दिनांक
12 मई, 1975 प्रात;
श्री
ओशो आश्रम
पूना
सारसूत्र :
पीछें
लागा जाइ
था, लोक वेद
के साथि।
आगे
थे सदगुरु
मिला, दीपक
दिया हाथि।।
भगति
भजन हरिनाम है, दूजा दुख
अपार।
मनसा
वाचा कर्मना
कबीर सुमरिन
सार।।
मेरा
मन सुमरे
राम कूं, मेरा मन राम
ही आहि।
अब
मन रामही व्है रहया
सीस नवावें
काहि।।
सब
रग तंत रबाब
तन, विरह बजावे
नित।
और
न कोई सुन सके
कै सांई
के चित्त।।
इस
तन का दीवा
करूं, बाती मेल्यूं
जीव।
लोही
सींचौ
तेल ज्यूं, कब मुख देख्यौ
पीव।।
जीवन
बीतता है
बूंद-बूंद।
रिक्त होता है
रोज। हाथ से
जैसे रेत
सरकती जाए
वैसे पैर के नीचे
की भूमि सरकती
जाती है।
दिखाई नहीं
पड़ता क्योंकि
देखने के लिए
बड़ी सजगता
चाहिए। और इतनी
धीमे-धीमे
बीतता है जीवन,
कि पता नहीं
चलता कि हर
घड़ी मौत निकट
आ रही है। जब
भी कोई मरता
है तो मन
सोचता है, मौत
सदा दूसरे की
होती है। मैं
तो कभी मरता
नहीं; कोई
और मरता है।
पड़ोसी मरता
है। लेकिन मौत
तुम्हारी मौत
की खबर लाती
है। जो पड़ोसी
को हुआ है, वही
तुम्हें भी
होने वाला है।
आखिरी
क्षण तक भी
होश नहीं आता।
गफलत में, बेहोशी में;
आपने ही हाथ
से आदमी अपने
को समाप्त कर
लेता है। और
जो भी तुम कर
रहे हो उसका
कोई भी अत्यंतिक
मूल्य नहीं
है। कितना ही
धन कमाओ, कितनी ही
पद-प्रतिष्ठा
मिले, मौत
सभी कुछ साफ
कर देती है।
मौत सब मिटा
देती है।
तुम्हें बनाए
सब घर, ताश
के पत्तों के
घर सिद्ध होते
हैं। और तुम्हारे
द्वारा तैराई
गई सभी नावें
कागज की नावें
सिद्ध होती
हैं। सब डूब
जाता है।
जिसे
यह होश आना
शुरू हो गया
कि मौत है, उसी के जीवन
में धर्म की
किरण उतरती
है। मौत का
स्मरण धर्म की
प्राथमिक
भूमिका है।
अगर मृत्यु न
होती तो संसार
में धर्म भी न
होता। मृत्यु
है, इसलिए
धर्म की
संभावना है।
और जब तक तुम
मृत्यु को झुठलाओगे
तब तक
तुम्हारे
जीवन में धर्म
की किरण न
उतरेगी।
मृत्यु
को ठीक से
समझो।
क्योंकि उसके
आधार पर ही
जीवन में
क्रांति
होगी।
तुम्हें अगर
पता चल जाए कि
आज सांझ ही मर
जानता है, तो क्या तुम
सोचते हो, तुम्हारे
दिन का
व्यवहार वही
रहेगा जो इसे
पता चलने पर
रहता? क्या
तुम उसी भांति
दुकान जाओगे?
उसी भांति
ग्राहकों का
शोषण करोगे? क्या उसी
भांति
व्यवहार
करोगे, जैसा
कल किया था? क्या पैसे
पर तुम्हारी
पकड़ वैसे ही
होगी, जैसे
एक क्षण पहले
तक थी? क्या
मन में वासना
उठेगी, काम
जगेगा? सुंदर
स्त्रियां
आकर्षित
करेंगी? राह
से गुजरती कार
मोहित करेगी?
किसी का भवन
देख करर्
ईष्या होगी? नहीं, सब
बदल जाएगा।
अगर
मौत का पता चल
जाए कि आज ही
सांझ हो जाने
वाली है, तुम्हारी
जीवन का सारा
अर्थ, तुम्हारे
जीवन का सारा
प्रयोजन, तुम्हारे
जीवन का सारा
ढंग और शैली
बदल जाएगी।
मौत का जरा सा
भी स्मरण
तुम्हें वही न
रहने देगा जो
तुम हो।
और तुम
जो हो, बिलकुल
गलत हो।
क्योंकि
सिवाय दुख के
और तुम्हारे
होने से कुछ
भी फूल नहीं
आता। फल लगते
हैं निश्चित;
केवल दुख के
लगते हैं। फल
लगते हैं
निश्चित। तुम्हारी
आशाओं के
अनुकूल नहीं,
न तुम्हारे
स्वप्नों के
अनुसार। फल
लगते हैं
तुम्हारी
आशाओं के
विपरीत।
तुम्हारे
सपनों से
बिलकुल उलटे।
जीवन
के अंत में
सिर्फ राख छूट
जाती है हाथ
में। और एक
विषाद और एक
गहन पीड़ा, कि एक और
अवसर खो गया।
इसीलिए तो
मरते वक्त लोग
इतने दुखी और
पीड़ित मरते
हैं। अन्यथा
अगर जीवन की
चरितार्थता
उपलब्ध हुई हो
और जीवन की
धन्यता को
जाना हो और
जीवन एक गीत
बन गया हो, जिसे
कबीर कहते हैं,
सुमिरन बन
गया हो; एक
याददाश्त, कि
मैं कौन हूं, तो मृत्यु
तो एक महोत्सव
हो जाएगी।
क्योंकि वह तो
सारे जीवन की
परिपूर्णता
है। वह तो
सारे जीवन का निचोड़ है, सार है। तब
मृत्यु न होगी,
महाजीवन में प्रवेश
हो जाएगी।
जो जान
कर जीता है
उसकी मृत्यु
समाधि हो जाती
है। जो अनजान
जीता है, उसका
जीवन भी मृत्युवत
है। जा होश से
जीता है वह
मरता ही नहीं।
जो बेहोशी में
जीता है वह
कभी जीता ही
नहीं। उसका जीवन
एक प्रवेचना
है।
और
स्वभावतः
जिनके बीच तुम
पैदा हुए हो
वे ऐसे ही
मुर्दे हैं।
और उनके पीछे
ही तुम चल रहे
हो। कबीर कहते
हैं--
पीछे
लागा जाइ
था, लोक वेद
के साथि।
लोगों
के पीछे चला
जा रहा था।
जहां लोग जा
रहे थे वहां
मैं चला जा
रहा था। उनका
अनुसरण कर रहा
था। इस बात को
बिना सोचे कि
वे उतने ही
अंधे हैं जितना
मैं हूं। बिना
यह सोचे कि इस
सारी भीड़ का क्या
अंत होता है, आदमी भीड़ के
साथ चलता है।
बड़े गहरे कारण
हैं। वे समझ
लेना जरूरी
हैं।
समाज
व्यक्ति का
शत्रु है।
समाज तुम्हें भेड़ों की
भांति चाहता
है, व्यक्तियों
की भांति
नहीं।
क्योंकि
व्यक्ति के
साथ ही बगावत
का स्वर शुरू
हो जाता है।
व्यक्ति के
साथ ही होश। और
जैसे ही होश
की पहली किरण
उतरी कि
व्यक्ति अपने
मार्ग को
खोजने में लग
जाता है। फिर
वह भीड़ के
पीछे नहीं
चलता। कितना
ही सुंदर
राजपथ हो, कितना
साफ-सुथरा हो,
कंटकाकीर्ण
न हो, फिर
भी वह भीड़ की
पीठ के साथ
नहीं चलता। वह
अपना रास्ता
बनाना शुरू
करता है होश
जैसे ही आया; कि तुम समाज
से टूट जाते
हो। तुम पहली
दफा स्वयं
होते हो। और
स्वयं होने
में बगावत है,
विद्रोह है,
क्रांति।
इसलिए कोई
समाज
बर्दाश्त
नहीं करता
व्यक्ति को।
जन्म
के पहले क्षण
से लेकर
मृत्यु की
आखिरी घड़ी तक
समाज व्यक्ति
को नष्ट करने
की कोशिश करता
है, दबाता
है। हर तरह से
तुम्हें तोड़ता
है। तुम कहीं
आत्मवान न हो
जाओ; क्योंकि
तुम अगर
आत्मवान हुए
तो समाज का
नियंत्रण तुम
पर न हो
सकेगा।
अब तक
किसी आत्मवान
व्यक्ति पर
समाज नियंत्रण
नहीं कर सका।
सिर्फ
मुर्दों को
काबू में रख
सकता है।
जिंदा
व्यक्ति एक आग
है। उसे हाथ में
बांध कर रखना
आसान नहीं।
उसके ऊपर कोई
बंध नहीं हो
सकते। तुम
जिंदा
व्यक्ति को
कारागृह में
डाल सकते हो, लेकिन कैदी
नहीं बना
सकते। तुम
जंजीरें पहना सकते
हो, लेकिन
तुम उसकी
स्वतंत्रता
नहीं छीन
सकते। उसकी
स्वतंत्रता
आंतरिक है।
होश की
स्वतंत्रता
है।
इसलिए
सभी समझा, बिना किसी
अपवाद--चाहे
वह पूंजीवादी
हों, या
समाजवादी हों,
चाहे
साम्यवादी
हों--सभी समाज
व्यक्ति के
दुश्मन हैं।
और समाज में
होने वाली कोई
भी क्रांति
वास्तविक
क्रांति नहीं
है, धोखा
है। चाहे
फ्रांस में हो,
चाहे रूस
में, चाहे
चीन मग, सभी
क्रांतियां
धोखे हैं।
क्योंकि
क्रांति कुछ
भी करती नहीं।
समाज के एक
ढांचे को
दूसरे ढांचे
से बदल देती
है। एक गुलामी
की जगह दूसरी
गुलामी आ जाती
है। और
स्वभावतः
दूसरी गुलामी पहली
गुलामी से
अक्सर ज्यादा
ताकतवर सिद्ध
होती है
क्योंकि नई
होती है।
पुरानी
गुलामी
जराजीर्ण हो
गई होती है।
उसमें से छेद
होते हैं
निकलने के
बाहर। उसकी
दीवारें गिर
गई होती हैं।
उसके द्वार
दरवाजे कमजोर हो
गए होते हैं।
उसके पहरेदार
शिथिल हो गए
होते हैं।
कारागृह का
मालिक
आश्वस्त हो
गया होता है
कि सब ठीक चल रहा
है। सो जाता
है।
नई
गुलामी, पुरानी
गुलामी से
हमेशा ज्यादा
मजबूत होती है।
क्योंकि
कारागृह नए
बनते हैं।
द्वार दरवाजे
मजबूत बनते
हैं। और नये
समाज की
व्यवस्था जानती
है, कि जिस
तरह हमने
पुरानी
व्यवस्था को
तोड़ दिया है, कोई दूसरी
बगावत इस
व्यवस्था को न
तोड़ दे। इसलिए
नई व्यवस्था
पुरानी से
ज्यादा कुशल
होती है।
जार के
जमाने में रूस
में जितनी
आजादी थी, उतनी
स्टैलिन के
जमाने में न
रही। और च्यांग-काई-शेक
के साथ चीन
में जितनी
स्वतंत्रता
थी, उतनी
माओ के साथ न
रही। गर्दन और
कस जाती है।
क्योंकि
क्रांति असली
क्रांति से बचाव
करने की
व्यवस्था है।
असली
क्रांति
सिर्फ एक
है--कि
व्यक्ति समाज
से मुक्त हो
जाए।
मुक्त
होने का यह
अर्थ नहीं है, कि समाज में
नियम है कि
रास्ते में
बीच में मत चलो,
तो वह बीच
में चलने लगे।
वह तो मूढ़ता
होगी, मुक्ति
न होगी। मुक्त
हो जाने का
अर्थ
स्वच्छंदता
नहीं है।
क्योंकि जो
स्वच्छंद
होगा, वह
समझा ही नहीं।
स्वच्छंदता
तो गुलामी की
ही उलटी
तस्वीर है।
स्वतंत्रता न
तो स्वच्छंदता
है और न
गुलामी। वह
दोनों के मध्य
में परम जागरण
है।
वैसा
व्यक्ति समाज
का दुश्मन
नहीं होता। पर
वैसा व्यक्ति
समाज की छाया
भी नहीं होता।
जहां तक समाज
की गौण
व्यवस्था का
संबंध है, वह हमेशा
राजी होता है।
क्योंकि उसका
कोई मूल्य ही
नहीं है।
रास्ते
पर नियम है
भारत में, कि बाएं चलो;
अमरीका में,
कि दाएं चलो;
क्या फर्क
पड़ता है? चाहे
बाएं चलो, चाहे
दाएं चलोगे।
एक बात तय है, कि सभी लोग
एक ही तरफ
चलें, ताकि
रास्ते पर
सुविधा रहे।
बाएं चलने से
भी काम चल
जाता है, दाएं
चलने से भी चल
जाता है।
लेकिन सभी लोग
बाएं-दाएं
इकट्ठा चलने
लगें तो काम न
चलेगा। तो अड़चन
होगी। ये गौण
नियम हैं। ये
कोई शाश्वत नियम
नहीं है। और न ही
इनमें कोई
नीति है। और न
कोई इनमें
परमात्मा का
हाथ है, हस्ताक्षर
है। समाज की
सुविधा है।
स्वतंत्र
व्यक्ति समाज
की सुविधा में
बाधा नहीं
डालता, सहयोगी
होता है।
लेकिन समाज की
सुविधा के लिए
अपनी आत्मा को
खोने को राजी
नहीं होता।
जहां तक
बाएं-दाएं
चलने का सवाल
है, बिलकुल
राजी होता है।
लेकिन जहां
समाज आग्रह करता
है, कि तुम
अपनी आत्मा ही
खो दो, वहां
वह उस आग्रह
को ठुकरा देता
है।
लेकिन
समाज को उससे
कोई बाधा भी
नहीं आती। लेकिन
समझा की
सुविधा के लिए
अपनी आत्मा को
खोने को राजी
नहीं होता।
जहां तक
बाएं-दाएं
चलने का सवाल
है, बिलकुल
राजी होता है।
लेकिन जहां
समाज आग्रह करता
है, कि तुम
अपनी आत्मा ही
खो दो, वहां
वह उस आग्रह
को ठुकरा देता
है।
लेकिन
समाज को उससे
कोई बाधा भी
नहीं आती। क्योंकि
आत्मा कोई
रास्ते का
ट्रैफिक नहीं
है। वहां तुम
बिलकुल अकेले
हो। वहां
दूसरा है ही हनीं।
इसलिए वहां
समाज के नियमन
की कोई भी
जरूरत नहीं
है। लेकिन
समझा को खतरा
है। खतरा यह
है कि, आत्मवान
व्यक्ति
दबाया नहीं जा
सकता। आत्मवान
व्यक्ति
झुकाया नहीं
जा सकता है।
और
आत्मवान
व्यक्ति
संक्रामक
होता है। जो
और भी बड़ा
खतरा है, क्योंकि
जैसे ही कोई
व्यक्ति आत्मन
होता है। उसके
आसपास फैलने
लगती है आत्मवता
की, भगवत्ता
की। दूसरे लोग
भी आत्मवान
होने लगते हैं।
और अगर बहुत
लोग को छोड़ कर
अपने रास्ते और
पगडंडियां
खोजने लगें, तो वह जो
राजपथ का बल
है, वह टूट
जाता है। समाज
निर्बल हो
जाता है। क्योंकि
आत्मवान
व्यक्ति
मौलिक रूप से
अराजक होता है,
स्वच्छंद
नहीं। लेकिन
वह कोई शासन
पसंद नहीं करता।
इसलिए
तो कबीर कहते
हैं, कि जब अब
मैं हरि हो
गया तो किसके
सामने सिर झुकाना?
