ओशो
(ओशो
द्वारा लाओत्से
के ‘ताओ तेह
किंग’पर
दिए गये 127 अमृत प्रचवनों
में से 21 (86 से 106)
(छियासी से एकसौछ)
यदि
ओशो की ऋतंभरा
प्रज्ञा
लाओत्से के
रहस्यम सूत्रो
को प्रकाशित
नहीं करती तो
वर्तमान युग
ताओ की अकूत
संपदा से
वंचित रह
जाता। हमने
लाओत्से का
नाम ही तब
सुना जब ओशो
उसका हाथ
पकड़कर अपने
दरबार में ले
आये और उसे
उच्चतम आसन
पर प्रतिष्ठित
कर दिया। यहां
तक कि अपने
आवास का नाम
भी उन्होने ‘लाओत्से
हाउस’ ही
रखा।
ओशो को
लाओत्से के
प्रति इतनी
आत्मीयता क्यों
रही होगी?
अब वैसे तो
रहस्यदर्शी
के रहस्यों
में कौन उत्तर
सकता है। रहस्यदर्शी
को सीधे समझ
पाना तब तक
संभव नहीं है।
जब तक हम
उसमें पूरी
तरह घूल
मिल न जाये।
पूर्ण एक रस
होकर...एक अनछूआ
से छूकर...को
गीत काम में कहता
हे। जैसे नमक
सागर में विलिन
हो जाता है।
ओशो और
लाओत्से की
इस मधुर समस्वरता
में आपका स्वागत्म
है। अगर लाओत्से
से पूछें तो
वह इस घटना का
वर्णन करेंगे—जहां
स्वर्ग और
पृथ्वी का
आलिंगन होता
है वहीं मीठी
वर्षा होती है।
आत्म-ज्ञान
ही सच्चा
ज्ञान है—(प्रवचन—छियासीवां)
अध्याय
48
निष्क्रियता
के द्वारा विश्व-विजय
ज्ञान
का
विद्यार्थी
दिन ब दिन
सीखने का आयोजन
करता है;
ताओ
का
विद्यार्थी
दिन ब दिन
खोने का आयोजन
करता है।
निरंतर
खोने से
व्यक्ति
निष्क्रियता
(अहस्तक्षेप)
को उपलब्ध
होता है;
नहीं
करने से सब
कुछ किया जाता
है।
जो
संसार जीतता
है,
वह अक्सर
नहीं कुछ करके
जीतता है।
और
यदि कुछ करने
को बाध्य किया
जाए,
तो
संसार उसकी
जीत के बाहर
निकल जाता है।
एक
ज्ञान है जो
सीखने से
मिलता है, और
एक ऐसा भी
ज्ञान है जो
भूलने से
मिलता है। एक
ज्ञान है जो
दौड़ने से
मिलता है, और
एक ऐसा भी
ज्ञान है जो
रुक जाने से
मिलता है। एक
ज्ञान है जिसे
पाने के लिए
महत यात्रा
करनी पड़ती है,
और एक ज्ञान
है जिसे पाने
के लिए केवल
अपने भीतर
झांक कर देखना
काफी है।
जो
ज्ञान श्रम से
मिलता है वह
ज्ञान बाहर का
होगा। आखिरी
अर्थों में
उसका कोई भी
मूल्य नहीं; आखिरी
मंजिल पर दो कौड़ी भी
उसका अर्थ
नहीं। अंतिम
अर्थों में तो
जो अपने ही
भीतर पाया है
वही मूल्यवान
होगा।
क्योंकि जो
ज्ञान हम बाहर
से पाते हैं
उससे हम स्वयं
को न जान
सकेंगे। और
जिस ज्ञान से
स्वयं का
जानना न हो वह
ज्ञान नहीं है,
केवल
अज्ञान को
छिपाने का
उपाय है।
पांडित्य से
प्रज्ञा
उभरती नहीं है,
सिर्फ छिप
जाती है, ढंक
जाती है। एक
तो ज्ञान है
खुले आकाश
जैसा, जहां
एक भी बादल
नहीं है। और
एक ज्ञान है, आकाश बादलों
से भरा हो, जहां
सब आच्छादित
है।
मनुष्य
की आत्मा आकाश
जैसी है। न
कहीं गई; न
कहीं जाने को
कोई जगह है। न
कहीं से आई; न कहीं से आ
सकती है। आकाश
की तरह है; सदा
है, सदा से
थी, सदा
होगी। कोई समय
का, कोई
स्थान का सवाल
नहीं। तुमने
कभी पूछा, आकाश
कहां से आया? कहां जा रहा
है? आकाश
अपनी जगह है।
आत्मा भी अपनी
जगह है। आत्मा
यानी भीतर का
आकाश।
पर
आकाश में भी
बदलियां
घिरती हैं, वर्षा
के दिन आते
हैं, आकाश
आच्छादित हो
जाता है। कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ता; उसकी
नीलिमा
बिलकुल खो
जाती है। उसकी
शून्यता का
कोई दर्शन
नहीं होता। सब
तरफ घने बादल
घिर जाते हैं।
ऐसे ही चेतना
के आकाश पर भी
स्मृति के
बादल घिरते
हैं, विचार
के, ज्ञान
के--जो बाहर
अर्जित किया
हो। और जब
बादल घिर जाते
हैं तो भीतर
की नीलिमा का
भी कोई पता
नहीं चलता; भीतर की
शून्यता
बिलकुल खो
जाती है। भीतर
का विराट
क्षुद्र
बदलियों से
ढंक जाता है।
एक तो
ज्ञान है
बदलियों की
भांति जिसे
तुम दूसरों से
प्राप्त
करोगे, जिसे
तुम किसी से सीखोगे।
शास्त्र से, समाज से, संस्कार
से तुम उसे
संगृहीत
करोगे। जितना
संग्रह बढ़ता
जाएगा, जितना
पांडित्य घना
होगा, उतना
ही भीतर का
आकाश ढंक
जाएगा। उतने
ही तुम भटक
जाओगे। जितना जानोगे
उतना भटकोगे।
इसलिए
तो ईसाइयों की
कहानी है कि
जिस दिन अदम ने
ज्ञान का फल
चखा उसी दिन
वह स्वर्ग से, बहिश्त
से बाहर कर
दिया गया। वह
इसी ज्ञान की
बात है जो
बाहर से मिलता
है। वह फल
बाहर से चख
लिया था। वह
बाहर के बगीचे
का फल था। उसे
चखते ही अदम
को क्या हुआ?
ईसाई
कहते हैं कि
अदम पापी हो
गया। अगर
लाओत्से से
तुम पूछते, या
मुझसे पूछो तो
मैं कहूंगा, अदम पंडित
हो गया। और
कहानी का ठीक
अर्थ यही है।
क्योंकि
ज्ञान के फल
के खाने को
पाप से क्या
संबंध है? ज्ञान
के फल को खाकर
कोई पंडित
होगा; पापी
कैसे हो जाएगा?
अदम पंडित
हो गया।
जैसे
ही पंडित हुआ, बहिश्त
से बाहर फेंक
दिया गया।
जानने वालों की,
प्रकृति की
निर्मलता में
कोई भी जरूरत
नहीं है।
जानने वाले का
अहंकार उस
मुक्त आकाश
में नहीं ठहर
सकता। बहिश्त
का अर्थ है, जहां आनंद
का झरना सदा
बह रहा है; जहां
आनंद कभी
चुकता नहीं, खंडित नहीं
होता। जैसे ही
पांडित्य हुआ,
बादल घिर गए;
आकाश से
संबंध टूट
गया। एक ही
पाप है, और
वह पांडित्य
है। ईसाई भी
ठीक ही कहते
हैं कि उसने
पाप किया।
क्योंकि एक ही
पाप है, वह
अपने को भूल
जाना है। इसे
थोड़ा समझ लो।
तब लाओत्से के
वचन बहुत साफ
हो जाएंगे, स्फटिक की
तरह स्पष्ट और
पारदर्शी हो
जाएंगे।
एक ही
पाप है, और वह
पाप है अपने
को भूल जाना।
और अपने को
भूलने का एक
ही ढंग है: और
दूसरी चीजों
को याद करने
में लग जाना।
फिर जगह ही
नहीं बचती अपने
को याद करने
की। हजार
चीजें याद हो
जाती हैं; एक
चीज भूल जाती
है। और हजारों
की भीड़ में
कहां
तुम्हारा पता
चलता है!
बाजार की भीड़
है; आंकड़ों का फैलाव
है। चारों तरफ
बादल ही बादल
हो जाते हैं।
जानते तुम
बहुत हो, लेकिन
भीतर तुम
अंधेरे बने
रहते हो।
जिस
जानने से
स्वयं न जाना
जा सके उसे
लाओत्से
ज्ञान नहीं
कहता। वह
ज्ञान का भ्रम
है,
आभास है।
जिस जानने से
स्वयं को जाना
जा सके उसे ही
लाओत्से
ज्ञान कहता
है। वही ताओ
है, वही ऋत
है, वही
धर्म है।
और इस
जगत में या तो
तुम स्वयं को जान
सकते हो, और या
फिर शेष सबको
जान सकते हो।
क्योंकि दोनों
के आयाम
अलग-अलग हैं।
जो स्वयं को
जानता है उसे
भीतर की तरफ मुड़ना
पड़ता है। जो
और कुछ जानना
चाहता है
स्वयं को छोड़
कर, उसे
भीतर की तरफ
पीठ कर लेनी
पड़ती है।
स्वभावतः, अगर
तुम्हें मुझे
देखना है तो
मैं स्वयं को
कैसे देख
सकूंगा? तुम्हें
देखना है तो
मेरी आंखों
में तुम भर जाओगे,
तुम्हारा
बादल मेरी
आंखों में तैरेगा।
और अगर मुझे
स्वयं को
देखना है तो
मुझे तुम्हारी
तरफ से आंख
बंद कर लेनी
पड़ेगी।
संन्यासी
का अर्थ है, जिसने
और को देखने
से आंख बंद कर
ली। संन्यासी
का अर्थ है, जिसने और
कुछ सीखने से
आंख बंद कर
ली। संन्यासी
का अर्थ है कि
जिसने संकल्प
किया कि जब तक
अपने को नहीं
जान लेता तब
तक और कुछ
जानने का मूल्य
भी क्या है? सब भी जान
लूंगा, और
मेरे भीतर
अंधेरा होगा,
तो उस
प्रकाश का
क्या सार है? चारों तरफ
जलते हुए दीए
होंगे, दीवाली
होगी चारों
तरफ, और
मेरे भीतर
अंधेरा होगा,
तो उस
दीवाली से
मुझे क्या लाभ
होगा?
