दिनांक
5 फरवरी, 1977;
श्री
ओशो आश्रम, पूना।
पहला
प्रश्न :
'अब
मैं नाव्यो
बहुत गोपाल', भक्त ऐसा
गाता है। क्या
भक्त की भांति
ज्ञानी भी
गाता है?
गीत अनिवार्य
है। नृत्य
अनिवार्य है।
क्योंकि
अंतिम परिणति
में उत्सव
होगा ही। अगर
अंतिम परिणति
में उत्सव न
हो तो फिर
उत्सव कब होगा? गीत और
नृत्य तो केवल
उत्सव के सूचक
हैं। जब वसंत
आएगा और वृक्ष
अपने पूरे
उभार पर होगा,
तो फूल
खिलेंगे। गंध
भी बिखरेगी।
और जब दीप
जलेगा तो
ज्योति भी
झरेगी।
गीत तो अनिवार्य
है। यह दूसरी
बात है कि कौन
कैसा गाए, कैसे गाए?
भक्त अपने
ढंग से गाता, ज्ञानी अपने
ढंग से गाता।
भक्त का गीत
प्रगट है, इतनी
का गीत अप्रगट
है। भक्त
परिधि पर
नाचता, ज्ञानी
केंद्र पर।
भक्त का गीत और उत्सव ऐसे है जैसे मुक्त हास, कोई खिलखिला कर हंस पड़ा, जुहू के फूल झर गये। ज्ञानी का गीत ऐसा है—मंद—मंद मुस्कान। बहुत गौर से देखोगे तो पहचान पाओगे। ऐसी मोटी—मोटी नजर से देखा तो चूक जाओगे। बारीक, सूक्ष्म कारण हैं भेद के।
भक्त का गीत और उत्सव ऐसे है जैसे मुक्त हास, कोई खिलखिला कर हंस पड़ा, जुहू के फूल झर गये। ज्ञानी का गीत ऐसा है—मंद—मंद मुस्कान। बहुत गौर से देखोगे तो पहचान पाओगे। ऐसी मोटी—मोटी नजर से देखा तो चूक जाओगे। बारीक, सूक्ष्म कारण हैं भेद के।
भक्त
भी पहुंचता है
उसी मंजिल पर
जहां ज्ञानी पहुंचता
है। लेकिन अलग—
अलग हैं उनके
मार्ग। भक्त
परमात्मा से
अपने को जोड़ता, इतना
जोड़ता, इतना
जोड़ता कि भक्त
बचता नहीं।
भक्त अपने मैं
को तू के
चरणों में
समर्पित करता।
भक्त की आंख
तू पर लगी है, भक्त की आंख
बाहर लगी है।
भक्त बाहर देख
रहा है। भक्त
को भीतर देखने
की चिंता नहीं
है। भीतर का
देखना घटेगा,
लेकिन बाहर
देखने की
अंतिम
फलश्रुति में।
इसलिए भक्त
वृक्षों को
देखता, चांद—तारों
को देखता, नदी—पहाड़ों
को देखता, क्योंकि
सभी में उसी
परमात्मा की
झलक है। इसलिए
भक्त पत्थर को
भी पूज लेता।
क्योंकि सारा
अस्तित्व
उसका है। भक्त
अपने मैं को
डुबाता और तू
को बड़ा करता।
एक ऐसी घड़ी
आती, जब
मैं शून्य हो
जाता है और तू
ही बचता है।
तब भक्त नाचता
है। लेकिन उसी
घड़ी में एक
क्रांतिकारी
घटना और घटती
है जो कि परम
घटना है। जब
मैं बिलकुल
शून्य हो जाता
है तो तू भी
बचेगा नहीं, बच नहीं
सकता। तू को
बचने के लिए
भी मैं की
थोड़ी न बहुत
मौजूदगी
आवश्यक है।
मैं के बिना
कैसा तू? भक्त
के बिना कैसा
भगवान!
बायजीद
ने कहा है, मुझे
तुम्हारी
जरूरत है, सच।
तुम्हें भी
मेरी जरूरत है।
इकहार्ट ने
कहा है, न
मैं तुम्हारे
बिना हो सकता,
न तुम मेरे
बिना हो सकते।
ठीक कहा है, क्योंकि मैं
के बिना तू
नहीं हो सकता।
और तू के बिना
भी मैं नहीं
हो सकता। तो
भक्त मैं को
डुबाता है। एक
ऐसी घड़ी आती
है, भक्त
सौ प्रतिशत था,
घटते—घटते,
घटते—घटते
शून्य
प्रतिशत हो
जाता है। रोज—रोज
परमात्मा
बढ़ने लगता है—एक
प्रतिशत, पचास
प्रतिशत, सत्तर
प्रतिशत, नब्बे,
निन्यानबे
प्रतिशत—निन्यानबे
प्रतिशत
परमात्मा
होता है, भक्त
एक प्रतिशत, तब तक दोनों
होते हैं।
जैसे ही भक्त
शून्य हुआ और
परमात्मा
पूर्ण हुआ, भक्त भी गया
भगवान भी गया।
प्रेम गली अति
सीकरी तामें
दो न समाए! यह
तो सच है।
कबीर ठीक कहते
हैं कि प्रेम
की गली अति
संकरी है, उसमें
दो नहीं समाते।
मैं
तुमसे कहता
हूं प्रेम की
गली इतनी
संकरी है कि
उसमें एक भी
नहीं समाता।
क्योंकि जहां
एक समा गया, वहां दो
भी समा सकते
हैं। एक भी
नहीं समांए तो
ही दो नहीं
समाते। एक का
भी क्या अर्थ
होगा अगर दो न
बचें। दो के
बिना एक नहीं
हो सकता है।
दो हों तो ही
एक में कुछ अर्थ
है। द्वैत हो
तो अद्वैत में
अर्थ है।
लेकिन
भक्त की आंख
बहिर्मुखी है।
भक्त जो है
बहिर्मुखी है।
इसलिए पूजा
करता, अर्चन
करता, दीप
जलाता, नाचता,
गीत गाता, मूर्ति
सजाता। बाहर
है उसका भगवान।
और स्वयं को
डुबाते जाना
है। इसलिए
भक्त के जीवन
में जब
महोत्सव घटता
है तो वह
नाचता। पद
घुंघरू बांध
मीरा नाची रे।
वह मगन होकर
नाचता। सब
विस्मरण करके
नाचता।
मदमस्त होकर
नाचता।
ज्ञानी
के जीवन में
घटना घटती है
यही, शून्य
की, या
पूर्ण की, लेकिन
दूसरे ढंग से
घटती है।
ज्ञानी तू से
अपने को मुक्त
करता है।
इसीलिए तो
महावीर कहते
हैं, कैसा
परमात्मा! कोई
परमात्मा
नहीं है।
अप्पा सो
परमप्पा।
आत्मा ही
परमात्मा है।
और कैसा
परमात्मा! मैं
ही अपने
परिपूर्ण
शुद्धता में
परमात्मा हूं।
इसलिए शानी
कहता है : अहं
ब्रह्मास्मि।
अनलहक। मुझसे
अलग और कौन? तो ज्ञानी
तू को घटाता
जाता है, घटाता
जाता है, घटाता
जाता है, एक
ऐसी घड़ी आती
है कि तू
बिलकुल शून्य
हो जाता है, मैं ही बचता।
लेकिन तब मैं
न बच सकेगा।
मैं को बचाने
के लिए तू
थोड़ा चाहिए।
जिस दिन मैं
अकेला बचा और
तू शून्य हो
गया, उसी
क्षण मैं भी
तिरोहित हो
जाता है। वे
दोनों साथ ही
चलते हैं। और
जब मैं
तिरोहित होता
है तो एक
अपूर्व उत्सव
का जन्म होता
है। लेकिन
ज्ञानी
नाचेगा नहीं।
यह उत्सव इतने
भीतर घटता है
और ज्ञानी
अंतर्मुखी है।
ये दो
ही तो प्रकार
हैं मनुष्य की
चेतना के।
बहिर्मुखता, अंतर्मुखता।
या तो भीतर
चलो या बाहर
जाओ। किसी भी
दिशा में इतने
चले जाओ कि
बचो न, पहुंच
जाओगे। अगर
चलते ही गये
बाहर और अपने
को खोते चले
गये, तो भी
पहुंच जाओगे।
चलते ही गये
भीतर और एक
ऐसी घड़ी आ गयी
कि अपने को खो
दिया, तो
भी पहुंच
जाओगे। किस
दिशा में चले,
भेद नहीं
पड़ता, क्योंकि
सभी दिशाओं
में परमात्मा
है। बाहर भी
वही है, भीतर
भी वही है।
बाहर और भीतर
कामचलाऊ शब्द
हैं। वही है।
बाहर भी उसमें
है, भीतर
भी उसमें है, ऐसा कहना
ज्यादा उचित
है। बाहर—
भीतर उसके ही
दो पहलू हैं।
भक्त
का नृत्य तो
परिधि पर घटता
है, ज्ञानी
का नृत्य
केंद्र पर।
इसलिए ज्ञानी
के नृत्य को
शायद तुम देख
न पाओ। बुद्ध
बैठे हैं
बोधिवृक्ष के
नीचे, किसी
ने देखा नहीं
नाचते, मैं
तुमसे कहता
हूं नाच रहे
हैं। भरोसा
करो, नाच
रहे। क्योंकि
नृत्य तो
अनिवार्य है।
गा रहे।
यद्यपि यह गीत
ऐसा है कि जब
तक तुमने भी
इस तरह न गाया
हो, तुम
पहचान न सकोगे,
यह भाषा
अनेरी है। हां,
मीरा नाचेगी
तो तुम भी देख
लोगे, हालांकि
तुम मीरा की
भांति नाचे
नहीं हो।
लेकिन मीरा का
नृत्य देह पर
हो रहा है।
देह की भाषा
तुम जानते हो।
यद्यपि मीरा
का नृत्य भी
तुम न समझोगे,
मीरा के
परिवार के लोग
भी न समझे।
परिवार के
लोगों ने कहा,
यह क्या लोक—लाज
खो दी! यह कोई
ढंग है!
वेश्याएं
नाचती हैं ऐसा,
आवारा
औरतें नाचती
हैं ऐसा, राजघर
की कुलीन रानी
और ऐसे सड्कों
पर नाचे! वे भी
न समझे। लेकिन
इतना समझ गये
कि मीरा नाच
रही है।
नाच का
अर्थ तो न
समझे, नाच
दिखायी पड़ा।
नाच का अर्थ
उन्होंने
अपनी ही
दृष्टि से
लिया, जैसा
नाच वे देखते रहे
थे। ये मीरा
के घर के लोग
राजघराने के
लोग थे, वेश्याओं
को नचाते रहे
होंगे
दरबारों में,
उस बात को
समझते थे।
उन्होंने कहा,
यह क्या हुआ,
मीरा
वेश्या जैसी
नाचे! जहर
भेजा। नाच
दिखायी पड़ गया,
नाच का अर्थ
चूक गया। पर
नाच दिखायी पड़
गया।
ज्ञानी
का न तो नाच
दिखायी पड़ेगा, अर्थ की
तो बात ही कहां
है! अर्थ तो
भक्त का भी
दिखायी नहीं
पड़ता।
तो
बुद्ध
तुम्हें बैठे
दिखायी पड़ते
हैं। जिस दिन
तुम परम शात
होओगे, ध्यान में ड़बोगे,
उस दिन
तुम्हें
बुद्ध की
गुनगुनाहट भी
सुनायी पड़ेगी।
अनाहत नाद
वहां हो रहा
है। ऐसा नाद
हो रहा है
जिसे करने के
लिए कोई उपाय
नहीं करने
होते, अपने
से हो रहा है।
ओंकार गज रहा
है। झेन फकीर
कहते हैं, एक
हाथ की ताली
बज रही है। कम —से
—कम ताली
बजाने को दो
हाथों की
जरूरत होती है,
झेन फकीर
कहते हैं, अब
एक हाथ की
ताली बज रही
है। अब ऐसी
ताली बज रही
है जो बजानी
नहीं पड़ती, अपने से बज
रही है। हो ही
रहा है। इसे
ऐसा कहें तो
ज्यादा अच्छा
होगा, अस्तित्व
नृत्य है, अस्तित्व
गीत है, अस्तित्व
उत्सव है।
उत्सव हो ही
रहा है, तुम
सिर्फ अंधे हो।
तुम्हारी आंख
पर पट्टी बंधी
है। तुम्हें
दिखायी नहीं पड़
रहा है। इससे
तुम चूके जा
रहे हो।
भक्त
प्रेम की आंखें
खोल लेता है, ज्ञानी
ध्यान की आंखें
खोल लेता है।
ये दो शब्द
अलग— अलग
मालूम पड़ते
हैं, क्योंकि
अलग—अलग
मार्गों के
हैं, लेकिन
अंतिम परिणाम
सदा एक है।
मिट्टी
भी हंसती है, ऐसा
सुनकर
मैं हंसता था
पहले
फूलों
का परिवार
देखकर
अब
विश्वास हुआ
है मुझको
कितनी
कलियों की आंखों
में
गूंज
रही खुशबू की
गीता
कितने
फूलों के
ओंठों पर
लिखी
हुई रंगों की
कविता
खुशबू
के हस्ताक्षर
करती
डोल
रहीं तितली—बालाएं
सोन
जुही के कानों
में कुछ
कहती
भंवरों की
मालाएं
वासंती घूंघट
के भीतर
छिपे
हुए हैं मधु
के प्याले
मानो
रेशम को बस्ती
में
खुली
पड़ी हों
मधुशालाएं
मिट्टी
भी हंसती है, ऐसा
सुनकर
मैं हंसता था
पहले
फूलों
का परिवार
देखकर
अब
विश्वास हुआ
है मुझको
तुम
जरा देखो, उत्सव ही
हो रहा है।
अस्तित्व बड़े
गहरे रास में
संलग्न है।
रसों वै सः।
परमात्मा रस
ही रस है।
अस्तित्व में
पीड़ा कहीं है
नहीं। पीड़ा
आदमी का सृजन
है। पीड़ा आदमी
की चूक है।
अस्तित्व में
मृत्यु होती
ही नहीं। यहां
जीवन का विराट
विस्तार है।
अस्तित्व में
मृत्यु कभी
घटती ही नहीं।
मृत्यु आदमी
का आविष्कार
है। आदमी ने
अहंकार
आविष्कार कर
लिया, अब
अहंकारी की
मृत्यु होती
है, क्योंकि
आदमी जो भी
आविष्कार
करेगा, वह
मिटेगा। आदमी
की बनायी चीज
अमर कैसे हो
सकती है! आदमी
की बनायी चीज
मरणधर्मा
होगी। जो भी
बनाया जाता है,
वह मिटेगा।
जो अनबना है, वही नहीं
मिटेगा। जो
कभी नहीं जन्मा
है, उसी की
मृत्यु नहीं
होगी। जिसका
जन्म होगा, उसकी तो
मृत्यु होगी।
देखो, मकान
बनाते हो, मकान
गिरेगा।
कितना मजबूत
बनाओ, फर्क
नहीं पड़ता।
दो दिन बाद
गिरेगा, चार
दिन बाद
गिरेगा, कि
हजार साल बाद
गिरेगा।
लेकिन देखते
हो, रेत के
एक छोटे—से कण
को मिटाने का
कोई उपाय नहीं
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं, नहीं
मिटाया जा
सकता। लाख
उपाय करो, एक
छोटे—से रेत
के कण को मिटा
नहीं सकते।
मामला क्या है?
हम महल
बनाते हैं, मिट जाते
हैं। रेत का
कण भी नहीं
मिटता!