आत्मवान
व्यक्ति एक
दिन पाता है, कि वह स्वयं
परमात्मा है।
अब कैसे सिर
झुकाना? कहां
झुकाना? क्यों
झुकाना?
इसलिए
नहीं, कि वह
कोई अहंकारी
है; नहीं
आत्मवान तो
होती ही तब है,
जब अहंकार
खोज जाता है।
नहीं, लेकिन
अब कुछ बचा ही
नहीं, जहां
सिर झुकाना।
सिर झुकानेवाला
भी नहीं बचा।
सिर भी नहीं
बचा। सब खो ही
गया है। तो न
तो राज्य पसंद
करता है
आत्मवान
व्यक्ति को, न तुम्हारे
तथाकथित धर्म
पसंद करते हैं,
आत्मवान
व्यक्ति को, क्योंकि
मंदिर मस्जिद
वह छोड़ देगा।
वहां
सिर पटकना? आदमी की
बनाई हुई
मूर्तियों के
सामने सिर पटकने
से होगा भी
क्या? वे
गुलामी के जाल
हैं, जो
समाज ने सब
तरफ फैला रखे
हैं। कारागृह
भी उसी का
कारागृह है।
और जिसे तुम मंदिर
कहते हो वह भी
उसी का
कारागृह है।
जिसको तुम
पुलिस का आदमी
कहते हो, वह
भी समाज का
नौकर है। और
जिसको तुम
पुजारी, पुरोहित
कहते हो वह भी
उसी समाज का
उतना ही नौकर
है। वे दोनों
ही पुलिसवाले
हैं। एक
तुम्हारे
शरीर के ऊपर
नियंत्रण
रखता है, दूसरा
तुम्हारी
आत्मा पर
नियंत्रण
रखता है। तुम
छूट न जाओ।
और
जैसा मैंने
कहा, जन्म के
पहले क्षण से
समाज का
हस्तक्षेप
शुरू हो जाता
है तुम्हें
मारने का। वह
बच्चा पैदा नहीं
हुआ, कि
समाज मौजूद
है। जैसे ही
बच्चा पैदा
होता है, नवीनतम
खोजें कहती
हैं विज्ञान
की कि जैसे ही बच्चा
पैदा होता है
सारी दुनिया
में दाइयां,
डाक्टर, नर्सेस बच्चे की
नाल को
तत्क्षण काट
देते हैं। और
नवीनतम
विज्ञान की खोजे कहती
हैं, कि
बच्चे की नाल
को तत्क्षण
काटना सदा के
लिए उसे कमजोर
बना देना है।
सदा के लिए।
वह कभी बलवान
न हो सकेगा।
और सदा उसकी
ऊर्जा क्षीण
प्रवाह की
होगी।
उसके
पीछे कारण है।
मां के पेट
बच्चा श्वास
खुद नहीं
लेता। नाभि से
जुड़े नाल से
मां ही उसके लिए
श्वास लेती
है। मां की
श्वास पर ही
बच्चे का हृदय
धड़कता है
लेकिन बच्चा
स्वयं श्वास
नहीं लेता।
श्वास, आक्सीजन,
वायु, प्राण
नाभि से भीतर
जाते हैं। वह
बच्चे की व्यवस्था
है मां के पेट
में, कि वह
मां का एक अंग
है। मां का
अंग होकर जीता
है।
जैसे
ही बच्चा मां
के पेट के
बाहर आया, एकदम से
श्वास नहीं ले
सकता।
क्योंकि नये
यंत्र को चलने
में थोड़ा वक्त
लगेगा।भीतर
एक बड़ा
रूपांतरण
घटेगा। अभी तक
नाभि से सांस ली
थी, अब नाक
से सांस लेगा।
एक नई
व्यवस्था
शुरू होगी।
इसमें कोई
पांच मिनिट, सात मिनिट
लगते हैं।
लेकिन हम
बच्चे की नाल
तत्क्षण काट
देते हैं। जब
कि बच्चा मां
से अभी नाल के
द्वारा सांस
ले ही रहा था।
पांच-सात मिनट
में रूपांतरण
हो जाएगा।
बच्चा सांस
लेने लगेगा, उसका हृदय धड़कने लगेगा,
तब तुम नाल
को काटना।
क्योंकि अब
बच्चा स्वयं अपनी
ऊर्जा को पाने
लगा। ज्यादा
देर नहीं लगती,
पांच-सात
मिनट का ही
मामला है, लेकिन
धैर्य नहीं है
समाज को।
बड़े से
बड़े अस्पताल
में, कुशल से
कुशल डाक्टर
के नीचे भी
वही हो रहा है जो
एक गैर-कुशल
दाई गांव मग
कर रही है।
बे-पढ़ी लिखी
दाई गांव में
कर रही है।
उनके काटने के
ढंग बदल गए
हैं। दाई
बेहूदे ढंग से
काटती है, उसके
पास उतने कुशल
औजर
नहीं। डाक्टर
बड़ी कुशलता से
काटता है।
उसके पास
सुविधा
संपन्नता है।
सारे कुशल
औजार हैं। लेकिन
दोनों एक ही
काम कर रहे
हैं।
जैसे
ही तुम नाल
काट देते हो, सारे बच्चे
का जीवनत्तंत्र
जाता है, हड़बड़ा
जाता है। और
इसलिए बच्चा
रो उठता है, चीखता है।
क्योंकि एक नई
सांस की
व्यवस्था उसको
लेनी पड़ती है।
घबड़ाहट
से सांस लेता
है। और पहली
सांस जिसने घबड़ाहट से,
भय से, कंपन
से ली हो
उसमें जीवनभर
भय और कंपन
प्रविष्ट हो
जाएगा।
क्योंकि
श्वास जीवन
है। भय पहली
ही श्वास से
जुड़ गया। अब
पूरा जीवन यह
भयभीत आदमी
होगा।
पांच
मिनिट रुका जा
सकता है। पांच
मिनिट के बाद
अपने आप नाभि
से जुड़ा हुआ
नाल और उसका कंवन बंद
हो जाता है।
पांच मिनिट तक
कंपन जारी रहता
है। क्योंकि
धड़कन जारी
रहती है, श्वास
जारी हरती है।
पांच मिनट में
नाल अपने आप
बंद हो जाती
है। प्रकृति
के द्वारा ही
उसका कंपन बंद
हो जाता है।
उसकी गर्मी और
ऊर्जा खो जाती
है। यंत्र बदल
गया।
अब तुम
काट सकते हो।
अब तुम मुर्दा
चीज को काट रहे
हो। पांच
मिनिट पहले
तुम जिंदा चीज
को काट रहे थे, और तुमने
बच्चे को पहला
धक्का दे दिया,
और बच्चा
बहुत कोमल है,
अति कोमल
है। नौ महीने
मां के पेट
में उसने कोई
कष्ट नहीं
जाना। कोई
पीड़ा नहीं
जानी। किसी तरह
का दुख नहीं
जाना। एकदम
स्वर्ग से, आदमी के बगीचे
से बाहर आ रहा
है। और तुमने
उसे पहला
धक्का दे दिया।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, यह
जो धक्का है, यह सारी
दुनिया को
कमजोर बनाए
हुए है।
डाक्टर
को जल्दी है।
शायद वह कहेगा, कि पच्चीस
और बच्चे
होनेवाले
हैं। हड़बड़ाहट
है, बेचैनी
है, उसका
खून मन तना
हुआ है। और
उसे पता नहीं,
वह क्या कर
रहा है। अब तो
यह अचेतन का
हिस्सा हो गया,
कि बच्चा
पैदा हुआ, नाल
काट दी। जन्म
की पहली घड़ी
से भय
समाविष्ट हो
गया। अब
तुम्हें कोई
भी डरा सकेगा।
सब तुम्हें
कोई भी चीज
डरा सकेगी।
पुलिस का डंडा
डरा सकेगा।
पुरोहित की
आवाज डरा
सकेगी, कि
नर्क चले
जाओगे। अब
तुम्हें कोई
भी प्रलोभित
कर लेगा।
क्योंकि
प्रलोभन भय का
ही दूसरा रूप
है।
और यह
चलती है समाज
की व्यवस्था
अंतिम क्षण तक, आखिरी दम
तक। तुम जीवन
चाहो तो भी
तुम स्वतंत्र
नहीं; हस्तक्षेप
है। तुम मरना
चाहो तो भी
हस्तक्षेप
है। मरने की
स्वतंत्रता
नहीं है।
यूरोप
और अमेरिका
में जहां
चिकित्सा ने
बहुत विकास कर
लिया है, लाखों
लोग
अस्पतालों
में पड़े हैं
जो मरना चाहते
हैं। जो
सरकारों को
आवेदन करते
हैं, कि हम
करना चाहते
हैं। कोई सौ
साल के करीब
पहुंच गया है।
जीवन जी लिया
गया, जो
जानना था जान
लिया, जो
भटकना था भटक
लिया, जो
देखना था देख
लिया, अब न
कुछ देखने को
बचा, न
जानने को। न
अब कोई जीने
में रस रह गया
है।
लेकिन
डाक्टरों को
आज्ञा नहीं है
किसी को मरने
में सहायता
देने की। ने
केवल यही, बल्कि
डाक्टरों को
आज्ञा है, कि
जब तक बन सके
आदमी को जिंदा
रखने की कोशिश
करे। तो लोग
टंगे हैं, अस्पतालों
में। टांगें
बंधी है, हाथ
बंधे हैं, आक्सीजन
की नली लगी
है। ग्लूकोज
दिया जा रहा है।
न उन्हें ठीक
से होश है, न
जीवन जैसी कोई
चीज बची है।
वे मरना चाहते
हैं क्योंकि
यह पीड़ा है
अब। लेकिन
मरने की किसी दुनिया
के कानून में
आज्ञा नहीं
है। मरने की भी
तुम्हें
आजादी नहीं
है।
तो
पश्चिम में एक
नया आंदोलन चल
रहा है।
आत्म-मरण की
स्वतंत्रता
का आंदोलन। अथनासिया
उसको वे कहते
हैं। कि जो
लोग मरना
चाहते हैं दुनिया
में, कोई
उन्हें रोकने
का किसी को हक
नहीं हो। होना
भी नहीं
चाहिए।
जिंदगी मेरी
है। मैं मरना
चाहता हूं।
मरने की आज्ञा
नहीं है।
अगर
अपने को मरने
की कोशिश में
कपड़े गए तो
सरकार
तुम्हें मार
डालेगी। मगर
तुम्हें
आजादी नहीं
है। यह बहुत
मजे की बात
है। अगर मैं
चला जाऊं, और पहाड़ से
गिर कर मरने
की कोशिश करूं,
और पकड़ लिया
जाऊं तो सरकार
मुझे फांसी
देगी। क्योंकि
मैंने गलत काम
करने की कोशिश
की। मैं भी
यही काम कर रहा
था, लेकिन
उससे
स्वतंत्रता
निहित थी। वह
आज्ञा तुम्हें
नहीं है। वह
सरकार करे तो
ठीक है। तुम करो,
तो नहीं।
क्योंकि
अगर मरने की
तुम्हें
आजादी हो जाए
तो तुम जल्दी
ही जीने की
आजादी भी
मांगोगे। वह
संयुक्त है।
दोनों आजादियां
तुम्हें भी
नहीं जा
सकतीं।
पैदा
हुआ बच्चा, कि समाज की
पूरी चेष्टा
है, कि
समाज का
अनुकरण करे, अनुसरण करे,
पीछे चले।
हमेशा आगे देख
ले कि कोई है
या नहीं। अगर
कोई पीठ न हो
तो ठिठक कर
खड़ा हो जाए।
खतरा है। गलत
रास्ते पर जा
रहा है। जब तक
आगे पीठ दिखाई
पड़ती रहे, तभी
तक रास्ता ठीक
है।
ये
कबीर के वचन बड़े
अनूठे हैं।
कबीर कहते
हैं--
पीछे
लागा जाइ
था, लोक वेद
के साथि।
समाज
यानी लोक; और वेद यानी
शास्त्र। दो
के पीछे चला
जा रहा था।
पीठ भर दिखाई
पड़ रही थी।
पीछे से धक्के
थे, आगे
पीठ थी। एक
भीड़ चली जा
रही है। बड़ी
भीड़ है। कोई
चार अरब आदमी
जमीन पर हैं।
भारी, भयंकर
प्रवाह चल रहा
है। तुम्हारी
छोटी-सी लहर
की किसको
चिंता है।
भयंकर तूफान
है। बड़ी लहरें
उठ रहे हैं और
भागी जा रही
हैं। तुम भी
पीछे लगे चले
जा रहे हो।
सोचते हो, कि
जब तक पीठ
दिखाई पड़ती है,
सब ठीक ही
होगा।
मैंने
सुना है, कि
मुल्ला नसरुद्दीन
एक रात ज्यादा
पी कर मधुशाला
से निकला।
ठीक-ठाक दिखाई
नहीं पड़ रहा
था कहां जाए।
बामुश्किल तो
मधुशाला के
नौकरों ने उसे
अपनी कार तक
पहुंचाया।
बामुश्किल आधे
घंटे मेहनत
करके किसी तरह
उसे चाबी कार
में लगाई। फिर
किसी तरह गाड़ी
को पुरानी
आदतवश चला भी
लिया। लेकिन
तब सवाल उठा
कि जाना कहां
है? घर
कहां है? यह
गांव कौन सा
है? बड़े
दार्शनिक
सवाल उठने
लगे। तब एक ही
उपाय था, कि
किसी के पीछे
हो लूं। और तो
कोई उपाय
नहीं। जाना
कहां है? आ
कहां से रहे
हैं? कौन
हैं? कहां
घर है? यही
तो चिंता है
सारे
मनुष्यों की।
सीधा सुगम उपाय
है, किसी
के पीछे हो
लो।
एक कार
के पीछे हो
लिया।
प्रसन्न था।
अब सब ठीक है।
कहीं जा हरे
हैं। और न
केवल धीमी गति
से जा रहे हैं, बड़ी तेज गति
से जा रहे
हैं। चित्त
प्रसन्न था।
और क्या चाहिए?
