भगवान
सर्वप्रथम
ऋषिपत्तन
मृगदाय में—
जिसे अब
सारनाथ कहते
है— पंचवर्गीय
भिक्षुओं को
उपदेश देने के
लिए उरुवेला
से काशी की ओर
आ रहे थे।
मार्ग में
उन्हें एक
आजीवक मिला। वह
तथागत को
देखकर बोला
आवुस। तेरी
इंद्रियां परिशुद्ध
और विमल हैं
तुम किसे
उद्देश्य कर प्रव्रजित
हुए हो? कोन
तुम्हारे
शास्ता कोन
तुम्हारे
गुरु? या
तुम किसके
धर्म को मानते
हो? ऐसा
पूछा। तब
शास्ता ने कहा
: मेरे आचार्य
या उपाध्याय
नहीं हैं।
मेरा कोई धर्म
नहीं है। मेरे
जीवन में कोई
उद्देश्य
नहीं है। तब
उन्होंने यह
गाथा कही:
सब्बाभिभु
सब्बविदूहमस्मि
सब्बेसु धम्मे
अनूलितो।
सब्बज्जहो
तण्हक्खये
विमुत्तो
सयं अभिज्जाय
कमुद्दिसेय्यं
।।
'मैं
सभी को परास्त
करने वाला
हूं। मैं सब
जानता हूं।
मैं सभी
धर्मों—तृष्णा
इत्यादि—से
अलिप्त हूं।
सर्वत्यागी
हूं। तृष्णा
के नाश से
मुक्त हूं।
स्वयं ही विमल
ज्ञान को
जानकर किसको
गुरु कहूं,
किसको शिष्य
सिखाऊं!'
यह
बड़ा अपूर्व
वचन है। पहले
तो दृश्य को
ठीक से समझ
लें।
बुद्ध
ने परम ज्ञान
के पहले छह
वर्ष तक महा
तपश्चर्या
की। बहुत गुरुओं
के पास गए।
बहुत गुरुओं
की सेवा में
रहे। जो —जो
कहा गया, वही
किया। जिसने
जो साधना
बतायी, वही
साधी। और हर
साधना के बाद
पाया संसार
समाप्त नहीं
हुआ। हर साधना
के बाद पाया
कि मूल रोग मिटा
नहीं; अहंकार
शेष है।
हर
गुरु से
उन्होंने कहा.
अहंकार मिटा
नहीं। आपने जो
कहा,
सब मैंने
किया! और
उन्होंने
किया इतनी
निष्ठा से था
कि कोई गुरु
यह नहीं कह
सका कि तुमने
ठीक से नहीं
किया, इसलिए
अहंकार नहीं
मिटा। उनकी
निष्ठा अपूर्व
थी। उन्होंने
जो किया, सम? भाव से
किया। इसलिए
कोई गुरु यह न
कह सका।
नहीं
तो गुरु को एक
सुविधा रहती
है कि हम क्या
करें! जो कहा, वह
तुमने किया
नहीं, इसलिए
हुआ नहीं।
बुद्ध से यह
बात कही नहीं
जा सकती थी।
इसी बात के
कारण दुनिया
में झूठे गुरु
भी चल जाते
हैं। यह बात
बड़ी तरकीब की
है।
किसी
ने तुमसे कहा
कि देखो, ध्यान
करो। लेकिन
मंत्र पढ़ते
वक्त बंदर का
स्मरण मत
करना। अब तुम
बैठे ध्यान
करने। बंदर का
स्मरण आने वाला
है। अब तुम
लाख उपाय करो,
जितने तुम
उपाय करोगे, उतना ही
बंदर का स्मरण
आएगा। और तुम
गुरु से जाकर
कहोगे क्या
करूं, कुछ
हो नहीं रहा
है! वह कहेगा.
मैं भी क्या
करूं। शर्त
पूरी नही कर
रहे हो। वह
बंदर का स्मरण
नहीं आना
चाहिए।
ऐसी
अस्वाभाविक
शर्तें बौध
रखी हैं, जिनके
कारण तुम कभी
इस स्थिति में
नहीं पहुंच
सकते कि समझ
लो कि जो
मार्ग तुमने पकड़ा,
वह ठीक है
या गलत है!
