मारा—सिर
मारने से क्या
होगा! सिर
मारने से ध्यान
होता होता तो
बड़ी आसान बात
हो जाती। समझ चाहिए,
सिर मारने
से कुछ भी
नहीं होता। और
समझ न हो तो
सिर मारने से
और उलझन बढ़
सकती है। समझ
हो तो सूत्र बड़े
सरल हैं, सहज
हैं।
फिर
सिर मारने में
उन्होंने
किया .क्या
होगा? लड़े
होंगे
विचारों से।
सिर मारने का
मतलब साफ है, लड़े होंगे
विचारों से।
बुद्ध ने कहा,
निर्विचार
चैतन्य; तो
विचारों को
हटाने की
कोशिश की होगी,
मारामारी
की होगी
विचारों के
साथ। और जब
तुम विचारों
से लड़ोगे तो
तुम उनको कभी
न हटा पाओगे।
विचार लड़ने से
कभी हटते ही
नहीं, बढ़ते
हैं, और
बढ़ते हैं।
किसी
एक विचार से
लड़कर देखो, वह
तुम्हारा
पीछा करने
लगेगा। जितना
तुम उसे
हटाओगे, उतना
वह तुम्हारे
संग—साथ होने
लगेगा। उछल—उछलकर
तुम्हारे बगल
में चलेगा, आगे—पीछे
होगा, तुम
उसे हटाओ, तुम्हारे
हटाने से नहीं
हटेगा।
तुम्हारे हटाने
की चेष्टा से
उसको और बल
मिलेगा।
नहीं, विचारों
से लड़कर कोई
विचारों से
मुक्त नहीं होता,
विचारों के
प्रति साक्षी
बनकर मुक्त
होता है। और
साक्षी बनने में
कैसा सिर
मारना! साक्षी
बनने में सिर
मारना ही नहीं
होता। साक्षी
बनने में तो
बैठ जाता है
आदमी चुपकी
मारकर भीतर; विचार आते, जाते—देखता।
न पक्ष में
सोचता है न
विपक्ष में
सोचता है। न
तो कहता बुरे
हैं, न
कहता भले हैं।
कोई
मूल्यांकन
नहीं करता, कोई निर्णय
नहीं लेता—आएं,
जाएं, उदासीन,
तटस्थ। न
राग, न
विराग। आओ तो
ठीक, न आओ
तो ठीक। न
बुलाता है, न धकाता है।
ऐसी
चित्त की दशा
में,
जब न विचार
कोई बुलाए
जाते और न
धकाए जाते, धीरे—धीरे
विचार
तिरोहित हो
जाते हैं।
सन्नाटा छा
जाता है।
उस
सन्नाटे क्ए
छा जाने पर भी
साक्षीभाव
में बैठा आदमी
एकदम दीवाना
नहीं हो जाता
है कि मिल गया, मिल
गया—क्योंकि
मिल गया, कि
विचार आ गया।
जैसे ही कहा, मिल गया, चूक
गये।
पहुंचते—पहुंचते
फिसल गया पैर।
पड़ने को था
आखिरी मंजिल
पर और गिर गये
गड्डे में।
आखिरी
समय तक पीछा
करेगा मन अगर
तुमने जरा सी
भी उसको सुविधा
दी। तुमने कहा, मिल
गया, कि पा
लिया, कि
अरे, यही
है, बस ये
शब्द बन गये
कि चूक गये, कि बाधा पड़
गयी।
तो
विचार के
प्रति सिर्फ
जागना है, और
जागकर जब
विचार चला जाए
तो शून्य को
भी पकड़ नहीं
लेना है।
शून्य जब आए
तो उसके प्रति
भी उदासी
रखना—सुन लो
ठीक से, तुम्हारे
जीवन में भी
वह घटना कभी न
कभी घटेगी, घटनी
चाहिए—जब
शून्य. आए तो
एकदम से
प्रफुल्लित
मत हो जाना, नहीं तो
विचार ने फिर
दाव मार दिया,
फिर पीछे से
आ गया, फिर
पीछे के
दरवाजे से घुस
आया। बाहर ही
खड़ा था, देख
रहा था कि
कहीं मौका मिल
जाए तो प्रवेश
कर जाएं।
शून्य
आए तो शून्य
को भी देखना
उसी तरह
निष्पक्ष
जैसे विचारों
को देख रहे
थे। कहना—ठीक
है,
तुम भी आए
तो ठीक, जाओ
तो ठीक, तुमसे
भी मुझे कुछ
लेना—देना
नहीं है।
शांति भी आए