गति चाहिए।
जरूर पहुंच
जाएंगे।
क्योंकि इतनी
तेज गति से जा
रहे हैं।
और जो
होना था, वह
हुआ। आखिर में
जा कर वह उस
कार से टकरा
गया। तो उसने
चिल्ला कर कहा,
कि क्या
मामला है? इशारा
क्यों नहीं
दिया, कि
गाड़ी खड़ी करते
हो? उस
आदमी ने बाहर
सिर निकाल कर
कहा कि अपने
ही गैरेज में
इशारा देने की
जरूरत है?
पीछे
लागा जाइ
था, लोक वेद
के साथि।
वही
गति तुम्हारी
है। किसी के
पीछे लगे जा
रहे हो। पीछे
इसलिए नहीं
लगे हो कि
जिसके पीछे
लगे हो, वह
जानता है।
पीछे सिर्फ
इसलिए लगे हो
कि तुम नहीं
जानते हो कि
कहां जाना है।
और जब तुम नहीं
जानते हो तो
तुम किसी के
भी पीछे लगो, कैसे पहुंच
जाओगे? और
तुम थोड़ा यह
भी तो विचार
करो, कि वह
दूसरा भी किसी
के पीछे लगा
है।
तुम
अपने पिता की
मान रहे हो।
तुम्हारे
पिता उनके
पिता की मानते
रहे। उनके
पिता उनके
पिता की मानते
रहे। तुम थोड़ी
यात्रा करो
पीछे की तरफ।
तो तुम पाओगे
कि सभी लोग एक
दूसरे के पीछे
लगे हैं। और
कौन कहां
पहुंचता है?
इस जगत
में थोड़े से लोग
कहीं पहुंचते
हैं। वे वे ही
लोग हैं, जो
किसी पीछे
नहीं चलते।
बुद्ध कहीं
पहुंचते हैं
क्योंकि
लोगों के पीछे
नहीं चलते।
बेहतर है न
चलना। बेहतर
है बैठ जाना।
बेहतर है
निश्चित कर
लेना ठीक से, कि जाना भी
है या नहीं।
साफ है
गंतव्य। तो
थोड़ी ही
यात्रा है
मंजिल तक।
गंतव्य
का ही पता न हो, अपना भी
ठौर-ठिकाना न
हो कि कौन हूं!
इसका भी कोई
पक्का पता न
हो कि जाना भी
है, या
नहीं जाना है?
या कहां
जाना है? तब
तुम किसी के
पीछे लग कर
कितने ही चलते
रहो, तुम्हारी
यात्रा
कोल्हू के बैल
की यात्रा सिद्ध
होगी। चलोगे
बहुत, पहुंचोगे
कहीं भी नहीं।
चलोगे बहुत
क्योंकि गोल
घेरे में चलते
रह सकते हो, जितना चलना
चाहो। थकोगे
रोज, सांझ
थक कर फिर गिर
जाओगे। सुबह
उठ कर फिर लोक वेद
के साथ हो
जाओगे।
लोक, मौजूद भीड़
है; और वेद,
जो भीड़ जा
चुकी।
मुर्दों की
भीड़ है। दो भीड़ें
तुम्हें घेरे
हुए हैं।
जिंदा तो
तुम्हें पकड़े
ही हुए हैं, जो मर गए
उनके हाथ भी
तुम्हारी
गर्दन पर हैं।
वेद का अर्थ
है, जो अब
नहीं हैं, उनके
वचन तुम्हें
सता रहे हैं।
उनको तुम छाती
से लगाए बैठे
हो। जरूर
उन्होंने कुछ
जाना होगा, जरूर
उन्होंने कुछ
पहचाना होगा।
लेकिन
दूसरी की आंख
से देखे गुरु
दृश्य तुम
कैसे देख सकते
हो? और दूसरे
ने जो भोजन
किया है, उससे
तुम्हारी भूख
की तृप्ति न
होगी। और जल
की कितनी ही
चर्चा चले, इससे कहीं
किसी की प्यास
बुझी है? कोई
तुम्हें
बिलकुल लिख कर
ही दे दे जल का
सूत्र--एच. टू. ओ;
तुम उस कागज
को लिए जिंदगी
भर घूमते फिरो,
तो भी कंठ
की प्यास उससे
न बुझेगी।
तुम उस कागज
के मंत्र को
घोल कर पी जाओ,
तो भी
तुम्हारी
प्यास न बुझेगी।
एच.टु. ओ.
से प्यास नहीं
बुझती।
एच. टू.
ओ. यानी वेद।
जिन्होंने
जाना, उन्होंने
सूत्र लिख
दिए। लेकिन
किसी सूत्र में
उनका ज्ञान
समाविष्ट
नहीं होता।
कोई सूत्र जो
उन्होंने
जाना है, उसे
प्रकट नहीं कर
सकता। कोई
शब्द सत्य को
प्रकट करने
में समर्थ
नहीं है।
यही
फर्क है सदगुरु
और वेद में।
वेद सदगुरुओं
के वचन हैं।
लेकिन सदगुरु
जा चुका। जब
खाली वचन रह
गए हैं। ऐसा
समझो, कि
सांप तो जा
चुका, उसकी
खोल पड़ी रह
गई। ऐसा समझो,
कि बुद्ध तो
जा चुके हैं, उनके चरण
चिन्ह रेत पर
बने रह गए
हैं। तुम उन चरण-चिन्हों
पर सिर रखे
पड़े हो।
जीवित
भीड़ से सावधान
होना जरूरी
है। जो अब नहीं
रहे, उनकी भीड़
से भी सावधान
होना जरूरी
है। वस्तुतः
जो नहीं रहे, उनकी पकड़ और
भी गहरी है।
क्योंकि वे
तुम्हें
दिखाई भी नहीं
पड़ते। उनसे
तुम बचना भी
चाहो तो कहां
जाओ? वे
बाहर नहीं हैं,
वे
तुम्हारे
भीतर हैं।
हिंदू
पैदा होते से
ही वेद की
पूजा में लग
जाता है।
मुसलमान पैदा
होते से ही
कुरान की रटन
में लग जाता
है। जैन पैदा
होते से
महावीर को कंठस्थ
कर लेता है।
अब ये
जो लकीरें छूट
गई हैं जमीन, पर, ये
तुम्हारी
आत्मा पर खिंच
जाती हैं।
इनके कारण तुम
की खाली नहीं
हो पाते। इनके
कारण तुम कभी
शून्य नहीं हो
पाते इनके
कारण तुम कभी
शून्य नहीं हो
पाते। इनके
कारण कभी तुम
ध्यान को उपलब्ध
नहीं हो पाते।
और मजा यह है, कि ये सभी
शास्त्र ध्यान
की बातें करते
हैं, शून्य
की बात करते
हैं। तुम भी
शून्य और
ध्यान की बात
करने लगते हो।
लेकिन वह बात
ही होती है।
बात में से
बात निकलती
जाती है।
लेकिन तुम कोरे
के कोरे रह
जाते हो।
तुम्हारा
जीवन तो तभी
समृद्ध होगा, जब तुम्हारा
वेद तुम्हारे
भीतर पैदा हो
जाए, वह
उधार न हो। उस
वेद को ही हम
असली वेद कहते
हैं, जो
तुम्हारे
ध्यान में जन्मेगा।
निश्चित ही
जिस दिन
तुम्हारा वेद
जन्म जाएगा, उस दिन
पुराने वेद को
भी तुम अगर पढ़ोगे
तो समझोगे कि
ठीक है। तुम
गवाही हो
जाओगे।
इस बात
को थोड़ा ठीक
से समझ लेना, क्योंकि
नाजुक है। वेद
से तुम्हें
ज्ञान नहीं
मिलेगा।
लेकिन ज्ञान
अगर तुम्हें
अपने ध्यान
में मिल जाए, तो तुम वेद
के गवाह हो
जाओगे कि वह
ठीक है। तुमने
भी वैसा ही
जाना। तुमने
भी वही जाना, जो ऋषियों
ने कहा है।
लेकिन ऋषियों
ने क्या कहा
है, इसको
कंठस्थ कर के
कोई कभी ज्ञान
को उपलब्ध
नहीं होता।
ज्ञान को
उपलब्ध होकर
ऋषियों ने जो
कहा है वह ठीक
है, सम्यक
है, यह
प्रतीत आती
है। तब सभी
शास्त्र सच हो
जाते हैं।
और इस
फर्क को भी
समझ लो। अगर
तुमने वेद को
कंठस्थ किया
तो कुरान गलत
रहेगा। सही न
हो सकता। क्योंकि
सत्य का तो
तुम्हें पता
नहीं है। तुम्हें
शब्दों का पता
है। वेद अलग
शब्दों का उपयोग
करता है, कुरान
अलग शब्दों का
उपयोग करता
है। उन शब्दों
में मेल न
होगा। बाइबिल
और अलग शब्दों
का उपयोग करती
है। तालमुद
और अलग शब्दों
का उपयोग करता
है, उनमें
मेल न होगा।
तुम पाओगे कि
वेद सही, सब
गलत। शेष सब
गलत। महावीर
सही, तो
कृष्ण गलत।
कृष्ण सही तो
बुद्ध गलत।
सब के
सही होने का
तुम्हें पता
नहीं चल सकता।
इसलिए तुम
शास्त्र से
बंधे रहोगे।
जिस दिन तुम्हारा
वेद पैदा हो
जाएगा, तुम्हारा
कुरान भीतर, तुम्हारे
प्राण का गीत
पैदा होगा, तुम्हारी
गीता पैदा
होगी, वह भगवदगीता
है। जब
तुम्हारा
भगवान गा
उठेगा, तभी
भवगदगीता।
उस दिन तुम
अचानक पाओगे
कि वेद ही सही
नहीं है, कुरान
भी एकदम सही
है। बाइबिल, तालमुद सब एक-साथ
सही हैं।
सत्य
इतना बड़ा है
कि सभी शब्दों
को समा लेता है।
सत्य इतना बड़ा
है कि सभी
शास्त्र उसके
साथ संयुक्त
हो जाते हैं, एक हो जाते
हैं। सत्य तो
सागर जैसा है
जिसमें सभी नदियां
गिर जाती हैं।
गंगा ही गिरती
है ऐसा नहीं
है, सिंधु
भी वहीं गिर
जाती है। गंगा
ही पहुंचती है
सागर तक ऐसा
नहीं है; गोदावरी
भी वहीं पहुंच
जाती है। और गौदावरी, गंगाओं को छोड़ दें, छोटे-छोटे
नाले, जिनका
कोई नाम भी
नहीं, वे
भी पहुंच जाते
हैं। अनाम भी
पहुंच जाते
हैं।
सभी जल
वहीं पहुंच
जाता है, जहां
से आता है।
सभी अपने मूल
रूप को उपलब्ध
हो जाते
हैं--देर
अबेर। जिसने
सत्य को जाना
उसने सभी
वेदों की, सभी
शास्त्रों की
सचाई को जान
लिया।
कबीर
कहते हैं--
पीछे
लागा जाइ
था, लोक वेद
के साथि।
ये जो
प्रत्यक्ष
लोग हैं उनके
पीछे भी चल
रहा था, वह
जो
अप्रत्यक्ष
भीड़ है अतीत
के लोगों की, उनके पीछे
भी चल रहा था।
शास्त्र, सिद्धांत,
शब्द, मान्यताएं,
धारणाएं--उनसे
भरा था। उनके
पीछे चल रहा
था।
आगे थे
सतगुरु मिला, दीपक दिया हाथि।
यह बड़ी
ही सूक्ष्म
वचन है। कबीर
कहते हैं, कि अब तक तो
लोगों की पीठ
पीछे चल रहा
था। गुरु इस
तरह नहीं
मिलता। गुरु
आगे से मिला।
आमने-सामने
मिला। सम्मुख
होकर मिला।
गुरु
जब भी मिलता
है, आमने
सामने मिलता
है। और कोई सदगुरु
तुम्हें पीछे
नहीं चलता।
अगर कोई सदगुरु
पीछे चलता हो
तुम्हें, तो
समझ लेना कि
वह सदगुरु
नहीं। वह फिर
लोक वेद ही
है। सदगुरु
तो आगे से
मिलता है।
सूफियों में
बड़ी प्रसिद्ध
कहानी है।
एक
सूफी फकीर हज
की यात्रा पर
गया। बूढ़ा
फकीर था, तो
शिष्यों ने
सोचा कि उसके
लिए एक गधा ले
आना ठीक है।
उन इलाकों में
लोग गधों से
यात्रा करते।
तो गधा ले आए।
लेकिन बड़े चकित
हुए। क्योंकि
फकीर जब उस पर
बैठा तो उलटा
बैठा। गधे के
सिर की तरफ
उसने पीठ कर
ली और पूंछ की
तरफ मुंह कर
लिया। शिष्य
कुछ कह न सके।
क्या कहें? गुरु बहुत
मान्य था और
वह जो भी करता
सदा ठीक ही
करता। कोई राज
होगा, मगर
यह बड़ा बेहूदा
लगता है।
वे सब
चले। जैसे ही
गांव में
प्रविष्ट हुए, लोग हंसने
लगे। भीड़ लग
गई। आवारा
बच्चे पत्थर-कंकड़
फेंकने लगे।
लोग बाहर निकल
गाए घरों के।
बड़ा तमाशा
होने लगा।
आखिर शिष्यों
को भी बड़ी
बेचैनी लगने
लगी। वे भी
नीचा देख कर
चल रहे हैं, कि जिस गुरु
के साथ हम जा
रहे हैं, वह
गधे पर उलटा
बैठा हुआ है।
बदनामी तो
हमारी भी हो
रही है। उनकी
तो हो ही रही
है, मगर हम
भी तो उनके
पीछे चल रहे
हैं, तो
लोग हम पर हंस
रहे हैं।
लोग
उनसे भी कहने
लगे, किसके
पीछे जा रहे
हो, दिमाग
खराब हो गया
है? यह हज
की यात्रा हो
रही है? बहुत
यात्राएं
देखीं। यह
तुम्हारा
गुरु गधे पर
उलटा क्यों
बैठा है?