जीसस
ने पूछा है कि
तुमने सारा
संसार भी जीत
लिया और अपने
को गंवा बैठे
तो इस जीत का
क्या अर्थ है।
लेकिन
जैसे ही बच्चा
पैदा होता है
वैसे ही हम उसे
सिखाने में लग
जाते हैं।
उसके कोमल से
मन पर, उसके
अबोध मन पर, उसके
खुले-नीले
आकाश पर हम
स्मृति की
पर्तें रखने
लगते हैं।
संसार में
उनकी
उपादेयता है,
उपयोगिता
है। गणित है, भाषा है, भूगोल
है, इतिहास
है, यह सब
उसे सीखना है।
क्योंकि इनको
सीख कर ही वह
समाज का
हिस्सा हो
सकेगा। और उसे
समाज का
हिस्सा होने
के लिए हमें
तैयार करना है।
इसलिए
विद्यालय हैं,
विश्वविद्यालय
हैं, चारों
तरफ शिक्षण की
बड़ी दूकानें
हैं, जहां
सिखाया जा रहा
है।
और
सीखते-सीखते
आदमी इतना सीख
गया है, और
इतना संग्रह
ज्ञान का हो
गया है कि एक
आदमी सीखना भी
चाहे अपने
जीवन में तो
सीख नहीं पा
सकता; हमेशा
अधूरा लगता
है। क्योंकि
सदियों से आदमी
ज्ञान का
संग्रह कर रहा
है।
सत्तर-अस्सी
साल की जिंदगी
में तुम उस
पूरे संग्रह
को कैसे आत्मसात
कर पाओगे? इसलिए
हमेशा कमी
लगती है। और
आगे, और
आगे यात्रा
करने के लिए
जगह खुली रहती
है। आदमी दौड़ता
चला जाता है, दौड़ता चला जाता
है। और
धीरे-धीरे
जितना बाहर के
ज्ञान में
जाता है उतना
ही अपने से
दूर निकल जाता
है।
फिर
लौटने का एक
ही उपाय है कि
वह उस ज्ञान
को छोड़ दे। और
यह सर्वाधिक
कठिन बात है।
धन को छोड़ना
आसान है, क्योंकि
धन बाहर ही
है। तिजोड़ी
छोड़ कर भाग गए
तो तिजोड़ी
तुम्हारा
पीछा न करेगी।
पति, पत्नी,
बच्चे छोड़े
जा सकते हैं।
वे भी बाहर
हैं। थोड़े-बहुत
दिन तुम्हारी
याद करेंगे, फिर भूल
जाएंगे। कौन
किसकी याद सदा
करता है? नये
संबंध बना
लेंगे, नये
प्रेम का
संसार बन
जाएगा। घाव
थोड़े दिन हरा
रहेगा, फिर
भर जाएगा। समय
सभी घावों को
भर देता है।
तुम भाग गए तो
तुम्हारे लिए
कोई सदा थोड़े
ही रोता बैठा
रहेगा।
पति-पत्नी
को भी छोड़ा जा
सकता है, लेकिन
ज्ञान को कहां
छोड़ जाओगे? जहां जाओगे,
ज्ञान
तुम्हारे साथ
है, क्योंकि
ज्ञान की तिजोड़ी
भीतर है। वह
तुम्हारे
मस्तिष्क में
है; वह
स्मृति है।
इसलिए
ज्ञान को
छोड़ना सबसे
बड़ा त्याग है, महा
कठिन। ध्यान
उसी का तो
प्रयोग है।
ध्यान कोई
ज्ञान नहीं है;
ध्यान
ज्ञान को
छोड़ने की
प्रक्रिया
है। कैसे तुम्हारी
स्मृति रिक्त
और खाली हो
जाए, शून्य
हो जाए, कैसे
तुम भीतर फिर
से उस आकाश को
पा लो जिसे लेकर
तुम पैदा हुए
थे, जो कि
तुम्हारा
स्वभाव है; उसी को
लाओत्से ताओ
कहता है। ताओ
यानी स्वभाव,
जिसे तुम
लेकर ही पैदा
हुए थे। और
जिसे तुम दबा
सकते हो, खो
नहीं सकते; जिसे तुम
भूल सकते हो, मिटा नहीं
सकते; क्योंकि
तुम ही हो, तुमसे
भिन्न नहीं है
वह। जिसे
तुम्हें
खोजना ही होगा।
और जितना तुम
इसे दबाओगे,
उतनी ही तुम
पीड़ा से भर
जाओगे।
क्योंकि जो
अपने से ही
दूर निकल गया,
जो अपने से
ही अजनबी हो
गया, उसकी
पीड़ा का तुम
हिसाब नहीं
लगा सकते। वही
सबसे बड़ा
संताप है इस
जगत में: अपने
से अजनबी हो जाना।
तुमने
कभी खयाल किया, तुम्हारी
पत्नी तुमसे
थोड़ी दूर हो
जाती है--किसी
आवेग में, किसी
क्रोध में, किसी रोष
में--ऐसा लगने
लगता है कि
पत्नी भी अजनबी
है। तब तुम
कैसा खाली
अनुभव करते
हो! एक दिन
तुम्हारे
बच्चे बड़े हो
जाएंगे, पढ़ेंगे-लिखेंगे;
तुम्हारे
घोंसले को छोड़
कर उड़ जाएंगे।
उनकी अपनी
यात्रा है। उस
दिन तुम्हें
कैसी पीड़ा
होगी--बच्चे
भी अजनबी हो
गए!
लेकिन
यह तो अजनबीपन
कुछ भी नहीं
है। जिस दिन तुम्हें
यह समझ में
आएगा कि पत्नी
तो पराई थी, अगर
दूर भी हो गई
तो भी क्या; बच्चे हमसे
पैदा हुए थे, लेकिन फिर
भी हमारे तो
नहीं थे, आए
तो प्रकृति के
किसी दूर
स्रोत से थे, चले गए; लेकिन
जब तुम्हें
खयाल आएगा कि
तुम खुद से ही अजनबी
हो, तुम्हारी
अपने से ही
अपनी पहचान
नहीं है, अपना
चेहरा ही
तुमने अब तक
नहीं देखा, तुम अपने से
ही दूर पड़ गए
हो, तब जो
घाव लगता है, वही घाव
व्यक्ति को
धार्मिक
बनाता है। जिस
दिन तुम जानते
हो कि मैं
अपने से ही
दूर हो गया
हूं, अपने
से ही भटक गया
हूं, अपना
ही पता-ठिकाना
नहीं मिलता है
कि मैं कौन हूं,
क्या हूं, कहां से हूं,
कहां जा रहा
हूं, जिस
दिन तुम इस
असहाय और
संताप के क्षण
में भर जाते
हो, जिस
दिन तुम्हारा
जीवन सिर्फ एक
घाव मालूम पड़ता
है, उसी
दिन तुम्हारे
जीवन में धर्म
की शुरुआत
होती है। उस दिन
तुम क्या
करोगे? उस
दिन कैसे तुम
अपने को पाओगे?
तो मैं
तुम्हें एक
बुद्ध की छोटी
सी कहानी कहूं।
बुद्ध एक
सुबह-सुबह, जैसे तुम आज
मेरी
प्रतीक्षा कर
रहे थे ऐसे
बुद्ध के
भिक्षु उनकी
प्रतीक्षा कर
रहे थे। बुद्ध
आए, वे बैठ
गए अपने वृक्ष
के नीचे। लोग
थोड़े चकित थे,
क्योंकि
हाथ में वे एक
रेशम का रूमाल
लिए थे। ऐसा
कभी न हुआ था।
वे उस रूमाल
को देखते रहे
और फिर
उन्होंने
रूमाल में
पांच गांठें
लगाईं।
भिक्षु अवाक
होकर देखते
रहे कि वे
क्या कर रहे
हैं। गांठें
लग जाने पर
उन्होंने कहा
कि मैं तुमसे
एक सवाल पूछता
हूं। वह सवाल
यह है कि जब इस
रूमाल में
गांठ न लगी थी
तब और अब जब कि गांठें लग
गईं कोई फर्क
है या नहीं? यह रूमाल
वही है कि
दूसरा?
एक
भिक्षु ने खड़े
होकर कहा कि
आप हमें
व्यर्थ की
उलझन में डाल
रहे हैं। समझ
गए हम आपकी
चाल। अगर
कहेंगे कि वही, तो
आप कहेंगे कि
पांच गांठें
नई हैं ये।
अगर हम कहें
कि नया, तो
आप कहेंगे, इसमें नया
क्या है, वही
का वही रूमाल
है। गांठ लगने
से क्या होता है?
रूमाल के
स्वभाव में तो
कोई फर्क नहीं
हुआ। रूमाल तो
वही है, धागा-धागा
वही है, ताना-बाना
वही है, रंग-ढंग
वही है, कीमत
वही है। गांठ
लगने से क्या
होता है? और
हम अगर कहें
कि बदल गया तो
आप ऐसा
कहेंगे। और हम
अगर कहें कि
रूमाल वही है
तो आप कहेंगे,
वही कैसे हो
सकता है? इसमें
पांच गांठें
नई लग गई हैं!
और पहले रूमाल
में तुम कुछ
चीज-बसद
बांध लेते, अब तो न बांध
सकोगे। पहले
तो इस रूमाल
से सिर को ढांक
लेते, अब
तो न ढांक
सकोगे। इस
रूमाल का
गुणधर्म बदल
गया, इसका
उपयोग बदल
गया। तो उस
भिक्षु ने कहा
कि आप हमें
व्यर्थ की
तर्क की उलझन
में मत डालें।
आपका प्रयोजन
क्या है?
बुद्ध
ने कहा कि यही
मनुष्य का
स्वभाव है।
ज्ञान की
कितनी ही गांठें
लग जाएं, एक
अर्थ में तो
तुम वही रहते
हो जो तुम सदा
से थे, लेकिन
एक अर्थ में
तुम बिलकुल
बदल जाते हो, क्योंकि
ज्ञान की हर
गांठ
तुम्हारे
सारे उपयोग को
नष्ट कर देती
है। चेतना का
एक ही उपयोग है,
और वह उपयोग
आनंद है।
जैसे-जैसे गांठें
लग जाती हैं, बंधन पड़
जाता है, पैर
में जंजीरें
अटक जाती हैं,
आनंद खो
जाता है; तुम
कारागृह में
पड़ जाते हो।
कारागृह
में पड़े कैदी
में और
कारागृह के
बाहर मुक्त
व्यक्ति में
क्या फर्क है? व्यक्ति
तो वही का वही
है। तुम बाहर
हो, कल कोई हथकड़ियां
डाल कर
तुम्हें जेल
में डाल दे।
क्या फर्क है?