क्योंकि कभी
तुम मार्ग को पूरा
ही नहीं कर
पाते, तो
ठीक—गलत का
निर्णय कैसे
हो? इसलिए
झूठे गुरु भी
चल जाते हैं।
मिथ्या गुरु
भी चल जाते
हैं। सदा उनके
लिए एक सुविधा
है, सुरक्षा
है—कि मैंने
जो कहा, वह
तुमने किया
नहीं। करने को
वे इस तरह की
बातें कहते
हैं, जो कि
अमानवीय हैं।
जो कि शायद की
नहीं जा सकतीं।’या जिन्हें
करने के लिए
कोई महा
संकल्पवान व्यक्ति
चाहिए।
बुद्ध
वैसे ही
व्यक्ति थे।
सब दाव पर
लगाया था। ऐसे
कुनकुने आदमी
नहीं थे कि
चलो,
मिल जाए
ईश्वर तो ठीक
है! जीवन जाए, तो ठीक, मगर
ईश्वर को
मिलना! सत्य
को मिलना! सब
खो जाए, उसके
लिए राजी थे।
जुआरी थे।
क्षत्रिय थे।
दाव पर लगाना
जानते थे। कोई
दुकानदार
नहीं थे। कुछ
ऐसा थोड़ा—बहुत
करने से, घंटी
बजाने से, राम—राम
जपने से मिल
जाएगा—ऐसी
उनको आस्था भी
नहीं थी।
तो
जिस गुरु ने
जो कहा, बिलकुल
मूढ़तापूर्ण
बातें कहीं, वे भी
उन्होंने
कीं। किसी ने
कहा कि
रोज—रोज भोजन
कम करते जाओ, रोज भोजन कम
करते जाओ, जब
एक चावल का
दाना ही भोजन
बचे, तब ज्ञान
होगा। ऐसे वे
कम करते गए।
छह महीने में
एक चावल का
दाना ही भोजन
बचा। जान तो
नहीं हुआ, शरीर
नष्ट हो गया!
निरंजना
नदी को पार
करते थे, पार न
कर सके। छोटी
सी नदी। कोई
बड़ी नदी नहीं।
थककर गिर गए।
एक जड़ को
पकड़कर रुके
रहे। जड़ को भी
पकड़ने की ताकत
न थी! तब स्मरण
आया कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं! इस तरह
शरीर को नष्ट
करके, सिर्फ
शक्ति खो गयी।
नदी पार कर
नहीं सकता, भवसागर पार
करने का इरादा
रख रहा हूं!
बुद्ध
बहुत गुरुओं
के पास गए, लेकिन
जहाँ गए, जो
कहा, वही
किया। फिर भी
कुछ सफल न
हुआ। गुरुओं
ने उनसे क्षमा
मांग ली। उनकी
इस घटना को
पढकर मुझे
हमेशा खलिल
जिब्रान की एक
कहानी याद आती
है।
एक
आदमी
गांव—गांव
घूमता था। वह
कहता था जिसको
ईश्वर से
मिलना हो, मेरे
साथ आओ। मुझे
पता है। मैं
ईश्वर तक
पहुंचा
दूंगा। कहा
पहाड़ों में
रहता है, मुझे
मालूम है।
मगर
किसी को पहली
तो बात ईश्वर
से मिलना ही
नहीं। लोग
कहते कि जब
मिलना होगा, जरूर
आपके पास
आएंगे। लोग
उनको दान भी
देते, उनकी
पूजा भी करते,
उनको भोजन
भी करवाते। और
कहते. महाराज!
अब आप जाओ।
ईश्वर
से किसको
मिलना है? लोग
कहते अभी
जिंदगी में और
हजार काम हैं।
आखिर में जब
मिलने की
इच्छा आएगी, जरूर आपके
पास आएंगे।
ऐसे
धंधा चलता था।
न कोई मिलना
चाहता था, न
कोई मिलने की
झंझट आती थी।
मगर एक गांव
में एक आदमी
झंझटी मिल
गया। उसने कहा
अच्छा गुरुदेव!
हम
चलते हैं; चलो!
गुरु
ने सोचा कि
कुछ भटकाके
जंगलों में।
कुछ दिन में
अपने आप थक
जाएगा। मगर वह
भी एक था। वह महागुरु
था। वह थके ही
नहीं! वह तो
रोज सुबह उठकर
कहे कि
गुरुदेव!