आखिर
उन्होंने कहा
कि
सुनिए--अपने
गुरु को--कि इस
बात को आप साफ
ही कर दें।
राज जरूर
होगा। मगर हम
बड़े मुश्किल
में पड़ गए
हैं।
गुरु
ने कहा, ऐसा
है कि अगर मैं
गधे पर सीधा
बैठूं, तो
मेरी पीठ तुम्हारी
तरफ होगी। और
कभी किसी गुरु
की पीठ अपने
शिष्यों की
तरफ नहीं हुई।
अगर तुम मेरे
पीछे चलो, मैं
गधे पर सीधा
बैठूं तो मेरी
पीठ तुम्हारी
तरफ होगी। यह
भी हो सकता
है। क्योंकि
मैंने सभी
विकल्प सोच
लिए
तुम आगे चलो,
मैं गधे पर
पीछे बैठकर
सीधा चलूं तो
तुम्हारी पीठ
गुरु की तरफ
होगी। जब गुरु
की पीठ भी क्षमा
योग्य नहीं है
कि शिष्य की
तरफ हो, तो
शिष्य की पीठ
गुरु की तरफ
हो तो यह तो
अक्षम्य
अपराध हो
जाएगा। तो यही
एक सुगम उपाय
है, कि मैं
गधे पर उलटा
बैठूं, तुम
मेरे पीछे
चलो।
आमने-सामने हम
रहे।
कहानी
बड़ी प्रीतिकर
है। बड़ी
रहस्यपूर्ण
है।
कबीर
कहते हैं, आगे थे सदगुरु
मिला।
गुरु
सदा आगे से
मिलता है।
गुरु सदा
तुम्हारे आमने-सामने
मिलता है। वह
तुम्हारी
आंखों में आंखें
डाल कर
देखेगा। वह
तुम्हारे
हृदय से हृदय
की बातें कहेगा।वह
तुम्हारे
सम्मुख होगा।
वह तुम्हें
अपने सम्मुख
करेगा। यह
मिलन
सीधा-सीधा है।
आमने-सामने
है। यह साक्षात्कार
है।
तो
गुरु की किसी
को अनुकरण
नहीं करवाता।
वह यह नहीं
कहता, कि
तुम मेरे जैसे
हो जाओ। तुम
हो भी नहीं
सकते।
तुम्हारे
होने की कोशिश
में ही तुम
भटक जाओगे।
कोई किसी जैसा
नहीं हो सकता।
परमात्मा एक जैसे
दो व्यक्ति
बनाता ही
नहीं। उसका
सृजन अनंत है।
वह रोज नए-नए
ढंग खोज लेता
है। जैसे दो
आदमियों के
अंगूठे के
चिन्ह एक जैसे
नहीं होते, ऐसे दो
आदमियों की
आत्माएं भी एक
जैसी नहीं होती।
व्यक्तित्व, मौलिक, अद्वितीय
व्यक्तित्व
प्रत्येक की
संपदा है।
तुम बस, तुम जैसे
हो। न
तुम्हारे
जैसा कोई
व्यक्ति कभी
हुआ है, न
है, न
होगा।
क्योंकि
परमात्मा
पुनरुक्ति
करने मग भरोसा
नहीं रखता।
पुनरुक्ति तो
वही करते हैं
जिनकी सृजन की
क्षमता क्षीण
है। परमात्मा
विराट है। वह
चुक नहीं गया
है कि अब फिर
से बुद्ध को
बनाए, कि
फिर से राम को
बनाए, और फिर
से धनुष पकड़ा
दे उनको। यह
तो तभी होगा, जिस दिन
परमात्मा चुक
जाए। अब उसकी
बुद्धि में
कुछ न आए, अब
उसकी प्रतिभा
खाली पड़ जाए।
तब फिर वह
जुगाली शुरू
कर दे। तब वह
पुराने को
दोहराने लगे।
मगर उस दिन
परमात्मा मर
जाएगा। उसके
जीवित होने का
अर्थ है, उसके
सृजन का जीवित
होना है।
मैंने
सुना है कि एक
मित्र ने, पिकासो के एक मित्र
ने उसका एक
चित्र खरीदा। पिकासो के
चित्र लाखों
में बिकते थे।
उसने कोई पांच
लाख रुपए में
वह चित्र
खरीदा। महंगा
चित्र था।
खरीदने के
पहले पक्का कर
लेना जरूर था,
वे वह पिकासो
का मौलिक
चित्र है या
किसी की नकल
है, या
किसी और ने
बनाया है।
संदेह उसे
नहीं था। संदेह
इसलिए नहीं था,
कि जब यह
चित्र पिकासो
बना रहा था तब
वह पिकासो
से मिलने गया
था और उसे
पक्की तरह याद
है कि यह वही
चित्र है पिकासो
को बनाते देखा
है। लेकिन फिर
भी कौन जाने
स्मृति भी
धोखा देती हो।
किसी और आदमी
ने ठीक
प्रतिलिपि
बनाई हो। तो पिकासो से
पूछ लेना
अच्छा है।
उसने
जाकर पिकासो
से कहा, कि
यह चित्र मैं
खरीद रहा हूं।
पांच लाख रुपए
का माला है।
खरीद लूं यह
चित्र? आथेंटिक है, प्रमाणिक
है, तुम्हारी
ही बनाया हुआ
है? किसी
की प्रतिलिपि
तो नहीं है? पिकासो ने चित्र
देखा और कहा
कि नहीं। यह
प्रामाणिक नहीं
है। चक्कर में
मत पड़ जाना।
तब तो वह मित्र
बहुत हैरान
हुआ। उसने कहा,
कि तुम मुझे
हैरान करते
हो। क्योंकि
इस चित्र को
मैंने
तुम्हें
बनाते देखा। पिकासो ने
कहा यद्यपि
मैंने ही इसे
बनाया है, लेकिन
यह प्रामाणिक
नहीं है। तब
तो बात और उलझ
गई। मित्र ने
कहा, फिर
प्रामाणिक का
अर्थ क्या
होता है? पिकासो
ने कहा, प्रामाणिक
का अर्थ होता
है मौलिक। यह
मेरी एक पुराने
चित्र की
प्रतिलिपि
मैंने ही की
है, इसलिए
प्रामाणिक है
एक अर्थ में, कि मैंने ही
बनाई है।
लेकिन नई नहीं
है। इसलिए
इसके साथ मैं
अपना नाम नहीं
जोड़ना चाहता।
यह भी
हो सकता है कि पिकासो का
बनाया हुआ
चित्र भी
मौलिक न हो।
क्योंकि पिकासो
आखिर सीमित है; आदमी है।
रोज नए चित्र
नहीं बना
सकता। लेकिन पुनरुक्ति
पिकासो
खुद करे या
कोई दूसरा
आदमी करे, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? पुनरुक्ति,
पुनरुक्ति
है।
परमात्मा
जीवित है, क्योंकि अभी
वह चुक नहीं
गया है। उसने
दुबारा राम
नहीं बनाए।
उसने दुबारा
कृष्ण नहीं
बनाए। उसने
दुबारा बुद्ध,
महावीर
नहीं बनाए।
उसने दुबारा
कुछ बनाया ही नहीं।
वह रोज नए
बनाता है।
यहां नितनूतन,
चिर-पुरातन
जीवन का जो
सृजन है, उसमें
तुम किसी और
जैसे होने को
पैदा नहीं हुए
हो। भूल कर भी
उस रास्ते पर
मत जाना। तुम
स्वयं होने को
पैदा हुए हो।
गुरु
तुम्हें अपना
अनुकरण नहीं
करवाता। गुरु
तुम्हें साथ
देता है, सहयोग
देता है ताकि
तुम स्वयं हो
जाओ। यही सदगुरु
और असदगुरु
का लक्षण है।
सदगुरु
का अर्थ है, वह तुम्हें
सहारा देगा, कि तुम
तुम्हीं हो
जाओ। तुम जो
होने को पैदा
हुए हो वह हो
जाओ।
तुम्हारी
नियति पूरी हो
जाए। वह
तुम्हें
बनाएगा नहीं,
सहारा
देगा। वह
तुम्हारे ऊपर
आरोपित नहीं
करेगा।
तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है उसके
आविर्भाव में
सहयोगी होगा।
वह सब भांति
तुम्हें साथ
देगा, लेकिन
किसी भी भांति
तुम पर आरोपण
नहीं करेगा।
और जिस दिन
तुम अपनी
प्रतिभा में खिलोगे--अनूठे,
उस दिन वह
प्रसन्न
होगा। अगर तुम
एक प्रतिलिप हो
गए, एक
कार्बन-कापी
हो गए तो
जितना दुखी सदगुरु होता
है, उतना
दुखी कोई और
नहीं होता। वह
चूक गया। तुमने
फिर मूढ़ता
कर ली। तुम
फिर लोक वेद
के साथ चल
पड़े।
...आगे
थे सतगुरु
मिला।
गुरु
सदा आगे से
मिलता है।
दीपक
दिया हाथि।
और
गुरु ने
प्रकाश दिया।
यह भी बड़ी
सूक्ष्म बात
है।
एक
अंधा आदमी आए
मेरे पास, और कहे कि मुझे
गांव का नक्शा
समझा दें। मैं
अंधा आदमी हूं।
गली, रास्ते,
यहां आश्रम
तक आने का
मार्ग सब मुझे
समझा दें, ताकि
मैं भटकूं
न, भूलूं न। कितना ही
समझा दूं, अंधा
धीरे-धीरे
कंठस्थ भी कर
ले, टटोल-टटोल
कर आने लगे।
फिर धीरे-धीरे
इतना अभ्यासी
हो जाए कि
टटोलने की भी जरूरत
न रहे, पूछने
की भी जरूरत न
रहे। सीधा
चलता हुआ
आश्रम आ जाए, तो भी अंधा
अंधा ही होगा।
और किसी दूसरे
नगर में, इस
नगर का नक्शा
काम न आएगा।
और अंधा जहां
से आता है इस
आश्रम तक अगर
उसे किसी और
जगह छोड़ दिया
जाए तो वहां
से इस आश्रम
तक न आ सकेगा।
उसका आना रूढ़ि
बद्ध है।
तो
क्या यह उचित
होगा, कि
अंधे को हम
नक्शा दें और
समझाएं; या
यह उचित होगा
कि उसके आंख
की चिकित्सा
करें? उसकी
आंख ठीक हो
जाए, फिर
किसी नक्शे की
कोई जरूरत
नहीं। फिर
कहीं भी तुम
उसे छोड़ दो वह
चला आएगा। फिर
दूसरे नगर में
भी उसकी आंखें
काम आएंगी। और
जिंदगी का नगर
रोज बदल जाता
है। प्रतिपल
बदल जाता है।
सुबह कुछ और
है, सांझ
कुछ और है।
तुम एक ही जगह
थोड़ी हो। जीवन
की धारा रोज
बदलती जा रही
है। हर घड़ी सब
नया हो रहा
है। नदी बहती
चली जाती है।
एक ही नदी में
दुबारा उतरने
का कोई उपाय
नहीं है। तो
आंख ही काम आ
सकती है
जिंदगी में।
जो सदगुरु
है, वह
तुम्हें
सिद्धांत
देता है। जो सदगुरु है,
वह तुम्हें
दीपक होता है।
सदगुरु
तुम्हें
प्रकाश देता
है ताकि तुम
जहां भी रहो, देख लो। असदगुरु
तुम्हें
सिद्धांत
देता है। अंधे
की लकड़ी की भांति
हैं वे
सिद्धांत, ताकि
तुम टटोल कर
अपना रास्ता
खोज लो। लेकिन
लकड़ी और आंख
का क्या मुकाबला?