तुममें कोई
भी तो फर्क
नहीं हुआ।
सिर्फ गांठ लग
गई रूमाल में।
अब तुम्हारी
उपयोगिता बदल
गई। खुला आकाश
खो गया। अब
तुम मुक्त
नहीं हो; पंख
जब चाहो तब न
खोल सकोगे। गांठें पड़
गईं।
तो
बुद्ध ने कहा, मैं
तुम्हें यह
बताना चाह रहा
हूं कि तुम एक
अर्थ में तो
वही हो, जो तुम
सदा से थे।
क्योंकि
ज्ञान की गांठें
क्या मिटा
पाएंगी? और
ज्ञान की गांठ
पानी पर खींची
लकीर जैसी है।
लेकिन फिर भी
सब बदल गया।
तुम दूसरे हो
गए हो; बिना
दूसरे हुए
दूसरे हो गए
हो। यही पहेली
है।
इसी को
तो कबीर
बार-बार कहते
हैं,
एक अचंभा
मैंने देखा।
वह इसी अचंभे
की बार-बार
बात करते हैं
कि जो कभी
नहीं बदल सकता
वह बदल गया
है। एक अचंभा
मैंने देखा।
जिस पर कोई
गांठ नहीं लग
सकती थी, गांठ
लग गई।
आकाश--विराट
आकाश--को
क्षुद्र बदलियों
ने घेर लिया।
इतना बड़ा
हिमालय पर्वत,
और आंख में
एक किरकिरी पड़
गई, और खो
गया।
तो
बुद्ध ने कहा, इसलिए।
और दूसरी एक
बात और कही।
कहा कि मैं इन गांठों को
खोलना चाहता
हूं। और रूमाल
के दोनों छोर
पकड़ कर खींचे।
एक
आदमी ने खड़े
होकर कहा कि
यह आप क्या कर
रहे हैं! अगर
इस तरह खींचेंगे
तो गांठ और
बारीक होती जा
रही है। और
गांठ जितनी
बारीक हो
जाएगी, उतना
खोलना
मुश्किल है।
आप खींचिए
मत। खोलने के
लिए खींचना
रास्ता नहीं
है। इससे तो
खोलना
मुश्किल ही हो
जाएगा। गांठ
छोटी होती जा
रही है।
जितना
तुम्हारा
ज्ञान
सूक्ष्म होता
जाता है उतनी
गांठ छोटी
होती जाती है, फिर
उतना ही खोलना
मुश्किल हो
जाता है।
इसीलिए तो मैं
कहता हूं, कभी-कभी
पापी भी पहुंच
जाते हैं
परमात्मा तक,
पंडित नहीं
पहुंचता।
पापी की गांठ
बड़ी मोटी है--किसी
की चोरी कर ली,
किसी को
धोखा दे दिया,
किसी की जेब
काट ली--पापी
की गांठ बड़ी
मोटी है। जेब
में ही कुछ
नहीं था, काटने
में क्या हो
जाएगा? जेब
में दो रुपए
पड़े थे; काटना
भी दो रुपए से
ज्यादा का तो
नहीं हो सकता।
दुकानदार की
कीमत कितनी थी,
जिससे कि
लुटेरे की
कीमत ज्यादा
हो जाएगी। दुकानदार
के पास कुछ
नहीं था; लुटेरा
उस कुछ नहीं
को लूट कर घर
ले आया। गांठ बड़ी
मोटी है।
जिनको तुम
कारागृह में
बंद किए हो
उनकी गांठें
बड़ी मोटी हैं;
जरा से
इशारे से खुल
जाएंगी। कभी
कारागृह में जाकर
देखो, अपराधी
तुम्हें बड़े
सरल और सीधे
मालूम पड़ेंगे।
उनसे सीधे
जिनके खिलाफ
उन्होंने
अपराध किया
है। उनकी गांठें
बड़ी मोटी हैं,
सस्ती हैं।
लेकिन
पंडित की गांठ
बड़ी सूक्ष्म
है। मैंने अब
तक कोई पंडित
नहीं देखा जो
सरल हो, जो
निर्दोष हो। न
उसने हत्या की
है, न किसी
की चोरी की है;
तुम उसे
कानून में
नहीं पकड़
सकते। कानून
की दृष्टि में
उसने कभी किसी
को कोई नुकसान
नहीं पहुंचाया
है। वह अपनी
किताब में
उलझा रहा।
फुरसत भी नहीं
है उसे कानून
को तोड़ने की।
लेकिन उसने
प्रकृति के गहनतम
कानून को तोड़
डाला है। उसने
परमात्मा के
नियम के
विपरीत जाने
की कोशिश की
है; उसने
ज्ञान का फल
चखा है। वह
बड़ा सूक्ष्म
है। वह ऊपर से
बाहर से उसने
किसी के खिलाफ
कुछ नहीं किया
है; समाज
के विपरीत
उसने कुछ भी
नहीं किया है।
जो भी किया है,
अपने ही
विपरीत किया है,
और अपने
परमात्मा के
विपरीत किया
है। वह बिलकुल
सूक्ष्म है।
वह सूक्ष्मता
क्या है?
उसने
सीख-सीख कर
ज्ञानी बनने
की कोशिश की
है। जब कि
ज्ञानी तुम
पैदा हुए थे।
सीखने को कुछ
प्रकृति ने
छोड़ा नहीं है।
परमात्मा ने
तुम्हें पाने
को कुछ छोड़ा
नहीं, सभी
दिया हुआ है। तुम
पूरे के पूरे
पैदा किए गए
हो। तुम
परिपूर्ण हो।
ऐसा होगा भी, क्योंकि
परिपूर्ण
परमात्मा से
अपूर्ण का जन्म
कैसे हो सकता
है? और अगर
अपूर्ण का
जन्म होता है
तो परमात्मा
परिपूर्ण
नहीं हो सकता।
कहावत
है गांव में
कि बाप को
जानना हो तो
बेटे को जान
लो। बेटे को
जानने से बाप
का पता चल
जाता है।
दूसरी कहावत
है कि फल को
चखने से वृक्ष
का पता चल
जाता है।
तुम फल
हो। तुम्हारा
स्वाद ही
परमात्मा का
स्वाद होगा।
क्योंकि
उसमें ही तुम
लगे हो। वह तुम्हारी
जड़ है। तुम
बेटे हो; वह
तुम्हारा
पिता है। अगर
तुम अपूर्ण हो
तो वह पूर्ण
नहीं हो सकता।
और अगर वह
पूर्ण है तो
तुम्हारी अपूर्णता
कहीं भ्रांति
है; कहीं
तुमने कुछ गलत
समझ लिया, सोच
लिया। तुम
पूर्ण ही पैदा
हुए हो। पूर्ण
से पूर्ण ही
पैदा होता है।
शुद्ध से
शुद्ध का ही जन्म
होता है।
अन्यथा नहीं
हो सकता। कोई
उपाय नहीं है
अन्यथा होने
का।
पंडित
यही सूक्ष्म
पाप कर रहा
है। वह उस
ज्ञान को खोज
कर अपने में
भर रहा है
जिसको कि लेकर
ही आया था।
तुम
ऐसे हो कि
तुम्हारे
भीतर तो
हीरे-जवाहरात भरे
हैं और तुम
बाहर सड़क के
किनारे कंकड़-पत्थर
बीन कर ढेर
लगा रहे हो।
तुम्हारी
गरीबी
तुम्हारी
मान्यता में
है। परमात्मा
को पाना हो तो
सिर्फ इस
मान्यता को
तोड़ देने की
जरूरत है।
परमात्मा को
पाने का अर्थ
है: इस उदघोष
से भर जाना कि
मैं परमात्मा
सदा से हूं।
कुछ और करने
की जरूरत नहीं
है। वेद और
उपनिषद कंठस्थ
करने की जरूरत
नहीं है। उनको
कंठस्थ करके
तुम कचरा ही
कंठस्थ कर
लोगे। शब्द
में सार नहीं
है। जो भी तुम
सीख लोगे वही
तुम पाओगे
कचरा है।
सीखने की बात
नहीं है।
कबीर
कहते हैं, लिखा-लिखी
की है नहीं, देखा-देखी
बात।
लिख-लिख
कर,
पढ़-पढ़ कर
क्या तुम
पाओगे? शब्दों
की जमात हो
जाएगी भीतर, भीड़ लग
जाएगी, पंक्तिबद्ध
शब्द खड़े हो
जाएंगे। तर्क
होंगे, सिद्धांत
होंगे। ज्ञान
बात और है। न
तो तर्क ज्ञान
है, न
सिद्धांत
ज्ञान है।
ज्ञान तो
तुम्हारा अंतर-बोध
है। किताब से
कैसे अंतर-बोध
जन्माओगे?
पी जाओ घोल
कर, तो भी
किताब
तुम्हारे
शरीर के भीतर
ही जाएगी, आत्मा
में नहीं
पहुंच जाएगी।
तुम्हारी
स्मृति
तुम्हारे शरीर
का हिस्सा है।
इसलिए
तो कोई आदमी
गिर पड़ता है
ट्रेन से, सिर
में चोट लग गई,
स्मृति खो
गई। कहीं
ट्रेन से
गिरने में
आत्मा को चोट
लगती है? किसी
ने सिर पर एक
लट्ठ मार दिया,
चोट खा गए, स्मृति खो
गई, सिर
चकरा गया।
स्मृति
तुम्हारे
शरीर का हिस्सा
है।
इसलिए
पश्चिम में
वैज्ञानिकों
ने रास्ते
निकाल लिए हैं।
रूस में और
चीन में उनका
उपयोग हो रहा
है कि कोई
आदमी अगर
कम्युनिस्ट-विरोधी
हो तो वे उसको
समझाते-बुझाते
नहीं हैं। वे
कहते हैं, यह
बहुत लंबी
प्रक्रिया है,
पिटी-पिटाई,
पुरानी, बैलगाड़ी के दिनों
की। इस जेट के
युग में जहां
हम चांद पर
पहुंच रहे हैं,
कहां बैलगाड़ी
की चाल चलो--कि
समझाओ इस आदमी
को कि तुम ठीक
नहीं हो, गलत
हो। सालों
इससे विवाद
करो, झंझट
खड़ी करो। और
फिर भी पक्का
भरोसा नहीं, किसी दिन
बदल जाए। तो
वे कहते हैं, इस झंझट में
हम नहीं पड़ते।
वे तो
मस्तिष्क को साफ
कर देते हैं, ब्रेन-वाश
कर देते हैं।
खोपड़ी में
बिजली लगा कर
तेजी से दौड़ा
देते हैं, बिजली
के तेजी से
दौड़ने से सब
अस्तव्यस्त
हो जाता है।
इलेक्ट्रिक
शॉक हम पागल
आदमी को देते हैं;
वे उनको
देते हैं जो
उनके विपरीत
हैं।
पागल
आदमी को
इलेक्ट्रिक
शॉक देने से
फायदा क्यों
होता है?