कितनी देर और
लगेगी? अब
कहां तक और
चलना है? उसने
गुरु को थका
मारा।
छह
साल पहाड़ों
में घूमते
रहे। गुरु को
मार ही डाला
उसने। गुरु को
भी पता हो तो
कहीं पहुंचा दे।
पहुंचाए कहां? चक्कर
काटते रहे
पहाड़ों में कि
भई, अब आता,
अब आता!
एक
दिन गुरु ने
कहा,
यह तो हद्द
हो गयी! मेरी
जिंदगी खराब
कर देगा। अपनी
तो कर ही रहा
है, यह
मेरी भी
जिंदगी खराब
कर देगा! उसने
उसके हाथ जोड़े
और कहा :
महाराज! मुझे
रास्ता पता था,
मगर जब से
तुम्हारा
सत्संग हुआ, सब भूल गया।
अब यह
परमात्मा का
मुझे भी मिलना
नहीं हो रहा
है। अब तुम
मुझे बख्शो।
मेरे सत्संग
में तुम तो
नहीं पहुंच सकते,
तुम्हारे
सत्संग में
मैं भटक गया!
अब आप क्षमा
करो। अब आप
किसी और गुरु
का पीछा पकड़ो।
ऐसे
ही बुद्ध थे।
जिसने जो कहा, पूरा
किया। हर गुरु
ने कहा कि अब
आप और कहीं जाएं
किसी और को.।
क्योंकि इनको
देखकर दूसरे
शिष्य भागने
लगें न! कि भई, इतनी मेहनत
करके जब इस
आदमी को नहीं
मिला, तो
हम तो इतनी
मेहनत कर भी
नहीं सकते।
हमको तो कैसे
मिलने वाला है?
अंततः
बुद्ध ने सारे
गुरु छोड़ दिए।
अंततः बुद्ध
ने सारे पथ और
सारे मार्ग
छोड़ दिए। सारी
विधियां छोड
दीं। जब
उन्होंने सब
छोड़ दिया—तब मिला।
अपूर्व घटना
घटी।
एक
रात उन्होंने
निर्णय ही कर
लिया कि अब
मुझे खोजना ही
नहीं है। खोज
की वासना भी
छोड़ दी। सत्य
को पाने की
वासना भी तो
वासना ही है, वह
भी छूट गयी।
उस रात सो गए
वृक्ष के तले।
कोई चिंता
नहीं। कहीं
जाना नहीं।
कुछ पाना
नहीं—न धन, न
ध्यान, न
पद, न
परमात्मा—कुछ
पाना ही नहीं।
चित्त
एकदम विलुप्त
हो गया।
क्योंकि
चित्त जीता है
पाने की
आकांक्षा से।
चित्त का
प्राण ही पाने
में है। कुछ
पा लूं कुछ
मिल जाए।
महत्वाकाक्षा
चित्त की
आत्मा है। उस
क्षण कोई महत्वाकांक्षा
न थी। उस सुबह
जब बुद्ध की
आंखें खुलीं, आखिरी
तारा डूबता था
रात का, और
उसके डूबते
—डूबते ही
उनका भीतर का
तारा ऊग आया।
हो गया। मगर
यह स्वयं से
हुआ।
ये
जो पंचवर्गीय
भिक्षु हैं, ये
पांच भिक्षु
बुद्ध के
शिष्य थे। जब
बुद्ध एक—एक
चावल भोजन
करते थे, तब
ये पाच भिक्षु
उनके शिष्य
थे। वे बुद्ध
को बड़ा गुरु
मानते थे।
क्योंकि इतना
महातपस्वी!
