दिनांक 14
सितंबर, 1974,
प्रात:काल, श्री
रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:
चितं
मंत्र:
प्रयत्न:
साधक:।
गुरु:
उपाय:।
शरीरं
हवि:।
ज्ञानमन्नम्।
विद्यासंहारे
तदुत्थस्वप्नदर्शनम्।
चित्त
ही मंत्र है।
प्रयत्न ही
साधक है। गुरु
उपाय है। शरीर
हवि है। ज्ञान
ही अन्न है।
विद्या के
संहार से स्वप्न
पैदा होते है।
चित्त
ही मंत्र है।
मंत्र
ही अर्थ है: जो
बार—बार पुनरूक्ति
करने से शक्ति
को अर्जित करे; जिसकी
पुनरुक्ति
शक्ति बन जाये।
जिस विचार को
भी बार—बार
पुनरुक्त
करेंगे, वह
धीरे—धीरे
आचरण बन
जायेगा। जिस
विचार को बार—बार
दोहराएंगे, जीवन में वह
प्रगट होना
शुरू हो
जायेगा। जो भी
आप हैं, वह
अनंत बार कुछ
विचारों के
दोहराए जाने
का परिणाम है।
सम्मोहन पर
बड़ी खोजें
हुईं। आधुनिक
मनोविज्ञान
ने सम्मोहन के
बड़े गहरे तलों
को खोजा है।
सम्मोहन की
प्रक्रिया का
गहरा सूत्र एक
ही है कि जिस
विचार को भी
वस्तु में
रूपांतरित
करना हो, उसे
जितनी बार हो
सके, दोहराओ।
दोहराने से
उसकी लीक बन
जाती है; लीक
बनने से मन का
वही मार्ग बन
जाता है। जैसे
नदी बह जाती
है, अगर एक
गढ़ा खोदकर राह
बना दी जाये, नहर बन जाती
है—वैसे ही
अगर मन में एक
लीक बन जाये—किसी
भी विचार की
तो वह विचार
परिणाम में
आना शुरू हो
जाता है।
फ्रांस
में एक बहुत
बड़ा
मनोवैज्ञानिक
हुआ—इमाइल कुए।
उसने लाखों
लोगों को केवल
मंत्र के
द्वारा ठीक
किया। लाखों
मरीज सारी दुनिया
से कुए के पास
पहुंचते थे।
और उसका इलाज
बड़ा छोटा था।
वह सिर्फ मरीज
को कहता था कि
तुम यही
दोहराए चले
जाओ कि तुम
बीमार नहीं हो, स्वस्थ
हो, स्वस्थ
हो रहे हो।
रात सोते समय
दोहराओ, सुबह
उठते समय
दोहराओ, दिन
में जब स्मृति
आ जाये तब
दोहराओ। बस, एक विचार को
दोहराते रहो
कि मैं स्वस्थ
हूं मैं
निरंतर
स्वस्थ हो रहा
हूं। चमत्कार
मालूम होता है
कि कठिन—से—कठिन
रोग के मरीज
सिर्फ इस
पुनरुक्ति से
ठीक हुए। कुए
के पास सारी
दुनिया से लोग
पहुंचने लगे।
लेकिन बात तो
बहुत छोटी है।
साधारणत:
भी जब आप ठीक
होते हैं
बीमारी से, तो
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
उसमें दवा का
काम तो दस
प्रतिशत होता
है, नब्बे
प्रतिशत तो
पुनरुक्ति का
काम होता है।
दवा को दिन
में चार बार
लेते हैं, आठ
बार लेते हैं।
जब भी दवा को
लेते हैं, तभी
मन में यह भाव
आता है कि अब
मैं ठीक हो
जाऊंगा; ठीक
दवा मिल गयी
है।
होम्योपैथी
की गोलियों
में कुछ भी
नहीं है; लेकिन उससे
उतने ही लोग
ठीक होते हैं
जितने
ऐलोपैथी से।
अच्छा डाक्टर
अगर पानी भी
दे दे तो आप
ठीक हो जायेंगे;
क्योंकि
सवाल दवा का
नहीं है, अच्छे
डाक्टर पर
भरोसा होता है।
भरोसा
पुनरुक्ति बन
जाता है। आप
जानते हैं कि
अच्छे डाक्टर
ने इलाज किया
है। इसलिए जो
डाक्टर आप से
कम फीस लेता
है, वह
शायद आपको ठीक
न कर पाये।
इसलिए, जो
डाक्टर आप से
ज्यादा फीस
लेता है, वही
आपको ठीक कर
पायेगा; क्योंकि
जब ज्यादा जेब
आपकी खाली
होती है, तो
भरोसा बढ़ता है—लगता
है कि बड़ा
डाक्टर है। और
आप जैसे बड़े
मरीज को बड़ा
डाक्टर चाहिए।
पुनरुक्ति...।
मनोवैज्ञानिक
एक प्रयोग
किये हैं, जिसे वे
पलेसिबो (Placebo
) कहते हैं—झूठी
दवा। और बड़ी
हैरानी मालूम
हुई। एक
बीमारी के
मरीज हैं पचास;
पच्चीस को
वास्तविक दवा
दी गयी और
पच्चीस को सिर्फ
पानी दिया गया।
लेकिन पता
किसी को भी
नहीं है कि
किसको पानी
दिया गया, किसको
दवा दी गयी।
मरीजों को पता
नहीं। वे सभी
दवा मानकर चल
रहे हैं।
हैरानी हुई कि
जितने दवा से
ठीक हुए, उतने
ही पानी से भी
ठीक हुए।
प्रतिशत
बराबर वही रहा।
इसलिए, जब
कभी पहली बार
कोई दवा खोजी
जाती है तो
उससे बहुत
मरीज ठीक होते
हैं। फिर धीरे—धीरे
यह संख्या कम
हो जाती है।
इसलिए, हर
दवा दो—तीन
साल से ज्यादा
नहीं चलती।
क्योंकि जब
पहली दफा दवा
खोजी जाती है
तो बड़ा भरोसा
पैदा होता है
कि अब खोज ली
गई असली दवा।
सारी दुनिया
में मरीज उससे
प्रभावित
होते हैं। फिर
धीरे— धीरे
भरोसा कम होने
लगता हैं; क्योंकि
कभी कोई मरीज
उससे ठीक भी
नहीं होता।
कभी कोई
जिद्दी मरीज
मिल जाता है, तो सुनता ही
नहीं दवा की, न डाक्टर की।
उसके कारण
दूसरे मरीजों
का भरोसा भी
क्षीण होने
लगता है। धीरे—धीरे
दवा का प्रभाव
खो जाता है।
इसलिए हर दो
साल में नयी
दवाएं खोजनी
पड़ती है।
दवाओं
का प्रभाव, विज्ञापन
ठीक से किया
जाये, तो
ही होता है।
तो हर अखबार, पत्रिका, रेडियो, टेलीविजन—सब
तरफ से प्रचार
होना चाहिए।
प्रचार
ज्यादा कारगर
है, जितनी
दवा के तत्व, उससे ज्यादा।
क्योंकि, वही
प्रचार आपको
सम्मोहित
करेगा। वही
प्रचार मंत्र
बन जाता है।
अखबार खोला और
'ऐस्प्रो',
रेडियो
खोला और 'ऐस्प्रो',
टेलीविजन
पर गये और 'ऐस्प्रो',
बाजार में
निकले और
बोर्ड, 'ऐस्प्रो'
—जो कुछ भी
करें, ऐस्प्रो
पीछा करती है।
वह सिरदर्द से
भी बड़ा
सिरदर्द बन
जाती है; फिर
वह सिरदर्द को
हरा देती है।
पुनरुक्ति
शक्ति पैदा
करती है। मंत्र
का अर्थ है:
किसी चीज को
बार—बार
दोहराना। यह
सूत्र कह रहा
है: चित्त ही
मंत्र है—चित्त
मंत्र:। यह
कहता है, और किसी
मंत्र की
जरूरत नहीं; अगर तुम
चित्त को समझ
लो तो चित्त
की प्रक्रिया
ही पुनरुक्ति
है। तुम्हारा
मन कर क्या
रहा है जन्मों—जन्मों
से—सिर्फ
दोहरा रहा है।
सुबह से सांझ
तक तुम करते
क्या हो—रोज
वही दोहराते
हो, जो
तुमने कल किया
था, जो
परसों किया था,
वही तुम आज
कर रहे हो; वही
तुम कल भी
करोगे, अगर
न बदले। और
तुम जितना वही
करते जाओगे
उतनी ही
पुनरुक्ति
प्रगाढ होती
जायेगी और तुम
झंझट में इस
तरह फंस जाओगे
कि बाहर आना
मुश्किल हो
जायेगा।
लोग
मेरे पास आते
हैं और कहते
हैं कि सिगरेट
नहीं छूटती।
सिगरेट मंत्र
बन गयी है।
उन्होंने
इतनी बार
दोहराया है—दिन
में दो पैकेट
पी रहे है।
इसका मतलब हुआ
कि चौबीस बार
दोहरा रहे है; बीस बार
दोहरा रहे हैं,
बार—बार
दोहराया है और
सालों से
दोहरा रहे है;
आज अचानक
छोड़ देना
चाहते हैं।
लेकिन जो चीज
मंत्र बन गयी,
उसको अचानक
नहीं छोड़ा जा
सकता। तुम छोड़
दोगे इससे
क्या फर्क
पड़ता है; पूरा
मन मांग करेगा।
पूरा शरीर
उसको
दोहरायेगा।
वह कहेगा—चाहिए।
उसी को तुम
तलफ कहते हो।
तलफ का मतलब
हुआ कि जिस
चीज को तुमने
मंत्र बना
लिया, उसे
अचानक छोड़ना
चाहते हो—यह
नहीं हो सकता।
तलफ का मतलब
है कि जो चीज
मंत्र बन गयी
है, उसके
विपरीत मंत्र
से तोड़ना होगा।
रूस
में पावलव ने
इस पर बहुत
काम किया। और
पावलव अकेला
आदमी है, जिसने तलफ वाले
मरीजों को ठीक
करने में
सफलता पायी।
अगर आप सिगरेट
पीने के रोगी
हो गये हैं
छोड़ना चाहते
हैं और नहीं
छूटती तो
पावलव मंत्र
का प्रयोग
करता था। उसके
मंत्र जरा तेज
थे। वह आपको
सिगरेट देगा
और जैसे ही आप
सिगरेट हाथ
में लेंगे, आपको बिजली
का शाक लगेगा;
झनझना
जायेगी पूरी
तबीयत, सिगरेट
हाथ से छूट
जायेगी। ऐसा
सात दिन आपको
पावलव भरती
रखेगा अपने
अस्पताल में
और जब भी आप
सिगरेट
पियेंगे, तब
बिजली का शाक
लगेगा। सात
दिन में मंत्र
सिगरेट से
ज्यादा गहरा
हो जायेगा।
सिगरेट का नाम
ही सुनकर आपको
कंपकंपी आने
लगेगी। पीने
का रस तो दूर, एक वैराग्य
का उदय हो
जायेगा।
पावलव ने हजारों
मरीज विपरीत
मंत्र से ठीक
किये। और
पावलव कहता है
कि जो लोग भी
आदतों से
ग्रस्त हो गये
हैं, जब तक
उनको विपरीत
आदतें न दी
जायें, जो
पहली आदत से
ज्यादा मजबूत
हों तब तक कोई
छुटकारा नहीं।
तुम्हारा
जीवन जैसा भी
है, तुम्हारे
मन का ही
परिणाम है। और
तुम दोहराये चले
जाते हो। तुम
क्रोध से बाहर
भी होना चाहते
हो, लेकिन
तुम रोज क्रोध
को दोहराये
चले जाते हो।
जितना
दोहराते हो
उतना मजबूत हो
रहा है। कितनी
बार तुम कसमें
खाते हो कि अब
नहीं करूंगा
और कसमें टूट
जाती हैं और
क्रोध फिर
करते हो।
उपद्रव और भी
बढ़ गया। इससे
तो बेहतर था
कि कसम तुमने
न खायी होती; क्योंकि अब
यह दोहरा
मंत्र हो गया।
अब तुम जानते
हो कि क्रोध
कसम से ज्यादा
बड़ा है, ज्यादा
ताकतवर है।
कसमों का कोई
मूल्य नहीं है।
तुम कितना ही
व्रत लो, तुम्हारे
व्रत दो कौड़ी'
के है, क्रोध
ज्यादा सबल है।
यह भी सम्मोहन
बैठ गया। अब तुम
जब कसम भी
लोगे, व्रत
भी लोगे तब भी
तुम जानते हो
भीतर कि यह सधने
वाली नहीं है।
तुम भीतर
दोहरा रहे हो,
उसी समय भी
कि यह होगा
नहीं; मैं
ले तो रहा हूं
लेकिन यह होगा
नहीं।
भूलकर
भी व्रत मत
लेना, अगर
उसे पूरा न कर
सको। उससे तो
बेहतर है कि
तुम अपनी एक
ही आदत से भरे
रहना। व्रत
लेकर और तोड़ना
बहुत महंगा
धंधा है; क्योंकि
तोड़ने की भी
आदत बन रही है।
फिर तुम जीवन
में कभी भी
व्रत न ले
पाओगे।
तथाकथित
धार्मिक
गुरुओं ने
तुम्हें बहुत
अधार्मिक
बनाया है; क्योंकि
वे सस्ते में
व्रत दे देते
हैं। तुम
मंदिर गये, तुम साधु के
पास गये, मुनि
के पास गये और
वह कहता है कि
कोई व्रत लो।