क्योंकि रेत
का कण बनाया
नहीं गया है।
जो चीज बनायी
गयी है, वह
मिटेगी। जो है
सदा से, वही
सदा होगी। निर्मित
नष्ट होता है।
अजन्मा
शाश्वत है।
आदमी
कुछ चीजें बना
लेता है, तो मिट जाती
हैं। मिटती
हैं तो घबड़ाहट
होती है।
मिटने की
आशंका से मन
बहुत
चिंतातुर हो
जाता है। जो
भी निर्मित है,
जाएगा।
बुद्ध ने कहा
है, सब
संघात
बिखरेंगे।
लेकिन
अस्तित्व तो
कभी नहीं
मिटता।
तो
अपने भीतर
उसको खोज लो
जो कभी नहीं
मिटता, तो तुम
ध्यानी हो गये,
ज्ञानी हो
गये। बाहर उसे
खोज लो जो कभी
नहीं मिटता तो
तुम भक्त हो
गये। और
तुम्हारी
जैसी मौज हो।
दोनों
रास्तों से
लोग पहुंच गये
हैं। मीरा भी
और महावीर भी।
इसमें तुम
चिंता में मत
पड़ना बहुत कि
किस रास्ते
जाएं। कहीं
ऐसा न हो कि
तुम खड़े—खड़े
यही चिंता
करते रहो किस
रास्ते जाएं
और किसी
रास्ते पर न
जाओ। चलो, जो
रास्ता
तुम्हें
रुचिकर लगे उस
पर चल जाओ।
और एक
बात खयाल रखना, जब एक
रास्ते पर चल
जाओ तो दूसरे
की भाषा बिलकुल
भूल जाना।
नहीं तो तुम
बड़े अस्त—व्यस्त
हो जाओगे।
क्योंकि
दोनों की भाषा
बड़ी अलग है।
बड़ी विपरीत है।
और अगर तुम
दोनों की
भाषाओं को एक
साथ याद रखे, तो तुम
दिग्भ्रम में
पड़ोगे।
तुम्हारे
भीतर बड़ी
घटाएं घिर
जाएंगी। खुला
आकाश समाप्त
हो जाएगा।
पहुंचने की
जगह तुम विक्षिप्त
हो जाओगे।
विमुक्त तो
नहीं, विक्षिप्त
हो जाओगे। ऐसी
भूल मत करना।
अगर
तुम्हें भक्त
की बात
प्रीतिकर
लगती हो, नारद के
सूत्र ड़ब
जाते हों हृदय
में, गदगद
कर जाते हों, तो बात खतम
हो गयी। छोड़ो
ज्ञानियों को,
जाने दो
उन्हें जहां
जाना है। तुम
चल पड़ो, नारद
की नाव में
बैठ जाओ।
अगर यह
बात तुम्हें न
जंचती हो, बुद्ध, महावीर और
पतंजलि, अष्टावक्र,
उनकी बात
तुम्हें डुला
जाती हो, भीतर
अहोभाव से भर
देती हो, एकदम
जैसे कोई
खिड़की खुल
जाती हो भीतर,
हवा का एक
झोंका आ जाता
हो, कि आ
गयीं सूरज की
किरणें और
तुम्हें एक
स्पर्श होता
हो कि ही, यही
है ठीक, यही
बात, खा
जाती हो मेल, धड़क जाता हो
हृदय, तो
छोड़ो नारद को,
मीरा को, तुम चल पड़ो
अष्टावक्र के
साथ।
चलने
से कोई
पहुंचता है, सोचने से
कोई नहीं
पहुंचता है।
बहुत सोचते मत
रहो—, चलो।
दूसरा
प्रश्न :
आपने
कहा कि
आत्मज्ञानी
है भी नहीं और
नहीं भी नहीं
है। आपके
वक्तव्य में
तो यह
बंध गयी बात, लेकिन
मेरी समझ में नहीं
बंधती।
कृपाकर कुछ और
समझाएं।
बात तो सीधी—सरल
है। लेकिन
चूंकि
विरोधाभासी
है, इसलिए
बुद्धि की पकड़
में नहीं आती।
बुद्धि की पकड़
में
विरोधाभास
नहीं आता।
क्योंकि
बुद्धि ने एक
नियम स्वीकार
कर लिया है कि
जहां विरोध हो,
वहां सत्य
नहीं हो सकता।
यह अरस्तु का
न्यायशास्त्र
है। यह समस्त
जगत का
तर्कशास्त्र
है। विरोध
सत्य नहीं हो
सकता।
स्वभावत: जैसे
कोई कहे कि
कमरे में
कुर्सी है भी
और नहीं भी है।
तो तुम कहोगे,
यह बात तो
कुछ गड़बड़ है।
या तो कुर्सी
है, या
नहीं है।
दोनों बातें
कैसे साथ हो
सकती हैं। यह
बात तो
विरोधाभासी
है, स्व—विरोधी
है।
तो
तर्कशास्त्र
का एक मौलिक
आधार है कि जहां
स्व—विरोध हो, वहां
सत्य नहीं हो
सकता। अब या
तो कोई आदमी
जवान है या
बूढ़ा है। या
तो कोई आदमी जिंदा
है या मुर्दा
है। अब तुम
कहो कि यह
आदमी जिंदा भी
है और मुर्दा
भी है! तो तर्क
कहेगा कि कहीं
कुछ भूल हो
रही है। कोई
एक बात गलत
होगी। दोनों
तो साथ—साथ
सही नहीं हो
सकतीं। युगपत,
एक साथ कैसे
सही हो सकती 'हैं। कि तुम
कहो, एक
आदमी चोर भी
है और संत भी।
यह कैसे होगा!
इसलिए तर्क का
एक नियम है, कि जहां स्व—विरोध,
वहां बात
गलत है।
एक
मुकदमा अदालत
में चलता था
और जो
मजिस्ट्रेट
था, वह
अभी— अभी
कानून पढ़कर
आया था, नया—नया,
कानून और
तर्क में
निष्णात था।
हत्या हो गयी
थी। और एक
गवाह ने जो
वक्तव्य दिया
उसमें उसने कहा
कि हत्या जब
हुई तो घर के
भीतर हुई।
दीवालों के
भीतर हुई। और
दूसरे गवाही
ने उसी क्षण
खड़े होकर कहा
कि नहीं, हत्या
खुले आकाश के
नीचे हुई।
मजिस्ट्रेट
ने कहा, तुम
दोनों सही
नहीं हो सकते,
तुममें कोई
एक जरूर झूठ
बोल रहा है।
लेकिन एक
तीसरे आदमी ने
खड़े होकर कहा
कि नहीं, कोई
झूठ नहीं बोल
रहा है, मकान
के भितर हत्या
हुई और खुले
आकाश के नीचे
हुई, क्योंकि
छप्पर अभी पड़ा
नहीं था। नया—नया
मकान बन रहा
था। दीवालें
भर उठी थीं।
ऊपर से
जो
विरोधाभासी
दिखायी पड़ता
है, उसकी
भी संभावना हो
सकती है। जीवन
तर्क से बड़ा
है। जैसे, यह
अष्टावक्र का
सूत्र कि
आत्मज्ञानी
है भी नहीं और
नहीं भी नहीं
है।
समझो।
आत्मज्ञानी
नहीं है, क्योंकि
परमात्मा है,
आत्मज्ञानी
ने तो अपने को
शून्य कर लिया।
अस्तित्व है,
अपनी मैं की
धारणा तो उसने
गिरा दी, इस
अर्थ में आत्मज्ञानी
नहीं है। उसकी
कोई मैं की
धारणा तो बची
नहीं, अब
वह घोषणा नहीं
कर सकता कि
मैं हूं; परमात्मा
है। तुम ध्यान
रखना, जैसे
कि उपनिषदों
का वचन ' अहं
ब्रह्मास्मि',
जब तुम इसका
अनुवाद करते
हो और तुम
इसका अर्थ करते
हो, तो जरा—सा
फर्क हो जाता
है। लेकिन
फर्क बड़ा है।
इतना बड़ा फर्क
कि जमीन और
आसमान अलग हो
जाते हैं। तुम
जब इसको पढ़ते
हो कि मैं
ब्रह्म हूं तो
तुम समझते हो,
मैं ब्रह्म
हूं।
तुम्हारा जोर
मैं पर होता
है। ब्रह्म
तुम्हारी
छाया बन जाता
है। ब्रह्म
तुम्हारी
लंगोटी। तुम
सज—बनकर खड़े
हो जाते हो।
जब
आत्मज्ञानी कहता
है, मैं
ब्रह्म हूं, तो वह यह कह
रहा है—ब्रह्म
है, मैं
कहां? मैं
नहीं हूं? ब्रह्म
ही है। और
चूंकि वही है,
इसलिए मैं
भी ब्रह्म हूं।
मैं वह पीछे
रख रहा है, ब्रह्म
को आगे रख रहा
है।
जब
अष्टावक्र
कहते हैं, आत्मज्ञानी
नहीं है, तो
उसका अर्थ यह—उसके
पास कोई अस्मिता
कोई अहंकार
नहीं है।
लेकिन यह आधा
वक्तव्य है।
आधा उन्होंने तत्क्षण
जोड़ दिया
क्योंकि खतरा
है। आदमी बड़ा
खतरनाक
प्राणी है।
समझ के मामले
में उससे
नासमझी होने
की ज्यादा आशा
है। अगर तुम
कहो कि
आत्मज्ञानी
नहीं है, इतना
विनम्र है, इतना निरहंकारी
है, तो हमारे
अहंकार इतने
बड़े हैं कि हम
कहेंगे, अच्छा,
तो हम भी
आत्मज्ञानी
हो गये—हम भी
कहते हैं कि
मैं भी नहीं
हूं। तुम कह
सकते हो कि
मैं भी नहीं
हूं और
तुम्हारी आंख
में होने का
दावा हो सकता
है। जब तुम
कहते हो, मैं
कुछ भी नहीं
हूं तब भी तुम
दावा कर रहे
हो कि मैं कुछ हूं, देखो, बिलकुल
ना—कुछ हो गया!
तुम जब कहते
हो, मैं
नहीं हूं तब
भी तुम कहते
हो, मैं
हूं। तुमने एक
नयी तरकीब खोज
ली।
झेन
फकीर बोकोजू
का एक शिष्य
ध्यान कर रहा
है। वह रोज
ध्यान करता है, रोज सुबह
गुरु के पास
आकर निवेदन
करता है, क्या
अनुभव हुआ। और
गुरु उसे भगा
देता है उसी
वक्त, वह
कहता है कि ये
छोड़ो, फालतू
बातें मत लाओ
यहां। कभी
लाता है कि
कुंड़लिनी जग
गयी और गुरु
कहता है, भाग
यहां से!
फिजूल की
बातें न ला
यहां, जब
तक शून्य न
घटे तब तक
फिजूल की
बातें न ला।
मगर वह फिर
आता है, फिर
आता है कि आज
हृदयकमल खुल
गया और वह
गुरु तो डंडा
उठा लेता है।
कभी वह कहता
है कि सहस्रार
खुल गया और
गुरु उसको
धक्के देकर
बाहर निकाल
देता है और
कहता है, जब
तक शून्य न
खुले, तब
तक तू आ ही मत।
फिर महीनों
बीत गये। फिर
एक दिन वह
आया है, अब बड़ा
आनंदित है, चरणों में पड़
गया, उसने कहा
कि आज वह ले
आया हूं जिसकी
आप इतने दिन
से मुझसे
अपेक्षा करते
थे, आशा
करते थे। आज
आप निश्चित
प्रसन्न
होंगे। आज मैं
शून्य होकर आ
गया हूं। गुरु
ने तो डंडा
उठाकर उसके
सिर पर मार
दिया, उसने
कहा, शून्य
को बाहर
फेंककर आ। वह
कहने लगा, अब
तो मैं शून्य
होकर आ गया, अब भी हटाते
हैं! तो
उन्होंने कहा
अभी जब तू दावा
करता है कि
मैं शून्य हो
गया, तो
दावेदार कौन
है? यह नया
दावा है, अहंकार
की नयी शक्ल
है। यह नया
मुखौटा है।
शून्य तो कोई
तभी होता है
जब शून्य भी
फेंक आता है।
तब कहने को
कुछ भी नहीं
बचता। परम
शून्य तो वही
है जो यह भी
नहीं कह सकता
कि मैं शून्य
हूं। कहने की
कहां गुंजाइश
है! कहा कि गलत
हुआ। कहा कि
दावा हुआ।
यही
अर्थ है
अष्टावक्र के
इस वचन का—आत्मज्ञानी
है भी नहीं।
अहंकार तो
.गया, इसलिए
यह कहना तो
ठीक नहीं कि
आत्मज्ञानी
है। नहीं है।
और नहीं भी
नहीं है। कयोंकि
आत्मज्ञानी
यह भी नहीं कह
सकता कि मैं
शून्य हो गया,
निर—
अहंकारी हो
गया।
आत्मज्ञानी
कुछ भी नहीं
कह सकता।
क्योंकि कहने
में तो फिर हो
जाएगा।
उदघोषणाएं तो
सभी अहंकार की
हैं।
विनम्रता की
उदघोषणा भी।
शून्य होने की
उदघोषणा भी।
इसलिए
बात तो बहुत
सीधी—सरल है—आत्मज्ञानी
न तो है, न नहीं है।
नहीं है, ऐसी
घोषणा भी नहीं
कर सकता है, इसलिए नहीं
है भी नहीं है।
यह सीधे
व्यावहारिक
तर्क में
विरोध मालूम
पड़ता है, लेकिन
जीवन के
परमतर्क में
कहीं कोई
विरोध नहीं है।
तीसरा
प्रश्न :
मैं
लौट—लौटकर
अतीत की और देखता
रहता हूं। यह
व्यर्थ है, फिर भी
आदत
छूटती
नहीं। इसका
क्या कारण हो
सकता है?
पहली तो बात, व्यर्थ
होता तो आदत
जाती।
तुम्हारे लिए
व्यर्थ नहीं
है। छूट
जिनके
लिए व्यर्थ है
उनकी तो आदत
छूट गयी। तुम
ऐसा समझो कि
कचडे को
संभालकर
तिजोड़ी में रख
रहे हो और मैं
तुम्हें पकड़
लूं और कहूं
कि यह क्या कर
रहे हो? तो तुम कहो, मालूम तो है
कि यह कचडा है,
लेकिन आदत
नहीं छूटती।
ऐसा होगा? जानते
हुए कचडा
तिजोरी में
रखोगे संभाल
कर? कचडा
है जानते हुए
रखोगे संभाल
कर? थोड़ी
भूल हो रही है।
बुद्धपुरुष
कहते हैं, कचडा है।
तुमने उनकी
बात सुन ली, संकोचवश
उनकी बात
इंकार भी नहीं
करते।
बुद्धपुरुष
कहते हैं, ठीक
ही कहते होंगे,
सब शास्त्र
कहते हैं, तो
ठीक ही कहते
होंगे; कचडा
है। लेकिन तुम
जानते हो कि
बात ठीक है
नहीं, है
तो हीरा, जवाहरात!