तो शांति को
भी ऐसे ही
देखना, उदास,
नहीं कुछ रस
लेना। तब
शांति बढ़ेगी,
तब शून्य
घना होगा और
धीरे — धीरे
विचार थक जाएगा,
इतना थक
जाएगा कि
उसमें प्राण न
रह जाएंगे कि वह
वापस लौट सके।
इस दशा का नाम
ध्यान है।
उन्होंने
बहुत सिर मारा, मगर
कुछ परिणाम न
हुआ।
सिर
मारने से
परिणाम होता
भी नहीं। सिर
मारने सै
विक्षिप्त हो
सकते हो, विमुक्त
नहीं। यह कोई
जिद्दा—जिद्द
थोड़े ही है, यह कोई
लड़ाई—झगड़ा
थोड़े ही है, यह कोई
युद्ध थोड़े ही
है, यहां
समझ काम आती
है।
वे
पुन: भगवान के
पास आए ताकि
ध्यान—सूत्र
फिर से समझ
लें। भगवान ने
उनसे कहा—बीज
को सम्यक भूमि
चाहिए, अनुकूल
ऋतु चाहिए, सूर्य की
रोशनी चाहिए,
ताजी हवाएं
चाहिए, जलवुरष्टि
चाहिए, तभी
बीज अंकुरित
होता है। और
ऐसा ही है
ध्यान। सम्यक
संदर्भ के
बिना ध्यान का
जन्म नहीं होता।
और
तब उन्होंने
ये सूत्र उन
पांच सौ
भिक्षुओं को
कहे। ये सूत्र
अपूर्व मूल्य के
हैं —
सब्बे
संखारा अनिच्चति
यदा पज्जाय
पस्सति।
अथ
निब्बिन्दित
दुक्खे एस
मग्गो
विसुद्धिया
।।
सब्बो
संखारा दुक्खाति
यदा पज्जाय
पस्सति।
अथ
निब्बिन्दति
दुक्खे एस
मग्गो
विसुद्धिया।।
सब्बे
धम्मा अनत्तति
यदा पज्जाय
पस्सति।
अथ
निब्बिन्दति
दुक्खे एस
मग्गो
विसुद्धिया
।।
यह है
मार्ग
विशुद्धि
का—एस मग्गो
विसुद्धिया—और
तीन बातें
कहीं। ये तीन
बुद्ध— धर्म
के मूल आधार
हैं। इन तीन
पर बुद्ध की
सारी देशना
खड़ी है। इन पर
उनका पूरा
मंदिर बना है।
पहला—
सब्बे
संखारा अनिच्चति
सब
संस्कार
अनित्य हैं।
जो भी है इस जगत
में,
क्षणभंगुर
है। यहां कुछ
भी स्थिर नहीं
है। यह पहला
सूत्र है, यह
पहली
आधारशिला।
सब्बे
संखारा अनिच्चति
यदा पज्जाय
पस्सति।
ऐसा
जिसने
प्रज्ञापूर्वक
देख लिया कि
इस संसार में
सभी कुछ
क्षणभंगुर
है। फिर वह कुछ
पकड़ेगा नहीं।
फिर पकड़ने को
कुछ बचा ही
नहीं। जहां
पानी के बबूले
ही बबूले हैं, वहां
पकड़ने को क्या
है! जब संसार
ही पूरा का पूरा
पानी का बबूला
है, तो
तुम्हारे
विचार तो
बबूलों की
छायाएं हैं समझो,
बबूले भी
नहीं। संसार
बबूला है। एक
सुंदर स्त्री
द्वार से निकल
गयी, बुद्ध
कहते हैं, यह
सुंदर स्त्री
पानी का बबूला
है। और इस सुंदर
स्त्री का जो
प्रतिबिंब
तुम्हारे मन
में बना, वह
विचार है, वह
तो बबूले की
छाया, वह
तो बबूला भी
नहीं है। वह
तो बबूले का
फोटोग्राफ।
सब्बे
संखारा अनिच्चति
यदा पज्जाय
पस्सति।
सब
अनित्य है। इस
भाव में गहरे
उतरें। तो
बुद्ध ने
कहा—यह पहली
भूमिका। इससे
सम्यक भूमि
मिल जाएगी बीज
को कि सब
अनित्य है, तो
पकड़ने को क्या
है। जब संसार
अनित्य है तो
विचारों की तो
कहना ही क्या,
विचार तो
संसार की
छायाएं मात्र
हैं। छाया की छाया।
फिर उसमें
पकड़ने जैसा
कुछ भी नहीं
है।
हम
विचारों में
इतना रस लेते
हैं,
क्योंकि
विचारों को हम
सोचते हैं बड़े
बहुमूल्य
हैं। और हम
विचारों को