उसके प्रभाव
में, मंदिर
की शांति में
और फिर अहंकार
में कि जब साधु
कह रहा है तो
यह कहना कि
मैं कोई भी
व्रत नहीं ले
सकूंगा, बड़ी
दीनता मालूम
पड़ती है। तो
तुम कहते हो
कि आज से
सिगरेट छोड
देंगे।
मेरे
एक मित्र हैं।
उनका दिमाग
जरा खराब है; लेकिन
आपसे बेहतर
हैं। वे एक मुनि
के पास गये—जैन
है—तो मुनि ने
कहा कि कोई
व्रत लो तो
उन्होंने कहा
कि अच्छी बात
है, ले
लिया। मुनि ने
कहा कि क्या
लिया।
उन्होंने कहा
कि आज से बीडी
पीया करेंगे।
दिमाग उनका
खराब है; लेकिन
व्रत का
उन्होंने
पालन किया है।
वे तब तक बीड़ी
पीते नहीं थे।
और मैं आपको
कहता हूं कि
वे ज्यादा
फायदे में रहे
बजाय उस आदमी
के, जिसने
नियम लिया कि
मैं बीड़ी नहीं
पीऊंगा और फिर
बीड़ी पीनी
शुरू कर दी।
उसका व्रत भी
टूट गया। उसकी
आत्मग्लानि
बढ़ गयी। कम—से—कम
वे सफल तो हुए।
दिमाग उनका
खराब हो; पर
आपसे बेहतर
हैं। कम—से—कम
इतना तो है कि
व्रत पूरा
किया है।
इससे, जब भी
व्रत टूटता है
तो
आत्मग्लानि
पैदा होती है,
अपराध पैदा
होता है। और
जितनी
आत्मग्लानि
पैदा होती है,
अपराध पैदा
होता है, उतना
तुम दीन होते
जाते हो। और आत्मा
तो उसको
मिलेगी जो
सम्राट है, जो दीन नहीं
है। तुम आत्मा
से दूर हटते
जाते हो।
मन का
स्वरूप समझो, तो यह
सूत्र समझ में
आ जायेगा—मन
की सारी कला
पुनरुक्ति है।
मन मंत्र है।
जो—जो तुमने
दोहराया है, वही
तुम्हारी आदत
बन गयी है। जो—जो
तुम दोहराते
रहोगे, वही
तुम्हारे
जीवन में आता
रहेगा।
जन्मों—जन्मों
से तुमने एक
ही बात
दोहरायी है, वही बात
तुम्हें बार—बार
उपलब्ध हो
जाती है। और, तुम गलत को
दोहराने से
बंधे हो।
क्या
करना है? पहली बात—गलत
को तोड़ने को
जल्दी मत करना।
बेहतर यह होगा
कि गलत को तोड़ने
की बजाय, तुम
सही को करने
की कोशिश करना।
नया मंत्र
सीखना। तुम
सिगरेट पीते
हो, कोई
हर्जा नहीं; तुम ध्यान
सीखना।
सिगरेट ध्यान
में जरा भी
बाधा नहीं है।
तुम ध्यान
सीखना। तुम
ध्यान के
मंत्र को सघन
करना। जिस दिन
ध्यान के
मंत्र में तुम
सफल हो जाओगे,
उस दिन
तुम्हें आत्म—गौरव
उपलब्ध होगा।
उस आत्म—गौरव
और ध्यान की
सफलता में
सिगरेट को
छोड़ना आसान हो
जायेगा; क्योंकि
तुमने एक
विधायक मंत्र
पूरा कर लिया।
नकारात्मक
मत बनना, अन्यथा तुम
मुश्किल में
पड़ोगे।
पश्राताप, पाप,
पीड़ा और
उदासी पकड़
लेगी।
तुम्हारे
साधु, जो
मंदिरों में
बैठे हैं, सब
उदास हैं।
उनके जीवन में
कोई हंसी नहीं
है, कोई
खुशी नहीं है,
कोई
प्रसन्नता, कोई उछल्लता
नहीं है; क्योंकि
उन्होंने
नकारात्मक
मंत्रों का उपयोग
किया है।
निगेटिव उनकी
खोज है। क्या—क्या
गलत है, वह
उन्होंने
छोड़ा है।
मैं
तुमसे कहता
हूं कि गलत को
छोड़ने की
जल्दी मत करना; तुम ठीक
को पकड़ने की
जल्दी करना।
जिस दिन ठीक
तुम्हें पकड़
जायेगा, गलत
को छोड़ना बहुत
आसान हो
जायेगा। तुम
बीमारी से मत
लड़ना; तुम
स्वास्थ्य को
पाने की कोशिश
करना। वही कुए
अपने मरीजों
को कह रहा है।
वह कह रहा है
कि 'मैं
स्वस्थ हो रहा
हूं, —तुम
यही भाव
दोहराओ।
उलटा, विपरीत
भी तुम कर
सकते हो।
तुम्हारे सिर
में दर्द है, तुम यह कह
सकते हो कि
नहीं, मुझे
सिरदर्द नहीं
है। लेकिन
जितनी बार तुम
यह कहोगे, उतनी
ही बार तुम 'सिरदर्द' शब्द को भी
दोहरा रहे हो।
और जितनी बौर
तुम कहोगे किए
'सिरदर्द
नहीं है ', अगर
सिरदर्द है तो
तुम्हारे
कहने से क्या
होगा! भीतर तो
तुम जानते हो
कि तुम्हारा
कहना झूठ है।
ऊपर तुम कितना
ही कहो कि
सिरदर्द नहीं
है; लेकिन
सिरदर्द हो
रहा है। भीतर
तो तुम यही
कहोगे कि हो
रहा है। यह
कुए कहता है
तो दोहरा रहे
हैं; लेकिन
सिरदर्द हो
रहा है। कुए
के कहने से
तुम्हारा
सिरदर्द नहीं
मिटेगा; तुम्हारा
सिरदर्द तो
तुम्हारी
भीतरी
प्रक्रिया से
ही मिटेगा। न,
नकारात्मक
शब्द पकड़ना
ही मत।
इसलिए, मैं कहता
हूं कि संसार
को छोड़ने की
कोशिश मत करना;
परमात्मा
को पाने की
कोशिश करना।
इसलिए, मैं
कहता हूं
त्याग की दिशा
में मत जाना; परम भोग की
खोज करना।
क्या गलत है, उस पर आंख मत
गड़ाना
क्योंकि गलत
को छोड़ने के
लिए भी तो गलत
को देखना पड़ता
है, बार—बार;
और जितना
तुम देखते हो,
उतना ही
मंत्र
दोहराया जा
रहा है। और, जिस चीज को
भी तुम देखते
रहते हो, उससे
तुम सम्मोहित
हो जाते हो।
दुनियाभर
में बहुत
खोजबीन चली है—कार
के
ऐक्सीडेंटों
के बाबत; क्योंकि अब
कार के
ऐक्सीडेंट से
उतने आदमी मर रहे
हैं, जितने
युद्धों में
भी नहीं मर
रहे हैं। तो
दूसरे
महायुद्ध में
एक साल में
जितने आदमी
मरे, उससे
दुगने आदमी
सिर्फ कार के
ऐक्सीडेंट से
मर रहे है
सारी दुनिया
में। बहुत बड़ी
संख्या है।
कुछ करना
जरूरी है। और
बहुत—सी बातें
प्रकाश में
आयी हैं।
उसमें एक बात
तो यह प्रकाश
में आयी है कि
कार के
ऐक्सीडेंट
अक्सर रात
बारह बजे और
तीन बजे के
बीच में होते
हैं। पचास
प्रतिशत
ऐक्सीडेंट, दुर्घटनाएं
रात बारह बजे
और तीन बजे के
बीच में होती
है; क्योंकि
वह समय निद्रा
का समय है और
मन तंद्रा में
हो जाता है, होश खो जाता
है। उस होश के
खोये क्षण में
सम्मोहन
बिलकुल आसान
है। और
ड्राईवर
सम्मोहित हो
जाता है; क्योंकि
कार की
पुनरुक्त
होती आवाज, वही आवाज
बार—बार दोहर
रही है।
रास्ते पर आंख
गड़ी है, वही
रास्ता
सैकड़ों मील तक
दिखायी पड़ रहा
है। और, मनोवैज्ञानिक
कहते है कि
रास्तों पर जो
बीच में सफेद
लकीर डाली
जाती है, उसके
कारण हजारों
लोग मर रहे
हैं। क्योंकि
उस लकीर को
देखते, देखते—ड्राईवर
उसको देखता
रहता है और
सम्मोहित हो जाता
है। फिर वह
होश में नहीं
है; वह नशे
में है।
बारह
और तीन के बीच
वैसे ही नींद
का वक्त, कार की एक—ही—सी
गूंजती आवाज
ऊब पैदा करती
है निद्रा
लाती है, मंत्र
बन जाती है।
फिर एक ही
रास्ता और रात
में बेरौनक
क्योंकि न
आसपास के
वृक्ष दिखायी
पड़ते है, न
पहाड़ दिखायी
पड़ते हैं, सिर्फ
रास्ता
दिखायी पड़ता
है। और फिर
बीच में पड़ी
सीधी लकीर...।
एक छोटा—सा
प्रयोग करके
देखना। एक
मुर्गी को
टेबल पर रखना।
एक सीधी लकीर
खींच देना।
मुर्गी को
गर्दन झुकाकर
लकीर पर लगा
देना, ताकि
लकीर उसको
दिखायी पड़ने
लगे। फिर तुम
उसे छोड़ देना।
मुर्गी वहीं
रुकी रहेगी।
फिर वह हटेगी
नहीं; वह
सम्मोहित हो
गयी। वह घंटों
वैसी बैठी रहेगी।
वह लकीर से
पकड़ गयी; लकीर
ने उसे पकड़
लिया।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
ड्राईवर को
लकीर पकड़
लेती है बीच
में। इसलिए वे
कहते है, रास्ते सीधे
मत बनाओ; रास्ते
में भेद होना
चाहिए, ताकि
तंद्रा टूटे
और एक—सी
पुनरुक्ति
नहीं होनी
चाहिए। वे यह
भी सुझाव देते
है कि कार की
आवाज भी बीच—बीच
में थोड़ी बदले
तो ठीक होगा।
बदलाहट से
तंद्रा
टूटेगी और
सैकंडो
दुर्घटनाएं
कम हो जायेंगी।
तुम्हारी
जिंदगी की भी
दुर्घटनाएं
सैक्कों कम हो
सकती है। एक
तो गलत पर तुम
नजर मत बांधो; क्योंकि
जिसको तुम
देखोगे, वह
तुम्हारे
भीतर
प्रविष्ट
होता जाता है।
तुम गलत पर
नजर बांधने के
आदी हो।
तुम्हारे
भीतर जो—जो
बुरा है, उसी
पर तुम ध्यान
देते हो।
क्रोधी अक्सर
क्रोध पर
ध्यान देता है
कि कैसे
छुटकारा पाऊं
हालांकि वह
सोचता है कि
मैं छुटकारा
पाने के लिए
ध्यान दे रहा
हूं। लेकिन
उसे पता नहीं
कि जितना तुम
क्रोध पर ध्यान
दे रहे हो, उतना
ही तुम क्रोध
को लकीर से
सम्मोहित हो
जाओगे। कामी
कामवासना पर
ध्यान लगाये
रखता है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन का
हो गया—सौ साल
की उम्र का हो
गया। पत्रकार
उसके घर आये, उसकी
भेंट लेने; क्योंकि वह
अकेला आदमी था,
जो उस इलाके
में सौ साल का
हो गया था।
उन्होंने कई प्रश्न
पूछे। उनमें
एक प्रश्न यह
भी था कि
तुम्हारा
स्त्रियों के
संबंध में
क्या खयाल है।
नसरुद्दीन ने
कहा कि यह बात
ही मत पूछो
मुझसे। तीन
दिन पहले ही
मैंने उनके
संबंध में
सोचना बंद कर
दिया।
सौ साल
का आदमी, वह भी अभी
तीन दिन पहले
तक उनके संबंध
में ही सोच
रहा था। स्त्री
पक्के रहेगी;
क्योंकि
तुम उससे
छूटना चाहते
हो। वह
तुम्हारा
नकारात्मक
मंत्र बन गया।
तुम जिससे
छूटना चाहते
हो, उससे
तुम छूट न
पाओगे। गलत को
देखने अगर तुम
लग गये तो तुम
गलत पर ध्यान
कर रहे हो।
महावीर
ने ध्यान के
चार रूप कहे
हैं—दों गलत, दो सही। दुनिया
में किसी भी
आदमी ने गलत
को ध्यान नहीं
कहा है; महावीर
ने कहा है।
मनोवैज्ञानिक
उनसे राजी
होंगे।
उन्होंने कहा
है कि गलत
ध्यान भी
ध्यान तो है ही;
जैसे
क्रोधी
ध्यानमग्न हो
जाता है, क्योंकि
क्रोध में
सारी दुनिया
मिट जाती है।
क्रोध में
चित्त एकाग्र
हो जाता है।
इसलिए, क्रोध
मे बड़ी शक्ति
आ जाती है।
तुमने
कभी खयाल किया—क्रोधी
आदमी अपने से
दुगने ताकतवर
आदमी को उठाकर
फेंक देगा
क्रोध में।
होश में न
होता, क्रोध
में न होता तो
पच्चीस दफा
सोचता कि इस आदमी
से झंझट लेनी
कि नहीं, दुगना
ताकतवर है।
क्रोध में
आदमी बड़ी—से