अब तुम्हारे
भीतर एक
द्वंद्व पैदा
हुआ। एक
तुम्हारा
जानना है और
एक
बुद्धपुरुषों
से सुनी हुई
बात है।
स्वभावत:
अंतिम परिणाम
में तुम
जीतोगे, बुद्धपुरुष
नहीं जीतेंगे।
क्योंकि
तुम्हारे
भीतर तुम्हीं
गहरे में हो, बुद्धपुरुष
तो ऊपर—ऊपर
हैं। ऊपर—ऊपर
से कहते हो, सब कचडा है।
और भीतर— भीतर
जानते हो कि
कहां ये
बुद्धपुरुष, बुद्धओं की
बातों में मत
पड़ जाना। दे
मत बैठना
कहीं! संभाल
कर रख लो।
तुम्हारी
दुविधा यह है
कि न तुम
बुद्धपुरुषों
को इंकार कर
पाते—इतना भी
साहस नहीं, इतनी भी
हिम्मत नहीं।
शायद किसी
गहरे तल पर
तुम्हें यह भी
समझ में आता
है कि वे ठीक
ही कह रहे हैं,
क्योंकि
ठीक तो वे कह
ही रहे हैं।
इसलिए तुम
कितने ही
अंधेरे में
दबे हो लेकिन फिर
भी कहीं भनक
पड़ती है कि
कुछ बात तो
ठीक मालूम
पड़ती है। फिर
चाहे बात ठीक
न भी मालूम
पड़ती हो, वासनाओं
में चित्त ड़बा
है। तो भी
बुद्धपुरुषों
की शांति, उनका
आनंद, उनका
रस देखकर
तुम्हें लगता
है, अगर ये
गलत कहते होते
तो इनके जीवन
में गलत का परिणाम
होना चाहिए था।
परिणाम तो सही
के दिखायी पड़
रहे हैं। और
वृक्ष तो फल
से जाना जाता
न! तो
बुद्धपुरुषों
में जब तुम
आनंद के फल
लगे देखते हो,
सच्चिदानंद
के झरने बहते
देखते हो, तो
तुम्हें लगता
है, ठीक तो
वही कहते
होंगे। हम
कैसे ठीक हो
सकते हैं? क्योंकि
सिवाय जहर के
कुछ हाथ लगता
नहीं। सिवाय
जर्क के कहीं
पहुंचना होता
नहीं। हीरे —जवाहरात
अगर हमारे सच
होते तो हम
स्वर्ग में होते,
हैं तो हम
नर्क में। यह
ठीक ही कहते
होंगे। यह बात
भी कुछ जंचती
लगती है। और
फिर भी
तुम्हारा
अपना जो अनुभव
नहीं है—यह
बुद्धपुरुषों
का अनुभव
तुम्हारी
अपनी प्रतीति
तो नहीं है—तुम
इसे मान कैसे
लो! तुम
विश्वास कर
लेते हो। बस
विश्वास से
अडुचन खडी
होती है। यह
अनुभव बनना
चाहिए।
तुम
मानने की
जल्दी मत करो।
तुम्हें जो
कचडा नही
दिखायी पड़ता, तुम कहो,
अभी मुझे
दिखायी नहीं
पड़ता। आप कहते
हैं, ठीक
ही कहते होंगे,
कोई कारण
नहीं कि आपको
गलत कहूं
क्योंकि आप जो
जानते हैं मैं
नहीं जानता; आप कहते हैं,
ठीक ही कहते
होंगे, लेकिन
जहां तक मेरी
समझ अभी काम
करती है वहा
तक मुझे ये
हीरे —जवाहरात
मालूम पड़ते
हैं। इतनी
ईमानदारी अगर
तुम बरतो तो
जल्दी ही तुम्हारे
जीवन में क्रांति
हो जाएगी।
उधार ज्ञान को
अपना मत समझो।
बासी बातों को
अपना मत समझो।
अब तुम
कहते हो, मैं लौट—लौटकर
अतीत की ओर
देखता रहता
हूं। यह
व्यर्थ है, फिर भी आदती
छूटती नहीं।
व्यर्थ
होता तो छूट
ही जाती। मैं
कहता हूं
व्यर्थ है, यह बात
ठीक है। मेरी
छूट गयी।
व्यर्थ का बोध
और आदत का
छूटना साथ—साथ
घटते हैं।
व्यर्थ का बोध
हो जाए, आदत
न छूटे, ऐसा
कभी हुआ ही
नहीं। यह तो
ऐसे ही हुआ कि
मैं तुमसे
कहूं यह
दरवाजा है, इससे निकल
जाओ, तुम
कहो कि मालूम
है दरवाजा यह
है, लेकिन
निकलूंगा तो
मैं दीवाल से,
पुरानी आदत!
हालांकि सिर
टकराता है, सिर में
दर्द होता है,
सिर खुल
जाता है, गिर
पड़ता हूं पछाड़
खाकर, लेकिन
क्या करूं!
मालूम है कि
यह दीवाल है
और यह भी
मालूम है कि
इससे टकराने
से पीड़ा होगी,
निकलना हो
नहीं सकता,
लेकिन
पुरानी आदत!
क्या तुम ऐसा
कहोगे? अगर तुम ऐसा
कहो, तो दो
में से कुछ एक
ही बात सच हो
सकती है। या
तो तुम्हें
दरवाजा
दिखायी नहीं
पड़ता कहां है,
या तुम्हें
दीवाल में ही
दरवाजा
दिखायी पड़ता है।
लाख बुद्ध—महावीर,
कृष्ण—क्राइस्ट
चिल्लाते
रहें कि
दरवाजा यहां
है, तुम
लगाए क्यू खड़े
दीवाल के
सामने! तुम
वहीं से
निकलोगे।
वहां सारी भीड़
भी खडी है।
दरवाजे पर तो
कभी कोई इक्का—दुक्का
आदमी निकलता
दिखायी पड़ता
है, लोग तो
दीवालों से
टकरा रहे हैं।
तो
पहली बात तो
स्मरण करो कि
यह तुम्हारी
समझ नहीं है।
और दूसरे की
समझ से जीने
की कोशिश
करोगे तो बहुत
मुश्किल में
पड़ोगे। यह ऐसा
ही है जैसे
कोई दूसरे की आंख
से देखने की
कोशिश करे।
एक
आदमी अंधा हो
गया।
चिकित्सकों
ने बहुत कहा, इलाज
करवा लो, आंख
अभी ठीक हो
सकती है।
लेकिन उसने
कहा, मैं
अस्सी साल का
हो गया और अब आंख
का इलाज करवा
कर भी क्या
करना! साल—दो
साल की बात है।
आज गया, कल
गया और फिर आंखों
की कोई कमी है
मेरे घर में!
मेरी पत्नी की
आंखें, मेरे
आठ बेटे हैं
उनकी सोलह आंखें,
मेरी आठ
बहुएं हैं
उनकी सोलह आंखें,
ऐसा सोलह—सोलह
बत्तीस और दो
चौंतीस आंखें
मेरे घर में
हैं। न हुईं
दो आंखें तो
क्या फर्क
पड़ता है! बात
तो बड़े अर्थ
की कह रहा था
बुड्डा, लेकिन
उसी रात झंझट
हो गयी। घर
में आग लग गयी।
वे चौंतीस आंखें
एकदम बाहर
निकल गयीं। और
वे दो आंखें
जो अंधी थीं, बुड्डा भीतर
रह गया। तब
उसे याद आया
कि अपनी ही आंख
हो तो समय पर
काम पड़ती है।
बाहर
पहुंच कर जरूर
पत्नी
चिल्लाने लगी, बचाओ
मेरा पति भीतर
रह गया, लेकिन
जब लपटें उठ
रही थीं तब तो
वे भाग खड़ी हुईं।
तब तो अपनी ही
याद रही। इतने
संकट में कहां
पति, कहां
पत्नी! इतने
संकट में आदमी
अपने को बचा ले,
वही बहुत।
बहुएं भी रोने
लगीं, बेटे
भी चिल्लाने
लगे, बाहर
भीड़ इकट्ठी
हो गयी, लेकिन
कोई भीतर आने
की हिम्मत न
करे और का द्वार—दरवाजों
से टकरा—टकराकर
जलने लगा।
निकलने की
कोशिश करते —करते
मर गया।
आंख
अपनी हो तो ही
काम आती है।
मेरी आंख
तुम्हारे काम
न आएगी। ही, अगर
बातचीत करनी
हो, सोच—विचार
करना हो तो
काम आ जाएगी।
लेकिन जब
जिंदगी में आग
लगेगी, जब
जरूरत पड़ेगी,
तब तुम
अचानक पाओगे
वे काम नहीं
आतीं। अपनी ही
आंख ठीक करनी
जरूरी है।
बुद्ध ने
आखिरी वचन
अपने विदा के
समय में कहा, ' अप्प दीपो
भव।’ अपने
दीये खुद बनो।
क्योंकि जब
बुद्ध मरने
लगे और शिष्य
रोने लगे तो
बुद्ध ने कहा,
तुम क्यों
रोते हो? तो
उन्होंने कहा,
आप चले अब
हमारा क्या
होगा ग्र
बुद्ध ने कहा,
मेरे होने
से तुम्हारा
क्या हुआ था? मैं था तो
क्या हुआ? मैं
जा रहा हूं तो
क्या खो रहा
है! अब इतनी ही
बात खयाल रखो,
जो मैंने
जिंदगी भर
तुमसे कही कि
अपनी आंखें
खोज लो। अब तक
तो तुमने नहीं
सुनी, अब
सुन लो!
क्योंकि अब
मैं जा रहा हूं, अब
कहनेवाला भी
जा रहा है। अब
मैं तुमसे लौट—लौटकर
नहीं कहूंगा,
अपनी आंखें
खोज लो। अब
तुम्हें
पक्का पता
चलेगा। अगर
अभी तुम मेरे
पीछे सरक—सरक
कर चलते रहे, तुम्हें यह
भ्रांति रही
कि जैसे
तुम्हारे पास आंखें
हैं, अब
मेरे जाने पर
तुम्हें
असलियत पता चल
जाएगी।
जिंदगी की
दीवालें जगह—जगह
तुम्हें
रुकावट
डालेंगी। जगह—जगह
तुम गड्डों
में गिरोगे।
अब तो अपनी आंख
खोज लो।
तो
पहली बात, तुमने
शास्त्र पढ
लिये हैं, शास्ताओं
को सुन लिया, सुंदर वचन
कंठस्थ कर
लिये, लेकिन
यह तुम्हारा
अनुभव नहीं है।
दूसरी
बात, आदमी
अतीत की ओर
देखता है, उसके
पीछे
महत्वपूर्ण
कारण हैं।
बच्चे भविष्य
की ओर देखते
हैं, जवान
वर्तमान की ओर
देखते हैं, के अतीत की
ओर देखते हैं।
जिस दिन तुम
अतीत की ओर
देखने लगो, समझना कि के
होने लगे।
बच्चों का
लक्षण है, भविष्य
की ओर देखना।
बच्चों का कोई
अतीत तो होता
ही नहीं, देखेंगे
भी तो क्या
खाक देखेंगे।
पीछे तो कुछ
है नहीं। जो
कुछ है, आगे
है। अभी
जिंदगी होनी
है। अभी हुई
तो नहीं। अभी
कोई कहानी तो
नहीं, बच्चे
से कहो कि
तुम्हारी
आत्मकथा लिखी
तो क्या खाक
लिखेगा! वह
कहेगा, आत्मकथा
यानी क्या? अभी कुछ हुआ
ही नहीं तो
कथा कहां से!
अभी कोई घटना
ही कहां घटी!
जवान आदमी
वर्तमान में
देखता। जवानी
ऐसा मदमस्त
करती है कि
कहीं और कहा
देखे! अभी तो
भोग लो, कल
बचा न बचा। का
आदमी पीछे की
तरफ देखने
लगता है, क्योंकि
अब आगे तो मौत
है और कुछ भी
नहीं, अंधेरा।
पीछे बहुत कुछ
हुआ है, आत्मकथा
है, बड़ी
घटनाएं घटी
हैं—राग—रंग
भी थे, सुख—दुख
थे, लंबी
यात्रा है। वह
पीछे का मार्ग
लौट—लौट कर
देखने लगता है।
तो
पहली बात
तुमसे कहना चाहता
हूं अगर लौट—लौट
कर अतीत की ओर
देखने लगे हो
तो तुम के हो
रहे हो। यह
वार्द्धक्व
का अनिवार्य
लक्षण है।
बूढ़ा आदमी
शरीर से नहीं
होता, बूढ़ा
आदमी चित्त से
होता है। और
चित्त का यह
लक्षण है, जब
आदमी का होने
लगता है तो
पीछे देखता है।
के बैठे —बैठे
पीछे की स्मृतियों
में ड़बे रहते
हैं। जो—जो
उन्होंने
किया, जो—जो
हुआ। और जो —जो
किया उसको खूब
बढा —बढ़ाकर
देखते हैं, ऐसा भी नहीं
कि कुछ उतना
ही देखते हैं
जितना हुआ। अब
जब देख ही रहे
हैं और अकेले
ही देख रहे
हैं और अपनी
ही फिल्म है
और अपना ही
पर्दा है और
अपने ही दर्शक
हैं, फिर
क्या कंजूसी
करनी! खूब बढ़ा—बढ़ाकर
देखते हैं। और
उसमें ड़बते
हैं।
मौत
करीब आने लगी, अब
तुम्हारे पास
जिंदगी के नाम
पर सिर्फ पुरानी
स्मृतियों का
ढेर रह गया है।
और तुम्हारे
पास अब एक ही
उपाय मालूम
होता है जिंदा
बने रहने का
कि इसको पकड़
लो, जो चला
गया इसको पकड़े
रहो।
प्राणहीन
पादप से
लिपट
गयी लता
अतीत
से कितनी
आगत को
ममता
सूखे
वृक्ष से भी
लता लिपटी
रहती है।
सहारा! अब और
कोई सहारा तो
दिखायी नहीं
पड़ता। आगे तो
सिर्फ अंधकार
है। भीतर
अंधकार है। अब
तो एक ही रोशन
बात मालूम
पड़ती है, यह अतीत की
लकीर जिस पर
तुम गुजर आए, यह रास्ता
जो बीत चुका, जो अब कभी
होगा नहीं, जो हो चुका।
अब इन्हीं
संजोयी
स्मृतियों के
फूलों को, सूखे
फूलों को
सजाकर बैठे हो।
इन्हीं को
पकड़े हो।
प्राणहीन
पादप से
लिपट
गयी लता
अतीत
से कितनी
आगत को
ममता
मुर्दा
है यह सब, लाश है यह सब।
कभी—कभी ऐसा
हो जाता है, बंदरिया
अपने बच्चे को
लेकर घूमती
रहती है, छाती
से लगाण्र।
बच्चा मर जाता
है तो भी
घूमती रहती है।
कुछ दिन लग
जाते हैं जब
बच्चा सड़ जाता
है और बास
उठने लगती है,
तब छोड़ती है
घबड़ाकर। नहीं
तो मुर्दा ही
को लटकाए रखती
है! पुरानी आदत।
अतीत
तो मुर्दा है, जा चुका।
हो चुका। धूल
है। राख है, अंगारा तो
बुझ चुका। अब
इस राख को मत
सेजे रहो, मत
सजाए रहो। इस
राख में उलझे
रहे, तो
आगे देखने के
लिए जो आंख
चाहिए, जो
कि बड़ी जरूरी
है, क्योंकि
मौत सामने आ
रही है, देखने
का मौका आ रहा
है। यह बड़ा
अंधेरा
उतरनेवाला है,
बड़ी आंखों
की जरूरत
पड़ेगी। अब यह
समय मत खोओ
पुरानी
स्मृतियों
में। अब तो
जरा आगे—अभी
आगे देखने का
कुछ अर्थ है।
बच्चे तो आगे
देखते हैं, वह
स्वाभाविक है,
उसका कोई
मूल्य नहीं है।
जवान वर्तमान
में देखते हैं,
वह
स्वाभाविक, उसका भी कोई
मूल्य नहीं है।
के पीछे देखते
हैं, वह
स्वभाविक, उसका
भी कोई मूल्य
नहीं है।
अब तुम
समझो। अगर कोई
बच्चा पीछे
देखने लगे तो क्रांति
घट जाती है।
इसलिए कथा
कहती है कि
लाओत्सु का
पैदा हुआ।
क्योंकि वह
पीछे देखता
हुआ पैदा हुआ।
कुछ बच्चे
पैदा होते हैं
जो पीछे देखते
पैदा होते हैं।
ऐसे ही बच्चों
ने तो दुनिया
को यह खयाल
दिया कि अनेक—
अनेक जन्म हैं
पीछे। जो
बच्चे पीछे
देखते पैदा
होते हैं, वही तो
खबर लाते हैं
इस दुनिया में
कि पहले और भी
जन्म हुए हैं।
हम नये नहीं
हैं, आगंतुक
नहीं हैं, बहुत
पुराने हैं, प्राचीन।
जिनको पिछले
जन्मों की
स्मृति रह
जाती है, वे
बच्चे पीछे
देखते पैदा
होते हैं। जो
बच्चा पीछे
देखता पैदा
होता है, अनूठा
है। जो जवान
आगे —पीछे
देखने में
समर्थ होता है,
वह अनूठा है।
क्योंकि जवान
तो सिर्फ क्षण
को देखता है।
जो है अभी। कर
लो, गुजर
लो, जो
होगा होगा, देखा जाएगा।
जवान तो वर्तमान
में अंधा होता
है। जो जवान
आगे —पीछे
देखने लगे, उसके जीवन
में विवेक का
जन्म होता है।
और जो का आगे
देखने लगे, वह मृत्यु
के पार हो
जाता है, अमृत
को पा लेता है।
देखने
की क्षमता तो
वही है, दिशा बदलो।
बुढ़ापे में
बच्चे जैसे हो
जाओ। यही तो
जीसस कहते हैं
कि जो बच्चों
जैसे हैं वे
उपलब्ध हो
जाएंगे प्रभु
को। यही तो
अष्टावक्र
कहते हैं, बालवत
हो जाओ। क्या
मतलब है? यह
बालवत शब्द के
इतने मतलब हैं
कि जिसका हिसाब
नहीं। उन बहुत
मतलबों में एक
मतलब यह भी है—अलग
— अलग बार मैं
अलग— अलग मतलब
तुमसे कहता हूं, क्योंकि वह
सब मतलब इस
छोटे से शब्द
में समाए हैं।
यह भी मतलब है —बच्चे
जैसे हो जाओ।
अगर कोई का
बच्चे जैसा हो
जाए तो उसका
अर्थ हुआ, का
आगे देखने लगा।
पीछा तो गया, गया सो गया।
बिसर! सो
बिसरा, अब
उसको क्या
समेटना? अब
वह आगे देखने
लगा। अगर कोई
का बच्चे —जैसा
आगे देखने लगे
तो मौत के पार
देख लेगा, अमृत
को उपलब्ध हो
जाएगा। अगर
कोई बच्चा के —जैसा
पीछे देखने
लगे तो वह
जन्म के पार
देख लेगा। और
अतीत जन्मों
की स्मृति को
उपलब्ध हो
जाएगा। अगर
कोई जवान आगे—पीछे
देख ले तो
वासना—मुक्त
हो जाएगा, संन्यस्त
हो जाएगा। आगे
—पीछे देख ले
तो पाएगा, क्या
रखा है? न
पीछे कुछ था—जब
तुम छोटे
बच्चे थे तो
वासना का क्या
मूल्य था? महत्वाकांक्षा
का क्या मूल्य
था? धन का
क्या मूल्य था?