इसीलिए
बहुमूल्य
सोचते हैं, क्योंकि हम
सोचते हैं
इन्हीं
विचारों के
माध्यम से जगत
में कुछ कर
लेंगे, संसार
में कुछ हो
लेंगे। धन कमा
लेंगे, पद
कमा लेंगे, सौंदर्य पा
लेंगे, कुछ
कर गुजरेंगे
जगत में।
लेकिन अगर जगत
पूरा का पूरा
अनित्य है, आज है, कल
नहीं हो
जाएगा..।
थोड़ा
सोचो, तुम एक
नदी के तट पर
बैठे हो, एक
चट्टान पर
बैठे हो, सामने
नदी की धार बह
रही है, पास
में ही रेत का
ढेर लगा है।
तुम अगर पानी
पर अपने
हस्ताक्षर
करो तो तुम कर
भी न पाओगे कि
वह मिट
जाएंगे। तो
तुम पानी पर —हस्ताक्षर
नहीं करोगे।
या कि करोगे? क्योंकि तुम
देखते हो कि
कर भी नहीं
पाते हैं, मिट
जाते हैं, पानी
का स्वभाव ऐसा,
यहां बना
नहीं कि मिट
गया नहीं, तुमने
हस्ताक्षर कर
भी दिये पानी
पर तो टिकेगे
नहीं। .तो तुम
पानी पर नहीं
करोगे।
रेत
पर लिखोगे? रेत
पर लिखोगे तो
पानी से
ज्यादा टिकते
हैं, मगर
हवा का एक
झोंका आया और
मिट जाते हैं।
नहीं, तुम
रेत पर भी
लिखने में कुछ
मजा न लोगे।
तुम चट्टान पर
करोगे। तुम
चट्टान पर
खोदोगे नाम। लेकिन
चट्टान भी मिट
जाती है, थोड़ी
देर—अबेर।
समझो कि पानी
बहुत जल्दी
बिखर जाता, रेत थोड़ी
देर से, चट्टान
और थोड़ी देर
से। जो रेत है
वह कभी चट्टान
थी, खयाल
रखना। और जो
चट्टान है, वह कभी रेत
हो जाएगी। और
मजा यह है कि
चट्टान को
जिसने रेत बना
दिया वह पानी
है। जो पानी
से हार गयी वह
पानी से मजबूत
कैसे होगी? पानी पर
दस्तखत करने
में घबड़ाते हो,
चट्टान पर
दस्तखत कर रहे
हो, और
तुम्हें पता
नहीं कि पानी
चट्टान को तोड़
देता है।
इस
जीवन में हम
जो भी कर
गुजरने की
आकांक्षाएं
लिये बैठे हैं, वे
सब पानी पर
हस्ताक्षर
जैसी हैं।
चट्टान पर भी
हस्ताक्षर
करो तो वे भी
चले जाते हैं,
वे भी बचते
नहीं। कितने
लोग इस जमीन
पर हुए—कितने
लोग नहीं हुए
इस जमीन पर।
वैतानिक कहते
हैं, तुम
जिस जगह बैठे
हो, वहां
कम से कम दस
आदमियों की
लाशें गड़ी
हैं। यह पूरी
जमीन मरघट है।
इतने लोग पैदा
हुए; जहां
आज नगर हैं, कोई मरघट थे,
जहां आज
मरघट हैं, कभी
नगर थे। कई
दफे बदली हो
चुकी है। यह
पूरी पृथ्वी
मरघट बन गयी।
इसमें न—मालूम
कितने लोग
पैदा हुए, खो
गये। उनका
तुम्हें नाम
पता? ठिकाना
पता? कौन
थे? क्या
थे? तुम्हारी
जैसी ही उनकी
भी
महत्वाकांक्षाएं
थीं, और
तुम्हारे
जैसे ही
उन्होंने भी
बड़े—बड़े सपने
बांधे थे, और
तुम्हारे
जैसे ही वे भी
इंद्रधनुषों
में जीते थे, और तुम्हारे
जैसे वे भी
नाम छोड़ जाना
चाहते थे।
क्या छूट गया
है? तुम भी
ऐसे ही खो
जाओगे जैसे वे
खो गये।
और
फिर यह भो
सोचो कि किसी
का नाम भी छूट
गया—समझो कि
सिकंदर का नाम
छूट गया—तो
सार क्या है? नाम
मै सार क्या
है? नाम
छूट भी जाए तो
क्या सार है? क्या फायदा
सिकंदर को? इस नाम के
छूट जाने से
कौन सा आनंद
सिकंदर को? सिकंदर न
बचा, और
नाम बच भी गया
तो क्या करोगे?