इसीलिए
फायदा हो जाता
है कि उसकी
स्मृति के तंतु
झनझना जाते
हैं,
उसकी याद खो
जाती है कि
मैं पागल हूं,
और पुराना
हिसाब धुंधला
हो जाता है।
बीच में एक
अंतराल आ जाता
है। वह फिर से
अ, ब, स
से शुरू करने
लगता है।
इसलिए जिसको
भी इलेक्ट्रिक
शॉक देते हैं,
उसका कुल
इतना प्रयोजन
है कि उसका
मस्तिष्क ऐसी
दशा में आ गया
है कि अब उसको
उसके
मस्तिष्क से
तोड़ लेना
जरूरी है। शॉक
में उसकी
आत्मा अलग हो
जाती है, मस्तिष्क
अलग हो जाता
है। थोड़ी देर
को ही, फिर
वापस जुड़ जाता
है, लेकिन
उतने में
अंतराल पड़
गया। बीच में
बाधा आ गई।
बीच में एक
दीवार खड़ी हो
गई। अब वह याद
न कर सकेगा।
लेकिन
चीन और रूस
में,
जो विपरीत
हैं साम्यवाद
के, उनको
वे बिजली के
शॉक दे देते
हैं।
स्मृति
खो जाती है।
बड़े से बड़ा
पंडित, बिजली
के शॉक दे दिए
जाएं, छोटे
बच्चे जैसा हो
जाता है। फिर
उसको अ, ब, स से सीखना
पड़ेगा। निरीह
हो जाता है; उसे कुछ याद
नहीं रहता। वह
अपनी शक्ल भी
आईने में नहीं
पहचान सकता, क्योंकि
पहचान के लिए
स्मृति जरूरी
है। कैसे पहचानोगे
कि यह मेरा ही
चेहरा है? याद
चाहिए कि हां,
ऐसा ही
चेहरा मेरा
पहले भी था; उन दोनों की
तुलना से ही पहचानोगे।
उसको फिर से
याद करना पड़ता
है।
मैं यह
कह रहा हूं कि
स्मृति तो
शरीर का हिस्सा
है,
आत्मा का
नहीं। इसलिए
शास्त्र तो
शरीर तक ही जा
सकते हैं, शब्द
भी शरीर तक जा
सकते हैं।
तुम्हारे कान
सुन रहे हैं; तुम्हारे
कान में मेरी
वाणी पड़ रही
है; तुम्हारे
कान से
तुम्हारी
स्मृति में जा
रही है।
तुम्हारी
स्मृति में
तुम चाहो तो
संगृहीत हो
सकती है; तुम
न चाहो तो वह
दूसरे कान से
बाहर निकल जा
सकती है।
लेकिन
तुम्हारी
आत्मा का कैसे
स्पर्श होगा
इन शब्दों से?
शब्द तो
पौदगलिक है, मैटीरियल है,
पदार्थ है।
पदार्थ का
पदार्थ से
संपर्क हो सकता
है। तुम्हारी
आत्मा तो पुदगल
नहीं है।
हम एक
पत्थर फेंकते
हैं आकाश में।
आकाश से टकरा
कर वापस नहीं
गिरता पत्थर; क्योंकि
आकाश और पत्थर
का मिलन नहीं
हो सकता। आकाश
शून्य है; पत्थर
पदार्थ है। एक
वृक्ष में
फेंको, तो
टकरा कर वापस
लौट आता है।
अगर आकाश में
फेंकते हो, वापस लौटता
है, तो
इसलिए नहीं कि
आकाश ने वापस
फेंक दिया; तुमने जितनी
शक्ति दी थी
फेंकते समय वह
चुक गई, तब
गिर जाएगा।
लेकिन आकाश से
टकराता नहीं।
अगर
आकाश से
टकराहट होती
तो तुम चल ही
नहीं सकते थे; चलना-फिरना
मुश्किल हो
जाता।
क्योंकि आकाश
की दीवार तो
चारों तरफ है।
हाथ हिलाना
मुश्किल हो
जाता। शब्द
जाता है, तुम्हारे
शरीर से
टकराता है, कंपित करता
है तुम्हारी
कान की
इंद्रिय को, स्मृति को
कंपित करता
है। चाहो तो
स्मृति में संगृहीत
हो सकता है, न चाहो तो
दूसरे कान से
वापस निकल
जाता है। लेकिन
तुम्हारी
आत्मा को थोड़े
ही कंपित करता
है!
और
इसको अगर
तुमने इकट्ठा
कर लिया तो
तुम बड़े पंडित
हो जाओगे। अदम
ने चखा होगा
एक फल; तुमने
पूरा वृक्ष
पचा लिया है।
लेकिन तुम इससे
ज्ञानी न हो
पाओगे।
ज्ञानी होने
का रास्ता तो
शब्द को भूलना
और शून्य में
उतरना है।
निशब्द की
यात्रा है
ज्ञान की
यात्रा।
यहां
तुम मेरे पास
अगर कुछ सीखने
आए हो तो तुम
गलत आदमी के
पास आ गए। तुम
देर मत करो, भाग
जाओ। क्योंकि
मैं यहां
तुम्हें कुछ
सिखाने को
नहीं हूं। मैं
कोई शिक्षक
नहीं हूं। शिक्षक
और गुरु का
यही फासला है।
शिक्षक
सिखाता है, गुरु भुलाता
है। शिक्षक
तुम्हारी
खोपड़ी पर
लिखता है, गुरु
साफ करता है।
शिक्षक
तुम्हारी
स्मृति को
भरता है, गुरु
तुम्हारी
स्मृति को
शून्य करता है,
रिक्त करता
है।
अगर
मेरे पास तुम
सीखने आए हो
तो गलत आ गए।
अगर मेरे पास
भूलने आए हो, अगर
सीख-सीख कर थक
गए हो इसलिए
आए हो, अगर
सीख-सीख कर
कुछ भी नहीं
पाया इसलिए आए
हो, तो तुम
ठीक आदमी के
पास आ गए। तो
फिर तुम्हारा मन
कितना भी
भागने को कहे,
भागना मत।
मन
कहेगा कि भाग
जाओ,
क्योंकि यह
आदमी मिटाए
डालता है।
कितनी मुसीबत
से सीखा था!
कितनी कठिनाई
से संस्कृत
पढ़ी! कितनी
रातें जागे!
कितना
मुश्किल से
कंठस्थ किया
वेदों को! और यह
आदमी मिटाए
डालता है, भाग
जाओ। लेकिन तब
तुम मन की इस
उत्तेजना से बचना
और रुके रहना।
क्योंकि
जिन्होंने भी
कुछ पाया
है--पाने
योग्य कुछ
पाया
है--उन्होंने
भूल कर पाया
है।
ये
शब्द भी मैं
उपयोग कर रहा
हूं,
और तुम्हें
बड़ी अड़चन भी
होती होगी कि
मैं शब्द के
खिलाफ हूं फिर
शब्द क्यों
बोले चला जाता
हूं! और मैं कहता
हूं सिखाया
नहीं जा सकता,
और रोज
तुमसे इस तरह
बात करता हूं
जैसे तुम्हें
कुछ सिखा रहा
हूं! इन
शब्दों का
उपयोग मैं वैसे
ही कर रहा हूं
जैसे कि
तुम्हारे पैर
में कांटा लग
जाए तो तुम
क्या करते हो?
तुम दूसरा
कांटा खोजते
हो, दूसरे
कांटे से तुम
पहले कांटे को
निकाल लेते हो।
मैं शब्द
तुम्हारे
भीतर पहुंचा
रहा हूं, इनसे
तुम्हारी
आत्मा न
बदलेगी; ये
शब्द कांटों
की तरह हैं, जो तुम्हारे
भीतर चुभे
कांटों के
शब्दों को
खींच ला सकते
हैं। बस इतना
ही हो सकता
है।
और
ध्यान रखना, जब
तुम पहले
कांटे को
निकाल लेते हो
दूसरे कांटे से
तो दूसरे
कांटे को
सम्हाल कर
नहीं रखते, उसकी कोई
पूजा नहीं
करते हो--कि
तेरी बड़ी कृपा,
कि तेरा बड़ा
अनुग्रह, कि
तेरे बिना
पहला कांटा न
निकलता। तुम
ऐसा नहीं करते
हो कि घाव में
दूसरे कांटे
को रख लेते हो
कि तुझे कैसे
अलग करें, अब
तो तू प्राणों
का प्राण है।
नहीं, तुम
दोनों को एक
साथ ही फेंक
देते हो।
कांटे तो
दोनों एक जैसे
हैं। जो गड़ा
था वह और
जिसने निकाला
वह, उन
दोनों में कोई
भी फर्क नहीं
है।
जिन
शब्दों को मैं
निकाल रहा हूं
और जिन शब्दों
से निकाल रहा
हूं,
उन दोनों में
कोई फर्क नहीं
है। तुम मेरे
शब्दों को
पूजना मत। तुम
मेरे शब्दों
को सम्हाल कर
मत रख लेना।
क्योंकि यह तो
बड़ी भूल हो
गई। एक कांटे
से निकले, दूसरे
से उलझ गए। एक
वेद से बचे तो
दूसरे वेद में
पड़ गए। जब
तुम्हारे
भीतर के शब्द
निकल जाएं तो
तुम इन्हें भी
फेंक देना; दोनों को
साथ ही विदा
कर देना।
तुम्हें
खाली करना
प्रयोजन है।
तुम्हें शून्य
बनाना लक्ष्य
है। अब तुम इन
शब्दों को
सुनो।
लाओत्से
से बड़ा ज्ञानी
नहीं हुआ है।
इसलिए लाओत्से
की बात को
बहुत समझ-समझ
कर,
जितने गहरे
तक इस कांटे
को तुम ले जा
सको, ले
जाना।
क्योंकि यह तुम्हारे
भीतर चुभे
गहरे से गहरे
कांटे को
निकालने में
समर्थ है।
लाओत्से बड़ा
कुशल है। इसकी
कुशलता बड़ी
अनूठी है।
अनूठी ऐसी है
कि इसकी
कुशलता कोई
क्रिया की
कुशलता नहीं
है; इसकी
कुशलता
अक्रिया की
है। वह हम आगे
समझने की
कोशिश
करेंगे।
"ज्ञान
का
विद्यार्थी
दिन ब दिन
सीखने का
आयोजन करता है;
ताओ का
विद्यार्थी
दिन ब दिन
खोने का। दि स्टूडेंट
ऑफ नालेज एम्स एट लघनग डे
बाइ डे; एंड
दि स्टूडेंट
ऑफ ताओ एम्स
एट लूजिंग
डे बाइ डे।'
कह रहा
है लाओत्से, दो
तरह के
विद्यार्थी
हैं। एक है
विद्यार्थी, वह ज्ञान का
विद्यार्थी
है, वह दिन
ब दिन सीखने
की कोशिश करता
है। रोज-रोज
ज्ञान को
बढ़ाता है।
उसके लिए
ज्ञान एक
संग्रह है। वह
अपने ज्ञान
में जोड़ता
जाता है; उसकी
संपत्ति बढ़ती
जाती है। वह
रोज-रोज ज्यादा
से ज्यादा
जानने लगता
है। जब वह
मरेगा तब उसके
पास बड़े ज्ञान
का भंडार
होगा।
लेकिन
वह खाली मरेगा।
वह खाली मरेगा, क्योंकि
उसे खाली होना
न आया। उसने
सारी जिंदगी
भरने की कोशिश
की, और
खाली मरेगा।
क्योंकि जो भी
उसने इकट्ठा
किया, वह
शरीर में रह
गया; वह
आत्मा तक तो
पहुंचता
नहीं। वह
खोपड़ी में रह
गया; खोपड़ी
तो यहीं पड़ी
रह जाएगी।
तुम्हारा
मस्तिष्क
यहीं पड़ा रह जाएगा।
अभी
तुम पढ़ते हो
कि खून का
बैंक है
अस्पतालों में
जहां तुम अपना
खून दान कर
देते हो। आंख
का बैंक है
जहां तुम अपनी
आंख दान कर
देते हो। अब हृदय
के भी बैंक
हैं जहां तुम
अपना हृदय दान
कर देते हो।
अब आगे का कदम
वे सोच रहे
हैं: मस्तिष्क
के बैंक। जहां
मरते वक्त तुम
अपना मस्तिष्क
भी दान कर
दोगे।
क्योंकि वह भी
साथ तो जाता नहीं।
चिता पर जल
जाता है; व्यर्थ
खराब हो जाता
है। सत्तर साल
मेहनत की, और
फिर आग में जल
गया। जैसे अभी
तुम खबरें पढ़ते
हो कि हृदय के ट्रांसप्लांटेशन
हो गए हैं, कि
हृदय को, एक
आदमी के हृदय
को दूसरे आदमी
के हृदय में
लगा दिया गया
है, अब वे
जल्दी इस बात
की कोशिश में
हैं कि एक आदमी
का मस्तिष्क
भी दूसरे आदमी
में लगा दिया
जाए। क्योंकि
क्यों खराब
करना? सत्तर-अस्सी
साल की मेहनत
पानी में चली
जाती है।
कितनी मुसीबत!