शास्त्र
से तुम्हें
अंधे की लकड़ी
मिलती है। ताकि
तुम थोड़ा टटोल
कर रास्ता खोज
लो। मुसीबत आए
तो तुम
शास्त्र में
देख लो कि
करना है। सदगुरु
आंख देता है, दीया देता
है, भीतर
की रोशनी देता
है। तुम्हें
जगाता है। जागरण
देता है।
विवेक देता है,
होश देता है;
सिद्धांत
नहीं देता।
क्योंकि होश
के लिए किसी
सिद्धांत की
कोई जरूरत
नहीं है। तुम
मुझसे पूछो कि
क्या करें और
क्या न करें, मैं तुम्हें
कुछ न
बताऊंगा।
क्योंकि क्या
करें, क्या
न करें, सब
जड़ जो जाएगा।
अगर मैं
तुम्हें कहूं
कि यह करो, कल
स्थिति बदल
जाएगी। तब तुम
मुश्किल में
पड़ जाएगा। अगर
मैं कहूं यह
मत करो, कल
स्थिति बदल
जाएगी।
समझो, कि मैं
तुमसे कहूं, सत्य बोलो।
वेद दे दिया
तुम्हें। अब
सत्य से बड़ा
कोई वेद है? कोई
सिद्धांत है?
मैंने कह
दिया सत्य
बोलो। यह
सिद्धांत है।
तुम्हें सत्य
दिखाई नहीं
पड़ता।
तुम्हारी
रोशनी जगी
नहीं है। तुम
सत्य भी गलत
जगह बोल दोगे।
जहां नहीं बोलना
था, वहां
बोल दोगे। और
जहां बोलना था,
वहां न
बोलेंगे। तुम
सत्य का भी
वही उपयोग कर लोगे,
जो अंधेपन
में किया जा
सकता है। भला
मैंने लकड़ी दी
थी, कि
टटोल कर तुम
रास्ता खोज
लेना। तुम
किसी का सिर
खोल दोगे लकड़ी
से। वह भी
किया जा सकता
है। लकड़ी वही
है।
तुम
ऐसी जगह सत्य
बोलोगे जहां
सत्य किसी का प्राणघातक
हो जाए और तुम
कहोगे, कि
सिद्धांत
मेरे साथ है।
अगर किसी का
प्राण जाता हो
और तुम्हारे
झूठ बोलने से
बच जाते हो, तो होशवाला
आदमी झूठ
बोलेगा।
बेहोश आदमी सच
बोलेगा।
तुम्हारे
सत्य का क्या
इतना मूल्य है?
अकड़ ही है
यह भी अहंकार
की, कि मैं
सत्यवादी
रहूंगा चाहे
किसी की जान
जाती हो।
दूसरे
के जीवन का
मूल्य बहुत
ज्यादा है। और
अगर छोटे से
झूठ बोलने से
किसी का जीवन
बचता हो, तो
मैं तुमसे
कहता हूं कि
बुद्ध झूठ
बोलेंगे और
जीवन बचा
लेंगे। तुम सच
बोलोगे और
उसके हत्या के
जिम्मेवार हो जाओगे।
झूठ और
सच मुल्यवान
नहीं हैं, बोध
मूल्यवान है।
क्या करना, क्या न करना,
मूल्यवान
नहीं है, क्या
होना!
तुम्हारे
भीतर की चेतना
कैसी हो गई, यह मूल्यवान
है। वह चेतना
अगर सम्यक है,
तो तुम झूठ
भी बोलोगे तो
सत्य से कीमती
होगा। वह
चेतना अगर
अंधकार में
बेहोश है, मुर्दा
है, सोई
हुई है, अंधी
है, तो तुम
सत्य भी
बोलोगे, तो
झूठ से बदतर
होगा।
झूठ और
सच का सवाल
नहीं है।
तुम्हारे
जागृत होने का
सवाल है। और
जिंदगी जटिल
है। आज तो सच
है, कल वह झूठ
हो जाता है।
अभी जो कहा, वह क्षण भर
बाद मौजूं न
रह जाए। सब
बदलता जाता है।
जिंदगी
सीधा-सीधा
रास्ता नहीं
है, बड़ी
पहेली है।
इसलिए अगर तुम
होश में हो तो
ही पहली के
बाहर आ सकोगे।
अगर तुम बेहोश
हो, तो
कितने ही
सिद्धांत
तुम्हारे पास
हों, सिद्धांत
तुम्हारे पैर
में जंजीरें
बन जाएंगी।
तुम्हारे प्राणों
के लिए पंख बन
सकेंगी।
इसलिए
कबीर कहते
हैं--दीपक
दिया हाथि।
नहीं बताया कि
क्या करो और
क्या न करो।
नहीं कहा, कि यह जप करे,
यह तप को।
नहीं कहा कि
यह क्रिया करो,
यज्ञ करो, कि मंदिर
जाओ, कि
मस्जिद जाओ।
नहीं कहा, कि
व्रत-उपवास
करो। दीपक
दिया हाथि।
सिर्फ ध्यान
का दीया दिया।
समाधि की
रोशनी दी।
और
गुरु सामने से
मिला। सामने
से ही दिया जा
सकता है दीया, क्योंकि आंख
जब आंख में
मिले, प्राण
जब प्राण में
मिले, जब
बुझा दीया जले
दीए के करीब
आए, आमने-सामने
आए, बुझी
बाती जली बाती
के इतने निकट
आ जाए, कि
एक छलांग लगे
ज्योति की और
बुझा दीया जल
जाए।
आगे थे
सतगुरु मिला, दीपक दिया हाथि,
भगति
भजन हरिनाम है, दूजा दुख
अपार।
अब उस
प्रकाश में
जाना। यह गुरु
ने नहीं कहा, कि भगति
भजन हरिनाम
है। नहीं, गुरु
ने तो सिर्फ
रोशनी दी।
गुरु ने तो
हिलाया और
नींद तोड़ दी।
गुरु ने तो
जगाया, कि
सुबह हो गई।
कब तक सोए
रहोगे? उठो।
बात खतम हो
गई। गुरु ने
तो थोड़े पानी
के छींटे मार
दिए आंख पर।
कि चाय की एक
प्याली लाकर
पिला दी। उठो,
जाग जाओ, सुबह हो गई।
बहुत सो लिए।
जन्मों-जन्मों
सो लिए। खोलो
आंख। सूरज
निकला है।
उस
खुली आंख में
दिखाई पड़ा,
भगति
भजन इरिनाम
है, दूजा सूख
अपार।
सिर्फ
परमात्मा का
स्मरण, उसकी
भक्ति, उसका
भजन, उसके
नाम का सतत
स्मरण, उसकी
प्रतीति, उसका
अहसास। जैसे
सब तरफ से वही
घेर हुए है।
दूजा दूख अपार।
और सब
दुख है। समझें:भक्ति
प्रेम का
शुद्धतम रूप
है। प्रेम की
तीन कोटियां
हैं।
पहली
कोटि, जिससे
सौ मैं
निन्यानबे
लोग परिचित
हैं--काम का
अर्थ है, दूसरे
से लेना लेकिन
देना नहीं।
वासना लेती है,
देती नहीं।
मांगती है, प्रत्युत्तर
नहीं देती।
वासना शोषण
है। अगर देने
का बहाना करना
पड़े तो करती
है। या देने का
दिखावा भी
करना पड़े तो
भी करती है।
क्योंकि
मिलेगा नहीं।
तो तुम्हारा
जो प्रेम है
वह दिखावा है।
वस्तुतः तुम
देना नहीं
चाहते, तुम
लेना चाहते
हो।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, हमें कोई
प्रेम नहीं
करता। मैं
उनसे पूछता हूं
कि यह कोई
सवाल ही नहीं
है, कि
तुम्हें कोई
प्रेम नहीं
करता। सवाल यह
है, कि तुम
किसी को प्रेम
करते हो?