हड्डियां मात्र
रह गयी थीं
शरीर में।
चमड़ी सूख गयी
थी। सुंदर देह
एकदम काली पड़
गयी थी।
अस्थि—पंजर रह
गए थे। तब वे
पांच भिक्षु
उनको गुरु
मानते थे।
हालांकि उनको
कुछ मिला नहीं
था, मगर उनका
त्याग उनको
प्रभावित
करता था।
मनुष्य
का मन बड़ा
जटिल है।
ये
पांच भिक्षु
बुद्ध की सेवा
में रत रहे।
लेकिन जब
बुद्ध ने सब
उपवास छोड़
दिया, तप छोड़
दिया, इन्होंने
बुद्ध को छोड़
दिया।
इन्होंने कहा
यह भ्रष्ट हो
गया। गौतम
भ्रष्ट हो
गया! अब यह काम
का नहीं रहा।
यह पतित हो
गया।
जब
तक यह गौतम
अपने को सता
रहा था, महातपस्वी
था। जिस दिन
बुद्ध ने यह
सब व्यर्थ मूढ़ता
छोड़ दी, यह
आत्महिंसा
छोड़ दी, यह
आत्मघात छोड़
दिया, उसी
दिन पांचों
भिक्षुओं ने
उनको छोड़
दिया! उन्होंने
कहा अब हमारे
काम के न रहे।
अब हम कोई दूसरा
गुरु
खोजेंगे। वे
उन्हें
छोड़कर चले
गए। उसी रात
बुद्ध को ज्ञान
हुआ। जिस सांझ
को पांच
भिक्षु
छोड़कर चले गए,
उस रात
बुद्ध को
ज्ञान हुआ।
दूसरे
दिन सुबह
बुद्ध को पहली
याद यही आयी
कि वे बेचारे
पांच! इतने
दिन मेरे साथ
रहे,
और आखिरी
घड़ी छोड़कर
चले गए। अब, जब कि मेरे
पास देने को कुछ
था, लेने
वाले नहीं
हैं। और जब
मेरे पास देने
को कुछ भी
नहीं था, मैं
खुद ही मूढ़ता
और अंधकार से
भरा था, तब
वे मेरे पीछे
लगे रहे! ऐसी
उलटी दुनिया
है।
इसलिए
बुद्ध उनकी
खोज करते हुए
निकले कि वे
जहां भी गए
हों,
जाकर पहला
संदेश उनको
दिया जाए।
यद्यपि वे मुझे
त्याग गए हैं।
यद्यपि
उन्होंने मान
लिया कि मैं भ्रष्ट
हो गया। लेकिन
मेरे साथ बहुत
दिन रहे। इतना
कर्तव्य मेरा
कि पहला संदेश
उन्हीं को दूं।
इसलिए बुद्ध
ने पहला
प्रवचन
उन्हीं पांच भिक्षुओं
को दिया।
उनका
पीछा करते
बुद्ध सारनाथ
तक आए।
जहां—जहां पता
चला कि वे दूसरे
गांव चले गए, बुद्ध
वहां गए।
सारनाथ जाकर
उन्होंने
देखा एक वृक्ष
के नीचे
पांचों
भिक्षुओं को 'बैठे हुए।
उन
पांचों
भिक्षुओं ने
देखा बुद्ध को
आते हुए। वे
बोले कि यह
भ्रष्ट गौतम आ
रहा है! हम
इसको नमस्कार
न करें। यह
नमस्कार के
योग्य भी नहीं
है। यह बिलकुल
पतित हो गया
है। तो वे पीठ
करके बैठ गए।
बुद्ध
जब उनके पास
गए,
जब पास जाकर
खड़े हो गए, और
बुद्ध ने कहा
एक बार मेरी
तरफ तो देखो।
जिसे तुम छोड़.