पद—प्रतिष्ठा
का क्या मूल्य
था? अगर
जवान पीछे देख
ले और आगे देख
ले —एक दिन फिर
कुछ मूल्य न
रह जाएगा, फिर
मौत आएगी
सब पोंछ
जाएगी—न पहले
कुछ मूल्य था, न आगे कुछ
मूल्य है, तो
अभी मूल्य
कैसे हो सकता
है! तो धोखा हो
रहा है।
क्रांति
घटती है जब
तुम सामान्य
से हटकर कुछ
करने में सफल
हो जाते हो।
रूप
ढला
रस बहा
संग
लगा
रंग
रहा
सब ढल
जाता है, सब नष्ट हो
जाता है, लेकिन
रंग लगा रह
जाता है। जैसे
बगीचे से
गुजरे, बगीचा
तो गुजर गया
लेकिन
वस्त्रों में
थोड़ी बगीचे की
सुगंध अटकी रह
जाती है। ऐसी
स्मृतियां
हैं। खिलौने
टूटते हैं, मरते नहीं
मां ने
कहा,
पर
बालक रोता रहा
बच्चे
का तो खिलौना
भी टूट जाए तो
वह रोता है।
जैसे कोई
मृत्यु घट गयी।
बच्चे का
खिलौना टूट
जाए तो रोता
है, और
ज्ञानी
वस्तुत: मौत
घट जाए, खुद
भी मर जाए तो
भी नहीं रोता
है, आंख पर आंसू
नहीं आते हैं।
बच्चे को
खिलौने में भी
लगता है मौत
घट गयी और ज्ञानी
को वास्तविक
मौत में भी
लगता है—मौत
कैसे घट सकती
है!
रति
भोगी
की मति
योगी
की गति
वही है
ऊर्जा, अलग— अलग तो
नहीं। रति—यह
जो काम है, मन
की वासना है।
भोगी की मति—इसी
कामना में
भोगी का मन ड़बता
रहता है।
डुबकियां
लगाता रहता है।
अब जो तुम कर
भी नहीं सकते,
उसकी
कल्पना में ड़बे
हो। जो हो भी
नहीं सकता, उसकी योजना
बना रहे हो।
शेखचिल्लीपन
छोड़ो।
रति
भोगी
की मति
योगी
की गति
और
योगी यह समझकर
कि जो हुआ वह
भी व्यर्थ था, सपने
जैसा आया और
गया, अब
उसमें क्या
रखा! जब था तब
भी सपना था, समझदार को।
और नासमझ को, जब नहीं है
तब भी सच
मालूम हो रहा
है। तो जिस
रति में भोगी ड़ब
जाता, बंध
जाता, उसी
रति को समझकर योगी
गतिमान हो
जाता। रति
विरति बने
यही
काम्य,
आवृत्ति
बने,
यह
कामना
और फिर—फिर
वही कर लूं जो
किया, ऐसी
आवृत्ति की आकांक्षा
का नाम ही
कामना है। जो
एक बार कर
लिया, ठीक
से कर लिया, देख लिया, समझ लिया, उससे सदा के
लिए मुक्ति हो
जानी चाहिए।
लेकिन फिर—फिर
करूं, इसका
मतलब है कि
ठीक से किया
नहीं।
तो मैं
तुमसे कहता
हूं के तुम हो
गये होओगे लेकिन
तुम ठीक से
जवान न रहे।
तुमने जो किया
वह ठीक से न
किया। अधूरा—अधूरा
किया। अटका—
अटका रह गया।
अपूर्ण रह गया।
मन उसे पूरा
करने के लिए
आतुर है।
इसलिए अब
कल्पना में
पूरा कर रहा
है। जिसे तुम
कर रहे हो उसे
ठीक से कर लो।
यह मेरी
बुनियादी
धारणाओं में
एक धारणा है
कि तुम जो कर
रहे हो उसे
ठीक से कर लो, जल्दबाजी
कुछ भी नहीं
है, फल
पकेगा तो
गिरेगा। तुम
कच्चे गिराने
की चेष्टा मत
करो।
अब ऐसा
लगता है कि
जिन्होंने
पूछा है, धार्मिक
आदमी मालूम होते
हैं। तो जब
जवान रहे तो
जो भूल—चूके
करनी थीं—क्योंकि
करने से ही
कोई उनसे पार
होता है—वह
नहीं कर पाए।
जवानी में
शास्त्र पढ़ते
रहे होंगे, मंदिर में
बैठे रहे
होंगे। अब
बुढ़ापे में जब
ऊर्जा चली गयी,
जीवन क्षीण
होने लगा और
घबड़ाहट पकड़ने
लगी कि मौत के
पदचाप सुनायी
पड़ने लगे, तो
अब बार—बार
खयाल आ रहा
होगा कि जो
नहीं कर पाए, वह कर ही
लेते। पता
नहीं मौत के
बाद बचते कि
नहीं बचते। अब
कल्पना में
हिसाब चल रहा
है।
आदमी
रोता ही रहता।
करता है तब
रोता है, फिर जब करने
के दिन चले
जाते हैं तब
रोता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
लोग किस—किस
भांति अपने को
धोखा देते हैं,
आश्चर्य
होता है देखकर।
तुमने खयाल
किया, सभी
लोग कहते हैं
कि बचपन बड़ा
सुंदर था। वे
बचपन के दिन!
मगर बचपन
सुंदर? बच्चों
से पूछो, तो
बच्चे बहुत
जल्दी बड़े
होने में
उत्सुक हैं।
बच्चे चाहते
हैं, कैसे
बड़े हो जाएं।
कब छुटकारा
मिले इस बचपन
से। क्योंकि
बच्चों को
अनुभव होता है
कि बचपन सिवाय
दमन के, परतंत्रता
के और क्या है?
छोटा बच्चा
मां से कहता
है, जरा
बाहर हो आऊं 1:
मां कहती है, नहीं बाहर
मत जाना। कोई
बड़ी बात नहीं
पूछी थी, बाहर
धूप निकली है,
सूरज निकला
है, तितलियां
उड़ रही हैं, बच्चे खेल
रहे, वह
बाहर जाना
चाहता है, मां
कहती है नहीं।
इतनी भी
स्वतंत्रता
नहीं! बच्चा
सोना नहीं चाहता
अभी और मां
कहती है, सो
जाओ क्योंकि
घर में मेहमान
आए हुए हैं।
अब नींद आ
नहीं रही है, उसको
जबरदस्ती
बिस्तर में
दबा दिया गया
है। सुबह जब
वह उठना नहीं
चाहता और नींद
आ रही है, तब
उसे खींचा जा
रहा है। स्कूल
कौन बच्चा
जाना चाहता
है! उसे भेजा
जा रहा है। और
तुम इसको कहते
हो कि बचपन के
दिन बड़े सुंदर
थे! बच्चों से
पूछो! बच्चे
जल्दी बडे
होना चाहते
हैं, कैसे
बड़े हो जाएं!
एक
छोटे बच्चे को
उसकी मां पालक
की सब्जी खिला
रही है। और वह
बच्चा रो रहा
है। और उसकी आंख
में आंसू बह
रहे हैं और वह
कह रहा है कि
भगवान ने पालक
में ही क्यों
सब विटामिन
रखे! आइसक्रीम
में रखता तो
क्या कोई
खराबी थी? जब
विटामिन ही
रखने थे तो
आइसक्रीम में
रख देता। मगर
उसकी मां कह
रही है, बेटा,
खा तो तू
मजबूत हो
जाएगा। तो वह
कह रहा है, ठीक
है, खा
लेता हूं
इसीलिए खा रहा
हूं कि मजबूत
हो जाऊं ताकि
कोई मुझे फिर
पालक न खिला
सके। इतना
मजबूत होना है
कि पालक कोई
फिर न खिला सके
दुबारा।
बच्चे
तो किसी तरह
छुटकारा पाना
चाहते हैं, कैसे
छुटकारा हो इस
कारागृह से।
लेकिन बड़े
होकर यही
बच्चे कहने
लगते हैं कि
बचपन के दिन
बड़े सुंदर थे।
हो क्या जाता
है? आदमी
अपने को धोखा
देता है। जो
है, वह तो
सुंदर नहीं है।
तो कहीं
सांत्वना तो
चाहिए।
तो दो
ही तरह की
सांत्वनाएं
हैं आदमी को—या
तो पीछे कहो
कि सुंदर था, या कहो
आगे सुंदर हो
जाएगा। आज तो
सदा असुंदर है।
अभी तो दुख ही
दुख है। तो
कहीं तो सुख
चाहिए। झूठा
ही सही, मगर
कुछ तो ख्याल
रहे कि हमने
भी सुख पाया।
तो पीछे सुख
था, बचपन
में सुख था, आगे सुख है।
दुनिया में दो
ही तरह के लोग
हैं। और दो ही
तरह के धर्म
हैं। और दो ही
तरह की समाज—विचार
की परंपराएं
हैं। हिंदू
जैन, बौद्ध,
वे सब कहते
हैं कि
स्वर्णयुग
बीत चुका, सतयुग
बीत चुका, पहले
हो चुका, अब
नहीं
होनेवाला, अब
तो दुख ही दुख
है।
कम्यूनिजम, फासिजम, इस
तरह की
धारणाएं कहती
हैं, सतयुग
आने वाला है, होनेवाला है,
अभी हुआ
नहीं। हिंदू
कहते हैं, रामराज्य
हो चुका।
कम्यूनिस्ट
कहते हैं, रामराज्य
होने वाला है।
अच्छी दुनिया
आनेवाली है, उटोपिया अभी
होगा। बस यह
दो ही तरह की
धारणाएं हैं।
हिंदू? जैन, बौद्ध
के हैं। बड़ी
पुरानी
धारणाएं हैं,
ये की हो
गयीं, ये
पीछे देखती
हैं।
कम्यूनिजम
अभी बच्चा है,
अभी भविष्य
में देख रहा
है। मगर दोनों
एक से भ्रांत
हैं। क्योंकि
कहीं भी तुम
अपने सुख को
रख लो—अतीत
में या भविष्य
में—तुम धोखा
दे रहे हो।
जीवन में जो
कड़वाहट है, उससे बचो मत,
उसे भोगो, उसके प्रति
जागो। जो आज
है, उसे भर
नजर देखो। न
तो पीछे अपने
मन को भरमाओ, न आगे अपने
मन को भरमाओ।
मन को भरमाओ
ही मत।
सांत्वनाएं
मत खोजो। सत्य
को देखो।
क्योंकि सत्य
से ही सुख
जन्म सकता है,
सांत्वनाओं
से नहीं।
बीत
गये
प्यारे
रतनारे दिन
बीत गये
रीत
गये
आंखों
के खारे छिन
रीत गये
अरुणाए
अधरों के
मखमल
से चुंबन ने
मोड़
दिया पाल
काजल
की डोरी से
बंधी—बंधी
मछली ने
छोड़
दिया ताल
द्वारे
पर
बहरे
हरकारे बिन
गीत गये
बीत
गये
प्यारे
रतनारे दिन
बीत गये
रीत
गये
आंखों
के खारे छिन
रीत गये
लोग रो
रहे हैं। सब
बीत गया। सुख
बीता, शांति
बीती, सौंदर्य
बीता, स्वास्थ्य
बीता, सब
बीता। मत
इसमें पड़े रहो।
तुम कहते हो, यह व्यर्थ
है; मैं
तुमसे कहता हूं, जानो यह
व्यर्थ है। यह
शक्ति मत खोओ।
यही शक्ति
ध्यान बन सकती
है। यही ऊर्जा
जो तुम आंख
बंद करके अतीत
के सपनों में
लगा रहे हो, यही शक्ति
निर्विचार बन
सकती है। यही
शक्ति
प्रार्थना —पूजा
बन सकती है।
या तो इसे
प्रार्थना
बनाओ, या
इसे ध्यान बनाओ।
क्योंकि
प्रार्थना और
ध्यान से ही
तुम उसे पाओगे
जो सुख है, जो
महासुख है। और
किसी तरह किसी
आदमी ने कभी
सुख न पाया है,
न पा सकता
है। लेकिन कुछ
भी तुम करो, ऊर्जा तो
व्यय होती है,
शक्ति तो
नष्ट होती है।
और यह बडी
व्यर्थ की बात
है। बैठे हैं,
सोच रहे हैं।
यह व्यर्थ की
बात है, लेकिन
तुम्हें अभी
दिखायी नहीं
पड़ी इसलिए आदत
छूटती नहीं है।
मेरे कहने से
मत मान लेना
कि व्यर्थ की
है, तुम
खुद की सोचो, खुद ही
ध्यान करो, खुद ही
विमर्श करो।
यह व्यर्थ तो
है ही, इससे
सार क्या है? जो कभी हुआ
था, उसको
लेकर क्यों
बैठे हो? उसकी
क्यों राशि
लगा रहे हो? अब तो दोहर
भी नहीं सकता,
फिर तो हो
भी नहीं सकता,
जो गया गया।
इस जगत में
कुछ भी
पुनरुक्त
नहीं होता।
समय लौटकर आता
नहीं। अब
क्यों बैठे हो?