इसका
उन्हें खयाल
ही नहीं है।
इस पर
उन्होंने विचार
ही नहीं किया।
वे कहते हैं
कि इस पर हमने
सोचा ही नहीं।
इसको तो तुम
मान ही बैठे
हो कि तुम
प्रेम करते
हो। कठिनाई यह
है कि दूसरा
तुम्हें
प्रेम नहीं
करता। पत्नियां
मेरे पास आती
हैं वे कहती
हैं कि पति
प्रेम नहीं
करते, पति
आते हैं वे
कहते हैं, पत्नियां प्रेम नहीं
करतीं।
काम-वासना
मांगती है।
देना नहीं
चाहती। काम-वासना
कृपण है।इकट्ठा
करती है, बांटना
नहीं चाहती।
शोषण है।
और जब
दो व्यक्ति, दोनों ही
कामातुर हों,
तो बड़ी अढ़न
हो जाती है।
दोनों ही
भिखारी हैं।
दोनों मांग
रहे हैं। देने
की हिम्मत
किसी में भी
नहीं है। और
दोनों यह धोखा
देने की कोशिश
कर रहे हैं, कि मैं दे
रहा हूं।
लेकिन यह धोखा
कितनी देर चल
सकता है? इसलिए
काम-वासना से
जुड़े लोगों का
जीवन अनिवार्य
रूपेण दुखपूर्ण
हो जाएगा।
उसमें सुख
नहीं हो सकता।
उसमें सुख की
संभावना ही हनीं है।
जिस
ऊर्जा का नाम
प्रेम है, उसके तीन
रूप हैं। पहला
काम, जिसमें
तुम मांगते हो
और भिखारी
होते हो। और देने
से डरते हो, देते नहीं।
या देने का का
सिर्फ दिखावा
करते हो, ताकि
मिल सके। अगर
थोड़ा बहुत कभी
देना पड़ता है
तो वह ऐसा ही
जैसा कि मछली पकड़ने
वाला कांटे
में थोड़ा आटा
लगा देता है।
वह कोई मछली
का पेट भरने
को नहीं। वह
कोई मछली को
भोजन देने के
लिए तैयारी
नहीं कर रहा
है। लेकिन कांटा
चुभेगा
नहीं बिना आटे
के। मछली आटा पकड़ने
आएगी, कांटे
में फंसेंगी।
तुम
अगर देते हो
तो बस इतना ही, कि आटा बन
जाए। दूसरा
व्यक्ति फंस
जाए तुम्हारे
जाल में। पर
मजा यह है, कि
दूसरा भी
मछलीमार है।
उसने भी आटा
कांटे पर लगा
रखा है। और जब
दोनों के
कांटे फंस
जाते हैं
दोनों के मुंह
में, तो
उसको तुम
विवाह कहते
हो। दोनों ने
एक दूसरे को
धोखा दे दिया।
इसलिए
जीवन भर क्रोध
बना रहता
है--जीवन भर कि
दूसरे न धोखा
दे दिया।
लेकिन वही
पीड़ा दूसरी की
भी है। इस
क्रोध में
कैसे आनंद के
फूल लग सकते हैं? असंभव। तुम
नीम के बीज
बोते हो और आम
की अपेक्षा
करते हो। यह
नहीं होगा। यह
नहीं हो सकता
है।
दूसरा
रूप है, प्रेम
का अर्थ है
जितना लेना, उतना देना।
वह
सीधा-साफ-सुथरा
सौदा है। काम
शोषण है, प्रेम
शोषण नहीं है।
वह जितना लेता
है उतना देता
है। हिसाब साफ
है। इसलिए
प्रेमी आनंद
को तो उपलब्ध
नहीं होते
लेकिन शांति
को उपलब्ध होते
हैं। कामी
शांति को
उपलब्ध नहीं
होते, सिर्फ
अशांति, चित,
संताप।
प्रेमी आनंद
को तो उपलब्ध
नहीं हो सकते
लेकिन शांति
को उपलब्ध
होते हैं। एक
संतुलन होता
है जीवन में।
जितना लिया, उतना दिया।
जितना दिया, उतना पा
लिया, हिसाब-किताब
साफ होता है।
प्रेमियों
के बीच में
कलह नहीं
होती। एक गहरी
मित्रता होती है।
सब साफ है।
लेना देना
बाकी नहीं है।
क्रोध भी नहीं
है। क्योंकि
जितना दिया, उतना पाया।
कुछ विषाद भी
नहीं है। न
कुछ लेने को
है, न कुछ
देने को है।
हिसाब-किताब
साफ है।
प्रेमी
साफ-सुथरे
होते हैं।
ऐसी
घटना अक्सर
मित्रों के
बीच घटती है ।
इसलिए मित्र
बड़े शांत होते
हैं मित्रों
के साथ। पति
पत्नी के बीच
कभी घटती है, मुश्किल से
घटती है।
क्योंकि वहां
काम ज्यादा प्रगाढ़
है। लेकिन दो
मित्रों के
बीच अक्सर
घटती है। और
अगर दो प्रेमी
हो पति पत्नी,
तो वे भी
मित्र हो जाते
हैं। उनके बीच
पति-पत्नी का
संबंध नहीं रह
जाता। एक मैत्री
का संबंध हो
जाता है, जहां
कोई विषाद
नहीं है। न
कोई मन में
पश्चात्ताप
है। न यह खयाल
है कि किसी ने
किसी को धोखा
दिया।
प्रेम
का तीसरा रूप
है, भक्ति।
जिसमें सिर्फ
भक्त देता है।
लेने की बात
ही नहीं करता।
काम से ठीक
उलटी है
भक्ति। और काम
और भक्ति के
बीच में है
प्रेम। कामी
दुखी होता है।
भक्त आनंदित
होता है।
प्रेमी शांत
होता है। इस
पूरी बात को ठीक
से समझ लेना।
भक्ति
काम से बिलकुल
उलटी घटना है।
दूसरा विरोधी
छोर है। वहां
भक्त देता है, सब देता है।
अपने को पूरा
दे देता है।
कुछ बचाता ही
नहीं पीछे।
इसी को तो हम
समर्पण कहते
हैं। अपने को
भी नहीं
बचाता।
देनेवाले को
भी बचाता।
उसको भी दे
डालता है।
और
मांगता कुछ भी
नहीं। न
बैकुंठ
मांगता है, न स्वर्ग
मांगता है।
मांगता कुछ भी
नहीं। मांग
उठी, कि
भक्ति
तत्क्षण पतित
हो जाती है।
काम हो जाती
है। अगर उतना
भी दिया जितना
परमात्मा देता
है, तो भी
भक्ति भक्ति
नहीं है, प्रेम
ही हो जाती
है। भक्ति तो
तभी भक्ति है
जब अशेष भाव
से भक्त अपने
को पूरा उड़ेल
देता है।
ऐसा
नहीं है कि
भक्त को मिलता
नहीं। भक्त को
जितना मिलता
है उतना किसी
को नहीं
मिलता। उसी को
मिलता है।
लेकिन उसकी
मांग नहीं है।
छिपी हुई मांग
भी नहीं है।
वह सिर्फ उड़ेल
देता है। अपने
को पूरा दे
देता है। और
परिणाम में
परमात्मा
पूरा उसे मिल
जाता है।
लेकिन वह परिणाम
है। वह उसकी
आकांक्षा
नहीं है। वह
उसने कभी चाहा
न था।
इसलिए
भक्त सदा कहता
है, कि
परमात्मा की
अनुकंपा से
मिला।
अनुग्रह से मिला।
मैंने कभी
मांगा न था।
उसने दिया है।
मैं अपात्र
था। फिर भी
उसने भर दिया
मुझे। मेरे
पात्र को पूरा
कर दिया है।
मैं योग्य न
था। मेरी क्या
योग्यता थी? उसने
स्वीकार किया,
यह भी काफी
था। वह इनकार
भी कर देता तो
मैं कहां अपील
करने जाता? कोई अपील न
थी। क्योंकि
मेरी कोई
योग्यता ही
नहीं थी। भक्त
अपने को दे
देता है।
समग्र भाव से,
परिपूर्ण
भाव से।
और
जितना अपने को
दे देता है, उतना ही
परिपूर्ण
परमात्मा उस
पर बरस उठता
है। बहुत पा
लेता है। अनंत
पा लेता है।
सब पा लेता है,
जो इस
अस्तित्व में
पाने योग्य है,
जो भी सत्य
है, सुंदर
है, शिव है,
सब उसे मिल
जाता है। वह
इस अस्तित्व
का शिखर हो
जाता है।
भगति
भजन हरिनाम
है...
और भजन
है, भक्त के
अनुग्रह की
अभिव्यक्ति।
भजन का अर्थ नहीं
है, तुम
राम-राम, राम-राम
कर रहे हो।
क्योंकि
राम-राम, राम-राम
तुम कर सकते
हो किसी वासना
से। तुम करते
हो ही वासना
से। तब तुमने
परमात्मा से
भी काम का ही, वासना का ही
संबंध बनाने
की कोशिश की।
तुम कुछ मांग
रहे हो। तुम
हिसाब रखते हो,
कि लाख दफे
नाम लिया।
मैं एक
घर में मेहमान
था। उस घर का
मालिक निश्चित
पागल रहा
होगा। उसने
सारे घर को कापियों
से भर रखा
है--राम-राम, राम-राम।
सालों से वह
लिख रहा है।
इतने करोड़
नमा लिख चुका
है। उसका
हिसाब रखता था,
नाम कितने करोड़ लिख
चुका है। उसकी
अकड़ है। वह
अगर परमात्मा
के समाने
जाएगा, अकड़
कर खड़ा हो
जाएगा, कि
क्या इरादे
हैं? इतने करोड़ नाम
लिखे अब इसका
क्या फल है? उसकी आंखों
में दिखता है
कि वह फूल की
मांग खड़ी है।
अन्यथा ये कापियां
बच्चों के काम
आ जाती, खबर
कर दीं। स्कूल
में बहुत
बच्चे हैं, जिनके पास कापियां
नहीं है। उन
सज्जन से
मैंने कहा कि
मत करो खराब।
बच्चों को
बांट दो। वे
नाराज हो गए, कि आप
नास्तिक हैं?
मैं राम-राम
लिख रहा हूं।
नहीं। तुम्हारा
राम-राम लिखने, दोहराने का
कोई अर्थ
नहीं। भजन बड़ी
गहरी प्रक्रिया
है। आगे कबीर समझाएंगे
तो तुम्हें
समझ में आ
जाएगा।
और न
कोई सुन सके, कै सांई
के चित्त।
दूसरा
सुन ले तो भजन
ही न रहा। वह
क्या भजन रहा जिसको
दूसरे ने सुन
लिया? तब
तुम दूसरे को
सुनाने को कर
रहे होओगे। या
तो तुम्हारी
अंतरात्मा जानती
है या
परमात्मा। वह
दो के बीच है।
तीसरा उसे
सुनता ही
नहीं। सुन ही हनीं
सकता। वह इतना
सूक्ष्म है।
वह एक भाव है।
भजन एक भाव
है। वह शब्दों
की, ध्वनियों
की व्यवस्था
नहीं है एक
भाव-दशा है। भजन
अनुग्रह है।
तुम ऐसा भरपूर
हो, कि तुम
चलते हो तो
तुम्हारे
चलने में एक
नाच है।
तुम्हारे पैर
में एक महक, एक दमक है।
भरे-पूरे चलते
हो।
जैसे
कभी किसी को
तुमने चलते
देखा हो, कोई
प्रेमी को, जो किसी के
प्रेम में पड़
गया, उसकी
चाल बदल जाती
है। कल तक
वैसे ही--इसी
दफ्तर जाता था,
उसी रास्ते
से गुजरता था,
यही पैर थे,
लेकिन अब
जरा बात बदल
गई। अब पैरों
में कुछ ऊर्जा
और है। पैरों
में अब कुछ
नाच समा गया।
घूंघर न बांधे
हों। लेकिन
कहीं घूंघर
बजते हैं। चलता
है, लगता
है उड़ता
है। जमीन की
कोशिश का
प्रभाव नहीं
पड़ता जैसे।
कुछ पा लिया
है। जरा एक
स्त्री मुस्करा
दी।
पहले
भी निकलता था
यहां से। तब
तुम गौर से
देखते, तो
इसके सिर पर
तुम्हें सारी
फाईलों का ढेर
लगा हुआ दिखाई
पड़ता। छाती पर
पूरा दफ्तर
लिए आता जाता
था। घसिटता
था। आज एक
गुनगुनाहट
है। चाहे ओठ
कंप भी न रहे हों,
लेकिन तुम
गुनगुनाहट
चेहरे पर देख
पाओगे। आज
आदमी स्नान
किया हुआ
मालूम पड़ता
है। रोज भी स्नान
करके निकलता
था, लेकिन
फिर भी धूल
जमी मालूम
पड़ती थी। आज
बाल कुछ
संवारे हुए
हैं। कपड़े
साफ-सुथरे
हैं। आज कुछ
बात हो गई। आज
हृदय कुछ भरा
है। जरा सी
प्रेम की झलक
आई है।
तो
भक्त की तो
क्या कहनी
बात! जिसको
परमात्मा की
झलक आ गई हो, जिसने अपने
को समर्पित
किया हो और उस
समर्पण में
परमात्मा से
भर गया हो, जिसने
अपने को
मिटाया हो और
परमात्मा को
पा लिया हो, उसका उठना, उसका बैठना,
उसका चलना,
उसका बोलना,
न बोलना, उसका सोना, उसका जागना
सब भजन है।
भजन एक अहोभाव
है। तुम उसे
देखकर कर कह
सकते हो, कि
इसने पा लिया।
उसका जीवन एक
अहर्निश
उत्सव है। तुम
उसकी आंखों
में संदेह न
पाओगे। तुम उसकी
आंखों में
छाया न पाओगे
विषाद की, दुख
की, चिंता
की। तुम उसके
चेहरे पर अतीत
का बोझ न पाओगे,
अतीत की
स्मृतियां न
पाओगे। तुम
उनके चेहरे पर
भविष्य की कल्पनाओं
का जाल न देख
सकोगे। नहीं,
न अतीत की
छाया पड़ती है,
न भविष्य की
छाया पड़ती है।
यह क्षण
पर्याप्त है।
आप्तकाम! भरा
पूरा! सब मिल
गया। चाहा था,
जितना, उससे
बहुत ज्यादा,
अनंत गुना
मिल गया।
मांगा था
जन्मों-जन्मों
तक, वह
बिना मांगे
मिल गया। सदा
अपने को बचाने
की कोशिश की
थी, और कुछ
हाथ न लगा था।
आज सब डुबा
दिया और सब
हाथ आ गया।
भजन
भाव-दशा है।
और न
कोई सुन सके
कै सांई
के चित्त।
परमात्मा
ही पहचानेगा।
या तो भक्त का
हृदय जानता है, जो गुनगुना
रहा है, नाच
रहा है। यह
पुलक और। यह
धड़कन और। यह
पुलक सिर्फ
खून के और
श्वास के
द्वारा
फेफड़ों में
पैदा नहीं हो
रही है। फेफड़ों
के भीतर छिपे
हुए हृदय में
एक आविर्भाव
हुआ है। नई
अवस्था का
जन्म हुआ है।
भगति
भजन हरिनाम है, दूजा दुख
अपार।
और अब
भक्त जानता है
कि और शेष सब
दुख है। अपने को
खो देना आनंद
है। अपने को
बचाना दुख है।
काम, सब तरह की
काम-वासना, चाहे धन की
हो, चाहे
शरीर की हो, यश की हो, पद
की हो, दुख
है। अकाम हो
जाना।
और
अकाम तुम कब
हो सकोगे? जब तक तुम हो,
जब तक तुम
अकाम न हो
सकोगे। तुम तो
खाली पात्र हो;
तुम कैसे
अकाम हो सकोगे?
तुम तो भिखारी
हो, कैसे
अकाम हो सकोगे?
तुम सम्राट
के चरणों में
अपने को छोड़
दो। छोड़ते ही
तुम अकाम हो
जाओगे, और
तुम्हारे
जीवन में
अहर्निश भजन
गूंजने लगेगा।
कबीर
ने कहा है, कि न तो जाता
हूं मंदिर की
परिक्रमा
करने, उठूं,
बैठूं सौ
परिक्रमा। अब
कहीं और नहीं
जाता। उठता
बैठता
परिक्रमा है।
अब तो जो भी
करता हूं वही
उसकी पूजा और
अर्चना है। अब
मैं तो बचा
नहीं। अब वही
मुझसे सांस
लेता है, उसी
को भूख लगती
है। उसी को
प्यास लगती
है। पानी पीकर
वही तृप्त
होता है। मैं
बीच में नहीं हूं।
ऐसी दशा भजन
की दशा है।
मनसा
वाचा कर्मना, कबीर सुमिरन
सार।
इसलिए
कबीर कहते हैं
कि मन से, वचन
से कर्म से
जीवन की सभी
अवस्थाओं से
उसका सुमिरन
होने लगे, हर
घड़ी वही याद
आने लगे। भूख
लगे तो उसी को
लगे, तो
सुमिरन हो
गया। तुम्हें
भूख लगे, प्यास
लगे, उसी
प्यास लगे। जल
पियो, तृप्ति
हो, उसी की
तृप्ति हो।
तो
जीवन का सारा
सार एक शब्द
में आ जाता
है। वह है, सुमिरन।
सुमिरन स्मरण
शब्द का
अपभ्रंश है। और
स्मरण से तुम
यह मत समझना, कि बैठकर
तुम राम-राम, राम-राम
करते रहो। तुम
करते
रहो--राम-राम, राम-राम।
तुम कितना ही
राम-राम कहो।
कबीर ने कहा
है, जीभ तो
राम की रटन
करती है, मनुआ
चहुं दिशि
फिरे। और मन
चारों दिशाओं
में घूम रहा
है। यंत्रवत
जीभ करती रहती
है। इसका क्या
मूल्य है? और
अगर मुक्ति भी
होगी, तो
जीभ की होगी।
तुम्हारी
कैसे हो जाएगी?