बड़ी चट्टान
सरका देता है;
होश में सोच
भी नहीं सकता।
क्रोध में
आदमी कुछ भी
कर लेता है; क्रोध में
सारी शक्ति जग
जाती है। क्या
होता है? बंटती
हुई शक्ति जो
सब तरफ जा रही
थी, वह
एकाग्र हो
जाती है। जैसे
सूरज की
किरणें
इकट्ठी हो
जायें तो आग
पैदा हो जाती
है, ऐसा
क्रोध में
चित्त इकट्ठा
हो जाता है, आग पैदा हो
जाती है।
महावीर ने
उसको भी ध्यान
कहा है।
महावीर
ने कहा है:
आर्द्र और
रौद्र, दो गलत
ध्यान हैं।
दुख में भी
आदमी ध्यानमग्न
हो जाता है।
कोई मर गया—तब
तुम रोते हो, चीखते हो, चिल्लाते हो—बस
एक पर ही
ध्यान अटक
जाता है।
गलत
ध्यान से बचना।
और, तुम
सभी गलत ध्यान
में लगे हो।
तुम्हारे
जीवन की तकलीफ
ही यही हैं, मूल पीड़ा और
बीमारी यही है
कि तुमने अपनी
आंखें गलत पर
जमा ली है।
क्या—क्या गलत
है, उसे
छोड़ना है; और
तुम सोच रहे
हो कि छोड़ने
के लिए ही तुम
यह कर रहे हो।
इस ध्यान के
कारण ही तुम
नहीं छोड़ पा
रहे हो।
मैं
तुमसे कहता
हूं कि संसार
की फिक्र ही
छोड़ दो; तुम
परमात्मा पर
ध्यान लगाओ।
तुम क्रोधी हो—सारी
दुनिया
क्रोधी है—क्रोध
पर आंखें मत
गड़ाओ करुणा पर
आंखें गड़ाओ।
तुम, जो
सही है, उसको
ध्यान में लाओ
और जैसे—जैसे
सही में शक्ति
बढ़ेगी, गलत
से शक्ति
विसर्जित हो
जायेगी।
क्योंकि, शक्ति
तो एक ही है, उसे तुम
दोनों तरफ
नहीं लगा सकते।
अगर तुमने
शांत होने की
चेष्टा पर
ध्यान लगा दिया
तो जब तुम
अशांत होना
चाहोगे, तब
तुम पाओगे कि
वह शक्ति
तुम्हारे पास
है; वह
शांति की तरफ
बह गयी। और, जिसने शांति
का स्वाद ले
लिया, वह
अशांत होना
क्यों चाहेगा।
अशांत तो वही
होता है, जिसने
शांति का
स्वाद नहीं
लिया। जिसने परमात्मा
का रस नहीं
लिया, वही
संसार में
डूबता है, लिप्त
होता है।
इसे
बहुत ठीक से
खयाल में ले
लो।
नकार
से बचना। नहीं
से बचना। बुरे
को छोड़ने की
फिक्र ही मत
करना; क्योंकि
छोड़ने में ही
तुम सम्मोहित
हो जाओगे और
बुरे को तुम
कभी भी न छोड़
पाओगे। जिसको
भी हम छोड़ना
चाहते हैं, उसमें एक पकड़
आ जाती
मैंने
सुना है कि एक
आदमी एक होटल
में मेहमान हुआ।
मैनेजर ने कहा:
'हम दे
न सकेंगे कमरा
। कमरा तो खाली
है; लेकिन
उसके नीचे एक
आदमी ठहरे हुए
हैं, वे
बहुत उपद्रवी
हैं। जरा—सी
भी आवाज ऊपर
हो गयी, तो
वे बखेड़ा खड़ा
कर देंगे।
उनकी वजह से
ऊपर का कमरा
हमने खाली ही
छोड़ दिया है।
उस
आदमी ने कहा
कि चिंता आप न
करें, मैं
तो बाजार में
दिनभर उलझा
रहूंगा। रात
कोई ग्यारह—बारह
बजे लौटकर सो
जाऊंगा। तीन
बजे की मुझे
गाड़ी पकड़नी है।
तीन घंटे
मुश्किल से
मैं इस कमरे
में रहूंगा।
कोई कारण नहीं
है मेरे
द्वारा
उपद्रव होने
का। फिर मैं
ध्यान भी
रखूंगा। आपने
बता दिया तो
ठीक किया।
वह
आदमी रात बारह
बजे थका—मादा
बाजार में काम
करके लौटा। बिस्तर
पर बैठा। एक
जूता छोड्कर
उसने पटका, फर्श पर
गिरा तो उसे
खयाल आया कि
कहीं उस आदमी की
नींद न टूट
जाये। उसने
दूसरा चुपचाप
रखा और सो गया।
कोई पंद्रह
मिनट बाद नीचे
के आदमी ने
आकर दस्तक दी।
दरवाजा खोला
तो वह आदमी
क्रोध से कैप
रहा था। यह
घबड़ा गया कि
रात, अंधेरा,
अब क्या
किया जाये!
उसने कहा कि
क्या भूल हो
गयी; मैं
तो सो गया था।
उस आदमी ने
कहा. 'भूल! दूसरे जूते
का क्या हुआ? पहला गिरा, मैंने कहा
कि आ गये। फिर
दूसरे का क्या
हुआ? मैं
सो ही नहीं पा
रहा हूं। वह
दूसरा जूता
सिर पर लटका
हुआ है। तो
पूछ लूं पता
चल जाये, निश्चितता
हो।’
सबने
दूसरा का लटका
लिया है—वह
नकार का है।
यह छोडना है, यह छोड़ना
है, यह
बुरा है—इतनी
बुराइयां है
कि जीवन छोटा
मालूम पड़ता है,
तुम छोड़ न
पाओगे। जगह—जगह
बुराई है, कोने—कोने
में बुराई है,
सारा जीवन
बुराई से भरा
है। और
तुम्हारे
साधु—संत
तुम्हें सिर्फ
अपराध से भरते
हैं; क्योंकि
वे तुमसे कहते
हैं कि यह गलत,
यह गलत, यह
गलत। उनसे सही
की तो तुम खबर
ही न पाओगे; क्योंकि वे
कहते हैं कि
जब तक गलत न
छूटेगा, तब
तक सही
तुम्हें
मिलेगा भी
कैसे? और
उनकी बात
तर्कयुक्त
मालूम पड़ती है।
वे यह कह रहे
हैं कि जब तक
अंधेरा न
जायेगा, तब
तक प्रकाश
जलेगा कैसे!
और, मैं
तुमसे कहता
हूं कि अगर
तुमने उनकी
बात सुन ली, वह कितनी ही
तर्कयुक्त
मालूम पड़ती हो,
तो तुम भटक
जाओगे जन्मों—जन्मों
तक। उन्हीं की
बात से तुम
भटके हुए हो।
तुम्हें
शैतानों ने
नहीं भटकाया
है; तुम्हारे
तथाकथित
संतों ने
भटकाया है।
क्योंकि, बात
तर्कयुक्त
लगती है कि जब
तक गलत न
छूटेगा; ठीक
कैसे मिलेगा!
लेकिन
कभी तुमने
कोशिश की है
अंधेरे को
हटाने की? पहले
अंधेरा हट
जाये, फिर
तुम दीया
जलाओगे तो फिर
तुम कभी न जला
पाओगे। मैं
तुमसे कहता
हूं तुम दीया
जलाना।
अंधेरे की तुम
बात ही मत करो;
क्योंकि
दीया जलते ही
अंधेरा हट
जाता है। तुम
प्रकाश लाओ; अंधेरे पर
ध्यान मत करो।
दुनिया में
कोई अंधेरे को
कभी नहीं हटा
पाया। बुराई
कभी नहीं
हटायी जा सकती;
भलाई लायी
जा सकती है।
संसार कभी
नहीं छोडा जा
सकता; आत्मा
पायी जा सकती
है। और आत्मा
के पाते ही संसार
छूट जाता है।
हम उसे पक्के
ही इसलिए हैं ??
उससे बेहतर
हमें दिखाई
नहीं पड़ता। और
जब तक बेहतर न
दिखाई पड़ जाये,
तब तक तुम
उसे छोडोगे भी
कैसे? तुम
छोडना भी
चाहोगे, तो
भी तुम छोड़ न
पाओगे। तुम
लड़ोगे, परेशान
होओगे तुम
अपने को थका
लोगे, मिटा
लोगे; लेकिन
कहीं पहुंचोगे
नहीं।
तुम्हारी
जिंदगी एक
व्यर्थ की
दौडूधूप हो जायेगी।
फिर तुम उतर
आओगे शरीर में,
फिर वही
चक्र शुरू हो
जायेगा। इससे
जो बच गया—बुराई
पर ध्यान देने
से—वह भलाई को
उपलब्ध हो
जाता है।
चित्त मंत्र
है—चाहे बुराई
के लिए उपयोग
कर लो, चाहे
भलाई के लिए।
पुनरुक्ति
शक्ति बन जाती
है। तुमसे
क्रोध होता है,
स्वीकार कर
लो। कितनी बार
क्रोध होता है?
तुम क्रोध
का
पश्रात्ताप
भी मत करो।
तुम क्रोध से
लड़ो भी मत।
जितनी बार
क्रोध हो, उतनी
बार करुणा के
कृत्य भी करो।
जितनी बार
लोगों को
तुमसे हानि
पहुंचती हो, उतनी बार
लोगों को तुम
लाभ भी
पहुंचाओ। तुम
जरा लोगों को
लाभ पहुंचाने
का रस भी लो।
बुराई के लिए
अपने को दंड
मत दो; भलाई
का पुरस्कार
भोगो। बुराई
के लिए अपने
को कष्ट मत दो;
थोड़ा भला
करो—उसका
स्वाद लो। अगर
तुमसे किसी के
प्रति गाली
निकल गयी है, तो जाकर
किसी की
प्रशंसा करो;
किसी के गुण
भी गाओ। गाली
का रस तुमने
काफी लिया है,
अब किसी की
गुणग्राहकता
का रस भी लो।
कीटों
से मत उलझो, वे हैं; ध्यान फूलों
पर दो। एक दफा
कीटों से तुम
उलझ गये, तो
फूलों तक तुम
पहुंच ही न
पाओगे। कांटे
बहुत हैं। और
जब तक तुम
पहुंचोगे, तब
तक तुम इतने
लहूलुहान हो
जाओगे कि फूल
भी तुम्हें
सुख न दे
सकेंगे। और
फूलों का भी
जो स्पर्श है,
वह तुम्हें
पुलकित न
करेगा। तुम
घावों से भर
गये होओगे।’’ फूल भी कष्ट
देंगे; क्योंकि
घाव अगर पहले
से ही लगा हो
तो फूल भी पीड़ा
देगा।
कांटों
पर ध्यान मत
दो; ध्यान
फूल पर दो। और
अगर तुम फूल
के रस में डूब
गये तो तुम एक
दिन पाओगे कि
कांटे है ही
नहीं क्योंकि
फूल के रस में
जो डूब जाये, उसे कांटा
भी चुभ नहीं
सकता। असली
सवाल फूल के
रस में डूबने
का है; विस्मय—विमुग्ध
हो जाने का है।
असली बात परमात्मा
की शराब पी
लेने की है, तब तुम्हें
इस संसार की
शराबें आकर्षित
न करेंगी।
अन्यथा तुम
लड़ोगे उन्हीं
से और उन्हीं
से पराजित
होओगे।
बुराई
से जो लड़ता है, वह बुराई
से पराजित
होता है।
बुराई से
लड़नेवाला मन
बुराई को
मंत्र बना लेता
है; क्योंकि
चित्त मंत्र
है। चित्त की
इस प्रक्रिया
को समझो कि
चित्त दोहराता
है।
तुमने
कभी खयाल किया? एक सात
दिन अपने
चित्त का
निरीक्षण करो,
लिखो—चित्त
जो—जो दोहरात
है। और तुम
पाओगे एक
वर्तुलाकार
चित्त का
भ्रमण है। अगर
तुम ठीक से
निरीक्षण
करोगे तो तुम
पाओगे—जैसे
रात आती है, दिन आता है, सुबह होती
है, सांझ
होती है, ऐसे
ही चित्त में
क्रोध का बंधा
हुआ समय है; प्रेम का
बंधा हुआ समय
है; कामवासना
का बंधा हुआ
समय है; लोभ
का बंधा हुआ
समय है। ठीक
उसी समय पर
लोभ तुम्हें
पकड़ता है, जैसे
भूख पकड़ती है;
लेकिन
तुमने कभी
निरीक्षण
नहीं किया।
अन्यथा तुम
अपना अट्ठाइस
दिन का कलेंडर
बना सकते हो
और तुम लिख
सकते हो कि सोमवार
की सुबह असे
सावधान! पली—बच्चे
घर में जान
सकते हैं; सोमवार
की सुबह
पिताजी से जरा
दूर रहना। और,
इसका उपयोग
हो सकता है; क्योंकि
सोमवार की
सुबह अगर ठीक
से निरीक्षण तुमने
किया कुछ दिन
तक, तो तुम
पकड़ लोगे वह
बिंदु, जहां
वर्तुल की तरह
तुम्हारा मन
घूमता है। शरीर
ही
वर्तुलाकार
नहीं है, मन
भी
वर्तुलाकार
है।
इस जगत
में सभी
गतियां
वर्तुलाकार
हैं सभी सर्कुलर
हैं। चांद—तारे
गोल घूमते हैं।
जमीन गोल
घूमती है। सब
चीजें गोल
घूमती हैं।
मौसम गोल
घूमते हैं।
तुम्हारे मन
की ऋतुएं भी
गोल घूमती हैं।
जैसे
स्त्रियों को
मासिक— धर्म
होता है, ठीक अट्ठाइस
दिन में