अब यह हिसाब—किताब
बंद करो, यह
बही—खाते जलाओ।
ठीक—ठीक
व्यक्ति अगर
जीए तो रोज—रोज
अपने अतीत से
मुक्त होता
जाता है। अतीत
की धूल को
चित्त के
दर्पण पर जमने
मत दो, नहीं
तो दर्पण में
दर्पणपन न रह
जाएगा। धूल ही
धूल जम जाएगी।
धूल को झाड़
दो, ताकि
दर्पण स्वच्छ
हो जाए। उसी
स्वच्छ दर्पण
में तो सत्य
का प्रतिबिंब
मिलने वाला है।
आदत
टूटती नहीं, तुम कहते
हो। आदत को
समझो बजाय
तोड्ने की
चेष्टा के।
कोई आदत
तोड्ने से
नहीं टूटती है,
समझने से
टूटती है। कोई
सिगरेट पीता
है, वह
कहता है, आदत
छोड़नी है। आदत
छोड़ने का सवाल
नहीं है, यह
समझो कि यह
व्यर्थ है।
इसे पहचानो।
इस पर ध्यान
करो। मेरे पास
कोई आता है
सिगरेट पीने
वाला, वह
कहता है, छोड़नी
है, बहुत
कोशिश कर चुका,
बीस साल हो
गये, कई
दफे छोड़ी भी, एकाध दिन, दो दिन बहुत
खींच पाता हूं
फिर नहीं होता।
और वह दो दिन
इतने कष्ट में
बीतते हैं कि
फिर ऐसा लगता
है कि इतने
कष्ट में जीने
का तो कोई सार
ही नहीं है।
इससे तो पी ही
लो। चलो ठीक है,
टी. बी होगी,
कैंसर होगा,
जब होगा
होगा, अभी
तो कोई हुआ
नहीं जा रहा
है।
तो मैं
उनसे कहता हूं
तुम छोड़ने की
चेष्टा मत करो, कोई आदत
छोड़ने से नहीं
छूटती, तुम
आदत को समझो।
मैं उनसे कहता
हूं, जब
तुम सिगरेट
पीओ तो बड़े
ध्यानपूर्वक
पीओ।
जल्दबाजी न
करो, बहुत आहिस्ता
से पैकेट से
निकालो, एक
दफे ठोंकते हो
तो सात दफे
ठोंको उसे
माचिस की
डिब्बी पर, और बड़े धीरे —
धीरे ठोंकों,
बडे रस लेकर
ठोंको, इसे
पूजा का कृत्य
समझो, इसे
जल्दी मत करो।
फिर आहिस्ता
से मुंह पर
लगाओ, आईना
रखकर बैठो, उसमें देखो
क्या कर रहे
हो, फिर
माचिस जलाओ, फिर धीरे—
धीरे धुंआ
खींचो, फिर
देखो भीतर कि
क्या हो रहा
है—धुंआ भीतर
ले गये, आनंद
आ रहा है कि
नहीं आ रहा है,
सच्चिदानंद
की बरसा हो
रही है कि
नहीं हो रही है।
इसको पहचानने
की कोशिश करो।
आदत छोड़ने का
क्या सवाल है!
कहां मजा आ
रहा है, किस
वक्त मजा आता
है, धुंआ कहां
होता है तब
कुंड़लिनी
जागती है, कब
सहस्त्रदल
कमल खिलते हैं,
कब, कहां
हृदय के द्वार
में गुदगुदी
होती है, जरा
देखते रहो।
फिर धुएं को
बाहर निकालो,
दर्पण में
देखो और सोचो।
दिन में तीन
दफे पीते हो, छ: दफे पीओ।
और छ: दफे यह
पूरा का पूरा
उपक्रम करो।
तुम
धीरे — धीरे
पाओगे कि
तुम्हें अपनी
मूढ़ता दिखायी
पड़ने लगी। तुम
बहुत
जड़बुद्धि
मालूम पडोगे।
यह तुम कर
क्या रहे हो? और तुम यह
भी बडे चकित
होकर हैरान
होओगे कि आनंद
कहीं भी मिलता
नहीं, किसी
स्थिति में
नहीं मिलता। न
ओंठ पर लगाने
से, न धुएं
को भीतर लेने
से। कभी—कभी
खासी जरूर आती
है, कभी—कभी
आंख में आंसू
भी आ जाते हैं,
कभी—कभी कफ
और बलगम पैदा
होता है और तो
कुछ होता नहीं।
इसे तुम देखो।
तुम्हारी
गड़बड़ क्या है? तुम इसे
छोड़ना चाहते
हो! क्योंकि
कोई कहता है टी.
बी हो जाएगी, क्योंकि कोई
कहता है कैंसर
हो जाएगा।
कैंसर और टी
बी होने के ड़र
से तुम नहीं
छोड़ने वाले हो।
अमरीका में
उन्होंने
पैकेट पर
लिखना शुरू कर
दिया कि सरकार
ने तय किया है
कि सिगरेट
पीना स्वास्थ्य
के लिए हानिकर
है। पहले तो
लोगों ने सोचा
कि इसको
डिब्बे पर लिखेंगे
सिगरेट के तो
सिगरेट की
बिक्री बंद हो
जाएगी। तीन—चार
सप्ताह
बिक्री कम भी
हुई। फिर
बिक्री वैसी
की वैसी हो
गयी। अब लोग
उससे भी आदी
हो गये। ठीक
है। तुम
बिलकुल लिख दो
कि सिगरेट से
मरना भी हो जाएगा
तो भी कोई खास
फर्क नहीं
पड़ेगा। बल्कि
शायद कई लोग
जो कि मरने को
उत्सुक हों और
ज्यादा पीने
लगें कि चलो
ठीक है। जीने
में रस ही
किसको है!
जीने में मिल
क्या रहा है!
जीने में ऐसा
कौन—सा उत्सव
घट रहा है कि
तुम मरने से
किसी को ड़रा
सको!
मुल्ला
नसरुद्दीन
शराब पीता है।
एक डाक्टर ने
उससे कहा कि
अब तुम बंद कर
दो बडे मियां, अन्यथा
मरोगे! तो
उसने कहा कि
आप मुझे पक्का
कह सकते हैं
कि अगर मैं
शराब पीना बंद
कर दूं तो कभी
न मरूंगा? यह
तो हम भी नहीं
कह सकते! तो
उसने कहा, जब
शराब पीने
वाले भी मरते
हैं, न
पीने वाले भी
मरते हैं, तो
फर्क क्या है?
और फिर मैं
तुमसे एक बात
कहता हूं,
कि मैंने
ज्यादा के
शराबी देखे
हैं बजाय के डाक्टरों
के। यह बात भी
सच है। तुम
जाकर खोज कर
लो। तुम्हे के
डाक्टर शायद
ही मिलें कि
सौ साल के डाक्टर।
सौ साल का
शराबी मिल
सकता है। तो
नसरुद्दीन ने
कहा फिर ऐसे
जब मरना ही है,
तो पी—पीकर
मरेंगे, फिर
सार क्या है, जब सभी मर
जाएंगे, अच्छे
और बुरे भी।
नहीं, यह बातों
से कोई छोड़ता
नहीं। आदतें
ऐसे नहीं
बदलतीं। ये सब
झूठी बातें
हैं। तुम तो
आदत को देखो।
दुनिया की मत
सुनो कौन क्या
कहता है, आदत
को ही देखो।
आदत में ही
उतरकर देखो कि
मैं क्यों पी
रहा हूं? अगर
तुम कोई भी
कारण न पाओगे
तो तुम्हें
अपनी मूढ़ता
दिखायी पड़नी
शुरू हो जाएगी।
एक
युवक सिगरेट
पीता है। उसने
मुझसे पूछा।
तो मैंने कहा, तू ऐसा
ध्यान कर। और
मुझे आकर बता
कि तू इस सारे
ध्यान के बाद
क्या नतीजा
लेता है, यह
क्यों तेरे
भीतर है? उसने
बहुत—कोई पांच—छ:
सप्ताह—जैसा
मैंने कहा, वैसा ही
किया, फिर
तो वह घबड़ाने
भी लगा।
क्योंकि यह तो
बिलकुल
पागलपन है!
तुम बिना जाने
किये जाते हो,
बिना ध्यान
किये जाते हो,
सब चलता है!
लेकिन जब तुम
होशपूर्वक
करते हो ९.।
तो
उसने मुझे कहा
कि मुझे ऐसा
लगता है कि यह
आदत मेरी बचपन
से पड़ गयी, क्योंकि
मैं अंगूठा
पीता था। और
देर तक अंगूठा
पीता रहा और
जबरदस्ती करके
मुझसे अंगूठा
छुड़वाया गया।
और कुछ—न—कुछ
मुझे मुंह में
डालना चाहिए,
वह अंगूठे
की ही मुझे
याद आती है
बार—बार जब
मैं
ध्यान
करता हूं। आप
कहते हैं
ध्यान करो, तो मैं कर
रहा हूं आईना
रखकर, मुझे
यह बात खयाल
में आनी शुरू
हुई, अचेतन
से यह बात
मेरे उठी कि
अंगूठा पीने
की वजह से।
तो
मैंने कहा बस, अब तुझे
सूत्र मिल गया,
अब तू आज से
अंगूठा पी।
उसने कहा, आप
क्या कहते हैँ,
लोग क्या
कहेंगे! लोगों
की फिकिर छोड़।
लोगों के कहने
से लेना—देना
क्या है!
निर्णय तेरे
और परमात्मा
के बीच होना
है, लोगों
और तेरे बीच
नहीं। उसने
कहा, क्या
उससे सिगरेट
छूट जाएगी? मैंने कहा, मैं कुछ
कहता नहीं, पहले तू
अंगूठा पीना
शुरू कर।
लेकिन
उसने एक
सप्ताह
अंगूठा पीआ और
सिगरेट छूट
गयी। अब उसने
कहा, राह
एक और झंझट अब
आपने पकड़ा दी,
अब यह
अंगूठा!
सिगरेट तो कम—से—कम
ऐसी थी थोड़ी
सामान्य थी, अब यह
अंगूठा अगर मैं
कहीं वक्त—बेवक्त
पीने लग किसी
के सामने, तो
इस उम्र में
जंचेगा नहीं।
सिगरेट
परिपूरक है, अधिक लोगों
को अंगूठा
पीने की आदत
थी। या, मां
का स्तन जल्दी
छुड़ा लिया गया
है। जब वह
छोड़ना नहीं
चाहते थे। और
सिगरेट में
थोड़ा मां के
स्तन का संबंध
बडा गहरा है।
सिगरेट का जो धुंआ
है, गर्म धुंआ,
वह मां के
गर्म दूध की
स्मृति को
जगाता है। और
कुछ भी नहीं
है सिगरेट में।
वह जो गर्म धुंआ
है, वह
गर्म दूध की
धार की बड़ी
दूर की ध्वनि
है। और सिगरेट
को मुंह में
रख लिया तो
जैसे स्तन को
मुंह में रख
लिया। बचपन
में स्तन
जल्दी छुड़ा
दिया गया है, या अंगूठा
पीना जल्दी
छुड़ा दिया गया
है। अंगूठा भी
स्तन का
परिपूरक है।
बच्चा क्या
करे, जब वह
स्तन मुंह में
चाहता है, मां
देने को राजी
नहीं तो
अंगूठा दे
लेता है। कोई
परिपूरक तो
खोजना ही
पड़ेगा। कोई
सज्जीट्यूट
तो करना ही
पड़ता है।
अब जब
यह व्यक्ति
सिगरेट की आदत
पर ध्यान करना
शुरू किया, तब इसे यह
सब बात दिखायी
पड़नी शुरू हुई।
मैंने कहा, तू फिकर छोड़,
तू अंगूठे
को पी ही ले
दिल भरकर। और
अब तू अंगूठे
पर ध्यान करना
शुरू कर।
सिगरेट छोड़ना
कठिन था, क्योंकि
सिगरेट से
निकोटिन खून
में जाता है और
निकोटिन शरीर
की आदत बन
जाती है।
अंगूठा छोड़ना
सरल हुआ। एक
दफा सिगरेट
गयी, उसकी
जगह अंगूठा
आया—अंगूठे
में कोई जहर
नहीं है, कोई
निकोटिन नहीं
है। सच तो यह
है, कोई
अंगूठा पीए तो
उसको कभी
अनादर मत करना।
सिगरेट की
अप्रतिष्ठा
होनी चाहिए, अंगूठा तो
बिलकुल ही
निर्दोष है।
और अपना ही
अंगूठा पी रहे
हैं, किसी
दूसरे का भी
नहीं पी रहे
हैं। इतनी
स्वतंत्रता
तो मनुष्य को
होनी ही चाहिए।
वह गया, अंगूठा
पीना गया, क्योंकि
उसमें तो कोई
जड़ता है ही
नहीं। वह तो
बात खतम हो
गयी, एक
दफा बोध हो
गया, बात
खतम हो गयी।
तुम
आदत छोड़ने में
उतनी उत्सुकता
मत लो जितनी
आदत को समझने
में। क्योंकि
समझ से ही आदत
छूटती है।
चौथा प्रश्न
:
मन और
विचार में
क्या फर्क है? कल आपने
कहा कि विचार
से ही कृत्य
बनते
हैं और
आप यह भी कहते
हैं कि सब कुछ घटित
होता है। तो
इस होने और
वैचारिक
कृत्य
में —विचार
से घटित होनेवाले
कृत्य में—क्या
अंतर है? समझाने
की अनकंपा
करें।
मन और विचार
में क्या फर्क
है? विचार
तरंग है, मन
सारे तरंगों
का जोड़। विचार
घटक है, मन
सारे विचारों
का संग्रहीत
प्रवाह। ऐसा
ही, जैसे
कोई पूछे कि
जंगल और वृक्ष
में क्या भेद है?