रात-रात जागे,
परीक्षाएं
पास कीं, बड़ी
मुश्किल से
ज्ञान इकट्ठा
किया; फिर
सब--चले खाली
हाथ।
तुम्हारी
खोपड़ी यहीं रह
जाती है। तुम
तो वैसे ही
जाते हो जैसे
आए थे। कुछ
पाया नहीं, कुछ कमाया
नहीं; शायद
कुछ गंवाया
भला हो। चले!
खोपड़ी में
तुम्हारी
स्मृति रह
जाती है। जो
भी तुमने जाना,
वह
तुम्हारे
मस्तिष्क के
कंप्यूटर में
पड़ा रह जाता
है। उसका कोई
दूसरा उपयोग
कभी न कभी करने
लगेगा।
और तब
एक बड़ी अदभुत
घटना घटेगी।
आइंस्टीन मर जाए
तो उसकी खोपड़ी
को हम एक छोटे
बच्चे पर ट्रांसप्लांट
कर देंगे; उसके
मस्तिष्क को
निकाल लेंगे
और एक छोटे
बच्चे के
मस्तिष्क में
डाल देंगे। यह
बच्चा बिना पढ़े-लिखे
आइंस्टीन
जैसा पढ़ा-लिखा
होगा। इसको
स्कूल भेजने
की जरूरत न
होगी। इसने जो
गणित कभी नहीं
सीखा, वह
बोलेगा और
करेगा। जो
भाषा इसने कभी
नहीं जानी, वह यह
बोलेगा और
निष्णात
होगा। इसको
किसी
विश्वविद्यालय
में पढ़ने की
कोई जरूरत न
होगी। यह जन्म
से ही नोबल प्राइज
विनर
होगा।
यही हम
कर रहे हैं
छोटे पैमाने
पर। जो अतीत
में जाना गया
है वही तो हम
स्कूलों, विद्यालयों
में बच्चों को
सिखा रहे हैं।
मस्तिष्क को
ही
ट्रांसप्लांट
कर रहे हैं
पुराने ढंग से।
एक-एक इंच-इंच
कर रहे हैं।
पूरा का पूरा
इकट्ठा नहीं
कर पाते, बीस-पच्चीस
साल मेहनत
करके बच्चे को
हम वैज्ञानिक
बना पाते हैं।
यह पुराना ढंग
है। नए ढंग में
यह ज्यादा देर
टिकेगा नहीं।
लेकिन
क्या
तुम्हारे ऊपर
अगर सारी
दुनिया का मस्तिष्क
भी लगा दिया
जाए तो तुम ज्ञानी
हो जाओगे? मस्तिष्क
बाहर से लगाया
जा रहा है। जो
बाहर से लगाया
जा रहा है वह
बाहर का है।
जो बाहर का है
वह कभी
तुम्हारे
भीतर नहीं
पहुंचता।
तुम्हारा
भीतर का आकाश
अछूता रह जाता
है।
तो
लाओत्से कहता
है,
एक तो
विद्यार्थी
है ज्ञान का, शब्दों का, सूचनाओं का;
वह दिन ब
दिन संग्रह
करता है, आयोजन
करता है सीखने
का। ताओ का
विद्यार्थी दिन
ब दिन खोने का
आयोजन करता
है।
और एक
विद्यार्थी
है परम ज्ञान
का। एक विद्यार्थी
है आत्मा का, परमात्मा
का, सत्य
का। वह
रोज-रोज छोड़ने
की कोशिश करता
है। वह अपने
भीतर खोजता
रहता है, और
कुछ मिल जाए, उसको भी छोड़
दूं। वह अपने
भीतर से खाली
करने में लगा
रहता है। वह
मस्तिष्क को
उलीचता है। क्योंकि
जितनी
तुम्हारे
भीतर बदलियां
कम हो जाएं, उतना ही
नीला आकाश
दिखाई पड़ने
लगता है।
जैसे-जैसे
विचार का जाल
कम होता है, विचार के
पीछे छिपा हुआ
अंतराल दिखाई
पड़ने लगता है।
वहां परम
शून्य
विराजमान है।
तुम
बदलियों में
खोए हो, और
बदलियों की
कीमत पर आकाश
को गंवा बैठे
हो। और आकाश
से कम में काम
न चलेगा; क्योंकि
उससे कम में
तुम सदा ही
बंधे-बंधे अनुभव
करोगे। आकाश
ही तुम्हारा
सहज घर है।
उतनी ही
स्वतंत्रता
चाहिए; उसी
को हम मोक्ष
कहते हैं।
जिसने भीतर के
आकाश को पा लिया
और जिसकी
बदलियां सब
समाप्त हो गईं,
वह मुक्त, उसने मोक्ष
को उपलब्ध कर
लिया। अब कोई
बंधन न रहे।
अब उसके पंखों
को रोकने वाला
कोई कहीं नहीं
है। अब दूर
अनंत तक भी वह उड़े तो भी
सीमा न आएगी।
अब वह असीम का
मालिक हुआ।
जानकारी
से तुम सीमित
के मालिक हो
जाओगे। ज्ञान
से तुम सीमित
को जान लोगे।
लाओत्से यह कह
रहा है, अज्ञान
से! लाओत्से
अज्ञान शब्द
का उपयोग नहीं
कर रहा है, लेकिन
मैं करना
चाहूंगा। अगर
ज्ञान से
सीमित मिलता
है तो अज्ञान
से असीम मिलता
है। लेकिन तुम
कहोगे, तो
क्या अज्ञानी
उसे पा लेते
हैं? हां, अज्ञानी उसे
पा लेते हैं।
लेकिन
जिन्हें तुम अज्ञानी
समझते हो वे
अज्ञानी नहीं
हैं। वे छोटे
ज्ञानी होंगे,
वे भी
ज्ञानी हैं।
तुम
किसको
अज्ञानी कहते
हो?
जो आदमी मैट्रिक
पास है वह गैर मैट्रिक
पास को
अज्ञानी
समझता है।
फासला उनमें
ज्ञान और
अज्ञान का
नहीं है।
ज्ञान का ही
है; एक
थोड़ा कम, एक
थोड़ा ज्यादा।
पढ़ा-लिखा गैर पढ़े-लिखे
को अज्ञानी
समझता है। शहर
में रहने वाला
गांव में रहने
वाले को
अज्ञानी
समझता है। इसलिए
गांव के आदमी
को हम गंवार
कहते हैं; गंवार
यानी गांव का
रहने वाला।
गंवार शब्द ही
का मतलब होता
है गांव का
रहने वाला। जो
आदमी युनिवर्सिटी
की आखिरी
डिग्री लेकर
लौटता है वह अपने
बाप को भी, अगर
वह गैर
पढ़ा-लिखा हो, तो अज्ञानी
समझता है।
जिन्हें
तुम अज्ञानी
कहते हो वे
अज्ञानी नहीं
हैं;
तुमसे कम
ज्ञानी हैं।
मगर सब ज्ञान
की यात्रा पर
ही खड़े हैं।
अज्ञानी तो
कभी-कभी हुए
हैं, कोई
बुद्ध, कोई
लाओत्से, कोई
कबीर।
अज्ञानी का यह
अर्थ है कि
उन्होंने, जिसे
तुम ज्ञान
कहते हो, वह
सब छोड़ दिया।
जिसे तुमने
ज्ञान की तरह
जाना था, जिनको
तुमने ज्ञान
की उपाधियां
समझा था, अज्ञानी
वह है जिसने
उन्हें
वस्तुतः
उपाधि ही समझा,
बीमारी
समझा, और
छोड़ दिया। परम
अज्ञान में
लीन हो गए।
इसलिए
तो सुकरात
कहता है कि जब
तुम यह जान
लोगे कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं, उसी
दिन ज्ञान के
द्वार
खुलेंगे।
अज्ञानी होना
बड़ा कठिन है।
क्योंकि
अज्ञानी होने
का अर्थ है
निरहंकारी
होना। अहंकार
तो दावा करता
है ज्ञान का।
अज्ञानी अपने
को स्वीकार कर
लेने का अर्थ
है कि मैं हूं
ही नहीं; मेरी
कोई क्षमता
नहीं, कोई
सामर्थ्य
नहीं; मेरा
कोई बल नहीं, कोई शक्ति
नहीं। गहन
अंधकार और गहन
अंधकार की स्वीकृति।
जैसे
ही किसी ने
अपने भीतर के
गहन अंधकार की
स्वीकृति की, इसी
स्वीकृति से
प्रकाश का
जन्म होता है।
अंधकार तो है
ही नहीं।
तुमने उसे
देखा नहीं, माना नहीं, भीतर झांका
नहीं, इसलिए
अंधकार मालूम
हो रहा है। और
तुम क्षुद्र
ज्ञान को
ज्ञान समझते
रहे, इसलिए
वास्तविक
ज्ञान
तुम्हें
अज्ञान जैसा मालूम
हो रहा है। जब
क्षुद्र को
तुम छोड़ोगे,
तब तुम
पाओगे कि यह
अज्ञान ही, क्षुद्र को
छोड़ने से जो
खाली जगह बनती
है, यह
रिक्त स्थान
ही उस
परिपूर्ण का
आवास है। यह
अज्ञान ही परम
ज्ञान है।
"ताओ
का
विद्यार्थी
दिन ब दिन
खोने का आयोजन
करता है।'
वह
खोता है ज्ञान
को,
छोड़ता है
जानने को, धीरे-धीरे
न जानने में
थिर होता है।
जैसे ही तुम न
जानने में थिर
हो जाओगे, कैसे
विचार उठेंगे
वहां? विचार
तो उठते हैं
तुम्हारे
ज्ञान के
कारण। लोग
मेरे पास आते
हैं, वे
कहते हैं कि
शांति नहीं, विचार ही
विचार चलते
हैं। और उनसे
अगर मैं कहूं
अज्ञानी हो
जाओ, तो वे
हंसते हैं। वे
कहते हैं, आप
भी कैसी बात
सिखाते हैं? ज्ञान तो
बड़ा जरूरी है।
ज्ञान
जरूरी है; फिर
विचार से
परेशान क्यों
हो रहे हो? अगर
ज्ञान जरूरी
है तो विचार
तो चलेंगे ही।
जैसे-जैसे
ज्ञान बढ़ेगा,
विचार और
ज्यादा
चलेंगे।
जैसे-जैसे
ज्ञान बढ़ेगा,
फिर रात सो
भी न सकोगे; विचार ही
विचार
चलेंगे।
जागोगे तो, सोओगे तो, ज्ञान बढ़ता
जाएगा; तुम
पागल होते
जाओगे। इसलिए
पश्चिम में वे
बड़ा दार्शनिक
उसी को कहते
हैं जो एकाध
दफे पागलखाने
हो आए।
दार्शनिक में
कुछ न कुछ कमी
रह गई, अगर
वह पागलखाने न
पहुंचा। उसने
ठीक आखिरी तक यात्रा
न की, पहले
ही रुक गया थोड़ा।
थोड़ा और जाता
तो पागलखाने
पहुंच ही जाता।
ऐसा
हुआ। एक बार
एक आदमी एक
विश्वविद्यालय
की तलाश में
गया था। अजनबी
था उस शहर
में। और उसने
जाकर एक द्वार
पर दस्तक दी
और पूछा कि
क्या यह जो
भवन है
विश्वविद्यालय
का है? उस
द्वारपाल ने
कहा, विश्वविद्यालय
का तो नहीं है,
लेकिन कोई
फर्क नहीं है;
आओ, चाहो
तो भीतर आ
जाओ।
विश्वविद्यालय
का भवन तो सामने
वाला भवन है।
यह तो
पागलखाना है।
लेकिन फर्क
कुछ भी नहीं
है। उस आदमी
ने कहा, फर्क
नहीं है? क्या
तुम कहते हो!