जब स्वयं ही
न बचे, तो
स्वयं की
तस्वीरें अगर
टंगी भी रह
गयीं, तो
उनका मूल्य
क्या है? किसको
मूल्य है? किसको
प्रयोजन है?
बुद्ध
कहते हैं, अगर
ध्यान में
वस्तुत: गहरे
उतरना हो तो
पहली बात
प्रगाढ़ कर
लेना, यह
पहला भाव
तुम्हारी हवा
बन जाए—
सब्बे
संखारा अनिच्चति।
यदा
पज्जाय पस्सति।
सब
संसार अनित्य
है। सब, बेशर्त,
निरपवाद
क्षणभंगुर
है। अभी है, अभी चला
जाएगा। तो
इसमें पकड़ने
योग्य कुछ भी
नहीं है।
साक्षी बनकर
भीतर बैठना। संसार
में पकड़ने
योग्य कुछ
नहीं है। आंख
बंद जब करोगे
तो विचारों का
संसार दिखायी
पड़ेगा, इसमें
तो पकड़ने
योग्य कुछ हो
भी कैसे सकता
है। आएं बुरे
विचार, .जाएं
बुरे विचार, आएं भले
विचार, जाएं
भले विचार, आने देना, जाने देना, तुम परेशान
ही मत होना, तुम चिंता
ही मत लेना।
तब तुम चकित
होकर पाओगे, यह जो
अनित्य भावना
है, इसके
आधार पर ध्यान
की जड़ें मजबूत
हो जाती हैं।
ध्यान पैदा
होता है
अनित्य की
धारणा में।
इसलिए
सारे
ज्ञानियों ने, संसार
अनित्य है, इस पर बहुत
जोर दिया है।
और बुद्ध का
जोर तो अतिशय
है। बुद्ध ने
तो जोर पूरे अंतिम
तर्क तक
पहुंचा दिया
है। बुद्ध ने
यही नहीं कहा
कि संसार
अनित्य है, बुद्ध ने
कहा, तुम
भी अनित्य हो।
क्योंकि बहुत
से लोग हैं, जिन्होंने
कहा, संसार
अनित्य है।
लेकिन तुमसे
कहा, तुम, तुम बचोगे।
आत्मा बचेगी।
बुद्ध ने कहा,
यहां कुछ भी
नहीं बचेगा। न
यह बाहर का
बचेगा, न
कुछ भीतर का
बचेगा, यहां
कुछ बचता ही
नहीं है।
इसे
समझने की
कोशिश करना।
यहां बचना
होता ही नहीं
है। यहां बहाव
ही बहाव है।
यहां सब बह
रहा है। तुम
भी बह रहे, संसार
भी बह रहा है।
इस बहाव के
बीच ठहरने की
कोई जगह ही
नहीं है, कोई
शरण—स्थल नहीं
है। इस बात की
प्रज्ञा—
सब्बो
संखारा दुक्खाति
यदा पज्जाय
पस्सति।
इस
बात का
तुम्हें
दर्शन हो जाए, इसका
बोध हो जाए, तो ध्यान
लगेगा। 'तब
सभी दुखों से
निर्वेद
प्राप्त हो
जाता है, यही
विशुद्धि का
मार्ग है। '
अथ
निबिन्दति
दुखे एस मग्गो
विसुद्धिया।
बुद्ध