तो हम
कहेंगे, सारे
वृक्षों का
जोड़ जंगल है।
अगर तुम एक—एक
वृक्ष को अलग
करते जाओ तो
ऐसा नहीं है
कि जब तुम सब
वृक्ष अलग कर
लोगे तो पीछे
जंगल बचेगा।
कुछ भी नहीं
बचेगा।
बड़ी
पुरानी बौद्ध
कथा है।
मिलिंद नाम के
यूनानी
सेनापति ने
बौद्ध भिक्षु
नागसेन का
निमंत्रण
किया है, राजदरबार
में। और वह
बड़ी उत्सुकता
से प्रतीक्षा
कर रहा है कि
नागसेन आए। और
नागसेन आया।
उसे रथ भेजा
था, वह रथ
पर बैठकर आया।
और जब नागसेन
उतरा—तों
नागसेन की
देशनाओं में
सबसे बड़ी
देशना थी वह
यही थी कि
मनुष्य है
नहीं, केवल
जोड़ है—उतरते
से ही, नागसेन
जब उतरा और
मिलिंद ने
उसका स्वागत
किया तो
मिलिंद ने कहा,
भिक्षु
नागसेन, हम
आपका स्वागत
करते हैं, आप
राजमहल में
पधारें। तो
नागसेन ने कहा,
मैं आ तो
गया हूं,
लेकिन यह
निवेदन कर दूं
कि मैं हूं
नहीं। नागसेन
सिर्फ एक नाम
मात्र है, जैसे
जंगल। कुछ
चीजों का जोड़।
शरीर, विचार,
आदतें, संस्कार,
इन सबका जोड़।
मैं हूं नहीं।
मिलिंद
तो यूनानी था—मीनांड़र
उसका यूनानी
नाम है, मिलिंद
भारतीय नाम।
सिकंदर जिन
सेनापतियों
को भारत छोड़
गया था, उसमें
से एक सेनापति।
यूनानी तो
अरस्तू के
अनुयायी हैं,
तर्क पर
उनका बड़ा
भरोसा है।
उसने कहा, यह
क्या फिजूल की
बात करते हैं
कि आप आ गये और
हैं भी नहीं।
हैं भी नहीं
तो आए कैसे? हैं भी नहीं
तो आया कौन? मगर नागसेन
तो बड़ा अदभुत
व्यक्ति था।
उसने कहा कि
ऐसा करें, भीतर
हम पीछे
जाएंगे, यह
निर्णय पहले
हो ले। यह रथ
है? मिलिंद
ने कहा, रथ
है। तो उसने
कहा, नौकरों
को आज्ञा दें
घोड़े अलग कर
लें। घोड़े अलग
कर लिये गये।
उसने पूछा, अब भी रथ है? मिलिंद ने
कहा, अब भी
रथ है। उसने
कहा, अब
चक्के भी अलग
कर लें। चक्के
भी अलग हुए।
तब मिलिंद
थोड़ा चिंतित
हुआ। उसने
पूछा, अब
भी रथ है? उसने
कहा, अब है
तो मगर अब
हालत खराब हुई
जा रही है रथ
की! अब यह नाम
को ही रथ है।
अब और चीजें
निकाल लीं तो
सब गड़बड़ हो
जाएगा। तो
उसने कहा, मैं
जब सब चीजें
निकाल लूंगा
तो पीछे रथ
बचेगा? मिलिंद
को बात समझ
में आयी। रथ
तो केवल जोड़
है। और नागसेन
ने कहा, तू
बोल, रथ
आया कि नहीं।
और रथ है या
नहीं? मैं
तुझसे कहता हूं, रथ आया भी और
रथ है भी नहीं।
रथ केवल जोड़
है। संज्ञा
मात्र।
मन
केवल जोड़
मात्र है। मन
कुछ है नही—रथ—पहिये
अलग कर लो, घोड़े अलग
कर लो, धुरी
अलग कर लो, अस्थिपंजर
तोड़कर अलग —
अलग कर लो, तो
पीछे कुछ बचता
नहीं।
तुम
पूछते हो, मन और
विचार में
क्या फर्क है?
बस वही
फर्क है जो
जंगल और वृक्ष
में। वृक्षों
जैसे हैं
विचार। और
वृक्षों का जो
संग्रहीत
जमघट है, उसका नाम मन
है। इसीलिए तो
हम कहते हैं, जो व्यक्ति
धीरे — धीरे
विचारों का
त्याग करता
जाए, निर्विचार
होता जाए, अंतिम
घड़ी में अ—मन
की दशा को
उपलब्ध हो
जाता है, नो
माइंड़।
'और
कल आपने कहा
कि विचार से
ही कृत्य बनते
हैं।’
निश्चित
ही। विचार बीज
है। विचार आधा
कृत्य है।
तुम्हारे
भीतर एक विचार
उठा, करने
की भावना ही
तो विचार है।
तुमने सोचा कि
एक बड़ा मकान
बनाएं। अभी यह
विचार है, लेकिन
यह विचार के
पीछे अगर तुम
पड़ जाओ, तो
बड़ा मकान
बनेगा। तुमने
अभी सोचा कि
इस आदमी को
मार डालें, यह अभी
विचार है, लेकिन
अगर यह बार—बार
पुनरुक्त
होता रहे और
तुम्हारे
भीतर जड़ीभूत
होता जाए, तो
एक न एक दिन
इसमें अंकुर
निकलेंगे।
तुम इस आदमी
को मार डालोगे।
दॉस्तॉवस्की
की प्रसिद्ध
कहानी है.
क्राइम एंड़
पनिशमेंट।
उसमें एक युवक
है, जो
एक की औरत के
घर के सामने
रहता है। वह
की औरत बहुत
की है। और
गांव की सबसे
बड़ी धनी है।
और गांव में
सारे लोगों को
चूस रखा है।
गिरवी रखने का
काम करती है।
उसे दिखायी भी
नहीं पड़ता, अस्सी साल
की हो गयी है।
वह युवक सामने
ही रहता है, वह कई दफे ऐसे
ही बैठे—बैठे
सोचता है कि
यह की मर
क्यों नहीं
जाती है! इसके
होने से जरूरत
भी क्या है! अब
इसके होने से
सार भी क्या
है! न इसके कोई
आगे, न कोई
पीछे। यह
क्यों गांव भर
की जान लिये
ले रही है! और
गांव भर उससे
परेशान है।
इसलिए यह
विचार बिलकुल
स्वाभाविक है।
कई दफे उसके
मन में विचार
उठता है, कि
विद्यार्थी
भूखे मर रहे
हैं, फीस
चुकाने के
पैसे नहीं हैं
और यह की धन
इकट्ठा करती
जा रही है, किसके
लिए? यह
सारा गांव
संपन्न हो
सकता है अगर
यह मर जाए।
इसको कोई मार
क्यों नहीं
डालता! यह सब
विचार हैं।
फिर
परीक्षा के
दिन करीब आते
हैं और उसको
फीस भरनी है
और पैसे उसके
पास नहीं हैं, तो उसे
अपनी घड़ी रखने
गिरवी इस की
के पास जाना पड़ता
है। ऐसा वह
कोई दो साल से
बार—बार सोचता
था कि इसको
कोई मार क्यों
नहीं डालता!
कभी ऐसा नहीं
था कि उसने
सोचा था कि
मैं मार डालूं।
ऐसा कभी नहीं
सोचा था।
लेकिन दो साल
का अनवरत क्रम—रसरी
आवत जात है
सिल पर पड़त
निशान—वह
सोचता ही रहा,
सोचता ही
रहा। यह विचार
मजबूत होता
चला गया। वह
गया, इस की
को—सांझ का
समय है—उसने
घड़ी जाकर दी।
तो वह बूढ़ी
बहुत की है, बड़ी मुश्किल
से खड़ी हो सकी,
खिड़की के
पास जाकर—आंखें
कमजोर हैं—रोशनी
में वह घडी
देखने लगी कि
है भी रखने
योग्य कि नहीं?
और तभी न—मालूम
क्या हुआ इस
युवक को—रोसकोलिनि
को, उसका
नाम है—उसने
अचानक झपटकर
पीछे से उसकी
गर्दन दबा दी।
जब उसने गर्दन
दबायी तब उसे
समझ में खुद
भी नहीं आया
कि मैं यह
क्या कर रहा हूं, बस यह हो गया।
और वह औरत तो
मरी ही थी ही—काफी
की थी—उसके
दबाते ही मर
गयी, उसने
एक चीख भी न
निकाली। अब वह
घबड़ाया। वह
गिर पड़ी। वह
इतना घबड़ा गया,
यह उसने कभी
चाहा नहीं था।
वह मारना
चाहता भी नहीं
था। पर विचार
अगर बहुत दिन
पीछे पड़ा रहे,
तो धीरे—
धीरे
तुम्हारी देह
में प्रविष्ट
हो जाता है।
यह विचार ने
यांत्रिक रूप
से स्त्री को
मार डाला।
पर चीख
भी नहीं निकली, वह
चुपचाप उतरकर
अपने कमरे में
चला गया, अपने
घर। किसी
को पता
भी नहीं चला
रात भर, सुबह पता
चला लोगों को
कि बुढ़िया मर
गयी। तब पुलिस
ने खोजबीन
करनी शुरू की।
कोई उपाय भी
नहीं था, कोई
सोच भी नहीं
सकता था इस
युवक को कि यह
मारेगा। यह तो
एक सीधा—सादा
विद्यार्थी
था, इस पर
तो कोई सवाल
भी नहीं था।
मगर यह घबड़ाने
लगा। अब इसको
दूसरी घबड़ाहट
पकड़नी शुरू
हुई कि मैं पकड़ा
जाऊंगा। अब
मुझे सजा होगी।
अब मैं जेल
में डाला
जाऊंगा, अब
मेरी जिंदगी
बरबाद हुई।
महीना बीता, दो महीना
बीता, बस
वह अपने कमरे
में पड़ा—पड़ा
यही सोचता है।
रास्ते पर कोई
निकलता है, पुलिस के
जूते की
चरमराहट और वह
समझा कि आ गये! किसी
ने दरवाजे पर
दस्तक दी—पोस्टमैन
है—और वह समझा
कि आ गये, बस,
वह तैयार हो
जाता है कि अब
गये! तीन
महीने बीत गये
और कुछ भी
नहीं हुआ।
लेकिन यह
विचार अब उसके
भीतर घूम रहा
है कि पकड़े गए,
पकड़े गये, पकड़े गये।
एक दिन
अचानक—यह हालत
इतनी विकृत हो
गयी उसकी—कि
जाकर उसने, पुलिस
स्टेशन जाकर
समर्पण कर
दिया कि मैंने
हत्या की है, मुझे पकड़ते
क्यों नहीं? अब मैं कब तक
इसको
बर्दाश्त
करूं? मैं पागल
हुआ जा रहा
हूं!
पुलिस
इंस्पेक्टर
उसे समझाने
लगा कि तेरा
दिमाग खराब हो
गया है, तू क्यों
हत्या करेगा? तुझे हम
जानते हैं।
भाग जा, तेरा
दिमाग खराब हो
गया है! पढ़ाई—लिखाई
ज्यादा कर ली,
ज्यादा जग
गया रात में, तेरी आंखें
कुछ. सोया
नहीं ठीक से, ठीक से सो! वह
उसको भेज देता
है घर वापिस, मगर वह लौट—लौट
कर आ जाता है।
वह कहता है कि
मैंने मारा है,
आप मानते
क्यों नहीं? अब तो उसे
बड़ी बेचैनी
होने लगी कि
किसी तरह उसे
सजा मिल जाए
तो अपराध से
छुटकारा हो।
ऐसा आदमी
उलझता है।
विचार कृत्य
बन जाते हैं।
इसलिए
महावीर, बुद्ध जैसे चिंतकों
ने यह कहा है
कि अगर विचार
में भी कोई बुरा
कर्म करो, तो
सोच—समझ लेना!
यह मत सोचना
कि सिर्फ
विचार है।
सिर्फ विचार
जैसी कोई चीज
ही नहीं है।
क्योंकि हर
विचार एक लकीर
छोड़ जाता है।
फिर जो विचार
आज किया, वह
कल भी होगा, परसों भी
होगा। धीरे —
धीरे और सहजता
से होने लगेगा।
एक दिन अचानक
तुम पाओगे कि
कृत्य बन गया।
विचार की रेखा
ही गहरी होते—होते
कृत्य बन जाती
है, कर्म
बन जाती है।
इसलिए
जिसे कृत्य के
जगत से मुक्त
होना हो, उसे विचार
के जगत से ही
मुक्त होना
होता है।
सिर्फ
निर्विचार
व्यक्ति ही
कर्म के जाल
से मुक्त होता
है। इसीलिए तो
हमने
निर्विचारता
को कर्म के
जाल से मुक्त
होने का आधार
माना। तुम
कर्म से मुक्त
न हो सकोगे, जब तक तुम
ध्यान में
इतने गहरे न
हो जाओ कि विचार
उठने बंद हो
जाएं।
कृष्ण
ने गीता में
कहा कि अगर
तुम भीतर
शून्य हो और
कर्म करो तो
कोई पाप नहीं
लगता। और तुम
कर्म न भी करो
और भीतर विचार
जलते रहें, तो पाप हो
गया।
कृत्य
का उतना मूल्य
नहीं है, जितना विचार
का। क्योंकि
कृत्य तो
विचार के पीछे
आता है। गौण
है, छाया
है, परिणाम
है।
'आप
यह भी कहते
हैं कि सब कुछ
घटित होता है,
तो इस होने
और वैचारिक
कृत्य में—विचार
से घटित
होनेवाले
कृत्य में—क्या
अंतर है?'
इतना
ही अंतर है कि
जब तक तुम
विचार करके
घटित करते हो
कुछ, तब
तुम कर्ता
बनते हो।
मैंने
किया। जिस दिन
तुम विचार
नहीं करते, तुम
विचार छोड़ ही
देते हो, शून्य
हो जाते हो, बांस की
पोंगरी हो
जाते हो, उस
दिन जो होता
है वह
अस्तित्व कर
रहा है, तुम
नहीं कर रहे
हो। फिर
तुम्हारा
कृत्य तो होता
है, लेकिन
तुम्हारे
कारण नहीं
होता। तुम
निमित्तमात्र,
उपकरणमात्र।
यह जो
उपकरणमात्र
होने की दशा
है, यही
जीवनमुक्त की
दशा है।
अष्टावक्र
कहते हैं, ज्ञानी
भी कर्म करता
और कर्म करते
हुए भी नहीं
करता। देखता
और नहीं देखता।
बोलता और नहीं
बोलता। क्या
मतलब हुआ? इतना
ही मतलब हुआ
कि ज्ञानी
अपनी तरफ से
कुछ चेष्टा
नहीं करता, जो अस्तित्व
चाहता है, हो
जाने देता है।
ज्ञानी
अस्तित्व के
मार्ग में
अवरोध नहीं बनता,
बस। उसका
समर्पण समग्र
है। न वह अपनी
तरफ से करता
है और न अपनी
तरफ से रोकता
है। जो होता
है, होने
देता है।
प्रभु—मर्जी।
अगर भक्त हुआ
तो कहेगा, प्रभु
—मर्जी। अगर
ध्यानी हुआ, तो कहेगा, समस्त का
प्रवाह, ताओ,
तथाता। ये
नाम के ही भेद
हैं।
पांचवां
प्रश्न :
मैं
बूढ़ा हुआ जा
रहा हूं? फिर भी
संन्यास का
साहस नहीं
जुटा पाता हूं?
अब क्या
करूं?
मन में खोजो।
बुढ़ापा शरीर
पर आ गया होगा, मन अभी भी
राग—रंग में
उलझा होगा।
शरीर
जराजीर्ण हो
गया होगा, मन
अभी भी नहीं
जागा है। मन
अभी भी सोया
है।
अभावतुल्य
ओ, प्यार की
तिलिस्म
उपलब्धियो
यहां
हूं मैं
यहां
फिर मुझे खोजो
मेरे
गाते हुए
इरादों में।
मनाओ
मेरी
आशाओं को मनाओ
कि अभी
न रूठे
अभी
बहुत कुछ है
जिंदगी
के वादों में
आखिर
तक आदमी सोचता
चला जाता है, अभी कुछ
और भोग लें, अभी कुछ और
भोग लें। अभी
बहुत कुछ है
जिंदगी
के वादों में।
अभी
उदास होने की
क्या जरूरत? अभी
निराश होने की
क्या जरूरत।
अभी तो मरे
नहीं! अभी तो
जिंदा हैं। तो
जिंदा हैं तो
और थोड़ा भोग
लें। अभी भोग
अर्थ रखता है।
अभी भोग से रस
जुड़ा है।
इसलिए तुम
कहते हो, मैं
बूढ़ा हुआ जा
रहा हूं फिर
भी संन्यास का
साहस नहीं
जुटा पाता हूं।
यह प्रश्न
साहस का नहीं।
तुम शरीर से
के हुए जा रहे
हो, मन, मन
अभी का नहीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
राह से जा रहा
है और एक सुंदर
युवती को
देखकर अपना
मार्ग मोड़
दिया, उसी
के पीछे चलने
लगा। भीड़ —
भाड़ देखकर
उसे धक्का मार
दिया। उस
स्त्री ने कहा
कि थोड़ा खयाल
तो करो, सब
बाल सफेद हो
गये! मुल्ला
ने कहा, बाल
भले सफेद हो
गये हों, दिल
अभी भी काला
है।
के
होने से, शरीर के तल
पर, कुछ भी
नहीं होता। ये
तो धूप में पक
गये बाल, इनमें
कोई अनुभव की
संपदा नहीं है।
जब अनुभव की
संपदा होती है,
तो आदमी
वृद्ध होता है।
सिर्फ का होने
से कुछ फायदा
नहीं, वृद्ध!