वर्तुल पूरा
होता है। अभी
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
पुरुषों के भीतर
भी वैसी ही
रासायनिक
प्रक्रिया
होती है अट्ठाइस
दिन में जैसी
स्रियों की; क्योंकि
शरीर कुछ बहुत
भिन्न नहीं है।
तुमने खयाल
किया कि जब
स्रियों को
मासिक— धर्म
होता है, तो
वे ज्यादा
चिड़चिड़ी, ज्यादा
झगड़ैल, क्रोधूाई,
उदास, परेशान,
बेचैन हो
जाती हैं।
हिंदू बहुत
होशियार थे।
वे तीन—चार
दिन उन्हें
अलग ही कमरों
में बंद कर
देते थे।
क्योंकि उस
समय उनसे कुछ
आशा करनी ठीक
नहीं; उनके
शरीर में इतनी
रासायनिक
प्रक्रिया हो
रही है कि उस
रासायनिक
प्रक्रिया
में होश रखना
उन्हें मुश्किल
होगा। वे
बेहोश हो
जायेंगी।
लेकिन, ठीक
अट्ठाईस दिन
पर हर पुरुष
को भी ऐसा ही
होता है।
पुरुष का भी
मासिक धर्म है।
बाहर रक्त—स्राव
नहीं होता; लेकिन भीतर
रस—ग्रंथियों
में रक्त—स्राव
होता है।
इसलिए दिखाई
नहीं पड़ता; लेकिन हर
अट्ठाईसवें
दिन पर तुम भी
उदास, बेचैन,
परेशान हो
जाते हो।
तुम
थोड़ा
निरीक्षण करो।
तब तुम पाओगे
कि तुम्हारे
मन का एक
वर्तुल है, जो
अट्ठाईस दिन
में पूरा होता
है, चार
सप्ताह में
पूरा होता है।
और, उस
वर्तुल में
तुम धीरे—धीरे
निरीक्षण की
प्रक्रिया को
प्रगाढ़ करोगे
तो ठीक—ठीक
बिंदु खोज
लोगे कि कब
क्या होता है।
तब तुम बड़े
हैरान होओगे।
तब तुम पाओगे
कि तुम
क्रोधित किसी
और के कारण
नहीं होते; तुम क्रोधित
तुम्हारे
भीतरी कारणों
से होते हो, दूसरा तो
सिर्फ बहाना
है। तब तुम
दूसरे पर
जिम्मेवारी
भी न डालोगे।
तब तुम क्रोधित
होओगे तो तुम
दूसरे से
क्षमा
मांगोगे कि
मुझे माफ करना,
अब मेरी दशा,
मौसम ठीक
नहीं। और यह
संयोग की बात
है कि तुम
सामने पड़ गये,
कोई दूसरा
पड़ता तो उस पर
यह उपद्रव
होता।
आत्म—निरीक्षण
से तुम इस बात
को सहज ही समझ
लोगे कि मन एक
वर्तुल में
घूम रहा है।
वह एक मंत्र
है। और अगर
तुम इसे न
समझे तो तुम
उस वर्तुल में
भटकते ही
रहोगे। इसलिए
हिंदुओं ने
संसार को चक्र
कहा है—वह
घूमता है। और
तुम वही—वही
कर रहे हो बार—बार।
तुम यह भी मत
सोचना कि तुम
कुछ नया कर
रहे हो, सभी लोग वही
कर रहे हैं।
जब पहली दफा
तुम प्रेम में
पड़ते हो तो
तुम सोचते हो
कि संसार में
शायद ऐसी अनूठी
घटना कभी घटी
नहीं। रोज घट
रही है। वही
सारे लोग करते
रहे हैं। वही
पशु—पक्षी कर
रहे हैं, पौधे
कर रहे हैं, आदमी कर रहा
है। कुछ प्रेम
तुम्हें ही घट
गया है, ऐसा
नहीं है; सभी
को वैसा ही
घटा है। क्रोध
भी सभी को
वैसा ही घटा
है।
इस
वर्तुल के
बाहर सिर्फ एक
चीज है—वह
ध्यान है, जो अपने—आप
नहीं घटती।
बाकी सब अपने—आप
घटेगा, तुम्हें
कुछ करने की
जरूरत नहीं।
तुम चक्के पर
बैठे भर रहो, चक्का अपने—आप
घूम रहा है, तुम उसमें
बंधे हुए
घूमते रहोगे।
सिर्फ एक घटना
है जो इस
वर्तुल के
बाहर है कि
तुम छलांग
लगाकर इस चक्र
के बाहर निकल
जाओ—वह ध्यान
है। वह अपने—आप
नहीं घटता है।
वह कभी किसी
बुद्ध को घटता
है।
पश्चिम
के बहुत बड़े
इतिहासकार
अर्नाल्ड
टायनबी ने हिसाब
लगाया कि अब
तक केवल छह
आदमी इस चक्र
के बाहर हुए
हैं—पूरे
मनुष्य—जाति
के इतिहास में।
छह न हुए हों, साठ हुए
हों, संख्या
कुछ बहुत बड़ी
नहीं है। वह
एक अनहोनी
घटना है। न तो
प्रेम, न
क्रोध, न
लोभ—ये
सामान्य
घटनाएं हैं; सभी को घट
रही हैं; जानवरों
को घट रही हैं।
इससे तुम आदमी
नहीं हों।
तुम्हारे
जीवन में आदमी
होने का सूत्र
तो उसी दिन
घटेगा, जिस
दिन तुम इस
चित्त के
मंत्र के बाहर
हो जाओ; चित्त
के
वर्तुलाकार
भ्रमण के बाहर
हो जाओ। यह
चित्त का चक्र
टूट जाये और
तुम इसके बाहर
हो जाओ—वह
ध्यान है।
ध्यान
वर्तुलाकार
नहीं है।
ध्यान एक
स्थिति है; मन एक गति
है। ध्यान
ठहराव का नाम
है; मन
भटकाव का नाम
है। और, भटकाव
भी कुछ नयी
जगहों पर नहीं,
वही जगह फिर—फिर,
वही जगह फिर—फिर।
कोलू के बैल
की तरह तुम
घूम रहे हो।
सचेत होकर
देखोगे तो समझ
में आ जायेगा
कि यह कोई
सिद्धांत
नहीं है, यह
तथ्य है। यह
कोई दर्शन—शाख
का सिद्धांत
नहीं है; तुम्हारे
मन का
वर्तुलाकार
भ्रमण, तुम्हारे
मन का मंत्र
की भांति होना—यह
तुम्हारे
जीवन का तथ्य
है।
जिन्होंने
जीवन को समझने
की कोशिश की
है, उन्होंने
इसका
आविष्कार
किया है। यह
कोई विचार से
निर्णीत
सिद्धांत
नहीं है; अनुभव
से पाया गया
तथ्य है। तुम
भी इसे अनुभव
से पा सकते हो।
मैं कहता हूं
तुम्हें
इसलिए मानने
की जरूरत नहीं।
शिव कहें, इसलिए
मानने की कोई
जरूरत नहीं।
तुम्हारे पास आंखें
है। आंख बंद
करके मन को
जरा कुछ दिनों
तक देखते रहो,
तब तुम
हैरान हो
जाओगे। तब तुम
पाओगे कि तुम
इस चाक से
बंधे हो। और, सारी
प्रकृति इसी
चाक से बंधी
है। तुम्हारी
मनुष्यता की
घोषणा इसमें नहीं
है, तुम्हारी
गरिमा इसमें
नहीं है; तुम्हारी
गरिमा इसके
बाहर उतर जाने
में है। उसी
क्षण तुम
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाते हो या
शिवत्व को
उपलब्ध हो
जाते हो।
चित्त
मंत्र है।
पुनरुक्ति
चित्त. का
स्वभाव है—रिपीटीशन।
इसलिए चित्त
के जगत में
कभी कोइ नयी
चीज नहीं घटती।
चित्त के जगत
में कभी भी
कोई मौलिक
तत्व नहीं घटता; वहां सब
बासा और
पुराना है—सब
उच्छिष्ट! तुम
उसी—उसी की
जुगाली करते
हो। भैंस को
देखा है
जुगाली करते!
भोजन कर लेती
है, फिर
उसको निकाल कर
मुंह में
जुगाली करती
रहती है।
चित्त जुगाली
कर रहा है।
तुम जो भी ले
लेते हो भोजन
की तरह चित्त
में, फिर
चित्त उसकी
जुगाली करता
रहता है? पढ़ो
एक किताब, फिर
चित्त में वह
चलने लगेगा।
मुझे सुनकर
जाओगे, फिर
चौबीस घंटे वह
चित्त में
चलने लगेगा।
एक चक्र शुरू
हो गया। चित्त
फिर उसे
चबायेगा, पचायेगा,
पुनरुक्त
करेगा, लेकिन
चित्त में नया
कभी नहीं घटता।
ओरिजनल—मौलिक
चित्त में कभी
नहीं घटता; और, आत्मा
मौलिक तत्व है।
परमात्मा परम
मौलिकता है।
वह नवीनता है।
उससे ज्यादा
ताजा और कुछ
भी नहीं।
चित्त से वह
उपलब्ध न होगा।
चित्त के
मंत्र को
तोड़ना पड़ेगा।
ये
सूत्र ठीक से
समझना। चित्त
ही मंत्र है
और प्रयत्न
साधक है—दूसरा
सूत्र।
प्रयत्न
का अर्थ है: इस
चित्त के चक्र
के बाहर
निकलने की
चेष्टा। जो
निकल गया, वह सिद्ध
है; जो
निकलने की
चेष्टा कर रहा
है, वह
साधक है। और
महत प्रयत्न
करना होगा, तभी तुम
निकल पाओगे।
उतना ही
प्रयत्न करना
होगा, जितना
चित्त को बांधने
में तुमने
किया है।
लेकिन, बड़ी
कठिनाई यह है
कि उसी चित्त
से तुम देखते
हो। इसलिए, तुम जो
देखते हो, चित्त
उसे अपने ही
रंग में रंग
देता है। यह
बड़ी कठिनाई है।
मैं
तुमसे बोल रहा
हूं तुम सुन
रहे हो; लेकिन तुम
नहीं सुन रहे
हो, तुम्हारा
चित्त बीच में
खड़ा है। मैं
जो भी कहूंगा,
चित्त अपना
रंग उसपर
फेंकेगा और
उसको अपने अनुकूल
बदल लेगा; उसका
अर्थ बदल
जायेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
शराब पिये एक
बस में सवार हुआ;
एक बूढ़ी औरत
भी, जिसके
बाल सब सफेद
हो गये थे।
उसे बडी दया
आई। मुल्ला
अभी जवान था; मुंह से
शराब की बदबू
आ रही थी। तो
उस बूढ़ी औरत
ने उससे कहा, 'बेटे, तुम्हें
होश है या
नहीं? तुम
सीधी नरक की
यात्रा पर जा
रहे हो।’ मुल्ला
उचककर खड़ा हो
गया। उसने कहा,
'रोको भाई, मैं गलत बस
में सवार हो
गया हूं।’
वह जो
चित्त है, अगर शराब
में डूबा है
तो हर चीज को
अपने रंग में
रंग लेगा। वे
समझे कि यह बस
नरक जा रही है।
तुम्हारा
चित्त चौबीस
घंटे यही कर
रहा है। इसलिए,
बड़ी—से—बड़ी
जटिल बात है—वह
यह कि चित्त
को अलग करके
सुनने की
चेष्टा। वही
श्रावक है।
वही सम्यक
श्रवण है कि
चित्त को तुम
हटा दो और सीधा
सुनो।
प्रयत्न साधक
है। चेष्टा
करनी पड़ेगी।
महत चेष्टा
करनी पड़ेगी।
आलस्य में पड़े
रहने से तुम
बाहर न हो
पाओगे इस
वर्तुल के।
कैसे कोई पड़ा—पड़ा
वर्तुल के
बाहर हो
पायेगा? पड़ा—पड़ा
तो वर्तुल
घूमता ही
रहेगा, चक्र
घूमता ही
रहेगा और डर
के कारण कि
कहीं तुम गिर
न जाओ, तुम
उसे जोर से
पकड़े रहोगे।
अगर
तुमने कभी
जंगल में बहेलियों
को देखा है
तोतों को
पकड़ते तो
बहेलिये बड़ी
सीधी तरकीब का
उपयोग करते है।
वही तरकीब
तुम्हारा
चित्त
तुम्हारे लिए
कर रहा है। वे
रस्सी बांध
देते हैं।
तोते उसपर आकर
बैठते हैं, वजन के
कारण उलटे
होकर लटक जाते
हैं। रस्सी पर
बैठा नहीं जा
सकता। तोता
रस्सी पर आकर
बैठता है, वजन
के कारण उलटा
हो जाता है, उलटा लटककर
घबरा जाता है।
घबराकर रस्सी
को जोर से पकड़
लेता है कि
कहीं गिर न
जाऊं—अब
मुश्किल में
पड़ा। अगर छोड़े
रस्सी को तो
डर लगता है
गिर पडूगा।
कुछ पकड़ने की
जरूरत नहीं, वे अपने—आप पकड़े
गये। वह
बहेलिया आकर
उनको पकड़कर ले
जायेगा। यह
तोता भूल ही
गया कि मेरे
पास पंख है; गिरने का
कोई कारण नहीं,
कोई भय नहीं।
लेकिन, एक
दफा रस्सी में
उलटे लटककर
तुमको भी यह
भय हो जाता है
कि चके से अगर
उतरे तो क्या
होगा—खो
जायेंगे, भटक
जायेंगे!