आए थे, मैं
वही नहीं हूं।
आज जो आया है, कोई सौर है।
एक बार मेरी
तरफ देखो।
और
उन्होंने
पांचों ने आंख
उठाकर बुद्ध
की तरफ देखा।
पहले एक उनके
चरणों में
गिरा, फिर
दूसरा; फिर
पांचों उनके
चरणों में
गिरे। क्षमा
मायने लगे कि
हमें क्षमा कर
दें। हमने तो
सोचा कि भ्रष्ट
गौतम आ रहा
है। लेकिन हम
देख सकते हैं
कि सब
रूपांतरित हो
गया है।
ज्योति का उदय
हुआ है। तुम
प्रकाशित हो
गए। कैसे
प्रकाशित हो
गए? हमें
राह बताओ।
बुद्ध
ने कहा इसीलिए
आया हूं।
यह
घटना सारनाथ
जाते हुए
रास्ते पर
घटी।
भगवान
सर्वप्रथम
ऋषिपत्तन
मृगदाय में
पंचवर्गीय
भिक्षुओं को
उपदेश देने के
लिए उरुवेला
से काशी की ओर
आ रहे थे।
मार्ग में
उन्हें एक उपक
आजीवक मिला।
आजीवक
एक संप्रदाय
था उस समय का, जो
अब विनष्ट हो
गया है। बुद्ध
'और जैन
दोनों
संप्रदाय
आजीवक
संप्रदाय से
बहुत मिलते
—जुलते हैं।
उसी की छायाएं
हैं इन पर।
उसी के
प्रतिबिंब
हैं। उसी की
ध्वनियां हैं।
आजीवक
संप्रदाय का
एक भिक्षु
मिला। उसने
बुद्ध को देखा, वह
चकित हो गया।
ऐसा आदमी कभी नहीं
देखा था। ऐसा
ज्योतिर्मय, ऐसी शुद्ध
इंद्रियां, ऐसी निर्मल
आंखें, ऐसी
निर्मल छाया,
ऐसा चारों
तरफ शांति का
वातावरण!
उसने
कहा : आवुस!
तेरी
इंद्रियां
परिशुद्ध और बड़ी
विमल हैं। तुम
किस उद्देश्य
से संन्यस्त हुए
थे?
अपना
उद्देश्य
मुझे भी बताओ।
मैं भी खोज
रहा हूं। कोन
तुम्हारे
गुरु? कोन
तुम्हारे
शास्ता? मैं
भी खोज रहा
हूं। मुझे अब
तक ठीक गुरु
नहीं मिला।
ठीक मार्ग
नहीं मिला। और
तुम किसके धर्म
को मानते हो? कोन से धर्म
में तुम्हारी
श्रद्धा है? किस शास्त्र
पर तुम्हारा
भरोसा है? तुम
किन विधियों
के अनुयायी हो?
तब
शास्ता ने
उससे कहा मेरे
आचार्य या
उपाध्याय नहीं
हैं। मैं किसी
धर्म को नहीं
मानता। मेरी
किसी शास्त्र
में श्रद्धा
नहीं है।
मैंने जो पाया
है,
अपने से
पाया है।
यह
बुद्ध का परम
संदेश है।
क्योंकि जो
मिलना है, वह
तुम्हारे
भीतर पडा है।
कोई दूसरा
थोड़े ही देने
वाला है।
हस्तांतरण
नहीं होता
सत्य का।
तुम्हारे भीतर
पड़ा है। गुरु
अगर कुछ करता
है, तो
इतना ही कि
तुम्हारे
भीतर जो पड़ा
है, उसको
ही पुकारता
है। उसे तुम
स्वयं भी
पुकार सकते
हो।
गुरु
अनिवार्य
नहीं है बुद्ध
के मार्ग पर।
तुम स्वयं न
पुकार सको, तो
उसकी जरूरत
है। तुम स्वयं
अपने को
असमर्थ पाओ, तो उसकी
जरूरत है।
अन्यथा तुम
स्वयं भी
पुकार सकते
हो। क्योंकि
खदान
तुम्हारे
भीतर है। तुम
स्वयं भी खोज
सकते हो। गुरु
तुम्हें धन
देगा नहीं, सिर्फ इतना
ही कह देगा कि
इस तरह मैंने
अपने भीतर
खोदा, इसी
तरह तुम भी
अपने भीतर खोद
लो।
मगर
जो है, तुम्हारे
भीतर है। जो
है, तुम्हारे
स्वभाव में
छिपा है। जो
है, उसे
तुम लेकर ही
आए हो, वह
तुम्हारा
जन्मसिद्ध, स्वभावसिद्ध
अधिकार है।
इसलिए
बुद्ध ने कहा
कि मेरा कोई
गुरु नहीं है।
मैंने गुरुओं
के द्वारा
नहीं पाया।