इसलिए पूरब
में हम के को
बड़ा समादर
देते थे। वह
हर के को नहीं
है, बुजुर्ग
को। बुजुर्ग
शब्द ही आदर
का हो गया।
वृद्ध पूज्य
हो गया। कारण?
देख ली
जिंदगी उसने
और देखकर पाया
कि वहा कुछ भी
नहीं है।
देखकर व्यर्थ
पाया, जिंदगी
का सपना उसका
टूट गया। अब आंखों
में उसके कोई
सपना नहीं है।
अब जिंदगी से
उसके कोई
संबंध नहीं रह
गये। अब वह
जानता है, सब
व्यर्थ है।
तुम के
हुए जा रहे हो, फिर भी
संन्यास का
साहस नहीं
जुटा पाते, क्योंकि
भीतर अभी भी
संसार बसा है।
जिंदगी हाथ से
छूटी जा रही
है, लेकिन
तुम छोड़ने को
अभी उत्सुक
नहीं हो, तुम
अभी पकड़ना
चाहते हो। मौत
आकर छीन लेगी,
लेकिन तुम
अपने हाथ से
छोड़ने को राजी
नहीं हो।
संन्यास
का क्या अर्थ
है? संन्यास
का अर्थ है, मौत को
पहचान लेना।
संन्यास का
अर्थ है, मौत
की परख हो
जाना।
संन्यास का
सिर्फ इतना ही
अर्थ है कि जो
मौत मुझसे छीन
लेगी, यह
काम मौत को
क्यों करने
दूं मैं ही कर
दूं। यह मैं
ही छोड़ देता
हूं। मौत
छीनेगी, यह
छीना—झपटी
क्यों करवानी?
यह अशोभन
कृत्य क्यों
करवाना? इसे
प्रसादपूर्ण
ढंग से क्यों
न कर दें, हमीं
दे देते हैं।
संन्यास का
इतना ही अर्थ
है कि तुम उस
सबको छोड़ देते
हो जो मौत
तुमसे छीन
लेती है, सिर्फ
उसको बचा लेते
हो जो मौत
नहीं छीन
सकेगी। तब मौत
तुम्हारे
सामने दीन—हीन
खड़ी हो जाती
है। तब मौत
तुमसे कुछ भी
नहीं ले सकती।
इसलिए
संन्यासी
मरता नहीं, सिर्फ
संसारी मरता
है। संन्यासी
तो इस छुद्र
जीवन से और
विराट जीवन में
प्रवेश करता
है। सिर्फ
संसारी मरता
है, संन्यासी
नहीं मरता।
इसलिए हम इस
देश में
संन्यासी की
कब्र को समाधि
कहते हैं, कब्र
नहीं कहते।
साधारण आदमी
की कब को
समाधि नहीं
कहते। वह तो
अभी संसार चला
रहा होगा—कहीं
और चला रहा
होगा। यहां
मरा तो कहीं
और पैदा हुआ।
संन्यासी की
मृत्यु समाधि
है। क्योंकि
वह स्वेच्छा
से मर गया, उसने
सब छोड़ दिया।
और जब मैं तुमसे
कहता हूं छोड़
दो, तो
मेरा मतलब यह
नहीं है कि
तुम भाग जाओ।
मेरा मतलब है,
भीतर से पकड़
छूट जाए। रहो
जहां हो, जैसे
हो, बस
भीतर कोई पकड़
न रह जाए।
मैं
नहीं पिछली
अभी झंकार
भूला
मैं
नहीं पहले
दिनों का
प्यार भूला
गोद
में ले मोद से
मुझको लसो तो
आज मन—वीणा
प्रिये फिर से
कसो तो
मन
भूलता ही नहीं।
फिर—फिर जवान
होता रहता है।
फिर—फिर लौटकर
तरंगें उठती
रहती हैं। फिर—फिर
पुराने राग—रंग
देख लेने का
मन होने लगता
है।
अभी तक
ढूंढती है
उर्वरा
सुरगंध फूलों
में
सहमकर
टूटकर बीती
अधूरी बात
कानों की
अभी तक
है चुराती आंख
जैसे चांदनी
भू से
अभी तक
आड़ ज्यों की
त्यों
सितारों के
मचानों से
नहीं
बासे हुए हैं
रूप के
पगचिह्न
कुंजों में
हवाओं
पर खिंचे हैं
मुग्ध पलकों
के झुके साये
समय के
गाल पर सूखी
नहीं विश्वास
की बूंदें
अभी तक शून्यता
का वक्ष
सांसों से धड़क
जाए
लौट—लौटकर
फिर हृदय धड़क
जाता है वासना
से। फिर रस
में रस मालूम
होने लगता है।
फिर सपने सजीव
हो जाते हैं।
तुम के हो गये
हो, सपने
अभी बूढ़े नहीं
हुए। तुम के
हो गये हो, शरीर
का पतझर आ गया,
लेकिन मन
अभी भी वसंत
मना रहा है।
मन अभी भी
वहीं अटका है।
शरीर की मौत
करीब आने लगी—बुढ़ापे
का क्या अर्थ
होता है? शरीर
की मौत करीब
आने लगी।
संन्यास का
क्या अर्थ
होता है? मन
की भी मौत
करीब बुला ली।
शरीर की मौत
अपने — आप आती
है, मन की
मौत अपने— आप
नहीं आती।
संन्यास ठीक—ठीक
अर्थों में
आत्महत्या है।
तुम जब कहते
हो किसी आदमी
ने आत्महत्या
कर ली, तब
तुम ठीक नहीं
कहते हो, क्योंकि
वह शरीर को ही
मारता है, आत्मा
को क्या
मारेगा!
संन्यासी
आत्मघात करता
है। आत्मघात
का अर्थ है, मैं को मार
डालता है। मैं
के भाव को मार
डालता है। मन
को ही मार
डालता है। यह
जो मन की मौत
है, वही
संन्यास है।
और
साहस तो जरूरी
है। अपनी
स्वयं की
मृत्यु की तरफ
जाने के लिए, बिना
साहस के कैसे
जा सकोगे? लेकिन
साहस सहज आ
जाता है। एक
बार यह दिखायी
पड़ जाए कि
यहां कुछ भी
नहीं है।
इब्राहिम एक
सम्राट हुआ।
एक रात उसने
देखा कि उसके
छप्पर पर कोई
चल रहा है, तो
उसने जोर से
आवाज दी कि
कौन है? तो
उस आदमी ने
कहा, सोओ शांति
से, गड़बड़ न
करो, मेरा
ऊंट खो गया है,
उसे खोजता
हूं। वह तो
समझा कि कोई
पागल आदमी
छप्पर पर चढ़
गया है—ऊंट
खोजने, छप्पर
पर! ऊंट कहीं
छप्परों पर
खोते हैं! वह
उठा, उसने
अपने सैनिक दौड़ाए,
लेकिन वह
आदमी भाग चुका
था। लेकिन
उसकी बात उसके
मन में गूंजती
रही।
सुबह
उठा, फिर
भी बार—बार
याद आता रहा, यह आदमी
कैसा है! ऊंट, राजमहल की
छप्पर पर
खोजने चढ़ गया।
और ऊंट! मगर
उसकी आवाज में
कुछ शालीनता
थी। और उसकी
आवाज में
कुछ बल
था। उसकी आवाज
में कुछ था जो
पागल की आवाज
में नहीं होता।
जो कभी—कभी
किसी पहुंचे
पुरुष की आवाज
में होता है।
तो रस भी
मालूम हुआ, उत्सुकता
भी जगी। सोचने
भी लगा कि इस
आदमी का पता
लगा ले, लेकिन
पता नहीं लगा।
पर
दूसरे दिन जब
दरबार लगा तो
कोई आदमी आकर
द्वारपाल से
लड़ने लगा।
आवाज सुनायी
पड़ी तो पहचान
गया, वही
आवाज।
इब्राहिम
भागा आया बाहर
और उसने कहा, इस आदमी को
भीतर आने दो।
जद्दो—जहद इस
बात की हो रही
थी कि वह आदमी—स्व
भिखारी, फकीर,
पर बड़ा
अलमस्त—वह कह
रहा था कि इस
सराय में मुझे
ठहर जाने दो।
और पहरेदार कह
रहा था, यह
सराय नहीं है,
राजा का महल,
राजा का
निवास—स्थान
है, तुम
पागल तो नहीं
हो गये हो! और
वह कह रहा था
कि मैं तुमसे
कहता हूं यह
सराय है, मुझे
ठहर जाने दो, यह फिजूल की
बातें छोडो, कौन राजा, किसका महल!
दो दिन का वास
है, आज आए, कल गये, यह
सब सराय हैं, मुझे ठहर
जाने दो। यह
तो उसकी आवाज
इब्राहिम ने
सुनी तो वही
आवाज थी। तो
वह भागा आया।
उसने कहा, इस
आदमी को भीतर
आने दो, इसकी
मैं तलाश कर
रहा हूं।
और
इब्राहिम ने
कहा कि तुम
मुझे बोलो, तुम यह
क्या कह रहे
हो! इसको तुम
सराय कहते हो।
यह सम्राट का
अपमान है। यह
मेरा महल है।
वह आदमी हंसने
लगा। उसने कहा,
मैं पहले भी
आया था, तब
एक दूसरा आदमी
कहता था कि यह
उसका महल है।
उसने कहा, वह
मेरे पिता जी
थे। पर मैं
उसके पहले भी
आया था, वह
फकीर बोला, और तब एक
तीसरा आदमी था
और वह कहता था
कि यह मेरा
महल है। और
मैं हमेशा से
कह रहा हूं, यह एक सराय
है। इब्राहिम
ने कहा, वह
मेरे पिता के
पिता थे। तो
उसने कहा, अब
तो समझो। एक
आदमी दावा
करता था, मेरा
महल, वह
गया। दूसरा
दावा करने लगा,
मेरा महल, वह गया। अब
तुम आ गये।
कितनी देर तुम
रहोगे? मैं
फिर आऊंगा, और किसी
चौथे को
पाऊंगा, यह
झंझट कब तक
चलेगी? इसलिए
मैं कहता हूं
यह सराय है, यहां लोग
ठहरते और चले
जाते, रातभर
का बसेरा है, सुबह पक्षी
उड़ जाते, मुझे
भी ठहर जाने
दो। तुम भी
ठहरे हो, क्यों
मालिक बनते हो?
कहते
हैं, इब्राहिम
को ऐसा बोध
हुआ, इस
आदमी की आवाज,
इस आदमी का
बल, इस
आदमी की चोट
से कि उसने उस
आदमी को कहा
कि तुम ठहरो, मैं जाता
हूं। जब यह
सराय ही है तो
तुम ठहरो मजे
से, लेकिन
मैं चला। और
इब्राहिम ने
महल छोड़ दिया!
और जब भी कोई
इब्राहिम से
पूछता बाद में
कि तुमने यह
किया क्या? उसने कहा, बात समझ में
आ गयी। है तो
बात सच। कितने
लोग इस महल
में ठहर चुके,
आ चुके, जा
चुके, मैं
भी चला जाऊंगा।
जब जाना ही है
तो क्या दावा!
छोड़ दिया। और
इब्राहिम
कहता कि जिस
दिन से मैंने
वह सराय छोड़ी,
मुझे मेरा
घर मिल गया।
मैंने जान
लिया, अपना
असली निवास
स्थान पा लिया।
संन्यास
साहस तो है।
लेकिन इतना
कठिन नहीं
जैसा तुम
सोचते हो। समझ
में आ जाए तो
बड़ा सरल। इतना
ही तुमसे कह
रहा हूं यह
संसार सराय है।
और मैं तो
तुमसे यह भी
नहीं कहता कि
तुम इसको छोड़कर
चले जाओ।
अष्टावक्र भी
नहीं कहते।
अगर मैं होता
उस फकीर की
जगह, या
अष्टावक्र
होते, तो
इब्राहिम से
कहते कि बस, अब कहा जाता
है? जब
सराय ही है तो
जाना भी क्या!
अरे, मजे
से रह, सिर्फ
सराय जान, बात
खत्म हो गयी।
जाना कहां है!
जो तेरा नहीं
है, उसे
छोड़ कर कैसे
जा सकता है! छोड़कर
जाने में भी
तो मेरे का
भाव है। बात
खतम हो गयी।
इतनी—सी बात
समझ में आ गयी
कि अपना घर
नहीं है, सराय
है, संन्यास
हो गया। अपनी
पत्नी नहीं है,
अपना बेटा
नहीं है। किसी
से कहने की भी
जरूरत नहीं है,
कुछ बैड़—बाजे
बजाने की
जरूरत भी नहीं
है, कोई
शोभायात्रा
निकालने की भी
जरूरत नहीं है
कि दीक्षा ले
रहे हैं। हो
गयी बात, समझ
में आ गयी।
इसीलिए तो मैं
संन्यास इतनी
सरलता से दे
देता हूं। यह
भी नहीं पूछता
कि संभाल
सकोगे? संभालना
क्या है? यहां
संभालने
योग्य कुछ है
ही नहीं। यह
भी नहीं पूछता
कि अनुशासन रख
सकोगे? क्या
खाक अनुशासन!
यह सपने की
दुनिया में
कैसा अनुशासन?
यह भी नहीं
कहता कि पत्नी—बच्चों
का क्या करोगे?