हैमिंग्वे
के एक पात्र
ने एक उपन्यास
में कहा है कि
दुख मुझे स्वीकार
है खालीपन की
बजाए—आई विल
प्ल सफरिग दैन
नथिंगनेस—ना—कुछ
मैं न चूनूंगा; इससे तो
दुख चुन लेना
बेहतर है।
खाली होना तुम
पसंद न करोगे।
नरक भी ठीक है;
कम—से—कम
भरे तो हो, वह
तोता लटका है।
डर रहा है कि
कहीं सब न खो
जाये। शक उसे
भी हो रहा है
कि फंस गये।
लेकिन फंसा
होना ठीक है
कम से कम
गिरने से। इस
चाक को
तुम्हीं
पक्के हुये हो।
चाक तुम्हें
नहीं पकड़े
हुये है। मन
तुम्हें नहीं
पकड़े हुये है।
अगर मन
तुम्हें
पक्के होता तो
फिर बुद्ध और
महावीर पैदा
नहीं हो सकते,
क्योंकि वह
उनको भी पक्के
रहता। वे
भागते क्या
होता! मन उनको
पक्के रहता।
मन उनका पीछा
करता। नहीं, मन तुम्हें
नहीं पक्के है,
मन को डर के
कारण तुमने ही
पकड़े हुआ है।
और तुम इतने
जोर से पकड़े
हो और फिर भी
तुम जाते हो
संत और साधुओं
के पास पूछने
कि मन से
छुटकारा कैसे
हो। मन से छुटकारे
के लिए किसी से
पूछने की कोई
जरूरत नहीं।
इतना ही समझ
लेना जरूरी है
कि तुमने पकड़ा
है। तुम्हारे
अतिरिक्त
तुम्हारे
जीवन के लिये
और कोई
जिम्मेवार
नहीं है। पर
पकड़ना अब सुविधापूर्ण
हो गया है
क्योंकि तुम
सदा से पकड़े
हो। आदत हो गई
है, उसमें
कुछ श्रम नहीं
लगता। छोड़ने
में श्रम
लगेगा। अगर
तुमने मुट्ठी
जन्मों—जन्मों
से बांध रखी
है, तो
खोलना —मुश्किल
होगा। जड़ हो
गयी हैं
अंगुलियां।
हाथ बंध गया
है। बस, इतनी
ही बात है।
थोड़े—से प्रयत्न
की जरूरत है
कि
मांसपेशियां
फिर सजग हो
जायें, खून
फिर हाथ, अंगुलियों
में दौड़ने लगे
और तुम खोलने
में समर्थ हो
जाओ। जिसे
बांधा है, वह
खुल सकता है, इतना तो पका
है। नहीं तो
बांधते कैसे?
मुट्ठी
बंधती है, क्योंकि
खुल सकती है।
कभी खुली ही
रही' होगी,
तभी बंधी है;
फिर .कभी
खुल सकती है।
लेकिन, अगर
बहुत दिन तक
बांधकर रखी तो
खोलना
मुश्किल हो
जाता है। बस, इतनी ही
अड़चन है।
प्रयत्न की
इसलिए जरूरत
है।
प्रयत्न
का अर्थ है:
चित्त को
छोड़ने के लिए
श्रम करना
होगा। और, चित्त
बार—बार
तुम्हें
समझाएगा कि
क्या कर रहे
हो, क्या
पागलपन कर रहे
हो; क्योंकि
तुमने छोड़ा कि
चित्त मरा।
प्रयत्न
साधक है। तुम
जब तक साधक न
होओगे, तुम प्रयत्न
न करोगे।
प्रयत्न तुम
थोड़ा—बहुत
करते भी हो; लेकिन वह
हमेशा आधा—आधा
है। और आधे मन
से किये गये
प्रयत्न का
कोई अर्थ नहीं।
वह ऐसा है, जैसे
एक हाथ से चाक
को पकडे है और
दूसरे से छोड़ा
है। फिर इससे
पक्का और उससे
छोड़ा। उससे
कुछ हल न होगा।
नहीं; आधे—आधे
से कोई
प्रयोजन नहीं
है।
एक
व्यापारी ने
अपनी पत्नी को
सांझ कहा कि
एक बड़ा ग्राहक
आ रहा है, लाखों
रुपयों का
सौदा होना है
तो मैं जाता
हूं;_ ताजमहल
में भोजन पर
निमंत्रण
दिया है। वह
गया। रात—आधी
रात—पीये, खाये—पीये
हुए लौटा। पली
ने कहा, 'कुछ
हुआ?' उसने
कहा, 'फिफ्टी—फिफ्टी,
आधा—आधा।’ पत्नी ने
कहा, 'चलो, कुछ तो हुआ! 'फिर
पत्नी ने सोचा
कि मतलब क्या
है आधे—आधे का।
तो उसने पूछा,
जब वह सोने
ही जा रहा था—वह
पति, कि
फिफ्टी—फिफ्टी
का मतलब? तो
उसने कहा, 'मै
तो पहुंचा, वह गाहक
नहीं आया।’
तुम जब
भी आधे—आधे हो, बस ऐसा ही
है। कुछ होगा
नहीं; वह
फिफ्टी है
नहीं। और, सब
जगह तुम आधे—आधे
हो; पूरे
तुम कहीं भी
नहीं हो। जहां
तुम पूरे हो
जाते हो, वहीं
जीवन में
क्रांति घटनी
शुरू हो जाती
है।
तब तुम
उबलते हो। तब सौ
डिग्री पर
वाष्पीभूत
होते हो। तब पानी
भाप बनता है।
तब तुम नीचे की
तरफ नहीं बहते, जैसा कि पानी
बहता है तब
भाप की तरह ऊपर
उठते हो। तब तुम्हारी
दिशा अधोगामी नहीं
रह जाती
ऊर्ध्वगामी
हो जाती है।
प्रयत्न
साधक है।
तुम्हें
आलस्य छोड़ना
पड़ेगा।
मेरे पास
लोग आते हैं।
वे कहते है कि सुबह
का ध्यान जरा मुश्किल
है; सुबह
छह बजे आने में
कठिनाई होती
है। तुम समझ ही
नहीं रहे हो कि
तुम क्या कह रहे
हो। अगर तुम्हें
छह बजे उठने में
कठिनाई हो रही
है, तो तुम्हें
मन के बाहर
आने में तो
भयंकर कष्ट
होगा। अगर छह
बजे उठने में तुम्हें
इतनी मुश्किल मालूम
पड रही है, तो
जीवन के चाक से
छलांग तुम कैसे
लगाओगे? एक
छोटी—सी आदत कि
तुम सुबह छह
बजे नहीं उठते
रहे हो, बस दो—चार
दिन आलस्य पकड़ेगा।
पर आलस्य को तुम
जीतने देते हो
और आलस्य की कीमत
पर ध्यान को खोने
को तुम तैयार हो,
तो ध्यान का
तुम्हारे मन में
कोई मूल्य ही नहीं
है। अगर मूल्य
होता तो यह सवाल
तुम उठाते न।
कोई आता है वह कहता
है कि चार
ध्यान में तो
थकान होती है
अगर दो छोड़ दें?
तुम चार ही छोड
सकते हो।
क्योंकि चार
में थकान होती
है, दो में
आधी होगी; लेकिन
होगी तो। और, मैं जानता
हूं कि अगर
मैं तुम्हारे
मन को सुविधा
दूं कि दो छोड़
दो तो कल तुम
आओगे कि एक ही करे
तो? क्योंकि
वही मन...। क्योंकि
दो में भी तो
थकोगे ही।
अगर
तुम उस सूत्र
को मानकर चलते
हो तो तुम आज नहीं
कल आलस्य में डूबना
ही पसद करोगे; क्योंकि
कुछ भी करने
में श्रम तो
होगा। ध्यान
रहे—जीवन श्रम
है, मृत्यु
विश्राम है।
तो अगर मरना
हो तब कुछ
करने की जरूरत
नहीं। अगर जीना
हो तो कुछ करना
पड़ेगा। और, अगर विराट जीना
हो तो विराट उद्यम
करना होगा।
अगर परमात्मा को
पाना हो तो ऐसा
छोटा—छोटा
प्रयास काम नहीं
करेगा।
तुम्हारा पूरा
जीवन ही प्रयास
बन जाये, तुम
रत्ती—रत्ती दाव
पर लगा दो
अपने को; कुछ
भी तुमने बचाया
तो तुम चूक जाओगे।
यहां पूरा ही दाव
लगेगा, तो
ही तुम बच
सकते हो।
इसलिए थोड़े—से
लोग उपलब्ध हो
पाते हैं। कोई
कारण नहीं, सिवाय आलस्य
के। तुम ध्यान
भी करते हो तो तुम
ऐसे करते हो कि
कहीं पैर में चोट
न लग जाये; कि
कही किसी का धक्का
न लग जाये; कि
ऐसा करें कि
थक भी न जायें।
तुम कर ही
क्यों रहे हो?
तुमसे कहा
किसने? लेकिन,
तुम साफ भी
नहीं हो। तुम
ऐसे धुंधलके में
जीते हो यहां सब
अंधेरा—अँधेरा
है। तुम्हें यह
भी पका नहीं कि
तुम यहां आ कैसे
गये। कैसे चले
आये तुम? कोई
आ रहा था, तुम
साथ आ गये; सोचा
कि चलो देखें,
दूसरे क्या
कर रहे है।
तुम ऐसे ही
धक्के खा रहे
हो। और ऐसा
अनंत जन्मों
से चल रहा है।
लेकिन धक्कों
से कोई मंजिल
पर नहीं
पहुंचता।
मंजिल कोई
संयोग नहीं है
कि तुम किसी
भी भांति
पहुंच जाओगे।
मंजिल एक
गंतव्य पूर्ण
यात्रा है। मंजिल
एक दिशा की तरफ
सारे जीवन की
धारा को लेकर चलने
का श्रम है। मंजिल
एक संकल्प है।
संकल्प करते
ही तुम्हारा
मन एक धारा
में आ जाता है;
शक्ति
इकट्ठी हो जाती
है। तो ऊर्जा
तुममें महान है।
तुम जितना
सोचते हो कि
इतनी कम शक्ति
है कि इतने जल्दी
थक जाओगे, तो
तुम गलती में
हो।
मनुष्य
के शरीर में
शक्ति के, ऊर्जा के
तीन तल हैं।
एक तल ऊपर का है,
जो रोज मर्रा
काम के लिए है
जैसे तुम जेब—खर्च
के लिए खीसे में
कुछ रुपये डाल
रखते हो। वह तुम्हारी
पूरी संपदा नहीं
है; कुछ जेब—खर्च
के लिए है कि
बाजार गये तो
कुछ सामान
वगैरह लाना है—कुछ
रुपये।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दफा गांव से
गुजर रहा था।
बाहर अंधेरा
था। चार
आदमियों ने
पक्कूकर उसपर
हमला कर दिया।
उसने इस भयंकर
ढंग से लड़ाई
की कि चारों
को पछाड़ दिया।
बामुश्किल वे
चार उसपर
कब्जा कर पाये—बामुश्किल!
और, जब
उसके खीसे में
हाथ डाला तो
केवल सात पैसे
थे। तो
उन्होंने कहा,
'हद कर दी, नसरुद्दीन!
सात पैसे के
लिए...? नसरुद्दीन
ने कहा, 'मैं
नहीं समझा कि
तुम सात पैसे
के लिए लड़ रहे
हो। बायें पैर
के के में
पांच सौ रुपये
छिपा रखे हैं।’
लेकिन, तब
उन्होंने भी
हिम्मत न की—उसका
बायां जूता
खोलने को; क्योंकि
जिसने सात
पैसे के लिए
ऐसा भयंकर श्रम
किया..।
उन्होंने कहा,
'नमस्कार! फिर
कभी..।’
वह जो
तुम्हारी
रोजमर्रा की
ऊर्जा है, वह सात
पैसे से
ज्यादा नहीं
है। वह रोज के
काम के लिए है—उठना,
बैठना भोजन
करना, पचाना,
सोना, कामधाम;
ऊपर का अंग
है; खीसे
में पड़े हुए
पैसे है। जब
तुम ध्यान
शुरू करते हो,
वह चुक जाती
है। जल्दी चुक
जाती है; क्योंकि,
ध्यान उसने
कभी किया नहीं।
एक नया क्रम
शुरू हो गया।
अगर तुम उसकी
ही बात मानकर
रुक गये, तो
तुम कभी ध्यान
न कर पाओगे।
उसकी तुम सुनो
मत। अगर तुम
किये ही गये
तो जर्ल्दा ही
तुम पाओगे कि
दूसरे तल की
ऊर्जा संलग्न
हो गयी।
कई दफा
तुम्हें
अनुभव भी होता
है—तुम बैठे
हो रात,सोने जा रहे
थे, ऐसी
नींद आ रही थी
कि पलक खुलते
नहीं खुलती थी
कि तत्क्षण
घर में आग लग
गयी। फिर तुम
सो पाते हो? फिर तुम
कहते हो, मुझे
नींद आ रही है?
नहीं, नींद
तिरोहित हो
जाती है। कहां
से यह ऊर्जा
आई? अभी
तुम झपकी खा
रहे थे और
तुमसे कोई
कहता कि गीता
पढ़ो तो तुम
कहते हो, नहीं
भाई, मुश्क्िल
है। लेकिन घर
में आग लग गयी!