तुमने तो
कभी सुमिरन
किया नहीं।
स्मरण
इतना गहरा
होना चाहिए, कि तुम्हारे
प्राणों का
प्राण उससे लिप्त
हो जाए, आल्पावित हो जाए। जीभ
तो बड़ी बाहर
है। शरीर का
हिस्सा है।
नहीं जीभ से
काम न चलेगा।
लेकिन
क्या मन में
स्मरण करते
रहो तो काम चल
जाएगा? मन
भी तो बहुत
गहरा नहीं है।
और जिस मन से
तुम स्मरण
करते हो, उसी
मन से तुमने
वासना की है, उसी मन से
तुमने धन का लोभ
किया है, उसी
मन से तुम
कचरा इकट्ठा
किए हो। उस
अपात्र में
तुम परमात्मा
के अमृत की
आकांक्षा
करते हो? उस
मन से, जो
भ्रष्ट हुआ सब
तरह? जिसमें
तुमने अब तक
जहर ही रखा था,
उसमें तुम
अमृत की
आकांक्षा मत
करो। क्योंकि वह
पात्र जहरीला
हो गया है।
नहीं, मन से भी न होगा।
और गहरे जाना
पड़ेगा। वहां
जाना पड़ेगा, जहां
तुम्हारी
कुंआरी आत्मा
है। क्योंकि
वहीं से भजन
होगा। भोजन तो
एक कुंआरी
घटना है। शुद्ध!
किसी वासना से
अस्पर्शित।
जहां न कभी लोभ
उठा, न
जहां कभी
क्रोध उठा, जहां
तुम्हारा
होना है, अंतरतम
गर्भगृह में।
तुम्हारे भीतर
के गहरे से
गहरे से गहरे
मंदिर में।
जहां तुम
हो--वैसे जैसे
तुम जन्म के
पहले थे। वैसे,
जैसे तुम
मृत्यु के बाद
हो जाओगे। वही
भजन उठेगा, वहीं भाव
उठेगा।
तो भजन
एक भाव है। न
शब्दों में
पकड़ आएगा, न कृत्यों
की पकड़ में
आएगा।
जीसस
ने कहा है, कि तुम्हारा
बायां हाथ जो
करेगा वह
तुम्हारे
दाएं हाथ को
पता न चलेगा।
इतनी गहरी
घटना है।
ऊपर-ऊपर होती,
तो बायां
हाथ दाएं हाथ
को देख लेता।
पति करेगा, तो जीसस ने
कहा है, कि
पत्नी को पता
न चलेगा।
चौबीस घंटे
तुम्हारे साथ
रहेगी, पता
न चलेगा। चलना
नहीं चाहिए।
लेकिन
तुम तो इतने
जोर से करते
हो कि पत्नी
तो क्या, पड़ोसियों को पता चल
जाए। तुम माइक
लगा कर करते
हो। धर्म का
सहज विस्तार
कर रहे हो
मोहल्ले भर
में! और धर्म
पर कोई रोक भी
नहीं लगा
सकता। आधी रात
को भी तुम
लाउड-स्पीकर
लगा कर हरे
राम का भजन
करने लगो, तो
कोई कुछ नहीं
कह सकता।
क्योंकि धर्म
की तो
स्वतंत्रता
है। लोगों की
नींद हराम कर
रहे हो। तुम
उन्हें धर्म
का दुश्मन बना
रहे हो। वे
गाली दे रहे
हैं तुमको, तुम्हारे
हरे राम को, लेकिन अब वे
कुछ कर नहीं
सकते।
क्योंकि
धार्मिक
कृत्य में
बाधा देना ठीक
नहीं। और तुम करुणावश
लाउड-स्पीकर
का खर्चा उठा
रहे हो।
नहीं, आकांक्षा यह
है कि दूसरे
जार लें, कि
तुम कोई
साधारण आदमी
नहीं हो, बड़े
भगत, बड़े
भजन करने वाले,
धार्मिक, साधुपुरुष हो। तुम
प्रचार कर रहे
हो अपना।
अन्यथा राम की
खबर तो
तुम्हारे हाथ
को न चलेगी।
वस्तुतः जब
भाव बहुत गहन
होगा, तब
तुम्हारे मन
तक को पता न
चलेगा कि क्या
हो रहा है।
लेकिन, मनसा वाचा कर्मना
कबीर सुमिरन
सार।
तुम्हारे
मन में, तुम्हारे
वचन में, तुम्हारे
कर्म में, सब
जगह उसकी छाप
पड़ने लगेगी।
जिसके पास
आंखें हैं, वह देख
लेगा। अंधों
को दिखाई न
पड़ेगा, लेकिन
जिसके पास आंख
हैं, वह
देख लेगा, कि
तुम्हारा
कर्म अब किसी
और रस में
डूबा है। कोई
और रंग पकड़
गया है
तुम्हारे
कर्म को। तुम्हारे
वचन में कोई
नए इंद्रधनुष
का जन्म हुआ
है। तुम्हारे
होने से एक
मिठास फैलती
है। एक सुस्वादु
गंध तुम्हारे
चारों तरफ
उठती है। लेकिन
यह तो उसको
दिखाई पड़ेगा,
जिसको इसका
अनुभव हुआ हो।
अंधों के जगत
में किसी को
पता भी न
चलेगा। चलने
की कोई जरूरत
भी नहीं है।
मेरा
मन समरे
राम कूं, मेरा मन राम
ही आहि,
अब मन
राम ही व्है
रहया, सीस नवावें
काहि।
स्मरण
करते करते मैं
स्वयं राम हो
गया। स्मरण करनेवाला
भी न रहा।
दूरी मिट गई।
द्वैत समाप्त
हुआ। अब तो
वही है।
...सीस
नवावें काहि।
अब
किसको सिर
झुकाने जाएं? किस मंदिर
से सिर पटकें?
अब कौन सा
शास्त्र पढ़े?
परम
भक्त के जीवन
से जिसे तुम
धर्म कहते हो, ऐसे ही
तिरोहित हो
जाता है, जैसे
सुबह सूरज के
उगने पर ओस उड़
जाती है। परम धार्मिक
जीवन से जिसे
तुम धर्म कहते
हो, बिलकुल
गिर जाता
है--जैसे
स्नान के बाद
शरीर से धूल
झड़ जाती है।
इसलिए परम
धार्मिक को
तुम पहचान न
सकोगे। वह
करीब-करीब
अधार्मिक
मालूम होगा
क्योंकि धर्म
की
परिभाषा--रोज
मंदिर जाए, पूजा करे, घंटा बजाए,
सत्यनारायण की कथा
करवाए, मोहल्ले
गांव में
शोरगुल मचाए,
रामलीला
करवाए कि
रासलीला
करवाए।
तुम्हारे धर्म
की परिभाषा क्रियाकांड
की परिभाषा
है। धार्मिक
व्यक्ति
तुम्हें करीब-करीब
नास्तिक
मालूम पड़ेगा।
कुछ
आश्चर्य नहीं, कि हिंदुओं
ने महावीर को
नास्तिक कहा
है, बुद्ध
को नास्तिक
कहा है।
स्वाभाविक लगता
है। क्योंकि
इन दोनों
व्यक्तियों
ने सब क्रियाकांड
तोड़ दिया।
बुद्ध ने तो
एक दफे भी भूल
कर भगवान का
नाम भी नहीं
लिया। क्या
नाम लेना!
पश्चिम
के एक बहुत
बड़े इतिहासविद
एच. जी. वेल्स
ने लिखा है
गौतम बुद्ध के
संबंध में, कि देअर हैज बीन नेव्हर सच
ए गाड-लाइक मैन
एंड सो गाडलेस।
संसार के
इतिहास में
गौतम बुद्ध
जैसा ईश्वर--विहीन,
ईश्वर जैसा
व्यक्ति
दूसरा नहीं
हुआ है। यही तो
परिभाषा है
धार्मिक
व्यक्ति की।
वह ईश्वर जैसा
होगा और
ईश्वर-विहीन
होगा।
जिसको
तुम धर्म कह
रहो, वह पाखंड
है। वह धर्म
नहीं है, वह
धोखा है। धोखा
तो उसके जीवन
में नहीं
होगा। इसलिए
तुम्हारी परिभाषा
में वह
धार्मिक
मालूम न होगा।
जीसस
को यहूदियों
ने मार डाला
क्योंकि
अधार्मिक
मालूम हुए।
अधर्म क्या था? जो बात सबसे
बड़ी अधार्मिक
हो गई वह थी, कि जीसस को
लोगों ने देखा,
वे कभी-कभी
शराबियों के
घर में ठहर
जाते, वेश्याओं
के घर में ठहर
जाते। गांव के
पुरोहितों ने
पकड़ लिया और
कहा, कि यह
तो हमने कभी
धार्मिक आदमी
का लक्षण नहीं
देखा। जो अछूत
हैं, छूने
योग्य भी नहीं,
जिनकी तरफ
देखना भी नहीं
चाहिए--वेश्याओं
और शराब पीनेवालों
और चारों के
घर में भी
तुम्हें ठहरे
हुए देखा गया
है। तुम किस
भांति के
धार्मिक आदमी
हो?
कहते
हैं जीसस ने
कहा, कि अगर
वेश्या के
भीतर
परमात्मा रह
सकता है, तो
मैं उसके घर
में क्यों
नहीं ठहर सकता?
और अगर
परमात्मा ने
चोर को इस
योग्य नहीं
छोड़ा कि छोड़
दे, तो मैं
कौन हूं?
यह
धार्मिक आदमी
है। लेकिन
तुम्हारे
धर्म के
क्रिया-कांड
के बाहर पड़
रहा है।
तुम्हारा धार्मिक
आदमी तो चोर
की तरफ देखता
नहीं। तुम्हारा
धार्मिक आदमी
चोर और वेश्या
को नर्क में सड़ाने का
पूरा आयोजन कर
रहा है।
यहूदियों में
प्रथा थी कि; छह दिन
परमात्मा ने
काम किया, सातवें
दिन विश्राम
किया; इसलिए
सातवें दिन
कोई काम न
करे। यहूदी
सातवें दिन सब
काम बंद कर
देते थे।
जीसस
सातवें दिन
मंदिर के पास
आए। और अंधा
आदमी आया और
उस अंधे आदमी
ने प्रार्थना
की कि मैंने
सुना है, कि
तुम अगर छू दो
तो मेरी आंख
ठीक हो जा।
जीसस ने उसे
छू दिया और
उसकी आंख ठीक
हो गई।
पुरोहितों ने
कहा, कि यह
तो अधार्मिक
कृत्य है।
सोचो!
अंधे को आंख
देना
अधार्मिक
कृत्य हुआ, क्योंकि
शास्त्र में
लिखा है। वेद,
यहूदियों
का कहता है कि
सातवें दिन
कृत्य बंद।
पुरोहित
ने पूछा, कि
तुमने पाप
किया है, सातवें
दिन तो सब काम
बंद होना
चाहिए।
जीसस
ने पूछा कि
सातवें दिन
तुम भोजन करते
हो या नहीं? और सातवें
दिन तुम आंख झपते हो या
नहीं? और
सातवें दिन
तुम श्वास
लेते हो या
नहीं? और
सातवें दिन
परमात्मा ने
माना विश्राम
किया, लेकिन
विश्राम भी
कुछ करना है।
वह भी कृत्य
है। और फिर
अगर तुम्हारे
नियम टूटने से
एक आदमी की
आंख खुल गई हो,
तो नियम के
लिए आदमी है
कि आदमी के
लिए नियम है? मैं तुमसे
पूछता हूं, उचित है यह
कि यह अंधा
आदमी आंखवाला
हो जाए, या
उचित है यह, कि इस अंधे
आदमी को मैं
कह दूं कि मैं
धार्मिक आदमी
हूं, सावें दिन मैं कुछ
भी नहीं कर
सकता। क्या
भरोसा है कि
कल मैं न बचूं?
और क्या
भरोसा है कि
कल यह अंधा
आदमी न बचे? तुम गारंटी
देते हो, कि
कल हम दोनों
रहेंगे? मैं
इसकी आंख ठीक
करने और यह
आंख ठीक
करवाने?