मेरा कोई आचार्य
नहीं, मेरा
कोई उपाध्याय
नहीं। ऐसा
नहीं कि मैं
गुरुओं के पास
नहीं रहा। रहा,
लेकिन वहां
मुझे कुछ मिला
नहीं। और जब
मिला, तब
मैं किसी गुरु
के पास नहीं
था।
और
जो मैंने पाया
है,
वह कुछ ऐसा
है कि अब मैं
तुमसे कह सकता
हूं कि उसे
किसी और के
पास लेने जाने
की जरूरत नहीं
है। अपने भीतर
ही चले जाओ, तो मिल जाए।
शास्त्रों
में नहीं है, स्वयं में
है। शब्दों और
सिद्धांतों
में नहीं है, तुम्हारी
चेतना में बसा
है। तुम मंदिर
हो, परमात्मा
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
'मैं सभी को
परास्त करने
वाला हूं।'
बुद्ध
ने कहा, मेरे
जितने शत्रु
थे, वे सब
गए।
'मैं सब
जानता हूं।'
जो
जानने योग्य
है,
वह मुझे
दिखायी पड़ गया
है।
'मैं सभी
धर्मों—तृष्णा
इत्यादि—से
मुक्त हो गया
हूं। अलिप्त
हो गया हूं।
सर्व त्यागी
हूं।’
सर्वत्यागी
का अर्थ होता
है,
मैंने
त्याग को भी
त्याग दिया
है। मैं सब
धर्मों से
मुक्त हो गया
हूं। मैंने
जगत की तृष्णा
तो छोड़ ही दी
है; मोक्ष
की तृष्णा भी
छोड़ दी है।
मेरा कोई
उद्देश्य ही
नहीं है। मैं
अब बिलकुल
निरुद्देश्य
हूं जैसे फूल
खिलता है
निरुद्देश्य।
जैसे सुबह
सूरज निकलता
है
निरुद्देश्य,
ऐसा मैं
निरुद्देश्य
हूं। मेरा कोई
लक्ष्य नहीं
है। सब लक्ष्य
गए। सब
उद्देश्य गए।
सब भविष्य
गया। मेरी कोई
वासना नहीं
है—मोक्ष की
भी नहीं है।
'मैं तृष्णा
के नाश से
मुक्त हूं।'
यह
बड़ा अजीब वचन
है। बुद्ध यह
नहीं कहते कि
मैं तृष्णा से
मुक्त हूं।
बुद्ध कहते
हैं,
मैं तृष्णा
से तो मुक्त
हूं ही, मैं
तृष्णा के गश
से भी मुक्त
हूं। तृष्णा
तो गयी ही, अतृष्णा
भी गयी।
नहीं
तो उलटा हो
जाता है।
संसार पकड़े थे
पहले; फिर
संसार तो छोड़
दिया, फिर
संन्यास पकड़
लिया। मगर पकड़
कायम रही! धन पकड़े
थे पहले। धन
तो छोड़ दिया, अब निर्धनता
पकड़ ली! मगर
पकड़ जारी रही।
बुद्ध
कहते हैं परम
त्याग तो तब
है,
जब त्याग भी
छूट जाए। परम
संन्यास तो तब
है, जब
संसार तो छूटे
ही छूटे, संन्यास
से भी मुक्ति
हो जाए। नहीं
तो वह भी पकड़
बन जाएगा। तो
कुछ फायदा न
हुआ। मुट्ठी
पूरी खुल जानी
चाहिए।
'मैं
तृष्णा से
मुक्त, तृष्णा
के नाश से
मुक्त हूं।
मैं स्वयं ही
विमल ज्ञान को
जानकर जागा।
मैं किसको
गुरु कहूं?'
और
इतना ही नहीं
वे कहते कि
मैं किसको
गुरु कहूं। वे
कहते हैं, 'मैं
किसको शिष्य
सिखाऊं?'
न
मैंने किसी से
पाया! मैंने
अपने भीतर
पाया। तो जो
मेरे पास
आएंगे, वे भी
अपने भीतर ही
पाएंगे।
शिष्य कहने से
क्या सार है!
इसलिए
बुद्ध ने कहा.
मैं मित्र
हूं। न तो
गुरु तुम्हारा; न
तुम मेरे
शिष्य। मैं
मित्र हूं। और
बुद्ध ने कहा
कि मेरा जो
भविष्य में
पुन: आगमन
होगा, मेरा
नाम
होगा—मैत्रेय।
तब मैं
परिपूर्ण मित्र
रूप में प्रगट
होऊंगा।
ओशो
एस धम्मों
सनंतनो
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