मजाक करते हो?
उसने कहा, नहीं, एक
फर्क है। यहां
से कभी-कभी
कोई लोग सुधर
कर भी निकल
जाते हैं, वहां
से कभी नहीं
निकलते।
विश्वविद्यालय
से लोग
करीब-करीब
विक्षिप्तता
अर्जित करके
लौटते हैं, पागलपन
लेकर लौटते
हैं। क्योंकि
विचार का अतिशय
हो जाना
तनावपूर्ण
है। और जब
विचार इतना खिंच
जाता है तो
टूटने की घड़ी
करीब आ जाती
है। जितना तुम
सोचोगे उतना
ही उद्विग्न
होते जाओगे।
उतना ही तनाव,
उतना ही
खिंचाव भीतर,
उतना ही
विश्राम
मुश्किल हो
जाएगा। विचार
तो विराम
जानता ही नहीं,
चलता ही
जाता है। तुम
रहो कि जाओ, तुम बचो कि न
बचो, विचार
का अपना ही
तंतु-जाल है।
लोग
मुझसे कहते
हैं,
शांत होना
है, निर्विचार
होना है। और
बिना जाने
कहते हैं कि
वे क्या कह
रहे हैं।
क्योंकि अगर
निर्विचार
होना हो तो
ज्ञान की दौड़
छोड़ देनी
होगी। अगर
निर्विचार
होना हो तो
ज्ञान का
संग्रह छोड़
देना होगा।
अगर
निर्विचार
होना हो तो
भीतर जो
पुराना संग्रह
है, उसे भी
उलीच कर खाली
कर देना होगा।
"ताओ
का
विद्यार्थी
दिन ब दिन
खोने का आयोजन
करता है।
निरंतर खोने
से व्यक्ति
निष्क्रियता को
उपलब्ध होता
है, अहस्तक्षेप
को उपलब्ध
होता है। बाइ कंटिन्यूअल
लूजिंग
वन रीचेज डूइंग नथिंग--लैसे-फेअर।'
फ्रांसिसी
भाषा का यह
शब्द लैसे-फेअर
बड़ा बहुमूल्य
है। इसका अर्थ
होता है: लेट
इट बी; जो है, जैसा है, ठीक
है। लैसे-फेअर
का अर्थ है: जो
है, जैसा
है, ठीक है;
तुम
हस्तक्षेप न
करो। तुम
सुधारने की
कोशिश न करो।
कुछ बिगड़ा
ही हुआ नहीं
है; कृपा
करके तुम
सुधारना भर
मत। क्योंकि
तुम्हारा
जहां हाथ लगा,
वहीं चीजें
बिगड़ जाती
हैं। प्रकृति
अपनी
परिपूर्णता
में चल रही
है। यहां कुछ
कमी नहीं है।
तुम कृपा करके
थोड़ी साज-संवार
मत कर देना।
तुम कुछ सुधार
मत देना।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने घर लौट
रहा था। सांझ
का धुंधलका
था। और मोटर
साइकिल पर दो
बैठे हुए आदमी
एक वृक्ष से टकरा
गए थे। अकेला नसरुद्दीन
ही वहां था, वह
उनके पास गया।
एक तो मर ही
चुका था।
लेकिन दूसरे
को नसरुद्दीन
ने सहायता की।
नसरुद्दीन
को लगा कि चोट
खाने से उसका
सिर उलटा हो
गया है; पीठ
की तरफ मुंह
हो गया है। तो
उसने बड़ी
मेहनत से
घुमा-फिरा
कर--वह आदमी
चीखा भी, चिल्लाया
भी--उसका बिलकुल
ठीक सिर कर
दिया, जिस
तरफ होना
चाहिए था। तभी
पुलिस भी आ
गई। और पुलिस
ने पूछा कि
क्या ये दोनों
आदमी मर चुके?
नसरुद्दीन ने
कहा,
एक तो पहले
ही मरा हुआ था;
दूसरे को
मैंने
सुधारने की
बड़ी कोशिश की।
पहले तो इसमें
से चीख-पुकार
निकलती थी, फिर पीछे वह
भी बंद हो गई।
गौर से
देखा तो पाया
कि ठंडी सांझ
थी और वह जो आदमी
मोटर साइकिल
के पीछे बैठा
था,
उसने उलटा
कोट पहन रखा
था, ताकि
आगे से सीने
पर हवा न लगे।
और उलटा कोट
देख कर नसरुद्दीन
ने समझा कि
इसका सिर उलटा
हो गया है, तो
उसने घुमा कर
उसका सिर सीधा
कर दिया। उसी
में वे मारे
गए। वे जिंदा
थे, न
सुधारे जाते
तो बच जाते।
करीब-करीब
ऐसा हमने किया
है प्रकृति के
साथ। और जहां
प्रकृति के
साथ हमने बहुत
छेड़खानी
की है वहां सब
चीजें
अस्तव्यस्त
हो गई हैं।
पश्चिम
में बड़ा
आंदोलन है इकोलाजी
का। पश्चिम के
विचारशील लोग
कह रहे हैं
वैज्ञानिकों
को कि अब तुम
कृपा करो, अब
और सुधार न
करो। वैसे ही
तुमने सब नष्ट
कर दिया है।
क्योंकि सब
चीजें गुंथी
हैं।
हमने
जंगल काट डाले, अब
वर्षा नहीं
होती। अब
वर्षा नहीं
होती है तो
अकाल पड़ता है।
हम जंगल काटे
चले जाते
हैं--बिना यह
फिक्र किए कि
बादल वृक्षों
से आकर्षित
होते हैं।
उनका वृक्षों
से लगाव है।
वे तुम्हारी
वजह से नहीं बरसते।
तुम्हारी
खोपड़ी में
उनकी तरफ कोई
खिंचाव नहीं
है। वे
वृक्षों से
आकर्षित होते
हैं। तुमने
वृक्ष काट
डाले।
वृक्षों की
जड़ें जमीन को
सम्हाले हुए
हैं। वृक्ष कट
जाते हैं, जड़ें
हट जाती हैं; जमीन बिखरने
लगती है, रेगिस्तान
हो जाते हैं।
वृक्ष और
पृथ्वी के बीच
कोई गहरा नाता
है। जहां से
वृक्ष हटे
वहां रेगिस्तान
हो जाएगा।
वर्षा न होगी
और जमीन को पकड़ने
वाली जड़ें न
रह जाएंगी, जमीन बिखरने
लगेगी, सायल इरोजन हो
जाएगा।
तुम एक
चीज को
सुधारते हो, तत्क्षण
हजार चीजें
प्रभावित हो
जाती हैं। देर
अबेर तुम्हें पता
लगेगा कि यह
तो मुश्किल हो
गई। लाभ कुछ
होते दिखाई
नहीं पड़ता।
आदमी सब तरफ
से मिटता हुआ
मालूम पड़ता
है। और
विज्ञान
कोशिश किए जा
रहा है
सुधारने की।
उसके सब सुधार
में मौत हुई
जा रही है।
आदमी इतनी
अड़चन में कभी
न था। यह
ज्ञानियों के
हाथ में पड़
गया है। और
उन्होंने
आदमी को बड़ी
मुसीबत में
डाल दिया है।
और पृथ्वी
ज्यादा देर
जिंदा नहीं रह
सकती, अगर
लाओत्से की न
सुनी गई।
ज्यादा से
ज्यादा इस सदी
के पूरे होते
तक आदमी जमीन
पर रह सकता है--बस
ज्यादा से
ज्यादा
पच्चीस साल
और--अगर वैज्ञानिक
नहीं सुनता है
लाओत्से जैसे
ज्ञानियों की
कि रुक जाओ, ठहर जाओ, मत
सुधारो, रहने दो, जैसा
है परम है, वही
ठीक है।
तुम्हारी
जानकारी
अधूरी है, तुम
पूरे को नहीं
जानते। तुम एक
चीज को बदलते हो,
पच्चीस
चीजें
प्रभावित
होती हैं
जिनका तुम्हें
खयाल भी नहीं
है।
हिरोशिमा
पर एटम बम
गिराया, तब
उनको अंदाज
नहीं था कि
कितना
विध्वंस होगा।
किसी को अंदाज
नहीं था, इतना
भयंकर
विध्वंस हुआ।
तब किसी को यह
अंदाज नहीं था,
वैज्ञानिकों
को, कि यह
विध्वंस
सदियों तक
चलेगा।
क्योंकि जो रेडियोधर्मी
किरणें पैदा
हुईं एटम बम
के गिराने से,
उनको सागर
की मछलियां
पी गईं।
क्योंकि सागर
के पानी पर
जाकर वे रेडियोधर्मी
किरणें बैठ
गईं।
धीरे-धीरे वे
डूब गईं सागर
में, मछलियां उनको पी
गईं। मछलियों
को जिन्होंने
खाया उनके
भीतर
रेडियोधर्मी
तत्व पहुंच
गए। उनके बच्चे
पैदा हुए, उनके
बच्चे अपंग
हैं। उनके
बच्चों की
हड्डियों में
रेडियोधर्मी
तत्व पहुंच गए।
अब वे बच्चे बच्चे
पैदा करेंगे।
अब यह
हजारों साल
तक--वह जो एटम
गिरा था
उन्नीस सौ
पैंतालीस
में--हजारों
साल तक, अगर
आदमियत बचती
है, तो
उसका
दुष्परिणाम भोगेगी।
इसको अब रोकने
का कोई उपाय
नहीं है।
क्योंकि फलों
में भी चला
गया वह। गायों
के थनों में
चला गया।
गायों ने घास
खाई--घास पर
बैठ गया
रेडियोधर्मी
तत्व--गायों
ने घास खाई, घास से दूध
आया, दूध
तुमने पीया।
तो यह
मत सोचना कि
मछली अपन खाते
ही नहीं! कि हम शाकाहारी
हैं! घास गाय खाएगी, दूध
तुम पीओगे।
सांस तो लोगे?