इतना ही कि
तुम्हें बोध हो
जाए कि यहां
मेरा—तेरा कुछ
भी नहीं है।
जिसका है, उसका
है। उसके हम
भी, उसका
सब। इतनी—सी
बात हो जाए, संन्यास हो
गया।
और अगर
तुम मेरा
संन्यास भी
लेने की
हिम्मत नहीं
जुटा पाते तो
तुम और किसी
तरह का
संन्यास तो
कैसे ले पाओगे।
वह तो बड़े
उपद्रव के हैं।
यह तो बड़ी
सुगम और सहज
बात है। पर
मैं तुमसे
कहता हूं कि
लोग पुराने
ढंग का संन्यास
लेने की
हिम्मत आसानी
से जुटा लेते
हैं, क्योंकि
उसमें अहंकार
को प्रतिष्ठा
है, सुविधा
है। संन्यासी
हो गये, जैन—मुनि
हो गये, रथ
निकला, जुलूस
निकला, दीक्षा
हुई, लोग
चरण छूने लगे,
उसमें अहंकार
को मजा है, कर्तृव्य
का भाव है।
यहां तो कुछ
भी नहीं है। यहां
तो लोग
समझेंगे पागल
हो गये। लोग
हंसेंगे। लोग
कहेंगे, तुम्हारा
दिमाग भी खराब
हो गया। तुम
भी बातों में
पड़ गये। अरे, तुम्हारा
नहीं सोचते थे
कि तुम जैसा
बुद्धिमान
आदमी और ऐसी
बातों में पड़
जाए। अगर तुम
पुराने ढंग का
संन्यास लोगे,
तो बुद्ध हो
तो बुद्धिमान
समझे जाओगे।
अगर मेरा
संन्यास लिया,
बुद्धिमान
हुए तो बुद्ध
समझे जाओगे।
इसलिए अड़चन
होती है। बात
तो मेरी
बिलकुल सरल है।
साहस
क्या चाहिए? कोई बड़ा
काम करने को
कह भी तो नहीं
रहा। कोई
हिमालय थोड़े
ही चढ़ना है।
कोई चांद—तारों
पर थोड़े ही
जाना है। जरा—सा
बोध, जरा—सी
बोध की चाबी, जरा—सी
घूमती है कि
ताला खुल जाता
है। यह ताले
पर कोई हथौड़े
थोड़े ही पटकने
हैं—पुराने
संन्यासी
हथौड़े पटक रहे
हैं। मैं कहता
हूं जरा—सी
चाबी है इसकी,
हथौड़े
पटकने की कोई
जरूरत नहीं है।
और जल्दी
करो, क्योंकि
कल का क्या
भरोसा! इस
क्षण के बाद
का क्षण आएगा,
नहीं आएगा
कौन व कह
सकता।
बीत चली
संध्या की
बेला।
धुंधली
प्रतिपल पड़ने
वाली
एक रेख
में सिमटी
लाली
कहती
है समाप्त
होता है
सतरंगे
बादल का मेला।
बीत
चली संध्या की
बेला।
अंतरिक्ष
में आकुल, आतुर
कभी इधर
उड़, कभी उधर
उड़
पंथ
नीड़ का खोज
रहा है
पिछड़ा
पंछी एक अकेला।
बीत
चली संध्या की
बेला।
कहती है
समाप्त होता
है
सतरंगे
बादल का मेला।
पंथ
नीड़ का खोज
रहा है
पिछड़ा
पंछी एक अकेला।
बीत
चली संध्या की
बेला।
एक—एक
पल सांझ करीब
आती जाती है, सूरज ड़बता
जाता है।
जितनी देर
करोगे, उतनी
कठिनाई हो
जाएगी, उतना
अंधेरा हो
जाएगा। नीड़ का
पथ खोजना कठिन
हो जाएगा।
थोड़ी रोशनी
शेष है, तब
उपाय कर लो।
थोड़ा बल शेष
है, तब
उपाय कर लो।
थोड़ा जीवन शेष
है, तब खोज
लो मंदिर। तब
थोड़ी पूजा, तब थोड़ा
ध्यान कर लो।
और न
जुटा पाओ साहस
तो मैं तुमसे
कहता हूं बिना
साहस जुटाए
उतर जाओ।
क्योंकि कहीं
वह भी एक
बहाना न हो कि
जब साहस जुटेगा, तब। कि जब
पूरा साहस
जुटेगा, तब।
उतर ही जाओ।
सब भयों के
बावजूद। सब
तरह के ड़र
हैं, ठीक, उतर ही जाओ।
जिंदगी में
हजार काम
तुमने किये
हैं बिना साहस
जुटाए। विवाह
किया था तब
साहस जुटाया
था? उतर
गये, कि
ठीक है, जो
होगा देखेंगे।
और जो देखा, अब दुबारा
साहस न कर
सकोगे। किस
बात के लिए
तुम साहस जुटा
पाए? यहां
सब तो अनजाना
है, सब तो
अपरिचित है।
अपरिचित में
ही उतरना पड़ता
है। जाना—माना
तो कुछ भी
नहीं है। नक्शे
कहां हैं? मार्गदर्शक
कहां हैं?
जिंदगी
कोई पिटी—पिटायी
लकीरें थोड़े
ही है। यहां
प्रतिपल जाना
पड़ता अज्ञात
में, अपरिचित
में। ऐसे ही
संन्यास में
भी चले जाओ।
जन्म लिया था
तब सोचा था कि
उतरें कि न
उतरें? मरोगे,
तब कोई
तुमसे पूछेगा
भी तो नहीं कि
मरना है कि नहीं?
जन्म हो गया,
मृत्यु हो
गयी, प्रेम
हो गया, विवाह
हो गया, हारे,
जीते, सफल—
असफल हुए, सब
कर लिया, साहस
कहां है?
जैसे
यह सब हो गया, ऐसे ही
ध्यान और
प्रार्थना को
भी हो जाने दो।
ऐसे ही
संन्यास को भी
हो जाने दो।
कहीं ऐसा न हो
कि साहस की
बात उठाकर तुम
सिर्फ अपने
लिए एक अड़चन
खड़ी कर रहे हो
कि जब साहस
होगा, तब।
परसों
एक युवती ने
संन्यास लिया।
महीने भर से
आकर रुकी है, बार—बार
आकर कहती है
कि मुझे लेना
है, लेकिन
पूरा मन नहीं
हो पा रहा है।
तो मैंने कहा
कि यह पूरा मन
तो कभी किसी
का नहीं हुआ।
पूरा मन तो तब
होगा, जब
तू पूरी
जागेगी। अभी
तो पूरा मन हो
नहीं सकता।
अभी तो
इक्यावन
प्रतिशत भी हो
रहा हो और
उनचास
प्रतिशत न हो
रहा हो, तो
ले ले। इतना
ही फर्क हो
अगर, एक—दो
प्रतिशत का।
इक्यावन
प्रतिशत मन
कहता है, लेना;
और उनचास
प्रतिशत मन
कहता है, नहीं
लेना, तो
ले ले।
क्योंकि नहीं
लिया तो उनचास
प्रतिशत मन का
साथ दिया।
निर्णय तो कुछ
करना ही पड़ेगा।
तुम थोड़ा
सोचो!
जब तुम
कहते हो, संन्यास अभी
कैसे लें, पूरा
निर्णय नहीं
है, तो
संन्यास न
लेने का
निर्णय कर रहे
हो। निर्णय तो
कर ही रहे हो।
न लेने का
निर्णय पूरा
है? तो
ज्यादा—सें—ज्यादा
बात प्रतिशत
की हो सकती है।
अगर आधे मन से
ज्यादा लेने
के लिए तैयार
हो, तो ले
लो। अगर आधे
मन से कम
तैयार हो, तो
छोड़ो, यह
फिकर छोड़ो।
मगर दो में से
कुछ निपटारा
कर लो। ऐसे
बीच में मत
अटके रहो। न
घर के न घाट के।
इससे
तुम्हारा न तो
चित्त संसार
में लगेगा और
न चित्त
संन्यास में
लगेगा। संसार
में रहोगे, संन्यास की
सोचोगे; संन्यास
में उतर नहीं
पाते, तो
सब दुविधा बनी
रहेगी।
डांवाडोल
रहोगे। स्व—चित्त
हो जाओ। या तो
तय कर लो कि
नहीं लेना है।
मगर वह भी
होशपूर्वक तय
कर लो। फिर
बात ही छोड़ दो।
या तय कर लो कि
लेना है। साहस
इत्यादि का
बहुत विचार मत
करो। एक
किनारे रखो
साहस, भय, सुरक्षा, असुरक्षा की
सब धारणाएं।
और
खयाल रखो कि
कुछ चीजें हैं
जो लेकर ही
अनुभव होती
हैं, बिना
लिये अनुभव
नहीं होतीं।
उस युवती को
जब मैंने कहा
कि अगर तुझे तैरना
सीखना है तो
पानी में
उतरना ही
पड़ेगा, क्योंकि
तैरना सीखने
का कोई और
उपाय नहीं।
गद्दे—तकिये
लगाकर तू
तैरना नहीं
सीख सकेगी। ही,
यह बात सच
है कि थोड़े
उथले पानी में
उतरो पहले, फिर और थोड़े
गहरे में, फिर
और थोड़े गहरे
में।
संन्यास
की जो धारणा
मैंने
तुम्हें दी है, इससे
ज्यादा और
किनारे की
धारणा क्या हो
सकती है! इससे
और उथला पानी
क्या हो सकता
है! बस, गले—गले
पानी में उतरो।
वहा हाथ—पैर
चलाना सीख लो।
एक दफा हाथ—पैर
चलाना आ गया
तो और गहरे
में, और
गहरे में। उस
युवती ने एक
क्षण सोचा और
फिर उसने कहा
कि ठीक! लेती
हूं ड़र है, ड़र के
बावजूद लेती
हूं।
ऐसे ही
घटता है। और
यह बुद्धि का
ही लक्षण है।
सिर्फ जो
जड़बुद्धि हैं, वे चिंता
इत्यादि नहीं
करते।
जड़बुद्धि को
कहा संन्यास
लेना है, वे
कहते हैं, अच्छी
बात है। मगर
ये वे ही लोग
हैं, जिनके
जीवन में किसी
तरह का चैतन्य
नहीं है। यह कोई
बहुत
गुणवत्ता की
बात नहीं है।
इनसे कोई
कहेगा, छोड़ना
है, तो ये
कहेंगे, अच्छी
बात है। न
इनको लेने का
कुछ मतलब है, न छोड़ने का
कुछ मतलब है।
इनके जीवन में
कोई मूल्य
नहीं है जिसका
ये निर्धारण
करते हों।
इनका जीवन
मूल्यहीन है।
तो इसे
कोई चिंता भी
मत समझो कि
बड़े विचार
उठते हैं, संदेह
उठते हैं; स्वाभाविक
है।
बुद्धिमान
आदमी को उठते
ही हैं। लेकिन
बुद्धिमान
आदमी इन सबके
बावजूद भी यात्रा
पर निकलता है।
आखिरी
प्रश्न :
आपसे
मिलकर लगता है
कि जिसकी सदा
से खोज थी, वह मिल
गया है।
क्या
हमारा और आपका
पिछले जन्मों
का कुछ संबंध
है?
और अब
कुछ करने को
भी नहीं सूझता
है।
फिर
बुद्धि में
तरह—तरह के भय
भी सिर उठाते
हैं कि कहीं
आप चले तो न जाएंगे,
बिछुड़
तो न जाएंगे?
अब सिद्धांतो
में सिर मत मारो
कि पहले कभी
मिलना हुआ था
कि नहीं हुआ
था। अगर अभी मिलना
हो गया है, तो इस मिलन
का पूरा स्वाद
ले लो। अब इन
गुत्थियों को
मत
सुलझाओ
कि पहले मिलना
हुआ था कि
नहीं हुआ था? इसमें
समय भी खराब
मत करो। पहले
का क्या मूल्य
है? मगर मन
ऐसा ही सोचता
है. पहले
मिलना हुआ था
कि नहीं? और
यह भी सोचता
है कि आगे
कहीं बिछुड़ना
तो नहीं हो
जाएगा? भविष्य
और अतीत में ही
डोलता रहता है।
अभी मैं यहां,
तुम यहां, थोड़ी देर को
हम उस मस्ती
में ड़ब जाएं
जो अस्तित्व
की मस्ती है, जो मैं
तुम्हें देना
चाहता हूं।
थोड़ी देर को
अतीत और
भविष्य भूलो।
थोड़ी देर को
इसी क्षण को
सब कुछ हो
जाने दो।
जुनूं
के मशरबे —रंगी
को इख्तियार
करो
खिरद
के जामा—ए—कोहना
को तार—तार
करो
मिले
हैं रूठे हुए
दोस्त
गर्मजोशी से
सलोनी
रुत के लिए
शुक्रे—कर्दगार
करो
जुनू
के मशरबे —रंगी
को इख्तियार
करो
जिंदगी
का जो मदमाता, मस्त
उन्माद, रंगों
से भरा हुआ तोर—तरीका
है.।
जुनू
के मशरबे —रंगी
को इख्तियार
करो
यह जो
फूलों, पक्षियों की
गुनगुनाहट का,
झरनों के
शोर का, समुद्र
की लहरों का, आकाश के
चांद—तारों का
जो उन्मत्त
उत्सव है, जीवन
का यह जो ढंग
है, इसे
इख्तियार करो।
जुनूं
के मशरबे —ली
को इख्तियार
करो
खिरद
के जामा—ए—कोहना
को तार—तार
करो
यह
बुद्धि की
बकवास को तोड़ो, तार—तार
उखाड़ कर अलग
कर दो।
खिरद
के जामा—ए—कोहना
को तार—तार
करो
मिले
हैं रूठे हुए
दोस्त
गर्मजोशी से
जैसे
बिछड़े हुए दो
दोस्त मिल
जाते हैं। तो
फिर थोड़े ही
फिक्र करते
अतीत की या
भविष्य की।
मिले हैं रूठे
हुए दोस्त
गर्मजोशी से
सलोनी
रुत के लिए
शुक्रे —कर्दगार
करो
तो इस अदभुत
ऋतु के लिए, इस क्षण
के लिए
परमात्मा का
धन्यवाद करो।
छोड़ो
यह फिकर। बहुत
बार प्रश्न
आते हैं
तुम्हारे कि
क्या हम पहले
भी साथ थे? अभी साथ
नहीं हो पा
रहे, और
पहले भी साथ
थे इसकी चिंता
में पड़े हो! थे
भी साथ तो
क्या सार? नहीं
थे साथ तो
क्या फर्क? अभी साथ हो
लो, यह जो
दो क्षण हमारे
हाथ में हैं, साथ—साथ चल
लो। इस क्षण एकात्म
सध जाने दो।
जुनूं
के मशरबे —रंगी
को इख्तियार
करो
खिरद
के जामा—ए—कोहना
को तार—तार
करो
मत लाओ
बुद्धि की इन
बातों को बीच
में।
मस्ती
ही में पाये
दिल हस्ती का
इर्फान
ख्वाब
में जैसे जाए
मिल अनदेखा
भगवान
जहां
मस्ती है, वहां
मंदिर है। और
मस्ती तो सदा
अभी और यहां
होती है, अतीत
और भविष्य में
नहीं।
मस्ती
ही में पाये
दिल हस्ती का
इर्फान
और
जहां तुम ड़ब
जाते किसी
मस्ती में, वहीं
अस्तित्व के
संदेश मिलने
शुरू होते हैं।
ख्वाब
में जैसे जाए
मिल अनदेखा
भगवान
और
मस्ती में ही
पहली दफा
अनदेखा
दिखायी पड़ता, अदृश्य
दृश्य होता है।
बस गयी
मन में तेरे
मस्तमिलन की
खुशबू
मेरे
एहसास पे छाया
रहा तेरा जादू
झूमता
फिरता रहा
तेरी मधुर
यादों में
मुझ पे
एक नशे का आलम
रहा बेजामो —सुबू
अगर
तुम जरा मौका
दो मुझे, उतरने दो
तुम्हारे हृदय
में, तो
बिना पीए तुम
पर शराब हावी
हो जाए। झूमता
फिरता रहा
तेरी मधुर
यादों में
मुझ पे
एक नशे का आलम
रहा बेजामो—सुबू
बिना
पीए एक शराब
तुम पर हावी
हो जाए।
बस गयी
मन में तेरे
मस्तमिलन की
खुशबू
मेरे
एहसास पे छाया
रहा तेरा जादू
मत सोच—विचार
में पड़ो, मत सिद्धात
बीच में लाओ, मेरे और
तुम्हारे बीच
सिद्धात न हों,
शास्त्र न
हों; मेरे
और तुम्हारे
बीच कोई धारणा,
कोई तर्क न
हों; मेरे
और तुम्हारे
बीच कुछ भी न
हो, एक
शून्य का सेतु
बन जाए, तो
छंद उठे, तो
गीत जगे। और
उसी मस्ती में
शायद तुम्हें
पहली दफे अनुभव
हो जीवन के परम
सत्य का।
जीवन
उत्सव है और
उत्सव में ही
हम जान पाते
हैं कि जीवन
क्या है।
आज
इतना ही।
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