नहीं, धार्मिक
आदमी को बात
नहीं जमती।
उसका तो हिसाब
है। वह अपने
हिसाब से जीता
है। उससे नियम
सख्त हैं।
अंधा आदमी है।
लकड़ी से
टटोलता है।
उसके पास
प्रकाश नहीं
अब मन
राम ही व्है
रहया, सीस नवावें
काहि।
सब रग
तंत रबात
तन, विरह बजावे
नित्त।
शरीर
की सारी रगें
वीणा के तार
हो गई। कबीर
कहते हैं तन
वीणा हो गया
और एक ही गीत
बजता है चौबीस
घंटे--विरह बजावै
नित्त।
एक ही गीत
बजता रहता है, परमात्मा के
विरह का।
और न
कोई सुन सके
कै सांई
के चित्त।
और इस
विरह गीत को
या तो
परमात्मा सुन
सकता है, या
तो साई--या
स्वयं।
प्रार्थना
तुम्हारे और
तुम्हारे
परमात्मा के
बीच का संबंध
है। समाज से
उसका केई
लेना-देना
नहीं। पूजा
तुम्हारे और
तुम्हारे परमात्मा
के बीच का अत्यंत
गोपनीय संबंध
है।
जब तुम
किसी व्यक्ति
के प्रेम में
होते हो, किसी
के प्रेम में
किसी पुरुष के
प्रेम में, तब तुम
एकांत चाहते
हो। तुम नहीं
चाहते, कि
बीच बाजार में
बैठकर और
प्रेम का रास रचाए, कि
लोग देखें।
तुम द्वार
दरवाजे बंद कर
देते हो। तुम
प्रकाश तक
बुझा देते हो,
ताकि एकांत
पुरा हो जाए।
ताकि इस
आत्मीयता के क्षण
में कोई
हस्तक्षेप न
हो। ताकि
प्रेमी और प्रेयसी
बिलकुल अकेले
रहे जाएं।
परमात्मा
के बीच तो बड़े
से बड़े प्रेम
का संबंध है।
वह तुम्हारे
और उसके बीच
संबंध है।
उससे संसार का
कुछ लेना देना
नहीं है। भीड़
से उसका कोई
नाता नहीं। वह
अत्यंत
गोपनीय है। जहां
तुम हो और वह
है। और कबीर
कहते हैं कि
मेरा पूरा तन
तो रबाब हो
गया, वीणा बन
गया। सब रग
तंत--रग-रग, नाड़ी-नाड़ी,
रेशा-रेशा
शरीर का तार
बन गए। और एक
ही धुन बज रही
है अहर्निश
विरह बजावे
नित्त।
यह
थोड़ा समझने
जैसा है।
जितना
ही व्यक्ति
परमात्मा को
पा लेता है
उतनी ही विरह
की वीणा बजने
लगती है। तुम
जरा इसे मुश्किल
समझोगे। तुम
समझोगे कि
परमात्मा न
मिला हो, तब
विरह की वीणा
बजनी चाहिए।
जब मिल गया
फिर विरह की
क्या वीणा? यह तुम्हें
थोड़ा जटिल
लगेगा।
लेकिन
जब तक तुमने
परमात्मा को
जाना ही नहीं, तुम विरह का
अनुभव ही न कर
सकोगे। विरह
तो उसका अनुभव
है जिसने
मिलने जाना
हो। तुम कैसे
जानोगे विरह
को? तुम
कैसे रोओगे
परमात्मा के
लिए? आंसू
कैसे
निकलेंगे? उससे
तुम्हारी कोई
पहचान नहीं, उससे
तुम्हारा कोई
संबंध नहीं।
एक क्षण को भी तुम्हारी
कोई मुलाकात
नहीं हुई।
परमात्मा
बिलकुल अनजान
है। ना के
बराबर है। है
या नहीं, यह
भी संदिग्ध है
तुम्हें। तुम
कैसे उसके लिए
रोओगे? कैसे
तुम्हारा
पूरा तन वीणा
बन जाएगा? कैसे
तुम्हारे
रग-रेशे तार
बन जाएंगे? कैसे
तुम्हारे
हृदय में
उठेगा विरह का
गीत? मिलन
के बाद ही विरह
संभव है।
इसलिए
भक्त ही जानता
है विरह को।
तब एक क्षण को
भी इस शरीर
में होना, एक क्षण को
भी इस संसार
में होना बड़ी
दूरी मालूम
पड़ती है। कोई
दूरी नहीं
बची। अपने को
समर्पित किया
है भक्त ने।
परमात्मा से
भर गया है। लेकिन
अभी इस शरीर
की यात्रा
बाकी है। अभी
कुछ समय
लगेगा। संदेश
आ गया।
पता-ठिकाना
मिल गया। घर
की राह मिल
गई। थोड़ा सा
फासला है।
तुम्हें
शायद कभी
अंदाज हुआ हो।
अगर तुम किसी यात्रा
पर गए हो, जब
तुम मंजिल के
बिलकुल करीब
पहुंच जाते हो,
तब जितनी
दूर मालूम
पड़ती है, उतनी
दूरी पहले कदम
पर भी नहीं
मालूम पड़ी थी।
जब मंजिल
बिलकुल करीब
होती है, जब
अब मिले, अब
मिले, तब
क्षण भर का भी
फासला अत्यंत कष्टपूर्ण
हो जाता है।
मंजिल जब
बिलकुल आंख के
सामने आ जाती
है, तब जरा
सी भी दूरी
खलती है।
भक्त
ने सब दे दिया, लेकिन अभी
शरीर में है।
इसलिए बुद्ध
ने मोक्ष के
दो भेद किए
हैं। जैसा कि
भारत में सदा
किए गए हैं।
मुक्त व्यक्ति
को हम जीवित
मुक्त कहते
हैं।
जीवन-मुक्त का
अर्थ है--अभी
वह जीवित है।
शरीर में है।
मुक्त हो गया।
भीतर से सब
बंधन टूट गए, लेकिन शरीर
की यात्रा अभी
जारी है। शायद
कुछ समय और
लगेगा जब शरीर
भी गिर जाएगा
और मिलन परिपूर्ण
होगा। इतना सा
फासला बाकी
है।
ऐसा
समझो, कि
तुम ऐसे
व्यक्ति हो, एक घड़ा है
भरा हुआ, घाट
पर खा है नदी
से दूर। भक्त
ऐसा घड़ा है, नदी में आ
गया, भीतर
भी पानी है।
जैसे मिट्टी
की जरा सी देह
रह गई है।
मिट्टी की देह
भी पोरस
है, छिद्रवाली है। पानी
थोड़ा आता जाता
है। लेकिन फिर
भी देह बाकी
है। यही विरह
है। नदी में
घड़ा है, बाहर
जल, भीतर
जल। वही जल
बाहर, वही
भीतर है। फिर
भी घड़े की
पतली सी
मिट्टी की
लकीर। मिट्टी
की ही लकीर है,
लेकिन है।
इतना सा फासला
रह गया। तब
विरह पैदा
होता है। तब
नित प्रतिपल
एक ही विरह
रहता है, कि
कैसे यह भीतर
जाए? कब?
कबीर
ने कहा है, कि मरूंगा? कब मिटूंगा,
कि पूर्ण
परमानंद
उपलब्ध हो
जाएं? कब मिटीं हों,
कब पाहिहों
पूरन
परमानंद। जरा
सी कमी है।
बाल भर फासला
है। कोई बड़ी
दीवाल नहीं।
मिट्टी की
दीवाल है। वह
भी छिद्रवाली
है। उससे भी
पानी आता जाता
है। लेकिन फिर
भी है।
ध्यान
रखना, जब तक
तुम्हें
स्वाद नहीं
लगा तब तक
तुम्हें विरह
का पता ही न
चलेगा। तब तक
तुम्हें मिलन
का ही स्वाद
नहीं, विरह
को तुम जानोगे
कैसे? तब
तक तुम जी रहे
हो। लेकिन
तुम्हारे
भीतर वह प्यास
नहीं उठी, जो
तुम्हें विरह
से भर दे।
विरह की अग्नि
नहीं उठी। तुम
छोटे बच्चों
की भांति हो, जो अभी किसी
के प्रेम में
नहीं पड़े।
भक्त
प्रेमी की
भांति है। उसे
उसकी राधा मिल
गई। लेकिन
फासला है।
प्रेमी जानते
हैं विरह को।
जिसने प्रेम
नहीं किया वह
कैसे जानेगा? जिसको स्वाद
ही नहीं लगा
उस रस का, वह
कैसे जानेगा,
कि स्वाद का
अभाव क्या है?
प्रेमी
जानते हैं, विरह को। और
अगर तुम परम
प्रेमियों को
गौर से देखो, तो जितने ही
वे करीब आते
हैं, उतना
ही विरह बढ़ता
जाता है।
क्योंकि
कितने ही करीब
आते हैं, फिर
भी लगता है कि
बिलकुल एक
नहीं हो पाते।
कुछ फासला है।
शरीर मिल जाते
हैं। लेकिन मन
अलग हैं।
कभी-कभी किसी
सहन संभोग के
क्षण में मन
भी मिल जाते
हैं। लेकिन
फिर भी
चेतनाएं अलग
हैं।
प्रेम
में पूर्ण
मिलन तो हो भी
नहीं सकता, भक्ति में
ही हो सकता
है। लेकिन
भक्त को थोड़े दिन
की जो शरीर
यात्रा बाकी
है, यह
यात्रा पिछले
जन्म से
संबंधित है।
शरीर के अपने
कर्मों का जाल
है, वह
पूरा होना है।
वह पूरा होगा।
तो
बुद्ध ने कहा
है, कि एक तो
निर्वाण है जो
जीते व्यक्ति
को उपलब्ध
होता है और
दूसरा महानिर्वाण
है, जब
शरीर गिर जाता
है, तब
उपलब्ध होता
है। हिंदू
कहते हैं, जीवन
मुक्त और
मोक्ष। जैन
कहते हैं, केवल
ज्ञान और
कैवल्य।
ज्ञान तो हो
गया, तैयारी
पूरी है, बस
नाव की
प्रतीक्षा है,
कब आ जाए।
थोड़ी देर तट
पर खड़े रहना
है। प्रतीक्षा
दुर्भर हो
जाती है।
जैसे-जैसे समय
करीब आता है...
तुमने
कभी रेलवे
स्टेशन पर
देखा लोगों को
प्रतीक्षा
करते? कभी
गाड़ी के आने
में देर है।
वह अखबार पढ़
रहे हैं, गपशप
कर रहे हैं, चाय पी रहे
हैं, यहां
वहां जा रहे
हैं। कोई नहीं
देख रहा है, कि गाड़ी आ
रही है या
नहीं। घंटा
बजा। एक लहर
दौड़ गई। लोगों
ने अपने सामान
संभाल लिए।
बैग उठा लिए, कपड़े-लत्ते
ठीक कर लिए, खड़े हो गए, बातचीत बंद
हो गई। गाड़ी
जैसे-जैसे आती,
स्टेशन
वैसे-वैसे
आतुर होता
जाता है। लोग
बिलकुल तैयार
हैं। किस
क्षण...एक क्षण
भी अब मुश्किल
मालूम पड़ता
है।
ठीक
वैसी दशा भक्त
की हो जाती
है। नाव करीब
है। खबर आ गई।
संदेश आ गए
हवाओं में।
नाव दिखाई भी
पड़ने लगी
किनारे की तरफ
आती। भक्त
किनारे पर खड़ा
है।
सब रग तंत
रबाब तन, विरह
बजावे नित्त,
और न
कोई सुन सके, कै सांई
के चित्त।
इस तन
का दीवा करूं, बाती मूल्यूं
जीव,
लोही सींचौ तेल ज्यूं, कब मुख देख्यां
पीव।
उस
प्यारे का
मुंह कब
देखूंगा? सब
करने को राजी
हूं। इस तन का
दीवा करूं--इस
सारे शरीर को
दीया बनाने को
राजी हूं।
बाती मेल्यूं
जीव--प्राण को
बाती बनाने को
राजी हूं।
लोही सींचौ तेल ज्यूं--खून
को तेल बनाने
को राजी हूं।
...कब मुख देख्यौ
पीव। कब
देखूंगा
प्यारे का मुख? कब
होगा उससे
पूर्ण मिलन? कब ऐसे मिट जाऊंगा
जैसे बूंद
सागर मग खो
जाती है, कि
रत्ती भर का
फासला न हर जाए,
दुई न रह
जाए।
जब तक
शरीर है, तब
तक थोड़ी सी
दुई बची रहती
है। डूबा रहता
है घड़ा पानी
में, लेकिन
जरा सा फासला
बना रहता है।
वह फासला ही विरह
की अग्नि है।
और धन्य हैं, वे जो विरह
को जान लेते
हैं। क्योंकि
वे, वे ही
लोग हैं
जिन्होंने
थोड़े से मिलन
को जाना।
इजिप्त
में बड़ी
पुरानी उक्ति
है, कि तुम
परमात्मा को
खोजने तभी
निकलते हो, जब वह
तुम्हें मिल
ही चुका होता
है। नहीं तो तुम
खोजने कैसे
निकलोगे? लेकिन
तब विरह बहुत
सताता है।
लेकिन
उस विरह में
आनंद है। उस
विरह में परम
आनंद है। वह
विरह पीड़ा
जैसा नहीं है।
वह विरह बड़ा
मधुर और मिठास
भरा है। तुमने
मीठी पीड़ा जानी? वह विरह
मीठी पीड़ा है।
बड़ी मधुरी
है पीड़ा।
काटती रहती
भीतर, लेकिन
संगीत की तरह।स्वर
उसका गूंजता
रहता है, लेकिन
वीणा के स्वर
की भांति।
धन्य
हैं वे, जिन्हें
थोड़ा सा मिलन
का स्वाद मिला
और जो महा-मिलन
की पीड़ा से भर गए
हैं। जिनका
शरीर वीणा हो
गया। और उस
वीणा पर एक ही
स्वर निरंतर
उठ रहा है--विर
का स्वर।
मिलन
के बाद विरह
है और विरह के
बाद महा-मिलन।
आज
इतना ही
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