हवा में रेडियोधर्मी
तत्व हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
न्यूयार्क, लंदन
और टोकियो
की हवा में
इतने विषाक्त
द्रव्य हैं कि
यह हैरानी की
बात है कि
आदमी जिंदा
कैसे है! होना
नहीं चाहिए। इम्यून हो
गया है, इसलिए
जिंदा है।
लेकिन जहर तो
प्रतिपल
पहुंच रहा है।
जहर भीतर उतर
रहा है।
तुमने
खयाल किया
होगा, डी डी
टी छिड़को
तो मच्छर पहली
दफा मरते हैं,
दूसरी दफा
उतने नहीं
मरते, तीसरी
दफा बिलकुल
नहीं मरते।
चौथी-पांचवीं
दफा वे फिक्र
ही नहीं करते,
तुम छिड़कते
रहो डी डी
टी। वे इम्यून
हो गए, वे
जहर इतना पी
गए, जो
मरने वाले थे,
कमजोर, वे
मर गए; और
जो ताकतवर थे,
वे बच गए, और अब जहर
पीने में
समर्थ हो गए।
अब उनके खून में
जहर है। अब
तुम्हारा डी डी टी कुछ
भी नहीं करता।
अभी
सिर्फ दस साल
पहले सारी
दुनिया में डी
डी टी का
चमत्कार था।
सारी दुनिया
की सरकारें, भारत
की अभी भी डी डी टी छिड़के
जा रही है।
लेकिन अमरीका
और इंग्लैंड
में भारी
विरोध है इस
समय। और
अमरीका और
इंग्लैंड में
सख्ती से डी डी टी को
रोका जा रहा
है। क्योंकि
डी डी टी
बड़ा खतरनाक
है। मच्छर में
जहर जाता है, मच्छर
तुम्हें
काटता है, जहर
तुममें चला
गया। मच्छर फल
पर बैठ जाता
है, जहर फल
में चला गया।
और डी डी
टी तुमने डाल
दिया हवा में,
वह पानी में
गिरेगा, वर्षा
में गिरेगा
जमीन पर, वह
इकट्ठा होता
जा रहा है। और
चारों तरफ तुम
अपने हाथ से
जहर इकट्ठा
करते हो। तुम
मच्छर मारने
चले थे, मनुष्यता
को मारने का
इंतजाम हो
जाता है।
जिंदगी
जुड़ी है।
जिंदगी ऐसे है
जैसे तुमने कभी
मकड़ी का
जाल छूकर देखा
हो;
मकड़ी के जाल को
तुम एक तरफ
छुओ, पूरा
जाल कंपता है।
ऐसा जीवन एक
जाल है। और हिंदू
तो बड़े पुराने
समय से कह रहे
हैं इसे कि यह मकड़ी का
जाल है।
उन्होंने तो
परमात्मा को मकड़ी का
प्रतीक दिया
है। उन्होंने
तो कहा है, जैसे
मकड़ी
अपने भीतर से
अपने थूक को
ही धागा बना
कर निकालती है
और जाल बुनती
है, ऐसे ही
परमात्मा
अपने भीतर से
सारी सृष्टि
को बुनता है।
फिर प्रलय में,
जैसे मकड़ी
को अगर यात्रा
करनी हो, जाना
हो छोड़ कर घर, तो तुम्हारे
जैसा घर छोड़
कर या बेच कर
जाने की जरूरत
नहीं है। वह
वापस अपने घर
को लील जाती
है, वह फिर
उन धागों को
पी जाती है।
पीकर दूसरी जगह
चली जाती है
और वहां जाकर
फिर धागे
निकाल लेती
है। वह उसका
थूक है। ऐसे
ही परमात्मा
प्रलय के क्षण
में फिर अपने
सारे विस्तार
को लील लेता
है, विश्राम
में चला जाता
है। जब फिर
नींद खुलती है,
ब्रह्ममुहूर्त
आता है, तब
फिर अपने जाल
को फैला लेता
है।
संसार
यही तो है। जो
विराट संसार
है यह मकड़ी
के जाल जैसा
है। अंग्रेज
कवि टेनीसन
ने कहा है, तुम
हिलाओ एक फूल
को और आकाश के
तारे हिल जाते
हैं। दूरी
कितनी ही हो, लेकिन चूंकि
जाल एक का है, और एक का ही
जाल है, इसलिए
जुड़ा है।
ज्ञान
से हम सुधारने
की कोशिश करते
हैं,
और हम बिगाड़ते
चले जाते हैं।
लाओत्से
कहता है, जैसे-जैसे
कोई निरंतर
खोता है, व्यक्ति
निष्क्रियता,
अहस्तक्षेप
को उपलब्ध
होता है।
तब
व्यक्ति
धीरे-धीरे
निष्क्रिय
होता जाता है, वह
कुछ भी नहीं
करता। वह मेरे
जैसा हो जाता
है; कुछ भी
नहीं करता, चुपचाप बैठा
रहता है। खाली
हो जाता है।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं,
आप कुछ करते
क्यों नहीं? समाज में
इतनी तकलीफ है,
क्रांति की
जरूरत है; समाज-सुधार
चाहिए; विधवाओं
की हालत देखिए,
गरीबों की
हालत देखिए, कोढ़ी हैं, उनकी
हालत देखिए; कुछ करिए।
उन्हें
पता ही नहीं
कि करने वाले
केवल उपद्रव करते
हैं। और जब तक
क्रांतिकारी
हैं तब तक दुनिया
में मुसीबत
रहेगी। और जब
तक
समाज-सुधारक हैं
तब तक समाज के
सुधरने का कोई
उपाय नहीं। यही
तो उपद्रवी
तत्व हैं। ये
चीजों को ठीक
बैठने नहीं
देते, ये
सुधारने में
लगे हैं। सब
सुधरा ही हुआ
है।
इस फ्रेंच
शब्द लैसे-फेअर
का यही अर्थ
है: जैसा है, बिलकुल
ठीक है। तुम
हस्तक्षेप मत
करो। तुम अस्तित्व
को और बेहतर न
कर सकोगे। तुम
हो कौन? तुम्हारी
क्षमता क्या?
तुम क्या
सोचते हो कि
तुम मूल स्रोत
से ज्यादा
ज्ञानी हो? क्या तुम
सोचते हो, परमात्मा
ने जो बनाया
है, तुम उस
पर सुधार
आरोपित कर
सकोगे? तुम
इससे बेहतर
दुनिया बना
सकोगे? क्रांतिकारी
की यही
आकांक्षा है
कि इससे बेहतर
दुनिया हम बना
कर रहेंगे।
इससे बेहतर
दुनिया बनाने
में तुम इसे
भी गंवा दोगे।
"व्यक्ति
निष्क्रियता
को उपलब्ध होता
है, और तब
नहीं करने से
सब कुछ किया
जाता है।'
तब वह
कुछ करता नहीं
है। लाओत्से
जैसे लोग कुछ
करते नहीं
हैं। लेकिन
उनके न करने
में इतनी क्षमता
है;
क्योंकि
उनके न करने
में वे
परमात्मा के
साथ एक हो
जाते हैं।
परमात्मा
को तुमने कहीं
कुछ करते
देखा--कहीं वृक्षारोपण
करते? कहीं
सड़क बनाते? कहीं दवा
घोंटते
मरीजों के लिए?
तुमने
उसे कहीं नहीं
देखा होगा। वह
कहीं कुछ करता
हुआ नहीं
दिखाई पड़ता; इसीलिए
तो तुम उसे
देख नहीं
पाते।
क्योंकि तुम्हारा
विचार केवल
कृत्य को देख
सकता है। निर्विचार
निष्क्रिय
परमात्मा को
देख सकता है।
सक्रिय
बुद्धि केवल
सक्रियता को
देख सकती है।
सक्रिय
बुद्धि केवल
पदार्थ को देख
सकती है। निष्क्रिय
बुद्धि केवल
आकाश, शून्य
को देख पाती
है। उस जैसे
हो जाओ, तभी
तुम उसे देख
सकोगे।
जैसे-जैसे
कोई व्यक्ति
निष्क्रिय
होता है, वैसे-वैसे
अदृश्य जैसा
हो जाता है।
क्योंकि उसकी
छाप कहीं भी
नहीं दिखाई
पड़ती; उसका
स्वर कहीं
नहीं सुनाई
पड़ता। वह शून्यमात्र
हो जाता है।
उस शून्यता
में ही परम
घटना घटती है।
कबीर ने कहा
है, अनकिए
सब होए। वही
लाओत्से कह
रहा है।
लाओत्से
कह रहा है, "नहीं
करने से सब
कुछ किया जाता
है। बाइ डूइंग
नथिंग एवरीथिंग
इज़ डन।'
यह
कैसे होता
होगा? न करने
से सब कुछ
कैसे होगा?