कहते हैं, यह
है विशुद्धि
का मार्ग।
ध्यान यानी
विशुद्धि।
एस
मग्गो
विसुद्धिया।
पहला
सूत्र, पहला
चरण इस
विशुद्ध होने
के मार्ग का
कि सब संसार
अनित्य है।
दूसरा सूत्र—
सब्बो
संखारा दुक्खाति
ये
संस्कार
दुखरूप हैं।
यह सारा संसार
दुखरूप है।
इसमें अगर जरा
सी भी आशा रखी
कि शायद कहीं
थोड़ा—बहुत सुख
छिपा हो, तो
उतनी आशा के
सहारे ही
ध्यान अटक
जाएगा।
तुमने
अगर सोचा कि
ये विचार आए
हैं,
इनमें से
एकाध को चुन
लूं जो अच्छा
है, शुभ है,
सहयोगी है,
कल्याणकारी
है, शायद
इससे लाभ होगा,
बाकी को छोड़
दूं
निन्यानबे
छोड़ दूं एक को
पकड़ लूं तो
बुद्ध कहते
हैं, एक के
पीछे बाकी
निन्यानबे
कतार बांधकर
खड़े हो जाएंगे,
वह एक भीतर
आया कि बाकी
भी भीतर आ
जाएंगे। तुमने
द्वार एक के
लिए खोला कि
सब भीतर आ
जाएंगे। द्वार
बंद करना हो
तो पूरा हो
बंद कर देना।
इसमें जरा भी
पक्षपात मत
करना। अगर
तुमको ऐसा लगा
कि थोड़ा सा
सुख मिल जाए
शायद, तो
फिर तुम अटके
रहोगे।
नहीं, सुख
यहं। है ही
नहीं। बुद्ध
का इस पर जोर
बड़ा प्रगाढ़
है।
सब्बो
संखारा दुक्खाति
यह सारा
संसार दुखरूप
है। यह सारा
संसार बस दुख
ही दुख है।
यहां सुख की
एक किरण भी नहीं
है। यहां कोई
आशा न रखो। जिस
दिन सारी आशा
निराशा हो
जाती है, उसी
दिन ध्यान का
अंकुर फूटने
लगता है।
ध्यान का
अंकुर नहीं
फूट रहा है, क्योंकि
तुम्हारी
आशाएं ध्यान
के बीज पर पत्थर
की तरह बैठी
हैं।
'सब संसार
दुख है, यह
जब मनुष्य
प्रज्ञा से
देख लेता है, तब सभी
दुखों से
निर्वेद को
प्राप्त होता
है।'
बड़ी
अजीब बात
बुद्ध कहते
हैं,
कि जिस दिन
यह दिखायी पड़
जाता है कि सब
दुख है, उसी
दिन दुख से
छुटकारा होने
लगता है।
क्यों? दुख
के बांधने की
तरकीब यही है
कि दुख जब आता
है, तो
पहले तो यही
बताता है कि
मैं सुख हूं।
तुम सुख को
पकड़ते हो, दुख
को तो कोई
पकड़ता ही कहा!
तुम सुख को
पकड़ते हो; दुख
पकड़ में आ
जाता है, यह
दूसरी बात है।
मगर तुम गए थे
फूल पकड़ने, कांटे चुभ
गए यह दूसरी
बात है। हर
कांटा फूल का
धोखा देता.