तो गीता छोड़ सकते
थे लेकिन घर
में आग लग गई
अब तुम दौड़
रहे हो, भाग
रहे हो, बुझा
रहे हो और आग
भी बुझ जायेगी,
तो भी इस
रात तुम
सोनेवाले नही।
अब तुम जागे
ही रहोगे;. कितनी
ही कोशिश करो
सोने की, नींद
न आयेगी। क्या
हुआ? दूसरा
तल, जो
रोजमर्रा
शक्ति का नहीं
है—संरक्षित
तल—टूट गया।
उसके टूट जाने
के कारण तुम
इतनी ऊर्जा से
भर गये हो कि
सबकी नींद खो
गयी।
अगर
तुमने ध्यान
का प्रयोग
जारी रखा और
तुम थके न, तो जल्दी
ही दूसरी
ऊर्जा उपलब्ध
होगी। उसके
उपलब्ध होते
ही तुम पाओगे
कि कितना ही
ध्यान करो, शरीर थकने वाला
नहीं है। कुछ
भीतर खर्च
होनेवाला
नहीं है। यह
भी दूसरा तल
है।
एक
तीसरा तल है।
यह दूसरा तल
तुम्हारा
खजाना है, यह भी चुक
सकता है; लेकिन
इतनी आसानी से
नहीं, जितनी
आसानी से पहला
तल चुकता है।
यह भी एक दिन
चुकेगा। महत
उपाय तुम करते
रहोगे ध्यान
के तो एक दिन
यह भी चुकेगा।
और, तब
तीसरा तल
टूटता है। वह
तल तुम्हारा
नहीं; वह
तल परमात्मा
का है, वह
कभी भी नहीं
चुकता। लेकिन,
अगर तुमने
आलस्य किया तो
तुम दूसरे तल
पर ही नहीं
पहुंचोगे; तीसरे
पर तो पहुंचने
का कोई सवाल
नहीं।
परमात्मा
परम ऊर्जा है; तुम्हारे
भीतर ही छिपा
है।
पहला
तल तुम्हारे
मन का, दूसरा
तल तुम्हारी
आत्मा का, तीसरा
तल परमात्मा
का। मन को
चुकाओ तो
आत्मा की
ऊर्जा उपलब्ध
होगी। आत्मा
को भी चुका दो
तो परमात्मा
की ऊर्जा उपलब्ध
होगी—जो
शाश्वत है; जिसके फिर
चुकने का कोई
उपाय नहीं।
फिर तुम विराट
के साथ एक हो
गये।
इसलिए
शिव कहते हैं: प्रयत्न
साधक:। प्रयत्न
सतत गहरा, और गहरा
प्रयत्न साधक
है। उस समय तक प्रयत्न
करते जाना है,
जब तक कि
तीसरा तल न
टूट जाये, तुम
उस परम ऊर्जा
को उपलब्ध न
हो जाओ। फिर
तुम सिद्ध हो।
फिर विश्राम
किया जा सकता
है। उसके
पूर्व
विश्राम
आत्मघात है।
तीसरा
सूत्र है गुरु
उपाय है।
यह जो
जीवन की खोज
है, तुम
अकेले न कर
पाओगे; क्योंकि
अकेले तो तुम
अपने वर्तुल
में बंद हो।
तुम्हें उसके
बाहर दिखाई भी
नहीं पड़ता।
उसके बाहर कुछ
है, इसकी
खबर भी
तुम्हें नहीं
है। तुम जो हो—अपनी
खोल में बंद—तुम
समझते हो, यही
जीवन है। यह
खबर तुम्हें
बाहर से किसी
को देनी पड़ेगी,
जिसने इससे
विराट जीवन को
जाना हो। तुम
अपने घर में
कैद हो।
तुम्हें पता
भी नहीं कि घर
के बाहर खुला
आकाश है, चांद—तारे
हैं। यह तो
कोई जो चांद—तारों
को देखकर आया
हो और तुम्हें
घर में दस्तक
दे और कहे कि
बाहर आओ, कब
तक भीतर बैठे
रहोगे।
पहले
तो तुम यही
पूछोगे कि
बाहर जैसी कोई
चीज भी है? यही तो
लोग पूछते हैं
कि परमात्मा
जैसी कोई चीज
है; आत्मा
जैसी कोई चीज
है? और तुम
चाहते हो कि
सिद्ध कर दे
कोई घर के
भीतर बैठे हुए
कि आकाश है।
कैसे सिद्ध
करेगा? घर
के भीतर बैठे,
आकाश है—यह
कैसे सिद्ध
किया जा सकता
है? तुम्हें
चलना पड़ेगा
साथ। वह जो कह
रहा है कि
आकाश है, उसके
पीछे तुम्हें
दो—चार कदम
उठाने पड़ेंगे;
क्योंकि
आकाश दिखाया
जा सकता है, सिद्ध नहीं
किया जा सकता
है; सिद्ध
करने का कोई
उपाय नहीं है।
और, अगर
कोई आकाश को
सिद्ध करना
चाहेगा घर के
छप्पर के भीतर,
तो तुम उसको
हरा सकते हो; क्योंकि तुम
कहोगे—कहां की
बातें कर रहे
हो, छप्पर
है। यहां तो
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता; दीवालें है।
क्या प्रमाण
है कि बाहर
कुछ है? तुम
थोड़ा—सा आकाश
भीतर लाकर
मुझे दिखा दो।
तो आकाश कोई
वस्तु तो नहीं
जो कि भीतर
लायी जा सके; कि आकाश का
एक टुक्खा
काटकर हम भीतर
ले जायें; तुम्हें
दिखा दें
नमूना ताकि
फिर तुम बाहर
जा सको। नहीं,
परमात्मा
का कोई खंड
लाकर तुम्हें
दिखाया नहीं
जा सकता; तुम्हें
जाना होगा।
इसलिए, गुरु
उपाय है। गुरु
का केवल इतना
ही अर्थ है:
जिसे अनुभव
हुआ हो, जिसने
जाना हो, जो
कारागृह से
छूट गया हो—वही
तुम्हें खबर
दे सकता है कि
तुम कारागृह
में हो; और,
वही
तुम्हें खबर
दे सकता है कि
छूटने का उपाय
है; और वही
तुम्हें
रास्ता बता
सकता है कि आओ
मेरे पीछे, इस कारागृह
में भी द्वार
है, जहां
से बाहर निकला
जा सकता है।
इस कारागृह
में ऐसे भी
द्वार हैं, जहां के
संतरी सोये
हुए हैं। इस
कारागृह में
ऐसे भी द्वार
हैं, जहां
के संतरी बड़े
सजग हैं और
अगर तुमने
वहां से
निकलने की
कोशिश की, तो
तुम और मुसीबत
में पड़ जाओगे,
अभी कम—से—कम
तुम कारागृह
में मुक्त हो।
अगर तुमने
वहां से
निकलने की
कोशिश की, जहां
संतरी सजग हैं,
जहां मुख्य—द्वार
है—तो तुम काल—कोठरी
में डाल दिये
जाओगे; तो
कारागृह और
छोटा हो
जायेगा। और, ध्यान रहे—नकार
से निकलने की
कोशिश में तुम
काल—कोठरी में
गिर जाओगे।
अगर
तुम लड़े बुराई
से, तो
तुम और भी
बुराई में
फेंक दिये
जाओगे। वह
मुख्य द्वार
है; लेकिन
वहां से कोई
कभी निकल नहीं
सकता। कोई कभी
निकला नहीं।
क्योंकि, मुख्य—द्वार
पर पहरा देना
पड़ता है, मुख्य—द्वार
पर सब सुरक्षा
रखनी पड़ती है।
लेकिन इस
कारागृह में
ऐसे द्वार भी
हैं जो गुप्त
हैं, ऐसे
द्वार भी हैं
जहां कोई पहरा
नहीं है, क्योंकि,
उस तरफ कोई
कैदी ध्यान ही
नहीं देता।
कैदी भी ध्यान
देता है—मुख्य—द्वार
की तरफ।
मैंने
सुना है, एक कारागृह
में—फ्रांस
में ऐसा हुआ, क्रांति के
दिनों में कि
कारागृह के
कैदियों ने
बगावत कर दी।
कैदी बगावत न
करें तो ठीक
है। कोई दो
हजार कैदी थे
और कोई बीस
संतरी थे, कभी
भी छूट सकते
थे। बीस
संतरियो की
औकात क्या!
बगावत नहीं की
थी, क्योंकि,
कैदी कभी
इकट्ठे नहीं
होते। कैदी एक—दूसरे
के भी दुश्मन
होते हैं। साथ
होने के लिए
इतनी भी सरलता
नहीं होती।
मित्रता
बनाने का उपाय
नहीं होता; एक—दूसरे के
शत्रु होते
हैं। इसलिए
बीस संतरी
काफी थे। फिर
बगावत कर दी, कैदी इकट्ठे
हो गये।
उन्होंने
बगावत कर दी
तो जो प्रधान
जेलर था, वह घबड़ाया।
उसने कहा कि
क्या करें!
उसने पहला काम
यह किया कि
बीस संतरियों
से कहा, 'मुख्यद्वार
की फिक्र छोड़
दो। तुम जाकर
छोटी
खिड़कियों और
दरवाजों पर
खड़े हो जाओ।’ संतरियों ने
कहा भी कि यह
निर्णय बडा
गलत है। उस
जेलर ने कहा, 'तुम फिक्र
मत करो। मुख्य—द्वार
बिलकुल छोड़ दो।’
मुख्य—द्वार
खाली छोड़ दिया
गया। वहां एक
भी संतरी न था, लेकिन
कोई कैदी भाग
न सका; क्योंकि,
छोटे
द्वारों पर
पहरा लगा दिया
गया। जिनपर
कभी पहरा न था,
उनपर पहरा
लगवा दिया गया।
और जहां सदा
पहरा था, वहां
से बिलकुल हटा
दिया गया। अगर
चाहते तो सभी
कैदी बाहर
निकल जाते।
पीछे, उस जेलर
से उसके
संतरियो ने
पूछा कि हम
समझे नहीं, तरकीब काम
कर गयी। तो
उसने कहा कि
बगावत का मतलब
है कि कोई
बाहर का आदमी
भीतर पहुंच
गया। इन
कैदियों में
कोई खुला आदमी
बाहर से भीतर
पहुंच गया है—कोई
आदमी जो जानता
है। और, जो
भी जानता है, वह छोटे
द्वारों से
निकलने की
चेष्टा
करवायेगा। जो
नहीं जानता, वह हमेशा
मुख्य—द्वार
से निकलने की
कोशिश करेगा।
तो कल तक हम
मुख्य—द्वार
पर पहरा दे
रहे थे; क्योंकि,
सब अज्ञानी
थे भीतर, अब
लगता है कि
कोई गुरु
पहुंच गया।
जीवन
में बुराई से
लड़कर निकलने
का द्वार मुख्य
मालूम होता है।
तुम्हारा मन
कहता है कि
पहले बुराई को
मिटाओ, तभी तो
साधुता
उपलब्ध होगी;
पहले गलत को
छोड़ो तभी तो
ठीक के लिए
राह बनेगी; पहले संसार
को बाहर
निकालो, तभी
तो परमात्मा
का सिंहासन
खाली होगा। यह
मुख्य—द्वार
है। गुरु
तुम्हें इससे
निकलने को न
कहेगा; क्योंकि,
इससे कोई
कभी नहीं निकल
पाता। वहां
पहरा भयंकर है
और जो आदमी
वहां से निकलने
की कोशिश करता
है, वह और
छोटी काल—कोठरी
में डाल दिया
जाता है।
मेरे
देरब्रे, तुम्हारे
साधु—संत तुम
से भी बुरे
कारागृहों
में बंद हैं।
तुम्हारे पास आंखें
नहीं हैं, इसलिए
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता। गृहस्थ
तो परेशान हैं
ही, तुम्हारे
साधु तुमसे भी
बुरी तरह
परेशान हैं।
तुम्हारे पास
कम—से—कम छोटा—सा
आंगन भी है, जिसमें तुम
थोड़ी
स्वतंत्रता
अनुभव करते हो;
उनका आंगन
भी छिन गया है।
वे जेल के
भीतर हैं; लेकिन,
जेल के भीतर
जो
स्वतंत्रता
साधारण कैदी
को मिलती है, वह भी उनको
नहीं है। वे
चौबीस घंटे
काल—कोठरी में
बंद हैं।
मेरे
पास साधु—संन्यासी
आते हैं; उनका मन
बिलकुल ही
रुग्ण और
विक्षिप्त है।
एक जैन
मुनि ने मुझे
कहा है कि साठ
साल का हो गया
हूं चालीस साल
से मुनि हूं; लेकिन
निरंतर मन में
यह शक बना
रहता है कि
मैने कहीं भूल
तो नहीं की; कहीं ऐसा तो
नहीं है कि
साधारण
संसारी आनंद
भोग रहा है और
मैं नाहक कष्ट
पा रहा हूं।
यह संदेह
उठाना
बुद्धिमान
आदमी के लिए
स्वाभाविक है।
यह आदमी नासमझ
नहीं है, यह
आदमी समझदार
है। यह संदेह
उठना
स्वाभाविक है;
क्योंकि
इसको दिखाई पड़
रहा है कि
पाया तो मैने
कुछ भी नहीं; ये चालीस
साल क्रोध, काम, लोभ—इनसे
ही लड़ने में
बीत गये, मिला
तो कुछ नहीं।
और, क्रोध खोपड़ी
है, मुश्किल
से कोई डेढ़
किलो वजन है
और सात करोड़ तंतु
हैं, जो आंख
से नहीं देखे
जा सकते। तंतु
बहुत बारीक
हैं।
इसलिए, मस्तिष्क
का आपरेशन अभी
तक रुका रहा।