सब कुछ
हो ही रहा है।
जैसे नदी बह
रही है। लेकिन
तुम अपने
अज्ञान में
धक्का दे रहे
हो,
और तुम
सोचते हो:
धक्का न देंगे
तो नदी बहेगी
कैसे? तुम
नाहक खुद ही
थके जा रहे
हो। नदी को
धक्का देने की
जरूरत नहीं है;
वह अपने से
बह रही है; बहना
उसका स्वभाव
है। अस्तित्व
को सुधारने की
जरूरत नहीं है;
सुधरा हुआ
होना उसका
स्वभाव है। वह
अपनी परम उत्कृष्ट
अवस्था में है
ही। कुछ
रंचमात्र करना
नहीं है।
लेकिन तुम
नाहक शोरगुल
मचाते हो, उछलकूद
मचाते हो।
उसमें तुम खुद
ही थक जाते हो,
परेशान
होते हो।
"नहीं
करने से सब
कुछ किया जाता
है। जो संसार
जीतता है, वह
अक्सर नहीं
कुछ करके
जीतता है।'
दो तरह
के विजेता इस
संसार में
होते हैं। एक
विजेता जिनका
नाम इतिहासों
में लिखा
है--सिकंदर, नेपोलियन,
स्टैलिन, माओ। ये
विजेता कुछ
करते हुए दिखाई
पड़ते हैं। ये
विजेता नहीं
हैं। और इनसे
कुछ सार न तो
किसी दूसरे को
होता है, न
इनकी खुद की
कोई उपलब्धि
है।
एक और
विजेता
है--लाओत्से, कृष्ण,
महावीर, बुद्ध।
महावीर को तो
हमने जिन
इसीलिए कहा।
जिन का अर्थ
है, जिसने
जीता। जिन के
कारण उनके
अनुयायी जैन
कहलाते हैं।
जिन का अर्थ
है विजेता, जिसने जीत
लिया। लेकिन
महावीर ने
किया कुछ नहीं।
वे खड़े रहे
जंगलों में
नग्न, आंख
बंद किए
वृक्षों के
नीचे। कभी
किसी ने उन्हें
कुछ करते नहीं
देखा, कि
किसी कोढ़ी
का पैर दबा
रहे हों, कि
किसी की
मलहम-पट्टी कर
रहे हों, कि
किसी
समाज-सुधार के
कार्य में लगे
हों, कि
कोई अस्पताल
में नर्स का
काम कर रहे
हों। किसी ने
कभी कुछ करते
नहीं देखा।
लेकिन महावीर को
हमने जिन कहा।
उन्होंने जीत
लिया।
जीतने
की कला एक ही
है कि तुम कुछ
मत करो, तुम
शांत हो जाओ।
और तत्क्षण
तुम परमात्मा
के उपकरण हो
जाते हो। वह
तुम्हारे
भीतर से करना
शुरू कर देता
है। लेकिन
उसके करने के
ढंग बड़े
अदृश्य हैं।
उसके करने के
ढंग परम
अदृश्य हैं।
आवाज भी नहीं
होती, और
सब हो जाता
है। पदचिह्न
भी सुनाई नहीं
पड़ते, और
सारी यात्रा
पूरी हो जाती
है। पदचिह्न
बनते भी नहीं,
और मंजिल आ
जाती है।
"जो
संसार जीतता
है, वह
अक्सर नहीं
कुछ करके
जीतता है। और
यदि कुछ करने
को बाध्य किया
जाए, तो
संसार उसकी
जीत के बाहर
निकल जाता है।'
और अगर
वह स्वयं को
बाध्य करे, या
किसी की
बाध्यता में आ
जाए और कुछ
करने में लग
जाए, उसी
क्षण संसार
उसके हाथ के
बाहर निकल
जाता है।
क्योंकि जैसे
ही तुम कुछ
करते हो, कर्ता
आया, वैसे
ही परमात्मा
से तुम्हारा
संबंध टूट जाता
है।
परमात्मा
से तुम्हारा
संबंध टूटा है
तुम्हारे
ज्ञानी होने
और कर्ता होने
से। और
परमात्मा से
तुम्हारा
संबंध जुड़
जाएगा, तुम
अकर्ता हो जाओ
और अज्ञानी हो
जाओ। तुम कह दो
कि मुझे कुछ
पता नहीं। और
यही असलियत है,
पता
तुम्हें कुछ
भी नहीं है।
क्या पता है? कुछ भी पता
नहीं है।
आइंस्टीन
ने मरते वक्त
कहा है कि
जिंदगी ऐसे ही
गई,
मैं कुछ
बिना जाने मर
रहा हूं; कुछ
जाना नहीं है।
और आइंस्टीन
ने मरते वक्त
कहा कि दुबारा
अगर जन्म मिले
तो मैं
वैज्ञानिक न
होना
चाहूंगा।
एडीसन
कहा करता था...।
एडीसन ने एक
हजार आविष्कार
किए हैं, उससे
बड़ा
आविष्कारक
नहीं हुआ।
तुम्हें पता ही
नहीं, तुम्हारे
घर की बहुत सी
चीजें उसी के
आविष्कार
हैं--ग्रामोफोन,
रेडियो, बिजली,
सब उसी के
हैं।
तुम्हारा घर
उसके
आविष्कारों से
भरा है। लेकिन
एडीसन से जब
किसी ने पूछा
कि तुम इतना जानते
हो! तो उसने
कहा कि हमारे
जानने का क्या
मूल्य है? मैं
सारे उपकरण
बना लिया हूं
विद्युत के, लेकिन
विद्युत क्या
है, यह
मुझे अभी पता
नहीं। बिजली
क्या है?
ऐसी
घटना है एडीसन
के जीवन में
कि एक गांव
में गया था, पहाड़ी
गांव पर
विश्राम करने
गया था। छोटा
गांव ग्रामीणों
का; छोटा
सा स्कूल।
स्कूल का
वार्षिक दिन
था, और
बच्चों ने कई
चीजें तैयार
की थीं। पूरा
गांव स्कूल
देखने जा रहा
था। तो एडीसन
भी चला गया; फुरसत में
बैठा था, कोई
काम भी न था।
कोई वहां उसे
पहचानता भी
नहीं था। तो
बच्चों ने
छोटे-छोटे
खेल-खिलौने
बिजली के बनाए
थे। वह एडीसन
तो बिजली का
सबसे बड़ा
ज्ञाता था।
बच्चों ने
मोटर बनाई थी,
इंजन बनाया
था, और
बिजली से चला
रहे थे। और
ग्रामीण बड़े
चकित होकर सब
देख रहे थे।
एडीसन भी चकित
होकर सब देख
रहा था।
फिर
उसने उस बच्चे
से पूछा, जो
बिजली की गाड़ी
चला रहा था, कि बिजली
क्या है? व्हाट
इज़ इलेक्ट्रिसिटी?
उस बच्चे ने
कहा कि यह तो
मुझे पता नहीं;
मैं अपने
विज्ञान के
शिक्षक को
बुला लाता हूं।
तो वह अपने
विज्ञान के
शिक्षक को
बुला लाया। वह
ग्रेजुएट
था विज्ञान
का। पर उसने
कहा कि यह तो
मुझे भी पता
नहीं है कि
बिजली क्या
है। बिजली का
कैसे उपयोग
करें, वह
हमें पता है।
आप रुकें,
हम अपने
प्रिंसिपल को
बुला लाते
हैं। उसके पास
डाक्टरेट है
साइंस की। वह
प्रिंसिपल भी
आ गया। उस
प्रिंसिपल ने
भी समझाने की
कोशिश की इस ग्रामीण
को; क्योंकि
वह ग्रामीण
जैसा ही वेश
पहने हुए था।
लेकिन वह
ग्रामीण कोई
ग्रामीण तो था
नहीं, वह
एडीसन था। वह
पूछता ही गया
कि आप सब कह
रहे हैं, लेकिन
जो मैंने पूछा,
वह नहीं कह
रहे हैं। मैं
पूछ रहा हूं, बिजली क्या
है? सीधा
सा उत्तर
क्यों नहीं
देते? आप
जो भी कह रहे
हैं, उससे
उत्तर मिलता
है कि बिजली का
कैसे उपयोग
किया जा सकता
है। लेकिन
बिजली क्या है?
उपयोग तो
पीछे कर
लेंगे। आखिर
वह भी हैरान
हो गया और
उसने कहा कि
तुम बकवास बंद
करो, बेहतर
होगा तुम
एडीसन के पास
चले जाओ। तुम
उससे ही
मानोगे।
उसने
कहा,
तब गए काम
से। वह तो मैं
खुद ही हूं।
तो फिर कहीं
उत्तर नहीं
है। अगर एडीसन
के पास ही
आखिरी उत्तर
है तो फिर
कहीं उत्तर
नहीं है। तो
फिर जाना
बेकार है; क्योंकि
वह तो मैं खुद
ही रहा।
यह जो
अस्तित्व है, बड़ी
से बड़ी
जानकारी के
बाद भी तो
बिना जाना रह जाता
है। क्या
जानते हैं हम?
एक फूल का
भी तो हमें
पता नहीं।
अज्ञान
और अक्रिया, अगर
दो सध गईं--तुम
गए, तुम
मिट गए। फिर
परमात्मा है
तुम्हारी जगह;
तुम खाली हो
गए। जैसे ही
तुम खाली होते
हो वह तुम्हें
भर देता है।
"और
यदि कुछ करने
को बाध्य किया
जाए, तो
संसार उसकी
जीत के बाहर
निकल जाता है।'
और तुम
अगर अपने को
बाध्य करोगे
कुछ करने को, उसी
क्षण
तुम्हारा
संबंध टूट
जाता है।
अकर्ता, अज्ञानी,
शून्य भाव
से--तुम सब कुछ
हो। कर्ता हुए,
अकड़ आई, कुछ
करने का खयाल
जगा, क्रिया
में उतरे, कर्म
के जाल में
उतर
गए--संसारी हो
गए।
इसलिए
तो हम कहते
हैं इस देश
में कि जो
कर्म के जाल
से मुक्त हो
जाए...। कर्म के
जाल से कौन
मुक्त होगा जब
तक तुम्हें कर्ता
का भाव है! और
ज्ञान भी तो
तुम्हारा
कर्म है। वह
भी तो तुमने
कर-करके
इकट्ठा किया
है। कर्म का
जाल उसी दिन
टूटेगा जिस
दिन न कर्ता
रह जाए, न
ज्ञान रह जाए।
तुम छोटे
बच्चे की
भांति हो जाओ,
जिसे कुछ भी
पता नहीं है, जो कुछ भी कर
नहीं सकता है।
उसी के भीतर
से परमात्मा उंडलने
लगता है।
और
लाओत्से कहता
है,
सारा संसार
जीत लिया है
अक्सर
उन्होंने, जिन्होंने
कुछ भी नहीं
किया।
कुछ
अनूठे रास्ते
हैं। अनुभव से
मैं कहता हूं कि
वे रास्ते
हैं। इधर मैं
बिना कुछ किए
चुपचाप बैठा
रहता हूं, दूर-दूर
अनजान देशों
से लोग चुपचाप
चले आते हैं।
वे कैसे आते
हैं, रहस्य
की बात है।
कौन उन्हें
भेज देता है, रहस्य की
बात है। कोई
अनजान, कोई
अदृश्य शक्ति
चौबीस घंटे
काम कर रही
है। जहां भी गङ्ढा हो
जाता है, उसी
तरफ यात्रा
अनेक चेतनाओं
की शुरू हो
जाती है। कुछ
कहने की भी
जरूरत नहीं
होती।
किन्हीं
अनजान रास्तों
से उन्हें खबर
मिल जाती है।
कोई उन्हें
पहुंचा देता
है। ऐसा सदा
ही हुआ है।
तुम अपने करने
वाले को भर
मिटा दो, और
तुमसे विराट
का जन्म होगा।
तुम कर्ता बने
रहो, तुम
क्षुद्र में
ही सीमित मर
जाओगे।
तुम्हारा
कर्ता होना और
ज्ञानी होना
तुम्हारी
कब्र है। कर्ता
और ज्ञानी गया
कि तुम मंदिर
हो गए।
परमात्मा
तुमसे बहुत
कुछ करेगा।
तुम जरा हट
जाओ, तुम
जरा मार्ग दो।
परमात्मा
तुम्हें बहुत
ज्ञान से
भरेगा, तुम
जरा अपने
ज्ञान का
भरोसा छोड़ो।
तुम जरा अपने
ज्ञान की गठरी
को उतार कर भर
रखो और फिर
देखो।
आज
इतना ही।
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