है। हर काटे
ने विशापन कर
रखा है कि मैं
फूल हूं हर
काटे ने
प्रचार कर रखा
है कि मैं फूल
हूं आओ मेरे
पास, देखो
कितना सुंदर
हूं—और दूर से
सभी काटे फूल जैसे
मालूम होते
हैं।
जैसे
—जैसे पास आते
हो वैसे—वैसे
मुश्किल होती
है। जब बिलकुल
पास आ जाते हो, जब
कि हटने का
उपाय भी नहीं
रह जाता, तब
कांटा छाती
में चुभ जाता
है। लेकिन तब
बहुत देर हो
गयी होती है।
और
आदमी की मूढूता
ऐसी है कि एक
कांटा चुभ
जाता है तो वह
कहता है, एक
काटे ने धोखा
दिया, सभी
फूल थोडे ही
झूठ होंगे। यह
कांटा झूठ
निकला, कहीं
और तलाशेंगे।
फिर और दूसरे
काटो के भ्रम में
पड़ता है। ऐसे
भ्रम चलते ही
जाते हैं, यह
मृग—मरीचिका
अंत ही नहीं
आती, इसकी
कोई सीमा ही
नहीं है। आदमी
अनुभव से कुछ
सीखता ही
नहीं।
बुद्ध
कहते हैं, यह
सारा सँसार
दुख है, ऐसा
जान लेने से
ही दुख से
छुटकारा हो
जाता है।
जहां—जहां सुख
हो, जान
लेना वहां—वहा
दुख होगा।
जहां—जहां सुख
दिखायी पड़े, बहुत गौर से
आंख गड़ाकर
देखना, वहां
तुम दुख को
छिपा हुआ
प्रतीक्षा करते
पाओगे।
'यही
विशुद्धि का
मार्ग है। '
अथ
निब्बिन्दति
दुक्खे एस
मग्गो
विसुद्धिया।।
और
तीसरा सूत्र—
सब्बे
धम्मा अनत्तति
यदा पज्जाय
पस्सति।
अथ
निब्बिन्दति
दुक्खे एस
मग्गो
विसुद्धिया
।।
'सब धर्म
(पंचस्कंध)
अनात्म हैं, यह जब
मनुष्य
प्रज्ञा से देख
लेता है, तब
सब दुखों से
निर्वेद को
प्राप्त होता
है; यही
विशुद्धि का
मार्ग है। '
यह
बुद्ध की
अनूठी बात है।
इस बात को
बुद्ध ने मनुष्य—जाति
को पहली दफा
कहा। उनके
पहले बुद्धपुरुष
हुए,
लेकिन किसी
ने यह बात इस
तरह नहीं कही
थी। यह बडा
क्रांतिकारी
सूत्र है।
बुद्ध
कहते हैं, न
तो पदार्थों
में कोई आत्मा
है, न
तुममें कोई
आत्मा है।
आत्मा का मतलब
होता है, कोई
शाश्वत स्थिर
तत्व, कहीं
भी नहीं है।
अशाश्वत है
सब। सब अथिर
है। न तो
पदार्थ में
कोई चीज घिर
है और न
तुममें कोई
चीज थिर है।
इस अथिरता को
परिपूर्ण रूप
से देख लेने का
नाम है—अनात्म
को समझ लेना, आत्मा कहीं
भी नहीं है।
अगर यह दिखायी
पड़ने लगे कि
आत्मा कहीं भी
नहीं है, सभी
कुछ
स्कंधमात्र
है, जोडूमात्र
है, तो
मनुष्य दुख से
पार हो जाता
है।
और
ये तीन सूत्र
विशुद्धि के
सूत्र
हैं—अनित्य है
सब,
सब दुख से
भरा है और
कहीं भी कोई आत्मा
नहीं है।
जरा
सोचो, अगर ये
तीन सूत्र
तुम्हारे
खयाल में आ
जाएं तो फिर
क्या बाधा रह
जाएगी ध्यान
में? और
अगर बाधा आती
हो, तो समझ
लेना कि इन
तीन सूत्रों
में कहीं कोई
कमी रह गयी।
तो
पहले ये तीन
भावनाएं, फिर
ध्यान। अनूठा
प्रयोग है यह।
और जितने लोग बुद्ध
के द्वारा
ध्यान को
उपलब्ध हुए, उतने लोग
कभी किसी
दूसरे
व्यक्ति के
द्वारा ध्यान
को उपलब्ध
नहीं हुए। न
कृष्ण के
द्वारा, न
महावीर के
द्वारा, न
क्राइस्ट के
द्वारा, न
मोहम्मद के
द्वारा, न
जरथुस्त्र के
द्वारा, न
लाओत्सु के
द्वारा। इतने
लोग कभी भी
किसी और
व्यक्ति के
द्वारा ध्यान
को उपलब्ध
नहीं हुए, जितने
लोग बुद्ध के
द्वारा ध्यान
को उपलब्ध हुए।
ऐसा लगता है
कि बुद्ध ने