अब मस्तिष्क
का आपरेशन
शुरू हुआ है।
लेकिन, तब
भी खतरा है; क्योंकि
काटने तुम कुछ
जाओ, हजार
दूसरे तंतु कट
जाते हैं, इतना
सब सूक्ष्म है।
यंत्र तो
डालोगे, औजार
तो भीतर ले
जाओगे, औजार
भीतर—बाहर ले
जाने में ही
लाखों तंतु कट
जाते हैं।
औजार ले जाने
की भी जरूरत
नहीं है; तुम
सिर्फ
शीर्षासन ही
करते रहो आधा
घंटा रोज, तुम्हारी
खोपड़ी खराब हो
जायेगी। तुम
शीर्षासन
करनेवाले
लोगों को बहुत
बुद्धिमान
कभी न पाओगे; क्योंकि
इतना खून का
प्रवाह है कि
छोटे तंतुओं
को तोड़ देता
है, जैसे
बाढ़ आ जाये।
आदमी
का मस्तिष्क
विकसित ही
इसलिए हुआ कि
वह खड़ा हो गया
और सिर की तरफ
खून की धारा
कम हो गयी।
जानवरों का मस्तिष्क
विकसित नहीं
हुआ; क्योंकि
उनकी खोपड़ी और
उनका शरीर एक
ही तल में है।
तो उनके पास
मोटे स्नायु
हैं; पतले
स्नायु नहीं
है। आदमी की
सारी
प्रतिष्ठा और
खूबी यह है कि
वह खड़ा हो गया।
खड़े होने से, गुरुत्वाकर्षण
की धारा उसके
खून को नीचे
की तरफ खींचती
है और फेफड़े
को पंप करना
पड़ता है, खून
तब सिर तक
पहुंचता है।
बहुत कम खून
पहुंच पाता है।
इसलिए
सूक्ष्म तंतु
विकसित हो गये।
अगर बाढ़ आये
तो बड़े—बड़े
झाडू बह
जायेंगे, छोटे—छोटे
पौधों का
क्या! तो इतने
सूक्ष्म तंतु
हैं कि खून की
जरा—सी गति
ज्यादा हो
जाये तो नष्ट
हो जाते हैं।
इस सात
करोड़ के
सूक्ष्म जाल
में, तुम
अगर खोलकर बैठ
गये खुद ही तो
इसकी आशा करना
असंभव है कि
इससे कुछ लाभ
होगा, हानि
निश्चित है।
और बहुत लोग
खोलकर अपने
मस्तिष्क को
बैठ जाते हैं—
अपने ही मन से
ध्यान करने
लगते हैं, आसन
लगाने लगते
हैं, कुछ
किताब से
इकट्ठा कर लेते
हैं, कुछ
सुन लेते हैं,
हवा से
बातें पकड़
लेते हैं—कुछ
करने लगते हैं।
उससे सिवाय
नुकसान के कभी
कोई लाभ नहीं
होता।
एक
बौद्ध भिक्षु
को मेरे पास
लाया गया। वह
तीन साल से सो
नहीं सका। सब
तरह के इलाज
किये गये, लेकिन
नींद नहीं आती।
सब
ट्रेकुलाइजरों
को उसने हरा दिया।
नींद आती ही
नहीं, कुछ
भी उपाय काम
नहीं कर पा
रहे हैं। और
तीन साल तक जो
न सोये, उसकी
हालत तुम समझ
सकते हो—वह
बिलकुल
विक्षिप्त
अवस्था है।
मैंने
उससे जो पूछा, वह कोई
किसी डाक्टर
ने उससे पूछा
ही नहीं।
डाक्टरों ने
उसकी
चिकित्सा
शुरू कर दी; जांच—पड़ताल
की शरीर की—खून
का दबाव, हृदय
की स्थिति—सारा
सब जांच—पड़ताल
करके इलाज
शुरू किया। और,
वह उसकी
बीमारी ही
नहीं। वे
सज्जन एक
ध्यान कर रहे
है। एक
प्राचीन
परंपरा है
बौद्धों की—विपश्यना
वे विपश्यना
ध्यान कर रहे
हैं। वह ध्यान
उन्होंने
शास्त्र से
सीधा पढ़ लिया।
क्योंकि गुरु
तो एक—एक
शिष्य को खयाल
में रखेगा या
अगर वह कोई
सामूहिक
पद्धति
विकसित करता
है, तो वह
समूह को ध्यान
में रखेगा।
लेकिन, शाख
तो आपका ध्यान
नहीं रख सकते
कि कौन पड़ेगा।
कोई भी पढ़ेगा
और शास्त्र
हजारों साल तक
जीते हैं।
तो, बहुत
पुरानी 'विपश्यना
' की
पद्धति है, वह उन्होंने
पढ़ ली और उस पर
प्रयोग शुरू
कर दिया। फिर
उसमें उन्हें
रस आया; क्योंकि
पद्धति बडी
कीमती है, बुद्ध
ने खुद उपयोग
किया है।
लेकिन, तुम्हें
पता नहीं कि
जब रस
आ जाये
तो कहा रुकना; क्योंकि,
रस भी
ज्यादा हो
जाये तो जहर
हो जाता है।
तो रस उन्हें
इतना आया कि
वे चौबीस घंटे
उसे भीतर
साधने लगे।
जब तुम
कोई चीज भीतर
चौबीस घंटे
साधोगे तो नींद
खो जायेगी; क्योंकि,
भीतर अगर
इतना प्रबल
चलाओगे तो
नींद के आने
की संभावना
नहीं है। फिर
उन्होंने
वर्षों तक यह प्रयोग
किया तो जिन
तंतुओं से नींद
आती है, वे
तंतु टूट गये।
तो अब नींद का
कोई उपाय नहीं।
क्योंकि
डाक्टर भी साथ
दे सकता है, अगर तंतु
मौजूद हों; तो
ट्रेकुलाइजर
जाकर उन
तंतुओं को शिथिल
कर दे और आप सो
जायेंगे।
लेकिन तंतु ही
टूट गये, तो
डाक्टर भी
क्या करेगा!
तो, मैंने
उनको कहा कि
तुम सालभर के
लिए सब तरह का ध्यान
छोड़ दो। तुमसे
जितना आलस्य
बन सके, आलस्य
करो। ध्यान की
बात ही मत
करना। शाख मत
पढ़ना। सोना
जितना सो सको।
लेटना, विश्राम
करना; खूब
खाओ, खूब
पीओ। सालभर के
लिए परम
संसारी हो जाओ।
उन्होंने
कहा कि आपसे
ऐसी आशा न थी।
आप और ऐसे
शब्द कह रहे
हैं? भ्रष्ट
कर रहे हैं आप?
मैंने कहा
कि तुम अगर
भ्रष्ट समझते
हो तो तुम समझो।
सालभर यह करो,
फिर मेरे
पास आना। ठीक
तीन महीने बाद
वे ठीक हो गये।
अब उन्हें नयी
पद्धति देनी
पड़ी। और, पद्धति
को भी सोचकर
देना जरूरी है
कि कितना तुम
कर सकोगे। और
फिर क्रमश:
गति बढ़नी
चाहिए। और, पूरे चित्त
की व्यवस्था
का ध्यान रखना
जरूरी है।
इसलिए
शिव कहते हैं:
गुरु उपाय है।
तुम खुद अपने
उपाय मत बन
जाना; अन्यथा
तुम बिगाड़ कर
लोगे। पहले तो
जीवित पुरुष
को खोजना ही
कठिनाई है; क्योंकि
किसी जीवित
पुरुष को गुरु
मानने में बड़ी
बेचैनी है; अहंकार को
चोट लगती है।
इसलिए
शास्त्रों
में लोग
ज्यादा रस
लेते है; क्योंकि
शाख से कोई
अहंकार को चोट
नहीं लगती।
शास्त्र को
उठाकर फेंक दो,
तो भी
शास्त्र कुछ
नहीं कर सकता;
जहां रखो
सम्हालकर, वहां
रखा रहता है, कुछ नहीं कर
सकता। तुम
गुरु के साथ
ऐसा व्यवहार
नहीं कर सकते;
तुम्हारे
अहंकार को
वहां झुकना
पड़ेगा। वहां
तुम्हें
झुकना पड़ेगा।
शास्त्र के
सामने भी तुम
झुकते हो, वह
भी तुम्हारी
मौज है; मालिक
तुम ही रहते
हो। जब दिल
जाये, बदल
दो और शास्त्र
को कह दो, चलो
हटो। तो, शास्त्र
कुछ न कर
पाएगा, लेकिन
गुरु जीवित है।
वहां झुकना
पड़ेगा और
जीवित
व्यक्ति के
सामने झुकने
में अहंकार को
बड़ी चोट लगती
है।
इसलिए
लोग पहले
किताब देखते
है; जब
थक जाते हैं
किताबों से, तब गुरु को
खोजते है। और,
अक्सर ऐसा
हो जाता है कि
किताबें
उन्हें इतना बिगाड़
देती हैं कि
उनकी आंखें
ऐसी विकृत हो
जाती है
शब्दों से कि
फिर वे गुरु
को पहचान ही
नहीं पाते।
तुम
अगर गुरु के
पास भी जाते
हो तो तुम
किताब की
पहचान लेकर
जाते हो।
तुमने किताब
में पढ़ लिया
कि गुरु कैसा
होना चाहिए।
कोई किताब
नहीं बता सकती
कि गुरु कैसा
होना चाहिए।
कोई भी किताब
किसी गुरु के
संबंध में बता
सकती है। अगर
कबीर के संबध
में किसी ने
किताब लिखी है
तो वह कबीर के
संबंध में
बताती है कि कबीर
ऐसे गुरु थे।
अब दुबारा
कबीर थोड़े ही
होंगे। जो
लक्षण है, वे कबीर
के हैं, गुरु
के नहीं है।
अगर तुम
कबीरपंथी हो
और कबीर की
किताब से भर गये
हो, तो तुम
वह कबीरपंथी
गुरु किसी
गुरु में
खोजोगे तो वह
गुरु अब
तुम्हें कभी
नहीं
मिलनेवाला है।
क्योंकि कबीर
दुबारा पैदा
नहीं होंगे।
दिगंबर
जैन हैं, वह तब तक
गुरु न मानेगा
किसी को, जब
तक वह नग्न न
खड़ा हो।
महावीर की मौज
थी कि वे नग्न
खड़े हुए, वह
मेरी मौज नहीं
है। अब वह
महावीर को खोज
रहा है, जो अब
नहीं हैं। और बड़े
मजे की बात है—जब
महावीर थे, तब हो सकता
है तब यही
आदमी दिक्कत
में था; क्योंकि
वे नंगे खड़े
थे। तब उस समय
जो किताबें
प्रचलित थीं,
उनमें ये
लक्षण नहीं थे।
खुद महावीर के
पहले के जो
तीर्थंकर हैं,
वे भी
वस्त्रधारी
थे। जैन—तीर्थंकर
भी वस्त्रधारी
थे। तो खुद
जैन भी महावीर
को स्वीकार
करने को राजी
नहीं था; क्योंकि
नंगा खड़ा होना,
यह बात
बेहूदी है। तब
जो शास्त्र था,
वह कहता था
कि गुरु नग्न
तो होगा ही
नहीं, क्योंकि
यह तो अशोभन
है। तो महावीर
को इनकार किया।
जब महावीर मर
गये और
शास्त्र बन
गये तो वह महावीर
को ढो रहा है।
अब अगर
पार्श्वनाथ
मिल जायें
कपड़े पहने हुए
तो यह आदमी
कैसे चल सकता
है गुरु की
तरह।
ध्यान
रहे—जो भी
शास्त्र हैं, वे किसी
एक गुरु के
संबंध में कह
रहे हैं और वह गुरु
दुबारा नहीं
होता। गुरु तो
अद्वितीय हैं,
बेजोड़ हैं।
इसलिए
तुम्हारी आंखें
अगर शाखों से
भरी हैं तो
तुम जीवित
गुरु को कभी न
पहचान पाओगे;
क्योंकि, शास्त्र
उसकी खबर दे
रहे हैं, जो
हो चुका और
कभी न होगा।
जो लोग महावीर
को मानते हैं,
वे बुद्ध के
पास जायेंगे
तो इनकार कर
देंगे; कहेंगे—होंगे
महात्मा, होंगे;
लेकिन
भगवान नहीं है,
क्योंकि
वस्त्र पहने
हुए हैं।
एक जैन
सज्जन हैं।
उन्होंने एक
किताब लिखी है।
भले आदमी हैं; लेकिन, भले होने से
कुछ समझ तो
होती नहीं।
बुरे नासमझ
होते हैं; भले
भी नासमझ होते
हैं। यहां
नासमझी इतनी
गहरी है कि
भलेपन से कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। भले
आदमी हैं, इसलिए
एक तरह का
सदभाव रखते हैं
सभी धर्मों के
प्रति। तो, उन्होंने एक
किताब लिखी है—
भगवान महावीर
और महात्मा
बुद्ध। वे
लेखक हैं।
पूना में लोग
उन्हें जानते
हैं। वे ही
मुझे पहली दफा
पूना लेकर आये
थे। गांधी के
पुराने भक्त
हैं, तो
गांधी ने उनको
भाव चढ़ा दिया
कि सभी एक हैं।
तो, किताब
लिख दी, लेकिन,
भीतर तो जैन—बुद्धि
है। मैं उनके
घर मेहमान था
तो मैने पूछा
कि और तो मेरी
समझ में आया; लेकिन फर्क
काहे रखा कि
भगवान महावीर
और महात्मा
बुद्ध। वे
बोले: 'ऐसा
है कि भगवान
तो महावीर ही
हैं। ज्यादा—से—ज्यादा
इतना हम
स्वीकार कर
सकते हैं कि
बुद्ध महात्मा
हैं, लेकिन
भगवान नहीं।
क्यों? क्योंकि
सवस्त्र है; भगवान तो
निर्वस्त्र
होते हैं!