ठीक चाबी पर
हाथ रख दिया।
मगर
ये तीन
भावनाएं कठिन
हैं।
सम्हालते
—सम्हालते
सम्हलती हैं।
आते— आते आती
हैं। एकदम से नहीं
आ जातीं।
बुद्ध
अपने
भिक्षुओं को
भेजते थे
मरघट। नया
भिक्षु आता, उसे
भेज देते मरघट
कि तीन महीने
मरघट पर बैठकर
ध्यान कर।
लाशें आतीं, मुर्दे लाए
जाते, जलाए
जाते, हड्डियां
पड़ी हैं, खोपडिया
पड़ी है, जो
कल तक जिंदा
था वह आज राख
होकर पड़ा है।
भिक्षु बैठा 'है, और ये
तीन धारणाएं
कर रहा है—
सब्बे
संखारा अनिच्चति
।
सब्बो
संखारा दुक्खाति।
सब्बे
धम्मा अनत्तति
ये तीन
भावनाएं कर
रहा है
बैठा—बैठा। जब
किसी की लाश
जल रही है, तब
वह यह भावना
कर रहा
है—यहां सब
अनित्य है, यहां सब
दुखपूर्ण है,
यहां कहीं
कोई आत्मा
नहीं है। यहां
कहीं कोई आत्मा
नहीं, इसका
अर्थ, यहां
कहीं कोई शरण
लेने योग्य
स्थल नहीं है।
यहां सभी
व्यर्थ है। इस
सारी
व्यर्थता के
पार चले जाना
है। इस सारी
व्यर्थता के
ऊपर साक्षी हो
जाना है।
बैठा
है,
रोज मुर्दे
आते, सुबह—सांझ,
जलते ही
रहते—मरघट पर
कोई न कोई
जलता ही रहता
है—मुर्दों को
जलते
देखते—देखते,
देखते
—देखते ऐसा भी
दिखायी पड़ने
लगता है कि एक
न एक दिन मैं
भी जलूंगा, ऐसे ही
जलूंगा, क्या
पकडूं?
किसलिए
पकडूं? इस
शरीर की यह
गति हो जाने
वाली है। इसको
अपने प्रियजन
जिनको मैं
कहता हूं वे
ही कंधे पर
रखकर ले आएंगे
और आग में
समर्पित कर
जाएंगे, पीछे
कोई बैठेगा भी
नहीं कि क्या
होता होगा
मेरे
प्राण—प्यारे
का! भिक्षु
बैठा देखता।
आग बुझ जाती; जानवर आ
जाते, बचे—खुचे
अंगों को तोड़
लेते—गर्दन ले
भागते, हाथ
ले भागते—ऐसा
मेरा भी होगा!
ऐसा
होने ही वाला
है! जिनको हम
प्रिय कहते
हैं,
उनका
संग—साथ भी तब
तक है जब तक
जीवन है। इधर
जीवन गया, वहां
सब प्रेम, मैत्री,
सब संबंध
गये।
जिन्होंने
बड़ी
साज—सम्हाल की
थी देह की, वे
ही उसे चिता
पर रख गये।
बैठे भी नहीं
थोड़ी देर!
रुके भी नहीं
थोड़ी देर!
दुनिया में और
हजार काम हैं।
तुम
देखते न, कोई
आदमी मर जाता
है, कितनी
जल्दी अर्थी
बांधी जाती है!
घर के लोग
रोने— धोने
में लग जाते
हैं, पास—पड़ोस
के लोग जल्दी
से अर्थी
बांधने लगते हैं—साथ
तो देना ही
चाहिए। उठी
अर्थी, चली
अर्थी, दो—चार
दिन में रोना—
धोना—पीटना सब
बंद हो जाता
है, संसार
अपनी जगह चलने
लगता है।
ऐसा
भिक्षु बैठा
देखता रहता है, ध्यान
करता रहता है।
और बुद्ध ने
कहा था, स्मरण
करते
रहना—सब्बे
संखारा
अनिच्चाति, सब्बे
संखारा
दुक्साति, सब्जे
धम्मा
अनित्ताति।
सोचते
रहना—यहां कुछ
स्थिर नहीं, कुछ ठहरा
हुआ नहीं, कही
कोई आत्मा
नहीं, कहीं
कोई सुख नहीं;
यह सब
स्वन्नवत है।
और स्वप्न भी
दुखस्वप्न हैं।
ऐसा तीन महीने,
छह महीने, नौ महीने!
बुद्ध ने कहा,
जब तक ये
तीन धारणाएं
गहरी न उतर
जाएं तब— तक लौटना
मत। ये तीन
धारणाएं गहरी
हो जातीं तो
ध्यान बड़ा
सुगम हो जाता।
बुद्ध
ने ध्यान की
बड़ी
वैज्ञानिक
व्यवस्था की
थी।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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