बस, तब
दिक्कत खडी हो
जाती है। और, ऐसा नहीं कि
यह कोई जैन के
साथ दिक्कत है,
सभी के साथ
वही दिक्कत
खडी होगी,।
इसलिए, जैन
कभी राम को
भगवान नहीं
मान सकता; सीता
के साथ खड़े
हैं, यह
बात अड़चन की
है। जैनी यह
सोच ही नहीं
सकता कि भगवान
होकर और भैरवी
क्यों साथ हैं?
भगवान तो सब
छोड़ देगा। जब
मुक्त ही हो
गया, तो यह
सी क्यों है? इसलिए, सीता
जैसी
बहुमूल्य सी
भी जैन को खो
जाती है, उसकी
बुद्धि में
नहीं पकड़ती।
कृष्ण
को तो वे नरक
में डाल देते
है; क्योंकि
एक नहीं, सोलह
हजार स्रियां
हैं। तो इनसे
ज्यादा योग्य
और कोई है
नहीं नरक के।
तो जैनियों ने
कृष्ण को नरक
में डाल दिया
है, डर के
कारण; क्योंकि
जाति के सब
वणिक है, तो
भयभीत भी हैं।
हिंदुओं से भय
भी खाते हैं
कि कहीं झगड़ा—झांसा
खडा न हो जाये
और शायद इसलिए
अहिंसा को
मानते हैं।
अक्सर
भीरु लोग
अहिंसा को
मानते हैं; क्योंकि
हिंसा को
मानने के लिए
थोड़ी बहुत लड़ाई—झगड़े
की हिम्मत
चाहिए। न
मारेंगे, न
मारे जायेंगे।
इसलिए, सिद्धांत
ठीक है कि
किसी को मत
मारो और जीने
दो और जीओ।
मगर जीने की
इच्छा है; वह
कोई दूसरे से
प्रयोजन नहीं
है। तो डर के
मारे एक दूसरी
तरकीब भी लगाई
है, वह यह
कि कृष्ण को
नरक में डाल
दिया और फिर
भय के कारण—क्योंकि
नरक में तो
डालना जरूरी
है, सिद्धांत
में कहीं आते
नहीं—मगर भय
के कारण कि
हिंदुओं के
बीच जीना है
तो यह भी
स्वीकार कर
लिया है कि
अगले कल्प में
वे पहले
तीर्थंकर
होंगे।
समझौता हो गया।
यह बनिया की
वृत्ति जो है..
गणित। अब
हिंदू नाराज
भी नहीं हो
सकते—चलो कोई
हर्जा नहीं।
अपना
सिद्धांत भी
संभाल गया, झगड़े से भी
बच गये।
गुरु
को अगर तुमने
शास्त्र से
खोजा तो तुम
कभी न खोज
पाओगे; क्योंकि जब
तक शास्त्र
लिखे जाते हैं,
तब तक जिसके
लिए लिखे गए, वह तिरोहित
हो जाता है।
और, हर
गुरु पृथक, भिन्न, अपने
ही ढंग का है।
उस जैसा तुम
दूसरा नहीं
खोज सकते।
दोबारा
महावीर नहीं
खोजे जा सकते,
न कृष्ण
खोजे जा सकते
हैं, न
बुद्ध और तुम
उन्हीं को खोज
रहे हो, इसलिए
भटक रहे हो।
और जब वे थे, तब तुम किसी
और को खोज रहे
थे। तुम चूकते
ही चले जाते
हो।
गुरु
को खोजना हो
तो शाख को अलग
रख आना। गुरु
को खोजना हो
तो किसी
व्यक्ति की
सन्निधि पाने
की कोशिश करना; उसके
सत्संग में
बैठना और अपने
सिद्धांत लेकर
मत जाना। अपने
नापने—जोखने
के इंतजाम लेकर
मत जाना। सीधे
हृदय को हृदय
से मिलने देना,
बुद्धि को
बीच में मत
आने देना। अगर
तुमने बुद्धि
बीच में आने
दी, तो
हृदय का मिलन
न होगा और तुम
गुरु को न
पहचान पाओगे।
गुरु की पहचान
आती है हृदय
से, बुद्धि
से नहीं। और, जब भी तुम
बुद्धि को
हटाकर हृदय से
देखोगे, तत्क्षण
कोई चीज घट
जाती है। अगर
तुम्हारा मेल
हो सकता है इस
गुरु से तो तत्क्षण
मेल हो जायेगा,
एक क्षण भी
देरी न लगेगी।
तुम पाओगे कि
तुम उसमें
पिघल गये, वह
तुम में पिघल
गया। उस दिन
से तुम उसके
अभिन्न अंग हो
गये। उस दिन
से तुम उसकी
छाया हो गये; उसके पीछे
चल सकते हो।
हृदय से खोजा
जाता है, गुरु
के बिना कोई
उपाय नहीं।
शरीर
हवि है। और, ध्यान
रखना—यह जिसे
तुम शरीर कहते
हो, जिसे
तुमने समझ रखा
है कि मैं सब
कुछ इस शरीर में
ही हूं—यह
शरीर हवि से
ज्यादा नहीं
है। जैसे यश
में अहित
डालनी पड़ती
है, ऐसे ही
ध्यान में
तुम्हें धीरे—
धीरे इस शरीर
को खो देना
होगा। बाकी
आहुतियां
व्यर्थ हैं।
कोई घी डालने
से, गेहूं
डालने से, कुछ
हवि नहीं होती।
अपने को ही
डालना पड़ेगा,
तभी
तुम्हारी
जीवन —अग्रि
जलेगी। इस
पूरे शरीर को
दांव पर लगा
देना। इसे
बचाने की
कोशिश की
तुमने अगर, तो यह यश
जलेगा ही नहीं,
अत्रि पैदा
ही नहीं होगी।
तुम अपने पूरे
शरीर को दांव
पर लगा देना।
शरीर हवि है।
ज्ञान
ही अन्न है।
और, तुम
अभी तो भोजन
से जीते हो।
भोजन शरीर में
जाता है; शरीर
के लिए जरूरी
है। बोध, ज्ञान,
ध्यान, अवेयरनेस—वह
भोजन है आला
का। अभी तक
तुमने शरीर को
ही खिलाया—पिलाया;
आत्मा
तुम्हारी
भूखी मर रही
है। आत्मा
तुम्हारी
अनशन पर पड़ी
है जन्मों से;
शरीर
परिपुष्ट हो
रहा है, आत्मा
भूखी मर रही
है।
ज्ञान
अन्न है आत्मा
का। तो जितने
तुम जाग्रत हो
सको, ज्ञानपूर्ण
हो सको—ज्ञान
का मतलब
पांडित्य
नहीं है, ज्ञान
का अर्थ है:
होश—जितने तुम
जाग्रत हो सको,
तुरीय
जितना तुममें
सघन हो सके, तुम जितने
होशपूर्ण और
विवेकपूर्ण
हो सको, उतनी
ही तुम्हारी
आत्मा में
जीवनधारा
दौड़ेगी।
तुम्हारी
आत्मा करीब—करीब
सूख गयी है।
उसको तुमने
भोजन ही नहीं
दिया। तुम भूल
ही गये हो कि
उसको भोजन की
कोई जरूरत है।
शरीर
तुम्हारा
भोजन कर रहा
है, आआ
उपवासी है।
इसलिए अनेक
धर्मों ने
उपवास का
उपयोग किया।
शरीर को उपवास
कराना थोड़े
दिन और आत्मा
को भोजन दो।
विपरीत करो
प्रक्रिया को;
लेकिन
जरूरी नहीं है
कि तुम शरीर
को भूखा मारो।
शरीर को उसकी
जरूरत दो; लेकिन,
तुम्हारे
जीवन की सारी
चेष्टा शरीर
को भरने में
ही पूरी न हो
जाये।
तुम्हारे
जीवन की
चेष्टा का बड़ा
अंश ज्ञान को
जन्माने में
लगे; क्योंकि,
वही
तुम्हारी
आत्मा का भोजन
है। ज्ञान ही
अन्न है।
विद्या
के संहार से स्वप्न
पैदा होता है।
और, अगर
यह ज्ञान
तुम्हारे भीतर
न गया और
तुम्हारे
भीतर की
ज्योति को ईधन
न मिला तो फिर
तुम्हारे
जीवन में स्वप्न
पैदा होते हैं।
तब तुम्हारे
जीवन में
वासनाएं पैदा
होती हैं। तब
तुम्हारा
जीवन अंधेरे
में भटकता है।
तब तुम कल्पना
में जीते हो।
तब तुम तृष्णा
में जीते हो।
तब बस तुम
सोचते ही रहते
हो।
मैंने
मुल्ला
नसरुद्दीन से
पूछा कि इस
वर्ष कहां
जाने के इरादे
हैं; क्योंकि
अक्सर वे
यात्रा पर
जाते हैं। तो
उन्होंने कहा
कि मैं तीन
वर्ष में एक
ही बार यात्रा
पर जाता हूं।
मैने पूछा, 'तो बाकी दो
वर्ष क्या
करते है?' तो
उन्होंने कहा,
'एक वर्ष तो
पिछली यात्रा
जो की, उसको
सोचने में, उसका रस
लेने में
बिताते हैं।
और एक वर्ष
अगली यात्रा
की योजना
बनाने में बिताते
हैं।’
फिर भी
मुल्ला
नसरुद्दीन कम—से—कम
तीन साल में
एक बार यात्रा
पर जाते हैं, तुम एक
बार भी नहीं
गये।
तुम्हारा आधा
जीवन अतीत के
सोचने में
जाता है और आधा
भविष्य को
सोचने में; यात्रा तो
कभी शुरू ही
नहीं होती। या
तो तुम स्मृति
में भटकते
रहते हो, जो
कि स्वप्न
है मरा हुआ और
या तुम कल्पना
में भटकते
रहते हो, जो
कि स्वप्न
है भविष्य का,
जो अभी
जन्मा नहीं है।
तुम दोनों में
कटे हो और
मध्य में है
वर्तमान—वहां है
जीवन; उससे
तुम वंचित रह
जाते हो।
ज्ञान
तुम्हें
जगायेगा— अभी
और यहीं, इसी क्षण के
प्रति। ज्ञान
तुम्हें
वर्तमान में
लायेगा, अतीत
खो जायेगा; खो ही गया है,
तुम व्यर्थ
ही उस राख को
ढो रहे हो।
भविष्य अभी
आया नही; तुम
उसे ला भी
नहीं सकते। जब
आयेगा, तब
आयेगा। वर्तमान
अभी मौजूद है।
जो मौजूद है, वही सत्य है।
स्वप्न का
अर्थ है. जो
मौजूद नहीं है,
उसमें
भटकना।
यह
सूत्र ध्यान
रखना—विद्या
के संहार से स्वप्न
पैदा होते है।
जब तुम्हारे
भीतर ज्ञान
नहीं होता, आत्मा
जाग्रत नहीं
होती, तो
तुम सपनों में
खोते हो। अतीत
और भविष्य सब
कुछ हो जाते
हैं, वर्तमान
ना—कुछ और, वर्तमान
ही सब कुछ है।
जैसे—जैसे तुम
जागोगे, वैसे—वैसे
अतीत कम, भविष्य
कम, वर्तमान
ज्यादा होगा।
जिस दिन तुम
पूरे जागोगे,
उस दिन
सिर्फ
वर्तमान रह
जाता है। उस
दिन न कोई
भविष्य है, न कोई अतीत
है। और जब
अतीत नहीं, भविष्य नहीं,
तो चित्त के
सारे रोग, सारी
पुनरुक्तियां,
सारे
वर्तुल नष्ट
हो जाते हैं।
तब तुम यहां
हो—शुद्ध, निर्मल,
निर्दोष, ताजे; जैसे
सुबह की ओस।
तब तुम यहां
हो—जैसे कमल
का फूल। इस
क्षण में अगर
तुम पूरे—पूरे
मौजूद हो जाओ,
तो तुम
परमात्मा हो।
इस
क्षण में तुम
बिलकुल मौजूद
नहीं हो; इसलिए तुम
शरीर हो, मन
हो; लेकिन
आत्मा नहीं।
ध्यान सिर्फ
इसी बात की
चेष्टा है कि
तुम्हें
खींचकर अतीत
से यहां ले
आये, भविष्य
से खींच कर
यहां ले आये।
तुम न तो आगे
जाओ, न
पीछे जाओ; तुम
यहीं खड़े हो
जाओ। यहीं, अभी, इसी
क्षण में
परिपूर्ण रूप से
शांत, सजग
होकर खड़े हो
जाना ध्यान है।
उससे ही
विद्या का
जन्म है। उससे
ही तुम्हें
जीवन का चरम
उत्कर्ष और
जीवन की चरम
समाधि और आनंद
उपलब्ध होगा।
उसे जिसने
खोया, सब
खोया। उसे जो
पा लेता है, वह सब पा
लेता है।
आज
इतना ही।
Mahan sutra..
जवाब देंहटाएंTremendous
जवाब देंहटाएंAmazing
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